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प्रेमचंद के आलोचक और आलोचकों के प्रेमचंद-सुशील द्विवेदी

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प्रेमचंद के आलोचक और आलोचकों के प्रेमचंद

-सुशील द्विवेदी

प्रेमचंद पर विचार करते हुए इस बात पर भी बहस जरुरी है कि आलोचकों ने प्रेमचंद को किस रूप में पढ़ा है | उनके प्रेमचंदीय –पाठ ने हिन्दी आलोचना के संवर्धन में कितनी श्रीवृद्धि की है | हमें उनके मूल्यों पर भी विचार करना होगा | यह आवश्यक नहीं है कि प्रेमचंद पर लिखी गयी प्रत्येक कृति नई मान्यताओं को स्थापित करेगी | प्रायः यह देखा गया है कि अधिकांश कृतियाँ अपने पूर्व पाठ की पुनरावृत्ति भर होती हैं | उनमें नई मान्यताओं का सर्वथा अभाव होता है | ऐसे में, क्या हम उस कृति को प्रेमचंदीय –पाठ की शृंखला में रख सकते हैं? यदि ऐसा नहीं, तो हमें कृतियों और कृतिकारों के मोह जाल से बचना होगा | हमें यह भी समझना होगा कि उनकी शाब्दिक प्रदीप्ति व उनके आभा-मंडल से उत्पन्न ऊष्मा नई पौध को साहित्य-परिसर में किस रीति से पल्लवित करेगी | हम कब तक पश्चिम के आँचल में मुँह छिपाए स्तैन्य होंगे | क्या हमारी मनीषा इतनी पैरासाइट हो गयी है कि हमें कृतियों के पाठ के लिए पश्चिम के व्योम की ओर ताकना पड़ रहा है | हमें साहित्य के नये निकष विकसित करने होंगे | किन्तु उसकी जमीन पूर्णतया भारतीय होनी चाहिए | भारतीय होने का अर्थ भारत की विभिन्न भाषाओँ, उसके साहित्य और विमर्शों के परस्पर संवाद व ज्ञान के आवागमन से है | जितनी जल्दी संभव हो सके, हमें यह समझना होगा कि हम एक दूसरे के बिना कितने एकांगी हैं | हमें अहं ब्रह्मास्मि के मिथ्या अभिमान से बचना होगा | हम भारत के वट वृक्ष हैं, साहित्य और संस्कृति इसकी शाखाएँ हैं | एक शाखा के अपल्लवित, अपुष्पित होने से वृक्ष की जो छवि आपके मानस में अंकित होगी, उसकी कल्पना आप स्वयं कर सकते हैं | उसे विवृत्य करने की आवश्यकता नहीं है |

प्रेमचंद के आलोचकों को जिनमें पाठकीय प्रतिक्रिया और अकादमिक पाठ दोनों शामिल हैं, को श्रेणीबद्ध करने की आवश्यकता है | साथ ही पाठकीय प्रतिक्रिया को जिसमें तात्कालिकता और भावनात्मक आवेग की प्रबलता का संकट अधिक होता है, उसे संग्रहीत करने की आवश्यकता है | और तो और अकादमिक पाठ की पेउंदा-तुरपाई-प्रवित्ति की छटनी भी होनी चाहिए | प्रेमचंद का अर्थ दुनिया के उन क्रांतिकारियों के सन्दर्भ में समझना चाहिए, जिन्हें पुरानी घिसी पिटी लकीरों में चलना पसंद न था | वे नवीन मार्गों के अन्वेषक थे जिसके बदले में उन्हें जीवन भर अपने समाज का दंश झेलना पड़ा | किन्तु वे विचलित नहीं हुए और आजीवन नवीन मूल्यों का सृजन करते रहे | वे सही मायनों में सृष्टा थे |

आरम्भ में प्रेमचंद के आलोचक केवल रेडिकल ब्राह्मणवादी नहीं थे, उनमें वे भी शामिल थे, जिन्हें उनके लेखन से खतरा था, वे हिन्दू नहीं थे,न भारतीय, वे ब्रिटिश थे | उन्हें प्रेमचंद से इसलिए खतरा था कि उनके लेखन से युवा प्रभावित होंगे और यदि राष्ट्र के हित में वे खड़े हो जायेंगे, परिणामस्वरूप ब्रिटिश यहाँ शासन नहीं कर पाएंगे | इसलिए 1907 ई. में प्रकाशित उनके कहानी संग्रह सोजे वतन को अँग्रेज सरकार द्वारा जब्त कर लिया गया | हालाँकि बाद के प्रेमचंद में वैसा स्वर न था जैसा स्वर सोजे वतन के नवाब राय में है | नवाब राय का प्रेमचंद में परिवर्तित होने की घटना भी कोई सामान्य नहीं है | उनका गमन हिन्दी प्रदेश में आदर्श से यथार्थ के ककरीले मार्गों पर हुआ है | जहाँ वे किरमिच के जूते पहनकर नहीं बल्कि नंगे पाँव चले हैं | इसलिए आरम्भ में उनकी आदर्शात्मक रीति के कारण ही आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने गार्हस्थ्य जीवन का साहित्यकार माना है | वे अपने इतिहास ग्रन्थ में प्रेमचंद की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं | निम्न और मध्यम श्रेणी के जीवन का यथार्थ चित्रण के कारण उच्च वर्गीय आलोचक उनसे नाराज भी रहे | इनमें श्री नारायण सिंह का नाम लिया जा सकता है | वे प्रेमचन्द के निम्न वर्ग की पक्षधरता व ब्राह्मण समाज के पाखंड का पर्दाफाश के कारण नाखुश हुए | उन्होंने प्रेमचंद को घृणा का प्रचारक तक कह दिया | प्रेमचंद सम्बन्धी छुटपुट लेख उनके समकालीन कृतिकारों के भी हैं किन्तु उनमें सर्वथा एकांगी दृष्टिकोण है | इससे नंददुलारे वाजपेयी भी अछूते नहीं रहे | उन्होंने प्रेमचंद की प्रगतिशीलता सम्बन्धी अवधारणा में साहित्य मत के शाश्वत लक्षण को अंगीकार किया किन्तु उनकी साहित्य सम्बन्धी उद्देश्यता को प्रोपेगेंडा कहा |

प्रेमचंद का समुचित मूल्यांकन डॉ. रामविलास शर्मा ने किया | उन्होंने प्रेमचंद को कबीर, तुलसी व भारतेंदु की परम्परा से जोड़ा ही नहीं बल्कि व्यापक राष्ट्रीय सन्दर्भों के परिप्रेक्ष्य में लेनिन – गोर्की, तोलेस्ताय व गाँधी के चिंतन को उनके सर्जना के बरक्स रखा | डॉ. इन्द्रनाथ मदान सरीखे आलोचकों ने उनकी सीमाओं को रेखांकित किया | प्रकाशचंद गुप्त ने प्रेमचंद को रवीन्द्रनाथ और शरतचन्द्र की संवेदना के तुल्य माना | इसके बाद आगे के तीन आलोचकों -नामवर सिंह, नित्यानंद तिवारी और मैनेज़र पाण्डेय प्रेमचंद का मूल्यांकन गाँधी, अम्बेडकर व दलित प्रश्न, वोल्सेविक क्रांति व मार्क्सवाद नये परिप्रेक्ष्य के सन्दर्भ में किया |

विमर्शों के उभार ने प्रेमचंद का नये सिरे से मूल्यांकन किया | दलित विमर्शकारों की उग्र वैचारिकी ने प्रेमचंद की दलित सम्बन्धी अनुभूतियों को ख़ारिज किया | मनुस्मृति-दहन के तर्ज पर रंगभूमि-दहन किया गया | इसमें बहुत से दलित विमर्शकार प्रकाश में आये किन्तु उनमें तल्ख़ टिप्पणी के अतिरिक्त प्रेमचंद के मूल्यांकन का कोई वृहद सन्दर्भ न था | बावजूद इसके कुछ दलित विमर्शकारों ने प्रेमचंद का नया मूल्यांकन किया – इनमें डॉ. धर्मवीर, ओमप्रकाश वाल्मीकि, कँवल भारती, नैमिशराय का नाम लिया जा सकता है | इसके समनांतर डॉ. पी.एन. सिंह, डॉ. शम्भुनाथ, वीरभारत तलवार, वीरेन्द्र यादव, बजरंग बिहारी तिवारी, अपूर्वानंद का नाम उल्लेखनीय है | साथ ही अब्दुल बिल्मिल्लाह, काशीनाथ सिंह, चौथीराम यादव, गोपेश्वर सिंह, चंद्रदेव यादव, जितेन्द्र श्रीवास्तव आदि का नाम लिया जा सकता है | इनके अतिरिक्त बहुत से आलोचक हैं जिनका उल्लेख करना यहाँ नहीं किया जा सकता है , उनका उल्लेख अन्य किसी आलेख में अवश्य करूंगा | मूल्यांकन का तीसरा पक्ष स्त्री वैचारिकी का है – इनमें निर्मला जैन, सुमन राजे, रंजना अड़गड़े, रोहिणी अग्रवाल, रमणिका गुप्ता का नाम विशेष उल्लेखनीय है | इस सभी आलोचकों ने प्रेमचंद की रचना धर्मिता को नये सिरे से मूल्यांकन किया है | इनके मूल्यांकन में अपने समय की खोज के साथ-साथ उनके नायकों की उपस्थिति भी है | किसी ने प्रेमचंद के हवाले से गाँधी, टैगोर, तोलेस्ताय की तलाश की तो किसी ने मार्क्स, लेनिन, गोर्की, तो किसी ने अम्बेडकर, सावित्रीबाई फुले की | आलोचकों के प्रेमचंद ने अपने समय को नायकों के गवाक्ष से समझा जबकि प्रेमचंद के आलोचकों ने समय के गवाक्ष से नायकों को | यह एक ही क्रिया की दो विपरीत अभिक्रियाएँ हैं | हमें इनके घटकों को समझने की आवश्यकता है | इनमें से एक घटक अपने अपने प्रेमचंद (पी.एन. सिंह) है | यह पुस्तक 2019 में प्रकशित हुई है | सामान्य अर्थ में यह पुस्तक प्रेमचंदीय-पाठ की शृंखला का उत्तर मार्क्सवादी पाठ भर है | किन्तु पाठ की गहराई में उतरते ही आपको नाना प्रकार के तंतुजाल मिलेंगे | जिनमें कहीं कहीं आलोचना के अमेरिकी-पाठ की झाँकी दिखेगी तो कहीं लेनिनवाद की | किन्तु धेय वह नहीं है, वह केवल साधन है | साध्य समाजवाद के बहाने प्रेमचंद की तलाश करना है |

पी. एन. सिंह विमर्शकाल की पीढ़ी के आलोचक हैं | यद्यपि हिंदी में उनका आगमन बहुत बाद में हुआ | पहले वे विचारक के रूप में धाक जमा चुके थे, उस समय उन्होंने नायपाल का भारत, गाँधी, अम्बेडकर, लोहिया, भारतीय वाल्तेयर एवं मार्क्स : बी.आर अम्बेडकर, गाँधी और उनका वर्धा जैसी पुस्तक लिख चुके थे | इनके चिंतन में कॉडवेल, मार्क्स,लेनिन, गाँधी,लोहिया, अम्बेडकर, इलियट, तोलोस्तॉय, गोर्की की सुदीर्घ वैचारकी स्पष्ट परिलक्षित होती है | वे कला कला के लिए के आग्रही नहीं हैं, बल्कि कला की सोद्देश्यता के विचारवान पक्षधर हैं | इसीलिए इस किताब की भूमिका में प्रो. सदानंद साही ने लिखा है – शेक्सपियर, मिल्टन,बर्नार्ड शॉ से लेकर तोलोस्तॉय,गोर्की, दोस्त्योवस्की,लुशून की नक्षत्र माला के बीच रमने वाले पी. एन. सिंह की पहली भेंट ही प्रेमचंद से तब होती है जब 1980-82 के दौर में प्रेमचंद की जन्म शती मनाई जा रही थी | इस घटना से पूर्व पी. एन. सिंह किस रूप में प्रेमचंद को देखते थे, यह विचारणीय बात है | हालाँकि जैसा की मैंने ऊपर जिक्र किया है कि प्रेमचंदीय-पाठ के इस समय विभिन्न और परम्परागत पाठ ही चलन में थे | पी. एन. सिंह ने आलोचना को इस परिपाटी को मुक्त किया | उन्होंने प्रेमचंद के सन्दर्भ में लिखा है – यह एक विचित्र साहित्यिक यात्रा है | वैचारिक स्तर पर यह यात्रा आर्यसमाज के समाज सुधार से शुरू होती हुई गाँधीवादी सत्याग्रह तक जाती है और अंततः मार्क्सवाद को लिए दिए रेडिकल हो जाती है | रामविलास शर्मा अपनी पुस्तक प्रेमचंद और उनका युग में प्रेमचंद के रचना के सन्दर्भ में लिखा है – प्रेमचंद हिंदुस्तान की नई राष्ट्रीय जनवादी चेतना के प्रतिनिधि साहित्यकार थे | जब उन्होंने लिखना शुरू किया था, तब संसार पर पहले महायुद्ध के बादल मंडरा रहे थे | जब मौत ने उनके हाथ से कलम छीन ली, तब दूसरे विश्व युद्ध की तैयारियां हो रही थी | इन दोनों अभिमतों से प्रेमचंद के रचना-समय और रचना की वैचारिकी का स्पष्ट मुआयना हो जाता है | दोनों आलोचकों के लिए प्रेमचंद का महत्व अपने समय की वैचारिकी की तलाश करना है | रामविलास शर्मा ने जहाँ आधुनिकता के गर्भ में से मार्क्सवादी पाठ को महत्व दिया वहीँ पी. एन. सिंह के चिंतन में प्रेमचंद का उत्तर आधुनिक पाठ है | वे संरचनात्मक पाठ से आगे जाकर नया और मानवतावादी पाठ तैयार करते हैं | उन्होंने लिखा है – बहुत सारे लोग यहाँ हो सकते हैं जो साहित्य को मात्र शब्द संरचना मानते हों | उनके लिए प्रेमचंद की कोई भी कृति मात्र अभिव्यक्ति है, सम्प्रेषण नहीं | इसी के आगे वे बाद पर बल देते हैं कि प्रेमचंद के लेखन का आयाम मूलतः संप्रेषण है | हालाँकि यह बात संरचनावादी योकोब्सन के काव्यशास्त्री भाषिकी से तुलनीय है | उन्होंने डी. सस्यूर के आधार पर भाषा के तंत्र को नया अर्थ दिया है | उनका मत है कि सृजनात्मक भाषा चयन और विन्यास दोनों का उपयोग करती है | विन्यास रचना की प्रतीकात्मकता, सांकेतिकता और अर्थ की बहुस्तरीयता के ताने बाने से निर्मित होती है | योकोब्सन ने रचना के सम्प्रेषणीयता को उद्घाटित किया है | उनकी तरह ही डॉ. पी.एन. सिंह ने पाठ के सम्प्रेषण-प्रक्रिया पर बल दिया है | पाठ की संप्रेषणीयता उसके विन्यास में नहीं, अपितु उसके अर्थ में निहित है | इसलिए अर्थ को ध्यान में रखते हुए उन्होंने प्रेमचंदीय-पाठ का आरम्भ यकोब्सन-प्रणाली से किया | सही मायने में प्रेमचंद को इसी अर्थ में पाठ किया जाना चाहिए |

1928 ई. में व्लादिमीर प्रॉप ने अपनी पुस्तक मोर्फ़ोलोजी ऑफ़ फ़ॉकटेल्स में लोक कथाओं के पात्रों और उनके क्रियाकलाप को इसी संरचना के रूप में देखा है | ठीक वैसे ही जैसे प्रेमचंद पंचपरमेश्वर, ईदगाह, बड़े भाई साहब या उपन्यासों के जरिये पाठकों पर छाप छोड़ते हैं जैसे पाठकों के व्यक्तित्व का रेखांकन प्रेमचंद ने बड़े सलीके से किया हो | पी. एन. सिंह प्रेमचंद के इसी व्यक्तित्व के कायल हैं | वे प्रेमचंद को भारतेंदु गोर्की और बर्नार्ड शॉ की श्रेणी में रखते हैं – प्रेमचंद ने भी देशी भारतेंदु और विदेशी गोर्की और बर्नार्ड शॉ की तरह ही लिखा है और इसके लिए खतरे उठाये | वे तुलसी और टैगोर वाले अभिमत को नहीं मानते | टैगोर को जब नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया जा रहा था ठीक उसी समय सोज़े वतन को जब्त कर लिया गया था | उनके लिए टैगोर से अधिक प्रेमचंद महत्वपूर्ण हैं | वे लिखते हैं कि रवीन्द्रनाथ मूलतः कवि हैं जो कथाकारों की जटिल दुनिया में अक्सर भटक जाया करते थे | संकल्पजीवी कथाकार प्रेमचंद ने काव्यलोक में भटकने का कभी जोखिम नहीं उठाया | इसी आलेख में वे प्रेमचंद और टैगोर, शरतचंद्र वाले अभिमत का नकार करते हैं | यह नकार दरअसल प्रकाशचंद्र गुप्त के प्रेमचंदीय-पाठ का नकार है जिसके बहाने पी. एन. सिंह ने प्रेमचंद के त्रासद व्यक्तित्व की तलाश की है | उन्होंने रचनाकार के बरक्स कथाकार और नाटककार के बरक्स कथाकार के रूपक का प्रयोग किया है | वे केवल बर्नार्ड शॉ के कोरे बौद्धिक उलझाव से प्रेमचंद की तुलना नहीं करते बल्कि बर्नार्ड शॉ के अति बौद्धिक उलझाव से प्रेमचंद को आगे ले जाते हैं –बर्नार्ड शॉ का सामाजिक उलझाव निरा बौद्धिक है, प्रेमचंद का उलझाव जितना बौद्धिक है ,उतना भावनात्मक भी | अतः बर्नार्ड शॉ के प्रतिनिधि नारी अथवा पुरुष पात्रों में बौद्धिक निस्संगता है जो उनके व्यंग्य एवं उपहास का स्रोत है | प्रेमचंद का यथार्थ से भावनात्मक उलझाव उपहास का सहारा नहीं ले सकता था | अतः वह उन्हें विडंबना ट्रेजिक विजन की ओर ले जाता है |

प्रेमचंद के चिंतन में नैतिक मान्यताओं, धार्मिक आग्रहों का रैखिक विकास है | रामलीला के नायकों के प्रति सम्मोहन से लेकर धार्मिक फांसीवाद के क्रिटीक तक का फलक प्रेमचंद में है | हालाँकि वे बाद में प्रगतिशीलता के हैजटैग में शामिल हुए | उन्होंने संस्कृति, साम्प्रदायिकता और धार्मिक पाखण्डवाद का जमकर विरोध भी किया | अपने निबंध साम्प्रदायिकता और संस्कृति में उन्होंने संस्कृति को गैर जरुरी बताया | इस मामले में अपने अंतर्विरोधात्मक चिंतन के कारण प्रेमचंद आलोचकों की वाम-दृष्टि के शिकार भी हुए | डॉ. पी.एन. सिंह ने आलोचकों की इस वाम-दृष्टि पर दृष्टिपात किया है – अपनी मूलगामी सामाजिक आलोचना के लिए प्रेमचंद की पारंपरिक कोनों से सख्त आलोचना हुई | अमृतराय ने अपनी सुपरिचित पुस्तक कलम का सिपाही में इसकी सविस्तार चर्चा की है | जुलाई-दिसम्बर 1926 की सरस्वती के अंक में श्री राम अवध उपाध्याय नामक व्यक्ति ने प्रेमचंद को नकलची सिद्ध करते हुए कहा था कि रंगभूमि थैकरे के वैनिटी फेयर की नक़ल है | इसी प्रकार एक कहानी पंडित मोटेराम शास्त्री के विरोध में प्रेमचंद के ब्राह्मण विरोधी होने का इल्जाम लगाते हुए मुकदमा दायर किया | इसी प्रकार प्रेमचंद की व्यंग्य कला पर उनकी कहानी रसिक सम्पादक के हवाले से शिवदान सिंह चौहान ने लिखा कि जब सम्पादक की काल्पनिक प्रेयसी कामाक्षा देवी काली-कलूटी निकली तो सम्पादक का गुस्सा अश्लील व्यंग्य प्रहारों में फूट पड़ा | लेकिन प्रेमचंद जब सामाजिक राजनीतिक अनीति और शोषण का जिक्र करते हैं तब उनके व्यंग्य बड़े तीखे और मार्मिक हो जाते हैं | स्त्री संबंधी विवरणों में डॉ.पी. एन. सिंह ने प्रेमचंद की प्रशंसा की है | प्रेमचंद के स्त्रीपात्र पुरुष पात्र की अपेक्षा अधिक सशक्त हैं | उनमें ढुलमुल प्रवित्ति नहीं है और न ही वे दोस्तोएवस्की के ब्रदर्स- कारमाज़ोव की स्त्री पात्रों की तरह झगड़ालू | उन्होंने प्रेमचंद के स्त्री पात्रों के बहाने स्त्री विमर्श की सशक्त लेखिकाओं की तलाश की है |

पी.एन.सिंह विमर्शों की वैचारिकी से सीधे-सीधे टकराते हैं | कई बार वे दलित आन्दोलन कर्मियों के क्रियाकलाप से क्षुब्ध होते हैं तो कई बार प्रसन्न भी | प्रसन्नता उनके यहाँ इकहरी नहीं है और ना केवल भावनात्मक आवेग, बल्कि प्रसन्नता आत्मचिंतन व गहरे आत्मबोध लिए हुए है | वे उनसे संवाद करते हुए चलते हैं | प्रो.सदानन्द साही ने लिखा है कि डॉ. सिंह मार्क्सवाद में आस्था रखने वाले उन विरल लोगों में हैं जिनके पास मार्क्सवाद की गहरी समझ है | इसलिए उनके मस्तिष्क के खिड़की दरवाज़े खुले हुए हैं, जिनसे गाँधीवाद, अम्बेडकरवाद और लोहियावाद की वैचारिकी का आवागमन होता रहता है | डॉ. साहब सही मायने में संवादधर्मी लेखक हैं | इसलिए वे अम्बेडकरवाद से वैसे ही संवाद करते हैं जैसे लोहियावाद या गाँधीवाद से | वे पूरब पश्चिम के गवाक्ष को खोलकर रिज का काम करते हैं | प्रायः बहुत कम आलोचकों में देखने सुनने को मिलता है | ऐसा कोई विरला ही होता है | पी.एन.सिंह उन विरले आलोचकों में से हैं | संवाद उनके यहाँ बड़ी साफगोई से आता है, उलझाव लिए हुए नहीं | वह चाहे कोई सामान्य बात हो या विशिष्ट | पुस्तक के नामकरण से लेकर कई ऐसे सन्दर्भ हैं जहाँ वे किसी बात की परवाह किये बिना सीधे सीधे अपनी बात कह देते हैं | उनमें कबीर जैसा साहस है | वे आलोचना के कबीर हैं | उनमें स्वीकृति का भाव भी जबरदस्त है | एक नमूना देखिए- डॉ. भगवान सिंह ने अपने-अपने राम पुस्तक लिखी है | इसलिए मैंने भी अपनी पुस्तक का नाम अपने-अपने प्रेमचंद रख लिया | यह बहुत सामान्य दिखती है,किन्तु है नहीं |

वर्ष 2004 में 31 जुलाई, दिन शनिवार को ‘भारतीय दलित साहित्य अकादमी’ के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. सोहनपाल सुमनाक्षर व ‘गुरू रविदास जन्मोत्सव कमेटी’ के अध्यक्ष मनोज कुमार ने सामूहिक रूप से दिल्ली के जंतर-मंतर में रंगभूमि का दहन किया | रंगभूमि का दहन कोई सामान्य घटना नहीं थी | इसने अकादमिक आलोचना को गहरे तक प्रभावित किया | पूरे वर्ष पक्ष-विपक्ष की तात्कालिक टिप्पणियों से गहमा-गहमी मची रही | इसी दौरान सदानंद साही द्वारा सम्पादित पुस्तक दलित साहित्य की अवधारणा और प्रेमचंद का प्रकाशन हुआ | यह पुस्तक प्रेमचंदीय-आलोचना का पुनर्पाठ है | इसमें प्रेमचंद की सामाजिक अनुभूति, दलित अस्मिता के प्रश्न को गाँधी-अम्बेडकर और लोहिया के चिंतन के परिप्रेक्ष्य में पढ़ा गया | दरअसल इस समय प्रेमचंद के हवाले से इन चिंतकों की तलाश की गयी | किसी के लिए गाँधी महत्वपूर्ण हुए तो किसी के लिए अम्बेडकर | नामवर सिंह ने रंगभूमि के सूरदास को गाँधी के परिप्रेक्ष्य में देखा, वहीँ अम्बेडकरवादी आलोचकों जैसे सूरजपाल, कँवल भारती, नैमिशराय,डॉ. धर्मवीर ने अम्बेडकर के हवाले से जातीयता के प्रश्न, अनुभूति की सांद्रता पर सवाल किये | इन गहमा-गहमी के बीच पी.एन.सिंह बड़ी गंभीरता से विचार करते हैं | उन्होंने सुमनाक्षर जैसे लोगों के क्रियाकलाप की भर्त्सना की तो कँवल भारती द्वारा उठाये गये सवाल पर विचार करने के लिए कहा – कँवल भारती अपनी टिप्पणी में सर्वाधिक माडरेट हैं, वैसे वे अपने बड़बोलेपन के लिए सर्वाधिक चर्चित हैं | वे सावधान हैं और रंगभूमि को जलाये जाने का उल्लेख किये बगैर कुछ एक सकारात्मक एवं संवादी परिप्रेक्ष्यों पर बल देते हैं | वे प्रेमचंद को गाँधीवादी, साम्यवादी या ब्राह्मण-विरोधी मानने वालों को सतही बताते हुए उन्हें प्रगतिशील और आम आदमी के पक्षकार घोषित करते हैं |

डॉ. पी. एन. सिंह अपने समकालीनों में सर्वाधिक संवादधर्मी आलोचक हैं | उन्होंने प्रेमचंद का पाठ गहमा-गहमी के आवेग में बहकर नहीं,बल्कि ठहरकर किया है | वे रचनाकार और चिन्तक, चिन्तक और पाठक, पाठक और पाठ के बीच संवाद के आग्रही हैं | यही उनकी विशेषता है और उनका व्यक्तित्व भी | इसीलिए अपने विराट आलोचक-व्यक्तित्व से वे सहज ही आकर्षण के केंद्र बन जाते हैं |

सम्पर्क – ए -33,द्वितीय तल, सराय जुलेना,

न्यू फ्रेंड्स कॉलोनी, नई दिल्ली 110025

ईमेल susheeld.vats21@gmail.com

मो. 9015603769

 

दूसरे दौर की पत्रकारिता और समसामयिक समीकरण

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दूसरे दौर की पत्रकारिता और समसामयिक समीकरण

मीडिया और समसामयिक समीकरण विषय पर बातचीत करें तो यह कथन पूर्णतः सत्य होगा कि वर्तमान युग मीडिया का युग है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में मीडिया का दखल है ।लोकतंत्र का चौथा स्तंभ मीडिया क्या अपनी निर्धारित भूमिका निभाने में सफल हो रहा है? यह एक विचारणीय प्रश्न है। मीडिया समय समय के साथ नहीं समय के हाथ है ।मजबूत लोकतंत्र की नींव निर्भीक मीडिया ही रख सकता है। इस दृष्टि से आजादी से पूर्व का पत्रकारिता जगत लोकतंत्र की मजबूत नींव आजादी से लगभग 1 70 वर्ष पूर्व 1780 में हिक्की गजट के माध्यम से रख चुका था। वह अलग बात है कि आज मीडिया का उससे बिल्कुल विपरीत रूप दिखाई देता है। वह परतंत्र भारत की पत्रकारिता थी और यह स्वतंत्र भारत की पत्रकारिता यदि भारतेंदु युगीन मीडिया पर दृष्टि डालें तो हम पाते हैं कि स्वयं भारतेंदु हरिश्चंद्र और उनके समकालीन साहित्यकारों ने साहित्यिक पत्रकारिता के नए प्रतिमान स्थापित किए, फिर चाहे वह प्रताप नारायण मिश्र हो या बालमुकुंद गुप्त? यह हिंदी पत्रकारिता का दूसरा दौर था जिसकी शुरुआत 18 77 ईस्वी से मानी जाती है ।यह स्वतंत्र भारत की पत्रकारिता थी ।इस समय 23 मार्च 18 74 को कवि वचन सुधा एक प्रतिज्ञा पत्र भारतेंदु के संपादन में आया ?जिसने साहित्यिक सामाजिक और राजनीतिक जगत में अपना अलग स्थान बनाया । इस टिप्पणी के माध्यम से तत्कालीन पत्रकारिता के सामाजिक सरोकारों को समझा जा सकता है। ” हम लोग सर्वांत दासी सत्र स्थल में वर्तमान सर्व दृष्टा और नित्य सत्य को साक्षी मानकर यह नियम मानते हैं और लिखते हैं कि हम लोग आज के दिन से कोई विलायती कपड़ा नहीं पहनेंगे और जो कपड़ा पहिले से मोल ले चुके हैं और आज की कीमत तक हमारे पास हैं उनको तो उनके हीन हो जाने तक काम में लावेंगे , पर नवीन मोल लेकर किसी भांति का विलायती कपड़ा ना पहिरेंगे। हिंदुस्तान का ही बना कपड़ा पहिरेंगें।(1)

