शिक्षा व्यवस्था व अध्यापक की भूमिका

डा0 अमितेश कुमार शर्मा सीमा रानी गौड़
प्रिसिपल प्रिसिपल
एल्पाइन कॉलेज ऑफ एजुकेशन प्राथमिक विधालय न0 2
जलालाबाद, जिला -शामली हरडफतेहपुर,जिला -शामली

प्रस्तावना-

भारत के स्कूलो में शिक्षक की भूमिका एक विचारणीय सोचनीय व दयनीय प्रश्न बनता जा रहा है यह प्रशन शिक्षक की वांछनीय योग्यता, प्रशिक्षण और बच्चों के सीखने में उसकी भूमिका को प्रभावित कर रहा है।

पिछले कुछ दशको में सरकारी प्राथमिक, उच्च प्राथमिक व माध्यमिक विधालयों में छात्र संख्या में भारी गिरावट आयी है हालाकि सत्र 2016-2017 वर्ष में थोडी प्रोन्नति हुई है, लेकिन हमारा स्कूली तंत्र अब भी अध्ययन-अध्यापन के वांछित स्तर को प्राप्त नहीं कर सका है। माध्यमिक स्तर पर भी बच्चो की पहुँच अभी कम ही है। इस स्थिति को बेहतर बनाने की दिशा में कई तरह के प्रयास हो रहे है, जैसे पाठ्यक्रम और पाठयपुस्तक को क्रमशः बेहतर बनाना, स्कूल में भवन, शौचालय की व्यवस्था करना आदि। लेकिन सबसे बड़ी चुनौती यह है कि स्कूलो में पर्याप्त संख्या में कुशल शिक्षक और प्रशिक्षित शिक्षको की कमी है इसके लिए मुख्यतः दोष R.T.E मानको का पूर्णतः लागू न होना है और निर्धारित मानको के अनुरूप अध्यापको का विधालयों मे न होना भी है आम तौर पर यह स्वीकार किया जाता रहा है कि शिक्षा की गुणवत्ता सबसे अधिक और सीधे-सीधे शिक्षक की गुणवत्ता पर निर्भर होती है।

कुछ विचारणीय बिन्दू-

अधिकांश लोग यह स्वीकारते है कि पढ़ाई-लिखाई को पटरी पर लाने के लिए यह जरूरी है कि स्कूलो में उचित संख्या में योग्य शिक्षको की नियुक्ति हो, व्यवस्थित ढंग से उनकी क्षमता वर्धन की व्यवस्था हो और उनके लिए ऐसी परिस्थितियॉ बनाई जाए कि वे अपना काम उत्साहपूर्वक कर सकें। दुर्भाग्य से व्यवहार में उठाए गए कदम व बहुत से व्यवहारिक नीतिगत सुझाव इससे मेल नहीं खाते है।छात्र मूल्याकंन का मापदंड भी कुछ नीति संगत नही है। छात्र विधालय उपस्थिति पर भी कुछ आवश्यक प्रतिबद्धतायें अवश्य हो। छात्र के मूल्याकंन के आधार पर ही उसकी कक्षा प्रोन्नत की जाए। प्रत्येक असफलता के लिए केवल ओर केवल शिक्षक को दोषी मान लेना न्याय संगत न होगा।

यह बात बार-बार कही जाती है कि भारत में शिक्षको की योग्यता और कार्य कुशलता आवश्यकता के अनुरूप नहीं है। नियुक्ति प्रक्रिया के संदर्भ में भी यह कहा जाता है कि हमें योग्य शिक्षको को ही चुनना चाहिए। इसी सन्दर्भ में यह सवाल उठता है कि योग्य शिक्षक से हमारा तात्पर्य क्या है? शिक्षक की योग्यता को देखने का हमारा मापदंड क्या होना चाहिए?

शिक्षको के प्रति समाज की विचारधारा-

प्रशासकों और सामान्य लोगो का एक वर्ग ऐसा भी है जो मानता है कि शिक्षा के स्तर में जो गिरावट देखी जा रही है उसका ताल्लुक शिक्षक की क्षमता से ज्यादा प्रशासनिक तत्परता से है ? उनकी शिकायत रहती है कि शिक्षक स्कूल में अनुपस्थित रहते है, देर से पहुँचते हैं और जल्दी चले जाते है। व कुछ विधालयों में देखा गया है कि शिक्षक विधालय जाते ही नही है उनके अनुसार प्रशासनिक निगरानी का अभाव ही शिक्षा के स्तर के गिरने का कारण है। प्रशासनिक निगरानी ठीक हो जाए तो क्या सब कुछ पटरी पर आ जाएगा? शायद नही, क्योकि केवल प्रशासनिक निगरानी ही नही वरन, एक शिक्षक की स्व-प्रेरणा, आत्मचेतना व प्रशासनिक शिक्षा व्यवस्था में अमूल-चूल परिवर्तन ही शिक्षा के गिरते स्तर को सुधार सकते है।

