सूरजपाल चैहान की कहानियों में व्यक्त दलित चिंतन

अंजलि,

शोधार्थी, हिन्दी विभाग,

दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली

ईमेल- angelduggal93@gmail.com

सारांश

सूरजपाल चैहान दलित कथाकारों में अग्रगण्य हैं जिनमें दलित चेतना की धारदार अभिव्यक्ति हुई है। उनकी कहानियां भारतीय समाज और विशेषकर हिंदू धर्म और समाज में व्याप्त ऊँच-नीच की भावना तथा जाति आधारित घृणा – हिंसा आदि को बेनकाब करनेवाली कहानियाँ हैं। उन्होंने अपने जीवन की घटनाओं एवं अनुभवों के माध्यम से समाज की निचली ऊपरी परतों में व्याप्त असलियत को उघाड़ा है।

बीज शब्द: दलित, चिंतन, समाज, चेतना, अभिव्यक्ति

शोध आलेख

विकासशील देशों और औपनिवेशिक साम्राज्यवादी शासकों के अधीन देशों में दलित मानव की स्थिति सामाजिक और आर्थिक यंत्रणाओं के कारण अधिक दारुण और असहनीय रही है। भारतीय सनातनी सामाजिक चातुर्वण्य व्यवस्था से लेकर आज तक की वर्गीय व्यवस्था में दलित समाज सांस्कृतिक विषमता, आर्थिक शोषण का शिकार और सामाजिक दृष्टि से उपेक्षित रहा है। विश्व में शोषितों और गुलामों का दूसरा वर्ग नीग्रो समाज रहा है। रंगभेद से पीड़ित नीग्रो साहित्यकारों ने ‘ब्लैक लिटरेचर’ के माध्यम से मानवीय अधिकारों की प्राप्ति हेतु संघर्ष किया। नीग्रो साहित्य के समान ही भारतीय दलित युवा पीढ़ी ने साहित्य सृजन के माध्यम से अपनी संवेदनहीन वाणी को संवेदनशील बनाया है। इस चेतना के विकास की पृष्ठभूमि सर्वप्रथम मराठी दलित साहित्य में मिलती है, जिसका प्रभाव समस्त भारतीय साहित्य पर पड़ा है।

आधुनिक हिंदी कहानियों में उपेक्षित दलित वर्ग के जीवन की आकांक्षाओं को सर्वप्रथम कथाकार प्रेमचंद ने अपनी कहानियों में विभिन्न परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत किया। इस संदर्भ में उनकी ‘सद्गति’ कहानी में दुखी चमार की दर्दपूर्ण कथा है। यह ‘ठाकुर का कुआँ कहानी में स्वच्छ पानी के लिए तरसते अछूत जोखू की करुण गाथा है। पानी की जिस समस्या को प्रेमचंद्र ने आजादी के पहले उठाया था, वह समस्या आजादी के साठ साल बाद भी हल नहीं हो पाई है। दूध का दाम कहानी में भंगी, भंगिन और उसके पुत्र मंगल की अमानवीय दशा का यथार्थ चित्रण है। ‘कपन’ कहानी में भूख की पीड़ा से पिता पुत्र अमानवीय बन जाते हैं। वस्तुतः इन कहानियों का कथ्य भूख की पीड़ा से दलित मानव की विचारशून्यता है, संवेदनहीनता की कुरूप छवि है, मानवीय मूल्यों की टूटन है और शोषण पर आधारित सामाजिक व्यवस्था के प्रति विद्रोह का रास्ता तैयार हुआ है। अतः इन कहानियों को हिन्दी में दलित चेतना के विकास के प्रेरक तत्व के रूप में देख सकते हैं।

इस प्रकार बीसवीं सदी के अंतिम दशक में दलित कहानी ने एक आंदोलन का रूप ले लिया। इस दशक में जिन दलित कथाकारों के कथा संग्रह आए, वे इस प्रकार हैं- ‘सुरंग’ – डा. दयानंद बटोही, चार इंच की कलम – डॉ. कुसुम वियोगी, ‘टूटता वहम’ – डॉ. सुशीला टाकभोरे, ‘साग’ – डॉ. टी पी राही, ‘आवाजें’ – मोहनदास नैमिशराय, ‘पुट्स के फूल’ प्रह्लादचंद्र दास, ‘द्रोणाचार्य एक नहीं’ – कावेरी, ‘हैरी कब आयेगा’ – सूरजपाल चैहान, ‘सलाम’ ओम प्रकाश वाल्मीकि के अतिरिक्त जिन कथाकारों के कथा संग्रह आने का उल्लेख है, उनमें ‘अपना मकान’, ‘पुनर्वास’ – विपिन बिहारी, ‘सत्य का सफरनामा’ – जियालाल आर्य, ‘चंद्रमौलि का रक्तबीज और सायरन’ सत्यप्रकाश, ‘तीन महाप्राणी – बुद्धशरण हंस आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।

कहानियों में व्यक्त दलित चिंतन

‘हैरी कब आयेगा’ का प्रकाशन सन 1999 में और नया ब्राह्मण का प्रकाशन सन 2009 में हुआ। समस्त समाज के लोगों ने इन संग्रहों का स्वागत भी किया और खूब पढ़ा भी है। ‘हैरी कब आयेगा’ कहानी संग्रह के प्रथम संस्करण, 1999 के ‘पाठकीय दृष्टिकोण’ शीर्षक में लेखक के साहित्यिक मित्र प्रमोद सिंह ने अपने विचार प्रकट करते हुए लिखा था

‘‘आवश्यकता है इस कहानी संग्रह को सामान्य दलित तक पहुँचाने की, तभी इसकी सार्थकता और लेखक का परिश्रम सफल होगा, अन्यथा जिस प्रयोजन से इस कृति का सृजन हुआ है, उसकी उपयोगिता धूमिल हो जाएगी………।’’

