दर्द दिया है गोपालदास नीरज
1. दर्द दिया है
दर्द दिया है, अश्रु स्नेह है, बाती बैरिन श्वास है,
जल-जलकर बुझ जाऊँ, मेरा बस इतना इतिहास है !
मैं ज्वाला का ज्योति-काव्य
चिनगारी जिसकी भाषा,
किसी निठुर की एक फूँक का
हूँ बस खेल-तमाशा
पग-तल लेटी निशा, भाल पर
बैठी ऊषा गोरी,
एक जलन से बाँध रखी है
साँझ-सुबह की डोरी
सोये चाँद-सितारे, भू-नभ, दिशि-दिशि स्वप्न-मगन है
पी-पीकर निज आग जग रही केवल मेरी प्यास है !
जल-जलकर बुझ जाऊँ, मेरा बस इतना इतिहास है !!
विश्व न हो पथ – भ्रष्ट इसलिए
तन – मन आग लगाई,
प्रेम न पकड़े बाँह शलभ की
खुद ही चिता जलाई
रोम-रोम से यज्ञ रचाया
आहुति दी जीवन की,
फिर भी जब मैं बुझा
न कोई आँख बरसने आई
किसे दिखाऊँ दहन-दाह, किस अंचल में सो जाऊँ
पास बहुत है पतझर मुझसे, दूर बहुत मधुमास है !
जल-जलकर बुझ जाऊँ, मेरा बस इतना इतिहास है !!
यह शलभों का प्यार, किसी
के नयनों की यह छाया,
केवल तब तक है, जब तक
बस एक न झोंका आया
बुझते ही यह लौ, चुकते ही
यह सनेह, यह बाती
सृष्टि मुझे भूलेगी जैसे
तुमने मुझे भुलाया
बुझे दिये का मोल नहीं कुछ क्यों मिट्टी के घर में?
सोच-सोच रो रहा गगन, औ’ धरती पडी उदास है!
जल-जलकर बुझ जाऊँ, मेरा बस इतना इतिहास है !!
सीनाज़ोरी हवा कर रही
है नाराज़ अंधेरा,
इतना तो जल चुका मगर
है अब भी दूर सवेरा
तिल-तिल घुलती देह, रिस
रहा बूँद-बूँद जीवन-घट,
कुछ क्षण के ही लिए और है
अपना रैन – बसेरा
यद्यपि हूँ लाचार सभी विधि निठुर नियति के आगे
फिर भी दुनिया को सूरज दे जाने की अभिलाष है !
जल-जलकर बुझ जाऊँ, मेरा बस इतना इतिहास है !!
मुझे लगा है शाप, न जब तक
रात प्रात बन जाये,
तब तक द्वार-द्वार मेरी लौ
दीपक – राग सुनाये
जब तक खुलती नहीं बाग़ की
पलकें फूलों वाली
तब तक पात-पात पर मेरी
किरन सितार बजाये
आये-जाये साँस कि चाहे रोये-गाये पीड़ा
मैं जागूँगा जब तक आती धूप न सबके पास है !
जल-जलकर बुझ जाऊँ, मेरा बस इतना इतिहास है !!
2. मेरा गीत दिया बन जाये
मेरा गीत दिया बन जाये
अंधियारा जिससे शरमाये,
उजियारा जिसको ललचाये,
ऐसा दे दो दर्द मुझे तुम
मेरा गीत दिया बन जाये!
इतने छलको अश्रु थके हर
राहगीर के चरण धो सकूं,
इतना निर्धन करो कि हर
दरवाजे पर सर्वस्व खो सकूं
ऐसी पीर भरो प्राणों में
नींद न आये जनम-जनम तक,
इतनी सुध-बुध हरो कि
सांवरिया खुद बांसुरिया बन जायें!
ऐसा दे दो दर्द मुझे तुम
मेरा गीत दिया बन जाये!!
घटे न जब अंधियार, करे
तब जलकर मेरी चिता उजेला,
पहला शव मेरा हो जब
निकले मिटने वालों का मेला
पहले मेरा कफन पताका
बन फहरे जब क्रान्ति पुकारे,
पहले मेरा प्यार उठे जब
असमय मृत्यु प्रिया बन जाये!
ऐसा दे दो दर्द मुझे तुम
मेरा गीत दिया बन जाये!!
मुरझा न पाये फसल न कोई
ऐसी खाद बने इस तन की,
किसी न घर दीपक बुझ पाये
ऐसी जलन जले इस मन की
भूखी सोये रात न कोई
प्यासी जागे सुबह न कोई,
स्वर बरसे सावन आ जाये
रक्त गिरे, गेहूँउग आये!
ऐसा दे दो दर्द मुझे तुम
मेरा गीत दिया बन जाये!!
बहे पसीना जहाँ, वहाँ
हरयाने लगे नई हरियाली,
गीत जहाँ गा आय, वहाँ
छा जाय सूरज की उजियाली
हँस दे मेरा प्यार जहाँ
मुसका दे मेरी मानव-ममता
चन्दन हर मिट्टी हो जाय
नन्दन हर बगिया बन जाये।
ऐसा दे दो दर्द मुझे तुम
मेरा गीत दिया बन जाये!!
उनकी लाठी बने लेखनी
जो डगमगा रहे राहों पर,
हृदय बने उनका सिंघासन
देश उठाये जो बाहों पर
श्रम के कारण चूम आई
वह धूल करे मस्तक का टीका,
काव्य बने वह कर्म, कल्पना-
से जो पूर्व क्रिया बन जाये!
ऐसा दे दो दर्द मुझे तुम
मेरा गीत दिया बन जाये!!
मुझे शाप लग जाये, न दौङूं
जो असहाय पुकारों पर मैं,
आँखे ही बुझ जायें, बेबसी
देखूँ अगर बहारों पर मैं
टूटें मेरे हाथ न यदि यह
उठा सकें गिरने वालों को
मेरा गाना पाप अगर
मेरे होते मानव मर जाये!
ऐसा दे दो दर्द मुझे तुम
मेरा गीत दिया बन जाये!!
3. मस्तक पर आकाश उठाये
मस्तक पर आकाश उठाये, धरती बाँधे पाँवों से!
तुम निकलो जिन गाँवों से, सूरज निकले उन गाँवों से!!
चन्दनवाली सांस तुम्हारी, कुन्दनवाली काया है,
बादलवाली धूप उजाली, पीपलवाली छाया है,
सावन-नैना मधुॠतु-बैना, भादों-कुन्तल केशा तुम,
सुबह-दुपहरी, शमा-सुनहरी, सभी तुम्हारी माया है,
उजड़ी रातोंवाला काजल, बिछुड़े नयनोंवाला जल
सुनो तुम्हीं को बुला रहे सब उन अजनबी चिताओं से !
तुम निकलो जिन गाँवों से, सूरज निकले उन गाँवों से!!
पडें तुम्हारे पाँव जहाँ, हो तीरथ वहाँ सवेरे का,
खुले तुम्हारा द्वार जिस समय, घूँघट खुले उजेरे का,
छू लो तुम जो दीप सितारा बन जाये जग का प्यारा,
पूनम का दर्पन हो जाये काला देश अंधेरे का,
किरनों की करधनी पहन धरती सोलह सिंगार करे
तुम जब अपनी धूप उड़ाओ, उड़ती हुई हवाओं से ।
तुम निकलो जिन गाँवों से, सूरज निकले उन गाँवों से!!
तुम जब दो आवाज़ पहाडों की बोली मिट्टी बोले,
तुम जब छेड़ो तान, चाँदनी घट-घट में चन्दा घोले,
तुम जब हो नाराज़ ध्वस्त हो जाए रूढ़ि, पुरातनता,
तुम जब हँस दो, प्राण ! धरा के लिए स्वर्ग का मन डोले,
बजे तुम्हारी पायल जिस दम सूने में, वीराने में
हँसती हुई बहारें बरसें रोती हुई घटाओं से!
तुम निकलो जिन गाँवों से, सूरज निकले उन गाँवों से!!
तुम उनका श्रृंगार करो जिनका पतझरों में घर है,
तुम उनका जयकार बनो जिनका तलवारों पर सर है,
तुम उनको दो मुकुट धरा की धड़कन हैं जिनकी साँसें,
तुम उन पर जलधार झरो, जिनका अंगारों का स्वर है,
जिनका रक्त सिंदूर सुबह का, जिनका स्वेद सूर्य जग का
उनकी कीर्ति-पताका बन तुम फहरो सकल दिशाओं से!
तुम निकलो जिन गाँवों से, सूरज निकले उन गाँवों से!!
नयन तुम्हारे दीप बनें जब पूजा हो जग में श्रम की,
शीश तुम्हारा सीढ़ी हो नव जन-युग के जन-संगम की,
श्वास तुम्हारी कहे कहानी उन सब मिटने वालों की
जिनकी अर्थी देख न पायी सेज किसी भी शबनम की,
सबसे पहले रक्त तुम्हारा रवि के भाल करे टीका
जिस दिन सुर्ख सबेरा बाहर निकले सर्द गुफाओं से!
तुम निकलो जिन गाँवों से, सूरज निकले उन गाँवों से!!
4. हज़ारों साझी मेरे प्यार में
मैं उन सबका है कि नहीं कोई जिनका संसार में ।
एक नहीं, दो नहीं, हज़ारों साझी मेरे प्यार में!!
मेरा चुम्बन चाँद नहीं, सूरज का जलता भाल है,
आलिंगन में फूल न कोई, धरती का कंकाल है,
वर्तमान के लिए विकल मैं, विरही नहीं अतीत का,
नव भविष्य का नव स्वर्णोदय सपना मेरे गीत का,
किसी एक टूटे स्वर से ही मुखर न मेरी श्वास है,
राग-रागिनी बना हुआ हूँ मैं हर एक सितार में,
एक नहीं, दो नहीं, हज़ारों साझी मेरे प्यार में! !
