आदिवासी विमर्श में समकालीन यात्रा साहित्य का अवदान

“आदिवासी लोक की यात्राएँ” के संदर्भ में

 हेमंत कुमार 
हिन्दी एवं तुलनात्मक साहित्य विभाग
केरल केंदीय विश्वविद्यालय, केरल
दूरभाषा संपर्क- 8574027674
मेल क्रमांक – kumarhemant0777@gmail.com

आदिवासी शब्द सामान्यतः उस जनसमूह को प्रदर्शित करता है जो जंगलों में निवास करते हैं | ये वास्तव में संपूर्ण मानव समाज के सबसे पहले मनुष्य हैं, जिनसे पृथ्वी पर मानव समाज का सृजन हुआ | आदिवासी लोग धरती को माता, आकाश को पिता, हवा को बहन तथा पानी को भाई मानते हैं अर्थात जल, जंगल और जमीन को अपना सब कुछ समझते हैं तथा इनमें आत्मिक लगाव भी महसूस करते हैं | ये लोग प्राकृतिक संतुलन के साथ थोड़ी भी छेड़-छाड़ पसंद नहीं करते हैं | जो लोग करते हैं उनको बर्दाश्त भी नहीं करते हैं, उनके खिलाफ किसी भी हद तक जा कर अपनी जल, जंगल और जमीन की सुरक्षा स्वयं करते हैं | आदिवासियों के जल, जंगल और जमीन तथा उनकी सभ्यता, संस्कृति, वेश-भूषा खान-पान, रहन-सहन सभी चीजों पर दिकुओं ने अतिक्रमण किया तथा उनकी पहचान मिटाने की हर संभव कोशिश की और इनको इतिहास के पन्नों से गायब कर दिया गया | आदिवासियों ने अपनी अस्मिता की सुरक्षा के लिए प्रतिरोध करना शुरू किया, जिसके कारण कुछ आदिवासी लेखकों ने कलम भी उठायी, जिसका जीता-जागता प्रमाण आदिवासी विमर्श है, जो कि कविता, कहानी, नाटक उपन्यास, लोककथा तथा यात्रा-साहित्य के रूप में सामने आने लगा है |

आदिवासी की वास्तविक पहचान को कैसे छिपा लिया गया और सभ्य समाज में कैसे उनके बर्बर प्रतिरूप को प्रदर्शित किया गया, इसको ‘निर्मला पुतुल’ के काव्य संग्रह “बेघर सपने” में संकलित कविता “बायोडाटा” के माध्यम से समझा जा सकता है – “बायोडाटा में जो आदमी दिखता है / वह होता नहीं है / और जो होता है वह दिखता नहीं है / बायोडाटा एक आवरण है /…… बायोडाटा एक तस्वीर है / एक आईना है / जिसमें हर आदमी देखता है अपना पूरा चेहरा / और दिखाता है दूसरे को अपना / आधा-अधूरा चेहरा / इस तरह बायोडाटा में जो दिखता है वह होता नहीं है / और जो होता है वह दिखता नहीं है |”1

आदिवासियों के समस्याओं को साहित्य के रूप में लाने के लिए विभिन्न आदिवासी, गैर-आदिवासी लोगों ने लेखन किए हैं | जिनमें से पिछले डेढ़ दशक की अवधि में अपना विशिष्ट योगदान देने वाले लोगों में महाश्वेता देवी, रमणिका गुप्ता, तेजिंदर सिंह, प्रो. चौधरीराम यादव, रामशरण जोशी, कथाकार संजीव, प्रो. वीरभारत तलवार, प्रो. रविभूषण आदि शामिल हैं | आदिवासी बुद्धिजीवी लेखकों में रामदयाल मुंडा, रोज केरकेट्टा, ग्रेस कुजूर, मंगल सिंह मुंडा, लक्ष्मण गायकवाड, वाहरु सोनवणे, भुजंग मेश्राम, सी. के. जानू, महादेव टोप्पो, निर्मला पुतुल, वंदना टेटे, भीम सिंह मीणा, हरिराम मीणा और अनुज लुगुन जैसे महानुभाव लोगों का नाम सम्मान के साथ लिया जा सकता है |

