हिंदी को कमजोर करने की कोशिश

भोजपुरी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कराने की मांग को लेकर विभिन्न स्तरों पर प्रयास हो रहे हैं। दिल्ली के जंतर-मंतर पर भोजपुरी जनन्यूज़ ऑनलाइन अभियान के तत्वाधान में इस मांग के समर्थन में धरना आयोजित किया जा रहा है। सांसद मनोज तिवारी ने भी संसद में इस मांग को उठाया। हालांकि चौदहवीं लोकसभा में इसका आश्वासन भी दिया गया था, लेकिन वादा पूरा नहीं किया गया। भोजपुरी के हिमायती कहते हैं कि नेपाली प्रधानमंत्री ने भोजपुरी में शपथ ली, मॉरीशस में बड़ी तादाद में भोजपुरी बोलते हैं फिर करोड़ों लोगों की इस भाषा को आठवीं अनुसूची के हक से क्यों वंचित रखा जा रहा है? संविधान की आठवीं अनुसूची भारतीय गणतंत्र की स्वीकृत भाषाओं को जगह देती है। अपेक्षा थी ये सभी भाषाएं हिंदी को राजभाषा के रूप में स्थापित करने में मददगार होंगी। शुरुआत में इसमें 14 भाषाएं थीं। वर्तमान में 22 भाषाएं हैं। देश में प्रचलित अन्य 38 बोलियां-भाषाएं इस सूची में शमिल होने का दावा कर रही हैं, लेकिन सवाल उठता है कि इसमें किसे जगह दी जाए और उसका पैमाना क्या बने? आज भाषा की जो राजनीति हो रही है वह न केवल हिंदी के हितों के विपरीत है, बल्कि अंग्रेजीपरस्ती का भी प्रमाण है। अंग्रेजी ने हिंदी के अन्य भारतीय भाषाओं के साथ रिश्ते में सेंध लगाई है। अन्यथा लोक भाषाओं से तो हिंदी का गहरा लगाव है। हिंदी भाषी असल में द्विभाषी हैं। हिंदी के साथ-साथ वे भोजपुरी, हरियाणवी, अवधी और ब्रज से लेकर कुमाऊंनी जैसी तमाम लोक भाषाओं का मिश्रण करते हैं। लोकभाषाओं के साथ हिंदी का यह संगम बड़ी सहजता के साथ होता है। लोकभाषाएं हिंदी में घुली हुई हैं। हिंदी साहित्य में अवधी, ब्रज और भोजपुरी का अतुलनीय योगदान है। क्या कबीर, सूर, तुलसी, रहीम और जायसी के बिना हिंदी असल में हिंदी रह सकेगी? बावजूद इसके भाषा के नाम पर राजनीति लगातार जारी है। हिंदी पट्टी की लोकभाषाएं हिंदी की बड़ी ताकत हैं। देश में भाषाओं और संस्कृतियों के बहुत मेल होते हैं। आज जरूरत है कि दिखावे की मानसिकता से उबरकर अंग्रेजी क खिलाफ भारतीय भाषाओं के मान-स्वाभिमान और चेतना के लिए कर्मठता से काम किया जाए।
भाषा संवाद के माध्यम से समाज की आधारशिला रखती है। मानवीय संबंधों और सामाजिकता का आधार भी भाषा ही प्रदान करती है। भाषा से समाज की स्मृति निर्मित होती है जो उसकी परंपराओं को संभव बनाकर उसे गतिशील रखती है। इस लिहाज से अपनी हजारों वर्षों की यात्रा में हिंदी ने लंबा सफर तय किया है। स्वतंत्रता आंदोलन में वह भारत की एक प्रतिनिधि भाषा बन गई। वह सफलतापूर्वक अभिव्यक्ति का माध्यम और सहज संपर्क भाषा के रूप में देशवासियों को जोड़ने का काम कर रही थी। बापू समेत अनेक लोगों द्वारा उसे ‘राष्ट्रभाषा’ कहा जाने लगा। आजादी के बाद धीरे-धीरे अखबार, रेडियो, सिनेमा, टीवी आदि ने हिंदी का सार्वजनिक जीवन में तीव्र गति से प्रचार-प्रसार किया। अब इंटरनेट के जरिये ट्विटर, ब्लॉग, यूट्यूब जैसे सोशल मीडिया ने भाषा प्रयोग का नक्शा ही बदल दिया है। इन माध्यमों से हिंदी की लोकप्रियता बढ़ी है। बाजार और मनोरंजन की दृष्टि से भी हिंदी और सुदृढ़ हुई है, मगर अब शुद्ध हिंदी के बजाय अंग्रेजी के साथ मिलकर बनी हिंग्लिश रूपी खिचड़ी का ही अधिक इस्तेमाल हो रहा है। 