यही कारण है कि इस कहानी संग्रह का दूसरा संस्करण इतनी शीघ्रता (2003) से प्रकाशित हुआ।

‘नया ब्राह्मण’ कहानी संग्रह में ऐसी कई कहानियाँ हैं, जिनमें दलित समाज की कमजोरियों और अंतर्विरोधों की आलोचना की गई है।

1. सवर्ण समाज में छुआछूत की भावना एवं जातिवादी दंभ

सूरजपाल चैहान दलित कथाकारों में अग्रगण्य हैं जिनमें दलित चेतना की धारदार अभिव्यक्ति हुई है। उनकी कहानियां भारतीय समाज और विशेषकर हिंदू धर्म और समाज में व्याप्त ऊँच-नीच की भावना तथा जाति आधारित घृणा – हिंसा आदि को बेनकाब करनेवाली कहानियाँ हैं। उन्होंने अपने जीवन की घटनाओं एवं अनुभवों के माध्यम से समाज की निचली ऊपरी परतों में व्याप्त असलियत को उघाड़ा है।

वर्णव्यवस्था और पितृसत्ता के दो स्तंभों पर टिके ब्राह्मणवाद ने समाज की तीन चैथाई आबादी के विकास एवं मानवीय पहचान के लिए संकट पैदा किया है। जातिवाद ने हिंदू समाज से मानवीयता को छोड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इसके फलस्वरूप जिन जातियों को निम्न माना जाता है, उन्हें मानवीय पहचान मिलती ही नहीं, दूसरी ओर ऊँची कही जानेवाली जातियों ने श्रेष्ठता के दंभ से ग्रस्त होकर मानवीयता की हत्या की है। ‘छूत कर दिया’ कहानी में सवर्ण समाज की मानसिकता का पदतिश हुआ है। गाँव के टीकाराम चमार का लड़का बिहारीलाल केन आई. ए. एस हो गया है। गाँव प्रधान लाला गुलाबचंद्र गाँव में हो रही रामलीला में उनसे बड़ी रकम हड़पना चाहता है। सवर्ण समाज दलित समाज के लोगों का अपने स्वार्थ के लिए उपयोग करता है और काम पूरा होते ही उसे अपमानित भी करता है, इस संदर्भ में एक नमूना द्रष्टव्य है ग्राम प्रधान बोला-

‘‘भाईयो, अब मैं बिहारीलाल जी से अनुरोध करता हूँ कि वह भगवान राम का तिलक कर उनसे आशीर्वाद प्राप्त करें।’’

बिहारी ने आरती का थाल उसके मुंह के सम्मुख घुमाकर उसकी आरती उतारी और थाली से रोली लेकर राम बने पात्र को तिलक करने के लिए अपना हाथ बढ़ाया कि तभी राम बना पात्र पीछे की ओर हटकर चिल्लाया –

‘‘अरे चमार के, क्या छूत करेगा?’’ दलितों ने ग्राम प्रधान को धिक्कारते हुए कहा- ‘‘क्यों ग्रामप्रधान, तुम्हें या रामलीला कमेटी के सदस्यों को बिहारीजी से रुपया लेते लाज न आई ? रुपया भी तो बिहारी ने अपनी जेब से निकालकर अपने हाथों से ही दिया था, तब तुम्हें छूत नहीं लगी?’’

इसके साथ-साथ ‘घमंड जाति’ का कहानी का संवाद मौजूद है। ‘‘अरे, चुप नालायक, एक तो भंगियों के बालक के संग खेलकर अपने आप कूं अपवित्र कर लीनौ और फिर पूछत है कि पानी के छींटे क्यों डारि रहे हो?’’- ठाकुर प्रताप ने वीर के मुंह पर एक थप्पड़ लगाते हुए कहा था।

इस प्रकार तथाकथित निम्न जाति का व्यक्ति शूद्र को नीच समझे और कथित उच्च जाति का व्यक्ति अपने को श्रेष्ठ समझे इसके लिए बचपन से ही सिखाया जाता है। बच्चों पर सामाजिक कायदों- बंधनों का उतना गहरा प्रभाव नहीं होता है, इसलिए उनका व्यवहार सहज एवं स्वाभाविक होता है।

यह सब देखने के बाद ऐसा लगता है कि सबसे पहले ब्राहमणत्व को नाश करने की आवश्यकता है। यह ब्राह्मणत्व हिंदू समाज में एक आपत्ति की चीज है। यह अच्छी दिलग्गी की बात है कि मूर्ख, पाखंडी, बदमाश, लुच्चे, लंपटी और कलंकी चाहे कैसा भी आदमी हो, लेकिन वह ब्राह्मण वंश में पैदा हुआ है तो वह अपने को सारे मनुष्यों से श्रेष्ठ मानता है और दलित जाति के पुरुष में सभी प्रकार के उत्तम गुण मौजूद हों, किसी भी हालत में अपने से श्रेष्ठ समझने से इंकार करता है। गैर-दलित समाज अपनी झूठी वाहवाही में बिना सोचे-समझे आज तक दलित समाज के महापुरूषों को कुंवारी ब्राह्मणियों से उत्पन्न होना बताते आए हैं। संत कबीर का उदाहरण सबके सम्मुख है। कितनी बेहूदी बात है कि एक ओर जानवरों की पूजा करना और दूसरी ओर सुजाक की बीमारी हो जाने पर उनके साथ संभोग करना। बी. एस. शर्मा एवं संजीव एक दूसरे के समर्थन में बताते हैं कि ये सारी जानकारी उन्हें विरासत में मिली है। इस प्रकार इन मित्रों की चर्चा से गैर-दलित समाज की विरोधाभासी कहावतों, मान्तयाओं के साथ-साथ उनकी पोल खोलने का काम किया है लेखक ने।

