आत्मकथा : हिंदी साहित्य लेखन की गद्य विधा

               – डॉ. प्रमोद पाण्डेय

       आत्मकथा हिंदी साहित्य लेखन की गद्य विधाओं में से एक है। आत्मकथा यह व्यक्ति के द्वारा अनुभव किए गए जीवन के सत्य तथा यथार्थ का चित्रण है। आत्मकथा के केंद्र में आत्मकथाकार या किसी भी व्यक्ति विशेष के जीवन के विविध पहलुओं तथा क्रिया-कलापों का विवरण होता है। आत्मकथा का हर एक भाग मानव की जिजीविषा तथा हर एक शब्द मनुष्य के कर्म व क्रिया-कलापों से जुड़ा हुआ होता है। “न मानुषात् श्रेष्ठतर हि किंचित्” अर्थात मनुष्य से बढ़कर कुछ भी नहीं है। आत्मकथा के अंतर्गत आत्मनिरीक्षण, आत्मपरीक्षण, आत्मविश्लेषण, आत्माभिव्यक्ति यह आत्मकथा के द्वारा की जाती है। आत्मकथा के अंतर्गत सत्यता का विशेष महत्व होता है। यदि आत्मकथा में सत्यता नहीं होगी तो वह आत्मकथा उत्कृष्ट नहीं माना जाता है। आत्मकथा के अंतर्गत व्यक्तिगत जीवन के विविध पहलुओं, जो कि आत्मकथाकार ने स्वयं भोगा है तथा उसके अपने निजी जीवन व घटनाओं का सटीक व सही चित्र शब्दों के माध्यम से उकेरता है। आत्मकथाकार आत्मकथा लेखन में जिस शैली व भाषा का प्रयोग करता है वह उसकी अपनी स्वयं के जीवन अनुभव से जुड़ी होती है| आत्मकथा यह गद्य साहित्य का रूप है। जिसके अंतर्गत किसी व्यक्ति विशेष का जीवन वृत्तांत स्वयं के द्वारा ही लिखा जाता है।  आज आत्मकथा लेखन विधा को अपना स्वतंत्र अस्तित्व प्राप्त है तथा हिंदी गद्य साहित्य में अपना स्थान स्थापित कर चुकी है।

आत्मकथा का अर्थ 

          आत्मकथा यह ‘आत्म’ व ‘कथा’ के योग से बना है। जिसमें ‘आत्म’ का अर्थ है- अपना, स्वयं, निजी, स्वकीय आदि। इसी प्रकार ‘कथा’ का अर्थ है- कहानी, किस्सा, वार्ता, चर्चा आदि। अत: उपर्युक्त अर्थ के आधार पर ‘आत्मकथा’ का अर्थ हुआ- अपनी निजी कहानी, स्वयं का किस्सा, स्वकीय कहानी आदि।       आत्मकथा के अंतर्गत आत्मकथाकार की मुख्य भूमिका यह होती है कि वह अपने जीवन का सही ढंग से चित्रण करे। इसमें आत्मकथाकार कथा का पात्र स्वयं होता है।           आत्मकथा को परिभाषित करते हुए डॉ. श्यामसुंदर घोष ने लिखा है कि -“जब लेखक अपनी जीवनी स्वयं लिखे तो वह आत्मकथा है। आत्मकथा के लिए हिंदी में आत्मचरित या आत्मचरित्र शब्द प्रयुक्त होते हैं।” हिंदी साहित्य कोश के अनुसार -“आत्मचरित और आत्मचरित्र हिंदी में आत्मकथा के अर्थ में प्रस्तुत शब्द हैं और तत्वत: आत्मकथा से भिन्न नहीं हैं।” इसी क्रम में डॉ. माज़दा असद भी लिखते हैं कि ” स्वयं लिखी अपनी जीवनी आत्मकथा कहलाती है. इसे दूसरे शब्दों में इस प्रकार कहा जा सकता है – जब कोई व्यक्ति कलात्मक, साहित्यिक ढंग से अपनी जीवनी स्वयं लिखता है तब उसे आत्मकथा कहते हैं।”