मैं गाता हूँ नहीं किसी की प्रीति चुराने के लिए
मेरा यह तप है दुनिया का दुख पी जाने के लिए,
कल जिस राह चलेगा जग मैं उसका पहला प्रात हूँ
तुम्हें अंधेरे में दिखता हूँ पर सूरज के साथ हूँ
शब्दों के वस्त्रों में तुम पहचान न पाओगे मुझे
मैं बैठा है कफ़न लपेटे हर बागी तलवार में!
एक नहीं, दो नहीं, हज़ारों साझी मेरे प्यार में! !
जितने घर बीरान सभी वे मेरे तीरथ-धाम हैं,
बेघरबार दीप जो भी मेरे वनवासी राम हैं,
याद द्रोपदी के प्रण की है गुंथे न अब तक केश जो
गोवर्धनधारी की स्मृति वे शीश उठाये देश जो,
मेरा भी गुलाब की कलियों को मन होता है मगर-
फूल खिलाने हैं मुझको हर आंधी, हर पतझार में !
एक नहीं, दो नहीं, हज़ारों साझी मेरे प्यार में! !
मैँने रात वहाँ काटी चाँदनी जहाँ सोती नहीं,
भोर किया उस जगह, जिस जगह कभी सुबह होती नहीं,
तपी वहाँ दोपहर जहाँ है भूख खड़ी मैदान में,
साँझ हुई उस देश, जिन्दगी जहाँ बुझी खलिहान में,
या तो पार लगा दूँगा मैं इस मौसम की नाव को
या फिर बेमौसम डूबूँगा खुद गहरी मँझधार में!
एक नहीं, दो नहीं, हज़ारों साझी मेरे प्यार में! !
जिनके साथी आँधी-अंधड़, जिनकी राह पहाड़ियाँ
उन पर न्यौछावर करता हूँ मैं अपनी फुलवारियाँ
जिनके घर न दिया जलता, जिनसे प्रकाश नाराज है,
राज उन्हें सूरज पर करना मुझे सिखाना आज है,
तुम भी जाओ पानी का यह चीर बदल, आंजो नयन
अंगारों की शादी होगी सावन के त्यौहार मेँ!
एक नहीं, दो नहीं, हज़ारों साझी मेरे प्यार में! !
5. छ: रुबाइयाँ
(1)
जहाँ भी जाता हूँ वीरान नज़र आता है,
खून में डूबा हर मैदान नज़र आता है,
कैसा है वक्त जो इस दिन के उजाले में भी
नहीं इन्सान को इन्सान नज़र आता है!
(2)
चल रहे हैं जो उन्हें चलके डगर से देखो,
तैरने खालों को तट से न, लहर से देखो
देखना ही है जो इन्सान में भगवान तुम्हें
आदमी को ही आदमी की नज़र से देखो !
(3)
एक दिन में ही अमृत सारा ज़हर बन जाये,
एकदिन में ही स्वर्ग उजड़ा यह घर बन जाये,
देवता बनने-बनाने की कोशिशें जो छोड़
सिर्फ़ इन्सान ही इन्सान अगर बन जाये!
(4)
आदमी ने वक्त को ललकारा है,
आदमी ने मौत को भी मारा है,
जीते हैं आदमी ने सारे लोक,
आदमी आदमी से हारा है !
(5)
आदमी फौलाद को पी सकता है,
आदमी चट्टान को सीं सकता है,
यह तो सब ठीक, मगर प्यार बिना
आदमी कहीं भी न जी सकता है!
(6)
जाये जिस ओर ज़माना तुम उसे जाने दो,
गा रहा हो जो वक्त गीत उसे गाने दो
चाहते ही हो बनाना जो नया हिन्दोस्तान
देश की मिट्टी को उठने दो, मुस्कराने दो!
6. तुम दीवाली बनकर जग का तम दूर करो
तुम दीवाली बनकर जग का तम दूर करो,
मैं होली बनकर बिछड़े हृदय मिलाऊंगा!
सूनी है मांग निशा की चंदा उगा नहीं
हर द्वार पड़ा खामोश सवेरा रूठ गया,
है गगन विकल, आ गया सितारों का पतझर
तम ऎसा है कि उजाले का दिल टूट गया,
तुम जाओ घर-घर दीपक बनकर मुस्काओ
मैं भाल-भाल पर कुंकुम बन लग जाऊंगा!
तुम दीवाली बनकर जग का तम दूर करो,
मैं होली बनकर बिछड़े हृदय मिलाऊंगा!
कर रहा नृत्य विध्वंस, सृजन के थके चरण,
संस्कृति की इति हो रही, क्रुद्व हैं दुर्वासा,
बिक रही द्रौपदी नग्न खड़ी चौराहे पर,
पढ रहा किन्तु साहित्य सितारों की भाषा,
तुम गाकर दीपक राग जगा दो मुर्दों को
मैं जीवित को जीने का अर्थ बताऊंगा!
तुम दीवाली बनकर जग का तम दूर करो,
मैं होली बनकर बिछड़े हृदय मिलाऊंगा!
इस कदर बढ रही है बेबसी बहारों की
फूलों को मुस्काना तक मना हो गया है,
इस तरह हो रही है पशुता की पशु-क्रीड़ा
लगता है दुनिया से इन्सान खो गया है,
तुम जाओ भटकों को रास्ता बता आओ
मैं इतिहास को नये सफे दे जाऊंगा!
तुम दीवाली बनकर जग का तम दूर करो,
मैं होली बनकर बिछड़े हृदय मिलाऊंगा!
मैं देख रहा नन्दन सी चन्दन बगिया में,
रक्त के बीज फिर बोने की तैयारी है,
मैं देख रहा परिमल पराग की छाया में
उड़ कर आ बैठी फिर कोई चिन्गारी है,
पीने को यह सब आग बनो यदि तुम सावन
मैं तलवारों से मेघ-मल्हार गवाऊंगा!
तुम दीवाली बनकर जग का तम दूर करो,
मैं होली बनकर बिछड़े हृदय मिलाऊंगा!
जब खेल रही है सारी धरती लहरों से
तब कब तक तट पर अपना रहना सम्भव है!
संसार जल रहा है जब दुख की ज्वाला में
तब कैसे अपने सुख को सहना सम्भव है!
मिटते मानव और मानवता की रक्षा में
प्रिय! तुम भी मिट जाना, मैं भी मिट जाऊंगा!
तुम दीवाली बनकर जग का तम दूर करो,
मैं होली बनकर बिछड़े हृदय मिलाऊंगा!
7. दुनिया के घावों पर
दुनिया के घावों पर मरहम जो न बनें
उन गीतों का शोर मचाना पाप है!
खड़े किनारे पर ही जो हँसते हुए
सुनते रहे पुकार डूबनेवालों की,
जिनकी वाणी बनकर कीर्ति नहीं गूँजी
तूफ़ानों के गाल चूमनेवालों की,
ऐसे बैरागी-संन्यासी रागों का
द्वार-द्वार पर अलख जगाना पाप है !
दुनिया के घावों पर मरहम जो न बनें
उन गीतों का शोर मचाना पाप है!
पानी के ही ठण्डे-ठण्डे दर्पण में
रहे देखते जो जलते सूरज का तन
जिनके सर पर सेहरा बनकर नहीं सजा
सिया हुआ काँटों से लहू-लुहान कफ़न,
ऐसे सर्द गुलाबों की मुर्दा ॠतु में
बुलबुल तेरा आना-जाना पाप है!
दुनिया के घावों पर मरहम जो न बनें
उन गीतों का शोर मचाना पाप है!
जिन्हें ज्ञात यह नहीं कि गीतों की सीता
अग्नि-परीक्षा देती है अंगारों में,
है जिनको मालूम नहीं साहित्य सदा
फूल खिलाता है मुर्दा पतझारों में
स्याही के ऐसे शुभ-नाम कलंकों का
गंगा-तट पर कुम्भ नहाना पाप है ।
दुनिया के घावों पर मरहम जो न बनें
उन गीतों का शोर मचाना पाप है!
आया है तूफ़ान भयानक जब घर में
बैठे सजा रहे जो रूप-चित्रसारी,
लहरों ने जब मौन निमंत्रण भेजा है
बाँध उन्हें बैठी तब एक कली क्वांरी,
ऐसे मल्लाहों की किश्ती पर चढ़कर
मस्ती तेरा तट पा जाना पाप है !
दुनिया के घावों पर मरहम जो न बनें
उन गीतों का शोर मचाना पाप है!
कृति कवि की होती है पर कृति के पीछे
गाती है अपनी बनकर जग की पीड़ा,
रहता है चन्द्रमा नील नभ के घर में
किन्तु चाँदनी करती है भू पर क्रीड़ा,
मठ में बैठी जिसे न मठ की चिन्ता हो
उस मूरत को शीश झुकाना पाप है !
दुनिया के घावों पर मरहम जो न बनें
उन गीतों का शोर मचाना पाप है!
8. तिमिर ढलेगा
मेरे देश उदास न हो, फिर दीप जलेगा, तिमिर ढलेगा!
यह जो रात चुरा बैठी है चांद सितारों की तरुणाई,
बस तब तक कर ले मनमानी जब तक कोई किरन न आई,
खुलते ही पलकें फूलों की, बजते ही भ्रमरों की वंशी
छिन्न-भिन्न होगी यह स्याही जैसे तेज धार से काई,
तम के पांव नहीं होते, वह चलता थाम ज्योति का अंचल
मेरे प्यार निराश न हो, फिर फूल खिलेगा, सूर्य मिलेगा!
मेरे देश उदास न हो, फिर दीप जलेगा, तिमिर ढलेगा!
सिर्फ भूमिका है बहार की यह आंधी-पतझारों वाली,
किसी सुबह की ही मंजिल है रजनी बुझे सितारों वाली,
उजड़े घर ये सूने आंगन, रोते नयन, सिसकते सावन,
केवल वे हैं बीज कि जिनसे उगनी है गेहूं की बाली,
मूक शान्ति खुद एक क्रान्ति है, मूक दृष्टि खुद एक सृष्टि है
मेरे सृजन हताश न हो, फिर दनुज थकेगा, मनुज चलेगा!
