पाठीयता के प्रतिमान
मोहिनी मुरारका
पी-एच.डी.हिंदी (भाषा-प्रौद्योगिकी)
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी
विश्वविद्यालय, वर्धा
विश्वविद्यालय, वर्धा
शोध-सारांश
वस्तुतः पाठ एक
संप्रेषणात्मक अभिव्यक्ति है। इस संप्रेषणात्मक अभिव्यक्ति की लिखित इकाई को पाठ
कहा जाता है। पाठभाषाविज्ञान के अनुसार राबर्ट-एलन द ब्यूग्रांड और वुल्फगेंग
ड्रेसलर जैसे भाषाविदों ने किसी लिखित इकाई को पाठ कहने के लिए उसमें सात
प्रतिमानों (संसक्ति, संगति, सोद्देश्यता,
स्वीकार्यता, सूचनात्मकता,
स्थित्यात्मकता, अंतर-पाठीयता) का होना आवश्यक बताया है। अतः
पाठीयता के बोध के लिए इन सात प्रतिमानों का होना आवश्यक है। प्रस्तुत पत्र में पाठीयता
के इन सातों प्रतिमानों की सविस्तार चर्चा की गई है।
संप्रेषणात्मक अभिव्यक्ति है। इस संप्रेषणात्मक अभिव्यक्ति की लिखित इकाई को पाठ
कहा जाता है। पाठभाषाविज्ञान के अनुसार राबर्ट-एलन द ब्यूग्रांड और वुल्फगेंग
ड्रेसलर जैसे भाषाविदों ने किसी लिखित इकाई को पाठ कहने के लिए उसमें सात
प्रतिमानों (संसक्ति, संगति, सोद्देश्यता,
स्वीकार्यता, सूचनात्मकता,
स्थित्यात्मकता, अंतर-पाठीयता) का होना आवश्यक बताया है। अतः
पाठीयता के बोध के लिए इन सात प्रतिमानों का होना आवश्यक है। प्रस्तुत पत्र में पाठीयता
के इन सातों प्रतिमानों की सविस्तार चर्चा की गई है।
प्रस्तावना :
राबर्ट-एलन द
ब्यूग्रांड और वुल्फगेंग ड्रेसलर जैसे भाषाविदों ने पाठ को संप्रेषणात्मक
प्रस्तुति के रूप में परिभाषित करते हुए, पाठीयता के लिए आवश्यक सात
प्रतिमानों का उल्लेख किया है। जिनकी कसौटी पर खरा उतरने पर ही कोई भाषिक उक्ति या
उक्ति समुच्चय पाठ संज्ञा से अभिहित किया जा सकता है। ये प्रतिमान 1. संसक्ति (Cohesion) 2. संगति (Coherence) 3. सोद्देश्यता (Intentionality) 4. स्वीकार्यता (Acceptability) 5. सूचनात्मकता (Informativity) 6. स्थित्यात्मकता
(Situationality) 7. अंतरपाठीयता (Intertextuality) है।
ब्यूग्रांड और वुल्फगेंग ड्रेसलर जैसे भाषाविदों ने पाठ को संप्रेषणात्मक
प्रस्तुति के रूप में परिभाषित करते हुए, पाठीयता के लिए आवश्यक सात
प्रतिमानों का उल्लेख किया है। जिनकी कसौटी पर खरा उतरने पर ही कोई भाषिक उक्ति या
उक्ति समुच्चय पाठ संज्ञा से अभिहित किया जा सकता है। ये प्रतिमान 1. संसक्ति (Cohesion) 2. संगति (Coherence) 3. सोद्देश्यता (Intentionality) 4. स्वीकार्यता (Acceptability) 5. सूचनात्मकता (Informativity) 6. स्थित्यात्मकता
(Situationality) 7. अंतरपाठीयता (Intertextuality) है।
इन भाषाविदों के
अनुसार किसी पाठ को पाठ कहने के लिए या पाठ की संरचना के लिए इन सात प्रतिमानों का
