कहानी

लॉकडाऊन

अशोक शर्मा, ‘सोहन-स्नेह’

नौकरी का पहला ही दिन था। बड़ी मेहनत,प्रतीक्षा और चप्पल घसीटी के बाद मिली थी राकेश को शिक्षाकर्मी की यह नौकरी। जाने कितने पापड़ बेलने पड़े थे इस नौकरी के लिए भी।

अब थोड़ी बहुत ही सही लेकिन माँ और पापा को थोड़ी तसल्ली तो होगी जिन्होंने अपने इकलौते बेटे के लिए जाने क्या क्या अरमान संजोए थे । सोचता हुआ बस स्टैंड की ओर तेजी से बढ़ रहा था राकेश। पापा के डाक विभाग से रिटायर होने के बाद इन चार सालों में यही तो वह बड़ी खुशी थी जो राकेश और उसके परिवार को मिली है। बस स्टैण्ड अभी दूर था लेकिन विचार तेजी से नजदीक आते जा रहे थे। ‘पापा ने मुझे इंजीनियरिंग कराने के लिए तनख्वाह के साथ साथ अपनी बचत का कितना बड़ा हिस्सा खर्च कर दिया था , मैंने भी मेहनत में कहाँ कमी की थी,हर बार फर्स्ट, हर सेमेस्टर ऑल क्लियर। पर कोई कम्पनी जॉब देने आती तब तो,जाने कौन सी मंदी थी जिसने हर अरमान का गला घोंट दिया था। पापा के सपने को पहली चोट थी यह शायद।’ – ‘खैर पापा के साथ साथ मैंने भी तो कर लिया था समझौता और आखिर गणित में एम.एस.सी. भी बहुत अच्छे अंको से पास कर ही ली,लेकिन दुर्भाग्य ने कहाँ पीछा छोड़ा,कोई नौकरी होती तो मिलती न।’ –दो साल में छोटी मोटी ट्यूशन ही दिला पाई थी ये डिग्रियाँ।’

राकेश याद कर रहा था वह दिन जब बहुत भारी और टूटे मन से पापा ने कहा था ‘बेटा तू बी.एड. क्यों नहीं कर लेता,बैठे बैठे कब तक किसी नौकरी का इंतजार करेगा,कोई काम धंधा करने के लिए न तो हमारे पास अनुभव है और न ही कोई बहुत ज्यादा पूँजी बची है। बी.एड. कर लेगा तो शायद शिक्षाकर्मी की ही नौकरी मिल जाए। मेरी पेंशन से ले देकर घर तो चल जाता है लेकिन और भी तो जरूरतें हैं फिर तेरी शादी भी तो करना है।’

–‘यह कहते हुए थोड़ी देर के लिए ही ही सही पापा के चेहरे पर एक हल्की चमक आई तो थी।राकेश ने याद किया। ‘ माँ का चेहरा केवल इतना सुनते ही कितना दमकने लगा था।’ — राकेश भी तो जानता था कि ‘उसकै बड़े आदमी बनते हुए देखने और ठाठ-बाट से उसकी शादी करके एक सुन्दर,सुशील बहू घर में लाने के तमाम बुझे हुए सपनों के बीच अब माँ-पापा को यही एक आस थी कि उनके मरने के पहले बहू और पोते पोतियों का चेहरा ही देख ले।’ एक गहरी साँस खींचते हुए राकेश ने पीठ पर टंगे पिट्ठू बैग को ठीक किया,बस स्टैंड नजदीक आ चुका था। ‘यादें भी तो नजदीक और बहुत नजदीक आ रही हैं’ – राकेश फिर सोचने चलो कम से कम इस बार तो निराशा नहीं हुई ,क्या हुआ जो तनख्वाह कम है,नौकरी छोटी है,लेकिन है तो सरकारी। फिर अपना खर्च भी कितना है ,गुजारा हो ही जायेगा। कुछ समय तक नौकरी कर लूँ कुछ पैसा कौड़ी जोड़ लूँ फिर शादी भी कर लेना है। माँ -पापा को और कोई खुशी तो नहीं दे सका लेकिन यह खुशी तो जरूर और बहुत जल्द देना है।’

