फणीश्वरनाथ रेणु के साहित्य में आंचलिक सैद्धांतिकी का सौन्दर्यशास्त्रीय अध्ययन
सपना दास
शोधार्थी, हिंदी विभाग
दिल्ली विश्वविद्यालय
सम्पर्क-7044355873
मेल- sapna070295@gmai।.com
सारांश
सौंदर्यशास्त्र, वास्तव में कला एवं साहित्यिक सौंदर्य जैसे कल्पना, कार्य निर्माण स्थल, इंद्रिय बोधगम्यता, अनुभूति, मनोदशा, विश्वास आदि के अध्ययन करने की एक विशिष्ट शाखा है। यह अध्ययन एक ओर जहाँ कला व साहित्यिक सौंदर्य हेतु स्वाद और आनंद का मिलाप है वहीं दूसरी ओर कला को महसुस करता है और संस्कृति के महत्वपूर्ण तत्वों को प्रतिबिंबित कर साहित्य एवं समाज को प्रभावित करता है। वस्तुत: किसी भी वस्तु विशेष अथवा सकारात्मक विशिष्टताओं के कारण, प्राप्त होने वाले अनुभूतियों को व्यक्ति अपने भीतर आत्मसात करता है तभी सौंदर्यानुभूति की प्राप्ति होती है। सौंदर्यानुभूति अर्थात् सुंदर अथवा विशिष्ट तत्वों की प्राप्ति हेतु सुंदर अनुभूति। जबकि सौंदर्यशास्त्र, सौंदर्य+शास्त्र दो शब्दों के मेल से बना है। चूँकि, शास्त्र का सीधा अर्थ ‘ज्ञान की शाखा’ से है। इस प्रकार, रेणु के साहित्य के सौन्दर्यशास्त्रीय अध्ययन में बिम्ब, प्रतीक तथा कल्पनाओं को प्रमुख श्रेणी के अंतर्गत रखा जाता है।
बीज शब्द: शास्वत, सौंदर्य, सौंदर्यीकरण, सौंदर्यानुभूति, सौंदर्यबोध, सौंदर्यशास्त्र
शोध आलेख
सौंदर्यशास्त्र, वास्तव में कला एवं साहित्यिक सौंदर्य जैसे कल्पना, कार्य निर्माण स्थल, इंद्रिय बोधगम्यता, अनुभूति, मनोदशा, विश्वास आदि के अध्ययन करने की एक विशिष्ट शाखा है। यह अध्ययन एक ओर जहाँ कला व साहित्यिक सौंदर्य हेतु स्वाद और आनंद का मिलाप है वहीं दूसरी ओर कला को महसुस करता है और संस्कृति के महत्वपूर्ण तत्वों को प्रतिबिंबित कर साहित्य एवं समाज को प्रभावित करता है। वस्तुत: किसी भी वस्तु विशेष अथवा सकारात्मक विशिष्टताओं के कारण, प्राप्त होने वाले अनुभूतियों को व्यक्ति अपने भीतर आत्मसात करता है तभी सौंदर्यानुभूति की प्राप्ति होती है। सौंदर्यानुभूति अर्थात् सुंदर अथवा विशिष्ट तत्वों की प्राप्ति हेतु सुंदर अनुभूति। जबकि सौंदर्यशास्त्र, सौंदर्य+शास्त्र दो शब्दों के मेल से बना है। चूँकि, शास्त्र का सीधा अर्थ ‘ज्ञान की शाखा’ से है। इस प्रकार, रेणु के साहित्य के सौन्दर्यशास्त्रीय अध्ययन में बिम्ब, प्रतीक तथा कल्पनाओं को प्रमुख श्रेणी के अंतर्गत रखा जाता है।