होना आवश्यक है। अतः इनमें से किसी एक प्रतिमान के न होने पर पाठ में संप्रेषणीयता
नहीं होगी और जब तक किसी पाठ में संप्रेषणीयता नहीं होगी तब तक उसे पाठ नहीं कहा
जा सकता। संक्षेप में पाठीयता के बोध के लिए इन सात प्रतिमानों का होना आवश्यक है।
अनुसार किसी पाठ को पाठ कहने के लिए या पाठ की संरचना के लिए इन सात प्रतिमानों का
होना आवश्यक है। अतः इनमें से किसी एक प्रतिमान के न होने पर पाठ में संप्रेषणीयता
नहीं होगी और जब तक किसी पाठ में संप्रेषणीयता नहीं होगी तब तक उसे पाठ नहीं कहा
जा सकता। संक्षेप में पाठीयता के बोध के लिए इन सात प्रतिमानों का होना आवश्यक है।
1. संसक्ति (Cohesion)
– पाठीयता
के प्रथम प्रतिमान को संसक्ति कहते हैं। संसक्ति वास्तव में शाब्दिक
एवं व्याकरणिक संजाल है, जो पाठ के विभिन्न भागों के बीच जुड़ाव एवं अन्य संबंधों को दर्शाती है, साथ ही पाठ के संगठन में सहायक होती है। अन्य शब्दों में संसक्ति का
संबंध उन घटकों से है जिनके आधार पर पाठ के बाह्य स्तर पर प्रयुक्त शब्द परस्पर
संबद्ध होते हैं। बाह्य स्तर पर प्रयुक्त ये शब्द व्याकरणिक नियमों से बंधे होते
हैं, इसलिए संसक्ति का सीधा संबंध पाठ की व्याकरणिकता से
होता है। बाह्य स्तर पर पाठ जिस व्याकरणिक संरचनाओं द्वारा जुड़ा होता है उन्हीं के
माध्यम से पाठ के अर्थ और प्रयोग को समझा जाता है। अतः कहा जा सकता है कि संसक्ति
ही किसी वाक्य-समुच्चय को पाठ के रूप में निष्पादित करती है और यही बुनावट का मूल
तत्व है। हैलीडे और हसन
(1976) ने संसक्ति की युक्तियों को पाँच भागों में विभाजित किया। 1.संदर्भ (Reference) 2.प्रतिस्थापन (Substitution) 3.अध्याहार (Ellipsis) 4.समुच्चयबोधक (Conjunction) 5.शाब्दिक
संसक्ति (Lexical Cohesion)
– पाठीयता
के प्रथम प्रतिमान को संसक्ति कहते हैं। संसक्ति वास्तव में शाब्दिक
एवं व्याकरणिक संजाल है, जो पाठ के विभिन्न भागों के बीच जुड़ाव एवं अन्य संबंधों को दर्शाती है, साथ ही पाठ के संगठन में सहायक होती है। अन्य शब्दों में संसक्ति का
संबंध उन घटकों से है जिनके आधार पर पाठ के बाह्य स्तर पर प्रयुक्त शब्द परस्पर
संबद्ध होते हैं। बाह्य स्तर पर प्रयुक्त ये शब्द व्याकरणिक नियमों से बंधे होते
हैं, इसलिए संसक्ति का सीधा संबंध पाठ की व्याकरणिकता से
होता है। बाह्य स्तर पर पाठ जिस व्याकरणिक संरचनाओं द्वारा जुड़ा होता है उन्हीं के
माध्यम से पाठ के अर्थ और प्रयोग को समझा जाता है। अतः कहा जा सकता है कि संसक्ति
ही किसी वाक्य-समुच्चय को पाठ के रूप में निष्पादित करती है और यही बुनावट का मूल
तत्व है। हैलीडे और हसन
