स्त्री कामुकता का प्रश्न ?

सार: कामुकता यौन प्रक्रिया है जिसे अंग्रेजी में फोरप्ले(Fourplay) का हिंदी रूपांतरण मान सकते है | इसके द्वारा जोड़े अपने साथी को शारीरिक और मानसिक रूप से सेक्स के लिए राजी कर कामुक आनंद प्राप्त करते है | लेकिन पितृसत्ता समाज में कामुकता और सेक्स को हमेशा नैतिकता के बंधन में जकड़कर परदे के पीछे रख कर अपना एकाधिकार बनाया जिसके कारण स्त्री सदियों से कामुक आनंद से वंचित रही| मृदुला गर्ग ने अपने कथा साहित्य में न केवल स्त्री कामुकता के प्रश्न को अपने कथा साहित्य का मुख्य विषय बनाया बल्कि नैतिकता के बंधन से खींचकर सदियों से मूक स्त्री को अपनी कामुकता खुलकर अभिव्यक्त करने की भी वाणी प्रदान की |

मूल शब्द : कामुकता, सेक्स, पितृसत्ता समाज, अस्तित्व, स्त्री. पुरुष, कामुक आनंद आदि        

कामुकता सेक्स तक जाने की यौन प्रक्रिया है | सेक्स स्त्री और पुरुष के बीच यौन सम्बन्ध है | सेक्स मानव सृष्टि का आधार एक सर्जक क्रिया है | वात्स्यायन ने ‘सेक्स’ को ‘काम’ के व्यापकतम अर्थ के रूप में व्याख्यायित किया है | वात्स्यायन के अनुसार – “ स्पर्शविशेषविषयात्वस्याभिमाननिकसुखानुबिद्धा फलवत्यर्थ प्रतीति: प्रधान्यात्काम: | अर्थात् चुम्बन, आलिंगन, प्रासंगिक सुख के साथ गाल, स्तन, नितम्ब आदि विशेष अंगों के स्पर्श करने से आनंद की जो प्राप्ति होती है वह ‘काम’ है |” 1 सेक्स का अर्थ केवल ‘काम’ से नहीं है अपितु कामुक आनंद और शारीरिक सुख से है | इस आनंद की अनुभूति तभी हो सकती है जब स्त्री और पुरुष में परस्पर प्रेम, समानता, आदर, विश्वास, सौहार्द की भावना हो और दोनों की कामुकता एक दूसरे के लिए महत्वपूर्ण हो लेकिन पुंसवादी समाज में पुरुषों का स्त्रियों के प्रति जो दृष्टिकोण रहा है वही दृष्टिकोण सेक्स के प्रति भी रहा है | पुरुष सत्तात्मक समाज ने सेक्स को भी स्त्री की तरह अपनी बपौती माना है | उसपर भी अपना एकाधिपत्य बनाने की कोशिश की है | उसके लिए कामुकता आनंद का अनुभव न होकर जुनून है अपनी मर्दानगी सिद्ध करने का और स्त्री मात्र एक देह है जिससे वह इन्द्रिय सुख प्राप्त करता है | पुंसवादी इसी प्रवृत्ति के कारण स्त्री सदियों से यौन-तृप्ति से वंचित रही है |

आठवें दशक की बोल्ड कथाकार के रूप में प्रसिद्ध मृदुला गर्ग ने अपने कथा साहित्य में सदियों से हाशिये पर धकेली गई स्त्रियों के न केवल सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक आदि अधिकारों को अपने कथा साहित्य का मुख्य विषय बनाया बल्कि स्त्री कामुकता के प्रश्न को भी निर्भीकता से व्यक्त किया है जो अब तक के साहित्य का मुख्य विषय नहीं रहा है | स्त्री हर क्षेत्र में पुरुष की सहभागिनी के साथ यौन क्रिया में भी पुरुष की साथी बने रहना चाहती है, मात्र शरीर या मिट्टी का लोथा बने रहना अब उसे तनिक भी स्वीकार नहीं है | कामुकता का प्रश्न उसके अस्तित्व से जुड़ा है और स्त्री अब अपने अस्तित्व से समझौता नहीं करना चाहती है | स्त्री मन की यह अभिव्यक्ति ‘रुकावट’ कहानी की मुख्य पात्र रीता के माध्यम से देख सकते है | रीता विवाहेतर सम्बन्ध बनाती है क्योंकि पति में “न सही प्रणय की उत्कट लालसा, न सही श्रृंगार का मुग्ध संगीत, न सही उन्माद में लुप्त चेतना ; स्नेह तो था और संवेदना और आदर | ”2 आदर और सम्मान के साथ-साथ एक दूसरे के कामुकता को समझना और यौन संतुष्टि प्रदान करना भी पति-पत्नी का उद्देश्य होना चाहिए | लेकिन जब प्रेमी मदन से पूछने पर पता चलता है कि रीता ही एकमात्र मदन की प्रेमिका नहीं है उससे पहले भी उसके तीन स्त्रियों से सम्बन्ध रहे है तब उसे  प्रतीत होता है कि “वह प्रेयसी से वेश्या में बदलती जा रही है |” 3  और वह अपने प्रेमी के लिए मात्र शरीर है तब वह अपने प्रेमी से दोबारा न मिलने का निर्णय लेती है। स्त्री विमर्श के इस दौर में जहां स्त्री अपनी अस्मिता को लेकर जागरूक है वहाँ स्त्री को अब देह बनना स्वीकार नहीं है । वह पुरुष या प्रेमी की साथी बने रहना चाहती है ।