मेरे देश उदास न हो, फिर दीप जलेगा, तिमिर ढलेगा!
व्यर्थ नहीं यह मिट्टी का तप, व्यर्थ नहीं बलिदान हमारा,
व्यर्थ नहीं ये गीले आंचल, व्यर्थ नहीं यह आंसू धारा,
है मेरा विश्वास अटल, तुम डांड़ हटा दो, पाल गिरा दो,
बीच समुन्दर एक दिवस मिलने आयेगा स्वयं किनारा,
मन की गति पग-गति बन जाये तो फिर मंजिल कौन कठिन है?
मेरे लक्ष्य निराश न हो, फिर जग बदलेगा, मग बदलेगा!
मेरे देश उदास न हो, फिर दीप जलेगा, तिमिर ढलेगा!
जीवन क्या?-तम भरे नगर में किसी रोशनी की पुकार है,
ध्वनि जिसकी इस पार और प्रतिध्वनि जिसकी दूसरे पार है,
सौ सौ बार मरण ने सीकर होंठ इसे चाहा चुप करना,
पर देखा हर बार बजाती यह बैठी कोई सितार है,
स्वर मिटता है नहीं, सिर्फ उसकी आवाज बदल जाती है।
मेरे गीत उदास न हो, हर तार बजेगा, कंठ खुलेगा!
मेरे देश उदास न हो, फिर दीप जलेगा, तिमिर ढलेगा!
9. धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ
धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ
दिये से मिटेगा न मन का अंधेरा
धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ!
बहुत बार आई-गई यह दिवाली
मगर तम जहां था वहीं पर खड़ा है,
बहुत बार लौ जल-बुझी पर अभी तक
कफन रात का हर चमन पर पड़ा है,
न फिर सूर्य रूठे, न फिर स्वप्न टूटे
उषा को जगाओ, निशा को सुलाओ!
दिये से मिटेगा न मन का अंधेरा
धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ!
सृजन शान्ति के वास्ते है जरूरी
कि हर द्वार पर रोशनी गीत गाये
तभी मुक्ति का यज्ञ यह पूर्ण होगा,
कि जब प्यार तलावार से जीत जाये,
घृणा बढ रही है, अमा चढ़ रही है
मनुज को जिलाओ, दनुज को मिटाओ!
दिये से मिटेगा न मन का अंधेरा
धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ!
बड़े वेगमय पंख हैं रोशनी के
न वह बंद रहती किसी के भवन में,
किया क़ैद जिसने उसे शक्ति छल से
स्वयं उड़ गया वह धुंआ बन पवन में,
न मेरा-तुम्हारा सभी का प्रहर यह
इसे भी बुलाओ, उसे भी बुलाओ!
दिये से मिटेगा न मन का अंधेरा
धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ!
मगर चाहते तुम कि सारा उजाला
रहे दास बनकर सदा को तुम्हारा,
नहीं जानते फूस के गेह में पर
बुलाता सुबह किस तरह से अंगारा,
न फिर अग्नि कोई रचे रास इससे
सभी रो रहे आँसुओं को हंसाओ!
दिये से मिटेगा न मन का अंधेरा
धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ!
10. चार विचार
(1)
जो पुण्य करता है वह देवता बन जाता है,
जो पाप करता है वह पशु बन जाता है,
किन्तु जो प्रेम करता है वह आदमी बन जाता है!
(2)
जब मैंने प्रेम किया तब मुझे लगा कि जीवन आकर्षण है,
जब मैंने भक्ति की तब मुझे आभास हुआ की जीवन समर्पण है,
किन्तु जब मैंने सेवा-व्रत लिया तब
मुझे पता चला कि जीवन सबसे पहले सर्जन है!
(3)
जब मैं बैठा था तब समझता था कि जीवन उपस्थिति है,
जब मैं खड़ा था तब कहता था कि जीवन स्थिति है,
किन्तु जब मैं चलने लगा तब गाने लगा, ‘जीवन गति है ।’
(4)
जब तक मैं पुकारता रहा तब तक समझता
रहा कि जीवन तुम्हारी आवाज़ है।
और जब मैं स्वयं को पुकारने लगा तो
कहने लगा कि जीवन अपनी ही आवाज़ है।
किन्तु जिस दिन से मैंने संसार को पुकारना
शुरू किया है उस दिन से मुझे
लगने लगा है कि जीवन मेरी और तुम्हारी
नहीं, उन सबकी आवाज़ है जिनकी कि
कोई आवाज़ ही नहीं है!
11. उद्जन बम्ब के परीक्षण पर
अब हो जाओ तैयार, साथियो! देर न हो,
दुश्मन ने फिर बारूदी-बिगुल बजाया है,
बेमौसम फिर इस नए चमन के फूलों पर
सर कफ़न बाँधने वाला मौसम आया है!
फिर बनने वाला है जग मुरदों का पड़ाव
फिर बिकने वला है लोहू बाज़ारों में
करने वली है मौत मरघटों का सिंगार
सोने वली है फिर बहार पतझारों में!
फिर सूरजमुखी सुबह के आनन की लाली
काली होने वाली है धूम-घटाओँ से,
फिर नाज़ुक फूलों वाली धरती की थाली
भरने वली है क़ब्रों-कफ़न-चिताओं से
जिनके माथे की बेंदी घर की हँसी-खुशी
जिनके कर की मेंहदी दर की उजियाली है,
जिनके पग की पायल आँगन की चहल-पहल
जिनकी नीली चुनरी होली-दीवाली है,
अपनी उन शोभा, सीता, राधा, लक्ष्मी के
फिर झुके घूँघटों के खुल जाने का डर है,
अपनी उन हरिनी-सी कन्याओं-बहनों पर
ख़ूंखार भेड़ियों के चढ़ आने का डर है।
सारी थकान की दवा कि जिनकी किलकारी
सब चिन्ताओं का हल जिनका चंचलपन है,
सारी साधों का सुख जिनका तुतलाता मुख
सारे बन्धनों की मुक्ति कि जिनकी चितवन है,
अपने आँगन के उन शैतान चिराग़ों के
हाथों का दूध-कटोरा छिनने वाला है,
अपने दरवाज़े के उन सुन्दर फूलों से
दुश्मन भालों की माला बुनने वाला है!
जिन खेतों में बैठा मुसकाता है भविष्य,
जिन खलिहानों में लिखी जा रही युग-गीता,
जिस अमराई में झूल रहा इतिहास नया
जिन बागों की हर ॠतुरानी है परिणीता,
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………………………………………….
12. आदि पुरुष
संहार-सृजन के वज्र-अक्षरों में अक्षर
जब लिखी गई थी नहीं कथा जड़-चेतन की
तब मैं ही था रच रहा एक नवसृष्टि यहाँ
चिर-चिर अभिनव, चिर-चिर विराट् अपनेपन की !
संसार न था जब, तब मैं था संसार स्वयं
जब था न पवन, तब मैं था एक अनन्त श्वास,
जब नहीं जले थे अम्बर में रवि-शशि-उडुगन
तब एक दीप बन मैं ही था जग का प्रकाश!
जब आदि न था, तब अन्त बना मैं व्याप्त रहा,
कामना न जन्मी थी तब मैं था पूर्णकाम,
जब नहीं हुआ था भ्रू-नभ का परिचय-परिणय
तब मैं ही था सप्पूर्ण सृष्टि का दृष्टि-धाम!
जब धर्म न था, धृति मैं धरती का प्राण रहा,
जब कर्म न था, तब मैं था कृति का महोल्लास,
जब भक्ति न उतरी थी श्रद्धा के आँगन में
अपने ही विरह-मिलन का था में रुदन-हास !
आश्रान्त उषा, आक्लान्त निशा, दिग्भ्रान्ति दिशा,
ॠत, मरुत, सलिल-पावक, क्षिति शून्य अनन्त-अन्त
थे घूम रहे जिसकी आरती बने-से सब
मैं ही था ज्वालाम्बरी इन्दु वह ज्योतिवन्त !
पल-विपल, निमिष-क्षण, दिवस-मास, अब्दाब्द कल्प
बिखरे थे जो कालोदधि पर मुक्तादल-से,
मैंने ही गूँथे थे निशि-दिन की माला में
अपनी पलकों के मीलन-उम्मीलन छल से !
तम की हिमवती गुहा में जो चेतना सती
सोयी थी सुप्त शिखा-सी चिर निष्कामव्रती
जागी थी जिस दिन मेरे मन के मन्मथ ने
रजवर्णो रति के रंग से श्वास रंगी रति की!
ध्वनि-वसना, स्वर-कर्णा, लय-वर्णा, गति-चरणा,
जो शून्य-समाधि लगाए बैठी थी वाणी
कवि-कविता, काव्य-छन्द गीतों में गूँज उठी
जिस दिन मुझसे बोला मेरे दृग का पानी !
सौन्दर्य-सत्य, आकृति-अभाव में जो अकृत्य-
बन स्वप्न कहीं बैठे थे निद्रा के द्वारे
मैंने ही मिटूटी को देकर आकार-सार
ला जन्म-मरण के वसन दिये उनको न्यारे!
कुन्तला-ज्योति-घन-कला-किरन-बाला चपला
जो सोयी थी जड़ अंक पूर्ण निष्पन्द शान्त
मैंने ही नयनाकर्षण-शर से बेध उसे
दे दिया कल्पना का निवास-गृह विरह-प्रान्त !
रवि-शशि के दीप जला दृग के वातायन से
निशि-दिन जिसका पथ तकती थी वय की राधा
मैं ही था उसका आदि-पुरुष यह मनमोहन
वंशी की लय-ध्वनि में जिसने त्रिभुवन बाँधा ।
पतझर के पीत-वसन धारण कर ऋतम्भरा
जिसके वियोग में बनी योगिनी थी सदेह,
कलि-कुसुम-छन्द, मधु-गिरा-गन्ध, आनन्द-कन्द
मैं ही था उसका ऋतुपति मनभावन विदेह!