भारतीय संविधान देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिंदी को देश की राजभाषा घोषित करता है। राज्य अपनी भाषा चुन सकते है और उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, राजस्थान, मध्य प्रदेश, झारखंड, हिमाचल, बिहार और छत्तीसगढ़ ने हिंदी को प्रदेश की राजभाषा का दर्जा दिया है। हिंदी पट्टी में लगभग 45 प्रतिशत भारतीय आते हैं। अंग्रेजी राज में अंग्रेजी संघ स्तर पर भाषा थी। 1950 में हिंदी को ‘राजभाषा’ स्वीकार किया गया। यह आशा थी कि अगले 15 वर्षों में वह अंग्रेजी का स्थान ले लेगी, मगर यदि आवश्यकता हो तो आगे भी यह व्यवस्था चल सकेगी। राजभाषा अधिनियम, 1963 में कहा गया कि आगे भी हिंदी और अंग्रेजी व्यवहार में चलती रहें। 1967 में यह निर्णय हुआ कि जब तक संसद कोई प्रस्ताव न पारित करे तब तक यह व्यवस्था बदस्तूर चलती रहेगी। इसमें कहा यही गया कि ‘हिंदी के अतिरिक्त अंग्रेजी चलती रहेगी’, लेकिन व्यावहारिक रूप से अंग्रेजी ही प्रमुख बनी रही और हिंदी मात्र अनुवाद की भाषा बन कर रह गई। इस तरह संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार अंगे्रजी का भविष्य अनंत काल के लिए सुरक्षित और हिंदी का भविष्य सर्वदा के लिए अनिश्चित हो गया। अंग्रेजी में कायदे-कानून रहेंगे तो लोकशाही की कोई संभावना नहीं बनती है। ऐसे में लोक भाषा का प्रयोग न होने के कारण स्वतंत्र भारत में जनता परतंत्र ही बनी रहेगी। देश का भाषागत परिदृश्य जटिल होता जा रहा है।
गैर-अंग्रेजीदां लोगों की प्रतिभा को दरकिनार करते हुए पराई भाषा ही मजबूत होती जा रही है। अभी भी दस्तावेज अंग्रेजी में ही प्रामाणिक माने जाते हैं। जीवन को समृद्ध करने, अच्छी नौकरी और सम्मान अर्जित करने के लिए अंग्रेजी का ही आश्रय लेना पड़ता है। इसे अकाट्य सत्य मान लिया गया है। इससे अपनी भाषा के प्रति अवमानना का भाव भी लोगों में दिखता है। शायद अन्य भारतीय भाषाओं के लोगों में यह हीनता ग्रंथि उतनी मजबूत नहीं। यदि विकास का मूल्यांकन करें तो स्वतंत्रता पूर्व की व्यापक राष्ट्रभाषा अब सीमित राजभाषा की ओर आगे बढ़ रही है और उसकी भूमिका संदिग्ध बनी हुई है। शासन की अंग्रेजीपरस्त नीति के चलते भारतीय भाषाओं पर अत्याचार होते रहे। आर्थिक उपनिवेशवाद और उसी से जुड़े भाषाई उपनिवेशवाद केतहत अंग्रेजी भाषा प्रयोग की उत्कंठा से भारतीय आभिजात्य वर्ग का उदय हुआ। सांस्कृतिक पराधीनता के चलते सत्ता को दृढ़ करने के लिए भाषा को नष्ट करने के उद्देश्य से स्वतंत्र भारत में अंग्रेजी सत्ता की भाषा बनी। उदारीकरण की छाया में पनप रहे नव साम्राज्यवाद के अंतर्गत ज्ञान-विज्ञान और तकनीकी जीवन दृष्टि के साथ अमेरिकी या यूरोपीय उपनिवेश बनने पर आमादा हो रहे हैं। इन सबका उद्देश्य भविष्य की पीढ़ियों को उनकी भाषा और संस्कृति से विपन्न बनाना है, मगर भारत देश की इमारत विदेशी भाषा की नींव पर नहीं बन सकती। उसकी सभ्यता की जड़ें अंग्रेजी में नहीं मिलेंगी।
निष्ठा की कमी और अंग्रेजी की श्रेष्ठता का दबाव-ये दो प्रमुख कारण हैं कि हम भाषा के प्रश्न को सुलझा नहीं पाए हैं। अंग्रेजी जकड़बंदी से मौलिक चिंतन और ज्ञान-निर्माण को श्राप लग चुका है। भाषा की शक्ति उसके प्रयोग से ही आती है। अंग्रेजी का आतंक उसे ‘अंतरराष्ट्रीय’ करार देकर बनाया गया है। न्यायपालिका, प्रशासन और संभ्रांत पेशों में अंग्रेजी की ही धाक बनी रही। हमारे जनप्रतिनिधि यदि हिंदी जानते हैं तो नौकरशाहों को अंग्रेजी ही रास आती है। कुलीन उच्च वर्ग का स्वार्थ और सामंती वर्चस्व स्थापित रखने की तीव्र आकांक्षा के तहत अंग्रेजी स्थापित और प्रतिष्ठित बनी रही। वह सत्ता से जुड़ी और उसका साम्राज्यवादी रूप आकर्षक बन गया। गैर-अंग्रेजीदां लोगों का रसूख घटने लगा। अंग्रेजी हटाने की मानसिकता नहीं बनी। आज आलम यह है कि बिना अंग्रेजी जाने किसी उच्च पद पर पहुंचने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। 

[ लेखक गिरीश्वर मिश्र, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति हैं ]

[आलेख साभार: दैनिक जागरण, न्यूज़ ऑनलाइन]