आत्मकथा की परिभाषा 

आत्मकथा लिखते समय आत्मकथाकार को यह विशेष ध्यान रखना चाहिए कि आत्मकथा में रोचकता हो अन्यथा वह आत्मकथा नीरस और उबाऊ हो जाएगी। आत्मकथा को रोचक बनाने हेतु कुछ मुद्दे मानविकी पारिभाषिक कोश में लिखे गए हैं. वे मुद्दे इस प्रकार से हैं :-१- किन्हीं ऐतिहासिक घटनाओं या आन्दोलनों से यदि लेखक का संपर्क रहा हो तो उसका विवरण बाद की पीढ़ियों के लिए रोचक और उपयोगी होता है। क्योंकि उससे तत्कालीन मनोवृत्ति का कुछ सही अनुमान, सुलभ हो पाता है।२- हो सकता है कि स्वयं लेखक का ही इतिहास निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान रहा हो ? विख्यात विजेता, शासक, राजनीतिज्ञ अथवा चिंतक के विचारों का अपने तथा अन्य व्यक्तियों तथा घटनाओं के विषय में उसके मतामत का सदा महत्व रहता है।३- लेखक के दृष्टिकोण या विचारों में कुछ विशेषता या अनूठापन हो अथवा वह अपने युग से आगे की बात सोचने वाला हो।४- लेखक ऐसा व्यक्ति हो जिसके जीवन का मुख्य कार्य आत्ममंथन और चिंतन ही रहा हो।”   आत्मकथा को संस्मरण विधा भी माना जाता है। इस संदर्भ में अपने विचार व्यक्त करते हुए डॉ. हरिचरण शर्मा ने लिखा है कि “आत्मकथा एक संस्मरणात्मक विधा है जिसमें स्वयं लेखक अपने जीवन के विषय में निरपेक्ष होकर लिखता है। आत्मकथा वह साहित्यिक विधा है जिसमें लेखक अपनी सबलताओं और दुर्बलताओं का संतुलित एवं व्यवस्थित चित्रण करता है. आत्मकथा व्यक्ति के संपूर्ण व्यक्तित्व के निष्पक्ष उद् घाटन में समर्थ होती है।” परंतु इस संदर्भ में प्रसिद्ध आलोचक शिप्ले आत्मकथा व संस्मरण को परस्पर भिन्न मानते हैं। इस संदर्भ में वे लिखते हैं कि ” आत्मकथा और संस्मरण देखने में समान साहित्यिक स्वरूप मालूम पड़ते हैं, किंतु दोनों में अंतर है। यह अंतर बल संबंधी है। एक में चरित्र पर बल दिया जाता है और दूसरे में बाह्य घटनाओं और वस्तु आदि के वर्णनों पर ही लेखक की दृष्टि रहती है। संस्मरण में लेखक उन अपने से भिन्न व्यक्तियों, वस्तुओं, क्रियाकलापों आदि के विषय में संस्मरणात्मक चित्रण करता है जिनका उसे अपने जीवन में समय-समय पर साक्षात्कार हो चुका है।”  पं. जवाहरलाल नेहरू द्वारा लिखित “मेरी कहानी” को अनुवादित करके अब्राहम काउली आत्मकथा के संबंध में लिखते हैं कि ” किसी आदमी को अपने बारे में खुद लिखना मुश्किल भी है और दिलचस्प भी क्योंकि अपनी बुराई या निन्दा लिखना खुद हमें बुरा मालुम होता है और अगर हम अपनी तारीफ करें तो पाठकों को उसे सुनना नागवार मालूम होता है।”     इसी क्रम में आत्मकथा के संबंध में गुलाब राय अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखते हैं कि ” साधारण जीवन चरित्र से आत्मकथा में कुछ विशेषता होती है। आत्मकथा लेखक जितनी अपने बारे में जान सकता है उतना लाख प्रयत्न करने पर भी कोई दूसरा नहीं जान सकता किन्तु इसमें कहीं तो स्वाभाविक आत्मश्लाघा की प्रवृत्ति बाधक होती है और किसी के साथ शील-संकोच आत्म-प्रकाश में रुकावट डालता है।”          आत्मकथा अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने का सबसे आसान व सहज माध्यम है। आत्मकथा के द्वारा आत्मकथाकार अपने जीवन, परिवेश, महत्त्वपूर्ण घटनाओं, विचारधाराओं, निजी अनुभवों, अपनी क्षमताओं, दुर्बलताओं तथा अपने समय की सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों को शब्दों के  माध्यम से लोगों के समक्ष प्रस्तुत करता है।      

