परंपरागत हिंदी काव्य में चित्रित दलित समाज और जीवन
डॉ. चैनसिंह मीना
दलित, स्त्री, आदिवासी, किसान, मजदूर, अल्पसंख्यकों आदि के जीवन संघर्ष और उनसे जुड़े विविध मुद्दों पर हिंदी के परंपरागत काव्य में पर्याप्त विचार विमर्श हुआ है। आधुनिक हिंदी काव्य के अंतर्गत युगीन साहित्यिक प्रवृतियों के साथ-साथ सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक, सांस्कृतिक संदर्भों में भी रचनात्मक लेखन किया गया। परंपरागत काव्य में अनेक गैर-दलित कवियों के नाम सामने आते हैं जिन्होंने दलित जीवन और उसकी समस्याओं पर पूरी संवेदना के साथ भाव और विचार व्यक्त किए हैं। यह बात अलग है कि वर्तमान दलित आलोचकों की दृष्टि में इन रचनाकारों का यह चित्रण सहानुभूति और पूर्वग्रहों से युक्त है। ओमप्रकाश वाल्मीकि ने साहित्यिक और आलोचकीय मान्यताओं द्वारा दलित लेखन में अपनी विशिष्ट छाप छोड़ी है। इस संदर्भ में उनका मत है कि “हिंदी के महान कवियों की रचनाओं को सामने रख कर बात की जाये तो निष्कर्ष स्वयं सामने आ जायेंगे। आधुनिक हिंदी साहित्य के शीर्षस्थ कवियों नागार्जुन, त्रिलोचन, शमशेर, केदारनाथ अग्रवाल, मुक्तिबोध की रचनाओं में हजारों साल से इस देश की विकास यात्रा को अवरुद्ध कर देने वाली वर्ण-व्यवस्था और उससे उपजी जाति व्यवस्था का उनकी रचनाओं में कहीं मुखर विरोध सुनायी पड़ता है? इनमें से नागार्जुन की ‘हरिजन गाथा’ या त्रिलोचन की ‘नगई महरा’ जैसी इक्का-दुक्का कविताओं को अपवाद मानकर छोड़ दें तो कहीं भी उनका स्वर पीड़ा के साथ स्वयं को नहीं जोड़ पाता है।”[1] यह परंपरागत हिंदी काव्य और आलोचना का यथार्थ है लेकिन तत्कालीन समय और समाज की परिस्थितियों एवं चुनौतियों के संदर्भ में गैर-दलित कवियों के रचना कर्म को रेखांकित करने का प्रयास तो किया ही जा सकता है। दलित जीवन का चित्रण करने वाले रचनाकारों में भारतेंदु हरिश्चंद्र, अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔद्य’, गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही’, भगवती चरण वर्मा, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, सुभद्रा कुमारी चौहान, नागार्जुन, रामधारी सिंह ‘दिनकर’, शिवमंगल सिंह ‘सुमन’, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, धूमिल, केदारनाथ सिंह, राजेश जोशी इत्यादि नाम उल्लेखनीय हैं। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने बड़ी सहजता से यह स्वीकार किया कि समाज में व्याप्त असमानता या भेदभाव का कारण सत्ताधारी वर्ग की वर्चस्ववादी नीतियाँ ही हैं-
‘अपरस, सोला, छूत रचि
किये तीन तेरह सबै
छौंका चौका लाय
बहुत हमने फैलाए अधर्म
बढ़ाया छुआछूत का कर्म।’
