प्राथमिक स्तर की शिक्षा व्यवस्था के परिप्रेक्ष्य में एक अध्ययन
दिनेश कुमार
शोध छात्र
पाश्चात्य इतिहास विभाग
लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ
शोध सार
प्रस्तुत शोध पत्र में वर्तमान प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था पर प्रकाश डाला गया है और उसके साथ ही प्राथमिक शिक्षा को कैसे गुणवत्तापूर्ण बनाया जाए जिससे कि सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को उचित शिक्षा उपलब्ध कराई जा सके और देश का समुचित विकास किया जा सके। शिक्षा के माध्यम से बालक का शोधन एवं मार्गांतीकरण किय जाता है।
कुंजी -शब्द:- सर्वांगीण,गुणवत्तापरक, शोधन, मार्गांतीकरण, क्रियान्वयन, संलग्न, नवाचार, शिक्षाशास्त्री, रोजगारोन्मुखी, व्यावसायीकरण, भविष्योन्मुखी, अध्ययनशील, न्यायालय, इलाहाबाद, जनसंख्या आदि।
परिचय:-
किसी भी देश का सर्वांगीण विकास वहां की शिक्षा व्यवस्था पर निर्भर करता है क्योंकि शिक्षा ही मनुष्य की प्रगति का आधार है। औपचारिक शिक्षा व्यवस्था के प्रथम स्तर को प्राथमिक शिक्षा स्तर कहा जाता है। यह शिक्षा 6 वर्ष की आयु से 14 वर्ष की आयु तक चलती है।1 यह प्रगति पूर्ण रूप से तभी संभव है, जब प्राथमिक स्तर पर ही बालक को उचित शिक्षा दी जाए और सही मार्गदर्शन किया जाय। प्राथमिक शिक्षा छात्र के मार्गांतीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
भारतीय शिक्षा के संबंध में प्रत्येक व्यक्ति न केवल अपनी राय रखता है, बल्कि उसे व्यक्त करने के लिए भी तत्पर रहता है। शिक्षा व्यक्ति, परिवार तथा समाज को किसी न किसी रूप से अवश्य प्रभावित करती है। शिक्षा उसकी विषयवस्तु तथा विधा समय के साथ गतिमान रहते हुए ही अपनी सार्थकता सिद्ध कर सकती है। इसके लिए व्यवस्था तथा क्रियान्वयन में संलग्न सभी व्यक्तियों को सजग तथा सीखने के लिए प्रतिबद्ध होना आवाश्यक होगा। उनकी नवाचार में रूचि तथा उसे कर सकने की स्वायत्तता मिलनी ही चाहिए।2 स्वतंत्र भारत में शिक्षा का जो विस्तार हुआ है उसे अभी मीलों नहीं बल्कि कोसों लम्बा रास्ता तय करना है। सरकारी प्राथमिक शिक्षा ने कई उपलब्धियां भी हाँसिल की हैं क्योंकि हमारी शिक्षा की नींव यहीं पर मजबूत की जाती है, जो जीवन पर्यंत मानव जीवन एवं समाज को सार्थक बनाती है। अगर शिक्षा व्यवस्था में ही उसके मूल्यों के ह्रास का घुन लग जाए, तब उसका समाधान ढूढ़ना अत्यंत कठिन हो जाता है। प्रत्येक व्यक्ति प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था से परिचित है। वर्तमान में यह शिक्षा दो हिस्सों में बँट गई है जो आगे आने वाली पीढ़ियों को भी विभक्त कर रही है। इसका सबसे बड़ा मूलरूप से कारण है नीति निर्धारकों का स्वार्थ।
