आदिवासी साहित्य के स्वरूप और अस्मिता

शोधार्थी शोध निर्देशक

जीभावनी कुमार रजक प्रोफेसर रत्नेश विष्वक्सेन

हिंदी विभाग हिंदी विभाग

झारखंड केंद्रीय विश्वविद्यालय झारखंड केंद्रीय विश्वविद्यालय

सारांश

नई सदी में आदिवासी विमर्श व चिंतन साहित्य एवं समाज के लिए चर्चित विषय बना हुआ है। आदिकाल से ही आदिवासी समाज को एक पिछड़ा समाज मानकर उनके साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाता रहा है। जिस तरह साहित्य एक नए समाज का निर्माण करता है तथा समाज को नई स्थिति और दिशा प्रदान करता है जनजातीय साहित्य के रूप में ऐसी रचनाओं का प्रचार-प्रसार, पठन-पाठन किया जा रहा है, तथ्यों को नकारात्मक रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। आदिवासी साहित्य का स्वरूप व्यापक है। इस साहित्य में विद्रोह है, वेदना है, अभिव्यक्ति है नकार है। आदिवासी लेखन विविधताओं से भरा हुआ है। मौखिक साहित्य की समृद्ध परंपरा का लाभ आदिवासी रचनाकारों को मिला है। आदिवासी साहित्य आदिवासी व गैर आदिवासी साहित्यकारों के द्वारा प्रचुर मात्रा में लिखा जा रहा है जिससे आदिवासियों के प्रति लोगों का नजरिया बदल रहा है।