हिन्दी साहित्य में लोकप्रिय आंचलिक लेखको के क्रम में सर्वोपरी स्थान फणीश्वरनाथ रेणु का है। जीवन-अनुभव के परिपक्व होने के साथ-साथ उनका चिंतन, दृष्टिकोण एवं यथार्थबोध भी बदलता है, जिसका प्रतिफलन उनकी रचनाओं में स्पष्ट है। उनका पहला उपन्यास ‘मैला आंचल’ आंचलिक जीवन बोध के रचनात्मक कसौटी पर एकदम खरा उतरता है। यथार्थ के अन्वेषण की दिशा में यह उपन्यास स्पष्टत: स्तुत्य प्रयास कहा जा सकता है। रेणु के साहित्य में सौंदर्य वह कलात्मक अनुभूतियाँ है, जिसके द्वारा कला एवं साहित्य व इन्द्रियों के सुसज्जित ज्ञान की अभिव्यक्ति का बोध सारगर्भित रूप से होता है। इस धरती पर दिखाई देने वाले प्रत्येक वस्तु में कला का निरूपण है, बशर्तें उस कला को अनुभव करने के लिए पारखी नज़र हो। ठीक उसी प्रकार सौंदर्यशास्त्रीय संरचना मुख्यरूप से शील एवं शक्ति से हुई है। यानी इस धरती की संरचना में शील, शक्ति एवं सौंदर्य का सम्मिश्रण है। “सत्यम्, शिवम, सुन्दरम्” से लेकर “वसुधैव कुटुम्बकम्” तक की प्रक्रिया भी इसी सृष्टि के अंतर्गत निहित है।
शताब्दी वर्ष बाद रेणु के साहित्य में सौंदर्य और आंचलिकता बोध को जानने व समझने हेतु निम्नलिखित बिंदुओं की ओर ध्यान केंद्रित करना होगा, जो इस प्रकार हैं-
‘अंचल’ बनाम ‘आंचलिकता’
देश या प्रांत का एक भू-भाग जिसे ‘अंचल’ की संज्ञा दी जाती है। यानी किसी एक प्रांत व देश की भौगोलिक सीमा के आस-पास के भाग व क्षेत्र को अंचल कहा जाता है। ‘अंचल’ शब्द की निष्पति मूल रूप से संस्कृत के ‘अच्’ धातु में ‘अलंच्’ प्रत्यय के लगने से हुई है। ऑक्सफ़ोर्ड डिक्शनरी के अनुसार “अंचल से अभिप्राय इस भूमि खंड, देश या किसी सीमा तक परिभाषित भाग से है, जो कुछ आकृतियों आकारों, जलवायु सम्बन्धी दशाओं, विशेष जीवन वनस्पति के कारण भिन्न रहता है।”1
आंचलिकता शब्द की व्युत्पत्ति
आंचलिकता शब्द की व्युत्पत्ति ‘अंचल’ से हुई है। ‘अंचल’ शब्द में गुणवाचक तद्धित प्रत्यय ‘ईक’ के योग से ‘आंचलिकता शब्द की निर्मिति हुई है। ‘आंचलिक’ शब्द से ही ‘आंचलिकता’ शब्द का रूपायन हुआ है। अंग्रेजी में ‘आंचलिकता’ के लिए ‘लोकल’ या ‘रिजन’ शब्द का प्रयोग मूलत: रूढ़ हो गया है। यानी ‘रिजन’ से ‘रिजनल’ और ‘रिजनल’ से ‘रिजनलिज्म’ शब्द का आविर्भाव हुआ है।