हार्न की आवाज से राकेश का ध्यान भंग हुआ। बस स्टैण्ड आ चुका था ,बस जाने को तैयार ही खड़ी थी,ड्राइवर ने हार्न बजाते हुए बस को थोड़ा आगे बढ़ाया। कण्डेक्टर ने राकेश को आवाज देते हुए बुलाया ‘चलो भाई चलना है तो जल्दी चढ़ो , बस छूट रही है।’ – राकेश ने एक नजर भरी हुई बस को देखा,बाहर से ही लग रहा था कि कोई सीट खाली नहीं है। उसने बस के पीछे देखा शायद कोई और बस भी हो। कण्डेक्टर ने तुरंत ही राकेश की आँखो को पढ़ते हुए कहा -‘बाबू साहब अगले दो घंटे अब और कोई बस इस रूट पर नहीं जायेगी। जल्दी चढ़ जाओ,थोड़ी देर में शायद सीट भी मिल जाए।’

राकेश पिट्ठू बैग संभालता हुआ भरी हुई बस में चढ़ गया । सभी सीटों पर लोग बैठे हुए थे दोनों तरफ की सीट के बीच में आठ-दस लोग खड़े हुए थे, वे सबके सब चारों तरफ देख रहे थे कि कहीं कोई बैठने की गुंजाइश बन जाए। गाड़ी के बोनट के पास राकेश भी खड़ा हो गया। बस चलने लगी थी। खिडकियों से गर्म हवा अंदर आ रही थी। बस की खिड़की के शीशों के किनारे में लगे हुए रबर मौसम की मार से या तो कट चुके थे या ढ़ीले हो चुके थे जिसके कारण लगातार खड़ खड़ की जोर की आवाज खिडकियों से आ रही तेज गर्म हवाओं का साथ दे रही थी। बोनट का ढ़क्कन भी बेसुरी और कर्कश आवाज में खिड़कियों के शीशों का बखूबी साथ दे रहा था। बोनट के नीचे ईंजन से निकलने वाली तेज गर्म हवा वाकई अच्छी लगती यदि ये कड़कड़ाती ठण्ड के दिसम्बर या जनवरी के दिन होते लेकिन अभी तो गरमी ही अपने शवाब पर है उस पर ये जुल्म अलग।’ – -राकेश बदस्तूर सोचता चल रहा था। अब तीखी आँच जूतों के भीतर घुसकर पैंरों को भी झुलसा रही थी। ‘ये बस मालिक यात्रियों की ही नहीं बस की भी जान निकाल कर मानेगा।’ इतने कष्ट में भी राकेश ने मुस्कुराते हुए सोचा।

