निशा निमन्त्रण हरिवंशराय बच्चन
1. दिन जल्दी-जल्दी ढलता है
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!
हो जाए न पथ में रात कहीं,
मंजिल भी तो है दूर नहीं-
यह सोच थका दिन का पंथी भी जल्दी-जल्दी चलता है!
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!
बच्चे प्रत्याशा में होंगे,
नीड़ों से झाँक रहे होंगे–
यह ध्यान परों में चिड़ियों के भरता कितनी चंचलता है!
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!
मुझसे मिलने को कौन विकल?
मैं होऊँ किसके हित चंचल?–
यह प्रश्न शिथिल करता पद को, भरता उर में विह्वलता है!
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!
2. साथी, अन्त दिवस का आया
साथी, अन्त दिवस का आया!
तरु पर लौट रहे हैं नभचर,
लौट रहीं नौकाएँ तट पर,
पश्चिम की गोदी में रवि की श्रात किरण ने आश्रय पाया!
साथी, अन्त दिवस का आया!
रवि-रजनी का आलिंगन है,
संध्या स्नेह मिलन का क्षण है,
कात प्रतीक्षा में गृहिणी ने, देखो, घर-घर दीप जलाया!
साथी, अन्त दिवस का आया!
जग के विस्तृत अंधकार में,
जीवन के शत-शत विचार में
हमें छोड़कर चली गई, लो, दिन की मौन संगिनी छाया!
साथी, अन्त दिवस का आया!
3. साथी, सांझ लगी अब होने
साथी, सांझ लगी अब होने!
फैलाया था जिन्हें गगन में,
विस्तृत वसुधा के कण-कण में,
उन किरणों को अस्तांचल पर पहँच लगा है सूर्य सँजोने!
साथी, सांझ लगी अब होने!
खेल रही थी धूलि कणों में,
लोट लिपट तरु-गृह-चरणों में,
वह छाया, देखो, जाती है प्राची में अपने को खोने!
साथी, सांझ लगी अब होने!
मिट्टी से था जिन्हें बनाया,
फूलों से था जिन्हें सजाया,
खेल घिरौंदे छोड़ पथों पर चले गये हैं बच्चे सोने!
साथी, सांझ लगी अब होने!
4. संध्या सिंदूर लुटाती है
संध्या सिंदूर लुटाती है!
रंगती स्वर्णिम रज से सुदंर
निज नीड़-अधीर खगों के पर,
तरुओं की डाली-डाली में कंचन के पात लगाती है!
संध्या सिंदूर लुटाती है!
करती सरिता का जल पीला,
जो था पल भर पहले नीला,
नावों के पालों को सोने की चादर-सा चमकाती है!
संध्या सिंदूर लुटाती है!
उपहार हमें भी मिलता है,
श्रृंगार हमें भी मिलता है,
आँसू की बूंद कपोलों पर शोणित की-सी बन जाती है!
संध्या सिंदूर लुटाती है!
5. बीत चली संध्या की वेला
बीत चली संध्या की वेला!
धुंधली प्रति पल पड़नेवाली
एक रेख में सिमटी लाली
कहती है, समाप्त होता है सतरंगे बादल का मेला!
बीत चली संध्या की वेला!
नभ में कुछ द्युतिहीन सितारे
मांग रहे हैं हाथ पसारे-
‘रजनी आए, रवि किरणों से हमने है दिन भर दुख झेला!
बीत चली संध्या की वेला!
अंतरिक्ष में आकुल-आतुर,
कभी इधर उड़, कभी उधर उड़,
पंथ नीड़ का खोज रहा है पिछड़ा पंछी एक- अकेला!
बीत चली संध्या की वेला!
6. चल बसी संध्या गगन से
चल बसी संध्या गगन से!
क्षितिज ने साँस गहरी
और संध्या की सुनहरी
छोड़ दी सारी, अभी तक था जिसे थामे लगन से!
चल बसी संध्या गगन से!
हिल उठे तरु-पत्र सहसा,
शांति फिर सर्वत्र सहसा
छा गई, जैसे प्रकृति ने ली विदा दिन के पवन से!
चल बसी संध्या गगन से!
बुलबुलों ने पाटलों से,
षट्पदों ने शतदलों से
कुछ कहा–यह देख मेरे गिर पड़े आँसू नयन से!
चल बसी संध्या गगन से!
7. उदित संध्या का सितारा
उदित संध्या का सितारा!
थी जहाँ पल पूर्व लाली,
रह गई कुछ रेख काली,
अब दिवाकर का गया मिट तेज सारा, ओज सारा!
उदित संध्या का सितारा!
शोर स्यारों ने मचाया,
’(अंधकार) हुआ’–बताया,
रात के प्रहरी उलूकों ने उठाया स्वर कुठारा!
उदित संध्या का सितारा!
काटती थी धार दिन भर
पाँव जिसके तेज चलकर,
चौंकना मत, अब गिरेगा टूट दरिया का कगारा!
उदित संध्या का सितारा!
8. अंधकार बढ़ता जाता है
अंधकार बढ़ता जाता है!
मिटता अब तरु-तरु में अंतर,
तम की चादर हर तरुवर पर,
केवल ताड़ अलग हो सबसे अपनी सत्ता बतलाता है!
अंधकार बढ़ता जाता है!
दिखलाई देता कुछ-कुछ मग,
जिसपर शंकित हो चलते पग,
दूरी पर जो चीजें उनमें केवल दीप नजर आता है!
अंधकार बढ़ता जाता है!
ड़र न लगे सुनसान सड़क पर,
इसीलिए कुछ ऊँचा स्वर कर
विलग साथियों से हो कोई पथिक, सुनो, गाता आता है!
अंधकार बढ़ता जाता है!
9. अब निशा नभ से उतरती
अब निशा नभ से उतरती!
देख, है गति मन्द कितनी
पास यद्यपि दीप्ति इतनी,
क्या सबों को जो ड़राती वह किसी से आप ड़रती?
जब निशा नभ से उतरती!
थी किरण अगणित बिछी जब,
पथ न सूझा!
गति कहाँ अब?-
कुछ दिखाता दीप अंबर, कुछ दिखाती दीप धरती!
अब निशा नभ से उतरती!
था उजाला जब गगन में
था अँधेरा ही नयन में,
रात आती है हृदय में भी तिमिर अवसाद भरती।
अब निशा नभ से उतरती!
10. तुम तूफ़ान समझ पाओगे
तुम तूफ़ान समझ पाओगे?
गीले बादल, पीछे रजकण,
सूखे पत्ते, रूखे तृण घन
लेकर चलता करता ‘हरहर’- इसका गान समझ पाओगे?
तुम तूफ़ान समझ पाओगे?
गंध-भरा यह मंद पवन था,
लहराता इससे मधुवन था,
सहसा इसका टूट गया जो स्वप्न महान, समझ पाओगे?
तुम तूफ़ान समझ पाओगे?
तोड़-मरोड़ विटप लतिकाएँ,
नोच-खसोट कुसुम-कलिकाएँ,
जाता है अज्ञात दिशा को!
हटो विहंगम, उड़ जाओगे!
तुम तूफ़ान समझ पाओगे?
11. प्रबल झंझावात, साथी
प्रबल झंझावात, साथी!
देह पर अधिकार हारे,
विवशता से पर पसारे,
करुण रव-रत पक्षियों की आ रही है पाँत, साथी!
प्रबल झंझावात, साथी!
शब्द ’हरहर’, शब्द ’मरमर’–
तरु गिरे जड़ से उखड़कर,
उड़ गए छत और छप्पर, मच गया उत्पात, साथी!
प्रबल झंझावात, साथी!
हँस रहा संसार खग पर,
कह रहा जो आह भर भर–
’लुट गए मेरे सलोने नीड़ के तॄण पात।’ साथी!
प्रबल झंझावात, साथी!
12. है यह पतझड़ की शाम, सखे
है यह पतझड़ की शाम, सखे!
नीलम-से पल्लव टूट गए,
मरकत-से साथी छूट गए,
अटके फिर भी दो पीत पात जीवन-डाली को थाम, सखे!
है यह पतझड़ की शाम, सखे!
लुक-छिप करके गानेवाली,
मानव से शरमानेवाली,
कू-कू कर कोयल मांग रही नूतन घूँघट अविराम, सखे!
है यह पतझड़ की शाम, सखे!
नंगी डालों पर नीड़ सघन,
नीड़ों में हैं कुछ-कुछ कंपन,
मत देख, नज़र लग जाएगी; यह चिड़ियों के सुखधाम, सखे!
है यह पतझड़ की शाम, सखे!
13. यह पावस की सांझ रंगीली
यह पावस की सांझ रंगीली!
फैला अपने हाथ सुनहले
रवि, मानो जाने से पहले,
लुटा रहा है बादल दल में अपनी निधि कंचन चमकीली!
यह पावस की सांझ रंगीली!
घिरे घनों से पूर्व गगन में
आशाओं-सी मुर्दा मन में,
जाग उठा सहसा रेखाएँ-लाल, बैगनी, पीली, नीली!
यह पावस की सांझ रंगीली!
