संसद से सड़क तक सुदामा पांडेय धूमिल

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    Sansad Se Sarak Tak Sudama Panday Dhoomil

    संसद से सड़क तक सुदामा पांडेय धूमिल

    1. कविता

    उसे मालूम है कि शब्दों के पीछे
    कितने चेहरे नंगे हो चुके हैं
    और हत्या अब लोगों की रुचि नहीं –
    आदत बन चुकी है
    वह किसी गँवार आदमी की ऊब से
    पैदा हुई थी और
    एक पढ़े-लिखे आदमी के साथ
    शहर में चली गयी

    एक सम्पूर्ण स्त्री होने के पहले ही
    गर्भाधान कि क्रिया से गुज़रते हुए
    उसने जाना कि प्यार
    घनी आबादी वाली बस्तियों में
    मकान की तलाश है
    लगातार बारिश में भीगते हुए
    उसने जाना कि हर लड़की
    तीसरे गर्भपात के बाद
    धर्मशाला हो जाती है और कविता
    हर तीसरे पाठ के बाद

    नहीं – अब वहाँ अर्थ खोजना व्यर्थ है
    पेशेवर भाषा के तस्कर-संकेतों
    और बैलमुत्ती इबारतों में
    अर्थ खोजना व्यर्थ है
    हाँ, अगर हो सके तो बगल के गुज़रते हुए आदमी से कहो –
    लो, यह रहा तुम्हारा चेहरा,
    यह जुलूस के पीछे गिर पड़ा था

    इस वक़्त इतना ही काफ़ी है

    वह बहुत पहले की बात है
    जब कहीं किसी निर्जन में
    आदिम पशुता चीख़ती थी और
    सारा नगर चौंक पड़ता था
    मगर अब –
    अब उसे मालूम है कि कविता
    घेराव में
    किसी बौखलाए हुए आदमी का
    संक्षिप्त एकालाप है

    2. जनतन्त्र के सूर्योदय में

    रक्तपात –
    कहीं नहीं होगा
    सिर्फ़, एक पत्ती टूटेगी!
    एक कन्धा झुक जायेगा!
    फड़कती भुजाओं और सिसकती हुई आँखों को
    एक साथ लाल फीतों में लपेटकर
    वे रख देंगे
    काले दराज़ों के निश्चल एकान्त में
    जहाँ रात में
    संविधान की धाराएँ
    नाराज़ आदमी की परछाईं को
    देश के नक्शे में
    बदल देती है

    पूरे आकाश को
    दो हिस्सों में काटती हुई
    एक गूँगी परछाईं गुज़रेगी
    दीवारों पर खड़खड़ाते रहेंगे
    हवाई हमलों से सुरक्षा के इश्तहार
    यातायात को
    रास्ता देती हुई जलती रहेंगी
    चौरस्तों की बस्तियाँ

    सड़क के पिछले हिस्से में
    छाया रहेगा
    पीला अन्धकार
    शहर की समूची
    पशुता के खिलाफ़
    गलियों में नंगी घूमती हुई
    पागल औरत के ‘गाभिन पेट’ की तरह
    सड़क के पिछले हिस्से में
    छाया रहेगा पीला अन्धकार
    और तुम
    महसूसते रहोगे कि ज़रूरतों के
    हर मोर्चे पर
    तुम्हारा शक
    एक की नींद और
    दूसरे की नफ़रत से
    लड़ रहा है
    अपराधियों के झुण्ड में शरीक होकर
    अपनी आवाज़ का चेहरा टटोलने के लिए
    कविता में
    अब कोई शब्द छोटा नहीं पड़ रहा है :
    लेकिन तुम चुप रहोगे;
    तुम चुप रहोगे और लज्जा के
    उस गूंगेपन-से सहोगे –
    यह जानकर कि तुम्हारी मातृभाषा
    उस महरी की तरह है, जो
    महाजन के साथ रात-भर
    सोने के लिए
    एक साड़ी पर राज़ी है
    सिर कटे मुर्गे की तरह फड़कते हुए
    जनतन्त्र में
    सुबह –
    सिर्फ़ चमकते हुए रंगों की चालबाज़ी है
    और यह जानकर भी, तुम चुप रहोगे
    या शायद, वापसी के लिए पहल करनेवाले

    आदमी की तलाश में
    एक बार फिर
    तुम लौट जाना चाहोगे मुर्दा इतिहास में
    मगर तभी –
    य़ादों पर पर्दा डालती हुई सबेरे की
    फिरंगी हवा बहने लगेगी

    अख़बारों की धूल और
    वनस्पतियों के हरे मुहावरे
    तुम्हें तसल्ली देंगे
    और जलते हुए जनतन्त्र के सूर्योदय में
    शरीक़ होने के लिए
    तुम, चुपचाप, अपनी दिनचर्या का
    पिछला दरवाज़ा खोलकर
    बाहर आ जाओगे
    जहाँ घास की नोक पर
    थरथराती हुई ओस की एक बूंद
    झड़ पड़ने के लिए
    तुम्हारी सहमति का इन्तज़ार
    कर रही है।

    3. अकाल-दर्शन

    भूख कौन उपजाता है :
    वह इरादा जो तरह देता है
    या वह घृणा जो आँखों पर पट्टी बाँधकर
    हमें घास की सट्टी मे छोड़ आती है?

    उस चालाक आदमी ने मेरी बात का उत्तर
    नहीं दिया।
    उसने गलियों और सड़कों और घरों में
    बाढ़ की तरह फैले हुए बच्चों की ओर इशारा किया
    और हँसने लगा।

    मैंने उसका हाथ पकड़ते हुए कहा –
    ‘बच्चे तो बेकारी के दिनों की बरकत हैं’
    इससे वे भी सहमत हैं
    जो हमारी हालत पर तरस खाकर, खाने के लिए
    रसद देते हैं।
    उनका कहना है कि बच्चे
    हमें बसन्त बुनने में मदद देते हैं।

    लेकिन यही वे भूलते हैं
    दरअस्ल, पेड़ों पर बच्चे नहीं
    हमारे अपराध फूलते हैं
    मगर उस चालाक आदमी ने मेरी किसी बात का उत्तर
    नहीं दिया और हँसता रहा – हँसता रहा – हँसता रहा
    फिर जल्दी से हाथ छुड़ाकर
    ‘जनता के हित में’ स्थानांतरित
    हो गया।

    मैंने खुद को समझाया – यार!
    उस जगह खाली हाथ जाने से इस तरह
    क्यों झिझकते हो?
    क्या तुम्हें किसी का सामना करना है?
    तुम वहाँ कुआँ झाँकते आदमी की
    सिर्फ़ पीठ देख सकते हो।

    और सहसा मैंने पाया कि मैं खुद अपने सवालों के
    सामने खड़ा हूँ और
    उस मुहावरे को समझ गया हूँ
    जो आज़ादी और गांधी के नाम पर चल रहा है
    जिससे न भूख मिट रही है, न मौसम
    बदल रहा है।
    लोग बिलबिला रहे हैं (पेड़ों को नंगा करते हुए)
    पत्ते और छाल
    खा रहे हैं
    मर रहे हैं, दान
    कर रहे हैं।
    जलसों-जुलूसों में भीड़ की पूरी ईमानदारी से
    हिस्सा ले रहे हैं और
    अकाल को सोहर की तरह गा रहे हैं।
    झुलसे हुए चेहरों पर कोई चेतावनी नहीं है।

    मैंने जब उनसे कहा कि देश शासन और राशन…
    उन्होंने मुझे टोक दिया है।
    अक्सर ये मुझे अपराध के असली मुकाम पर
    अँगुली रखने से मना करते हैं।
    जिनका आधे से ज़्यादा शरीर
    भेड़ियों ने खा लिया है
    वे इस जंगल की सराहना करते हैं –
    ‘भारतवर्ष नदियों का देश है।’

    बेशक यह ख्याल ही उनका हत्यारा है।
    यह दूसरी बात है कि इस बार
    उन्हें पानी ने मारा है।

    मगर वे हैं कि असलियत नहीं समझते।
    अनाज में छिपे उस आदमी की नीयत
    नहीं समझते
    जो पूरे समुदाय से
    अपनी गिज़ा वसूल करता है –
    कभी ‘गाय’ से
    कभी ‘हाथ’ से

    ‘यह सब कैसे होता है’ मैं उसे समझाता हूँ
    मैं उन्हें समझाता हूँ –
    यह कौनसा प्रजातान्त्रिक नुस्खा है
    कि जिस उम्र में
    मेरी माँ का चेहरा
    झुर्रियों की झोली बन गया है
    उसी उम्र की मेरी पड़ौस की महिला
    के चेहरे पर
    मेरी प्रेमिका के चेहरे-सा
    लोच है।

    ले चुपचाप सुनते हैं।
    उनकी आँखों में विरक्ति है :
    पछतावा है;
    संकोच है
    या क्या है कुछ पता नहीं चलता।
    वे इस कदर पस्त हैं :

    कि तटस्थ हैं।
    और मैं सोचने लगता हूँ कि इस देश में
    एकता युद्ध की और दया
    अकाल की पूंजी है।
    क्रान्ति –
    यहाँ के असंग लोगों के लिए
    किसी अबोध बच्चे के –
    हाथों की जूजी है।

