तुम हो मजदूर के लाल तो क्या हुआ?
कट रही जिंदगी दुश्वारियों में तो क्या हुआ?
सुन कर घुड़कियां रोज मन आहत होता है तो क्या हुआ?
बाप की फटी एड़िया और माँ के फटे कपड़े देख ह्रदय में कहीं चोट सी लगती तो क्या हुआ?
आती है बार बार मन में खुद को ख़ाक करने की प्रबल इच्छा तो क्या हुआ ?
बस एक बार देख तू पलट कर इतिहास मजदूरों का,
जहाँ हर नये अविष्कार में मजदूरों का खून है,
जहाँ मजदूर अपनी हड्डियों को गला कर औजार ढ़ालता है।
लेकिन उसे मिलता क्या है? बस चंद सिक्के और ढेरों गालियां।
तू छोड़ उस लीक को कर विद्रोह और स्वयं से स्वंय की पहचान बना…….