समावेशी शिक्षा का दर्शन एवं सिद्धांत
आनंद दास
सहायक प्राध्यापक, श्री रामकृष्ण बी. टी. कॉलेज (Govt. Spon.), दार्जिलिंग
संपर्क – 4 मुरारी पुकुर लेन, कोलकाता – 700067,
पोस्ट ऑफिस- उल्टाडांगा,
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शोध सारांश
आधुनिक युग में शिक्षा के क्षेत्र में भारी बदलाव और विकास हुआ है। आधुनिक युग में शिक्षा व शिक्षण प्रणाली को सुदृढ़, सुचारु व वैज्ञानिक बनाने के लिए विश्वभर के शिक्षाविदों ने अपने-अपने तरीक़े के ख़ोज किए, अनुसंधान किए, प्रयोग किए तथा उसे वास्तविक धरातल पर उतार कर कार्यान्वित भी किए हैं। ‘समावेशी शिक्षा’ उन्हीं नवीन खोजों का प्रतिफल है जो शिक्षा के क्षेत्र में एक नया मार्ग दिखती है। समावेशी शिक्षा समान शैक्षिक अवसरों प्रदान करता है, शिक्षा में पूर्ण सहभागिता सुनिश्चित करता है, सामुदायिक सहभागिता को प्रोत्साहित करता है, उत्कृष्ट शिक्षा प्रदान करने की बात करता है तथा सभी नागरिकों समानता के अधिकार व शिक्षा के मौलिक अधिकार की भी बात करता है। समावेशी शिक्षा बच्चों की शारीरिक, बौद्धिक, सामाजिक, भावनात्मक, भाषाई तथा आने वाली अन्य परिस्थितियों से सामंजस्य बनाकर समायोजित करती है। शैक्षिक समावेशन के लिए समावेशी शिक्षा आधार का कार्य करती है। शैक्षिक समावेशन के चारों ओर जो वैचारिक, दार्शनिक, सामाजिक और शैक्षिक ढ़ाँचा होता है वही समावेशी शिक्षा को परिभाषित करता है। प्रस्तुत शोध पत्र के माध्यम से समावेशी शिक्षा के दर्शन और सिद्धान्त के परतों को खोल कर उनका विश्लेषण करने का प्रयास किया गया है।
बीज शब्द – समावेशी शिक्षा, विशिष्ट बालक, सिद्धान्त, दर्शन, दिव्यांग, शिक्षार्थी ।
शोध आलेख
अवधारणात्मक परिचय – ‘समावेशी’ शब्द का सामान्य अर्थ है एक साथ या एक जगह रहना। समावेशी शब्द समेकित, समावेशित, सम्मिलित, एकीकृत, एकबद्ध, समाविष्ट, मिलना, समायोजन, साहचर्य, व्याप्त, साथ लेना आदि शब्द पर्याय के रूप में अक्सर देखा जाता है। ‘समावेशी’ शब्द समुदाय से संबंधित है। वहीं ‘शिक्षा’ शब्द का सामान्य अर्थ है ज्ञान, सीख, विद्या, सबक, तालीम, नसीहत, परामर्श, पढ़ाई-लिखाई, उपदेश आदि शब्द के रूप में प्रयोग किया जाता है। कृष्ण कुमार पाठक और शिव कुमार के शब्दों में – “विशिष्ट शिक्षा, एकीकृत शिक्षा और समावेशी शिक्षा जैसे शब्द शैक्षिक शब्दावली में विकलांग बच्चों की शिक्षा के संदर्भ में प्रयुक्त होते रहे हैं।”1 ‘समावेशी’ और ‘शिक्षा’ शब्द का अर्थ ज्ञात होने के पश्चात् हमें यह जानने की आवश्यकता है कि समावेशी शिक्षा है क्या ? इसकी आवश्यकता क्यों पड़ी? क्या समावेशी शिक्षा के बिना शिक्षा संभव नहीं है? इन सब मूलभूत प्रश्नों को जानने, समझने व विचार करने का सार्थक प्रयास करेंगे। ‘समावेशी शिक्षा’ शब्द अंग्रेजी के ‘Inclusive Education’ का पर्याय है। इसका आशय है सामान्य, दिव्यांगों तथा मंद बुद्धि शिक्षार्थी बिना किसी भेदभाव के एक ही विद्यालय में ज्ञान अर्जित करने से है। दूसरे शब्दों में कहें तो ‘समावेशी शिक्षा’ विशेष शैक्षणिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए एक ऐसे समेकित शिक्षा के मॉडल को संदर्भित करता है जो शिक्षार्थी की वैयक्तिक भिन्नता को देखकर बिना किसी भेदभाव व अंतर के समाज के समान अवसर उपलब्ध कराकर शिक्षा के एक सुनिश्चित स्तर पर पहुँचा जा सके। समावेशी शिक्षा के द्वारा सर्वप्रथम शिक्षार्थियों या छात्रों के बौद्धिक शैक्षिक स्तर की जाँच की जाती है, तत्पश्चात् उन्हें दी जाने वाली शिक्षा का स्तर निर्धारित किया जाता है।