(1976) ने संसक्ति की युक्तियों को पाँच भागों में विभाजित किया। 1.संदर्भ (Reference) 2.प्रतिस्थापन (Substitution) 3.अध्याहार (Ellipsis) 4.समुच्चयबोधक (Conjunction) 5.शाब्दिक
संसक्ति (Lexical Cohesion)
2. संगति (Coherence) – पाठीयता का द्वितीय
प्रतिमान संगति है। इस प्रतिमान के अंतर्गत विभिन्न घटक किस प्रकार परस्पर संबंद्ध
हुए है अथवा होते हैं, इसका अध्ययन किया जाता है। अर्थात संगति के अंतर्गत आंतरिक धरातल पर
निहित संकल्पनाओं और संबंधों के रूप की परस्पर संबद्धता का अध्ययन किया जाता है।
संसक्ति पाठ के बाह्य संरचनात्मक स्वरूप में परिलक्षित होती है, जबकि संगति आंतरिक तल का वैशिष्ट्य है। जो बाह्य संरचना में झलकती है।
दूसरे शब्द में जब पाठ में सभी अंश या चरण तार्किक अनुक्रम में एक साथ जुड़े होते
हैं, तब संगति होती है। इसी संदर्भ में निम्नलिखित उदाहरण दृष्टव्य हैं-
प्रतिमान संगति है। इस प्रतिमान के अंतर्गत विभिन्न घटक किस प्रकार परस्पर संबंद्ध
हुए है अथवा होते हैं, इसका अध्ययन किया जाता है। अर्थात संगति के अंतर्गत आंतरिक धरातल पर
निहित संकल्पनाओं और संबंधों के रूप की परस्पर संबद्धता का अध्ययन किया जाता है।
संसक्ति पाठ के बाह्य संरचनात्मक स्वरूप में परिलक्षित होती है, जबकि संगति आंतरिक तल का वैशिष्ट्य है। जो बाह्य संरचना में झलकती है।
दूसरे शब्द में जब पाठ में सभी अंश या चरण तार्किक अनुक्रम में एक साथ जुड़े होते
हैं, तब संगति होती है। इसी संदर्भ में निम्नलिखित उदाहरण दृष्टव्य हैं-
1. दोनों कड़ी मेहनत
करते थे।
करते थे।
2. बेचारे बैल को भी
रूखा-सूखा ही भूसा मिलता था।
रूखा-सूखा ही भूसा मिलता था।
3.
उसके पास एक बैल था।
उसके पास एक बैल था।
4.
एक किसान था।
एक किसान था।
5.फिर भी किसान का गुजारा मुश्किल से चलता था।
6.
पर बैल बड़ा संतोषी था।
पर बैल बड़ा संतोषी था।
उपर्युक्त 6 वाक्यों को यदि इसी क्रम
में अनुच्छेदबद्ध कर दे तो यह पाठ नहीं कहलाएगा। क्योंकि इन वाक्यों को
अनुच्छेदबद्ध करने पर न तो इनमें कोई तार्किक संबंध मिलेगा और न ही कोई संसक्ति।
दूसरे शब्दों में ये सभी वाक्य मिलकर किसी संदेश को उद्घाटित करने में असमर्थ
होंगे। किंतु जब इन वाक्यों को भाषा पाठों के पूर्वानुभावों के आधार पर पुनः
व्यक्त किया जाएगा तो यह अनुच्छेद सहजतः निम्नलिखित पाठ के रूप में प्रकट होगा।
जिसमें संसक्ति के साथ ही संगति भी उद्घाटित होगी।
1.
एक किसान था। 2. उसके पास एक बैल था। 3.
दोनों कड़ी मेहनत करते थे। 4. फिर भी किसान का
गुजारा मुश्किल से चलता था। 5. बेचारे बैल को भी रुख-सूखा
भूसा ही मिलता था। 6. पर बैल संतोषी था।
एक किसान था। 2. उसके पास एक बैल था। 3.