उक्त साहित्यकारों में से हरिराम मीणा ऐसे व्यक्तित्व हैं जिन्होंने आदिवासी से संबंधित दो काव्य संग्रह, एक प्रबंध काव्य, दो यात्रा-वृतांत, एक उपन्यास, आदिवासी विमर्श की एक पुस्तक तथा समकालीन आदिवासी कविता (संपादित) लिखी हैं | इन्होने अपने साहित्य में आदिवासियों को केंद्र में रखकर उनके खिलाफ हो रहे साजिशो को बेनकाब करने की कोशिश की है |

आदिवासी विमर्श में समकालीन साहित्य का योगदान एक दूसरे के पूरक के रूप में देखा जा सकता है | क्योकि उत्तर आधुनिककाल के दौर में भूमंडलीकरण के प्रभाव से सभी समाज और साहित्य प्रभावित हुआ है ऐसे समय में भला आदिवासी साहित्य और यात्रा साहित्य जैसे अन्य साहित्य अछूते कैसे हो सकते हैं | समकालीन यात्रा साहित्य में अपना विशेष योगदान देने वाले साहित्यकारों में से रामदरश मिश्र, विष्णु प्रभाकर, नरेश मेहता, विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, असगर वजाहत, नासिरा शर्मा, अमृतलाल वेगड़, ओम थानवी, पुरुषोत्तम अग्रवाल, हरिराम मीणा आदि लोगों का नाम प्रमुखता के साथ लिया जा सकता है | हरिराम मीणा ने अब तक दो यात्रा साहित्य लिखे हैं “साईबर सिटी से नंगे आदिवासियों तक” तथा दूसरी पुस्तक “आदिवासी लोक की यात्राएँ” | मेरा शोध आलेख “आदिवासी लोक की यात्राएँ” पुस्तक पर केंद्रित है | हरिराम मीणा ने आदिवासियों के तमाम समस्याओं को जानने के लिए जिन-जिन स्थानों की यात्रा की उनको अपने ज्ञानेन्द्रियो से अनुभूत करके पुस्तकाकार रूप दिया है | उन्होंने भारत में आदिवासियों के वास्तविक स्थिति से रूबरू होने के लिए आदिवासी बहुल इलाकों जैसे झारखण्ड, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, तेलंगाना, आंध्रप्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान व गुजरात की यात्राएँ की और दक्षिण भारत का प्रतिनिधि प्रतिनिधित्व करने वाली नीलगिरी की घाटियाँ, बंगाल की खाड़ी के कालापानी के तूफानी थपेड़ों को सदियों से झेल रहे अंडमान टापू और पश्चिम बंगाल से लेकर हिमालय के धवल शिखरों की यात्राएँ भी शामिल है | इस यात्रा साहित्य में कुल ग्यारह अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय में अलग-अलग आदिवासी इलाकों और आदिवासियों की वास्तविक स्थिति का जीवंत वर्णन है | हरिराम मीणा ने यात्रा साहित्य के महत्व को उद्घाटित करते हुए कहते हैं कि “घुमक्कड़ राहुल जी ने कही कही थी कि ‘सैर कर दुनिया की गाफिल…’ यह कहने के पीछे मस्ती मारना नहीं था प्रत्युत देशाटन के माध्यम से ज्ञानार्जन था | जब बाबा कबीर ने तर्क दिया था कि “तू कहता कागद की लेखी मैं कहता आंखन की देखी” तब उनका भी इशारा फर्स्ट हैंड नॉलेज की तरफ ही था और उससे पहले महात्मा बुद्ध ने भी सलाह दी थी कि “किसी गुरु ने कहा है अथवा किसी ग्रंथ में लिखा इसलिए मत मान लेना, इंद्रीय-बोध से खुद परखना |”2

उक्त बातों से स्पष्ट है कि यात्रा सहित वास्तविक और प्रत्यक्ष रूप से महसूस किया हुआ खोजी ज्ञान होता है | आदिवासियों के बारे में मीडिया सरकार और दिकुओ ने झूठा भ्रम फैला है कि आदिवासी लोग बर्बर और असभ्य होते हैं तथा तीर-धनुष के माध्यम से सामान्य-जन को क्षति पहुंचाते हैं | आमजन पुस्तकों से काफी दूर होते हैं और वास्तविकता से काफी अनभिज्ञ होते हैं | हरिराम मीणा ने इन्हीं सब भ्रम को खत्म करने के लिए आदिवासी क्षेत्रों की यात्रा की और उन आदिवासियों से विचार-विश्लेषण तथा काफी अध्ययन के बाद “आदिवासी लोक की यात्राएँ” नामक पुस्तक लिखी | इस पुस्तक में हरिराम मीणा ने आदिवासियों की प्रमुख समस्याओं को काफी जीवंतता के साथ पाठक के सामने रखी है जिससे आम पाठक वर्ग की संवेदनाएँ आदिवासियों के प्रति स्वतः ही जाग जाती है और आदिवासियों के बारे में तमाम भ्रांतियों को आमजन के मन-मस्तिष्क से बेनकाब करने की कोशिश की हैं | आदिवासियों के बारे में आम लोगों के बीच में तमाम गलत धारणा बनी हुई है कि ये विकास विरोधी होते हैं, इनके बच्चे विद्यालय नहीं जाना चाहते हैं, ये कामचोर होते हैं तथा यह वस्त्र नहीं पहनते हैं या कम पहनते है, ये सामाजिक नहीं होते हैं आदि धारणाएँ बनी हुई है जो कि बिल्कुल गलत है | वास्तविकता यह है कि आधुनिक सभ्य समाज ने आदिवासियों को विकास के नाम पर इतना ज्यादा छला है कि उनका विश्वास ही दिकुओं उद्योगपतियों और सरकारों से उठ गया है | सबसे पहले हमें उन आदिवासियों का विश्वास जीतना होगा जो आदिवासी शुरू से अभी तक लगातार हर प्रकार के शोषण के शिकार होते आए हैं | आदिवासी की जगह हम आमजन भी होते तो शायद हम भी वही करते जो आदिवासी कर रहे हैं | आदिवासियों का विश्वास जीतने के लिए आमजन और आदिवासियों के बीच आत्मिक संप्रेषण का होना बहुत जरूरी है | सरकार आदिवासियों के लिए जो योजनाएँ उनके कल्याण के लिए बनाती है उस समय आदिवासियों के आदिम परंपरा और उनकी मानसिकता को ध्यान मे रख कर बनाएँ | तब आदिवासी लोग उन योजनाओं को सहर्ष स्वीकार करेंगे |

“भील द्रोण फिर से माँगना अंगूठा” नामक अध्याय में हरिराम मीणा ने भील आदिवासियों के बारे में विस्तार से लिखे हैं | झाबुआ क्षेत्र का भ्रमण करते वक्त इनको सुनाई दिया कि आदिवासी विकास विरोधी होते है जिसका कारण यह बताया गया कि सन् 2000 में सरकार ने “इंदिरा आवास योजना” के तहत आदिवासियों को द्विकक्षीय पक्के मकान बना कर देना चाहती थी जिसका आदिवासियों ने कड़ा विरोध किया | विरोध होने का कारण यह था की सरकार की योजनाओं का इन्हे सही से पता ही नहीं था | संप्रेषण का अभाव होने के कारण आदिवासियों ने स्वयं अपने लिए बनाए गए घर को तोड़ दिये और पुनः पुराना घास-फूस की अपनी झोपड़ी बना लीजिए | आदिवासी लोग ऐसा क्यों किए ? जब यह पता किया गया तो आदिवासियों ने बताया कि हमें लगा कि यह लोग हमारे जमीन पर अधिग्रहण कर लेंगे और ये घर हम लोगों के लिए नहीं सरकार के आदमी अपने लिए बनाए हैं |

