33.1 C
Delhi
होम ब्लॉग पेज 81

लौटना है फिलवक्त जहाँ हूँ-अनिरुद्ध उमट

0
C:\Users\admin\Desktop\10641249_747778581930238_5262565336712881072_n.jpg

 

C:\Users\admin\Desktop\10641249_747778581930238_5262565336712881072_n.jpgलौटना है फिलवक्त जहाँ हूँ

अनिरुद्ध उमट
ईमेल-anirudhumat1964@gmail.com

“कोई कवि यशः प्रार्थी कवि है या नहीं, इसे जाँचने की मेरे पास एक ही कसौटी है। यदि वह मुझ से कहता है कि मेरे पास कुछ महत्व की बातें है जिन्हें कहने के लिए मैं कविता करता हूँ, तो मुझे उसके कवित्व पर सन्देह हो जाता है। किन्तु यदि वह कहता है कि मैं तो शब्द का पीछा करता हूँ– शब्द पर कान लगाकर उसकी बात सुनने की कोशिश करता हूँ, तो मुझे यकीन हो जाता है कि हाँ, यह आदमी जरूर कवि बन सकता है।” 

-ऑडेन

किसी भी कला में आग्रह का अतिरेक अक्सर उस की सहज प्रकृति को भंग कर देता है. यह प्रकृति उस कला माध्यम के साथ के हमारे रिश्ते हमारी संलग्नता को प्रकट करती है. सृजन के क्षणों में अपनी बात को व्यक्त करने की तीव्रता के दबाव के चलते यह भी संयम आवश्यक होता है कि हम खुद उस माध्यम की ग्रहणशीलता और स्वायत्तता के प्रति भी विवेकवान रहें, उसके प्रति आवश्यक रूप से हम में सहज उदारता रहनी चाहिए. यह संतुलन ही कला और कलाकार के आपसी सम्बन्ध को वांछित रूप ग्रहण कर पाने में सबसे आवश्यक होता है. किसी कलाकार के सृजन में यह संतुलन कितना सध पाता है यह उसकी कृति से रूबरू होने पर प्रकट हो जाता है. अपने माध्यम के प्रति यह निष्ठा, धैर्य ही उस कलाकार को वयस्कता प्रदान करता है. ऐसी कला किसी भी समय में हमेशा अपनी अर्जित भूमि पर फलती रहती है. उसे किसी भी समय के बाहरी दबाव तब अपनी तात्कालिकता से प्रभावित नहीं कर सकते.

C:\Users\admin\Desktop\Anirudh_Umat_अनिरुद्ध_उमट.jpg

कोई भी कलाकार कला के इस आंतरिक, सहजावस्था के प्रस्फूटन के क्षणों में अपनी अनुभूति को कितना स्थगित रख पाता है, कितना किसी अव्यक्त को व्यक्त हो पाने का अवकाश अपनी कला में उपलब्ध करा पाता है, उसका यह बोध ही उसकी रचना में समग्रता से भिन्न-भिन्न रूपों में छवि पाता है. जितनी ही यह छवि नैसर्गिक होती है उतनी ही आत्मीय उसकी अनुभूति भी. जो ह्मारे संवेदन को उसकी गहराई में अपनी प्राकृतिक अवस्था में अंगीकार करती है.

पारुल पुखराज के पहले कविता संग्रह ‘जहाँ होना लिखा है तुम्हारा’ को पढ़ते हुए उस अव्यक्त को भाषा में रूपायित होते हुए देखा जा सकता है. इसे पढ़ते हुए हमारे मन में मौन  की लय और लय का मौन व्यापने लगता है. शब्द यहाँ वाहक भी है वहन भी. वे कभी खुद कुछ कहते हैं कभी कहने को सुनने में लीन हो जाते हैं.

भाषा को पारुल की कविताओं में अपनी तरह से व्यापने का अवकाश मिलता है जो इस मंशा का अपनी नैसर्गिकता में स्वीकार है कि कहने से अधिक कहने को सुनना है. दिखाने से अधिक दृश्य को खुद दृश्य होते रहने की आकांक्षा में घटित होने देना है.

अपनी सृजनात्मकता में ये कविताएँ चीजों को उनकी स्थिति से उनके मूल से विछिन्न नहीं करती बल्कि जैसी वे हैं उसी में कुछ और हो जाने की संभावना की प्रतीक्षा करती है. वे इसमें अपनी ओर से जाहिर होता-सा कोई हस्तक्षेप नहीं करती बल्कि अपने हर तरह के जतन को वे संकोच में अप्रकट होते देने में अधिक सहज रहती है.

यह उनकी काव्य प्रतिभा का बहुत महत्वपूर्ण पक्ष है कि उनके यहाँ बाहर को भीतर पर और भीतर को बाहर के अतिरेक में हावी नहीं होने दिया गया है. उनका स्वर अपनी रचना में पृथक से नहीं बल्कि उसके होने में ही खुद को घुला देता है. ऐसा करने के लिए निश्चय ही कवि में अपनी अनुभूति, संवेदना और माध्यम के प्रति गहरी निष्ठा का भाव आवश्यक होता है जो पारुल के काव्य कर्म में बेहद संजीदगी से निभाया जाता है.

‘प्रतीक्षा’ एक शब्द है जो इन कविताओं में अदृश्य रहते हुए कई-कई रंगों, रूपों, ध्वनियों में प्रकट होता है. हर क्षण की स्वायत्तता में वह अपनी हर बार पृथक ही छटा में, नियति, विडंबना, कामना, स्वप्न, मौन में प्रवेश करता है. उस क्षण के उस बसाव में वह नितांत अछूता, प्रथम प्रस्फूटन में खुद को होने देता है. जीवन के इस नितांत भीतरी अनुभव को उसके अपने ही अँधेरे में सीढ़ी दर सीढ़ी उतरने का आश्वासन इस कवि के यहाँ मिलता है. इसलिए वह अपनी आदिम नैसर्गिकता में उन्मुक्त हो शब्दों में व शब्दों के आसपास के मौन और राग में घुलने लगता है. जहाँ वह नहीं भी दिखता प्रतीत होता है वहां भी वह सांस थामे, अपलक मंद धडकनों के आवागमन में बैठा होता है. यह इस संग्रह की काया का मुख्य गान है, स्वर है- जो गहराती शाम में उठते धुंए सा आकाश में विलीन होने लगता है. कोई है जो अज्ञात है मगर उसका होना इस भाषा के अदीखे किसी स्थल में इस गान के विलम्बन में किसी कनात सा तनता जाता है. इस गान के उठते-बहते प्रवाह में अजाने से स्थल पलके खोलने लगते हैं.

3

किसके हाथ उठाते हैं कौर

कौन जीमता है

थाल से

अदृश्य

रसोई में

उमगती कंठ में

हिचकी

काँपता जल पात्र

 

वह अज्ञात है, अदृश्य है मगर वह है- प्रतीक्षा की देह लिए भिन्न-भिन्न रूपों, आवाजों में. प्रतीक्षा और अज्ञात एक जगह किसी एक क्षण में एक-दूजे में घुल जाते हैं और पृथक न रह एक देह में सांस लेने लगते हैं. यह देह में इस तरह एकल हो जीवन में उसका विचरना, रूप लेना, स्पर्श करना, सुनना, स्पन्दित होना, स्वप्न हो जाना, हिचकी में घुट जाना, बेसुध हो हर कुछ का अतिक्रमण कर जाना कला के ताल पर किसी बिसरे वृक्ष की छाया सा अपने सूने में भीगता-काँपता हमारे भीतर हमें पुकारता है. इस पुकार को खुद में महसूस करते हम देखते हैं कि उस एक क्षण में ही हम अपने स्व से कुछ संवाद कर पाए हैं. ऐसे संवाद को जो अक्सर पूरे जीवन में हमें अपने स्मरण में ही नहीं आता, न अपनी उपस्थिति में, न अपनी अनुपस्थिति में.

जाना है

जहाँ

हो रही मेरी प्रतीक्षा

लौटना है

फिलवक्त जहाँ हूँ

4

मुक्त होना

मुक्त करना है

उस अज्ञात की सुध में

वह बावड़ी का अँधेरा भी थी कहीं

‘अवकाश’ और ‘मौन’ वे दो और शब्द हैं जो पारुल की कविताओं में बसने पर हमें अपने जगत में उतरने का अवसर देते हैं. एक-दूजे में अपनी सम्पूर्ण सत्ता में स्थिर रहते ये दो शब्द एक-दूजे में प्रविष्ट होते हैं और काव्य में उनका वह प्रकट रूप नितांत प्रथम घटित के अनुभव में हमारे भीतर उतरने लगता है. भीतर के उस समस्त जाने-पहचाने भूगोल पर उसकी छाया पसरने लगती है और इसी दरमियान उसकी आवाज वह नहीं रह जाती जो ऐन इस क्षण से पूर्व थी.

विरह जो है वह विरह ही नहीं. कुछ और भी है. क्या है वह, इसे कविता किसी सरलीकृत सुविधा में नहीं देखती, न ही सुझाती है बल्कि उसकी समस्त भीतरी संश्लिष्टता में खुद गुंथती, उलझती है. कंटीली झाड़ी में किसी परछाई सी. पारुल के काव्य में जो है वह वह नहीं है वह कुछ और होने की संभावना में, असमंजस में, ठिठकता-झिझकता, संशय में लिथड़ा अपने से बाहर कभी-कभी झाँकने का उपक्रम करता है. और कभी इस उपक्रम के विपरीत अतल में यूँ धंसने लगता है कि जो नहीं है वह नहीं ही नही कुछ और भी हो सकता है, संभावनाओ की चट्टानों को दरकाता खुद को विस्फोट होने देता सा.

निषिद्ध

हैं कुछ शब्द

जीवन में

जैसे कुछ

जगहें

5

अंधी कोई

बावड़

जैसे

सिसकी अधूरी

सूना

आकाश

व्यक्त हो जिनमें तुम

जहाँ होना लिखा है तुम्हारा

कवि आलोचक रमेशचन्द्र शाह के शब्दों में, ‘जीने का आस्वाद ही नहीं जीने का सबब ढूँढने की बेकली से प्रेरित पारुल की कविताओं के बारे में कहना कठिन है, कि यहाँ राग की खींच ज्यादा प्रबल है, या कि विराग की? राग और विराग दोनों के मेल-अनमेल से ही अपना रूपाकार रचती और पाती हैं ये कविताएँ.’ अपने उपलब्ध अति आग्रही यथार्थ और समय के मध्य स्थित कवि के भीतर कोई गहरी सांस्कृतिक समृद्धि की ठोस भूमि है जो उसे तुमुल कोलाहल या अतिरेक से बचाए मन की बात में अवस्थित रहने देती है. अपनी भाषा के वैविध्यपूर्ण अतीत और उसके गहरे संस्कार उसे विचलित होने से बचाए रखते हैं. किसी भी तरह की चकाचौंध से अविचलित यह काव्य अपनी जड़ों की गहराई और वहाँ से ग्रहण किए जाते जीवन रस से विकसित होता है. उसके यहाँ जीवन अपनी सघनता और सतत नैरन्तर्य में सूक्ष्मता से अनुभव की प्रगाढ़ता को ग्रहण करता है. उसके संशय, उसके आश्चर्य, उसकी स्तब्धता उसके काव्य की प्राण शक्ति है. यह हर दृश्य से तादात्म्य हो जाने की बजाय दृष्टा भाव में प्रतिष्ठित होते जाना किसी योगी की चरम सिद्धि से पृथक नहीं.

प्रीत करेगा

छुएगा नहीं

उदासी

निःशब्द

गुजर जाएगा

एकांत से

बिना फेंके

अपनी आवाज का

कंकर

मौन में

तुम्हारे

खिलाता है परिचय

अपने ही अपरिचित मन से

मौन

कहीं जोग है

कहीं तप

कहीं

रास साधक का

8

रचा कुछ भी जा सकता है

आत्माओं के मौन में

अनुभव को उसकी शाब्दिक देह से बाहर ले आ उसे उसकी निरावरण दैहिकता में कुछ क्षणों के लिए अवाक होने देना और खुद ही की देह को स्पर्श कर पाने का निसंकोच धरातल दे पाना किसी भी रचनाकर्म की दीर्घ यात्रा के बाद का ही पड़ाव या विराम स्थल होता है. एक ऐसी यात्रा जिसमें आप यात्री नहीं खुद यात्रा होने में घटित होने लगें. वहाँ सब कुछ होता है, किन्तु सब कुछ न होने की भी नियति में खुद को विलीन होते स्वीकारता वह अपनी मंथरता में प्रगाढ़ प्रवाह की देह लिए किसी चरम बिंदु में अंततः समाहित हो जाता है.

जीवन के हाहाकार में आवाज के बियाबान में पारुल की कविता में कोई दाना दाना पाप चुगता है.जहाँ ‘पुकार’ अपने होने बल खाती देखती है कि-

खोजना

याद करना है

याद करने पर

याद करने की आवाज

नही होती

एक ऐसी बंजर नींद इन कविताओं अपनी जाग में विकल है जिसमें कोई एक भी ऐसा स्वप्न नहीं जिस पर जीवन का दाँव खेला जा सके, जहाँ ‘दुःख/क्षण भर भी/ हरा रहता नहीं’. पारुल की कविताओं में शब्द आते हैं पर ऐन किसी क्षण अपने आने को स्थगित करते लगभग विस्मृत हो चुके स्थल की चुप्पी को अपने स्वर में उभरने का अवसर देते हैं. इन कविताओं में ‘कोरी रह गई डूब’ का अहसास अपने घने एकांत में हरा होने लगता है. उनकी कविता बुदबुदाती है कि, ‘ढांप पलकें / सदियों की जाग पर / हरा एकांत / मेरा / और हरे.’ जिसमें ‘खुलते संकोच के धागों में / आहिस्ता-आहिस्ता / आवाज की गिरह भी ढीली पड़ती है’. उनकी कविता के व्योम में ये पंक्तियाँ गूंजने लगती है-

नदी की धार पर विशाल बजरा

तन उसका

मध्य रात्रि

जिसके पाल खुल कर हवा में सरगोशी कर रहे थे

उस

बेला

 

…….

…….

उस अज्ञात की सुध में

वह बावड़ी का अँधेरा भी थी कहीं

अपने होने की विकलता और उसका अवगुंठन कला में किसी आजीवन प्रतीक्षित क्षण में अपना स्वर, रूप ग्रहण करने की तरलता महसूस करने लगता है. ‘उस बेला वह कुछ भी हो सकती थी’ सरीखी पंक्ति लिखने में, न लिखने में अपना आप खुद लिखती है. इन कविताओं में जहाँ, जिसका, ‘होना’ लिखा है की नियति को अपने निर्जन और अतल में विकसने का अवकाश उपलब्ध है. वे प्रार्थना करती हैं कि, ‘हे प्रभु / विचरने दो इच्छा के देवालय में / निर्भय उसे.’ कामना, स्वप्न, राग, स्मृति के छोर यहाँ एक बिंदु पर उस देह का भेद मिटाते एक दूजे में घुल जाते हैं.

पीठ पर लिए कब से चल रहा कोई

अथक

किसी का स्वप्न

समापन बिंदु किए अदेखा निरंतर

१०

गतिमान

पृथ्वी के अंतिम छोर तक

सुर साधे

शिथिल पाँव

निश्चित है उसकी अनूठी यात्रा

पीठ पर जिसकी किसी अन्य के स्वप्न का भार

यह ‘पीठ’ किसी और की नही खुद कला ही वह रूप है. जो कलाकार के सुर साधने पर वांछित रूप में रूपायित हो जाती है. हिंदी कविता में ऐसा बहुत कम देखने में आता है जहाँ खुद कवि के पास कहने, जताने के अपने आग्रह के आधिक्य में यह स्मरण कहीं पीछे छूट जाता है कि खुद भाषा के समीप मौन बैठना भी स्वयं में एक पूर्ण अनुभव होता है. ऐसे ही अनुभव के क्षण हेतु कवि-आलोचक नन्दकिशोर आचार्य का कथन याद आता है कि. ‘कविता मूलतः संवेदनात्मक या अनुभूत्यात्मक अन्वेषण होती है…कविता की सार्थकता किसी विचार में घटा दिए जाने में नहीं, बल्कि अपने ग्रहीता को चेतना की उस भूमि पर लाने में है, जिसमें कोई भी अनुभूति स्वयं ही अपना अर्थ होती है.’

पारुल पुखराज का यह संग्रह अत्यंत वाचाल, राजनीतिक आग्रहों के घटाटोप में रचनात्मकता के प्रति स्वयं के होने को समर्पित होने में सार्थकता तलाशता एक संकोची कदम है. जोसेफ ब्रोड्स्की ने कभी कहा था कि ‘स्मृति विस्मृति की संगिनी है’. ये कविताएँ उस संगीनी के संग छाया-सी चलती हैं और किसी मध्य के सेतु को तलाशती है जिस पर से गुजरते उसे सदियों से जब्त रूदन का बे-आवाज फूटना दिखता है. अक्सर कला में कहने का आग्रह अपने निराग्रही रूप से अपरिचित रह जाता है. इन कविताओं का ‘कहना’ अगर कुछ ‘कहता-सा दिखता है’ तो पाठ के समय व उसके पश्चात के दीर्घ स्मरण में वह दिखना भी रचनाकार की विवशता जान पड़ता है, शब्दों और कवि के साथ ये अजीब नियति-

११

यातना होती है कि वे कहने के लिए बने होते हैं पर अक्सर वे अपने इस होने का भार त्यागना चाहते हैं. पारुल की कविताओं में यह महसूस होता है कि जैसे कहना भी कोई विवशता है, यदि कवि के राग में ऐसा कोई ईश्वरीय क्षण संभव होता हो जहाँ इसे भी न कहा जा सके तो वे उतना भी न प्रकट करें.

समीक्षक पता: माजी सा की बाड़ी,

राजकीय मुद्रणालय के समीप,

बीकानेर ३३४००१

कविता संग्रह- ‘जहाँ होना लिखा है तुम्हारा’

लेखक- पारुल पुखराज

प्रकाशक- सूर्य प्रकाशन मन्दिर, बीकानेर

वर्ष- २०१५

मूल्य – १५० रुपये

 

 

 

 

तूने सबकुछ ही दिया है जिन्दगी : ग़ज़ल कविता सप्तक (साझा संग्रह)-समीक्षक :एम.एम. चन्द्रा

0

तूने सबकुछ ही दिया है जिन्दगी : ग़ज़ल कविता सप्तक (साझा संग्रह)

समीक्षक :एम.एम. चन्द्रा


​नए रचनाकारों को लेकर हमेशा से ही छींटा-कसी , उठा-पटक का दौर चलता रहा है लेकिन सृजन की जमीन से जुड़ा रचनाकार समय के साथ हमेशा अपने  को परिष्कृत करता हुआ आगे बढ़ता है. जिसने अपने समय को नहीं पहचाना वह स्वयं  ही विदा हो जाता है  लेकिन जिनके रचनाएं अपने समय का प्रतिनिधित्व करती है. उनको हर युग में गया  याद किया जाता है.नवीन कविता ग़ज़ल सप्तक भी एक ऐसा ही संकलन है जो हमारे समय के  विभिन्न रचनाकारों को पाठक के सामने लाता है

 ‘पार्वती प्रकाशन’ इंदौर से प्रकाशित सप्तक सिरीज की पुस्तक कविता ग़ज़ल ( सप्तक )  भी मुझे एक प्रयोग से कम नहीं लगी जिसमें सामूहिक रचनाकर्म सामुहिक प्रकाशन. वैसे भी यह प्रयोग कोई नया तो नहीं है. लेकिन प्रकाशक ने भी एक प्रयोग किया है. नव रचनाकारों ने सप्तक में निर्भय  होकर सर्जनात्मक पहल करने का साहस करके, एक अलग पह्चान बनाने की सफल कोशिश की है.

word image

‘ ग़ज़ल-कविता सप्तक’ के प्रथम रचनाकार ‘श्रीश’ अपनी गजलों द्वारा मानवीय संवेदना में आई गिरावट का बारीकी से मुआयना करते हुए  मुकम्मल गजल कहते हैं. इसिलए किसी भी नए रचनाकारों को पढ़कर मुझे उत्साह मिलता है. साथ ही इस बात पर बल मिलता है कि नए रचनाकार बदलते समाज को देख रहे हैं और उन चुनौतियों को पाठक वर्ग के सामने ला रहे हैं.