विवाह एक अटूट बंधन है । जिसकी जिम्मेदारी स्त्री और पुरुष पर समान रूप से होनी चाहिए लेकिन हमारे आदर्श भारतीय समाज में इस विवाह की सारी जिम्मेदारी स्त्रियों पर डाल दी जाती है । पुरुष के लिए विवाह एक भावनात्मक रिश्ता न होकर एक ऐसी परंपरा है जिसे जैसे-तैसे ही सही पर निभाना जरूरी है । ‘चित्तकोबरा’ उपन्यास में पुरुष की यह मानसिकता महेश के माध्यम से स्पष्ट होता है “महेश के लिए वह एक तयशुदा, सुनिश्चित विवाह से अधिक कुछ नहीं है । प्यार सिर्फ मेरी तरफ से है, सिर्फ  मेरी ।” 4 पुरुष का यह एकांगी दृष्टिकोण न केवल विवाह में बल्कि स्त्री और सेक्स के प्रति भी रहता है जिससे शादीशुदा जीवन में एकरसता, उदासीनता और नीरसता आती है । वहीं दूसरी तरफ विवाह और कामुकता के प्रति स्त्री का दृष्टिकोण भावनात्मक रहता है । “सेक्स का स्त्रीवादी नजरिया सेक्स को विकासवादी बनाता है । वह सेक्स को आनंद, सामाजिक विकास और शारीरिक स्वास्थ्य से जोड़ता है ।”5  वैवाहिक रिश्ते को स्त्री  ठीक उस पौधे के समान सींचती है जिसे बड़ा करने के लिए समय-समय पर खाद, पानी, मिट्टी, धूप और अन्य तत्वों की आवश्यकता होती है । पौधा लगा देना ही काफी नहीं होता है । लेकिन पुरुष का इस बात से कोई सरोकार नहीं रहता है | हमारे समाज में सामंतवाद के पश्चात् कामुकता, सेक्स को हमेशा नैतिकता से जोड़ कर देखा गया । जबकि सेक्स का संबंध आनंद से है । “कामसूत्र में सेक्स इन्द्रिय सुख बहुत छोटा अंश है । वहाँ आनंद पर ज्यादा जोर है । सेक्स को नैतिकता के आधार पर नहीं देखा गया । नैतिकता के बजाय सामाजिकता और आनंद इन दो आधारों पर देखा गया है । कामसूत्र ने सेक्स के सवालों को नैतिक और मनोवैज्ञानिक के बजाय आनंद, सामाजिकता और विकास के परिप्रेक्ष्य में पेश किया है ।”6
पितृ सत्तात्मक समाज में सेक्स पर बात करना तो दूर ‘सेक्स’ शब्द बोलना भी घृणित और वर्जित माना गया है । पुरुषों के लिए यौन-संबंध बनाने की इच्छा जाहिर करना जहां मर्दानगी का प्रतीक माना गया है वहीं स्त्रियों के ऐसी इच्छा जाहिर करने पर उन्हें रंडी, छिनाल, बेशर्म, कलमुँही, वेश्या आदि जैसे अभद्र शब्दों से  सूचित किया जाता है । मानों सेक्स पर  सिर्फ पुरुषों का अधिकार है । फ्लूगल के अनुसार “पुरुष की अपेक्षा वात्सल्य भाव की मात्रा स्त्री में अधिक होती है ।”7 अर्थात् स्त्री का मन बच्चे के समान चंचल होता है| उसका मन स्थिर नहीं होता है ।अतः वह किसी भी कार्य को गंभीरता से नहीं कर सकती । पुरुष सत्तात्मक समाज में स्त्रियों के प्रति इसी मानसिकता से ‘अवकाश’ कहानी का पुरुष पात्र महेश भी ग्रसित है इसलिए पत्नी द्वारा तलाक मांगने और प्रेमी के साथ रहने की बात कहने पर महेश कहता है कि “केवल शारीरिक आकर्षण के लिए बच्चों और घरबार को छोड़ने की जरूरत नहीं होती ।” 8 पितृसत्ता समाज में जब भी स्त्री अपने हक, अपने अधिकार, अपनी आज़ादी की बात करती है तब पुरुष समाज उसके निर्णय को उसके मन की चंचलता मान कर या तो गंभीरता से नहीं लेता या फिर उसे महज नैतिकता के बोझ तले दबाने की कोशिश करता है जैसा कि सदियों से करते आ रहें है |