2. धर्म के नाम पर

प्रत्येक मानव समूह में जीवन के धार्मिक और व्यावहारिक दो रूप दिखते हैं। कोई भी समाज चाहे वह प्रगतिशील हो या पिछड़ा हुआ, विश्व में ऐसा कोई नहीं है जिसके मूल में धर्म न हो। जीवन के धार्मिक रूप अलौकिक तथा श्रद्धा पर आधारित होते हैं। ऐसी श्रद्धा से जो आचरण किए जाते हैं, उनमें रहस्यमय अलौकिक शक्ति, जादू की सामर्थ्य, पाप-पुण्य, भूत-प्रेत, राक्षस, पितर, गंधर्व, यक्ष, देवता आदि की कल्पना रहती है और उसका संबंध स्वर्ग, मोक्ष, परमार्थ और अध्यात्म मार्ग से होता है। धार्मिक जीवन व्यावहारिक जीवन से मिला जुला होता है। खेत जोतना, समय पर बीज डालना, गर्भाधान, पशु और शिशु पालन आदि बिल्कुल सांसारिक कार्य हैं, परंतु जब जल बरसाने के लिए, अतिवृष्टि और अनावृष्टि टालने के लिए जो चमत्कारी धर्मविधियां की जाती हैं, वे श्रद्धा, अंधविश्श्वास पर आधारित होती हैं।

अंधविश्वास धर्म की जान है, उस धर्म की जो पाखंड की भित्ति पर टिका है और जिसे आज लोग धर्म मानते हैं। इसी अंधविश्वास पर लोगों ने अत्यंत भयानक कार्य किए हैं। अंधविश्वास का दास कभी सत्य के तत्व को खोज ही नहीं सकता। यह बात आम तौर पर प्रसिद्ध है कि धर्म के काम में अक्ल की दखल नहीं है। अंध विश्वास के कारण धर्म नीति से फिसलकर रीति पर आ गिरा है, अब रूढ़ियों का दास है। कुसंस्कार अंधविश्वास का पुत्र है। जो अंधविशसी है उसमें कुसंस्कार की भावना भी है ही। अंधविश्वास और कुसंस्कारों ने ही करोड़ों हिंदुओं को मूर्तिपूजा के कुकर्म में फांस रखा है। पढ़ लिखकर भी, समझदार होकर भी वे उससे विमुख नहीं हो सकते। सूरजपाल चैहान रचित ‘हैरी कब आएगा’ कहानी संग्रह में ‘प्राण प्रतिष्ठा’ कहानी का सार पुजारी द्वारा धीमे स्वर में कही गई बात ‘‘उस मूर्ति को हम लोग दूध, गंगाजल आदि से इसलिए धोकर पवित्र करते हैं कि भगवान की उस मूर्ति को बनाने वाले अछूत व नीच जाति के लोग होते हैं। इसलिए उस मूर्ति को दूध और गंगाजल से धोकर पवित्र किया जाता है।’’ किस प्रकार प्राण प्रतिष्ठा के नाम पर धर्म के ठेकेदारों द्वारा लोगों को मूर्ख बनाया जा रहा है। तुम हो किस जाति से? यह प्रश्न सुनकर भारत का हरेक दलित आहत हो जाता है। दूसरी ओर आज चीख-चीख कर कहा जा रहा है कि कहाँ है देश में छुआछूत व ऊँच-नीच की भावना। तीर्थ, मंदिरयात्रा, अर्द्धकुंभी मेला आदि पाखंड है, इससे बचो यही संदेश इस कहानी से मिलता है।

आदि – अनादिकाल से ब्राह्मण या सवर्ण समाज ऐसा मानता आ रहा है कि पढ़ने-लिखने पर सिर्फ हमारा अधिकार है। उनकी सोच में कोई खास बदलाव नहीं आया है। दलित समाज शिक्षित होकर प्रगति करे यह उन्हें मंजूर नहीं है। ‘अपना अपना धर्म कहानी में लेखक ने सवर्ण समाज की पारंपरिक सोच का पदतिश किया है। दलितों को उस समय यह ज्ञान नहीं था कि जब दुश्मन प्यार दिखाए और मृदु भाषा का प्रयोग करे तो समझना चाहिए कि दुश्मन बहुत बड़ा अहित करने वाला है-

सवर्ण समाज अपने स्वार्थों को सिद्ध करने के लिए कैसे-कैसे मनगढ़ंत धर्म और भगवान का भी उपयोग करता है इसका यह साक्ष्य है। ऐसा भी कहा जा सकता है कि यह तो एक नमूना है, किंतु हमारे देश में हर जगह ही शायद ऐसा ही चलता होगा। भारतीय जनता भी भगवान के नाम पर बिना सोचे-समझे मूर्ख बनती रहती है और लोग मूर्ख बनाते रहते हैं। इस प्रकार दलित अधिकार चेतना और माध्यम के बीच ही ढूंढ़ है, क्योंकि माध्यम प्रभु वर्ग के हाथ में है। यहां माध्यम कभी आक्रामक हो जाता है तो कभी संवेदनहीन मशीन में बदल जाता है।