हिंदी की प्रमुख आत्मकथाएँ और आत्मकथाकार

   हिन्दी में आत्मकथा लेखन की एक लंबी परंपरा रही है। इस परम्परा को तीन कालखण्डों में विभाजित किया गया है जो कि निम्नवत है :-१-आत्मकथा लेखन का आरंभिक काल :-                     हिंदी की पहली आत्मकथा सन् 1641 में बनारसीदास जैन द्वारा लिखित ‘अर्द्धकथा’ को माना गया है। इस आत्मकथा में लेखक ने अपने गुणों और अवगुणों का यथार्थ चित्रण किया है। पद्यात्मक शैली में लिखी गई इस आत्मकथा के अलावा संपूर्ण मध्यकाल में हिंदी में कोई और दूसरी आत्मकथा नहीं मिलती है। हिंदी साहित्य लेखन के अंतर्गत गद्य लेखन की अन्य विधाओं के साथ आत्मकथा लेखन विधा भी भारतेंदु हरिश्चंद्र के समय में विकसित हुई। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने पत्रिकाओं में प्रकाशन के द्वारा इस विधा को न सिर्फ पल्लवित किया बल्कि अपितु इसे आगे बढ़ाने में अहम् भूमिका भी निभायी। उन्होंने अपने स्वयं के जीवन पर आधारित आत्मकथा “एक कहानी कुछ आपबीती कुछ जगबीती” का लेखन किया। जिसका आरंभिक अंश “प्रथम खेल” नामक शीर्षक से प्रकाशित हुआ था। यह आत्मकथा आम-बोलचाल की भाषा में लिखी गई जो कि रोजमर्रा के जीवन में प्रयोग किए जाने  वाले शब्दों की बहुलता इस आत्मकथा में दिखाई देती है।      भारतेंदु हरिश्चंद्र के अलावा इस कालखण्ड के आत्मकथाकारों द्वारा लिखी गई आत्मकथाओं में से सुधाकर द्विवेदी की ‘रामकहानी’ तथा अंबिकादत्त व्यास की ‘निजवृतांत’ को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया  है।       इसी क्रम में सन् 1875 में स्वामी दयानंद सरस्वती की आत्मकथा सामने आई। इस आत्मकथा में दयानंद सरस्वती के जीवन के विविध पहलुओं को उजागर किया गया है। सत्यानंद अग्निहोत्री की आत्मकथा ‘मुझ में देव जीवन का विकास’ का पहला खण्ड सन् 1909 में और दूसरा खण्ड सन् 1918 में प्रकाशित हुई। सन् 1921 में परमानंद जी की आत्मकथा ‘आपबीती’ प्रकाशित हुई। इस आत्मकथा में आत्मकथाकार ने स्वतंत्रता आंदोलन में अपने योगदान, अपनी जेल यात्रा तथा आर्य समाज के प्रभाव को उकेरा है। सन् 1924 में स्वामी श्रद्धानंद की आत्मकथा ‘कल्याणमार्ग का पथिक’ प्रकाशित हुई। जिसमें उन्होंने अपने के जीवन संघर्षों का सही-सही चित्रण किया है।२- स्वतंत्रता-पूर्व आत्मकथा लेखन :-           हिंदी आत्मकथा साहित्य के विकास में ‘हंस’ पत्रिका में प्रकाशित आत्मकथांकों का विशेष योगदान रहा है। सन् 1932 में प्रकाशित अंक में जयशंकर प्रसाद, वैद्य हरिदास, विनोदशंकर व्यास, विश्वंभरनाथ शर्मा , दयाराम निगम, मौलवी महेशप्रसाद, गोपालराम गहमरी, सुदर्शन, शिवपूजन सहाय, रायकृष्णदास, श्रीराम शर्मा आदि साहित्यकारों और गैर-साहित्यकारों के जीवन के कुछ अंशों को प्रेमचंद ने स्थान प्रदान किया।