जैसे यह भी कहा जाता है कि सक्षम शिक्षक बनने के लिए सामाजिक प्रतिबद्धता, काम के प्रति निष्ठा और प्रेरणा अधिक महत्तवपूर्ण कारक है, स्कूल में पढ़ाने के लिए विषय-वस्तु की बारीक समझ इतनी महत्वपूर्ण नही है। मान्यता यह है कि दसवीं पास एक आम व्यक्ति अगर पढ़ाने की प्रेरणा और उत्साह से भरपूर हो तो यह विषय और वस्तु और उसे पढ़ाने का समुचित तरीका खुद ही ढ़ूँढ लेगा।

ऐसे भी मत हैं जो कहते है कि जब तक शिक्षक के मान-सम्मान के प्रति रवैया नहीं बदलता, शिक्षक की आत्मछवि और उसकी जनछवि में आई हीनता की भावना से हम रूबरू नहीं होते और इस भूमिका के बारे में अपने विरोधाभासी मतों को खंगालकर उसमें उपस्थित बड़ी दरार को चुनौती नहीं देते तब तक हम किसी प्रकार के सुधार की आशा नहीं कर सकते। एक अन्य वर्गानुसार शिक्षक की क्षमता व उसका ज्ञान सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। उसका कहना है कि हमने शिक्षक की तैयारी में उसके ज्ञान व शिक्षा प्रशिक्षण पर सबसे कम जोर दिया है। शिक्षक बनने की तैयारी अर्थात सेवा पूर्व हो रहे प्रशिक्षण को ओर अधिक व्यवहारिक बनाने की आवश्यकता है।

शिक्षको को इस प्रकार का प्रशिक्षण देना चाहिए ताकि वो स्वयं करके सीखने वाला शिक्षक बनें व अपने सिद्धान्त स्वयं गढ़ सके फिर उन्हें लगातार परिकृत करने के लिए भी तैयार हो सके प्रशिक्षण शिक्षक में एक आत्म विश्वास भरें व सेवाकालीन प्रशिक्षण भी उल्लास व नवाचारों से पूर्ण हो ताकि नवीनता व तन्मयता के साथ ओर अधिक सीखने पर बल दिया जा सके।

सवाल सेवापूर्व शिक्षक-प्रशिक्षण के बारे में भी उठ रहे है। क्या सेवापूर्व प्रशिक्षण से शिक्षकों को स्कूल की वास्तविक ठोस पारिस्थितियों में पढ़ाने में कोई मदद मिलती है या वे जो कुछ भी सीखते है वे स्कूल में काम करते हुए व्यवहारिक स्तर पर सीखते है? अगर सेवापूर्व प्रशिक्षण जरूरी है तो उसका शिक्षाक्रम क्या होना चाहिए?

एक मत यह भी है कि शिक्षा के गिरते स्तर के उत्थान में कारगर साबित हो सकता है कि जब भी प्रशासनिक स्तर पर कोई नवीन व्यवस्था व नवीन नीतियाँ को लागू किया जाये अपेक्षाकृत थोपे जाने के शिक्षको के प्रतिनिधि मंडल के साथ अवश्यमेव साझा कर, विचार-विर्मश कर शिक्षक, सम्बन्धित अधिकारी व अभिभावक से बात करने के उपरान्त ही कोई नवीन नीतियाँ व्यवहारिक पृष्ठभूमि पर लायी जाये।

बेसिक शिक्षा के पिछले कई दशको से हर प्रत्येक नीति व नव-योजना की प्रयोगशाला के रूप में क्रियान्वन किया जा रहा है। क्योकि थोपे गये फरमान किसी को भी कुण्ठित कर सकता है प्रेरित नहीं।

इस सबके बीच शिक्षको के भी कई सवाल है। वे अपने साथ हो रहे प्रशासनिक व्यवहार से तो चिन्तित तो है ही सरकारी स्कूल के शिक्षक इससे भी परेशान है कि उन्हे स्कूल व स्कूल के बाहर भी शिक्षण कार्य के अतिरिक्त बहुत कुछ करना पड़ता है उनका आकलन पढ़ाने के प्रति उनकी तत्परता गुणवत्ता के आधार पर नही बल्कि गैर शैक्षणिक कार्य और कार्यालयों से सम्बन्धित कार्यो की दक्षता के आधार पर होता है हालांकि सीखने और न सीखने का पूरा ठीकरा उन्ही के सिर फोडा जाता है, उन्हे यह छूट नही होती कि वे सीखाने का कार्य गम्भीरता से कर पाये ।

सरकारी स्कूलों में जिन सामाजिक समूहो के बच्चे आ रहे है उनमें पढ़ने लिखने की कोई पारिवारिक परम्परा नही है और वे अपने बच्चो की न तो घर पर मदद कर पाते है (जैसे कि अभ्यास पुस्तिकाए रबर पैंसिल आदि शैक्षिक उपकरण) और न ही उन्हे पढ़ने लिखने का समुचित परिवेश उपलब्ध करा पाते ऐसे में शिक्षक क्या करे ?