कामुकता को सामंतवादी समाज ने नैतिकता, अनुशासन, आदर्श के बंधन में बाँधकर हमेशा पर्दे के पीछे रखा है । स्त्रियों के लिए कामुकता को वर्जित माना गया है । यहां तक की जो स्त्री अपने कामुकता को खुलकर व्यक्त करती है, यौन-संबंध का आनंद लेती है उसे पुरुष समाज स्वीकार नहीं कर पाता है और अस्वाभाविक मानता है । यहां तक की वह सेक्स करते समय भी स्त्री को अपने ऊपर न आने देकर उसे अपने नीचे ही रखना चाहता है । लेकिन आधुनिकता के इस दौर में  स्त्री अपने कामुकता को  झूठे नैतिकता और लज्जा के बोझ तले नहीं दबाना चाहती इसलिए वह अपने कामुकता को खुलकर व्यक्त करती है । ‘चित्तकोबरा’ उपन्यास में नायिका मनु सेक्स के क्षणों को बेहिचक व्यक्त करती है “वह चाहता होगा, उसके तीन जोड़ी ओंठ हों । एक मेरे होंठो पर रखे, एक-एक उरोजों पर । या दोनों चूचुक एक साथ एक जोड़ी ओंठ में दबोजकर, तीसरा ओंठ मेरी टाँगों के बीच उन ओंठों पर रख दे, जो इस समय भी उसके आगमन की प्रतीक्षा में तिरमिरा रहे हैं । पर उसके पास सिर्फ एक जोड़ी ओंठ हैं, जो इस वक्त्त उसकी जबान का साथ दे रहे हैं ।”9  आज स्त्री अपने जज़्बातों को बोल्डली कह देना चाहती है ।

