नारी कहीं भी, कभी भी कमजोर नहीं – डॉ. सुशीला टाकभौरे
डॉ. वंदना कुमार, शोध-निर्देंशक एवं सहायक प्राध्यापक (हिंदी), शासकीय नागार्जुन स्नातकोत्तर विज्ञान महाविद्यालय, रायपुर (छ.ग.) के मार्गदर्शन में राजेन्द्र कुमार, शोधार्थी (हिंदी) पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय रायपुर (छत्तीसगढ़) द्वारा शोध-विषय “समकालीन हिंदी लेखिकाओं की प्रतिनिधि आत्मकथाओं में अन्तर्निहित अनुभूतियाँ” के अन्र्तगत अनुशीलन हेतु चयनित आत्मकथा ‘शिकंजे का दर्द‘ के रचनाकार समतावादी दलित साहित्यकार के रूप में विख़्यात, नर्मदा-अंचल की बेटी डॉ. सुशीला टाकभौरे जी से बातचीत के प्रमुख अंश
1. राजेन्द्र कुमार- कौसल्या बैसंत्री जी की आत्मकथा तथा आपकी आत्मकथा तीन पीढ़ियों की महिलाओं के जीवन-संघर्ष की कहानी है तथा आप दोनों ने ही तिहरा दंश (गरीबी, जातिवाद, महिला) भोगे हैं। आपकी आत्मकथा, कौसल्या बैसंत्री जी की आत्मकथा से किस प्रकार भिन्न है?
डॉ. सुशीला टाकभौरे- कौसल्या बैसंत्री जी का जन्म 1927 का था, मेरा जन्म 1954 का है। इस दृष्टि से उनका कार्यकाल मुझसे पहले का था। उनका जन्म महाराष्ट्र के नागपुर शहर में हुआ था। मेरा जन्म मध्यप्रदेश के एक छोटे गाँव में हुआ। इस कारण हमें बचपन से जो वातावरण मिला, वह भिन्न था। मानसिकता और विचारधारा के निर्माण में इसका प्रभाव स्पष्ट है। मैं 1974 में नागपुर शहर आई। यहाँ आने के बाद मैं महिला जागृति आन्दोलन और अम्बेडकरवादी दलित आन्दोलन, साथ ही दलित साहित्य लेखन से जुड़ी। मेरा विवाह माता-पिता की पसंद से मुझसे 20 वर्ष बड़ी आयु के व्यक्ति से हुआ। कौसल्या बैसंत्री जी ने एक शादीशुदा व्यक्ति से अपनी पसंद से प्रेम विवाह किया था, जिसने बाद में उन्हें पत्नी रूप में प्रताड़ित किया। कौसल्या जी ने अपने पति से अलग रहकर अपने भरण-पोषण के खर्च के लिए कानूनी लड़ाई लड़ी थी, मैंने ऐसा नहीं किया। मैं पति के साथ रहकर, उनके अन्याय अत्याचार का विरोध करते हुए, बीच के रास्ते निकालती रही। मैं स्वयं स्वावलम्बी थी, नौकरी करती थी। घर का खर्च, बच्चों की पढ़ाई का खर्च और सभी बच्चों की शादी का खर्च मैंने किया। इसे मैंने अपनी जिम्मेदारी मानकर किया। ये जिम्मेदारियाँ मैं अभी भी पूरी कर रही हूँ।
2. राजेन्द्र कुमार- आप, अपने बच्चों को मनुवादी हिंदू धर्मांध कुसंस्कारों से किस हद तक दूर रख सकीं?
डॉ. सुशीला टाकभौरे- मेरी दृष्टि से बच्चों को अच्छी शिक्षा और अच्छा वातावरण के साथ अच्छे संस्कार देकर मनुवादी हिंदू धर्मांधता से दूर रखा जा सकता है। मैंने अपने बच्चों को अच्छे स्कूलों में शिक्षा दिलवाई। आगे चलकर बच्चों ने उच्च शिक्षा भी पाई। अपने मोहल्लों से अलग अच्छे वातावरण में अच्छे मकान बनाकर रहे। बचपन से हमारे विचारों से उनके संस्कारों का निर्माण होता रहा, जिससे उनमें हिन्दू धर्म की धर्मान्धता और अन्धविश्वास के विरूद्ध तर्क और जागरूकता का निर्माण होता रहा। कुसंस्कार जैसी बातें भी बच्चों के आचरण में नहीं हैं। बच्चे विवाह के बाद अब अपने बच्चों को अच्छे संस्कार दे रहे हैं। बच्चे सामाजिक भेदभाव का विरोध करते हैं। बेटी का अन्तर्जातीय विवाह हुआ है।
3. राजेन्द्र कुमार- आपके अनुसार गरीबी का मुख्य कारण धर्मान्धता एवं अन्धविश्वास है। इसके उन्मूलन के लिए क्या अभिकरण उपयोग में लाया जावे?