इस बीच बस में दस पन्द्रह लोग और सवार हो चुके थे। ‘न जाने कैसे इतनी जगह बनती जा रही है गोया बस नहीं कोई वो कहानी वाली खोपड़ी हो जो बचपन में माँ सुनाया करती थी,आदमी की खोपड़ी का भिक्षा पात्र,जितना भी डालो भरता ही नहीं हर बार कुछ न कुछ खाली ही रह जाता।’ –‘ भगवान चालीस किलोमीटर का सफर है कुछ तो रहम कर,और कुछ नहीं तो थोड़ी बेठने की जगह तो मिले।’ राकेश मन ही मन प्रार्थना भी कर रहा था और बड़े कातर भाव से बस में चारों तरफ देख भी रहा था। अचानक उसकी नजर बस के बोनट के बाजू लम्बी सीट पर बैठी उस सुन्दर लड़की पर पड़ी जो ठसाठस भरी हुई सीट में एक कोने में बैठी हुई थी। वाकई बहुत सुन्दर थी, लगभग तेईस चौबीस साल की होगी। घर से निकलते वक्त बाल जरूर करीने से सँवारे होंगे लेकिन खिड़की से आती तेज गर्म हवा के कारण हेयर क्लिप और क्लचर के पूरे प्रयास के बावजूद कुछ जुल्फें चेहरे पर उड़ रही थीं। आसमानी रंग की साड़ी के साथ नीले रंग का ब्लाऊज उस पर बहुत फब रहा था। गले में सोने की पतली चैन,माथे पर छोटी सी नीली टीकी। पसीने को रूमाल से बार बार पोंछने के कारण पूरा चेहरा लाल हो गया था। यह सब एक नजर में ही देख लिया था राकेश ने। बस में चढ़ने और सीट की चिंता के कारण अभी तक उस लड़की के चेहरे की ओर देख ही नहीं पाया था राकेश। – ‘वाकई बहुत सुन्दर है। ‘ यह सोचते हुए राकेश ने अब उस लड़की ओर जरा और गौर से देखा तो उसकी सीट के बाजू बहुत छोटी सी जगह में रखा उसका पिट्ठू बैग भी नजर आया। शायद पीठ के पीछे रखने में दिक्कत के कारण किसी तरह गुंजाइश बनाकर उसने उस बैग को बाजू मेंं रख लिया था। राकेश ने उस बैग के स्थान पर अपने बैठने की गुंजाइश तलाश करते हुए एक नजर फिर उस लड़की की ओर देखा तो मालूम हुआ कि वह भी उसे ही देख रही है। नजर मिलते ही राकेश को यह आभास भी हो गया कि उस लड़की ने भी उसके मनोभावों को पढ़ लिया है।लड़की ने एक नजर बैग की ओर फिर एक नजर राकेश की ओर देखा अबकी बार उसके चेहरे पर हल्की मुस्कुराहट भी थी। इस बीच किसी सवारी को उतारने के लिए ड्राइवर ने अचानक जोर से ब्रेक लगाया तो सारे लोग एक दूसरे पर गिरते गिरते बचे। राकेश भी उस लड़की पर गिरते गिरते बचा। लड़की का शरीर अपने आगे बैठी एक वृद्धा के ऊपर लगभग टिक गया था,लेकिन इस सबके बीच सारे लोगों के एक दूसरे से कुछ और अधिक सट जाने के कारण लड़की के बाजू थोड़ी बहुत जगह की गुंजाइश और हो गई थी। राकेश की नजरें बड़े दीन भाव से कभी उस जगह पर और कभी उस लड़की पर ही टिकी हुई थीं।लड़की ने भी राकेश की नजरों को बखूबी पढ़ लिया था। सप्रयास थोडा़ आगे की ओर और ज्यादा सरकते हुए उसने बहुत ही धीमी मगर मीठी आवाज में राकेश से कहा–‘देखिये, यदि बैठ सकें तो बैठ जाईये। आपको शायद दूर तक जाना है। हम लोग कुछ आगे पीछे हो लेते हें हो सकता है बैठते बन जाए आपको कुछ राहत तो मिल ही जायेगी।’

राकेश के कानों में मानो मिश्री ही घुल गई थी। उसने बड़ी आभारयुक्त दृष्टि से लड़की की ओर देखा और किसी तरह उस छोटी सी जगह में अपने को समेटकर रखते हुए कहा–‘बहुत बहुत धन्यवाद, सच में बहुत परेशानी हो रही थी,मुझे आईडिया भी नहीं था,वर्ना बस में भीड़ होने के और पहले ही बस स्टैण्ड आ जाता।’

लड़की ने कुछ कहा तो नहीं पर उसके चेहरे पर हल्की सी मुस्कुराहट तैर गई। बस अपनी रफ्तार से चली जा रही थी। बस के हिचकोलों ने राकेश को दिक्कतों के साथ ही सही उस सीट पर टिके रहने के लायक जगह तो बना ही दी थी। –‘इतना ही बहुत है,कुछ तो राहत मिली,वर्ना पहले दिन ही जान निकलने में कोई कसर तो नहीं रह गई थी’ –राकेश ने सोचा। अब राकेश नौकरी और बस की दिक्कतों से बहुत कुछ बाहर आ चुका था और अब तो उस लड़की के बारे में ही सोच रहा था। –‘कहाँ जा रही है आप?’ लड़की से कुछ परिचय बढ़ाने के लिहाज से राकेश ने पूछा। ‘जी, मैं,.., मैं एक प्राईवेट फर्म में एकाऊँटेंट हूँ,रोज यहाँ से आना जाना करती हूँ।’ – ‘और आप ‘ अचानक हुए प्रश्न से चौंकते हुए लेकिन तुरंत खुद को संभालते हुए लड़की ने अगले कुछ प्रश्नों के जवाब भी बिना पूछे ही दे दिये और अब उससे भी पूछ रही थी कि वह क्या करता है। अब चौंकने की बारी राकेश की थी।