सीमाओं की सीमा, असीम की असीमता
लघु की लघुता, गुरु की गुरुता, तृण-सहस्रार
मुझ में ही व्याप्त रहे थे सब ऐसे जैसे
रजकण में गिरि को धारण करने का विचार !
पर सृष्टि-प्रसारण हित ही मैंने अनमाँगे
दे दिये मृत्तिका को जो अपने अश्रु-प्राण,
अब मुझे मिटाने का ही वह छल करती है
मेरे मन से अपने तन को कर मूर्तिमान !
13. दो रुबाइयाँ
(1)
एक चीज़ है जो अभी खोके अभी खोनी है,
एक बात है जो अभी होके अभी होनी है,
ज़िन्दगी नींद है जो जागकर आने वाली
जो अभी सोके अभी सोई अभी सोनी है!
(2)
रात इधर ढलती तो दिन उधर निकलता है,
कोई यहाँ रुकता तो कोई यहाँ चलता है;
दीप औ’ पतंगे में फ़र्क सिर्फ़ इतना है
एक जल के बुझता है, एक बुझ के जलता है !
14. आज जी भर देख लो तुम चाँद को
आज जी भर देख लो तुम चाँद को
क्या पता यह रात फिर आए न आए !
दे रहे लौ स्वप्न भीगी आँख में
तैरती हो ज्यों दिवाली धार पर,
होंठ पर कुछ गीत की लड़ियाँ पड़ीं
हँस पड़े जैसे सुबह पतझार पर
पर न यह मौसम रहेगा देर तक
हर घड़ी मेरा बुलावा आ रहा,
कुछ नहीं अचरज अगर कल ही यहाँ
विश्व मेरी धूल तक पाए न पाए
आज जी भर देख लो तुम चाँद को
क्या पता यह रात फिर आए न आए !
ठीक क्या किस वक्त उठ जाए क़दम
काफ़िला कर कूँच दे इस ग्राम से
कौन जाने कब मिटाने को थकन
जा सुबह माँगे उजाला शाम से,
काल के अद्वैत अधरों पर धरी
ज़िन्दगी यह बाँसुरी है चाम की
क्या पता कल श्वास के स्वरकार को
साज़ यह, आवाज़ यह भाए न भाए !
आज जी भर देख लो तुम चाँद को
क्या पता यह रात फिर आए न आए !
यह सितारों से जड़ा नीलम-नगर
बस तमाशा है सुबह की धूप का,
यह बड़ा-सा मुसकराता चन्द्रमा
एक दाना है समय के सूप जा,
है नहीं आजाद कोई भी यहाँ
पाँव में हर एक के जंज़ीर है
जन्म से ही जो पराई है मगर
साँस का क्या ठीक कब गाए न गाए
आज जी भर देख लो तुम चाँद को
क्या पता यह रात फिर आए न आए !
स्वप्न-नयना इस कुमारी नींद का
कौन जाने कल सबेरा हो न हो,
इस दिये की गोद में इस ज्योति का
इस तरह फिर से बसेरा हो न हो!
चल रही है पाँव के नीचे धरा
और सर पर घूमता आकाश है
धूल तो संन्यासिनी है सृष्टि से
क्या पता वह कल कुटी छाए न छाए ।
आज जी भर देख लो तुम चाँद को
क्या पता यह रात फिर आए न आए !
हाट में तन की पड़ा मन का रतन
कब बिके किस दाम पर अज्ञात है,
किम सितारे की नज़र किसको लगे
ज्ञात दुनिया में किसे यह बात है !
है अनिश्चित हर दिवस, हर एक क्षण
सिर्फ़ निश्चित है अनिश्चितता यहाँ
इसलिए सम्भव बहुत है, प्राण ! कल
चाँद आए, चाँदनी लाए न लाए!
आज जी भर देख लो तुम चाँद को
क्या पता यह रात फिर आए न आए !
15. विरह रो रहा है, मिलन गा रहा है
विरह रो रहा है, मिलन गा रहा है,
किसे याद कर लूँ, किसे भूल जाऊँ ?
विरहणी थकी नींद तो चाहती है
अभी और कुछ देर ठहरे अंधेरा,
मगर ज्वाल-जोगी दिये की लगन है
कि हो आज पहले सुबह से सबेरा,
इसी द्वन्दद्व में मैं पड़ा सोचता हूँ
कि सूरज उगाऊँ कि चन्दा बुलाऊँ ?
विरह रो रहा है, मिलन गा रहा है,
किसे याद कर लूँ, किसे भूल जाऊँ ?
सिसक साँस कहती यही रोज मुझसे
कि मिट्टी मिटाए मुझे जा रही है,
मगर देखता हूँ उधर बाग़ में तो
कली धूल में खिल रही, गा रही है,
दुरंगे नगर की दुरंगी डगर पर
कहाँ बैठ रोऊँ, वहाँ बैठ गाऊँ ?
विरह रो रहा है, मिलन गा रहा है,
किसे याद कर लूँ, किसे भूल जाऊँ ?
जनम से मरण की शिकायत यही है
“कि जीवन नहीं मानता हुक्म मेरा,”
कफ़न ने सदा ही कहा किंतु रोकर
“कि है सौत पे बस न मेरा न तेरा,”
सृजन-नाश के दो क्षणों से बँधा मैं
जनम पर हँसूँ या मरण पर रिझाऊँ ?
विरह रो रहा है, मिलन गा रहा है,
किसे याद कर लूँ, किसे भूल जाऊँ ?
बसा मृत्तिका-पुतलियों में सपन जो
छुआ धूप ने तो किरण बन गया वह
लिया चूम जो चाँद ने भूल से तो
गिरा आंख से ओस कन बन गया वह,
तुम्हीं फिर कहो स्वप्न के द्वार पर मैं
अँगारे बिछाऊँ कि तारे टंकाऊँ ?
विरह रो रहा है, मिलन गा रहा है,
किसे याद कर लूँ, किसे भूल जाऊँ ?
सुबह धुप का रूप घूँघट सजाए
जहाँ देखता था लगा फूल-मेला,
वहीं शाम अब ओढ़ चादर धुएँ की
पड़ा रो रहा एक पतझर अकेला,
‘सुबह-शाम बन ढल रही ज़िन्दगी को’
कि रोकर सुलाऊँ, कि हँसकर जाऊँ ?
विरह रो रहा है, मिलन गा रहा है,
किसे याद कर लूँ, किसे भूल जाऊँ ?
उषा जो सुबह हाथ मेंहदी रचाती
उसे पोंछ देता सदा सान्ध्य-तारा,
लगाती निशा भाल जो चन्द्र-टीका
उसे चाट जाता दिवस का अँगारा,
इसी भाँति मैं भी स्वयं मिट रहा जब
किसे फिर बनाऊँ, किसे फिर मिटाऊँ ?
विरह रो रहा है, मिलन गा रहा है,
किसे याद कर लूँ, किसे भूल जाऊँ ?
किसी एक तूफ़ान वाली लहर ने
दिया था मुझे फेंक कल इस किनारे,
लहर पर वही अब बिना कुछ बताए
लिये जा रही है मुझे उस किनारे,
समय-सिन्धु में एक तृण हूँ पता क्या
कहाँ डूब जाऊँ, कहाँ पार पाऊँ?
विरह रो रहा है, मिलन गा रहा है,
किसे याद कर लूँ, किसे भूल जाऊँ ?
16. उसकी अनगिन बूँदों में
उसकी अनगिन बूँदों में स्वाति बूँद कौन?
यह बात स्वयं बादल को भी मालूम नहीं।
किस एक साँस से गाँठ जुड़ी है जीवन की?
हर जीवित से ज्यादा यह प्रश्न पुराना है ।
कौन सी जलन जलकर सूरज बन जाती है?
बुझ कर भी दीपक ने यह भेद न जाना है।
परिचय करना तो बस मिट्टी का सुभाव है,
चेतना रही है सदा अपरिचित ही बन कर।
इसलिए हुआ है अक्सर ही ऐसा जग में
जब चला गया मेहमान,गया पहचाना है।
खिल-खिल कर हँस-हँस कर झर-झरकर काँटों में,
उपवन का रिण तो भर देता हर फूल मगर,
मन की पीड़ा कैसे खुशबू बन जाती है,
यह बात स्वयं पाटल को भी मालूम नहीं।
उसकी अनगिन बूँदों में स्वाति बूँद कौन?
यह बात स्वयं बादल को भी मालूम नहीं
किस क्षण अधरों पर कौन गीत उग आएगा
खुद नहीं जानती गायक की स्वरवती श्वास,
कब घट के निकट स्वयं पनघट उठ आएगा
यह मर्म बताने में है चिर असमर्थ प्यास,
जो जाना-वह सीमा है सिर्फ़ जानने की
सत्य तो अनजाने ही आता है जीवन में
उस क्षण भी कोई बैठा पास दिखता है
जब होता अपना मन भी अपने नहीं पास।
जिस ऊँगली ने उठकर अंजन यह आँजा है
उसका तो पता बता सकते कुछ नयन,किन्तु
किस आँसू से पुतली उजली हो जाती है
यह बात स्वयं काजल को भी मालूम नहीं!
उसकी अनगिन बूँदों में स्वाति बूँद कौन?
यह बात स्वयं बादल को भी मालूम नहीं
क्यों सूरज जल-जलकर दिन-भर तप करता है?
जब पूछा संध्या से वह चाँद बुला लाई,
क्यों उषा हंसती है निशि के लुट जाने पर
जब एक कली से कहा खिली वह मुस्काई।
हर एक प्रश्न का उत्तर है दूसरा प्रश्न
उत्तर तो सिर्फ निरुत्तर है इस जग में
जब-जब जलती है लाश गोद में मरघट की
तब-तब है बजी कहीं पर कोई शहनाई,
हर एक रुदन के साथ जुड़ा है एक गान
यह सत्य जानता है हर एक सितार मगर
किस घुंघरू से कितना संगीत छलकता है
यह बात स्वयं पायल को भी मालूम नहीं!