डॉ. सुशीला टाकभौरे- मेरे अनुसार से गरीबी का मुख्य कारण अशिक्षा और बेरोजगारी है। इसके बाद धर्मान्धता और अन्धविश्वास है। इसके उन्मूलन के लिए अच्छी शिक्षा और अच्छी नौकरी पाना ज़रूरी है। तर्कबुद्धि, विवेक के साथ अपने धन का सही उपयोग करना भी आना चाहिए, तभी गरीबी हटाई जा सकेगी। महँगी शिक्षा होने के कारण सामान्य लोगों को उच्च शिक्षा पाना कठिन होता है। स्पर्धा और निजीकरण के इस युग में अच्छी नौकरी पाना भी सरल, सहज नहीं होता। अतः पीढ़ी दर पीढ़ी बच्चों के लिए लगातार ऐसे प्रयत्न किए जाएँ जिससे वे इस स्पर्धा का सामना करके, शिक्षा व नौकरी पा सकें। अर्थोपार्जन के लिए टेकनिकल शिक्षा भी ज़रूरी है। व्यवसाय-व्यापार करने का हुनर सीखना भी ज़रूरी है। भूमण्डलीकरण के इस युग में विश्व व्यापार और बाज़ार की जानकारी होना भी ज़रूरी है। सदियों से दबे पिछड़े लोग प्रगति की दौड़ में आगे बढ़कर ही गरीबी और अभावों का उन्मूलन कर सकेगें।
4. राजेन्द्र कुमार- आपके अनुसार मनुवादी हिंदू संस्कार वास्तव में कुसंस्कार हैं। आपने इन कुसंस्कारों के उन्मूलन के लिए क्या योगदान दिया?
डॉ. सुशीला टाकभौरे- मेरे अनुसार मनुवादी हिन्दू समाज व्यवस्था के आधार-वर्णभेद और जातिभेद सबसे अधिक कुव्यवस्था के आधार हैं। मनुवादी हिन्दू संस्कार जो वर्णभेद और जातिभेद को बढ़ाते हैं या इन्हें संरक्षण देते हैं, वे कुसंस्कार हैं। ऐसे कुसंस्कारों को समाज से खत्म करना ज़रूरी है। वर्णभेद और जातिभेद छुआछूत भेदभाव को बढ़ावा देते हैं। छुआछूत और भेदभाव को मिटाने के लिए डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने समाज जागृति हेतु दलित आन्दोलन चलाया है। इसी प्रकार मनुवादी संस्कारों के अनुसार स्त्रियों को पुरूषों से हीन माना जाता है। स्त्रियों को महत्त्व और सम्मान दिलाने के लिए महिला जागृति और महिला मुक्ति आन्दोलन चलाए जा रहे हैं। मैं मनुवादी, विषमतावादी समाज व्यवस्था को बदलने के लिए दलित आन्दोलन और महिला आन्दोलन से जुड़कर समाज जागृति का काम करती हूँ। साथ ही मैं दलित साहित्य लेखन के द्वारा वर्णभेद-जातिभेद और स्त्री-पुरूष भेद को मिटाने का सन्देश दे रही हूँ।
मनु के अनुसार शूद्रों को शिक्षा से वंचित रखा गया। स्त्रियों को शिक्षा और स्वतंत्रता से वंचित रखा गया। हिन्दू समाज का यह संस्कार, कुसंस्कार था। आज शूद्र और स्त्री सभी शिक्षा पा रहे हैं। इसके साथ ही वे समाज में अपने लिए समता, सम्मान और स्वतंत्रता पाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। दलित आन्दोलन और महिला आन्दोलन की इस लड़ाई में मैं भी उनका साथ दे रही हूँ।
5. राजेन्द्र कुमार-रक्षाबंधन जैसे अनेक त्यौहार महिलाओं को अबला साबित करने वाले त्यौहार हैं, फिर भी आज की जागरूक महिलाएँ इसका विरोध क्यों नहीं कर पातीं?