सन् 1941 में प्रकाशित इस काल की सबसे महत्वपूर्ण आत्मकथा श्यामसुंदर दास की ‘मेरी आत्मकहानी’ है। इसमें लेखक ने अपने जीवन की निजी घटनाओं को कम स्थान देते हुए इतिहास और समकालीन साहित्यिक गतिविधियों को अधिक प्राधान्य दिया है। इसी कालखण्ड के आस-पास बाबू गुलाबराय की आत्मकथा ‘मेरी असफलताएँ’ भी प्रकाशित हुई। जिसमें बाबू गुलाब राय ने व्यंग्यात्मक शैली में अपने जीवन की असफलताओं का सजीव चित्र उकेरा है।इसी क्रम में सन् 1946 में राहुल सांकृत्यायन की आत्मकथा ‘मेरी जीवन यात्रा’ का प्रथम भाग प्रकाशित हुआ। सन् 1949 में दूसरा तथा सन् 1967 में उनकी मृत्यु के उपरांत तीसरा भाग प्रकाशित हुआ। सन् 1947 के आरंभ में देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की आत्मकथा “मेरी जीवन यात्रा” प्रकाशित हुई। इस आत्मकथा में राजेंद्र प्रसाद ने देश की दशा का वर्णन किया है।३- आत्मकथा लेखन का स्वातंत्रयोत्तर काल :- (1947 के बाद से अब तक)सन् 1948 में वियोगी हरि की आत्मकथा ‘मेरा जीवन प्रवाह’ प्रकाशन हुआ। इस आत्मकथा में समाज के निम्न वर्ग का मार्मिक वर्णन किया गया है। यशपाल की आत्मकथा ‘सिंहावलोकन’ का प्रथम भाग सन् 1951 में, दूसरा भाग सन् 1952 में और तीसरा भाग सन् 1955 में प्रकाशित हुआ। सन् 1952 में ही शांतिप्रिय द्विवेदी की आत्मकथा ‘परिव्राजक की प्रजा’ प्रकाशित हुई। इसमें लेखक ने अपने जीवन की करुण कथा का वर्णन किया है। सन् 1953 में देवेंद्र सत्यार्थी की आत्मकथा ’चाँद-सूरज के बीरन’ प्रकाशन हुआ।    सन् 1960 में प्रकाशित पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ की आत्मकथा ‘अपनी खबर’ प्रकाशित हुई।         हरिवंशराय बच्चन की आत्मकथा ‘क्या भूलूँ क्या याद करूँ’ (सन् 1969), ‘नीड़ का निर्माण फिर-फिर’ (सन् 1970), ‘बसेरे से दूर’ (सन् 1977) और ‘दशद्वार से सोपान तक’ (सन् 1985) चार भागों में विभाजित एवं प्रकाशित हिंदी की सर्वाधिक सफल और महत्वपूर्ण आत्मकथा मानी जाती है । बच्चन की आत्मकथा ने अनेक आत्मकथाकारों को जन्म दिया। बच्चन जी के बाद प्रकाशित आत्मकथाओं में वृन्दावनलाल वर्मा की ‘अपनी कहानी’ ( (सन् 1970), देवराज उपाध्याय की ‘यौवन के द्वार पर’ (सन् 1970), शिवपूजन सहाय की ‘मेरा जीवन’ (सन् 1985), प्रतिभा अग्रवाल की ‘दस्तक ज़िंदगी की’ (सन् 1990) और भीष्म साहनी की ‘आज के अतीत’ (सन् 2003) प्रकाशित हुई।       समकालीन आत्मकथा साहित्य में दलित आत्मकथाओं का भी विशेष रूप से  योगदान रहा है। ओमप्रकाश वाल्मीकि की ‘जूठन’, मोहनदास नैमिशराय की ‘अपने-अपने पिंजरे’ और कौशल्या बैसंत्री की ‘दोहरा अभिशाप’, सूरजपाल चौहान की आत्मकथा ‘तिरस्कृत’ (2002) तथा ‘संतप्त’ (2006) आदि आत्मकथाओं ने इस विधा को एक नया आयाम प्रदान किया ।     