3. हिन्दू मानसिकता

शताब्दियों से सिर पर मैला ढोने, रास्तों की सफाई करने, गंदी नालियां धोने, मरे पशुओं की खाल उतारने, घृणास्पद जिंदगी जीने को बाध्य, रात दिन मेहनत करके भी सूखी रोटी के लिए बिलबिलाते, जूठन पर पलते, प्यास से तड़पते, मैला पानी पीते, छू जाने पर कठोर दंड के भागी बनते इस भंगी समाज को हिंदुत्ववादी मानसिकता और धर्म सम्मत वर्ण व्यवस्था ने जीते जी ही मुर्दा बना दिया। पूरे विश्व में जाति, वर्ण आधारित अमानुषिक अत्याचार और शोषण की ऐसी व्यवस्था नहीं मिलती जैसी कि भारत में मौजूद है। हिंदू धर्म के सामाजिक सांस्कृतिक व्यवस्था के नियामकों ने अनेक धार्मिक और ईश्वरीय ग्रंथों को प्रस्तुत कर शूद्र वर्ग को नीच, अधम और सवर्णों को श्रेष्ठ और पूज्य बना दिया। ‘मनुस्मृति’ में उद्घोषित किया गया है-

‘‘ब्राह्मणोस्थ मुखमासीद् बाहु राजन्यः कृतः

उरुतदस्थ यद् वैश्यः पदाभ्याम् शूद्रो अजायत्।’’

उस विराट सत्ता के मुख से ब्राह्मण की उत्पत्ति हुई, भुजाओं से क्षत्रिय, जांघ से वैश्य और पैरों से शूद्र उत्पन्न हुआ।

इस प्रकार हिंदुत्ववादी, मनुवादी संस्कारों ने नीचले तबके पर खड़े अछूतों को घृणास्पद और हेय बताकर गैर दलितों को हिकारत भरी दृष्टि झेलते हुए दुत्कार और अभावों से भरी अंधेरी दुनिया में धकेल दिया। इस निकृष्ट आचार संहिता वाली संस्कृति के अपरिवर्तनीय विधान के तहत जन्मना शूद्र बना व्यक्ति उच्च वर्णों द्वारा प्रदत्त अपनी बदबूदार सड़ी-गली जिंदगी को सिर झुकाकर बिना किसी हील हुज्जत जीने को मजबूर कर दिया गया। पाप-पुण्य, नसीब, पुनर्जन्म, कर्मफल आदि धर्मसम्मत बातों की प्रशंसा कर दलित जातियों के भीतर यह बात भली प्रकार बैठा दी गई कि वे अपनी त्रासद और नारकीय जीवन के लिए स्वयं जिम्मेवार हैं। उनकी नीची जाति में पैदा होना उनके पूर्वजन्म के पापकर्मों का परिणाम है। अपने इस प्रारब्ध से उनकी मुक्ति तभी संभव है जब वे मूक बने उच्च वर्णों के प्रति अपने ‘सेवाधर्म’ का निर्वहन करते रहें। थोपी गई वह मनुवादी वैचारिकी इस कदर उनके मनोविज्ञान का सहज अंग बन गई कि वे भय और अपराध बोध से घिर गए और सवर्णों के लात-घूसे और घृणित कर्म करने को अपना धर्म मानने लगे। सूरजपाल रचित ‘हैरी कब आएगा’, ‘नया ब्राह्मण’ कहानी संग्रह में ऐसी कई कहानियां संग्रहीत हैं जो हिंदू मानसिकता को उजागर करती हैं।

‘साजिश’ कहानी में बैंक मैनेजर राम सहाय ने नत्थू को समझाते हुए कहा- ‘‘ट्रांसपोर्ट के काम में कई प्रकार के लफ्ड़े हैं, फिर तुझे इस काम का अनुभव भी नहीं है। यह काम तो बड़े-बड़े व्यापारियों का है।’’

‘‘तो फिर साहब आप ही बताएं कि मैं क्या करूं?’’ नत्थू अनिर्णित था। पढ़ा लिखा नत्थू उस बैंक मैनेजर की साजिश को समझ न पाया। वह तो मन ही मन खुश था कि बैंक मैनेजर कितने भले आदमी हैं। किंतु बैंक मैनेजर शर्मा और हेड क्लर्क सतीश भारद्वाज दोनों अपनी सफलता पर खुश थे और ठहाका लगाते हुए चर्चा कर रहे थे-

‘‘भविष्य में ध्यान रखना कि कोई भी अछूत वर्ग का युवा अपना धंधा शुरु करने के लिए बैंक से कर्जा लेने के लिए प्रार्थना पत्र भरकर दे, तो उसे उसके पैतृक धंधे में ही लगाने के लिए प्रेरित करना है। उसे ऐसा विश्वास दिलाओ कि वह अपना पैतृक धंधा छोड़कर दूसरे धंधे की कल्पना भी न करे।’’

इस प्रकार ‘साजिश’ कहानी में लेखक ने हिंदू मानसिकता की साजिश का पर्दाफाश किया है जो दलितों को असम्मानजनक पैतृक पेशों में फंसाये रखना चाहते हैं, चाहे वे उच्च शिक्षा प्राप्त क्यों न हों? ‘साजिश’ का नत्थू सवर्ण बैंक मैनेजर राम सहाय द्वारा बार-बार पिगरी फार्म के लाभ बताकर पिगरी फार्म खोलने की सलाह दिए जाने के बावजूद पिगरी फार्म की बजाय ट्रांसपोर्ट के लिए लोन प्राप्त करता है। अब दलितों की अपनी सोच बनी है, वे अब गुमराह नहीं होंगे। ‘‘आदेश, उपदेश का धंधा बहुत हो चुका, अब यह सब बंद करो’’- की ललकार साथ ही ‘दलित अब सोते से जाग रहे हैं’ – तथ्य को उजागर कर रही है।

‘पांचवीं कन्या’ कहानी में हिंदुओं की वाणी और व्यवहार में भेद को लेखक ने बड़ी सफलता से प्रस्तुत किया है। उपर से छुआछूत न होने की बात करने वाले लोग किस प्रकार आकंठ जातिवादी हैं। पांचवीं कन्या के साथ किस प्रकार श्रीमती मिश्रा ने स्नेह जताया और जैसे ही उसे उसकी जाति का पता चला, 440 वोल्ट के करेंट का झटका खा गई। यह एक श्रीमती मिश्रा की ही बात नहीं, संपूर्ण हिंदू मानसिकता का ही परिचायक है। छुआछूत एवं उंच-नीच के कट्टर समर्थक को बताना ही इस कहानी का उद्देश्य है।

