उच्च शिक्षा और शोध की गुणवत्ता
“The quality of higher education and research”
विवेक पाठक.
उच्च शिक्षा में शोध की भूमिका सबसे अहम होती है. शोध के स्तर और उसके नतीजों से ही किसी विश्वविद्यालय की पहचान बनती है और छात्र-शिक्षक उसकी ओर आकर्षित होते हैं |
शोध के महत्व पर यूजीसी के पूर्व चेयरमैन और शिक्षाविद् प्रोफ़ेसर यशपाल का कहना हैं कि “जिन शिक्षा संस्थानों में अनुसंधान और उसकी गुणवत्ता पर ध्यान नहीं दिया जाता वे न तो शिक्षा का भला कर पाते हैं न समाज का.”|[1]
इसी क्रम में जवाहर नेहरू विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति बीबी भट्टाचार्य कहते हैं, “भारत में जब उच्च शिक्षा संस्थानों की शुरुआत हुई थी तो सिर्फ टीचिंग के ऊपर ध्यान दिया गया | अमेरिका का उदारहण देते हुए प्रों.बीबी भट्टाचार्य कहते हैं कि “वहाँ शोध की समाज में बहुत कद्र है इसी वजह से वहाँ नोबल पुरस्कारों की भरमार नज़र आती है” |[2]
भारत सरकार के उच्च शिक्षा सचिव अशोक ठाकुर बताते हैं कि “भारत में सकल घरेलू उत्पाद का मात्र 0.8 फीसद शोध पर खर्च किया जाता है जो चीन और कोरिया से भी काफ़ी कम है और इसे कम से कम 2 फ़ीसदी होना चाहिए” |[3]
ये भी एक तथ्य है कि दुनिया के जितने बड़े उच्च शिक्षा के ऑक्सफोर्ड , केंब्रिज , हावॅर्ड जैसे केंद्र हैं वो अपने शोध के ऊंचे स्तर और अच्छे शोध के कारण ही जाने जाते हैं | अमत्य सेन (हावॅर्ड विश्वविद्यालय ) जगदीश भगवती ( केंब्रिज विश्वविद्यालय ), हरगोविंद खुराना (लिवरपूल विश्वविद्यालय ) आदि नें अपने शोध की वजह से न केवल भारत का नाम रोशन किया बल्कि जिन विश्वविद्यालयों से ये जुड़े उनकी प्रतिष्ठा कों भी इन्होंने ने आगे बढ़ाया | भारत में वस्तुस्थिति यह है कि पहले के मुकाबले यहाँ शोध के क्षेत्र में सुविधाएं बढ़ी हैं | विश्वविद्यालय में प्रयोगशालाओं का स्तर पहले कि तुलना में काफ़ी सुधरा है | आज इन्टरनेट कि सुविधा शोधकर्ता को आसानी से मिल जाती है | यहा तक कि आर्थिक रूप से भी सरकार शोध करने वालों को फ़ेलोशिप प्रदान कर रही हैं |
गुरुघासीदास विश्वविद्यालय में राजनीती विज्ञान में शोध कर रहे शमशाद अहमद बताते हैं “कि विश्वविद्यालय परिसर में इंटरनेट की अच्छी सुविधा है,लाइब्रेरी में हर तरह की किताब मिल जाती है” |[4]
इसी क्रम में राजस्थान विषविद्यालय से पोस्ट-डाँक्टरोल कर रही निधि बंसल का कहना है कि “आज शोध के लिए सुविधाएं पहले के मुक़ाबले बढ़ी हैं | लेकिन फिर भी शोध कि गुणवत्ता में क्यों नहीं सुधार हो रहा है” |[5]
इसी समस्या से जुड़ी रिपोर्ट पिछ्ले दिनों मानव संसाधन विकास मंत्रालय से संबद्ध संसदीय समिति ने उच्च शिक्षा से जुड़ी एक रिपोर्ट पेश की है. रिपोर्ट में उच्च शिक्षा के साथ-साथ पीएचडी धारकों की गुणवत्ता पर भी सवाल उठाए हैं | समिति ने यह भी कहा है कि आखिर उच्च शिक्षा संस्थानों में शिक्षक के रिक्त पदों को भरनें के लिए उपयुक्त उम्मीदवार क्यों नहीं मिल पा रहे हैं ? सही बात तो यह है कि उच्च शिक्षा की कुछ संस्थान