प्रसाद का आरंभिक काव्य: विराट संभावना का उन्मेष

*डॉ. करुणाशंकर उपाध्याय

महाकवि जयशंकर प्रसाद हिंदी के बहुआयामी साहित्यकार हैं।इनका जन्म 30 जनवरी 1890 को काशी के सुप्रतिष्ठ सुंघनी साहू परिवार में हुआ था।इन्होंने सातवीं कक्षा तक विद्यालयीन शिक्षा प्राप्त करने के उपरांत घर पर ही हिंदी, संस्कृत और अंग्रेजी भाषा एवं साहित्य का गहन अध्ययन किया।आप भारतीय इतिहास, संस्कृति, दर्शन, ज्ञान-विज्ञान , कला और साहित्य के निष्णात विद्वान माने जाते हैं।गोस्वामी तुलसीदास की तरह ही आप हिंदी के बहुश्रुत कवि और श्रेष्ठतम प्रतिभा के रूप में हमारे सामने आते हैं। आप बीसवीं सदी की सर्वश्रेष्ठ प्नरतिभा सम्पन्न रचनाकार हैं जिन्होंने जातीय प्रश्नों को उसके वास्तविक रूप में प्रस्तुत और अबाधित किया।आपने अपनी प्रतिभा से ने न केवल हिंदी में अनेक विधाओं का सूत्रपात किया अपितु उसे विश्वस्तरीय भी बनाया।अतः इनके संपूर्ण साहित्य का पुनर्पाठ वर्तमान समय की मांग है। आपके व्यक्तित्व से यह सीख मिलती है कि यदि हम अपने व्यक्तित्व को सुसंगठित एवं सक्रिय रखें तो कम आयु में ही उपलब्धियों के बड़े शिखर पार कर सकते हैं। आपने चित्राधार से कामायनी तक की यात्रा करके इसका अभूतपूर्व दृष्टांत प्रस्तुत किया है। आप जीवन और जगत के बृहत्तर संदर्भों के साथ-साथ मनुष्य की नियति एवं उसके अंतर्जगत के गहरे पारखी हैं। अतः आपका आरंभिक काव्य लेखन भी एक नये विश्लेषण की मांग करता है।

प्रसादजी के रचनात्मक जीवन का आरंभ काव्य-लेखन से ही हुआ । आपकी आरंभिक कविताएं ‘ चित्राधार’ में संकलित हैं।आपने ‘कलाधर ‘उपनाम से ब्रजभाषा में काव्यारंभ किया।यद्यपि यहां रीतिकाल का पूर्ण रूप से अतिक्रमण नहीं हो सका है परन्तु नयी उद्भावनाओं का संकेत बड़े ही स्पष्ट तरीके से व्यक्त हुआ है। चित्राधार में ‘वनमिलन’,’प्रेमराज्य’ और ‘ अयोध्या का उद्धार’ नामक तीन आख्यानक कविताएं संकलित हैं। वनमिलन में कालिदास के आभिज्ञान शाकुंतल की कथा को नए युगबोध के आलोक में प्रस्तुत किया गया है। यहां प्रसाद का जिज्ञासु मन प्रकृति के अनंत रमणीय सौंदर्य के प्रति जिज्ञासा ही प्रकट नहीं करता अपितु वह प्रेम-सौंदर्य के साथ-साथ प्रकृति के वैविध्यपूर्ण चित्र भी उकेरता है। इसी तरह अयोध्या का उद्धार भी कालिदास के रघुवंश महाकाव्य के सोलहवें सर्ग पर आधारित हैं जिसमें राम के सुपुत्र कुश द्वारा अयोध्या के पुनरुद्धार की कथा वर्णनात्मक शैली में प्रस्तुत की गयी है। इसकी तीसरी आख्यानक कविता ‘ प्रेम राज्य’ प्रसाद की मौलिक सृष्टि है जिसका आधार इतिहास है।इतिहासकारों के अनुसार सन 1564 ई.में विजयनगर और अहमदाबाद के बीच टालीकोट का युद्ध हुआ था। इस काव्य का आरंभ युद्ध से किन्तु इसका समापन एक महान मानवीय संदेश में होता है।इसमें शिव के विराट स्वरूप का चित्रांकन हुआ है। कवि इस कविता में पाठक को उच्चतर भावभूमि पर ले जाता है । वह लौकिक धरातल पर अलौकिक आदर्श की प्रतिष्ठा करता है। प्रसाद जी ने स्वयं लिखा है कि छंद की दृष्टि से इसमें रोला छंद है।