    4. वसन्त

    इधर मैं कई दिनों से प्रतीक्षा
    कर रहा हूँ : कुर्सी में
    टिमटिमाते हुए आदमी की आँखों में
    ऊब है और पड़ौसी के लिए
    लम्बी यातना के बाद
    किसी तीखे शब्द का आशय
    अप्रत्याशित ध्वनियों के समानान्तर
    एक खोखला मैदान है
    और मासिकधर्म में डूबे हुए लत्ते-सा
    खड़खड़ाता हुआ दिन
    जाड़े की रात में
    जले हुए कुत्ते का घाव
    सूखने लगा है
    मेरे आस-पास
    एक अजीब-सा स्वाद-भरा रूखापन है
    उधार देने वाले बनिये के
    नमस्कार की तरह
    जिसे मैं मात्र इसलिए सहता हूँ
    कि इसी के चलते मौज से
    रहता हूँ
    मेरे लिए अब कितना आसान हो गया है
    नामों और आकारों के बीच से
    चीज़ों को टटोलकर निकालना
    अपने लिए तैयार करना –
    और फिर उस तनाव से होकर –
    गुज़र जाना
    जिसमें ज़िम्मेदारियाँ
    आदमी को खोखला करती हैं
    मेरे लिए वसन्त
    बिलों के भुगतान का मौसम है
    और यह वक़्त है कि मैं वसूली भी करूँ-
    टूटती हुई पत्तियों की उम्र
    जाड़े की रात जले कुत्ते का दुस्साहस
    वारण्ट के साथ आये अमीन की उतावली
    और पड़ौसियों का तिरस्कार
    या फिर
    उन तमाम लोगों का प्यार
    जिनके बीच
    मैं अपनी उम्मीद के लिए
    अपराधी हूँ
    यह वक़्त है कि मैं
    तमाम झुकी हुई गरदनों को
    उस पेड़ की और घुमा दूँ
    जहाँ वसन्त दिमाग से निकले हुए पाषाणकालीन पत्थर की तरह
    डाल से लटका हुआ है
    यह वक़्त है कि हम
    कहीं न कहीं सहमत हों
    वसन्त
    मेरे उत्साहित हाथों में एक
    ज़रूरत है
    जिसके सन्दर्भ में समझदार लोग
    चीज़ों को
    घटी हुई दरों में कूतते हैं
    और कहते है :
    सौन्दर्य में स्वाद का मेल
    जब नहीं मिलता
    कुत्ते महुवे के फूल पर
    मूतते हैं

    5. एकान्त-कथा

    मेरे पास उत्तेजित होने के लिए
    कुछ भी नहीं है
    न कोकशास्त्र की किताबें
    न युद्ध की बात
    न गद्देदार बिस्तर
    न टाँगें, न रात
    चाँदनी
    कुछ भी नहीं

    बलात्कार के बाद की आत्मीयता
    मुझे शोक से भर गयी है
    मेरी शालीनता – मेरी ज़रूरत है
    जो अक्सर मुझे नंगा कर गयी है

    जब कभी
    जहाँ कहीं जाता हूँ
    अचूक उद्दण्डता के साथ देहों को
    छायाओं की ओर सरकते हुए पाता हूँ
    भट्ठियाँ सब जगह हैं
    सभी जगह लोग सेकते हैं शील
    उम्र की रपटती ढलानों पर
    ठोकते हैं जगह-जगह कील –
    कि अनुभव ठहर सकें
    अक्सर लोग आपस में बुनते हैं
    गहरा तनाव
    वह शायद इसलिए कि थोड़ी देर ही सही
    मृत्यु से उबर सकें
    मेरी दृष्टि जब भी कभी
    ज़िन्दगी के काले कोनों मे पड़ी है
    मैंने वहाँ देखी है-
    एक अन्धी ढलान
    बैलगाड़ियों को पीठ पर लादकर
    खड़ी है
    (जिनमें व्यक्तित्व के सूखे कंकाल हैं)
    वैसे यह सच है –
    जब
    सड़कों मे होता हूँ
    बहसों में होता हूँ;
    रह-रह चहकता हूँ
    लेकिन हर बार वापस घर लौटकर
    कमरे के अपने एकान्त में
    जूते से निकाले गए पाँव-सा
    महकता हूँ।

    6. शान्ति पाठ

    अखबारों की सुर्खियाँ मिटाकर दुनिया के नक्शे पर
    अन्धकार की एक नयी रेखा खींच रहा हूँ ,
    मैं अपने भविष्य के पठार पर आत्महीनता का दलदल
    उलीच रहा हूँ।
    मेरा डर मुझे चर रहा है।
    मेरा अस्तित्व पड़ोस की नफरत की बगल से उभर रहा है।
    अपने दिमाग के आत्मघाती एकान्त में
    खुद को निहत्था साबित करने के लिए
    मैंने गांधी के तीनों बन्दरों की हत्या की हैं।
    देश-प्रेम की भट्ठी जलाकर
    मैं अपनी ठण्डी मांसपेशियों को विदेशी मुद्रा में
    ढाल राह हूँ।
    फूट पड़ने के पहले, अणुबम के मसौदे को बहसों की प्याली में उबाल रहा हूँ।
    ज़रायमपेशा औरतों की सावधानी और संकटकालीन क्रूरता
    मेरी रक्षा कर रही है।
    गर्भ-गद् गद् औरतों में अजवाइन की सत्त और मिस्सी
    बाँट रहा हूँ।
    युवकों को आत्महत्या के लिए रोज़गार दफ्तर भेजकर
    पंचवर्षीय योजनाओं की सख्त चट्टान को
    कागज़ से काट रहा हूँ।
    बूढ़ों को बीते हुए का दर्प और बच्चों को विरोधी
    चमड़े का मुहावरा सिखा रहा हू।
    गिद्धों की आँखों के खूनी कोलाहल और ठण्डे लोगों की
    आत्मीयता से बचकर
    मैकमोहन रेखा एक मुर्दे की बगल में सो रही है
    और मैं दुनिया के शान्ति-दूतों और जूतों को
    परम्परा की पालिश से चमका रहा हूँ।
    अपनी आँखों में सभ्यता के गर्भाशय की दीवारों का
    सुरमा लगा रहा हूँ।
    मैं देख रहा हूँ एशिया में दायें हाथों की मक्कारी ने
    विस्फोटक सुरंगें बिछा दी हैं।
    उत्तर-दक्षिण-पूरब-पिश्चम-कोरिया, वियतनाम
    पाकिस्तान, इसराइल और कई नाम
    उसके चारों कोनों पर खूनी धब्बे चमक रहे हैं।
    मगर मैं अपनी भूखी अंतड़ियाँ हवा में फैलाकर
    पूरी नैतिकता के साथ अपनी सड़े हुए अंगों को सह रहा हूँ।
    भेड़िये को भाई कह रहा हूँ।
    कबूतर का पर लगाकर
    विदेशी युद्धप्रेक्षकों ने
    आज़ादी की बिगड़ी हुई मशीन को
    ठीक कर दिया है।
    वह फिर हवा देने लगी है।
    न मै कमन्द हूँ
    न कवच हूँ
    न छन्द हूँ
    मैं बीचोबीच से दब गया हूँ।
    मै चारों तरफ से बन्द हूँ।
    मैं जानता हूँ कि इससे न तो कुर्सी बन सकती है
    और न बैसाखी
    मेरा गुस्सा-
    जनमत की चढ़ी हुई नदी में
    एक सड़ा हुआ काठ है।
    लन्दन और न्यूयार्क के घुण्डीदार तसमों से
    डमरू की तरह बजता हुआ मेरा चरित्र
    अंग्रेजी का 8 है।

    7. उस औरत की बगल में लेटकर

    मैंने पहली बार महसूस किया है
    कि नंगापन
    अन्धा होने के खिलाफ़
    एक सख्त कार्यवाही है

    उस औरत की बगल में लेटकर
    मुझे लगा कि नफ़रत
    और मोमबत्तियाँ जहाँ बेकार
    साबित हो चुकी हैं और पिघले हुए
    शब्दों की परछाईं
    किसी खौफ़नाक जानवर के चेहरे में
    बदल गयी है, मेरी कविताएँ
    अँधेरा और कीचड़ और गोश्त की
    खुराक़ पर ज़िन्दा है

    वक़्त को रगड़कर
    मिटा देने के लिए
    सिर्फ़ उछलते शरीर ही काफ़ी नहीं हैं
    जबकि हमारा चेहरा
    रसोईघर की फूटी पतीलियों के ठीक
    सामने है और रात
    उस वक़्त रास्ता नहीं होती
    जब हमारे भीतर तरबूज़ कट रहे हैं
    मगर हमारे सिर तकियों पर
    पत्थर हो गये हैं
    उस औरत की बगल में लेटकर
    मैंने महसूस किया कि घर
    छोटी-छोटी सुविधाओं की लानत से
    बना है
    जिसके अन्दर जूता पहनकर टहलना मना है
    यह घास है याने कि हरा डर
    जिसने मुझे इस तरह
    सोचने पर मज़बूर कर दिया है
    इस वक़्त यह सोचना कितना सुखद है
    कि मेरे पड़ौसियों के सारे दाँत
    टूट गये हैं
    उनकी जाँघों की हरकत
    पाला लगी मटर की तरह
    मुर्झा गयी है उनकी आँखों की सेहत
    दीवार खा गयी है