भारतीय पुंसवादी समाज में शादी का अर्थ एक ऐसी अनिवार्य परंपरा है जिसका उद्देश्य वंश वृद्धि करना है और सेक्स प्रजनन का एक मात्र माध्यम । ‘चित्तकोबरा’ के महेश के द्वारा  समाज की यह मानसिकता साफ-साफ स्पष्ट होती है “हमारा समाज कितना सूझ-बूझ वाला है,” उसी ने कहा, “अपनी सुरक्षा का कितना बढ़िया उपाय ढूंढ़ निकाला है । तयशुदा व्याह । है न ? ठीक कह रहा हूँ न मैं ?”  और प्यार का अर्थ “अगर समाज में रहने वाले हर पति को अपनी पत्नी से प्यार होगा और हर पत्नी को पति से, तो समाज का भला कौन परवाह करेगा ? बच्चों की परवरिश बंद हो जाएगी। व्यापार-व्यवसाय ठप्प हो जाएंगे । राजनीति का भट्ठा बैठ जाएगा । बड़े-बूढ़े मर-खप जाएँगे । सभी स्त्री-पुरुष एक दूसरे में डूबे रहेंगे और देश रसातल को चला जाएगा । प्यार होने पर और कुछ नहीं सूझता, है न ?” 10 पुरुष के लिए प्यार, स्त्री और सेक्स जीवन की सबसे बड़ी बाधा है और इन तीनों का संबंध स्त्री से है । प्यार में सब कुछ बर्बाद होता है बनता कुछ भी नहीं है । पुरुषवादी सामंती मानसिकता के कारण वह प्रेम को जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा न मानकर उस फालतू काम की तरह मानता है जिसे बेकार के खाली वक्त्त में ही झटपट निपटाया जा सकता है । पुरुष के इसी सोच के कारण स्त्री यौन सुखों से सदियों से वंचित रही है | पुरुष सत्तात्मक समाज में सेक्स और स्त्री दोनों के प्रति आधिकारिक रवैया रहा है। जिसके कारण वह स्त्री को वस्तु से ज्यादा कुछ भी नहीं समझा । इतिहास गवाह है द्रौपदी को जुएं में दाव पर लगाना, युद्ध भूमि में जीतने या हारने पर अपने घर की स्त्री के साथ विवाह करा देना आदि ऐसे अनेक उदाहरण है जब स्त्री को हार-जीत के वस्तु के रूप  में प्रयोग किया गया है । ज्ञान- विज्ञान के इस युग में भी पुरुषों की स्त्रियों के प्रति वस्तुवादी सोच नहीं बदली है और उसकी यही सोच यौन-क्रिया में भी रहती है। मृदुला गर्ग के ‘तुक’  और ‘चित्तकोबरा’ में पुरुष का यही दृष्टिकोण परिलक्षित होता है । ‘तुक’ कहानी का पुरुष पात्र नरेश के लिए पत्नी मीरा का शरीर उसके खेल के हर-जीत के लिए पुरस्कार या मुआवजा होता है। “पहली बार उसने अपने मुंह से कहा कि वह ब्रिज के खेल में हार कर घर लौटा है । यह कह कर वह भूखे भेड़िये की तरह मुझ पर टूट पड़ा । बिस्तर पर मेरी देह अभी तक वैसी ही नग्न पड़ी थी जैसी वह छोड़ कर गया था । अपनी हार का तमाम गुस्सा उसने उस पर उतारा । उसके नाखूनों और दांतों के निशान मेरे होंठों, कंधों, वक्ष और पीठ पर उभर आये । अब तक उसे आकर्षित करने के लिए मैं अपनी देह को स्वयं प्रताड़ित करती रही थी, पर उसमें इतनी तीव्र उत्तेजना नहीं जगा पायी थी जितनी आज विकर्षण ने पैदा कर दी थी । अब चुम्बनों से वह मेरी देह को प्रताड़ित कर रहा था, पर वह विकर्षण तक उसमें मेरा जगाया हुआ नहीं था । वह ब्रिज के खेल से जन्मा था ।” 11  सेक्स उसके लिए आनंद का विषय न होकर जुनून है और पत्नी का शरीर उसके गुस्से या खुशी जाहिर करने की वस्तु है जिसे जब चाहे वह उपभोग करता और जब चाहे तिरस्कृत करता । सेक्स के प्रति इस हवसवादी सोच के कारण कई मामलों में स्त्रियां सेक्स के प्रति भयभीत हो जाती है । ‘चित्तकोबरा’ उपन्यास में भी पुरुष की इसी मानसिकता का परिचय मिलता है जहाँ पत्नी की कामुकता, सेक्स के प्रति रुचि-अरुचि से उसे कोई सरोकार नहीं, चाहिए तो बस इन्द्रिय सुख । “दरवाजा खोलने के लिए उसने हाथ बढ़ाया, फिर पलटकर मुझे देखा या मुझे, मेरे सामीप्य को अनुभव भर किया। दरवाजे की तरफ घूम गया और मुझे आलिंगन में ले लिया । मैं उसके सीने से जा चिपकी । उसके दोनों हाथ खाली हो गए । बिना झिझक मेरे उरोजों पर आ टिके । स्वामित्व भरे लाड़ से उसने उन्हें दबोच लिया । मैं समझ गई, आज रात महेश मुझे प्यार करेगा । उसी क्षण से मैं शरीर में तबदील होने लगी । महेश ने कुछ कहा नहीं, न दुबारा मेरी तरफ देखा । मेरे स्तनों पर उसके हाथों का दबाव कम हो गया । मुझे अपने से अलग करके वह दरवाजा खोलकर बाहर चला गया । लंबे अनुभव से मैं पहले जान जाती हूँ, किस रात महेश मुझे प्यार करेगा…… तभी से उस दिन के लिए मैं सिर्फ शरीर बन जाती हूँ ।” 