समकालीन भारत किसानो का प्रतिरोध(आन्दोलन) और राजनीतिक प्रतिनिधित्व

चन्दन कुमार,
राजनीतीक विज्ञान विभाग,
दिल्ली विश्वविद्यालय

 

सारांश

इस आलेख में समकालीन भारत में निम्नवर्गीय प्रसंग के संदर्भ में किसानो का प्रतिरोध और प्रतिनिधित्व पर चर्चा करेगे| निम्नवर्गीय प्रसंग क्या है? भारत में किसानो को निम्नवर्गीय श्रेणी के रूप में कैसे समझ सकते है? प्रतिरोध और प्रतिनिधित्व से क्या तात्पर्य है? किसान जो भारत में उपनिवेशिक काल से लेकर अब तक शासित और शोषित रहा है जिससे किसानो में असंतोष होने के कारण से प्रतिरोध की भावना उत्पन्न हुआ है| जो जमींदार,साहूकार और सरकार के खिलाफ प्रतिरोध किये है| किसानो का औपनिवेशिक और उतर औपनिवेशिक काल में प्रतिरोध और प्रतिनिधित्व का क्या स्वरूप रहा है? जो किसानो में एकजुटता कायम करने में अहम भूमिका निभाया है| इसको मुख्य आंदोलनों के माध्यम से समझने का प्रयत्न करेगे| समकालीन भारत में किसानो का प्रतिरोध सरकार के विरोध नजर आता है| परन्तु इस प्रतिरोध में पूर्ण रूप से एकजुटता नजर नही आता है इसका क्या कारण है? NGO और राजनीतिक दलों के नेतृत्व में ही किसानो का प्रतिरोध मुख्य रूप से उभर कर आ रहा है जो किसानो का राजनीतिक प्रतिनिधित्व करने का प्रयास कर रहे है| किसान भारत में एक बहुसंख्यक वर्ग होने के बाद भी भारतीय लोकतंत्र में अपनी भूमिका को क्यों सुनिश्चित नही कर पा रहे है? आज भारत में किसानो के प्रतिरोध का मुख्य कारण भूमि-अधिग्रहण और भूमि सुधार अधिनियम है|

परिचय

निम्नवर्गीय शब्द का सबसे पहले प्रयोग ग्रामसी ने अपने पुस्तक (prison notebooks) में किया था जिसको राजनीतिक और समाज से जोड़कर दिखने का प्रयास किया है| इसके बाद इतिहासकार भी अपने आप को इस समूह से जोड़कर अध्ययन करने लगे| 1980 के दश्क में निम्नवर्गीय अध्ययन का समूह भारत में उभर कर आता है|[1] इस समूह ने भारत के इतिहास और समाज को पुनः अध्ययन करके निम्नवर्गीय मुद्दों को उजागर किया| निम्नवर्गीय प्रसंग के संदर्भ में अलग अलग परिभाषा दिया गया है| निम्नवर्ग के रूप में दास, किसान, मजदूर, शासित और शोषित लोगो को शामिल किया गया है| जिनको सेवा, जमीन, पूंजी के आधार पर समाज में निम्नवर्ग माना गया है| जिससे भारत के किसानो को भी निम्नवर्ग के रूप में समझा गया है| क्योकि भारत में औपनिवेशिक काल से लेकर अब तक कृषि उपेक्षित राहा है| सरकार उधोगो को ज्यादा महत्व दिया है| किसानो के एकजुटता को कायम करने के लिए औपनिवेशिक काल से लेकर समकालीन भारत में भी अभिजात, धनी किसानो, के नेतृत्व में ही प्रतिरोध और प्रतिनिधित्व हुआ है|[2] सामाजिक सुरक्षा को कायम करने के लिए भू-सूधार को आजादी के बाद से सही रूप से लागु करने का प्रयास किया जा रहा है| अपने आजीवका को सुनिश्चित करने के लिए किसान जमीन बचावो, जमीन किसान का अन्य प्रकार के नारा देकर अपने प्रतिरोध को कायम कर रहे है| ये प्रतिनिधत्व क्षेत्र, जाति, धर्म, आधारित होने के कारण से सफल नही हो पा रहा है| किसानो का समस्या अलग अलग होने के कारण से भी किसान एकजुट नही हो पाते है|