    उस औरत की बगल में लेटकर
    (जब अचानक
    बुझे हुए मकानों के सामने
    दमकलों के घण्टे चुप हो गये हैं)
    मुझे लगा है कि हाँफते हुए
    दलदल की बगल में जंगल होना
    आदमी की आदत नहीं अदना लाचारी है
    और मेरे भीतर एक कायर दिमाग़ है
    जो मेरी रक्षा करता है और वही
    मेरी बटनों का उत्तराधिकारी है।

    8. कुत्ता

    उसकी सारी शख्सियत
    नखों और दाँतों की वसीयत है
    दूसरों के लिए
    वह एक शानदार छलांग है
    अँधेरी रातों का
    जागरण है नींद के खिलाफ़
    नीली गुर्राहट है

    अपनी आसानी के लिए तुम उसे
    कुत्ता कह सकते हो

    उस लपलपाती हुई जीभ और हिलती हुई दुम के बीच
    भूख का पालतूपन
    हरकत कर रहा है
    उसे तुम्हारी शराफ़त से कोई वास्ता
    नहीं है उसकी नज़र
    न कल पर थी
    न आज पर है
    सारी बहसों से अलग
    वह हड्डी के एक टुकड़े और
    कौर-भर
    (सीझे हुए) अनाज पर है

    साल में सिर्फ़ एक बार
    अपने खून से ज़हर मोहरा तलाशती हुई
    मादा को बाहर निकालने के लिए
    वह तुम्हारी ज़ंजीरों से
    शिकायत करता है
    अन्यथा, पूरा का पूर वर्ष
    उसके लिए घास है
    उसकी सही जगह तुम्हारे पैरों के पास है

    मगर तुम्हारे जूतों में
    उसकी कोई दिलचस्पी नही है
    उसकी नज़र
    जूतों की बनावट नहीं देखती
    और न उसका दाम देखती है
    वहाँ वह सिर्फ़ बित्ता-भर
    मरा हुआ चाम देखती है
    और तुम्हारे पैरों से बाहर आने तक
    उसका इन्तज़ार करती है
    (पूरी आत्मीयता से)

    उसके दाँतों और जीभ के बीच
    लालच की तमीज़ जो है तुम्हें
    ज़ायकेदार हड्डी के टुकड़े की तरह
    प्यार करती है

    और वहाँ, हद दर्जे की लचक है
    लोच है
    नर्मी है
    मगर मत भूलो कि इन सबसे बड़ी चीज़
    वह बेशर्मी है
    जो अन्त में
    तुम्हें भी उसी रास्ते पर लाती है
    जहाँ भूख –
    उस वहशी को
    पालतू बनाती है।

    9. शहर में सूर्यास्त

    अधजले शब्दों के ढेर में तुम
    क्या तलाश रहे हो?
    तुम्हारी आत्मीयता –
    जले हुए काग़ज़ की वह तस्वीर है
    जो छूते ही राख हो जायेगी।
    इस देश के बातूनी दिमाग़ में
    किसी विदेशी भाषा का सूर्यास्त
    फिर सुलगने लगा है
    लाल-हरी झण्डियाँ –
    जो कल तक शिखरों पर फहरा रही थीं
    वक़्त की निचली सतहों में उतरकर
    स्याह हो गई है और चरित्रहीनता
    मन्त्रियों की कुर्सी में तब्दील हो चुकी है
    तुम्हारी तरह मुझे भी अफ़सोस है
    मैंने भी इस देश को
    एक जवान आदमी की
    रंगीन इच्छाओं की पूरी गहराई से
    प्यार किया था
    मगर अब, अतीत से अपना चेहरा
    देखने के लिए
    शीशे की धूल झाड़ना बेकार है
    उसकी पालिश उतर चुकी है
    और अब उसके दोनों ओर, सिर्फ़
    दीवार है
    जिसके पीछे –
    राजनीतिक अफ़वाहों का शरदकालीन
    आकाश नगर के लफंगों में
    आखिरी नाटक की मनपसंद भूमिकाएँ
    बाँट रहा है
    ‘रिहर्सल’ के हवा-बन्द कमरों में
    खिड़कियों के गन्दे मुहावरे गूँज रहे हैं
    शाम हो रही है
    दिन की मुंडेर पर, अन्धकार में आधा
    झुका सूरज
    अपनी जांघों पर
    रोशनी की गुलेल तोड़ रहा है
    रंगों की बदचलन इच्छाएँ
    शहर का सबसे अच्छा ‘शो केस’ तैयार
    कर रही है
    उन्होंने जनता और ज़रायमपेशा
    औरतों के बीच की
    सरल रेखा को काटकर
    स्वास्तिक चिन्ह बना लिया है
    और हवा में एक चमकदार गोल शब्द
    फेंक दिया है – ‘जनतन्त्र’
    जिसकी रोज़ सैकड़ों बार हत्या होती है
    और हर बार
    वह भेड़ियों की ज़ुबान पर ज़िन्दा है!

    10. एक आदमी

    शाम जब तमाम खुली हुई चीज़ों को
    बन्द करती हुई चली जाती है
    और दरवाज़े पर
    सिटकिनी का रंग बरामदे के
    अन्धकार में घुल जाता है
    जब मैं काम से नहीं होता
    याने की मैं नहीं ढोता
    अलमारियों में बन्द किताबों का विवेक
    या हाँफते हुए घोड़ों और फेन से तरबतर –
    औरतों का गर्म ख़याल :
    मेरे पास एक आदमी आता है
    (‘जैसे किसी मकान में अपरिचितों के बीच –
    चल रहे हों’
    आप कल्पना करें – )
    अपनी उपस्थिति पर अनायास खाँसता हुआ
    वह एक मर्द है
    उसके सूजे हुए चेहरे पर
    मौसमों की अंगुलियाँ अलग-अलग
    उपटी हुई है
    उसकी नाक ऊँची है
    और बरौनियाँ सटी हुई हैं
    उसने एक मशीन पाल रखी है
    जो उसे
    चीज़ों के नीलाम में
    मदद देती है।

    उसकी गर्दन लम्बी है। उसे शक है –
    किसी ने रास्ते-भर उसका पीछा किया है
    उम्र के सत्ताईस साल उसने भागते हुए जिये हैं
    उसके पेशाब पर चींटियाँ रेंगती हैं
    उसके प्रेम-पत्रों की आँच में
    उसकी प्रेमिकाएँ रोटियाँ सेंकती हैं
    अपनी अधूरी इच्छाओं में झुलसता हुआ
    वह एक संभावित नर्क है :
    वह अपने लिए काफ़ी सतर्क है
    और जब वह जवान औरतों के देखता है –
    उसकी आँखों में कुत्ते भौंकते हैं
    उसका विचार है –
    कि उसके मरते ही मनुष्यता –
    अंधी हो जाएगी
    उसे अपनी सेवाओं पर गर्व है।
    देश से प्यार है।
    कुर्सी के ‘हाते’ में उसकी हरकतें
    मुझे अच्छी लगती हैं
    और अच्छा लगता है मुझे उसका झेंपता हुआ चेहरा
    जिससे शालीनता इतनी ज़्यादा टपक चुकी है
    कि वहाँ एक तैरता हुआ पत्थर है
    सम्भावनाओं में लगातार पहलू बदलता हुआ
    अपनी पराजित और जड़-विहीन हँसी पर
    अतीत और मानसून का खोखलापन
    टाँगता हुआ
    जब वह हँसता है उसका मुख
    धक्का खायी हुई ‘रीम’ की तरह
    उदास – फैल जाता है
    मेरे पास अक्सर एक आदमी आता है
    और हर बार
    मेरी डायरी के अगले पन्ने पर
    बैठ जाता है।

    11. सच्ची बात

    बाड़ियाँ फटे हुए बाँसों पर फहरा रही हैं
    और इतिहास के पन्नों पर
    धर्म के लिए मरे हुए लोगों के नाम
    बात सिर्फ़ इतनी है
    स्नानाघाट पर जाता हुआ रास्ता
    देह की मण्डी से होकर गुज़रता है
    और जहाँ घटित होने के लिए कुछ भी नहीं है
    वहीं हम गवाह की तरह खड़े किये जाते हैं
    कुछ देर अपनी ऊब में तटस्थ
    और फिर चमत्कार की वापसी के बाद
    भीड़ से वापस ले लिए जाते हैं
    वक़्त और लोगों के बीच
    सवाल शोर के नापने का नहीं है
    बल्कि उस फ़ासले का है जो इस रफ़्तार में भी
    सुरक्षित है
    वैसे हम समझते हैं कि सच्चाई
    हमें अक्सर अपराध की सीमा पर
    छोड़ आती है
    आदतों और विज्ञापनों से दबे हुए आदमी का
    सबसे अमूल्य क्षण सन्देहों में
    तुलता है
    हर ईमान का एक चोर दरवाज़ा होता है
    जो सण्डास की बगल में खुलता है
    दृष्टियों की धार में बहती नैतिकता का
    कितना भद्धा मज़ाक है
    कि हमारे चेहरों पर
    आँख के ठीक नीचे ही नाक है।

