शिवमूर्ति की कहानियों में स्त्री (कसाईबाड़ा, तिरिया चरित्तर और कुच्ची का कानून के संदर्भ में)

मनीषा पाल

शोधार्थी, पीएच.डी.

हिंदी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय

ईमेल- manisha2016jnu@gmail.com

सारांश

शिवमूर्ति हमारे समय के एक सशक्त कथाकार हैं। इनकी कहानियाँ शहरी जीवन के बजाय ग्रामीण जीवन के कटु यथार्थ का प्रतिफलन है। इनकी कहानियों के केन्द्र में ग्रामीण परिवेश से जुड़ी स्त्री-जीवन की समस्याएं भी हैं। इनकी कहानियाँ पितृसत्ता, जाति व्यवस्था और रूढ़िवादी मानवीय संबंधों को छिन्न-भिन्न करती हुई नज़र आती हैं। इस शोध आलेख में इनकी तीन कहानियों को केंद्र में रखकर मूल्यांकन किया गया है। इन तीनों कहानियों के माध्यम से जहाँ एक तरफ ग्रामीण स्त्री जीवन की विभिन्न समस्याओं को उजागर किया गया है वहीं दूसरी तरफ स्त्री के दैहिक शोषण, भ्रष्ट क़ानून व्यवस्था, भ्रष्टाचार, जाति व्यवस्था, पितृसत्ता आदि पर तीखा प्रहार किया गया है। इसके साथ ही इस शोध आलेख के माध्यम से विभिन्न सवालों जैसे स्त्री मुक्ति, स्त्री अस्मिता, स्त्री के अपने कोख पर अधिकार आदि की गहराई से पड़ताल की गई है। अंत में इस शोध आलेख के माध्यम से स्त्री प्रतिरोध और उसकी मुक्ति की आकांक्षा को रखने का प्रयास किया गया है।

बीज शब्द: पितृसत्ता, जाति व्यवस्था, भ्रष्ट क़ानून व्यवस्था, भ्रष्टाचार, स्त्री प्रतिरोध, देहमुक्ति

शोध आलेख

“मेहंदी टूटी, पिसी छनी, घुली रची तब रंग लाल हुआ,

का भी इस दुनिया में मेहंदी जैसा हाल हुआ।”

“सच पूछो तो नारी जीवन एक मेहंदी का बूटा है,

कदम-कदम पर इस अबला को हर रिश्ते ने लूटा है।”1

यहाँ ‘अबला’ शब्द के प्रयोग से कुछ आपत्तियां हो सकती हैं लेकिन वास्तविकता तो यही है कि एक लंबे समय तक नारी को अबला बनाकर ही रखा गया है और रिश्तों की आड़ में उनका शोषण न सिर्फ तब हुआ बल्कि आज भी जारी है। अपना सब कुछ पुरुष पर न्योछावर करने के बाद भी उसे बदले में मिला तो सिर्फ तिरस्कार, अपमान और दर-दर की ठोंकरे। समय के साथ स्त्रियों ने अन्याय का विरोध करना तो सीख लिया है लेकिन इनकी धार में तेजी समय के साथ आएगी। वह हर बार छली जाती है कभी रिश्तों के नाम तो कभी कुल-मर्यादा के नाम। समाज का यह कैसा दोहरा नजरिया है जिसमें कुल वंशज तो पुत्र है परंतु कुल की इज्ज़त बनाए रखने का जिम्मा सिर्फ पुत्री का।

स्त्री को गुलामी की जंजीरों में जकड़े रखने और परम्पराओं में बांधे रखने के लिए कितने पाखण्ड और आडम्बर रचे गए हैं, इसकी कोई थाह नहीं है। कभी उसे गरीब होने के कारण शोषित होना पड़ा तो कभी दलित होने के कारण और कभी मात्र स्त्री होने के कारण। जब भी स्त्री ने अपने प्रति हो रहे शोषण, उत्पीड़न के खिलाफ आवाज़ बुलंद करनी चाही तभी उसे नापाक करार देकर चरित्रहीन बना दिया गया। फिर चाहें वह ‘कसाईबाड़ा’ की बूढ़ी शनिचरी हो, ‘तिरिया चरित्तर’ की यौवनावस्था में प्रवेश करती विमली हो या फिर ‘कुच्ची का कानून’ की विधवा कुच्ची। हमेशा से ही पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री को दबी-कुचली, डरी-सहमी और पुरुषों पर आश्रित बने रहने के लिए मजबूर किया गया है परंतु आज की स्त्री अपने अधिकारों को पहचानती है और हर मुश्किल से लड़कर अपने लिए नए रास्ते खोजती है।

