प्रतिरोधी समाजव्यवस्था एवं इक्कीसवीं सदी की हिंदी स्त्री आत्मकथाएँ
सुप्रिया प्रभाकर जोशी
साहित्य मानव की अभिव्यक्ति है । उत्तर आधुनिक काल में गद्य का क्षेत्र काफी विस्तृत हो गया है। हिंदी साहित्य में आत्मकथा लेखन विधा आधुनिक काल की देन है । आत्मकथा में लेखक अपना जीवन वृत्त स्वयं प्रकाशित करता है। परिणामत: हर एक आत्मकथा अपनी अलग सी विशेषता रखती है। संपुर्ण विश्व के अनेक महान विभुतियों ने आत्मकथा इस विधा को समृध्द बनाया। समकालीन परिवेश में भारत में भी अनेक आत्मकथाएँ लिखी जा रही है। बीसवीं सदी के अंतिम दशकों में तथा इक्कीसवीं सदी के आरंभ से नारियों ने भी निडरता के साथ इस विधा को समृद्ध करने में अपना योगदान दिया। नारियों द्वारा लिखी हुयी आत्मकथाएँ विचारोत्तेजक, नारी विमर्श के नए आयामों को उद्घाटित करती है। इन आत्मकथाओं को पढ़ने के बाद हमारी नैतिकता और सामाजिकता पर अनेक प्रश्न उपस्थित होते है। प्रभा खेतान ने अपनी आत्मकथा में लिखा है, ” आत्मकथा एक चीख भी है जो बताती है कि अपने किए और भोगे हुए के लिए सिर्फ हम जिम्मेदार नहीं होते। हमारे पीछे खडा सारा समाज इस जिंदगी का साक्षी और सहभोक्ता ही नहीं, इसकी हालत के लिए उत्तरदायी व्यूह रचना का निर्माता भी वह है।” १
प्रभा खेतान के इस वक्तव्य से हम यह कह सकते है कि समाज इस रचना का प्रभा ने अच्छी तरह से अनुभव किया तभी वह यह कहने का साहस जुटा पायी है। समाज व्यवस्था ने मध्ययुग के पश्चात नैतिकता, संस्कार के नाम पर नारी को उनके दायरे में ,रीति-रिवाजों में जकडकर रखा । उन्हें समाज द्वारा केवल अपमान, शोषण और उपेक्षा ही मिली। नारीयों ने भी इस पुरुषवादी समाज व्यवस्था का विरोध करने की ताकत जुटा ली और पढ लिखकर विभिन्न क्षेत्रों में अपना स्थान सुनिश्चित किया। इन सभी विद्रोही परिस्थितियों की विस्तृत व वास्तविक जानकारी हमें आत्मकथाओं से हुयी है।
मैत्रेयी पुष्पा के आत्मकथा के पहला भाग ‘ कस्तुरी कुण्डल बसै ‘ में लेखिका से अधिक उनकी मां कस्तुरी केंद्र में रही है। छोटे- छोटे प्रसंगों को मैत्रेयी ने विस्तार से खोलकर रखे है। ‘ कस्तुरी कुण्डल बसै ‘ की शुरुवात ‘ मैं ब्याह नहीं करुँगी ‘ के ऐलान से होती है। यह वाक्य एक सोलह वर्ष की लडकी के मुँह से प्रस्फुटित होना यह समाज व्यवस्था के लिए बडी चुनौती थी। कस्तुरी के इस निर्णय से माता-पिता और परिवार को व्यवस्था की चिंता साथ ही सामाजिक प्रतिष्ठा की चिंता होती है इसके कारण कस्तुरी की माँ कहती है, “कस्तुरी , लडकियों से ऎसे दुस्साहस की उम्मीद कौन करता है वे तो माँ बाप के सामने सिर उठाकर बात तक नहीं कर सकती , मरने का शाप हँस-हँसकर झेलती है और गालियाँ चुपचाप सहन करती हुई अपनी शील का परिचय देती है, तु मर्यादा तोडनेपर आमदा क्यों हुई ? ” २ उपर्युक्त वक्तव्य से ज्ञात होता है कि महिलाओं पर ऎसे संस्कार किए जाते है कि विवाह होना आवश्यक ही है। वह पुरुष पर ही अवलंबित रहे उसका कोई स्वतंत्र अस्तित्व न हो यही व्यवस्था बनाई गयी है। कस्तुरी अपने ही स्वकीयों द्वारा