दोनों कड़ी मेहनत करते थे। 4. फिर भी किसान का
गुजारा मुश्किल से चलता था। 5. बेचारे बैल को भी रुख-सूखा
भूसा ही मिलता था। 6. पर बैल संतोषी था।
उपर्युक्त उदाहरण द्वारा
स्पष्ट होता है कि एक समग्र पाठ संबद्धता को प्रदर्शित करता है तथा अपनी विशेष बनावट और बुनावट द्वारा संपूर्ण लेखन का आधार
होता है साथ ही जो (पाठ-केंद्रित) प्रतिमानों अर्थात संसक्ति एवं संगति को भी
दर्शाता है।
स्पष्ट होता है कि एक समग्र पाठ संबद्धता को प्रदर्शित करता है तथा अपनी विशेष बनावट और बुनावट द्वारा संपूर्ण लेखन का आधार
होता है साथ ही जो (पाठ-केंद्रित) प्रतिमानों अर्थात संसक्ति एवं संगति को भी
दर्शाता है।
3. सोद्देश्यता (Intentionality) – सोद्देश्यता पाठीयता का तृतीय प्रतिमान है। वास्तव में पाठ
की संप्रेषणीयता को समझने के लिए प्रयोक्ता केंद्रित अवधारणाओं को समझना भी आवश्यक
होता है। प्रयोक्ता से तात्पर्य यहाँ रचनाकार एवं पाठक दोनों से है,
क्योंकि रचनाकार किसी विशेष उद्देश्य या अभिप्राय को पाठक तक संप्रेषित करने के
लिए पाठ की रचना करता है, अर्थात पाठ संरचना के इस तृतीय
प्रतिमान का सीधा संबंध रचनाकार से है। इसमें पाठ के रचयिता का दृष्टिकोण उजागर
होना चाहिए। पाठ रचयिता अपने लक्ष्य या मंतव्य को प्राप्त करने के लिए जो योजना
बनाता है, उसे यह सोद्देश्यता ही प्राप्त करती है। पाठ की
योजना का उद्देश्य भी यही होता है। इस दृष्टिकोण की प्राप्ति पाठ की बाह्य संरचना
से होती है। वास्तव में सोद्देश्यता रचनाकार के इस दृष्टिकोण पर निर्भर है कि वह
विभिन्न इकाइयों को एक संसक्त एवं संगत पाठ के रूप में प्रस्तुत कर रहा है ताकि वह
रचनाकार के उद्देश्य के अनुरूप सुनियोजित रूप से ज्ञान-संप्रेषण या निश्चित
प्रतिपाद्य को अभिव्यक्त कर सके।
की संप्रेषणीयता को समझने के लिए प्रयोक्ता केंद्रित अवधारणाओं को समझना भी आवश्यक
होता है। प्रयोक्ता से तात्पर्य यहाँ रचनाकार एवं पाठक दोनों से है,
क्योंकि रचनाकार किसी विशेष उद्देश्य या अभिप्राय को पाठक तक संप्रेषित करने के
लिए पाठ की रचना करता है, अर्थात पाठ संरचना के इस तृतीय
प्रतिमान का सीधा संबंध रचनाकार से है। इसमें पाठ के रचयिता का दृष्टिकोण उजागर
होना चाहिए। पाठ रचयिता अपने लक्ष्य या मंतव्य को प्राप्त करने के लिए जो योजना
बनाता है, उसे यह सोद्देश्यता ही प्राप्त करती है। पाठ की
योजना का उद्देश्य भी यही होता है। इस दृष्टिकोण की प्राप्ति पाठ की बाह्य संरचना
से होती है। वास्तव में सोद्देश्यता रचनाकार के इस दृष्टिकोण पर निर्भर है कि वह
विभिन्न इकाइयों को एक संसक्त एवं संगत पाठ के रूप में प्रस्तुत कर रहा है ताकि वह
रचनाकार के उद्देश्य के अनुरूप सुनियोजित रूप से ज्ञान-संप्रेषण या निश्चित
प्रतिपाद्य को अभिव्यक्त कर सके।
4. स्वीकार्यता