कुछ मुट्ठी भर लोग शासन और सत्ता पर काबिज होकर शोषणकारी नीतियाँ बनाते हैं। उल्लेखनीय है कि ऐसी नीतियों से बहुसंख्यक वर्ग व्यापक स्तर पर आक्रांत होता है। अदम गोंडवी ने आजाद भारत की ऐसी ही अकल्पनीय तस्वीर को अपने शब्दों में व्यक्त किया है- ‘सहमी सहमी हर नजर हर पाँव में जंजीर है/ ये मेरे आजाद हिंदुस्तान की तस्वीर है।’ दलित समुदाय के जीवन से जुड़े बिना उसके कष्टों और बिडंबनाओं को समझ पाना किसी के लिए भी विशेषकर समाज की मुख्यधारा के लिए कठिन और चुनौतीपूर्ण कार्य है। दलित समाज का परिवेश, वातावरण, रहन-सहन, वेषभूषा, खान-पान इत्यादि मुख्यधारा के व्यक्ति के लिए असह्य है। मुख्यधारा निरंतर इस समाज के परिवेश से अपने को दूर रखने का प्रयास करती रही है। गाँव और शहरों की सबसे अंतिम बस्ती में रहने वाले दलित समाज का हर शख्स पग-पग पर किसी-न-किसी समस्या या शोषण से आक्रांत है। उदाहरणस्वरूप अदम गोंडवी की कुछ काव्य पंक्तियों यहाँ दृष्टव्य हैं-
‘आइए महसूस करिए ज़िंदगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको
मैं निमंत्रण दे रहा हूँ- आएँ मेरे गाँव में
तट पे नदियों की घनी अमराइयों की छाँव में
गाँव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही हैं
तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए
बेचती हैं जिस्म कितनी कृष्णा रोटी के लिए।’
मुख्यधारा से सम्बद्ध संवेदना युक्त कवि जानता है कि छूत-अछूत का भाव महज एक भेदभाव पैदा करने की नीति है। वास्तविक तौर पर ऐसा कुछ नहीं होता। किसी व्यक्ति के द्वारा छू लेने मात्र से कोई अछूत कैसे हो सकता है? अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔद्य’ ने छूत-अछूत भावों और प्रसंगों में अपनी कलम चलाई है-
‘हरिऔद्य’ धरमधुरंधर मुदित होत,
मोह मद बिनसे प्रमादीन के मुये ते,
छाये रहे उर मैं अवनि के अछूते-भाव,
बनत अछूत ना अछूत-जन छूये ते।’[2]
राष्ट्रीय काव्यधारा में महत्त्वपूर्ण स्थान रखने वाले कवि मैथिलीशरण गुप्त ने ‘बुद्ध महाभिनिष्क्रमण’ कविता में राष्ट्र के अंतर्गत अछूत जीवन और उसकी त्रासदी को उकेरने का प्रयास किया है- ‘क्यों अछूत है आज अछूत?/ वे हैं हिंदू कुल संभूत/ गाते हैं श्री हरि का नाम/ आते हैं हम सबके काम/ बने विधर्मी वे अनजान/ मुसलमान किंवा क्रिस्तान/ तो हो जाते हैं सुपृश्य?/ हाय देव क्या दारुण दृश्य?’ भूख और लाचारी की मार सबसे अधिक दलित-दमित समाजों को झेलनी पड़ी है। आधुनिक भारत भी इस समस्या से मुक्त नहीं हो सका। रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के काव्य में इस समस्या का व्यापक चित्रण मिलता है-
‘श्वानों को मिलता दूध-वस्त्र, भूखे बालक अकुलाते हैं
माँ की हड्डी से चिपक ठिठुर, जाड़ों की रात बिताते हैं।
युवती के लज्जा वसन बेच जब ब्याज चुकाए जाते हैं
मालिक जब तेल-फुलेलों पर पानी-सा द्रव्य बहाते हैं
पापी महलों का अहंकार देता तब मुझको आमंत्रण।’