‘ मेरी पास ही एक स्कूल में शिक्षाकर्मी की नौकरी लगी है। पहला दिन है,ज्वॉईन करने ही जा रहा हूँ।’ राकेश, राकेश नाम है मेरा ।’ एक ही साँस में राकेश ने भी सारे जवाब दे दिए। ‘नमस्ते राकेश जी’ अब लड़की के चेहरे पर भी लम्बी मुस्कुराहट घिर आई थी। — ‘ आपने मेरा नाम तो जान ही लिया है, अब लगे हाथ आप अपना नाम भी बता दीजिए।’ –अंजलि, अंजलि नाम है मेरा,दो तीन महिने पहले ही मैंने भी नौकरी करना शुरू किया है,सुबह बस से जाने के बाद शाम तक लौट आती हूँ। ‘ अंजलि से यह पहला परिचय था और पहली ही मुलाकात में अंजलि ने न केवल अपनी खूबसूरती से बल्कि अपने व्यवहार से भी राकेश के मन में घर कर लिया था। राकेश ने बहुत बार सोचा कि अंजलि से उसके मोबाईल का नम्बर पूछे लेकिन एक तो इस डर से रूक जाता कि जाने अंजलि इस बात का क्या मतलब निकाले। संबंध इतने भी प्रगाढ़ नहीं हुए थे कि एक दूसरे के मोबाईल नम्बर की जानकारी ले सकें। दूसरा अंजलि को कभी मोबाईल रखे या बात करते भी तो नहीं देखा है,शायद मोबाईल रखती ही न हो या मोबाईल केवल अपने परिवार वालों के लिए ही उपयोग करती हो,अनावश्यक और बाहरी लोगों से बातें करना उसका पसंद ही न हो।

अगले कुछ दिनों में राकेश और अंजलि का परिचय थोडा और प्रगाढ़ हो चुका था। जो भी पहले बस स्टैण्ड पहुँच जाता वह दूसरे के लिए बाजू में एक सीट रोक लेता था। स्कूल जाते और आते समय विभिन्न विषयों पर बात के सिलसिले से राकेश ने यह भी जान लिया था कि अंजलि अत्यंत परिपक्व और बुद्धिमान थी। घर में अकेली माँ ही थी,पिता का निधन बहुत पहले हो चुका था । गाँव मे पिता को विरासत में मिला हुआ चार एकड़ खेत था जिसे चाचा बोते थे और उसके बदले साल भर का अनाज और कुछ नकद दे दिया करते थे। चाचा के बहुत अहसान थे उन पर।चाचा की मदद से ही पढ़ लिखकर ही आज इस काबिल हो गई थी कि इस प्राईवेट फर्म की नौकरी की बदौलत शहर में रहकर अपना और अपने परिवार का बोझ उठा सके। बात ही बात में यह भी मालूम हुआ कि अंजलि की माँ का भी यही अरमान है कि जल्दी से कोई सुयोग्य वर मिल जाए तो अंजलि के हाथ पीले कर दूँ,लेकिन अंजलि जानती थी कि फिलहाल तो माँ की इच्छा पूरा कर पाना संभव नहीं है। चाहने के बावजूद ऐसा कौन सा सुयोग्य लड़का मिल जायेगा जो शादी के बाद भी उसकी माँ की जिम्मेदारियां उठाने में उसे रोकेगा टोकेगा नहीं। ‘माँ को किसके भरोसे अकेले छोड़ सकती हूँ मैं।’ अंजलि ने मन ही मन सोचा। वैसे ये बात भी नहीं थी कि अंजलि शादी ही न करना चाहती हो,बल्कि साथ की अनेक सहेलियों के विवाह के मौकों पर हर बार अपना घर बसाने के बारे में अंजलि भी सोचती ही थी। आखिर उसके भी सपने थे,युवावस्था के सुनहरे सपने उसे भी लुभाते थे। अपने सपनों के राजकुमार के साथ उसने भी जीवन को अपने मनचाहे अंदाज में जीने के बहुत से प्लॉन बनाये हैं लेकिन ये सपने हर बार माँ की देखभाल और उसके अकेले रह जाने की सोच पर आकर और सच की कठोर सतह से टकराकर धड़ाम से बिखर जाते थे। इस सवाल का कोई हल भी तो नहीं था उसके पास। कभी कभी वह सोचती कि ऐसा क्यों होता है कि शादी के बाद लड़की को ही विदा होकर ससुराल जाना पड़ता है क्या लड़के विदा होकर ससुराल नहीं आ सकते।