निम्नवर्गीय

निम्नवर्गीय शब्द से तात्पर्य यह है की जो सता और शासन से वंचित रह जाता है|

ग्रामसी निम्नवर्गीय को समाज के निम्न तबके के लोगो के रूप में परिभाषित किया है| जिनके उपर अभिजात के द्वारा शासन किया जाता है जिनको मौलिक अधिकार और राष्ट्र के संस्कृति से वंचित रखा जाता है|[3] spivak के अनुसार उतर-औपनिवेशिक काल में निम्नवर्गीय को आवाजविहीन और राजनीतिक पिछड़ा माना जाता है[4] इस संदर्भ में आज निम्नवर्गीय का आवाज उनके प्रतिनिधियों द्वारा ही दबा दिया जाता है सिर्फ सताधारी वर्ग के आवाज के आदतन हो जाते है|

रंजित गुहा के अनुसार साउथ एशियन समाज में निम्नवर्गीय एक निम्न स्तर के समूह को माना जाता है जिसमे किसी भी जाति, वर्ग, लिंग का महत्व नही होता है| ये शासक वर्ग के लिए व्यक्ति बने रहते है| इस समाज में अभिजात वर्गीय शासन का परम्परा विधमान रहता है|[5] 1970 के दश्क में भारत में निम्नवर्गीय समूह के रूप में उसे माना गया है जो समाज में पिछड़े है जिनका समाज के किसी भी अभिकरण में सामाजिक स्थिति कायम नही है| Homi k Bhabha ने निम्नवर्गीय को समाज में दबे नस्लीय अल्पसंख्यक के रूप माना है| Boaventure de Sousa santos ने भारत में महिला, दलित, ग्रामीण, आदिवासी, आप्रवासी, मजदूर को निम्नवर्गीय माना है| इस प्रकार से इन सभी व्याख्याओ से यह स्पष्ट होता है की निम्नवर्गीय समाज में शासित और शोषित रहे है|

किसान निम्नवर्ग के रूप में

किसान मानव जाति का एक बड़ा भाग है फिर भी इनके बारे में हमारी जानकारी बहुत कम है| इस संदर्भ में यह समझ सकते है की यदि कोई अज्ञात मनुष्यों के बारे में लिखना चाहता होगा तो यह संभव ही किसान के बारे में लिखेगा| किसान उपनिवेशिक काल से लेकर उतर औपनिवेशिक काल तक शासन से वंचित रहे है| औपनिवेशिक काल में इनका शोषण किया गया इनका इतिहासिक परिपेक्ष्य पर चर्चा करे तो किसानो ने औपनिवेशिक शासन का विद्रोह किया है| किसानो ने जमीनदार, साहूकार, और सरकार के साथ राजनीतिक रूप से सम्बन्ध रखा है|[6] किसान का राज्य के विकास में इतिहासिक काल से योगदान रहा है किसानो ने जमींदार, साहूकार, सरकार को कर दिया है| किसानो को आज भी अपनी कोई पहचान नही मिल सकी है| समाज के निचले स्तर पर शोषित है| किसान ग्रामीण खेतिहर, बटाईदार, भूमिहीन किसान, सीमांत किसान, बुनकर के रूप में भारतीय समाज में निम्न वर्ग के रूप में है| भारत में 1990 के बाद किसानो के पहचान को आर्थिक नीति ने बदल दिया है| भारतीय किसान जाति, धर्म, क्षेत्र, के आधार पर विभाजित हो गये है| भारतीय कृषि अर्थव्यवस्था में अवशेष के रूप में बच गया है|[7] भारत में किसानो को वर्ण व्यवस्था से अलग जाति माना जाता है सामाजिक, आर्थिक रूप से पिछड़ा और राजनीतिक रूप से असशक्त माना गया है| ये निम्न वर्ग होने के कारण नीति निर्माण और सेवा से वंचित रह जाते है| इस प्रकार से किसानो ने अपनी भूमिका को सुनिश्चित करने के लिए औपनिवेशिक काल से लेकर समकालीन भारत में भी प्रतिरोध किया है|