अगर बात शिवमूर्ति की कहानियों की करें तो इनकी ये तीनों कहानियाँ ग्रामीण परिवेश, जीवन और समस्याओं पर केंद्रित हैं। इन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से मनुष्य के मनोभावों को अभिव्यक्त करने की कोशिश की है। साथ ही ग्रामीण परिवेश में फैले अंधविश्वास, पाखण्ड और झूठी शान की खातिर किसी की हत्या तक से परहेज न करने वाली कुरूप मानसिकता को भी इन्होंने उजागर किया है। आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी शिवमूर्ति के विषय में कहते हैं कि “शिवमूर्ति ग्रामीण जीवन के विश्वनीय कथाकार हैं।… उनका व्यक्तित्व, रहन-सहन, बोली-बानी सब कुछ ग्रामीण और किसानी है।”2 शिवमूर्ति ने अपनी रचनाओं के माध्यम से ‘मैथिलीशरण गुप्त’ के ‘अहा ग्राम्य जीवन भी क्या’ से इतर ग्रामीण जीवन में परिवार, समाज, राजनीति के भीतर रचे जाने वाले बारीक से बारीक षडयंत्रों का पर्दाफाश किया है। शिवमूर्ति के संदर्भ में कँवल भारती कहते हैं कि “शिवमूर्ति आदर्शवादी नहीं हैं….वह यथार्थवादी हैं। यथार्य कितना वीभत्स हो, वह उसे वैसे ही चित्रित करने में विश्वास करते हैं। इसलिए उनकी कहानियाँ गाँवों के यथार्थ की एक बेहतरीन फोटोग्राफी है।”3

‘कसाईबाड़ा’ की शनिचरी शुरुआत में ही धरने पर बैठी नज़र आती है जिससे यह स्पष्ट होता है कि यह लड़ाई अन्याय, दगाबाजी और शोषण के खिलाफ है। शनिचरी कहती है कि “मोर बिटिया वापस कर दे बेईमानवा, मोर फूल ऐसी बिटिया गाय-बकरी की नाई, बेंचि के तिजोरी भरैवाले।”4 यहाँ उस पितृसत्तात्मक सोच का परिचय मिलता है जहाँ पुरुष स्त्री को भी अपनी सम्पत्ति की तरह मानता है और जैसे चाहे वैसे व्यवहार करता है। अंतत: थोड़े से लालच के लिए उसे बेच देता है। सुगना बताती है कि “काकी, अपना परधान कसाई है। इसने पैसा लेकर हम सबको बेच दिया है। शादी की बात धोखा थी।”5 “एक तरफ परधान से खिलाफत। बिरादरी में बदनामी। हुक्का-पानी बंद होने का डर। छोटे बेटे-बेटियों की शादी में रुकावट और दूसरी तरफ बेटी की ममता।”6 बेटी से मोह पर सामाजिक इज्जत भारी पड़ती है। जहाँ पूरा समाज इज्जत के नाम पर सब बर्दाश्त करता नज़र आता है वहीं शनिचरी इस मानसिकता को तोड़कर अपनी बेटी को पाने की जद्दोजहद में रहती है। शनिचरी के लिए आमरण अनशन-विद्रोह का वह तरीका है जिसके माध्यम से वह समाज में परिवर्तन लाना चाहती है।