आज भी बस में बैठे बैठे यही सब कुछ तो सोच रही थी अंजलि। सोच के तार कुछ और फैले तो उसने एकबार कनखी से राकेश की ओर देखा, –‘कितना अच्छा, सुन्दर, भला लड़का है बिल्कुल मेरे सपनों में आनेवाले उस राजकुमार सा ही ,जिसके पास शायद मेरी सारी समस्याओं की चाबी थी। ‘ फिर उसने सर को एक झटका देकर इस विचार को झटकने की कोशिश की। ‘ ऐसा कैसे हो सकता है,राकेश कितना भी अच्छा ,भला लड़का क्यों न हो अपने माँ -बाप को थोड़े ही छोड़ सकेगा और मैं भी इतनी स्वार्थी कहाँ हो सकती हूँ जो ऐसा सोच भी सकूँ। ‘ –‘पर किसी तरह यदि ये संभव हो तो कितना अच्छा हो,राकेश जैसे भले लड़के अब मिलते ही कहाँ हैं,यदि ये मेरे जीवन में आ जाए तो न केवल मेरी बल्कि माँ की भी जिम्मेदारी बहुत अच्छे से संभालेगा ये विश्वास तो पक्का है। ‘ गहरी साँस लेते हुए अंजलि ने एक बार फिर विचारों में खो गई।

राकेश की मन में भी बहुत दिनों से यही उमड़ घुमड़ चल रही थी। अंजलि पहली नजर में ही उसे भा गई थी। यह भी निश्चित था कि माँ और बाबूजी को भी एक नजर में ही अंजलि भा जायेगी। इन कुछ दिनों में ही कभी कभी ही सही जब भी कनखियों से राकेश अंजलि की आँखो में झाँकता तो हर बार यह पाता था कि यह लगाव एकतरफा नहीं है। –‘ये तो तय है कि अंजलि भी उसे चाहती है। अंजलि की समस्या के बारे में भी कभी खुलकर और कभी इशारों में बात हो चुकी थी। अंंजलि की माताजी के बारे में लगातार राकेश भी सोचता रहा था। यह भी संभव नहीं लगता था कि अंजलि से शादी करके अपने माता- पिता को छोड़कर वह अंजलि के घर रहने लगे।बहुत दिनों से इस सवाल से लगातार जूझ रहा था लेकिन हल नहीं मिल रहा था इसी उहापोह में वह चाहकर भी अंंजलि से अपने प्यार का इजहार भी नहीं कर पा रहा था। रोज हिम्मत करता कि आज उसे मन की बात कह दूँगा लेकिन जीवन के व्यावहारिक पक्ष और इस जटिल सच का सामना करते ही हिम्मत जवाब दे जाती।

‘बेटा तेरी तबियत तो ठीक है ना,आजकल रोज तू गहरी चिंता में डूबा जाने क्या क्या सोचता रहता है। देख रही हूँ कि खाने पीने में भी तेरा मन नहीं लग रहा है। ‘ — माँ की आवाज से राकेश का ध्यान भंग हुआ, आज शाम घर लौटकने के बाद कुर्सी पर बैठा हुआ जाने कब वो फिर से अंजलि के ध्यान में डूब गया था और फिर उसी जटिल सच का हल खोज रहा था जिसका मिलना संभव नहीं है यह भी जानता था।

—‘ नहीं, कुछ नहीं, ऐसा कुछ नहीं है माँ ,कोई बात नहीं है तू चिंता मत कर।’ कनखियों से उसने पास में ही बैठे पिताजी की ओर एक नजर डाली जोकि वहीं कुर्सी पर बैठे टीवी पर समाचार सुन रहे थे।

–”बेटा , माँ हूँ तेरी, मैं तो बंद आँख से भी तेरे चेहरे को पढ़ सकती हूँ। तू जरूर मुझसे कुछ छुपा रहा है,बहुत दिनों से तेरी यही हालत है,कुछ तो है जो मुझसे छुपा रहा है। तुझे मेरी कसम, आज तो तुझे सच बताना ही पड़ेगा।”

”वो क्या है माँ, वो, वो …” और फिर संकोच और सकुचाहट के साथ उसने सारी मन की गुत्थियां आज उजागर कर ही दी। बीच -बीच में पिताजी की ओर भी देख रहा था जो कि अब समाचार सुनना छोड़कर गौर से उसकी ही बातें सुन रहे थे।

‘अरे,बस इतनी सी बात के लिए इतनी बड़ी खुशखबरी छुपाए बैठा था। ”माँ ने प्यार से माथा सहलाते हुए कहा तो उसका संकोच कम हुआ,लेकिन आँखो में तो प्रश्न तैर ही रहा था कि इस समस्या का हल आखिर माँ के पास क्या है। एक नजर पिताजी की ओर डाली तो वे भी मंद मंद मुस्कुरा रहे थे जैसे यह कोई समस्या ही न हो।

— ” माँ-बाप के प्रति अपना कर्तव्य निभाना हर बेटे-बेटी की जिम्मेदारी है, अंजलि की माँ की जिम्मेदारी बेशक उसकी है लेकिन शादी के बाद दामाद भी तो बेटा ही होता है । यदि अंजलि से तुम्हारा विवाह होता है तो यह फर्ज केवल अंजलि का ही नहीं बल्कि तुम्हारा भी होगा कि उसकी माँ की देखभाल करो ,रह गई हमारी बात तो अभी तो हम दोनों शारिरिक रूप से स्वस्थ और सक्षम हैं तेरे पिता और मैं अभी एक दूसरे की देखभाल तो कर ही सकते हैं। हमसे ज्यादा जरूरत अंजलि की माँ को देखभाल की होगी। यह परम्परा भले ही है कि शादी के बाद बेटियाँ ही विदा होकर पति के घर जाती हों , लेकिन यह परम्परा तोड़ी भी तो जा सकती है और फिर कौन सा तुम लोग इस शहर से दूर जाओगे। रोज हमसे भी मिलने आ जाया करना। आँख के सामने रहोगे जरूरत पर आते जाते रहोगे तो यह कतई जरूरी नहीं है कि शादी के बाद अंजलि ही विदा होकर इस घर में आए बल्कि हम खुद तुम्हें विदा करके अंजलि के घर भेजेंगे, बल्कि ऐसा होने पर तुम्हारे और अंजलि के इस शहर में एक नहीं दो -दो घर होंगे। बच्चे खुश रहें,अपनी जिम्मेदारी समझते रहें इससे अधिक माँ-बाप को और चाहिए भी क्या। तुम कल ही अंजलि से बात करो और अगर वह और उसकी माँ इस प्रस्ताव पर तैयार हों तो हमें भी जल्दी से अंजलि से मिलवाओ,हम भी तो देखें उसे जिसने हमारे बेटे की आँखो की नींद चुरा ली है।”

— माँ की बातें सुनते हुए पास में बैठे पिताजी भी न केवल सहमति में गर्दन हिला रहे थे बल्कि गर्व के साथ पत्नी और पुत्र को देख भी रहे थे । राकेश भौचक्का सा कभी माँ को और कभी पिताजी को देखते हुए सोच रहा था मेरे लिए जो समस्या इतनी जटिल थी उसे माँ ने कितने सरल ढंग से सुलझा दिया है। अब उसके चेहरे पर लाज के साथ-साथ माता-पिता के लिए गर्व के भाव भी थे। कर्तव्य और प्रेम दोनों के निर्वहन का एक नया रास्ता उसे दिखाई दे रहा था ।