निष्कर्ष और सुझाव –

स्कूल तन्त्र की सतह पर उठने वाले इन प्रश्नो के मूल मे कुछ ज्यादा गहरे सैद्धांतिक सवाल है सवाल हमे सिर्फ उद्धिग्न नही करे, बल्कि विचार के लिए प्रेरित भी करे इसके लिए आव्श्यक है कि हम सैद्धांतिक सवालो से जूझे, उनसे कतराये नही इस विषय को हम तीन प्रकरण में बाट सकते है और इन पर क्रमिक ढंग से विचार करते हुए एक समय दृष्टि विकसित करने की दिशा में आगे बढ सकते है।

  1. भारत में अध्यापन कार्य व उसमे बदलाव-

एक अध्यापक के काम को ठीक-ठीक किस प्रकार समझे। अध्यापक के काम को उससे मिलते जुलते अन्य कार्यो से कैसे अलग किया जाये उदाहरण के लिए अध्यापक का काम एक प्रवचनकर्ता के काम से कितना और कैसे अलग और समान है ? दरअसल एक शिक्षक कक्षा में क्या करता है ? शिक्षण-कर्म की विशिष्टता क्या है ? इन प्रशनो पर सैद्धांतिक ढंग से नये सिरे से भारतीय समझ व परिस्थिति के संदर्भ में विचार किया जाना चाहिए।

  1. अध्यापक बनने की प्रकिया- अगर स्कूली शिक्षा सबके लिए आवश्यक है तो हमे अध्यापन कर्म को सही ढंग से संचालित करने के लिए कर्मठ और सच्चे शिक्षको का समूह चाहिए जाहिर है कि स्कूली शिक्षा-तंन्त्र में बड़ी संख्या में अध्यापको की जरूरत है। इस स्तर पर अध्यापक बनने की तैयारी अब छिटपुट और अनौपचारिक ढंग से सही नही हो सकती शिक्षक-शिक्षा को संस्थागत स्वरूप प्रदान करने का तर्क यही है। शिक्षक-शिक्षा के लिए हमे आज किस प्रकार की पाठ्यचर्या, अध्यापन विधि और प्रशिक्षको की आव्शयकता है ? एक महत्वपूर्ण पक्ष अध्यापक का काम करते हुए निरन्तर सीखना और उनका क्षमता-वर्धन भी है। ये प्रश्न नही है लेकिन इन परिप्रेक्ष्य में फिर से उठ गये है
  2. अध्यापक की पहचान- अध्यापन अपेक्षाकृत एक पारम्परिक कर्म रहा है, लेकिन आधुनिक शिक्षा के प्रसार के साथ शिक्षक की भूमिका बदली है। एक नया सांस्थानिक और प्रशानिक ढांचा तैयार हुआ है जिसमे शिक्षक की पहचान नये सिरे से निर्मित हुई है।

कहना न होगा कि शिक्षक जिस प्रकार अपनी आत्मछवि गढ़ते है उससे उनका अध्यापन कर्म प्रभावित होता है। अपने कांम और परिवेश के अर्थ-ग्रहण करने में आत्म चेतना की महत्वपूर्ण भूमिका होती है एसा लगता है कि आधुनिक समय में शिक्षक की आत्मछवि और उनकी जनछवि में बड़ी दरार पैदा हो गयी है। इसके साथ-साथ पाठ्यचर्या और ज्ञान के विविध अऩुशासनो ने शिक्षको की पहचान को एक नया आयाम दिया है एक शिक्षक को यह पता होना चाहिए कि उसे क्या ज्ञात नही है एक शिक्षक व्यवस्थित चिन्तन के साथ-साथ मुक्ति का भाव, जन्म आधारित पहचान, लिंग-आधारित पहचान, पेशेवर पहचान, अर्जित पहचान का भी ज्ञान अवश्य रखता हो।

बदलते हुए परिवेश में शिक्षक की पहचान के विविध तन्तुओ को समझने और उन पर नये सिरे से विचार करने की जरूरत है। आधुनिक शिक्षा-तन्त्र के विकास के साथ शिक्षक की अध्यापकीय पहचान किन पड़ावो से होकर गुजरी है ? भारत जैसे देश में जन्म आधारित अन्य पहचानो के साथ इस नये पेशेवर पहचान का क्या ताल्लुक रहा है ? स्कूली शिक्षा तन्त्र में वे कौन से घटक है जो शिक्षक की पेशेवर पहचान को सुदृढ़ करते है और कौन से तत्व ऐसे है जिनसे शिक्षक की अस्मिता का क्षरण होता है ? इन प्रशनो पर नये सिरे से विचार करने की आवश्यकता है।

संदर्भ पुस्तके-

  1. प्रारम्भिक शिक्षा के नवीन प्रयास, आर0 लाल0 प्रकाशन
  2. सर्व शिक्षा अभियान (2001), मानव संसाधन विकास मंत्राल्य नई दिल्ली
  3. राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवमं प्रशिक्षण परिषद नई दिल्ली
  4. राष्ट्रीय पाठ्यचर्या निर्माण 2005