इस कहानी के माध्यम से शिवमूर्ति ने निचली जाति की स्त्रियों के साथ समाज के व्यवहार को दिखाने की कोशिश की है। साथ ही धन के अभाव में धोखे से सामूहिक आदर्श विवाह के नाम पर गरीब कन्याओं को बेचकर अपनी सुख-सुविधाओं को पूरा करते प्रधान जी जैसे चरित्र के माध्यम से समाज के उस चेहरे को उजागर किया है, जिसमें किसी की मजबूरी का फायदा उठाना यह पुरुषवर्चस्वादी समाज बखूबी जानता है। शनिचरी के विरोध की परिणति उसे मृत्यु के द्वार पर पहुँचा देती है और वह षड्यंत्रकारियों द्वारा धोखे से मार दी जाती है। वह स्त्री जिसने सदा से पुरुषों को सिर्फ दिया, कभी अपने सपने तो कभी अपना समय और तो और उसने पुरुष के नाम कर दी अपनी पूरी ज़िन्दगी लेकिन उसी स्त्री ने पाया शोषण, निरादर, धोखा और अंत: वही पुरुष अपने जुर्म को छुपाने के लिए उस स्त्री की बलि चढ़ाने से भी परहेज नहीं करता। यह प्रधान जी द्वारा प्रधानिन के हाथों शनिचरी को दूध पिलवाने वाले प्रसंग में बखूबी देखा सकता है।

“थाने के अहाते में कदम रखते ही एक काला-कलूटा भीमकाय कुत्ता भौंकते हुए दौड़ता है, लेकिन अमावट की महक पाकर पूंछ हिलाने लगता है-कूं-कूं…आओ-आओ,स्वागत है। तोंदवाला कुत्ता देखा है कभी ? देख लो।”7 इस कथन से समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार और ग्रामीण परिवेश में कानून व्यवस्था को स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है। शिवमूर्ति कुत्ते का जो चित्र प्रस्तुत करते हैं वह सत्ता में बैठे हर उस व्यक्ति की छवि लगता है जो फ्री का खाते-खाते मोटे हो गए है और इतने भ्रष्ट हो गए है कि दूर से ही ललचाने वाली वस्तुएं पहचान लेते हैं। कोई व्यक्ति उनके लिए सिर्फ वह मोहरा है जिससे माध्यम से वह जो पाना चाहते है उसे पा सकते हैं। नैतिकहीनता, मूल्यहीनता, अवसरवादिता आदि ग्रामीण परिवेश में किस तरह मौजूद है, यह शिवमूर्ति की कहानियाँ बताती है।

‘तिरिया चरित्तर’ की विमली चेतना के धरातल पर ‘कसाईबाड़ा’ की शनिचरी का विकसित रूप कही जा सकती है। यह विमली समाज की उन वास्तविकताओं से वाकिफ है जो उसे बार-बार स्त्री होने का बोध कराते है और मात्र स्त्री होने के कारण उसकी सीमा घर के कार्यक्षेत्र तक सीमित कर अन्य सभी काम करने में असमर्थ घोषित कर देती हैं। विमली न केवल इस धारणा को तोड़ती हैं कि पुरुष ही शारीरिक कार्य करने में सक्षम है बल्कि पुत्र ही घर का पालन पोषण कर सकता है जैसी पिछड़ी मानसिकताओं को तोड़ते हुए हर उस कार्य को करती है जो स्त्री होने के नाते वर्जित माना जाता रहा है। विमली कहती है- “कौन कहता है कि आदमी- लड़के ही काम कर सकते हैं भट्टे पर ?”8 एक और बड़ा परिवर्तन वहाँ नज़र आता है जहाँ विमली अपने लिए पुरुष का चुनाव स्वयं करती है। वह स्पष्ट कहती है कि वह जिससे चाहेंगी उससे बात करेगी। हालांकि विमली का एक रूप परम्परावादी भारतीय स्त्री का भी नज़र आता है जो अपने अनदेखे पति के ख्यालों में खोई रहती है।

‘तिरिया चरित्तर’ की विमली पितृसत्तात्मक समाज में रूढ़िगत धारणाओं, वर्जनाओं को तोड़ती नजर आती है लेकिन धोखे से अपने पिता के समान उम्र वाले ससुर के शोषण का शिकार होती है। शिवमूर्ति की यह कहानियाँ अभिशप्त स्त्री जीवन का जीवन्त दस्तावेज है तो उसे अभिशप्त बनाने वाली क्रूर, निर्मम, शोषक शक्तियों की चालाकियों और साजिशों का भी इनमें लेखा-जोखा है। इन कहानियों में स्त्री पात्र भाग्यवादी बनकर नहीं बैठती बल्कि न्याय के लिए लड़ती हैं फिर भले ही उन्हें इस संघर्ष में सफलता मिले या न मिले। उन्हें जरूरी लगता है- आवाज उठाना। हर जुल्म के खिलाफ और हर उस आवाज के खिलाफ जो स्त्री को बचपन से ही आवाजहीन बने रहने को बाध्य करती है। शनिचरी, विमली, कुच्ची जैसे अन्य स्त्री पात्र भी कहानी में आवश्यकता होने पर अन्याय के विरोध में खड़ी नजर आती हैं। इनके यहाँ स्त्रियाँ बेचारी अबला बनकर रहना स्वीकार नहीं करती ना ही रिरियाती है। वह एक सीमा तक सहन करती हैं लेकिन अतिवाद की स्थिति में विरोध भी करती है। शिवमूर्ति की अधिकांशतः कहानियों में नारी एक मुख्य धुरी बनकर उभरती है क्योंकि जीवन का प्रत्येक पक्ष उसके बिना अधूरा है।