को छोड़ दे तो अधिकांश संस्थाये छात्रों के प्रवेश ,परीक्षा और डिग्री देने तक ही सीमित हो गए हैं |“देश में आज लगभग 700 विश्वविद्यालय और इनसे जुड़े करीब 36 हजार महाविद्यालय कार्यरत हैं | इनमें लगभग तीन करोड़ से भी अधिक छात्रों का नामांकन हैं | उच्च शिक्षण संस्थानों की गुणवत्ता अच्छे शिक्षकों की नियुक्ति ,उनका पठन-पाथन ,शोध कार्य व शिक्षक –छात्र के उचित अनुपात पर निर्भर करती है”|[6]
मानव संसाधन मंत्रालय के ताज़ा आकड़ों से ज्ञात होता है कि देश के आई.आई.टी,आई.आई.एम,एन.आई.आई.टी,आई.आई.एम.सी जैसे अच्छे संस्थान औसत 35 फीसदी फ़ैकल्टी की कमी से जूझ रहे हैं | सबसे बड़ी बात यह है कि केन्द्रीय विश्वविद्यालय में 38 फीसदी और आईआईटी में 39 फीसदी शिक्षकों के पद रिक्त हैं |[7]
आकड़ें संकेत देते हैं कि 2030 तक उच्च शिक्षा में ग्रांस एनरोलमेंट रेशियो बढ़कर 30 फ़ीसदी तक जा सकता है | ऐसे में देश में लगभग 70 हजार महाविद्यालयों की जरूरत होगी |[8]
1964 में शिक्षा में सुधारों के लिए बनी कोठारी कमीशन ने उच्च शिक्षा पर राष्ट्रीय आय का छह फ़ीसदी खर्च करने का सुझाव दिया था |[9]
यहा तक की भारतीय ज्ञान आयोग ने भी उच्च शिक्षा पर राष्ट्रीय आय का 1.5 फ़ीसदी खर्च करने की बात कही थी | यह अनुमान स्वतःलगाया जा सकता है कि उच्च शिक्षा के इतने सीमित बजट में कैसे शिक्षण और शोध कि गुणवत्ता को बढ़ाया जा सकता है | कभी भारत में शिक्षा और ज्ञान-विज्ञान का केंद्र रहे बिहार के पटना विश्वविद्यालय में आज शोध छात्र और शिक्षक दोनों के लिए खिलवाड़ बन गया है |
पटना विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के प्रोफ़ेसर रघुनंदन शर्मा कहते हैं कि “न तो अच्छे छात्र शोध के क्षेत्र में आ रहे हैं और न ही शिक्षक ऐसे है जो छात्रों को अच्छे शोध के लिए प्रेरित कर सकें,वो शोध को व्यवसाय की नज़र से देखने लगे हैं” |[10]
प्रों. शर्मा इसी क्रम में आगे कहते है “हिंदी प्रदेशों में कुछ शिक्षक इस स्तर तक गिर गए हैं कि वो पैसे लेकर डिग्री बाँट रहे हैं. यही वजह है कि बिहार और यूपी में शोध की स्थिति अच्छी नहीं दिख रही”|
शोध के क्षेत्र में आई इस गिरावट की एक वजह की ओर इशारा करते हुए पटना विश्वविद्यालय के ही शकील अहमद कहते हैं, “आज एक आईएएस या बैंक अधिकारी की समाज में जो इज्ज़त होती है वो एक शोध करने वाले की नहीं होती”|[11]यहा शकील अहमद की पूरी बात को नहीं माना जा सकता हैं ऐसा इसलिए कि आज भी बहुत सारे शोध कर्ता जो काफी अच्छा शोध कर रहे है | हाँ यह कहा जा सकता हैं कि कुछ लोगों की वजह शोध के स्तर में वाकई गिरावट आई हैं | शोध की खराब हालत का एक अन्य पहलू है –शोध करने वालें शोधाथियों का शोध निर्देशकों के हाथों शोषण करना |