इंद्र धनुष की आभा सुंदर
साथ खड़े हो इसी जगह पर
थी देखी उसने औ’ मैंने–सोच इसे अब आँखें गीली!
यह पावस की सांझ रंगीली!
14. दीपक पर परवाने आए
दीपक पर परवाने आए!
अपने पर फड़काते आए,
किरणों पर बलखाते आए,
बड़ी-बड़ी इच्छाएँ लाए, बड़ी-बड़ी आशाएँ लाए!
दीपक पर परवाने आए!
जले ज्वलित आलिंगन में कुछ,
जले अग्निमय चुंबन में कुछ,
रहे अधजले, रहे दूर कुछ, किंतु न वापस जाने पाए!
दीपक पर परवाने आए!
पहुँच गई बिस्तुइया सत्वर
लिए उदर की ज्वाल भयंकर,
बचे प्रणय की ज्वाला से जो, उदर-ज्वाल के बीच समाए!
दीपक पर परवाने आए!
15. वायु बहती शीत-निष्ठुर
वायु बहती शीत-निष्ठुर!
ताप जीवन श्वास वाली,
मृत्यु हिम उच्छवास वाली।
क्या जला, जलकर बुझा, ठंढा हुआ फिर प्रकृति का उर!
वायु बहती शीत-निष्ठुर!
पड़ गया पाला धरा पर,
तृण, लता, तरु-दल ठिठुरकर
हो गए निर्जीव से–यह देख मेरा उर भयातुर!
वायु बहती शीत-निष्ठुर!
थी न सब दिन त्रासदाता
वायु ऐसी–यह बताता
एक जोड़ा पेंडुकी का डाल पर बैठा सिकुड़-जुड़!
वायु बहती शीत-निष्ठुर!
16. गिरजे से घंटे की टन-टन
गिरजे से घंटे की टन-टन!
मंदिर से शंखों की तानें,
मस्जिद से पाबंद अजानें
उठ कर नित्य किया करती हैं अपने भक्तों का आवाहन!
गिरजे से घंटे की टन-टन!
मेरा मंदिर था, प्रतिमा थी,
मन में पूजा की महिमा थी,
किंतु निरभ्र गगन से गिरकर वज्र गया कर सबका खंडन!
गिरजे से घंटे की टन-टन!
जब ये पावन ध्वनियाँ आतीं,
शीश झुकाने दुनिया जाती,
अपने से पूछा करता मैं, करूँ कहाँ मैं किसका पूजन!
गिरजे से घंटे की टन-टन!
17. अब निशा देती निमंत्रण
अब निशा देती निमंत्रण!
महल इसका तम-विनिर्मित,
ज्वलित इसमें दीप अगणित!
द्वार निद्रा के सजे हैं स्वप्न से शोभन-अशोभन!
अब निशा देती निमंत्रण!
भूत-भावी इस जगह पर
वर्तमान समाज होकर
सामने है देश-काल-समाज के तज सब नियंत्रण!
अब निशा देती निमंत्रण!
सत्य कर सपने असंभव!–
पर, ठहर, नादान मानव!–
हो रहा है साथ में तेरे बड़ा भारी प्रवंचन!
अब निशा देती निमंत्रण!
18. स्वप्न भी छल, जागरण भी
स्वप्न भी छल, जागरण भी!
भूत केवल जल्पना है,
औ’ भविष्यत कल्पना है,
वर्तमान लकीर भ्रम की!
और है चौथी शरण भी!
स्वप्न भी छल, जागरण भी!
मनुज के अधिकार कैसे!
हम यहाँ लाचार ऐसे,
कर नहीं इनकार सकते, कर नहीं सकते वरण भी!
स्वप्न भी छल, जागरण भी!
जानता यह भी नहीं मन–
कौन मेरी थाम गर्दन,
है विवश करता कि कह दूँ, व्यर्थ जीवन भी, मरण भी!
स्वप्न भी छल, जागरण भी!
19. आ, सोने से पहले गा लें
आ, सोने से पहले गा लें!
जग में प्रात पुनः आएगा,
सोया जाग नहीं पाएगा,
आँख मूँद लेने से पहले, आ, जो कुछ कहना कह डालें!
आ, सोने से पहले गा लें!
दिन में पथ पर था उजियाला,
फैली थी किरणों की माला
अब अँधियाला देश मिला है, आ, रागों का द्वीप जलालें!
आ, सोने से पहले गा लें!
काल-प्रहारा से उच्छश्रृंखल,
जीवन की लड़ियाँ विश्रृंखल,
इन्हें जोड़ने को, आ, अपने गीतों की हम गाँठ लगालें!
आ, सोने से पहले गा लें!
20. तम ने जीवन-तरु को घेरा
तम ने जीवन-तरु को घेरा!
टूट गिरीं इच्छा की कलियाँ,
अभिलाषा की कच्ची फलियाँ,
शेष रहा जुगुनूँ की लौ में आशामय उजियाला मेरा!
तम ने जीवन-तरु को घेरा!
पल्लव मरमर गान कहाँ अब!
कोकिल पंचम तान कहाँ अब!
कौन गया निश्चय से सोने, देखेगा फिर जाग सवेरा!
तम ने जीवन-तरु को घेरा!
स्वप्नों ही ने मुझको लूटा
स्वप्नों का, हा, मोह न छूटा,
मेरे नीड़ नयन में आओ, करलो, प्रेयसि, रैन, सवेरा!
तम ने जीवन-तरु को घेरा!
21. दीप अभी जलने दे, भाई
दीप अभी जलने दे, भाई!
निद्रा की मादक मदिरा पी,
सुख स्वप्नों में बहलाकर जी,
रात्रि-गोद में जग सोया है, पलक नहीं मेरी लग पाई!
दीप अभी जलने दे, भाई!
आज पड़ा हूँ मैं बनकर शव,
जीवन में जड़ता का अनुभव,
किसी प्रतीक्षा की स्मृति से ये पागल आँखें हैं पथराई!
दीप अभी जलने दे, भाई!
दीप शिखा में झिल-मिल, झिल-मिल,
प्रतिपल धीमे-धीमे हिल-हिल,
जीवन का आभास दिलाती कुछ मेरी तेरी परछाईं!
दीप अभी जलने दे, भाई!
22. आ, तेरे उर में छिप जाऊँ
आ, तेरे उर में छिप जाऊँ!
मिल न सका स्वर जग क्रंदन का,
और मधुर मेरे गायन का,
आ तेरे उर की धड़कन से अपनी धड़कन आज मिलाऊँ!
आ, तेरे उर में छिप जाऊँ!
जिसे सुनाने को अति आतुर
आकुल युग-युग से मेरा उर,
एक गीत अपने सपनों का, आ, तेरी पलकों पर गाऊँ!
आ, तेरे उर में छिप जाऊँ!
फिर न पड़े जगती में गाना,
फिर न पड़े जगती में जाना,
एक बार तेरी गोदी में सोकर फिर मैं जाग न पाऊँ!
आ, तेरे उर में छिप जाऊँ!
23. आओ, सो जाएँ, मर जाएँ
आओ, सो जाएँ, मर जाएँ!
स्वप्न-लोक से हम निर्वासित,
कब से गृह सुख को लालायित,
आओ, निद्रा पथ से छिपकर हम अपने घर जाएँ!
आओ, सो जाएँ, मर जाएँ!
मौन रहो, मुख से मत बोलो,
अपना यह मधुकोष न खोलो,
भय है कहीं हृदय के मेरे घाव न ये भर जाएँ!
आओ, सो जाएँ, मर जाएँ!
आँसू भी न बहाएँगे हम,
जग से क्या ले जाएँगे हम?-
यदि निर्धनों के अंतिम धन ये जल कण भी झर जाएँ!
आओ, सो जाएँ, मर जाएँ!
24. हो मधुर सपना तुम्हारा
हो मधुर सपना तुम्हारा!
पलक पर यह स्नेह चुम्बन
पोंछ दे सब अश्रु के कण,
नींद की मदिरा पिलाकर दे भुला जग-क्रूर-कारा!
हो मधुर सपना तुम्हारा!
दे दिखाई विश्व ऐसा,
है रचा विधि ने न जैसा,
दूर जिससे हो गया है बहिर अंतर्द्वन्द सारा!
हो मधुर सपना तुम्हारा!
कंठ में हो गान ऐसा,
था सुना जग ने न जैसा,
और स्वर से स्वर मिलाकर गा रहा हो विश्व सारा!
हो मधुर सपना तुम्हारा!
25. कोई पार नदी के गाता
कोई पार नदी के गाता!
भंग निशा की नीरवता कर,
इस देहाती गाने का स्वर,
ककड़ी के खेतों से उठकर, आता जमुना पर लहराता!
कोई पार नदी के गाता!
होंगे भाई-बंधु निकट ही,
कभी सोचते होंगे यह भी,
इस तट पर भी बैठा कोई, उसकी तानों से सुख पाता!
कोई पार नदी के गाता!
आज न जाने क्यों होता मन,
सुन कर यह एकाकी गायन,
सदा इसे मैं सुनता रहता, सदा इसे यह गाता जाता!