प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक दलित समाज की समस्याएँ इतनी विकराल हो चुकी हैं कि कवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ को आहत मन से यह कहना पड़ा- ‘दीन दलितों के क्रंदन बीच/ आज क्या डूब गये भगवान।’ यह कहने में कोई संकोच नहीं कि अछूत समुदाय के श्रम और जीवन संघर्ष पर ही सवर्ण समुदाय सछूत बना हुआ है या कहें कि उसका अस्तित्व कायम है। सवर्ण समुदाय की नजर में बहुत से कार्य घृणित और हेय हैं। उन सब कार्यों में मजबूरन या जबरन दलित समुदाय संलग्न है। गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही’ इस संदर्भ में भाव व्यक्त करते हैं कि दलित समुदाय की गैर मौजूदगी में यह कार्य स्वयं सवर्ण समाज को करना पड़ता-
‘सेवक अगर अछूत न होते
कैसे आप अछूते रहते
किसी तरह तो पूत न होते
सेवक अगर अछूत न होते।’[3]
ऐसा नहीं है कि गौतम बुद्ध, संत कबीर, संत रविदास आदि के विचारों ने केवल दलित-दमित या अस्मिता के लिए संघर्षरत समुदाय के लोगों को ही प्रभावित किया। इनके समस्त विचार या वाणियाँ मानवता के हित में थी। इन व्यक्तित्वों की मान्यताओं ने सवर्ण समुदाय के कवियों और उनके विचारों को भी व्यापक स्तर पर प्रभावित किया। इसी प्रभाव के आलोक में मुख्यधारा के काव्य में भी मानवीय भेदभाव की ऐतिहासिक परंपरा का चित्रण मिलता है-
‘एक ही विधाता के अमृत पुत्र, एक देश
कुछ यों अपूत कुछ पूत कैसे हो गए?
सब की नसों में रक्त एक ही प्रवाहित है
कुछ देवदूत कुछ भूत कैसे हो गये?
बंधु श्री वशिष्ठ, व्यास विदुर, पाराशर के
वाल्मीकि वंशज अछूत कैसे हो गये?’
अछूत होने का भाव उसे ही पीड़ित करता है जिसने अछूतपन की त्रासदी को झेला हो। यह याद रखा जाना चाहिए कि इस पीड़ा को किसी एक व्यक्ति ने नहीं बल्कि भारतीय सामाजिक परिदृश्य में करोड़ों व्यक्तियों ने सहा है। कितनी बड़ी बिडंबना है कि ‘वसुधैवकुटुंबकम’ के दर्शन को लेकर चलने वाले देश में करोड़ों लोगों के प्रति संवेदना व्यक्त करना तो दूर उन्हें छूना तक पाप समझा गया। ऐसी कुंठित मानसिकता और भेदभाव आज भी बदस्तूर जारी है। यह भेदभाव भारतीय सामाजिक संरचना में समरसता की भावना पर प्रश्नचिह्न लगाता है। यहाँ पर भगवती चरण वर्मा की कुछ महत्त्वपूर्ण काव्य पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं-
‘अरे ये इतने कोटि अछूत
तुम्हारे बेकौड़ी के दास
दूर है छूने की बात
पाप है आना इनके पास।’