इसमें स्फुट कविताओं को ‘पराग’ और ‘ मकरन्द बिन्दु’ के अंतर्गत रखा गया है जिनमें अधिकांश रचनाएं प्रकृति परक हैं। प्रसाद जी के भीतर प्रकृति के रहस्यों के प्रति जो जिज्ञासा भाव है वही उन्हें प्रकृति संसर्ग की ओर ले जाता है। प्रसाद की ऋषिदृष्टि प्रकृति के संसर्ग से खुलती है। जब कवि दृष्टि अतिक्रमित होती है तब ऋषिदृष्टि का उन्मीलन होता है। यही दृष्टि प्रसादजी को उच्चतर भावभूमि और लम्बी यात्रा पर ले जाती है। इन कविताओं ने विराट संभावना का संकेत कर दिया है। इसमें प्रकृति के प्रति रागपरक रहस्य चेतना और अंतर्दृष्टि क्रमशः सूक्ष्मतर होती गयी है।कवि का नवीन भाव-बोध पूरी तरह खुलकर सामने आ गया है।

इनके द्वारा रचित ‘प्रेम पथिक’ पहले ब्रजभाषा के छंदगत अनुशासन में प्रकाशित हुआ किन्तु समय की मांग और जरूरत को ध्यान में रखकर प्रसाद जी ने उसे 1913 में दुबारा प्रकाशित करवाया।यह खड़ीबोली हिंदी के अतुकांत रूप में है।यह एक संभावनावान कवि की किशोर भावनाओं के अनुरूप प्रेम के उदात्त, भावनात्मक और सार्वभौम-शास्वत स्वरूप का निर्वचन है।किसी के प्रेम में योगी होकर प्रकृति के स्वच्छंद एवं अकृत्रिम परिवेश में रहने की आदिम आकांक्षा मनुष्य की स्वाभाविक वृत्ति है।इस मूल भावना को प्रेम, सौंदर्य एवं कल्पना के द्वारा व्यवस्थित रूपक प्रदान किया गया है जिससे यह हिंदी की पहली लंबी कविता भी बन गयी है।यह अपने रूपात्मक तंत्र में एक विराट कवि की संभावनाओं का निदर्शन करती है। इनकी काव्य-प्रतिभा की इन्हीं संभावनाओं पर विचार करते हुए आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है कि,” प्रसाद जी में ऐसी मधुमयी प्रतिभा और ऐसी जागरूक भावुकता अवश्य थी कि उन्होंने इस पद्धति का अपने ढंग पर बहुत ही मनोरम विकास किया। ” 1

प्रेम पथिक में प्रसादजी किशोर और चमेली के माध्यम से प्रेम, सौंदर्य और प्रकृति के अनंत रमणीय सौंदर्य का जो रूपायन करते हैं वह हर युग के युवाओं के लिए रमणीय वस्तु है।पथिक अनंत की जिज्ञासा से प्रेरित होकर जब प्रदीर्घ यात्रा पर निकलता है तो वह प्रकृति की अनंत विभूति तथा जीवन साधना के विलक्षण रूप से परिचित होता है।कवि पथिक द्वारा तापसी के समक्ष अपनी अंतहीन यात्रा और प्रेम की व्यथा-कथा का वृत्तांत प्रस्तुत करवाता है ।चूंकि वह पुतली अथवा चमेली ही थी अतः वह किशोर को पहचान जाती है।वह भी अपनी करुण-कथा कह डालती है।फलतः पथिक भी उसे पहचान लेता है और दोनों के बाल्यकाल की स्मृतियां उन्हें उदात्त भावभूमि पर पहुंचा देती हैं।वे दोनों विश्व के प्रत्येक परमाणु में अपरिमित सौंदर्य के दर्शन करते हुए विश्वात्मा ही सुन्दरतम है – की प्रतिष्ठा करते हैं।उनके प्रेम में प्रेय( आनंद) के स्थान पर श्रेय ( लोकमंगल) का पक्ष प्रबल हो जाता है ।वे अपने प्रेम की मानवीय सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए उसे चराचर जगत अथवा विश्वप्रेम में रूपांतरित कर देते हैं।प्रेम के अत्यंत व्यापक और उदात्त रूप के चित्रण के कारण यह कविता आज वेलेंटाइन डे मनाने वाली पीढ़ी को भी प्रेरितऔर प्रभावित कर सकती है।