डॉ रामविलास शर्मा स्वदेशी आंदोलन की शुरुआत का पूरा श्रेय भारतेंदु जी को देते हैं उन्होंने लिखा है कि” कांग्रेस ने अभी स्वदेशी आंदोलन का विधि पूर्वक आरंभ ना किया था, ना बंग भंग आंदोलन ने जन्म लिया था केवल हिंदी में भारतेंदु ने स्वदेशी आंदोलन का सूत्रपात बहुत पहले कर दिया था”2 तत्कालीन पत्रकारिता की प्रतिबद्धता संपूर्ण राष्ट्रीय चेतना और जातीय चेतना का कोई सानी नहीं स्वदेशी आंदोलन को गति देने में भारतेंदु युगीन पत्रकारिता की महती भूमिका है। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में 16 जुलाई 1893 को बाबू श्यामसुंदर दास , रामनारायण मिश्र ठाकुर, शिव कुमार सिंह के महान प्रयासों से काशी में नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना हुई। प्रचारिणी सभा का प्रारंभ में राष्ट्रीय एकता और भाषा को प्रमुख रूप से स्वर दे रही थी किंतु यह तथ्य भी स्मरणीय है कि वह एक कुटिल विदेशी साम्राज्य अंग्रेजी सत्ता की दमनीय नीति का भी सामना कर रही थी ।यह समय भारतीय हरिशचंद का समय था इस समय मुख्य समस्या थी देश की आजादी और ब्रिटिश सत्ता से छुटकारा। एक ओर भारतेंदु साहित्य और पत्रकारिता रीतिकालीन साहित्य परिदृश्य बाहर निकलने के लिए छटपटा रही थी। ब्रजभाषा के आवरण से मुक्त होना चाहती थी दूसरी ओर हिंदी गद्य अपना आकार ग्रहण कर रहा था। इस संबंध में डॉ रामविलास शर्मा ने ‘भारतेंदु युग’ में लिखा है कि ‘जिस में तुम्हारी भलाई हो वैसी ही किताबें पढ़ो वैसे ही खेल खेलो वैसी ही बातचीत करो परदेसी वस्तु और परदेसी भाषा का भरोसा मत रखो । अपने देश में अपनी भाषा में उन्नति करो”3 आज साहित्य और समाज के प्रति ऐसा आग्रह आज की पत्रकारिता में दूर-दूर तक नजर नहीं आता। भारतेंदु हरिश्चंद्र और उनके समकालीनो की मित्रता ही ब्रिटिश सत्ता की जड़े हिलाने की ताकत रखती थी ।यह युग गद्य निर्माण का युग था । हिंदी की बहुत सी महत्वपूर्ण पत्रिकाओं का प्रकाशन भारतेंदु युगीन काव्य साहित्यकारों ने प्रजातंत्र की धार पर भारतीय जनमानस के हृदय में क्रांति की लहर पैदा करने एवं राष्ट्रीयता की भावना के विकास हेतु बहुत ही मनोयोग से किया था कवि वचन सुधा, हरिश्चंद्र मैगजीन ,हरिश्चंद्र चंद्रिका ,हिंदी प्रदीप ,ब्राह्मण ,भारत मित्र ,हिंदुस्तान सांसद निधि आदि महत्वपूर्ण पत्र पत्रिकाएं इसी समय निकले।

इन पत्र-पत्रिकाओं की चर्चा वर्तमान परिपेक्ष में करना आवश्यक हो जाता है। आज मीडिया का जो स्वरूप हमारे सामने है उससे समाज रसातल में जा रहा है ।समाचार पत्रों- पत्रिकाओं और टीवी शो के माध्यम से भाषा और भाव दोनों की आत्मा को तार-तार किया जा रहा है। सांस्कृतिक निरंतर बढ़ रहा है ।सामाजिक सद्भाव निरंतर घट रहा है। राजनीतिक वैमनस्य इतना तीव्र है कि मीडिया समाज में खबरों को छोड़कर केवल सत्ताधारी राजनीतिक धर्म का प्रचारक बनकर रह गया है। शाम 5:00 बजे से रात 12:00 बजे तक समाचार चैनलों पर बिना बजे की बहसों का जो सिलसिला शुरू होता है वह पारिवारिक संबंधों में दरार पैदा कर रहा है। एक दूसरे के ऊपर आरोप- प्रत्यारोप के अतिरिक्त उन चैनलों के पास जनता को देने के लिए कुछ भी नहीं। समाचार संचालक की भाव- भंगिमा को देखकर उसकी हर एक पढ़े-लिखे सामाजिक व्यक्ति के मन में ही पैदा कर देती है। मैं इस आलेख के माध्यम से यह तथ्य प्रकाश में लाना चाहती हूं कि भारतेंदु युगीन पत्रकारिता जिसे हिंदी पत्रकारिता के दूसरे दौर के रूप में जाना जाता है गुलाम भारत की पत्रकारिता थी। भारतीय समय और राजनीति के उत्थान के लिए उसी निर्भीकता और सामंजस्य की आवश्यकता है।

मैं यहां प्रताप नारायण मिश्र का एक वाक्यांश यहां प्रस्तुत कर रही हूं, जिसके माध्यम से हिंदी लेखकों के द्वारा किए जा रहे हैं स्वदेशी आंदोलन के विषय में अनुमान लगाया जा सकता है — ‘हम और हमारे सहयोगी गण लिखते हैं हार गए कि देशोन्नति करो, यहां वालों का सिद्धांत है कि अपना भला हो देश चाहे चूल्हे में जाएं ,यद्यपि जब देश जुमले में जाएगा तो हम बचे ना रहेंगे। पर समझाना तो मुश्किल काम है ना, सो भाइयों यह तो तुम्हारे मतलब की बात है।(4) इस तरह की निर्भीकता वर्तमान पत्रकारिता में प्रायः कम ही दिखाई पड़ती है। यह पत्रकारिता का दूसरा दौर था यदि इसे पत्रकारिता का द्वितीय अध्याय कहा जाए तो अधिक उत्तम होगा। जहां स्वतंत्र रूप से लिखना दंडनीय था ,विधायिका ,न्यायपालिका और कार्यपालिका के समान मीडिया समसामयिक विषयों पर जनता को जागृत करने का कार्य उसका प्राथमिक कर्तव्य है। किसी देश के लिए और स्वतंत्र निष्पक्ष और निर्भीक पत्रकारिता का होना बहुत आवश्यक है ।वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी का कथन है कि मीडिया जब तक जनता को साथ लेकर नहीं चलेगी तब तक जनता भी उसका साथ नहीं देगी। यानी मीडिया को जनता के लिए जनता के द्वारा और जनता से ही संचालित होने के पैमाने को अपनाना होगा, किंतु किसी तरह की सत्ता को पाकर व्यक्ति विशेष उसके मद में चूर हो जाता है ।किसी मीडिया हाउस का उद्देश्य किसी पार्टी विशेष का प्रचार प्रसार करना नहीं होना चाहिए ।वर्तमान चुनौतियों से सामना करते हुए हर संभव पारदर्शी नीति अपनाते हुए आगे बढ़ना चाहिए। प्रजातंत्रीय व्यवस्था की गरिमा बनाए रखने के लिए निष्पक्ष कार्य प्रणाली के माध्यम से कार्य करना चाहिए । मीडिया के समसामयिक समीकरण में निरंतर गिरावट के कई कारण है- सबसे पहला कारण है सत्ताधारी राजनीतिक दलों के प्रति झुकाव, सरकार से अधिक से अधिक सुविधाएं प्राप्त करना, सत्ता के मदमस्त हाथी पर झूमते हुए समाचार के नाम पर केवल आधारहीन बहस में जन समुदाय को उलझाना।

पत्रकारिता हमेशा निर्भीकता की मांग करती है सरकार के द्वारा किए जा रहे जनहित के कार्यों का प्रचार प्रसार करना किसी भी मीडिया हाउस का दायित्व होता है किंतु सरकार के द्वारा गरीब ,मजदूर और बेरोजगार लोगों की समस्याओं को पहुंचाना और उनका समाधान प्रस्तुत करना भी मीडिया का दायित्व होना चाहिए ।

बंगाल गजट भारत का प्रथम समाचार पत्र जो 1780 में प्रकाशित हुआ जिसे हिक्की गजट के नाम से जाना गया। इस पत्र के संपादक जेम्स ओगेस्टक हिक्की का उद्देश्य धन कमाना नहीं था। हिक्की ईस्ट इंडिया कंपनी की दूषित मानसिकता और उसकी छद्म नीतियों का पर्दाफाश करके घोटालों को जनता के सामने ला रहा था उसका यह कदम ब्रिटिश सत्ता को कैसे रास आता??

हिक्की को देश के बाहर निकाल दिया गया। अखबार बंद करवा दिया गया। हिक्की गजट और ओगेस्टक हिक्की अब तक वर्तमान पत्रकारिता के इतिहास में बड़े गौरव के साथ याद किए जाते हैं। “अपने शुरुआती दौर में हिंदुस्तान की मीडिया की भूमिका यह रही है कि वह स्वाधीनता संग्राम के लिए जमीन को हमवार करें उसके लिए खाद का इंतजाम करें इसलिए यह कोई अजब बात नहीं कि हमारे यहां मीडिया पहले आया और उसके बाद स्वाधीनता संग्राम का इतिहास शुरू हुआ”5 गोहर रजा की टिप्पणी तत्कालीन मीडिया के राष्ट्रीय हितों और सामाजिक सरोकारों का सच्चा दस्तावेज है। आर्थिक समस्या की शिकार तत्कालीन मीडिया लड़खड़ा कर चलती रही । विभिन्न विघ्नों को हराकर जन सरोकारों से कभी समझौता नहीं किया ।समाज के यथार्थ को जनता के समक्ष रखना पत्रकारिता का प्रथम उद्देश्य रहा है ।आखिर मीडिया की सार्थक भूमिका क्या होनी चाहिए? क्या आज मीडिया न्यायपालिका की भूमिका मैं है ?लोकतंत्र में मीडिया को अभिव्यक्ति का अधिकार मिला तो क्या लोकतंत्र में मीडिया के कुछ कर्तव्य नहीं है? अधिकार और कर्तव्य का यही असंतुलन सामाजिक सरोकारों की नींव कमजोर कर रहा है। केवल और केवल राजनीतिक मुद्दों पर बात मीडिया के एक पक्षीय प्रतिबद्धता का द्योतक है ।स्त्री समस्या ,महंगाई, बेरोजगारी सामाजिक और सांस्कृतिक पहलुओं को जनता के बीच ले जाने के लिए भी मीडिया को हमेशा तत्पर रहना चाहिए। महात्मा गांधी ने लिखा है कि खबर का क्या अर्थ है मैं नहीं चाहता कि जनता को हर दिन बिना वजह की खबरें मिले, जिससे उनके मस्तिष्क में आपसी वैमनस्य, रोज छीना झपटी चोरी और आपसी झगड़ों को जनता के सामने परोसना मीडिया का कार्य नहीं। उसका कार्य जीवन मूल्य और सांस्कृतिक संवर्धन हेतु कार्य करना है। पर्यावरण चेतना सामाजिक यथार्थ विकास के मुद्दे और सकारात्मक खबरों का संपादन मीडिया के स्वस्थ स्वरूप की पहचान है। मुझे यह बात कहने में जरा भी संकोच नहीं कि मीडिया को पूंजीवाद ने अपनी गिरफ्त में ले लिया है। ग्राउंड जीरो की रिपोर्टिंग करके जनता के सामने सच को लाने का कार्य कौन करेगा? स्वस्थ समाज के निर्माण के लिए फैशन, क्राइम और क्रिकेट की चारदीवारी के बाहर सामान्य जनमानस की भूख ,बेरोजगारी और कुपोषण की तस्वीरों को सरकार के सामने लाना होगा। आज भी कुछ पत्रकार हैं जो जनता के सामने सरकार की नीतियों की चर्चा भी करते हैं उनके कार्यान्वयन की बात भी करते हैं साथ ही जनता के जमीन जमीनी मुद्दों को भी उठाते हैं किंतु उनकी संख्या लगातार घट रही है ।जरूरत है बड़े-बड़े टीवी चैनलों और अखबारों को सत्ता के मोह से अलग होने की जिससे वे समसामायिक समीकरण को सही दिशा दे सके। आज प्रभाष जोशी, रामशरण जोशी ,मृणाल पांडे की पत्रकारिता को अब्बल दर्जे में क्यों शामिल किया जाता है? उसका कारण है उनकी सामाजिक सरोकारों के प्रति प्रतिबद्धता रवीश कुमार को जनता पसंद करती है ?वह जनता के सवालों को उठाते हैं। जनता से सीधे संवाद करते हैं। यदि हम इन पत्रकारों की बात करें तो संजय द्विवेदी का यह कथन सर्वथा सत्य प्रतीत होता है कि” नई तकनीक और संचार साधनों ने जिस तरह हमारे समय को प्रभावित किया है वह अद्भुत है। हमारे आचार विचार व्यवहार सब में वे चीजें देखी जा सकती हैं। इसे प्रभावित करने में सबसे सशक्त माध्यम के रूप में उभरा है मीडिया ।”6 यह कहना अतिशयोक्ति ना होगा कि मीडिया आज के समय की मनमोहक छवियों की प्रस्तुति का मंच बन गया है ।समय का बदलाव नियमित चक्र के साथ आगे बढ़ता है, निश्चित ही उसी समय चक्र में मीडिया के इस स्वरूप पर अपना प्रभाव छोड़ा है । परिवर्तन विकास के नए प्रतिमान स्थापित करता है ।तकनीकी विकास की बात छोड़ दें तो मीडिया के स्तर में लगातार गिरावट आई है ।अखबारों की रूपरेखा खासतौर पर उनकी भाषा का स्तर निरंतर रसातल में जा रहा है । टीवी चैनलों की भाषा, परिभाषा ,भाव भंगिमा से कौन परिचित नहीं। मीडिया जगत में निश्चित ही परिवर्तन का नया दौर चल रहा है किंतु यहां नकारात्मक परिवर्तनों की झड़ी दिखाई देती है। यहां पर एक विचारणीय प्रश्न है कि मीडिया आधुनिक सामाजिक व्यवस्था के लिए वरदान है या अभिशाप ? एक ओर नई तकनीकी विकास की गति है तो दूसरी ओर सामाजिक राजनीतिक सरोकार मीडिया के किस पक्ष के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभा रहे हैं। मीडिया ने पूरे विश्व को ग्लोबल ग्राम में परिवर्तित कर दिया है। वसुधैव कुटुंबकम की भावना को झोले में डालकर सामाजिक समरसता की किताब को नई जिंद में बांधकर आज का मीडिया समय के हाथ है ना कि समय के साथ । सामाजिक सरोकारों का भद्दा मजाक बनकर रह गया है आज का मीडिया। इन प्रश्नों का जवाब मिलना मुश्किल है।

संदर्भ सूची

1.उद्धृत हिंदी पत्रकारिता कृष्ण बिहारी मिश्र रामविलास शर्मा भारतेंदु पृष्ठ संख्या 116

2.वही 16-17

3.भारतेंदु युग रामविलास शर्मा पृष्ठ 11

4.हिंदी साहित्य का इतिहास रामचंद्र शुक्ल पृष्ठ 453

5.मीडिया और जनतंत्र संपादक रमेश उपाध्याय व संज्ञा उपाध्याय 2012 पृष्ठ 34

6.मीडिया शिक्षा मुद्दे और अपेक्षाएं संजय द्विवेदी पृष्ठ 10

Dr Saroj Kumari, Assistant professor, Department of Hindi, Vivekananda CollegeUniversity of Delhi8587037978

समीक्षा -उपन्यास “अज्ञातवास” ,समीक्षक -ओम प्रकाश नौटियाल

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उपन्यास “अज्ञातवास”
उपन्यास लेखिका – अनुपमा नौडियाल
प्रकाशक -हिंद युग्म ब्लू
पृष्ठ संख्या -96
मूल्य 125 /-
अमेजन पर उपलब्ध (लिंक) : https://www.amazon.in/Agyaatvaas-Anupama-Naudiyal /dp/9387464881/
उपन्यास समीक्षक -ओम प्रकाश नौटियाल, वडोदरा, मोबाइल 9427345810

2020 में प्रकाशित लेखिका अनुपमा नौडियाल के उपन्यास अज्ञातवासका ताना बाना
युवाओं के  मन में अपने आने वाले समय
में  समाज के लिए कुछ अलग हटकर  अच्छा करने की 
आदर्श अभिलाषा के अंकुरित और पल्लवित होने के इर्द गिर्द बुना गया है ।
भविष्य में सकारात्मक बदलाव लाने   की
मंजिल चुनने की उनकी मनोकामना एक स्वस्थ सोच है लेकिन इसके लिए अपने वर्तमान को
सँवारना और विद्यार्थी जीवन का समय इस भाँति सुकारथ लगाना कि मँजिल पाने की राह की
चुनौतियों का मुकाबला करने के लिए व्यक्ति सक्षम हो सके और अपना संबल स्वयं बन सके
, नितांत आवश्यक है । यह वह उम्र है जिसमें अपनी मंजिल तय
करने के लिए अपनी क्षमताओं के सही आकलन के साथ साथ स्वस्थ और परिपक्व सलाह की
आवश्यकता तो होती है किंतु साथ ही साथ यही वह उम्र होती है जिसमें सबसे अधिक भ्रम
पालने और स्वयं को सर्वज्ञानी समझने का जुनून भी चरम पर होता है अतः युवाओं को
समझाने के लिए माँ बाप और गुरू जनों में
, सलाह देने का आभास
दिए बिना
, सलाह देने की कला आनी चाहिए । यह समय अपने   बुद्धि ज्ञान, कौशल और
सोच  में परिपक्वता लाने और उसे सुद्दढ
करने का है
,किंतु साथ ही साथ युवा अवस्था में भ्रमित होने ,
अव्यवहारिक लच्छेदार बातों से प्रभावित होकर पथ विचलित होने की
संभावना भी बहुत अधिक रहती है ।

उपन्यास अस्सी के दशक के मध्य से प्रारंभ होता है । आत्म
विश्वास से सराबोर और  प्रतिभासंपन्न
छात्रा मंजुला कैसे एक  खोखले आदर्शों पर
जीवनयापन कर रहे और वर्षों से कालेज में रहकर एक के बाद एक डीग्री हासिल करने वाले
पलायवादी
, अधिक उम्र के अथर्व के
विचारों  से प्रभावित होकर
, उसके साथ प्रेम करने लगती है और जीवन यात्रा में उसकी सहयात्री बनकर अपने
आदर्शों को मूर्तरूप देने की सोचने लगती है । साथ ही कालेज में उसकी एक प्रिय
सहेली स्वरा भी है सहमी
, संकोची सी । इन प्रनुख पात्रों की
रोचक जीवन यात्रा में गुंफित यह उपन्यास हर द्दष्टि से अत्यंत प्रभावशाली बन पडा
है । उपन्यास कालेज परिवेश में जन्म लेकर मंजुला के युवा मष्तिष्क में चल रहे
वैचारिक संघर्ष
,पारंपरिक तय पथ को छोडकर किसी अन्य
कंटकपूर्ण मार्ग के माध्यम से एक धुँधली सी मंजिल पाने  की ललक और इसके लिए हर टकराव से मुकाबला करने
की अप्रतिम इच्छा के सहारे आगे बढता है । उपन्यास की कथावस्तु के विषय में पाठकों
की रोचकता बनाए रखने  के लिए केवल इतना
कहना चाहूँगा कि उपन्यास हर द्दष्टि से पाठकों को बाँधे रखने में सक्षम है । कालेज
के परिवेश
,विद्यार्थियों के वार्तालाप का सहज, स्वाभाविक और यथार्थपूर्ण चित्र ,कथानक के छोटे छोटे
प्रभावशाली मोड उपन्यास की रोचकता और गतिशीलता बनाए रखते हैं। विभिन्न पात्रो के
मध्य वार्तालाप छोटे और स्वाभाविक हैं और शब्द चयन भी पात्रों के चरित्र के अनुसार
सटीक है । कहीं भी केवल  कलम का चमत्कार
दिखाने के लिए लम्बे उबाऊ वर्णन नहीं हैं
, छोटे छोटे
स्वाभाविक संवाद हैं कोई उपदेशात्मकता नहीं । युवाओं के लिए अत्यंत लाभप्रद और
उनके जीवन की दिशा निर्धारित करने वाले संदेश कथानक के अत्यंत रोचक यथार्थ परक
प्रस्तुतिकरण एवं  उसमें निहित प्रसंगो से
स्वतः निकल आते हैं जो पाठक के हृदय पर गहरी छाप छोडने में सफल रहते हैं
,मेरे विचार से यह उपन्यास  युवा
वर्ग को तो अवश्य ही पढना चाहिए
, और इसकी प्रतियाँ हर कालेज
के पुस्तकालय में  होनी चाहिएं ।

उपन्यास की भाषा में परंपरा और आधुनिकता का समावेश पात्रों ,समय और महौल के अनुरूप विविधता  के रंग और शब्द चयन लिए हैं ,चाहे वह बुद्धिजीवियों का जामा ओढे और खोखले आदर्शों पर जी रहे पात्रों की
आपसी बातचीत हो
, जसवन्ती के बच्चो की बाल सुलभता हो,
या सहेलियों के मध्य हो रही अंतरंग वार्ता हो या फिर अलग अलग
पीढियों के पात्रों के मध्य का संवाद । पात्रों के मनोविज्ञान उनके आत्मसंघर्ष के
चित्रण में सिद्धहस्त लेखिका अनुपमा जी की पहली पुस्तक “अपने अपने प्रतिबिंब
” की कहानियों को भी मैंने पढा है और सादगी तथा बिना अनावश्यक अतिरेकता के
कथावस्तु को अत्यंत रोचक और सहज  ढंग से
प्रस्तुत करने की उनकी प्रतिभा को सराहा है ।

मुंशी प्रेमचंद ने कहा था, ” मैं उपन्यास को मानवजीवन का चित्रमात्र समझता हूं।
मानव
चरित्र पर प्रकाश डालना और उसके रहस्यों को खोलना ही
उपन्यास का मूल तत्व है।
मुझे इस बात की प्रसन्नता है
कि इस मापदंड पर यह उपन्यास खरा उतरता है ।

सुगठित कथानक , सजीव
, स्वाभाविक चरित्र-चित्रण ,पात्रों और
परिस्थितियों के अनुसार संवाद तथा सरल एवं व्यवहारिक भाषा
,युवा
कल्याण की ओर इंगित करने वाले नैतिक आदर्शों की प्रतिष्ठा का प्रयास इस उपन्यास की
खूबियाँ हैं ।

उपन्यास विधा भारतेन्दु , द्विवेदी ,प्रेमचंद और प्रेमचंदोत्तर  युगों से गुजर कर आधुनिक युग तक पहँच गई है ।
अलग अलग युग में उपन्यास की विषय वस्तु और कथन शैली तत्कालिन विचारधाराओं
,
भौगोलिक और एतिहासिक पृष्ठ भूमि आदि से प्रभावित रही है । हर युग ने
हमें बहुत अच्छे उपन्यास दिए हैं और इनकी सफलता का एक मात्र स्वीकार्य मापदंड रहा
है पाठकों के मध्य उनकी लोकप्रियता । यही उपन्यास की सफलता का पैमाना होना चाहिए
और उसकी श्रेष्ठता के आकलन की सही  तकनीक
भी । इस कृति की यह समीक्षा भी इसी पाठकीय द्दष्टि से है ।

 मैं चाहूँगा कि
विद्यार्थी
, युवावर्ग , साहित्यकार एवं साहित्य प्रेमी एक बार इस उपन्यास को अवश्य पढें ,पढवाएं और अपनी प्रतिक्रिया दें । मैं प्रतिभाशाली लेखिका अनुपमा जी को
उनको इस अनुपम सृजन के लिए बधाई देता हूँ आशा है भविष्य में उनसे इसी तरह का
स्तरीय साहित्य पढने को मिलेगा । वह संभावनाओं से सराबोर हैं । मेरी हार्दिक
शुभकामनाएं ।

ओम प्रकाश नौटियाल, वडोदरा,मोबाइल 9427345810

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चिपको आंदोलन के प्रणेता डा. सुंदर लाल बहुगुणा

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पर्यावरण चेतना के मुखर और प्रखर स्तंभ , गाँधीवादी डा. सुंदरलाल बहुगुणा का जन्म 9 जनवरी 1927 को उत्तराखण्ड के टिहरी जिले में मरोडा नामक स्थान पर हुआ था । शुक्रवार 21 मई 2021 को दोपहर लगभग 12 बजे  एम्स ऋषिकेश में , जहाँ वह कोरोना संक्रमित होकर 8 मई को भर्ती हुए थे , उन्होंने  94 वर्ष की आयु में इस नश्वर देह को त्याग दिया ।
उनके जीवन का प्रमुख लक्ष्य पर्यावरण सुरक्षा रहा जिसके लिए वह आजीवन प्रयत्नशील रहे । वृक्षों की सुरक्षा के लिए चलाया गया उनका 
’चिपको आंदोलन ’ वृक्ष संरक्षण की दिशा में एक अद्वितीय मुहीम के रूप में विश्व भर में जाना और सराहा गया । इस आंदोलन में पर्वतीय महिलाएं उनकी विशेष सहयोगी रही । यह आंदोलन उन्होंने 1970  में गौरा देवी और अन्य महिलाओं के सहयोग से आरंभ किया गया था । 27  मार्च 1974 को चमोली जिले के गाँवों की महिलाएं ठेकेदार के आदमियों से वृक्ष कटान बचाने के लिए वृक्षों पर चिपक कर खड़ी हो गई । वृक्ष बचाने का यह आंदोलन बहुत जल्दी ही पूरे देश ,यहाँ तक की विश्व भर में , एक प्रभावी आंदोलन के रूप में फैल गया । प्रधान मंत्री इंदिरा गाँधी से मिलकर उन्होंने पंद्रह वर्ष के लिए वृक्षों के कटने पर रोक लगवा दी ।
डा. बहुगुणा प्रांरंभिक शिक्षा के पश्चात लाहौर चले गए थे जहाँ से वह स्नातक होने के पश्चात वापस लौटे । किशोर अवस्था में उन्होंने अपना राजनीतिक जीवन शुरू कर दिया था ,वह गाँधी जी के परम अनुयायी थे । 1949 में मीरा बेन और ठक्कर बाबा से मुलाकात के पश्चात वह दलित वर्ग के विद्यार्थियों की अनेकों समस्याओं को लेकर तथा मंदिर में दलितों के प्रवेश को लेकर आंदोलनरत हुए । 1956 में उनका विवाह विमला नौटियाल जी से हुआ जो जीवन भर उनके कामों में भरपूर सहयोग देती रही ।विमला जी  ने सामाजिक कार्य हेतु स्वयं भी कई संस्थाओं का सफल और प्रभावी संचालन किया । विवाह के पश्चात बहुगुणा जी ने राजनीति से सन्यास लिया और स्वयं को पूरी तरह पर्यावरण सुरक्षा और पर्वतीय लोगों के हित में समर्पित कर दिया । 1971 में उन्होंने पत्नी के सहयोग से नवजीवन मण्डल की स्थापना की तथा पर्वतीय क्षेत्रों में शराब की दुकाने खोलने के विरोध में सोलह दिन का अनशन किया ।
1980 के प्रारंभिक वर्षों मे उन्होने पर्वतीय लोगों के मध्य पर्यावरण का संदेश देने के लिए पाँच हजार किलोमीटर की यात्रा की । उन्होंने टिहरी बाँध निर्माण के विरोध में 84 दिन का लम्बा उपवास रक्खा । वह पर्वतीय  क्षेत्रों मे अंधाधुंध हो रहे निर्माण और लक्जरी टूरिज्म के भी विरोधी थे । कालान्तर में जब उतराखणड में  जल प्रलय , भूकंप ,बाढ ,बादल फटने जैसी घटनाओं की आवृति बढ गयी जिनके अनेक कारणों में पर्यावरण से घातक छेड़ छाड़ प्रमुख कारण था तब लगा कि बहुगुणा जी जैसे पर्यावरणविदों की दूरगामी द्दष्टि की अवहेलना करना कितना घातक हुआ है ।
बहुगुणा जी को 1980 में अमेरिका की फ्रैंड्स आफ नेचर संस्था ने सम्मानित किया । 1986 में उन्हें रचनात्मक कार्यों के लिए जमनालाल पुरस्कार मिला ,1987 में चिपको आंदोलन के लिए राइट टू लाइवलीहुड सम्मान मिला । 1989 में उन्हें IIT रूरकी विश्वविद्यालय ने डाक्टर आफ सोशल साइन्सेस की मानक उपाधि से तथा 2009 में भारत सरकार ने पद्म विभूषण से सम्मानित किया ।
विश्व में पर्वावरण के सच्चे हितैषियों को जब जब याद किया जाएगा ,देवभूमि पुत्र , देश के गौरव डा. सुन्दर लाल बहुगुणा का नाम सर्वोपरि रहेगा । ईश्वर उनकी आत्मा को शान्ति प्रदान करे । और अंत में चिपको आंदोलन का यह प्रेरक घोष युग्म :
क्या हैं जंगल के उपकार , मिट्टी पानी और बयार 
मिट्टी पानी और बयार ,जिंदा रहने के आधार !
डा . सुंदर लाल बहुगुणा जी को कोटि कोटि नमन  !!
-ओम प्रकाश नौटियाल
बडौदा ,गुजरात
(तथ्य -अंतर्जाल के सौजन्य से )
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21 वीं सदी में हिन्दी भाषा का सवाल- एक वाजिब सवाल: डॉ. मंजू कुमारी