‘तिरिया चरित्तर’ इस बात की बानगी है कि सारा दोष पुरुष का होते हुए भी दोषी औरत को ही ठहराया जाता है। पुरुष समाज उस पर ही त्रिया चरित्र का तमगा लगा देता है। यह कहानी बताती है कि आज भी समाज में चरित्र के पैमाने स्त्री के लिए कुछ खास नहीं बदले और समाज के मानदंड स्त्री और पुरुष दोनों के लिए अलग है। विमली के परिप्रेक्ष्य में जब शिवमूर्ति से पूछा गया कि “वह नायिका के चरित्र को इतने यथार्थ के करीब से कैसे लिख सके तो वह कहते हैं कि उन्हें इस कहानी के इस चरित्र को रचना नहीं पड़ा क्योंकि उसने खुद ही कहानी में जगह बना ली। वह इस पात्र से स्वयं कई बार, कई अवसरों पर मिल चुके हैं।…..मेरा नजरिया किसी पूर्वनिर्धारित सोच या निश्छलता में जीते हुए ही मेरे रचनात्मक सरोकार आकार ग्रहण करते हैं।”9 यह कहानी अंत तक पाठक को यह सोचने को बाध्य करती है कि कब तक यूं ही इज्जत के नाम पर स्त्रियों को सजा मिलती रहेगी और क्या इस इज्जत का प्रश्न सिर्फ एक स्त्री के लिए है ? पुरुष के लिए नैतिकता, सही-गलत, इज्जत जैसा कुछ नहीं ? साथ ही इज्जत के नाम पर यह पितृसत्तात्मक सोच कैसे समाज को खोखला कर अमानवीय बना रही है, इस तरफ भी लेखक ने इशारा किया है। महतो कहता है कि “गाँव की नाक काटने वाली, गाँव की इज्जत में दाग लगाने वाली जनाना को बेदाग नहीं छोड़ा जा सकता। दागी जनाना को लोहे की कलछुल की डाँडी लाल करके दाग करके ही नैहर भेजा जाएगा।”10 यहाँ समाज की क्रूरता, अमानवीयता को स्पष्ट देखा जा सकता है।

शिवमूर्ति पाठकों के बीच एक चिन्तन विषय छोड़ जाते हैं कि क्यों समाज आधुनिकता के हजारों-हजार ढकोसलों के बाद का भी स्त्री के प्रति अपनी मानसिकता में बदलाव नहीं लाना चाहता। इनके यहाँ स्त्री मात्र स्वयं को व्यक्ति रूप में स्वीकारने के लिए अपने अस्तित्व की दरकार करती हैं जिसके अधिकार और दायित्व अपने पुरुष साथी के समकक्ष हो। वह ऐसा समतामूलक और समरसतामूलक संबंध चाहती है जिसमें पुरुष व नारी एक-दूसरे को आश्रय देते हुए मिल-जुलकर जीवन के संघर्षों में सहभागी हो। दलित चिंतक ओमप्रकाश वाल्मीकि कहते हैं कि “उनकी कहानियाँ नायिका प्रधान है। ‘तिरिया चरित्तर’, ‘कसाईबाड़ा’, ‘तर्पण’ आदि में स्त्री की वेदना, उसका संघर्ष, अपमान, प्रताड़ना, कामवासना, पारस्परिक रिश्तों की जकड़न, पारिवारिक विघटन सभी कुछ गहरी वेदना के साथ अभिव्यक्त होते हैं।”11 ‘कुच्ची का कानून’ की कुच्ची विमली का अगला चरण है। ‘कुच्ची का कानून’ में जहाँ एक ओर न्याय पाने की जद्दोजहद है तो वही दूसरी ओर अन्याय के प्रति एक टीस है। यह कहानी ऊपरी तौर पर भले ही ग्रामीण विशेष की समस्या लगे परन्तु यह जिस मुद्दे को उठाती है वह किसी अंचल विशेष का न होकर ग्लोबल है। कोख पर स्त्री का अपना अधिकार हो शिवमूर्ति यह बात रखने की कोशिश करते है। विश्वनाथ त्रिपाठी कहते हैं कि “एक भी ऐसा रचनाकार नहीं है जिसके पास कुच्ची जैसा सशक्त चरित्र हो।”12