मंदिर प्रवेश दलितों के लिए प्राचीन काल से ही वर्जित रहा। संभवतः मंदिर प्रवेश में पाबंदी के चलते ही मध्यकालीन समय में संत कवियों द्वारा निर्गुण काव्य रचा गया। तत्कालीन समय में संत कवियों के पास इसके अतिरिक्त और कोई विकल्प भी नहीं था। आधुनिक काल में आकार ही मंदिर प्रवेश के संदर्भ में अखिल भारतीय स्तर पर आंदोलन हुए। उल्लेखनीय है कि सभी धर्मों के मूल स्वरूप में जब विकृति का समावेश हो गया तो दलित-दमित वर्गों और स्त्री को दोयम दर्जे पर रखा गया। मंदिर प्रवेश के संदर्भ में भी शूद्र और स्त्री के लिए स्थिति बदतर ही रही। मंदिर प्रवेश के संदर्भ में स्त्री और अछूत जीवन की बिडंबना पर कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान ने अपने भाव व्यक्त किए हैं-
‘मैं अछूत हूँ मंदिर में आने का,
मुझको अधिकार नहीं है।
किंतु देवता यह न समझना,
तुम पर मेरा प्यार नहीं है।
प्यार असीम अमिट है फिर भी,
पास तुम्हारे आ न सकूँगी।
यह अपनी छोटी-सी पूजा,
चरणों तक पहुँचा न सकूँगी।’[4]
आधुनिक काल में अनेक सुधार आंदोलनों द्वारा सामाजिक परिवर्तन भी हुए। जाति और वर्ण के संदर्भ में आए कुछ परिवर्तनों को सुमित्रानन्दन पंत ने अपने काव्य में रेखांकित किया है- ‘जाति वर्ण की श्रेणी वर्ग की तोड़ भित्तियाँ दूर्धर/ युग-युग के बंदीगृह से मानवता निकली बाहर।’ छायावाद के बाद की कविता जन की ओर अधिक उन्मुख हुई। देश की आजादी के साथ निम्न वर्गों की सामाजिक प्रताड़नाओं से मुक्ति का संकल्प भी छायावादोत्तर हिंदी कविता में परिलक्षित होता है। ‘आधुनिक हिंदी कविता में दलित चेतना को व्यापक अभिव्यक्ति मिली है। हिंदी कविता का सृजन करने वाले प्रगतिशील कवियों ने दलित-शोषित की पक्षधरता की है। उनके द्वारा रचित कविताओं में शोषित वर्ग के दुख-दर्द को अभिव्यक्ति मिल सकी है। स्वयं दलित न होने पर भी इन कवियों ने शोषित तथा दलितों के जीवन में बदलाव लाने हेतु जन चेतना को जाग्रत किया।’[5] आधुनिक हिंदी कवियों में सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ का व्यक्तित्व अपनी अलग आभा रखता है। उन्होंने दलित, दमित, मजदूर, किसान, असहाय, स्त्री इत्यादि से जुई समस्याओं का बेवाकी से चित्रण किया। नि:संदेह दलित समाज की समस्याएँ व्यापक हैं। दलित समाज की त्रासदी को भी उन्होंने भली-भाँति पहचाना। इस समाज के दुखों को देखकर वे ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि-
‘दलित जन पर करो करुणा
दीनता पर उतर आए
प्रभु तुम्हारी शक्ति अरुणा।
हरे तन मन प्रीति पावन।’
दलित समाज को लेकर मुख्यधारा का कविमन सदैव द्वंद से युक्त रहा। पीड़ा के संदर्भ में ईश्वर का स्मरण भी कहीं-न-कहीं उसी व्यवस्था का समर्थन है जो इस समाज के कष्टों का कारण है। जिस ईश्वर और धर्म के नाम पर दलित समाज का शोषण किया गया उसी ईश्वर पर आस्था किसी भी लिहाज से दलित हित में नहीं है। दलित शोषण की दीर्घ परंपरा से निराला भली-भाँति परिचित हैं। निराला ने बीसवीं सदी में उभरती दलित चेतना को निराला को रेखांकित किया है- ‘जिस शूद्र को एक दिन सामाजिक नियमों के लांछन के कारण अवतार श्रेष्ठ श्रीराम के हाथों प्राण देने पड़े थे, वही शूद्र शक्ति आज सहस्त्र रामचंद्रों को पराजित कर देने में समर्थ है। अछूत ही आज भारत के प्रथम गण्य मनुष्य, चिंत्य समस्या है।