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man painting the wall
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(हिन्दी उपन्यासों के विशेष संदर्भ में)

21 वीं सदी में हिन्दी भाषा का सवाल- एक वाजिब सवाल

(हिन्दी उपन्यासों के विशेष संदर्भ में)

डॉ. मंजू कुमारी

सहायक प्रोफेसर, हिन्दी विभाग

राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय ढलियारा, काँगड़ा

हिमाचल-प्रदेश

भाषा ही वह माध्यम है जिसके द्वारा हम अपने भावों एवं विचारों को एक-दूसरे तक आसानी से पहुंचाने में सफल हो पाते हैं। समाज की निर्मित किसी भाषा के माध्यम से ही संभव है, भारतीय समाज में हिन्दी भाषा और उसका साहित्य बहुत विस्तृत स्तर पर मौजूद है। साहित्य ही वह जरिया है जिसके माध्यम से तत्कालीन समय एवं समाज की स्थिति को समझा जा सकता है। वैश्वीकृत दौर में समाज के बदलने के साथ साहित्य की भी रूपरेखा में परिवर्तन होना स्वाभाविक है। “भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता है इसकी समाहार की संस्कृति। जो भी यहाँ आता है वह इस देश के तीज-त्योहार से, मूल चेतना से, व्यक्तियों के स्वाभिमान से इतना प्रभावित होता है और यहीं का बनकर रह जाता है इस समाहार की संस्कृति के कारण हिन्दी भाषा का बहुत विकास हुआ है। हिन्दी भाषा ने अन्य किसी भी कारण से कोई गुरेज नहीं किया कि- उसे अन्य भाषाओँ के शब्दों को भी अपनाना है। अंग्रेजी, उर्दू, पुर्तगाली आदि भाषाओँ के शब्दों को सहजता से आत्मसात किया है। हिन्दी ने सदैव ही शरणागत की रक्षा की है। विविधता में एकता इसकी विशेषता रही है।”1

भारत एक बहु आयामी तथा बहुभाषी समाज है। प्रत्येक समाज की अपनी-अपनी स्थिति, अपना परिवेश और अपनी संस्कृति होती है। भाषिक संरचना की दृष्टि से देखा जाय तो प्रत्येक प्रान्त की अपनी एक विशेष ‘भाषा’ या बोली होती है। कहीं पंजाबी, कहीं तमिल, तेलगु तो कहीं बांग्ला, मराठी और गुजरती। इस सभी जगहों पर लोगों द्वारा जो भाषा समझी बोली जाती है या जिसके माध्यम से जहाँ हिंदी प्रचलन में नहीं है वहाँ भी हिन्दी भाषा के द्वारा संवाद स्थापित किया जा सकता है। इसकी यह वजह भी हो सकती है कि हिंदी भाषा मात्र एक भाषा न होकर राष्ट्रभाषा है। जहाँ तक भाषा का प्रश्न है। ‘भाषा भावों की अनुगामिनी होती है।’ भाषा के माध्यम से हम अपनी बात एक-दूसरे तक पहुँचाने में सफल हो पाते हैं। किसी भी भाषा का एक सामाजिक और सांस्कृतिक परिदृश्य होता है। जिसके माध्यम से भाषा अपने क्षेत्र विशेष का निर्माण करने में भी सफल होती है। भारत एक विशाल देश है। यहाँ पर हिन्दी भाषा के साथ अन्य भाषा और बोलियाँ भी विद्यमान हैं। जिनमें से 22 मुख्य भाषाओं को संविधान की आठवीं अनुसूची में भी शामिल किया गया है।

हिन्दी भाषा की उत्पति ‘सिन्धु’ शब्द से मानी जाती है। प्राचीन समय में ‘सिन्धु नदी’ के आस-पास का क्षेत्र ‘सिन्धु क्षेत्र’ कहलाता था। ‘सिन्धु’ शब्द की ‘स’ ध्वनि को आक्रमणकारियों द्वारा ‘ह’ ध्वनि कहा गया और उस पर ईरानी (फारसी) का प्रभाव बताया जाता है। इस प्रकार ‘सिन्धु’ शब्द ‘हिन्दु’ शब्द बना और ‘सिन्धी’ शब्द से ‘हिन्दी’ रूप सामने आया है। यही आगे चलकर ‘खड़ी बोली’ हिन्दी के रूप में व्यवहृत होने लगी। ‘हिन्दी नयी चाल में ढली- भारतेंदु’ कथानक को सार्थक करती हुई हिन्दी भाषा का परिष्कृत रूप सामने आया। “हिन्दी की यह शक्ति पहली बार दिखी हो, ऐसा नहीं है, हिन्दी ‘नई चाल में ढलने’ के बाद पहला आकस्मिक परिवर्तन छायावाद के दौर में दिखता है जब भाषा में एक गुणात्मक परिवर्तन हुआ। हजारों नये शब्दों के प्रवेश के साथ ही खड़ी बोली हिन्दी सहसा अवयस्क से वयस्क हो गई। भाषा में होने वाले दूसरे आकस्मिक परिवर्तनों का दौर संभवत: 1980 के आस-पास का रहा होगा जब वैश्वीकरण, मुक्त बाजार, उदार नीति, नयी प्रौद्योगिकी और सूचना क्रांति ने संक्रमणकालीन समाजों को जन्म दिया। इस समय हम फिर से एक बार हिन्दी में बहुत से नये शब्दों के प्रवेश को देख सकते हैं। इन परिवर्तनों ने हिन्दी की एक नयी संरचना निर्मित की और उसकी शुद्धता को दरकिनार करते हुए संप्रेषणीयता पर बल दिया।”2

आज हिन्दी पूरे भारत में ‘राजभाषा’ के रूप में विराजमान है। भारतीय भाषा परम्परा में आज हिन्दी का वहीं स्थान है जो प्राचीनकाल में संस्कृत भाषा का था। भारत का आधा हिस्सा ‘हिन्दी भाषी’ है। जहाँ सहज भाव से हिन्दी बोली और समझी जाती है। साहित्यिक दृष्टि से देखा जाय तो हिन्दी में सृजनशीलता की अद्भुत क्षमता है। ‘हिन्दी’ भाषा साहित्यिक दृष्टि से भी समृद्ध भाषा है। हिन्दी भाषा एक ऐसी भाषा है जिसमें भाषा समाहार की अद्भुत शक्ति विद्यमान है। इसलिए भी हिन्दी अपनी शुरूआती दौर से ही अनेक भाषाओं के आक्रमण और संक्रमण के बावजूद अपनी पहचान को परिष्कृत कर सहज एवं जीवंत रूप को प्राप्त करती हुई, आज समकालीन दौर में भी हिन्दी भाषा अपनी अनोखी पहचान और सार्थकता बनाये हुए है, जिसे हिन्दी भाषा के विकास का सूचक कहा जा सकता है। भाषा एक समाज सापेक्ष क्रिया है जैसे-जैसे समाज बदलता रहता है वैसे-वैसे भाषा में भी बदलाव आता रहता है। इस परिवर्तनशील समय में भाषा का स्वरूप भी विकसित हो रहा है। “लोक जीवन में भाषा का उद्देश्य भले ही एक-दूसरे के बीच संवाद तक सीमित हो या कहे की सूचना विचार अपनी भावनाओं को एक-दूसरे तक पहुँचाने का ही माध्यम रहा हो लेकिन जब हम व्यापक दृष्टि से इस पर विचार करते हैं तो पाते हैं कि “विभिन्न संस्कृतियों के संवर्धन और सामुदायिक मेलजोल बनाये रखने में इनकी बेजोड़ भूमिका होती है।”3

आज 21वीं सदी में हिन्दी अब किसी एक क्षेत्र-विशेष की भाषा नहीं रही। वह वैश्विक हो तकनीकी कार्यों में भी प्रवेश कर रोजगार की भाषा बन रही है। हिन्दी भाषा विदेशों में भारतीय और उनकी भाषा हिन्दी एक रूप ग्रहण कर भारत की राष्ट्र भाषा के रूप में पूरे विश्व में स्वीकार की जा रही है। वैश्वीकरण के इस दौर में भारत में व्यापर और बाजार को बढ़ावा देने के लिए, हिन्दी भाषा के ज्ञान के बिना यहाँ के अधिकतम लोगों से संवाद करना संभव नहीं होगा। आज भाषा का दृश्य और श्रव्य दोनों रूप कंप्यूटर, इंटरनेट और सूचना-प्रौद्योगिकी द्वारा एक व्यापक रूप ग्रहण करने में सफल हो रही है। यह सब मीडिया की ही देन है। मीडिया के माध्यम से आज हिन्दी वैश्विक स्तर पर विराजमान हो रही है। जिसमें पत्रकारिता, जनसंचार जनमाध्यम और प्रिंट इलेक्ट्रोनिक मीडिया, सिनेमा, विज्ञापन, न्यू मीडिया आदि शामिल हैं।

“इक्कीसवीं शती बीसवीं शताब्दी से भी ज्यादा तीव्र परिवर्तनों वाली तथा चमत्कारिक उपलब्धियों वाली शताब्दी सिद्ध हो रही है। विज्ञान एवं तकनीक के सहारे पूरी दुनिया एक वैश्विक गाँव में तब्दील हो रहा है और स्थलीय व भौगिलिक दूरियाँ अपनी अर्थव्यवस्था खो रही हैं। वर्तमान विश्व व्यवस्था आर्थिक और व्यापारिक आधार पर ध्रुवीकरण तथा पुनर्संगठन की प्रक्रिया से गुजर रही है। ऐसी स्थित में विश्व की शक्तिशाली राष्ट्रों के महत्त्व का क्रम भी बदल रहा है। यदि अठारहवीं शताब्दी आस्ट्रिया और हंगरी के वर्चस्व की रही है तो उन्नीसवीं सदी ब्रिटेन और जर्मनी के वर्चस्व का प्रमाण देती हैं और बीसवीं सदी अमेरिका और सोवियत संघ के प्रभुत्व के रूप में विश्व विख्यात है। आज स्थित यह है कि इक्कीसवीं सदी, विश्व समुदाय की मानें तो भारत और चीन की है। क्योकिं भारत और चीन विश्व की सबसे तेजी से उठने वाली अर्थव्यवस्था में से है। इन दोनों देशो के पास अकूत प्राकृतिक सम्पदा है तथा युवा मानव संसाधन है। जब किसी राष्ट्र को विश्व समुदाय में अपेक्षाकृत अधिक महत्त्व और स्वीकृति मिलती है तो उसके प्रति अपनी निर्भरता महत्त्वपूर्ण हो जाती है और वह राष्ट्र भी स्वयं महत्त्वपूर्ण बन जाता है। भारत की विकासमान अंतर्राष्ट्रीय स्थिति हिन्दी के लिए वरदान है।”4

पिछले दो तीन सालों में समाचार की भाषा में भारी बदलाव हुआ है। सूचना क्रांति ने भारतीय जीवन शैली पर भारी प्रभाव डाला। समाज बदला तो भाषा बदली और मीडिया का रूप भी बदल गया है। वर्तमान समय सूचना-प्रौद्योगिकी के माध्यम से वास्तविक दुनिया को आभासी दुनिया में तीव्र गति से बदल रहा है। मीडिया जगत में तरंगों की क्रांति के रूप में सूचनाओं का स्वरूप भाषा के माध्यम से ही संप्रेषित हो रहा है। जिसमें भाषा अहम भूमिका अदा कर रही है। लेकिन इस बात से भी इन्कार नहीं किया जा सकता है कि इस बढ़ते मीडिया के दौर में एक क्षेत्र-विशेष की भाषा अर्थात क्षेत्रीय बोलियों का या तो खात्मा होगा या वह वैश्विक स्तर पर विकसित हो संप्रेषण का माध्यम बनेगी। मातृभाषाओं के संरक्षण के लिए विश्व स्तर पर काम शुरू कर दिया गया है। “मातृभाषाओं के लिए विश्व स्तर पर यूनेस्को वर्ष-2000 से हर साल अन्तर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाता है और विभिन्न कार्यक्रमों के जरिए देशी भाषाओं और संस्कृतियों का संरक्षण तथा बहुभाषिकता को प्रोत्साहित करता है। बहुभाषिकता राष्ट्रों-समुदायों के बीच उपजी भ्रांतियों, मदभेदों को पाटने में सेतु का कार्य मिथकों-लोकोक्तियों से गुथें होने के कारण मातृभाषा के जरिये सीखने समझने की पर्याप्त, निर्बाध व सहज गुंजाइश रहती है।”5 वैश्वीकरण के इस दौर में हिन्दी भाषा और साहित्य का भविष्य उज्ज्वल है। भारत जैसे विशाल देश जो कि बाजार का सबसे बड़ा हब है, जहाँ पर व्यापार-प्रवाह के लिए हिन्दी भाषा ही एक माध्यम है जिससे आपसी संप्रेषण जमीनी स्तर तक सम्भव हो सकेगा। समकालीन मीडिया में हिन्दी भाषा की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि उसने हिन्दी भाषा को रोजगार से जोड़ा है। हिन्दी भाषा को व्यावसायिक जगत की भाषा से जोड़ने में विज्ञापनों का काफी बड़ा हाथ है। भारत में आर्थिक उदारीकरण, अर्थव्यवस्था के कारण आयी बहु-राष्ट्रीय कम्पनियाँ ने पाया की हिन्दी ही एक ऐसी भाषा है जो भारत में एक बड़ा बाजार उपलब्ध करा सकती है। इसका एक कारण यह भी है कि भारतीय किसी भी भाषा का सम्बन्ध केवल भाषा तक सीमित न होकर पूरे भाषा-भाषी समाज से हैं जहाँ तक यह भाषा आसानी से बोली समझी जाती है। जब हम एक भाषा को केंद्र में रखकर बात करते हैं तो साथ ही साथ उससे सम्बन्धित समाज और संस्कृति का भी एक इतिहास जुड़ा होता है। जिसके बिना किसी भाषा पर बहस की नहीं जा सकती है। वर्तमान दुनिया बदलते भाषिक संप्रेषण के साथ विचारधारा, समाज और संस्कृति का तेवर भी बदल रहा है। टेक्नोलॉजी, बाजार और मीडिया के प्रवेश ने समाज और संस्कृति की संरचना को परिवर्तित कर दिया है। जिसके साथ ही भाषा की संवेदना भी शून्य होती चली जा रही है। बाजारीकरण ने समाज और संस्कृति के बाह्य जगत को बदलने में सफल रही तो मानवीय संवेदना को भी सुखानें से भी पीछे नहीं रही। बदलते समय और समाज के साथ मानवीय सम्वेदना शून्य हो सारे रिश्ते बाजार से खरीद कर लायी गई वस्तु के समान आकर्षण समाप्त होने के बाद व्यर्थ हो जाती है। ‘कुंवरनारायण’ अपनी कविता के माध्यम से मानवीय संवेदना की बदलती झांकी प्रस्तुत करते हैं-

“जब भी एक कहता है कि भावनाओं का रिश्ता तिजारत से बड़ा है

दूसरा जवाब देता है कि हर रिश्ता,

आर्थिक-बुनियाद पर खड़ा है।”

भाषा की मानवीय सम्वेदना दिन-प्रतिदिन घट रही है। सनसनी फ़ैलाने हेतु ‘मीडिया भाषा’ का बोलबाला बढ़ता ही जा रहा है। भाषिक संवेदना की शून्यता मात्र खबर बनकर रह गई हैं। बाजारीकृत संस्कृति ने शब्द से उसकी जीवन्तता ख़त्म कर उसे बेजान बना दिया है। कवि ‘निलय उपाध्याय’ की कविता में अभिव्यक्ति समाज और संस्कृति की बेचैनी का एक दृश्य इस प्रकार है।

“बेचते-बेचते

खरीद लेने वालों पर टिका था बाजार

खरीदते-खरीदते बिक जाने वालों पर टिकी थी,

यह दुनिया”

वैश्वीकरण के दौर मैं भाषा समाज और संस्कृति का नया रूप मीडिया की ही देन है। आधुनिकता की भाषा में कहे तो बिना मीडिया क्रांति के कथाकथित ‘पिछड़े समाज और रूढ़िवादी संस्कृति से मुक्त पाना संभव न था। भारतीय समाज और संस्कृति में जहाँ ‘वैसुधेव कुटुम्बकम’ की भावना का तात्पर्य ‘पूरा विश्व परिवार है’ था। वहीं दूसरा तरफ आज ‘वैश्वीकरण’ का मतलब- ‘पूरा विश्व बाजार’ है। जहाँ वस्तु बनायीं जाती है, वस्तु बेची जाती है। जहाँ समाज बाजार है, लोग उपभोक्ता हैं और बाकी जो बचे उत्पादक या व्यापारी। मानवीय सम्वेदना मात्र छल है और कुछ भी नहीं। आज के समाज की यह नई सोच है। इसलिए भी समाज की हर-एक वस्तु का वजूद उसके बाजारी मूल्यों पर आधारित होता है। भाषा का अस्तित्व भी नई सोच को आत्मसात कर लेने मात्र से बचा रह सकता है। मीडिया सूचनाओं का जंजाल है। मीडिया जब उद्योग बन जाती है तो उसका बाजार लाभ कमाना मुख्य उद्देश्य हो जाता है। ‘इसी लाभ का शिकार कहीं न कहीं हमारी भाषाएँ भी हो रही हैं। जिससे भाषा तो व्यावसायिक हो रही है लेकिन भाषा की जीवन्तता पर खतरा बढ़ता जा रहा है। इस बात से इंकार भी नहीं किया जा सकता है।

जहाँ तक भाषा या हिन्दी भाषा की ‘लिपि’ का प्रश्न है, जिसका सम्बन्ध मुख्य रूप से हिन्दी भाषा के अस्तित्व और पहचान से जुड़ा है। शुरूआती दौर में जब हिन्दी ‘फॉण्ट’ का विकास नहीं हुआ था उस समय हिन्दी ‘रोमन लिपि’ में लिखी जाती थी और रोमन में ही हिन्दी सामग्री भी ‘इंटरनेट’ पर डाली जाती थी। उस समय तक ‘देवनागरी लिपि’ में हिन्दी के लिए फॉण्ट की समस्या थी। लेकिन देखते ही देखते ‘न्यू मीडिया की क्रांति’ ने शीध्र ही इस समस्या को भी दूर कर दिया। ‘गूगल ट्रांसलेशन साफ्टवेयर’ के आ जाने से ‘यूनिकोड फॉण्ट’ ने हिन्दी भाषा और दूसरे अन्य भाषाओं की दुनिया में क्रांति ला दी। जिसने न्यू मिडिया के विकास का रास्ता भी खोल दिया है। वर्तमान समय में हिन्दी भाषा के विकास के लिए ‘एम. एच. आर. डी.’ और ‘यू.जी.सी.’ जैसी संस्था द्वारा ‘ई.पी.जी.पाठशाला प्रोजेक्ट’ के माध्यम से हिन्दी के पाठ्यक्रम को ऑनलाइन विश्व स्तर पर उपलब्ध करवाने और हिन्दी भाषा के वैश्विक विकास के लिए सराहनीय प्रयास किया जा रहा है। जिसके माध्यम से हिन्दी भाषा और साहित्य का परिष्कृत रूप विश्व स्तर पर सबको उपलब्ध कराया जाएगा। एन.सी.ई.आर.टी. द्वारा बहुत पहले ही अपनी सारी किताबें हिन्दी, अंग्रेजी दोनों भाषाओं में ऑनलाइन भी उपलब्ध करवा दी गई हैं। भूमण्डलीकरण और हिन्दी पुस्तक की सम्पादक कल्पना वर्मा के अनुसार “जो नई तकनीक है चाहे इंटरनेट हो, ई-मेल, ई-बुक, ई-कामर्स, सभी में हिन्दी का सफल प्रयोग हो रहा है। इंटरनेट पर हिन्दी की पुस्तकें, अखबार, पत्र-पत्रिकाएँ दूसरे देशों के विविध साइट्स पर उपलब्ध हैं। नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित बारह हजार पृष्ठों का ‘विश्व हिन्दी कोश’ इन्टरनेट पर उपलब्ध है। हिन्दी साहित्य के लगभग दो लाख पृष्ठ महात्मा गांधी अंतर्राष्टीय विश्वविद्यालय द्वारा इंटरनेट पर डाले गए हैं। डिस्कवरी चैनल, दो कार्टून चैलन आदि द्वारा हिन्दी में ज्ञानवर्धक सूचनाएँ प्रसारित होती हैं। टेलीविजन तथा रेडियों ने भी हिन्दी ने अपना वैश्विक स्थान बना लिया है।”6 जिसमें सामाजिक विज्ञान के साथ विज्ञान की भी किताबें हिन्दी भाषा में उपलब्ध हैं। समकालीन समाज पूर्ण रूप से टेलीविजन, इंटरनेट, मोबाइल, फेसबुक, ट्विटर, व्हाटऐप आदि तकनीकी परिवेश को ‘साइबर वर्ल्ड’ के रूप में जाना जा रहा है, जो कि किसी भी देश काल सीमा से परे है, व्यापक है और विस्तृत है। इस हद तक कि मानव मन की भावनाएं पूर्ण रूप से स्वच्छंद होकर विचरण कर रही हैं। यहाँ पर न किसी को कोई बंधन है और न ही किसी तरह का कोई अवरोध। हर कोई अपनी स्थिति के अनुसार स्वतंत्र है और स्वच्छंद भी। लेकिन युवा पीढ़ी आज के अस्त-व्यस्त जीवन में भी एहसास को सहेजना चाहती है। ‘कुंवर नारायण’ कविता-‘नई किताबें’ में इसी तरह के अहसास को रेखांकित किया गया है।

“अपने लिए हमेशा खोजता रहता हूँ।

किताबों की इतनी बड़ी दुनिया में,

एक जीवन संगिनी

थोड़ी अल्हड़, चुलबुली, सुन्दर आत्मीय किताब

जिसके सामने मैं भी खुल सकूं

एक किताब की तरह पन्ना पन्ना

और वह मुझे भी

प्यार से मन लगा कर पढ़े।।”

वर्तमान समय में भाषा पर पड़ रहे अंग्रेजी भाषा के प्रभाव से इन्कार नहीं किया जा सकता है लेकिन पुन: हिन्दी अपना एक रूप बदलकर वैश्विक दौर में विकास के पथ पर अग्रसर हो रही है। भाषा विकास की दृष्टि से यह संक्रमण का काल है। लेकिन धीरे-धीरे इस काल में भी ठहराव आएगा और हिन्दी भाषा का विश्वव्यापी रूप सभी पर राज करेगा। हिन्दी भाषा के विकास में भाषा का मीडियाकृत होना एक ऐतिहासिक घटना है। इसने हिन्दी का एक बहुत बड़ा जन-क्षेत्र तैयार किया है, जिसकी कल्पना नहीं की गई थी।

समकालीन मीडिया के दौर में हिन्दी भाषा ‘हिन्दी संस्कृति’ में अन्तर्निहित अस्मिताबोध को नये सिरे से समझने की जरुरत है तो दूसरी तरफ हिन्दी की अन्य बोलियों से सम्बन्ध दृढ़ करने की भी जरुरत है। इतना ही नहीं हमें ‘उपभोक्तावादी संस्कृति’ की बोली ‘हिंग्लिश’ के साथ संवाद करने और ‘शुद्ध हिन्दी’ भाषा रूपी मिथक को भी तोड़ने की जरुरत है। हिन्दी भाषा का प्रारम्भ से ही समाहार रूप रहा है न कि शुद्धता जैसी बेड़ियों से जकड़ी रही है संस्कृत भाषा की तरह। हिन्दी भाषा अपनी प्रकृति के अनुसार अन्य भाषाओं से आये शब्दों का परिष्कार कर समायोजन करती और विकसित होती रही है। कोई भी भाषा अपने समय में जितनी उदार और सहज होती है वह समय के साथ-साथ बदलती रहती है। समय के साथ वह उतनी ही लोक प्रिय भाषा के रूप में विराजमान होती है। संस्कृत और लैटिन भाषा का उदाहरण हमारे सामने है। यह कहना गलत न होगा कि इन दोनों भाषा के अनुयायियों ने इसे लोगों के सामने सीमित किया।

इन भाषाओं ने अपने आपको व्याकरण के साथ जितना शुद्धतावादी रवैया अपनाया उतनी ज्यादा ये भाषाएँ सिमट कर रह गईं। 21वीं सदी सूचना-प्रौद्योगिकी और मीडिया के माध्यम से संस्कृत भाषा को भी पुन: जीवनदान देने हेतु इसके भाषायी ज्ञान के भंडार को विश्व स्तर पर पहुँचाने हेतु का काम शुरू हो गया है। यह बदलते समय और भाषा के प्रति बदलती मानसिकता की ही मांग है। “प्रख्यात आलोचक-विचारक डॉ. नामवर सिंह ने भी कहा है कि इक्कीसवीं सदी में भाषा और साहित्य का भविष्य बाजार तय करेगा। भाषा के विकास और उसके बदलाव के अध्येता डॉ.रामविलास शर्मा ने भी खडी बोली की उत्पत्ति का श्रेय बाजार को दिया है। बाजार ने खड़ी बोली के साथ-साथ अवधी, भोजपुरी, छत्तीसगढ़ी आदि क्षेत्रीय बोलियों को भी लोकप्रियता प्रदान की है। ‘मैडोना’ जैसी ‘पॉप स्टार सिंगर’ को भी कबीर के पदों को गाने के लिए बाजार ने ही विवश या प्रेरित किया। इंडियन ओशेन ग्रुप ने गोरख पाण्डेय के ‘हिलेला झकझोर दुनिया’(भोजपुरी) गीत को गाया। अस्सी करोड़ की लोगों की भाषा का आश्रय लिए बिना आज विश्व की व्यावहारिक और व्यावसायिक गतिविधियों का संचालन सम्भव नहीं।”7 इस प्रकार हिन्दी व्यावहारिकता के साथ-साथ व्यावसायिक दुनिया में तीव्रता से अपना परचम लहराने के लिए सफल हो चुकी है। अब वह समय दूर नहीं है जब समाज में बनी हिन्दी भाषा के प्रति लोगों की उदासीनता स्वत: समाप्त हो जाएगीं। “हिन्दी समकालीन भूमण्डलीकरण के दौर में तेजी से एक सशक्त, सर्वत्र उपस्थित विश्व भाषा बन चली है। उसके अनेक स्तर अनेक रूप, अनेक शैलियाँ हैं और एक नयी अन्तरंग किस्म की बहुलता है। मुक्त बाजार, ग्लोबल जनसंचार, तकनीकी क्रान्ति और हिन्दी क्षेत्रों के विराट उपभोक्ता बाजार ने हिन्दी हिन्दी को एक नयी शिनाख्त और ताकत दी है। संस्कृतवाद का दामन छोड़ बोलियों को अपने में समाकर उर्दू से दोस्ती स्थापित कर अंग्रेजी से सहवर्ती भाव में विकास पाती हिन्दी अपना ‘ग्लोबल ग्लोकुल’ बना रही है।-सुधीश चौधरी”8 हिन्दी भाषा बदलते समय और समाज के साथ अपने आपको हमेशा आत्मसात की भावना से सहजता से बदलती और विकसित होती रही है। “जब सन 2000 में हिन्दी का पहला ‘वेव पोर्टल’ अस्तित्त्व में आया तभी से इंटरनेट पर हिन्दी ने अपनी छाप छोड़नी प्रारम्भ कर रही, जो अब रफ़्तार पकड़ चुकी है। नई पीढ़ी के साथ-साथ पुरानी पीढ़ी ने भी इसकी उपयोगिता समझ ली है। मुक्तिबोध, त्रिलोचन जैसे हिन्दी के महत्त्वपूर्ण कवि प्रकाशकों द्वारा उपेक्षित रहे। इंटरनेट ने हिन्दी को प्रकाशकों के चंगुल से मुक्त कराने का भी भरसक प्रयास किया है। इंटरनेट पर हिन्दी का सफर ‘रोमन लिपि’ से प्रारम्भ होता है। और ‘फॉण्ट’ जैसी समस्याओं से जूझते हुए धीरे-धीरे यह ‘देवनागरी लिपि’ तक पहुँच जाता है। ‘यूनिकोड, मंगल, जैसे ‘युनिवर्सल फोंट्स’ ने देवनागरी लिपि को कंप्यूटर पर नया जीवन प्रदान किया है। आज इंटरनेट पर हिन्दी साहित्य से सम्बन्धित लगभग सत्तर ई-पत्रिकाएँ देवनागरी लिपि में उपलब्ध है।”9 टेक्नोलॉजी ने भारतीय भाषाओं और बोलियों को इंटरनेट के माध्यम से प्रगति पथ पर अग्रसर किया है।

“अभिव्यक्ति” हिन्दी की पहली ई-पत्रिका है जिसने आज तीस हजार से भी अधिक पाठक हैं। अभिव्यक्ति के बाद अनुभूति रचनाकार हिन्दी नेस्ट, कविताकोश संवाद आदि ई-पत्रिकाएँ इंटरनेट पर अपनी छटा बिखेर रही हैं।”10

वैश्वीकृत दौर में हिन्दी भाषा पर अंग्रेजी भाषा के शब्दों का प्रयोग बढ़ रहा है। हिन्दी भाषा और साहित्य वैश्विक स्तर पर लगातार लोकप्रिय हो रही है। यह कहना सही है कि “अगला दौर नवउदारवाद के बाद की हिन्दी का है, जो पिछले पंद्रह-बीस वर्षों से चल रहा है। इस दौर में दैनिक-साप्ताहिक अखबारों की संख्या में भारी इजाफा हुआ। इससे भी आगे बढ़कर हिन्दी भाषा पर मिडिया, टीवी चैनलों का असर पड़ा। इस नये मीडिया पर एक तरह की खिचडी हिन्दी चल रही है, जिसमें अंग्रेजी के शब्दों का धुआंधार प्रयोग चल रहा है। इसी का असर दैनिक अखबारों की हिन्दी पर भी पड़ा है। जिन अंग्रेजी शब्दों के लिए हिन्दी शब्द सुलभ हैं, उनका भी प्रयोग किया जा रहा है। भूमण्डलीकरण का सबसे गहरा प्रभाव मिलावट का चलन है। यह मिलावट खानपान से लेकर भाषा तक में है। –नामवर सिंह”11 हिन्दी भाषा और साहित्य का प्रभाव दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है । बदलते समय और समाज में सूचना-प्रौद्योगिकी के आ जाने से भारतीय परिवेश में हिन्दी भाषा सभी के द्वारा बोली-समझी जाने वाली भाषा के रूप में विकसित हो रही है। वैश्विक दौर में टेक्नोलॉजी और ‘सूचना प्रौद्योगिकी’ से अनभिज्ञ लोगों का विकास असम्भव है इसलिए टेक्नोलॉजी के इस दौर में टेक्निकल यंत्रों के माध्यम से जुड़कर ही हम विश्व स्तर पर अपना परचम लहरा सकते हैं। इसलिए हिन्दी भाषा और साहित्य भी बाजार और ‘सूचना प्रौद्योगिकी’ के माध्यम से विश्व स्तर पर अपनी महत्ता का ज्ञान का गुणगान करती हुई विकसित हो रही है।

हिन्दी भाषा की संप्रेषणीयता और वैश्विक समाज

वैश्वीकृत दौर में हिन्दी भाषा का वैश्विक स्वरूप देखा जा सकता है। हिन्दी भाषा अब किसी क्षेत्र विशेष की भाषा न रहकर विश्व स्तर की भाषा हो गई है। वैसे देखा जाय तो ‘अंग्रेजी’ और ‘चाइनीज’ भाषा को छोड़कर तीसरे स्थान पर ‘हिन्दी’ भाषा के बोलने समझने वाले विश्व के हर कोने में मिल जाएंगे। वैश्विक स्तर पर हिन्दी का प्रचार-प्रसार भारत से दूसरे देशों को गए भारतीय मजदूरों अर्थात गिरमिटिया मजदूरों द्वारा ज्यादा हुआ है। जिसके माध्यम से वर्तमान समय में हिन्दी भाषा विश्व के कई देशों में फ़ैल चुकी है और एक संप्रेषणीय भाषा के रूप में सहज रूप से बोली समझी जा रही है। वैश्वीकरण के दौर में बाजार और सूचना प्रौद्योगिकी के माध्यम से देश के कोने-कोने तक हिन्दी भाषा का प्रचार-प्रसार करने का मुख्य कारण यह भी है कि कम्पनियों को अपना सामान बेचने खरीदने के लिए ज्यादातर ग्राहक मध्यवर्गीय समाज के लोग थे ऐसे में उनसे संवाद के लिए उसकी सम्पर्क भाषा हिन्दी में अपनी सूचनाएं प्रसारित करने और उनके द्वारा संवाद स्थापित करने हेतु इंटरनेट की भाषा के रूप ने हिन्दी का विकास और टेक्नोलॉजी के माध्यम से हिन्दी भाषा के साथ-साथ हिन्दी से सम्बंधित अन्य क्षेत्रीय बोलियों की लिपि को भी कम्प्यूटर की-बोर्ड पर उतारा गया।

वर्तमान समय में हिन्दी इंटरनेट की भाषा के रूप में पूरे विश्व में फ़ैल चुकी है। अंग्रेजी की भांति हिन्दी विश्व प्रसिद्ध भाषा के रूप में विराजमान हो चुकी है। वैश्विक दौर में हिन्दी की बोलियों पर स्थानीयता का प्रभाव देखा जा सकता है। बहुत ही रोचक और जीवंत रूप में साहित्य के माध्यम से बोलियों का प्रयोग किया जा रहा है। “आज पूरे संसार में करीब 2800 भाषाएँ बोली जाती हैं जिनमें से 12 भाषाएँ मात्र साहित्यिक महत्त्व की हैं। यदि बोलने वालों की संख्या की दृष्टि से देखें तो सारे संसार में पहला स्थान चीनी भाषा का, दूसरा स्थान अंग्रेजी का और तीसरा स्थान हिन्दी का है। हिन्दी भाषा का प्रचलन भारत, नेपाल, मलेशिया, इंडोनेशिया, सूरीनाम, फिजी, गुयाना, मोरिशस ट्रिनिडाड एवं टोबैगों जैसे करीब पचास देशों में हैं।”12 आभासी दुनिया के विश्व पटल पर हिन्दी भाषा और साहित्य विकसित हो दुनिया के कोने-कोने तक पहुँच रहा है और साथ ही साथ हिन्दी भाषा बोल-चाल सम्वाद स्थापित करने के एक भाषायी माध्यम के रूप में विकसित हो रही है।

“भाषा वैज्ञानिकों का मत है कि व्यक्ति भाषा का प्रयोग अपने परिवेश, स्थिति तथा संदर्भ के अनुसार करता है’ आज के परिवेश एवं संदर्भ के अनुसार हिन्दी भाषा केवल साहित्यिक या सम्प्रेषण की भाषा नहीं रही। वह तो कामकाज, कार्य पद्धति, विज्ञान, तकनीक, प्रौद्योगिकी, विधि चिकित्सा वाणिज्य के साथ-साथ संगणक, सेल्युलर, इंटरनेट, सैटेलाईट सूचना सुपर हाइवे की भाषा बनने लगी है। संचार माध्यमों की समाज सापेक्ष सेवा माध्यम(सर्विस टूल्स) के रूप में प्रयुक्त हो रही है। सामाजिक सन्दर्भ के गतिशील प्रवाह में अपने-अपने गुणों को बढ़ा रही है। वह संचार की भाषा बन भाषाई क्षमता तथा भाषा व्यवहार को गति प्रदान कर रही है। संचार भाषा के सभी गुण हिन्दी में है। जिसके कारण वह आज विश्व भाषा बन रही है।”13 हिन्दी भाषा ही भारतीय समाज में राष्ट्र भाषा बनने के योग है। क्योंकि हिन्दी भाषा की सहजता मानव मन की गहराई अपनी सहज मातृभाषा में ही सम्भव होती है। हिन्दी भाषा की महत्ता को बताते हुए “सरदार बल्लभ भाई पटेल ने कहा है कि- हर व्यक्ति का कर्तव्य है कि राष्ट्रभाषा की उन्नति बढ़ाने और उसकी सेवा करे, जिससे कि सारे भारत में वह बिना किसी संकोच या संदेह के स्वीकृत हो। हिन्दी भाषा का पट महासागर की तरह विस्तृत होना चाहिए जिसमें मिलकर और भाषाएँ अपना बहुमूल्य भाग ले सके। राष्ट्रभाषा न तो किसी प्रान्त न किसी जाति की है। वह सारे भारत की भाषा है।”14 हिन्दी ही वह भाषा है जिसके माध्यम से पूरे भारत वर्ष के लोगों को एकता के सूत्र में बाधा जा सकता है। “व्यावहारिक दृष्टि से हिन्दी में सरलता, बोध सुलभता सुचारुता अधिक है। उसका लचीला रूप केवल भारतीय भाषाओं को ही नहीं अपनाता बल्कि विदेशी भाषाओँ को भी वह सहजता से अपनाता है। हिन्दी की देवनागरी लिपि और वैज्ञानिकता को देख बाजार क्रांति ने उसे अधिक अपनाया है । आज के संचार युग के दौर में भाषा वैज्ञानिकों तथा विशेषज्ञों ने भविष्य वाणी करते हुए कहा है कि सूचना-संचार में केवल 14 भाषाएँ जीवित रहेंगी। उसमें हिन्दी भाषा का नाम है।”15

21वीं सदी के हिन्दी उपन्यासों में अन्य भाषा बोलियों की शब्दावली और वैश्विक समाज की कुछ झांकियां इस प्रकार हैं- वैश्विक समाज और संस्कृति से जुड़े कुछ उदाहरण- भ्रष्टाचार लोकतंत्र के लिए आक्सीजन है, है कोई ऐसा राष्ट्र जहाँ लोकतंत्र हो और भ्रष्टाचार न हो ? जरा नजर दौड़ाइए, पूरी दुनिया पर, ये छोटी बड़ी राजनीतिक पार्टियाँ क्या हैं? अलग-अलग छोटे-छोटे संस्थान, भ्रष्टाचार के प्रशिक्षण केन्द्र, सिद्धांत मुखौटे हैं जिनके पीछे ट्रेनिंग दी जाती है।” 16

‘उपन्यास: एक ब्रेक के बाद- अलका सरावगी-भारत में कम्पनियों के प्रवेश ने भौतिक रूप से जहां देश समाज का विकासदर को आगे बढा रहा है वहीँ दूसरी तरफ हम देखते हैं कि भारतीय मानवता और सम्वेदना के गुण शून्य होती जा रही है। “इण्डिया की ‘इकोनॉमिक बूम’ या आर्थिक उछाल के साथ-साथ इण्डिया में धीरज और सहनशीलता के गुण डूब गए। अब साफगोई का जमाना भी गया कि आप किसी चुभते हुए सच को बेझिझक कह डालें।”17

भारत यानी “इण्डिया के लोग दुनिया भर की फैक्टारियां खरीदते घूम रहे हैं। टाटा ने इंग्लैण्ड में स्टील फैक्टरी खरीद ली और बिडला ने अमेरिका में अलमूनियम की। के.वी. अपने अंदाज में हँसकर कहते हैं-चीन का ड्रैगन 2007 में 9 प्रतिशत जीडीपी में बढ़ोतरी दिखाए तो क्या, इण्डिया का हाथी उससे एक सूता ऊपर 9.1 प्रतिशत तक पहुँचने वाला है।”18

“भारतीय कला और संस्कृति का बदलता स्वरूप और भारतीय कलाओं का विदेशीकरण गुरु की डायरी में लिखी बात की वास्तविकता “मैं-जो सब कुछ जानता हूँ, आनेवाले कल को भी और गुजरे हुए कल को भी तो खैर जानता ही हूँ। खरीद लो, खरीद लो, इसके पहले कि भारतीय कला ‘इनफ़ोसिस’ बन जाए और सारा माल विदेश जाने लग जाय। अब ‘आर्ट’ और ‘ब्लू चिप में कोई अंतर नहीं बचा है।”19

उपन्यास: ग्लोबल गाँव का देवता-रणेन्द्र “पीजीटी गर्ल्स रेजिडेंशियल स्कूल। प्रिमिटिव ट्राइव्स आदिम जनजाति परिवार की बच्चियों के लिए आवासीय विद्यालय में विज्ञान शिक्षक।”20 इस नौकरी से ख़ुशी के साथ-साथ यह दुःख भी था की आदिवासी इलाके के स्कूल है जहाँ का जीवन कठिन है। “ग्लोबल गाँव का बड़ा देवता है ‘वेदांग’। यह ऊँगली पकड़कर बाँह पकड़ने वाली बात लगती है। यह कम्पनी है विदेशी और नाम रखा है ‘वेदांग’, जैसे प्योर देशी हो। कितना चालू-पूर्जा है इसी से पता चलता है।”21 ग्लोबल गाँव के देवता खुश थे। जो लड़ाई वैदिक युग में शुरू हुई थी, हजार-हजार इन्द्र जिसे अंजाम नहीं दे सके थे, ग्लोबल गाँव के देवताओं ने वह मुकाम पा लिया था। असुर-बिरिजिया, बिरहोर-कोरबा, आदिम जाति-आदिवासी सब मुख्यधारा में शामिल होने ही वाले थे।”22 यही नियत है। वर्तमान आदिवासी समाज की इस वैश्विक दौर में उनका जीवन हमेशा संकटग्रस्त बना रहेगा अगर वे मुख्यधारा में शामिल नहीं होते हैं। क्योंकि अब उनके लिए पहले जैसा जीवनयापन संभव नहीं रहा।

उपन्यास: दौड़- अलका सरावगी- “प्रतिस्पर्धा से प्रतिस्पर्धा की तरफ जाती इस अंधी दौड़ में रिश्ते-नाते, मानवीयता, संवेदना शहर, सपना, लगाव, परम्परा सबका सब अर्थहीन, दकियानूस और बीता हुआ उच्छ्वास भर है। यहाँ रिश्ते बहुत व्यावहारिक, रस्मी और सतही हैं। यहाँ शहर का अर्थ केवल रोजगार में खुलता है। यहाँ स्मृतिया एकदम व्यर्थ हैं और सपने सिर्फ तरक्की से जुड़े हैं। इस बाजार ने वह सबकुछ लील लिया है जो मनुष्य को मनुष्य बने रहने की ताकत देता है।”23

वैश्विक समाज की शिक्षा व्यवस्था – “समाज की तरह शिक्षा में भी वर्गीकरण आता जा रहा था। एम्.बी.ए में लड़के वर्ष भर पढ़ते, प्रोजेक्ट बनाते, रिपोर्ट पेश करते और हर सत्र की परीक्षा में उत्तीर्ण होने को जी तोड़ मेहनत करते। एम्.एम्.एस. में रईस उद्योगपतियों, सेठों के बिगड़े शहजादे एक.आर.आई. कोटे से प्रवेश लेते, जमकर वक्त बरबाद करते और दो की जगह तीन साल में डिग्री लेकर अपने पिता का व्यवसाय सभालने या बिगाड़ने वापस चले जाते।”24

अखिलेश अपने उपन्यास निर्वासन में कहते हैं- “देश इक्कीसवीं सदी की ओर ले जाया जा रहा था और संसार भूमण्डलीकरण की तरफ। दुनिया एक गाँव बनने के लिए फुदक रही थी। इसी घनचक्कर में हमारे बड़े-बड़े शहरों को रेलों के मार्फत परस्पर सुबह शाम के लिए जोड़ा जा रहा था। ट्रेन राजधानी से राजधानी को, बड़े नगर को बड़े नगर से वाबस्ता कर रही थीं।”25 प्रस्तुत उदाहरणों के माध्यम से हिन्दी भाषा की संप्रेषणीयता और उसके वैश्विक संदर्भ को समझा जा सकता है। हिन्दी भाषा में देश-विदेश में घटित होने वाली घटनाओं अर्थशास्त्र, बाजार, राजनीति और यहाँ तक की 21वीं सदी की धरोहर ‘सूचना प्रौद्योगिकी और बाजार’ से सम्बन्धित शब्दावलियों को हिन्दी भाषा बहुत ही सहजता से स्वीकार कर संप्रेषणीय भाषा के रूप में विकसित हो रही है। बदलते समय, समाज और संस्कृति अर्थात वैश्वीकृत उपभोक्तावादी संस्कृति तथा बाजारीकृत समाज में वैश्विक स्तर पर भारतीय परिवेश में हिन्दी भाषा एक समृद्ध राष्ट्र-भाषा के रूप में विश्व स्तर पर पहुँच रही है। “भूमण्डलीकरण के वर्तमान दौर में बाजार ने हिन्दी का स्वरूप अखिल भारतीय कर दिया है। चेन्नै में कभी हिन्दी-विरोधी और हिन्दी-ओडिगे (हिन्दी भागाओं) का दौर था। इन प्रदेशों में विरोध के फलस्वरूप हिन्दी समाचार का प्रसारण बंद करना पड़ा था, परन्तु आज चेन्नै के अतिरिक्त बंगलूर और हैदराबाद उन शहरों में शामिल हैं जहाँ हिन्दी फ़िल्में अधिक कारोबार कर रही हैं। ‘हिन्दुस्तान’ की सम्पादक मृणाल पांडे कहती हैं- ‘यह परिवर्तन संस्कृति-प्रेरित नहीं है बल्कि ‘बाजार’ इसके लिए जोर लगा रही है।”26 बदलते समय के साथ हिन्दी भाषा में अन्य कई भाषाओँ के शब्द शामिल हुए हैं जिसका स्वरूप हम उपन्यास के उदाहरणों के माध्यम से देख चुके हैं। इन भाषाओ के मिश्रण से हिन्दी भाषा दिन-प्रतिदिन समृद्ध हो रही है। जिस वजह से वह हर भाषा-भाषी लोगों के बीच संप्रेषण का माध्यम बनती जा रही है। हिन्दी भाषा बोलने वालों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढती जा रही है जिसकी वजह वैश्वीकरण है। जिसकी वजह से वर्तमान वैश्विक परिदृश्य में हिन्दी का स्वरूप बदला है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भाषा केवल साहित्य का विषय नहीं है वरन वह हमारी संस्कृति, राष्ट्रीय सद्भाव, वैज्ञानिक दृष्टिकोण, सामाजिक समता और नैतिक मूल्यों की संवाहक भी है। हमारे देश में हिन्दी एक भाषा ही नहीं, यह एक पूरी संस्कृति की सूचक है, हमारी पहचान है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि वैश्वीकरण के युग में हिन्दी के वैश्विक रूप में बढ़ावा देना हिन्दी भाषा और साहित्य का विकास ही है।

“भारत की सभ्यता संस्कृति और धर्म को देखते हुए अन्य भाषाओँ की भांति हिन्दी में भी कई कोर्स शुरू किये गए हैं। भूमण्डलीकरण के बाद से इसमें तेजी से बदलाव देखने को मिला। खुद अमेरिका में हिन्दी का 45 वर्ष पुराना इतिहास है। आज स्थिति यह है कि वहाँ पर 100 से भी ज्यादा संस्थानों में हिन्दी की पढ़ाई होती है, जो हिन्दी की उपयोगिता में चार चाँद लगा रहे हैं।”27 इस वैश्वीकरण के दौर में ‘बाजार और सूचना प्रौद्योगिकी’ अर्थात ‘इंटरनेट टेक्नोलॉजी’ के विकास के साथ-साथ हिन्दी भाषा जो कि वर्तमान समय में भारतीय समाज की राज्यभाषा के रूप में प्रतिष्ठित है, पूरे विश्व में लोगों के बीच संपर्क भाषा तथा सम्प्रेषण भाषा के रूप में अपना स्थान बना पाने में सफल हो रही है।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि वतर्मान वैश्विक दुनिया में हिन्दी भाषा के साथ-साथ अन्य भाषा और क्षेत्रीय बोलियों को बढ़ावा मिल रहा है। इंटरनेट के माध्यम से किसी भी भाषा बोली की लिपि में आसानी से लिखा जा सकता है। टेक्नॉलोजी के युग में भारतीय भाषा हिन्दी के अलावा अन्य भाषा के बारे में तो नहीं कह सकते लेकिन यह कहना सोलह आना सच है कि हिन्दी वैश्विक स्तर पर सम्पर्क भाषा के रूप में सर्वत्र व्याप्त हो रही है। आने वाले समय में हिन्दी भाषा-भाषी के बिना विकास की राह अवरुद्ध है।

उपन्यासों में अंग्रेजी और स्थानीय बोलियों का हस्तक्षेप

हिन्दी भाषा प्राचीनकाल से अर्थात जब से अस्तित्व में आयी है। अपनी समाहार शक्ति के कारण कभी भी, कहीं भी कमजोर भाषा के रूप में चरितार्थ नहीं हुई है। बदलते समय, समाज और संस्कृति के बीच होने वाले बदलाव या विकास के साथ हिन्दी भाषा ने अन्य भाषा बोलियों से आने वालें शब्दों को सहजता से हिन्दी रंग में रंग लिया । हिन्दी भाषा अपने इसी गुण के कारण विकसित होती हुई, हिन्दी खडी बोली के रूप में अपना सफर शुरू करके आज भारत राष्ट्र की एक समृद्ध और विश्व स्तर पर ज्यादा से ज्यादा लोगों द्वारा बोली समझी जाने वाली भाषा बन गई है। “सोवियत संघ रूस के विघटन के बाद विश्व में तेजी से अमेरिकी साम्राज्यवाद ने विश्व बाजार के नाम पर पूँजीवाद के नये रूप की परिकल्पना की। दरअसल भूमण्डलीकरण, उदारीकरण के नाम पर पूँजीवाद का विश्व बाजार बनाने का लक्ष्य था जो कि अब पूरा होता नज़र आ रहा है। जिसके चलते नव विकसित, अर्थविकसित और पूर्णत: विकसित बाजार में पूँजीवाद का व्यापार-प्रवाह किया जा सके। उदारीकरण की यह छद्म तानाशाही हमसे न केवल हमारी मनुष्यता छीनती है बल्कि हमारी संवेदना का अपहरण करके हमें कुण्ठित बना रही है। बाजार में आज हर चीजें या तो बिक रही है या तो जीवित रहने के लिए बदल रही है। उन्हीं बदलती चीजों में से है एक हमारी मातृभाषा हिन्दी भी है। हिन्दी को बदलना था क्योंकि उसे जीवित रहना था। वरिष्ठ साहित्यकार राजेन्द्र यादव का कहना है कि “भाषा कभी बनती-बिगडती नहीं बल्कि विकसित होती है अर्थात हमारी हिन्दी विकसित हो रही है। उसमें आत्मसात करने की भावना व्याप्त है।”28 वैश्वीकृत समाज में हिन्दी भाषा और साहित्य वैश्विक स्तर पर अपना परचम लहराने में सफल हुई है।

21वीं सदी बाजार और सूचना प्रौद्योगिकी के यंत्रों के माध्यम में सूचनाओं का संसार बन गया है। ऐसे समाज में तीसरी दुनिया के देशों पर अपना साम्राज्य स्थापित करने के लिए किसी भी देश की भाषा को जानना समझना आवश्यक हो जाता है। क्योंकि भाषा ही वह शक्ति है किसी देश को मुकम्मल रूप से जानने और समझने के लिए। भाषा के माध्यम से हम किसी देश के समाज और उसकी संस्कृति को गहराई से जान समझ सकते हैं। हिंदी भाषा में आत्मसात करने की अद्भुत शक्ति है जिसकारण आरम्भ से लेकर वर्तमान समय तक लगातार विकसित तथा समृद्ध होती रही है। वैश्वीकरण की घटना भारतीय समाज में घटित होने वाली एक ऐतिहासिक घटना है जिसने पूरे भारतीय समाज को ‘ग्लोबल’ बना दिया है। वैश्वीकरण के माध्यम से पूरे विश्व में बिना किसी रुकावट के पूँजी, श्रम, ज्ञान, वस्तु एवं विचारों का भी आवागमन सहज हो पाया है। इंटरनेट और सूचना यंत्रो के माध्यम से वास्तविक समाज आभासी दुनिया का निर्माण कर रहा है। इंटरनेट की भाषा मुख्यत: अंग्रेजी है। अंग्रेजी भाषा को आधार बनाकर इन सूचना यंत्रो का विकास सम्भव हो पाया है लेकिन धीरे-धीरे बाजार और सूचना प्रौद्योगिकी के माध्यम से भारतीय भाषा हिन्दी के साथ-साथ उसकी क्षेत्रीय बोलियों को भी महत्त्व मिलने लगा है। भारतीय भाषा हिन्दी और हिन्दी की बोलियों के आधार पर कम्प्यूटर देवनागरी लिपि की ‘स्क्रिप्ट’ विकसित कर ‘की-बोर्ड’ तैयार हो चुके हैं। बाजार और व्यापार को अत्यधिक बढ़ावा देने हेतु भारतीय भाषाओँ को भी प्रोत्साहित किया जा रहा है। रही बात हिन्दी के वैश्विक स्वरूप का तो वह बिना किसी व्यवधान के एक समृद्ध भाषा बन रही है। हिन्दी विदेशी भाषा के शब्दों को बहुत ही प्रेम के साथ आत्मसात करती हुई विकसित हो रही है।

कोई भी भाषा अपने समाज और संस्कृति की पहचान होती है। जिसके माध्यम से कोई भी उस देश के समाज और संस्कृति के साथ उस देश की वास्तविकता के सच से वाकिफ हो सकता है क्योंकि भाषा का अस्तित्व और उसकी अस्मिता उस देश के अस्तित्व और अस्मिता की पहचान होती है। अपनी भाषा के बिना कोई भी देश अपने सहज अस्तित्व को खो सकता है, जिससे वैश्विक दौर में कोई पहचान कायम नहीं हो पाएगा। “भाषायी अस्मिता का तात्पर्य है- भाषा बोलने वालों की अपनी पहचान। भाषा की इसी पहचान का सम्बन्ध सत्ता से है जो हमें ताकत देता है। यह भी कहा गया है कि भाषा की पहचान का गहरा सम्बन्ध ‘लिपि’ की पहचान से जुड़ा है क्योंकि वे एक संस्कृति के दौरान विकसित हुई हैं।”29 इस प्रकार हम देखते हैं कि वैश्वीकरण का सकारात्मक पक्ष शक्ति देता है। “भूमण्डलीकरण के मूल में ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ का उदात्त भारतीय दर्शन तमाम विश्व को एक परिवार के रूप में रहने की प्रेरणा देता है मगर ये दर्शन यह कहीं नहीं कहता कि अपनी पहचान को विलीन कर दो, अपनी जड़ों को खो दो या अपनी संस्कृति की मर्यादा को भूल जाओ। इसमें सीधे-सीधे अपने स्वाभाविक स्वरूप को सहज रूप से बाकी दुनिया से जोड़ने का सन्देश निहित है।”30

वैश्वीकरण के इस दौर में विश्व की लगभग सारी भाषाएँ टेक्नोलॉजी से जुड़ रही हैं। वर्तमान समय में किसी भी भाषा को जानने समझने के लिए किसी स्थानीय लोगों से सम्पर्क करने की जरूरत नहीं है, इंटरनेट के माध्यम से सारी भाषाएँ और उससे सम्बंधित बोलियाँ सूचना प्रौद्योगिकी यंत्रों के माध्यम से विश्व स्तर पर सहज रूप से उपलब्ध हैं किसी भाषा को जानने और समझने के लिए देश के किसी भी कोने से सूचना आसानी से प्राप्त की जा सकती है। “इक्कीसवीं सदी बीसवीं सदी से भी ज्यादा तीव्र परिवर्तनों वाली तथा चमत्कारिक उपलब्धियों वाली सदी सिद्ध हो रही है। ‘विज्ञान एवं तकनीक’ के सहारे पूरी दुनिया एक वैश्विक गाँव में तब्दील हो रही है और स्थलीय व भौगिलिक दूरियाँ अपनी अर्थव्यवस्था खो रही हैं। वर्तमान विश्व व्यवस्था आर्थिक और व्यापारिक आधार पर ध्रुवीकरण तथा पुनर्संगठन की प्रक्रिया से गुजर रही है। ऐसी स्थित में विश्व की शक्तिशाली राष्ट्रों के महत्त्व का क्रम भी बदल रहा है। यदि अठारहवीं शताब्दी आस्ट्रिया और हंगरी के वर्चस्व की रही है तो उन्नीसवीं सदी ब्रिटेन और जर्मनी के वर्चस्व का प्रमाण देती हैं और बीसवीं सदी में अमेरिका और सोवियत संघ के प्रभुत्व के रूप में विश्व विख्यात है। आज स्थित यह है कि इक्कीसवीं सदी, विश्व समुदाय की मानें तो भारत और चीन की है। भारत और चीन विश्व की सबसे तेजी से उठने वाली अर्थव्यवस्था में से है। क्योंकि इन दोनों देशो के पास अकूत प्राकृतिक सम्पदा है तथा युवा मानव संसाधन है। जब किसी राष्ट्र को विश्व समुदाय में अपेक्षाकृत अधिक महत्त्व और स्वीकृति मिलती है तो उसके प्रति अपनी निर्भरता महत्त्वपूर्ण हो जाती है और वह राष्ट्र भी स्वयं महत्त्वपूर्ण बन जाता है। भारत की विकाशमान अंतर्राष्ट्रीय स्थिति हिन्दी के लिए वरदान है।”31