कोई पार नदी के गाता!
26. आओ, बैठें तरु के नीचे
आओ, बैठें तरु के नीचे!
कहने को गाथा जीवन की,
जीवन के उत्थान पतन की
अपना मुँह खोलें, जब सारा जग है अपनी आँखें मींचे!
आओ, बैठें तरु के नीचे!
अर्ध्य बने थे ये देवल के
अंक चढ़े थे ये अंचल के
आओ, भूल इसे, आँसू से अब निर्जीव जड़ों को सींचे!
आओ, बैठें तरु के नीचे!
भाव भरा उर शब्द न आते,
पहुँच न इन तक आँसू पाते,
आओ, तृण से शुष्क धरा पर अर्थ रहित रेखाएँ खींचे!
आओ, बैठें तरु के नीचे!
27. साथी, घर-घर आज दिवाली
साथी, घर-घर आज दिवाली!
फैल गयी दीपों की माला
मंदिर-मंदिर में उजियाला,
किंतु हमारे घर का, देखो, दर काला, दीवारें काली!
साथी, घर-घर आज दिवाली!
हास उमंग हृदय में भर-भर
घूम रहा गृह-गृह पथ-पथ पर,
किंतु हमारे घर के अंदर डरा हुआ सूनापन खाली!
साथी, घर-घर आज दिवाली!
आँख हमारी नभ-मंडल पर,
वही हमारा नीलम का घर,
दीप मालिका मना रही है रात हमारी तारोंवाली!
साथी, घर-घर आज दिवाली!
28. आ, गिन डालें नभ के तारे
आ, गिन डालें नभ के तारे!
मिलकर हमको खींच रहे जो,
श्रम-सींकर से सींच रहे जो,
कण-कण उस पथ का पड़ने को जिसपर हैं पद बद्ध हमारे!
आ, गिन डालें नभ के तारे!
उठ अपने बल पर घमंड कर,
देख एक मानव के ऊपर
आवश्यक शासन करने को कितने चिर चैतन्य सितारे!
आ, गिन डालें नभ के तारे!
देख मनुज की छाती विस्तृत,
दग्ध जिसे करने को संचित
किए गए हैं अंबर भर में इतने चिर ज्वलंत अंगारे!
आ, गिन डालें नभ के तारे!
29. मेरा गगन से संलाप
मेरा गगन से संलाप!
दीप जब दुनिया बुझाती,
नींद आँखों में बुलाती,
तारकों में जा ठहरती दृष्टि मेरी आप!
मेरा गगन से संलाप!
बोल अपनी मूक भाषा
कुछ मुझे देते दिलासा,
किंतु जब कुछ पूछता मैं, देखते चुपचाप!
मेरा गगन से संलाप!
एक ही होता इशारा,
टूटता रह-रह सितारा,
एक उत्तर सर्व प्रश्नों का महासंताप!
मेरा गगन से संलाप!
30. कहते हैं, तारे गाते हैं
कहते हैं, तारे गाते हैं!
सन्नाटा वसुधा पर छाया,
नभ में हमने कान लगाया,
फिर भी अगणित कंठों का यह राग नहीं हम सुन पाते हैं!
कहते हैं, तारे गाते हैं!
स्वर्ग सुना करता यह गाना,
पृथ्वी ने तो बस यह जाना,
अगणित ओस-कणों में तारों के नीरव आँसू आते हैं!
कहते हैं, तारे गाते हैं!
ऊपर देव, तले मानवगण,
नभ में दोनों, गायन-रोदन,
राग सदा ऊपर को उठता, आँसू नीचे झर जाते हैं!
कहते हैं, तारे गाते हैं!
31. साथी, देख उल्कापात
साथी, देख उल्कापात!
टूटता तारा न दुर्बल,
चमकती चपला न चंचल,
गगन से कोई उतरती ज्योति वह नवजात!
साथी, देख उल्कापात!
बीच ही में क्षीण होकर,
अंतरिक्ष विलीन होकर
कर गई कुछ और पहले से अँधेरी रात!
साथी, देख उल्कापात!
मैं बहुत विपरीत इसके
तम-प्रपूरित गीत जिसके,
हो उठेगी दीप्ति उसके मौन के पश्चात!
साथी, देख उल्कापात!
32. देखो, टूट रहा है तारा
देखो, टूट रहा है तारा!
नभ के सीमाहीन पटल पर
एक चमकती रेखा चलकर
लुप्त शून्य में होती-बुझता एक निशा का दीप दुलारा!
देखो, टूट रहा है तारा!
हुआ न उडुगन में क्रंदन भी,
गिरे न आँसू के दो कण भी
किसके उर में आह उठेगी होगा जब लघु अंत हमारा!
देखो, टूट रहा है तारा!
यह परवशता या निर्ममता
निर्बलता या बल की क्षमता
मिटता एक, देखता रहता दूर खड़ा तारक-दल सारा!
देखो, टूट रहा है तारा!
33. मुझ से चाँद कहा करता है
मुझ से चाँद कहा करता है–
चोट कड़ी है काल प्रबल की,
उसकी मुस्कानों से हल्की,
राजमहल कितने सपनों का पल में नित्य ढहा करता है|
मुझ से चाँद कहा करता है–
तू तो है लघु मानव केवल,
पृथ्वी-तल का वासी निर्बल,
तारों का असमर्थ अश्रु भी नभ से नित्य बहा करता है।
मुझ से चाँद कहा करता है–
तू अपने दुख में चिल्लाता,
आँखो देखी बात बताता,
तेरे दुख से कहीं कठिन दुख यह जग मौन सहा करता है।
मुझ से चाँद कहा करता है–
34. विश्व सारा सो रहा है
विश्व सारा सो रहा है!
हैं विचरते स्वप्न सुंदर,
किंतु इसका संग तजकर,
अगम नभ की शून्यता का कौन साथी हो रहा है?
विश्व सारा सो रहा है!
अवनि पर सर, सरित, निर्झर,
किन्तु इनसे दूर जाकर,
कौन अपने घाव अंबर की नदी में धो रहा है?
विश्व सारा सो रहा है!
न्याय न्यायाधीश भूपर,
पास, पर, इनके न जाकर,
कौन तारों की सभा में दुःख अपना रो रहा है?
विश्व सारा सो रहा है!
35. कोई रोता दूर कहीं पर
कोई रोता दूर कहीं पर!
इन काली घड़ियों के अंदर,
यत्न बचाने के निष्फल कर,
काल प्रबल ने किसके जीवन का प्यारा अवलम्ब लिया हर?
कोई रोता दूर कहीं पर!
ऐसी ही थी रात घनेरी,
जब सुख की, सुखमा की ढेरी
मेरी लूट नियति ने ली थी, करके मेरा तन मन जर्जर!
कोई रोता दूर कहीं पर!
मित्र पड़ोसी क्रंदन सुनकर,
आकर अपने घर से सत्वर,
क्या न इसे समझाते होंगे चार, दुखी का जीवन कहकर!
कोई रोता दूर कहीं पर!
36. साथी, सो न, कर कुछ बात
साथी, सो न, कर कुछ बात!
बोलते उडुगण परस्पर,
तरु दलों में मंद ‘मरमर’,
बात करतीं सरि-लहरियाँ कूल से जल स्नात!
साथी, सो न, कर कुछ बात!
बात करते सो गया तू,
स्वप्न में फिर खो गया तू,
रह गया मैं और आधी बात, आधी रात!
साथी, सो न, कर कुछ बात!
पूर्ण कर दे वह कहानी,
जो शुरू की थी सुनानी,
आदि जिसका हर निशा में, अंत चिर अज्ञात!
साथी, सो न, कर कुछ बात!
37. तूने क्या सपना देखा है
तूने क्या सपना देखा है?
पलक रोम पर बूँदें सुख की,
हँसती सी मुद्रा कुछ मुख की,
सोते में क्या तूने अपना बिगड़ा भाग्य बना देखा है।
तूने क्या सपना देखा है?
नभ में कर क्यों फैलाता है?
किसको भुज में भर लाता है?
प्रथम बार सपने में तूने क्या कोई अपना देखा है?
तूने क्या सपना देखा है?
मृगजल से ही ताप मिटा ले
सपनों में ही कुछ रस पा ले
मैंने तो तन-मन का सपनों में भी बस तपना देखा है!
तूने क्या सपना देखा है?
38. आज घिरे हैं बादल, साथी
आज घिरे हैं बादल, साथी!
भरा हृदय नभ विगलित होकर
आज बिखर जाएगा भूपर,
चार नयन भी साथ गगन के आज पड़ेंगे ढल-ढल, साथी!
आज घिरे हैं बादल, साथी!
आँसू का बल हमें कभी था
आँचल गीला किया जभी था
जग जीवन की सब सीमाएँ ढहीं-बहीं थीं गल-गल, साथी!
आज घिरे हैं बादल, साथी!
अब आँसू उर ज्वाल बुझाते
तो भी हम कुछ सुख पा जाते!
इन जल की बूँदों से उर के घाव उठेंगे जल-जल, साथी!
आज घिरे हैं बादल, साथी!