    12. पटकथा

    जब मैं बाहर आया
    मेरे हाथों में
    एक कविता थी और दिमाग में
    आँतों का एक्स-रे।
    वह काला धब्बा
    कल तक एक शब्द था;
    खून के अँधेर में
    दवा का ट्रेडमार्क
    बन गया था।
    औरतों के लिये गै़र-ज़रूरी होने के बाद
    अपनी ऊब का
    दूसरा समाधान ढूँढना ज़रूरी है।
    मैंने सोचा !
    क्योंकि शब्द और स्वाद के बीच
    अपनी भूख को ज़िन्दा रखना
    जीभ और जाँघ के स्थानिक भूगोल की
    वाजिब मजबूरी है।
    मैंने सोचा और संस्कार के
    वर्जित इलाकों में
    अपनी आदतों का शिकार
    होने के पहले ही बाहर चला आया।
    बाहर हवा थी
    धूप थी
    घास थी
    मैंने कहा आजादी…
    मुझे अच्छी तरह याद है-
    मैंने यही कहा था
    मेरी नस-नस में बिजली
    दौड़ रही थी
    उत्साह में
    खुद मेरा स्वर
    मुझे अजनबी लग रहा था
    मैंने कहा-आ-जा-दी
    और दौड़ता हुआ खेतों की ओर
    गया। वहाँ कतार के कतार
    अनाज के अँकुए फूट रहे थे
    मैंने कहा- जैसे कसरत करते हुये
    बच्चे। तारों पर
    चिडि़याँ चहचहा रही थीं
    मैंने कहा-काँसे की बजती हुई घण्टियाँ…
    खेत की मेड़ पार करते हुये
    मैंने एक बैल की पीठ थपथपायी
    सड़क पर जाते हुये आदमी से
    उसका नाम पूछा
    और कहा- बधाई…
    घर लौटकर
    मैंने सारी बत्तियाँ जला दीं
    पुरानी तस्वीरों को दीवार से
    उतारकर
    उन्हें साफ किया
    और फिर उन्हें दीवार पर (उसी जगह)
    पोंछकर टाँग दिया।
    मैंने दरवाजे के बाहर
    एक पौधा लगाया और कहा–
    वन महोत्सव…
    और देर तक
    हवा में गरदन उचका-उचकाकर
    लम्बी-लम्बी साँस खींचता रहा
    देर तक महसूस करता रहा–
    कि मेरे भीतर
    वक्त का सामना करने के लिये
    औसतन ,जवान खून है
    मगर ,मुझे शान्ति चाहिये
    इसलिये एक जोड़ा कबूतर लाकर डाल दिया
    ‘गूँ..गुटरगूँ…गूँ…गुटरगूँ…’
    और चहकते हुये कहा
    यही मेरी आस्था है
    यही मेरा कानून है।
    इस तरह जो था उसे मैंने
    जी भरकर प्यार किया
    और जो नहीं था
    उसका इंतज़ार किया।
    मैंने इंतज़ार किया–
    अब कोई बच्चा
    भूखा रहकर स्कूल नहीं जायेगा
    अब कोई छत बारिश में
    नहीं टपकेगी।
    अब कोई आदमी कपड़ों की लाचारी में
    अपना नंगा चेहरा नहीं पहनेगा
    अब कोई दवा के अभाव में
    घुट-घुटकर नहीं मरेगा
    अब कोई किसी की रोटी नहीं छीनेगा
    कोई किसी को नंगा नहीं करेगा
    अब यह ज़मीन अपनी है
    आसमान अपना है
    जैसा पहले हुआ करता था…
    सूर्य,हमारा सपना है
    मैं इन्तजा़र करता रहा..
    इन्तजा़र करता रहा…
    इन्तजा़र करता रहा…
    जनतन्त्र,त्याग,स्वतन्त्रता…
    संस्कृति,शान्ति,मनुष्यता…
    ये सारे शब्द थे
    सुनहरे वादे थे
    खुशफ़हम इरादे थे
    सुन्दर थे
    मौलिक थे
    मुखर थे
    मैं सुनता रहा…
    सुनता रहा…
    सुनता रहा…
    मतदान होते रहे
    मैं अपनी सम्मोहित बुद्धि के नीचे
    उसी लोकनायक को
    बार-बार चुनता रहा
    जिसके पास हर शंका और
    हर सवाल का
    एक ही जवाब था
    यानी कि कोट के बटन-होल में
    महकता हुआ एक फूल
    गुलाब का।
    वह हमें विश्वशान्ति के और पंचशील के सूत्र
    समझाता रहा। मैं खुद को
    समझाता रहा-’जो मैं चाहता हूँ-
    वही होगा। होगा-आज नहीं तो कल
    मगर सब कुछ सही होगा।
    भीड़ बढ़ती रही।
    चौराहे चौड़े होते रहे।
    लोग अपने-अपने हिस्से का अनाज
    खाकर-निरापद भाव से
    बच्चे जनते रहे।
    योजनायेँ चलती रहीं
    बन्दूकों के कारखानों में
    जूते बनते रहे।
    और जब कभी मौसम उतार पर
    होता था। हमारा संशय
    हमें कोंचता था। हम उत्तेजित होकर
    पूछते थे -यह क्या है?
    ऐसा क्यों है?
    फिर बहसें होतीं थीं
    शब्दों के जंगल में
    हम एक-दूसरे को काटते थे
    भाषा की खाई को
    जुबान से कम जूतों से
    ज्यादा पाटते थे
    कभी वह हारता रहा…
    कभी हम जीतते रहे…
    इसी तरह नोक-झोंक चलती रही
    दिन बीतते रहे…
    मगर एक दिन मैं स्तब्ध रह गया।
    मेरा सारा धीरज
    युद्ध की आग से पिघलती हुयी बर्फ में
    बह गया।
    मैंने देखा कि मैदानों में
    नदियों की जगह
    मरे हुये साँपों की केंचुलें बिछी हैं
    पेड़-टूटे हुये रडार की तरह खड़े हैं
    दूर-दूर तक
    कोई मौसम नहीं है
    लोग-
    घरों के भीतर नंगे हो गये हैं
    और बाहर मुर्दे पड़े हैं
    विधवायें तमगा लूट रहीं हैं
    सधवायें मंगल गा रहीं हैं
    वन-महोत्सव से लौटी हुई कार्यप्रणालियाँ
    अकाल का लंगर चला रही हैं
    जगह-जगह तख्तियाँ लटक रहीं हैं-
    ‘यह श्मशान है,यहाँ की तश्वीर लेना
    सख्त मना है।’
    फिर भी उस उजाड़ में
    कहीं-कहीं घास का हरा कोना
    कितना डरावना है
    मैंने अचरज से देखा कि दुनिया का
    सबसे बड़ा बौद्ध- मठ
    बारूद का सबसे बड़ा गोदाम है
    अखबार के मटमैले हासिये पर
    लेटे हुये ,एक तटस्थ और कोढ़ी देवता का
    शांतिवाद ,नाम है
    यह मेरा देश है…
    यह मेरा देश है…
    हिमालय से लेकर हिंद महासागर तक
    फैला हुआ
    जली हुई मिट्टी का ढेर है
    जहाँ हर तीसरी जुबान का मतलब-
    नफ़रत है।
    साज़िश है।
    अन्धेर है।
    यह मेरा देश है
    और यह मेरे देश की जनता है
    जनता क्या है?
    एक शब्द…सिर्फ एक शब्द है:
    कुहरा,कीचड़ और कांच से
    बना हुआ…
    एक भेड़ है
    जो दूसरों की ठण्ड के लिये
    अपनी पीठ पर
    ऊन की फसल ढो रही है।
    एक पेड़ है
    जो ढलान पर
    हर आती-जाती हवा की जुबान में
    हाँऽऽ..हाँऽऽ करता है
    क्योंकि अपनी हरियाली से
    डरता है।
    गाँवों में गन्दे पनालों से लेकर
    शहर के शिवालों तक फैली हुई
    ‘कथाकलि’ की अंमूर्त मुद्रा है
    यह जनता…
    उसकी श्रद्धा अटूट है
    उसको समझा दिया गया है कि यहाँ
    ऐसा जनतन्त्र है जिसमें
    घोड़े और घास को
    एक-जैसी छूट है
    कैसी विडम्बना है
    कैसा झूठ है
    दरअसल, अपने यहाँ जनतन्त्र
    एक ऐसा तमाशा है
    जिसकी जान
    मदारी की भाषा है।
    हर तरफ धुआँ है
    हर तरफ कुहासा है
    जो दाँतों और दलदलों का दलाल है
    वही देशभक्त है
    अन्धकार में सुरक्षित होने का नाम है-
    तटस्थता। यहाँ
    कायरता के चेहरे पर
    सबसे ज्यादा रक्त है।
    जिसके पास थाली है
    हर भूखा आदमी
    उसके लिये,सबसे भद्दी गाली है
    हर तरफ कुआँ है
    हर तरफ खाई है
    यहाँ,सिर्फ ,वह आदमी,देश के करीब है
    जो या तो मूर्ख है
    या फिर गरीब है
    मैं सोचता रहा
    और घूमता रहा-
    टूटे हुये पुलों के नीचे
    वीरान सड़कों पर आँखों के
    अंधे रेगिस्तानों में
    फटे हुये पालों की
    अधूरी जल-यात्राओं में
    टूटी हुई चीज़ों के ढेर में
    मैं खोयी हुई आजादी का अर्थ
    ढूँढता रहा।
    अपनी पसलियों के नीचे /अस्पतालों के
    बिस्तरों में/ नुमाइशों में
    बाजारों में /गाँवों में
    जंगलों में /पहाडों पर
    देश के इस छोर से उस छोर तक
    उसी लोक-चेतना को
    बार-बार टेरता रहा
    जो मुझे दोबारा जी सके
    जो मुझे शान्ति दे और
    मेरे भीतर-बाहर का ज़हर
    खुद पी सके।
    –और तभी सुलग उठा पश्चिमी सीमान्त
    …ध्वस्त…ध्वस्त…ध्वान्त…ध्वान्त…
    मैं दोबार चौंककर खड़ा हो गया
    जो चेहरा आत्महीनता की स्वीकृति में
    कन्धों पर लुढ़क रहा था,
    किसी झनझनाते चाकू की तरह
    खुलकर,कड़ा हो गया…
    अचानक अपने-आपमें जिन्दा होने की
    यह घटना
    इस देश की परम्परा की –
    एक बेमिशाल कड़ी थी
    लेकिन इसे साहस मत कहो
    दरअस्ल,यह पुट्ठों तक चोट खायी हुई
    गाय की घृणा थी
    (जिंदा रहने की पुरजो़र कोशिश)
    जो उस आदमखोर की हवस से
    बड़ी थी।
    मगर उसके तुरन्त बाद
    मुझे झेलनी पड़ी थी-सबसे बड़ी ट्रैजेडी
    अपने इतिहास की
    जब दुनिया के स्याह और सफेद चेहरों ने
    विस्मय से देखा कि ताशकन्द में
    समझौते की सफेद चादर के नीचे
    एक शान्तियात्री की लाश थी
    और अब यह किसी पौराणिक कथा के
    उपसंहार की तरह है कि इसे देश में
    रोशनी उन पहाड़ों से आई थी
    जहाँ मेरे पडो़सी ने
    मात खायी थी।
    मगर मैं फिर वहीं चला गया
    अपने जुनून के अँधेरे में
    फूहड़ इरादों के हाथों
    छला गया।
    वहाँ बंजर मैदान
    कंकालों की नुमाइश कर रहे थे
    गोदाम अनाजों से भरे थे और लोग
    भूखों मर रहे थे
    मैंने महसूस किया कि मैं वक्त के
    एक शर्मनाक दौर से गुजर रहा हूँ
    अब ऐसा वक्त आ गया है जब कोई
    किसी का झुलसा हुआ चेहरा नहीं देखता है
    अब न तो कोई किसी का खाली पेट
    देखता है, न थरथराती हुई टाँगें
    और न ढला हुआ ‘सूर्यहीन कन्धा’ देखता है
    हर आदमी,सिर्फ, अपना धन्धा देखता है
    सबने भाईचारा भुला दिया है
    आत्मा की सरलता को भुलाकर
    मतलब के अँधेरे में (एक राष्ट्रीय मुहावरे की बगल में)
    सुला दिया है।
    सहानुभूति और प्यार
    अब ऐसा छलावा है जिसके ज़रिये
    एक आदमी दूसरे को,अकेले –
    अँधेरे में ले जाता है और
    उसकी पीठ में छुरा भोंक देता है
    ठीक उस मोची की तरह जो चौक से
    गुजरते हुये देहाती को
    प्यार से बुलाता है और मरम्मत के नाम पर
    रबर के तल्ले में
    लोहे के तीन दर्जन फुल्लियाँ
    ठोंक देता है और उसके नहीं -नहीं के बावजूद
    डपटकर पैसा वसूलता है
    गरज़ यह है कि अपराध
    अपने यहाँ एक ऐसा सदाबहार फूल है
    जो आत्मीयता की खाद पर
    लाल-भड़क फूलता है
    मैंने देखा कि इस जनतांत्रिक जंगल में
    हर तरफ हत्याओं के नीचे से निकलते है
    हरे-हरे हाथ,और पेड़ों पर
    पत्तों की जुबान बनकर लटक जाते हैं
    वे ऐसी भाषा बोलते हैं जिसे सुनकर
    नागरिकता की गोधूलि में
    घर लौटते मुशाफिर अपना रास्ता भटक जाते हैं।
    उन्होंने किसी चीज को
    सही जगह नहीं रहने दिया
    न संज्ञा
    न विशेषण
    न सर्वनाम
    एक समूचा और सही वाक्य
    टूटकर
    ‘बि ख र’ गया है
    उनका व्याकरण इस देश की
    शिराओं में छिपे हुये कारकों का
    हत्यारा है
    उनकी सख्त पकड़ के नीचे
    भूख से मरा हुआ आदमी
    इस मौसम का
    सबसे दिलचस्प विज्ञापन है और गाय
    सबसे सटीक नारा है
    वे खेतों मेंभूख और शहरों में
    अफवाहों के पुलिंदे फेंकते हैं
    देश और धर्म और नैतिकता की
    दुहाई देकर
    कुछ लोगों की सुविधा
    दूसरों की ‘हाय’पर सेंकते हैं
    वे जिसकी पीठ ठोंकते हैं
    उसकी रीढ़ की हड्डी गायब हो जाती है
    वे मुस्कराते हैं और
    दूसरे की आँख में झपटती हुई प्रतिहिंसा
    करवट बदलकर सो जाती है
    मैं देखता रहा…
    देखता रहा…
    हर तरफ ऊब थी
    संशय था
    नफरत थी
    मगर हर आदमी अपनी ज़रूरतों के आगे
    असहाय था। उसमें
    सारी चीज़ों को नये सिरे से बदलने की
    बेचैनी थी ,रोष था
    लेकिन उसका गुस्सा
    एक तथ्यहीन मिश्रण था:
    आग और आँसू और हाय का।
    इस तरह एक दिन-
    जब मैं घूमते-घूमते थक चुका था
    मेरे खून में एक काली आँधी-
    दौड़ लगा रही थी
    मेरी असफलताओं में सोये हुये
    वहसी इरादों को
    झकझोरकर जगा रही थी
    अचानक ,नींद की असंख्य पर्तों में
    डूबते हुये मैंने देखा
    मेरी उलझनों के अँधेरे में
    एक हमशक्ल खड़ा है
    मैंने उससे पूछा-’तुम कौन हो?
    यहाँ क्यों आये हो?
    तुम्हें क्या हुआ है?’
    ‘तुमने पहचाना नहीं-मैं हिंदुस्तान हूँ
    हाँ -मैं हिंदुस्तान हूँ’,
    वह हँसता है-ऐसी हँसी कि दिल
    दहल जाता है
    कलेजा मुँह को आता है
    और मैं हैरान हूँ
    ‘यहाँ आओ
    मेरे पास आओ
    मुझे छुओ।
    मुझे जियो। मेरे साथ चलो
    मेरा यकीन करो। इस दलदल से
    बाहर निकलो!
    सुनो!
    तुम चाहे जिसे चुनो
    मगर इसे नहीं। इसे बदलो।
    मुझे लगा-आवाज़
    जैसे किसी जलते हुये कुएँ से
    आ रही है।
    एक अजीब-सी प्यार भरी गुर्राहट
    जैसे कोई मादा भेड़िया
    अपने छौने को दूध पिला रही है
    साथ ही किसी छौने का सिर चबा रही है
    मेरा सारा जिस्म थरथरा रहा था
    उसकी आवाज में
    असंख्य नरकों की घृणा भरी थी
    वह एक-एक शब्द चबा-चबाकर
    बोल रहा था। मगर उसकी आँख
    गुस्से में भी हरी थी
    वह कह रहा था-
    ‘तुम्हारी आँखों के चकनाचूर आईनों में
    वक्त की बदरंग छायाएँ उलटी कर रही हैं
