हिन्दी रंगमंच और प्रशिक्षण

परवेज़ अख़्तर

किसी व्यक्ति द्वारा कला-सृजन, उस व्यक्ति के रचनात्मक रुझान और उसकी नैसर्गिक* कला-प्रतिभा पर निर्भर करता है। कलात्मकता का प्रशिक्षण कदाचित सम्भव नहीं है। रंगमंच में प्रशिक्षण दरअसल शिल्प का ही होता है। फिर भी रंगमंच के क्षेत्र में सक्रिय कितने प्रतिशत कलाकार संस्थानों से प्रशिक्षित होते हैं, 5% या उससे भी कम। लेकिन प्रशिक्षण केन्द्र कुछ इस तरह का माहौल या hype बनाते हैं, गोया औपचारिक प्रशिक्षण प्राप्त नाट्यकर्मी ही रंगमंच के वास्तविक नायक हैं। जबकि वस्तुस्थिति यह है कि बहुत बड़ी संख्या में अप्रशिक्षित या अनौपचारिक रूप से प्रशिक्षित कलाकर्मी रचनात्मक क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान करते और अति-महत्वपूर्ण रचते हुए दीखते हैं और कला-जगत उनका उच्च-मूल्यांकन भी करता है। हालाँकि सभी कलाओं में शिल्प-के-प्रशिक्षण का अत्यधिक महत्व है; इसका विकल्प नहीं है। लेकिन कितने हैं, जिन्हें औपचारिक प्रशिक्षण का अवसर मिल पाता है ? वैसे देखें, तो आप पाएँगे कि अप्रशिक्षित कोई होता नहीं। चन्द रंगकर्मी ही औपचारिक प्रशिक्षण प्राप्त कर पाते हैं; जबकि अधिकांश हिन्दी-नाट्यकर्मी, नाट्य-दल में अपनी सक्रियता के क्रम में अनौपचारिक रूप से प्रशिक्षित होते रहते हैं।कला प्रशिक्षण केन्द्र, वास्तव में ‘शिल्प’ या ‘क्राफ़्ट’ तथा ‘तकनीक’ का प्रशिक्षण देते हैं, कला अथवा कलात्मकता का नहीं।

person sitting on bench in dark room

रंगमंच कला में, अंतर्शिल्पीय दक्षता की आवश्यकता होती है। नाट्य-शिल्प के अन्तर्गत स्टेज-क्राफ़्ट, लाइटिंग, म्यूजिक, मेक-अप, कास्ट्यूम, सीनिक-डिजाईन आदि-इत्यादि रंगमंच-कला के मुख्य-सर्जक अभिनेता और उसकी कला को उत्प्रेरित करते हैं, उसे सजाते-सँवारते हैं। रंगमंच कला सृजन में चूँकि शिल्प और तकनीक की महत्वपूर्ण भूमिका होती है, इसलिये प्रशिक्षण का अत्यधिक महत्त्व है। अप्रशिक्षित नाट्यकर्मी ‘ट्रायल एंड एरर’ के ज़रिये शिल्प का ज्ञान प्राप्त करता है, जिसमें समय का अपव्यय होता है। जबकि प्रशिक्षण के दौरान इस समझ को विकसित करने में समय की बचत होती है और शिल्प में दक्षता तथा पेशेवर तकनीक जानने का अवसर नाट्यकर्मी को मिलता है।रंगमंच में शिल्प-तकनीक-डिजाईन के प्रशिक्षण के साथ, जो कुछ महत्वपूर्ण कार्य प्रशिक्षण केन्द्र द्वारा किये जाने होते हैं – वे हैं, उचित परिप्रेक्ष्य में रंगमंच-कला के मूल्यांकन करने की क्षमता विकसित करना और इस समझ को विकसित करना, जो ‘कथ्य’ और ‘शिल्प’ के संतुलन के बुनियादी उसूल से प्रशिक्षुओं को परिचित कराये।आशु-रचना (improvisation) की कला, रंगमंच का सबसे विशिष्ट कौशल है। प्रशिक्षण के दौरान विभिन्न छवि, ध्वनि, विचार, भावना (emotion, sentiment), शब्द और अन्य सभी दृश्य-श्रव्य अवयवों के रंगमंचीय उपयोग के प्रसंग में आशु-रचना के अभ्यास करवाये जाते हैं। इसी क्रम में यह भी बताया जाता है कि परिस्थिति के अनुसार किस प्रकार अपनी नाट्य-रचना को संयोजित किया जाए।सांकेतिकता, प्रतीकात्मकता और कल्पनाशीलता नाट्य-कला की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है। यह, वह विशिष्टता है, जो नाट्य-सृजन को काव्यात्मक ऊँचाई देती है।यह स्पष्ट है कि नाट्य-प्रशिक्षण संस्थान; शिल्प कौशल, डिजाईन और तकनीक के प्रशिक्षण के साथ; नाट्य-कला की विशिष्टताओं से प्रशिक्षुओं को परिचित कराते हैं। उनका यह दायित्व भी है कि भावी नाट्य नेतृत्व अपने क्षेत्र के दर्शकों के रंगमंच की ज़रूरत का अनुमान लगाने और अपने दर्शकों की आशाओं-आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति, उनकी नाट्य-भाषा में करने में सक्षम हों।लेकिन स्थिति ऐसी है नहीं। दुर्भाग्यवश हिन्दी रंगमंच में अभिनेता स्थायी नहीं है, जबकि यह उसीका माध्यम है। हाँ, निर्देशक का वर्चस्व हिन्दी रंगमंच में बढ़ता गया है। इसलिए रंगमंच की त्रयी – नाटककार, दर्शक और अभिनेता के दबाव से मुक्त निर्देशक, ‘शिल्प’ और ‘तकनीक’ के अतिरेक या आतंक के माध्यम से अपनी सत्ता की स्थापना की दिशा में प्रयासरत दीखता है। यह रंगमंच और दर्शकों दोनों के हित में नहीं है।इस विरोधाभास की तुलना फ़िल्म की उस विडम्बना से की जा सकती है, जिसमें वर्चस्व ‘स्टार-एक्टर’ का है और निर्देशक को, फ़िल्म जिसका माध्यम है, वैसा महत्त्व नहीं मिलता। उसी तरह; अभिनेता-का-माध्यम रंगमंच, निर्देशक के नाम से जाना जाने लगा है।*(यहाँ ‘नैसर्गिक’ से मेरा तात्पर्य प्रकृति द्वारा प्रदत्त उन क्षमताओं से है, जो हर व्यक्ति में अलग-अलग हो सकती हैं, बल्कि होती हैं। अभ्यास से मेरे जैसा बेसुरा-व्यक्ति, कोरस गायक तो शायद बन जाए; किन्तु स्वतन्त्र गायक; एक ऐसा गायक जो संगीत-कला में योगदान देने में सक्षम हो, नहीं बन सकता।)