आंचलिक व आंचलिकता का अर्थ
अंग्रेजी के रिजन, रीजनल, रिजनलिज्म का ही हिंदी रूपांतरण है- अंचल, आंचलिक व आंचलिकता, तथा आंचलिकतावाद व आंचलिकता बोध।
इस प्रकार, एक सौ एक वर्ष बाद फणीश्वरनाथ रेणु के साहित्य में आंचलिक सैद्धांतिकी बोधगम्य का परिदृश्य को निम्नलिखित टूल्स के आधार पर जान सकते हैं, जो इस प्रकार से हैं-
आंचलिक सैद्धांतिकी बोधगम्यता के आधार पर-
क्षेत्र विशेष के विशेष भौगोलिक खंड विशेष जहाँ मानव अपनी लोक संस्कृति को उजागर कर जमीन से जुड़ा रहता है। साथ ही अपने गाँव व अंचल विशेष की तथाकथित गतिविधियों द्वारा भारतीय संस्कार का उजागर होता है। साथ ही नयी पीढ़ी, वर्ग, समुदाय में नवीनतम संचार करता है। डॉ. मृत्युंजय उपाध्याय ने आंचलिकता शब्द को पारिभाषित करते हुए लिखा है- “आंचलिकता एक बड़ा व्यापक अभियान है, जिसके अंतर्गत आंचलिक जीवन से संबंधित ग्राम्य जीवन की आशा-आकांक्षाएं, उनके रीति-रिवाज, पर्व-त्यौहार, धर्म-दर्शन, रुढ़ि, अंधविश्वास, बोली, लोकगीत भी आ जाते हैं। यह सर्वथा नवीन वस्तु नहीं है, वरन् दृष्टिकोण की नवीनता अवश्य है।”2 अत: आंचलिकता एक विशिष्ट प्रतिपाद्य है जबकि आंचलिकता बोध मौलिक दृष्टिकोण है।
साहित्यिक सौंदर्यशास्त्रीय अध्ययन के आधार पर-
हमारे आस-पास दिखाई देने वाले समस्त वस्तुओं में कला विद्यमान है और उस कला में आकर्षण द्वारा ही सौंदर्यानुभूति किया जा सकता है। यह सौंदर्य शिलालेख, पर्वतमालाएं, ऊँचे-ऊँचे पहाड़ में बखूबी अनुभव किया जा सकता है। सौंदर्य के संबंध में जयशंकर प्रसाद लिखते हैं-
“है यही सौंदर्य में सुषमा बड़ी
लौह-हिय को आंच इसकी ही कड़ी।
देखने के साथ ही सुंदर वदन,
दीख पड़ता है सजा सुखमय सदन।”3
यदि कोई व्यक्ति सुंदर वस्तु को देख कर भी अनदेखा कर रहा हो तो ऐसे में सौंदर्य की कलाभिव्यक्ति या उसकी आकर्षण शक्ति कम नहीं हो जाती। यदि वह व्यक्ति उस सौंदर्य को देखना ही नहीं चाहता तो इसमें सौंदर्य का क्या कसूर? इस सौंदर्य की सुंदर अभिव्यक्ति करते हुए केदारनाथ अग्रवाल लिखते हैं-
“असीम सौंदर्य की एक लहर
नदी से नहीं..
समुंद्र से नहीं,
देखते ही देखते…..
