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धारा- 377 संवैधानिक अधिकारों की एक नई भाषा

भारतीय दण्ड विधान की धारा 377 को लाॅड मैकाले ने तैयार किया और इसे ब्रिटिश उपनिवेशी शासन के दौरान 1860 में लागू किया। भारतीय दण्ड विधान की धारा 377 को अप्राकृतिक अपराधों के उप अध्याय में शामिल किया गया है। इस धारा में लिखा है कि किसी भी पुरूष, महिला या जानवर के साथ अप्राकृतिक रुप से शारीरिक संबंध बनाने वाले व्यक्ति को आजीवन करावास का दण्ड दिया जा सकता है। या 10 वर्ष तक की जेल में डाला जा सकता है। साथ ही इस व्यक्ति को जुर्माना भरने का दण्ड भी दिया जा सकता है। मुख्यतः कानून में अप्राकृतिक रुप से यौन संबंध बनाना या संभोग करने को अपराध माना गया है। 2 जुलाई 2009 को दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा नाज फाउण्डेशन बनाम दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र व अन्य मामले में दिए गए फैसले से लेस्बियन, गे, बाय सेक्सुअल और ट्रान्स जेन्डर (LGBT) समुदाय और कई आंदोलनो से जुडें समुदायों में उत्साह की एक लहर है, यह फैसला पुरजोर दावा करता है कि (LGBT) भारत का अभिन्न हिस्सा है। यह ऐतिहासिक फैसला सम्मान, गोपनियता, समानता और भेदभाव से मुक्ति की मजबूत नींव पर खड़ा है और संवैधानिक अधिकारो की एक नई भाषा प्रदान करता है। राजनीतिक मांग के रुप में धारा 377 के खिलाफ संघर्ष की शुरूआत 1993 में होती है जब एड्स भेदभाव विरोधी आन्दोलन (A.V.B.A) ने पुलिस उत्पीड़न के खिलाफ एक विरोध आयोजित किया था।
नाज फाउन्डेशन ने धारा 377 की संवैधानिकता को चुनौती देते हुए एक जनहित याचिका दायर की। इनका मानना था कि इस कानून के कारण जन स्वास्थ्य के संदर्भ में H.I.V से जुड़े काम पर विपरित असर पडता है और इसी वजह से पुरूषो के साथ संबंध रखने वाले पुरूषों के समुदाय के स्वास्थ्य के अधिकार को रोकता है। गृह मंत्रालय ने धारा 377 का समर्थन किया तो वही स्वास्थ्य मंत्रालय ने याचिकाकर्ता द्वारा जन स्वास्थ्य के तर्क का पक्ष लेते हुए धारा 377 का विरोध किया। गृह मंत्रालय का यह तर्क था कि कानून को समाज से अलग करके नही देखा जा सकता और भारतीय दण्ड विधान की धारा 377 से भारतीय समाज के मूल्य और नैतिकता से मेल खाती है। NACO ने भी कहा कि धारा 377 को जारी रहने के कारण समाज में अधिक जोखिम वाली गतिविधियाॅ चोरी छिपे की जाती है।
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