कुच्ची इस कहानी की वह मुख्य पात्र है जो तर्क के माध्यम से अपने दम पर अकेले ही आधी आबादी का प्रतिनिधित्व कर वर्चस्ववादी पुरुष सत्ता से अपने हक के लिए मुठभेड़ करती है। वह भरी सभा में स्पष्ट स्वरों में कहती है कि “मेरी कोख पर मेरा हक कब बनेगा ?”13 लेखक ने इस कहानी में पुरुषों की उस मानसिकता का भी परिचय दिया है जिसमें उन्हें स्त्रियों की न में भी हाँ छिपी नज़र आती है। कुच्ची के माध्यम से शिवमूर्ति स्त्री की उस स्थिति की ओर भी ध्यान दिलाते है जिसमें वह रोज तिलतिल थोड़ा थोड़ा मरती हैं। कुच्ची कहती है कि “मेरा आदमी तो एक बार मरकर फुरसत पा गया लेकिन बेसहारा समझकर हर आदमी किसी न किसी बहाने मुझे रोज मार रहा था। मैं मरते-मरते थक गई तो जीने क लिए अपना सहारा पैदा कर रही हूँ।”14 लेखक ने भविष्य को लेकर भी इशारा किया है कि अभी तक धर्म, वेद, कानून आदि के नाम पर स्त्री को बांधे रखने की जो साजिश रची गई चूंकि अब उसकी कलई खुल चुकी है तो समय के परिवर्तन के साथ उन सब में भी परिवर्तन आना चाहिए। शिवमूर्ति कुच्ची के माध्यम से यह प्रश्न भी उठाते हैं कि क्या विवाहिता के रिश्ते सिर्फ पति तक सीमित होते हैं, उसके न होने की स्थिति में वह रिश्ते भी वाकई खत्म हो जाते हैं। सुघरा कहती है – “आदमी की नजर में औरत खुद प्रॉपर्टी है। बनवारी और बजरंगी राम-लछिमन की तरह थे लेकिन जैसे ही बजरंगी मरा, बनवारी उसकी बेवा की मदद करने के बजाए उसे अपनी प्रॉपर्टी बनाने की तिकड़म में लग गया।”15

एक अन्य प्रसंग की ओर लेखक ने इशारा किया है जहाँ वह प्वाइजन बेड और जले हुए लोगों के वार्ड में सिर्फ स्त्रियों को ही दिखाते हैं। साथ ही सिर्फ स्त्री पेंशट का जला हुआ आना और प्वाइजन खाना उनके खिलाफ हो रही घरेलू हिन्सा की ओर भी इशारा किया गया है। अगर हम तीनों कहानियों की बात करें तो इनमें कहीं भी पुरुष पात्र स्त्रियों का साथ निभाते, उनके विद्रोह का समर्थन करते नहीं दिखते सिवाए ‘कसाईबाड़ा’ के अधरंगी के। लेखक के शब्दों में- “खुलेआम शनिचरी का पक्ष लेकर कोई आगे आया तो वह है अधपगला अधरंगी। सम्पूर्ण वामांग, आंशिक पैरालिसिस का शिकार। बाई आंख मिच-मिची और ज्योतिहीन। होंठ बाई तरफ खिंचे हुए। बायां हाथ चेतना शून्य। आंतकित करने की हद तक स्पष्ट भाषी। तीस-पैंतीस की उम्र में बूढ़ा दिखने लगा है। पेशा है- गाँव भर के जानवर लगा चराना। मजदूरी प्रति जानवर, प्रतिफसल, प्रति माह एक सेर अनाज।”16 जिसे समाज शारीरिक, मानसिक रूप से अपंग मानता है और आर्थिक रूप से भी सशक्त नहीं वही अधरंगी स्त्रियों के उत्पीड़न के खिलाफ बिना किसी स्वार्थ के खुलकर समर्थन करता नजर आता है।