(Acceptability) – पाठीयता का चतुर्थ
प्रतिमान स्वीकार्यता है। स्वीकार्यता का संबंध प्राप्तकर्ता की पाठ विषयक
अभिवृत्ति या दृष्टि से है कि वह एक संसक्त और संगत पाठ का वाचन कर रहा है। एक
मातृ भाषाभाषी जिस सीमा तक भाषिक सामग्री को संभव तथा मान्य समझता है उसे ‘स्वीकार्यता’ की संज्ञा दी जाती है। वास्तव में किसी कथन की स्वीकार्यता निर्धारित
करने में अनेक जटिलताएँ आती हैं क्योंकि प्रायः मातृभाषियों के स्वीकार्यता संबंधी
निर्णय समान नहीं होते अर्थात इस प्रतिमान के अनुसार पाठ इस तरह से संसक्ति और
संगति से युक्त होना चाहिए कि वह प्राप्तकर्ता/पाठक के लिए उपयोगी और प्रासंगिक
हो। अर्थात जिससे उसे कुछ ज्ञान या निश्चित संदेश प्राप्त हो सके।
(Acceptability) – पाठीयता का चतुर्थ
प्रतिमान स्वीकार्यता है। स्वीकार्यता का संबंध प्राप्तकर्ता की पाठ विषयक
अभिवृत्ति या दृष्टि से है कि वह एक संसक्त और संगत पाठ का वाचन कर रहा है। एक
मातृ भाषाभाषी जिस सीमा तक भाषिक सामग्री को संभव तथा मान्य समझता है उसे ‘स्वीकार्यता’ की संज्ञा दी जाती है। वास्तव में किसी कथन की स्वीकार्यता निर्धारित
करने में अनेक जटिलताएँ आती हैं क्योंकि प्रायः मातृभाषियों के स्वीकार्यता संबंधी
निर्णय समान नहीं होते अर्थात इस प्रतिमान के अनुसार पाठ इस तरह से संसक्ति और
संगति से युक्त होना चाहिए कि वह प्राप्तकर्ता/पाठक के लिए उपयोगी और प्रासंगिक
हो। अर्थात जिससे उसे कुछ ज्ञान या निश्चित संदेश प्राप्त हो सके।
5. सूचनात्मकता (Informativity) – सूचनात्मकता पाठात्मकता का पंचम प्रतिमान है। सूचनात्मकता
अर्थात पाठ में कुछ-न-कुछ ऐसा होना चाहिए जो संभावित की तुलना में असंभावित या
ज्ञात के तुलना में अज्ञात को व्यक्त करता हो। दूसरे शब्दों में पाठ में कथित
घटनाएँ प्राप्तकर्ता की आशाओं के कितनी अनुरूप हैं और कितनी अननुरूप, कितनी
ज्ञात हैं और कितनी अज्ञात, इन्हीं बिंदुओं पर उसकी
प्रतिक्रिया निर्भर करती है।
अर्थात पाठ में कुछ-न-कुछ ऐसा होना चाहिए जो संभावित की तुलना में असंभावित या
ज्ञात के तुलना में अज्ञात को व्यक्त करता हो। दूसरे शब्दों में पाठ में कथित
घटनाएँ प्राप्तकर्ता की आशाओं के कितनी अनुरूप हैं और कितनी अननुरूप, कितनी
ज्ञात हैं और कितनी अज्ञात, इन्हीं बिंदुओं पर उसकी
प्रतिक्रिया निर्भर करती है।
वास्तव में पाठ के
अंतर्गत सूचनाओं के अनुक्रम होते हैं। सूचनात्मकता पाठ के संदेश को उजागर या
विस्तारित करती है। इसमें उम्मीद की जाती है कि पाठ पाठक के लिए नया हो तथा उसमें
कुछ नई जानकारियाँ शामिल हो, किंतु यह सूचनात्मकता इतनी भी न हो कि
संप्रेषण बाधित हो जाए। अल्पसूचनात्मकता प्राप्तकर्ता में ऊब उत्पन्न कर सकती है, जिससे वह उसे अस्वीकार भी कर सकता है। इस संदर्भ में ड्रेसलर ने एक अच्छा