मासूम बेगुनाहों के सीने पे गोलियां,

सुनकर के उनकी आह कैसे बेअसर हुए.

मृणालिनी घुले की गज़लें पाठकों को उजालों की तरफ इशारा करती हुई धुंध को साफ करके,  घने काले स्याह रंग को अपनी  गजलों से रोशन कर देती है.

जो किया अच्छा किया है जिन्दगी

तूने सबकुछ ही दिया है जिन्दगी ……

रातें तो हमारी भी हो रोशन

गर एक सितारा मिल जाये…………..

हो गयी है शाम चरागों को जलालो पहले

गीत बन जायेगा साजो जो मिला लो पहले ….

 राम कृष्ण श्रीवास्तव जी की कविताएँ सामाजिक सरोकार के ताने बाने में रची बसी छंद मुक्त कविताएँ हैं जो गैर  बराबरी  पर आधारित व्यवस्था को चुनौती ही नहीं देती बल्कि पाठको को सामाजिक सरोकार तक ले हुए भी  अपने कार्यभार को चिन्हित करती है. इनकी कवितायें वैचारिक दृष्टि से काफी उन्नत है जो पाठक को उद्वेलित करती है-

चलना है मुझे अपनी ही जमीन पर

जैसी भी हो ऊबड़ खाबड़ पथरीली

गड्ढे वाली …

अकेलापन खुद को खुद से ,

सिखाता है प्यार करना ———

भीड़ में खड़ा व्यक्ति भले ही भ्रम में रहे

सूरज फिर भी सूरज है

सबको जीवन देते हुए भी

वह कितना अकेला है

नितांत अकेला ……

और हो भी क्यों न

जो दूसरों के लिए जीते हैं

अपने लिए पाते हैं

सदैव अकेलापन …..

उमा गुप्त की कविताएँ परम्परावादी मूल्यों को तोड़ती हुई नई पीढ़ी का आवाहन करती है . अनंत आकाश में  खुली हवा जैसा अहसास कराती है कि  अपने पंख फैलाओ बिना डरे, दिन हो या रात विचरण करो , कठिनाइयों का सामना करो, ये दुनिया तुम्हारी है….

तुम शक्ति को  पहचानो अपनी,

जो उचित है आवश्यक है , सत्य है

बस वही है मात्र सहारा

फिर देखो होगा , आज तुम्हारा

और कल भी तुम्हारा

मनोज चौहान पिछले एक वर्ष से  मीडिया में अपनी जगह बनाए में कामयाब हुए है यह भी पिछले कई वर्षों से साहित्य समाज में हो रहे नये परिवर्तन का नतीजा है.जिससे नए रचनाकारों का उद्भव हुआ वरना हम कभी भी मनोज चौहान जैसे रचनाकारों से हमेशा अनजान रहते.

 मनोज चौहान की रचनाएं, व्यक्ति के अंतर्मन के द्वंद्व  को पाठक के सामने प्रस्तुत करती है. कविताएँ समय और व्यक्ति के द्वंद्व को उकेरती हुई  अपने से संवाद और संघर्ष करती है. अधिकतर रचनाएं  एक आदमी की आशा, निराशा, चुनौतियाँ, संवेदनाएं , उसका अलगाव, जैसी  तमाम अभिव्यक्तियों को पाठक तक पहुंचती है-

झनझनाहट के साथ

थम जाता है

फिर उफान

में लौट आता हूँ

पुनः

उसी जगह !

एक तरफ वंदना  सहाय के हायकू चुटीलापन, व्यंग्यनुमा और तीखापन लिए हुए तीन लाइना है, जो एक सम्पूर्ण कथन कह जाते हैं जो गागर में सागर भर देने जैसी कहावत को चरितार्थ करती है-

कैसे ये नेता

कुर्सी से करें वफा

देश से जफा.

वहीँ दूसरी तरफ डॉ. सोना सिंह गंभीर से गंभीर राजनीतिक, वैचारिक, सांस्कृतिक समस्या चिह्नित ही नहीं करती  बल्कि उन सब का समाधान भी खोजती है-

टोपी पर क्रांति से लिखने से

नहीं आयेगी क्रांति, उसके लिए

दुनिया बदलो

दुनिया बदलनी है तो खुद

पहले सोच को बदलो

 

हरिप्रिया की कविताएँ प्रेम की कविताएँ हैं . उन्होंने प्रेम के विभिन्न पक्षों , संबंधों , विसंगतियों, अहसास व्यक्त और अव्यक्त प्रेम की अभिव्यक्तियों का चित्रण बेबाकी से करती हैं. उनकी कविताएँ एक तरफ प्रेम का संदेश देती हैं, तो दूसरी तरफ जो प्रेम नहीं है, वे अभिव्यक्तियां भी पाठक के सामने आती हैं-

उनके नाम थे

प्रेमी… प्रेम आकाश … प्रेम सिंह.. प्रेमनाथ

प्रीति… स्नेहा… प्रेमा…

लेकिन वे अपने नाम के विपरीत

बाँट रहे थे नफरत

जहाँ ढूंढ़ा प्रेम वह वहाँ नहीं था

जब भीतर ढूंढ़ा उसे

 

 पुस्तक :गजल कविता सप्तक (साझा संग्रह )

संपादक :जितेन्द्र चौहान

प्रकाशक :पार्वती प्रकाशन, इंदौर

कीमत :100

 

 

हिंदी कहानी संग्रह : आत्‍माएँ बोल सकती हैं (डॉ. ललित सिंह राजपुरोहित)-समीक्षक: सुश्री डेल्‍सी एलिजाबेथ

0

पुस्‍तक समीक्षा

word image 1 कविता संग्रह प्रकाशित होने के बाद डॉ. ललितसिंह की दूसरी पुस्‍तक का नाम है ‘’आत्‍माएँ बोल सकती हैं।‘’ यह एक कहानी संग्रह है, पुस्‍तक के नाम से ऐसा लगता है जैसे ‘भूतहा दुनिया’ में ले जाने वाली कोई किताब। मगर, ऐसा नहीं है, इस पुस्‍तक में 14 कहानियों को समेटा गया है। कहानियॉं जो हमारे आसपास के संसार को बुनती है। डॉ. मुंशी प्रेमचंद्र की कहानियों के चर्चित होने का मुख्‍य कारण था उनकी कहानियॉं तत्‍कालीन सामाजिक परिवेश से जुड़ी होती थीं और कहानियों के पात्र भी समाज के प्रतिबिंब होते थे। ‘’आत्‍माएँ बोल सकती हैं‘’ पुस्‍तक की सभी कहानियॉं आज के समय में समाज का आइना दिखाती हैं। इन कहानियों के पात्र वे लोग हैं जो हमारे आस-पास रहते हैं। पाठक, कहानियों के साथ अपना तादात्‍मय पाते हैं।

पुस्‍तक हाथ में आते ही सबसे पहले दिमाग में प्रश्‍न आया कि पुस्‍तक का नाम‘’आत्‍माएँ बोल सकती हैं‘’ क्‍यों रखा गया है? शायद पाठकों को आकर्षित करने लिए..! लेकिन सभी कहानियों को पढ़ने के बाद पता चलता है कि लेखक अपने पात्रों को एक आत्‍मा मानकर चलता है जो प्रत्‍येक कहानी में अपने अनुभवों को पाठकों के साथ साझा करती दिखायी पड़ती है। इसलिए पुस्‍तक का नाम ‘’आत्‍माएँ बोल सकती हैं‘’ सार्थक प्रतीत होता है।

हिंदी कहानी संग्रह ‘’आत्‍माएँ बोल सकती हैं‘’ की टैगलाइन बाहर की दुनिया देख, मन के भीतर उपजती नई कहानियाँ सो फीसदी सटीक है। समाज और आस-पास घटने वाली घटनाओं को केंद्र में रखकर रची गई कहानियों की विशेष बात यह है इनकी भाषा शैली सरल है जो सीधे पाठक के मन में उतरती है। लेखन में नई विधा का प्रयोग है, यह पाठक के स्‍वाद पर निर्भर करता है कि वे इस विधा को रुचिकर लेते हैं या अरुचिकर। ये कहानियाँ किसी एक पाठकवर्ग के लिए नहीं बल्‍कि यह हर उम्र के पाठकवर्ग के लिए रची गई हैं, जो पाठक नई कहानियाँ पढ़ना चाहते हैं और नई कहानियों की तलाश में हैं, उनके लिए यह पुस्‍तक उपयुक्‍त और बजट में भी है।

हिंदी कहानी संग्रह : आत्‍माएँ बोल सकती हैं

लेखक : डॉ. ललित सिंह राजपुरोहित

प्रकाशन : ब्लूरोज पब्लिशर्स, नई दिल्‍ली

कीमत : 149रु. पृष्‍ठ सं. 154

समीक्षक

सुश्री डेल्‍सी एलिजाबेथ

मलवली ग्राम, मैसूरु, कर्नाटक

(9071183980) 

समीक्षा/ जिंदगी की जद्दोजहद और दुश्वारियों का आईना है उपन्यास ‘मैं शबाना’-फारूक आफरीदी

0

समीक्षा/ जिंदगी की जद्दोजहद और दुश्वारियों का आईना है उपन्यास ‘’मैं शबाना’’

-फारूक आफरीदी

मुस्लिम परिवेश और उसमें भी महिलाओं की स्थिति को लेकर हिंदी उपन्यास यों तो पहले भी खूब लिखे जाते रहें हैं किन्तु युसूफ रईस का ताजा उपन्यास ‘’मैं शबाना’’ मुस्लिम औरत की जद्दोजहद भरी जिंदगी से सीधा रूबरू कराता है। यह रईस का पहला ही उपन्यास है लेकिन इसकी भाषा शैली, कथ्य और शिल्प से ऐसा नहीं लगता कि वह किसी स्तर पर कमजोर है।

शबाना इस उपन्यास का मुख्य किरदार है और सारी कथा इसके इर्दगिर्द ही घूमती दिखाई देती है।इसकी कथा को कुछ इस तरह बुना गया है जिसके जरिए मुस्लिम स्त्रियों के अधिकारों पर कुठाराघात, उनके प्रति समाज के गैर जिम्मेदार और उपेक्षापूर्ण रवैये और सामाजिक सोच को बखूबी समझा जा सकता है।उपन्यासकार ने इसे आज के तीन दशक पहले के हवाले से रचते हुए मौजूदा दौर तक ला खड़ा किया है।

51piWCT1QLL. SR600315 PIWhiteStripBottomLeft035 SCLZZZZZZZ FMpng BG255255255

शबाना एक अच्छे खासे खाते-पीते जागीरदार परिवार की महिला है।उसकी तालीम और परवरिश भी उसी के अनुरूप हुई और व्यस्क होने पर एक बराबर के ही खानदान के नौजवान असलम से उसका निकाह हो जाता है । वह अपने होने वाले शौहर और उसके खानदान के बारे में पहले से कुछ नहीं जानती । शादी से पहले वह अपनी माँ से सवाल पूछती है- ‘’मैं जिस घर में जा रही हूँ, वहां के लोग कैसे हैं ? क्या मुझे ये जानने का हक़ नहीं था ? आपने मेरे हक़ में बेहतर ही किया होगा लेकिन मैं कोई बेजान खिलौना तो नहीं;जिसे आप सजा कर जिसे चाहें सौंप दें?’’ माँ जवाब देती है- ‘’ये औरतों की बदकिस्मती है कि वो अपनी जिंदगी का कोई फैसला नहीं कर सकती है।‘’ शबाना का शक सही निकलता है क्योंकि ससुराल पहुँचने पर उसे पता चलता है कि जिससे उसका निकाह हुआ वह शख्स किसी दूसरी लड़की से मोहब्बत करता है मगर उसकी मर्जी को तवज्जो देने का तो वहां कोई रिवाज ही नहीं था। सुहागरात के दिन से ही उसके और शबाना के बीच दांपत्य जीवन के वे तार नहीं जुड़े जिनकी दाम्पत्य जीवन की नींव में जरुरी दरकार होती है। इससे शबाना बिलख पडती है किन्तु उसने प्रण कर लिया है कि वह एक दिन असलम का दिल जीतने में कामयाब हो जाएगी।उसे अपनी फूफी जान की यह बात याद आ गई कि ‘’मर्द भले ही दिन भर काबू में ना आए लेकिन बिस्तर पर उसे शीशे में उतारा जा सकता है।’’ मगर उसे वह तरकीब मालूम ना थी। संयोगवश इन कोशिशों के बीच शबाना की माँ के दुर्घटना के हादसे ने दोनों को एक दूसरे के करीब लाने में मदद की जिससे दोनों में मोहब्बत के पुष्प पल्लवित होने लगे। माँ की दुर्घटना के दौरान ही शबाना को अपने और पराए के बीच के रिश्तों की पहचान होती है । घर में उसके मूक बधिर छोटे भाई जुबैर की देखभाल करने को लेकर चिंता और गहरी हो जाती है । एक भाई अपनी पढाई में मशगूल है ।ऐसे ही समय में शबाना अपने ससुराल की एक अजब कहानी से भी रूबरू होती है। असलम, उसके पिता और बड़े भाइयों में आपस में सदभाव का कोई रिश्ता ही नहीं है। सब अपने-अपने फायदों के लिए जी रहे हैं। सब एक बड़ी हवेली में तो जरूर रहते हैं लेकिन उनके दिलों में अप्रत्यक्ष दीवार खींची हुई है।किसी का भी एक दूसरे से सलाम दुआ के अलावा कोई वास्ता नहीं है। शबाना की चूंकि सास नहीं है इसलिए उसके ससुर ने ही बहुओं को रसोई की जिम्मेदारी बाँट रखी है और वे ही तमाम फैसलों के खुद मुख़्तार हैं। ऐसे में शबाना अपने ससुराल में ‘’उस गुलदान की तरह थी, जो घर के एक कोने में नुमाइश के लिए तो रखा जाता है, लेकिन उसमें कभी फूल नहीं सजाए जाते हैं।‘’

शबाना को अपनी जेठानी के जरिये यह बात मालूम होती है कि उसके सबसे बड़े जेठ जुल्फिकार चरित्र के मामले में हद दर्जे तक गिरे हुए एक गलीच किस्म के इन्सान हैं और अपनी ही साली तक को हवश का शिकार बना चुके हैं, जिसने बाद में आत्म हत्या कर ली और इसके बाद उनकी पत्नी उन्हें छोड़कर हमेशा-हमेशा के लिए उनकी जिंदगी से जा चुकी है। यह सुनकर शबाना बुरी तरह घबरा जाती है । वह जब दुल्हन बनकर हवेली में आई तभी से जुल्फिकार उस पर बुरी नज़र रखने लगे, लेकिन वह उससे बचने की हर चन्द कोशिश करती रही ताकि कोई अनहोनी ना हो जाए। सब कुछ पटरी पर चल रहा होता है और उसको पहला बच्चा भी हो जाता है किन्तु शबाना की किस्मत को कुछ और ही मंजूर था और एक दिन अचानक मौका पाकर जुल्फिकार अपनी अश्लील हरकत कर बैठता है ।शबाना इस घटना के बाद भीतर तक आहत हो जाती है । सौहर असलम ने जब यह किस्सा सुना तो वह अपने भाई की जलील हरकत पर इतना आग बबूला होता है कि काटो तो खून नहीं लेकिन शबाना उन्हें ऐसा कोई कदम उठाने से रोक लेती है जिससे उनकी रुसवाई हो। इस घटना के बाद जुल्फिकार घर से नदारद हो जाता है। इस स्थिति में दोनों अगले ही दिन हवेली छोड़ने का फैसला कर लेते हैं । अन्य व्यवस्था होने तक असलम अपनी पत्नी शबाना को उसके पिता के घर छोड़ आते हैं और किराये का घर तलाशने निकल पड़ते है। वे घर तलाश भी कर लेते हैं लेकिन वह इतना जर्जर होता है कि उसमें दाखिल होने से पहले ही छज्जे से गिरकर उनकी मौत हो जाती है। इस तरह शबाना पर यह दूसरा पहाड़ टूट पड़ता है। इसके बाद तो शबाना के लिए जैसे क़यामत ही आ गई।

उपन्यास की भाषा, शैली, कथ्य और शिल्प को लेकर कहा जा सकता है कि उपन्यासकार ने बहुत सावधानी बरती है। भाषा की रोचकता इतनी प्रभावी बन पड़ी है कि पाठक एक बार पढ़ना प्रारम्भ कर दे तो उसे बीच में छोड़ना नहीं चाहेगा। उपन्यास इस खूबी से भरा हुआ है कि पाठक की उत्सुकता निरंतर बनी रहती है कि उसमें आगे क्या होने वाला है। उपन्यास की एक विशेषता यह भी है कि वह अनुमान नहीं लगा सकता कि उसका अंत कैसे और कहाँ होगा अन्यथा कई फिल्मो को देखते हुए या उपन्यासों को पढ़ते हुए यह अनुमान लगाया जा सकता है कि कहानी अब क्या मोड़ लेने वाली है। उपन्यास चूँकि मुस्लिम परिवेश से जुडा हुआ है तो स्वाभाविक है कि मुस्लिम समाज के रीति रिवाजों और संस्कारों से भी परिचित कराता है। इस उपन्यास में नायिका को लेकर कई मोड़ आते हैं जो उसकी त्रासदी से जुड़े हुए हैं। यह उपन्यास मूलतः नायिका के विषादों और आंसुओं की गाथा है जिसमें खुशियों के पल तो कभी कभार रेगिस्तान में बारिश की आंधी भरी बूंदों की तरह आते हैं।उपन्यास की नायिका के जीवन में दुखों के पहाड़ ही पहाड़ खड़े हैं। जीवन में कहीं यदि नदियाँ हैं भी तो वे भी एकदम सूखी हुई हैं । नायिका की बागडोर ऊपर वाले के हाथ में है और उसे संघर्षों से निरंतर जूझते हुए दरिया को पार करना है। कभी-कभी उसे किसी तिनके का सहारा भी मिल जाता है जिसकी वह कल्पना भी नहीं कर सकती।उसे अपनी अस्मिता को बचाए रखने के लिए पग-पग पर इम्तहान से गुजरना पड़ता है।उसके लिए ना कोई रिश्ते हैं ना नाते। जीवन में उसे शून्य बिंदु से आगे बढ़ना है और जीने के लिए खुद ही को नए रिश्ते गड़ने हैं। हर मोड़ पर उसे एक अंधी गली से गुजरते हुए अपनी मंजिल तलाश करनी है। उसे अपनी बदनसीब जिंदगी को नसीब में बदलने की आकांक्षा के साथ बिना थके एक तपते हुए रेगिस्तान में मीलों चलना और अपना बिना किसी मार्गदर्शक या सहारे के अपना गंतव्य तलाशना है। नायिका कई बार टूटती-बिखरती है। अपने वुजूद को मिटाकर समाज की दर-दर ठोकरें खाने और फिर संभलते रहना ही उसकी नियति है। उसे अपनी जिन्दगी से कोई प्यार या लगाव नहीं रह गया है अपितु वह अपने दो बच्चों के भविष्य को संवारने के यज्ञ में आहुति दे रही है। उसकी जीवटता और जिजीविषा ही उसे जिन्दा रखे हुए है। वह हारती नहीं है जबकि जिंदगी और समाज उसे पल-पल हराने की हौड़ में लगा हुआ है।जिंदगी के खौफनाक हादसे शायद उसका हर वक्त इम्तहान लेते रहते हैं किन्तु वह हर बार लडखडाती हुई उठ खड़ी होती है। उसने अपने सारे सुखों को एक गठरी में बांधकर मानो समंदर में फेंक दिया है।