39. देख, रात है काली कितनी
देख, रात है काली कितनी!
आज सितारे भी हैं सोए,
बादल की चादर में खोए,
एक बार भी नहीं उठाती घूँघट घन-अवगुंठन वाली!
देख, रात है काली कितनी!
आज बुझी है अंतर्ज्वाला,
जिससे हमने खोज निकाला
था पथ अपना अधिक तिमिर में और चली थे चाल निराली!
देख, रात है काली कितनी!
क्या उन्मत्त समीरण आता,
मानव कर का दीप बुझाता,
क्या जुगुनूँ जल-जल करता है तरु के नीड़ों की रखवाली!
देख, रात है काली कितनी!
40. यह पपीहे की रटन है
यह पपीहे की रटन है!
बादलों की घिर घटाएँ,
भूमि की लेतीं बलाएँ,
खोल दिल देतीं दुआएँ- देख किस उर में जलन है!
यह पपीहे की रटन है!
जो बहा दे, नीर आया,
आग का फिर तीर आया,
वज्र भी बेपीर आया- कब रुका इसका वचन है!
यह पपीहे की रटन है!
यह न पानी से बुझेगी,
यह न पत्थर से दबेगी,
यह न शोलों से डरेगी, यह वियोगी की लगन है!
यह पपीहे की रटन है!
41. है पावस की रात अँधेरी
है पावस की रात अँधेरी!
विद्युति की है द्युति अम्बर में,
जुगुनूँ की है ज्योति अधर में,
नभ-मंड्ल की सकल दिशाएँ तम की चादर ने हैं घेरी!
है पावस की रात अँधेरी!
मैंने अपने हास चपल से,
होड़ कभी ली थी बादल से!
किंतु गगन का गर्जन सुनकर आज धड़कती छाती मेरी!
है पावस की रात अँधेरी
है सहसा जिह्वा पर आई,
’घन घमंड’ वाली चौपाई,
जहाँ देव भी काँप उठे थे, क्यों लज्जित मानवता मेरी!
है पावस की रात अँधेरी!
42. आज मुझसे बोल, बादल
आज मुझसे बोल, बादल!
तम भरा तू, तम भरा मैं,
गम भरा तू, गम भरा मैं,
आज तू अपने हृदय से हृदय मेरा तोल, बादल!
आज मुझसे बोल, बादल!
आग तुझमें, आग मुझमें,
राग तुझमें, राग मुझमें,
आ मिलें हम आज अपने द्वार उर के खोल, बादल!
आज मुझसे बोल, बादल!
भेद यह मत देख दो पल–
क्षार जल मैं, तू मधुर जल,
व्यर्थ मेरे अश्रु, तेरी बूँद है अनमोल बादल!
आज मुझसे बोल, बादल!
43. आज रोती रात, साथी
आज रोती रात, साथी!
घन तिमिर में मुख छिपाकर
है गिराती अश्रु झर-झर,
क्या लगी कोई हृदय में तारकों की बात, साथी!
आज रोती रात, साथी!
जब तड़ित क्रंदन श्रवणकर
काँपती है धरणि थर थर,
सोच, बादल के हृदय ने क्या सहे आघात, साथी!
आज रोती रात, साथी!
एक उर में आह ’उठती,
निखिल सृष्टि कराह उठती,
रात रोती, भीग उठता भूमि का पट गात, साथी!
आज रोती रात, साथी!
44. रात-रात भर श्वान भूकते
रात-रात भर श्वान भूकते।
पार नदी के जब ध्वनि जाती,
लौट उधर से प्रतिध्वनि आती
समझ खड़े समबल प्रतिद्वदी दे-दे अपने प्राण भूकते।
रात-रात भर श्वान भूकते।
इस रव से निशि कितनी विह्वल,
बतला सकता हूँ मैं केवल,
इसी तरह मेरे उर में भी असंतुष्ट अरमान भूकते।
रात-रात भर श्वान भूकते!
जब दिन होता ये चुप होते,
कहीं अँधेरे में छिप सोते,
पर दिन रात हृदय के मेरे ये निर्दय मेहमान भूकते।
रात-रात भर श्वान भूकते!
45. रो, अशकुन बतलाने वाली
रो, अशकुन बतलाने वाली!
‘आउ-आउ’ कर किसे बुलाती?
तुझको किसकी याद सताती?
मेरे किन दुर्भाग्य क्षणों से प्यार तुझे, ओ तम सी काली?
रो, अशकुन बतलाने वाली!
देख किसी को अश्रु बहाते,
नेत्र सदा साथी बन जाते,
पर तेरी यह चीखें उर में कितना भय उपजानेवाली?
रो, अशकुन बतलाने वाली!
सत्य मिटा, सपना भी टूटा,
संगिन छूटी, संगी छूटा,
कौन शेष रह गई आपदा जो तू मुझ पर लानेवाली?
रो, अशकुन बतलाने वाली!
46. साथी, नया वर्ष आया है
साथी, नया वर्ष आया है!
वर्ष पुराना, ले, अब जाता,
कुछ प्रसन्न सा, कुछ पछताता
दे जी भर आशीष, बहुत ही इससे तूने दुख पाया है!
साथी, नया वर्ष आया है!
उठ इसका स्वागत करने को,
स्नेह बाहुओं में भरने को,
नए साल के लिए, देख, यह नई वेदनाएँ लाया है!
साथी, नया वर्ष आया है!
उठ, ओ पीड़ा के मतवाले!
ले ये तीक्ष्ण-तिक्त-कटु प्याले,
ऐसे ही प्यालों का गुण तो तूने जीवन भर गाया है!
साथी, नया वर्ष आया है!
47. आओ, नूतन वर्ष मना लें
आओ, नूतन वर्ष मना लें!
गृह-विहीन बन वन-प्रयास का
तप्त आँसुओं, तप्त श्वास का,
एक और युग बीत रहा है, आओ इस पर हर्ष मना लें!
आओ, नूतन वर्ष मना लें!
उठो, मिटा दें आशाओं को,
दबी छिपी अभिलाषाओं को,
आओ, निर्ममता से उर में यह अंतिम संघर्ष मना लें!
आओ, नूतन वर्ष मना लें!
हुई बहुत दिन खेल मिचौनी,
बात यही थी निश्चित होनी,
आओ, सदा दुखी रहने का जीवन में आदर्श बना लें!
आओ, नूतन वर्ष मना लें!
48. रात आधी हो गई है
रात आधी हो गई है!
जागता मैं आँख फाड़े,
हाय, सुधियों के सहारे,
जब कि दुनिया स्वप्न के जादू-भवन में खो गई है!
रात आधी हो गई है!
सुन रहा हूँ, शांति इतनी,
है टपकती बूंद जितनी
ओस की, जिनसे द्रुमों का गात रात भिगो गई है?
रात आधी हो गई है!
दे रही कितना दिलासा,
आ झरोखे से ज़रा-सा,
चाँदनी पिछले पहर की पास में जो सो गई है!
रात आधी हो गई है!
49. विश्व मनाएगा कल होली
विश्व मनाएगा कल होली!
घूमेगा जग राह-राह में
आलिंगन की मधुर चाह में,
स्नेह सरसता से घट भरकर, ले अनुराग राग की झोली!
विश्व मनाएगा कल होली!
उर से कुछ उच्छवास उठेंगे,
चिर भूखे भुज पाश उठेंगे,
कंठों में आ रुक जाएगी मेरे करुण प्रणय की बोली!
विश्व मनाएगा कल होली!
आँसू की दो धार बहेगी,
दो-दो मुट्ठी राख उड़ेगी,
और अधिक चमकीला होगा जग का रंग, जगत की रोली!
विश्व मनाएगा कल होली!
50. खेल चुके हम फाग समय से
खेल चुके हम फाग समय से!
फैलाकर निःसीम भुजाएँ,
अंक भरीं हमने विपदाएँ,
होली ही हम रहे मनाते प्रतिदिन अपने यौवन वय से!
खेल चुके हम फाग समय से!
मन दे दाग अमिट बतलाते,
हम थे कैसा रंग बहाते
मलते थे रोली मस्तक पर क्षार उठाकर दग्ध हृदय से!
खेल चुके हम फाग समय से!
रंग छुड़ाना, चंग बजाना,
रोली मलना, होली गाना–
आज हमें यह सब लगते हैं केवल बच्चों के अभिनय से!
खेल चुके हम फाग समय से!
51. साथी, कर न आज दुराव
साथी, कर न आज दुराव!
खींच ऊपर को भ्रुओं को
रोक मत अब आँसुओं को,
सह सकेगी भार कितना यह नयन की नाव!
साथी, कर न आज दुराव!
व्यक्त कर दे अश्रु कण से,
आह से, अस्फुट वचन से,
प्राण तन-मन को दबाए जो हृदय के भाव!
साथी, कर न आज दुराव!
रो रही बुलबुल विकल हो
इस निशा में धैर्य धन खो,
वह कहीं समझे न उसके ही हृदय में घाव!
साथी, कर न आज दुराव!
52. हम कब अपनी बात छिपाते
हम कब अपनी बात छिपाते?