प्रशासन भी किस प्रकार सवर्ण महिलाओं को मदद करता है- यह भी स्पष्ट हो जाता है। सवर्ण समाज आज भी यह समझता रहा है कि गरीबों की, दलितों की कोई इज्जत नहीं होती, कोई स्वाभिमान नहीं होता, किंतु यह बात सरासर गलत है। अगर ऐसा भी होता तो चंपा बंसल साहब का विरोध नहीं करती और यह स्थिति उसे नहीं देखनी पड़ती। इस प्रकार सवर्ण समाज और साहित्यकारों को नये सिरे से सोचने की आवश्यकता है, तब जाकर उनकी आंखें खुल सकती हैं।

4. व्यवस्था विरुद्ध विद्रोह एवं अस्मिता रक्षा के लिए जागरूक दलित समाज

डॉ. बाबा साहेब अंबेडकर ने मंत्र दिया शिक्षा, संगठन और संघर्ष का। उन्होंने स्वतंत्रता, समता और भाईचारा की मूल्याधारित संस्कृति दी। ‘अपना दीपक खुद बनो’ के लिए आह्वान किया। उन्होंने बताया कि दलितों की दुरावस्था के लिए पुनर्जन्म, भाग्यवाद, दैववाद, नियतिवाद अथवा पिछले जन्म के कर्म जिम्मेवार नहीं हैं यह तो एक साजिश है, क्योंकि दलितत्व की स्थितियाँ मानव निर्मित हैं। इसका जन्म दाता ब्राह्मणवाद है। बाबा साहब ने स्वसम्मान, स्वाभिमान और संचेतना का जागरण किया। सबसे बड़ी बात जो उन्होंने कही कि – ‘‘गुलाम को गुलामी का एहसास करा दो तो वह स्वयं विद्रोह करेगा।’’ ये अंबेडकर ही थे जिन्होंने पहली बार दलितों को मनुष्य होने की गरिमा का एहसास कराया।

दलित साहित्य लेखन पूरी प्रौढ़ता के साथ गति पकड़ता जा रहा है। दलित पात्रों की व्यवस्था के साथ लड़ाई, अन्याय के प्रति आकोश और विद्रोह हीनबोध से मुक्ति और स्वाभिमान के साथ जीने की ललक का जो स्वाभाविक, मनोवैज्ञानिक, सर्वथा विश्वसनीय चित्रण दलित लेखन में मिलता है, वह दलितेतर लेखन में गायब है। गैर दलित लेखन में दलित पात्र मात्र दया का पात्र या नपुंसक विद्रोह का वाहक नजर आता है। किसी पात्र में इतनी आग नहीं कि वह अमानवीय व्यवस्था के विरुद्ध ताल ठोंककर और तनकर खड़ा हो जाए। इस बात का ठोस प्रमाण उपस्थित करती है सूरजपाल चैहान रचित ‘परिवर्तन की बात’, ‘टिल्लू का पोता’, ‘अंगूरी’ आदि कहानियां। ये काहानियां जहां एक ओर दलित स्वाभिमान, आहत हृदय की कचोट, सामाजिक अपमान व अन्याय से पार पाने की तड़प और प्रगतिशील चिंतन का लिखित दस्तावेज हैं, वहीं दलित साहित्य ही नहीं, संपूर्ण हिन्दी साहित्य की उच्चतम कोटि की कहानियों में शीर्ष स्थान पाने की अधिकारिणी हैं। बस, सहृदयता से अवलोकन करने की आवश्यकता है।

‘परिवर्तन की बात’ कहानी में जहाँ एक ओर दलित उत्पीड़न के प्रचलित सभी उपायों को उजागर किया गया है, जैसे नाम बिगाड़कर पुकारना, चारपाई पर बैठना जैसे कोई अपराध हो, बेगार वह भी गंदे काम कराने में जोर-जबर्दश्ती, जाति के साथ गाली का प्रयोग, अत्याचार, बेगारी कराने के लिए प्रशासन की सहायता आदि का बखूबी चित्रांकन किया गया है। वहीं दूसरी ओर दलितों द्वारा बेगार करने को दृढ़ता से मना करना और व्यवस्था विरुद्ध विद्रोह और मरने-मारने को तैयार रहना, प्रशासन के आततायी के समर्थन में आने पर भी बेगार न करने के निर्णय पर अडिग रहना और बाद में सवर्णो द्वारा सामाजिक बहिष्कार का हथियार चलाने के दृश्य बड़े सफल ढंग से रेखांकित किए गए हैं। कहानी में नायक किशना और उसके सहयोगियों के माध्यम से समाज में आई जागृति को दर्शाया गया है और प्रशासन किस प्रकार दलित विरोधी है, उसकी भी पोल खोलकर लेखक ने यथार्थ का चित्रण किया है।