इन कहानियों के प्रकाशन वर्ष को ध्यान रखते हुए निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि इन कहानियों के माध्यम से समय के साथ स्त्री चेतना में आए परिवर्तन को समझा जा सकता है। जहाँ शनिचरी अनशन के माध्यम से शांति से अपना विरोध व्यक्त करती है, वही विमली स्पष्ट रूप से भरी सभा में मरजाद के नाम पर सब कुछ बदाश्त करने से इन्कार करती है साथ ही पंचों का फैसला अस्वीकार करती है तो कुच्ची अपने तर्कों से सबको धराशाही कर अपनी सही बात मनवाना जानती है। इनकी स्त्री पात्र ग्रामीण परिवेश में अधिक पढ़ी-लिखी न होते भी सहज रूप से जिन मुद्दों को उठाती हैं वह स्त्री-विमर्श के अहम मुद्दों में से हैं। कहीं यह स्त्री पात्र पारम्परिक आवाजहीन स्त्री की भूमिका में नज़र आती हैं तो वही दूसरी तरफ वही स्त्री आधुनिक स्त्री के समकक्ष नजर आती है। साथ ही इनकी कहानियों की एक और विशेषता है- भाषा। यहाँ भाषा उस परिवेश का अटूट हिस्सा है जहाँ से कहानी के पात्रों को लिया गया है। अंतः में ममता कालिया की कविता की कुछ पंक्तियाँ उद्‌धृत है-

“जैसे-जैसे लड़की बड़ी होती है

उसके सामने दीवार खड़ी होती है

क्रांतिकारी कहते हैं

कि दीवार तोड़ देनी चाहिए

पर लड़की है समझदार और संवेदनशील

वह दीवार पर लगाती है खूँटियाँ

पढ़ाई लिखाई और रोज़गार की

और एक दिन धीरे से उन पर पाँव

धरती दीवार की दूसरी तरफ पहुँच जाती है।”17

सन्दर्भ सूची:-

  1. https://www.google.com/url?sa=t&source=web&rct=j&url=https://hindilyrics123.com/sach-puchho-to-nari-jivan-lyrics-in-hindi-21634.html&ved=2ahUKEwjr5oPG7vf4AhXCB7cAHcuIBmsQFnoECB0QAQ&usg=AOvVaw2rTrNc-ofF6Lsgk29Q7WNQ, मेहंदी फ़िल्म, 1998
  2. सम्पादक, मयंक खरे, अतिथि सम्पादक संजीव, मंच, जनवरी-मार्च, 2011, पृ. सं. 32
  3. सम्पादक, मयंक खरे, अतिथि सम्पादक संजीव, मंच, जनवरी-मार्च, 2011, पृ. सं. 203
  4. शिवमूर्ति, कसाईबाड़ा, दिशा प्रकाशन, प्रथम संस्करण, 1986, पृ. सं. 68
  5. वही, पृ. सं. 70
  6. वही, पृ. सं. 70
  7. वही, पृ. सं. 72
  8. शिवमूर्ति, केसर कस्तूरी, राजकमल प्रकाशन, प्रथम संस्करण, 2015, पृ. सं. 40
  9. शिवमूर्ति, मेरे साक्षात्कार, पहला संस्करण, 2014, पृ. सं. 120-121
  10. शिवमूर्ति, केसर कस्तूरी, राजकमल प्रकाशन, प्रथम संस्करण, 2015, पृ. सं. 47
  11. संपादक, ऋत्विक, लमही, अक्टूबर-दिसम्बर, पृ. सं. 42
  12. शिवमूर्ति, कुच्ची का कानून, राजकमल प्रकाशन, द्वितीय संस्करण, 2020, भूमिका
  13. वही, पृ. सं. 118
  14. वही, पृ. सं. 118
  15. वही, पृ. सं. 121
  16. शिवमूर्ति, कसाईबाड़ा, दिशा प्रकाशन, प्रथम संस्करण, 1986, पृ. सं. 75
  17. http://www.anubhuti-hindi.org/chhandmukt/m/mamta_kalia/ladki.htm