डी एम मिश्र की ग़ज़लें

1

दिल से जो लफ्ज निकले वह प्‍यार बना देना

पर आँख से जो बरसे अंगार बना देना ।

तन्हा हॅू निहत्था हॅू घर से निकल पडा हॅू

ईमान को मेरे अब हथियार बना देना ।

दुनिया से दुश्मनी का नामोनिशाँ मिटा दूँ

तिनका भी उठाऊँ तो तलवार बना देना ।

चाँदी की तरह चमके सोने की तरह दमके

मेरे खुदा मेरा वो किरदार बना देना ।

भूखा न कोई सोये प्यासा न कोई रोये

याचक हमें भी बेशक़ इक बार बना देना ।

कश्ती उतार दी है दरिया में तेरे दम पर

तूफाँ को मेरे मौला पतवार बना देना ।

2

तेरे नक़्शेकदम पे चलता हूँ

जिंदगी ख़्वाब तेरे बुनता हूँ।

आग ऐसी लगी है सीने में

रात दिन बस उसी में जलता हूँ।

जब कोई रास्ता नहीं सूझे

ऐ ख़ुदा तुझको याद करता हूँ।

यूँ तो दुनिया में हसीं लाखों हैं

तेरी सूरत पे मगर मरता हूँ।

बडी मुश्किल से जलें चूल्हे भी

उन ग़रीबों का दुख समझता हूँ।

दूसरों का जो छीन लेते हक़

उन लुटेरों से रोज़ लड़ता हूँ।

बात भी आदमी की करता हूँ।

बात भी आदमी से करता हूँ।

3

जंग लड़नी है तो बाहर निकलो

अब ज़रूरी है सड़क पर निकलो ।

कौन है रास्ता जो रोकेगा

सारे बंधन को काटकर निकलो ।

क्या पता रास्ते में काँटे हों

मेरे हमदम न बेख़बर निकलो ।

बाज भी होंगे आसमानों में

झुंड में मेरे कबूतर निकलो ।

उसकी ताक़त से मत परीशाँ हो

छोड़कर खौफ़ झूमकर निकलो ।

दूर तक फैला हुआ सहरा है

भर के आँखों में समन्दर निकलो ।

4

ताक़त में वो भारी है

जंग हमारी जारी है ।

जिस के भीतर मानवता

कवि उसका आभारी है ।

सही रास्ता दिखलाना

कवि की जिम्मेदारी है ।

लाइलाज हो गयी ग़रीबी

ये कैसी बीमारी है ।

लेखन भी अब धंधा है

लेखक भी व्यापारी है ।

जिस पर राजा खुश होता

वह कविता दरबारी है ।

बात उसूलों की वरना

दुश्मन से भी यारी हैं ।

सम्‍पर्क -डॉ डी एम मिश्र 604 सिविल लाइन निकट राणाप्रताप पीजी कालेज सुलतानपुर 228001 उ0प्र0 मोबाइल नं0 9415074318

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