प्रतिरोध

प्रतिरोध से अभिप्राय है की किसी के विरुद्ध खड़ा होना होता है| किसी के खिलाफ आवाज उठाना, वर्चस्व के खिलाफ एकजुटता, बदलाव की माँग करना होता है| राजनीतिक संदर्भ में यह बामपंथी विचार धारा माना जाता है| Edward Burke

के अनुसार “प्रगति” का होना प्रतिरोध के लिए जरूरी है|” प्रगति सामाजिक,सांस्कृतिक किसी भी रूप में हो सकती है| Arnold के अनुसार “प्रतिरोध एक नये संस्कृति के रूप में उभरा है|” कार्ल मार्क्स के अनुसार प्रतिरोध समाधान नही है यह समस्या है|” Goof Man के अनुसार संस्थाओ का अलग पहचान और स्वयं का एक पहचान कायम करने के प्रयास को प्रतिरोध कहते है| अलग अलग तरीके से प्रतिरोध को जाहिर किया जाता है| राजनीतिक प्रतिरोध, सस्कृतिक प्रतिरोध, के माध्यम से किया जाता है| प्रतिरोध में कपड़े, संगीत, नारा ये सारे सस्कृतिक प्रतिरोध है|[8] फूको के अनुसार अगर जागरूकता होगा तभी प्रतिरोध होगा| प्रतिरोध नीति निर्माण और नीति को बदलने की माँग करता है| भारत में किसानो का प्रतिरोध औपनिवेशिक काल से लेकर अभी तक विधमान है| गाँधी के अनुसार ब्रिटिशो के खिलाफ लड़ाई में प्रतिरोध का स्वरूप सत्याग्रह था “सत्य के लिए आग्रह करना” ब्रिटिश शासन को असत्य मानते थे[9] प्रतिरोध को पहचान और पहचान निर्माता के रूप में समझ सकते है| भारतीय किसानो ने जमींदार, साहूकार, सरकार के खिलाफ प्रतिरोध किया है और अपने पहचान को बनाने का प्रयास किया है| किसानो के पहचान को कायम करने के लिए राजनीतिक प्रतिनिधित्व किया गया है| जिसमे व्यक्तिगत, संगठनों, और राजनीतिक दलों का भूमिका रहा है|

राजनीतिक प्रतिनिधित्व

राजनीतिक प्रतिनिधित्व की अवधारणा व्यापक है जिसको पूर्ण रूप से व्याख्या करना संभव नही है| परन्तु कुछ विद्वान इस अवधारणा से सहमत है की प्रतिनिधित्व का तात्पर्य वर्तमान को दुबारा से बनना है| प्रतिनिधित्व वर्तमान का निर्माण करता है| राजनीतिक प्रतिनिधित्व नागरिको का आवाज, विचार, और उनके हितो को प्रस्तूत करता है| Encyclopedia ने राजनीतिक प्रतिनिधित्व का मुख्य लक्ष्य पहचान को चिन्हित करना, इसका सरोकार औपचारिक और अनऔपचारिक माना है| Andrew Rehfeld का मानना है की प्रतिनिधित्व को जनता के द्वारा स्वीकृति प्राप्त होता है तब वह प्रतिनिधि बनता है|[10] Pitkin के अनुसार लोकतांत्रिक व्यवस्था में प्रतिनिधित्व के कार्य को नकारा जा सकता है| “प्रतिनिधि” प्रतिनिधित्व के लिए खड़ा होता है| जो जिसका प्रतिनिधित्व करेगा उनका ही हित प्रस्तूत करेगा| राजनीतिक प्रतिनिधित्व लोकतंत्र और जनता के लिए होता है| भारत में किसानो का औपनिवेशिक काल में जमींदार, साहूकार और राजनीतिक दलों ने प्रतिनिधित्व किया था अभिजातो ने किसानो को एकजुट करने में अहम् भूमिका निभाया था[11] राष्ट्रवादियो की द्वारा राष्ट्र की भावना को पुरे भारत में किसानो और देशी पूजिपंतीओं के माध्यम से फैलाया जा रहा था[12] आजादी के बाद इसमें गैर सामाजिक संघठनो का भूमिका बढ़ गया है| औपनिवेशिक काल से लेकर अभी तक के किसानो के प्रतिरोध और राजनीतिक प्रतिनिधित्व को किसान आन्दोलनों के माध्यम से समझ सकते है|