भूमण्डलीकरण के दौर में भारत का आर्थिक माहौल बदलने के साथ ही यहाँ के सामाजिक और सांस्कृतिक ताने-बाने को भी प्रभावित किया है। विदेशी फिल्में भारतीय परिवेश में और भारतीय फ़िल्में विदेशी परिवेश में भाषा और साहित्य खानपान वेशभूषा आचार-व्यवहार सब आपस में घुलने मिलने लगे, लेकिन भारत की राष्ट्रभाषा हिन्दी और उसके साहित्य इस माहौल का क्या असर हुआ है? किस तरह वैश्वीकृत समाज उसे प्रभावित कर रहा है आदि प्रश्नों की परताल करते हुए आलोचक पुरुषोत्तम अग्रवाल का कहना है कि-“भूमण्डलीकरण ने भारतीय जीवन को गहरे में जाकर प्रभावित किया है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हिन्दी ख़त्म हो जाएगी और अंग्रेज़ी उसका स्थान ग्रहण कर लेगी।”32

हिन्दी उपन्यासों में समाज में व्याप्त अग्रेंजी और अन्य हिन्दी की क्षेत्रीय बोलियों का प्रभाव को निम्न उदाहारणों के माध्यम से समझ सकते हैं। अलका सरावगी का उपन्यास ‘एक ब्रेक के बाद’ का एक उदाहरण है“अब यह दुनिया असली रही कहाँ? कंप्यूटर की ‘वर्चुअल रियेलिटी’ ही जिन्दगी की सच्चाई है।”33 अंग्रेजी भाषा का सहज प्रयोग।

सत्यनारायन पटेल के उपन्यास-‘गाँव भीतर गाँव’ में स्थानीयता की झलक- “कुछ धनपाशु, सफेद हाथी, और लोकतंत्र के गिद्ध या उनकी आज्ञा के पालन में उनके गुलाम, मातहत उन्हें खरीदेंगे। चक्की में पिसवायेंगे। थाली में रैंदेंगे-गूंथेंगे। तवे पर, चुल्हे पर और गैस की आंच पर सकेंगे। खौलते तेल में तलेंगे। मालिक की थाली में परोसेंगे। मालिक अपने गंदे-संदे दांतों से चबायेंगा। लेकिन मुक्ति वहाँ भी नहीं मिलेगी। खवखड़ी आंतें कतरा-कतरा रस, ऊर्जा और सारा सत्व लेंगी। दानों को आम-अवाम की तरह निचोड़ लेंगी। आम-अवाम से दाने लोकतंत्र के गिद्धों की हगार बन जायेंगे। हगार फिर खाद का दाना, फिर अनाज का दाना, फिर वही पूरा चक्र। उफ़! इस चक्र-कुचक्र से मुक्ति चाहिए।”34 प्रस्तुत उदाहरण में ग्रामीण भाषा का ठेठपन का प्रयोग दृष्टव्य है।

21वीं सदी की उपन्यास लेखिका ‘महुआ मांझी’ का उपन्यास-‘मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआ’ में वैज्ञानिक शब्दावली का उदाहरण- “विकिरण जीवित प्राणी के जीन के साथ तो छेड़छाड़ करता ही है, यह स्त्री पुरुष की जनन क्षमता को भी प्रभावित करके उन्हें बाँझ बना देने की ताकत रखता है। जो प्राणी विकिरण या रेडियोंधार्मिता या रेडिएशन के जितना निकट सम्पर्क में आता है, वह उतना अधिक प्रभावित होता है। विकिरण एक ही सेल में लाखों म्यूटेशन पैदा कर सकता है। मनुष्य के सेल में करीब 3.5 खरब (बिलियन) डी.एन.ए. के जोड़े होते हैं।”35 प्रस्तुत उदाहरण में अंग्रेजी भाषा का प्रयोग दृष्टव्य है।

इसी क्रम में संजीव के वैज्ञानिक उपन्यास- ‘रह गई दिशाए इसी पार’ में अंग्रेंजी शब्दों का प्रभाव व्यापार और बाजार की तुलना को भारतीय और विदेशी परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है “इंसान के बनने की वैज्ञानिक प्रक्रिया- “हाइड्रोजन और आक्सीजन मिलकर बनता है पानी। नाइट्रोजन, कार्बन से मिलकर बना ‘एमीनो एसिड।’ माने केमिस्ट्री की भाषा में आदिम है ‘इलेक्ट्रान।’ अमीनो एसिड का विकसिततम रूप हुआ इंसान। और इस आदमी की लिप्सा का कोई अंत नहीं। वह लड़ाईयां मोल लेता है, पैंतरे चलता है, छल करता है। उसे जीत चाहिए। पूरे ब्रह्माण्ड पर जीत। ब्रह्माण्ड का अंत है पर इस मनुष्य की लिप्सा का कोई अंत नहीं।”36 प्रस्तुत उपन्यास में वैज्ञानिक शब्दावली का प्रयोग दृष्टव्य है।

काशीनाथ सिंह का उपन्यास ‘काशी का अस्सी– स्थानीयता और भाषा के देशीपन की जीवन्तता की अद्भुत झांकी प्रस्तुत की गई है। उदाहरण दृष्टव्य है- “खडाऊं पहनकर पाँव लटकाए पान की दुकान पर बैठे तन्नी गुरु से एक आदमी बोला-‘किस दुनिया में हो गुरु! अमरीका रोज-रोज आदमी को चन्द्रमा पर भेज रहा है और तुम घंटे-भर से पान घुला रहे हो?’ मोरी में ‘पिच’ से पान की पीक थूककर गुरु बोले- देखौ! एक बात नोट कर लो ! चन्द्रमा हो या सूरज- भोसड़ी के जिसको गरज होगी, खुदै यहाँ आएगा।37 प्रस्तुत उदाहरण में ठेठ देशीपन बनारसी संवाद दृष्टव्य है।

“ग्लोबल गाँव का बड़ा देवता है ‘वेदांग’। यह ऊँगली पकड़कर बाँह पकड़ने वाली बात लगती है। यह कम्पनी है विदेशी और नाम रखा है ‘वेदांग’, जैसे प्योर देशी हो। कितना चालू-पूर्जा है इसी से पता चलता है।”38

प्रस्तुत उदाहरणों में एक ही संवाद में अंग्रेजी, हिन्दी और देशी भाषा के मुहावरे का प्रयोग बहुत ही सहजता से किया गया है। उदाहरण है- “आपको पता नहीं दुनिया कितनी तेजी से आगे बढ़ रही है, अब घर्म,दर्शन और अध्यात्म जीवन में हर समय रिसने वाले फोड़े नहीं हैं| आप सरल मार्ग के शिविर में कभी जा कर देखिए|”39 आदिवासी समाज की झलक -“जाम्बीरा और मेन्जारी दोनों एक-दूसरे को पसंद करते हैं लेकिन मेन्जारी के पिता ने बेटी की शादी का वधू मूल्य इतना ज्यादा रखा है जिसे अभी जाम्बीरा अदा करने में अपने आपको समर्थ नहीं पाता है । वह सोचता है कि लड़की को भगा कर शादी कर लेना ही ज्यादा ठीक रहता है। लेकिन “जाम्बीरा ऐसा नहीं करेगा। समाज में बड़ी बदनामी होगी। उम्र भर सुनने पड़ेंगे लोगों के ताने । कहेंगे- हट्टा कट्टा मर्द और गोनोंग तक जुटा नहीं पाया। भाग गया लड़की को लेकर । ढेरों नुकसान करा दिया बेचारे लड़की के बाप का…”40

शरद सिंह का उपन्यास कस्बाई सिमोन का उदाहरण दृष्टव्य है- “शिवा भी गया था ? मुझ पर घड़ों पानी पड़ गया । शिवा रितिक का लंगोटिया मित्र है लेकिन इसका मतलब ये तो नहीं कि उसके सामने लंगोट लगाकर ही घूमो। क्या आवश्यकता थी उसे साथ ले जाने की? अब मैं उसका सामना कैसे करुँगी? उफ़ ! इट्स डिस्गस्टिंग !”41 हिन्दी लेखिका अलका सारावगी का कहना है –“यह सच है की अंग्रेजी का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है। लेकिन साथ ही भाषा के स्तर पर एक नयी शब्दावली का भी गठन हो रहा है। जो आज के जीवन यथार्थ को पकड़ने में मददगार हो रही है और इस तरह हिन्दी एक समृद्ध भाषा बन रही है।”42

वैश्वीकरण के इस युग में यह कहना गलत नहीं होगा कि हिन्दी भाषा को रोजगार से जोड़कर ही हिन्दी भाषा की उन्नति के साथ-साथ हिन्दी के प्रति लोगों की मानसिकता को सहजता से बदला जा सकता है। वैश्वीकृत उपन्यासों का शिल्प पक्ष भाषा की गुणवत्ता के सन्दर्भ में- “भाषा पर किसी भी बहस की शुरुआत करने से पहले यह जान लेना जरुरी है कि वह एक सामाजिक वस्तु है। मानसिक संकल्पना के साथ-साथ वह एक सामाजिक यथार्थ भी है; व्याकरणिक इकाई होने के साथ-साथ वह संस्थागत प्रतीक भी है और सम्प्रेषण का अन्यतम उपकरण होने के साथ-साथ वह हमारी सामाजिक अस्मिता का एक सशक्त माध्यम भी है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि हर भाषा एक निश्चित समुदाय के व्यक्तियों को भावना, चिन्तन और जीवन-दृष्टि के धरातल पर एक दूसरे के नजदीक लाती है और उन्हें आपस में जोड़ती और बांधती है।”43

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि समय बदला, समाज बदला और समाज की झांकी प्रस्तुत करने वाला साहित्य और साहित्य की मान्यताएं भी बदली। बदलते समय और समाज के साथ साहित्य का भी विकास होता रहा है जिसके माध्यम से समाज का सच यथार्थ के धरातल पर अवतरित हुआ । किसी भी समाज की मुकम्मल जानकारी प्राप्त करने के लिए तथ्यों के संकलन से कहीं ज्यादा उस समय का साहित्य समाज की सच्चाई का बहुत ही संवेदनशील तरीके से गहराई से हमारे सामने दिखाने में सफल होता है।

21 सदी के हिन्दी उपन्यासों में चित्रित समाज बाजार और सूचना प्रौद्योगिकी से निर्मित समाज की देन है। जिसकी झलक हमें साहित्य के माध्यम से प्राप्त होती है। 21 सदी के उपन्यासों में बाजार और उपभोक्तावादी संस्कृति के प्रभाव की वजह से ‘हिंग्लिश भाषा’के शब्दों का प्रयोग अत्यंत तीव्र गति से हो रहा है। हिन्दी भाषा और साहित्य आने वाले समय में अपना परचम लहराएगा।

इंटरनेट की दुनिया में हिन्दी भाषा और साहित्य

21वीं सदी के दौर में वैश्वीकरण के मुख्य वाहक के रूप में ‘बाजार और सूचना प्रौद्योगिकी’ की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। ‘सूचना-प्रौद्योगिकी’ का सीधा सम्बन्ध भाषा से है। बिना किसी भाषा के माध्यम से ‘सूचना प्रौद्योगिकी’ के यंत्रों का प्रयोग नहीं किया जा सकता है। क्योंकि सूचना का जंजाल भाषा की ही देन है। भाषा के माध्यम से ही संवाद स्थापित किए जा सकते हैं। वर्तमान दुनिया वर्चुअल रिअलिटी सूचना के आधार पर गतिशील हो संचालित हो रही है। बिना सूचना के वर्तमान दुनिया में गतिशीलता नहीं आ सकती है। किसी भी देश की गतिशीलता के लिए अर्थात विकसित होने के लिए आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक दृष्टि से सक्रिय भूमिका अदा करने का काम वह सूचना और भाषा के माध्यम से ही सम्भव है। वर्तमान दुनिया शारीरिक कम मानसिक कार्य ज्यादा मात्रा में करने के प्रति सक्रिय हो रही है जिसका एक मात्र आधार भाषा का ज्ञान है। हिन्दी भाषा और साहित्य इंटरनेट और कंप्यूटर के माध्यम से विश्व के कोने-कोने पहुँचकर सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं। भारतीय साहित्य हो या किसी भी देश या भाषा का साहित्य हो, अब वह किसी क्षेत्र विशेष तक सीमित न रहकर पूरे विश्व स्तर पर ‘वर्चुअल दुनिया’ में उपलब्ध हो रहा हैं । जिसे कहीं से भी ऑनलाइन प्राप्त किया जा सकता है। इंटरनेट की दुनिया में ‘हिन्दी भाषा और साहित्य’ का भविष्य उज्ज्वल है। “इक्कीसवीं सदी कई अर्थों में विकास की सदी है। सूचना-प्रौद्योगिकी ने तो इस सदी में सबसे अधिक विकास किया है। आज विश्व को जितना सबल, सुलभ, समुन्नत और सशक्त बनाने में अन्य संसाधनों का महत्त्व है, उससे कहीं अधिक ‘सूचना प्रौद्योगिकी’ का महत्त्व है। उसके माध्यम से ही मानव को एक-दूसरे के निकट लाने का काम किया है। जिससे उसकी भौगोलिक दूरियां ही समाप्त नहीं हुई, बल्कि उसकी मानसिकता में भी परिवर्तन आया है। अब पहले से भी अधिक उदार, ज्ञानसम्पन्न, सहयोगी, सभ्य, समन्वयी, संकीर्णता से मुक्त, सुविधा सम्पन्न और रचनाशील प्रवृत्ति से युक्त है। ‘सूचना प्रौद्योगिकी’ भाषा आधारित होती है, इसलिए भाषा और सूचना प्रौद्योगिकी का अधिक घनिष्ठ सम्बन्ध है।”44 वर्तमान दुनिया में सूचना प्रौद्योगिकी के माध्यम से भाषा का विकास तीव्र गति से हो रहा है। इंटरनेट की दुनिया में हिन्दी भाषा वैश्विक स्तर पर संवाद स्थापित करती हुई सम्प्रेषणीय बन रही है। “हिन्दी समकालीन भूमण्डलीकरण के दौर में तेजी से एक सशक्त, सर्वत्र उपस्थित विश्वभाषा बन चली है। उसके अनेक स्तर, अनेक रूप, अनेक शैलियाँ हैं और एक नयी अन्तरंग किस्म की बहुलता है। मुक्त बाजार, ग्लोबल, जनसंचार, तकनीकी क्रांति और हिन्दी क्षेत्रों के विराट उपभोक्ता बाजार ने हिन्दी को एक नयी शिनाख्त और ताकत दी है। संस्कृतवाद का दामन छोड़ बोलियों को अपने में समाकर उर्दू से दोस्ती स्थापित कर अंग्रेजी से सहवर्ती भाव में विकास पाती हिन्दी अपना ‘ग्लोबल ग्लोकुल’ बना रही है।”45 वर्तमान दुनिया में हिन्दी कथा-कहानी या कहे कि कविता तक ही सीमित होकर नहीं रह गई है वह विश्व स्तर पर संवाद स्थापित कर चहुमुखी अपने समाज और संस्कृति को हिन्दी भाषा में व्याप्त आकंठ ज्ञान का प्रसार-प्रचार कर रही है। “जब हम हिन्दी साहित्य की आज बात करते हैं, तब उसे खड़ी बोली में रचित काव्य-कृतियों तक ही सीमित नहीं करते। इसमें प्रसाद, पन्त, निराला, प्रेमचन्द, अज्ञेय, मुक्तिबोध, आदि की रचनाओं के साथ-साथ अवधी, ब्रज, मैथिली आदि बोलियों के साहित्यकार यथा जायसी, सूर, तुलसी, विद्यापति, आदि की कृतियों को भी समाहित करने में संकोच नहीं करते। इन विभिन्न बोलियों के माध्यम से अभिव्यक्ति होने वाला साहित्य एक है क्योंकि इनकी रचना करने वाले हिन्दी भाषाई समाज की जातीय अस्मिता एवं साहित्यिक चेतना एक है।”46 हिन्दी भाषा,समाज और साहित्य का यही सामंजस्य अन्य किसी भाषा, समाज और साहित्य से उसे श्रेष्ठ बनाता है| “वैश्वीकरण की इस प्रक्रिया में सम्पूर्ण विश्व एक परिवार के रूप में निकट आया है। ‘बहु राष्ट्रीय’ कम्पनियों का निर्माण हुआ है। इन कम्पनियों से वस्तुओं का उत्पादन बड़ी तेजी के साथ हो रहा है। इन वस्तुओं को बेचने के लिए बहुत बड़ा उपभोक्ता वर्ग चाहिए। यह उपभोक्ता वर्ग भारत में दिखाई दे रहा है। इसीलिए वे भारत में आकर अपने माल की खपत के लिए विज्ञापनों द्वारा वस्तुओं का प्रचार-प्रसार करना चाहते हैं। तब उनके सामने यह प्रश्न उपस्थित हो रहा है कि विज्ञापन किस भाषा में दें। अब वे हिन्दी भाषा की अनिवार्यता को महसूस कर रहे हैं, क्योंकि भारत के 80 फीसदी से भी अधिक लोग हिन्दी भाषा बोलते और समझते हैं। इसलिए बहु राष्ट्रीय कम्पनियों ने विज्ञापन के लिए हिन्दी भाषा को चुना है। इसका और भी एक कारण यह है कि हिन्दी दुनिया की सबसे अधिक सहज, सरल, एवं लचीली भाषा है।”47 जिस कारण ‘वर्चुअल दुनिया’ में आने वाले तकनीकी शब्दों को आत्मसात करती हुई आगे बढ़ रही है। अन्य भाषा बोलियों से आने वाले शब्दों को भी अपने आपमें सहजता से स्वीकार करती हुई समृद्ध हो रही है। “भूमण्डलीकरण के औजार बाजार और मीडिया ने न सिर्फ हिन्दी को बल्कि अपनी देहरी तक सीमित अन्य भाषाओँ को भी विस्तार दिया है। प्रौद्योगिकी ने इसे आसान बनाया है। एक-बार फिर भाषा निर्णायक रूप में बदल रही है। हम एक ऐसे ‘संक्रमण बिन्दु’ पर खड़े हैं, जहाँ से हमें भाषा की ताकत और कमजोरियों के सवाल से भी दो चार होना होगा। मीडिया में हिन्दी के बढ़ावें को देखकर जो लोग खुश हो रहे हैं, उन्होंने स्थिति पर गहराई से विचार ही नहीं किया है। इसका अर्थ है, जनता को लगातार एक ऐसी भाषा में बनाएं रखना, जिसमें ज्ञान नहीं, दैनिक सूचनाएँ ही अधिक हो, ज्ञान का केन्द्रीयकरण इस मायने में अंग्रेजी भाषा के पक्ष में और अधिक हुआ है।”48

निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि “भूमण्डलीकरण के सन्दर्भ में यह भ्रम फैलाया जाता है कि यह मात्र आर्थिक प्रक्रिया है। दरअसल यह बाजार और संचार की मिली-जुली प्रक्रिया से निर्मित है। इसलिए भूमण्डलीकरण के परिणाम भी मिले-जुले ही रहेंगे। बाजार की जरूरतों ने यातायात और संचार साधन में क्रांतिकारी परिवर्तन किए और भौगोलिक दूरियां समेट दीं। दूसरी तरफ संचार माध्यम ने ग्लोबल विलेज, ग्लोबल संस्कृति की संकल्पना को जन्म दिया। यह नया साइबर संसार बस एक क्लिक से जुड़ गया है। भाषा इस साइबर क्रांति का अभिन्न अंग है।”49 सामान्य रूप से भाषा, साहित्य और संस्कृति– ये तीनों अपने आप में स्वतन्त्र स्वायत्त संस्थान के रूप में जाने जाते हैं।

समकालीन समय में अब हिन्दी केवल साहित्य की भाषा नहीं रही, बल्कि उसका चौमुखी विकास हो रहा है। हिन्दी भाषा अंग्रेजी भाषा की भांति अपना विस्तार कर रही है। हिन्दी भाषा आज साहित्य और विचार की भाषा मात्र का माध्यम न होकर सांस्कृतिक और सामाजिक विकास की भी भाषा है। हिन्दी अगर आज देश के विकास की गति के साथ विकासशील से विकसित होने की ओर तीव्र गति से बढ़ रही है, तो वह सूचना क्रांति रूपी मीडिया की ही देन है। जिसके माध्यम से हिन्दी भाषा का तेवर काफी हद तक बदला है। इस बात को स्वीकार करने में किसी को कोई गुरेज नहीं होनी चाहिए कि हिन्दी भाषा को वैश्विक स्तर पर लाने में समकालीन मीडिया की बहुत बड़ी भूमिका रही है। अंतत: भाषा समाज और संस्कृति की महत्ता को नेल्सन मंडेला के शब्दों में कहें तो ‘जब किसी को कोई बात उस भाषा में बताते हैं जिसे वह जानता है तो कथन उसके मस्तिष्क तक पहुँचता है और जब उसकी अपनी भाषा में बताते हैं तो संवाद दिल को छू जाता है।’ वर्तमान दुनिया में हिन्दी भाषा बहुत ही समृद्ध हो रही है लेकिन मानवीय संवेदना और सहजता की भांति भाषा की भी सहजता और उसकी संवेदना दिन प्रतिदिन घटती जा रही है इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है। वैश्वीकृत समाज की बाजारूभाषा में मरती सम्वेदना को ‘कुँवर नारायण’ की कविता “भाषा की ध्वस्त पारिस्थितिकी में कविता” में रेखांकित बिम्ब!

एक भाषा जब सूखती

शब्द खोने लगते अपना कवित्त

भावों की ताजगी

विचारों की सत्यता

बढ़ने लगते लोगों के बीच

अपरिचय के उजाड़ और खाइयाँ”50

इस प्रकार हिन्दी भाषा मात्र एक भाषा या एक संवाद का माध्यम ही नहीं है बल्कि वह हम भारतीयों की पहचान है, हमारा अस्तित्व और हमारी शान है। वैश्वीकरण के इस दौर में बाजार और सूचना प्रौद्योगिकी के माध्यम से इंटरनेट की दुनिया में हिन्दी भाषा का प्रवेश उसके उज्ज्वल भविष्य का सूचक है। स्वदेश सिंह का कथन सही प्रतीत होता है कि “इंटरनेट और मोबाइल के दौर में हिन्दी और भी तेजी से उभर कर सामने आई है, क्योंकि अब तो तकनीक और भी सस्ती हुई है, साक्षरता दर और शहरीकरण भी पहले के मुकाबले काफी बढ़ा है। बाजार तो ‘सप्लाई और डिमांड’ पर चलता है। हिन्दी की डिमांड तेजी से बढ़ी है तो विभिन्न माध्यमों से हिन्दी का प्रसार भी तेजी से बढ़ा है।”51 इस प्रकार इंटरनेट की दुनिया में हिन्दी भाषा और साहित्य विश्व स्तर पर पहुँच देश के विकास में अपना योगदान दे रहा है।

संदर्भ-सूची:

  1. संपादक, वर्मा कल्पना,भूमण्डलीकरण और हिन्दी,लोकभारती,प्रकाशन-इलाहाबाद-पृ. सं.142
  2. संपादक, वर्मा कल्पना,भूमण्डलीकरण और हिन्दी,लोकभारती,प्रकाशन-इलाहाबाद-पृ. सं.154
  3. दैनिक जागरण समाचार पत्र (23फरवरी2018)-हरीश बडथ्वाल-लेख-‘स्वदेशी भाषाओं की अनदेखी’ पेज-8)
  4. संपादक, वर्मा कल्पना,भूमण्डलीकरण और हिन्दी,लोकभारती,प्रकाशन-इलाहाबाद-पृ. सं.168
  5. दैनिक जागरण समाचार पत्र (23फरवरी2018)-हरीश बडथ्वाल-लेख-‘स्वदेशी भाषाओं की अनदेखी’ पेज-8)
  6. संपादक, वर्मा कल्पना,भूमण्डलीकरण और हिन्दी,लोकभारती,प्रकाशन-इलाहाबाद-पृ. सं.42
  7. वहीं पृष्ठ सं.148
  8. संपादक, वर्मा कल्पना,भूमण्डलीकरण और हिन्दी,लोकभारती,प्रकाशन-इलाहाबाद-पृ. सं. 151
  9. लेख-‘इन्टरनेट की दुनिया में हिन्दी’-घर्मेन्द्र प्रताप सिंह -जनसत्ता-25 अगस्त 2015)
  10. लेख-‘इन्टरनेट की दुनिया में हिन्दी’-घर्मेन्द्र प्रताप सिंह -जनसत्ता-25 अगस्त 2015)
  11. लेख-‘हिन्दी हैं हम, परिशिष्ट, दैनिक भास्कर, 14 सितम्बर-2011
  12. महिपाल सिंह, देवेन्द्र मिश्र, विश्व बाजार में हिन्दी- पृ. सं.190)
  13. डॉ शैलजा पाटील, वैश्विकता के संदर्भ में हिन्दी- पृ.सं.30
  14. डॉ.शैलजा पाटील, वैश्विकता के सन्दर्भ में हिन्दी- पृ.सं.51
  15. डॉ.शैलजा पाटील, वैश्विकता के सन्दर्भ में हिन्दी- पृ.52
  16. काशीनाथ सिंह, काशी का अस्सी, पृ.सं.34
  17. अलका सरावगी, एक ब्रेक के बाद पृ.सं. 10
  18. अलका सरावगी, एक ब्रेक के बाद पृ.सं. 13
  19. अलका सरावगी, एक ब्रेक के बाद पृ.सं. 209
  20. रणेन्द्र, ग्लोबल गाँव का देवता पृ. सं. 7
  21. रणेन्द्र, ग्लोबल गाँव का देवता पृ. सं.80
  22. रणेन्द्र, ग्लोबल गाँव का देवता पृ. सं.100
  23. धीरेन्द्र अस्थाना-लेख-बाजार में खड़े रिश्ते, दौड़ उपन्यास के परिशिष्ट से,
  24. ममता कालिया, दौड़, पृ. सं. 22
  25. अखिलेश, निर्वासन, पृ. सं. 100
  26. अमित कुमार सिंह, भूमण्डलीकरण और भारत, पृ. सं. 99
  27. सम्पादक-कल्पना वर्मा, भूमण्डलीकरण और हिन्दी, पृ. सं.135-36
  28. (ग्लोबलाइजेशन के दौर में ग्लोबल होती हिंदी ऑनलाइन)
  29. सम्पादक-विमलेश कान्ति वर्मा, भाषा साहित्य और संस्कृति, मालतीओरियंट ब्लैकस्वान प्राइवेट लिमिटेड नई- दिल्ली, पृ. सं. 45-46
  30. सम्पादक-विमलेश कान्ति वर्मा, भाषा साहित्य और संस्कृति, मालतीओरियंट ब्लैकस्वान प्राइवेट लिमिटेड नई- दिल्ली, पृ. सं.433
  31. सम्पादक-कल्पना वर्मा, भूमण्डलीकरण और हिन्दी, पृ. सं.168
  32. http://www.bbc.com/hindi/india/2012/120912globlisation_hindi_akd
  33. अलका सरावगी, एक ब्रेक के बाद पृ.सं.15
  34. सत्य नारायण पटेल, गाँव भीतर गाँव पृ.सं. 9-10
  35. महुआ मांझी, मरण गोड़ा नीलकंठ हुआ पृ. सं. 160
  36. संजीव, रह गई दिशाए इसी पार, पृ.सं.114
  37. काशीनाथ सिंह, काशी का अस्सी, पृ. सं. 11
  38. रणेंद्र,ग्लोबल गाँव के देवता पृ.सं. 80
  39. ममता कालिया दौड़ पृ. सं. 48
  40. महुआ माझी, मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआ पृ. सं. 29
  41. शरद सिंह, कस्बाई सिमोन पृ सं. 128
  42. http://www.bbc.com/hindi/india/2012/120912globlisation_hindi_akd
  43. डॉ.रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव,भाषाई अस्मिता और हिन्दी, वाणी प्रकाशन- दिल्ली-32 प्रथम संस्करण-1992 पृ. सं. 17
  44. सम्पादक-कल्पना वर्मा, भूमण्डलीकरण और हिन्दी, पृ. सं. 331
  45. सम्पादक-कल्पना वर्मा, भूमण्डलीकरण और हिन्दी, पृ. सं.151
  46. डॉ.रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव,भाषाई अस्मिता और हिन्दी, वाणी प्रकाशन- दिल्ली-32 प्रथम संस्करण-1992 पृ. सं. 18
  47. प्रो. डॉ.अम्बादास देशमुख, वैश्वीकरण के परिप्रेक्ष्य में भाषा और साहित्य, पृ.सं.201
  48. www.Abhivyakti-hindi.org- इन्टरनेट की दुनिया में हिन्दी का भविष्य- भास्कर जुयाल-
  49. सम्पादक-कल्पना वर्मा, भूमण्डलीकरण और हिन्दी, पृ. सं. 159
  50. http://www.hindisamay.com/content/3047/1/कुँवर-नारायण-कविताएँ-भाषा-की-ध्वस्त-पारिस्थितिकी-में
  51. दैनिक जागरण,23 अक्टूबर-2018, पृ.सं.09