12 ‘चित्तकोबरा’ और ‘तुक’ की इन पंक्तियों से यह स्पष्ट होता है कि पुरुष के लिए स्त्री मात्र देह है जिसपर वह अधिकार जमाता है । सेक्स और कामुकता पर वह केवल अपना कब्जा समझता है । स्त्री की इच्छाओं- अनिच्छाओं से उसे कोई तारतम्य नहीं है उसे केवल मतलब है तो अपने यौन तृप्ति से । पुरुष के इस पॉवरवादी सोच के कारण स्त्री काम सुख के आनंद से हमेशा से ही वंचित रही है । वह संभोग के क्षणों में पति की सहभागिनी न होकर केवल शरीर रहती है । ‘चित्तकोबरा’ उपन्यास में इसकी यथार्थ अभिव्यक्ति है- “मेरी आँखें बंद हैं, पर शरीर जगा  हुआ है । उसके हर स्पर्श को पढ़ रहा है । आँखों से देख पाना कठिन है । कमरे में अंधेरा है । मैं उसकी शुक्रगुजार हूं । पर मेरा शरीर उस खेल के एक-एक दांव -पेंच से वाकिफ है, जो उस पर खेला जा रहा है ।…….मेरी आँखें बंद हैं……. साफ सुन पा रही हूं …..अपने कमरे में …..घुंघरुओं की खनक……तबले की थाप…..गज़ब का संगत है……लय-ताल क्षणांश को भी टूटती नहीं । जब भी मैं महेश के साथ होती हूँ, यही आवाज मुझे सम्मोहित करती है ।…. वे लोग शरीर हैं, केवल शरीर। पैसे के लिए शरीर बेचती हैं । पैसे हाथ में आने के बाद सबकुछ भूलकर शरीर-साधना करती हैं ।” 13  मनु के इस वक्तव्य से यह स्पष्ट होता है कि भारत में अधिकांश ऐसी विवाहित स्त्रियां है जो काम-क्रीड़ा में शरीर से तो पति के साथ होती है लेकिन मन से नहीं क्योंकि उन पुरुषों की दृष्टि में पत्नी केवल शरीर है । पुरुष का यह वस्तुवादी दृष्टिकोण उसे स्वयं को वेश्या सोचने पर मजबूर करता है जहां सेक्स केवल मुनाफे और इन्द्रियजनित सुख के लिए होता है । ऐसी स्थिति में “मेरा प्यार भरा आत्म-तिरस्कार उसे इतना उत्तेजित तो अवश्य कर देता कि वह चटपट मुझसे प्यार कर डालता,पर करता निहायत ठंडेपन से । मुझे लगता एहसास करने की भावना से वह एक ऊंचाई से मेरी तरफ झुकता है और मुझे प्यार करके अलग हो जाता है । मेरी असंतुष्ट देह पीटी सी पड़ी रहती है और मैं अगले दिन के अपने अपमान की योजना बनाने लगती हूँ ।”14  स्त्री के लिए सेक्स केवल मैथुन क्रिया न होकर एक भावनात्मक एहसास है जिसे वह धीरे-धीरे महसूस करते हुए समागम की ओर जाना चाहती है । वात्स्यायन ने कामसूत्र में इसकी ओर संकेत किया है “चुम्बन,आलिंगन आदि के साथ गाल, स्तन, नितम्ब आदि विशेष अंगों के स्पर्श से जो फलवती प्रतीति होती है अर्थात् आनंद मिलता है वह काम है ।” 15 सामंतवादी पुंसवादी समाज में पुरुष अपने पॉवर का इस्तेमाल करके स्त्री को सिर्फ भोगता है। ऐसे में सेक्स स्त्रियों में आनंद न उत्पन्न कर डर, विकर्षण, असंतुष्टि, निराशा आदि को जन्म देता है। इसी असंतुष्टि के कारण स्त्रियां कामुक सुख का आनंद नहीं ले पाती और यदि स्त्रियां अपनी कामुकता को व्यक्त करती है तो यह समाज, पुरुष उसे स्वीकार नहीं कर पाता और  उसे अप्राकृतिक, अस्वाभाविक मानता है मानों स्त्रियों में कामुकता या कामुक आनंद हो ही नहीं सकता यह तो केवल पुरुषों के लिए है । यहाँ तक कि आधुनिकता का दिखावा करने वाले पुरुष भी स्त्री के लज्जा रहित कामुकता को स्वीकार नहीं कर पाते। ‘एक और विवाह’ का मदन जो अमेरिका से लौटा है और अपने होने वाली पत्नी से वहाँ के स्त्रियों के खुलेपन की तारीफ करता है लेकिन जब शादी की पहली रात कोमल लज्जा रहित सेक्स करती है और यौन तृप्ति का अनुभव करती है तो अगली सुबह मदन व्यंग्यार्थ भाव से कहता है कि “वाह, तुम तो अमेरिकन स्त्रियों को मात करती हो, तो कोमल को तनिक सुख नहीं मिला।” आधुनिकता की मोटी चादर ओढ़े पुरुष आज भी यह अस्वीकार नहीं करना चाहता कि ‘लज्जा स्त्री का गहना है ।’