औपनिवेशिक काल में किसान आन्दोलन

भारत में किसान जमीन को माँ मानते है| भारत में जब औपनिवेशिक शासन का आरम्भ होता है तो ब्रिटिशो ने भारतीय किसानो पर कर प्रणाली लगा दिया| कर प्रणाली से असंतुष्ट किसानो ने औपनिवेशिक शासन के खिलाफ विद्रोह किया| भारत में बहुत से किसान विद्रोह हुआ| जिसका अलग अलग कारण था ये संघर्ष हिंसात्मक रूप में भी हुआ| ब्रिटिशो ने भारतीय किसानो के मजदूरी को बदल दिया|

किसान अपने बहुत सारे अधिकार खो दिये| किसानो पर कर चुकाने का दबाब बनाये जाने लगा इस कारण से किसान साहूकार से कर्ज लेना शुरू कर दिया| कर्ज नही चुकाने पर इनको अपना जमीन साहूकारों से बेच देना पड़ता था इस कारण कुछ किसान बटाईदार, मजदूर बन गये| कुछ किसानो को घर छोड़ कर जाना पड़ा|[13]

19वी सदी के मध्य में भारत में एक नये प्रकार का किसान संघर्ष का आरम्भ होता है| ये आन्दोलन के रूप में उभरता है जिसमे किसान धार्मिक भेदभाव मिटा कर एकजुटता को बढवा देते है| आदिवासी विद्रोह (1855-56) जो कर और साहूकार के विरोध हुआ था इसमें पुलिस और साहूकार का विरोध हुआ था Indigo Revolt 1859 में बंगाल में हुआ था यह विद्रोह नील की खेती और जमीनदारो के कर के विरूद्ध हुआ था मराठा किसान विद्रोंह मारवाड़ी और गुजरती साहूकारों के खिलाफ हुआ था गाँधी और किसान सत्याग्रह 1917 में चंपारण में जमीनदारो को एकजुट किया| तीन कठिया प्रणाली के खिलाफ आवाज उठाया गया| बटाईदारो ने 1920 में उतर प्रदेश में संघर्ष आरम्भ कर दिया| 1920-30 में किसान आन्दोलन पुरे भारत में व्यापक रूप से उभर गया| किसानो को संगठित करने में किसान सभा की भूमिका अहम् था

तेलंगना किसान आन्दोलन में किसानो का नारा था की “जमीन खेतिहर का”| तेलंगना में किसान सभा के माध्यम से किसान आन्दोलन ने जमीनदारो को प्रभावित किया| शेखावती किसान आन्दोलन राजस्थान में किसानो ने राजपूतो के खिलाफ किया जागीरदारी प्रथा के माध्यम से इनका शोषण किया जाता था तेभागा किसान आन्दोलन(1946) में किसानो ने जमीनदारो के खिलाफ क्रांति आरम्भ कर दिया इनका माँग था की एक तिहाई अनाज जमींदार को और दो तिहाई किसान को मिलना चाहिए| इसमें हिन्दू और मुस्लिम दोनों धर्म के किसानो ने मिलकर अपना माँग किया| महिलाओं का अहम् भूमिका रहा था|

इस प्रकार से औपनिवेशिक काल में किसान आन्दोलन हुआ जिसका मुख्य कारण जमींदारी प्रथा, साहूकार, और कर प्रणाली था किसान आन्दोलन पुरे देश में एक साथ नही होने का कारण किसानो में जागरूकता का कमी था किसान बिना बहार के नेतृत्व के एकजुट नही हो सकते है| किसानो को औपनिवेशिक काल में एकजुट करने में किसान सभाओ और राजनीतिक दलों, व्यक्तिगत प्रभाव का भूमिका था[14] 1922 में किसान संघ, मरवार किसान सभा 1940 में किसानो का प्रतिनिधित्व किये कुछ किसान सभाओ का निर्माण राजनीतिक दलों ने किया अखिल भारतीय किसान कांग्रेस 1936 का गठन किया गया| इस प्रकार किसानो का एक नया पहचान उभर कर आता है| जो राजनीतिक प्रतिनिधित्व के कारण इनके हित को महत्व दिया जाने लगा| किसानो में व्यापक एकजुटता कायम हुआ जिसके कारण किसान आन्दोलनों में सहभागिता, हड़ताल, चुनाव प्रचार, जबरदस्ती जमीन पर कब्ज़ा और पुलिस और जमीनदारो के खिलाफ विरोध नजर आने लगा जो एक नये प्रकार के आन्दोलन के स्वरूप और राजनीतिक प्रतिनिधित्व की ओर अग्रसर होने लगा|[15]