‘’मैं शबाना’’ का एक दर्दनाक पहलू यह भी कि है जब पिता के चाहने पर अपनी विधवा पुत्री को वे अपनी जमीन जायदाद का एक चौथाई हिस्सा देना चाहते हैं तब सगा भाई कदीर और भाभी ताहा उसके दुश्मन बन जाते हैं और दबाव बनाकर उस दुखयारी बहन से अपना हक़ छोड़ देने के कागजातों पर दस्तखत करवाकर उसे घर से बेदखल तक कर देते हैं । अपने ससुराल हारी और धक्के खाने के बाद उसे अपने उस घर से भी निकाल दिया जाता है, जहाँ वह पैदा हुई,पली-बढ़ी हुई और ससुराल गई। इससे बड़ा सदमा एक औरत के लिए और क्या हो सकता है। यह सदमा भी उसने रोते बिलखते झेला लेकिन किसी को उसक हालत पर रत्ती भर तरस नहीं आया। अपने पिता और भैया भाभी के होते हुए भी उसे फिर एक अँधेरी गुफा की तरफ बढ़ना पड़ा जहाँ उसके सामने कोई राह नहीं थी। जिंदगी की उधेड़बुन में वह बिना कुछ सोचे समझे एक ट्रेन में चढ़ जाती है जिसमें हाथ की कारीगर कुछगरीब परिवार की देहाती महिलाएं सफ़र कर रही होती हैं । शबाना उन्हीं के बीच संवाद बनाकर अपनी जिंदगी की अगली राह चुनने लगती है।वह अपने सारे अरमानों को यादों की संदूक में कैद कर एक साधारण मजदूर बनकर उनके साथ रहने लगती है, जिसमें उन अनपढ़ और गंवाई महिलाओं का उसे भरपूर सहयोग मिलता है। यहीं उसे अकेले जीने का बड़ा हौसला मिलता है। यहीं उसे इस बेदर्द दुनिया से अपनी भाषा और शैली के साथ अपना जीवन जीने का सलीका मिलता है। अंतत वह एक स्लम बस्ती में अपना डेरा डाल कर अपने बच्चों की परवरिश करने लगती है।उसने यहाँ रहकर फिर पलटकर कभी अपनी पिछली जिंदगी की ओर नहीं झाँका। अभावों की जिंदगी को ही वह अपनी ताकत लेती है।

एक बार नायिका अपनी बेटी के गंभीर रूप से बीमार हो जाने पर उसका जीवन बचाने और इलाज के लिए अपने जीवन का सौदा तक करने को भी राजी हो जाती है, हालाँकि उसके साथ ऐसा वैसा हादसा नहीं होता है जिसकी कल्पना करना औरत लिए भयावह है। बावजूद इसके उसके द्वारा हाँ कहना ही उसकी जिंदगी का नासूर बन जाता है जिसकेके पश्चाताप की आग में जलते हुए वह अपनी जवान युवती के लिए मौत का फंदा बन जाती है। यह उसके जीवन की सबसे घातक और दर्दनाक और जीवन भर सालते रहने वाली घटना के रूप में सामने आती है जो उसके जीते जी अवसाद भरी है। यह ऐसी दुर्घटना है जो उसको हमेशा के लिए किसी अंधे कुए में धकेलने जैसी साबित होती है। नायिका ने अपने बच्चो के भविष्य को लेकर जिन अरमानों के साथ जिंदगी की लम्बी जंग लड़ी, बिटिया को पढाया-लिखाया और जवान किया उसके हाथ पीले नहीं कर सकी और हमेशा के लिए उसे खो दिया। जिंदगी भर जो औरत वह बड़े से बड़े और कड़े से कड़े इम्तहानों में पास होती रही वही अपने आखिरी इम्तहान में हार गई।

यह उपन्यास आज के समाज के नंगे सच को बयान करता है। इस नंगे सच से मुस्लिम समाज की अनेक शबानाएं ही नहीं बल्कि भारतीय समाज की अन्यानेक औरतें भी इन्हीं हादसों से गुजरती हैं। समाज भले ही आधुनिकता का दावा करे किन्तु औरतों के प्रति हमारी धारणाएँ आज भी बहुत अधिक नहीं बदली हैं। महिलाओं के हितों पर आज भी जबरदस्त कुठाराघात होता है जिसका खामियाजा उनके मासूम और बेकसूर बच्चों को भी भुगतान पड़ता है। हमारे सारे नियम भले ही महिला और बाल अधिकारों की वकालत करते हों, लेकिन उनको वास्तविक अधिकारों की प्राप्ति अभी भी दूर की कौड़ी है। समाज में बदलावों की गति अभी भी बहुत मंथर है।ऐसे में पीड़ित महिलाएं या तो अपनी जीवन लीला समाप्त कर लेती हैं या नारकीय जीवन जीने को विवश हैं। पुरुष सत्तात्मक समाज का घिनौना चेहरा इस उपन्यास में साफ साफ नज़र आता है।

उपन्यासकार युसूफ रईस ने ‘’मैं शबाना’’ के जरिये समाज के रीति रिवाजों की बजाय मनुष्य के चेहरे के पीछे छिपे चेहरे को बेनकाब करने की कोशिश की है । इन अर्थों में यह उपन्यास झकझोर देने वाला है। यह उपन्यास इन मायनों में भी महत्वपूर्ण है कि इसमें कहानियों का कोई गुम्फन भर नहीं है बल्कि नायिका को केंद्र में रखकर आगे बढ़ता जाता है और समाज के ओछेपन, टुच्चेपन, स्वार्थ, अहंकार और हीनता की परत दर परत खोलता है। यह उपन्यास सम्पूर्ण समाज को निश्चय ही उद्वेलित करेगा और पाठक इसका ह्रदय से स्वागत करेंगे।

शबाना एक थकी हारी महिला के रूप में अपनी जिंदगी से निहत्थी रहकर अकेली लड़ाई लड़ती हुई प्रतीत होती है। ‘’मैं शबाना’’ जीवन से हारी हुई एक बेसहारा औरत उथल-पुथल और संघर्ष भरे जीवन की अमर गाथा है जो हारकर भी जीती है। उसकी हार समाज और व्यवस्था की हार नहीं बल्कि उस पर एक तमाचा है।यह एक यथार्थपरक उपन्यास है जो पाठक को बार-बार रुला देता है और यही इसकी एक बड़ी कामयाबी है। आज जब साम्प्रदायिकता को लेकर अनेक चुनौतियां हैं तब यह उपन्यास इसे ख़ारिज करता हुआ कहता है कि असली चुनौती, गरीबी, भूख हाशिये पर जा चुके परिवारों को संबल प्रदान करने की है जिन पर किसी का ध्यान नहीं जाता। सामाजिक समानता के ढोंग और इन्सान की घटिया सोच इसके लिए जिम्मेदार है। ये चुनोतियाँ महिलाओं की दशा को लेकर और भी भयावह हैं।

फारूक आफरीदी, बी-70/102, प्रगति पथ,बजाजनगर,

जयपुर-302015 mob : 94143 35772/ 92143 35772

ईमेल: faindia2015@gmail.com

farooqgandhi@gmail.com

………………………………………….

मैं शबाना : उपन्यास

संस्करण: 2018 पृष्ठ: 182 मूल्य 199 रु.

प्रकाशक ; नोशन प्रेस ओल्ड नंबर 38,

न्यू नंबर 6, मेक निकोलस रोड़, चेटपेट,

चैन्नई-600031

दंगों की व्यथा-कथा का मर्मस्पर्शी पाठ-प्रोमिला

0



दंगों की व्यथा-कथा का मर्मस्पर्शी पाठ

पुस्तक-पिघले चेहरे (उपन्यास)
लेखक- सच्चिदानंद चतुर्वेदी
प्रकाशन-2018
प्रकाशक-अमन प्रकाशन,104A/80c,
रामबाग, कानपुर-208012
मूल्य-395

भारतीय राजनीति, धर्म और साम्प्रदायिकता का त्रिकोण ऐसा है जिसकी नाप-तोल सरल नहीं और ना ही खतरों से खाली है। ‘अधबुनी रस्सी-एक परीकथा’, और ‘मझधार’ के बाद सच्चिदानंद चतुर्वेदी का ‘पिघले चेहरे’ 1984 में हुए सिख विरोधी दंगों पर लिखा गया नया उपन्यास है जो राजनीति और धर्म की आड़ में खेले जा रहे साम्प्रदायिकता के खेल की नब्ज की सही टटोल के लिए ऑपरेशन ब्लू स्टार, सिख हिस्ट्री और 1984 के घटनाक्रमों पर केंद्रित कई पुस्तकों के अध्ययन के पश्चात रचा गया है।( पुस्तकों की सूची लेखक ने आभार में ही दे दी है जो उपन्यास की शोधपरकता को प्रमाणित करते हुए इसे और अधिक मजबूत बनाती है।) संवेदनशील मन और वैचारिक दृष्टि का तालमेल इस उपन्यास में एक नई किस्सागोई रचता है। उपन्यास को पढ़ते समय पाठक को यह एहसास बना रहता है कि वह जिस कथा संसार में प्रवेश कर चुका है, वहां ग्रामीण और नगरीय जीवन के अनुभवों की एक गहरी बुनावट है और उस बुनावट की नींव में बिना किसी लाउडनेस के सत्ता समीकरणों की प्रश्नाकूल पड़ताल है। पर क्या यह उपन्यास केवल 1984 तक सीमित है? नहीं, इस समाज व्यवस्था में जब तक राजनीतिक स्वार्थ हैं, जब तक दंगें इन स्वार्थों की पूर्ति का ईंधन हैं, जब तक मनुष्य में पशुत्व है, तब तक यह उपन्यास सामयिक है। क्योंकि सामयिकता लेखक के दृष्टिकोण और घटना या समस्या को वैज्ञानिक  क्रम में खंगालने से जुड़ती है और यह उपन्यास तो अपने परिवेश में एक बड़ी सच्चाई को लेकर चलता है। लेखक कहता है, ‘दंगों के दौरान जो सिख मारे गए हैं, वे वास्तव में मारे नहीं गए हैं, वरन प्रजातंत्र द्वारा ठगे गए हैं, और अपने ही देशवासियों के विश्वासघात का शिकार हुए हैं।’ (पृ.105)

91xjFKQUWHL

इस उपन्यास में रचनाकार प्रजातांत्रिक व्यवस्था के राजनीतिक, धार्मिक,  प्रशासनिक, न्यायिक, सामाजिक, आर्थिक क्षेत्रों में व्याप्त विकृतियों और उनके दुष्परिणामों को ना केवल बखूबी रेखांकित करता है बल्कि पलटन बाबा, मास्टर रुद्रदेव, नन्दा  कौर आदि के विचारों एवं उनकी गतिविधियों के माध्यम से उन मानवीय मूल्यों को भी सहेजता है, जिससे मनुष्य में मनुष्य का विश्वास बना रहे। जाहिर है, इस विश्वास को कायम रखना आसान नहीं और तब तो और भी नहीं जब धर्म का नाम लेकर भड़काए दंगों में जीवन को बचाए रखना ही बड़ी चुनौती हो। लेकिन बावजूद इसके लेखक का विश्वास है कि आपसी सौहार्द और बंधुत्व-भाव, पक्के इरादे और अंतहीन संघर्ष ही मानवीय मूल्यों को बचाए रखने के उपादान बन सकते हैं।

कृपाचार्य बाजपेई, विधायक दुर्जन सिंह और आचार्य धर्माधिकारी जैसे चरित्रों के माध्यम से लेखक प्रजातांत्रिक व्यवस्था में व्याप्त अवसरवाद और राजनीति के अपराधीकरण तथा साम्प्रदायिकता की पूरी मानसिक प्रक्रिया पर खुलकर विचार करता है। इस व्यवस्था में  देवदत्त जैसे चरित्र का जुड़ जाना स्वभाविक है। ‘मुसलमान हिन्दुओं के दुश्मन होते हैं’ (पृ.21) वाली सोच से संचालित होकर बचपन में ही रहमान चाचा को मौत के घाट उतार देने वाला देवदत्त उपन्यास के अंत तक एक खलनायक के रूप में उभरता है। देवदत्त की बहन देवयानी का चरित्र स्त्री-स्थिति पर विचार करने को विवश करता है तो समाज में आदर के साथ देखे जाने वाले मास्टर लोगों के चरित्र का भंडाफोड़ ठाकुर जगमोहन और उसके आसपास बुने कथा प्रसंगों से होता है।

उपन्यास में लेखक 1984 के समाज और उसकी व्यवस्था के प्रायः सभी प्रमुख प्रश्नों से टकराता है। साम्प्रदायिकता और साम्प्रदायिक मनोवृति के कुत्सित चरित्र तथा उसके प्रतिरोध को उभारने में पूरी सफलता पाता है। लेखक के मन, मस्तिष्क में एकदम स्पष्ट है कि साम्प्रदायिकता धार्मिक संकीर्णता के माध्यम से छुटभैए नेताओं से लेकर कांग्रेस जैसी पार्टियों के लिए एक राजनीतिक कार्यक्रम है और जटिल एवं कुटिल स्वार्थ पर आधारित स्पर्धा ने समय-समय पर साम्प्रदायिकता की आग में मनुष्य की गरिमा एवं अर्थवत्ता का गला घोटा है। इस घृणा ने प्रतिशोध, लूटपाट, दंगों और हत्या को जन्म दिया है। इसमें निहित ‘अन्य’ की वैचारिकी ने अचानक से पड़ोसियों के संबंधों तक हो अनुदार बनाया है। उपन्यास से एक बानगी प्रस्तुत है, “मास्टर साहब को देखकर ठाकुर साहब उत्साहित होकर बोल उठे-‘… आप तो चंडीगढ़ वालों के यहां बहुत दिनों से ट्यूशन पढ़ा रहे हैं, इसलिए उनके घर की कुछ अंदरूनी बातें भी जानते होंगे? उनके घर पर चढ़ाई करने में आप हमारे बड़े काम आ सकते हैं।… यह सब भिंडर वाले हैं, इनका कानपुर से सफाया होना बहुत ही जरूरी है।’” (पृ.98)

वास्तव में, उपन्यास के फलक का भौगोलिक विस्तार तो कन्नौज से लगभग 4 मील दूर गंगा नदी के दक्षिणी तट पर बसे एक बहुत छोटे से गांव बागसर से शुरू होकर कानपुर और शाहजहांपुर तक जाता है किंतु इसका वैचारिक भूगोल काफी विस्तृत और राष्ट्रीय है। पंजाब, दिल्ली, कानपुर, बोकारो आदि शहरों में हुई सिखों की हत्या और लूटपाट के प्रसंग इसके वैचारिक भूगोल के दायरे का विस्तार करते हैं। बागसर के एक निर्धन भक्त नामक ब्राह्मण के परिवार, विशेष रूप से उसके दो बच्चों देवदत्त और देवयानी के आसपास से निर्मित  हुई कथा का ताना-बाना इब्राहिम पट्टी के रहमान चाचा से होते हुए सुल्तानपुर निवासी, बकौल कृपाचार्य बाजपेई चमट्टा बभ्रुवाहन और देवयानी के पति लोमहर्ष से होते हुए मास्टर रुद्रदेव के बेटे सत्यदेव और नन्दा कौर के विवाह तक को समेटता है। पर कथा सूत्रों में ना तो कहीं कोई फांक है और ना ही टूटन। कथा को गुँथने में लेखक को अद्भुत सफलता मिली है।

इस उपन्यास में पठनीयता एक अंतर्धारा की तरह आद्योपांत व्याप्त है। ‘विपन्नता वैसे भी कभी किसी गांव में ऊपर छलकती दिखाई नहीं पड़ती, उसी प्रकार जैसे  घर का कवाड़ कभी बैठक में नहीं दिखाई पड़ता।’ (पृ.10) या ‘पर वे शायद यह भूल गए थे कि सपने केवल सपने होते हैं और एक हल्के से हवा के झोंके से मकड़ी के जाले की भांति टूट जाते हैं।’ (पृ.16) जैसे कलात्मक वाक्यों से होते हुए उपन्यास अपने अंतिम कथन- ‘सुना है कि तिलचट्टे लाखों साल जीवित रहते हैं। यदि वह सही है तो हमारे देश के प्रजातंत्र को अभी लाखों साल तक कोई खतरा नहीं है।’ में भीषण हो चुकी राजनीतिक सच्चाई से पर्दा उठता है। सही है कि धर्म, साम्प्रदायिकता, दंगे, हत्याएं, लूटपाट और आगजनी की राजनीति करने वाली पार्टियां आज हमारे राष्ट्रीय फलक पर ज्यादा प्रभावी हैं।

‘पिघले चेहरे’ के लेखक में चित्रण करने और सवाल उठाने की अद्भुत कला है। यूं तो पूरे उपन्यास में जहां-जहां दृश्यों, स्थितियों, दंगों षड्यंत्रों और तिकड़मों का चित्रण किया है, वे सभी स्थल ध्यान आकर्षित करते हैं लेकिन पाठक का विशेष ध्यान वहां जाता है जहां लेखक दंगे शुरू होने के बाद बागसर आने वाले रास्ते पर खड़े ट्रकों के सिख ड्राइवरों की सुरक्षा के लिए तत्पर गांव वालों के प्रसंग के संदर्भ में नगर और शहर का अंतर वर्णित करता है। वह लिखता है, ‘नगर लोगों की पीढ़ी के अलावा और कुछ नहीं होते। इंसानियत वहां मरुस्थल में जल की भांति सूख जाती है। वहां के अमीर और गरीब इंसान न रह कर, भावना-शून्य यंत्र बन जाते हैं, जो पदे-पदे भावनाएं रखने का ढोंग रचते हैं। नगर और गांव के गरीबों और उनकी गरीबी में कोई अंतर नहीं होता, अंतर होता है, उनकी पहचान का। नगर के गरीब देश की जनगणना के आंकड़े मात्र होते हैं, जिनकी कोई पहचान नहीं होती। लेकिन गांव के गरीबों की गरीबी अपने में स्वयं एक पहचान होती है। वह गांव भर का चाचा-ताऊ वगैरा होता है। इसीलिए नगर के पहचान खोए हुए  गरीब कुंठा और अवसाद में डूबकर, अपनी ही प्रजाति के लोगों को निगलने के लिए तत्पर हो जाते हैं। यही लोग राजनीतिक दलों के इशारे पर नाचते हैं।’ (पृ.111) निश्चित तौर पर यह अंतर ग्रामीणों की मानवीयता और नगर के लोगों में पसरी संवेदनहीनता के कारणों तथा परिणामों पर बड़ी टिप्पणी बनता है और इतनी तार्किकता के साथ आता है कि इसे लेखक का नॉस्टेलजिया कहकर खारिज नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार पृ. 104 पर आया अपराध और दंगे का अंतर लेखक की सूक्ष्म विश्लेषण शक्ति और सामाजिक बोध का परिचय देता है।

उपन्यास में देवयानी और नन्दा कौर समाज में स्त्री-स्थिति की प्रतीक बनकर उभरती हैं। ‘अबला तेरी यही कहानी’ की टेक पर जीवन जीती देवयानी कभी पिता की ‘चिट्ठी लिखना-पढ़ना भर सीख ले’ वाली आकांक्षा पूरी करने, कभी पति की लखपति बनने की प्रतिज्ञा पूर्ती में सहायता हेतु एल.एल. बी. के लिए लखनऊ जाने, कभी वकालत करने, कभी बार काउंसिल के अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ने, कभी नगरपालिका परिषद के अध्यक्ष पद का पर्चा भरने की अनगिनत (पति) इच्छाओं को पूरा करते-करते ‘रेस की घोड़ी’ बनी आखिरकार नर्वस ब्रेकडाउन का शिकार होकर, बिना इलाज अस्पताल में जिंदगी हार जाती है। आखिरी समय में ना भाई आगे आता है और ना पति। लोमहर्ष कहता है, ‘और इतने में तो एक नई घोड़ी खरीदी जा सकती है।… उसे खूंटे पर बांध कर चारा कौन खिलाएगा?’ (पृ.170) पलटन बाबा के कहने पर गांव वाले जरूर अपनी सामुदायिक संवेदना को समेटे पैसा जोड़ते हैं पर उसमें भी बहुत देर हो जाती है। निश्चित ही समय के सापेक्ष स्त्री के मनोभावों, उसके अंतर्द्वंद्वों, उसकी रोजमर्रा की  लड़ाइयों, स्त्री-मन में गहरे पैठे मूल्यों आदि को लेखक अत्यंत बारीकी से पकड़ता है। देवयानी से इतर वह नन्दा कौर को एक जुझारू चेतना संपन्न और आत्मनिर्भर स्त्री के रूप में दर्शाता है जो अपने निर्णय स्वयं लेती है और पूरे उपन्यास में साम्प्रदायिकता का प्रतिरोध रचती एक बड़ा वाक्य कहती है, ‘किसी भी धर्म या जाति के सभी लोग कभी बुरे नहीं होते।’ (पृ.159) नन्दा कौर का चरित्र स्त्री-विमर्श के उत्कृष्ट आदर्श को सामने रखता है। स्वतंत्र स्त्री की सही और खरी-खरी परिभाषा गढ़ता है।

 

कुल मिलाकर ‘पिघले चेहरे’ अपने ढब और रंग में विशेष है। शब्दों का चयन और प्रयोग अत्यंत मार्मिक बन पड़ा है। उपन्यास में वाक्य की संरचना ध्यान आकर्षित करती है, जैसे- ‘उसने अपनी रिहाई के लिए धन्यवाद दिया था भारतीय प्रजातंत्र को और उसकी न्याय व्यवस्था को जहां अंधे पीसते हैं और कुत्ते खाते हैं।’ (पृ.164) भाषा की अशुद्धियां इस उपन्यास में अवश्य खटकती हैं और कई बार पढ़ने का क्रम भी खंडित करती हैं पर लेखक की इस बात के लिए प्रशंसा की जानी चाहिए कि यह उपन्यास क्या तुमने कभी कोई सरदार भिखारी देखा?’ कहानी के साथ मजबूती से खड़ा दिखता है। 1984 के दंगे का वस्तुगत और ऐतिहासिक आधार प्रस्तुत करता है। बहुत से प्रश्न उठाता है पर कहीं भी मनुष्य और मनुष्यता में अपना विश्वास नहीं खोता।

प्रोमिला

असिस्टेंट प्रोफेसर,हिन्दी विभाग

अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय,

हैदराबाद-500605

मो.-8977961191

मदारीपुर जंक्शन:बालेन्‍दु द्विवेदी- समीक्षा: ओम निश्चल

0

मदारीपुर जंक्शन:बालेन्‍दु द्विवेदी

व्यंग्यात्मक उपन्यासों की कड़ी में एक और सशक्त किस्सागोई:ओम निश्चल

कभी ‘राग दरबारी’  आया था तो लगा कि यह एक अलग सी दुनिया है। श्रीलाल शुक्‍ल ने ब्‍यूरोक्रेसी का हिस्‍सा होते हुए उसे लिखा और उसके लिए निंदित भी हुए पर जो यथार्थ उनके व्‍यंग्‍यविदग्‍ध विट से निकला, वह आज भी अटूट है; गांव-देहात के तमाम किरदार आज भी उसी गतानुगतिकता में सांस लेते हुए मिल जाएंगे। तब से कोई सतयुग तो आया नही है बल्‍कि घोर कलियुग का दौर है । इसलिए न भ्रष्‍टाचार पर लगाम लगी, न भाई भतीजावाद, न कदाचार पर , न कुर्सी के लिए दूसरों की जान लेने की जिद कम हुई। इसलिए आज भी देखिए तो हर जगह ‘राग दरबारी’ का राग चल रहा है। कहीं द्रुत-कहीं विलंबित । लगभग इसी नक्‍शेकदम पर चलने का साहस युवा कथाकार बालेन्‍दु द्विवेदी का उपन्‍यास ” मदारीपुर जंक्‍शन” करता है। मदारीपुर जंक्‍शन जो न गांव रहा न कस्‍बा बन पाया। जहां हर तरह के लोग हैं जुआरी, भंगेडी, गंजेड़ी, लंतरानीबाज, मुतफन्‍नी, ऐसे-ऐसे नरकट जीव कि सुबह भेंट हो जाए तो भोजन नसीब न हो।

61bseD1Hd7L. SY445 SX342 QL70 ML2

मदारीपुर पट्टियों में बँटा है। अठन्‍नी, चवन्‍नी और भुरकुस आदि पट्टियों में। यहां लोगों की आदत है हर अच्‍छे काम में एक दूसरे की टांग अड़ाना। लतखोर मिजाज और दैहिक शास्‍त्रार्थ में यहां के लोग पारंगत हैं। गांव है तो पास में ताल भी है जो जुआरियों का अड्डा है। पास ही मंदिर है जहां गांजा क्रांति के उदभावक पाए जाते हैं। एक बार इस मंदिर के पुजारी भालू बाबा  की ढीली लंगोट व नंगई देख कर औरतों ने पनही-औषधि से ऐसा उपचार किया कि फिर वे जीवन की मुख्‍य धारा में लौट नहीं पाए। याद आए काशीनाथ सिंह रचित ‘रेहन पर रग्‍घू’  के ठाकुर साहब जिनका हश्र कुछ ऐसा ही हुआ। हर उपन्‍यास की एक केंद्रीय समस्‍या होती है। जैसे हर काव्‍य का कोई न कोई प्रयोजन । हम सामाजिक और राजनीतिक यथार्थ की ज़मीन पर ‘मैला आंचल’ पढ चुके हैं,  राजकृष्ण मिश्र का ‘दारुलसफा’ व ‘सचिवालय’ पढ़ चुके हैं, विभाजन की ज़मीन पर ‘आधा गांव’ पढ चुके हैं।  गांव और कस्‍बे जहां जहां सियासत के पांव पड़े हैं, ग्राम प्रधानी,ब्‍लाक प्रमुखी और विधायकी के चुनावों के बिगुल बजते ही हिंसा व जोड तोड शुरु हो जाती है। हर चुनाव में गांव रक्तरंजित पृष्ठभूमि में बदल जाते हैं। इसलिए कि परधानी में लाखों का बजट है, पैसा है, लूट है। सो मदारीपुर जंक्‍शन के भी केंद्र में परधानी का चुनाव है।

परधानी का चुनाव मुद्दा है तो अवधी कवि विजय बहादुर सिंह अक्‍खड़ याद हो आए –’कब तक बुद्धू बनके रहबै अब हमहूँ चतुर सयान होब। हमहूं अबकी परधान होब।’

एक कवि ने लिखा है, ‘नहर गांव भर की पानी परधान का।‘ सो इस गांव में भी भूतपूर्व प्रधान छेदी बाबू, वर्तमान प्रधान रमई, परधानी का ख्‍वाब लिये बैरागी बाबू, उनकी सहायता में लगे वैद जी, दलित वोट काटने में छेदी बाबू के खड़े किये चइता, केवटोले कें भगेलूराम, छेदी बाबू के भतीजे बिजई —सब अपनी अपनी जोड तोड में होते हैं। ऐसे वक्‍त गांव में जो रात रात भर जगहर होती है, दुरभिसंधियां चलती हैं, तरह तरह के मसल और कहावतें बांची जाती हैं वे पूरे गांव की सामाजिकी के छिन्‍न-भिन्‍न होते ताने बाने के रेशे-रेशे उधेडती चलती हैं। श्रीलाल शुक्‍ल ने ‘रागदरबारी’ में कहा था—‘यहां से भारतीय  देहात का महासागर शुरु होता है ।’ यह उसी देहात की बटलोई का एक चावल है।

कभी समाजशास्‍त्री पी सी जोशी ने कहा था कि ‘रागदरबारी’ या ‘मैला आंचल’ जैसे उपन्यासों को समाजशास्‍त्रीय अध्‍ययन के लिहाज से क्‍यों नही पढा जाना चाहिए?आजादी के मोहभंग से बहुत सारा लेखन उपजा है। ‘राग दरबारी’ भी,मैला आंचल भी,विभाजन के हालात पर केंद्रित ‘आधा गांव’ भी।बालेन्दु का मदारीपुर भी गंगोली गांव, शिवपालगंज या मेरीगंज से बहुत अलग नहीं है ।इसलिए यह कहा जा सकता है कि समाजशास्त्रीय अध्ययन के लिए मदारीपुर जंक्शन भी एक सहयोगी उपन्यास हो सकता है।

विमर्शों के लिहाज से देखें तो दलित विमर्श, स्‍त्री विमर्श दोनों मदारीपुर में  नजर आते हैं। एक सबाल्‍टर्न विमर्श भी है कि आज भी सवर्ण समाज की दुरभिसंधियां आसानी से दलितों को सत्‍ता नही सौंपना चाहतीं, लिहाजा वह उनके वोट किधर जाएं, कैसे कटें, इसके कुलाबे भिड़ाता रहता है। यहां परधानी के चुनाव में बुनियादी तौर से दो दल हैं एक छेदी बाबू का दूसरा बैरागी बाबू का। पर चुनाव के वोटों के समीकरण से दलित वर्ग का चइता भी परधानी का ख्‍वाब देखता है और भगेलू भी। पर दोनों छेदी और बैरागी के दांव के आगे चित हो जाते हैं। चइता को छेदी के भतीजे ने मार डाला तो बेटे पर बदलू शुकुल की लडकी को भगाने के आरोप में भगेलू को नीचा देखना पड़ा ।पर राह के रोड़े चइता व भगेलू के हट जाने पर भी परधानी की राह आसान नहीं। हरिजन टोले के लोग चइता की औरत मेघिया को चुनाव में खड़ा कर देते हैं । दलित चेतना की आंच सुलगने नहीं बल्‍कि दहकने लगती है जिसे सवर्ण जातियां बुझाने की जुगत में रहती हैं।— और संयोग देखिए कि वह दो वोट से चुनाव जीत जाती है। पर चइता की मौत की ही तरह उसका अंत भी बहुत ही दारुण होता है। लिहाजा जब जीत की घोषणा सुन कर पिछवाड़े पति की समाधि पर पहुंचती है पर  जीत कर भी हरिजन टोले के सौभाग्‍य और स्‍वाभिमानी पीढ़ी को देखने के लिए जिन्‍दा नही रहती। शायद आज का कठोर यथार्थ यही है।

कहना यह कि सत्‍ता की लड़ाई में दलितों की राह आज भी आसान नहीं।  वे आज भी सवर्णों की लड़ाई में यज्ञ का हविष्‍य ही बन रहे हैं।आज गांव किस हालात से गुजर रहे हैं,यह उपन्यास इसका जबर्दस्त जायज़ा लेता है। बालेन्‍दु द्विवेदी गंवई और कस्‍बाई बोली में पारंगत हैं। गांव के मुहावरे लोकोक्‍तियों सबमें उनकी जबर्दस्‍त पैठ है। चरित्र चित्रण का तो कहना ही क्‍या। पढ़ते हुए कहीं श्रीलाल शुक्‍ल याद आते हैं, कहीं ज्ञान चतुर्वेदी तो कहीं परसाई भी । कहावतें तो क्‍या ही उम्‍दा हैं :’घर मा भूंजी भांग नहीं ससुरारी देइहैं न्‍योता।’

कुल मिला कर दुरभिसंधियों में डूबे गांवों के रूपक के रुप में मदारीपुर जंक्‍शन इस अर्थ में याद किया जाने वाला उपन्‍यास है कि दलित चेतना को आज भी सवर्णवादी प्रवृत्‍तियों से ही हांका जा रहा है।सबाल्‍टर्न और वर्गीय चेतना भी आजादी के तीन थके हुए रंगों की तरह विवर्ण हो रही है। गांवों को सियासत ने बदला जरूर है पर गरीब दलित के आंसुओं की कोई कीमत नहीं।बालेन्‍दु द्विवेदी ने यहां लाचार आंसुओं को अपने भाल पर सहेजने की कोशिश बड़ी ही पटु भाषा में की है,इसमें संदेह नहीं।

[29/05, 16:38] Balendu Dwivedi: उपन्यास अंश


मंदिर के ठीक सामने एक गहरा तालाब स्थित था जिसके बारे में यह कहा जाता था कि यह इतना गहरा था कि इसमें सात हाथियों की ‘थाह’ भी न मिले.बहरहाल इसकी ख्याति दूसरे कारण से थी.किंवदंती थी कि एक बार कोई राजा,जो पुरानी और लगभग असाध्य कोढ़ का शिकार था,लड़ाई के मैदान से विजय प्राप्त कर वापस लौट रहा था.रास्ते में उसे पाख़ाना लगा.राजा ने पहले तो इसे अपने स्तर पर ही रोकने की कोशिश की;फिर बेसब्र होने पर अपने इस ‘दीर्घ और तीव्र आवेग’ के बारे में मंत्री आदि से मंत्रणा की.मंत्री ने राजा को सुझाया –

‘मान्यवर..!!आपकी धोती से बड़ी है आपकी इज्ज़त! और वह मुख़्तसर इसी धोती के संरक्षण में है.अगर एक बार वह प्रजा के बीच में खुल गई तो आपका और आपके राज्य का सारा वैभव जाता रहेगा.इसलिए सरकार! धोती भले ही ख़राब हो जाए पर उसे यूँ सरेआम खोलना युद्ध में पराजय स्वीकार करने जैसा और कदाचित उससे भी विनाशकारी सिद्ध होगा.’

राजा अपने मंत्री की बात पर अमल तो करना चाहता था,पर उसकी आंतें उसे निरंतर किसी नए विध्वंश की ओर धकेल रही थीं. जब तक राजा को मंत्री की बात समझ में आती,उसके पहले ही यह तालाब दिखाई पड़ा.राजा के पास अपने को हल्का करने के अलावा और कोई चारा नहीं था.मल-त्याग के बाद राजा ने जब पानी-छूने के लिए हाथ तालाब में डाले तो उसके हाथों की कोढ़ अचानक से सूखने लगी.राजा हतप्रभ रह गया.उसने झट अपने मंत्री को यह बात बताई और फिर खुश होकर,एक योगी साधक  को यहाँ की ज़मींदारी दे दी.बस यहीं से मदारीपुर के वैभव की शुरुआत मानी गई थी.

तहसील की खतौनी में दर्ज़ इन्द्राज़ के मुताबिक़ शिवमंदिर चवन्नी पट्टी की संपत्ति मानी जाती थी.इसलिए इस मंदिर-परिसर में लगे पेड़ों से टपकने वाले एक-एक आम से लेकर खर-पतवार बीनने आने वाली कन्याओं तक पर पहला अधिकार इसी पट्टी का बनता था.ऐसे तमाम अन्य अघोषित ‘प्रशासनिक अधिकार’ भी फिलहाल इसी पट्टी के पास सुरक्षित थे.मसलन पट्टी के युवा इस चीज़ की जानकारी प्राप्त में लगे रहते थे कि कौन सी कन्या ने सोलह बरस का आँकड़ा पार कर लिया है;कौन फिलहाल कौमार्य-भंगापेक्षिणी है;किसे अरहर की खेतों में उन्मुक्त अठखेलियाँ करने का शौक है;किसके गवने की तारीख़ नज़दीक आ गई है;कौन अभी-अभी अपने साजन के पास से लौटी है-आदि-आदि.’अज्ञात के प्रति जिज्ञासा’ रूपी इस शोध और संधान के मूल में अपने निजी भावनाओं की तृप्ति के साथ-साथ संभवत: विदा के कगार पर खड़े चवन्नी पट्टी के पुरुषों की अंतिम इच्छा के पूरे किये जाने का सद्प्रयास भी सम्मिलित था.


सड़क कहे जाने वाले इन मार्गों का एक अतिरिक्त लाभ यह भी था कि यदि इनसे होकर इलाके की किसी गर्भवती स्त्री को प्रसव हेतु अस्पताल ले जाया जाता तो वह अस्पताल पहुँचाने से पहले ही बच्चा जन देती थी.इस प्रकार ये सड़कें अघो षित तौर पर न केवल डॉक्टर-वार्डब्वाय- अस्पताल की सामूहिक जिम्मेदारी निभाती थीं बल्कि सरकारी मुलाज़िमों को ‘अनावश्यक के सिरदर्द’ से मुक्त रखने की कोशिश भी करती थीं.’संसार के आठवें आश्चर्य’ के रूप में घोषित होने की अपेक्षा लिए ये सड़कें फिलहाल सरकारी अभिलेखों में राजमार्ग का दर्ज़ा धारण किये हुए थीं और इस ऐतिहासिक राजमार्ग से होकर जब भारी सामानों से लदा हुआ कोई वाहन गुज़रता था तो मदारीपुर और आस-पास  के तमाम गाँवों  के निवासी उस वाहन के बोझ को हल्का करने का कोई अवसर नहीं चूकते थे.

एक बार ऐसा वाक़या हुआ बताते हैं कि एक रात को इस रास्ते से गुज़रते हुए काजू-किशमिश-बादाम से लदे एक ट्रक के पहियों ने थक-हारकर और आगे चलने में असमर्थ होकर,बीच-सड़क में अपने हाथ खड़े कर दिए.फिर क्या था! इलाके के लोगों ने इस स्वर्णिम अवसर का लाभ उठाने की नीयत से वाहन के ड्राइवर-क्लीनर के ऊपर सामूहिक हल्ला बोल दिया और इस आपसी-प्रतिस्पर्धा में लग गए कि कौन शख्स कम-से-कम समय में,ज्यादा-से-ज्यादा माल पार कर सकता है..!हालांकि अमावस की रात के घुप्प अँधेरे की वजह से इस प्रतिस्पर्धा के वास्तविक विजेताओं के सम्बन्ध में अंतिम निर्णय तो नहीं हो सका किन्तु इतना जरूर हुआ कि इलाके की मज़दूर और मेहनतकश कही जाने वाली महिलाओं ने अपने पतियों-बेटों के साथ मिलकर उनके इस पवित्र कर्म में जमकर हाथ बँटाया.कुछ महिलाओं ने तो बोरों और झोलों के अभाव में अंत:वस्त्र कहे जाने वाले अपने ‘पेटीकोट’ के मुँह को एक ओर से बंद कर तात्कालिक तौर पर न केवल झोलों का विकल्प प्रस्तुत किया बल्कि उसमें काजू-किशमिश-बादाम ठूँस-ठूँसकर और सिर पर लादकर अपने घर ले आयीं.इस अभूतपूर्व और अविस्मरणीय आंदोलन का क्रांतिकारी परिणाम यह हुआ कि इलाके के जिन घरों में अनाज के अभाव में कई दिनों तक चूल्हा तक नहीं जलता था;उन घरों के बच्चे अब आठों पहर काजू-किशमिश-बादाम का सेवन करने लगे और  इलाके की कुपोषण की समस्या रातों-रात उड़न-छू हो गई.यही नहीं,दिन भर कटोरे लेकर सड़कों पर घूमने वाले छोटे बच्चों से लेकर भीख माँगने वाले बूढ़े-महीनों तक अपने घर से नहीं निकले और चोरी की घटनाओं में भी गिरावट देखी गई.दरअसल कुछ ही समय के लिए ही सही,पूरे इलाके के कोलाहल भरे वातावरण में अचानक से ‘सम्पन्नता का छद्म सन्नाटा’ सा छा गया था.लोगों के इस छोटे से सद्प्रास का एक प्रभाव यह भी हुआ कि देखते-ही-देखते यह इलाका अब जिले के सबसे समृद्ध इलाके के रूप में गिना जाने लगा था और सबसे बढ़कर सरकार के मुलाजिमों ने हमेशा की तरह इस बार भी इस बदलाव को अपने दिन-रात के संघर्ष का परिणाम बताना नहीं छोड़ा.


डॉक्टर साहब अभी ऑपरेशन थियेटर में थे और संभवत: गाँव के ही  केवटोली के मोहन नामक किसी युवा मरीज़ के गंभीर ऑपरेशन में व्यस्त थे.ऑपरेशन थियेटर को बाहर से देखने पर यह अपने नाम को चिढ़ाता हुआ ही लगता था.दरअसल इसमें थियेटर जैसा कुछ भी न था.डॉक्टर साहब के कमरे के भीतर ही एक कोने में एक सरकारी चारपाई डाल दी गई थी और एक सफ़ेद चादर को बगल के दीवार की खिड़की के सहारे से एक आड़ का रूप दे दिया गया था.सफ़ेद कहे जाने वाले चादर पर खून के इतने धब्बे थे कि कई बार उसके रंगीन होने का भ्रम हो जाता था और फैली हुई चादर में इतने छेद थे कि यदि वह हटा भी दी जाती तो भी वस्तुस्थिति में कोई ख़ास अंतर नहीं आता! लेकिन इसे बनाए रखना भी एक प्रकार की पेशेगत-मजबूरी थी.

ऑपरेशन थियेटर के भीतर चार-पाँच मुस्टंड आदमी,मरीज़ के हाथ और पैरों को इस कदर कसकर पकडे हुए थे जैसे किसी ‘बलि के बकरे’ को हलाल करने के पहले पकड़ा जाता होगा.कायदे से वे सभी बेहोशी की दवा का मुकम्मल विकल्प प्रस्तुत कर रहे थे. ‘बेड’ कहे जाने वाले बिस्तर पर ‘मोहन’ नामक  मरीज़ लेटा हुआ था और निरंतर चिल्ला रहा था.इस क्रम में उन सभी मुस्टंडों के बाप-दादाओं का बारी-बारी से नाम लेता जाता था.साथ ही उनके साथ देशी गालियाँ अभिधान के रूप में जोड़ता जाता था और कई बार वह मुस्टंडों और उनके पुरखों के आपसी रिश्ते को भी गड्ड-मड्ड कर दे रहा था,जैसे-‘हरे सारे! सुकुलवा के दमाद..!’,’का रे फोफियाs..!’,’तोहरे महतारी केs..!’ आदि-आदि.पर मुस्टंडे भी जैसे इस प्रकार के  अवसरों के लिए अभ्यस्त थे और शायद सहनशीलता जैसे भावों को कब का आत्मसात कर चुके थे.इसलिए ज्यों ही मरीज़ कोई ऐसा उदगार व्यक्त करता था,सभी एक-दूसरे को देखकर मुस्कुरा देते थे.इस पर मरीज़ का तेवर और उच्चारण का स्वर और अधिक आक्रामक हो जाता.लगभग दस मिनट के रगड़-घस्स के बाद डॉक्टर साहब के द्वारा ऑपरेशन की सफलता की घोषणा की गई.मरीज़ चिल्ला-चिल्ला कर पस्त हो चुका था.अब जाकर उसने डॉक्टर की ओर थोड़ा संकोच की नज़र से देखा. डॉक्टर ने आँखों-ही-आँखों में उसे नीचे पड़े बाल्टी की ओर देखने को कहा, मानो कहना चाहते हों कि-‘मोहन बेटा..!जब थैले में ढाई पसर मवाद लेकर घूमोगे तो ऑपरेशन तो कराना ही पड़ेगा!फिर चाहे जितना चिल्लाओ..!!’

नारी जीवन: आदर्श एवं उत्कर्ष,लेखक- डॉ. प्रमोद पाण्डेय,समीक्षक- आलोक चौबे

0

नारी जीवन: आदर्श एवं उत्कर्ष

 लेखक- डॉ. प्रमोद पाण्डेय 
समीक्षक- आलोक चौबे
प्राचीन काल से लेकर वर्तमान काल तक नारी जीवन
के विभिन्न पहलुओं का चित्रण करती डॉ. प्रमोद पाण्डेय द्वारा
लिखित पुस्तक "नारी जीवन: आदर्श एवं उत्कर्ष"

नारी जीवन की समस्याओं तथा उनकी स्थितियों पर डॉ. प्रमोद पाण्डेय द्वारा लिखी गई पुस्तक “नारी जीवन: आदर्श एवं उत्कर्ष” इस पुस्तक में प्रागैतिहासिक काल से लेकर वर्तमानकाल तक की महिलाओं की समस्याओं और स्थितियों पर गंभीर चिंतन प्रस्तुत किया गया है। पर्दा प्रथा, बहु विवाह प्रथा, सती प्रथा आदि द्वारा महिलाओं के शोषण को उजागर करने वाली यह पुस्तक सिर्फ भारत देश की ही नहीं बल्कि अमेरिका, रूस जैसे कई देशों की महिलाओं की स्थितियों का चित्र उकेरा गया है।

आर. के. पब्लिकेशन, मुंबई द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक में कुल एक सौ सोलह पृष्ठ हैं। इसकी कीमत १७५/- रुपए है। इस पुस्तक में लेखक ने अपनी बात में लिखा है कि “आधुनिक दौर स्त्री विमर्श कर दो रहा है, स्त्री विमर्श के अंतर्गत प्रागैतिहासिक काल से लेकर वर्तमान काल तक की नारी जीवन से जुड़ी तमाम समस्याओं का विभिन्न कालखंडों में नारी की स्थिति का चित्रण हुआ है। आज के दौर में स्त्रियों के बढ़ते कदम ने नारी जीवन को नई दिशा प्रदान की है।”

word image 2

इसी क्रम में भी आगे लिखते हैं कि “वैदिक कालीन समाज में स्त्रियों की स्थिति सम्मानजनक थी परंतु मध्यकाल में उनकी स्थिति अत्यंत देनी होती चली गई। उनकी इस दयनीय अवस्था का कारण पुरुष का स्वार्थ है। स्वार्थ पूर्ति हेतु पुरुषों ने स्त्रियों को ऐसे मुकाम पर लाकर खड़ा कर दिया, जहां से उनका निकलना असंभव सा लगने लगा था।” अपनी बात में लेखक ने अंत में यह लिखा है कि “स्त्रियों को पुनः समाज में प्रतिष्ठा, आदर व सम्मान प्राप्त हो ऐसी शुभकामनाएं मैं इस पुस्तक के माध्यम से प्रेषित कर रहा हूं। मैं यह उम्मीद करता हूं कि समाज में स्त्रियों के प्रति लोगों का नजरिया अवश्य बदलेगा और समाज में उन्हें पुरुषों के बराबर का दर्जा प्राप्त होगा।”

पहले अध्याय में लेखक डॉ. प्रमोद पाण्डेय ने प्राचीन भारतीय नारी जीवन के आदर्श को बड़े ही सुंदर और सटीक ढंग से अर्थ को समझाते हुए उसकी व्याख्या प्रस्तुत करते हुए परिभाषित किया है। इसके साथ ही साथ नारी जीवन के उत्कर्ष के अर्थ को समझाते हुए नारी जीवन के उत्कर्ष को सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया है। उन्होंने एक जगह लिखा है कि “मनुष्य सत्ता के दो भाग हैं- ज्ञान और शक्ति। मनुष्य पहले तो जानना चाहता है और फिर कहना चाहता है। इसके अतिरिक्त मनुष्य सत्ता का तीसरा भाग भी है, उसे हम प्रेम कहते हैं। यही प्रेम दोनों का समान आश्रय स्थान है। दोनों जाकर इसी प्रेम में आश्रय लेते हैं।”

दूसरे अध्याय में लेखक ने विभिन्न युगों में नारी जीवन के अस्तित्व को चित्रित किया है। जिसमें प्रागैतिहासिक युग से लेकर वर्तमान युग तक नारी जीवन की समस्याओं तथा स्थितियों का सुंदर एवं स्पष्ट चित्रण किया है। इसके अंतर्गत प्राचीनकाल, मध्यकाल तथा वर्तमानकाल के आधार पर नारी जीवन की समस्या का वर्णन किया है। यहाँ पर विधवा के संदर्भ में गांधी जी द्वारा लिखा गया एक मत उन्होंने प्रस्तुत किया है। जिसमें गांधीजी ने नवयुवकों को परामर्श देते हुए लिखा है कि “मैं उस लड़की को विधवा ही नहीं मानता जो १५ से १६ साल की उम्र में बिना पूछे ब्याह दी गई। अपने नामधारी पति के साथ कभी रही भी नहीं और एक दिन अचानक विधवा करार देगी दे दी गई। यह शब्द और भाषा का दुरुपयोग है और भारी पाप है।” इसी क्रम में वे विधवा पुनर्विवाह के संबंध में लिखते हैं कि “जो माता-पिता अपने संरक्षकत्व का दुरुपयोग करके अपनी दुधमुही लड़की का विवाह किसी अधेड़ बुड्ढे से अथवा किसी किशोर से कर देते हैं, उनका कम से कम यह कर्तव्य है कि यदि उनकी लड़की विधवा हो जाए तो उसका पुनर्विवाह करके अपने पाप का प्रायश्चित कर लें।” लेखक का मानना है कि इन सब कुरीतियों का कारण अंधविश्वास, निरक्षरता और अज्ञानता है। स्त्रियों को इन सब समस्याओं से छुटकारा दिलाने के लिए राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, स्वामी दयानंद सरस्वती, पंडिता रमाबाई, महर्षि केशव कर्वे, महात्मा गांधी, सावित्रीबाई फुले जैसे महान समाज सुधारकों का ध्यान एक साथ समाज सुधार व स्त्री शिक्षा की ओर गया, तब जाकर कहीं समाज में परिवर्तन संभव हुआ।

तीसरे अध्याय में लेखक ने स्वतंत्रता पूर्व स्त्रियों के भविष्य की गई कल्पना जो आज के दौर में साकार हो रही है, उसको बड़े ही सुंदर एवं स्पष्ट शब्दों में प्रस्तुत किया है। स्वतंत्रता पूर्व का भविष्य काल जो आज वर्तमान काल हो चुका है, उस दौर में साहित्यकारों द्वारा स्त्रियों की समस्याओं के संदर्भ में की गई कल्पनाएं आज साकार हो रही हैं। लेखक ने एक जगह पर लिखा है कि “भूतकाल में स्त्रियां जिस स्थिति से गुजर रही थीं, उन पर इतना अत्याचार हुआ था, भविष्य में उन्हीं प्रतिक्रियाओं का परिणाम सामने अवश्य दिखाई देगा।” लेखक का मानना है कि समाज में स्त्रियों को स्वतंत्रता मिलने के साथ-साथ उन्हें आर्थिक स्वतंत्रता भी मिलनी चाहिए।

यह तो हम सभी जानते हैं कि भारत में स्त्रियों की स्थिति प्राचीन काल से लेकर अब तक किस प्रकार की रही है परंतु अमेरिका, रूस आदि देशों की महिलाओं की स्थिति किस प्रकार की थी। इस पर लेखक ने चौथे अध्याय में अमेरिका, रूस और भारत की स्त्रियों की स्थिति का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है। इस पुस्तक में एक जगह लिखा है कि “यूरोप के स्त्री समुदाय ने अपने संकुचित जीवन से आगे बढ़कर संसार के सामने यह बात स्पष्ट रूप से प्रदर्शित की कि स्त्रियां जीवन के प्रत्येक अंग में उसी तत्परता और योग्यता से काम कर सकती हैं, जिस तत्परता और योग्यता से पुरुष करते हैं परंतु एक अवस्था में।”

इसी क्रम में एक और जगह और लिखा है कि “प्राचीन काल में न सिर्फ हिंदू स्त्रियां बल्कि मुस्लिम स्त्रियों की भी स्थिति अत्यंत दयनीय थी।” इस आधार पर पांचवें अध्याय में उन्होंने प्राचीन युग की मुस्लिम स्त्रियों की विवेचना प्रस्तुत की है। उनका मानना है कि प्राचीन काल में भी मुस्लिम संप्रदाय में बहुविवाह की प्रथा अधिक मात्रा में प्रचलित थी। इस संदर्भ में उन्होंने प्राचीन इतिहास को भी दर्शाया है। एक जगह पर लेखक ने मोहम्मद पैगंबर और एक युवती के वार्तालाप को बड़े सुंदर ढंग से दर्शाया है। वे लिखते हैं कि “किसी समय एक युवती ने आकर मोहम्मद पैगंबर से शिकायत की कि मेरे मां-बाप ने मेरी इच्छा के विरुद्ध मेरा विवाह कर दिया है। यह सुनकर पैगंबर साहब ने उसके पिता को बुलवाया और पिता के आ जाने पर उसके सामने ही पैगंबर ने युवती से कहा कि यदि तू चाहे तो अपना यह विवाह तोड़ सकती है। युवती ने उत्तर दिया- हे खुदा के दूत, मेरे पिता ने जो मेरा विवाह कर दिया है, वह रहने दिया जाए। मैं केवल यह बता देना चाहती थी कि किसी युवती के विवाह में पिता को जबरदस्ती करने का कोई अधिकार नहीं है।”

इसके बाद लेखक ने छठवें अध्याय में स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व आधुनिक स्त्री धर्म का विस्तृत वर्णन किया है। जिसके अंतर्गत वे शिष्टाचार एवं वेशभूषा, कला, गुण, सतीत्व की महत्ता, स्वास्थ्य एवं सौंदर्य, पर्दा प्रथा, सार्वजनिक क्षेत्र में नारी, चूल्हा चौका आदि का सुंदर एवं स्पष्ट चित्र प्रस्तुत किया है।

सातवें अध्याय में लेखक ने स्त्री शिक्षा जो कि आज एक महत्वपूर्ण विचारणीय विषय है, उसे प्रस्तुत किया है। स्त्री शिक्षा जो आज के समाज की अपरिहार्य मांग है, ऐसे में लेखक ने स्त्री शिक्षा को बड़े ही सुंदर और सटीक ढंग से इस अध्याय में स्थान प्रदान किया है। एक जगह पर उन्होंने लिखा है कि “स्त्री को इस प्रकार शिक्षा से वंचित रखना स्त्री तथा समाज दोनों के प्रति अन्याय करना है। स्त्री शिक्षा का असली प्रश्न यही है, जिसका ऊपर की पंक्तियों में वर्णन किया है।” स्त्रियों को आर्थिक रूप से स्वतंत्रता मिलनी चाहिए। यह आज नहीं अपितु स्वतंत्रता पूर्व प्राचीन युग से यह परंपरा चली आ रही है।

आठवें अध्याय में लेखक ने स्त्रियों की आर्थिक स्वतंत्रता का वर्णन किया है। इस अध्याय के अंतर्गत पाश्चात्य अंग्रेजी लेखकों के भी मतों को प्रस्तुत किया है। इसी क्रम में अगले अध्याय में ‘समाज की रचना में स्त्रियों का सहभाग’ इस अध्याय में उन्होंने यह दर्शाया है कि समाज की रचना में न सिर्फ पुरुषों का महत्वपूर्ण योगदान होना चाहिए बल्कि स्त्रियों का भी योगदान होना चाहिए और उन्हें पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर आगे बढ़ने का अवसर मिलना चाहिए। इसी क्रम में ही आगे उन्होंने अगले अध्याय ‘समाज में स्त्री-पुरुष का स्थान’ में स्त्री-पुरुष समानता की बात की है । उनका मानना है कि मनुष्य सत्ता के दो भाग हैं- ज्ञान और शक्ति। दोनों सत्ता स्त्री और पुरुष को समाज की रचना में समान रूप से अधिकार मिलना चाहिए।

मध्यकाल में जिस प्रकार स्त्रियों के जीवन को गुलामी की जंजीरों में जकड़ दिया गया था। आज वे उन जंजीरों को तोड़कर बाहर निकल चुकी हैं। ऐसे में लेखक ने अगले अध्याय ‘स्त्री जीवन गुलामी से आजादी की ओर’ में उन्होंने स्त्रियों की स्वतंत्रता के लिए किए गए प्रयासों का चित्रण किया है। इसके लिए कई संस्थाएं भी उठकर सामने आई हैं। जिनका जिक्र इस अध्याय में किया गया है।

अंत में उन्होंने अपने अंतिम अध्याय वर्तमान युग में नारी जीवन की स्थिति किस प्रकार की है तथा आगे किस प्रकार की होनी चाहिए, इसकी विवेचना की है।

कहना न होगा कि लेखक ने अपनी इस पुस्तक में स्त्री जीवन से जुड़ी तमाम समस्याओं को बड़े ही सुंदर, सटीक एवं सुस्पष्ट ढंग से संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत किया है, जिससे पाठक स्वयं कम से कम शब्दों में बहुत कुछ स्पष्ट रूप से समझ लेता है। कुल मिलाकर लेखक ने अपनी इस पुस्तक के माध्यम से स्त्री जीवन की तमाम समस्याओं एवं स्थितियों का चित्रण करने के साथ-साथ उन स्थितियों से कैसे प्रेरणा लेकर आगे बढ़ा जाय, इसका उपाय भी बताया गया है। उम्मीद करता हूं कि यह पुस्तक समाज के लिए अत्यंत उपयोगी सिद्ध होगी। मैं इस पुस्तक के लेखक डॉ. प्रमोद पांडेय को अपने इस समीक्षा के माध्यम से हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं देता हूं कि उन्होंने ऐसे ज्वलंत मुद्दे को समाज के सामने लाने का प्रयत्न किया है। आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि आने वाली पीढ़ी के लिए यह पुस्तक अत्यंत प्रेरणादायी सिद्ध होगी।

मैंने स्वयं इस पुस्तक की पचास प्रतियां खरीदकर कुछ नवयुवा हिंदी साहित्य प्रेमियों को न सिर्फ मुफ्त में वितरित किया है बल्कि उन्हें पढ़ने के लिए प्रेरित किया है।

आलोक चौबे

हिंदी लेखक एवं समीक्षक

प्रीतम विला, ठाकुर कॉम्प्लेक्स,

कांदिवली (पू.), मुंबई- 400101

C:\Users\pramod\Downloads\IMG-20190606-WA0026.jpg

मराठी रंगमंच का पूर्वार्ध; स्त्रियॉं के सर्जनात्मक प्रतिरोध के विशेष संदर्भ में-डॉ. सतीश पावड़े

0
man in black jacket standing on black ladder
Photo by Sam Moqadam on Unsplash

मराठी रंगमंच का पूर्वार्ध; स्त्रियॉं के सर्जनात्मक प्रतिरोध के विशेष संदर्भ में

*डॉ. सतीश पावड़े

नारीवाद की परिकल्पना 1975 के पश्चात भारत में अवतरित हुई है। किन्तु नारी प्रश्नों को लेकर एक गंभीर पहल सुधारणाओं के परिप्रेक्ष्य में 1848 में ही की गयी। नारी शिक्षा को लेकर यह पहल की गयी थी। महात्मा ज्योतिबाराव फुले ने लड़कियों के लिए इसी वर्ष पहली पाठशाला शुरू की। 1852 के करीब फुले दाम्पत्य द्वारा यूने जिले में 18 पाठशालाए शुरू की गयी। जिसमें 250 लड़कियों को दाखिला दिया गया। इस समय तक सावित्री बाई फुले अध्यापिका, मुख्य अध्यापिका से भारत को प्रशिक्षित शिक्षिका बन गयी थी।

इस काल के पश्चात बाल विवाह,सती प्रथा,विधवाओं का विवाह,परिष्कृत स्त्रियॉं का पुनर्वसन,आदि प्रश्न हासिए पर आए। स्त्री शिक्षा,स्त्री अधिकार,नारी सम्मान के विषय सामाजिक आंदोलनों के मुख्य प्रश्न बनते गए। जिसका प्रभाव रंगमंच के व्यवहार पर भी पड़ता गया। रंगमंच पर स्त्रियॉं को प्रवेश या उनके भारीदारी का प्रश्न भी चर्चा का विषय बनता गया। अगले 25 वर्ष तक यह चर्चा निरंतर चलती रही किन्तु सामंतवादी, पुरुषसत्तात्मक व्यवस्था द्वारा उसका पुरजोर विरोध होता रहा। सामाजिक सांस्कृतिक मान्यताएं उन्हे रंगमंच पर जाने से रोकती रही।