शोध प्रविधि – तथ्यों और जानकारियों को व्यवस्थित करके क्रमबद्ध तथा वैज्ञानिक तरीके से विश्लेषित कर परिणाम को प्राप्त करने का प्रयास हुआ है। इसके साथ-साथ शोधपत्र को वैज्ञानिक तथा प्रमाणिक बनाने के लिए संदर्भित ग्रन्थों, पत्र-पत्रिकाओं तथा इण्टरनेट की भी सहायता ली गई है।
अध्ययन का विश्लेषण – शिक्षा किसी भी देश के विकास की आधारशिला होती है। शिक्षा केवल जीवनयापन के लिये ही नहीं दी जाती है बल्कि विविध प्रकार के संज्ञानात्मक, सृजनात्मक, रचनात्मक, भावनात्मक विकास के साथ सामाजिक, धार्मिक, नैतिक व सर्वांगीण आदि गुणों का भी विकास करती है। आज दुनियाभर में शिक्षा एक मौलिक अधिकार बन कर उभर रहा है जिसका उद्देश्य जन-जन तक शिक्षा पहुंचाना है, इसकी बुनियाद वर्षों पहले रखी जा चुकी थी। मानव विकास संसाधन मंत्रालय के समावेशित शिक्षा स्कीम(2003) के अनुसार, “समावेशित शिक्षा से तात्पर्य सभी सीखने वाले, बिना विकलांग एवं विकलांग नवयुवक पूर्व-विद्यालय प्रावधानों, विद्यालय और सामुदायिक शैक्षिक स्थानों पर उपयुक्त तंत्र एवं सहायक सुविधाओं के साथ एक साथ सीख(पढ़) सकें।”2 किसी भी शिक्षा को जन-जन तक पहुंचाना तभी संभव नहीं है जब तक कि शारीरिक, मानसिक, सामाजिक तथा संवेगात्मक रूप से भिन्न या विशिष्ट छात्र-छात्राओं को शिक्षा की मुख्य धारा में सम्मिलित ना कर लें। समावेशी शिक्षा विकसित होने से पहले प्राचीन सभ्यता के इतिहास की जड़ में जाकर देखें तो यह स्पष्टतः दिखाई देता है कि शारीरिक रूप से बाधित, सामाजिक रूप से प्रताड़ित शिक्षार्थियों की हत्या कर दी जाती थी या समाज में उन्हें हेय या कलंक को दृष्टि से देखा जाता था या उन्हें नगण्य समझा जाता था। पहले दिव्यांगों को स्वीकार न करने, दया की भावना से देखभाल करने तथा उनके शिक्षा के प्रति पृथक्कीकरण की स्थिति दृष्टिगोचर होती है। समावेशी शिक्षण प्रक्रिया को सार्थक बनाने एवं उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए शिक्षा दर्शन का ज्ञान आवश्यक है। समावेशी शिक्षा ‘मानवतावादी दर्शन’ पर आधारित है। मानवतावाद ‘शिक्षा’ को मौलिक अधिकार मानता है मानवतावादी दार्शनिकों की दृष्टि से प्रत्येक राज्य को प्रत्येक बालक के लिए बिना किसी भेद-भाव के शिक्षा की उचित व्यवस्था करनी चाहिए। समावेशी शिक्षा का दर्शन दिव्यांगों तथा मंद बुद्धि शिक्षार्थी के जीवन की कठिन समस्याओं और शिक्षा के समक्ष आने वाली कठिनाईयों पर चिन्तन, मनन एवं मन्थन करता है। समावेशी शिक्षा का दर्शन व्यावहारिक एवं सैद्धान्तिक पक्ष को प्रस्तुत करता है। समावेशी शिक्षा का दर्शन के अन्तर्गत शिक्षार्थी अद्वितीयता की श्रेणी में होता है और उसे अपने सहपाठियों की भाँति विकसित करने के लिए कक्षा में विविध प्रकार के शिक्षण व उपागम की आवश्यकता हो सकती है। शिक्षार्थी अपने हाल पे पीछे रह जाने