बेच दी जाती है। मैत्रेयी अठारह महिने की होती है उसी समय से ही कस्तुरी वैधव्य के दंश सहती है। किंतु कस्तुरी रुप समयानुसार विद्रोही, क्रांतिकारी रूप ले लेती है विधवा बनने के बाद शिक्षा प्राप्त करने घर से निकल पड़ती है, मैत्रेयी के शादी की जिद के कारण उसके लिए वर ढुँढने के लिए वह स्वयं निकल पडती है , बिना दहेज शादी करने पर अडे रहती है,आदि ऎसी कई घटनाओं को उजागर किया है जिसमें सामाजिक संरचना पर, रुढी-परंपराओं पर कस्तुरी ने प्रहार किया है।
मैत्रेयी के आत्मकथा का दूसरा खंड ‘ गुडिया भीतर गुडिया ‘ है। अपने अंदाज में बोल्ड लेखन करनेवाली लेखिका का व्यक्तित्व , मानसिक यातनाएँ या उनका होनेवाला विकास आदि बातें इस भाग में कुछ ज्यादा उभरकर आयी है। मैत्रेयी ने भूमिका में लिखा है, ” मैं ने कलम थाम ली । कलम के सहारे मेरी चेतना, जिसे मैंने आत्मा की आवाज के रुप में पाया,तभी तो साहित्य के व्दार तक चली आयी। सुना था साहित्य व्यक्ति के लिए स्वतंत्रता देता है। हाँ, लिखकर ही तो मैंने जाना कि न मैं धर्म के खिलाफ थी, न नैतिकता के विरुध्द । मैं तो सदियों से चली आ रही तथाकथित सामाजिक व्यवस्था से खुद को मुक्त कर रही थी। “३
उपर्युक्त पंक्ति से मैत्रेयी ने हमे वैचारिक परिपक्वता, अस्मिता का समान, स्त्रीत्व की प्रतिष्ठापना का मार्ग दिखाने का काम किया है। आत्मकथा यह खंड मार्मिक और विस्फोटक है । गाँव से ब्याहकर लायी गयी लडकी को ‘ गँवार ‘ शब्द से आहत किया जाता है। मैत्रेयी को तथाकथित लोगों की नजरों से सुंदर न होने पर भी ताने सुनने पडते है। ऎसे मैत्रेयी के जीवन के बारे में , उनके रहन-सहन के बारे में समाज के साथ उनके पति भी नाराज रहते है। कुछ सालों के पश्चात मैत्रेयी स्वयं को बदल देती है आधुनिक तौर तरीके सीख लेती है इसपर भी पति और समाज के लोग दुष्चरित्र होने का आरोप लगाते है। यानि नारी गाँव के संस्कारों के साथ रहे तो गँवार ठहरायी जाती है और आधुनिक बन जाए तो अनैतिक कहलाती है। समाज व्यवस्था का यह कौन सा रुप है ?
मैत्रेयी ने तीन बेटियों को ही जन्म दिया इस पर अनेक लोग उन्हें ‘ कुल नाशिनी ‘ कहते है। किंतु इस बार मैत्रेयी सामाजिक बंधनों का स्वीकार नहीं करती उनका डटकर मुकाबला करती है। एक साहित्यकार के रुप में अपनी पहचान बनाने में उन्हें कई मुश्किल परिस्थितियों से जूझना पड़ा । साहित्य के क्षेत्र के जाने माने पुरुष संपादकों ने भी उन्हे केवल ‘ स्त्री ‘ के नजर से ही देखा। मैत्रेयी ने अपने साहित्य के माध्यम से स्वतंत्र महिला का आदर्श सामने रखा है। सामान्य जनमानस तथा लोकप्रिय साहित्यकार, महिला साहित्यकारों ने भी इस साहित्य पर अश्लीलता , अभद्र और शर्मसार करने वाला साहित्य कहा है। संक्षेप में यही कह सकते है कि मैत्रेयी की आत्मकथाओं के दोनों खंडों में समाज व्यवस्था का आकलन कर उनके गुण-दोषों का निष्पक्ष भाव से किया है। उन्होने आत्मकथा में सुंदरता नहीं बल्कि सत्यता उतारा है।