[6] एक संवेदनशील मनुष्य और कवि होने के नाते उन्हें दलित-दमित वर्गों ऊपर होने वाला शोषण सहन नहीं होता। यही कारण है कि उन्होंने शोषण की परंपरा का शीघ्रता से खात्मा कर सामाजिक न्याय और समता की स्थापना का आह्वान किया-
‘जल्द जल्द पैर बढ़ाओ, आओ आओ।
आज अमीरों की हवेली
किसानों की होगी पाठशाला
धोबी, पासी, चमार, टेली,
खोलेंगे अंधेरे का ताला
एक पाठ पढ़ेंगे टाट बिछाओ
जल्द जल्द पैर बढ़ाओ, आओ आओ।’[7]
दलित समाज भारतीय संस्कृति का निर्माता रहा। आधुनिक भारतीय समाज और नव संस्कृति के विकास की बड़ी ज़िम्मेदारी भी उस पर है। कवि शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ दलित समाज की इस शक्ति से भली-भाँति परिचित हैं-
‘नव संस्कृति के अग्रदूत हैं
पद दलितों की आस।
एक तुम्हारी गति पर अटकी
मानवता की आस।
पर अजेय है आज तुम्हारी
पहले से भी शक्ति
जिसमें मिली विश्व भर के
दलितों की चिर अनुरक्ति।’
दलित शोषण की दृष्टि से नागार्जुन कृत ‘हरिजन गाथा’ कविता बहुत महत्त्वपूर्ण है। 1977 में पटना जिले के बेलछी गाँव में 13 दलित समुदाय के लोगों को जिंदा जला दिया गया था। सामंती समाज और उसी के पक्ष में खड़ा कानून, प्रशासन पूरी तरह इस घटना से अनभिज्ञ एवं मूक बना रहा। क्या यह लोकतंत्र के विपरीत अमानवीय और निंदनीय कृत्य नहीं था? अखिल भारतीय परिदृश्य में ऐसी अनेकानेक दलित नरसंहार की घटनाएँ घटित हुईं हैं। इन अमानवीय घटनाओं को सड़ी-गली, प्राचीन और क्रूर परंपराओं के नाम पर, वर्चस्व के नाम पर ही अंजाम दिया जाता है। उल्लेखनीय है कि इनमें से अनेक घटनाएँ उभरती दलित चेतना और सामाजिक परिवर्तन की आकांक्षा को नेस्तनाबूद करने के उद्देश्य से भी प्रायोजित होती हैं। ‘हरिजन गाथा’ कविता की पंक्तियाँ यहाँ दृष्टव्य हैं-
‘ऐसा तो कभी नहीं हुआ था कि
एक नहीं, दो नहीं, तीन नहीं
तेरह के तेरह अभागे
अकिंचन मनुपुत्र
जिंदा झोंक दिए गए हों
प्रचंड अग्नि की विकराल लपटों में।
साधन-सम्पन्न ऊँची जातियों वाले
सौ-सौ मनुपुत्रों द्वारा!’
‘हरिजन गाथा’ कविता दलित जीवन की त्रासदी को चित्रित करने वाली श्रेष्ठ कविताओं में से एक है। यह कविता न केवल दलित शोषण को रेखांकित करती है बल्कि आज की आवश्यकता के अनुरूप भावी समाज का विकल्प भी प्रदान करती है। डॉ. मैनेजर पाण्डेय के अनुसार ‘इस कविता में भारतीय समाज-व्यवस्था के वर्तमान रूप का यथार्थ चित्र और उसके भावी विकास का संकेत है। भारत के गाँवों में सामंतों द्वारा खेतिहर मजदूरों-हरिजनों के क्रूरतम…. दमन का जैसा प्रभावशाली चित्रण हरिजन गाथा में है, वैसा इस बीच की किसी दूसरी कविता में नहीं है। नागार्जुन इस भयानक यथार्थ का त्रासद चित्रण करके चुप नहीं हो गए हैं। उन्होंने इस यथार्थ के परिवर्तन का संकेत भी दिया है। कविता में एक बच्चे के माध्यम से इतिहास प्रक्रिया व्यक्त हुई है। वह बच्चा इतिहास का बेटा है और भावी इतिहास का निर्माता है।’ मुख्यधारा के कविहृदय जातिप्रथा, धार्मिक कट्टरता, सांप्रदायिकता, भेदभाव एवं अप्रासंगिक प्राचीन रीति-रिवाजों के दुष्परिणामों से भली-भाँति परिचित हैं तथा राष्ट्र और समाज हित में जातिप्रथा को नेस्तनाबूद करने के समर्थक हैं। कवि केदारनाथ सिंह जातिप्रथा के खात्मे के संदर्भ में अपने भाव व्यक्त करते हैं कि-
‘भारत का सृजन अगर
फिर से करना
तो जाति-नामक रद्दी को
फेंक देना अपनी टेबुल के नीचे
टोकरी में।’[8]
भारत में वर्ण व्यवस्था की विकृति, सांस्कृतिक संक्रमण और धार्मिक कट्टरता के नाम पर तमाम संघर्षरत दलित-दमित वर्गों का शोषण किया गया। परंपरागत हिंदी कवियों में से कुछ इस तथ्य को नकारते हैं तो कुछ पूर्णतः स्वीकार करते हैं। वर्ण व्यवस्था की विसंगतियों के दुष्परिणामों को देखकर ही राजेश जोशी यह लिखने को मजबूर होते हैं कि-
‘मेरे मर जाने के बाद
जब लिखा जाए कहीं कि मैं हिंदू था
तो लिखा जाए साफ-साफ कि मैं शर्मिंदा था।’[9]
शिक्षा के प्रचार-प्रसार के बाद दलित समाज में अधिकार चेतना व्यापक स्तर पर जागृत हुई। आज दलित कविता में शोषण के विरुद्ध कवियों के आक्रोशित स्वर को देखा जा सकता है। उल्लेखनीय है कि यह आक्रोश न केवल दलित समाज से जुड़े कवियों का है बल्कि गैर दलित कवियों के यहाँ भी दलित-दमित दमन के संदर्भ में पर्याप्त मात्रा में आक्रोश मिलता है। उदाहरण स्वरूप बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ की काव्य पंक्तियाँ देखी जा सकती हैं- ‘लपक चाटते जूठे पत्ते/ जिस दिन देखा मैंने नर को/ उस दिन सोचा क्यों न लगा दूँ आग/ आज इस दुनिया भर को।’ प्राचीन काल से लेकर आज तक समस्या यही रही है कि दलित-दमित समाज जो किसी समय समता और स्वतन्त्रता से युक्त थे उन्हें मुख्यधारा के जीवन से नितांत दूर रखा गया। यह स्थिति आधुनिक काल में कुछ सुधरी लेकिन पूर्णतः खत्म नहीं हुई है। मुख्यधारा के काव्य में स्पष्ट तौर पर यह स्वीकार किया गया है कि यह प्रवृति या अमानवीयता समाज को उन्नति से दूर रखेगी। रूप नारायण पाण्डेय कृत ‘सत्यानाश भयो भारत को’ कविता इस सत्य को सम्मुख रखती है-
‘अपना ही अंग है अंत्यज असंख्य इन्हें,
गले न लगाया तो अवश्य पछताओगे।
ममता के मंत्र से विषमता का विश जो,
उतारा नहीं जाति को तो जीवित न पाओगे।
पक्षाघात पीड़ित समाज जो रहेगा पंगु,
उन्नति की दौड़ में कहाँ से जीत पाओगे।
साधना स्वराज की, सफल कभी होगी नहीं,
अगर अछूतों को न आप अपनाओगे।’[10]