उसकी अनगिन बूँदों में स्वाति बूँद कौन?
यह बात स्वयं बादल को भी मालूम नहीं।
उस ऱोज रह पर मिला एक टूटा दर्पण
जिसमे मुख देखा था हर चाँद-सितारे ने,
काजल-कंघी, सेंदुर-बिंदी ने बार-बार
सिंगार किया था हँस-हँस साँझ-सकारे ने,
लेकिन टुकड़े-टुकड़े होकर भी वह मैंने
देखा सूरज से अपनी नज़र मिलाए था,
जैसे सागर पर हाथ बढ़ाया था मानो
बुझते-बुझते भी किसी एक अंगारे ने
मैंने पूछा इतना जर्जर जीवन लेकर
कैसे कंकर-पत्थर की चोटें सहता तू?
वह बोला, “किस चोट से चोट मिट जाती है?
यह बात स्वयं घायल को भी मालूम नहीं!”
उसकी अनगिन बूँदों में स्वाति बूँद कौन?
यह बात स्वयं बादल को भी मालूम नहीं।
17. दुख ने दरवाज़ा खोल दिया
मैंने तो चाहा बहुत कि अपने घर में रहूँ अकेला, पर-
सुख ने दरवाज़ा बन्द किया, दुख ने दरवाज़ा खोल दिया ।
मन पर तन की साँकल देकर
सोता था प्राणों का पाहुन
पैताने पाँव दबाते थे
बैठे चिर जागृत जन्म-मरण,
सिरहाने साँसों का पंखा
झलती थी खड़ी-आयु चंचल,
द्वारे पर पहरेदार बने
थे घूम रहे रवि, शशि, उडुगन,
फिर भी चितवन का एक चोर फेंक ही गया ऐसा जादू
अधरों ने मना किया लेकिन आँखों ने मोती रोल दिया!
सुख ने दरवाज़ा बन्द किया, दुख ने दरवाज़ा खोल दिया ।
जीवन पाने को शलभों ने
जा रोज़ मरण से किया प्यार,
चन्दा के होंठ चूमने को
दिन ने चूमे दिन-भर अंगार
निज देह गलाकर जब बादल
हो गया स्वयं अस्तित्वहीन,
आ सकी तभी धरती के घर
सावन-भादों वाली फुहार,
दुनिया दुकान वह जहाँ खड़े होने पर भी है दाम लगा
हर एक विरह ने रो-रोकर, हर एक मिलन का मोल दिया!
सुख ने दरवाज़ा बन्द किया, दुख ने दरवाज़ा खोल दिया ।
जब खाली थे यह हाथ,
हाथ था इनमें हर कठिनाई का,
जब सादा था यह वस्त्र
ज्ञान था मुझे न छूत-छुआई का,
लेकिन जब से यह पीताम्बर
मैंने ओढ़ा रेशम वाला
डर लगता है मुझको अंचल
छूने में धूप-जुन्हाई का
बस वस्त्र बदलते ही मैंने यह कैसा परिवर्तन देखा
जिस रस को दुख ने अमृत किया, उसमें सुखने विष घोल दिया!
सुख ने दरवाज़ा बन्द किया, दुख ने दरवाज़ा खोल दिया ।
चाँदनी टूट जब बनी ओस
ले गई उसे चुन धूप कहीं,
संध्या ने दिये जलाए तो
तम भी रह सका कुरूप नहीं
फूलों की धूल मले शरीर
जब पतझर बगिया से निकला
तब मिला द्वार पर खड़ा हुआ
उसको रितुराज-अनूप वहीं,
हर एक नाश के मरघट में निर्माण जलाये है दीपक
जब-जब आँगन खामोश हुआ, तब-तब उठ बचपन बोल दिया !
सुख ने दरवाज़ा बन्द किया, दुख ने दरवाज़ा खोल दिया ।
18. एक विचार
फूल के साथ काँटे इसलिए हैं कि दुनिया
सौन्दर्य को देखे तो पर छू न सके,
प्रकाश के साथ ताप इसलिए है कि
दुनिया उसे पाये तो पर रख न सके,
इसी प्रकार कवि के गीत में वेदना
इसलिए है कि दुनिया उसे गाये तो पर भूल न सके।
19. एक तेरे बिना प्राण ओ प्राण के !
एक तेरे बिना प्राण ओ प्राण के !
साँस मेरी सिसकती रही उम्र-भर !
बाँसुरी से बिछुड़ जो गया स्वर उसे
भर लिया कंठ में शून्य आकाश ने,
डाल विधवा हुई जो कि पतझार में
माँग उसकी भरी मुग्ध मधुमास ने,
हो गया कूल नाराज जिस नाव से
पा गई प्यार वह एक मंझधार का
बुझ गया जो दीया भोर में दीन-सा
बन गया रात सम्राट अंधियार का,
जो सुबह रंक था, शाम राजा हुआ
जो लुटा आज कल फिर बसा भी वही,
एक मैं ही कि जिसके चरण से धरा
रोज तिल-तिल धसकती रही उम्र-भर !
एक तेरे बिना प्राण ओ प्राण के !
साँस मेरी सिसकती रही उम्र भर !
प्यार इतना किया ज़िंदगी में कि जड़-
मौन तक मरघटों का मुखर कर दिया,
रूप-सौंदर्य इतना लुटाया कि हर
भिक्षु के हाथ पर चंद्रमा धर दिया,
भक्ति-अनुरक्ति ऐसी मिली, सृष्टि की-
शक्ल हर एक मेरी तरह हो गई,
जिस जगह आँख मूँदी निशा आ गई,
जिस जगह आँख खोली सुबह हो गई,
किंतु इस राग-अनुराग की राह पर
वह न जाने रतन कौन-सा खो गया?
खोजती-सी जिसे दूर मुझसे स्वयं
आयु मेरी खिसकती रही उम्र-भर- !
एक तेरे बिना प्राण ओ प्राण के !
साँस मेरी सिसकती रही उम्र-भर !
वेश भाए न जाने तुझे कौन-सा?
इसलिए रोज़ कपड़े बदलता रहा,
किस जगह कब कहाँ हाथ तू थाम ले
इसलिए रोज़ गिरता संभलता रहा,
कौन-सी मोह ले तान तेरा हृदय
इसलिए गीत गाया सभी राग का,
छेड़ दी रागिनी आँसुओं की कभी
शंख फूँका कभी क्राँति का आग का,
किस तरह खेल क्या खेलता तू मिले
खेल खेले इसी से सभी विश्व के
कब न जाने करे याद तू इसलिए
याद कोई कसकती रही उम्र-भर !
एक तेरे बिना प्राण ओ प्राण के !
साँस मेरी सिसकती रही उम्र-भर!
रोज़ ही रात आई गई, रोज़ ही
आँख झपकी मगर नींद आई नहीं
रोज़ ही हर सुबह, रोज़ ही हर कली
खिल गई तो मगर मुस्कुराई नहीं,
नित्य ही रास ब्रज में रचा चाँद ने
पर न बाजी बाँसुरिया कभी श्याम की
इस तरह उर-अयोध्या बसाई गई
याद भूली न लेकिन किसी राम की
हर जगह ज़िंदगी में लगी कुछ कमी
हर हँसी आँसुओं में नहाई मिली
हर समय, हर घड़ी, भूमि से स्वर्ग तक
आग कोई दहकती रही उम्र-भर !
एक तेरे बिना प्राण ओ प्राण के !
सांस मेरी सिसकती रही उम्र-भर !!
खोजता ही फिरा पर अभी तक मुझे
मिल सका कुछ न तेरा ठिकाना कहीं,
ज्ञान से बात की तो कहा बुद्धि ने –
‘सत्य है वह मगर आज़माना नहीं’,
धर्म के पास पहुँचा पता यह चला
मंदिरों-मस्जिदों में अभी बंद है,
जोगियों ने जताया है कि जप-योग है,
भोगियों से सुना भोग-आनंद है
किंतु पूछा गया नाम जब प्रेम से
धूल से वह लिपट फूटकर रो पड़ा,
बस तभी से व्यथा देख संसार की
आँख मेरी छलकती रही उम्र-भर !
एक तेरे बिना प्राण ओ प्राण के !
साँस मेरी सिसकती रही उम्र-भर !!
20. सावन के त्योहार में
तूने मुझको ऐसे लूटा है इस भरे बज़ार में
चुनरी तक का रंग उड़ गया सावन के त्योहार में!
मैं तो आई थी खरीदने हीरक-बेंदी भाल की,
कच्ची चूड़ी किन्तु पिन्हादी तूने सोलह साल की,
दाम लिया कुछ नहीं छली ! पर छल मुझसे ऐसा किया
गाँठ टटोली तो देखा है पूँजी लुटी त्रिकाल की,
उन नयनों की चितवन जाने बिन बोले क्या कह गई
डूबी मेरी नींद सदा को मेरी ही दृग-धार में!
चुनरी तक का रंग उड़ गया सावन के त्योहार में!
अब तो निशि-दिन नयन खड़े रहते तेरे ही द्वार पर
उठ-उठ पाँव दौड़ जाते हैं किसी नदी के पार पर
हो इतनी बदनाम गई इस चोरी-चोरी प्रीति में,
गली-गली हंसती है मेरे काजल पर श्रृंगार पर,
बहुत चाहती लोग न जाने मेरे-तेरे नेह को
तेरा ही पर नाम अधर जपते हर-एक पुकार में !
चुनरी तक का रंग उड़ गया सावन के त्योहार मेँ!