इस परिस्थिति में भी रंगमंच को लेकर स्त्री वर्ग द्वारा प्रतिरोधी स्वर बुलंद करने का साहस स्त्रियॉं द्वारा किया गया। मराठी रंगमंच का पूर्वार्ध कुछ विद्रोही स्त्रियॉं के सर्जनात्मक प्रतिरोधी स्वर से दीप्तिमान हुआ है। किन्तु इस इतिहास को मुख्य धारा के इतिहास ने कभी प्रकाश में ही नहीं आने दिया । स्त्री नाटक कार,कलाकारों को 65 वर्ष से भी अधिक वर्ष रंगमंच की दुनियाँ में आने से रोका गया। माध्यम वर्गीय मानसिकता इस प्रक्रिया का सबसे बड़ा रोड़ा बनी थी। किन्तु क्षुद्रति शूद्र,दलित,अस्पर्श और बहुजन वर्ग के स्त्रियॉं ने अपने विद्रोह से न की रंगमंच पर प्रवेश किया अलकि अपने कर्तव्य से एक सुनहरा इतिहास भी लिखा।

इतिहास के पन्नों मेंहस्ताक्षर बने यह संदर्भ मुख्य धारा के इतिहासकारों ने कभी प्रकाश में आने ही नहीं दिये,किन्तु शनै शनै … यह इतिहास अब काल की परतों को चीर कर सामने आने लगा है।

1856 को इनहि शूद्र वर्ग के स्त्री कलाकारों ने स्वतंत्र तमाशा कंपनी स्थापित की थी, इस प्रकार का संदर्भ प्राप्त हुआ है । 1867 में महिलाओं द्वारा एक और मिश्र नाटक मंडलीकी स्थापना की गयी थी। विभूजन चित चातक स्वाति वर्षा पुणेकर हिन्दू स्त्री नाटक मंडली यह और एक मंडली का नाम था । यह पहली स्त्री नाटक मंडली थी,जिसकी स्थापना म्हालसा नमक नाती द्वारा किया गया। इस मंडली में सिर्फ महिलाएं ही थी । मनोरंजन के साथ यह मंडली बाल विवाह का विरोध,विधवा,परित्यक्ताओं के विवाह का समर्थन,अमानवीय धार्मिक रूढ़ियों का विरोध,और सामाजिक सुधारनाओं पर बल देती थी। इसी नाटक मंडली का सर्वाधिक चर्चित नाटक पद्मावती था जिसमें एक समबल और विद्रोही स्त्री का चरित्र मुखीन किया गया था।

1867 में मनोरंजन मुंबई हिन्दू स्त्री मिश्रित नाटक मंडली,यह और एक नाटक मंडली नीरबाई, टैबई,विठाबाई,म्हालसा बाई आदि स्त्रियॉं ने सहकारी तत्वों पर स्थापित किया । इसके पश्चात माणिक प्रभु प्रसादिक पूर्ण चंदर्योदय सनलिकार मंडली,सोनी पुणेकरीन तथा कृष्णबाई द्वारा संचालित की जाती रही। 1908 तक यह सारी महिला नाटक मंडली धूम ढलल्ले से चलती रही। खास तौर पर यह सारी महिलाए शूद्र दलित बहुजन (वारंगना,कलवंतीन तवायफ,कोलहटीन, नटी) समाज से थी। क्योकि सवर्ण समाज में मंच पर आना पापकर्म समझा जाता था । फिर अभिनय अथवा अन्य रंगकर्म तो बहुत दूर की बात थी। 1908 से 1925,इस काल में बेलगांवकर स्त्री नाटक मंडली,सटरकर स्त्री नाटक मंडली तथा मनोहर स्त्री नाटक मंडली जो केवल महिलाओं को नाटक मंडलियां थी,उन्होने पुरुषों द्वारा स्थापित नाटक मंडलियों को टक्कर दी। अपने आप में यह गतिविधि प्रतिरोध के सर्जनात्मक स्वर थे। जिसे भविष्य में लिखे गए इतिहास से गायब कर दिया गया।

जिस समय में महिलाएं घर की दहलीज़ के अंदर ही अपना जीवन का प्रारम्भ और अंत कर लेती,उस समय में मंच पर केवल अभिनय ही नहीं अपितु नाटक मंडली स्थापित करना विविध नाटकों का संचालन और निर्माण करना,सक्षम आर्थिक स्थाईट प्राप्त करना था यह अपने आप में बड़ी बात थी। गणिका,वारांगना समाज से आई,हाशिये पर स्थित समाज की यह महिलाएं अपने प्रतिरोध का सर्जनात्मक स्वर अपने अपने नाटकों में प्रस्तुत कर रही थी । सामाजिक सांस्कृतिक समस्याए उनके मुख्य विषय थे।

बड़ी हिम्मत के साथ यह प्रयास किए जाते रहे । बेलगांवकर नाटक मंडली एकांबबाई द्वारा,सादुबई सतारकर,द्वारा सतारकर नाटक मंडली स्थापित की गयी थी । यह तीनों स्त्री नाटक मंडली ने प्रसिद्धि और पैसा दोनों कमाया पर सम्मान और प्रतिष्ठा उन्हे नहीं दी गयी।

1914 में पहली बार सवर्ण में से पहली स्त्री कमला बाई गोखले को इस रंगमंचीय व्यवहार में शामिल किया गया पर सह व्यवष्ठापक के रूप में। उनके पति द्वारा स्थापित इस नाटक मंडली में उनके पति ने उनकी सह व्यवस्थापक के रूप में नियुक्ति की थी । इसी समय प्रसिद्ध गायिका तथा नाटककर हीराबाई पेडनेकर ने नूतन संगीत नाटक मंडली की स्थापना की जो मिश्रा स्वरूप की थी । 1929 तक अर्थात 1865 से 1929 तक इन 64 वर्षों में अभिजन,सवर्ण वर्ग के स्त्रियॉं को रंगमंच पर नहीं आने दिया गया। जबकि समाज से तिरस्कृत तबके से आई महिलाओं में विद्रोह की लंबी लड़ाई लड़ी । बेलगांवकर नाटक मंडली ने इस विद्रोह का परचम सबसे पहले हाथा मे उठाया । इस कंपनी में पुरुषों की भूमिकाएँ भी स्त्रियॉं द्वारा अभिनीत की जाती थी । जिसमें शिवाजी आगरकर,लोकमान्य तिलक, जैसे किरदार शामिल थे। इस संदर्भ में मॉडर्न मराठी थियेटर में नीरा आडरकर लिखती है कि,”dandhari the play,which was produce by womens thetre company,founded by prostitute,almost all this plays on social reforms dealing with womens education,chaild marriage,love marrigemarrige of widows,divorse women,also dowery marriage,they were enact by totally mail cast.this contribution is never mention in any of the debates about women and thetre.”

दंदधारी नाटक बाल गंगाधर तिलक के कार्यो पर आधारित था। उनकी भूमिका तथा इस प्रकार का नाटक करने पर इस कंपनी को प्रताड़ित भी किया गया। वेश्या गणिकाओं को ऐसे नाटक करने का अधिकार किसने दिया। ऐसे सवाल पूछकर तत्कालीन नाट्य आलोचकों द्वारा ऐसे प्रयासों को घिनौना,अप्राकतिक बाजारू,भयानक निचले दर्जे की हरकत कहा गया। उसे पापकर्म भी कहा गया।

1912 में मथुरा बाई द्रविड़ द्वारा इन आक्षेपों को जोरदार उत्तर दिया गया । महाराष्ट्र के अमरावती में इस वर्ष अखिल भारतीय नाट्य सम्मेलन सम्पन्न हुआ जिसमे मथुराबाई ने कहा की ‘the way the actors wore low necked blouses and the mans in which the sari was stretched over the front emphasizing the breast in a vulgar fashion. They used seductive gestures all the time in companision of that act of these women was very moral respective and prestigious.’मथुराबाई ने इस प्रकार पुरुष सत्ता,सामंतवादी दृष्टि को कडा जवाब दिया ।

1930 तक आभिजात्य वर्ग के किसी भी महिला को रंगमंच पर नहीं आने दिया गया। जबकि 1915 मेन रन्गभूमि मासिक पत्रिका द्वारा ‘रंगमंच पर स्त्रियॉं के प्रवेश’ को लेकर एक चर्चा आयोजित की गयी थी। इस चर्चा में काशी बाई हिरलेकर इस महिला द्वारा सर्व प्रथम जाहीर तौर पर इस प्रवेश का समर्थन किया गया था । 1933 में भी संजीवन नामक साप्ताहिक द्वारा इसी प्रकार की चर्चा आयोजित की गयी जिसमें 8 महिलाओं में से 6 महिलाओं ने स्त्रियॉं को रंगमंच पर प्रवेश करने की हिमायत की गयी थी। इसके संदर्भ में जो भूमिका इन महिलाओं ने रखी वह बहुत विशेष है।

  1. रंगमंच पर काम करना इसे व्यक्तिगत चुनाव के रूप में स्वीकारा जाए ।
  2. जैसे शिक्षक डाक्टर व्यवसाय है,वैसा ही दर्जा इसे भी दिया जाए।अर्थात व्यावसायिक रूप में मान्यता दी जाए ।
  3. कला का संबंध कुलीनता अथवा नैतिकता से न जोड़ा जाए ।
  4. स्त्रियॉं रंगमंच पर प्रवेश करने के लिए हिचकिचाहट न करने। पर पुरुषों को गैर फायदा लेने से रोके,और चरित्र आदि की रक्षा स्वयं करें।
  5. स्त्रियॉं ने समाज के अनुमति की राह नहीं देखनी चाहिए। बल्कि अपने कार्य से, कर्तव्य से उनके पूर्वाग्रह दूर करने चाहिए।
  6. सहकारी पुरुषों में मुक्कता पूर्वक संबंध रखें और अपनी सकारात्मक परंतु कठोर भूमिका निर्माण करें।

एक प्रकार से इसे नारीवादी चिंतन भी कहा जा सकता है । पर मराठी रंगमंच पर स्त्रियॉं के प्रवेश को लेकर यह किया गया,यह यथार्थ है । एक अन्य लेखिका,यमुना बाई द्रविड़ द्वारा अपने समर्थन में प्रतिरोध के स्वर को बुलंद करती है । स्त्री के सकारात्मक चरित्र, भूमिका निर्माण करने में मराठी के अधिकतम नाटककारों ने न्याय नहीं किया गया है। खाडिलकर जैसे बड़े नाटककार भी अपवाद नहीं है। जबकि इनहि खाडिलकर द्वारा ‘कीचक वहा’ जैसा नाटक लिखा गया । किन्तु रंगमंच पर अभिजन,सवर्ण वर्ग की स्त्रियॉं के प्रवेश को लेकर अंत तक विरोध जारी रहा। यह समाज कई शर्ते नियमों के आधार पर स्त्रियॉं को रंगमंच पर आने से इन स्त्रियॉं को रोकती रही । जिसमें श. बा. मजूमदार, न्यायमूर्ति महाबल, श्री म. माटे, गणपतराव बोडस,बालगंधर्व आदि महामनाओं का नाम शामिल है। जबकि कमला बाई किबे,विमल लाल जी,बेबी कुलकर्णी,यमुनाबाई द्रविड़,मथुराताई द्रविड़ आदि महिलाओं ने उसका जोरदार समर्थन किया। अंतत; 1933 में ‘नाट्यमंतर’संस्था द्वारा पहली बार सवर्ण,अभिजन महिलाओं को रंगमंच पर प्रवेश दिया गया। नाटक का नाम था ‘आन्ध्यांची शाझ’ (अन्धो की पाठशाला) । तह नाटक व्योनर्सन आयर्स के ‘गंतलेटनाटक’ का रूपान्तरण था । इस नाटक में ज्योत्सना भोले नायिका तथा पद्माटाई वर्तक सह नायिका के रूप में थी । नायक और निर्देशक थे ज्योत्सना भोले के पति केशवराव भोले। और निर्माता और अनुवादक थे पद्माटाई वर्तक के पति श्री वा. वर्तक।

रंगमंच पर स्त्रियॉं के र्पवेश का एक और महत्वपूर्ण कारण ‘अर्थकारण’ भी था। नाटक मंडलियों द्वारा इसके पूर्व अन्य वर्ग के स्त्रियॉं को 1000 रुपये माह वेतन देना पड़ता था, कुलीन स्त्रियॉं को केवल 150 रुपए माह दिये जाते थे । इस कारण भी नाटक मंडली के मालिक भी सवर्ण,अभिजन महिलाओं के रंगमंच में प्रवेश हेतु उत्तरार्ध में प्रयत्न करते दिखाईदेते थे।अंततः यह एक लंबी लड़ाई जीती तो गयी पर मराठी रंगमंच के इस पूर्वार्ध में दलित शूद्र,बहुजन तथा हाशिये पर आसीन महिलाओं दारा जो भूमिका अदा की गयी उसका महत्व सर्जनात्मक प्रतिरोध स्वर के परिप्रेक्ष्य में समझना आवश्यक है।

*डॉ. सतीश पावड़े

सहायक प्रोफेसर

प्रदर्शनकारी कला विभाग (नाटक और फ़िल्म)

महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा

EMAIL; satishpawade1963@gmail.com

MOBILE; 9372150158

आदिवासी विमर्श में समकालीन यात्रा साहित्य का अवदान-हेमंत कुमार

0
girl in red and white dress sitting on brown wooden stick during daytime
Photo by Deepak kumar on Unsplash

 

आदिवासी विमर्श में समकालीन यात्रा साहित्य का अवदान

“आदिवासी लोक की यात्राएँ” के संदर्भ में

 हेमंत कुमार 
हिन्दी एवं तुलनात्मक साहित्य विभाग
केरल केंदीय विश्वविद्यालय, केरल
दूरभाषा संपर्क- 8574027674
मेल क्रमांक – kumarhemant0777@gmail.com

आदिवासी शब्द सामान्यतः उस जनसमूह को प्रदर्शित करता है जो जंगलों में निवास करते हैं | ये वास्तव में संपूर्ण मानव समाज के सबसे पहले मनुष्य हैं, जिनसे पृथ्वी पर मानव समाज का सृजन हुआ | आदिवासी लोग धरती को माता, आकाश को पिता, हवा को बहन तथा पानी को भाई मानते हैं अर्थात जल, जंगल और जमीन को अपना सब कुछ समझते हैं तथा इनमें आत्मिक लगाव भी महसूस करते हैं | ये लोग प्राकृतिक संतुलन के साथ थोड़ी भी छेड़-छाड़ पसंद नहीं करते हैं | जो लोग करते हैं उनको बर्दाश्त भी नहीं करते हैं, उनके खिलाफ किसी भी हद तक जा कर अपनी जल, जंगल और जमीन की सुरक्षा स्वयं करते हैं | आदिवासियों के जल, जंगल और जमीन तथा उनकी सभ्यता, संस्कृति, वेश-भूषा खान-पान, रहन-सहन सभी चीजों पर दिकुओं ने अतिक्रमण किया तथा उनकी पहचान मिटाने की हर संभव कोशिश की और इनको इतिहास के पन्नों से गायब कर दिया गया | आदिवासियों ने अपनी अस्मिता की सुरक्षा के लिए प्रतिरोध करना शुरू किया, जिसके कारण कुछ आदिवासी लेखकों ने कलम भी उठायी, जिसका जीता-जागता प्रमाण आदिवासी विमर्श है, जो कि कविता, कहानी, नाटक उपन्यास, लोककथा तथा यात्रा-साहित्य के रूप में सामने आने लगा है |

आदिवासी की वास्तविक पहचान को कैसे छिपा लिया गया और सभ्य समाज में कैसे उनके बर्बर प्रतिरूप को प्रदर्शित किया गया, इसको ‘निर्मला पुतुल’ के काव्य संग्रह “बेघर सपने” में संकलित कविता “बायोडाटा” के माध्यम से समझा जा सकता है – “बायोडाटा में जो आदमी दिखता है / वह होता नहीं है / और जो होता है वह दिखता नहीं है / बायोडाटा एक आवरण है /…… बायोडाटा एक तस्वीर है / एक आईना है / जिसमें हर आदमी देखता है अपना पूरा चेहरा / और दिखाता है दूसरे को अपना / आधा-अधूरा चेहरा / इस तरह बायोडाटा में जो दिखता है वह होता नहीं है / और जो होता है वह दिखता नहीं है |”1

आदिवासियों के समस्याओं को साहित्य के रूप में लाने के लिए विभिन्न आदिवासी, गैर-आदिवासी लोगों ने लेखन किए हैं | जिनमें से पिछले डेढ़ दशक की अवधि में अपना विशिष्ट योगदान देने वाले लोगों में महाश्वेता देवी, रमणिका गुप्ता, तेजिंदर सिंह, प्रो. चौधरीराम यादव, रामशरण जोशी, कथाकार संजीव, प्रो. वीरभारत तलवार, प्रो. रविभूषण आदि शामिल हैं | आदिवासी बुद्धिजीवी लेखकों में रामदयाल मुंडा, रोज केरकेट्टा, ग्रेस कुजूर, मंगल सिंह मुंडा, लक्ष्मण गायकवाड, वाहरु सोनवणे, भुजंग मेश्राम, सी. के. जानू, महादेव टोप्पो, निर्मला पुतुल, वंदना टेटे, भीम सिंह मीणा, हरिराम मीणा और अनुज लुगुन जैसे महानुभाव लोगों का नाम सम्मान के साथ लिया जा सकता है |

उक्त साहित्यकारों में से हरिराम मीणा ऐसे व्यक्तित्व हैं जिन्होंने आदिवासी से संबंधित दो काव्य संग्रह, एक प्रबंध काव्य, दो यात्रा-वृतांत, एक उपन्यास, आदिवासी विमर्श की एक पुस्तक तथा समकालीन आदिवासी कविता (संपादित) लिखी हैं | इन्होने अपने साहित्य में आदिवासियों को केंद्र में रखकर उनके खिलाफ हो रहे साजिशो को बेनकाब करने की कोशिश की है |

आदिवासी विमर्श में समकालीन साहित्य का योगदान एक दूसरे के पूरक के रूप में देखा जा सकता है | क्योकि उत्तर आधुनिककाल के दौर में भूमंडलीकरण के प्रभाव से सभी समाज और साहित्य प्रभावित हुआ है ऐसे समय में भला आदिवासी साहित्य और यात्रा साहित्य जैसे अन्य साहित्य अछूते कैसे हो सकते हैं | समकालीन यात्रा साहित्य में अपना विशेष योगदान देने वाले साहित्यकारों में से रामदरश मिश्र, विष्णु प्रभाकर, नरेश मेहता, विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, असगर वजाहत, नासिरा शर्मा, अमृतलाल वेगड़, ओम थानवी, पुरुषोत्तम अग्रवाल, हरिराम मीणा आदि लोगों का नाम प्रमुखता के साथ लिया जा सकता है | हरिराम मीणा ने अब तक दो यात्रा साहित्य लिखे हैं “साईबर सिटी से नंगे आदिवासियों तक” तथा दूसरी पुस्तक “आदिवासी लोक की यात्राएँ” | मेरा शोध आलेख “आदिवासी लोक की यात्राएँ” पुस्तक पर केंद्रित है | हरिराम मीणा ने आदिवासियों के तमाम समस्याओं को जानने के लिए जिन-जिन स्थानों की यात्रा की उनको अपने ज्ञानेन्द्रियो से अनुभूत करके पुस्तकाकार रूप दिया है | उन्होंने भारत में आदिवासियों के वास्तविक स्थिति से रूबरू होने के लिए आदिवासी बहुल इलाकों जैसे झारखण्ड, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, तेलंगाना, आंध्रप्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान व गुजरात की यात्राएँ की और दक्षिण भारत का प्रतिनिधि प्रतिनिधित्व करने वाली नीलगिरी की घाटियाँ, बंगाल की खाड़ी के कालापानी के तूफानी थपेड़ों को सदियों से झेल रहे अंडमान टापू और पश्चिम बंगाल से लेकर हिमालय के धवल शिखरों की यात्राएँ भी शामिल है | इस यात्रा साहित्य में कुल ग्यारह अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय में अलग-अलग आदिवासी इलाकों और आदिवासियों की वास्तविक स्थिति का जीवंत वर्णन है | हरिराम मीणा ने यात्रा साहित्य के महत्व को उद्घाटित करते हुए कहते हैं कि “घुमक्कड़ राहुल जी ने कही कही थी कि ‘सैर कर दुनिया की गाफिल…’ यह कहने के पीछे मस्ती मारना नहीं था प्रत्युत देशाटन के माध्यम से ज्ञानार्जन था | जब बाबा कबीर ने तर्क दिया था कि “तू कहता कागद की लेखी मैं कहता आंखन की देखी” तब उनका भी इशारा फर्स्ट हैंड नॉलेज की तरफ ही था और उससे पहले महात्मा बुद्ध ने भी सलाह दी थी कि “किसी गुरु ने कहा है अथवा किसी ग्रंथ में लिखा इसलिए मत मान लेना, इंद्रीय-बोध से खुद परखना |”2