यह कविता अपने विश्वबोध, प्रकृति और कृषक जीवन के बहुस्तरीय एवं बहुरंगी चित्रों, उदात्त भावना, जीवन-संघर्ष, त्याग-तपस्या तथा मानवीय मूल्यों की अपूर्व सृष्टि के कारण हिंदी की एक अतिशय महत्वपूर्ण तथा कालजयी कृति है। इसे खंडकाव्य और लंबी कविता दोनों का गौरव प्राप्त है।लेकिन मैं इसे हिंदी की पहली लंबी कविता के रूप में प्रतिष्ठित करना चाहता हूँ।यह कविता न केवल भाव-बोध, वस्तुविन्यास, मनोवैज्ञानिक अंतर्द्वंद्व के धरातल पर रीतिकालीन काव्यपरंपरा का अतिक्रमण करती है अपितु रचना-विधान, आत्मव्यंजना, भाषिक अनुप्रयोग , कल्पनात्मक छवियों तथा समुचित अलंकार योजना के कारण भी कामायनी जैसे महाकाव्य के स्रष्टा की विराट प्रतिभा का स्फुरण भी बन जाती है।प्रसादजी की इस बहुचर्चित घोषणा को संपूर्णता में विश्वसनीयता प्रदान करते हुए यह कविता स्वयं ही ऐतिहासिक महत्व की अधिकारिणी बन जाती है—

” इस पथ का उद्देश्य नहीं है श्रांत भवन में टिक रहना

किन्तु पहुंचना उस सीमा पर जिसके आगे राह नहीं ।” 2

इन आरंभिक कविताओं में प्रसाद जी भक्ति से जीवनादर्श तथा प्रकृति से दार्शनिक चिंतन का विकास करते हैं।वे अपने को ब्रजभाषा से खड़ी बोली की ओर ले जाते हैं। कविता के कथ्य के साथ-साथ वे काव्यभाषा के प्रति भी निरंतर सतर्क और सचेष्ट रहे हैं।सन 1912 में प्रकाशित ‘ कानन कुसुम’में खड़ी बोली की कविताएं पहली बार प्रकाशित होती हैं। सर्वप्रथम ‘चित्र’ शीर्षक से ‘इंदु’ पत्रिका में उनकी खड़ी बोली की पहली कविता प्रकाशित हुई। प्रसाद जी अपने समय एवं समाज की बिखरी हुई शक्तियों के समन्वय द्वारा भारतीय मनुष्यता का चतुर्दिक विकास चाहते थे। वे अपने व्यक्तिगत जीवन में नियति की क्रूरता को झेलते हुए भी स्वयं को बिखरने नहीं देते और शक्ति के विद्युत्कणों के समन्वय द्वारा अपने जीवन दर्शन का विकास करते हैं। प्रसाद जी इस बात को लेकर लगातार चिंतित एवं उन्मथित थे कि अंग्रेज तथा पश्चिम भक्त इतिहासकार एक षडयंत्र के अंतर्गत भारतीय इतिहास को विकृत कर रहे थे। उनका ऐतिहासिक ज्ञान अद्भुत और अद्वितीय है। वे अपनी भेदक दृष्टि द्वारा भारतीय इतिहास का नया पाठ तैयार करते हैं। वे भारतीय इतिहास के गौरव चिह्नों का संधान करके उन्हें अपने लेखन का विषय बनाते हैं।इस दृष्टि से उनका पहला ऐतिहासिक काव्य ‘ महाराणा का महत्त्व’ है। इस कविता में महाराणा प्रताप सिंह के महत्त्व का प्रतिपादन करते हुए राष्ट्रीय आकांक्षा की अभिव्यक्ति हुई है। महाराणा प्रताप देशभक्ति, राष्ट्रीय अस्मिता तथा हिंदू गौरव के चरम प्रतीकों में से एक हैं। प्रसाद अपनी इतिहास अन्वेषी दृष्टि के बल पर उनके संघर्ष और बलिदान को अमरत्व प्रदान करते हैं। वे महाराणा के शत्रु विदेशी आक्रांता के मुख से भी प्रताप का यशोगान करवाते हैं। वह महाराणा प्रताप की प्रशंसा करते हुए कहता है कि