पटना विश्वविद्यालय में शोध कर रहे प्रधूम्न सिंह बताते हैं, “कि विश्वविद्यालय में शोध का आलम ये है कि शिक्षक छात्र की हैसियत और काबिलियत देख कर उन्हें शोध की अनुमति देते हैं और विषय चयन से लेकर थीसिस जमा करने तक या तो उनसे पैसे मागते है”|[12] ऐसा इसलिए संभव हो पाता है क्योंकि शोध की पूरी प्रक्रिया पुरी तरह से विद्यार्थी और उसके शोध निर्देशक के बीच सम्पन्न होती है”| हालांकि इस तस्वीर का दूसरा रुख भी है. शोध की खराब हालत के लिए सिर्फ निर्देशकों को जिम्मेदवार ठहराना सही नहीं हैं | कई बार शोध छात्र भी शोध कार्य के दौरान शिक्षकों को नाकों चने चबवा देते हैं |
दिल्ली विश्वविद्यालय में कोरियन अध्ययन के प्रोफ़ेसर संदीप मिश्रा कहते हैं,“ऐसा हो सकता है कुछ शिक्षक छात्रों को परेशान करते हों लेकिन मेरा मानना ये है कि कई छात्र ऐसे होते हैं जो महीनों गायब रहतें हैं,बुलाने पर भी नहीं आते और अचानक जब थीसिस जमा करने की मियाद सिर पर आती है तो यहा – वहा से लिखकर दे देते हैं और उम्मीद करते हैं कि उसे उसी रूप में स्वीकृति दे दी जाए | यानि कुछ हद तक दोष दोनों तरफ से है |[13]
इसी क्रम में दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति दिनेश सिंह का कहना है कि “शोध के स्तर में गिरावट के बावजूद कुछ अच्छे शोध आज भी हों रहे है” |
गौरतलब है कि आज दुनिया के ताकतवर देशों की सफलता का कारण उनकी अच्छी उच्च शिक्षा ही है | अमेरिका , फ्रांस , जर्मनी , सिंगापुर ,ब्रिटेन व आंस्ट्रेलिया जैसे देशों की आर्थिक प्रगति कों वहा की विश्वस्तरीय उच्चा शिक्षा से जोड़कर ही देखा और समझा जा सकता है |[14]
शोध से जुड़े आकड़े बताते हैं कि ब्रिक्स देशों में केवल भारत ही ऐसा देश है जहा पर कुल जीडीपी का का मात्र 0.8 फ़ीसदी ही खर्च किया जाता है | वही चीन इस पर 1.9 फ़ीसदी ,रूस 1.5 फ़ीसदी , ब्राजील 1.3 फ़ीसदी तथा दक्षिण अफ्रीका 1.0 फ़ीसदी धन खर्च करता है |[15]
इसी क्रम में राष्ट्रीय उच्च शिक्षा मूल्यांकन परिषद ने भी अपनी रिपोर्ट में साफ किया है कि भारत में 68 फ़ीसदी विश्वविद्यालय और 90 फ़ीसदी कॉलेज में उच्च शिक्षा की गुणवत्ता मध्यम दर्जे की हैं | देश के 60 फ़ीसदी विश्वविद्यालय और 80 फ़ीसदी कॉलेज से निकले छात्रों के पास न तो तकनीकी कौशल है और न ही भाषा की दक्षता |[16]
संख्या की दृष्टि से देखें तो भारत की उच्चतर शिक्षा व्यवस्था अमेरिका और चीन के बाद तीसरे नंबर पर आता है लेकिन इस के बावजूद दुनिया के शीर्ष 200 विश्वविद्यालयों में भारत का एक भी विश्वविद्यालय नहीं है |
द टाइम्स विश्वविद्यालय रैकिंग (2013) के अनुसार अमेरिका का केलोफ़ोर्निया इंस्टीटूयूट ऑफ टेक्नॉलॉजी चोटी पर है जबकि भारत के पंजाब विश्वविद्यालय का स्थान 226 वाँ है | स्कूल की पढ़ाई करने वाले नौ छात्रों में से केवल एक ही कॉलेज जा पाता हैं |
Best global universities rankings[17] | National universities rankings[18] | World universities rankings 2014-2015[19] |
Harvard university | Princeton university | California institute of technology |
Massachusetts institute of technology | Harvard university | University of oxford |
University of California-Berkeley | Yale university | Stanford university |