आजादी के बाद में किसान आन्दोलन

किसान आन्दोलन के स्वरूप में बदलाव आ गया है| आजादी के बाद के आन्दोलनों में प्रतिरोध और प्रतिनिधित्व में नये सामूहिक हित, नये एकजुट रणनीति के साथ किसान अपने आजीवका को कायम करने के लिए प्रभुत्व के खिलाफ प्रतिरोध किया है| इस संदर्भ में नक्सलवाड़ी आन्दोलन को समझ सकते है| यह आन्दोलन 1960 के अंतिम दश्क में बंगाल में हुआ था जिसमे किसानो ने यह नारा दिया की जमीन जोतदार का होना चाहिए| बधुआ मजदूरों को जमीन का हक़ होना चाहिए जिसमे CPI ने किसानो का प्रतिनिधित्व किया था[16]

इस प्रकार भारत में किसान आन्दोलन भावनाओं, विचारधाराओं के आधार पर नही होकर मूल्य और मुनाफा के आधार पर सामूहिक कार्यवाही हो गया| जिसका लक्ष्य राजनीतिक भागीदारी और वस्तु हित का पाना हो गया| आजादी के बाद भारत में भूमिहीनता गरीब किसानो के लिए समस्या बन गया इसके खिलाफ 1960 के दश्क में आन्दोलन आरम्भ हो गया इसके लिए 1971 में राष्ट्रीय स्तर पर भूमि- सुधार चलाया गया परन्तु इसका प्रभाव पुरे भारत में एक समान नही रहा था परन्तु गरीब किसानो में आर्थिक रूप से सक्षमता आया जिससे भारतीय किसानो का एक अलग पहचान और प्रतिरोध उभर कर आता है| गरीब किसान राजनीतिक पार्टियों के साथ जुड़ने लगे जिसके कारण राजनीतिक पार्टियों ने अपने आप को किसानो के हित और पहचान आधारित पार्टी मानाने लगी| इसमें जाति का प्रधानता ना होकर वर्ग का प्रधानता था शिक्षा और संचार के बढ़ने के कारण किसानो का पहचान दिन प्रतिदिन बदलता जा रहा है| उदारीकरण और भूमंडलीकरण ने किसानो पर अलग तरीके का प्रभाव डाला है जिसके कारण समकलीन भारत में किसानो के प्रतिरोध और प्रतिनिधित्व में बदलाव आ गया है|

समकालीन भारत में किसानो का प्रतिरोध और राजनीतिक प्रतिनिधित्व

1990 के बाद किसानो के पहचान को आर्थिक नीति ने बदल दिया है| और किसानो के प्रतिरोध के स्वरूप में भी बदलाव आया है| 1980 के दश्क में कमांड पॉलिटिक्स का उदय होता है| ये बहुसंख्यक वर्ग के रूप में उभरता है| जिसके कारण प्रत्येक राजनीतिक दल इसको महत्व देता है| जिसके कारण किसान वर्ग एक नये शक्ति के रूप में उभरता है|[17]

