युगधारा नागार्जुन

    0
    176
    मुख पृष्ठ / साहित्यकोश / युगधारा नागार्जुन

    Yugdhara Nagarjun

    युगधारा नागार्जुन

    बादल को घिरते देखा है

    अमल धवल गिरि के शिखरों पर,
    बादल को घिरते देखा है।

    छोटे-छोटे मोती जैसे
    उसके शीतल तुहिन कणों को,
    मानसरोवर के उन स्वर्णिम
    कमलों पर गिरते देखा है,

    बादल को घिरते देखा है।

    तुंग हिमालय के कंधों पर
    छोटी बड़ी कई झीलें हैं,
    उनके श्यामल नील सलिल में
    समतल देशों से आ-आकर
    पावस की उमस से आकुल
    तिक्त-मधुर विषतंतु खोजते
    हंसों को तिरते देखा है।

    बादल को घिरते देखा है।

    ऋतु वसंत का सुप्रभात था
    मंद-मंद था अनिल बह रहा
    बालारुण की मृदु किरणें थीं
    अगल-बगल स्वर्णाभ शिखर थे
    एक-दूसरे से विरहित हो
    अलग-अलग रहकर ही जिनको
    सारी रात बितानी होती,
    निशा-काल से चिर-अभिशापित
    बेबस उस चकवा-चकई का
    बंद हुआ क्रंदन, फिर उनमें
    उस महान् सरवर के तीरे
    शैवालों की हरी दरी पर
    प्रणय-कलह छिड़ते देखा है।

    बादल को घिरते देखा है।

    शत-सहस्र फुट ऊँचाई पर
    दुर्गम बर्फानी घाटी में
    अलख नाभि से उठने वाले
    निज के ही उन्मादक परिमल-
    के पीछे धावित हो-होकर
    तरल-तरुण कस्तूरी मृग को
    अपने पर चिढ़ते देखा है,

    बादल को घिरते देखा है।

    कहाँ गय धनपति कुबेर वह
    कहाँ गई उसकी वह अलका
    नहीं ठिकाना कालिदास के
    व्योम-प्रवाही गंगाजल का,
    ढूँढ़ा बहुत किन्तु लगा क्या
    मेघदूत का पता कहीं पर,
    कौन बताए वह छायामय
    बरस पड़ा होगा न यहीं पर,
    जाने दो वह कवि-कल्पित था,
    मैंने तो भीषण जाड़ों में
    नभ-चुंबी कैलाश शीर्ष पर,
    महामेघ को झंझानिल से
    गरज-गरज भिड़ते देखा है,

    बादल को घिरते देखा है।

    शत-शत निर्झर-निर्झरणी कल
    मुखरित देवदारु कनन में,
    शोणित धवल भोज पत्रों से
    छाई हुई कुटी के भीतर,
    रंग-बिरंगे और सुगंधित
    फूलों की कुंतल को साजे,
    इंद्रनील की माला डाले
    शंख-सरीखे सुघड़ गलों में,
    कानों में कुवलय लटकाए,
    शतदल लाल कमल वेणी में,
    रजत-रचित मणि खचित कलामय
    पान पात्र द्राक्षासव पूरित
    रखे सामने अपने-अपने
    लोहित चंदन की त्रिपटी पर,
    नरम निदाग बाल कस्तूरी
    मृगछालों पर पलथी मारे
    मदिरारुण आखों वाले उन
    उन्मद किन्नर-किन्नरियों की
    मृदुल मनोरम अँगुलियों को
    वंशी पर फिरते देखा है।

    बादल को घिरते देखा है।

    प्रेत का बयान

    “ओ रे प्रेत -”
    कडककर बोले नरक के मालिक यमराज
    -“सच – सच बतला
    कैसे मरा तू ?
    भूख से , अकाल से ?
    बुखार कालाजार से ?
    पेचिस बदहजमी , प्लेग महामारी से ?
    कैसे मरा तू , सच -सच बतला ”
    खड़ खड़ खड़ खड़ हड़ हड़ हड़ हड़
    काँपा कुछ हाड़ों का मानवीय ढाँचा
    नचाकर लंबे चमचों – सा पंचगुरा हाथ
    रूखी – पतली किट – किट आवाज़ में
    प्रेत ने जवाब दिया –

    ” महाराज
    सच – सच कहूँगा
    झूठ नहीं बोलूँगा
    नागरिक हैं हम स्वाधीन भारत के
    पूर्णिया जिला है , सूबा बिहार के सिवान पर
    थाना धमदाहा ,बस्ती रुपउली
    जाति का कायस्थ
    उमर कुछ अधिक पचपन साल की
    पेशा से प्राइमरी स्कूल का मास्टर था
    -“किन्तु भूख या क्षुधा नाम हो जिसका
    ऐसी किसी व्याधि का पता नहीं हमको
    सावधान महाराज ,
    नाम नहीं लीजिएगा
    हमारे समक्ष फिर कभी भूख का !”

    निकल गया भाप आवेग का
    तदनंतर शांत – स्तंभित स्वर में प्रेत बोला –
    “जहाँ तक मेरा अपना सम्बन्ध है
    सुनिए महाराज ,
    तनिक भी पीर नहीं
    दुःख नहीं , दुविधा नहीं
    सरलतापूर्वक निकले थे प्राण
    सह न सकी आँत जब पेचिश का हमला ..”

    सुनकर दहाड़
    स्वाधीन भारतीय प्राइमरी स्कूल के
    भुखमरे स्वाभिमानी सुशिक्षक प्रेत की
    रह गए निरूत्तर
    महामहिम नर्केश्वर |

    भुस का पुतला

    फैलाकर टांग
    उठाकर बाहें
    अकड़कर खड़ा हुआ
    भुस भरा पुतला

    कर रहा है निगरानी
    ककड़ी तरबूज की
    खीरा खरबूज की
    सो रहा होगा अपाहिज
    मालिक घर में निश्चिंत हो

    खेत के नगीच
    कोई मत आना
    हाथ मत लगाना
    प्रान जो प्रिय है तो
    भुस का पुतला, खांस रहा खो खो खो
    अहल भोर
    गया था डोल – डाल
    खेत की हिफाजत का देखा जब ये हाल
    हंस पड़ा भभाकर में
    यह भागी लोमड़ी,
    वह भागी लोमड़ी,
    सर, सर सर सर,
    खर, खर, खर, खर.
    दूर का फासला,
    चट कर गई पार कर

    अकेले हंसा में ठहाका मार कर
    मेरे कहकहे पर हो गया नाराज
    फटे पुराने कुर्ते से ढका
    भुस का पुतला
    दप दप उजला
    सरग था

    ऊपरनीचे था पाताल
    अपच के मारे बुरा था हाल
    दिल दिमाग भुस का

    बरफ पड़ी है

    बरफ़ पड़ी है
    सर्वश्वेत पार्वती प्रकृति निस्तब्ध खड़ी है
    सजे-सजाए बंगले होंगे
    सौ दो सौ चाहे दो-एक हज़ार
    बस मुठ्ठी-भर लोगों द्वारा यह नगण्य श्रंगार
    देवदारूमय सहस्रबाहु चिर-तरूण हिमाचल कर सकता है क्यों कर अंगीकार

    चहल-पहल का नाम नहीं है
    बरफ़-बरफ़ है काम नहीं है
    दप-दप उजली साँप सरीखी सरल और बंकिम भंगी में—
    चली गईं हैं दूर-दूर तक
    नीचे-ऊपर बहुत दूर तक
    सूनी-सूनी सड़कें
    मैं जिसमें ठहरा हूँ वह भी छोटा-सा बंगला है—
    पिछवाड़े का कमरा जिसमें एक मात्र जंगला है
    सुबह-सुबह ही
    मैने इसको खोल लिया है
    देख रहा हूँ बरफ़ पड़ रही कैसे
    बरस रहे हैं आसमान से धुनी रूई के फाहे
    या कि विमानों में भर-भर कर यक्ष और किन्नर बरसाते
    कास-कुसुम अविराम

    ढके जा रहे देवदार की हरियाली को अरे दूधिया झाग
    ठिठुर रहीं उंगलियाँ मुझे तो याद आ रही आग
    गरम-गरम ऊनी लिबास से लैस
    देव देवियाँ देख रही होंगी अवश्य हिमपात
    शीशामढ़ी खिड़कियों के नज़दीक बैठकर
    सिमटे-सिकुड़े नौकर-चाकर चाय बनाते होंगे
    ठंड कड़ी है
    सर्वश्वेत पार्वती-प्रकृति निस्तब्ध खड़ी है
    बरफ़ पड़ी है

    भारतमाता

    जय जय जय हे भारत माता!
    नभनिवासिनी जलनिवासिनी
    हरित भरित भूतल-निवासिनी
    गिरि-मरू-पारावारवासिनी
    नील-निविड कांतार वासिनी
    नगर वासिनी ग्रामवासिनी
    अमल-धवल हिमधामवासिनी
    जय जय जय हे भारतमाता!

    खाली नहीं और खाली

    मकान नहीं खाली है
    दूकान नहीं खाली है
    स्कूल नहीं खाली, खाली नहीं कॉलेज
    खाली नहीं टेबुल, खाली नहीं मेज
    खाली अस्पताल नहीं
    खाली है हाल नहीं
    खाली नहीं चेयर, खाली नहीं सीट
    खाली नहीं फुटपाथ, खाली नहीं स्ट्रीट
    खाली नहीं ट्राम, खाली नहीं ट्रेन
    खाली नहीं माइंड, खाली नहीं ब्रेन

    खाली है हाथ, खाली है पेट
    खाली है थाली, खाली है प्लेट !

    (1948)

    ऋतु-सन्धि

    प्रतीक्षा की
    बहुत जोहा बाट
    जेठ बीता, हुई वर्षा नहीं, नभ यों ही रहा खल्वाट
    आज है आधाढ़ वदि षष्ठी
    उठा था जोर का तूफान
    उसके बाद
    सघन काली घन घटा से
    हो रहा आच्छन्न यह आकाश
    आज होगी, सजनि, वर्षा-हो रहा विश्वास
    हो रही है अवनि पुलकित, ले रही निःश्वास
    किंतु अपने देश में तो
    सुमुखि, वर्षा हुई होगी एक क्‍या, कै बार
    गा रहे होंगे मुदित हो लोग खूब मलार
    भर गई होगी अरे वह वाग्मति की धार
    उगे होंगे पोखरों में कुमुद पद्म मखान
    अँख मूँदे कर रहा मैं ध्यान
    लिखूँ क्‍या प्रेयसि, यहाँ का हाल
    सामने ही बह रही भगीरथी, बस यही है कल्याण
    जिस किसी भी भाँति गर्मी से बचे हैं प्राण
    आज-उमड़ी घन घटा को देख
    मन यही करता कि मैं भी, प्रियतमे, उसका करूँ आहवान
    -कालिदास समान
    सामने सरपट पड़ा मैदान _
    है न हरियाली किसी भी ओर
    तृण -लता-तरुहीन
    नग्न प्रांतर देख
    उठ रहा सिर में बड़ा ही दर्द
    हरा धुँधला या कि नीला-
    आ रहा चश्मा न कोई काम
    कितु मुझको हो रहा विश्वास
    यहाँ भी बादल बरसने जा रहा है आज
    अब न सिर में उठेगा फिर दर्द
    लग रहा था आज प्रात:काल पानी सर्द
    गंगा नहाने वक्त
    आया ख्याल
    हिमालय में गल रही है बर्फ;
    आज होगा ग्रीष्म ऋतु का अंत ।

    (1948)