    और तुम पेड़ों की छाल गिनकर
    भविष्य का कार्यक्रम तैयार कर रहे हो
    तुम एक ऐसी जिन्दगी से गुज़र रहे हो
    जिसमें न कोई तुक है
    न सुख है
    तुम अपनी शापित परछाई से टकराकर
    रास्ते में रुक गये हो
    तुम जो हर चीज़
    अपने दाँतों के नीचे
    खाने के आदी हो
    चाहे वह सपना अथवा आज़ादी हो
    अचानक ,इस तरह,क्यों चुक गये हो
    वह क्या है जिसने तुम्हें
    बर्बरों के सामने अदब से
    रहना सिखलाया है?
    क्या यह विश्वास की कमी है
    जो तुम्हारी भलमनसाहत बन गयी है
    या कि शर्म
    अब तुम्हारी सहूलियत बन गयी है
    नहीं-सरलता की तरह इस तरह
    मत दौड़ो
    उसमें भूख और मन्दिर की रोशनी का
    रिश्ता है। वह बनिये की पूँजी का
    आधार है
    मैं बार-बार कहता हूँ कि इस उलझी हुई
    दुनिया में
    आसानी से समझ में आने वाली चीज़
    सिर्फ दीवार है।
    और यह दीवार अब तुम्हारी आदत का
    हिस्सा बन गयी है
    इसे झटककर अलग करो
    अपनी आदतों में
    फूलों की जगह पत्थर भरो
    मासूमियत के हर तकाज़े को
    ठोकर मार दो
    अब वक्त आ गया है तुम उठो
    और अपनी ऊब को आकार दो।
    ‘सुनो !
    आज मैं तुम्हें वह सत्य बतलाता हूँ
    जिसके आगे हर सचाई
    छोटी है। इस दुनिया में
    भूखे आदमी का सबसे बड़ा तर्क
    रोटी है।
    मगर तुम्हारी भूख और भाषा में
    यदि सही दूरी नहीं है
    तो तुम अपने-आपको आदमी मत कहो
    क्योंकि पशुता –
    सिर्फ पूँछ होने की मज़बूरी नहीं है
    वह आदमी को वहीं ले जाती है
    जहाँ भूख
    सबसे पहले भाषा को खाती है
    वक्त सिर्फ उसका चेहरा बिगाड़ता है
    जो अपने चेहरे की राख
    दूसरों की रूमाल से झाड़ता है
    जो अपना हाथ
    मैला होने से डरता है
    वह एक नहीं ग्यारह कायरों की
    मौत मरता है
    और सुनो! नफ़रत और रोशनी
    सिर्फ़ उनके हिस्से की चीज़ हैं
    जिसे जंगल के हाशिये पर
    जीने की तमीज है
    इसलिये उठो और अपने भीतर
    सोये हुए जंगल को
    आवाज़ दो
    उसे जगाओ और देखो-
    कि तुम अकेले नहीं हो
    और न किसी के मुहताज हो
    लाखों हैं जो तुम्हारे इन्तज़ार में खडे़ हैं
    वहाँ चलो।उनका साथ दो
    और इस तिलस्म का जादू उतारने में
    उनकी मदद करो और साबित करो
    कि वे सारी चीज़ें अन्धी हो गयीं हैं
    जिनमें तुम शरीक नहीं हो…’
    मैं पूरी तत्परता से उसे सुन रहा था
    एक के बाद दूसरा
    दूसरे के बाद तीसरा
    तीसरे के बाद चौथा
    चौथे के बाद पाँचवाँ…
    यानी कि एक के बाद दूसरा विकल्प
    चुन रहा था
    मगर मैं हिचक रहा था
    क्योंकि मेरे पास
    कुल जमा थोड़ी सुविधायें थीं
    जो मेरी सीमाएँ थीं
    यद्यपि यह सही है कि मैं
    कोई ठण्डा आदमी नहीं है
    मुझमें भी आग है-
    मगर वह
    भभककर बाहर नहीं आती
    क्योंकि उसके चारों तरफ चक्कर काटता हुआ
    एक ‘पूँजीवादी’दिमाग है
    जो परिवर्तन तो चाहता है
    मगर आहिस्ता-आहिस्ता
    कुछ इस तरह कि चीज़ों की शालीनता
    बनी रहे।
    कुछ इस तरह कि काँख भी ढकी रहे
    और विरोध में उठे हुये हाथ की
    मुट्ठी भी तनी रहे…और यही है कि बात
    फैलने की हद तक
    आते-आते रुक जाती है
    क्योंकि हर बार
    चन्द सुविधाओं के लालच के सामने
    अभियोग की भाषा चुक जाती है।
    मैं खुद को कुरेद रहा था
    अपने बहाने उन तमाम लोगों की असफलताओं को
    सोच रहा था जो मेरे नजदीक थे।
    इस तरह साबुत और सीधे विचारों पर
    जमी हुई काई और उगी हुई घास को
    खरोंच रहा था,नोंच रहा था
    पूरे समाज की सीवन उधेड़ते हुये
    मैंने आदमी के भीतर की मैल
    देख ली थी। मेरा सिर
    भिन्ना रहा था
    मेरा हृदय भारी था
    मेरा शरीर इस बुरी तरह थका था कि मैं
    अपनी तरफ़ घूरते उस चेहरे से
    थोड़ी देर के लिये
    बचना चाह रहा था
    जो अपनी पैनी आँखों से
    मेरी बेबसी और मेरा उथलापन
    थाह रहा था
    प्रस्तावित भीड़ में
    शरीक होने के लिये
    अभी मैंने कोई निर्णय नहीं लिया था
    अचानक ,उसने मेरा हाथ पकड़कर
    खींच लिया और मैं
    जेब में जूतों का टोकन और दिमाग में
    ताजे़ अखबार की कतरन लिये हुये
    धड़ाम से-
    चौथे आम चुनाव की सीढ़ियों से फिसलकर
    मत-पेटियों के
    गड़गच्च अँधेरे में गिर पड़ा
    नींद के भीतर यह दूसरी नींद है
    और मुझे कुछ नहीं सूझ रहा है
    सिर्फ एक शोर है
    जिसमें कानों के पर्दे फटे जा रहे हैं
    शासन सुरक्षा रोज़गार शिक्षा …
    राष्ट्रधर्म देशहित हिंसा अहिंसा…
    सैन्यशक्ति देशभक्ति आजा़दी वीसा…
    वाद बिरादरी भूख भीख भाषा…
    शान्ति क्रान्ति शीतयुद्ध एटमबम सीमा…
    एकता सीढ़ियाँ साहित्यिक पीढ़ियाँ निराशा…
    झाँय-झाँय,खाँय-खाँय,हाय-हाय,साँय-साँय…
    मैंने कानों में ठूँस ली हैं अँगुलियाँ
    और अँधेरे में गाड़ दी है
    आंखों की रोशनी।
    सब-कुछ अब धीरे-धीरे खुलने लगा है
    मत-वर्षा के इस दादुर-शोर में
    मैंने देखा हर तरफ
    रंग-बिरंगे झण्डे फहरा रहे हैं
    गिरगिट की तरह रंग बदलते हुये
    गुट से गुट टकरा रहे हैं
    वे एक- दूसरे से दाँता-किलकिल कर रहे हैं
    एक दूसरे को दुर-दुर,बिल-बिल कर रहे हैं
    हर तरफ तरह -तरह के जन्तु हैं
    श्रीमान् किन्तु हैं
    मिस्टर परन्तु हैं
    कुछ रोगी हैं
    कुछ भोगी हैं
    कुछ हिंजड़े हैं
    कुछ रोगी हैं
    तिजोरियों के प्रशिक्षित दलाल हैं
    आँखों के अन्धे हैं
    घर के कंगाल हैं
    गूँगे हैं
    बहरे हैं
    उथले हैं,गहरे हैं।
    गिरते हुये लोग हैं
    अकड़ते हुये लोग हैं
    भागते हुये लोग हैं
    पकड़ते हुये लोग हैं
    गरज़ यह कि हर तरह के लोग हैं
    एक दूसरे से नफ़रत करते हुये वे
    इस बात पर सहमत हैं कि इस देश में
    असंख्य रोग हैं
    और उनका एकमात्र इलाज-
    चुनाव है।
    लेकिन मुझे लगा कि एक विशाल दलदल के किनारे
    बहुत बड़ा अधमरा पशु पड़ा हुआ है
    उसकी नाभि में एक सड़ा हुआ घाव है
    जिससे लगातार-भयानक बदबूदार मवाद
    बह रहा है
    उसमें जाति और धर्म और सम्प्रदाय और
    पेशा और पूँजी के असंख्य कीड़े
    किलबिला रहे हैं और अन्धकार में
    डूबी हुई पृथ्वी
    (पता नहीं किस अनहोनी की प्रतीक्षा में)
    इस भीषण सड़ाँव को चुपचाप सह रही है
    मगर आपस में नफरत करते हुये वे लोग
    इस बात पर सहमत हैं कि
    ‘चुनाव’ ही सही इलाज है
    क्योंकि बुरे और बुरे के बीच से
    किसी हद तक ‘कम से कम बुरे को’ चुनते हुये
    न उन्हें मलाल है,न भय है
    न लाज है
    दरअस्ल उन्हें एक मौका मिला है
    और इसी बहाने
    वे अपने पडो़सी को पराजित कर रहे हैं
    मैंने देखा कि हर तरफ
    मूढ़ता की हरी-हरी घास लहरा रही है
    जिसे कुछ जंगली पशु
    खूँद रहे हैं
    लीद रहे हैं
    चर रहे है
    मैंने ऊब और गुस्से को
    गलत मुहरों के नीचे से गुज़रते हुये देखा
    मैंने अहिंसा को
    एक सत्तारूढ़ शब्द का गला काटते हुये देखा
    मैंने ईमानदारी को अपनी चोरजेबें
    भरते हुये देखा
    मैंने विवेक को
    चापलूसों के तलवे चाटते हुये देखा…
    मैं यह सब देख ही रहा था कि एक नया रेला आया
    उन्मत्त लोगों का बर्बर जुलूस। वे किसी आदमी को
    हाथों पर गठरी की तरह उछाल रहे थे
    उसे एक दूसरे से छीन रहे थे।उसे घसीट रहे थे।
    चूम रहे थे।पीट रहे थे। गालियाँ दे रहे थे।
    गले से लगा रहे थे। उसकी प्रशंसा के गीत
    गा रहे थे। उस पर अनगिनत झण्डे फहरा रहे थे।
    उसकी जीभ बाहर लटक रही थी। उसकी आँखें बन्द
    थीं। उसका चेहरा खून और आँसू से तर था।’मूर्खों!
    यह क्या कर रहे हो?’ मैं चिल्लाया। और तभी किसी ने
    उसे मेरी ओर उछाल दिया। अरे यह कैसे हुआ?
    मैं हतप्रभ सा खड़ा था
    और मेरा हमशक्ल
    मेरे पैरों के पास
    मूर्च्छित- सा
    पड़ा था-
    दुख और भय से झुरझुरी लेकर
    मैं उस पर झुक गया
    किन्तु बीच में ही रुक गया
    उसका हाथ ऊपर उठा था
    खून और आँसू से तर चेहरा
    मुस्कराया था। उसकी आँखों का हरापन
    उसकी आवाज में उतर आया था-
    ‘दुखी मत हो। यह मेरी नियति है।
    मैं हिन्दुस्तान हूँ। जब भी मैंने
    उन्हें उजाले से जोड़ा है
    उन्होंने मुझे इसी तरह अपमानित किया है
    इसी तरह तोड़ा है
    मगर समय गवाह है
    कि मेरी बेचैनी के आगे भी राह है।’
    मैंने सुना। वह आहिस्ता-आहिस्ता कह रहा है
    जैसे किसी जले हुये जंगल में
    पानी का एक ठण्डा सोता बह रहा है
    घास की की ताजगी- भरी
    ऐसी आवाज़ है
    जो न किसी से खुश है,न नाराज़ है।
    ‘भूख ने उन्हें जानवर कर दिया है
    संशय ने उन्हें आग्रहों से भर दिया है
    फिर भी वे अपने हैं…
    अपने हैं…
    अपने हैं…
    जीवित भविष्य के सुन्दरतम सपने हैं
    नहीं-यह मेरे लिये दुखी होने का समय
    नहीं है।अपने लोगों की घृणा के
    इस महोत्सव में
    मैं शापित निश्चय हूँ
    मुझे किसी का भय नहीं है।
    ‘तुम मेरी चिंता न करो। उनके साथ
    चलो। इससे पहले कि वे
    गलत हाथों के हथियार हों
    इससे पहले कि वे नारों और इस्तहारों से
    काले बाजा़र हों
    उनसे मिलो।उन्हें बदलो।
    नहीं-भीड़ के खिलाफ रुकना
    एक खूनी विचार है
    क्योंकि हर ठहरा हुआ आदमी
    इस हिंसक भीड़ का
    अन्धा शिकार है।
    तुम मेरी चिन्ता मत करो।
    मैं हर वक्त सिर्फ एक चेहरा नहीं हूँ
    जहाँ वर्तमान
    अपने शिकारी कुत्ते उतारता है
    अक्सर में मिट्टी की हरक़त करता हुआ
    वह टुकड़ा हूँ
    जो आदमी की शिराओं में
    बहते हुये खू़न को
    उसके सही नाम से पुकारता हूँ
    इसलिये मैं कहता हूँ,जाओ ,और
    देखो कि लोग…
    मैं कुछ कहना चाहता था कि एक धक्के ने
    मुझे दूर फेंक दिया। इससे पहले कि मैं गिरता
    किन्हीं मजबूत हाथों ने मुझे टेक लिया।
    अचानक भीड़ में से निकलकर एक प्रशिक्षित दलाल
    मेरी देह में समा गया। दूसरा मेरे हाथों में
    एक पर्ची थमा गया। तीसरे ने एक मुहर देकर
    पर्दे के पीछे ढकेल दिया।
    भय और अनिश्चय के दुहरे दबाव में
    पता नहीं कब और कैसे और कहाँ–
    कितने नामों से और चिन्हों और शब्दों को
    काटते हुये मैं चीख पड़ा-
    ‘हत्यारा!हत्यारा!!हत्यारा!!!’
    मुझे ठीक ठीक याद नहीं है।मैंने यह
    किसको कहा था। शायद अपने-आपको
    शायद उस हमशक्ल को(जिसने खुद को
    हिन्दुस्तान कहा था) शायद उस दलाल को
    मगर मुझे ठीक-ठीक याद नहीं है
    मेरी नींद टूट चुकी थी
    मेरा पूरा जिस्म पसीने में
    सराबोर था। मेरे आसपास से
    तरह-तरह के लोग गुजर रहे थे।
    हर तरफ हलचल थी,शोर था।
    और मैं चुपचाप सुनता हूँ
    हाँ शायद –
    मैंने भी अपने भीतर
    (कहीं बहुत गहरे)
    ‘कुछ जलता हुआ सा ‘ छुआ है
    लेकिन मैं जानता हूँ कि जो कुछ हुआ है
    नींद में हुआ है
    और तब से आजतक
    नींद और नींद के बीच का जंगल काटते हुये
    मैंने कई रातें जागकर गुजा़र दीं हैं
    हफ्तों पर हफ्ते तह किये हैं
    अपनी परेशानी के
    निर्मम अकेले और बेहद अनमने क्षण
    जिये हैं।
    और हर बार मुझे लगा है कि कहीं
    कोई खास फ़र्क़ नहीं है
    ज़िन्दगी उसी पुराने ढर्रे पर चल रही है
    जिसके पीछे कोई तर्क नहीं है
    हाँ ,यह सही है कि इन दिनों
    कुछ अर्जियाँ मँजूर हुई हैं
    कुछ तबादले हुये हैं
    कल तक जो थे नहले
    आज
    दहले हुये हैं
    हाँ यह सही है कि
    मन्त्री जब प्रजा के सामने आता है
    तो पहले से ज्यादा मुस्कराता है
    नये-नये वादे करता है
    और यह सिर्फ़ घास के
    सामने होने की मजबूरी है
    वर्ना उस भले मानुस को
    यह भी पता नहीं कि विधानसभा भवन
    और अपने निजी बिस्तर के बीच
    कितने जूतों की दूरी है।
    हाँ यह सही है कि इन दिनों -चीजों के
    भाव कुछ चढ़ गये हैं।अखबारों के
    शीर्षक दिलचस्प हैं,नये हैं।
    मन्दी की मार से
    पट पड़ी हुई चीज़ें ,बाज़ार में
    सहसा उछल गयीं हैं
    हाँ यह सही है कि कुर्सियाँ वही हैं
    सिर्फ टोपियाँ बदल गयी हैं और-
    सच्चे मतभेद के अभाव में
    लोग उछल-उछलकर
    अपनी जगहें बदल रहे हैं
    चढ़ी हुई नदी में
    भरी हुई नाव में
    हर तरफ ,विरोधी विचारों का
    दलदल है
    सतहों पर हलचल है
    नये-नये नारे हैं
    भाषण में जोश है
    पानी ही पानी है
    पर
    की