उदाहरण दिया है। विज्ञान विषयक कोई पाठ, यदि निम्नलिखित
वाक्य से प्रारंभ हो-
अंतर्गत सूचनाओं के अनुक्रम होते हैं। सूचनात्मकता पाठ के संदेश को उजागर या
विस्तारित करती है। इसमें उम्मीद की जाती है कि पाठ पाठक के लिए नया हो तथा उसमें
कुछ नई जानकारियाँ शामिल हो, किंतु यह सूचनात्मकता इतनी भी न हो कि
संप्रेषण बाधित हो जाए। अल्पसूचनात्मकता प्राप्तकर्ता में ऊब उत्पन्न कर सकती है, जिससे वह उसे अस्वीकार भी कर सकता है। इस संदर्भ में ड्रेसलर ने एक अच्छा
उदाहरण दिया है। विज्ञान विषयक कोई पाठ, यदि निम्नलिखित
वाक्य से प्रारंभ हो-
“The
sea is water………”
तो सुज्ञात सूचना की स्थिति होगी। इस पाठ का
कथ्य/अर्थ इतना ज्ञात है कि कथन की कोई आवश्यकता ही प्रतीत नहीं होती। इसमें पदों
की सन्निधि भी है, संसक्ति भी है, स्वीकार्यता भी है, किंतु ऐसी कोई सूचना नहीं है, जिसे अज्ञात कहा जा
सके। यही पाठ यदि निम्नलिखित रूप में हो-
कथ्य/अर्थ इतना ज्ञात है कि कथन की कोई आवश्यकता ही प्रतीत नहीं होती। इसमें पदों
की सन्निधि भी है, संसक्ति भी है, स्वीकार्यता भी है, किंतु ऐसी कोई सूचना नहीं है, जिसे अज्ञात कहा जा
सके। यही पाठ यदि निम्नलिखित रूप में हो-
“The
sea is water in the sense that water is the dominant substance present.
Actually it is solution of gases and salts in addition to vast number of living
organisms…………”
sea is water in the sense that water is the dominant substance present.
Actually it is solution of gases and salts in addition to vast number of living
organisms…………”
तो अतिरिक्त
सूचनाएँ उपलब्ध होती है। संरचना के बाह्य स्तर पर प्रयुक्त ‘Actually’ पद यह सूचित करता है कि समुद्र पानी ही नहीं है,
बल्कि और भी बहुत कुछ है, अतः सूचनात्मकता का स्तर बढ़ जाता
है।
सूचनाएँ उपलब्ध होती है। संरचना के बाह्य स्तर पर प्रयुक्त ‘Actually’ पद यह सूचित करता है कि समुद्र पानी ही नहीं है,
बल्कि और भी बहुत कुछ है, अतः सूचनात्मकता का स्तर बढ़ जाता
है।
6. स्थित्यात्मकता (Situationality) – स्थित्यात्मकता पाठीयता के प्रतिमानों में से एक है। इससे
तात्पर्य है कि प्रत्येक पाठ की प्रासंगिकता उस पाठ की प्रस्तुति की स्थिति से
जुड़ी होती है। जैसे – ट्रैफिक के निर्देशों ‘धीरे
चले’, ‘आगे गतिरोधक है’, ‘हॉर्न बजाना मना है’ आदि का
सीधा संबंध अलग-अलग स्थितियों से है। ‘धीरे चले’ और ‘हॉर्न बजाना मना है’
निर्देश किसी विद्यालय या अस्पताल से पहले ही प्रासंगिक होंगे। गतिरोधक से पहले ही
‘आगे गतिरोधक है’ निर्देश का औचित्य
होगा। कहने का तात्पर्य है कि प्रत्येक पाठ किसी विशेष स्थिति एवं रूपों में ही
प्रासंगिक होता है, अन्यथा उस पाठ की पाठीयता संदिग्ध हो
जाती है।