डॉ. सुशीला टाकभौरे- जागरूक महिलाएँ इसका विरोध करती हैं। वे स्वयं किसी भाई को राखी बांधकर, अपनी रक्षा का अनुबन्ध नहीं करती, फिर भी हिन्दू धर्म परम्परा के रूप में रक्षाबन्धन जैसे त्यौहार समाज में चल रहे हैं। जब तक पूरे समाज में पूर्ण जागृृति नहीं आती, तब तक ये रूढ़ि-परम्पराएँ पूरी तरह नहीं मिट पाएगीं। इसके साथ यह भी ज़रूरी है कि बहनों के साथ भाई भी जाग्रत हों। जब हम स्त्री-पुरूष समानता के अधिकारों की बात करते हैं, तब बहन कमज़ोर कैसे हो सकती है। इस बात को भाइयों को भी समझना चाहिए और रक्षाबन्धन जैसे त्यौहारों का विरोध करना चाहिए। माता-पिता भी अपनी बेटियों को अपने बेटों जैसा ही मानेगें तो बेटियाँ कभी कमज़ोर नहीं होंगीं, न ही भाईयों की मदद की मोहताज़ होंगीं। तब ऐसे त्यौहार अपने आप लुप्त हो जायेंगे।
6. राजेन्द्र कुमार-दलितों में अम्बेडकरवादी विचारधारा के प्रतिफलित न हो पाने के क्या कारण रहे हैं?
डॉ. सुशीला टाकभौरे- दलितों में अम्बेडकरवादी विचारधारा पूर्ण रूप में प्रतिफलित है अर्थात् दलित वर्ग के लोग अम्बेडकरवादी विचारधारा के कारण ही प्रगति और परिवर्तन के मार्ग पर फल-फूल रहे हैं। यदि अम्बेडकर न होते और डॉ. आम्बेडकर ने दलित आन्दोलन न चलाया होता तो शायद दलित अभी भी शिक्षा से वंचित रहकर छुआछूत का घोर संताप भोग रहे होते। मगर अब वे उच्च शिक्षा पाकर शिक्षक की नौकरी भी करने लगे हंै। समाज में समता, सम्मान पाने लगे हैं, यह अम्बेडकरवादी विचारधारा का ही परिणाम है।
हाँ, यह बात सत्य है कि गाँधी जी के ‘हरिजन उद्धार‘ से भ्रमित गाँधी जी के हरिजन अभी तक अम्बेडकरवादी विचारधारा को समझ नहीं पाए हैं इसलिए वे अभी भी हिन्दूवादी विचारधारा में उलझे हुए हैं। हरिजन कहलाना आज अपने आप में गाली माना जाता है। जबकि दलित वह है जो अपनी स्थिति को समझ चुका है और अपने अस्तित्व और अस्मिता के लिए संघर्ष कर रहा है। अम्बेडकर के दलित जागरूक और संघर्षशील हैं।
दलितों में अम्बेडकरवादी विचाराधारा प्रतिफलित नहीं हैं-इस तरह की बातों को गैर-दलित फैलाते रहते हंै जबकि यथार्थ यह है कि यह अभियान पूरी तरह सफलता पा रहा है।
7. राजेन्द्र कुमार- पुरूष वर्ग, महिलाओं को सुन्दरता की देवी से संबोधित कर, एक वस्तु के रूप में इस्तेमाल करते हंै। हेमलता महिश्वर जी ने समस्त श्रृंगार प्रसाधनों का त्याग किया है, अन्य जागरूक महिलाएँ इसका बहिष्कार क्यों नहीं कर पातीं?