के लिए उसे दोषी नहीं ठहराया जा सकता है। कक्षा में भली-भाँति समाहित न होने की स्थिति में विशिष्ट शिक्षार्थियों की बजाय स्वंय अध्यापक को जिम्मेदार समझना चाहिए। शिक्षार्थियों के प्रति शिक्षकों की भूमिका, उनके कर्त्तव्यों को सुनिश्चित करने में एवं कार्यों का विवरण तैयार करने में समावेशी शिक्षा के दर्शन की विशिष्ट भूमिका होती है। समावेशी शिक्षा का दर्शन ही समावेशी शिक्षण की प्रक्रियाओं के सम्पादन हेतु विधियों, प्रविधियों, सूत्रों, शिक्षणशास्त्रीय स्वरूपों एवं पाठ्यचर्या निर्माण के सिद्धान्तों का विकास करता है। उचित शिक्षा के अभाव में समावेशी शिक्षा में दर्शन जैसे विषय का विकास ही नहीं हो सकता है। समावेशी शिक्षा में दर्शन उन आदर्शों एवं मूल्यों को प्रस्तुत करता है, जिसका अनुसरण करके शिक्षार्थी पूरे विश्व को नई बुलंदियों पर ले जा सकता है। समावेशी शिक्षा का दर्शन की शुरुआत विशिष्ट शिक्षा के रूप में 17वीं. शताब्दी से दिखाई देती है। इसकी शुरुआत जॉन अमोस कॉमेनियस (John Amos Comenius) विचारों, सैद्धांतों एवं उनकी पुस्तक ‘द स्कूल ऑफ इन्फैन्सी’ (The School of Infancy,1628ई.) और ‘द आरबिस पिक्ट्स’ (The Orbis Pictus, Visible World in Picture,1658ई.) नामक पुस्तक से देखी जा सकती है। उन्होंने अपनी पुस्तक के माध्यम से बच्चों को व्यक्तिगत क्षमता और प्रवृत्ति पर उनके स्वच्छन्द विकास की प्रणाली निर्धारित करने का प्रयास किया। 18वीं. शताब्दी तक आते-आते जॉन लॉक (John Locke), रूसो (Russeaus) हर्बर्ट (Herbart) तथा फ्रोबेल (Froebel) आदि शिक्षाविदों के विचारों, विधियों और सिद्धांतों ने बालकों के अध्ययन को प्राकृतिक विधि का प्रणयन किया साथ ही बालकों के सहज विकास को पर्याप्त स्वतंत्रता प्रदान की फ्रोबेल (Froebel) को जिन्हें किंडरगार्टन (Kindergarten) शिक्षा का जन्मदाता भी कहा जाता है। 19वीं. शताब्दी में अमेरिका तथा यूरोप में दिव्यांग बालकों की समावेशी शिक्षा हेतु क्रमबद्ध प्रयास प्रारम्भ हुए। विशिष्ट शिक्षा या समावेशी शिक्षा के जन्मदाता अधिकांशतः यूरोप तथा अमेरिका के चिकित्सक विशेषज्ञ तथा शिक्षाविदों ने समावेशी शिक्षा के विकास हेतु अपना-अपना सहयोग दिया। समावेशी शिक्षा की अवधारणा का श्रेय सैम्युअल ग्रिडली होवे (Samuel Gridley Howe) एक अमेरिकी विद्वान व चिकित्सक को जाता है जिसने अपने कार्यों में दृश्य-श्रव्य बाधित शिक्षार्थियों के शिक्षण के लिए असराहनीय तथा उन्मूलनवादी कार्य किया है। इसके अतिरिक्त कई ख्यातिलब्ध विद्वानों ने समावेशी शिक्षा में विशेष भूमिका अदा की है जिनमें जीन मार्क गैसपार्ड (Jean Marc Gaspard Itard), एडॉअर्ड सेगुइनो (Edouard Seguin), सिगमण्ड फ्रायड (Sigmund Freud), ऐने सुलिवान (Anne Sullivan), थॉमस होपकिंस गैलाउडेट(Thomas Hopkins Gallaudet), फिलिप पिनेल (Philppe Pinel) आदि प्रमुख नाम हैं। 19वीं. शताब्दी में समावेशी शिक्षा के अध्ययन को अधिक महत्त्व दिया गया और पर्याप्त सफलता भी प्राप्त हुई। समावेशी शिक्षा के इस वैज्ञानिक अध्ययन को विश्वव्यापी बनाने के ध्येय में अमेरिका, जर्मनी, फ्रांस, इंग्लैण्ड तथा पोलैण्ड आदि प्राय: सभी पश्चिमी देशों में अन्तर्राष्ट्रीय शैक्षिक समितियों को स्थापना हुई। 