तात्पर्य है कि प्रत्येक पाठ की प्रासंगिकता उस पाठ की प्रस्तुति की स्थिति से
जुड़ी होती है। जैसे – ट्रैफिक के निर्देशों ‘धीरे
चले’, ‘आगे गतिरोधक है’, ‘हॉर्न बजाना मना है’ आदि का
सीधा संबंध अलग-अलग स्थितियों से है। ‘धीरे चले’ और ‘हॉर्न बजाना मना है’
निर्देश किसी विद्यालय या अस्पताल से पहले ही प्रासंगिक होंगे। गतिरोधक से पहले ही
‘आगे गतिरोधक है’ निर्देश का औचित्य
होगा। कहने का तात्पर्य है कि प्रत्येक पाठ किसी विशेष स्थिति एवं रूपों में ही
प्रासंगिक होता है, अन्यथा उस पाठ की पाठीयता संदिग्ध हो
जाती है।
यदि इन्हीं
ट्रैफिक के निर्देशों को विस्तृत रूप में लिख दिया जाए तो यह पाठ वाहन चालकों के
लिए अर्थहीन एवं अप्रासंगिक हो जाएगा। क्योंकि चलते हुए वाहन की गति एवं सड़क पर
चलने वाले अन्य वाहनों के प्रति सजगता के कारण वाहन चालक केवल संक्षिप्त रूप में
लिखे निर्देशों को ही कम समय में देख पाएगा। इस प्रकार संक्षिप्त ट्रैफिक
निर्देशों की पाठीयता अधिक होगी विस्तृत पाठों की नहीं।
ट्रैफिक के निर्देशों को विस्तृत रूप में लिख दिया जाए तो यह पाठ वाहन चालकों के
लिए अर्थहीन एवं अप्रासंगिक हो जाएगा। क्योंकि चलते हुए वाहन की गति एवं सड़क पर
चलने वाले अन्य वाहनों के प्रति सजगता के कारण वाहन चालक केवल संक्षिप्त रूप में
लिखे निर्देशों को ही कम समय में देख पाएगा। इस प्रकार संक्षिप्त ट्रैफिक
निर्देशों की पाठीयता अधिक होगी विस्तृत पाठों की नहीं।
7. अंतरपाठीयता
(Intertextuality) – अंतरपाठीयता का सरोकार
पाठ के साथ तब होता है, जब वह पाठ ज्ञान और समझ की दृष्टि से दूसरे पाठ पर निर्भर करता है, तथा उसे विकसित करने में मदद करता है। उदा. यदि पाठ में कहा जा रहा है कि
‘उपर्युक्त पाठ के आधार पर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दें, तो नीचे दिए गए सभी प्रश्नों का सीधा संबंध उसके ऊपर दिए गए पाठ के अंश
से होगा। यदि इस पंक्ति उपरोक्त पाठ…’। के ऊपर कोई पाठ नहीं दिया गया है तो न इस पंक्ति की कोई प्रासंगिकता
होगी न ही उसके नीचे दिए गए प्रश्नों की। अर्थात किसी कलाकृति या रचना की समीक्षा
किसी तथ्य का खंडन आदि तभी पाठीयता से युक्त होंगे जब प्रापक को इन सभी के मूल की
जानकारी होगी। इस सिद्धांत का प्रयोग साहित्य के अध्ययन के लिए किया जाता है।
साहित्य-पाठों में किसी भी रचे जानेवाले पाठ में पूर्व पाठ या पाठांश का उपयोग
अंतर पाठीयता कहलाता है।
(Intertextuality) – अंतरपाठीयता का सरोकार
पाठ के साथ तब होता है, जब वह पाठ ज्ञान और समझ की दृष्टि से दूसरे पाठ पर निर्भर करता है, तथा उसे विकसित करने में मदद करता है। उदा. यदि पाठ में कहा जा रहा है कि
‘उपर्युक्त पाठ के आधार पर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दें, तो नीचे दिए गए सभी प्रश्नों का सीधा संबंध उसके ऊपर दिए गए पाठ के अंश