डॉ. सुशीला टाकभौरे- कौन-से वर्ग के पुरूष महिलाओं को सुन्दरता की देवी कहते हैं? और कौन-से वर्ग की महिलाएँ सुन्दरता की देवी कहलाती हैं? यह बात आप भी जानते हैं। दलित वर्ग के स्त्री और पुरूष शोषित, पीड़ित, अभावग्रस्त स्थितियों से त्रस्त रहे हैं। रात-दिन उन्हें अपनी रोज़ी-रोटी की चिन्ता रहती है, अपने भूखे प्यासे बच्चों की चिन्ता रहती है। दलित महिलाएँ अपने पति के साथ बराबरी से श्रम करके दो समय की रोटी का इन्तजाम कर पाती हैं-ऐसी स्थिति में वह कौन-से सौन्दर्य प्रसाधनों की बात सोच सकती है? जो दलित महिलाएँ शिक्षित होकर नौकरी कर रही हैं, वे भी पारिवारिक अन्याय और सामाजिक भेदभाव का शिकार बनाई जाती हैं। ये महिलाएँ अपनी जागरूकता के साथ दलित महिलाओं को जागरूक बनाने के अभियान में जुटी रहती हैं। ऐसी महिलाएँ श्रम का साक्षात् रूप होती हैं। सौन्दर्य की देवी तो सवर्ण, सुविधा सम्पन्न, सौन्दर्य प्रसाधनों का उपयोग करने वाली स्त्रियाँ होती हंै। हेमलता महीश्वर जी ने शायद दलित, शोषित; पीड़ित और अभावपूर्ण जीवन नहीं जिया है, इसलिए वे सौन्दर्य प्रसाधनों की बात करती हैं। महाराष्ट्र की जागरूक महिलाएँ चूड़ियाँ नहीं पहनतीं, माथे पर बिन्दी नहीं लगातीं। दलित आन्दोलन और महिला जागृति आन्दोलन से जुड़ी कार्यकर्ता महिलाओं का माथे का पसीना, खुरदुरी हथेलियाँ और साधारण सूती कपड़े ही उनका व्यक्तित्व निखारते हैं। इसी तरह अन्य सभी प्रान्तों की समर्पित सामाजिक कार्यकर्ता महिलाएँ व्यवस्था परिवर्तन के आन्दोलन में लगी हुई तन-मन-धन से अपना काम श्रमपूर्वक करती हैं। वे दूध में नहाई छुईमुई गुड़िया की तरह नहीं रहतीं, रफ एण्ड टफ रहती हैं। उनकी सुन्दरता इसी में है कि वे शोषक पुरूषों को मुंहतोड़ जवाब दें। दलित स्त्री यदि जागरूक है, तो वह सौन्दर्य की देवी नहीं बल्कि शेरनी होती हैं। एक बार जिसने अम्बेडकरवादी विचारधारा को समझ लिया है वह गंूगी बहरी देवी नहीं रहती, बल्कि शेर की तरह दहाड़ती हंै।
8. राजेन्द्र कुमार- आपके माता-पिता और नानी की मान्यता थी कि बेटियाँ ‘परदेश की चिड़िया‘ होती हैं। आप इस धारणा को किस हद तक दूर कर पायीं?
डॉ. सुशीला टाकभौरे- यह एक सामाजिक परम्परा है कि विवाह के बाद लड़कियाँ ही अपने माता-पिता का घर छोड़कर ससुराल जाकर रहती हैं। अनजाने, गैर लोगों के बीच, चाहे उन्हें दुख मिले या सुख, ससुराल में ही रहना होता है; इसलिए गाँव के लोगों में यह मान्यता है कि ‘लड़किए तो चिरैया हैं, समय आते ही उड़कर परदेश यानी ससुराल चली जाएँगी।‘ आपका प्रश्न है कि मैंने इस मान्यता को कहाँ तक बदला है? मान्यता या धारणा वही है कि ससुराल में लड़कियों को जाकर ही रहना है, लड़कों को नहीं। क्योंकि हमारी समाज व्यवस्था पुरूष प्रधान समाज व्यवस्था है। पहले जब मातृसत्ता का युग था तब पुरूष को महिला के घर जाकर रहना पड़ता था। मगर आज के युग में यह धारणा सर्वमान्य नहीं है। मैं इस धारणा में यह सुधार करना चाहती हूँ कि ससुराल जाकर रहने वाली लड़की अबला, कमज़ोर और परावलम्बी न हो। वह शिक्षित, जागरूक और स्वावलम्बी हो। अपने अधिकारों की जानकारी हो। अपने अधिकारों के लिए संघर्षशील हो, स्त्री-पुरूष समानता के अधिकारों को मनवा लेने वाली हो, साथ ही वह अपने पति, पुरूष की दासी नहीं, बल्कि उसकी साथी बनकर रहने वाली बने।
महिला जागृति आन्दोलन से जुड़कर मैंने यही सन्देश महिला वर्ग को दिया है। मेरा साहित्य लेखन से भी समाज को यही सन्देश है कि स्त्रियों को समानता का अधिकारी बनकर समाज में रहना है। शोषण, अन्याय होने पर, स्वयं लड़कर अन्यायी को दण्ड देना चाहिए।
9. राजेन्द्र कुमार- महिला-पुरूष असमानता का प्रमुख कारण समाज की दूषित मानसिकता है। महिलाएँ ऐसे समाज का बहिष्कार क्यों नहीं कर पातीं?