हम अपना जीवन अंकित कर
फेंक चुके हैं राज मार्ग पर,
जिसके जी में आए पढ़ले थमकर पलभर आते जाते!
हम कब अपनी बात छिपाते?
हम सब कुछ करके भी मानव,
हमीं देवता, हम ही दानव,
हमीं स्वर्ग की, हमीं नरक की, क्षण भर में सीमा छू आते!
हम कब अपनी बात छिपाते?
मानवता के विस्तृत उर हम,
मानवता के स्वच्छ मुकुर हम,
मानव क्यों अपनी मानवता बिंबित हममें देख लजाते!
हम कब अपनी बात छिपाते?
53. हम आँसू की धार बहाते
हम आँसू की धार बहाते!
मानव के दुख का सागर जल
हम पी लेते बनकर बादल,
रोकर बरसाते हैं, फिर भी हम खारे को मधुर बनाते!
हम आँसू की धार बहाते!
उर मथकर कंठों तक आता,
कंठ रुँधा पाकर फिर जाता,
कितने ऐसे विष का दर्शन, हाय, नहीं मानव कर पाते!
हम आँसू की धार बहाते!
मिट जाते हम करके वितरण
अपना अमृत सरीखा सब धन!
फिर भी ऐसे बहुत पड़े जो मेरा तेरा भाग्य सिहाते!
हम आँसू की धार बहाते!
54. क्यों रोता है जड़ तकियों पर
क्यों रोता है जड़ तकियों पर!
जिनका उर था स्नेह विनिर्मित,
भाव सरसता से अभिसिंचित,
जब न पसीजे इनसे वे भी, आज पसीजेगें क्या पत्थर!
क्यों रोता है जड़ तकियों पर!
इनमें मानव का जीवन है,
जीवन का नीरव क्रंदन है,
नष्ट न कर तू इन बूँदों को मरुथल के ऊपर बरसाकर!
क्यों रोता है जड़ तकियों पर!
रो तू अक्षर-अक्षर में ही,
रो तू गीतों के स्वर में ही,
शांत किसी दुखिया का मन हो जिनको सूनेपन में गाकर!
क्यों रोता है जड़ तकियों पर!
55. मैंने दुर्दिन में गाया है
मैंने दुर्दिन में गाया है!
दुर्दिन जिसके आगे रोता,
बंदी सा नतमस्तक होता,
एक न एक समय दुनिया का एक-एक प्राणी आया है!
मैंने दुर्दिन में गाया है!
जीवन का क्या भेद बताऊँ,
जगती का क्या मर्म जताऊँ,
किसी तरह रो-गाकर मैंने अपने मन को बहलाया है!
मैंने दुर्दिन में गाया है!
साथी, हाथ पकड़ मत मेरा,
कोई और सहारा तेरा,
यही बहुत, दुख दुर्बल तूने मुझको अपने सा पाया है!
मैंने दुर्दिन में गाया है!
56. साथी, कवि नयनों का पानी
साथी, कवि नयनों का पानी-
चढ जाए मंदिर प्रतिमा पर,
यी दे मस्जिद की गागर भर,
या धोए वह रक्त सना है जिससे जग का आहत प्राणी?
साथी, कवि नयनों का पानी-
लिखे कथाएँ राज-काज की,
या परिवर्तित जन समाज की,
या मानवता के विषाद की लिखे अनादि-अनंत कहानी?
साथी, कवि नयनों का पानी-
’कल-कल’ करे सरित निर्झर में,
या मुखरित हो सिन्धु लहर में,
युग वाणी बोले या बोले वह, जो है युग-युग की वाणी?
साथी, कवि नयनों का पानी-
57. जग बदलेगा, किंतु न जीवन
जग बदलेगा, किंतु न जीवन!
क्या न करेंगे उर में क्रंदन
मरण-जन्म के प्रश्न चिरंतन,
हल कर लेंगे जब रोटी का मसला जगती के नेतागण?
जग बदलेगा, किंतु न जीवन!
प्रणय-स्वप्न की चंचलता पर
जो रोएँगे सिर धुन-धुनकर,
नेताओं के तर्क वचन क्या उनको दे देंगे आश्वासन?
जग बदलेगा, किंतु न जीवन!
मानव-भाग्य-पटल पर अंकित
न्याय नियति का जो चिर निश्चित,
धो पाएँगें उसे तनिक भी नेताओं के आँसू के कण?
जग बदलेगा, किंतु न जीवन!
58. क्षण भर को क्यों प्यार किया था
क्षण भर को क्यों प्यार किया था?
अर्द्ध रात्रि में सहसा उठकर,
पलक संपुटों में मदिरा भर
तुमने क्यों मेरे चरणों में अपना तन-मन वार दिया था?
क्षण भर को क्यों प्यार किया था?
‘यह अधिकार कहाँ से लाया?’
और न कुछ मैं कहने पाया –
मेरे अधरों पर निज अधरों का तुमने रख भार दिया था!
क्षण भर को क्यों प्यार किया था?
वह क्षण अमर हुआ जीवन में,
आज राग जो उठता मन में –
यह प्रतिध्वनि उसकी जो उर में तुमने भर उद्गार दिया था!
क्षण भर को क्यों प्यार किया था?
59. आज सुखी मैं कितनी, प्यारे
‘आज सुखी मैं कितनी, प्यारे!’
चिर अतीत में ‘आज’ समाया,
उस दिन का सब साज समाया,
किंतु प्रतिक्षण गूँज रहे हैं नभ में वे कुछ शब्द तुम्हारे!
‘आज सुखी मैं कितनी, प्यारे!’
लहरों में मचला यौवन था,
तुम थीं, मैं था, जग निर्जन था,
सागर में हम कूद पड़े थे भूल जगत के कूल किनारे!
‘आज सुखी मैं कितनी, प्यारे!’
साँसों में अटका जीवन है,
जीवन में एकाकीपन है,
‘सागर की बस याद दिलाते नयनों में दो जल-कण खारे!’
‘आज सुखी मैं कितनी, प्यारे!’
60. सोच सुखी मेरी छाती है
सोच सुखी मेरी छाती है—
दूर कहाँ मुझसे जाएगी,
कैसे मुझको बिसराएगी?
मेरे ही उर की मदिरा से तो, प्रेयसि, तू मदमाती है!
सोच सुखी मेरी छाती है—
मैंने कैसे तुझे गँवाया,
जब तुझको अपने में पाया?
पास रहे तू कहीं किसी के, सुरक्षित मेरी थाती है!
सोच सुखी मेरी छाती है—
तू जिसको कर प्यार, वही मैं!
अपनेमें ही आज नहीं मैं!
किसी मूर्ति पर पुष्प चढ़ा तू पूजा मेरी हो जाती है!
सोच सुखी मेरी छाती है—
61. जग-का मेरा प्यार नहीं था
जग-का मेरा प्यार नहीं था!
तूने था जिसको लौटाया,
क्या उसको मैंने फिर पाया?
हृदय गया था अर्पित होने, साधारण उपहार नहीं था!
जग-का मेरा प्यार नहीं था!
सीमित जग से सीमित क्षण में
सीमाहीन तृषा थी मन में,
तुझमें अपना लय चाहा था, हेय प्रणय अभिसार नहीं था!
जग-का मेरा प्यार नहीं था!
स्वर्ग न जिसको छू पाया था,
तेरे चरणों में आया था,
तूने इसका मूल्य न समझा, जीवन था, खिलवार नहीं था!
जग-का मेरा प्यार नहीं था!
62. देवता उसने कहा था
देवता उसने कहा था!
रख दिए थे पुष्प लाकर
नत नयन मेरे चरण पर!
देर तक अचरज भरा मैं देखता खुद को रहा था!
देवता उसने कहा था!
गोद मंदिर बन गई थी,
दे नए सपने गई थी,
किंतु जब आँखें खुलीं तब कुछ न था, मंदिर जहाँ था!
देवता उसने कहा था!
प्यार पूजा थी उसीकी,
है उपेक्षा भी उसी की,
क्या कठिन सहना घृणा का भार पूजा का सहा था!
देवता उसने कहा था!
63. मैंने भी जीवन देखा है
मैंने भी जीवन देखा है!
अखिल विश्व था आलिंगन में,
था समस्त जीवन चुम्बन में
युग कर पाए माप न जिसकी मैंने ऐसा क्षण देखा है!
मैंने भी जीवन देखा है!
सिंधु जहाँ था, मरु सोता है!
अचरज क्या मुझको होता है?
अतुल प्यार का अतुल घृणा में मैंने परिवर्तन देखा है!
मैंने भी जीवन देखा है!
प्रिय सब कुछ खोकर जीता हूँ,
चिर अभाव का मधु पीता हूँ,
यौवन रँगरलियों से प्यारा मैंने सूनापन देखा है!
मैंने भी जीवन देखा है!
64. क्या मैं जीवन से भागा था
क्या मैं जीवन से भागा था?
स्वर्ण श्रृंखला प्रेम-पाश की
मेरी अभिलाषा न पा सकी,
क्या उससे लिपटा रहता जो कच्चे रेशम का तागा था!
क्या मैं जीवन से भागा था?