उमड़ी तुम्हारे शरीर से,
छाप कर छा गई,
फ़ैल गई मुझ पर।”4
भारतीय के ग्रामीण समाज में जाति व्यवस्था राजनीतिक व्यवहार को काफी प्रभावित करती है। ‘मैला आंचल’ उपन्यास में जाति व्यवस्था का बहुत बारीक चित्रण किया गया है। बावनदास, बलदेव से कहता है- “सब चौपट हो गया है यह पटनिया रोग है। अब तो और धूमधाम से फैलेगा। भूमिहार, राजपूत, कैथ, हरिजन, सब लड़ रहे हैं। अगले चुनाव में तिगुना चुने जाएंगे। किसका आदमी ज्यादा चुना जाएगा इसी की लड़ाई है। यदि राजपूत पार्टी के लोग ज्यादा आए तो सबसे बड़ा संतरी भी राजपूत होगा, परसों बात हो रही थी आसरम में।”5
राजनीति के माध्यम से जाति-व्यवस्था, जो केंद्र में है, अंचल विशेष के प्रमुख तत्व विधान को दर्शाती है। इसी के चलते रेणु के साहित्य के सौंदर्य को सहजता से समझा जा सकता है। ‘परती-परिकथा’ में भी राजनीतिक भ्रष्टाचार को ‘लुत्तो’ के चरित्र के माध्यम से रेखांकित किया गया है।
अतीत व वर्तमानकालीन शैक्षिक अनुकम्पा के आधार पर-
कला का द्वितीय क्षण तब जागृत होता है जब लेखक में शब्द और संवेदनाएं जागृत होती हैं, वह विषय तत्वों को व्यक्त करने लगता है। यह क्रिया समन्वित होने पर परिस्थितियां निर्मित हो जाती है। सौंदर्य हमारे इर्द-गिर्द मौजूद है। यही कारण है कि प्राचीन, मध्यकालीन एवं आधुनिक कवियों ने इसकी अभिव्यक्ति अपनी कविताओं में की है-
“पूर्णिमा का सौंदर्य बोधी चाँद,
मन-भीतर पिघलकर
रुपहला समुद्र बनकर
समा जाता है ,
आँखों की पृथ्वी में
अपनी जगह बनाते हुए,
महासागरों की तरह।”6
इस पंक्ति में कहीं-न-कहीं उस सौंदर्य की कल्पना की गयी है, जो उपस्थित न होकर भी दर्पण के समान प्रत्यक्ष है। इसके अलावा ‘रेणु का एक सपना’ में रेणु ने गाँव के स्कूली बच्चों के माध्यम से गाँव की शिक्षा-व्यवस्था को लेकर प्रश्न उठाया है। वहीं दूसरी ओर शहरी शिक्षा व्यवस्था या रहन-सहन को लेकर खुश नहीं दिखाई देते। मनमोहन के पिता बार-बार एक बात को दोहराते हुए नजर आते है- “शहर जाकर बिगड़ मत जाना- बीड़ी सिगरेट मत पीना।”7 मुख्य रूप से शैक्षिक दर दर्शना ही मुख्य उद्देश्य है।
लोक-गीत परम्परा के आधार पर-
लोकगीत में लोक-जीवन व आंचलिकता बोध स्पन्दित होता है। रेणु के गीतों ने खल-खलियान से उठाकर अपनी रचनाओं के साथ जोड़ा है। ‘मैला आँचल’ में मेरीगंज वासियों के रग-रग में संगीत रचा-बसा हुआ है। यहाँ ऐसा कोई भी प्रसंग नहीं है, जो कि ढोल से दमकता न हो। उत्सव-पर्व के गीतों में मौज-मस्ती एवं रंग-गुलाल उड़ते हैं। वहीं वसंत ऋतुओं में नारी-वेदना के बोल भी मिलते हैं। वर्ष के समय विरहिणी की वेदना के बोल कुछ इस प्रकार है-
“चढती जवानी मोरा अंग-अंग फड़के रे
कब होई गवना हमार रे भउजिया।”8
‘मैला आंचल’ में बिहार के पूर्णिया जिले की आंचलिकता को ध्यान में रखते हुए लेखक ने भारतीय लोक-गीत परम्परा का सौंदर्यीकरण किया है।
नैतिक मूल्यों की अभिव्यक्ति के आधार पर-