प्रतिरोधी समाजव्यवस्था एवं इक्कीसवीं सदी की हिंदी स्त्री आत्मकथाएँ-सुप्रिया प्रभाकर जोशी

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प्रतिरोधी समाजव्यवस्था एवं इक्कीसवीं सदी की हिंदी स्त्री आत्मकथाएँ

सुप्रिया प्रभाकर जोशी

साहित्य मानव की अभिव्यक्ति है । उत्तर आधुनिक काल में गद्य का क्षेत्र काफी विस्तृत हो गया है। हिंदी साहित्य में आत्मकथा लेखन विधा आधुनिक काल की देन है । आत्मकथा में लेखक अपना जीवन वृत्त स्वयं प्रकाशित करता है। परिणामत: हर एक आत्मकथा अपनी अलग सी विशेषता रखती है। संपुर्ण विश्व के अनेक महान विभुतियों ने आत्मकथा इस विधा को समृध्द बनाया। समकालीन परिवेश में भारत में भी अनेक आत्मकथाएँ लिखी जा रही है। बीसवीं सदी के अंतिम दशकों में तथा इक्कीसवीं सदी के आरंभ से नारियों ने भी निडरता के साथ इस विधा को समृद्ध करने में अपना योगदान दिया। नारियों द्वारा लिखी हुयी आत्मकथाएँ विचारोत्तेजक, नारी विमर्श के नए आयामों को उद्घाटित करती है। इन आत्मकथाओं को पढ़ने के बाद हमारी नैतिकता और सामाजिकता पर अनेक प्रश्न उपस्थित होते है। प्रभा खेतान ने अपनी आत्मकथा में लिखा है, ” आत्मकथा एक चीख भी है जो बताती है कि अपने किए और भोगे हुए के लिए सिर्फ हम जिम्मेदार नहीं होते। हमारे पीछे खडा सारा समाज इस जिंदगी का साक्षी और सहभोक्ता ही नहीं, इसकी हालत के लिए उत्तरदायी व्यूह रचना का निर्माता भी वह है।” १

प्रभा खेतान के इस वक्तव्य से हम यह कह सकते है कि समाज इस रचना का प्रभा ने अच्छी तरह से अनुभव किया तभी वह यह कहने का साहस जुटा पायी है। समाज व्यवस्था ने मध्ययुग के पश्चात नैतिकता, संस्कार के नाम पर नारी को उनके दायरे में ,रीति-रिवाजों में जकडकर रखा । उन्हें समाज द्वारा केवल अपमान, शोषण और उपेक्षा ही मिली। नारीयों ने भी इस पुरुषवादी समाज व्यवस्था का विरोध करने की ताकत जुटा ली और पढ लिखकर विभिन्न क्षेत्रों में अपना स्थान सुनिश्चित किया। इन सभी विद्रोही परिस्थितियों की विस्तृत व वास्तविक जानकारी हमें आत्मकथाओं से हुयी है।

मैत्रेयी पुष्पा के आत्मकथा के पहला भाग ‘ कस्तुरी कुण्डल बसै ‘ में लेखिका से अधिक उनकी मां कस्तुरी केंद्र में रही है। छोटे- छोटे प्रसंगों को मैत्रेयी ने विस्तार से खोलकर रखे है। ‘ कस्तुरी कुण्डल बसै ‘ की शुरुवात ‘ मैं ब्याह नहीं करुँगी ‘ के ऐलान से होती है। यह वाक्य एक सोलह वर्ष की लडकी के मुँह से प्रस्फुटित होना यह समाज व्यवस्था के लिए बडी चुनौती थी। कस्तुरी के इस निर्णय से माता-पिता और परिवार को व्यवस्था की चिंता साथ ही सामाजिक प्रतिष्ठा की चिंता होती है इसके कारण कस्तुरी की माँ कहती है, “कस्तुरी , लडकियों से ऎसे दुस्साहस की उम्मीद कौन करता है वे तो माँ बाप के सामने सिर उठाकर बात तक नहीं कर सकती , मरने का शाप हँस-हँसकर झेलती है और गालियाँ चुपचाप सहन करती हुई अपनी शील का परिचय देती है, तु मर्यादा तोडनेपर आमदा क्यों हुई ? ” २ उपर्युक्त वक्तव्य से ज्ञात होता है कि महिलाओं पर ऎसे संस्कार किए जाते है कि विवाह होना आवश्यक ही है। वह पुरुष पर ही अवलंबित रहे उसका कोई स्वतंत्र अस्तित्व न हो यही व्यवस्था बनाई गयी है। कस्तुरी अपने ही स्वकीयों द्वारा बेच दी जाती है। मैत्रेयी अठारह महिने की होती है उसी समय से ही कस्तुरी वैधव्य के दंश सहती है। किंतु कस्तुरी रुप समयानुसार विद्रोही, क्रांतिकारी रूप ले लेती है विधवा बनने के बाद शिक्षा प्राप्त करने घर से निकल पड़ती है, मैत्रेयी के शादी की जिद के कारण उसके लिए वर ढुँढने के लिए वह स्वयं निकल पडती है , बिना दहेज शादी करने पर अडे रहती है,आदि ऎसी कई घटनाओं को उजागर किया है जिसमें सामाजिक संरचना पर, रुढी-परंपराओं पर कस्तुरी ने प्रहार किया है।

मैत्रेयी के आत्मकथा का दूसरा खंड ‘ गुडिया भीतर गुडिया ‘ है। अपने अंदाज में बोल्ड लेखन करनेवाली लेखिका का व्यक्तित्व , मानसिक यातनाएँ या उनका होनेवाला विकास आदि बातें इस भाग में कुछ ज्यादा उभरकर आयी है। मैत्रेयी ने भूमिका में लिखा है, ” मैं ने कलम थाम ली । कलम के सहारे मेरी चेतना, जिसे मैंने आत्मा की आवाज के रुप में पाया,तभी तो साहित्य के व्दार तक चली आयी। सुना था साहित्य व्यक्ति के लिए स्वतंत्रता देता है। हाँ, लिखकर ही तो मैंने जाना कि न मैं धर्म के खिलाफ थी, न नैतिकता के विरुध्द । मैं तो सदियों से चली आ रही तथाकथित सामाजिक व्यवस्था से खुद को मुक्त कर रही थी। “३

उपर्युक्त पंक्ति से मैत्रेयी ने हमे वैचारिक परिपक्वता, अस्मिता का समान, स्त्रीत्व की प्रतिष्ठापना का मार्ग दिखाने का काम किया है। आत्मकथा यह खंड मार्मिक और विस्फोटक है । गाँव से ब्याहकर लायी गयी लडकी को ‘ गँवार ‘ शब्द से आहत किया जाता है। मैत्रेयी को तथाकथित लोगों की नजरों से सुंदर न होने पर भी ताने सुनने पडते है। ऎसे मैत्रेयी के जीवन के बारे में , उनके रहन-सहन के बारे में समाज के साथ उनके पति भी नाराज रहते है। कुछ सालों के पश्चात मैत्रेयी स्वयं को बदल देती है आधुनिक तौर तरीके सीख लेती है इसपर भी पति और समाज के लोग दुष्चरित्र होने का आरोप लगाते है। यानि नारी गाँव के संस्कारों के साथ रहे तो गँवार ठहरायी जाती है और आधुनिक बन जाए तो अनैतिक कहलाती है। समाज व्यवस्था का यह कौन सा रुप है ?

मैत्रेयी ने तीन बेटियों को ही जन्म दिया इस पर अनेक लोग उन्हें ‘ कुल नाशिनी ‘ कहते है। किंतु इस बार मैत्रेयी सामाजिक बंधनों का स्वीकार नहीं करती उनका डटकर मुकाबला करती है। एक साहित्यकार के रुप में अपनी पहचान बनाने में उन्हें कई मुश्किल परिस्थितियों से जूझना पड़ा । साहित्य के क्षेत्र के जाने माने पुरुष संपादकों ने भी उन्हे केवल ‘ स्त्री ‘ के नजर से ही देखा। मैत्रेयी ने अपने साहित्य के माध्यम से स्वतंत्र महिला का आदर्श सामने रखा है। सामान्य जनमानस तथा लोकप्रिय साहित्यकार, महिला साहित्यकारों ने भी इस साहित्य पर अश्लीलता , अभद्र और शर्मसार करने वाला साहित्य कहा है। संक्षेप में यही कह सकते है कि मैत्रेयी की आत्मकथाओं के दोनों खंडों में समाज व्यवस्था का आकलन कर उनके गुण-दोषों का निष्पक्ष भाव से किया है। उन्होने आत्मकथा में सुंदरता नहीं बल्कि सत्यता उतारा है।

‘ जो कहा नहीं गया ‘ यह आत्मकथा कुसुम अंसल की है। कुसुम ने अपने हिस्से आयी प्रताड़ना और उपहास का जिक्र अपनी आत्मकथा में किया है। वे जब मात्र दस माह की थी उसी समय उनकी माँ चल बसी । सौतेली माँ से प्यार नहीं मिला । पिता के घर के माहौल में कोने-कोने में समृध्दी भरी थी परंतु कुसुम इस समृद्धि से अछूती रही। शादी होने तक उनका सफर बेऔलाद फुफा के घर से पिता के घर पर चलता रहा , किसी ने यह जानने की कोशिश ही नहीं की कुसुम क्या चाहती है ? कुसुम की मर्जी या इच्छा जाने बिना ही उनके लिए घर बदलते रहे। ” क्यों पिता यह समझ नहीं पाए कि वह मन, बुद्धि, हृदय के सुमेल से बनी एक जीवित व्यक्ति है। नहीं, पितृक व्यवस्था के सांचे में ढले पिता के लिए यह सब सोचना बेमानी था। “४

कुसुम अपनी स्वतंत्र पहचान बनाने के लिए सारा जीवन रिश्तों के बीच हिचकोले खाती रही। उच्च शिक्षा प्राप्त की तीव्र इच्छा कुसुम को थी किंतु समाज के नियमों के कारण उनकी पढ़ाई रोक दी गयी । जब वह जिद पर अडकर मनोविज्ञान में फर्स्ट डिवीजन में पास होने पर पिता सिर पर हाथ मारकर कहते है, ” वैसे ही कोई लड़का नहीं मिलता,अब इसने तो एम. ए पास कर लिया है, वह भी फर्स्ट डिवीजन में ………। “५

इस वाक्य से हम पुरुषवादी सोच का अंदाजा लगा सकते है। उनकी सोच यही है ,’ लडकी ना पढ़े और अगर पढ़ भी ले तो पुरुषों से आगे कदम न बढाएँ । ‘विवाह के बाद तो कुसुम का जीवन संघर्ष और भी बढ़ जाता है। ससुराल के सभी सदस्यों के शुष्क व्यवहार से उनका मानसिक स्वास्थ्य बिगड़ने लगता है। अपना अस्तित्व बचाने के लिए वह अपने आपको इस पिंजरे से मुक्त कर रंगमंच से जुड जाती है। बहु के में नाटक काम करने से परिवार तथा आस-पडोस के लोग उनपर ताना कसने का एक भी मौका नहीं छोड़ते। किंतु कुसुम उन बातों को अनसुना कर अपना मार्ग स्वयं प्रशस्त करती है। अपनी आत्मकथा से उन्होने सामाजिक- पारिवारिक बंधनो, वर्जनाओं को तोड़कर बाहर आने का संकेत देती है।

‘घर और अदालत ‘ यह आत्मकथा लीला सेठ की है जो भारत की पहली महिला चीफ जस्टिस बनी थी। लीला का जन्म १९३० में हुआ उस समय घर में लड़की का पैदा होना अशुभ माना जाता था किंतु उनके माता-पिता शिक्षित थे साथ ही पश्चिमी संस्कृति से प्रभावित थे इसलिए उन्होने लड़का लड़की में कोई भेद नहीं किया। शादी के योग्य हो जाने पर उनकी शादी एक शिक्षित युवक से करवा दी। पति के नौकरी के कारण वे विदेश में रही है। समय के सदुपयोग के लिए लीला ने विदेश में ही विधि या कानून की शिक्षा प्राप्त की । कानून की परिक्षा में सफल हो गयी , इस बात से विदेश में पुरुषवादी सोच ने अखबार में लीला के बारे इस तरह उल्लेख किया है, ” एक ऐसी माँ जो कानून की बारीकियों से परिचित है, यह है लखनऊ में जन्म लेने वाली २८ वर्षीय मिसेज लीला सेठ। उन्होंने हाल ही में फायनल परिक्षा में सभी पुरुष अभ्यर्थियों को पछाडकर पहला स्थान हासिल किया है। पढाई के दौरान उनपर पति,पाँच वर्षीय बेटे और छह माह के शिशु की देखभाल की जिम्मेदारी भी थी। “६ एक भारतीय विवाहित महिला का विदेशों के पुरुष विद्यार्थियों को पीछे छोड पहला स्थान प्राप्त करने से कुछ लोगों की उनके प्रति गौरव की भावना थी तो पुरुषवादीयों के मिथ्याहंकार को गहरी चोट लगी। अपनी योग्यता पर प्रैक्टिस के लिए भारत में किसी बैरिस्टर से मिलने पर उन्होंने शादी करने , बच्चें पैदा करने की सलाह दी। ” कानूनी पेशा अपनाने के बजाय जाकर शादी- वादी करो….. ,जाकर बच्चा पैदा करो……यह तो ठीक नहीं है कि बच्चा अकेला रहे इसलिए अच्छा होगा कि तुम दूसरे बच्चे के जन्म के बारे में सोचो। “७ हम देख सकते है कि उच्चशिक्षित पुरुषों की मानसिकता भी यही रही कि स्त्री को शादी कर बच्चें ही पैदा करने चाहिए उसी में उसकी सार्थकता है। लीला सेठ के जज बनने पर भी समाज का या पुरुषों का रवैया नहीं बदल सका । हाईकोर्ट में आयोजित किए जानेवाले समारोह की तैयारियाँ करते समय एक पुरुष ने यह स्पष्ट कह दिया ,” अब जब हमारे बीच एक महिला जज भी है, हमें खाने-पीने के इंतजाम के बारे में चिंता करने की कोई जरुरत नहीं है। वह चाय पान की सारी व्यवस्था कर देगी। “८जज के इस वक्तव्य से हम समझ सकते है कि पुरुष किसी भी पेशे में क्यों न हो वह नारी को ‘ रसोईवाली ‘ इसी दृष्टि से देखता है। एक महिला वकील और न्यायाधीश होने के कारण लीला को अपने स्त्रीत्व के कारण कदम-कदम पर दोयम दर्जा मिलता गया फिर भी अपने गुणों से उन्होंने उनके कार्य में कोई कसर नहीं छोडी।

‘ शिकंजे का दर्द ‘ यह आत्मकथा दलित स्त्री आत्मकथाओं में से एक चुनिंदा आत्मकथा है। मनुवादी विषमता में वर्णवादी- जातिवादी समाज व्यवस्था ने पिछडी हुयी जातियों का जीना मुश्किल किया था साथ ही पुरुषसत्ताक व्यवस्था में उनका शोषण भी होता रहा। दलित होने के साथ महिला होने दंश समाज ने और पति की ओर से उन्होंने सहे है। वर्ण व्यवस्था के कारण बचपन से ही उन्हे दबाने की कोशिश की गयी स्कूल, कॉलेज, नौकरी के जगह पर भी उनकी जाति ने उनका पीछा नहीं छोडा। ” मुझे छु जाने पर वे नहाकर शुध्द होते है, यह बात मैं जानती थी। वे मुझसे दूर रहे, इसकी अपेक्षा मैं स्वयं उनसे दूर रहती थी ताकि मेरे कारण किसी को तकलीफ या परेशानी न हो। बचपन से सिखायी गई बातों से यह आदत बन गई थी। ” ९ स्कुल में भी वर्ण तथा जाति व्यवस्था के अनुरुप ही कक्षा का वर्गीकरण किया गया था । बचपन से ही उनके मन पर दासता, आदर्श संस्कार पैर में बेडीयों की तरह बांधे गए थे। सुशीला घर से बाहर जाति के कारण और घर के अंदर स्त्री होने के कारण प्रताड़ित होना पडा। पति के सामने जैसे वह दासी की तरह ही रहती थी। उनके इशारे पर पैरों के पास बैठकर उनके जुते, मोजे उतारना ऎसे काम करने पडते थे। इस बात पर थोडा भी विरोध जताने पर झगडा, मारपीट तो तय ही थी। ” मेरे पैरों पर अपना सिर रखकर माफी मांग, तब मैं तेरी बात मानुँगा। “१० अपने अधिकारों केलिए लडने के कारण उनके हिस्से अपमान और असह्य पीड़ा आयी। इन परिस्थितियों से संघर्ष कर सुशीला ने अपनी पढ़ाई पुरी की, एक महाविद्यालय में अध्यापक की नौकरी भी की है। अपने पति के इस अमानुष बर्ताव के लिए वह लिखती है, ” पुरुष सत्ता बनी रहे इसलिए स्त्रियों को शुरू से कमजोर बनाकर रखा जाता है। समाज की परंपराएँ स्त्री विरोधी है। इन्हें तोडकर ही स्त्री स्वतंत्रता, समता और सम्मान पायेगी ,तब वह अबला नहीं रहेगी, सबला बन जायेगी। ” ११ इस तरह समाज में संघर्ष करके ही प्राचीन मान्यताएँ तोडी जा सकती है इस ओर सुशीला संकेत करती है । पुरुषवादी, मनुवादी मानसिकता पर आक्रोश व्यक्त करते हुए समाज को जागृत होने संदेश देती है।

उपर्युक्त महिला आत्मकथाओं की श्रृंखला हमे इक्कीसवीं सदीं में मिलती है। प्रस्तुत शोध प्रपत्र में हिंदी साहित्य की कुछ गिनी-चुनी आत्मकथाओं का ही उल्लेख किया गया है। इक्कीसवीं सदीं की कौसल्या बैसंत्री, रमणिका गुप्ता, प्रभा खेतान, मन्नु भंडारी, शीला दीक्षित, आशा आपराद, रजनी तिलक, सुषम बेदी, आदि ऐसी अनेक महिलाओं ने अपने जीवन संघर्ष की कहानी हमारे सम्मुख रखी है। इनमें ज्यादातर महिला साहित्य से जुडी हुयी है, किंतु ज्ञान-विज्ञान के हर क्षेत्र की नारीयों ने आमकथा लिखकर उनकी जिंदगी में आए संकट और चुनौतियों का उल्लेख कर हमे हर हाल में न हारते हुए चुनौतियों का सामना करने की प्रेरणा दी है, हमें रास्ता दिखाने की कोशिश की है। सभी आत्मकथाओं का उल्लेख यहाँ पर होना असंभव है।

स्त्री अस्मिता पर विचार करते समय इस बातपर गौर करना जरुरी है कि स्त्री अनेक सामजिक स्तर, विभिन्न क्षेत्रों में कार्य करने के बावजुद भी , उच्चशिक्षित होने पर भी उनका लैंगिक स्तर ही अंतत: निर्णायक भुमिका अदा करता है। पितृसत्ताक समाज ने नारी को सदैव पुरुष का गुलाम और सामाजिक नियमों के अधीन बनाकर रखा । उत्पीडन का अपना अलग सा मनोविज्ञान रहा है। चाहे वह समाज व्यवस्था का नारी के लिए हो या वर्ण के अनुसार हो । नारी का पारिवारिक, सामाजिक,आर्थिक, मानसिक ,दैहिक शोषण होता रहा है। किंतु शिक्षित नारी अब सजग हो चुकी है। भारतीय संविधान ने नारी को जो हक दिए है उसके बलबुतेपर शिक्षित हो रही है, अपने सोच-विचार के दम पर वह अपने अधिकार माँग रही है। इस समाज के विपरीत परिस्थितियों से लडकर हर एक भारतीय स्त्री ने अपना अस्तित्व खोने नहीं दिया । विपरीत परिस्थितियों में रहकर भी हौसले और हिम्मत के कारण यह सभी भारतीय महिला ‘ महिला सशक्तिकरण ‘ का उदाहरण बनकर प्रस्तुत हुई है।

संदर्भ सुची :

  1. अन्या से अनन्या – प्रभा खेतान – पृ- 255
  2. कस्तुरी कुण्डल बसै- मैत्रेयी पुष्पा -पृ- 09
  3. गुडिया भीतर गुडिया- मैत्रेयी पुष्पा- भुमिका से
  4. जो कहा नहीं गया- कुसुम अंसल -पृ-10
  5. जो कहा नहीं गया- कुसुम अंसल – पृ-42
  6. घर और अदालत- लीला सेठ- पृ- 94
  7. घर और अदालत- लीला सेठ – पृ-99
  8. घर और अदालत – लीला सेठ- पृ- 258
  9. शिकंजे का दर्द -सुशीला टाकभौरे- पृ-18
  10. शिकंजे का दर्द- सुशीला टाकभौरे -पृ- 144
  11. शिकंजे का दर्द- सुशीला टाकभौरे- पृ-144
  12. हिंदी साहित्य की कतिपत्य विशिष्ट महिलाएं एवं उनकी रचनाएं – डॉ. देवकृष्ण मौर्य
  13. प्रतिशोध का दस्तावेज : महिला आत्मकथाएं – डॉ.नीरु
  14. हिंदी आत्मकथा विद्याशास्त्र और इतिहास – डॉ. बापुराव देसाई

*हिंदी भाषा एवं साहित्यानुवाद केंद्र

जे. ई. एस महाविद्यालय,

जालना-४३१२०३ (महा )

मो. ९८२३६३८४५५

विश्व पर्यावरण दिवस -2021

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 अमेरिका के पूर्व राष्ट्र्पति अब्राहम लिंकन ने एक बार पाखंडी शब्द को परिभाषित करते हुए कहा था – “यह मुझे उस व्यक्ति की याद दिलाता है जो अपने माता पिता का वध करने के बाद अदालत में यह कहकर दया की भीख माँगता है कि वह अनाथ है ।” कुछ यही हाल आज हमारा है हम वर्षों से पर्यावरण की निर्मम हत्या करते हुए  अब भगवान से हमें विष कूप से बाहर निकालने की प्रार्थना कर रहे हैं जो हमने तथाकथित विकास के नाम पर अपने लिए स्वयं तैयार किया है । हमारा साँसे आज सुरक्षित नहीं हैं । पर्यावरण के निरंतर ह्वास की चिंता भी बहुत पुरानी है किंतु इस विषय में गोष्ठियों, भाषणो अथवा कहीं कही  यदा क्दा किए गए छुट मुट प्रयासों से अधिक कुछ विशेष नहीं हुआ है हाँ चिंता के उद्‍घोष  में बुलंदी अवश्य आई है ।
आज से 49 वर्ष पहले स्वीडन की राजधानी स्टाकहोम में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा पर्यावरण और प्रदूषण पर पहला अंतराष्ट्रीय सम्मेलन 5 जून से 16 जून तक आयोजित किया गया था इसी सम्मेलन में , जिसमें 119 देशों ने भाग लिया था  , संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम का गठन किया गया था जिसका नारा  था- “केवल एक पृथ्वी”। तभी से हर वर्ष 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस हर वर्ष नए थीम के साथ  मनाया जाता है ।  2018, 2019 , 2020  में यह  थीम्स क्रमशः इस प्रकार  थी -बीट प्लास्टिक पॉल्यूशन, वायु प्रदूषण एवं जैव विविधता ।
इस वर्ष अर्थात 2021 में ,शायद कोरोना महामारी में पर्यावरण असंतुलता का भारी योगदान देखते हुए, थीम है ‘Ecosystem Restoration’  यानि जिसका पारिस्थितिक तंत्र  की पुनर्बहाली । इस थीम का उद्देश्य है – नष्ट प्रायः हो चुके पारिस्थितिक तंत्र को  पुनर्जीवित करने का यथा संभव प्रयास करना तथा  उन पारिस्थितिक तंत्रों का संरक्षण करना ,जो  अभी बरकरार हैं, किंतु जिन्हे अत्यंत देखभाल की आवश्यकता है । पर्यावरण के प्रति हर व्यक्ति का सजग होना अत्यंत आवश्यक है । बाढ़, भूकम्प, भूस्खलन आदि आपदाओं की तीव्रता कम करने के लिए वृक्ष लगाने और उनकी देखभाल करना सभी का कर्तव्य है तभी हम भावी पीढी को अच्छा पर्यावरण धरोहर के रूप में सौंप सकते हैं ।
लिए कुल्हाड़ी हाथ में, आया अंध विकास
बिन देर कर बिछा गया, शत वृक्षों की लाश ,
वृक्षों की रक्षा करें , नई लगाएं पौध 
तब ही निकट भविष्य में, ले पाएंगे श्वास !!
-ओंम प्रकाश नौटियाल
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दुनियाँ लगे अलाव

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कैसा खेला धूप ने, यह अजीब सा दाँव
पहले वृक्ष सुखा दिये, ढूंढ़ रही अब छाँव
किरणें दिखलाने लगी , अपना रूप प्रचंड़
मौसम के आदेश पर , हमे दे रही दंड़
सूरज तपता देखकर , गई बसंत बहार
रूखा सूखा हो चला , नदियों का व्यवहार
तनहा सूरज धूप से, कैसे करे बचाव
अंतस मे जब आग हो, दुनियाँ लगे अलाव
सूर्य देव के क्रोध को, मौसम की पहचान
ठंड़ा पड़ता शीत में,  चढ़ता ग्रीष्म उफान
सूरज का चाबुक चला नदियाँ हुई लकीर
ताल तड़ाग सूख गये, नयन बचा बस नीर
हरा भरा पथरा गया, फैली रेत ही रेत
झुलसे झुलसे लोग हैं, सूखे सूखे खेत
भानु भट्टी भभक रही, धरा तपे बेभाव
जले भुने जो विगत से,उन पर कहाँ प्रभाव ?
-ओम प्रकाश नौटियाल
(सर्वाधिकार सुरक्षित )
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हिंदी नवजागरण और स्त्री-सुमित कुमार

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five person sitting on concrete floor
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हिंदी नवजागरण और स्त्री

*सुमित कुमार

इतिहास साक्षी है कि स्त्रियों का शोषण विभिन्न कालों में भिन्न-भिन्न रूपों में होता आया है। यही कारण है कि आज 21वीं सदी में पूरे विश्व में नारी मुक्ति के आंदोलन जोर-शोर चल रहे हैं। भारत जैसे देश में परंपरागत रूप में यह देखा जाता है कि स्त्रियाँ आर्थिक रूप से पुरुषों पर निर्भर करती हैं और इस कारण वे स्वयं को प्राप्त अधिकारों से भी वंचित हो जाती हैं। साथ ही वे पुरुषों के अधीन होकर उनके अनुरूप ही जीवन निर्वाह करने पर विवश हो जाती हैं, चाहे वह उचित हो या अनुचित। एक पितृप्रधान समाज की यह विडंबना है कि वो स्त्रियों को अपने अधीन बनाए रखने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाता है। जैसे कि समाज में स्त्रियों पर कई प्रकार की पाबंदी लगाना, घर से बाहर न निकलने देना, उनके आचार-विचार और व्यव्हार पर पुरुषों की तुलना में कई नियम-कानून लागू करना। शिक्षा, जो सबके लिए अनिवार्य होनी चाहिए उससे भी स्त्रियों को वंचित करना और यदि शिक्षा दी भी जाए तो यह सिखाना कि वे एक आदर्श और पतिव्रता स्त्री कैसे बने आदि। हालाँकि समय के प्रवाह और स्त्री के अधिकार के संघर्ष से परिस्थितियाँ बदली हैं और यह बदलाव विशेषकर नवजागरण काल से शुरू होता है। जिसमें स्त्रियों के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक आदि क्षेत्रों में उनके अधिकार और योगदान को लेकर कई आंदोलन हुए। इस लेख में नवजागरण काल की विभिन्न स्थितियों पर नजर डालते हुए यह जानने की कोशिश की जाएगी कि स्त्रियों की दशा कैसी थी और उसमें सुधार किस प्रकार हुए और विशेषकर साहित्य का योगदान क्या रहा। सबसे पहले यहाँ भारतीय नवजागरण और हिंदी नवजागरण को जानना महत्त्वपूर्ण होगा।