निष्कर्ष

IMG 20210422 230141 34fd30c6अतः स्त्री के लिए सेक्स केवल मैथुन क्रिया न होकर आनंद है | इस आनंद का सम्बन्ध स्त्री के शरीर और मन दोनों से जुड़ा हुआ है जो उसे कामुक आनन्द से अभिभूत करता है | स्त्री को कामुक आनंद की अनुभूति तभी होती है जब शरीर और मन एक साथ होते है | किसी एक अभाव में उसे यौन तृप्ति नहीं होती है | पितृसत्ता समाज में पुरुष ने स्त्री को केवल देह रूप में ही स्वीकार किया है | स्त्री की कामुकता, उसकी इच्छा-अनिच्छा जानने का कभी प्रयास नहीं किया केवल अपना अधिकार जमाया है जिसके कारण स्त्री सेक्स के समय पुरुष के साथ तो होती है लेकिन केवल शरीर से | अब उसे केवल शरीर बने रहना स्वीकार नहीं है | वह पुरुष की साथी बनकर कामुकता का आनंद लेना चाहती है | नैतिकता, आदर्श, लज्जा के बंधन को त्यागकर वह अपनी कामुकता को अपने अस्तित्व के साथ खुलकर स्वीकार करने की क्षमता अब रखती है |

सन्दर्भ ग्रंथ-सूची :-

  1. कामुकता पोर्नोग्राफी और स्त्रीवाद- जगदीश्वर चतुर्वेदी, सुधा सिंह, प्रथम संस्करण-2007, आनंद प्रकाशन, कोलकाता, पृष्ठ- 55
  2. संगति-विसंगति भाग-1 – मृदुला गर्ग, प्रथम संस्करण- 2004, नेशनल पेपरबैक्स, नयी दिल्ली, पृष्ठ- 147
  3. वही, पृष्ठ- 147
  4. चित्तकोबरा- मृदुला गर्ग, तीसरा संस्करण -2017, राजकमल पेपरबैक्स, नई दिल्ली, पृष्ठ- 88
  5. कामुकता पोर्नोग्राफी और स्त्रीवाद- जगदीश्वर चतुर्वेदी, सुधा सिंह, प्रथम संस्करण-2007, आनंद प्रकाशन, कोलकाता, पृष्ठ- 54
  6. वही, पृष्ठ- 54
  7. ए डिक्शनरी ऑफ़ फिलासफी- फ्लुगल, पृष्ठ- 79
  8. संगति-विसंगति भाग-1 – मृदुला गर्ग, प्रथम संस्करण- 2004, नेशनल पेपरबैक्स, नयी दिल्ली, पृष्ठ- 109
  9. चित्तकोबरा- मृदुला गर्ग, तीसरा संस्करण -2017, राजकमल पेपरबैक्स, नई दिल्ली, पृष्ठ- 109
  10. वही, पृष्ठ- 93-94
  11. संगति-विसंगति भाग-1 – मृदुला गर्ग, प्रथम संस्करण- 2004, नेशनल पेपरबैक्स, नयी दिल्ली, पृष्ठ- 329
  12. चित्तकोबरा- मृदुला गर्ग, तीसरा संस्करण -2017, राजकमल पेपरबैक्स, नई दिल्ली, पृष्ठ- 96
  13. वही, पृष्ठ- 98
  14. संगति-विसंगति भाग-1 – मृदुला गर्ग, प्रथम संस्करण- 2004, नेशनल पेपरबैक्स, नयी दिल्ली, पृष्ठ- 329
  15. हिंदी साहित्य ज्ञानकोश, प्रधान संपादक- शंभुनाथ, प्रथम संस्करण- भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता