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मीडिया में राष्ट्रवाद की बहस- राकेश कुमार

प्रस्तुत शोध आलेख मीडिया में मौजूदा राष्ट्रवाद, देशद्रोही, देशभक्त और हिंसा की बहस और उसके विभिन्न पहलुओं को मौजूदा समय से व्याख्यायित करने की पहल करता है। राष्ट्र और राष्ट्रवाद दो ऐसे विचार रहे है जिन पर कई सालों से हर अलग-अलग देश में विचार-विमर्श हुआ है। राष्ट्र और राष्ट्रवाद का उदय हर देश में एक समान नहीं रहा है और न ही राष्ट्रवाद के परिणाम। भारत में राष्ट्रवाद का उदय उपनिवेशी सत्ता के खिलाफ स्वतंत्रता आंदोलन के लिए हुआ था। राष्ट्रवाद ने भारत की स्वतंत्रता में एक महत्वपूर्ण योगदान दिया था। स्वतंत्रता के इतने सालों बाद मीडिया में एक बार फिर राष्ट्रवाद और इसका विमर्श केंद्र में है। प्रस्तुत शोध आलेख इसी विमर्श और बहस का आलोचनात्मक परीक्षण करने का प्रयास करता है।

हिंदी की लघु पत्रिकाएं और बांग्ला साहित्य: एक नज़र-डॉ. निकिता जैन

प्रस्तुत शोधालेख में हिंदी की लघु पत्रिकाओं में प्रकाशित बांग्ला भाषा के अनुवादित (हिंदी में) साहित्य का विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है। इस विश्लेषण के ज़रिये न केवल ये पता लगाने की कोशिश की गयी है कि हिंदी की लघु पत्रिकाओं का अन्य क्षेत्रीय या प्रादेशिक भाषाओं का प्रति क्या दृष्टिकोण था बल्कि यह भी मूल्यांकित करने का प्रयास भी किया गया है कि किस तरह यह पत्रिकाएं हिंदी के पाठकों के समक्ष अन्य भाषाओं के अनुवादित साहित्य (हिंदी में) को प्रस्तुत कर रही थीं ताकि वह अन्य भाषाओं की साहित्यिक प्रवृत्तियों से न केवल परिचित हों बल्कि उन्हें आत्मसात करने के पथ पर भी अग्रसर हों। प्रस्तुत शोधालेख में बांग्ला साहित्य को तत्कालीन स्थितियों (1950 से लेकर 1980 तक के विशेष संदर्भ में ) के अनुसार अलग-अलग भागों और संदर्भों में विवेचित करने प्रयास किया गया है जैसे – बांग्लादेश मुक्ति आन्दोलन, हंगरीजेनरेशन मूवमेंट आदि का बांग्ला साहित्य पर क्या प्रभाव पड़ा और उसे किस प्रकार लेखकों ने अपनी रचनाओं के द्वारा प्रस्तुत किया -इन सभी पहलुओं को इस लेख में विवेचित किया गया है।

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