उक्त बातों से स्पष्ट है कि यात्रा सहित वास्तविक और प्रत्यक्ष रूप से महसूस किया हुआ खोजी ज्ञान होता है | आदिवासियों के बारे में मीडिया सरकार और दिकुओ ने झूठा भ्रम फैला है कि आदिवासी लोग बर्बर और असभ्य होते हैं तथा तीर-धनुष के माध्यम से सामान्य-जन को क्षति पहुंचाते हैं | आमजन पुस्तकों से काफी दूर होते हैं और वास्तविकता से काफी अनभिज्ञ होते हैं | हरिराम मीणा ने इन्हीं सब भ्रम को खत्म करने के लिए आदिवासी क्षेत्रों की यात्रा की और उन आदिवासियों से विचार-विश्लेषण तथा काफी अध्ययन के बाद “आदिवासी लोक की यात्राएँ” नामक पुस्तक लिखी | इस पुस्तक में हरिराम मीणा ने आदिवासियों की प्रमुख समस्याओं को काफी जीवंतता के साथ पाठक के सामने रखी है जिससे आम पाठक वर्ग की संवेदनाएँ आदिवासियों के प्रति स्वतः ही जाग जाती है और आदिवासियों के बारे में तमाम भ्रांतियों को आमजन के मन-मस्तिष्क से बेनकाब करने की कोशिश की हैं | आदिवासियों के बारे में आम लोगों के बीच में तमाम गलत धारणा बनी हुई है कि ये विकास विरोधी होते हैं, इनके बच्चे विद्यालय नहीं जाना चाहते हैं, ये कामचोर होते हैं तथा यह वस्त्र नहीं पहनते हैं या कम पहनते है, ये सामाजिक नहीं होते हैं आदि धारणाएँ बनी हुई है जो कि बिल्कुल गलत है | वास्तविकता यह है कि आधुनिक सभ्य समाज ने आदिवासियों को विकास के नाम पर इतना ज्यादा छला है कि उनका विश्वास ही दिकुओं उद्योगपतियों और सरकारों से उठ गया है | सबसे पहले हमें उन आदिवासियों का विश्वास जीतना होगा जो आदिवासी शुरू से अभी तक लगातार हर प्रकार के शोषण के शिकार होते आए हैं | आदिवासी की जगह हम आमजन भी होते तो शायद हम भी वही करते जो आदिवासी कर रहे हैं | आदिवासियों का विश्वास जीतने के लिए आमजन और आदिवासियों के बीच आत्मिक संप्रेषण का होना बहुत जरूरी है | सरकार आदिवासियों के लिए जो योजनाएँ उनके कल्याण के लिए बनाती है उस समय आदिवासियों के आदिम परंपरा और उनकी मानसिकता को ध्यान मे रख कर बनाएँ | तब आदिवासी लोग उन योजनाओं को सहर्ष स्वीकार करेंगे |

“भील द्रोण फिर से माँगना अंगूठा” नामक अध्याय में हरिराम मीणा ने भील आदिवासियों के बारे में विस्तार से लिखे हैं | झाबुआ क्षेत्र का भ्रमण करते वक्त इनको सुनाई दिया कि आदिवासी विकास विरोधी होते है जिसका कारण यह बताया गया कि सन् 2000 में सरकार ने “इंदिरा आवास योजना” के तहत आदिवासियों को द्विकक्षीय पक्के मकान बना कर देना चाहती थी जिसका आदिवासियों ने कड़ा विरोध किया | विरोध होने का कारण यह था की सरकार की योजनाओं का इन्हे सही से पता ही नहीं था | संप्रेषण का अभाव होने के कारण आदिवासियों ने स्वयं अपने लिए बनाए गए घर को तोड़ दिये और पुनः पुराना घास-फूस की अपनी झोपड़ी बना लीजिए | आदिवासी लोग ऐसा क्यों किए ? जब यह पता किया गया तो आदिवासियों ने बताया कि हमें लगा कि यह लोग हमारे जमीन पर अधिग्रहण कर लेंगे और ये घर हम लोगों के लिए नहीं सरकार के आदमी अपने लिए बनाए हैं |

आदिवासियों पर दूसरा आरोप लगाया जाता है कि ये शिक्षित नहीं होना चाहते हैं लेखक जब मध्य प्रदेश के उज्जैन जिला गए हुए थे तो उक्त संदर्भ में किसी व्यक्ति ने एक संदर्भ बताया कि एक सरकारी स्कूल में मास्टर ने अपने बच्चों से एक सवाल पूछा “एकलव्य कौन था ? किसी ने रटा-रटाया उत्तर दिया कि ‘एक भील का लड़का’ | तब किसी अन्य गैर-आदिवासी छात्र ने महिपाल की तरफ इशारा करते हुए टिप्पणी कर डाली कि भील! यानी कि इसी जैसा जंगली|’ महिपाल भूरिया ने इस अपमान को सहन नहीं करते हुए उसी दिन स्कूल छोड़ दिया |”3

आदिवासियों पर तीसरा आरोप लगाया जाता है कि आदिवासी आलसी होते हैं इसका खण्डन लेखक ने “मुंडा : मेरे बिरसा, तू कहीं से भी आ!” नामक अध्याय में करते हुए कहते हैं – “आदिवासी आलसी नहीं, बल्कि वह उस धन के पीछे नहीं भागता, जो तनिक चूके कि सारी आफतों की जड़ बन जाता है | भौतिक सुविधाओं के बोझ तले आदिवासी दवना-घुटना नहीं चाहता, वह जहाँ तक संभव हो फुर्सत निकाल कर जीवन को जीना चाहता है |”4

आदिवासियों के बारे में आमजन के बीच चौथी धारणा है कि ये आदिवासी लोग कपड़े नहीं पहनते या बहुत कम पहनते हैं, अब आप ही लोग बताइए कि जो आदिवासी अपने पेट तक नहीं भर पा रहा है तथा उनके बच्चे कुपोषण का शिकार हो रहे हैं जो अपने तथा अपने परिवार की दवा तक नहीं कर पा रहे हैं भला वे लोग कैसे अच्छे कपड़े पहन सकते हैं | आदिवासी हो या कोई भी मानव समुदाय हो किसको अच्छा खाना, पीना पहनना अच्छा नहीं लगता |

आदिवासियों के बारे में आमजन के बीच पाँचवी धारणा है कि आदिवासी सामाजिक नहीं होते हैं इन आदिवासियों के सामाजिकता का अंदाजा आदिवासियों की शादी-ब्याह या गमी के मौके पर देखा जा सकता है | याथा “किसी खुशी अथवा गमी के मौके पर किसी परिवार द्वारा जो सामूहिक भोज दिया जाता है उसका भार आयोजनकर्ता घर-परिवार के कंधों पर ही नहीं पड़ता, बल्कि सारी बस्ती तथा रिश्तेदार किसी ने किसी प्रकार का योगदान देते हैं चाहे अनाज, आटा, गुड़, तेल, घी, नमक, मसाले, दाल, चावल,वगैरा-वगैरा कुछ भी हो | किसी दूसरे पर भार नहीं बनने की आदिम प्रवृत्ति और सामूहिकता की भावना इनकी संस्कृति में कुट-कुट कर भरी हुई है |”5

आदिवासियों के अच्छाइयों पर गौर करें तो इन लोगो में दहेज प्रथा भी नहीं होती बल्कि उल्टा लड़के वाला लड़की पक्ष को मूल्य देता है | “गरासिया : पत्थर ही फेंकते रहोगे क्या?” नामक अध्याय में मीणा जी ने आदिवासियों के प्रेम विवाह का बड़ा ही मोहक वर्णन किया है, “विवाह की ‘भगोरिया’ प्रथा भी मैंने यही देखी | मेले की मस्ती के दौरान युवक-युवतियों के मध्य प्रेम संबंध भी बनते हैं | ऐसे बहुत से जोड़े मेला स्थल से भागकर निकटवर्ती ‘मगरा’ यानी कि पहाड़ी पर चढ़ जाते हैं और वहाँ से ऐलान करते हैं कि “मैं फला का छोरा और मै फला की छोरी ब्याह करना चाहते हैं |”….. इस प्रकार प्रेम पर आधारित विवाह संबंधों की ऐसी स्वतंत्र पारंपरिक समाजों में अन्यत्र देखने को कहाँ मिलेगी?”6

उक्त विवेचना से स्पष्ट हो गया होगा कि जो सभ्य समाज आदिवासियों को बर्बर कहते है तथा तमाम घिनौनी आक्षेप लगाते है उनमें कितना सत्यता है | वास्तविकता यह है कि आदिवासियों के जल, जंगल, जमीन का लगातार शोषण होने से आदिवासी लोग अभिशप्त जीवन जीने के लिए मजबूर हो रहे हैं | दिकुओं के ज्ञान मे बर्बर, अज्ञानी समझे जाने वाले आदिवासियों के अधिकार क्षेत्र में जब जल, जंगल और जमीन थी तब प्राकृतिक संतुलन बहुत अच्छा था, वर्षा नियमित होती थी, जंगल हरे-भरे हुआ करते थे, शुद्ध ऑक्सीजन अच्छी मात्रा में मिलती थी, सूखा नहीं पड़ता था, वही जब से जल, जंगल और जमीन, सभ्य और अपने को शिक्षित मानने वाले ज्ञानी दिकुओं के अधिकार क्षेत्र में गया, तब से लगातार प्राकृतिक संतुलन बिगड़ने लगा है जिसका आशीर्वाद स्वरूप प्रकृति ने हमें ग्रीन हाउस गैस प्रभाव, ओजोन परत का फटना, दिनों-दिन कार्बन डाइऑक्साइड गैस की मात्रा में वृद्धि होना, सूर्य की पराबैगनी किरणों का बढ़ता प्रभाव, नियमित समय पर वर्षा न होना, अम्लीय वर्षा होना, हिम ग्लेशियरों का पिघलना, समुद्र के जल स्तर में बढ़ोतरी होना, विभिन्न खतरनाक चक्रवातों का आना आदि अनेक प्रभाव प्रकृति ने हमें सौगात के रूप में हमें भेंट की हैं | इस प्रकार से प्राकृतिक संतुलन बिगड़ जाने से पुरे दुनिया का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है | अब हमें सोचना चाहिए कि वास्तव में प्रकृति के रखवाले असभ्य, बर्बर और अज्ञानी आदिवासी लोग हैं या अपने को ज्ञानी, शिक्षित मानने वाले दिकु |

आदिवासियों का लिंगानुपात हम सभ्य और शिक्षित समाज से काफी अच्छा है, जबकि हम सभ्य और शिक्षित लोग है | ये भी सोचने पर मजबूर करता हैं | हम अपने अतीत को याद करें तो जिस आदिवासी मनुष्य से आज हम होमोसेपियंस आधुनिक मानव कह लाते हैं उसमे भी आदिवासियो का ही योगदान है | प्राचीन काल मे आग की खोज हो या पहिये की खोज हो, तमाम औषधियों ज्ञान, धातुओं का ज्ञान इन्हीं लोगों से प्राप्त हुए हैं | हिन्दी भाषा के शब्दकोश मे बहुत से आदिवासी बहुल क्षेत्रों मे प्रचलित शब्दों को लिया गया हैं | इस प्रकार से हिन्दी भाषा के शब्दावलियों मे वृद्धि करने मे भी आदिवासियों का योगदान है |

उक्त बातों पर ध्यान दे तो पाते है की हम आदिवासियों से लेने के सिवाय देने का कार्य नहीं के बराबर किए हैं | बस कहने को हम सभ्य और शिक्षित हैं जबकि हमसे काफी समझदार आदिवासी लोग हैं | आज जरूरत है तो आदिवासियों के शब्द संपदा, भाषा, लिपि, औषधि ज्ञान और भी अन्य ज्ञान को जो केवल आदिवासियों को ही पता हैं उनको सूरक्षित करने का हैं | यदि समय रहते इन बातों पर गौर नहीं किया गया तो आदिवासियों के साथ ही साथ उनका ज्ञान संपदा भी अतीत के गर्भ मे दफन हो जाएगा |

उक्त संदर्भ में डॉ. रमेश चंद्र मीणा ने सभ्य समाज की चुटकी लेते हुए “हम तुमको आदमी बना देगे” शीर्षक कविता में व्यक्त किए है – “वे आए / हमें सभ्यता सिखाने / झोपड़ियों से निकलकर / अपटूडेट बनाने उन्होंने कहा / तुम्हारी परम्पराएँ आदिम हैं / संस्कार आउटडेटेड हैं / हम तुम्हें सभ्य बनाएंगे / और कुछ ही सालों में / तुम्हें आदमी बना देंगे / उन्होंने पहाड़ों को थोड़ा / जंगलों को काटा / हमारी झोपड़ी पर / बुलडोजर चलाकर / कुछ सिक्के फेंक दिए / महुआ के पेड़ों के बदले / थमा दी दारू की बोतल / अब वहाँ ऊँची-ऊँची चिमनिया / उगल रही है गाढ़ा धुआ / पगडंडियाँ सड़कों में बदल गई / और हम मजबूरी में / मजदूरों में बदल गए / साहूकारों और दिकुओं के / भाग्य खुल गए / और हम निराधार बन गए / आदमी बनाने की ओट में / आजादी ही नहीं / सब कुछ छीन लिया / अस्मिता भी और अस्मत भी / पहले वे हमें असभ्य बताते थे / और अब / हमारी नई पीढ़ी के अपने / हमें असभ्य बताते हैं / समझ में नहीं आ रहा है कि हम पहले असभ्य थे / या अब असभ्य हैं |”7

निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि जो आदिवासीयों के पास अच्छा है उसे अपनाया जाए और सभ्य विकसित लोगों के पास जो अच्छा है उन आदिवासी लोगों के साथ साझा किया जाए | आदिवासियों को उनके आदिमता से बाहर लाया जाए और उनको भौतिक सुख-सुविधाओं से परिचित कराया जाए | सब मिलाकर उन आदिवासियों को उनकी आदिमता वाले हालत पर छोड़ना भी नहीं है और उनके निवास क्षेत्रों में आवश्यकता से अधिक छेड़-छाड़ भी नहीं करनी है, तब जाकर आदिवासियों की दशा और दिशा में सुधार हो सकता है |

संदर्भ ग्रंथ सूची

  1. निर्मला पुतुल, बेघर सपने, आधार प्रकाशन प्रा. लि. एससीएफ 267, सेक्टर-16 पंचकूला – 134113 (हरियाणा), प्रथम संस्करण : 2014, पृ. 32
  2. हरि राम मीणा, आदिवासी लोक की यात्राएँ, भारतीय ज्ञानपीठ 18, इन्स्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, नयी दिल्ली- 110003, प्रथम संस्करण : 2016, पृ. 129
  3. वही, पृ. 42
  4. वही, पृ. 114
  5. वही, पृ. 49
  6. वही, पृ. 69
  7. बी. पी वर्मा ‘पथिक’- अरावली उद्घोष, अंक 58, पृ. 58

आदिवासी कथा साहित्य में स्त्री-लीना कुमारी मीना

0
gray concrete road between green trees during daytime
Photo by Hemendra Ahuja on Unsplash

आदिवासी कथा साहित्य में स्त्री

लीना कुमारी मीना
शोधार्थी , जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय
नई दिल्ली ११००६७

वर्तमान दौर में आदिवासी साहित्य अस्मितावादी विमर्शों की कड़ी में अपनी पहचान के लिए दस्तक दे चुका है दलित व स्त्री साहित्य के बाद, अब आदिवासी साहित्य अपनी प्रखर आवाज में सदियों से शोषित-पीड़ित आदिवासी समाज के संघर्षों को वाणी दे रहा है|

“भारत के लोग अधिकतर जनजातियों(एस.टी.)को आदिवासी कहते हैं|…..संस्कृत में आदिवासी शब्द का अर्थ है, किसी क्षेत्र के मूल निवासी जो आदिकाल से किसी स्थान विशेष में रहते चले आ रहे हैं| माना जाता है कि आदिवासी भारतीय प्रायद्वीप के सबसे प्राचीन बाशिंदे या मूल निवासी हैं|”[1] इसके अलावा यह भी मान्यता है कि “आर्यों के अतिक्रमण के समय आदिवासी पहले से ही भारतीय उपमहाद्वीप में रह रहे थे|”[2] अर्थात् प्राचीनकाल में आर्यों ने भारतवर्ष पर आक्रमण के दौरान यहाँ के मूल निवासियों में से कुछ को बंदी बना लिया व कुछ घने जंगलों में पलायन कर गये| बंदी बनाये जाने वाले लोगों को अछूत कहा जाने लगा एवं जो व्यक्ति समूह बनाकर घने जंगलों में पलायन कर गये; वे सभ्यता, संस्कृति, आचार–विचार से मुख्यधारा के समाज से बिल्कुल कट गये| ये लोग समूहों के रूप में रहने लगे, ऐसे लोगों को ही आदिवासी कहा जाने लगा|

अंग्रेज सरकार की औपनिवेशिक नीति में विकास के तहत जंगलों की कटाई शुरू हुई जिससे आदिवासियों के पारम्परिक रोजगार के साधन समाप्त हो गये और इन्हें आजीविका के लिए मजदूरी का विकल्प तलाशना पड़ा| अंग्रेजी प्रशासक प्रारम्भ में इन्हें बहादुर, मेहनती और सरल स्वभाव का मानते थे परन्तु जब इन आदिवासियों ने अंग्रेजों की स्वार्थपूर्ण नीतियों का विरोध किया तो उन्होंने इनकी अर्थव्यवस्था, धर्म, संस्कृति एवं रीति-रिवाजों का कोई सम्मान न करते हुए इन्हें घुमन्तू, असभ्य एवं जंगली घोषित कर दिया|

यद्यपि आदिवासी साहित्य की मौखिक रूप में एक लम्बी परम्परा रही है परन्तु अशिक्षा की वजह से उसका कोई लिखित इतिहास नहीं रहा| आजादी के बाद से ही आदिवासी समाज को साहित्य का विषय बनाया जाने लगा परन्तु उसमें उन्हें प्रकृति पर निर्भर, कमर पर बित्तेभर चिंदी लपेटने वाला अर्थात् एक अजूबे के रूप में पेश किया गया| स्वतंत्रता के पश्चात् ‘राष्ट्र निर्माण’ के लिए बनाई गयी नीतियों ने आदिवासी समाज के सामने व्यापक समस्याएं खड़ी कर दी| उन नीतियों की वजह से उनके जंगलों पर रहे परम्परागत अधिकार खत्म होते चले| औद्योगीकरण की नीतियों ने उनको अपने जल, जंगल, जमीन से बेदखल कर दिया, इसके तहत जो समाज अब तक आत्मनिर्भर था वही अब भूखा मरने लगा| ऐसे समय में योगेन्द्रनाथ सिन्हा, राजेन्द्र अवस्थी, शानी, मेहरुनिशा परवेज आदि लेखक-लेखिकाओं ने इस समाज को लेखनी का विषय बनाया| बंगला लेखिका महाश्वेता देवी के आदिवासी लेखन और उड़िया लेखक गोपीनाथ महंती ने आदिवासी लेखन के हिंदी अनुवादों से भी आदिवासी समाज की तरफ पाठक वर्ग का ध्यान खींचा,लेकिन आदिवासी समाज तथाकथित मुख्यधारा के साहित्य में हाशिये पर ही बना रहा|