आज लगभग प्रत्येक ग्राम पंचायत में प्राथमिक एवं जूनियर स्कूलों की व्यवस्था की गई है जहां पर हजारों ग्रामीण अँचल के बच्चे अध्ययन के लिए जाते हैं। सरकारी प्राथमिक विद्यालयों की अगर बात की जाय तो इन स्कूलों में सबसे योग्य अध्यापक रखे जाते हैं। वह भी बी.एड एवं बी.टी.सी प्रशिक्षित होते हैं। इन्हें बच्चों के क्रियाकलापों एवं किस प्रकार पढ़ाना है पहले ही बता दिया जाता है। इन योग्यताओं के बावजूद अब तो अध्यापक पात्रता परीक्षा (टी.ई.टी.) भी पास करके आना होता है। इतनी योग्यता तो प्राइवेट विद्यालयों के अध्यापक के पास मुश्किल से ही ढूंढे मिलेगी। सरकारी शिक्षकों को वेतन से लेकर प्रत्येक प्रकार की सरकार सहायता भी देती है। इन सबके बावजूद हमारे सरकारी स्कूलों की शिक्षण व्यवस्था दयनीय हो गई है। इसकी गुणवत्ता की बात की जाय तो नाम मात्र की हो सकती है इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है मैं कुछ स्कूलों को गया जहां बच्चों से राष्ट्रपति एवं प्रधानमंत्री का नाम पूंछा जो कि बच्चे नहीं बता पाएं। सम्पूर्ण साक्षरता अभियान तो सरकारी कागजों पर ही दिखाई दे रहा है। अगर उसकी वास्तविकता पता करनी हो तो सरकारी स्कूल जाकर देखी जा सकती है।
इसके पश्चात ले चलते हैं प्राइवेट शिक्षण संस्थानों की तरफ मैंने तो जाकर देखा है कि प्राइवेट स्कूल किसी शिक्षाशास्त्री या किसी उच्चयोग्यता प्राप्त व्यक्ति के कम ही मिलेंगे अधिकतर नेताओं एवं माफियाओं के ही मिलेंगे। इन लोगों का स्कूल खोलने का एकमात्र लक्ष्य लाभ कमाना होता है। इनसे गुणवत्ता परक शिक्षा का ख्वाब भी करना बेकार है क्योंकि दोनों एक साथ नहीं चल सकते। इन स्कूलों में ज्यादतर अध्यापकों की योग्यता इण्टर एवं स्नातक अर्थात अनट्रेंड मिलेंगे। बहुत कम ही व्यक्ति मिलेंगे जो उस क्लास एवं सम्बंधित विषय को पढ़ाने की योग्यता रखते हैं। प्राइवेट स्कूलों को देखकर ऐसा लगता है कि मानों शिक्षा का व्यावसायीकरण सा हो गया है। बच्चों को स्कूल की क्लासों से ज्यादा कोचिंग संस्थान गुणवत्तापरक एवं भविष्योन्मुखी लगने लगते हैं। लखनऊ जैसे शहर में सम्पूर्ण दिन जिधर निकलो प्रत्येक दो या तीन घंटे बाद कोचिंग संस्थानों की इतनी भीड़ निकलती है। ऐसा लगता है कि किसी स्कूल में छुट्टी हो गई है। इस प्रकार की शिक्षा मजदूरी करने वाला अभिभावक नहीं दे पाता और सरकारी स्कूलों में शिक्षक मिड-डे-मील खिलाने और पल्स-पोलियो पिलाने में ही अपना बहुमूल्य समय निकाल देते हैं। इसी प्रकार की सरकार की गलत तरीक़े से क्रियांवित नीतियों का शिकार अबोध विद्यार्थियों को बनना पड़ता है। इन बालकों को इस समय यह समझ ही नहीं होती कि उनके भविष्य के साथ खिलवाड़ हो रहा है। इन्हीं सब कारणों से सरकारी और प्राइवेट स्कूलों की शिक्षा की गुणवत्ता का दायरा निरंतर बढ़ता जा रहा है।
वर्तमान शिक्षा की आवश्यकता एवं अनिवार्यता को स्वीकार करते हुए अच्छी, गुणवत्तापूर्ण एवं नैतिक शिक्षा के लिए प्रयत्न करने होंगे। इसके लिए कर्मठ, प्रशिक्षित, लगनशील, अध्ययनशील एवं संवेदनशील अध्यापक भी चाहिए, जो अपने उत्तरदायित्व को अंतर्निहित कर चुके हों। भारत की नई पीढ़ी को तैयार करने के पवित्र कार्य में भागीदारी निभा सकें। शिक्षा ही ऐसा माध्यम है, जिसके माध्यम से बालक का शोधन एवं मार्गांतीकरण किया जा सकता है। गाँधीजी भी ऐसी शिक्षा के पक्षधर थे जिससे बालक का सर्वांगीण विकास हो सके।3 सरकारी तंत्र ने इसे समझा नहीं या इसे जानबूझ कर नजरअंदाज कर दिया। निजी स्कूलों में बच्चों को प्रवेश दिलाने के किए जो आपाधापी प्रतिवर्ष मचती है, वह शिक्षा के माध्यम से जुड़ाव का नहीं बल्कि अलगाव की कहानी है।