आये लाखों लोग ब्याहने मेरी क्वांरी पीर को
पर कोई तसवीर न भाई धायल ह्रदय अधीर को,
बात चली जब-जब विवाह की सिसका आँसू आँख का,
रात-रात-भर रही कोसती नथनी श्वास-समीर को,
कैसे किसके गले डाल दूँ माला अपने हाथ से
मैं तो अपनी नहीं, धरोहर है तेरी संसार में ।
चुनरी तक का रंग उड़ गया सावन के त्योहार में!
सौ-सौ बार द्वार आई मधुऋतु ले हंसी पराग की
एक न दिन भी पर मुसकाई ऋतु मेरे अनुराग की,
लाखों बार घटा ने बदली बिजली वाली कंचुकी
दमकी मेरे माथ न अब तक टिकुली किन्तु सुहाग की,
कैसे काटूँ रात अकेली, कैसे झेलूँ दाह यह !
बारी प्रीति सयानी होने वाली है दिन चार में!
चुनरी तक का रंग उड़ गया सावन के त्योहार में!
पकी निबौरी, हरे हो गये पीले पत्ते आम के
लिये बादलों ने हाथों में हाथ झुलसती घाम के,
भरे सरोवर-कूप, लग गई नदियाँ-सागर के गले,
खिले बाग के फूल, मिले आ पथिक सुबह के शाम के,
कैसे तुमसे मिलूँ मगर मैं जनम-जनम के मीत ओ!
चुन रक्खा है मुझे साँस ने मिट्टी की दीवार में!
चुनरी तक का रंग उड़ गया सावन के त्योहार में!
21. मन क्या होता है
उसको मन दे दिया जिसे यह ज्ञात नहीं मन क्या होता है?
उससे लगन लगाई जिसका
नाम न जाना, ग्राम न जाना,
उस पर उमर गँवाई जिसको
पाना है खुद को खो आना,
उस संग खेला खेल कि जिसका
जन्म विरह है, मरण मिलन है,
उससे जोडी गाँठ न जिसको ज्ञात कि बंधन क्या होता है?
उसको मन दे दिया जिसे यह ज्ञात नहीं मन क्या होता है?
बृज में श्याम बसे राधा का,
गोकुल में गोपी का ग्वाला,
मेरे पी का पता न कोई
कहाँ बिछाऊँ मैं मृगछाला
किससे पूछूँ किसे बुलाऊँ
किस-किस डगर भभूत रमाऊँ
उसे समर्पित हूँ न जिसे यह ज्ञात समर्पण क्या होता है?
उसको मन दे दिया जिसे यह ज्ञात नहीं मन क्या होता है?
मथुरा ढूँढी काशी ढूँढी,
ढूँढ़ फिरी जीवन-जग सारा,
उस छलिया का गेह न पाया
साँस-साँस ने जिसे पुकारा,
छिल-छिल छाले गये पाँव के
तार-तार हो गई चुनरिया,
उस छवि पर हूँ मुग्ध न जिसको ज्ञात कि दर्पण क्या होता है?
उसको मन दे दिया जिसे यह ज्ञात नहीं मन क्या होता है?
भूख भुलाई, प्यास भुलाई
हँसी खो गई, खुशी खो गई,
निद्रा रूठी, जागृति छूटी
सुबह-शाम एक-सी हो गई
भोग न भाया, जोग न भाया
पूजन-जप कुछ नहीं सुहाया,
उसकी हूँ प्रेयसी न जिसको ज्ञात प्रदर्शन क्या होता है?
उसको मन दे दिया जिसे यह ज्ञात नहीं मन क्या होता है?
सावन गरजा, भादों बरसा,
दामिनि देख गगन बौराया,
मेरे मन की बगिया में पर
एक न दिन झूला पड़ पाया,
कौन पीर मेरी पहचाने
कौन दरद-दुख मेरा जाने
उससे होती खेती जिसको ज्ञात न फागुन क्या होता है?
उसको मन दे दिया जिसे यह ज्ञात नहीं मन क्या होता है?
22. चाह मंज़िल की
चाह मंज़िल की सिर्फ उसके इरादों से न तोल,
नद की गहराई को बस उसके निनादों से न तोल
और गर तुझको परख करनी पड़े कविता की
कस उसे दिल पै जरा वादों-विवादों से न तोल !
23. पपिहरा उठा पुकार पिया नहीं आये
पपिहरा उठा पुकार पिया नहीं आये !
कुंज-कुंज झूम उठे, बजी भृंग-शहनाई,
पात-पात थिरक उठे, डार-डार बौराई,
गुंथे कोटि-कोटि हार पिया नहीं आये!
पपिहरा उठा पुकार पिया नहीं आये !
घर आई पुरवाई, अकुलाई सेज-सेज,
शरमाई बादल को पत्र धरा भेज-भेज,
उत्तर पर दूर पार पिया नहीं आये!
पपिहरा उठा पुकार पिया नहीं आये !
रेशम के रस-हिंडोल गली-गली झूले,
मेघन के गीत फूल कंठ-कंठ फूले,
गूँजी दिशि-दिशि मल्हार पिया नहीं आये!
पपिहरा उठा पुकार पिया नहीं आये !
घुमड़-घुमड़ गरजे घन, उमड़-उमड़ आये मन,
सिसक-सिसक उठे साँस, बरस-बरस पड़े नयन
भीग गये द्वार-द्वार पिया नहीं आये!
पपिहरा उठा पुकार पिया नहीं आये !
बिखर गई स्वप्न-माल, झरी अश्रु लड़ी-लड़ी,
खिड़की पर रात-रात बूँद जगी खड़ी-खड़ी,
घड़ी-घड़ी इन्तजार पिया नहीं आये!
पपिहरा उठा पुकार पिया नहीं आये !
गगन बना कृष्ण और प्रकृति बनी राधा
यमुना-तट रास रचा कौन द्वैत-बाधा,
मेरा सूना सिंगार पिया नहीं आये !
पपिहरा उठा पुकार पिया नहीं आये !
24. तसवीर बन गया
जिसने देखा तुम्हें तुम्हारी ही फिर वह तसवीर बन गया ।
जनम-जनम से तुम्हें खोजता था मैं ओ मेरे अभिमानी!
आज तुम्हें जाना तो मुझको मेरी शक्ल लगी अनजानी
पर इससे भी बढ़कर अचरज हुआ कि जब पूजन-वेला में
भक्ति तुम्हारी मूर्ति बन गई, मन्दिर मर्त्य शरीर बन गया !
जिसने देखा तुम्हें तुम्हारी ही फिर वह तसवीर बन गया ।
तुम्हें छू लिया था सूरज ने वह देखो अब तक जलता है,
झाँकी भर देखी थी शशि ने वह अब तक आँसू ढलता है,
बादल को था गर्व बहुत वह धो ही लेगा चरण तुम्हारे
हाथ बढ़ाते ही पर उसका सारा जीवन नीर बन गया ।
जिसने देखा तुम्हें तुम्हारी ही फिर वह तसवीर बन गया ।
तुम्हें चूमने गया शलभ तो करना पड़ा भस्म उसको तन
रूप देख आया सो खुद हो गया अरूप रूप का दर्पण
की ही थी आरती अग्नि ने बुझना पड़ा धूम्र बन उसको
तुम्हें खोजते घर-घर खुद ही बे घरबार समीर बन गया ।
जिसने देखा तुम्हें तुम्हारी ही फिर वह तसवीर बन गया ।
तुमने किसे बुलाया जो मरघट से लौट पड़ा जग सारा
कौन तिराई तरी कि खुद ही मिलने को चल पड़ा किनारा
क्रीड़ा की वह कौन सृष्टि के आँगन में उस दिन जो छिन में
पद-रज झर कर धरा बन गर्व, अम्बर उड़कर चीर बन गया ।
जिसने देखा तुम्हें तुम्हारी ही फिर वह तसवीर बन गया ।
25. लगन लगाई
तुझसे लगन लगाई
उमर- भर नींद न आई ।
साँस-साँस बन गई सुमरिनी,
मृगछाला सब-की-सब धरिणी,
क्या गंगा कैसी वैतरणी,
भेद न कुछ कर पाई,
दहाई बनी इकाई!
तुझसे लगन लगाई,
उमर-भर नींद न आई !!
दर्द बिछौना, देह अटारी,
रोम-रोम आरती उतारी,
पलक भिगोई; अलक सँवारी
पर चाँदनी न छाई,
अमावस ऐसी आई!
तुझसे लगन लगाई,
उमर-भर नींद न आई !!
साथी छोड़े, संगी छोड़े,
जनम-जनम के बन्धन तोड़े,
बदनामी से रिश्ते जोड़े,
तब तुझ तक आ पाई,
न कर अब तो निठुराई !
तुझसे लगन लगाई,
उमर-भर नींद न आई !!
26. जिस दिन तेरी याद न आई
सुबह न आई, शाम न आई, जिस दिन तेरी याद न आई !
जिस दिन तड़पे प्राण न उस दिन
देह लगी मिट्टी की ढेरी,
जिस दिन सिसकी साँस न उस दिन,
उम्र हो गई कुछ कम मेरी,
बरसी जिस दिन आँख न, उस दिन
गीत न बोले, अधर न डोले,
हँसी बिकाई, खुशी बिकाई, जिस दिन तेरी याद न आई !
सुबह न आई, शाम न आई, जिस दिन तेरी याद न आई !
धुँधलाया सूरज का दर्पण,
कजलाई चन्दा की बेंदी,
मूक हुई दुपहर की पायल,
रूठ गई संध्या की मेंहदी,
दिवस-रात सब लगे पराए,
लुटे-लुटाए स्वप्न-सितारे,
छटा न छाई, घटा न छाई, जिस दिन तेरी याद न आई!!
सुबह न आई, शाम न आई, जिस दिन तेरी याद न आई !
फिरते रहे नयन बौराये
कभी भवन में, कभी भुवन में,
रही कसकती पीड़ा कोई,
इस क्षण तन में, उस क्षण मन में
जग-जगकर काजल अलसाया,
चल-चलकर अंचल थक आया,
हाट न पाई, बाट न पाई, जिस दिन तेरी याद न आई!!