बीज शब्द:- आदिवासी, जनजाति, समाज, संस्कृति, आदिवासी साहित्य, जीवन शैली।

शोध आलेख

साहित्य एक नए समाज का निर्माण करता है तथा समाज को नई स्थिति और दिशा प्रदान करता है। बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में भारत में नए सामाजिक आंदोलन सामने आए जिसमें सभी लोगो ने बढ़ चढ़ कर हिसा लिया तथा दलितों, महिलाओं, आदिवासियों और आदिवासी समुदायों ने नई एकजुटता के माध्यम से अपने प्रति हो रहे शोषण का विरोध किया और पूरे समुदाय की मुक्ति के लिए एक सामूहिक अभियान चलाया। सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन के साथ-साथ साहित्यिक आंदोलन भी इस अभियान का मुख्य हिस्सा रहा दलित विमर्श और नारी विमर्श इसी का परिणाम है। आजादी के बाद सामने आए पहचान के विमर्शो में दलित विमर्श और महिला विमर्श के बाद सबसे नया विमर्श आदिवासी विमर्श था। अब आदिवासी चेतना युक्त आदिवासी साहित्य ने हिन्दी साहित्य मंडल पर अपनी उपस्थिति दर्ज करायी है आज आदिवासी साहित्य हिन्दी के अलावा लगभग 100 आदिवासी भाषाओं में बहुतायत में लिखे जा रहे है। दशकों के संघर्ष और प्रतिरोध के बाद आज आदिवासी साहित्य को एक स्वायत्त विषय के रूप में केंद्रीय परिधि में लाया जा रहा है तथा आदिवासी समाज और साहित्य आज लगातार चर्चा का विषय बना हुआ है। लेकिन आदिवासी समाज की तरह आदिवासी साहित्य का संघर्ष आज भी जारी है आदिवासी साहित्य आज भी अनेक समस्याओं और चुनौतियों का सामना कर रहा है। इसका मुख्य कारण जनजातीय समाज, जीवन के बाहर समाज की अपरिचितता और उपेक्षापूर्ण रवैया रहा है। जनजातीय साहित्य जनजातीय समाज से संवाद स्थापित करने का एक महत्वपूर्ण साधन रहा है, बशर्ते उसका उचित मूल्यांकन किया जाए, इसके लिए इसके मूल तत्वों की समझ होना आवश्यक है। आज जनजातीय साहित्य की उचित अवधारणाओं और मानकों का होना आवश्यक है आज आदिवासी साहित्य रचने के लिए लेखकों में होड़ हैं। आदिवासी संस्कृ ति, जीवन और समाज पर गैर-आदिवासी लेखकों द्वारा जनजातीय साहित्य का निर्माण किया जा रहा है, जबकि उन्हें आदिवासी दर्शन और संस्कृति का पर्याप्त ज्ञान भी नहीं हैं जनजातीय साहित्य के रूप में ऐसी रचनाओं का प्रचार- प्रसार, पठन पाठन किया जा रहा है, तथ्यों को नकारात्मक रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। आदिवासी साहित्य को लेकर ऐसा साहित्य ज्यादातर भ्रामक साबित हुआ है। आदिवासी साहि मूल्यांकन गैर आदिवासी मॉडल द्वारा किया जा रहा है आदिवासी साहित्य के सिद्धांत को दलित की तर्ज पर बनाने का प्रयास किया जा रहा है। गैर-आदिवासियों का आदिवासी साहित्य भी आदि को साम्राज्यवाद विरोधी अभियान में केवल आर्थिक संघर्ष के रूप में देखता है। सांस्कृतिक रूप से भी, आदिवासी दर्शन और साहित्य को आर्य संस्कृति में एकीकृत करने का प्रयास करता है संक्रमण के इस युगमें कुछ “आदिवासी’ लेखक और बुद्धिजीवी, जिनका सामाजिक वर्ग बदल रहा है, आदिवासियों के खिलाफ प्रवचन को बहुत सूक्ष्म तरीके से लेने के लिए गैर आदिवासी विश्व व्यवस्था की आधिपत्य संस्कृति की शब्दावली का उपयोग करते हैं। व्यवस्था की प्रतिष्ठा और पुरस्कारों से लदे ये बुद्धिजीवी आदिवासियों को अविकसित और पिछड़ा बताकर मेल-मिलाप का सुझाव दे रहे हैं। उनके अनुसार आदिवासी समाज और साहित्य तथा कथित मुख्यधारा को अपनाकर ही आधुनिक सभ्यता का लाभ उठा सकते हैं। इस परिदृश्य में आदिवासी साहित्य की अवधारणा और उसके मूल दार्शनिक आधार को मजबूती से रेखांकित करना बहुत जरूरी है। आदिवासी साहित्य के बारे में सही समझ, सही धारणा बनाना जरूरी है। यद्यपि आदिवासी साहित्य की अवधारणा या सिद्धांत पूरी तरह से विकसित नहीं हुआ है, फिर भी इसके प्रस्ताव अभी भी चर्चा के दौर से गुजर रहे हैं। आदिवासी साहित्य को समझने के लिए आदिवासियों की मौखिक परंपरा को समझना होगा, जो बहुत समृद्ध है। यद्यपि आदिवासी जीवन और समाज स्वयं किसी भी प्रकार के शास्त्रों या सिद्धातों में विश्वास नहीं करता है, लेकिन आदिवासी साहित्य के बारे में अनित करने वाले तथ्यों और प्रतिमानों को हल करने के लिए कुछ बुनियादी तत्वों पर चर्चा करना आवश्यक है। आदिवासी साहित्य के पाठ और समझ को नए सिरे से देखने और समझाने के लिए इसकी सामग्री और प्रकृति की समझ होना आवश्यक है। इस पर विचार करते हुए सबसे पहला सवाल यह उठता है कि आदिवासी साहित्य को क्या कहा जाएगा? आदिवासी दर्शन क्या है और आदिवासी साहित्य में इसका क्या महत्व है? किन लेखकों को आदिवासी साहित्य के अंतर्गत रखा जाना चाहिए? क्या जनजातीय साहित्य की अवधारणा शेष विश्व साहित्य से भिन्न है? साथ ही यह भी सवाल है कि क्या आदिवासी साहित्य को साहित्यिक परंपरा में पर्याप्त स्थान दिया गया है? क्या इस साहित्य को तथाकथित मुख्यधारा के साहित्य के समानांतर या विविधता के स्तर पर देखा जा सकता है? उपरोक्त सभी प्रश्न आदिवासी साहित्य की अवधारणा या रूप से संबंधित है। स्पष्ट है कि आदिवासी साहित्य आदिवासियों द्वारा लिखा गया है जिसमें आदिवासी संस्कृति, दर्शन, जीवन शैली, प्रकृति और उनकी समस्याओं का चित्रण किया गया है। इसे हम आदिवासी साहित्य कह सकते हैं। जनजातीय साहित्य से तात्पर्य उस साहित्य से है जिसमें आदिवासियों के जीवन और समाज को उनके दर्शन के अनुसार अभिव्यक्त किया गया है।’