20वीं.शताब्दी के उत्तरार्द्ध और 21वीं. शताब्दी में नवीन विचारों तथा धारणाओं ने दिव्यांगों, मंद बुद्धि तथा सामाजिक रूप से पिछड़े शिक्षार्थियों की शिक्षा के लिये नई दिशाओं में द्वार खोल दिए हैं। डॉ.अंकुर मदान लिखतीं हैं- “समावेशी शिक्षा की समझ विकसित करने के लिए, भारत में विकलांग बच्चों की स्थिति से सम्बन्धित मुद्दों को ऐतिहासिक और सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टिकोण से समझना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।”3
समावेशी शिक्षा का सिद्धांत
समावेशी शिक्षा समावेश के सिद्धान्त पर आधारित है। शिक्षार्थियों की शिक्षा, प्रशिक्षण, देखभाल एवं पुनर्वासन का इतिहास पुराना है लेकिन समावेशी शिक्षा में इसके स्वरूप का इतिहास नया है। प्रत्येक व्यक्तिगत गुणों में भिन्नता पायी जाती है। वह जन्मजात या आनुवांशिक भी हो सकते हैं अथवा नहीं भी। इन्हीं गुणों के आधार पर ही शिक्षार्थियों के शैक्षिक स्तर का निर्धारण उनकी बुद्धिलब्धि तथा क्षमताओं के आधार पर तय किया जाता है। ठीक इसी प्रकार दिव्यांगों, मंद बुद्धि तथा सामाजिक रूप से पिछड़े शिक्षार्थियों की शिक्षा आधार तय किया जाता है, पर इन्हें दी जाने वाली शिक्षा के तौर-तारीकें अलग-अलग प्रकार के होते हैं क्योंकि इन शिक्षार्थियों का मानसिक-बौद्धिक स्तर अलग-अलग होता है। समावेशी विद्यालय सभी को शिक्षा प्राप्त कराने के सिद्धान्त को पूरा करा पाने में प्रयासरत रहता है। अतः समावेशी शिक्षा के आधारभूत सिद्धान्त पृथक्कीकरण के सिद्धान्त के विरुद्ध एकीकरण के सिद्धान्त पर आधारित है। समावेशी शिक्षा के सिद्धान्त को निम्नलिखित रूप में अध्ययन व विश्लेषण कर सकते हैं –
1.समावेशित वातावरण का सिद्धान्त- समावेशित वातावरण से आशय है समावेशित विद्यालयी वातावरण से है। एक शिक्षार्थी को सीखने के लिए अच्छे वातावरण की आवश्यकता होती है, जहाँ उसकी सामाजिक और भावनात्मक जरूरतें पूरी हो सके। स्कूल का वातावरण शिक्षार्थी के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। समावेशी शिक्षा में हरेक प्रकार के शिक्षार्थी एक ही कक्षा में शिक्षा अर्जित करते हैं जिसकी वजह से उनमें विभिन्न प्रकार के वातावरण उत्पन्न होने की स्थिति पैदा होती है। विभिन्न प्रकार के वातावरण को एक ही वातावरण में डालने का काम समावेशी शिक्षा करता है। समावेशित शिक्षा के लिए यह आवश्यक है कि विद्यालय का वातावरण समावेशित, सुखद एवं स्वीकार्य होना चाहिए।
2.एकीकरण का सिद्धान्त– समावेशी शिक्षा में एकीकरण का सिद्धान्त इस बात को सुनिश्चित करने की प्रक्रिया को बताता है कि विशिष्ट शिक्षार्थी तथा सामान्य शिक्षार्थी को एक करना है। कहने का तात्पर्य यह है कि विद्यालयी शिक्षा व्यवस्था में अलग-अलग शिक्षा व्यवस्था की जगह एकीकृत समावेशी शिक्षा व्यवस्था लागू करना है। समावेशी शिक्षा का सामान्य शिक्षा पद्धति के साथ अंतरंग समन्वय हो ताकि दिव्यांग और दिव्यांग रहित बालकों की शिक्षा साथ–साथ चले और उन्हें समाज की मुख्य धारा से जोड़ने वाले एकीकरण का प्रयास करके उनकी विशेष आवश्यकताओं की पहचान कर उसके अनुरूप शिक्षित करना अधिक लाभप्रद होगा।