ऐसा नहीं है कि मुख्यधारा के सभी कवि दलित जीवन के विरोधी हैं या उनकी संवेदना झूठी है। एक कवि के नाते संवेदना का प्रस्फुटन गैर दलित कवि में भी स्वाभाविक तौर पर मिलता है। कोई भी शोषक यह घोषित नहीं करेगा कि वह किसी का शोषण कर रहा है। जब दलित समाज के शोषण की बात आती है तो मुख्यधारा भी इसे अधिकांशतः नकारती ही रहती है। लेकिन मुख्यधारा के कुछ कवियों ने दलित समुदाय के प्रति इतिहास के संदर्भ में होने वाली साजिश का पर्दाफाश भी किया है। उदाहरणस्वरूप ऋषवदेव शर्मा की काव्य पंक्तियाँ देखी जा सकती हैं-
‘तुम्हारे अंधे इतिहास में
तुम्हारी सभ्यता के विकास में
मेरा गला जला जा रहा है
मेरी पीठ सुलग रही है
तेरी आँखों में चिंगारी धधक रही है
मेरे कानों में जलन भर रही है
और मेरी जीभ में चुभन हो रही है
तुम्हारे अंधे इतिहास में
अंकित है
मेरी हत्या का षड्यंत्र।’[11]
भारतीय समाज और संस्कृति के अंतर्गत ‘शस्त्र’ और ‘शास्त्र’ दोनों के जरिये दलित शोषण को व्यापकता से अंजाम दिया गया। रमणिका गुप्ता ने सदियों से चले आ रहे और कभी खत्म नहीं होने वाले शोषण के चक्रव्यूह को ‘अब मूरख नहीं बनेंगे हम’ कविता के माध्यम से स्पष्ट किया है- ‘एक शब्द गीता/ सब्र का जहर/ संतोष की अफीम/ भाग्य का चक्रव्यूह/ निष्काम प्रेम का नशा/ परिश्रम के/ फल से वंचित रखने की साजिश/ परजीवी जमातों का/ सर्जक/ निठल्ले लोगों का स्वर्ग।’ मूलभूत मानवीय आवश्यकताओं से वंचित समाज और उसकी समस्याओं को बहुलता से चित्रित किया गया है। सुख-सुविधाएँ बाद की बात है अधिकांशतः दलित समाज आज भी जीवन का गुजारा करने के लिए संघर्षरत है, सामाजिक सम्मान से वंचित है। रमणिका गुप्ता ने ‘प्रतिरोध’ कविता में दलित समाज की विद्रोही चेतना का कारण स्पष्ट किया है-
‘हमने तो कलियाँ माँगी ही नहीं
काँटे ही माँगे
पर वो भी नहीं मिले
यह न मिलने का एहसास
जब सालता है
तो काँटों से भी अधिक गहरा चुभ जाता है
तब
प्रतिरोध में उठ जाता है मन—
भाले की नोकों से अधिक मारक बनकर।’
गैर-दलित कवियों ने दलित जीवन के संदर्भ में जो भी कविताएँ लिखी हैं उनकी व्यापक स्तर पर चर्चा हुई। रामचन्द्र शुक्ल कृत ‘अछूत की आह’, सुभद्रा चौहान कृत ‘प्रभु तुम ही जानो’, श्रीहरिकृष्ण प्रेमी कृत ‘हरिजन बंधु’ भगवती चरण वर्मा कृत ‘हिंदू’, धूमिल कृत ‘मोचीराम’, वीरेन डंगवाल कृत ‘राम सिंह’, विष्णु खरे कृत ‘मैला ढोने की प्रथा’ आदि कविताएँ भी इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। भले ही दलित आलोचक मुख्यधारा के कवियों द्वारा रचित कविताओं को सिरे से खारिज करें या ये कविताएँ वर्तमान दलित कविता की कसौटी पर खरी नहीं उतरती हों किंतु इन कविताओं में निहित विचार किसी-न-किसी रूप में हिंदी दलित कविता और दलित समाज के सहयोगी अवश्य ठहरते हैं। इन कवियों के विचार जाति, वर्ण, वर्ग, धर्म, समाज, संस्कृति