आदिवासी साहित्य विविध परंपरा एवं कला रूपों का एक समुच्चय होता है, जिसमें सभी कला विधाओं के साथ-साथ प्रकृति की भी एक प्रमुख और सुनिश्चित भूमिका होती है अर्थात् वहाँ कलाओं का आपस में अन्योन्याश्रित संबंध होता है इस संदर्भ में वंदना टेटे का कहना है कि “आदिवासी साहित्य मूलतः सृजनात्मकता का साहित्य है ।

आदिवासी साहित्य का स्वरूप

आदिवासी साहित्य का स्वरूप व्यापक है। इस साहित्य में विद्रोह है, वेदना है, अभिव्यक्ति है, नकार है। आदिमों के सर्वागीण विकास के प्रश्न को लेकर यह स्थापित समाज व्यवस्था को ललकारता है। जो जीवन मूल्य आदिवासियों के नहीं है या विरोधी है यह साहित्य उन्हें अस्वीकारता हैं। आदिवासी लेखन तथाकथित मुख्यधारा के रंगभेद व नस्लीय छद्म साहित्य के मानदंडों को नकारते हुए धीरे-धीरे स्वयं के प्रतिमान गढ़ रहा है। इसकी अपनी भावभूमि है, सौंदसों बोध है, विश्व दृष्टि है सामूहिक मूल्यों एवं सहअस्तित्व में अटूट विश्वास ही उसकी विशेषता है आदिवासी दर्शन में प्रकृति और पुरखों के प्रति आभार का भाव निहित होता है। यह साहित्य समूचे जीव जगत को समान महत्त्व देकर मनुष्य की श्रेष्ठता के दंग को खारिज करता है। आदिवासी साहित्य की कोई केन्द्रीय विधा नहीं है। अन्य साहित्य की तरह इसमें आत्मकथात्मक लेखन भी उपलब्ध नहीं है क्योंकि आदिवासी समाज हम में विश्वास करता है न कि मैं में। इसे प्रतीकों के माध्यम से व्यक्त किया जाता है। वह सामूहिकता की बात करता हैं हम की चिंता करता है। इसलिए आदिवासी लेखकों ने अपने संघर्ष में कविता को मुख्य हथियार बनाया है। आदिवासी साहित्य अपने दायरे में अन्य उत्पीड़ित अस्मिताओं के प्रति संवेदनशील है। “इसके अंतर्गत शब्द, नृत्य, गीत, संगीत, चित्र, प्रकृति और समूची समष्टि समाहित है साहित्य समुच्च्य है इन सभी अभिव्यक्तियों काआदिवासी समाज में सृष्टि ही सर्वोच्च नियामक है। उसके दर्शन में “सत्य-असत्य”, “सुंदर-असुंदर”, “अच्छा बुरा”, “छोटा बढा”, “दलित-ब्राह्मण”, “मनुष्य-अमनुष्य” जैसी कोई विशिष्ट अवधारणा नहीं है।”

जातीय स्वरूप

भारत जैसे बड़े देश में कई आदिवासी जातियां निवास करती हैं। लेकिन हर किसी की पहचान एक जैसी नहीं होती। भौगोलिक भिन्नताओं के कारण आदिवासियों की सामाजिक, सांस्कृतिक और भाषाई विशेषताएँ भी भिन्न होती है। भौगोलिक रूप से भारतीय आदिवासी जातियां कई भागों में विभाजित है। भौगोलिक वितरण को ध्यान में रखते हुए सबसे पहले बीएस गुहा ने आदिवासियों को तीन जनजातीय क्षेत्रों में विभाजित किया है

• पश्चिम क्षेत्र इस क्षेत्र के पश्चिम में शिमला और लेह हैं, पूर्व की ओर लुशाई पर्वत और मिश्मी रोड़ है। इस क्षेत्र में आदिवासी समुदाय पूर्वी कश्मीर, पूर्वी पंजाब, हिमाचल प्रदेश, उत्तरी उत्तर प्रदेश, असम और सिक्किम में पाए जाते हैं। इस क्षेत्र की मुख्य जनजातियाँ रमा, खासी उर्फ डफला, मिरी, अपतानी, नागा, कुकी, लुसाई, लेप्चा, गारो, गैलोंग, जौनसारी, लावरी, कर्णफुली, थारू और लांबा हैं।