आदिवासियों पर दूसरा आरोप लगाया जाता है कि ये शिक्षित नहीं होना चाहते हैं लेखक जब मध्य प्रदेश के उज्जैन जिला गए हुए थे तो उक्त संदर्भ में किसी व्यक्ति ने एक संदर्भ बताया कि एक सरकारी स्कूल में मास्टर ने अपने बच्चों से एक सवाल पूछा “एकलव्य कौन था ? किसी ने रटा-रटाया उत्तर दिया कि ‘एक भील का लड़का’ | तब किसी अन्य गैर-आदिवासी छात्र ने महिपाल की तरफ इशारा करते हुए टिप्पणी कर डाली कि भील! यानी कि इसी जैसा जंगली|’ महिपाल भूरिया ने इस अपमान को सहन नहीं करते हुए उसी दिन स्कूल छोड़ दिया |”3

आदिवासियों पर तीसरा आरोप लगाया जाता है कि आदिवासी आलसी होते हैं इसका खण्डन लेखक ने “मुंडा : मेरे बिरसा, तू कहीं से भी आ!” नामक अध्याय में करते हुए कहते हैं – “आदिवासी आलसी नहीं, बल्कि वह उस धन के पीछे नहीं भागता, जो तनिक चूके कि सारी आफतों की जड़ बन जाता है | भौतिक सुविधाओं के बोझ तले आदिवासी दवना-घुटना नहीं चाहता, वह जहाँ तक संभव हो फुर्सत निकाल कर जीवन को जीना चाहता है |”4

आदिवासियों के बारे में आमजन के बीच चौथी धारणा है कि ये आदिवासी लोग कपड़े नहीं पहनते या बहुत कम पहनते हैं, अब आप ही लोग बताइए कि जो आदिवासी अपने पेट तक नहीं भर पा रहा है तथा उनके बच्चे कुपोषण का शिकार हो रहे हैं जो अपने तथा अपने परिवार की दवा तक नहीं कर पा रहे हैं भला वे लोग कैसे अच्छे कपड़े पहन सकते हैं | आदिवासी हो या कोई भी मानव समुदाय हो किसको अच्छा खाना, पीना पहनना अच्छा नहीं लगता |

आदिवासियों के बारे में आमजन के बीच पाँचवी धारणा है कि आदिवासी सामाजिक नहीं होते हैं इन आदिवासियों के सामाजिकता का अंदाजा आदिवासियों की शादी-ब्याह या गमी के मौके पर देखा जा सकता है | याथा “किसी खुशी अथवा गमी के मौके पर किसी परिवार द्वारा जो सामूहिक भोज दिया जाता है उसका भार आयोजनकर्ता घर-परिवार के कंधों पर ही नहीं पड़ता, बल्कि सारी बस्ती तथा रिश्तेदार किसी ने किसी प्रकार का योगदान देते हैं चाहे अनाज, आटा, गुड़, तेल, घी, नमक, मसाले, दाल, चावल,वगैरा-वगैरा कुछ भी हो | किसी दूसरे पर भार नहीं बनने की आदिम प्रवृत्ति और सामूहिकता की भावना इनकी संस्कृति में कुट-कुट कर भरी हुई है |”5