    ड़
    खामोश है
    मैं रोज देखता हूँ कि व्यवस्था की मशीन का
    एक पुर्जा़ गरम होकर
    अलग छिटक गया है और
    ठण्डा होते ही
    फिर कुर्सी से चिपक गया है
    उसमें न हया है
    न दया है
    नहीं-अपना कोई हमदर्द
    यहाँ नहीं है। मैंने एक-एक को
    परख लिया है।
    मैंने हरेक को आवाज़ दी है
    हरेक का दरवाजा खटखटाया है
    मगर बेकार…मैंने जिसकी पूँछ
    उठायी है उसको मादा
    पाया है।
    वे सब के सब तिजोरियों के
    दुभाषिये हैं।
    वे वकील हैं। वैज्ञानिक हैं।
    अध्यापक हैं। नेता हैं। दार्शनिक
    हैं । लेखक हैं। कवि हैं। कलाकार हैं।
    यानी कि-
    कानून की भाषा बोलता हुआ
    अपराधियों का एक संयुक्त परिवार है।
    भूख और भूख की आड़ में
    चबायी गयी चीजों का अक्स
    उनके दाँतों पर ढूँढना
    बेकार है। समाजवाद
    उनकी जुबान पर अपनी सुरक्षा का
    एक आधुनिक मुहावरा है।
    मगर मैं जानता हूँ कि मेरे देश का समाजवाद
    मालगोदाम में लटकती हुई
    उन बाल्टियों की तरह है जिस पर ‘आग’ लिखा है
    और उनमें बालू और पानी भरा है।
    यहाँ जनता एक गाड़ी है
    एक ही संविधान के नीचे
    भूख से रिरियाती हुई फैली हथेली का नाम
    ‘दया’ है
    और भूख में
    तनी हुई मुट्ठी का नाम नक्सलबाड़ी है।
    मुझसे कहा गया कि संसद
    देश की धड़कन को
    प्रतिबिंबित करने वाला दर्पण है
    जनता को
    जनता के विचारों का
    नैतिक समर्पण है
    लेकिन क्या यह सच है?
    या यह सच है कि
    अपने यहां संसद –
    तेली की वह घानी है
    जिसमें आधा तेल है
    और आधा पानी है
    और यदि यह सच नहीं है
    तो यहाँ एक ईमानदार आदमी को
    अपनी ईमानदारी का मलाल क्यों है?
    जिसने सत्य कह दिया है
    उसका बुरा हाल क्यों है?
    मैं अक्सर अपने-आपसे सवाल
    करता हूँ जिसका मेरे पास
    कोई उत्तर नहीं है
    और आज तक –
    नींद और नींद के बीच का जंगल काटते हुये
    मैंने कई रातें जागकर गुजार दी हैं
    हफ्ते पर हफ्ते तह किये हैं। ऊब के
    निर्मम अकेले और बेहद अनमने क्षण
    जिये हैं।
    मेरे सामने वही चिरपरिचित अन्धकार है
    संशय की अनिश्चयग्रस्त ठण्डी मुद्रायें हैं
    हर तरफ शब्दभेदी सन्नाटा है।
    दरिद्र की व्यथा की तरह
    उचाट और कूँथता हुआ। घृणा में
    डूबा हुआ सारा का सारा देश
    पहले की तरह आज भी
    मेरा कारागार है।