• मध्यवर्ती क्षेत्र बिहार, बंगाल, दक्षिणी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, दक्षिणी राजस्थान, उत्तरी महाराष्ट्र और उड़ीसा इस क्षेत्र के अंतर्गत आते हैं। इस क्षेत्र की प्रमुख जनजातियाँ हैं- संथाल, उरांव, हो, खोंड, भूमिज, लाडा, कोरा, गॉड, बैगा, भील, मीना, दमार आदि ।

दक्षिणी क्षेत्र इस क्षेत्र के मुख्य आदिवासी क्षेत्र हैदराबाद, मैसूर आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और कोचीन हैं अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में कई जनजातियाँ रहती हैं। इन क्षेत्रों की प्रमुख जनजातियाँ चेंचू इरुला, बनियन, कादर टोडा, कोटा और पुल्यान आदि हैं।’ चौपाल, विश्वहिंदीजन आदिवासी साहित्य का स्वरूप विश्वहिंदीजन चौपाल 2021 पृष्ठ ‘सुजन साहित्य. “आदिवासी की अवधारणा और जातीय स्वरूप साहित्य सृजन 2015 पृष्ठ

आदिवासी साहित्य की अस्मिता

20वीं सदी के अंतिम दशकों में भारत में नए सामाजिक आंदोलनों का उदय हुआ। महिलाओं, किसानों, दलितों, आदिवासियों और जातियों की ‘नई एकजुटता ने ऐसी मांगों और मुद्दों को उठाया जिन्हें स्थापित वैचारिक और राजनीतिक मुहावरों के माध्यम से आसानी से समझा और हल नहीं किया जा सकता था। इन अस्मिताओं ने अपने साथ होने वाले शोषण के लिए अपनी खास अस्मिता को कारण बताया और उस शोषण तथा भेदभाव से संघर्ष के लिए उस संबंधित अस्मिता / पहचान को धारण करने वाले समूह / समुदाय को अपने साथ लेकर अपनी मुक्ति के लिए सामूहिक अभियान चलाया। चूंकि इस प्रक्रिया में शोषण और संघर्ष का आधार अस्मिताएं हैं, इसलिए इसे अस्मितावाद की संज्ञा दी गई। वंचितों के शोषण के खिलाफ उठ खड़ी हुई मुहिम में सामाजिक राजनीतिक आंदोलन के अलावा साहित्यिक आंदोलन ने भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया है। स्त्रीवादी साहित्य और दलित साहित्य उसी का प्रतिफल है। अब आदिवासी चेतना से लैस आदिवासी साहित्य भी साहित्य और आलोचना की दुनिया में अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुका

आदिवासी लोक में “साहित्य सहित विविध कला माध्यमों का विकास” तथाकथित मुख्यधारा से पहले हो चुका था लेकिन वहां साहित्य सृजन की परंपरा मूलता मौखिकसे पहले हो चुका था लेकिन वहां साहित्य सृजन की परंपरा मूलता मौखिक रही जंगलों में खदेड़ दिए जाने के बाद भी आदिवासी समाज ने इस परंपरा को अनवरत जारी रखा ठेठ जनभाषा में होने और “सत्ता प्रतिष्ठानों से दूरी की वजह से यह साहित्य आदिवासी समाज की ही तरह उपेक्षा का शिकार हुआ” आज भी सैकड़ों देशज भाषाओं में आदिवासी साहित्य रचा जा रहा है, जिसमें से अधिकांश से हमारा संवाद शेष है ।