3.वैयक्तिक विभिन्नता का सिद्धान्त- व्यक्तिगत रूप से भिन्नता प्रत्येक व्यक्ति में किसी ना किसी रूप से दिखाई देती है। शिक्षा के क्षेत्र में भी शिक्षा मनोविज्ञानिकों ने यह स्पष्ट किया है कि शिक्षार्थियों में सामान्यतः वैयक्तिक विभिन्नताएं होती है। शिक्षार्थियों की शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक भिन्नता की वजह से उनमें विभिन्नताएं होती है। समावेशी शिक्षा में वैयक्तिक विभिन्नता को ध्यान में रखते हुए विशिष्ट आवश्यकताओं वाले शिक्षार्थी तथा सामान्य शिक्षार्थी की आवश्यकताओं का समन्वय करते हुए शिक्षण विधि, पाठ्यक्रम तथा पाठ्यसहगामी गतिविधियों का आयोजन किया जाने का प्रयास रहता है। अगर किसी शिक्षार्थी को समावेशी शिक्षा ग्रहण करते वक़्त किसी भी प्रकार की परेशानी या दिक्कत होती है तो उन्हें व्यक्तिगत रूप से वे शिक्षा दी जाती है ताकि उन्हें सामान्य शिक्षार्थियों के सामान बनाया जा सके। अतः समावेशी शिक्षा का सिद्धांत यह मानता है कि वैयक्तिक विभिन्नता के आधार पर प्रत्येक शिक्षार्थी की आवश्यकता को देखते हुए शिक्षण की व्यवस्था होनी चाहिए।
4.अभिभावकों के सहयोग का सिद्धान्त– समावेशी शिक्षा के सिद्धांत में अभिभावकों का सहयोग का सिद्धान्त निहित है। समावेशी विद्यालय में अध्ययनरत विशिष्ट व सामान्य शिक्षार्थियों की ख़ूबियों, कमियों और आवश्यकताओं पर शिक्षकों-अभिभावकों की परिचर्चा होनी चाहिए ताकि बालकों की यदि कोई वैयक्तिक या शैक्षिक समस्या है तो उसका हल खोजा जा सके। समावेशी शिक्षा के अंतर्गत अभिभावकों का सहयोग शिक्षक, विद्यालय प्रशासन, बालक तथा स्वयं अभिभावक के हित में होता है। अगर अभिभावक समावेशी शिक्षा में सहयोग देंगे तभी उचित प्रकार के समावेशी शिक्षा प्रदान किया जा सकता है और अधिगम की शक्ति को और ज्यादा बढ़ाया जा सकता है।
5.अविभेदी शिक्षा का सिद्धान्त- समावेशी शिक्षा बुनियादी सिद्धान्त यही है कि बिना किसी भेदभाव के सामान्य तथा विशिष्ट शिक्षार्थियों को एक साथ शिक्षा दी जाती हैं ताकि उनके अंदर भेदभाव व छुआछूत की भावना को मिटाया जा सके। अविभेदी शिक्षा का सिद्धान्त पृथकता की शिक्षा तथा पृथकता की भावना का घोर विरोधी है। अविभेदी शिक्षा का सिद्धान्त समय-समय पर शिक्षार्थियों की कठिनाइयों, समस्याओं तथा उनकी प्रगति का परीक्षण करने पर भी बल देती है, जिससे शिक्षा का उपयुक्त स्वरूप सुनिश्चित किया जा सके।
6.भागीदारिता का सिद्धान्त- समावेशी शिक्षा का सिद्धान्त सामान्य शिक्षार्थी, विशिष्ट शिक्षार्थी, शिक्षक, अभिभावक, विद्यालयीन स्टाफ तथा समुदाय के लोगों की भागीदारिता, प्रतिभागिता व सहभागिता पर पूरी बुनियाद टिकी है। समावेशी शिक्षा सभी तक सामान रूप से तभी पहुंच सकती है जब सबकी भागीदारी होगी। भागीदारिता से शिक्षार्थियों में आत्मविश्वास बढ़ता है, अनुशासित बनता है, व्यवहार में सुधार लाता है तथा व्यक्तित्व का विकास होता है।