परन्तु भारत में जातिय और धार्मिक महत्व चुनावी राजनीती में बढ़ गया| इससे एक नये सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर पार्टिया उभर कर आती है जो किसानो को चुनौती देती है| सामाजिक और राजनीतिक महत्व ग्रामीण समाज में बढ़ गया| 1980 के दश्क में ग्रामीण राजनीतिक का राष्ट्रीयकरण एक अलग तरह के एकजुटता से आरम्भ होता है| Dec 1978 चरण सिंह और किसानो ने दिल्ली में प्रदर्शन किया था यह क्रांति जमीनदारो और भूमिहीनों के लिए नही था यह उस परिवर्तन का प्रतिरोध कर रहे थे जो सरकार ने मूल्य वृद्धि, कर्ज प्रणाली और शहर गाँव के लिए नीति निमार्ण में जो भेदभाव किये गये थे| शरद जोसी शेटकरी संगठन माहाराष्ट्र में और महिंद्र सिंह टिकैत, भारतीय किसान संघ पंजाब और उतरी उतर प्रदेश में नेतृत्व कर रहे थे| इनको छोटे और बटाईदार किसानो का समर्थन प्राप्त था ये अपने राजनीति को गैर-पार्टी के आधार पर कायम किये और 1980 के राजनीतिक को प्रभावित किया| सभी पार्टियों ने इनके माँगो के आधार पर नीतियों का निर्माण किया 1980 के अंतिम दश्क में ग्रामीण भारत ने अभूतपूर्व राजनीतिक पहचान और राजनीतिक प्रभाव को स्थापित किया| परन्तु मडल, मंदिर, मार्केट ने ग्रामीण भारत के किसानो के पहचान को कम कर दिया | आज भारतीय किसानो में एकजुटता की कमी आ गया है किसानो को बहुत सारे पहचान से जोड़ दिया गया है| जिसमे जाति, धर्म, क्षेत्र, का महत्व हो गया है| अब किसान राजनीतिक प्रतिनिधित्व और प्रतिरोध के लिए अलग अलग विभाजित हो गये है| आज के समय में किसान आन्दोलन आश्चर्य बन गया है| आज के समय में आन्दोलन का नेतृत्व बड़े किसान कर रहे है| जिनका अपना हित है छोटे किसान इनका समर्थन आर्थिक हित के लिए करते है| राजनीतिक दलों ने किसानो को जाति और धर्म में बाँट कर कमजोर कर दिया है|[18] आज पूजीवाद ने भारतीय कृषि के सरंचना को बदल दिया है| आज कृषि प्रधान और कृषि मूल्य आधारित मुद्दा बनकर उभरा है|[19] गरीब किसानो का जमीन राष्ट्रहित में छीन लिया जा रहा है| पिछले दो दश्को में शहरीकरण और औधोगीकरण के कारण देश में बहुत सारे सामजिक प्रतिरोध हुए है| भारत के राज्यों में SEZ को लेकर प्रतिरोध हुआ है| क्योकि भारत एक कृषि प्रधान देश होने कारण यहाँ पर जमीन लेना बहुत बड़े प्रतिरोध को जन्म देना है| नक्सलवाद भी एक प्रतिरोध के रूप में सरकार के सामने बहुत बड़ी चुनौती बनकर उभरा है| जो अपना राजनीतिक प्रतिनिधित्व का माँग कर रहे है|

परन्तु विकास किसी भी कीमत पर करना भारत सरकार का प्राथिमिकता बन गया है| जिसके कारण बहुत सारे किसानो ने जमीन खो दिया है कर्ज के बोझ में दबकर बहुत सारे किसानो ने आत्म हत्या कर लिया है|[20] जिसको स्वयं प्रतिरोध माना जा सकता है| 1997-2008 तक 2 लाख किसानो ने आत्म हत्या किया है| भारत में कई राज्यों में भूमि-अधिग्रहण के खिलाफ प्रतिरोध चल रहा है| जिसमे NGO की भूमिका महत्वपूर्ण है| आदिवासी आन्दोलन कलिग नगर में टाटा स्टील के खिलाफ हुआ है| नियमगिरि का मुद्दा पर किसानो ने एकजुटता कायम करके इसका विरोध किया| गुजरात में जमीन अधिकार आन्दोलन, केरला में कोकाकोला के खिलाफ आदिवासी और किसानो ने प्रतिरोध किया है| Dec 2009 में SEZ के खिलाफ अखिल भारतीय सहभागी आन्दोलन हुआ है| भू-सूधार को पुनः से लागु करने की माँग हो रही है| आंध्रप्रदेश में दलित महिलायों को जमीन देना, केरला में शिक्षा के अधिकार के समान जमीन का भी अधिकार को लागु करने की माँग किया गया है|[21] 2012 में 45000 हजार भूमिहीन आदिवासी दिल्ली पहुच कर भू-सुधार को सही से लागु करने की माँग किये| पंजाब सरकार के ठेके आधारित कृषि के खिलाफ किसानो का प्रतिरोध हुआ है|[22]