” सच्चा साधक है सपूत निज देश का

मुक्त पवन में पला हुआ वह बीर है।”3

इस कविता में प्रकृति की मनोरम छवि का भी अंकन किया गया है। कवि ने लिखा है कि :- ” विस्तृत तरु शाखाओं के ही बीच में

छोटी-सी सरिता थी, जल भी स्वच्छ था।

कल-कल ध्वनि भी निकल रही संगीत-सी

व्याकुल को आश्वासन -सा देती हुई।।” 4

इस कविता का विन्यास अत्यंत नाटकीय शैली में हुआ है। संपूर्ण कविता चार भागों में सुविन्यस्त है। कविता के आरंभ में राजकुमार अमरसिंह यवनों को उनकी बेगमों समेत बंदी बनाकर महाराणा प्रताप सिंह के समक्ष उपस्थित करते हैं।महाराणा उन्हें मुक्त कर देते हैं।इसके बाद बेगम और खानखाना के मध्य वार्तालाप चित्रित हुआ है। बेगम अकबर के पास जाने के लिए कहती हैं।जब खानखाना अकबर को समस्त वृत्तांत सुनाते हैं तो वे आज्ञा देते हैं कि अब महाराणा पर आक्रमण न हो। इस तरह प्रसाद जी महाराणा के महत्त्व का प्रतिपादन करते हैं।

इसमें कवि ने अमरसिंह के शौर्य एवम् युद्धकौशल का भी सुन्दर चित्रण किया है। यहां एक साथ महाराणा प्रताप तथा राजकुमार अमरसिंह के पराक्रम का निदर्शन परिलक्षित होता है।यह कविता देश की स्वाधीनता, सुरक्षा और अस्मिता के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने की प्रेरणा देती है। कहना न होगा कि कवि ने स्वतंत्रता संग्राम के कठिन संघर्ष के उन दिनों में भारतीय जन मानस में राष्ट्रीय चेतना का अमर मंत्र फूंकने के लिए इस कविता का सृजन किया था। अतः ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर रचित यह कविता भले ही खंडकाव्य के ताने-बाने में बुनी गयी है परन्तु इसका रूपात्मक तंत्र लम्बी कविता का ही है। यह कविता ऐतिहासिक वस्तुयोजना, सुपरिणत रचना-विधान, सहज एवं स्वाभाविक भाषा तथा उदात्त शैली की दृष्टि से ऐतिहासिक महत्त्व की अधिकारिणी है। इसका पुनर्पाठ राष्ट्रीय स्वाभिमान की प्रतिष्ठा के लिए यह जरूरी है।

प्रसाद जी के ‘कानन कुसुम’ में चित्रकूट, भरत , शिल्प-सौंदर्य, कुरुक्षेत्र, वीर बालक, श्री कृष्ण जयंती आदि आख्यानक कविताओं का समावेश हुआ है।इन कविताओं की पृष्ठभूमि इतिहास और पुराण पर आधारित है परन्तु उसमें प्रसाद जी ने अपने नए दृष्टिकोण तथा भाव-बोध का प्रकटन किया है। चित्रकूट की कथा रामचरितमानस के अयोध्या काण्ड से प्रेरित है। लेकिन प्रसाद जी यहाँ भी अपने आदर्श एवं मौलिक दृष्टिकोण की प्रतिष्ठा करते हैं। आपने राम और सीता के प्रेम का अत्यंत परिष्कृत एवं छविमान चित्र प्रस्तुत किया है।राम के अंक में सीता नीले गगन में चंद्रमा की भांति सुशोभित होती हैं। राम जानकी के मुख मंडल की शोभा पर मोहित होकर पूछ बैठते हैं:-

” स्वर्गंगा का कमल मिला कैसे कानन को,

नील मधुप को देख , वहीं उस कुंज कली ने

स्वयं आगमन किया कहा यह जनक लली ने।”5

इसी तरह कवि भरत आगमन को लेकर लक्ष्मण के रोष, राम-भरत मिलन तथा रजनी के अंतिम प्रहर के चित्रण में निहायत नवीन और अनछुए उपमानों का सन्निवेश करता है।