डॉ. सुशीला टाकभौरे- राजेन्द्र जी, महिला-पुरूष असमानता का प्रमुख कारण हिन्दू धर्मग्रन्थ ‘मनु स्मृति‘ है। जिसमें मनु महाराज ने बहुत विस्तार के साथ पुत्र को महत्त्व देकर पुत्री को नगण्य बताया है। उनके अनुसार पुरूष प्रथम स्थान पर है और स्त्री दोयम स्थान पर। ऐसे धर्मग्रंथों के आधार पर ही समाज की दूषित मानसिकता बनी है कि हर समय और हर स्थान पर पुरूष को श्रेष्ठ और स्त्री को तुच्छ माना जाए। साथ ही इसे धार्मिक मान्यता भी दी गई है। तब समाज ऐसी धारणा को धर्म मानकर उसका पालन करता है। पत्नी ही पति के चरणों में झुकती है, पति नहीं। पति ही पत्नी को पीटने, मारने का काम कर सकता है; पत्नी, पति को नहीं मार सकती। यदि वह ऐसा करती है तो उसे दोहरा दण्ड दिया जाता है यह सामाजिक मान्यता या मानसिकता है।
ऐसी स्थिति में महिला क्या करे? उसे समाज का बहिष्कार नहीं करना है, बल्कि ऐसी मान्यताओं, ऐसे दूषित मानसिकता का बहिष्कार करना है। जागरूक महिलाएँ समाज में स्त्री-पुरूष समानता का आन्दोलन चला रही हैं। महाड़ में डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने ‘मनुस्मृति दहन‘ करके दलितों के साथ भेदभाव और स्त्री-पुरूष भेद का बहिष्कार किया था। अम्बेडकरवादी सभी स्त्री-पुरूष मनु के विचारों का और मनुस्मृति का विरोध करते हैं। डॉ. अम्बेडकर ने भारतीय लिखित संविधान में स्त्रियों को पुरूषों के बराबर अधिकार, जीवन के हर क्षेत्र में दिए हैं, शिक्षा, नौकरी, उत्तराधिकार आदि सभी क्षेत्र में। ‘हिन्दू कोड बिल‘ के द्वारा तो बाबा साहब अम्बेडकर ने स्त्रियों को कानूनी रूप से सबलता प्रदान की है। बस, आवश्यकता यही है कि स्त्रियाँ अपने अधिकारों को समझे और जाने। यदि उनके अधिकारों का हनन होता है तो वे लड़कर अपने अधिकार प्राप्त करें।
10. राजेन्द्र कुमार- हिंदी साहित्येतिहास में दलित महिला आत्मकथा का सूनापन बहुत ख़लता था। ‘दोहरा अभिशाप‘ (1999) के बाद ‘शिकंजे का दर्द‘ (2011), इस लम्बे अंतराल के क्या कारण रहे होंगे?