Stanford university | Columbia university | University of Cambridge |
University of Cambridge | Stanford university | Massachusetts institute of technology |
University of California-los Angeles | Massachusetts institute of technology | Harvard university |
Columbia university | Duke university | Princeton university |
University of Chicago | University of Pennsylvania | Imperial college of London |
University of oxford | California institute of technology | Eth zurich-swiss federal institute of technology Zurich |
California institute of the. | Johns Hopkins university | University of Chicago |
इस अनुपात को 1.5 फ़ीसदी तक ले जाने के लक्ष्य कों प्राप्त करने के लिए भारत को 2,26,410 करोड़ रुपये का निवेश करना होगा जबकि 11वीं योजना में इसके लिए सिर्फ 77,933 करोड़ रूपिया का ही प्रावधान किया गया था | भारतीय शिक्षण सस्थानों में शिक्षकों की कमी का आलम ये है कि आईआईटी जैसे संस्थानों में भी 15 से 25 फ़ीसदी शिक्षकों की कमी है | अच्छे शिक्षण संस्थानों की कमी ही आलम यह है की श्री राम कॉलेज में प्रवेश पाने कट ऑफ 99 फ़ीसदी जाने लगा हैं | यही नहीं भारतीय छात्र विदेशी विश्वविद्यालय में पढ़ने के लिए हर साल 7 अरब डालर यानि करीब 43 हज़ार करोड़ रुपया ख़र्च करते है | दुनिया भर में विज्ञान के क्षेत्र में हुए शोध में से एक तिहाई अमेरिका में होते हैं | जबकि भारत में मात्र 3 फ़ीसदी शोध प्रकाशित हो पाते हैं |
योजना आयोग के सदस्य और पुणे विश्वविद्यालय के पूर्व उपकुलपति नरेंद्र जाधव कहते है कि “विश्वविद्यालयों में पिछले 30 सालों से उनके स्लेबस में कोई बदलाव हीं नहीं हुआ हैं” |
इफ़ोंसिस के प्रमुख नारायण मूर्ति कहते है, “अपनी शिक्षा प्रणाली की बदौलत ही अमेरिका ने सेमी कंडक्टर,सूचना तकनीकी और बायोटेक्नॉलॉजी के क्षेत्र में इतनी तरक्की की है |
इसी क्रम में कौशिक बसु का कहना हैं, “हमे यह स्वीकार करना चाहिए कि किसी भी सरकार विशेषकर विकशील देशों की सरकार के लिए यह संभव नहीं है कि वो मौजूदा 300 विश्वविद्यालय को ही ढंग से चला पाए,यह तभी संभव है जब वितीय मापदड़ों को दरकिनार कर दिया जाए या उच्चतर शिक्षा को घटिया दर्जे का बना दिया जाए”|
उच्च शिक्षा या शोध जैसे कार्य में सुधार के लिए पैसा लगाना देश के बेहतर मानव सूचकांक के लिए बेहद जरूरी है | हमारे यहाँ आईआईटी जैसे संस्थान बगैर सब्सिडी के खड़े नहीं हो सकते है | दिल्ली विश्वविद्यालय को कैम्ब्रिज और हावॉर्ड जैसे विश्वविद्यालय के सामनें खड़ा करने के लिए समुचित पैसा मुहैया कराया जाना चाहिए |
एनसीईआरटी के पूर्व निर्देशक कृष्ण कुमार ने एक पते की बात कही कि “किसी भी शिक्षण संस्थान कि गुणवत्ता योग्य शिक्षकों पर सबसे अधिक निर्भर करती है | जबकि हमारे यहाँ एक तो शिक्षक की कमी और दूसरी तरफ हमारे शिक्षण संस्थान छात्रों को अपनी तरफ आकर्षित करने में पूरी तरह से नाकाम रही हैं” |[20]
