शीर्षक- मेरा दुख ना कोई समझ पाया

मैं मज़दूर मेरा दुख ना कोई समझ पाया ।
राजनीति के गंदे खेल में मेरी आह! ना कोई सुनने पाया ।
नंगे ही चल पड़े थे कदम, तपती सड़को पर ,उन जलती चमड़ियों पर मरहम ना कोई लगाने पाया ।
मैं मज़दूर मेरा दर्द ना कोई सुनने पाया ।


मेरा दोष सिर्फ इतना था पॉकेट में पैसा ना था, सड़क पर चलाने को महँगी कार ना थी, रहने को अट्टालिका ना थी । इसलिए दर्द भरी आह! तुझ तक ना पहुँच पाई और तेरे किये हुए वादे हम तक ना पहुँच पाये।
मैं मज़दूर मेरा दर्द ना कोई सुनने पाया ।


खाली पेट ही निकल पड़ा था मैं, ना था तन पर कपड़ा , ना था बॉटल में पानी,ना था साहस कुछ करने का
बस खाली सड़को को माप रहा था मैं बेसुध खड़ा ।
मैं मज़दूर मेरा दर्द ना कोई सुनने पाया ।


बस एक ही रात में मालिक ने फरमान निकाला, कल से ना आना कह कर बाहर निकाला ।
उन भूखे बच्चों को अब क्या खिलाऊंगा, घर वापिस जा कर मैया को क्या मुंह दिखाऊँगा।
मैं मज़दूर मेरा दर्द ना कोई सुनने पाया ।


ऊंचे पद पर आसिन बड़े लोग
कभी तो हमारी भी आह ! सुन लो
अब बन्द कर राजनीति का गन्दा खेल
हमारा भी उद्धार कर दो।।
मैं मज़दूर मेरा दर्द ना कोई सुनने पाया ।


ये ना कभी भूलना, जिस महल में रह्ते हो, उसकी नींव हमने ही बनाई है, कंकड़-पत्थर उठाते हुए अपनी कई रातों की नींद गवाई है।
मैं मज़दूर मेरा दर्द ना कोई सुनने पाया ।


आज जब वक़्त है हमारा साथ देने का, तो हर रोज़ नये-नये भाषण दे अपनी जैब भरते हो, झूठे आश्वासन दे
विपक्षी दलों के साथ वाद-विवाद करते हो।
मैं मज़दूर मेरा दर्द ना कोई सुनने पाया ।


फैली इस माहामारी में कदम मेरे भी काँपते हैं ।
तो बाट जोहती मुन्नी की माँ की याद आज भी आती है।
कहीं ये यात्रा मेरी आखरी यात्रा ना हो जाये, बस इसी सोच में मेरी हर रात दहशत में गुजर जाती है और हर नया सवेरा अपनों से मिलने के आस की रोज़ एक नई दस्तक ले कर आती है।
मैं मज़दूर मेरा दर्द ना कोई सुनने पाया ।
मेरे दुख का ईलाज ना कोई कर पाया ।
धन्यवाद?
अन्जना झा