7.विशिष्ट कार्यक्रमों का सिद्धान्त- शिक्षार्थी कई प्रकार की शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक तथा सामाजिक समस्या से ग्रसित होते हैं तथा तदनुसार उनकी विशेष आवश्यकताएं भी भिन्न–भिन्न होती हैं। समावेशी शिक्षा में विशिष्ट कार्यक्रमों द्वारा शिक्षार्थियों को उचित शिक्षा प्रदान करने का सबसे श्रेष्ठ तरीका है। शिक्षार्थी विशिष्ट कार्यक्रमों में भाग लेकर या उन्हें देखकर उनके अंदर अधिगम की ऊर्जा व शक्ति को बढ़ाया जाता है। इसीलिए समावेशी शिक्षा में विशिष्ट कार्यक्रमों द्वारा शिक्षा प्रदान करना मायने रखता है।
8.चिकित्सीय मॉडल का सिद्धान्त- चिकित्सीय मॉडल का सिद्धान्त के अंतर्गत शारीरिक रूप से अक्षम शिक्षार्थी आते हैं। जिनकी हड्डियों में कोई विकृति होने से हाथ, पैर, रीढ़ की हड्डी, जोड़ों आदि के कारण काम करने, चलने, फिरने, झुकने आदि में कमजोर हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त भी शिक्षार्थियों की कई शारीरिक अक्षमता अक्सर देखने को मिल जाती है। ऐसे में शिक्षार्थियों की शारीरिक कमी को ध्यान में रखकर ही शिक्षा देने की बात बताई जाती है।
9.निरस्त न करने का सिद्धान्त- समावेशी सिद्धान्त यह मानता है कि विशिष्ट और असुविधाग्रस्त किसी भी शिक्षार्थी को विद्यालय में प्रवेश करने से अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार किसी शिक्षार्थी या विशेष आवश्यकता वाले शिक्षार्थी को विद्यालय में प्रवेश से इंकार न किये जाने का प्रावधान है।
10.सर्वांगीण विकास का सिद्धान्त- समस्त सामान्य व विशिष्ट शिक्षार्थियों का, शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, वैयक्तिक, नैतिक, शैक्षिक तथा संवेगात्मक विकास समावेशी शिक्षा के सिद्धान्त का लक्ष्य है। समावेशी शिक्षण तथा पाठ्यसहगामी क्रियाओं का उद्देश्य भी इन्हीं लक्ष्यों को प्राप्त करना है। डॉ.सुभाष सिंह का कथन है- “समवेशी शिक्षा का मुख्य लक्ष्य बाधित छात्रों को अनुकूलतम पर्यावरण में सार्थक शिक्षा प्रदान करने से है ताकि उनका समुचित विकास हो।”4 सर्वांगीण विकास द्वारा ही शिक्षार्थियों में आत्मविश्वास तथा आत्मनिर्भरता उत्पन्न होती है और वे बेहतर देश के नागरिक बनने की ओर अग्रसर होते हैं।
निष्कर्ष – आज के युग में भारतीय समाज की परिस्तिथियों एवं शिक्षा में व्याप्त असमानताओं को देखते हुए जरूरी हैं कि भारतीय शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार हेतु समावेशी शिक्षा का विस्तार किया जाए तथा शिक्षा के समान अवसर उपलब्ध कराने का प्रयास किया जाए।
संदर्भ सूची
1. Chief Editor, Shinde Narayan Dr.Tukaram, Golden Research Thoughts, पाठक कृष्ण कुमार, कुमार शिव, समावेशी शिक्षा – एक नजर, Volume-4, Issue-10, April-2015, महाराष्ट्र, पृष्ठ संख्या – 2.
2. समन्वयक एवं संपादक, सिंह डॉ. कीर्ति, कुमार डॉ.अखिलेश, वर्धमान महावीर खुला विश्वविद्यालय, कोटा, समावेशित विद्यालय का निर्माण, बीएड-118, प्रकाशन वर्ष -2015, कोटा, पृष्ठ संख्या – 145.
3. रघुनाथ प्रेमा (मु.सं.) लर्निंग कर्व, मदान डॉ. अंकुर, सुसंगत समझ के निर्माण में चुनौतियाँ, अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी, सितम्बर, 2020, बैंगलौर/ कर्नाटक, पृष्ठ संख्या – 11.
4. Chief Editor, Virendra sharma, Shodh Shree, Volume-28 Issue-3, सिंह डॉ.सुभाष, समवेशी शिक्षा और उसका प्रबंधन, जुलाई-सितंबर 2018, जयपुर, पृष्ठ संख्या – 06.