सन् 2015 में न्यायालय का निर्णय भारत की शिक्षा व्यवस्था की वस्तुस्थिति का बड़ा ही सटीक वर्णन करता है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उत्तर-प्रदेश सरकार को आदेश दिया कि वे लोग जो सरकारी कोष से वेतन पाते हैं, अपने बच्चों का नाम सरकारी स्कूलों में लिखाएं।4 इस आदेश की सरकारी तंत्र खासतौर से नौकरशाही वर्ग ने इसकी तीखी आलोचना की। न्यायालय का यह निर्णय प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था को सुधारने के लिए अविस्मरणीय कदम था क्योंकि शिक्षा नीतियां बनाने एवं क्रियांवित कराने वालों के बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ते ही नहीं। जब इनके बच्चे इन स्कूलों में नहीं पढ़ते तो सुधार की बात सोंचेगे ही क्यों?5 शैक्षिक योजनाएँ क्रियांवित कराने के नाम पर दिखावा मात्र बनकर रह जाती हैं। इन लोगों को अपने बच्चों की चिंता तो निरंतर रहती है। उन गरीबों एवं किसानों के बच्चों को भूल जाते हैं, जो सरकारी प्राथमिक स्कूलों में अध्ययन कर रहे होते हैं। अगर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के इस निर्णय को ईमानदारी पूर्वक लागू कर दिया जाय तो जल्द ही सरकारी स्कूलों की शक्ल बदल जाएगी।
निष्कर्ष :
प्राथमिक शिक्षा बच्चों के विकास के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण एवम् शिक्षा की आधारशिला है, जिस प्रकार से एक मकान बनाने के लिए उसकी नींव का मजबूत होना आवश्यक है, ठीक उसी प्रकार बच्चे के उचित विकास के लिए प्राथमिक शिक्षा का होना आवश्यक है। भरत एक कृषि प्रधान देश है इसकी अधिकांश जनसंख्या गांवों में निवास करती है, इसलिए गाँवों को भारत की आत्मा कहा जाता है। ग्रामीण क्षेत्र के अधिकांश बच्चे सरकारी स्कूलों में ही पढ़ते हैं। वर्तमान में सरकारी विद्यालयों में शिक्षा की गुणवत्ता का स्तर निरंतर गिर रहा है और दूसरी तरफ शिक्षा का निजीकरण भी तेजी से हो रहा है जिससे कि निजी शिक्षण-संस्थानों की संख्या निरंतर तेजी से बढ़ती जा रही है। इन संस्थानों में शिक्षा बहुत ही महंगी है जिसके कारण गरीब बच्चे इनमें नहीं पढ़ पते हैं। अत: सरकार को अपने शिक्षण संस्थाओं में प्राइवेट स्कूलों की तरह शिक्षकों को जवाबदेही बनाया जाय। अनुपस्थित रहने वाले शिक्षकों के प्रति कठोर कार्यवाही की जाय और सारे स्कूलों की सी.सी.टी.वी. कैमरों से निगरानी की जाय। प्रत्येक शिक्षक और छात्र की डिजिटल उपस्थिति भी दर्ज की जाय।
संदर्भ :-
- गुप्ता एस.पी, आधुनिक भारतीय शिक्षा की समस्याएँ, शारदा पुस्तक भवन, इलाहाबाद,2007, पृ० 37
- शेखावत कृष्ण गोपल सिंह, शिक्षा के दार्शनिक आधार, तरुण प्रकाशन, जयपुर, 2008, पृ० 21-22
- भटनागर सुरेश, आधुनिक भारतीय शिक्षा और उसकी समस्याएँ, आर० लाल बुक डिपो, मेरठ, 2007, पृ० 71
- हिंदुस्तान समाचार पत्र, लखनऊ संस्करण, सम्पादकीय, जून 17, 2011
- वही, जुलाई 28, 2011