समस्त ग्रामीण जीवन को दर्शाने के लिए मेरीगंज की सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक आदि विविध आयामों को उजागर करने का प्रयास किया है, जिससे पिछड़ा वर्ग को प्रकाश में लाया जा सके। “मेरीगंज गाँव में एक जीवंत चित्र की तरह हमारे सामने है, जिसमें वहाँ के लोगों के हंसी-मजाक, प्रेम-घृणा, सौहार्द्र-वैमनस्य, इर्ष्या-द्वेष, संवेदना-करुणा, संबंध-शोषण, अपने समस्त उतार-चढ़ाव के साथ उकेरा है। इसमें एक ओर जहाँ नैतिकता के प्रति तिरस्कार का भाव है तो वहीं दूसरी ओर नैतिकता के लिए छटपटाहट भी है। परस्पर मान्यताओं के बीच कहीं-न-कहीं जीवन के प्रति गहरी आस्था भी है-मैला आँचल में।”9
यहाँ रचनाकार ने मनमोहन के बहाने आजादी के बाद भारतीय ग्रामीण क्षेत्रों की शिक्षा व्यवस्था के उपर जो प्रश्न उठाए हैं, कहीं-न-कहीं एकदम सटीक बैठता है। क्योंकि आज भी हम शिक्षा को लेकर कोई बड़ा परिवर्तन नहीं कर पाए हैं। शिक्षा से देश की दिशा एवं दशा तय होती है, फिर देश और शहरी शिक्षा व्यवस्था में इतना अंतर-भेद आखिर क्यों? यह भी विचारणीय प्रश्न है।
देशभक्ति व राष्ट्र-अभिव्यंजना के आधार पर-
रेणु की पहली कहानी ‘बट बाबा’ बरगद के प्राचीन पेड़ के इर्द-गिर्द घूमती है। इस कहानी में ‘साहू’ नामक एक पात्र जो खुद बिमारी से कंकाल हो गया है और उसे जानलेवा खांसी भी है, जब सुनता है कि “बड़का बाबा सुख गईल का? और गाँव वाले जब उसे बताते हैं कि हाँ पेड़ सुख गया है तो निरधन साहू कहता है- अब ना बचम हो राम!”10
रेणु बताते हैं कि हिमालय और भारतवर्ष का जो संबंध है वही संबंध उस बरगद के पेड़ और गाँव का था। सैकड़ों वर्षों से गाँव की पहरेदारी करते है यही बट बाबा, पर ऐसा क्या हुआ कि पूरे गाँव को अपने स्नेह से लगातार सींचने वाला बट वृक्ष अचानक सुख गया? बहुत ही मार्मिक ढंग से रेणु एक जीवंत चित्र गढ़ते हैं।
अंचल विशेष के भाषिक प्रयुक्ति के आधार पर-
ग्राम्य वातावरण के यथार्थ स्वरूप को रेखांकित करने में अंचल विशेष हेतु प्रयुक्त लोक भाषिक प्रयोगों का विशिष्ट महत्व रहा है। रेणु ने अपनी रचनाओं में तत्सम, देशज आदि शब्दों के द्वारा ग्रामीण जन-जीवन के यथार्थ को यथावत् दर्शाने का प्रयास किया है। उदाहरणस्वरूप- ‘मैला आंचल’ में ‘दुर्बोध’ शब्द का प्रयोग हुआ है। सही मायने में लेखक ने इस शब्द को ठीक कर फुटनोट में ‘सुबोध’ बताया है। यहाँ तक कि ‘विधवा’ के लिए ‘बेवा’ शब्द का प्रयोग भी किया गया है। इसके अलावा लोक शब्द जैसे ‘चुमैना’ के लिए ‘सगाई’ शब्द को लेखक ने फुटनोट में बताया है। वहीं ‘भउजिया’ के लिए ‘भाभी’ बताया है। इन सभी शब्दों का प्रयोग कर रेणु ने अंचल विशेष की भाषिक इकाई को यथार्थ रूप में परिणत किया है। भारतीय लोक शब्दों में जो अपनापे की भावना दिखाई देती है, वह अन्यत्र नहीं। वास्तव में किसी भी भाषा अथवा साहित्य को समझने, जानने के लिए सुंदर मन होना चाहिए, आन्तरिक सौंदर्य अगर न रहे तो बाह्य सारी वस्तुएं दिखावा मात्र बनकर रह जाती है। इसिलिए तो क्रोंचे ने लिखा है- “The beauty is not physica। fact, beauty does not be।ong to things, its be।ongs to the human aesthetic activity and menta। and spiritua। fact.”11