‘ जो कहा नहीं गया ‘ यह आत्मकथा कुसुम अंसल की है। कुसुम ने अपने हिस्से आयी प्रताड़ना और उपहास का जिक्र अपनी आत्मकथा में किया है। वे जब मात्र दस माह की थी उसी समय उनकी माँ चल बसी । सौतेली माँ से प्यार नहीं मिला । पिता के घर के माहौल में कोने-कोने में समृध्दी भरी थी परंतु कुसुम इस समृद्धि से अछूती रही। शादी होने तक उनका सफर बेऔलाद फुफा के घर से पिता के घर पर चलता रहा , किसी ने यह जानने की कोशिश ही नहीं की कुसुम क्या चाहती है ? कुसुम की मर्जी या इच्छा जाने बिना ही उनके लिए घर बदलते रहे। ” क्यों पिता यह समझ नहीं पाए कि वह मन, बुद्धि, हृदय के सुमेल से बनी एक जीवित व्यक्ति है। नहीं, पितृक व्यवस्था के सांचे में ढले पिता के लिए यह सब सोचना बेमानी था। “४
कुसुम अपनी स्वतंत्र पहचान बनाने के लिए सारा जीवन रिश्तों के बीच हिचकोले खाती रही। उच्च शिक्षा प्राप्त की तीव्र इच्छा कुसुम को थी किंतु समाज के नियमों के कारण उनकी पढ़ाई रोक दी गयी । जब वह जिद पर अडकर मनोविज्ञान में फर्स्ट डिवीजन में पास होने पर पिता सिर पर हाथ मारकर कहते है, ” वैसे ही कोई लड़का नहीं मिलता,अब इसने तो एम. ए पास कर लिया है, वह भी फर्स्ट डिवीजन में ………। “५
इस वाक्य से हम पुरुषवादी सोच का अंदाजा लगा सकते है। उनकी सोच यही है ,’ लडकी ना पढ़े और अगर पढ़ भी ले तो पुरुषों से आगे कदम न बढाएँ । ‘विवाह के बाद तो कुसुम का जीवन संघर्ष और भी बढ़ जाता है। ससुराल के सभी सदस्यों के शुष्क व्यवहार से उनका मानसिक स्वास्थ्य बिगड़ने लगता है। अपना अस्तित्व बचाने के लिए वह अपने आपको इस पिंजरे से मुक्त कर रंगमंच से जुड जाती है। बहु के में नाटक काम करने से परिवार तथा आस-पडोस के लोग उनपर ताना कसने का एक भी मौका नहीं छोड़ते। किंतु कुसुम उन बातों को अनसुना कर अपना मार्ग स्वयं प्रशस्त करती है। अपनी आत्मकथा से उन्होने सामाजिक- पारिवारिक बंधनो, वर्जनाओं को तोड़कर बाहर आने का संकेत देती है।
‘घर और अदालत ‘ यह आत्मकथा लीला सेठ की है जो भारत की पहली महिला चीफ जस्टिस बनी थी। लीला का जन्म १९३० में हुआ उस समय घर में लड़की का पैदा होना अशुभ माना जाता था किंतु उनके माता-पिता शिक्षित थे साथ ही पश्चिमी संस्कृति से प्रभावित थे इसलिए उन्होने लड़का लड़की में कोई भेद नहीं किया। शादी के योग्य हो जाने पर उनकी शादी एक शिक्षित युवक से करवा दी। पति के नौकरी के कारण वे विदेश में रही है। समय के सदुपयोग के लिए लीला ने विदेश में ही विधि या कानून की शिक्षा प्राप्त की । कानून की परिक्षा में सफल हो गयी , इस बात से विदेश में पुरुषवादी सोच ने अखबार में लीला के बारे इस तरह उल्लेख किया है, ” एक ऐसी माँ जो कानून की बारीकियों से परिचित है, यह है लखनऊ में जन्म लेने वाली २८ वर्षीय मिसेज लीला सेठ। उन्होंने हाल ही में फायनल परिक्षा में सभी पुरुष अभ्यर्थियों को पछाडकर पहला स्थान हासिल किया है। पढाई के दौरान उनपर पति,पाँच वर्षीय बेटे और छह माह के शिशु की देखभाल की जिम्मेदारी भी थी। “६ एक भारतीय विवाहित महिला का विदेशों के पुरुष विद्यार्थियों को पीछे छोड पहला स्थान प्राप्त करने से कुछ लोगों की उनके प्रति गौरव की भावना थी तो पुरुषवादीयों के मिथ्याहंकार को गहरी चोट लगी। अपनी योग्यता पर प्रैक्टिस के लिए भारत में किसी बैरिस्टर से मिलने पर उन्होंने शादी करने , बच्चें पैदा करने की सलाह दी। ” कानूनी पेशा अपनाने के बजाय जाकर शादी- वादी करो….. ,जाकर बच्चा पैदा करो……यह तो ठीक नहीं है कि बच्चा अकेला रहे इसलिए अच्छा होगा कि तुम दूसरे बच्चे के जन्म के बारे में सोचो। “७ हम देख सकते है कि उच्चशिक्षित पुरुषों की मानसिकता भी यही रही कि स्त्री को शादी कर बच्चें ही पैदा करने चाहिए उसी में उसकी सार्थकता है। लीला सेठ के जज बनने पर भी समाज का या पुरुषों का रवैया नहीं बदल सका । हाईकोर्ट में आयोजित किए जानेवाले समारोह की तैयारियाँ करते समय एक पुरुष ने यह स्पष्ट कह दिया ,” अब जब हमारे बीच एक महिला जज भी है, हमें खाने-पीने के इंतजाम के बारे में चिंता करने की कोई जरुरत नहीं है। वह चाय पान की सारी व्यवस्था कर देगी। “८जज के इस वक्तव्य से हम समझ सकते है कि पुरुष किसी भी पेशे में क्यों न हो वह नारी को ‘ रसोईवाली ‘ इसी दृष्टि से देखता है। एक महिला वकील और न्यायाधीश होने के कारण लीला को अपने स्त्रीत्व के कारण कदम-कदम पर दोयम दर्जा मिलता गया फिर भी अपने गुणों से उन्होंने उनके कार्य में कोई कसर नहीं छोडी।
‘ शिकंजे का दर्द ‘ यह आत्मकथा दलित स्त्री आत्मकथाओं में से एक चुनिंदा आत्मकथा है। मनुवादी विषमता में वर्णवादी- जातिवादी समाज व्यवस्था ने पिछडी हुयी जातियों का जीना मुश्किल किया था साथ ही पुरुषसत्ताक व्यवस्था में उनका शोषण भी होता रहा। दलित होने के साथ महिला होने दंश समाज ने और पति की ओर से उन्होंने सहे है। वर्ण व्यवस्था के कारण बचपन से ही उन्हे दबाने की कोशिश की गयी स्कूल, कॉलेज, नौकरी के जगह पर भी उनकी जाति ने उनका पीछा नहीं छोडा। ” मुझे छु जाने पर वे नहाकर शुध्द होते है, यह बात मैं जानती थी। वे मुझसे दूर रहे, इसकी अपेक्षा मैं स्वयं उनसे दूर रहती थी ताकि मेरे कारण किसी को तकलीफ या परेशानी न हो। बचपन से सिखायी गई बातों से यह आदत बन गई थी। ” ९ स्कुल में भी वर्ण तथा जाति व्यवस्था के अनुरुप ही कक्षा का वर्गीकरण किया गया था । बचपन से ही उनके मन पर दासता, आदर्श संस्कार पैर में बेडीयों की तरह बांधे गए थे। सुशीला घर से बाहर जाति के कारण और घर के अंदर स्त्री होने के कारण प्रताड़ित होना पडा। पति के सामने जैसे वह दासी की तरह ही रहती थी। उनके इशारे पर पैरों के पास बैठकर उनके जुते, मोजे उतारना ऎसे काम करने पडते थे। इस बात पर थोडा भी विरोध जताने पर झगडा, मारपीट तो तय ही थी। ” मेरे पैरों पर अपना सिर रखकर माफी मांग, तब मैं तेरी बात मानुँगा। “१० अपने अधिकारों केलिए लडने के कारण उनके हिस्से अपमान और असह्य पीड़ा आयी। इन परिस्थितियों से संघर्ष कर सुशीला ने अपनी पढ़ाई पुरी की, एक महाविद्यालय में अध्यापक की नौकरी भी की है। अपने पति के इस अमानुष बर्ताव के लिए वह लिखती है, ” पुरुष सत्ता बनी रहे इसलिए स्त्रियों को शुरू से कमजोर बनाकर रखा जाता है। समाज की परंपराएँ स्त्री विरोधी है। इन्हें तोडकर ही स्त्री स्वतंत्रता, समता और सम्मान पायेगी ,तब वह अबला नहीं रहेगी, सबला बन जायेगी। ” ११ इस तरह समाज में संघर्ष करके ही प्राचीन मान्यताएँ तोडी जा सकती है इस ओर सुशीला संकेत करती है । पुरुषवादी, मनुवादी मानसिकता पर आक्रोश व्यक्त करते हुए समाज को जागृत होने संदेश देती है।