    13. बीस साल बाद

    बीस साल बाद
    मेरे चेहरे में वे आँखें लौट आयी हैं
    जिनसे मैंने पहली बार जंगल देखा है :
    हरे रंग का एक ठोस सैलाब जिसमें सभी पेड़ डूब गए हैं।

    और जहाँ हर चेतावनी
    ख़तरे को टालने के बाद
    एक हरी आँख बन कर रह गयी है।

    बीस साल बाद
    मैं अपने-आप से एक सवाल करता हूँ
    जानवर बनने के लिए कितने सब्र की ज़रूरत होती है?
    और बिना किसी उत्तर के चुपचाप
    आगे बढ़ जाता हूँ
    क्योंकि आजकल मौसम का मिज़ाज यूँ है
    कि खून में उड़ने वाली पंक्तियों का पीछा करना
    लगभग बेमानी है।

    दोपहर हो चुकी है
    हर तरफ़ ताले लटक रहे हैं
    दीवारों से चिपके गोली के छर्रों
    और सड़कों पर बिखरे जूतों की भाषा में
    एक दुर्घटना लिखी गई है
    हवा से फड़फड़ाते हिन्दुस्तान के नक़्शे पर
    गाय ने गोबर कर दिया है।

    मगर यह वक़्त घबराये हुए लोगों की शर्म
    आँकने का नहीं
    और न यह पूछने का –
    कि संत और सिपाही में
    देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य कौन है!