वर्तमान समय में महिला और दलित आत्मकथाकारों ने इस विधा को सामाजिकता से जोड़ा है। महिला कथाकारों में मैत्रेयी पुष्पा, प्रभा खेतान आदि का नाम विशेष रूप से लिया जाता है जिन्होंने आत्मकथा का लेखन किया है।       इसी क्रम में आत्मकथा एवं कथा साहित्य पर तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से दृष्टिपात करते हैं तो इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि आत्मकथा व्यक्ति के जीवन यात्रा की कहानी होती है परंतु यह कहानी अधूरी रहती है क्योंकि इसमें व्यक्ति के जीवन के एक पड़ाव का लेखा-जोखा ही प्रस्तुत किया जाता है। यदि आत्मकथा लेखन पूर्ण हो जाने के बाद लेखक कुछ और वर्षों तक जिंदा रहता है तो उन वर्षों का ब्यौरा आत्मकथा द्वारा प्राप्त नहीं होता है। जबकि कथा साहित्य में काल्पनिकता होने के बावजूद उसके अंतर्गत कहानी का प्रारंभ, विकास और अंत सुनियोजित ढंग से तथा व्यवस्थित रूप से होता है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि आत्मकथा व्यक्ति विशेष के जीवन की अनुकृति होने के साथ-साथ कथा साहित्य की तुलना में यह अनियोजित एवं अपूर्ण होती है। अत: कथा साहित्य के अंतर्गत इसे अधूरी कथा की संज्ञा दी जा सकती है क्योंकि कोई भी आत्मकथा लेखक अपनी मृत्यु के बाद तो आत्मकथा लिख नहीं सकता और जीवित रहकर लिखी गई आत्मकथा में जीवन के कुछ अंश शेष रह जाते हैं। कहना न होगा कि आत्मकथा का अंत यह किसी कथा साहित्य की भॉति पूर्व नियोजित अंत नहीं होता है। बावजूद इसके आत्मकथा में कथावस्तु, चरित्र-चित्रण, भाषा-शैली, कथोपकथन, उद्देश्य और वातावरण जैसे कथा साहित्य के तत्व विद्यमान रहते हैं।      कहना न होगा कि हिंदी आत्मकथा साहित्य यह कथाकार के अपने जिए हुए जीवन की मार्मिक अभिव्यक्ति है। आत्मकथा आज अपने जीवन की सार्थकता के कारण दिन-प्रतिदिन उँचाइयों की ओर अग्रसर है तथा हिंदी साहित्य में अपना स्थान सुनिश्चित किए हुए है।

संदर्भ ग्रंथ सूची१- आदर्श हिंदी शब्दकोश – पं. रामचन्द्र पाठक (सं.)

२- साहित्य के नये रूप – डॉ. श्यामसुंदर घोष

३- हिंदी साहित्य का इतिहास – डॉ. हरिचरण शर्मा

४- हिंदी साहित्य कोश- धीरेन्द्र वर्मा

५- मानविकी पारिभाषिक कोश- डॉ. नगेन्द्र ( सं.)

६- काव्य के रूप – गुलाब राय

७- गद्य की नयी विधाएँ – डॉ. माज़दा असद

नाम : डॉ. प्रमोद पाण्डेय 

(एम.ए. , पीएच.डी. – हिंदी)पता : ए-201, जानकी निवास, तपोवन, 

रानी सती मार्ग, मालाड (पूर्व), मुंबई – 400097.

(महाराष्ट्र)मो.नं. : 09869517122ईमेल : drpramod519@gmail.com