निष्कर्ष
निष्कर्ष रूप से कहा जा सकता है कि सौंदर्य आनंद की अनुभूति का नाम है, जिसका रस पान किया जाता है, वस्तु मात्र की सार्थकता सौंदर्य के कारण है। सुंदर वस्तुएं तो अनेक हो सकती है, किन्तु सौंदर्य एक है यानी अनेकता में एकता है। बाकी की सारी वस्तुएं इच्छा शक्ति पर निर्भर करती है। आंतरिक सौंदर्य मुख्यरूप से वाह्य सौंदर्य का विधायक है। कालिदास के प्रेमी पंडितों को पहली बार इस रहस्योद्धाटन से अवश्य ही धक्का लगा होगा कि जिस कवि को अब तक अपनी आर्य संस्कृति का महान नायक समझते आ रहे थे वह यक्ष, किन्नर आदि आर्येतर जातियों के विश्वासों और सौंदर्य कल्पनाओं का सबसे अधिक उदाहरण है। वैसे तो भारत को ‘महामानव सागर’ कहने वाले रवीन्द्रनाथ ठाकुर एक अरसे से यह बतलाते आ रहे थे कि जिसे हम हिन्दू रीति-नीति कहते हैं, वह अनेक आर्य और आर्येतर उपादानों का मिश्रण है। यानी जिस गुण का अनुभव हम करते हैं वास्तव में वह सौंदर्य है जिसकी संकल्पना अनुभव की अभिव्यक्ति के द्वारा ही संभव है। रेणु की रचनाएँ साहित्यिक कला वस्तु के आधार पर हो या सौंदर्याभिव्यक्ति के आधार पर, चाहे लोक भाषिक प्रयुक्त शब्दावलियों के आधार पर ही क्यों न हो..वस्तुत: कालजयी और निरंतर गतिमान है। पठन-पाठन के दृष्टिकोण के आधार पर नई संभवनाओं को जन्म देने वाली है। अंतत: कहा जा सकता है कि रेणु ने अपनी रचनाओं में साहित्य के विविध आयामों को केंद्र में रखते हुए लोक की महत्ता को प्रतिपादित किया है।
संदर्भ सूची
- विलियम, द ऑक्सफ़ोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी, वोल्यूम-viii, ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, नवीन सं. प्रकाशन वर्ष-1887, मूल प्रकाशन वर्ष-1884, पृष्ठ-371
- डॉ. मृत्युंजय उपाध्याय, हिंदी के आंचलिक उपन्यास, चित्रलेखा प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रकाशन वर्ष-1989, पृष्ठ-13
- www.kavitakosh.org/जयशंकर_प्रसाद_है _यही_सौंदर्य/
- www.hindikavitakosh.com/केदारनाथ_अग्रवाल_असीम_सौंदर्य_की_एक_लहर/
- फणीश्वरनाथ रेणु, मैला आँचल, राजकमल प्रकाशन, प्रकाशन वर्ष-1954, नवीन सं.-2016, पृष्ठ-378
- www.kavitakosh.org/पूर्णिमा_का_सौंदर्य_बोध_चाँद
- फणीश्वरनाथ रेणु, रेणु रचनावली, राजकमल प्रकाशन, सं-2012, पृष्ठ-233
- www.hindisamay.com/चढ़ती_जवानी_मोरा_अंग_अंग_फड़के_रे_फणीश्वरनाथ_रेणु_मैला_आँचल
- www.m.bharatdiscovery.org/india_मैला_आँचल _फणीश्वरनाथ_रेणु_पेजेस=4
- www.।iveaaryaavat.com/2014/03
- डॉ, रामसजन पाण्डेय, विद्यापति का सौन्दय बोध, दिनमान प्रकाशन, प्रकाशन वर्ष-हार्ड कापी 2019, दिल्ली, पृष्ठ-15