सुबह न आई, शाम न आई, जिस दिन तेरी याद न आई !
गुमसुम बैठी रही देहरी,
ठिठका-ठिठका आंगन द्वारा,
सेज लगी काँटों की साड़ी
और अटारी कज्जल-कारा,
अगरु-गंध हिम-लहर हो गई,
चन्दन-लेप ताप तक्षक का,
धूप न भाई, छाँह न भाई, जिस दिन तेरी याद न आई!!
सुबह न आई, शाम न आई, जिस दिन तेरी याद न आई !
गली-गली ने आंखें फेरीं,
गाँव-गाँव ने पत्थर मारे,
फूल-फूल ने धूल उड़ाई
शूल-शूल ने धाव उघारे,
गई जहाँ भी सांस गई-
ठुकराई हर घर से, हर दर से!
दुनिया ने दुश्मनी निभाई, जिस दिन तेरी याद न आई!!
सुबह न आई, शाम न आई, जिस दिन तेरी याद न आई !
27. तब तुम आए
तब तुम आए !
निरख-निरख कर राह रात-दिन,
काल-पवन के पल-छिन गिन-गिन,
युग-युग से दर्शन के प्यासे जब नयना पथराए!
तब तुम आए!!
कैसे पूजा करे तुम्हारी
मेरा व्याकुल विरह-पुजारी,
मन्दिर के पट खुले फूल जब थाली के मुरझाए!
तब तुम आए!!
बहुत हो चुका तव पद-वन्दन,
अब तुम करो हमारा पूजन,
जिससे मेरी मूर्ति तुम्हारी ही सूरत बन जाये!
तब तुम आए!!
28. प्राण ! मन की बात
प्राण ! मन की बात तुम तन से न पूछो!
प्राण को तो प्राण ही बस जानता है
हदय को केवल हदय पहचानता है,
तुम विरह का दाह चुम्बन से न पूछो!
प्राण ! मन की बात तुम तन से न पूछो!
आँसुओं की बूंद कब घन ने चुनी है,
भूमि की आवाज़ नभ में अनसुनी है,
तुम धरा की प्यास सावन से न पूछो!
प्राण ! मन की बात तुम तन से न पूछो!
रूप-छवि तो आँख का छल छन्द भ्रम है,
यह परस यह दरस आकर्षण चरम है,
भक्त की तुम भक्ति दर्शन से न पूछो!
प्राण ! मन की बात तुम तन से न पूछो!
रजकणों में सिर्फ है प्रतिबिम्ब झलमल
चाँद नभ में, है घटों में नीर केवल
तुम पिया का रूप दर्पण से न पूछो!
प्राण ! मन की बात तुम तन से न पूछो!
29. तू उठा तो उठ गई सारी सभा
तू उठा तो उठ गई सारी सभा
सिर्फ मन्दिर थरथराता रह गया!
स्वप्न की डोली उठा आँसू चले
धूल फूलों की जवानी हो गई
शाम की स्याही बनी दिन की खुशी
देह की मीनार पानी हो गई
तू गया क्या-हाय, बेमौसम यहाँ
एक बादल डबडबाता रह गया !
तू उठा तो उठ गई सारी सभा
सिर्फ मन्दिर थरथराता रह गया!
हाथ जब थामे खड़ा था पास तू
पाँव पर मेरे झुका संसार था
हर नज़र मेरे लिए बैचेन थी
हर कुसुम मेरे गले का हार था,
तू नहीं, तो कुछ खिलौने के लिए
एक बचपन छटपटाता रह गया!
तू उठा तो उठ गई सारी सभा
सिर्फ मन्दिर थरथराता रह गया!
प्यार दुनिया ने वहुत मुझको किया,
पर लगन तुझसे लगी टूटी नहीं,
लाल-हीरे भी बहुत पहने मगर
मूर्ति तेरी हाथ से छूटी नहीं
क्या कहूँ? हर आइने को किसलिए
शक्ल मैं तेरी दिखाता रह गया!
तू उठा तो उठ गई सारी सभा
सिर्फ मन्दिर थरथराता रह गया!
कल विदा जो ले गया था घाट से
खिल गया है वह कमल फिर ताल में
नीम से कल जो निबौरी थी लुटी
है लगी वह झूलने फिर डाल में
एक मैं ही जो यहाँ तुझसे बिछुड़
रोज़ जाता, रोज़ जाता रह गया!
तू उठा तो उठ गई सारी सभा
सिर्फ मन्दिर थरथराता रह गया!
30. ओ बादर कारे
ओ बादर कारे !
घुमड़-घुमड़ पल-पल छिन-छिन में,
बरसो मत मेरे आँगन मेँ,
सावन आज बने खुद मेरे नयना मतवारे !
ओ बादर कारे !
सुन-सुन गरज-गुहार तुम्हारी,
कंप-कंप उठती सेज-अटारी,
चौंक-चौंक पड़ते हैं सुधि के सपने निंद्रियारे!
ओ बादर कारे !
वैसे ही काली निशि मेरी,
घोल रहे तुम और अंधेरी,
डर है डूब न जायँ सदा को नभ के सब तारे!
ओ बादर कारे !
जाने कहाँ-कहाँ का जल भर,
तृण-तृण पर झरते तुम झर-झर
आज तनिक उनकी पलकों पर-
जाकर बरसा दो मेरे भी दो आँसू खारे!
ओ बादर कारे !
देख जिन्हें शायद उन्मन बन,
क्षणभर यह सोचे उसका मन,
इसी तरह गल-ढलकर निशि-दिन-
उन बिन कोई प्राण देह बस बूँदों की धारे!
ओ बादर कारे !
31. जा में दो न समायँ
अर्धरात्रि,
अम्बर स्तब्ध शांत,
धरा मौन…सन्नाटा
…….. …………
थप… थप…थप,
”द्वार पर कौन है ?”
“मैं हूँ तुम्हारा एक याचक,”
“किसलिए आए हो ?”
“एक दृष्टि दान हेतु,”
“नहीं, नहीं, जाओ, लौट जाओ, यहाँ दान नहीं मिलता है,”
“भिक्षु और दाता के बीच जो परदा है,
जिस दम वह जलता है,
तभी द्वार खुलता है,”
…और द्वार बन्द रहा
……. …………..
थप… थप…थप,
”द्वार पर कौन है ?”
“मैं हूँ तुम्हारा ही भक्त एक,”
“आशय क्या ?”
“अपने भगवान का ही दरस तनिक पाना है,
और भोर होते ही वापस लौट जाना है,”
“नहीं, नहीं,
भक्त-भगवान यहाँ दो के लिए ठौर नहीं
दर्शन जो पाना तो अभी हुई भोर नहीं,”
बन्द द्वार बन्द रहा, हुआ कोई शोर नहीं,
………. ………….
थप… थप…थप,
”कौन है ?”
उत्तर नहीं,
“कौन है ?”
उत्तर नहीं,
“कौन है ?”
“वही, जो भीतर है बोल रहा,
दरपन बन रूप जिसका बाहर है डोल रहा,
घूँघट उठाकर जो दरवाज़ा खोल रहा,
भ्रम का जो काजल था धुल गया,
परदा उठा, सूरज-सा खिल गया,
और बन्द द्वार स्वयं खुल गया ।
(एक अज्ञात सूफी कवि की कविता का भावानुवाद)
32. मैं तो तेरे पूजन को
मैं तो तेरे पूजन को आया था तेरे द्वार
तू ही मिला न मुझे वहाँ, मिल गया खड़ा संसार !
मैं तो सुनता था कि सभी से तेरी अलग डगर है,
लेकिन जाना आज कि तेरा चौराहे पर घर है,
बात न थी यह ज्ञात कि मठ में मूरत भर है तेरी
और स्वयं तू भरी भीड़ में खेल रहा बाहर है,
तू क्या है कुछ समझ न पाया केवल इतना देखा
माला तो थी एक, पहनने वाले किन्तु हज़ार !
इसी सोच में बिखर झर गया साँसोंवाला हार !
मैं तो तेरे पूजन को आया था तेरे द्वार
तू ही मिला न मुझे वहाँ, मिल गया खड़ा संसार !
दर्पण तो या एक, देखने वाले कोटि नयन थे,
एक ज्योति से ही ज्योतित सब धरती के आँगन थे,
एक श्वास पर लिये गोद में लाखों जन्म खड़ी थी
एक बूँद से प्यास बुझाने आये सौ सावन थे,
किसे झुकाऊँ शीश कि जब तक मैं कुछ सोच-विचारूँ
मेरा ही धर रूप हो गई प्रतिमाएँ साकार
पहचाना खुद को तब जब नयनों से झरी फुहार !
मैं तो तेरे पूजन को आया था तेरे द्वार
तू ही मिला न मुझे वहाँ, मिल गया खड़ा संसार !
कहता था संसार मर्त्य का कर न तुझे छू पाता,
मुझे लगाने गले मगर तू दौड़ा भुजा बढ़ाता,
बोला था जड़ ज्ञान वायु की भी तुम तक न पहुँच है,
दिखा मुझे तू किन्तु धूल में हँसता-रोता-गाता,
तू मिट्टी है या मिट्टी की क्रीड़ा करने बाला–
जब तक यह जानूँ मिट्टी ने मुझको लिया पुकार
इसीलिए तो मैं घरती पर अम्बर रहा उतार !
मैं तो तेरे पूजन को आया था तेरे द्वार
तू ही मिला न मुझे वहाँ, मिल गया खड़ा संसार !
चिन्तन आया था मेरे ढिग तुझको मुझे दिखाने
लेकिन जितने रूप दिखे सब थे अनबूझ-अजाने,
लिया भोग ने जोग पता देने को मुझको तेरा
किन्तु स्वयं ही भूल गया यह अपने ठौर-ठिकाने,
छिपा कहाँ तू जब तक खोजूँ मैँ इस बड़े नगर में
तब तक मेरे कान पड़ गया जग का हाहाकार !