डॉ. सुशीला टाकभौरे- महिलाएँ हमेशा पुरूषों से पीछे मानी गईं। यही मानसिकता महिलाओं में है कि वे स्वयं को पीछे मानकर ही चलती हंै, क्योंकि बचपन से ही उन्हें यही सिखाया जाता है। कोई विद्रोही महिला ही ऐसा कदम उठा पाती है। अपनी आत्मकथा लिखना वैसे भी आसान बात नहीं है। अपने सुख-दुःख के साथ परिवार और समाज के अन्याय, अत्याचार को बताना न समाज स्वीकार करता है, न ही परिवार। दलित स्त्री-पुरूष सवर्णों की मानसिकता के विरूद्ध अधिकार की खुली लड़ाई लड़ते हैं, वहीं घर-परिवार में दलित पुरूष, दलित महिला को अपने अधिकार की बात नहीं कहने देते। ऐसी स्थिति में दलित स्त्रियों को अपने परिवार और अपने जाति, समाज का भय अधिक रहता है। दलित आन्दोलन से जुड़ी महिलाएँ, महिला जागृति से जुड़ी महिलाएँ भी अपनी आपबीती को लेखनीबद्ध करके समाज के सामने नहीं ला पाती हैं।
दूसरी बात यह भी है कि महिलाओं को लेखन और प्रकाशन की सुविधाएँ भी सहज ही नहीं मिल पाती है। शिक्षा से वंचित दलित महिलाओं में लेखन की दक्षता भी नहीं होती, इसलिए भी वे हिम्मत नहीं कर पाती हंै। कौसल्या जी ने ये हिम्मत की, क्योंकि वे दलित आन्दोलन से जुड़ी थीं। महाराष्ट्र में दलित आन्दोलन अधिक मुखर रहा है, साथ ही महिला जागृति आन्दोलन भी। यहाँ रहकर उन्हें ंिशक्षा पाने की सुविधा मिल सकी। मराठी-भाषी कौसल्या जी ने दिल्ली में रहते समय, वहाँ के हिंदी-भाषी अम्बेडकरवादी कार्यकर्ताओं से अपनी मातृभाषा मराठी में याद किए आत्मकथांशों को हिंदी में अनुवाद करवाया। उन्होंने स्वयं कुछ लोगों के नामों का उल्लेख किया है। इस तरह ‘दोहरा अभिशाप‘ आत्मकथा 1999 में छप सकी। यदि यह आत्मकथा मराठी में छपती तो केवल महाराष्ट्र के मराठी भाषी क्षेत्र तक सीमित रह जाती। हिंदी में छपने के कारण यह हिंदी भाषी क्षेत्र में चर्चित हुई।
मेरी व्यथा यह थी कि मुझे पता ही नहीं चल पाता था कि कहाँ क्या छप रहा है। और समय की माँग के अनुसार मुझे क्या लिखना चाहिए, यह भी मालूम नहीं था। अपनी सहज अनुभूति के साथ मैं कविता, कहानी, नाटक, एकांकी लिखती रही। शायद इसी तरह अन्य दलित लेखिकाओं के साथ भी हुआ होगा, इसलिए वे अपनी आत्मकथाएँ जल्दी नहीं लिख सकीं। महाराष्ट्र में रहकर समता और स्वतंत्रता का हौसला मैंने ज़रूर पा लिया है। इसलिए पति के साथ रहकर, समाज के जातिगत भेदभाव के साथ पितृसत्ता के अन्याय की बातें भी मैंने अपनी आत्मकथा में लिखी और समाज तक पहुँचाईं। ऐसा हौसला सभी स्त्रियाँ प्राप्त नहीं कर पाती हैं। अभी कुछ दलित महिलाएँ प्रयत्न कर रही हैं कि उनके अनुभवों की कथा समाज के समक्ष आए। जल्दी ही कुछ महिलाएँ अपनी आत्मकथा के साथ अपने नाम हिंदी साहित्येतिहास में दर्ज करवायेंगी।
11. राजेन्द्र कुमार- प्रख्यात दलित लेखक डॉ. धर्मवीर ने ‘दोहरा अभिशाप‘ को ‘कितना दोहरा? एक डायनासोर औरत‘ की संज्ञा से अभिहित किया है। इस पर आपकी क्या प्रतिक्रिया है? (संदर्भ- हंस पत्रिका, 2004 दलित विशेषांक)