मेरा सारा कोष नहीं था,
अंशों से संतोष नहीं था,
अपनाने की कुचली साधों में मैंने तुमको त्यागा था!
क्या मैं जीवन से भागा था?
बूँद उसे तुमने दिखलाया,
युग-युग की तृष्णा जो लाया,
जिसने चिर अथाह मधु मंजित जीवन का प्रतिक्षण माँगा था!
क्या मैं जीवन से भागा था?
65. निर्ममता भी है जीवन में
निर्ममता भी है जीवन में!
हो वासंती अनिल प्रवाहित
करता जिनको दिन-दिन विकसित,
उन्हीं दलों को शिशिर-समीरण तोड़ गिराता है दो क्षण में!
निर्ममता भी है जीवन में!
जिसकी कंचन की काया थी,
जिसमें सब सुख की छाया थी,
उसे मिला देना पड़ता है पल भर में मिट्टी के कण में!
निर्ममता भी है जीवन में!
जगती में है प्रणय उच्चतर,
पर कुछ है उसके भी ऊपर,
पूछ उसीसे आज नहीं तू क्यों मेरे उर के आँगन में!
निर्ममता भी है जीवन में!
66. मैंने खेल किया जीवन से
मैंने खेल किया जीवन से!
सत्य भवन में मेरे आया,
पर मैं उसको देख न पाया,
दूर न कर पाया मैं, साथी, सपनों का उन्माद नयन से!
मैंने खेल किया जीवन से!
मिलता था बेमोल मुझे सुख,
पर मैंने उससे फेरा मुख,
मैं खरीद बैठा पीड़ा को यौवन के चिर संचित धन से!
मैंने खेल किया जीवन से!
थे बैठे भगवान हृदय में,
देर हुई मुझको निर्णय में,
उन्हें देवता समझा जो थे कुछ भी अधिक नहीं पाहन से!
मैंने खेल किया जीवन से!
67. था तुम्हें मैंने रुलाया
था तुम्हें मैंने रुलाया!
हाय, मृदु इच्छा तुम्हारी!
हा, उपेक्षा कटु हमारी!
था बहुत माँगा न तुमने किन्तु वह भी दे ना पाया!
था तुम्हें मैंने रुलाया!
स्नेह का वह कण तरल था,
मधु न था, न सुधा-गरल था,
एक क्षण को भी, सरलते, क्यों समझ तुमको न पाया!
था तुम्हें मैंने रुलाया!
बूँद कल की आज सागर,
सोचता हूँ बैठ तट पर –
क्यों अभी तक डूब इसमें कर न अपना अंत पाया!
था तुम्हें मैंने रुलाया!
68. ऐसे मैं मन बहलाता हूँ
ऐसे मैं मन बहलाता हूँ!
सोचा करता बैठ अकेले
गत जीवन के सुख-दुख झेले,
दर्शनकारी स्मृतियों से मैं उर के छाले सहलाता हूँ!
ऐसे मैं मन बहलाता हूँ!
नहीं खोजने जाता मरहम,
होकर अपने प्रति अति निर्मम
उर के घावों को आँसू के खारे जल से सहलाता हूँ!
ऐसे मैं मन बहलाता हूँ!
आह निकल मुख से जाती है,
मानव की ही तो छाती है
लाज नहीं मुझको देवों में यदि मैं दुर्बल कहलाता हूँ!
ऐसे मैं मन बहलाता हूँ!
69. अब वे मेरे गान कहाँ हैं
अब वे मेरे गान कहाँ हैं!
टूट गई मरकत की प्याली,
लुप्त हुई मदिरा की लाली,
मेरा व्याकुल मन बहलानेवाले अब सामान कहाँ हैं!
अब वे मेरे गान कहाँ हैं!
जगती के नीरस मरुथल पर,
हँसता था मैं जिनके बल पर,
चिर वसंत-सेवित सपनों के मेरे वे उद्यान कहा हैं!
अब वे मेरे गान कहाँ हैं!
किस पर अपना प्यार चढाऊँ?
यौवन का उद्गार चढाऊँ?
मेरी पूजा को सह लेने वाले वे पाषाण कहाँ है!
अब वे मेरे गान कहाँ हैं!
70. बीते दिन कब आने वाले
बीते दिन कब आने वाले!
मेरी वाणी का मधुमय स्वर,
विश्व सुनेगा कान लगाकर,
दूर गए पर मेरे उर की धड़कन को सुन पाने वाले!
बीते दिन कब आने वाले!
विश्व करेगा मेरा आदर,
हाथ बढ़ाकर, शीश नवाकर,
पर न खुलेंगे नेत्र प्रतीक्षा में जो रहते थे मतवाले!
बीते दिन कब आने वाले!
मुझमें है देवत्व जहाँ पर,
झुक जाएगा लोक वहाँ पर,
पर न मिलेंगे मेरी दुर्बलता को अब दुलरानेवाले!
बीते दिन कब आने वाले!
71. आज मुझसे दूर दुनिया
आज मुझसे दूर दुनिया!
भावनाओं से विनिर्मित,
कल्पनाओं से सुसज्जित,
कर चुकी मेरे हृदय का स्वप्न चकनाचूर दुनिया!
आज मुझसे दूर दुनिया!
’बात पिछली भूल जाओ,
दूसरी नगरी बसाओ’—
प्रेमियों के प्रति रही है, हाय, कितनी क्रूर दुनिया!
आज मुझसे दूर दुनिया!
वह समझ मुझको न पाती,
और मेरा दिल जलाती,
है चिता की राख कर में, माँगती सिंदूर दुनिया!
आज मुझसे दूर दुनिया!
72. मैं जग से कुछ सीख न पाया
मैं जग से कुछ सीख न पाया।
जग ने थोड़ा-थोड़ा चाहा,
थोड़े में ही काम निबाहा,
लेकिन अपनी इच्छाओं को मैंने सीमाहीन बनाया।
मैं जग से कुछ सीख न पाया।
जग ने जो दिन-बीच कमाया,
उसे निशा में किया सवाया,
मैंने जो दिन को जोड़ा था, उसको मैंने शाम गँवाया।
मैं जग से कुछ सीख न पाया।
जग ने जो प्रतिमा ठुकराई,
झुककर उसके आगे आई,
फिर-फिर झुका उसी वेदी पर जहाँ गया फिर-फिर ठुकराया।
मैं जग से कुछ सीख न पाया।
73. श्यामा तरु पर बोलने लगी
श्यामा तरु पर बोलने लगी!
है अभी पहर भर शेष रात,
है पड़ी भूमि हो शिथिल-गात,
यह कौन ओस जल में सहसा मिश्री के कण घोलने लगी!
श्यामा तरु पर बोलने लगी!
दिग्वधुओं का मुख तमाच्छ्न्न,
अब अस्फुट आभा से प्रसन्न,
यह कौन उषा का अवगुंठन गा-गा करके खोलने लगी!
श्यामा तरु पर बोलने लगी!
अधरों के नीचे लेजाकर
इसने रक्खा क्या पेय प्रखर,
जिसको छूते ही सकल प्रकृति हो सजग चपल डोलने लगी!
श्यामा तरु पर बोलने लगी!
74. यह अरुण-चूड़ का तरुण राग
यह अरुण-चूड़ का तरुण राग!
सुनकर इसकी हुंकार वीर
हो उठा सजग अस्थिर समीर,
उड चले तिमिर का वक्ष चीर चिड़ियों के पहरेदार काग!
यह अरुण-चूड़ का तरुण राग!
जग पड़ा खगों का कुल महान,
छिड़ गया सम्मिलित मधुर गान,
पौ फटी, हुआ स्वर्णिम विहान, तम चला भाग, तम गया भाग!
यह अरुण-चूड़ का तरुण राग!
अब जीवन-जागृति-ज्योति दान
परिपूर्ण भूमितल, आसमान,
मानो कण-कण की एक तान, सोना न पड़ेगा पुनः जाग!
यह अरुण-चूड़ का तरुण राग!
75. तारक दल छिपता जाता है
तारक दल छिपता जाता है।
कलियाँ खिलती, फूल बिखरते,
मिल सुख-दुख के आँसू झरते,
जीवन और मरण दोनों का राग विहंगम-दल गाता है।
तारक दल छिपता जाता है।
इसे कहूँ मैं हास पवन का,
या समझूँ उच्छ्वास पवन का?
अवनि और अंबर दोनों से प्रात समीरण का नाता है।
तारक दल छिपता जाता है।
रवि ने अपना हाथ बढ़ाकर
नभ दीपों का लिया तेज हर,
जग में उजियाला होता है, स्वप्न-लोक में तम छाता है।
तारक दल छिपता जाता है।
76. शुरू हुआ उजियाला होना
शुरू हुआ उजियाला होना!
हटता जाता है नभ से तम,
संख्या तारों की होती कम,
उषा झाँकती उठा क्षितिज से बादल की चादर का कोना!
शुरू हुआ उजियाला होना!
ओस-कणों से निर्मल-निर्मल,
उज्जवल-उज्जवल शीतल-शीतल
शुरू किया प्रातः समीर ने तरु-पल्लव-तृण का मुँह धोना!