5. लेखक की आलोचनात्मक दृष्टि

आत्म आलोचक कथाकार सूरजपाल चैहान हिन्दी दलित साहित्य के बड़े चर्चित लेखक हैं। वैसे तो कई दलित लेखकों ने ऐसी रचनाएं लिखी हैं, जिन्हें लिखना एक गैरदलित के लिए मुमकिन नहीं, लेकिन वह क्या चीज है कि जिसे हिंदी के बाकी दलित रचनाकारों की तुलना में सूरजपाल की अपनी विशेषता कही जा सकती है? सूरजपाल उस बात को भी बेधड़क कह जाते हैं, जिसे दूसरे दलित रचनाकार नहीं कह पाते अथवा कहना नहीं चाहते। उनका नया कहानी संग्रह ‘नया ब्राह्मण’ इस बात का प्रमाण है। कौन सी बात है इस संग्रह में जो दूसरे दलित कहानीकारों में नहीं मिलती है? अपनी ही जाति समुदाय और समाज के प्रति एक तीखी आलोचनात्मक दृष्टि सूरजपाल को दूसरे दलित कहानीकारों से अलग करती है। इस संग्रह में एक नहीं, ऐसी कई कहानियाँ हैं, जिनमें दलित समाज के अंदर की, खासकर वाल्मीकि और जाटव जाति के अंदर की कमजोरियों, कमियों और अंतर्विरोधों की आलोचना की गई है। इस आलोचना के पीछे अपनी जाति और समाज की कमजोरियों और बुराइयों को दूर करके उनमें एक नई जागृति, एक नई क्रांतिकारी चेतना लाने का दृष्टिकोण झलकता है।

इस संग्रह की ‘बहुरूपिया’ कहानी से न सिर्फ वाल्मीकि और जाटों के बीच के जातिभेद का पता चलता है, बल्कि दलितों के नाम पर काम कर रही सरकारी अनुदान प्राप्त संस्थाओं के चरित्र का भी पता चलता है। कहानी में लेखक खुद एक पात्र है जो वाल्मीकि समाज के अंदर अंबेडकर की शिक्षाओं का प्रचार करना चाहता है तो उसकी जाति के अंदर से ही उसका विरोध होता है-’’तू किसी चमार का दीखै, तभी इतनी देर सू चमार राग अलापे जा रहो है, अरे महा मूरख, हमारे गुरु तो भगवान महर्षि वाल्मिकी स्वामी हैं, हमें अंबेडकर से का लेनो-देनो, बंद कर अपनी यूं बकवास।’’

समाज के अंदर वाल्मीकि की जयंती मनाने वाले लोग बजरंग दल और विश्व हिंदूपरिषद के नेताओं की भीड़ इकट्ठा करते हैं। वे लव-कुश को धनुर्विद्या सिखाते, महर्षि वाल्मीकि का कैलेंडर छपाते और स्मारिका में दलित साहित्य के नाम पर डॉ. हेडगेवार और हिंदू धर्म संबंधी लेख छपाते हैं। उसमें अंबेडकर की शिक्षाओं पर कोई लेख नहीं छपाया जाता। इसका विरोध करने पर वाल्मीकि समाज का नेता लेखक को जवाब देता है-

‘‘मैं प्रत्येक वर्ष वाल्मीकि जयंती मनाने व स्मारिका प्रकाशित कराने के कार्य में पच्चीस-तीस हजार रुपए विभिन्न सरकारी, गैर-सरकारी संस्थाओं से कमा लेता हूं…….आप बताएं कि पूरे वर्ष लेखन कार्य में जुटे रहने पर कितना कमा लेते हैं?’’ ऐसा सिर्फ वाल्मीकि समाज में ही नहीं, दूसरी दलित जातियों में भी होता है। दलित जातियों के नाम पर बनी सरकारी- अर्द्धसरकारी संस्थाओं पर भ्रष्टाचारियों ने अपना कब्जा जमा रखा है जो इन संस्थाओं के नाम पर सरकारी अनुदान हड़पने का धंधा करते हैं और बी जे पी के नेतृत्व में बनी सरकार अब उन्हें अंबेडकर की विचारधारा के बजाय हिंदुत्व की विचारधारा फैलाने का माध्यम बनाती है। कितने दलित लेखक हैं जो दलितों के नाम पर चल रही संस्थाओं और होने वाले कार्य-कलापों का ऐसा पर्दाफाश करते हैं? सूरजपाल अपने समाज के अंदर की बुराइयों पर उंगली रखने का साहस दिखाते हैं और दलितों के नाम पर भ्रष्ट राजनीति करने वाले तत्वों के खिलाफ अपनी आवाज उठाते हैं।

इस नई चेतना की बात तो और दलित लेखक भी करते हैं। लेकिन इतनी ही बड़ी सच्चाई यह भी है कि स्वयं दलित जातियों के अंदर इस नई चेतना का विरोध भी कम व्यापक नहीं रहा है। इस विरोध की दलित लेखक अनदेखी कर जाते हैं और इस तरह वे सत्य का अधूरा साक्षात्कार करते हैं। सूरजपाल उस विरोध को देखते और दिखाते हैं। लेखक की सारी सहानुभूति अकेली और विवश लड़की के प्रतिरोध के साथ है जो शिक्षा के बल पर सदियों से चली आ रही इन जातिगत पेशों के खिलाफ संघर्ष करना चाहती है, किंतु जातियाँ भी वैसी ही परंपरावादी हैं जैसे उनका दलन करने वाली सवर्ण जातियाँ। उस अकेली लड़की को उसका भंगी समाज पारंपरिक पेशे में ढलने के लिए मजबूर कर देता है। इसके बावजूद लड़की का प्रतिरोध खत्म नहीं होता हालांकि वह अपना रूप बदल देता है। सामाजिक रूप से सफल नहीं होने पर वह प्रतिरोध कैसे मनोवैज्ञानिक धरातल पर प्रकट होने लगता है, इसकी पहचान करने वाली मर्मभेदी दृष्टि सूरजपाल के पास है जो उनकी कहानियों में स्पष्ट दिखती है।