डॉ. सुशीला टाकभौरे- सर्वप्रथम तो मैं इस बात का विरोध करती हूँ कि एक दलित लेखक और चिन्तक इस तरह एक दलित महिला की व्यथा-कथा को अपमानित करे या उसे एक डायनासोर औरत कहे। यह हम सभी दलित महिलाओं का अपमान है।
दूसरी बात, डॉ. धर्मवीर ने अपनी इस बात का आशय इस तरह स्पष्ट किया कि जो औरत अपने खाने खर्च के लिए अपने पति पर निर्भर है, वह उसके सहारे रहकर, उससे अपने अधिकार की लड़ाई कैसे लड़ सकती है? उससे अलग रहकर अपने भरण-पोषण की मांग कैसे कर सकती है? यदि उसे अपने अधिकार की बात करना है तो सबसे पहले उसे अपना खर्च स्वयं उठाने की या आत्मनिर्भर होने की स्थिति पाना होगा तभी वह आगे की लड़ाई लड़े। यह बात हंस पत्रिका के दलित विशेषांक में छपे उनके लेख से स्पष्ट है।
यहाँ मैं अपनी बात यह कहूँगी कि हर स्त्री की ताकत उसके स्वावलम्बी होने में है। इसके बाद ही वह अपनी लड़ाई अपनी हिम्मत के साथ लड़ सकती है। कौसल्या जी ने हिन्दू कानून के अनुसार, पत्नी होने के अधिकार के साथ अपनी लड़ाई लड़ी, वह गलत नहीं है। हर स्त्री को अपने अधिकार के साथ, अपने स्वाभिमान की, अपने सम्मान की लड़ाई भी लड़ना है।
12. राजेन्द्र कुमार- आपको आत्मकथा लिखने की ज़रूरत क्यों पड़ी और आपकी आत्मकथा ‘शिकंजे का दर्द‘ शीर्षक से आपका क्या अभिप्राय है?
डॉ. सुशीला टाकभौरे- मुझे आत्मकथा लिखने की ज़रूरत पड़ी क्योंकि मैं चाहती थी कि मैं अपने अनुभव और अनुभूतियों को समाज के समक्ष रखूं। जो मैंने भोगा, जो मैंने सहा और जो मैंने निभाया उन सबको समाज को बताऊँ कि इन स्थितियों में रहकर भी, दलितों में दलित वाल्मीकि जाति की एक लड़की या एक महिला अपने जीवन की कितनी मंजिलें पा सकती है। मैं अपनी आत्मकथा के माध्यम से सम्पूर्ण नारी समाज को यह प्रेरणा, यह संदेश देना चाहती थी कि नारी कहीं भी, कभी भी कमज़ोर नहीं है। यदि वह दृढ़ इच्छाशक्ति दृढ़ संकल्प के साथ अपने रास्ते पर चलेगी तो मंजिल अवश्य उसके कदम चूमेगी। मैंने जीवन भर संघर्ष किया, उसी का प्रतिफल है कि मुझे सफलताएँ मिलीं, मैंने अपने जीवन के सभी सच्चे खट्टे-मीठे अनुभवों का उल्लेख आत्मकथा में किया है।
आत्मकथा का शीर्षक ‘शिकंजे का दर्द‘ के अभिप्राय के विषय में भी आत्मकथा में स्पष्ट उल्लेख किया है। शिकंजा याने क्या? मेरा जीवन अनेक शिकंजों में जकड़ा रहा, जिसकी पीड़ा सहते हुए मैं जान ही नहीं पाई, अपना बचपन, अपनी किशोर अवस्था, युवावस्था की उमंग, खुशी। जीवन जैसे ऐसे ही बीत गया संघर्ष करते हुए।
बहुत दर्द होता है, अपनी बात फिर से कहने में। बार-बार जैसे अपनी ही पीड़ा को मैं फिर से जगाती हूँ। शिकंजे एक नहीं, अनेक थे। उन सबका उल्लेख मैंने अपनी आत्मकथा में किया है।
13. राजेन्द्र कुमार- आत्मकथा लिखने के लिए आपको किसने प्रेरित किया और किस प्रकार मदद की?