शुरू हुआ उजियाला होना!
किसी बसे द्रुम की ड़ाली पर,
सद्यः जागृत चिड़ियों का स्वर,
किसी सुखी घर से सुन पड़ता है नन्हें बच्चों का रोना!
शुरू हुआ उजियाला होना!
77. आ रही रवि की सवारी
आ रही रवि की सवारी!
नव किरण का रथ सजा है,
कलि-कुसुम से पथ सजा है,
बादलों से अनुचरों ने स्वर्ण की पोशाक धारी!
आ रही रवि की सवारी!
विहग बंदी और चारण,
गा रहे हैं कीर्ति गायन,
छोड़कर मैदान भागी तारकों की फौज सारी!
आ रही रवि की सवारी!
चाहता, उछलूँ विजय कह,
पर ठिठकता देखकर यह,
रात का राजा खड़ा है राह में बनकर भिखारी!
आ रही रवि की सवारी!
78. अब घन-गर्जन-गान कहाँ हैं
अब घन-गर्जन-गान कहाँ हैं!
कहती है ऊषा की पहली
किरण लिए मुस्कान सुनहली—
नहीं दमकती दामिनि का ही, मेरा भी अस्तित्व यहाँ है!
अब घन-गर्जन-गान कहाँ हैं!
कहता एक बूँद आँसू झर
पलक-पाँखुरी से पल्लव पर—
नहीं मेह की लहरों का ही, मेरा भी अस्तित्व यहाँ है!
अब घन-गर्जन-गान कहाँ हैं!
टहनी पर बैठी गौरैया
चहक-चहककर कहती, भैया—
नहीं कड़कते बादल का ही, मेरा भी अस्तित्व यहाँ है!
अब घन-गर्जन-गान कहाँ हैं!
79. भीगी रात विदा अब होती
भीगी रात विदा अब होती।
रोते-रोते रक्त नयन हो,
पीत बदन हो, छाया तन हो,
पार क्षितिज के रजनी जाती, अपना अंचल छोर निचोती।
भीगी रात विदा अब होती।
प्राची से ऊषा हँस पड़ती,
विहगावलियाँ नौबत झड़ती,
पल में निर्मम प्रकृति निशा के रोदन की सब चिंता खोती।
भीगी रात विदा अब होती।
हाथ बढ़ा सूरज किरणों के
पोंछ रहा आँसू सुमनों के,
अपने गीले पंख सुखाते तरु पर बैठ कपोत-कपोती।
भीगी रात विदा अब होती।
80. मैं कल रात नहीं रोया था
मैं कल रात नहीं रोया था !
दुख सब जीवन के विस्मृत कर,
तेरे वक्षस्थल पर सिर धर,
तेरी गोदी में चिड़िया के बच्चे-सा छिपकर सोया था!
मैं कल रात नहीं रोया था!
प्यार-भरे उपवन में घूमा,
फल खाए, फूलों को चूमा,
कल दुर्दिन का भार न अपने पंखो पर मैंने ढोया था!
मैं कल रात नहीं रोया था!
आँसू के दाने बरसाकर
किन आँखो ने तेरे उर पर
ऐसे सपनों के मधुवन का मधुमय बीज, बता, बोया था?
मैं कल रात नहीं रोया था!
81. मैं उसे फिर पा गया था
मैं उसे फिर पा गया था!
था वही तन, था वही मन,
था वही सुकुमार दर्शन,
एक क्षण सौभाग्य का छूटा हुआ-सा आ गया था!
मैं उसे फिर पा गया था!
वह न बोली, मैं न बोला,
वह न डोली, मैं न डोला,
पर लगा पल में युगों का हाल-चाल बता गया था!
मैं उसे फिर पा गया था!
चार लोचन डबडबाए!
शब्द सुख कैसे बताए?
देवता का अश्रु मानव के नयन में छा गया था!
मैं उसे फिर पा गया था!
82. स्वप्न था मेरा भयंकर
स्वप्न था मेरा भयंकर!
रात का-सा था अंधेरा,
बादलों का था न डेरा,
किन्तु फिर भी चन्द्र-तारों से हुआ था हीन अम्बर!
स्वप्न था मेरा भयंकर!
क्षीण सरिता बह रही थी,
कूल से यह कह रही थी-
शीघ्र ही मैं सूखने को, भेंट ले मुझको हृदय भर!
स्वप्न था मेरा भयंकर!
धार से कुछ फासले पर
सिर कफ़न की ओढ चादर
एक मुर्दा गा रहा था बैठकर जलती चिता पर!
स्वप्न था मेरा भयंकर!
83. हूँ जैसा तुमने कर डाला
हूँ जैसा तुमने कर डाला!
पूण्य किया, पापों में डूबा,
सुख से ऊबा, दुख से ऊबा,
हमसे यह सब करा तुम्हीं ने अपना कोई अर्थ निकाला!
हूँ जैसा तुमने कर डाला!
क्षय मेरा निर्माण जगत का
लय मेरा उत्थान जगत का
जग की ओर हमारा तुमने जोड़ दिया संबंध निराला!
हूँ जैसा तुमने कर डाला!
पूछा जब, ’क्या जीवन जग में?’
कभी चहककर किसी विहग में!
कभी किसी तरु में कर ’मरमर’प्रश्न हमारा तुमने टाला!
हूँ जैसा तुमने कर डाला!
84. मैं गाता, शून्य सुना करता
मैं गाता, शून्य सुना करता!
इसको अपना सौभाग्य कहूँ,
अथवा दुर्भाग्य इसे समझूँ,
वह प्राप्त हुआ बन चिर-संगी जिससे था मैं पहले डरता!
मैं गाता, शून्य सुना करता!
जब सबने मुझको छोड़ दिया,
जब सबने नाता तोड़ लिया,
यह पास चला मेरे आया सब रिक्त-स्थानों को भरता!
मैं गाता, शून्य सुना करता!
मेरे मन की दुर्बलता पर–
मेरी मानी मानवता पर–
हँसता तो है यह शून्य नहीं, यदि इस पर सिर न धुना करता!
मैं गाता, शून्य सुना करता!
85. मधुप, नहीं अब मधुवन तेरा
मधुप, नहीं अब मधुवन तेरा!
तेरे साथ खिली जो कलियाँ,
रूप-रंगमय कुसुमावलियाँ,
वे कब की धरती में सोईं, होगा उनका फिर न सवेरा!
मधुप, नहीं अब मधुवन तेरा!
नूतन मुकुलित कलिकाओं पर,
उपवन की नव आशाओं पर,
नहीं सोहता, पागल, तेरा दुर्बल-दीन-अंगमल फेरा!
मधुप, नहीं अब मधुवन तेरा!
जहाँ प्यार बरसा था तुझ पर,
वहाँ दया की भिक्षा लेकर,
जीने की लज्जा को कैसे सहता है, मानी, मन तेरा!
मधुप, नहीं अब मधुवन तेरा!
86. आओ, हम पथ से हट जाएँ
आओ, हम पथ से हट जाएँ!
युवती और युवक मदमाते,
उत्सव आज मनाने आते,
लिए नयन में स्वप्न, वचन में हर्ष, हृदय में अभिलाषाएँ!
आओ, हम पथ से हट जाएँ!
इनकी इन मधुमय घडियों में,
हास-लास की फुलझड़ियों में,
हम न अमंगल शब्द निकालें, हम न अमंगल अश्रु बहाएँ!
आओ, हम पथ से हट जाएँ!
यदि इनका सुख सपना टूटे,
काल इन्हें भी हम-सा लूटे,
धैर्य बंधाएँ इनके उर को हम पथिको की करुण कथाएँ!
आओ, हम पथ से हट जाएँ!
87. क्या कंकड़-पत्थर चुन लाऊँ
क्या कंकड़-पत्थर चुन लाऊँ?
यौवन के उजड़े प्रदेश के,
इस उर के ध्वंसावशेष के,
भग्न शिला-खंडों से क्या मैं फिर आशा की भीत उठाऊँ?
क्या कंकड़-पत्थर चुन लाऊँ?
स्वप्नों के इस रंगमहल में,
हँसूँ निशा की चहल पहल में?
या इस खंडहर की समाधि पर बैठ रुदन को गीत बनाऊँ?
क्या कंकड़-पत्थर चुन लाऊँ?
इसमें करुण स्मृतियाँ सोईं,
इसमें मेरी निधियाँ सोईं,
इसका नाम-निशान मिटाऊँ या मैं इस पर दीप जलाऊँ?
क्या कंकड़-पत्थर चुन लाऊँ?
88. किस कर में यह वीणा धर दूँ
किस कर में यह वीणा धर दूँ?
देवों ने था जिसे बनाया,
देवों ने था जिसे बजाया,
मानव के हाथों में कैसे इसको आज समर्पित कर दूँ?
किस कर में यह वीणा धर दूँ?
इसने स्वर्ग रिझाना सीखा,
स्वर्गिक तान सुनाना सीखा,
जगती को खुश करनेवाले स्वर से कैसे इसको भर दूँ?
किस कर में यह वीणा धर दूँ?