चूंकि आदिवासी साहित्य विमर्श अभी निर्माण-प्रक्रिया में हैं, इसलिए अभी इसके मुद्दे भी आकार ले रहे हैं। आदिवासी कौन हैंसे शुरू होकर आदिवासी समाज, इतिहास, संस्कृति, भाषा आदि पर पिछले एक दशक में कुछ बातें हुई हैं। हर साहित्यिक आंदोलन की शुरुआत और उसे आगे बढाने में एक या अधिक पत्रिकाओं की भूमिका होती है। साहित्य जगत में आदिवासी मुद्दों को उठाने, उनसे जुड़े सृजनात्मक साहित्य को प्रोत्साहन देने में इन पत्रिकाओं ने अहम योगदान दिया है- ‘युद्धरत आम आदमी (दिल्ली, हजारीबाग.संपादक- रमणिका गुप्ता) अरावली उदघोष (उदयपुर संपादक- बीपी वर्मा पथिक) ‘झारखंडी भाषा साहित्य, संस्कृति अखड़ा (रांची, संपादक- वंदना टेट) आदिवासी सत्ता (दुर्ग, छत्तीसगढ़, सपादक – केआर शाह) आदि। इनके अलावा तरंग भारती के माध्यम से पुष्पा टेटे, देशज स्वर के माध्यम से सुनील मिज और सांध्य दैनिक झारखंड न्यूज लाइन के माध्यम से शिशिर टुडु आदिवासी विमर्श को बढ़ाने में लगे हैं। बड़ी संख्या में मुख्यधारा की पत्रिकाओं ने आदिवासी विशेषांक निकालकर आदिवासी विमर्श को आगे बढाने में मदद की है, जैसे- ‘समकालीन जनमत (2003), दस्तक (2004), कथाक्रम (2012), इस्पातिका (2012) आदि । शुरू में हिंदी की प्रमुख पत्रिकाओं ने आदिवासी मुद्दों को छापने में उतनी रुचि नहीं दिखाई लेकिन अ विमर्श की बढ़ती स्वीकारोक्ति के साथ ही इन पत्रिकाओं में आदिवासी जीवन को जगह मिलने लगी है। छोटी पत्रिकाओं में आदिवासी लेखकों को पर्याप्त जगह मिल रही है।

आदिवासी लेखन विविधताओं से भरा हुआ है “मौखिक साहित्य” की समृद्ध परंपरा का लाभ आदिवासी रचनाकारों को मिला है आदिवासी साहित्य की उस तरह कोई केंद्रीय विधा नहीं है, जिस तरह स्त्री साहित्य और “दलित साहित्य की आत्मकथात्मक लेखन” है “कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक” सभी प्रमुख विधाओं में “आदिवासी” और “गैर-आदिवासी” रचनाकारों ने आदिवासी जीवन समाज की प्रस्तुति की है आदिवासी रचनाकारों ने आदिवासी अस्मिता और अस्तित्व के संघर्ष में कविता को अपना मुख्य हथियार बनाया है। आदिवासी लेखन में आत्मकथात्मक लेखन केन्द्रीय स्थान नहीं बना सका क्योंकि स्वयं आदिवासी समाज ‘आत्म’ से अधिक समूह में विश्वास करता है। अधिकांश आदिवासी समुदायों में काफी बाद तक भी निजी और निजता की धारणाएं घर नहीं कर पाई। परंपरा, संस्कृति, इतिहास से लेकर शोषण और उसका प्रतिरोध – सब कुछ सामूहिक है। समूह की बात आत्मकथा में नहीं, जनकविता में ज्यादा अच्छे से व्यक्त हो सकती है। आदिवासी कलम की धार तेजी से अपने प्रभाव क्षेत्र का विस्तार कर रही है। आजादी से पहले आदिवासियों की मूल समस्याएं वन उपज पर प्रतिबंध विभिन्न प्रकार के लगान, धन-शोधन, पुलिस-प्रशासन की ज्यादती आदि हैं, जबकि स्वतंत्रता के बाद भारत सरकार द्वारा अपनाए गए विकास के गलत मॉडल ने आदिवासियों को उनके जंगल और जमीन से दूर कर दिया है। आज विस्थापन उनके जीवन की मुख्य समस्या बन गयी है। इस प्रक्रिया में एक ओर उनकी सांस्कृतिक पहचान उनसे छूट रही है, दूसरी ओर उनके अस्तित्व की रक्षा का प्रश्न खड़ा हो गया है। अगर वे पहचान बचाते हैं तो अस्तित्व पर संकट खड़ा होता है और अगर अस्तित्व बचाते हैं तो सांस्कृतिक पहचान नष्ट होती है इसलिए आज का आदिवासी विमर्श अस्तित्व और अस्मिता का विमर्श है। चूंकि आदिवासी साहित्य अपनी रचनात्मक ऊर्जा आदिवासी विद्रोहों की परंपरा से लेता है, इसलिए उन आंदोलनों की भाषा और भूगोल भी महत्वपूर्ण रहा है। आदिवासी रचनाकारों का मूल साहित्य उनकी इन्हीं भाषाओं में है। हिंदी में मौजूद साहित्य देशज भाषाओं में उपस्थित साहित्य की इसी समृद्ध परंपरा से प्रभावित है कुछ साहित्य का अनुवाद और रूपांतरण भी हुआ है भारत की तमाम आदिवासी भाषाओं में लिखा जा रहा साहित्य हिंदी, बाग्ला, तमिल जैसी बड़ी भाषाओं में अनुदित और रूपांतरित होकर एक राष्ट्रीय स्वरूप ग्रहण कर रहा है। आखिर बिरसा सिदो-कानू और तमाम क्रान्तिकारी आदिवासियों और उनके आन्दोलनों से विद्रोही चेतना की वृत्ति के साथ पूरा आदिवासी साहित्य आगे बढ़ रहा है।