पाश्चात्य से आए हुए शब्द ‘रेनेसां’ का हिंदी रूपांतरण ‘नवजागरण’ या ‘पुनर्जागरण’ है जिसका अर्थ है ‘फिर से जागना’। भारतीय नवजागरण की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए कर्मेंदु शिशिर लिखते हैं, “भारतीय नवजागरण की शुरुआत के संकेत काफी पहले से मिले हैं, लेकिन सन् 1857  के बाद इसका तार्किक और व्यवस्थित स्वरूप स्पष्ट होने लगा। भारतीय भाषाओं में गद्य का विकास तेजी से हुआ और अपेक्षित आधुनिक विचारों के लेखन की शुरुआत हुई। इसकी मुख्य अवधारणा है, हिन्दू मुसलमानों की एकता, धार्मिक रूढ़ियों, पाखंडों का पर्दाफाश, भारतीय भाषाओं के वर्चस्व का आंदोलन, किसानों, देशी उद्योगों और कारीगरों की पक्षधरता, साम्राज्यवादी शोषण और लूट का विरोध, नारियों के उत्थान, दमन का विरोध, सामाजिक जड़ता के विरुद्ध प्रगतिशील और आधुनिक विचारों का वरण, विज्ञान, नई तकनीक और नए उद्योगों का आमंत्रण, भारतीय इतिहास की वास्तविक गरिमा की प्रतिष्ठा, व्यापक शिक्षा, अछूतोद्धार, भारतीय ज्ञान-विज्ञान की मीमांसा, औपनिवेशिक संस्कृति का विरोध। ”1

ये वो समय था जब भारत औपनिवेशिक सत्ता के अधीन था और विभिन्न आंतरिक समस्याओं से जूझ रहा था। समाज में बाल-विवाह, सती प्रथा जैसी क्रूर और अमानवीय व्यवस्थाएँ थीं। छोटी उम्र में शादी हो जाने की वजह से स्त्रियाँ पूर्ण रूप से पराश्रित होती थीं। उनका मानसिक विकास एक सीमा में बंधा हुआ था। उन्हें अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तक नहीं थी। कम उम्र में शादी होने की वजह से वे कभी अपने स्वयं के आर्थिक उन्नति के बारे में सोच तक नहीं सकती थी। कभी किसी स्त्री का पति मर जाता तो उसे सती होने के नाम पर जबरन अग्नि में प्रवेश करवाया जाता था। इस तरह की अमानवीय कार्यों के विरोध के लिए कई समाज सुधारकों ने आन्दोलन चलाए। स्त्रियों की शिक्षा की बात की और उन्हें आदर-सम्मान और स्वाभिमान से जीने के लिए संघर्ष की प्रेरणा दी। उस समय भारत ही नहीं पूरे विश्व में स्त्रियों की स्थिति और उसमें सुधार करने के बारे में चर्चा करते हुए लेखिका राधा कुमार अपनी पुस्तक ‘स्त्री संघर्ष का इतिहास’ में लिखती हैं, “उन्नीसवीं सदी को स्त्रियों की शताब्दी कहना बेहतर होगा क्योंकि इस सदी में सारी दुनिया में उनकी(स्त्री) अच्छाई-बुराई, प्रकृति, क्षमताएँ एवं उर्वरा गर्मागर्म बहस का विषय थे। यूरोप में फ्रांसीसी क्रांति के दौरान और उसके बाद भी स्त्री जागरुकता का विस्तार होना शुरू हुआ और शताब्दी के अंत तक इंग्लैंड, फ्रांस तथा जर्मनी के बुद्धिजीवियों ने नारीवादी विचारों को अभिव्यक्ति दी। 19वीं सदी के मध्य तक रूसी सुधारकों के लिए ‘महिला प्रश्न’ केंद्रीय मुद्दा बन गया था जबकि भारत में खासतौर से बंगाल और महाराष्ट्र में समाज सुधारकों ने स्त्रियों में फैली बुराइयों पर आवाज उठाना शुरू किया।”2 इसके साथ ही श्रीमती धर्मा यादव जी अपने लेख ‘स्त्री विमर्श और हिंदी लेखन’ में लिखती हैं, “1975ई. पूरे विश्व में अंतर्राष्ट्रीय महिला वर्ष के रूप में मनाया गया, जिसके परिणाम स्वरूप कोपहेगन में पहला अंतर्राष्ट्रीय महिला सम्मेलन, नैरोबी में दूसरा अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन 1985 में और शंघाई में तीसरा 1995 में संपन्न हुआ। भारत में इस सम्मेलन की शुरुआत नवजागरण के साथ हुई। राजा राम मोहन राय ने 1818ई. में सती प्रथा का विरोध किया और उनके प्रयत्नों के फलस्वरूप 1829 में लॉर्ड विलियम बैंटिक ने सती प्रथा को गैरकानूनी घोषित किया। बाल-विवाह, विधवा-विवाह हो और बहुपत्नी प्रथा के विरुद्ध लड़ते हुए राजा राममोहन राय स्त्री के पक्षधर नजर आते हैं। स्वामी विवेकानंद और स्वामी दयानंद सरस्वती ने भी स्त्री शिक्षा पर जोर दिया। इस प्रकार अमेरिका से शुरू हुआ यह आंदोलन भारत में स्त्री जाति की चेतना का स्वर बन गया।”3

उस काल में स्त्री का स्वयं अपने अधिकार के लिए जागना भी एक महत्वपूर्ण घटना थी, “बंगाल में राजा राममोहन राय ने ब्रह्म समाज की (सन् 1822ई.) स्थापना की। दूसरी ओर गुजरात में दयानंद सरस्वती का जन्म हुआ (सन्1824-83 ई.) और बम्बई से उन्होंने सन् 1875 ई. में ‘सत्यार्थ प्रकाश’ निकाला और सन् 1877ई. में लाहौर पंजाब में आर्य समाज की स्थापना की। बंगाल में ही श्री रामकृष्ण परमहंस (सन्1834-86) और विवेकानंद (सन् 1866 ई.) का जन्म हुआ। महाराष्ट्र में गोविंद रानाडे का प्रार्थना समाज (सन् 1867 ई.) प्रभावशाली था। कहना नहीं होगा कि यह सभी मूलतः धार्मिक-सांस्कृतिक आंदोलन थे। राष्ट्रवाद इनकी बनावट में शामिल था। लगभग-लगभग एक ही समय में इन महान विचारकों को केंद्र में रखे ये आंदोलन जन्मे और विभिन्न अंचलों में फैल गए। एक महत्वपूर्ण रेखांकित करने योग्य बात यह है कि इन सभी आंदोलनो ने ‘स्त्री विमर्श’ को मुख्य मुद्दा बनाया। सती प्रथा निषेध हो या विधवा विवाह प्रारंभ, सभी ने स्त्री गरिमा और स्वतंत्रता की बात की। इसका परिणाम यह हुआ कि स्त्री ने स्वयं को अपनी और अपने परिदृश्य के बारे में सोचना शुरू किया।”4

इसका प्रत्यक्ष उदाहरण ‘सीमंतनी उपदेश’ की लेखिका (एक अज्ञात हिन्दू औरत),पंडिता रमाबाई और ताराबाई शिंदे के रूप में हमारे समक्ष है। ताराबाई शिंदें जैसी लेखिका के बारे में आलोक श्रीवास्तव लिखते हैं, “आज जब उन्नीसवीं सदी के संपूर्ण सांस्कृतिक आलोड़न के स्वरूप और उसकी प्रकृति पर प्रश्न चिन्ह लग रहे हैं, उसकी ब्राह्मणवादी सीमाओं और बुर्जुआ हितों की परिधि स्पष्ट हो चुकी है, तब एक ऐसी रचना (स्त्री-पुरुष तुलना) दिखाई देती है, जिसने समाज के एक महत्वपूर्ण मुद्दे पर उसी युग में इस वर्ग की सांस्कृतिक जागरण के अंतर्विरोधों की, इस वर्ग के नारी-संबंधी दृष्टिकोण में स्पष्ट शिनाख्त की, उसे चुनौती दी और उसकी भर्त्सना की।”5 ताराबाई शिंदे के बारे में वीरभारत तलवार जी लिखते हैं, “स्त्री-पुरुष तुलना किताब की लेखिका ताराबाई शिंदे उस दौर की दूसरी महत्वपूर्ण स्त्री थीं जिन्होंने भद्रवर्गीय पुरुष-सुधारकों के आन्दोलन की सीमाओं को न सिर्फ पार किया बल्कि उसकी कड़ी आलोचना भी की।”6 स्वयं ताराबाई शिंदे के क्रांतिकारी विचार कुछ इस तरह हैं जिसमें वे विधवा विवाह के बारे में लिखती हैं, “पुराणों में पुत्रहीन राजा की मृत्यु के उपरांत वंश वृद्धि के लिए उसकी रानी को पर पुरुष से नियोग की सम्मति दी गई है। क्या यह परद्वार नहीं ? व्यभिचार नहीं ? ऐसी सम्मति के बजाय पुनर्विवाह की अनुमति ही क्यों न दे दी गई ?”7 जहाँ एक और ताराबाई शिंदे अपने क्रांतिकारी विचारों को इस तरह व्यक्त करती हैं वहीं ‘सीमंतनी उपदेश’ की लेखिका अपना विरोध कुछ इस प्रकार जाहिर करती हैं, “हम सिवाय  चारदिवारी मकान के और कुछ नहीं देखतीं और हम चाहे  इसी को तमाम दुनिया ख्याल करें, चाहे इसी को हिंदुस्तान समझें। इसी जेल खाने में पैदा हुई हैं और इसी में मर जाएंगी।”8

उपर्युक्त बातों में भारतीय नवजागरण की मुख्य रूप से चर्चा की गई और अब हिंदी नवजागरण और उसमें स्त्रियों की स्थिति को जानने की कोशिश की जाएगी। हिंदी नवजागरण में भारतेंदु हरिश्चंद्र का स्थान महत्वपूर्ण माना जाता है। उस काल में भारतेंदु द्वारा किये गये कार्यों की सराहना करते हुए डॉ. नगेन्द्र लिखते हैं, “भारतेंदु हरिश्चंद्र ने जनता को उद्बोधन प्रदान करने के उद्देश्य से ‘जातीय संगीत’ अर्थात लोकगीत की शैली पर सामाजिक कविताओं की रचना पर बल दिया। मातृभूमि-प्रेम, स्वदेशी वस्तुओं का व्यव्हार, गोरक्षा, बालविवाह, निषेध, भ्रूण-हत्या की निंदा आदि विषयों को कविगण (भरतेंदु मंडल ) अधिकाधिक अपनाने लगे थे। राष्ट्रीय भावना का उदय भी इसी काल की अन्य विशेषता है।”9

हिंदी नवजागरण में भारतेंदु की अहम् भूमिका को बताते हुए कर्मेंदु शिशिर लिखते हैं, सन 1857 में जिस संक्षिप्त आक्रोश का विस्फोट हुआ उसी के गर्भ से नवजागरण का उदय हुआ। इसकी गूंज न सिर्फ भारतीय भाषाओं में बल्कि लोक भाषाओं तक में सुनाई पड़ती है। हिंदी में इस नवजागरण का नेतृत्व भारतेंदु हरिश्चंद्र ने किया जब वह सन 1873ई. में हिंदी के नए चाल में चलने की बात करते हैं, तो वस्तुतः भारतीय मानस के नए करवट की चर्चा करते हैं। यह करवट भाषा का ही नहीं, विचारों की भी थी। यह भारत में चिंतन का ऐसा संधिकाल था जब एक ओर आधुनिकता का प्रवेश हो रहा था तो दूसरी ओर पुरानी परम्पराएँ टूट रही थीं। आधुनिकता, वैज्ञानिकता और नए राष्ट्रीय विचारों का तेजी से प्रसार हुआ। जिस बदलते समय में लेखकों के सामने नई चुनोती थी कि वह आगे बढ़ कर रूढ़िवादी विश्वासों का विरोध करते तथा नए परिवर्तनों का अलख जगाते। भारतेंदु ने अपने मंडल के तमाम लेखकों के साथ इन चुनौतियों से सार्थक संवाद किया। इस सार्थक संवाद का आधार था परंपरा का विवेक सम्मत विरोध और विवेक सम्मत स्वीकार।”10

भारतेंदु स्त्री शिक्षा के पक्षधर थे और इसी कारण उन्होंने कई प्रयास भी किये, जिससे स्त्री शिक्षा को बढ़ावा दिया जाए। उदाहरण के तौर पर उन्होंने ‘बालाबोधानी’ नामक पत्रिका स्त्रियों के लिए निकली थी। परन्तु भारतेंदु जिस स्त्री शिक्षा की बात करते थे उनकी आलोचना करते हुए वीर भारत तलवार जी ने अपनी पुस्तक ‘रस्साकशी’ में भारतेंदु और हंटर कमीशन के बीच हुए बातचीत को बताते हैं, “भरतेंदु ने लड़कियों की शिक्षा के लिए आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की जगह चरित्र निर्माण, धार्मिक और घरेलू प्रबंध के बारे में बताने वाली किताबें पाठ्यक्रम में लगाने के लिए कहा।”11 तलवार जी आगे लिखते हैं, “सिर्फ शिक्षा के प्रसंग में ही नहीं, विधवा विवाह के सवाल पर, पुरानी विवेकहीन रूढ़ियों को तोड़ने के प्रश्न पर और धार्मिक सुधारों के मामले में भी समाज में ऐसी ही उथल-पुथल मची थी, तीखा असर छोड़ने वाली तनावपूर्ण घटनाएँ घटी थीं जिससे इन घटनाओं और उथल-पुथल में भाग लेनेवाले मानवीय चरित्रों के अपार साहस और दृढ संकल्प का पता चलता है। अपने बलिया वाले भाषण में सुधारों के लिए साहस भरे संघर्ष की ज़रूरत पर जोर देते हुए भारतेंदु ने कहा था कि जब तक सौ दो सौ मनुष्य बदनाम न होंगे, जात से बहार न निकाले जाएंगें, दरिद्र न हो जाएँगे, वरंच जान से न मारे जाएँगे, तब तक कोई भी देश न सुधरेगा।”12

जहाँ एक ओर नवजागरण काल में स्त्रियों को लेकर लेखकों में कई रूढ़ियाँ दिखी, वहीं कुछ ऐसे सकारात्मक परिणाम भी दिखे जिसने स्त्री संघर्षों को और मजबूती प्रदान की। इन सकारात्मक पहल को हम श्रीमती धर्मा यादव के इन शब्दों में देख सकते हैं जो स्त्रियों के लिए सकारात्मक पहल थी उस काल की। वे लिखती हैं , “स्त्री मुक्ति का अर्थ पुरुष हो जाना नहीं है। स्त्री की अपनी प्राकृतिक विशेषताएँ हैं, उनके साथ ही समाज द्वारा बनाए गए स्त्रीत्व के बंधनों से मुक्ति के साथ, मनुष्यत्व की दिशा में कदम बढ़ाना, सही अर्थों में स्वतंत्रता है। स्त्री को अपनी धारणाओं को बदलते हुए, जो भी घटित हुआ, उसे नियति मानने की मानसिकता से उबरने की आवश्यकता है, लेकिन साथ ही पुरुष वर्ग को ही दोषी मानकर कटघरे में खड़े करने वाली मनोवृत्ति बदलनी होगी। स्त्रियों के अधिकारों के लिए लड़ने वाले तथा अपने लेखन व प्रकाशन के द्वारा स्त्री हित विचारने वाले पुरुषों के अमूल्य योगदान को हम विस्मृत नहीं कर सकते।”13 वे कुछ उदाहरण प्रस्तुत करते हुए आगे लिखती हैं, “हिंदी में पहला स्त्री काव्य संकलन ‘मृदुवाणी’ (1905) शीर्षक से मुंशी देवी प्रसाद ने प्रकाशित करवाया। इसमें 35 कवित्रियों की कविताएँ शामिल थीं। इसके बाद गिरिराज दत्त शुक्ला और ब्रजभूषण शुक्ल ने ‘हिंदी काव्य कोकिलाएँ’ (1933) कृति संपादित कर प्रकाशित की। ज्योति प्रसाद मिश्रा निर्मल के प्रकाशन में ‘स्त्री कवि संग्रह’ (1938) में प्रकाशित हुआ। यह संभवतः ‘स्त्री साहित्य’ पाठ्यक्रम के लिए तैयार किया गया था। इनके अतिरिक्त नामवर सिंह के प्रधान संपादकत्व में हिंदी कथा लेखिकाओं की ‘प्रतिनिधि कहानियाँ’ (1984) एवं रमणिका गुप्ता संपादित ‘आधुनिक महिला लेखन’ (1985) महत्वपूर्ण कृतियाँ हैं। स्त्री चेतना में पत्र-पत्रिकाओं का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। पहली पत्रिका 1874 में भारतेंदु हरिश्चंद्र द्वारा प्रकाशित ‘बाला-बोधनी’ थी। इसके अतिरिक्त ‘अर्पणा’, ‘आम-आदमी’, ‘हंस’, ‘मानुषी’, ‘निमित्त’, ‘उत्तरार्ध’, ‘उद्भावना’, ‘साक्षात्कार’ आदि पत्रिकाओं में स्त्री अंक प्रकाशित हुए।”14

हिंदी नवजागरण काल स्त्रियों के लिए, उनकी मुक्ति के संघर्ष के लिए एक शुरुआत थी जिसे पिछले सौ वर्षों से अधिक में देखा गया है। स्वयं स्त्रियाँ भी इसके लिए प्रयासरत रहीं। यही कारण है कि आज नारीवादी साहित्य महिलाओं के हर अधिकारों की मांग करता है जो उसे मिलना चाहिए। हिंदी की कुछ प्रमुख नारी-विमर्श की पुस्तकें तथा लेखिकाएँ इस प्रकार हैं, “बाधाओं के बावजूद नयी औरत’ (उषा महाजन,2001), ‘स्त्री सरोकार’(आशारानी व्होरा,2002), ‘उपनिवेश में स्त्री’ (प्रभा खेतान 2003 ), ‘हम सभ्य औरतें’ (मनीषा, 2002), ‘स्त्रीत्व विमर्श : समाज और साहित्य’ (क्षमा शर्मा, 2002), ‘स्वागत है बेटी’ (विभा देवसरे , 2002), ‘स्त्री-घोष’ (कुमुद शर्मा, 2002 ), ‘औरत के लिए औरत’ (नासिर शर्मा, 2003 ), ‘खुली खिड़कियाँ’, (मत्रेयी पुष्पा, 2003 ), ‘हिंदी साहित्य का आधा इतिहास’(सुमन राजे ) इत्यादि।”15

इन सभी लेखिकाओं ने नारीवादी साहित्य को पुष्ट किया है तथा विभिन्न विषयों पर इनकी रचनाएँ हैं जो स्त्री के मंगल की कामना करती हैं। इन समकालीन लेखिकाओं के अलावे हिंदी साहित्य में कई ऐसी स्त्रियाँ हुईं जिन्होंने अपनी लेखनी द्वारा दिखाया कि वे भी सृजन की क्षमता रखती हैं और नवजागरण कालीन पुरुषवादी मानसिकता को चुनौती दी। इनमे राजेंद्र बालाघोष (बंग महिला ), सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेवी वर्मा तथा कई ऐसी लेखिकाएँ शामिल हैं और आज लेखिकाओं की बड़ी संख्या पुरुषों से कंधे से कंधा मिलाकर चल रही हैं, और अपनी भागीदारी न सिर्फ साहित्य में बल्कि विभिन्न क्षेत्रों में दर्ज करा रही हैं।

उपर्युक्त व्याख्या में हिंदी नवजागरण काल में स्त्रियों की स्थिति को जानने की कोशिश की गई। जिसमें भारतीय नवजागरणकालीन समाज में मुख्यतः ब्रह्मसमाज, प्रार्थनासमाज, आर्यसमाज, रामकृष्ण परमहंस और विवेकानंद के विचारों तथा थियोसॉफिकल सोसाइटी के सिद्धांतों का प्रभाव भी जनजीवन पर पड़ रहा था, और समाज में एक बड़े बदलाव लाने में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही थी। आर्थिक, औद्योगिक और धार्मिक क्षेत्रों में पुनर्जागरण की प्रक्रिया आरंभ होने लगी थी। पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली ने शैक्षिणिक क्षेत्र में भी वैयक्तिक स्वतंत्रता की प्रेरणा प्रदान की। स्त्रियों से जुड़ी विभिन्न समस्याएँ जैसे सामाजिक, आर्थिक और राजनितिक समस्याओं को समझने का प्रयास किया गया कि किस तरह स्त्रियाँ एक गुलामी की ज़िन्दगी जी रही थीं। उस समय में भारतन्दु जैसे लेखक भी रूढ़िवादिता से ग्रस्त नज़र आते हैं। साहित्यकार तक नारी के भलाई की बात तो करता था, परन्तु उसे परतंत्र ही रखना चाहता था। लेकिन स्त्रियाँ स्वयं ही अपने अधिकारों की मांग करने लगीं तथा उनके द्वारा पुरुषवादी सत्ता का विरोध भी उस काल में देखने को मिलता है। सती प्रथा, विधवा विवाह, बाल विवाह जैसे अनेकों मुद्दे उस काल के प्रमुख विषय थे जिसने आगे स्त्री मुक्ति के आन्दोलन का रूप लिया।

सन्दर्भ :-

  1. शिशिर, कर्मेंदु (संपादक), ‘हिंदी नवजागरण’ (राधाचरण गोस्वामी), स्वराज प्रकाशन, नई दिल्ली , प्रथम संस्करण 2013, पृष्ठ– 12.
  2. कुमार, राधा, ‘स्त्री संघर्ष का इतिहास’, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2002, आवृति– 2011, पृष्ठ- 23.
  3. यादव, श्रीमती धर्मा, ‘स्त्री विमर्श और हिंदी लेखन’ (लेख), www.strivimarsh.blogspot.in
  4. राजे, सुमन, ‘हिंदी साहित्य का आधा इतिहास’. भरतिय ज्ञानपीठ , नई दिल्ली , चौथा संस्करण– 2011, पृष्ठ-227.
  5. शिंदे, ताराबाई, ‘स्त्री-पुरुष तुलना’, संवाद प्रकाशन, शास्त्रीनगर, मेरठ, प्रथम संस्करण2002, पृष्ठ-8.
  6. तलवार, वीरभारत, ‘रस्साकशी’, (19 वीं सदी का नवजागरण और पश्चिमोत्तर प्रान्त, सारांश प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण 2002, पृष्ठ- 236.
  7. शिंदे, ताराबाई, ‘स्त्री-पुरुष तुलना’, संवाद प्रकाशन, शास्त्रीनगर, मेरठ, प्रथम संस्करण2002, पृष्ठ-8.
  8. डॉ. धर्मवीर(संपादक), ‘सीमंतनी उपदेश’ (एक अज्ञात हिन्दू औरत ), वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम मूल संस्करण 1982, लुधियाना से, वर्त्तमान आवृति-2006, पृष्ठ-44.
  9. डॉ. नगेन्द्र, डॉ. हरदयाल (संपादक), ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 1973, आवृति- 2012, पृष्ठ-439.
  10. शिशिर, कर्मेंदु (संपादक), ‘हिंदी नवजागरण’ (राधाचरण गोस्वामी), स्वराज प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2013, पृष्ठ – 13.
  11. तलवार, वीरभारत, ‘रस्साकशी’, (19 वीं सदी का नवजागरण और पश्चिमोत्तर प्रान्त, सारांश प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण 2002, पृष्ठ- 42.
  12. वही , पृष्ठ-54.
  13. यादव, श्रीमती धर्मा, ‘स्त्री विमर्श और हिंदी लेखन’ (लेख) www.strivimarsh.blogspot.in
  14. वही
  15. डॉ. नगेन्द्र, डॉ. हरदयाल (संपादक), ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 1973, आवृति- 2012, पृष्ठ-432.

*पीएच.डी., हिन्दी अध्ययन केंद्र

गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय, गांधीनगर

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पितृसत्ता: अर्थ, उत्पत्ति एवं व्यापकता-पूजा मिश्रा

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woman in black tank top climbing on brown rocky mountain during daytime
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पितृसत्ता: अर्थ, उत्पत्ति एवं व्यापकता

*पूजा मिश्रा

सारांश:

प्रस्तुत आलेख द्वारा वैश्विक स्तर पर स्त्री की दोयम स्थिति के आधारभूत और महत्वपूर्ण कारक के रूप में पितृसत्ता को परिभाषित किया गया है। पितृसत्ता को मूलरूप से समझने के लिए इसके उत्पत्ति संबंधित मतों पर ध्यान देना आवश्यक है अतः पितृसत्ता को सार्वभौमिक और सार्वकालिक घोषित करने वाले विभिन्न मतों के साथ ही मानवविज्ञानी, सैली स्लोकम, इतिहासकार गर्डा लर्नर तथा मार्क्सवादी फ्रेडरिक एंगल्स इत्यादि द्वारा इन मतों का खंडन करने वाले तर्क भी प्रस्तुत किए गए हैं जिससे यह सत्यापित हो सके कि पितृसत्ता, सार्वभौमिक और सार्वकालिक नहीं है। पितृसत्ता की व्यापकता का अनुभव विश्व की लगभग प्रत्येक संस्कृति और समाज में किया जा सकता है परंतु यदि सम्मिलित प्रयास किए जाएं तो निश्चय ही पितृसत्ता और मातृसत्ता से परे एक समतामूलक समाज की स्थापना की जा सकती है।

बीज शब्द:

पितृसत्ता, मातृसत्ता, स्त्रीविमर्श, सामाजिक संरचना, शिकारी पुरुष, आदिम समाज

भूमिका:

पितृसत्ता अंग्रेजी के शब्द ‘पैट्रिआर्की’ का हिंदी अनुवाद है तथा ‘पैटर’ और ‘आर्के’ शब्दों से मिल कर बना है अर्थात ‘पिता का शासन’। पितृसत्ता एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था है जिसमें परिवार की संपूर्ण बागडोर घर के वृद्ध अथवा प्रभावशाली पुरुष के हाथ में होती है। परिवार में वंश पिता के पूर्वजों के अनुसार चलता है। ऐसी पारिवारिक व्यवस्था में सत्ता का हस्तानांतरण पीढ़ी-दर-पीढ़ी एक पुरुष से दूसरे पुरुष के हाथों होता रहता है। भारत ही नहीं वरन विश्व के अधिकांश भागों में पितृसत्तात्मक व्यवस्था का ही अनुसरण किया जाता है। स्त्रीवादी विशेषज्ञों ने स्त्री की सामाजिक दोयम स्थिति का मूलभूत कारण पितृसत्ता को ही घोषित किया है। केट मिलेट ने अपनी पुस्तक ‘सेक्सुअल पॉलिटिक्स’ में स्त्री के ऊपर पुरुष वर्चस्व की स्थिति के लिए ‘पितृसत्ता’ शब्द का प्रयोग किया था। विभिन्न स्त्रीवादी विद्वानों द्वारा पितृसत्ता व्यवस्था की व्याख्या की गई है। प्रसिद्ध समाज शास्त्री सिल्विया वाल्बे के अनुसार “पितृसत्ता सामाजिक संरचना की एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें पुरुष महिला पर अपना प्रभुत्व जमाता है, उसका दमन करता है और शोषण करता है।”[1] स्त्रीविमर्श के विभिन्न संप्रदायों में से एक ‘उग्र स्त्रीवाद’ पितृसत्ता की जिस प्रकार से व्याख्या करता है , वह अनेक स्त्रीवादी विद्वानों को संतुष्ट नही करती है। ‘उग्र स्त्रीवाद’ स्त्रियों की प्रजनन क्षमता को उसकी अधीनता के मुख्य कारकों में गिनता है। ‘उग्र स्त्रीवाद’ यह मानता है कि यदि स्त्री प्रजनन की अनिवार्यता को हटा दिया जाए तो पुरुषों पर निर्भर रहने की उनकी विवशता स्वतः ही समाप्त हो जाएगी। शुल्मिथ फायरस्टोन अपनी पुस्तक ‘द डायलेक्टिक ऑफ़ सेक्स’ द्वारा इसी विचारधारा का समर्थन करती हैं परंतु अन्य स्त्रीवादी विद्वान मानते हैं कि हमारा समाज जाति, जेंडर, नस्ल, वर्ग और धर्म इत्यादि के आधार पर बंटा हुआ है अतः पितृसत्ता के अनुभव प्रत्येक स्त्री के लिए एक से ही नहीं हैं। उदाहरंणस्वरूप देखा जा सकता है कि निम्न जातियों की स्त्री का शोषण मात्र पितृसत्ता ही नहीं वरन जाति व्यवस्था द्वारा भी किया जाता है। वह पुरुषों की अधीनता के साथ ही उच्च वर्ग की स्त्रियों द्वारा भी शोषण का शिकार होती है। इसी प्रकार निम्न जाति के पुरुष भी उच्च जाति की स्त्रियों द्वारा शोषित होते हैं। तात्पर्य यह है कि अन्य स्त्रीवादियों ने उग्र स्त्रीवादियों के पितृसत्ता संबंधी विचारों पर अपना मत रखते हुए कहा कि सामाजिक संरचना एक जटिल संरचना है और इसका विभाजन मात्र स्त्री और पुरुष को दो भिन्न खेमों में रख कर नहीं किया जा सकता है। इस प्रकार ‘बैरेट’ और ‘शीला रोबोथम’ जैसे स्त्रीवादी विद्वान पितृसत्ता की अवधारणा को अनुपयोगी करार देते हैं। इस संदर्भ में सिल्विया वाल्बी कहती हैं कि, “इस सिद्धांत को अनुपयोगी मानने की अपेक्षा इसे एक संकल्पना और सिद्धांत के रूप में इस तरह से विकसित किया जा सकता है कि स्त्री अधीनता की देश, काल, जाति, नस्ल, वर्ग तथा धर्म इत्यादि पर आधारित भिन्नताएं नजरअंदाज ना होने पाएं।”[2]