से होगा। यदि इस पंक्ति उपरोक्त पाठ…’। के ऊपर कोई पाठ नहीं दिया गया है तो न इस पंक्ति की कोई प्रासंगिकता
होगी न ही उसके नीचे दिए गए प्रश्नों की। अर्थात किसी कलाकृति या रचना की समीक्षा
किसी तथ्य का खंडन आदि तभी पाठीयता से युक्त होंगे जब प्रापक को इन सभी के मूल की
जानकारी होगी। इस सिद्धांत का प्रयोग साहित्य के अध्ययन के लिए किया जाता है।
साहित्य-पाठों में किसी भी रचे जानेवाले पाठ में पूर्व पाठ या पाठांश का उपयोग
अंतर पाठीयता कहलाता है।
निष्कर्ष :
पाठीयता के ये सभी
प्रतिमानों द्वारा पाठ संप्रेषणीय होता है तथा इनके अभाव में कोई भी पाठ
संप्रेषणीय नहीं रहता। दूसरे शब्दों में प्रतिमानों के अभाव में पाठ की मूल्यवत्ता
समाप्त हो सकती है। वास्तव में पाठीयता के प्रथम और द्वितीय प्रतिमान संसक्ति और
संगति पाठ-केंद्रित प्रतिमान है, तथा अन्य सभी प्रतिमान प्रयोक्ता केंद्रित
है। संसक्ति जहाँ संयोजकता को व्याख्यायित करती है। वहीं संगति का संबंध तार्किक
विचार से है। सोद्देश्यता में रचनाकार का दृष्टिकोण उजागर होता है अर्थात जब भी
कोई रचनाकार किसी पाठ की रचना करता है, तो उसका उद्देश्य होता
है कि वह जिस पाठ की रचना कर रहा है वह पाठ संसक्त तथा संगत हो। इसी प्रकार
स्वीकार्यता का संबंध पाठक अथवा प्राप्तकर्ता से होता है पाठक यह मानकर चलता है कि
जो पाठ वह पढ़ रहा है वह पाठ संसक्त तथा संगत है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि
पाठ में कुछ बातें व्यक्त होती है तथा कुछ बातें अव्यक्त। किंतु पाठक अपने पूर्व
ज्ञान के आधार पर उसे समझ लेता है।
प्रतिमानों द्वारा पाठ संप्रेषणीय होता है तथा इनके अभाव में कोई भी पाठ
संप्रेषणीय नहीं रहता। दूसरे शब्दों में प्रतिमानों के अभाव में पाठ की मूल्यवत्ता
समाप्त हो सकती है। वास्तव में पाठीयता के प्रथम और द्वितीय प्रतिमान संसक्ति और
संगति पाठ-केंद्रित प्रतिमान है, तथा अन्य सभी प्रतिमान प्रयोक्ता केंद्रित
है। संसक्ति जहाँ संयोजकता को व्याख्यायित करती है। वहीं संगति का संबंध तार्किक
विचार से है। सोद्देश्यता में रचनाकार का दृष्टिकोण उजागर होता है अर्थात जब भी
कोई रचनाकार किसी पाठ की रचना करता है, तो उसका उद्देश्य होता
है कि वह जिस पाठ की रचना कर रहा है वह पाठ संसक्त तथा संगत हो। इसी प्रकार
स्वीकार्यता का संबंध पाठक अथवा प्राप्तकर्ता से होता है पाठक यह मानकर चलता है कि
जो पाठ वह पढ़ रहा है वह पाठ संसक्त तथा संगत है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि
पाठ में कुछ बातें व्यक्त होती है तथा कुछ बातें अव्यक्त। किंतु पाठक अपने पूर्व
ज्ञान के आधार पर उसे समझ लेता है।
संदर्भ
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