और तभी से लगा बाँटने मैं दुनिया में प्यार !
कोई आये कोई जाये है सबका सत्कार !
मैं तो तेरे पूजन को आया था तेरे द्वार
तू ही मिला न मुझे वहाँ, मिल गया खड़ा संसार !
33. आज मेरे कंठ में
आज मेरे कंठ में गायन नहीं है!
डालकर जादू मधुर कोई नयन का
छीनकर सब ले गया उल्लास मन का,
वेदना का है घिरा ऐसा घना तम
बुझ गया पहले समय से दीप दिन का
याद की ऐसी लहर पर बह रहा हूँ
कूल का भी आज आकर्षण नहीं है!
आज मेरे कंठ में गायन नहीं है!
खो गये सुधि-स्वर किसी के गीत-वन में
जा छिपे लोचन किसी के रूप-घन में
खोजता फिरता बसेरा पंथ भूला
कल्पना पंछी किसी के नभ-नयन में
आज अपनी ही पकड़ से मैं परे हूँ
आज अपने पास अपनापन नहीं है!
आज मेरे कंठ में गायन नहीं है!
मृत्यु-जैसी मूकता की ओढ़ चादर
रात की सारी उदासी प्राण में भर
आँज आँखों में तिमिर की कालिमा सब
देखता लेटा पड़ा मैं शून्य अम्बर
नाचते हैं पुतलियों पर अश्रु प्रतिपल
किन्तु पलकों में पुलक कम्पन नहीं है
आज मेरे कंठ में गायन नहीं है!
तीव्र इतनी प्यास प्राणों में जगी है
हर सितारे की नज़र मुझ पर लगी है,
प्राण-नभ के चाँद की पर चाँदनी सब
दूर निद्रा के नगर में जा ठगी है,
चेतना जड़ हो गई है आज ऐसी
प्राण है, पर प्राण में धड़कन नहीं है!
आज मेरे कंठ में गायन नहीं है!
ओ गगन के चाँद ! तू क्यों मुसकराता?
रास किरणों का धरा पर क्यों रचाता?
क्या नहीं मालूम तुझको देखकर यूँ
है किसी को चाँद कोई याद आता,
मान जा, ओ मान जा, चंचल हठीले!
अनाज मेरी आग पर बन्धन नहीं है!
आज मेरे कंठ में गायन नहीं है!
देख मन करता विरह का यह अंधेरा,
हो कभी जग में न इस निशि का सबेरा,
बस पड़ा यूँ ही रहूँ मैं अन्त दिन तक,
बन्द हो यह निठुर सुधियों का न फेरा,
क्या करूँ पर मैं विवश, निष्ठुर समय का
आज मेरे हाथ में दामन नहीं है!
आज मेरे कंठ में गायन नहीं है!
कल सुबह होगी जगेगा विश्व-उपवन,
कोक-कोकी का मिलन होगा मगन-मन,
खोल सीपी से नयन तुम भी उठोगे
सृष्टि को देकर नया जीवन, नये क्षण,
पर तुम्हें मालूम क्या मेरी निशा को
मृत्यु से कम प्रात का दर्शन नहीं है!
आज मेरे कंठ में गायन नहीं है!
34. मेरे जीवन का सुख
मेरे जीवन का सुख, दुख की दुनिया में,
बचपन बन आया, यौवन बन चला गया ।
हाथों को जो दिया खिलौना ऊषा ने
वह दिन की खींचा-तानी में टूट गया,
माथे पर जो मोती जड़ा सितारों ने
वह पतझरवाली गलियों में छूट गया,
आँगन चीखा, सेज-अटारी पछताई,
दृग भर लाई ढोलक, सिसकी-शहनाई
कोई श्याम हठी सूने वृन्दावन में
मोहन बन आया, पाहन बन चला गया ।
मेरे जीवन का सुख, दुख की दुनिया में,
बचपन बन आया, यौवन बन चला गया ।
मैंने रचा घिरोंदा जो सागर-तीरे
उसे बहा ले गई समय की एक लहर,
किसी नयन की नदिया में जा डूब गया
फूँका जो स्वर मैंने श्वास-बाँसुरी पर,
जिसे किया था प्यार फूल वह शूल हुआ,
जिसे किया था याद ज्ञान वह भूल हुआ,
मेरा हर अनमोल रतन इस मेले में
कंचन बन आया, रजकगा बन चला गया
मेरे जीवन का सुख, दुख की दुनिया में,
बचपन बन आया, यौवन बन चला गया ।
डाल गया था फूल मिलन जो अंचल में
उसे चुरा ले गई साँझ सूनी कोई,
विरह लिख गया था जो गीता अधरों पर
उसे याद कर बदली एक बहुत रोई,
कुछ दिन हँसने की तैयारी में बीता,
कुछ दिन रोने की लाचारी में बीता,
मन की रजनी का प्रभात तन के द्वारे
फागुन बन आया, सावन बन चला गया ।
मेरे जीवन का सुख, दुख की दुनिया में,
बचपन बन आया, यौवन बन चला गया ।
जो भी दीप जला संध्या के आँगन में
नहीं सुबह से उठकर नज़रें मिला सका,
जो भी फूल खिला उपवन की डाली पर
नहीं साँझ को झूला हँसकर झुला सका,
मुझे न कोई नज़र यहाँ ऐसा आता
सुबह-शाम से आगे जो बढ़कर गाता,
जिसने भी छेड़ा सितार यह साँसों का
गुंजन बन आया, क्रन्दन बन चला गया ।
मेरे जीवन का सुख, दुख की दुनिया में,
बचपन बन आया, यौवन बन चला गया ।
उस दिन पथ पर मिला एक सूना मन्दिर
सोये थे कुछ स्वर जिसकी दीवारों में,
आँगन में बिखरा था कुछ चन्दन-कुंकुम
अक्षत कुछ अटके थे देहरी-द्वारों में
मैँने पूछा तेरा कहाँ पुजारी है ?
वह जब तक कुछ कहे कि क्या लाचारी है ?
तब तक आँसू एक ढुलक मेरे दृग में
अर्चन बन आया, दर्शन बन चला गया ।
मेरे जीवन का सुख, दुख की दुनिया में,
बचपन बन आया, यौवन बन चला गया ।
35.गीत-नीरज गा रहा है
अब जमाने को खबर कर दो कि ‘नीरज’ गा रहा है
जो झुका है वह उठे अब सर उठाए,
जो रूका है वह चले नभ चूम आए,
जो लुटा है वह नए सपने सजाए,
जुल्म-शोषण को खुली देकर चुनौती,
प्यार अब तलवार को बहला रहा है।
अब जमाने को खबर कर दो कि ‘नीरज’ गा रहा है
हर छलकती आँख को वीणा थमा दो,
हर सिसकती साँस को कोयल बना दो,
हर लुटे सिंगार को पायल पिन्हा दो,
चाँदनी के कंठ में डाले भुजाएँ,
गीत फिर मधुमास लाने जा रहा है।
अब जमाने को खबर कर दो कि ‘नीरज’ गा रहा है
जा कहो तम से करे वापस सितारे,
माँग लो बढ़कर धुएँ से अब अंगारे,
बिजलियों से बोल दो घूँघट उघारे,
पहन लपटों का मुकुट काली धरा पर,
सूर्य बनकर आज श्रम मुसका रहा है।
अब जमाने को खबर कर दो कि ‘नीरज’ गा रहा है
शोषणों की हाट से लाशें हटाओ,
मरघटों को खेत की खुशबू सुँघाओं,
पतझरों में फूल के घुँघरू बजाओ,
हर कलम की नोक पर मैं देखता हूँ,
स्वर्ग का नक्शा उतरता आ रहा है।
अब जमाने को खबर कर दो कि ‘नीरज’ गा रहा है
इस तरह फिर मौत की होगी न शादी,
इस तरह फिर खून बेचेगी न चाँदी,
इस तरह फिर नीड़ निगलेगी न आँधी,
शांति का झंडा लिए कर में हिमालय,
रास्ता संसार को दिखला रहा है।
अब जमाने को खबर कर दो कि ‘नीरज’ गा रहा है
36. न बनने दो
तुम लिखो हर बात चाहे जिस तरह चाहो
काव्य को पर वाद का कंगन न बनने दो।
आयु है जितनी समय की गीत की उतनी उमर है
चाँदनी जब से हँसी है रागिनी तब से मुखर है;
ज़िन्दगी जाता स्वयं है जान लें गाना अगर हम
हर सिसकती साँस लय है, हर छलकता अश्रु स्वर है,
गुनगुनाओ गीत तुम हर हाल में, लेकिन
तान को तलवार का चारण न बनने दो।
है वही साहित्य, जो बाँधे न हमको, किन्तु खोले,
हर सुखी के साथ हँस ले, हर दुखी के साथ रो ले;
चाँद का काजल छुड़ा दे, सूर्य को दर्पण दिखा दे,
आदमी से प्यार कर ले अश्रु से आँचल भिगो ले ।
तुम उठो, जाओ, मिलो हर भीड़-मेले से
पर मिलन को विरह का कारण न बनने दो ।
बदलियों से आँख जिसकी बूँद बनकर झर रही है,
चाँद बनकर जो सितारों से इशारे कर रही है,
व्योम को सिर पर उठाए, भूमि को पग से दबाए
इस तरफ जो उठ रही है, उस तरफ जो गिर रही है
वह सभी है ज़िन्दगी, उसको छुओ बढ़कर
पर सृजन को ध्वंस का साधन न बनने दो ।
यह अँधेरा, वह अँधेरा रोशनी को सब सहन है,
यह उजेरा, वह उजेरा धूप दोनों की बहन है;
यह दुआरा, वह दुआरा; यह हमारा, वह तुम्हारा-
कुछ नहीं है, सिर्फ भ्रम के एक परदे का पतन है ।
तुम चलो सारी दिशाएँ नापते जाओ,
पर प्रगति को अगति का आसन न बनने दो ।