इसप्रकार पितृसत्ता को लेकर विभिन्न विद्वानों के विभिन्न मत हैं परंतु ध्यान देने वाली बात यह है कि पितृसत्ता एक व्यवस्था है, पितृसत्ता एक मानसिकता है। यह जरुरी नहीं है कि सभी पुरुष पितृसत्तात्मक मानसिकता का ही प्रतिनिधित्व करते हैं। बहुत सारी स्त्रियाँ भी पुरुषवादी सोच का प्रतिनिधित्व करती हैं। पितृसत्ता, सामाजिक संरचना का महत्वपूर्ण अंग कैसे बनी या पितृसत्ता कब से विद्यमान है इस संबंध में विभिन्न मत हैं। पितृसत्ता के पक्षधर इसे मानव सभ्यता का एक स्वाभाविक अंग मानते हुए इसे सार्वभौमिक और सार्वकालिक घोषित करते हैं परंतु इस संबंध में हुए गहन शोध के उपरांत विभिन्न इतिहासकारों, स्त्रीवादी विद्वानों तथा मानव विज्ञानियों इत्यादि द्वारा इस तथ्य की पुष्टि की गई है कि पितृसत्ता , मानव सभ्यता के विकास का एक स्वाभाविक अंग न होने के साथ ही सार्वभौमिक और सार्वकालिक भी नहीं है। “समाज और संस्कृति निर्माण की प्रक्रिया में महिलाएं सदैव ही केंद्रीय भूमिका में रही हैं न कि हाशिए पर।”[3]

पितृसत्ता उत्पत्ति संबंधी मत:

पितृसत्ता की सार्वभौमिकता और सार्वकालिकता के संबंध में धार्मिक तर्क दिए जाते हैं जिनके अनुसार संपूर्ण विश्व का निर्माण ईश्वर द्वारा किया गया है और ईश्वर द्वारा ही स्त्री और पुरुष के लिए अलग- अलग भूमिकाओं का निर्धारण किया गया है। स्त्री का जन्म घर सँभालने और बच्चों की देखभाल करने के लिए ही हुआ है। आज भी इन धार्मिक तर्कों पर विश्वास रखने वाले परिवार का वंश आगे बढ़ाने के लिए पुत्र जन्म अनिवार्य मानते हैं। पुत्रवधुओं को पुत्रवती होने का आशीर्वाद दिया जाता है। पितृसत्ता के पक्षधरों द्वारा पितृसत्ता की सार्वभौमिकता के लिए ‘शिकारी पुरुष’ का तर्क दिया जाता है। मानव विज्ञानी शेरवुड वाशबर्न और सी. लैंकैस्टर ने पितृसत्ता के संबंध में डार्विन के उद्विकास सिद्धांत( थ्योरी ऑफ़ इवोल्यूशन) के आधार पर ‘शिकारी पुरुष’ का तर्क प्रस्तुत किया। यह तर्क डार्विन की कृतियों ‘ओरिजिन ऑफ़ स्पेशीज’ और ‘द डिस्टेंट ऑफ़ मैन’ में उद्धृत मानव विकास की लंबी शृंखला पर आधारित है। इस अवधारणा के अनुसार आदिम समाज में पुरुष शिकार पर जाया करते थे और स्त्रियाँ घर पर बच्चों की देखभाल करती थीं तथा भोजन की व्यवस्था करती थीं। ‘शिकारी पुरुष’ का तर्क पुरुष को स्त्री के आश्रयदाता के रूप में स्वीकार करता है। मानव विज्ञानी सैली स्लोकम ‘शिकारी पुरुष’ की अवधारणा को मानवशास्त्रियों की पुरुषवादी दृष्टि की उपज बताती हैं।[4] वह शिकारी पुरुष की अपेक्षा स्त्री और पुरुष दोनों को ही आहारसंग्रहकर्ता की भूमिका में देखती हैं। स्लोकम मानती हैं कि यदि पुरुष शिकार पर जाते थे तो इस समय को स्त्रियों ने बच्चों के पालन-पोषण के साथ ही कुछ रचनात्मक गतिविधियों में लगाया होगा यथा कंदमूल एकत्र करना और आरंभिक काल की कृषि की ओर अग्रसर होना। इतिहासकार गर्डा लर्नर भी मानती हैं कि आदिम समाज, भोजन के लिए पुरुषों द्वारा जुटाए गए बड़े शिकारों की अपेक्षा स्त्रियों द्वारा जुटाए गए छोटे शिकारों तथा कंदमूल पर अधिक निर्भर था।[5] इस प्रकार के तथ्यों से यह स्पष्ट होता है कि शिकार संग्रह अवस्था में भले ही स्त्री और पुरुष के बीच श्रम विभाजन रहा हो परंतु आदिम समाज में पुरुष, स्त्री के आश्रयदाता की अपेक्षा उसके पूरक के रूप में देखे जाते थे। भारतीय इतिहासकार उमा चक्रवर्ती ने मध्य भारत की भीमबेटका की गुफाओं के भित्तिचित्र का उदाहरण दिया है। इन भित्तिचित्रों में स्त्रियाँ एक साथ विभिन्न भूमिकाओं में नजर आती हैं। स्त्रियों के हाथ में फल- फूल बटोरने की टोकरी के साथ मछली पकड़ने का जाल भी नजर आता है। इन भित्तिचित्रों से यह स्पष्ट होता है कि स्त्रियाँ माँ होने के साथ ही आहार संग्रहकर्ता की भूमिका भी निभाती थीं।[6] पितृसत्ता के पक्षधरों में नाम जीव-विज्ञानी ई. ओ. विल्सन का भी आता है। विल्सन, स्त्री और पुरुष के बीच की असमानता को उचित ठहराने के लिए डार्विन के प्राकृतिक चयन के सिद्धांत का सहारा लेते हैं। विल्सन का मत है कि जिस समूह में मादाएं बच्चों को पालने पोसने का काम करती हैं और नर भोजन जुटाने का काम करते हैं वह समूह विकास की राह पर आगे निकल आता है।[7] इतिहासकार गर्डा लर्नर, विल्सन के इस मत का खंडन करती हैं कि आज के आधुनिक समाज में जहाँ बच्चों का पालन- पोषण मात्र माँ पर ही निर्भर नहीं करता है तथा जहाँ स्त्रियाँ भी बाहर जाकर आत्मनिर्भर बन रही हैं वहां इस तरह की धारणा निर्मूल हो जाती हैं। लर्नर, प्राचीन और आधुनिक समाज दोनों में ही ऐसे कबीलों का उदाहरण देती हैं जहाँ शिशु के पालन- पोषण का दायित्व कबीले के वृद्ध पुरुष, युवक अथवा अपेक्षाकृत बड़े बच्चे निभाते हैं। नारीवादी आलोचकों द्वारा भी विल्सन के इस मत को अप्रमाणिक एवं अवैज्ञानिक घोषित किया गया है। पितृसत्ता की उत्पत्ति उसकी सार्वभौमिकता तथा सार्वकालिकता को लेकर उसे सामाजिक व्यवस्था का एक स्वाभाविक अंग घोषित करने वाले विद्वानों की स्त्रीवादी विद्वानों द्वारा कड़ी आलोचना की गई है। गर्डा लर्नर ने अपनी पुस्तक ‘क्रिएशन ऑफ़ पैट्रीआर्की’ में लिखती हैं कि, “पितृसत्ता की स्थापना को मात्र किसी एक घटना से जोड़ कर नहीं देखा जाना चाहिए। बल्कि इसे एक प्रक्रिया की भांति समझा जा सकता है जिसे बनने में लगभग 2500 वर्ष( 3100 से 600 ईसा पूर्व) लगे हैं।”[8] गर्डा लर्नर से पूर्व यह मत फ्रेडरिक एंगल्स द्वारा भी दिया जा चुका है कि पितृसत्ता का निर्माण एतिहासिक घटनाक्रमों में कुछ निश्चित कारणों से हुआ है। फ्रेडरिक एंगल्स ने 1884 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘परिवार, निजी संपत्ति और राज्यों की उत्पत्ति’ में स्त्री पराधीनता के मुख्य कारकों के संबंध में विस्तार से चर्चा की है। एंगल्स ने अपनी इस पुस्तक द्वारा परिवार के इतिहास को समझाने के लिए 1861 में प्रकाशित बखोफेन की पुस्तक ‘मदर राईट’ तथा 1870 में प्रकाशित हेनरी मार्गन की पुस्तक ‘प्राचीन समाज’ की सहायता ली है। पितृसत्ता पारिवारिक संरचना से जुड़ा हुआ शब्द है अतः पितृसत्ता की व्याख्या के लिए एंगल्स आदिम समाज में पारिवारिक संरचना की व्याख्या करते हैं। एंगल्स के अनुसार 1861 में बखोफेन की पुस्तक के प्रकाशन के बाद से परिवार के इतिहास का अध्ययन आरंभ हुआ। बखोफेन की पुस्तक मूलरूप से जर्मन में ‘Das Mutterrecht’ के नाम से लिखी गई थी जिसमें ‘मातृ अधिकार’ नाम से एक अध्याय है। यह पुस्तक आदिम सामाजिक व्यवस्था के कुछ महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर प्रकाश डालती है। बखोफेन के अनुसार आदिम समाज ‘यौन स्वछंदता’ या हैटेरिज्म की स्थिति में था जिसमें एक स्त्री के विभिन्न पुरुषों से संबंध होते थे। इस अवस्था में किसी नवजात शिशु के पिता का निर्धारण नहीं किया जा सकता था। अतः शिशुओं की पहचान माँ द्वारा ही होती थी और वंश भी मातृ पूर्वजों के नाम से ही चलता था। बखोफेन के अनुसार यह वह समय था जब स्त्रियों को समाज में बहुत सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। बखोफेन के मातृ अधिकार की अवधारणा से ही मातृसत्ता की अवधारणा विकसित होती है। बखोफेन हैटेरिज्म से एकनिष्ठ विवाह में परिवर्तन और मातृसत्ता से पितृसत्ता में परिवर्तन के पीछे यूनानी सभ्यता में हुए धार्मिक परिवर्तनों का आधार देते हैं। इसके लिए उन्होंने इस्खिलिस के नाटक ‘ओरेस्टिया’ की नई व्याख्या दी। इस नाटक के अनुसार ‘ओरेस्टस’ को अपनी माता ‘क्लिटेमिस्ट्रा’ की हत्या के आरोप से बरी कराने के लिए देवता अपोलो तथा देवी ऐथना ओरेस्टस का साथ देते हैं। बखोफेन रोमन सभ्यता में आए इस पौराणिक बदलाव को ही मातृसत्ता के विनाश का आरंभ मानते हैं। “बखोफेन द्वारा प्रस्तुत आदिम समाज में उपस्थित मातृसत्ता की अवधारणा से बीसवीं सदी के अधिकाँश नारीवादी विचारक सहमत हैं। फ्रेडरिक एंगल्स, चार्लोट पर्किंसन, गिलमैन तथा एलिजाबेथ कैंडी स्टैंटन इत्यादि विचारकों ने बखोफेन की अवधारणा के अनुसार स्त्री- पराधीनता पर अपने मत प्रस्तुत किए हैं।”[9] फ्रेडरिक एंगल्स निजी संपत्ति के आविर्भाव को मातृसत्ता के विनाश का कारण मानते हैं। एंगल्स ने परिवार शब्द की व्याख्या करते हुए लिखा कि परिवार या फेमिली शब्द फेम्युलस (famulus) शब्द से बना है जहाँ फेम्युलस शब्द का अर्थ ‘घरेलू दास’ होता है। फेमेलिया शब्द का अर्थ एक व्यक्ति के सारे दासों का समूह होता है। रोमन लोगों द्वारा निर्मित इस सामाजिक संगठन फेमेलिया में उसके मुखिया के अधीन उसकी पत्नी, उसके बच्चे और कुछ दास होते थे। और रोमन पितृसत्ता के अंतर्गत उसके हाथों में इन लोगों की जिंदगी और मौत का अधिकार होता था। एंगल्स ने घर के मुखिया की निरंकुश सत्ता को इंगित करते हुए लिखा, “पत्नी के सतीत्व की रक्षा करने के लिए यानि बच्चों के पितृत्व की रक्षा करने के लिए नारी को पुरुष की निरंकुश सत्ता के अधीन बना दिया जाता है। वह यदि उसे मार भी डालता है तो वह अपने अधिकार का ही प्रयोग करता है।”[10] फ्रेडरिक एंगल्स ने निजी संपत्ति की अवधारणा के साथ ही स्त्री अधीनता के लिए स्त्रियों की उत्पादन में भागेदारी न होने को भी दोषी ठहराया। घरेलू श्रम के दायरे में सीमित हो जाने के कारण स्त्रियाँ सामाजिक उत्पादन के क्षेत्रों से दूर होती जाती हैं। एंगल्स मानते हैं कि, “जब तक स्त्रियों को सामाजिक उत्पादन के काम से अलग और केवल घर के कामों तक ही, जो निजी काम होते हैं, सीमित रखा जाएगा तब तक स्त्रियों का स्वतंत्रता प्राप्त करना और पुरुषों के साथ बराबरी का हक़ पाना असंभव है और असंभव ही बना रहेगा।”[11] परंतु एंगल्स के तर्कों की भी स्त्रीवादी विद्वानों द्वारा आलोचना की गई। लर्नर ने यह स्पष्ट किया कि ऐसा नहीं है कि विश्व की हर संस्कृति में घरेलू कार्यों की जिम्मेदारी मात्र स्त्री की ही होती है। क्रिश हर्मन मानती हैं कि स्त्री के इन्हीं घरेलू कार्यों की जिम्मेदारी उठाने से ही कृषि का विकास हुआ। स्त्रीवादी विद्वानों द्वारा एंगल्स की इसलिए भी आलोचना की गई क्यों कि उन्होंने मातृसत्ता और मातृवंशीयता को एक दूसरे का पर्याय समझा। इसके अतिरिक्त एंगल्स की निजी संपत्ति के आविर्भाव से स्त्री अधीनता के पथ पर अग्रसर हुई इस तथ्य को प्रायः सभी स्त्रीवादी विद्वानों द्वारा गलत साबित किया गया जिसमें मुख्यतः संरचनावादी मानवविज्ञानी क्लाउड मेलेसा, इतिहासकार गर्डा लर्नर तथा मानव विज्ञानी पीटर आबी प्रमुख हैं। इस प्रकार “आधुनिक मानवविज्ञानियों द्वारा बखोफेन और एंगल्स की आदिम समाज में मातृसत्ता के अस्तित्व की अवधारणा को निरस्त किया गया है। आधुनिक मानवविज्ञानी ‘मातृसत्ता’ की अपेक्षा ‘मातृस्थानिकता’ तथा ‘मातृवंशीयता’ शब्द को अधिक उपयुक्त मानते हैं।”[12] गर्डा लर्नर लिखती हैं कि, “मैं मातृसत्ता को पितृसत्ता के विलोम के रूप में परिभाषित कर सकती हूँ और इस परिभाषा के अनुसार मैं निष्कर्षतः यह कह सकती हूँ कि मातृसत्तात्मक समाज कभी भी अस्तित्व में नहीं रहे हैं।”[13] लर्नर की इस पुष्टि के साथ ही यह भी तथ्यात्मक सत्य है कि भारत में केरल के नायर संप्रदाय और पूर्वोत्तर भारत के गारो, खासी और जयंतिया समुदाय में ‘मातृस्थानिकता’ और ‘मातृवंशीयता’ के साथ ही ‘मातृसत्तात्मक व्यवस्था’ का प्रभाव भी देखा जा सकता है। गर्डा लर्नर ने अपनी पुस्तक ‘क्रिएशन ऑफ पैट्रिआर्की’ में पितृसत्ता के विविध पक्षों पर गंभीर विचार किया है। लर्नर का मानना है कि पितृसत्ता को एक घटना के रूप में नहीं वरन प्रक्रिया के रूप में देखने की आवश्यकता है। पितृसत्ता उत्पन्न नहीं हुई वरन मानव सभ्यता के विकास के पथ पर ग्रसर होने के साथ क्रमशः निर्मित होती चली आई है। इसके पीछे किसी एक कारक की भूमिका न होकर विविध कारकों का हाथ है। लर्नर यह नहीं मानती कि पितृसत्ता एक सोची समझी साजिश का परिणाम है। लर्नर कहती हैं कि स्त्री- पुरुष के बीच का श्रम विभाजन आगे के वर्षों में स्त्री को अधीनता के पथ पर अग्रसर कर देगा इसका स्त्रिओं को जरा सा भी भान नहीं था। ‘सेपियंस’ पुस्तक के लेखक युवाल नोआह हरारी मानते हैं कि स्त्री और पुरुष को दो भिन्न- भिन्न खेमों में बाँटना यह ज्यादा कुछ सांस्कृतिक और काल्पनिक सत्य पर निर्भर करता है न कि जैव वैज्ञानिक सत्य पर। स्त्रीत्व और पुरुषत्व सामाजिक भिन्नताओं के साथ बदलता रहता है। किसी जीव के सेक्स का निर्धारण जीव विज्ञान के आधार पर किया जाता है किन्तु जेंडर या लिंग का निर्धारण सांस्कृतिक आधार पर किया जाता है। हरारी मानते हैं कि मानव विकास की प्रक्रिया में लगभग सभी समाज कृषि क्रांति के बाद से पितृसत्तात्मक ही रहे हैं। अतः हरारी स्पष्ट रूप से कहते हैं कि “पितृसत्तात्मक व्यवस्था जैववैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित न होकर मिथकों पर आधारित है।”[14] संरचनावादी मानवविज्ञानी क्लाउड लेवी स्त्रास संस्कृति के निर्माण के लिए स्त्री- पराधीनता की आवश्यकता पर पर एक सैद्धांतिक व्याख्या देते हैं। “स्त्रास के अनुसार आदिम और खानाबदोश जनजातियों में स्त्रियों की अदला- बदली ही स्त्री- पराधीनता का मूल है।”[15] शेरी ऑटनर ने पितृसत्तात्मक व्यवस्था की उत्पत्ति और स्त्री पराधीनता पर अपना मत प्रस्तुत करते हुए 1974 के एक निबंध में लिखा था कि “अभी तक के सभी ज्ञात आदिम समाज में स्त्रियों का संबंध संस्कृति की अपेक्षा प्रकृति से ज्यादा प्रगाढ़ रहा है। लगभग प्रत्येक समाज एवं संस्कृति में मानव द्वारा विकास पथ पर अग्रसर होने में प्रकृति की उपेक्षा की गई है। जिसका सीधा असर स्त्रियों पर भी पड़ा है।[16]

इस प्रकार स्त्री- पराधीनता के मूल तथा पितृसत्तात्मक व्यवस्था की उत्पत्ति के संबंध में विभिन्न मत हैं। जिनका एक संक्षिप्त विवरण यहाँ प्रस्तुत किया गया है।

पितृसत्ता: व्यापकता

जब से स्त्री विमर्श के विद्वानों द्वारा स्त्री की दोयम स्थिति और उसके अधीनता के कारकों के रूप में पितृसत्ता को परिभाषित किया गया है तब से यदि देखा जाए तो पितृसत्ता की व्यापकता हमें जीवन के हर मोड़ पर दिखाई देगी। “ स्त्री का अपना होना और उस होने की प्रक्रिया की सारी अर्थवत्ता अब तक पितृसत्ता निर्धारित करती आई है। चूँकि कोई ‘दूसरा’ यानी पुरुष जाति उसका निर्धारण करती है इसलिए स्त्री की अपनी स्वायत्तता नहीं रहती। उसका वस्तुकरण हो जाता है। स्त्री के संदर्भ में यह एक ऐतिहासिक सच है।”[17] विश्व की प्रत्येक संस्कृति में इस सत्ता के पोषकों द्वारा स्त्रियों को हमेशा दब कर रहने की हिदायत दी जाती। धार्मिक रूप से भी इस सत्ता का सदैव समर्थन किया गया है। भारतीय धर्मशास्त्र की आधारशिला कही जाने वाली मनुस्मृति में पतिसेवा को ही स्त्रियों के अग्निहोत्र कर्म के तुल्य बताया गया है।[18] पति यदि सदाचारहीन, कामी या विधादि गुणों से हीन भी हो तो वह पूज्य है।[19] मुस्लिम धर्म ग्रंथ ‘सुरा बकारा’ की आयत 223 में स्त्री को उसके पति द्वारा चरने के लिए तैयार अनाज का खेत कहा गया है।[20] यह पितृसत्ता की व्यापकता ही है कि स्त्री चेतना के शुरूआती दौर में स्त्रियों को अपने मौलिक नागरिक अधिकारों के लिए भी संघर्ष करना पड़ा। चाहे वह वोट देने का अधिकार हो, चाहे वह संपत्ति में हिस्से का अधिकार हो या फिर तलाक लेने का अधिकार हो। 1929 में अपनी पुस्तक ‘ए रूम ऑफ वंस ओन’ में वर्जीनिया वूल्फ इस दोयम स्थिति के संदर्भ में एक प्रश्न पूछती हैं कि यदि शेक्सपियर की कोई बहन होती तो क्या उसे भी अपने कौशल को विकसित करने के वही समान अवसर मिलते जो शेक्सपियर को मिले थे?[21] स्त्री शिक्षा के सीमित अवसरों और संसाधनों की ओर इंगित करते हुए वर्जीनिया लिखती हैं कि, “आप (पितृसत्तात्मक समाज) चाहें तो अपने पुस्तकालयों पर ताला लगा सकते हैं। पर कोई दरवाजा, कोई ताला ऐसा नहीं है जिससे आप मेरी मानसिक स्वतंत्रता को अवरुद्ध कर सकें।”[22] वर्जीनिया वुल्फ के प्रश्न और कथन तब और भी महत्वपूर्ण हो जाते हैं जब स्वयं वर्जीनिया और उनकी बहन की शिक्षा- दीक्षा घर में ही संपन्न हुई जबकि उनके भाइयों को प्रतिष्ठित कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में पढ़ने का अवसर मिला। सीमंतनी उपदेश की अज्ञात लेखिका 1882 में स्त्री- पुरुष की तुलना करते हुए महिलाओं पर थोपे गए धार्मिक पाखंडो, रीति- रिवाजों पर प्रश्न उठाती हैं।[23] बीसवीं सदी के शुरूआती दौर में महादेवी वर्मा अपने निबंधों के संग्रह ‘शृंखला की कड़ियाँ’ में स्त्रियों के मूल नागरिक अधिकारों की मांग करते हुए लिखती हैं कि “हमें न किसी पर जय चाहिए, न किसी से पराजय, न किसी पर प्रभुता चाहिए, न किसी का प्रभुत्व। केवल अपना वह स्थान, वे स्वत्व चाहिए जिनका पुरुषों के निकट कोई उपयोग नहीं है, परंतु जिनके बिना हम समाज का उपयोगी अंग बन नहीं सकेंगी। हमारी जागृत और साधन संपन्न बहनें इस दिशा में विशेष महत्वपूर्ण कार्य कर सकेंगी इसमें संदेह नहीं।”[24] स्त्री चेतना के फलस्वरूप स्त्री की सामाजिक दोयम स्थिति के विरोध में विभिन्न प्रयास किए जा रहे हैं। लिंग समानता के पुरजोर प्रयास किए जा रहे हैं परंतु इन लक्ष्यों में सबसे बड़ी बाधा पितृसत्तात्मक व्यवस्था की व्यापकता ही है। आज स्त्रियों के विरुद्ध होने वाले अधिकांश अपराधों के मूल में पितृसत्तात्मक व्यवस्था की वह मानसिकता ही है जो विभिन्न अपराधों द्वारा पुरुषों की स्त्रियों पर श्रेष्ठता साबित करना चाहती है।

निष्कर्ष:

निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि पितृसत्ता पर हुए गहन अध्ययन के उपरान्त इसे सार्वभौमिक एवं सार्वकालिक कहना उचित नहीं है और न ही इसे मानव सभ्यता के विकास का स्वाभाविक अंग समझना चाहिए। स्त्रीवादी विद्वानों ने मातृसत्ता के अस्तित्व को नकारने के साथ ही स्त्रियों के सदैव पराधीन रहने के तथ्य को भी नकारा है। स्त्रीवादी दृष्टिकोण से पितृसत्तात्मक व्यवस्था की जांच- पड़ताल का मुख्य उद्देश्य लिंग- समानता की स्थापना तथा किसी भी लिंग विशेष के आधिपत्य से मुक्ति है। इस दिशा में यदि सकारात्मक प्रयास किए जाएँ तो निश्चित रूप से एक ऐसी व्यवस्था उभर कर आएगी जो मातृसत्तात्मक अथवा पितृसत्तात्मक होने की अपेक्षा मानव संभावनाओं के सभी द्वारों को सभी के लिए समान रूप से खुला रखेगी।

*शोधार्थी

प्रेसीडेंसी यूनिवर्सिटी, कोलकाता

9674380830

pooja.shukla2607@gmail.com

  1. फरहत खान एवं डॉ. अरुणा सेठी द्वारा लिखित आलेख, भारत में लिंग असमानता, Indian Streams Research Journal
  2. विजय झा द्वारा लिखित आलेख, पितृसत्ता: विमर्श के भीतर, कथादेश, मार्च 2019, पृ. सं.- 64
  3. लर्नर गर्डा, द क्रिएशन ऑफ पैट्रिआर्की, ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, न्यूयॉर्क, भूमिका
  4. सैली स्लोकम का आलेख, आहार संग्रहकर्ता की भूमिका में स्त्री: मानवशास्त्र की पुरुषवादी दृष्टि, अनुवाद- रंजना श्रीवास्तव, कथादेश, मार्च 2019, पृ. सं.- 13
  5. लर्नर गर्डा, द क्रिएशन ऑफ पैट्रिआर्की, ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, न्यूयॉर्क, पृ. सं.- 22
  6. विजय झा द्वारा लिखित आलेख, पितृसत्ता: विमर्श के भीतर, कथादेश, मार्च 2019, पृ. सं.- 66
  7. लर्नर गर्डा, द क्रिएशन ऑफ पैट्रिआर्की, ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, न्यूयॉर्क, पृ. सं.- 19
  8. लर्नर गर्डा, द क्रिएशन ऑफ पैट्रिआर्की, ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, न्यूयॉर्क, भूमिका
  9. लर्नर गर्डा, द क्रिएशन ऑफ पैट्रिआर्की, ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, न्यूयॉर्क, पृ. सं.- 26
  10. एंगल्स फ्रेडरिक, परिवार, निजी संपत्ति और राज्य की उत्पत्ति, प्रगति प्रकाशन, मास्को, पृ. सं.- 73
  11. एंगल्स फ्रेडरिक, परिवार, निजी संपत्ति और राज्य की उत्पत्ति, प्रगति प्रकाशन, मास्को, पृ. सं.- 208
  12. लर्नर गर्डा, द क्रिएशन ऑफ पैट्रिआर्की, ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, न्यूयॉर्क, पृ. सं.- 29
  13. लर्नर गर्डा, द क्रिएशन ऑफ पैट्रिआर्की, ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, न्यूयॉर्क, पृ. सं.- 31
  14. युवाल नोआह हरारी, सेपियंस, विंटेज प्रकाशन, लंदन, पृ. सं.- 178
  15. लर्नर गर्डा, द क्रिएशन ऑफ पैट्रिआर्की, ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, न्यूयॉर्क, पृ. सं.- 24
  16. लर्नर गर्डा, द क्रिएशन ऑफ पैट्रिआर्की, ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, न्यूयॉर्क, पृ. सं.- 26
  17. पितृसत्ता के नए रूप, संपादक: राजेंद्र यादव, प्रभा खेतान, अभय कुमार दूबे, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. सं.- 16
  18. मनुस्मृति, संपादक- पंडित हरिशंकर शास्त्री, साक्षी प्रकाशन, दिल्ली, पृ. सं.- 38
  19. मनुस्मृति, संपादक- पंडित हरिशंकर शास्त्री, साक्षी प्रकाशन, दिल्ली, पृ. सं.- 16
  20. अग्रवाल रोहिणी, साहित्य का स्त्री स्वर, साहित्य भंडार, इलाहाबाद, पृ. सं.- 08
  21. वुल्फ वर्जीनिया , ए रूम ऑफ वंस ओन’, फिंगर प्रिंट क्लासिक, (प्रकाश बुक्स इंडिया)
  22. वुल्फ वर्जीनिया , ए रूम ऑफ वंस ओन’, फिंगर प्रिंट क्लासिक, (प्रकाश बुक्स इंडिया), पृ. सं.- 81
  23. सीमंतनी उपदेश, संपादक: डॉ. धर्मवीर, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
  24. वर्मा महादेवी, शृंखला की कड़ियाँ, लोकभारती पेपरबैक्स, इलाहबाद, पृ. सं.- 23-24