आदिवासियों के अच्छाइयों पर गौर करें तो इन लोगो में दहेज प्रथा भी नहीं होती बल्कि उल्टा लड़के वाला लड़की पक्ष को मूल्य देता है | “गरासिया : पत्थर ही फेंकते रहोगे क्या?” नामक अध्याय में मीणा जी ने आदिवासियों के प्रेम विवाह का बड़ा ही मोहक वर्णन किया है, “विवाह की ‘भगोरिया’ प्रथा भी मैंने यही देखी | मेले की मस्ती के दौरान युवक-युवतियों के मध्य प्रेम संबंध भी बनते हैं | ऐसे बहुत से जोड़े मेला स्थल से भागकर निकटवर्ती ‘मगरा’ यानी कि पहाड़ी पर चढ़ जाते हैं और वहाँ से ऐलान करते हैं कि “मैं फला का छोरा और मै फला की छोरी ब्याह करना चाहते हैं |”….. इस प्रकार प्रेम पर आधारित विवाह संबंधों की ऐसी स्वतंत्र पारंपरिक समाजों में अन्यत्र देखने को कहाँ मिलेगी?”6

उक्त विवेचना से स्पष्ट हो गया होगा कि जो सभ्य समाज आदिवासियों को बर्बर कहते है तथा तमाम घिनौनी आक्षेप लगाते है उनमें कितना सत्यता है | वास्तविकता यह है कि आदिवासियों के जल, जंगल, जमीन का लगातार शोषण होने से आदिवासी लोग अभिशप्त जीवन जीने के लिए मजबूर हो रहे हैं | दिकुओं के ज्ञान मे बर्बर, अज्ञानी समझे जाने वाले आदिवासियों के अधिकार क्षेत्र में जब जल, जंगल और जमीन थी तब प्राकृतिक संतुलन बहुत अच्छा था, वर्षा नियमित होती थी, जंगल हरे-भरे हुआ करते थे, शुद्ध ऑक्सीजन अच्छी मात्रा में मिलती थी, सूखा नहीं पड़ता था, वही जब से जल, जंगल और जमीन, सभ्य और अपने को शिक्षित मानने वाले ज्ञानी दिकुओं के अधिकार क्षेत्र में गया, तब से लगातार प्राकृतिक संतुलन बिगड़ने लगा है जिसका आशीर्वाद स्वरूप प्रकृति ने हमें ग्रीन हाउस गैस प्रभाव, ओजोन परत का फटना, दिनों-दिन कार्बन डाइऑक्साइड गैस की मात्रा में वृद्धि होना, सूर्य की पराबैगनी किरणों का बढ़ता प्रभाव, नियमित समय पर वर्षा न होना, अम्लीय वर्षा होना, हिम ग्लेशियरों का पिघलना, समुद्र के जल स्तर में बढ़ोतरी होना, विभिन्न खतरनाक चक्रवातों का आना आदि अनेक प्रभाव प्रकृति ने हमें सौगात के रूप में हमें भेंट की हैं | इस प्रकार से प्राकृतिक संतुलन बिगड़ जाने से पुरे दुनिया का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है | अब हमें सोचना चाहिए कि वास्तव में प्रकृति के रखवाले असभ्य, बर्बर और अज्ञानी आदिवासी लोग हैं या अपने को ज्ञानी, शिक्षित मानने वाले दिकु |

आदिवासियों का लिंगानुपात हम सभ्य और शिक्षित समाज से काफी अच्छा है, जबकि हम सभ्य और शिक्षित लोग है | ये भी सोचने पर मजबूर करता हैं | हम अपने अतीत को याद करें तो जिस आदिवासी मनुष्य से आज हम होमोसेपियंस आधुनिक मानव कह लाते हैं उसमे भी आदिवासियो का ही योगदान है | प्राचीन काल मे आग की खोज हो या पहिये की खोज हो, तमाम औषधियों ज्ञान, धातुओं का ज्ञान इन्हीं लोगों से प्राप्त हुए हैं | हिन्दी भाषा के शब्दकोश मे बहुत से आदिवासी बहुल क्षेत्रों मे प्रचलित शब्दों को लिया गया हैं | इस प्रकार से हिन्दी भाषा के शब्दावलियों मे वृद्धि करने मे भी आदिवासियों का योगदान है |