कवि ने आभिज्ञान शाकुंतल के सप्तक अंक के आधार पर ‘भरत’ शीर्षक से कविता लिखी है। हम सब जानते हैं कि इस देश का भरत के नाम पर ही भारतवर्ष नाम पड़ा है। वह भारतवर्ष का गौरव है। कवि देश-प्रेम की भावना से अनुप्राणित होकर इतिहास पुरुष भरत के गौरवशाली व्यक्तित्व का अंकन करता है। जिस तरह आभिज्ञान शाकुंतल का भरत शिशु सिंह के दांत गिनता है उसी तरह प्रसाद का भरत भी कहता है कि:-

” खोल, गोल मुख सिंह बाल , मैं देखकर,

गिन लूंगा तेरे दांतों को हैं भले

देखूं तो कैसे यह कुटिल कठोर हैं।-6

इसी क्रम में अगली कविता ‘ शिल्प सौंदर्य’ शीर्षक से है। भरत की भांति यह भी अतुकांत छंद में विरचित है । कवि भारतवर्ष के अनंत रमणीय शिल्प सौष्ठव का निर्वचन करता है। वह एक सार्वभौम-शास्वत सत्य की प्रतिष्ठा करते हुए लिखता है कि धार्मिक कट्टरता कभी-कभी अनेक अनिष्ट कर जाती है। आतताई आलमगीर ने आर्य मंदिरों को खुदवाकर उनके शिल्प सौंदर्य को मटियामेट कर दिया था। फलतः मुगल साम्राज्य के बालू की दीवार भी ढह जाती है। कवि यह स्थापित करता है कि क्रूरता को वीरता नहीं माना जा सकता है। आक्रांताओं की धार्मिक कट्टरता ने अनेक सुन्दर ग्रंथों को नष्ट करने के साथ-साथ विज्ञान, शिल्प, कला, साहित्य और वास्तुकला का भी भयावह नुकसान किया है। बावजूद इसके भारत के ध्वंस शिल्प भी करुण वेश में भी अपने गौरव को छिपाए हुए हैं। ‘ कुरुक्षेत्र’ में श्रीकृष्ण के जीवन चरित, गीता के उपदेश तथा महाभारत के युद्ध का चित्रांकन हुआ है। ‘वीर बालक’ कविता में भी धर्मांधता की निस्सारता बतलाई गई है। कवि सिक्ख बालक जोरावर सिंह तथा फतेह सिंह के स्वाभिमान तथा अस्मिता बोध का चित्रण करता है। कवि स्पष्ट करता है कि दोनों वीर बालक दीवार में चुने जाने के बावजूद इस्लाम स्वीकार नहीं करते। यह अपनी आन-बान और शान पर मर मिटने का अभूतपूर्व दृष्टांत है। इसमें भी अतुकांत छंद के साथ-साथ अद्भुत उपमानों का प्रयोग हुआ है। संक्षेप में , प्रसाद की आरंभिक कविताएं इस बात का प्रमाण हैं कि एक विराट प्रतिभा का उन्मेष हैं जो परवर्ती अप्रतिम रचनाओं के कारण प्रायः उपेक्षित रही हैं। ये कविताएं प्रेम और सौंदर्य के साथ-साथ प्रकृति-पर्यावरण तथा भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं दर्शन के प्रति कवि के अनुराग की विकास कथा भी हैं। इन कविताओं से यह भी सिद्ध होता है कि प्रसाद ही हिंदी में लंबी कविताओं का सूत्रपात करते हैं।

संदर्भ- सूची

  1. हिंदी साहित्य का इतिहास, रामचंद्र शुक्ल, पृष्ठ-539
  2. प्रेम पथिक, जयशंकर प्रसाद, पृष्ठ-28
  3. महाराणा का महत्व, जयशंकर प्रसाद, पृष्ठ-14
  4. वही. पृष्ठ-15
  5. कानन कुसुम, जयशंकर प्रसाद, पृष्ठ-103
  6. वही, पृष्ठ-105

* प्रोफेसर एवं अध्यक्ष,

हिंदी विभाग, मुंबई विश्वविद्यालय

मुंबई 400098