के संदर्भ में मानवीयता पर उसी प्रकार बल देते हैं जैसे दलित समुदाय के कवियों के विचार। दलित समाज के समकालीन यथार्थ से मुँह मोड़ना मुख्यधारा के कवियों के लिए भी आसान नहीं रहा। यह अवश्य है कि इस चित्रण में मुख्यधारा का अपना नजरिया है। डॉ. मैनेजर पाण्डेय के अनुसार ‘हिंदी में दलितों के जीवन पर उपन्यास और कविता लिखने वाले गैर-दलित ने अपने वर्ग और वर्ण-संस्कारों से मुक्त होकर ही दलित जीवन पर लिखा है। फिर भी, उनके लेखन में अनजाने में ही सही, सवर्ण संस्कारों की छाया आ गई है।’[12] जो भी हो हिंदी की मुख्यधारा के रचनाकारों ने दलित जीवन पर जो लिखा है उसे कमतर आँकना साहित्यिक दृष्टि से उचित नहीं। समकालीन समय में इस लेखन का भी अपना महत्त्व है। कथा साहित्य को लेकर प्रेमचंद पर भी तमाम आक्षेप लगाए गए। यहाँ सवाल उठता है कि क्या तत्कालीन समय में दलित जीवन से जुड़े मुद्दों पर प्रेमचंद जैसा साहित्य मिलता है? उस समय के सामाजिक परिवेश में इस तरह का लेखन (जिसे दलित आलोचक सहानुभूति से युक्त साहित्य मानते हैं) भी जोखिम में डालने वाला कार्य था। इसका कारण स्पष्ट है कि तत्कालीन समाज उस सहानुभूति के भी खिलाफ था। उल्लेखनीय है कि मुख्यधारा के काव्य के अंतर्गत दलित जीवन और समाज के संदर्भ में जैसा लेखन किया गया उसे तत्कालीन परिस्थितियों को ध्यान में रखकर ही आलोचकों को अपनी राय निर्मित करनी चाहिए न कि पूर्वग्रहों को ओढ़कर।
- संदर्भ:-
ब्रजेश (संपादक); सृजन संवाद, अंक-10, अगस्त 2010, पृ. 142 ↑
- पंडित नंदकिशोर तिवारी (संपादक); चाँद (अछूत अंक), मई 1927, दूसरी आवृति 2008, राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा. लि., नई दिल्ली, पृ. 14 ↑
- पंडित नंदकिशोर तिवारी (संपादक); चाँद (अछूत अंक), पृ. 64 ↑
- माताप्रसाद; हिंदी काव्य में दलित काव्यधारा, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, सं. 1993, पृ. 76 ↑
- डॉ. रमेश कुमार; दलित चिंतन के सरोकार, पृ. 93 ↑
- सुधा, मासिक, लखनऊ, जून 1933, संपादकीय से ↑
- विवेक निराला; निराला साहित्य में दलित चेतना, शिल्पी प्रकाशन, इलाहाबाद, 2006, पृ. 85 ↑
- केदारनाथ सिंह; सृष्टि पर पहरा, राजकमल प्रकाशन, सं. 2014, पृ. 47 ↑
- शरण कुमार लिंबाले; दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, वाणी प्रकाशन, सं. 2000, पृ. 25 ↑
- माताप्रसाद, हिंदी काव्य में दलित काव्यधारा, पृ. 77 ↑
- ऋषभदेव शर्मा; ताकि सनद रहे, तेवरी प्रकाशन, हैदराबाद, 2002, पृ. 56 ↑
- मैनेजर पाण्डेय; मेरे साक्षात्कार, किताबघर, नई दिल्ली, सं., पृ. 128
डॉ. चैनसिंह मीना सहायक प्राध्यापक हिंदी विभाग पी.जी.डी.ए.वी. कॉलेज दिल्ली विश्वविद्यालय नेहरू नगर, नई दिल्ली-110065 मो.- 8010081419 ई-मेल- csmeena.foa@gmail.com ↑