6. दलित समाज की अज्ञानता और पारंपरिक सोच

देश की स्वतंत्रता के कितने वर्ष बीत गए हैं? डा. बाबा साहब अंबेडकर द्वारा निर्मित समतावादी संविधान लागू हुए कितने वर्ष बीत गए हैं, फिभी वह कौम आज भी वहीं है जहाँ पहले थी। वे कौन-सी अदृश्य बेड़ियाँ हैं जो इस दलित समाज के तन और मन को जकड़े हुई हैं- उन्हें मुक्त होने को रोकती हैं उन्हें प्रगति, परिवर्तन की राह पर चलने में बाधा डालती हैं। बेड़ियां कई प्रकार की हैं- सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, शैक्षणिक, राजनैतिक एवं नैतिक। हर क्षेत्र में दलित समाज को इतना भ्रमित और कुंठित करने का प्रयास किया जाता रहा है- आज भी किया जार हा है, जिसके कारण न तो वह समाज अपना भूतकाल देखता है, न वर्तमान और नहीं अपने आने वाले पीढ़ियों का भविष्य। इन लोगों को सामाजिक स्तर पर निम्न बने रहने में ही गौरव की अनुभूतियों का पाठ पढ़ाया जाता रहा है और इसका यह परिणाम है कि दलित समाज में कुछ पढ़े-लिखे लोग भी परंपरा में जी रहे हैं। वे उन पारंपरिक बेड़ियों को तोड़ना नहीं चाहते हैं, या उनमें नैतिक हिम्मत का अभाव है। कभी-कभी तो अपनी ही बिरादरी के द्वारा अपने जाति समुदाय के लोगों को गुमराह करके प्रगति की बजाय अवनति की ओर धकेलने का काम किया जाता है। नैतिक स्तर पर उन्हें नैतिक आदर्शों की शिक्षा इस तरह दी जाती है कि वे अपनी दुर्गति में ही खुश रहें और अपनी स्थिति को अपना भाग्य समझें ताकि वे अपने इस घृणित पेशे को अपना ही नहीं, मानव धर्म मानकर उसे लगनपूर्वक करते रहें- ऐसा हो भी रहा है। नैतिक आदर्शों के नाम पर इन्हें इतना अंधा- गूंगा, बहरा, तर्कहीन और विवेकहीन बना दिया गया है कि वे अपनी सही स्थिति पर कभी विचार ही नहीं करते।

इस संदर्भ में ध्यातव्य है कि आज तक सफाई कर्मियों की मनोदशा को समझने का प्रयास सशक्त रूप से नहीं किया गया है। अन्य समाज के बच्चों का रास्ता स्कूल की ओर जाता है, उन उपेक्षित बच्चों का रास्ता लोगों के घर के किसी पाखाने की ओर जाता है। उनके हाथ में कलम नहीं होती, होता है हाथों में लोहे का खपटा, तसला व झाडू। लोग यह गंदा काम मजबूरी वश तो करते ही हैं, लेकिन इससे कहीं ज्यादा बड़ा कारण है कि जातिगत सामाजिक व्यवस्था, परंपरागत व पुश्तैनी कार्य की लीक पर चलने की मानसिकता। इस मानसिकता ने अब ठेकेदारी का रूप ले लिया है। ‘अम्म्मा’ कहानी का एक उदाहरण यहाँ द्रष्टव्य है-

‘‘पिता साल भर बाद घर आए। जब उन्हें ज्ञात हुआ कि मैंने स्कूल जाना छोड़ दिया है तो वह अम्मा पर बहुत बिगड़े। अम्मा ने पिता को सफाई देते और मेरा पक्ष लेते हुए कहा कि छोरा सारे दिन गाय-भैंस, भेड़-बकरियों की देखभाल करता है और घर के छोटे-मोटे काम भी करता है।’’

इस प्रकार अनपढ़ दलित महिलाओं की मानसिकता का परिचय मिलता है, साथ ही साथ पिता जैसे व्यक्तित्व से पुत्र के भविष्य की चिंता करते हुए दिखाते हैं। ‘बस्ती के लोग’ कहानी में लेखक ने लिखा है कि बिरज किशोर जैसे पढ़े-लोग भी किस प्रकार परंपरावादी हैं, इसका एक उदाहरण ‘‘बस्ती में रहकर लोगों की बात माननी ही होगी, तूने इनकी बात न मानकर रार मोल ले ली है, तू तो नोएडा में रहने लगा है, इनके साथ बस्ती में तो मुझे ही रहना है।’’

बिरज किशोर के कथन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि दलित समाज के पढ़े-लिखे लोग भी जाति-बिरादरी के लोग किस प्रकार विवशतावश हार मान लेते हैं। यह सब ढकोसला है – यह सब जानते हुए भी वे पाखंड का शिकार होते हैं। दलित समाज में ऐसे एक नहीं, अनेक बिरज किशोर मौजूद हैं जो सच्चाई को सामने लाने से भयभीत रहते हैं। जिसमे नैतिक हिम्मत का अभाव ही कहा जा सकता है। किंतु ऐसी कुप्रथाओं का पढ़ा-लिखा वर्ग विरोध नहीं करेगा, तो कौन करेगा? यह ज्वलंत प्रश्न आज भी हमारे सामने मौजूद है।

‘कारज’ आदि कहानियों में भी इस प्रकार के कई उदाहरण मौजूद हैं कि दलित समाज में जात-बिरादरी के लोग किसी न किसी प्रकार अपने भाई-भतीजे को दबाकर रखना चाहते हैं। वे अपने ही लोगों की प्रगति देख नहीं पाते, क्योंकि उनकी आंखों पर तो अज्ञानता का पर्दा पड़ा हुआ है।