    आह! वापस लौटकर
    छूटे हुए जूतों में पैर डालने का वक़्त यह नहीं है
    बीस साल बाद और इस शरीर में
    सुनसान गलियों से चोरों की तरह गुज़रते हुए
    अपने-आप से सवाल करता हूँ –
    क्या आज़ादी सिर्फ़ तीन थके हुए रंगों का नाम है
    जिन्हें एक पहिया ढोता है
    या इसका कोई खास मतलब होता है?

    और बिना किसी उत्तर के आगे बढ़ जाता हूँ
    चुपचाप।

    14. मोचीराम

    राँपी से उठी हुई आँखों ने मुझे
    क्षण-भर टटोला
    और फिर
    जैसे पतियाये हुये स्वर में
    वह हँसते हुये बोला-
    बाबूजी सच कहूँ-मेरी निगाह में
    न कोई छोटा है
    न कोई बड़ा है
    मेरे लिये,हर आदमी एक जोड़ी जूता है
    जो मेरे सामने
    मरम्मत के लिये खड़ा है।

    और असल बात तो यह है
    कि वह चाहे जो है
    जैसा है,जहाँ कहीं है
    आजकल
    कोई आदमी जूते की नाप से
    बाहर नहीं है
    फिर भी मुझे ख्याल है रहता है
    कि पेशेवर हाथों और फटे जूतों के बीच
    कहीं न कहीं एक आदमी है
    जिस पर टाँके पड़ते हैं,
    जो जूते से झाँकती हुई अँगुली की चोट छाती पर
    हथौड़े की तरह सहता है।

    यहाँ तरह-तरह के जूते आते हैं
    और आदमी की अलग-अलग ‘नवैयत’
    बतलाते हैं
    सबकी अपनी-अपनी शक्ल है
    अपनी-अपनी शैली है
    मसलन एक जूता है:
    जूता क्या है-चकतियों की थैली है
    इसे एक आदमी पहनता है
    जिसे चेचक ने चुग लिया है
    उस पर उम्मीद को तरह देती हुई हँसी है
    जैसे ‘टेलीफ़ून ‘ के खम्भे पर
    कोई पतंग फँसी है
    और खड़खड़ा रही है।

    ‘बाबूजी! इस पर पैसा क्यों फूँकते हो?’
    मैं कहना चाहता हूँ
    मगर मेरी आवाज़ लड़खड़ा रही है
    मैं महसूस करता हूँ-भीतर से
    एक आवाज़ आती है-’कैसे आदमी हो
    अपनी जाति पर थूकते हो।’
    आप यकीन करें,उस समय
    मैं चकतियों की जगह आँखें टाँकता हूँ
    और पेशे में पड़े हुये आदमी को
    बड़ी मुश्किल से निबाहता हूँ।

    एक जूता और है जिससे पैर को
    ‘नाँघकर’ एक आदमी निकलता है
    सैर को
    न वह अक्लमन्द है
    न वक्त का पाबन्द है
    उसकी आँखों में लालच है
    हाथों में घड़ी है
    उसे जाना कहीं नहीं है
    मगर चेहरे पर
    बड़ी हड़बड़ी है
    वह कोई बनिया है
    या बिसाती है
    मगर रोब ऐसा कि हिटलर का नाती है
    ‘इशे बाँद्धो,उशे काट्टो,हियाँ ठोक्को,वहाँ पीट्टो
    घिस्सा दो,अइशा चमकाओ,जूत्ते को ऐना बनाओ
    …ओफ्फ़! बड़ी गर्मी है’
    रुमाल से हवा करता है,
    मौसम के नाम पर बिसूरता है
    सड़क पर ‘आतियों-जातियों’ को
    बानर की तरह घूरता है
    गरज़ यह कि घण्टे भर खटवाता है
    मगर नामा देते वक्त
    साफ ‘नट’ जाता है
    शरीफों को लूटते हो’ वह गुर्राता है
    और कुछ सिक्के फेंककर
    आगे बढ़ जाता है
    अचानक चिंहुककर सड़क से उछलता है
    और पटरी पर चढ़ जाता है
    चोट जब पेशे पर पड़ती है
    तो कहीं-न-कहीं एक चोर कील
    दबी रह जाती है
    जो मौका पाकर उभरती है
    और अँगुली में गड़ती है।

    मगर इसका मतलब यह नहीं है
    कि मुझे कोई ग़लतफ़हमी है
    मुझे हर वक्त यह खयाल रहता है कि जूते
    और पेशे के बीच
    कहीं-न-कहीं एक अदद आदमी है
    जिस पर टाँके पड़ते हैं
    जो जूते से झाँकती हुई अँगुली की चोट
    छाती पर
    हथौड़े की तरह सहता है
    और बाबूजी! असल बात तो यह है कि ज़िन्दा रहने के पीछे
    अगर सही तर्क नहीं है
    तो रामनामी बेंचकर या रण्डियों की
    दलाली करके रोज़ी कमाने में
    कोई फर्क नहीं है
    और यही वह जगह है जहाँ हर आदमी
    अपने पेशे से छूटकर
    भीड़ का टमकता हुआ हिस्सा बन जाता है
    सभी लोगों की तरह
    भाष़ा उसे काटती है
    मौसम सताता है
    अब आप इस बसन्त को ही लो,
    यह दिन को ताँत की तरह तानता है
    पेड़ों पर लाल-लाल पत्तों के हजा़रों सुखतल्ले
    धूप में, सीझने के लिये लटकाता है
    सच कहता हूँ-उस समय
    राँपी की मूठ को हाथ में सँभालना
    मुश्किल हो जाता है
    आँख कहीं जाती है
    हाथ कहीं जाता है
    मन किसी झुँझलाये हुये बच्चे-सा
    काम पर आने से बार-बार इन्कार करता है
    लगता है कि चमड़े की शराफ़त के पीछे
    कोई जंगल है जो आदमी पर
    पेड़ से वार करता है
    और यह चौकने की नहीं,सोचने की बात है
    मगर जो जिन्दगी को किताब से नापता है
    जो असलियत और अनुभव के बीच
    खून के किसी कमजा़त मौके पर कायर है
    वह बड़ी आसानी से कह सकता है
    कि यार! तू मोची नहीं ,शायर है
    असल में वह एक दिलचस्प ग़लतफ़हमी का
    शिकार है
    जो वह सोचता कि पेशा एक जाति है
    और भाषा पर
    आदमी का नहीं,किसी जाति का अधिकार है
    जबकि असलियत है यह है कि आग
    सबको जलाती है सच्चाई
    सबसे होकर गुज़रती है
    कुछ हैं जिन्हें शब्द मिल चुके हैं
    कुछ हैं जो अक्षरों के आगे अन्धे हैं
    वे हर अन्याय को चुपचाप सहते हैं
    और पेट की आग से डरते हैं
    जबकि मैं जानता हूँ कि ‘इन्कार से भरी हुई एक चीख़’
    और ‘एक समझदार चुप’
    दोनों का मतलब एक है-
    भविष्य गढ़ने में ,’चुप’ और ‘चीख’
    अपनी-अपनी जगह एक ही किस्म से
    अपना-अपना फ़र्ज अदा करते हैं।

    15. गाँव

    मूत और गोबर की सारी गंध उठाए
    हवा बैल के सूजे कंधे से टकराए
    खाल उतारी हुई भेड़-सी
    पसरी छाया नीम पेड़ की।
    डॉय-डॉय करते डॉगर के सींगों में
    आकाश फँसा है।

    दरवाज़े पर बँधी बुढ़िया
    ताला जैसी लटक रही है।
    (कोई था जो चला गया है)
    किसी बाज पंजों से छूटा ज़मीन पर
    पड़ा झोपड़ा जैसे सहमा हुआ कबूतर
    दीवारों पर आएँ-जाएँ
    चमड़ा जलने की नीली, निर्जल छायाएँ।

    चीखों के दायरे समेटे
    ये अकाल के चिह्न अकेले
    मनहूसी के साथ खड़े हैं
    खेतों में चाकू के ढेले।
    अब क्या हो, जैसी लाचारी
    अंदर ही अंदर घुन कर दे वह बीमारी।

    इस उदास गुमशुदा जगह में
    जो सफ़ेद है, मृत्युग्रस्त है

    जो छाया है, सिर्फ़ रात है
    जीवित है वह – जो बूढ़ा है या अधेड़ है
    और हरा है – हरा यहाँ पर सिर्फ़ पेड़ है

    चेहरा-चेहरा डर लगता है
    घर बाहर अवसाद है
    लगता है यह गाँव नरक का
    भोजपुरी अनुवाद है।