उक्त बातों पर ध्यान दे तो पाते है की हम आदिवासियों से लेने के सिवाय देने का कार्य नहीं के बराबर किए हैं | बस कहने को हम सभ्य और शिक्षित हैं जबकि हमसे काफी समझदार आदिवासी लोग हैं | आज जरूरत है तो आदिवासियों के शब्द संपदा, भाषा, लिपि, औषधि ज्ञान और भी अन्य ज्ञान को जो केवल आदिवासियों को ही पता हैं उनको सूरक्षित करने का हैं | यदि समय रहते इन बातों पर गौर नहीं किया गया तो आदिवासियों के साथ ही साथ उनका ज्ञान संपदा भी अतीत के गर्भ मे दफन हो जाएगा |

उक्त संदर्भ में डॉ. रमेश चंद्र मीणा ने सभ्य समाज की चुटकी लेते हुए “हम तुमको आदमी बना देगे” शीर्षक कविता में व्यक्त किए है – “वे आए / हमें सभ्यता सिखाने / झोपड़ियों से निकलकर / अपटूडेट बनाने उन्होंने कहा / तुम्हारी परम्पराएँ आदिम हैं / संस्कार आउटडेटेड हैं / हम तुम्हें सभ्य बनाएंगे / और कुछ ही सालों में / तुम्हें आदमी बना देंगे / उन्होंने पहाड़ों को थोड़ा / जंगलों को काटा / हमारी झोपड़ी पर / बुलडोजर चलाकर / कुछ सिक्के फेंक दिए / महुआ के पेड़ों के बदले / थमा दी दारू की बोतल / अब वहाँ ऊँची-ऊँची चिमनिया / उगल रही है गाढ़ा धुआ / पगडंडियाँ सड़कों में बदल गई / और हम मजबूरी में / मजदूरों में बदल गए / साहूकारों और दिकुओं के / भाग्य खुल गए / और हम निराधार बन गए / आदमी बनाने की ओट में / आजादी ही नहीं / सब कुछ छीन लिया / अस्मिता भी और अस्मत भी / पहले वे हमें असभ्य बताते थे / और अब / हमारी नई पीढ़ी के अपने / हमें असभ्य बताते हैं / समझ में नहीं आ रहा है कि हम पहले असभ्य थे / या अब असभ्य हैं |”7

निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि जो आदिवासीयों के पास अच्छा है उसे अपनाया जाए और सभ्य विकसित लोगों के पास जो अच्छा है उन आदिवासी लोगों के साथ साझा किया जाए | आदिवासियों को उनके आदिमता से बाहर लाया जाए और उनको भौतिक सुख-सुविधाओं से परिचित कराया जाए | सब मिलाकर उन आदिवासियों को उनकी आदिमता वाले हालत पर छोड़ना भी नहीं है और उनके निवास क्षेत्रों में आवश्यकता से अधिक छेड़-छाड़ भी नहीं करनी है, तब जाकर आदिवासियों की दशा और दिशा में सुधार हो सकता है |

संदर्भ ग्रंथ सूची

  1. निर्मला पुतुल, बेघर सपने, आधार प्रकाशन प्रा. लि. एससीएफ 267, सेक्टर-16 पंचकूला – 134113 (हरियाणा), प्रथम संस्करण : 2014, पृ. 32
  2. हरि राम मीणा, आदिवासी लोक की यात्राएँ, भारतीय ज्ञानपीठ 18, इन्स्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, नयी दिल्ली- 110003, प्रथम संस्करण : 2016, पृ. 129
  3. वही, पृ. 42
  4. वही, पृ. 114
  5. वही, पृ. 49
  6. वही, पृ. 69
  7. बी. पी वर्मा ‘पथिक’- अरावली उद्घोष, अंक 58, पृ. 58