इस प्रकार से समकालीन भारत में किसानो का प्रतिरोध सरकार के खिलाफ हो गया सरकार कृषि के क्षेत्र में कम निवेश कर रही है| किसान कृषि और जमीन को बचने के लिए सरकार से प्रतिरोध कर रहे है| परन्तु आज के समय में किसानो के प्रतिरोध का राजनीतिक प्रतिनिधित्व नही हो पा रहा है| भू-सूधार का महत्व बढ़ता जा रहा है| क्योकि इससे रष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा के साथ-साथ किसानो के आर्थिक और सामजिक स्तर में भी बदलाव किया जा सकता है| परन्तु इस नीति का क्रियान्वयन सही तरीके से नही हो पा रहा है| गरीब किसानो के प्रतिरोध को कम करने के लिए सरकार ने एक अलग नीति के तहत बाट दिया है| जिसमे BPL यानि छोटे किसान, सीमांत किसानो को आनाज देकर कुछ आर्थिक सहायता देकर प्रतिरोध कम कर दिया है| ये किसान जाति आधारित राजनीतिक प्रतिनिधित्व का समर्थन करते है| इसके कारण किसानो में एकजुटता नही हो पा रहा है| जब तक एकजुटता नही होगा तब तक प्रतिरोध और राजनीतक प्रतिनिधित्व संभव नही है| भारत में अलग अलग जाति के किसान सरकार के विरोध में रेल रोको, संगठन और पार्टी आधारित किसान रैली कर रहे है जो बहुत हद तक सफल नही हो पा रहा है|

निष्कर्ष:

भारत कृषि प्रधान देश होने के कारण यहाँ जमीन का महत्व है इस जमीन से अर्थव्यवस्था को मजबूत किया जाता है| औपनिवेशिक काल में जिस तरीके से किसानो पर कर लगाया गया और उनके जमीन जमीनदारो और साहूकारों के द्वारा गलत तरीके हड़प लिया गया| इससे किसानो की आजीविका खत्म हो गया| जिसके कारण किसानो ने प्रतिरोध करना शुरू कर दिया| औपनिवेशिक काल में कुछ किसान विद्रोह सफल रहे और कुछ असफल भी हुआ| जब किसान विद्रोह को राजनीतिक प्रतिनिधित्व मिला तो यह मजबूत हुआ और औपनिवेशिक शासन का खिलाफ किया|

परन्तु आजादी के बाद किसानो का प्रतिरोध सरकार के खिलाफ अन्य मुद्दों पर होने लगा| किसानो को एकजुट करने में राजनीतिक पार्टियों और संगठनों ने अहम् भूमिका निभाया| भारत में लोकतंत्र होने के कारण किसानो को आजादी के बाद एक वर्ग के रूप में महत्व दिया गया| इनके हित में नीतियों का निर्माण किया गया| किसान आन्दोलन को अभिजातो ने नेतृत्व प्रदान किया| 20 वी सदी में सामाजिक सरंचना बदलने के कारण किसान आन्दोलन में भी बदलाव आता है| आरक्षण और बाजार ने किसानो के पहचान को बदल दिया है| आज के समाज में किसानो का पहचान पहले जाति से जुड़ गया है फिर वे किसान है| दीपांकर गुप्ता के अनुसार “किसान” किसान नही बनना चाहता है जिससे किसानो का प्रतिरोध और प्रतिनिधित्व कम हो रहा है| अगर पहले अकाल पड़ता था तो किसान साहूकार और जमीनदारो के खिलाफ आन्दोलन करते थे परन्तु सूखा के कारण हो रहे भूखमरी और गरीबी का प्रतिरोध नही किया जाता है| क्योंकी बाजार और सरकार ने किसानो को अलग अलग हितो में विभाजित कर दिया है| जिससे किसान एकजुट नही हो पा रहा है| परन्तु फिर से राजनीतिक पार्टिया और सामाजिक संगठन किसानो से जुड़ने का प्रयास कर रही है| जिसके कारण किसानो का पहचान आज के समाज में विधमान है|

 

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