आदिवासी भाषाओं में रचित साहित्य की परंपरा

आदिवासी भाषाओं में लिपियों का विकास लगभग 150 साल पहले शुरू हुआ था। अब तक एक दर्जन से अधिक आदिवासी भाषाओं की लिपियां तैयार की जा चुकी हैं। कई आदिवासी भाषाओं ने पड़ोस में एक प्रमुख भाषा की लिपि को अपनाया है। निष्कर्षतः आदिवासी भाषाओं में लिखने और छापने की परंपरा भी सौ साल से अधिक पुरानी है। इस परंपरा की और जांच करने की जरूरत है। मौजूदा स्रोत सामग्री केमीणा गंगा सत्य” आदिवासी साहित्य विमर्श चुनौतियां और सनावनाएं फारवर्ड प्रेस 2013 पृष्ठ 1-2अनुसार, मेनासस ओडेया द्वारा ‘मटुरा कहानी नामक मुंडारी उपन्यास पहला आदिवासी उपन्यास है। यह 20वीं सदी के दूसरे दशक में लिखा गया था। इसके एक हिस्से का हिंदी में अनुवाद ‘चलो चाय बागान शीर्षक से किया गया था। आदिवासी भाषाओं में लिखे गए साहित्य का महत्व यह है कि विधाएं भले ही बाहरी समाजों और भाषाओं से ली गई हैं, लेकिन जब से रचनाकार अपनी मातृभाषा में लिख रहे हैं, व्यक्त विचारों और दर्शन में मौलिकता बनी हुई है।”

निष्कर्ष

आदिवासी साहित्य मुख्यधारा की संस्कृति के दायरे से बाहर रहकर “आदिवासियों के जीवन” को व्यक्त करने वाला, उनकी “संस्कृति, परम्पराऐं, संघर्ष, इतिहास” को एक स्तर से ऊपर उठाने वाला साहित्य है। यह गैर-आदिवासी समाज से पृथक है। इसे मात्र आदिवासी दृष्टिकोण से ही जाना समझा जा सकता है। गैर-आदिवासी समाज जब आदिवासी जीवन को आधार बनाकर साहित्य रचता है तो उसके विचार एवं संस्कार के संक्रमण का भय बना रहता है। इसे मात्र अध्ययन के द्वारा समझना संभव नहीं है, इसके लिए आदिवासी समाज के साथ रहना और जीना आवश्यक है। इसके बिना आदिवासी जीवन पर साहित्यिक मूल्यांकन करना कोरा बुद्धिविलास ही होगा।

संदर्भ सूची

  1. मीना, मोनिका, “आदिवासी साहितय की अवधारणा, साहित्य कुनज, 2018 पृष्ठ: 1
  2. माटी, अपनी वैचारिकी आदिवासी साहित्य विमर्श: अवधारणा और स्वरूप रविन्द्र कुमार मीना,
  3. अपनी माटी, 2020, पृष्ठ: 32 1
  4. चौपाल, विश्वहिंदीजन ” आदिवासी साहित्य का स्वरूप विश्वहिंदीजन चौपाल, 2021, पृष्ठ: 1
  5. सृजन साहित्य, “आदिवासी की अवधारणा और जातीय स्वरूप साहित्य सृजन, 2015, पृष्ठ 1
  6. मीणा गंगा सहाय आदिवासी साहित्य विमर्श चुनौतियां और संभावनाएं”. फारवर्ड प्रेस, 2013 पृष्ठ के 1-21
  7. मीणा, गंगा सहाय “आदिवासी साहित्यत की अवधारणा: गंगा सहाय मीणा, आदिवासी साहित्या. पृष्ठ: 1