आदिवासी समुदाय के हाशियेकरण की कोशिश 90 के दशक में सर्वाधिक हुई| 90 के दशक में भारत सरकार की वैश्वीकरण, उदारीकरण की नीतियों ने आदिवासी समाज को सर्वाधिक प्रभावित किया| उदारीकरण की नीतियों ने मुक्त व्यापार और मुक्त बाजार की व्यवस्था को स्थापित किया जिससे सीधे तौर पर आदिवासी समुदाय प्रभावित हुआ क्योंकि देश की सबसे अधिक वन एवं अन्य प्राकृतिक सम्पदा, खनिज सम्पदा आदिवासी क्षेत्रों में है| इस प्राकृतिक सम्पदा की लूट-खसोट के लिए नित्य नई वैश्विक कम्पनियां आदिवासी इलाकों में पहुँचने लगी है जिसके कारण आदिवासी समाज के जल, जंगल, जमीन उनसे छीने जाने लगे| सरकार उनकी स्थितियों पर गौर किए बिना उनके शोषण में उद्यमियों का साथ दे रही है- “छत्तीसगढ़, झारखण्ड और उड़ीसा में हाल के दिनों में वहाँ की सरकारों ने खनिज सम्पदा के अंधाधुंध दोहन में जुटी देश-विदेश की बड़ी कम्पनियों के इशारे पर जिस तरह से सूबे की गरीब, आदिवासी और पिछड़ी आबादी को विकास के ‘शत्रु-खेमे’ में डालकर उनके खिलाफ अभियान चलाया है, वह भारतीय लोकतंत्र के अब तक के इतिहास का सबसे शर्मनाक कारनामा है| लाखों को बेदखल किया गया है और असंख्य भूमि हड़पी गयी है| इस तरह के उद्योग-विस्तार के नाम पर जहाँ-जहाँ राज्य प्रशासन ने भूमि-हड़प अभियान को सफलतापूर्वक चलाया, सत्ताधारी खेमे और मीडिया के बड़े हिस्से ने उन सरकारों को ‘विकासवादी’ बताकर महिमामंडित किया है|” [3]इसी तरह के भूमि-हड़प के चक्कर में सिंगूर और नंदीग्राम में जिस तरह से सरकार ने गरीबों पर अत्याचार किए हैं वह रोंगटे खड़े करने वाले हैं| इससे विस्थापन की समस्या प्रमुख रूप से सामने आयी है| इस विस्थापन एवं पलायन की सर्वाधिक मार आदिवासी महिलाओं को झेलनी पड़ी है| जंगलों के उजड़ने व औद्योगिक शहरों के विकास के कारण आदिवासी महिलायें पहले से अधिक असुरक्षित हो गई हैं| शिक्षा और स्वास्थ्य की सुविधाओं के प्रचार–प्रसार से आदिवासियों का मुख्यधारा के समाज से सम्पर्क स्थापित हुआ हैं| इससे इस समाज की स्त्रियों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा| पितृसत्तात्मक व्यवस्था का प्रभाव आदिवासियों पर मुख्यधारा के समाज से ही आया है वरन् आदिवासी समाज में स्त्री एवं पुरुष की स्वतन्त्रता व समानता में विशेष अंतर नहीं है| इस समाज में स्त्रियों के सम्मान एवं स्वतन्त्रता में जब कोई दखल देता है तो वे इसका खुलकर विरोध करती हैं परन्तु गैर आदिवासी रचनाकारों ने मुख्यधारा के देखा-देखी आदिवासी साहित्य में भी स्त्री पर बाहरी संस्कृति लाद दी है इस सन्दर्भ में डॉ. रोज केरकेट्टा लिखती है- “आदिवासी शिष्ट साहित्य में स्त्री श्रम, सहिष्णुता, ममत्व से पूर्ण तो मिलती है, लेकिन अपने लिए और परिवार के लिए निर्णय लेती हुई कम मिलती है| वह जीने के लिए कठिन परिश्रम करती है, देस-परदेस जाती है, सेवा करती है, दूसरों को प्रसन्न रखने के लिए|”[4] परन्तु वास्तविकता में ऐसा नहीं है यह केवल सामन्ती समाज की सोच है| आदिवासी कविता व लोककथाओं में यह स्त्री बराबरी की माँग करती हुई इस तरह नजर आती है-

“मैं जानती हूँ कि तुम क्या सोच रहे हो मेरे बारे में

वही जो एक पुरुष, एक स्त्री के बारे में सोचता है|

पर याद रखो

तुम्हारी मानसिकता की पेचीदा गलियों से गुजरती

मैं तलाश रही हूँ तुम्हारी कमजोर नसें

ताकि ठीक समय पर

ठीक तरह से कर सकूं हमला

और बता सकूं सरेआम गिरेबान पकड़

कि मैं वो नहीं हूँ जो तुम समझते हो|”

आदिवासी समाज में स्त्री अपनी आजादी में किसी की रोक-टोक स्वीकार नहीं करती है| यदि उसकी मान्यताएं इसमें उसके आड़े आती है तो वह इनका विरोध करती है| ‘शाम की सुबह’ उपन्यास में वाल्टर भेंगरा ‘तरुण’ ने संध्या नामक युवती को कथा नायिका बनाया है जो जीवन में आने वाली कई समस्याओं से जूझते हुए समाजसेवा के निहितार्थ नर्स के व्यवसाय को अपनाती है| इस उपन्यास में स्त्री का आत्मसम्मान सर्वोपरि है| उसके जीवन में कई उलझने आती है परन्तु वह कुंठाग्रस्तता से बचते हुए अपने स्वाभिमान एवं नारीत्व को बनाए रखती है|

‘लौटते हुए’ उपन्यास में लेखक ने आदिवासी युवतियों के काम के लिए महानगरों की ओर तेजी से बढ़ते पलायन की समस्या को कथावस्तु का आधार बनाया है| इस उपन्यास में आदिवासी युवती ‘सलोमी’ कथा की नायिका है| महानगरों में इन युवतियों को विविध समस्याओं का सामना करना पड़ता है| वहाँ सभी लोग इनका अधिक से अधिक शोषण करना चाहते हैं, जिसमें देह शोषण भी शामिल है| पिछड़े हुए आदिवासी इलाकों में लोग सुधारवाद से प्रभावित होकर ईसाई धर्म में धर्मान्तरित हो गये परन्तु इससे उनकी सामाजिक स्थिति में कोई सुधार नहीं आया है|

इसके अलावा इस उपन्यास में एक मुद्दा यह भी उठाया गया है कि माता-पिता एवं परिवार की देखभाल के एवज में आदिवासी स्त्रियों को पैतृक सम्पति में हिस्सा नहीं मिलता| माता-पिता के जीवित रहते हुए एवं उनकी सेवा करने के उपरांत भी, उनकी जमीन की उपज का उपभोग तक वे नहीं कर पाती हैं| उनकी विडम्बना है कि कमाकर कर लाए गए पैसों का उपभोग पूरा परिवार करता है, परन्तु उनके भविष्य के लिए तनिक भी चिंता नहीं करता|

‘छैला सन्दू’ मंगल सिंह मुंडा द्वारा रचित उपन्यास है| आदिवासी समाज स्त्री-पुरुष के प्राकृतिक प्रेम को सहजता से स्वीकार करने वाला समाज रहा है| कुल-जाति-गोत्र-पूंजी की दीवारें यहाँ प्रेम के रास्ते में खड़ी नहीं की जाती| लेकिन अपने स्वाभिमान को गिरवी रखकर प्रेम के आगे बिक जाना भी यहाँ स्वीकार्य नहीं है| इस उपन्यास का नायक छैला सांवले रंग का, छरहरे शरीर का, आकर्षक व्यक्तित्व और मानवीय गुणों से युक्त अपने समाज का चहेता पात्र है| सन्दू इलाके के सूबेदार की बेटी बुंदी से प्यार करता है लेकिन एक दिन इस बेमेल प्रीति की बात उजागर हो जाती है| ऊँची जाति और ऊँचे पद का गुमान अपनी बेटी के आदिवासी प्रेमी को स्वीकार कैसे सकता था? इस कारण सूबेदार सन्दू के गाँव पर अपनी फौज के साथ चढ़ाई करता है| मुंडा आदिवासी भी अपने प्रेम और स्वाभिमान की खातिर सन्दू का साथ देते हुए हाकिम से युद्ध करते हैं| किन्तु आदिवासियों की संयुक्त ताकत के सामने हाकिम को झुकना पड़ता है| लेकिन अपने स्वाभिमान की लड़ाई में वह सन्दू और बुंदी के प्रेम और विवाह के साथ एक प्रतियोगिता की शर्त जोड़ देता हैं परन्तु शर्त जीतकर अपने प्रेम को उपहार में एक वस्तु की तरह पाना, स्त्री-पुरुष समता में विश्वास करने वाली आदिवासी संस्कृति का रिवाज नहीं होता| अत: शर्त में मिले दान को नकारकर सन्दू अपने गाँव लौट आता है| लोगों की साजिश के तहत सन्दू की मौत हो जाती है एवं सन्दू की मौत से उसका इंतजार कर रही बुंदी के भी प्राण पखेरू उड़ जाते है| इस उपन्यास के माध्यम से ज्ञात होता है कि स्त्री-पुरुष की सहज मैत्री आदिवासी समाज में उदारता की द्योतक है|

‘शव काटने वाला आदमी’ उपन्यास येसे दरजे थोंगछी द्वारा लिखित है| अरुणाचल प्रदेश की एक जनजाति है मनपा| बौद्ध धर्मावलम्बी इस जनजाति के लोग मृतकों को एक सौ आठ टुकड़ों में काटकर नदी में बहा देते हैं| इसी रीति के आधार पर इस उपन्यास की कहानी केन्द्रित है| मनपा जनजाति में स्त्री–पुरुषों के मध्य समानता है| स्त्रियाँ भी पुरुषों के प्रत्येक कार्य में बराबर की भागीदारी निभाती है| इस उपन्यास में स्त्री बेटी, पत्नी, माँ, प्रेमिका व दोस्त के रूप में उपस्थित है| वह अपने प्रत्येक रिश्ते को बखूबी निभाती है|

फादर पीटर पौल एक्का ने भी ‘मौन घाटी’, ‘जंगल के गीत’, ‘पलाश के फूल’ एवं ‘सोनपहाड़ी’ में आदिवासी जनजीवन को अपने उपन्यासों की विषयवस्तु बनाया है| ‘मौनघाटी’ उपन्यास में रांची के निकट ‘अम्बाघाट’ नामक आदिवासी इलाका केंद्रबिंदु के रूप में है| उपन्यास में सरोज, सरस्वती, सुधारानी आदि स्त्रीपात्र है; ये सभी इस इलाके के सुधार हेतु प्रयासरत हैं, परन्तु अस्पताल का कर्मचारी हरिया, फोरेस्टर व कुछ लोग अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए यहाँ के लोगों का भरपूर शोषण करते हैं तथा औरतों को वे केवल भोग की वस्तु समझते हैं|

‘जंगल के गीत’ उपन्यास में लेखक ने आदिवासियों के एक गाँव को केंद्रबिंदु बनाया है जो दुनिया के नियमों से बेखबर अपने अलग संसार में खुश है| दिकु समाज का शोषणतन्त्र यहाँ भी अपना शिकंजा फैलाये हुए है जो तरह- तरह के हथकंडे अपनाकर इन आदिवासियों का शोषण करने में कोई कसर नहीं छोड़ता| इन आदिवासियों के मध्य पितृसत्तात्मक व्यवस्था हावी नहीं है| समाज के नियमों-उपनियमों को बनाने में यहाँ स्त्री व पुरुष अपनी समान भागीदारी निभाते हैं एवं सभी मिलकर शोषक वर्ग का प्रतिरोध करते हैं|

‘पलास के फूल’ एवं ‘सोनपहाड़ी’ उपन्यासों में भी फादर पीटरपौल एक्का ने आदिवासी समुदायों के रहन-सहन, संस्कृति एवं सामाजिक जीवन को बखूबी उकेरा है| इस समुदाय में स्त्री-पुरुष सम्बन्धों को लेखक ने बेहतर ढंग से पेश किया है एवं दिखाया है कि औरतें किस तरह से सामाजिक व्यवस्था में अपनी भागीदारी भलीभांति निभाती हैं|

‘पूर्वोत्तर की आदिवासी कहानियाँ’ कहानी संकलन ‘रमणिका गुप्ता’ द्वारा सम्पादित है| पूर्वोत्तर की कहानियाँ अपनी संस्कृति, भाषा, भूगोल आदि कई मायनों में शेष भारत से अलग है| बीस कहानियों के संग्रह में दस भाषा की कहानियाँ शामिल है| असम से बोडो, कार्बी और तीवा भाषा की तेरह कहानियाँ हैं| मिजो और खासी की तीन-तीन और तैनिडे, लेपचा और शेरदुकपेन की दो-दो और कोकबोरोक व मैतेई भाषा की एक-एक कहानी है| आदिवासी महिला की स्थिति सामाजिक परम्पराओं रीति-नीतियों और सामाजिक नियमों के कम बंधन के चलते आजाद रहती है पर आर्थिक बदहाली और पुरुष की सोच कई बार वैसी क्रूर रही है जितनी कि मुख्यधारा में देखने को मिलती है| वह उतनी ही प्रताडना की शिकार है जितनी भारतीय औरत रही है| ‘बाँझ’ कहानी में पुरुष से औरत की कमजोर स्थिति व त्रासदी को उजागर किया है| रोबांसी हमेशा अपने पति द्वारा पीटी जाती है| उसकी पिटाई में सास-ससुर की मूक सहमति रहती है क्योंकि वह बाँझ है| वह उनके आरोपों और पति की पिटाई से तंग आकर अपने पूर्व प्रेमी गजोम की झोपड़ी में एक अंधेरी रात में दस्तक देकर उसे पत्नी बनाने का खुला प्रस्ताव देती है| परन्तु गजोम की चुप्पी का अर्थ ना समझकर वह रात में ही घर लौट आती है| पति दूसरे का बच्चा पत्नी की कोख में पलता देख कर उसे बुरी तरह से पीटता है| इस कहानी से पता चलता है कि कई बार आदिवासी औरत भी अन्य औरतों की भांति पति की ज्यादतियाँ सहती है| पूर्वोत्तर आदिवासी समाज की सांस्कृतिक झांकी इस कहानी संग्रह में संकलित कहानियों के माध्यम से मिलती है|

‘पगहा जोरी-जोरी रे घाटों’ में आदिवासी लेखिका रोज केरकेट्टा द्वारा लिखित कहानियाँ संकलित है| इन कहानियों में झारखण्ड के ग्रामीण समाज के प्रति उनका गहरा जुड़ाव दिखाई देता है| भंवर, घाना लोहार का, कोंपलों को रहने दो, केराबांझी इत्यादि कहानियों में लेखिका स्त्री अधिकारों व उनकी प्राप्ति को लेकर प्रतिबद्ध है| भंवर एक आदिवासी विधवा महिला की कहानी है जिसे कानूनी रूप से अधिकार मिलने पर भी सामाजिक कमजोरी के कारण वह इनका उपयोग नहीं कर पाती है इससे समाज में स्त्री की वास्तविक स्थिति का बोध होता है| ‘केराबांझी’ पुरातन परम्परा का पालन करने वाले एक किसान कालीचरण की कहानी है जो परिवार नियोजन को एक बुराई के रूप में देखता है परन्तु उसके दो बेटे व बहू इसका विरोध करते हैं| उसकी बहू सिर्फ एक बेटी पैदा करती है एवं स्वयं को केराबांझी कहने पर कोई शर्म महसूस नहीं करती| इस कहानी में स्त्री-चेतना की झलक देखने को मिलती है|

‘अपना-अपना युद्ध’, ‘जंगल की ललकार’ व ‘देने का सुख’ कहानी संकलन वाल्टर भेंगरा ‘तरुण’ द्वारा रचित है| इन कहानी संकलनों में उन्होंने आदिवासी समाज में विद्यमान पितृसत्तात्मक व्यवस्था एवं आदिवासी स्त्रियों की स्थिति का जिक्र किया है|

‘राजकुमारों के देश में’ एवं ‘क्षितिज की तलाश’ फादर पीटर पाल एक्का द्वारा रचित कहानी संग्रह है| इन कहानियों में भी लेखक ने आदिवासी समाज की विसंगतियों को उजागर किया है|

‘सिसकियाँ’ कहानी संग्रह विजय सिंह मीणा द्वारा रचित है| विगत दशकों में गाँव की दशा-दुर्दशा में भारी बदलाव आया है| आधुनिकता के संसाधन शहरों-कस्बों से होते हुए गाँव तक पहुंच गये हैं एवं गाँव भी छल-कपट और राजनीतिक कुचेष्टाओं के शिकार हो रहे हैं| अधिकांश गाँव का जीवन आज भी अभाव और उत्पीड़न का जीवन है| नारी जीवन तो और भी दुखद है क्योंकि इन्हें दोहरी मार झेलनी पड़ रही है, जहाँ सामाजिक बन्धनों ने इन्हें कठोर बेड़ियों में जकड़ रखा है, वहीं वे अपने परिवार में ही घुट-घुट कर जीवन बिताने को विवश हो जाती हैं| इनकी लगभग सारी कहानियाँ राजस्थान के ग्रामीण समाज का प्रतिनिधित्व करती हैं|

मंगल सिंह मुंडा की कहानियाँ ‘महुआ का फूल’ नामक कहानी संग्रह में संकलित हैं| इनकी कहानियाँ समयानुकूल है| इन्होंने अपनी कहानियों के माध्यम से समाज के नग्न और कठोर यथार्थ को बड़े खुले और स्पष्ट ढंग से उजागर करने का प्रयत्न किया है| कहानियों में स्वाभाविकता एवं मनोवैज्ञानिकता है| ‘महुआ का फूल’ शीर्षक कहानी में लेखक ने पुरुषों के अत्याचारों का विरोध करती हुई नारी को दर्शाया है| आदिवासी स्त्री राधिकाबाई करमु सरपंच के आदमी बिरजू को छुरा मारकर हत्या कर देती है और इस प्रकार वह स्त्रियों के ऊपर होने वाले पुरुषों के अत्याचारों का विरोध करती है जिससे समाज में स्त्रियों का सिर ऊँचा उठता है| ‘सिंदूर की डिबिया’ शीर्षक कहानी दहेज विरोधी एक लड़की के त्याग की कहानी है| दहेज के कारण सुनीता की शादी भूपति बाबू नहीं कर पाते| सुनीता पिता के दर्द को पहचान जाती है और अचानक एक दिन घर से चुपचाप निकल पडती है|

  1. पृष्ठ स. 29,आदिवासी कौन-रत्नाकर भेंगरा,सी.आर बिजोय,सम्पादिका- रमणिका गुप्ता
  2. पृष्ठ स.37भारत का इतिहास,रोमिला थापर- भाग 1 ,पेंग्विन प्रकाशन, नई दिल्ली
  3. पृष्ठ स.13,उदारीकरण और विकास का सच, सम्पादक- उर्मिलेश, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स(प्रा.)लिमिटेड ,नई दिल्ली-2010
  4. पृष्ठ संख्या197, आदिवासी साहित्य विमर्श- लेखिका-वंदना टेटे (सम्पादक- गंगा सहाय मीणा)