क्यों बाक़ी अभिलाषा मन में,
झंकृत हो यह फिर जीवन में?
क्यों न हृदय निर्मम हो कहता अंगारे अब धर इस पर दूँ?
किस कर में यह वीणा धर दूँ?
89. फिर भी जीवन की अभिलाषा
फिर भी जीवन की अभिलाषा!
दुर्दिन की दुर्भाग्य निशा में,
लीन हुए अज्ञात दिशा में
साथी जो समझा करते थे मेरे पागल मन की भाषा!
फिर भी जीवन की अभिलाषा!
सुखी किरण दिन की जो खोई,
मिली न सपनों में भी कोई,
फिर प्रभात होगा, इसकी भी रही नहीं प्राची से आशा!
फिर भी जीवन की अभिलाषा!
शून्य प्रतीक्षा में है मेरी,
गिनती के क्षण की है देरी,
अंधकार में समा जाएगा संसृति का सब खेल-तमाशा!
फिर भी जीवन की अभिलाषा!
90. जग ने तुझे निराश किया
जग ने तुझे निराश किया!
डूब-डूबकर मन के अंदर
लाया तू निज भावों का स्वर,
कभी न उनकी सच्चाई पर जगती ने विश्वास किया!
जग ने तुझे निराश किया!
तूने अपनी प्यास बताई,
जग ने समझा तू मधुपायी,
सौरभ समझा, जिसको तूने कहकर निज उच्छवास दिया!
जग ने तुझे निराश किया!
पूछा, निज रोदन में सकरुण
तूने दिखलाए क्या-क्या गुण?
कविता कहकर जग ने तेरे क्रंदन का उपहास किया!
जग ने तुझे निराश किया!
91. सचमुच तेरी बड़ी निराशा
सचमुच तेरी बड़ी निराशा!
जल की धार पड़ी दिखलाई,
जिसने तेरी प्यास बढाई,
मरुथल के मृगजल के पीछे दौड़ मिटी सब तेरी आशा!
सचमुच तेरी बड़ी निराशा!
तूने समझा देव मनुज है,
पाया तूने मनुज दनुज है,
बाध्य घृणा करने को यों है पूजा करने की अभिलाषा!
सचमुच तेरी बड़ी निराशा!
समझा तूने प्यार अमर है,
तूने पाया वह नश्वर है,
छोटे से जीवन से की है तूने बड़ी-बड़ी प्रत्याशा!
सचमुच तेरी बड़ी निराशा!
92. क्या भूलूँ, क्या याद करूँ मैं
क्या भूलूँ, क्या याद करूँ मैं!
अगणित उन्मादों के क्षण हैं,
अगणित अवसादों के क्षण हैं,
रजनी की सूनी घड़ियों को किन-किन से आबाद करूँ मैं!
क्या भूलूँ, क्या याद करूँ मैं!
याद सुखों की आँसू लाती,
दुख की, दिल भारी कर जाती,
दोष किसे दूँ जब अपने से अपने दिन बर्बाद करूँ मैं!
क्या भूलूँ, क्या याद करूँ मैं!
दोनों करके पछताता हूँ,
सोच नहीं, पर, मैं पाता हूँ,
सुधियों के बंधन से कैसे अपने को आज़ाद करूँ मैं!
क्या भूलूँ, क्या याद करूँ मैं!
93. मूल्य अब मैं दे चुका हूँ
मूल्य अब मैं दे चुका हूँ!
स्वप्न-थल का पा निमंत्रण,
प्यार का देकर अमर धन
वेदनाओं की तरी में स्थान अपना ले चुका हूँ!
मूल्य अब मैं दे चुका हूँ!
उठ पड़ा तूफान, देखो!
मैं नहीं हैरान, देखो!
एक झंझावात भीषण मैं हृदय में से चुका हूँ!
मूल्य अब मैं दे चुका हूँ!
क्यों विहँसता छोर देखूँ?
क्यों लहर का जोर देखूँ?
मैं भँवर के बीच में अब नाव अपनी खे चुका हूँ!
मूल्य अब मैं दे चुका हूँ!
94. तू क्यों बैठ गया है पथ पर
तू क्यों बैठ गया है पथ पर?
ध्येय न हो, पर है मग आगे,
बस धरता चल तू पग आगे,
बैठ न चलनेवालों के दल में तू आज तमाशा बनकर!
तू क्यों बैठ गया है पथ पर?
मानव का इतिहास रहेगा
कहीं, पुकार-पुकार कहेगा-
निश्चय था गिर मर जाएगा चलता किंतु रहा जीवन भर!
तू क्यों बैठ गया है पथ पर?
जीवित भी तू आज मरा-सा,
पर मेरी तो यह अभिलाषा-
चिता-निकट भी पहुँच सकूँ मैं अपने पैरों-पैरों चलकर!
तू क्यों बैठ गया है पथ पर?
95. साथी, सब कुछ सहना होगा
साथी, सब कुछ सहना होगा!
मानव पर जगती का शासन,
जगती पर संसृति का बंधन,
संसृति को भी और किसी के प्रतिबंधो में रहना होगा!
साथी, सब कुछ सहना होगा!
हम क्या हैं जगती के सर में!
जगती क्या, संसृति सागर में!
एक प्रबल धारा में हमको लघु तिनके-सा बहना होगा!
साथी, सब कुछ सहना होगा!
आओ, अपनी लघुता जानें,
अपनी निर्बलता पहचानें,
जैसे जग रहता आया है उसी तरह से रहना होगा!
साथी, सब कुछ सहना होगा!
96. साथी, साथ न देगा दुख भी
साथी, साथ न देगा दुख भी!
काल छीनने दु:ख आता है,
जब दु:ख भी प्रिय हो जाता है,
नहीं चाहते जब हम दु:ख के बदले चिर सुख भी!
साथी साथ ना देगा दु:ख भी!
जब परवशता का कर अनुभव
अश्रु बहाना पड़ता नीरव,
उसी विवशता से दुनिया में होना पडता है हँसमुख भी!
साथी साथ ना देगा दु:ख भी!
इसे कहूँ कर्तव्य-सुघरता
या विरक्ति, या केवल जड़ता,
भिन्न सुखों से, भिन्न दुखों से, होता है जीवन का रुख भी!
साथी साथ ना देगा दु:ख भी!
97. साथी, हमें अलग होना है
साथी, हमें अलग होना है!
भार उठाते सब अपने बल,
संवेदना प्रथा है केवल,
अपने सुख-दुख के बोझे को सबको अलग-अलग ढोना है!
साथी, हमें अलग होना है!
संग क्षणिक ही तेरा-मेरा,
एक रहा कुछ दिन पथ-डेरा,
जो कुछ भी पाया है हमने, एक न एक समय खोना है!
साथी, हमें अलग होना है!
मिलकर एक गीत, आ, गा लें,
मिलकर दो-दो अश्रु बहा लें,
अलग-अलग ही अब से हमको जीवन में गाना रोना है!
साथी, हमें अलग होना है!
98. जय हो, हे संसार, तम्हारी
जय हो, हे संसार, तम्हारी!
जहाँ झुके हम वहाँ तनो तुम,
जहाँ मिटे हम वहाँ बनो तुम,
तुम जीतो उस ठौर जहाँ पर हमने बाज़ी हारी!
जय हो, हे संसार, तुम्हारी!
मानव का सच हो सपना सब,
हमें चाहिए और न कुछ अब,
याद रहे हमको बस इतना- मानव जाति हमारी!
जय हो, हे संसार, तुम्हारी!
अनायास निकली यह वाणी,
यह निश्चय होगी कल्याणी,
जग को शुभाशीष देने के हम दुखिया अधिकारी!
जय हो, हे संसार, तुम्हारी!
99. जाओ कल्पित साथी मन के
जाओ कल्पित साथी मन के!
जब नयनों में सूनापन था,
जर्जर तन था, जर्जर मन था,
तब तुम ही अवलम्ब हुए थे मेरे एकाकी जीवन के!
जाओ कल्पित साथी मन के!
सच, मैंने परमार्थ ना सीखा,
लेकिन मैंने स्वार्थ ना सीखा,
तुम जग के हो, रहो न बनकर बंदी मेरे भुज-बंधन के!
जाओ कल्पित साथी मन के!
जाओ जग में भुज फैलाए,
जिसमें सारा विश्व समाए,
साथी बनो जगत में जाकर मुझ-से अगणित दुखिया जन के!
जाओ कल्पित साथी मन के!
100. विश्व को उपहार मेरा
विश्व को उपहार मेरा!
पा जिन्हें धनपति, अकिंचन,
खो जिन्हें सम्राट निर्धन,
भावनाओं से भरा है आज भी भंडार मेरा!
विश्व को उपहार मेरा!
थकित, आजा! व्यथित, आजा!
दलित, आजा! पतित, आजा!
स्थान किसको दे न सकता स्वप्न का संसार मेरा!
विश्व को उपहार मेरा!
ले तृषित जग होंठ तेरे
लोचनों का नीर मेरे!
मिल न पाया प्यार जिनको आज उनका प्यार मेरा!
विश्व को उपहार मेरा!