”कल सबसे पहले अंजलि से अपने प्यार का इजहार करूँगा,अंजलि भी जरूर हामी भरेगी ही, माँ-पिताजी की सहमति के साथ -साथ अंजलि को यह भी बताऊँगा कि आने वाले समय में अब न केवल दोनों के घर की खुशियाँ साझी होंगी बल्कि दोनों की जिम्मेदारियाँ भी साझी होंगी। हम दोनों मिलकर समाज को भी एक नया रास्ता दिखायेंगे कि विवाह और बेटियों की विदाई एक परम्परा ही है लेकिन परम्परायें जीवन की सच्चाइयों से बड़ी नहीं होती । परम्परायें समाज को दिशा देने,बेहतर बनाने और समस्याओं में रास्ता दिखाने के लिए होती हैं किंतु इसका अर्थ यह नहीं कि परम्परायें ही समस्या बन जाएँ। ऐसे हरेक दौर में पुरानी परम्परा से ही एक नयी परम्परा का जन्म होता है ,यही होना भी चाहिए। परम्परायें कोई ताल तलैय्या थोड़े ही हैं, रुके हुए पानी की तरह,बल्कि ये तो नदियाँ है सतत प्रवाहित, सतत नयी, सतत सलिला,जीवनदायिनी।”

राकेश प्रमुदित मन से सोचता चला जा रहा था, जल्द से जल्द यह बात अंजलि से कह देना चाहता था, कल का इंतजार बहुत भारी लगने लगा राकेश को। ध्यान में डूबे राकेश की तन्द्रा अचानक पास में ही टेलीविजन से प्रसारित हो रहे ब्रेकिंग न्यूज से टूटी। एँकर बता रहा था कि ‘जनता कर्फ्यू’ तो ‘कोरोना’ की महामारी से लड़ने के लिए लोगों की मानसिक तैयारी परखने का एक प्रयोग था। जिसमें आम भारतीय खरे उतरे हैं , ‘कोरोना’ से असली लड़ाई तो अब शुरू होगी और कल से इक्कीस दिनों का ‘लॉकडाऊन’ लागू होगा। कोई अपने घर से नहीं निकलेगा, एकदम जरूरी सेवाओं, वह भी सीमित समय के लिए, सब कुछ पूरा बंद।

राकेश की कल्पनाओं को जोर का झटका लगा,खुशियाँ थोड़ी देर के लिए उदासी में बदल गईं, गुस्से के साथ – साथ दुखी भाव से राकेश ने टीवी के न्यूज एँकर को एक बार देखा,फिर अपनी भावनाओं पर काबू पाते हुए अपने आप को मन ही मन समझाने लगा कि कोई बात नहीं इक्कीस दिनों का इंतजार और सही।

घर की दिवारों में कैद राकेश के इंतजार के एक -एक दिन बीत रहे थे। आज यह इक्कीसवें दिन की बला भी कटने वाली थी लेकिन यह क्या वही मनहूस टीवी एँकर फिर से प्रकट हो गया था और अगले चौदह दिन के लिए ‘लॉकडाऊन’ बढ़ाने की खबरें दे रहा था।

राकेश बेबसी और गु्स्से में एँकर की आवाज सुन रहा था और अब तो हर बार अगले चौदह दिन के बाद फिर अगले चौदह दिन और फिर अगले चौदह दिन के लॉकडाऊन’ बढ़ने की खबरें टीवी से मिल रहीं थीं। इस बीच शहर में भी ‘कोरोना’महामारी के फैलने के समाचार आने लगे थे, चारों तरफ एक अजीब किस्म का सन्नाटा और भय पसरा हुआ था इन दिनों। ‘लॉकडाऊन’ कब तक जारी रहेगा कब खुलेगा कोई नहीं बता पा रहा था। सबके अपने अपने कयास थे बस कयास ही पक्का कुछ भी नहीं। राकेश को अपने ऊपर भी कोफ्त हो रही थी कि क्यों उसने संकोच छोड़कर अंजलि से उसका मोबाईल नम्बर नहीं माँग लिया। कम से कम उसका हाल-चाल तो जान लेता। राकेश का गुस्सा, बेचैनी और इंतजार बढ़ता चला जा रहा था। घर में बैठे बैठे अब उसका एक ही काम रह गया था कि वह टीवी देखता रहे और इंतजार करे कि कभी तो ‘लॉकडाऊन’ खुलने की खबर आयेगी।ये ‘लॉकडाऊन’ सभी के लिए बहुत लम्बा था लेकिन राकेश के लिए तो यह सदियों की तरह लम्बा होता चला जा रहा था यह लॉकडाऊन।’

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