उपर्युक्त महिला आत्मकथाओं की श्रृंखला हमे इक्कीसवीं सदीं में मिलती है। प्रस्तुत शोध प्रपत्र में हिंदी साहित्य की कुछ गिनी-चुनी आत्मकथाओं का ही उल्लेख किया गया है। इक्कीसवीं सदीं की कौसल्या बैसंत्री, रमणिका गुप्ता, प्रभा खेतान, मन्नु भंडारी, शीला दीक्षित, आशा आपराद, रजनी तिलक, सुषम बेदी, आदि ऐसी अनेक महिलाओं ने अपने जीवन संघर्ष की कहानी हमारे सम्मुख रखी है। इनमें ज्यादातर महिला साहित्य से जुडी हुयी है, किंतु ज्ञान-विज्ञान के हर क्षेत्र की नारीयों ने आमकथा लिखकर उनकी जिंदगी में आए संकट और चुनौतियों का उल्लेख कर हमे हर हाल में न हारते हुए चुनौतियों का सामना करने की प्रेरणा दी है, हमें रास्ता दिखाने की कोशिश की है। सभी आत्मकथाओं का उल्लेख यहाँ पर होना असंभव है।
स्त्री अस्मिता पर विचार करते समय इस बातपर गौर करना जरुरी है कि स्त्री अनेक सामजिक स्तर, विभिन्न क्षेत्रों में कार्य करने के बावजुद भी , उच्चशिक्षित होने पर भी उनका लैंगिक स्तर ही अंतत: निर्णायक भुमिका अदा करता है। पितृसत्ताक समाज ने नारी को सदैव पुरुष का गुलाम और सामाजिक नियमों के अधीन बनाकर रखा । उत्पीडन का अपना अलग सा मनोविज्ञान रहा है। चाहे वह समाज व्यवस्था का नारी के लिए हो या वर्ण के अनुसार हो । नारी का पारिवारिक, सामाजिक,आर्थिक, मानसिक ,दैहिक शोषण होता रहा है। किंतु शिक्षित नारी अब सजग हो चुकी है। भारतीय संविधान ने नारी को जो हक दिए है उसके बलबुतेपर शिक्षित हो रही है, अपने सोच-विचार के दम पर वह अपने अधिकार माँग रही है। इस समाज के विपरीत परिस्थितियों से लडकर हर एक भारतीय स्त्री ने अपना अस्तित्व खोने नहीं दिया । विपरीत परिस्थितियों में रहकर भी हौसले और हिम्मत के कारण यह सभी भारतीय महिला ‘ महिला सशक्तिकरण ‘ का उदाहरण बनकर प्रस्तुत हुई है।
संदर्भ सुची :
- अन्या से अनन्या – प्रभा खेतान – पृ- 255
- कस्तुरी कुण्डल बसै- मैत्रेयी पुष्पा -पृ- 09
- गुडिया भीतर गुडिया- मैत्रेयी पुष्पा- भुमिका से
- जो कहा नहीं गया- कुसुम अंसल -पृ-10
- जो कहा नहीं गया- कुसुम अंसल – पृ-42
- घर और अदालत- लीला सेठ- पृ- 94
- घर और अदालत- लीला सेठ – पृ-99
- घर और अदालत – लीला सेठ- पृ- 258
- शिकंजे का दर्द -सुशीला टाकभौरे- पृ-18
- शिकंजे का दर्द- सुशीला टाकभौरे -पृ- 144
- शिकंजे का दर्द- सुशीला टाकभौरे- पृ-144
- हिंदी साहित्य की कतिपत्य विशिष्ट महिलाएं एवं उनकी रचनाएं – डॉ. देवकृष्ण मौर्य
- प्रतिशोध का दस्तावेज : महिला आत्मकथाएं – डॉ.नीरु
- हिंदी आत्मकथा विद्याशास्त्र और इतिहास – डॉ. बापुराव देसाई
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