आज 32 फीसदी शोध पत्र सिर्फ अमेरिका में प्रकाशित होते हैं जबकि हमारे यहा मात्र ढाई प्रतिशत | हर साल अमेरिका में 25 हजार और चीन में 30 हजार पीएचडी तैयार होते हैं | जबकि भारत में यह तादाद मात्र 5 हजार है |[21]
नेशनल इनोवेशन काऊंसिल के चेयरमैन और ज्ञान आयोग के पूर्व अध्यक्ष सैम पित्रोदा का कहना है “कि हमारी जरूरतें अभी अलग है,हमारे फोकस में अभी सभी बच्चों को स्कूली शिक्षा देना हैं,उच्च शिक्षा और वह भी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने में अभी समय तो लगना ही है” |
लेकिन पब्लिक रिपोर्ट आंन बेसिक एजुकेशन (प्रोब)के सदस्य एके शिव कुमार कहते हैं “असली समस्या गुणवत्ता की है” |
लेकिन सबसे बड़ी समस्या तो फंड कों लेकर ही तो हैं,गौतलब हो कि स्मृति ईरानी कों मानव संसाधन विकास मंत्री बनाये जाने पर,उनकी योग्यता कों लेकर केंद्र सरकार कों पूरे देश से आलोचनाओं का सामना करना पड़ा था |[22]
अभी हाल में उच्च शिक्षा में बिना नेट के एमफिल और पीएचडी करने वालों कों 5 हजार और 8 हजार शोधवृति प्रदान कि जाती थी जिसे बंद करने ऐलान कर दिया | सन् 2006 से करीब 50 शिक्षण संस्थानों में यह फ़ेलोशिप प्रदान कि जाती रही हैं | वर्तमान समय सिर्फ 35 हजार छात्रों कों यह फ़ेलोशिप मिल रही हैं | शायद उसी का नतीजा है कि पिछले आठ सालों में पहली बार किसी सरकार नें शिक्षा के बजट में कटौती की है |[23]
2014-2015 में जो बजट पेश किया गया था उसमें शिक्षा के बजट कों 83 हज़ार करोड़ से घटा करके 69 हज़ार करोड़ रुपया कर दिया गया अर्थात 13,700 हज़ार करोड़ रुपए की कमी कर दी गई | कुल मिला करके 16.5 प्रतिशत की कटौती हुई |[24]
हम अच्छी तरह जानते है की किसी देश की पहचान शिक्षा व्यवस्था से भी होती है |
15 साल पहले मैनेजमेंट गुरु पीटर ड्र्कर ने ऐलान किया था, “आने वाले दिनों में ज्ञान का समाज दुनिया के किसी भी समाज से ज़्यादा प्रतियोगी समाज बन जाएगा. दुनिया में गरीब देश शायद देश समाप्त हों जाएँ लेकिन किसी देश की समृद्धि का स्तर इस बात से आंका जाएगा कि वहाँ की शिक्षा का स्तर किस तरह का है”|
संदर्भ सूची.
- शिक्षा और शोध की गुणवत्ता पर सवाल, विशेष गुप्ता, http://www.samaylive.com/editorial/322356/questioned-the-quality-of-education-and-research-hrd.html ,03 Aug 2015.
- रिसर्च मतलब पैसे दो, डॉक्टरेट लो, अमरेश द्विवेदी, बीबीसी संवाददाता, http://www.bbc.com/hindi/india/2013/10/131016_higher_education_research_akd, 18 अक्तूबर 2013.
- उच्च शिक्षा और सरकार की उदासीनता,महेश तिवारी, शोधार्थी,सन स्टार ,राष्ट्रीय हिंदी दैनिक, http://sunstardaily.in/NewsDetail.aspx?Article=675,31 Oct 2015
- उच्च शिक्षा में निवेश की जरूरत,नीरज कुमार तिवारी,
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विवेक पाठक
पी-एच.डी अहिंसा और शांति अध्ययन
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय,वर्धा
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- Ibid. ↑
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