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कविता

कविता “प्रवास”

जैसे चलती यह पुरवाई,                                   मै तो बस ऐसे ही चला था, 

पतझड़

कोकिला की कूक सूनी हूक अंतस् गढ़ बना है। भाव निर्जन राग नीरव और मन  पतझड़ बना है॥

अजन्मा प्रतिकार

कुंठित मन का अधार है बेकारी, भुखमरी,भ्रष्टाचार और अन्याय तथा शोषण का फैला हुआ साम्राज्य.

सच की जान निकल जाती है

इस तरह बातों की भीड़ में सच्ची बात खो जाती है

हे अर्जुन…

हे अर्जुन उठा गांडीव पोंछ दे मानवता के अश्रु से भींगे नयन

सावन की प्रथम फुहार

सुनी आज पपिहे की बोली , कहां चली मंडुकों की टोली? क्यों हुआ चातक भाव विह्वल, क्यों मुसकाई वसुंधरा मंद- मंद?

मैं मरघट का बूढ़ा बरगद:चन्दन

दूनिया भर की खुशियाँ भोगे…. चार पीढ़ियाँ आगे देखे, चार पीढ़ियाँ पीछे देखे…. कई-कई सालों से हर इंद्रिय को भोगे…. जीवन से उकताये लोगों का आना….

कविता- नींद

कविता- नींद - डॉ. ऋचा त्रिवेदी

स्त्रियों पर कविताएँ: सुशांत सुप्रिय

कविता- स्त्रियों पर कविताएँ: सुशांत सुप्रिय

मरघट लाशों से पट गया-प्रियंका पांडेय त्रिपाठी

kavita- जो कल तक थे अपने, वे लावारिश लाश हो गए। कुछ नदी के किनारे पड़े, तो कुछ नदी में तैर रहे।।
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