7. उच्च, सामर्थ्यवान दलितों की मनोदशा का चित्रण

उच्च पदासीन, सुशिक्षित, समृद्धशाली और सामर्थ्यवान दलितों की मनोदशा का चित्रण ‘घाटे का सौदा’ कहानी में किया गया है। जो दलित पढ़-लिखकर अपनी जाति को छुपाकर रहते हैं, उनकी अलगाववादी प्रवृत्ति पर तीखा प्रहार है। समाज के प्रति उदासीन और अपने युगपुरुष बाबा साहब अंबेडकर के प्रति कृतघ्नता के लिए उन्हें लताड़ा भी गया है। बहुत से शिक्षित दलित सामर्थ्यवान होते हुए भी जाति खुलने के भय से कितने भयभीत हैं। हां, जब जाति खुल जाती है तब वे दलित समाज में उपहास के पात्र बन जाते हैं। वैसी स्थिति में न वे घर के रह जाते हैं, न घाट के ऊंचे-ऊंचे पदों पर बैठे ऐसे व्यक्तियों को दंभ आ जाता है या उन्हें समाज की दुर्दशा दिखाई ही नहीं पड़ती या जान-बूझकर वे जानी अनजानी करते हैं। ऐसे व्यक्ति समाज के किसी काम के नहीं, बल्कि वे तो समाज के नाम पर कलंक हैं। ऐसे व्यक्ति अपने गैर-दलित पड़ोसियों की देखा-देखी अंधविश्वास और पाखंड से सराबोर हैं। वे बनने के चक्कर में अपने-अपने घरों में अखंड पाठ, हवन जैसे उन्मादी आयोजनों में धन और समय व्यर्थ नष्ट करते हैं। प्रस्तुत कहानी का पात्र डोरी लाल (डी लाल) हमारे समाज में एक नही अनेक है। एक नहीं, हजारों-लाखों की संख्या में मौजूद हैं। ऐसे डी. लालों की दुर्गात एक न एक दिन होकर ही रहती है। इस कहानी का प्रत्येक पाठक गण अपने-अपने नजरिये से अपने आस-पास में ही डी लालों को खोज सकते हैं, जिसकी हमारे देश में कमी नहीं है।

लेखक यह संकेत करना चाहते हैं कि जो दलित शिक्षा, संपत्ति में आगे बढ़ जाते हैं, उन्हें अपने समाज और समुदाय को भूलना नहीं चाहिए। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि जिन हवन, पूजा जैसे अंधविश्वासों से अपने समुदाय को मुक्त करना है किंतु वे शिक्षित लोग भी उसी में क्यों फंस जाते हैं? एक तरह से वे पुरोहिती प्रथा को फिर से जिंदा करना चाहते हैं जिनका दलित साहित्य विरोध करता है। उनसे दलित वर्ग का क्या भला होगा यह एक प्रश्न है जिसे सूरजपाल चैहान उठाते हैं।

इस संदर्भ में एक ‘भद्दा मजाक’ कहानी की चर्चा करना उचित होगा। वकील साहिबा भावना ने अपनी जान पहचान वालों से अपनी इसाई होने की ही बात कही थी और नाम भी मेरी थोमस बताया था। विनय अपना माथा पीटते हुए सोच रहा था कि यह अकेली भावना की ही समस्या नहीं है। आज से दस-पंद्रह वर्ष पहले सभी पढ़े-लिखे दलित समाज के लोग अपनी जाति छिपाकर रहने में अपनी शान समझते थे। उनमें इतना आत्मसम्मान न था कि वे सच्चाई का सामना कर सकें। आज भी बहुत से पढ़े-लिखे दलित अपनी जाति छिपाने से बाज नहीं आते। जाने अनजाने वे आज भी दूसरों का धर्म ढोने में अपनी शान समझते हैं। अन्य महिलाओं की तरह भावना के साथ भी हादसा हुआ है। पंडित प्रदीप कौशिक जी ने उसके साथ प्यार का झूठा खेल खेला हो और बाद में उसे ठेंगा दिखा दिया हो।

शायद हो सकता है कि भावना फिर से गैर दलित बहुरूपिए की शिकार हुई हो। या ऐसा भी हो सकता है कि भावना पंडित प्रदीप कौशिक का बदला विनय से ले रही हो। किंतु इतना निश्चित है कि दलित महिलाओं के साथ गैर-दलित समाज के पुरुष प्यार के झूठे खेल खेलने में माहिर हैं यह कोई नई बात नहीं है और ऐसी एक नहीं, अनेक भावनाएं सवर्ण पुरुषों का शिकार होकर अपने जीवनपथ से भटक जाती हैं।

कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि आवश्यकता है इन रचनाओं को सामान्य दलितों तक पहुंचाने की, तभी इसकी सार्थकता और लेखक का परिश्रम सफल होगा, अन्यथा जिस हेतु से इन रचनाओं का सृजन हुआ है, उसकी उपयोगिता धूमिल हो जाएगी।

संदर्भ सूची

  1. तिरस्कृत, सूरजपाल चैहान, पृष्ठ 17, 75, 84
  2. डॉ बाबा साहेब अंबेडकर, डॉ सूर्यनारायण रणसुभे, पृष्ठ 105
  3. सन्तप्त, सूरजपाल चैहान, पृष्ठ 22,
  4. सफाई देवता, ओम प्रकाश वाल्मीकि, पृष्ठ 18
  5. दलित विमर्श रू साहित्य के आईने में, डॉ जयप्रकाश कर्दम, पृष्ठ 88
  6. चांद- अछूत अंक, सम्पादक पण्डित नन्दकिशोर तिवारी, पृष्ठ 8
  7. अंतिम दो दशकों का हिंदी दलित साहित्य, डॉ एन सिंह, पृष्ठ 51
  8. हैरी कब आएगा, सूरजपाल चैहान, पृष्ठ 6, 30, 31, 52, 59
  9. नया ब्राह्मण, सूरजपाल चैहान, पृष्ठ 74, 84, 91, 111, 123
  10. हिंदूवादी सोच और भंगी समाज, रामकली सराफ, पृष्ठ 157
  11. महान दलित क्रांतिकारी योद्धा माताद्दीन भंगी, सूरजपाल चैहान, पृष्ठ 76