डॉ. सुशीला टाकभौरे- मुझे आत्मकथा लिखने के लिए किसने प्रेरित किया- इस बात का उल्लेख मैंने अनेक बार और अनेक जगह किया है। 2006 में मैं रमणिका जी के घर गई थी। वहाँ पत्रकार मजीद अहमद जी से मेरी भेंट हुई। साहित्यिक बातों के बीच उन्होंने बहुत आग्रह और बड़ी विनम्रता के साथ बार-बार कहा कि मैंने अपनी आत्मकथा क्यों नहीं लिखी? मैं अपनी आत्मकथा लिखूँ, जल्दी छपवाऊँ। उनके साथ रमणिका जी ने भी कहा कि मुझे भी अपनी आत्मकथा लिखना चाहिए। रमणिका जी और मजीद अहमद जी के आग्रह से प्रेरित होकर मैंने उसी समय से अपने जीवन की स्मृतियों को इकट्ठा करना शुरू कर दिया था। हैदराबाद के उस्मानिया विश्वविद्यालय के दलित साहित्य पर एक सेमिनार में रमणिका जी ने कहा कि ‘सुशीला टाकभौरे अपने पति की मदद से ही यहाँ तक प्रगति कर सकी हैं।‘ उनकी यह बात सुनकर मैं अवाक् रह गई थी कि मैडम यह क्या कह रही हैं, जबकि सच्चाई मैं जानती हूँ। उस समय से ही घरेलू और पारिवारिक स्मृतियों ने मुझे आक्रान्त कर दिया था। मैं रमणिका गुप्ता जी और मजीद अहमद जी की अहसानमन्द हूँ कि उन्होंने इस तरह मुझे प्रेरित करके मेरी स्मृतियों को जगाया, जिससे कम समय में ही मैं अपनी आत्मकथा ‘शिकंजे का दर्द‘ लिख सकी। बस यही उनका सहयोग था। बाकी सब, लेखन-प्रकाशन का श्रम और संघर्ष मैंने ही किया है।
14. राजेन्द्र कुमार- आपको आत्मकथा लिखने का विचार कब आया? जब आपने आत्मकथा लिखना प्रारम्भ किया, तो किन समस्याओं से रूबरू होना पड़ा?
डॉ. सुशीला टाकभौरे – आत्मकथा लिखने का विचार कब आया? और कैसे आया?- इस बात का उल्लेख मैंने पिछले प्रश्न के उत्तर में किया है। इसके बाद, जब आत्मकथा लिखना आरम्भ किया तब मुझे अनेक समस्याओं से रूबरू होना पड़ा। इन समस्याओं का उल्लेख मैंने अपनी आत्मकथा की समीक्षाओं की सम्पादित पुस्तक की भूमिका में किया है। लेखन तो धारा प्रवाह चलता रहा, मगर उसे टाईप करवाने में और प्रकाशकों से छपवाने में अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ा। आत्मकथा की अप्रकाशित पाण्डुलिपि को ‘पब्लिक एजेण्डा‘ पत्रिका ने दस किस्तों में छापा था। इस आत्मकथा का एक अंश ‘अन्यथा‘ पत्रिका में छपा था, इसका एक अंश ‘हंस‘ पत्रिका में 2009 के नवम्बर के अंक में भी छपा था। उस समय मुझे भय था कि पत्रिका का अंश पढ़ने के बाद पति मुझे आत्मकथा छपवाने नहीं देगें। बाद में मैंने हिम्मत के साथ इसे पूरा करके वाणी प्रकाशन से प्रकाशित करवाया।
15. राजेन्द्र कुमार- आत्मकथा लिखने के लिए परिवार का सपोर्ट एक अनिवार्य कारक है। परिवार में सर्वाधिक मदद किसने की?
डॉ. सुशीला टाकभौरे- दलित लेखन और महिला लेखन अवरोधों के बीच स्वयं अपनी राह बनाकर चलने वाला लेखन है। यह किसी की मदद का मोहताज़ नहीं होता है। अगर यह दूसरों की मदद का मोहताज़ रहेगा तो स्वयं कमजोर होकर खत्म हो जाएगा। यह जिजीविषा शक्ति मेरे लेखन में है, मेरे स्वभाव और मेरे श्रम-संघर्ष में है। जब कोई लेखिका अपनी आत्मकथा में परिवार की यशोगाथा और पति की प्रशंसा की पुराण कथा कहती है, तब उसे परिवार का सपोर्ट मिलता है। यहाँ तो दलित महिला अपनी आत्मकथा में समाज की सच्चाई और पति की पितृसत्ता के मनुवादी अन्याय, अत्याचारों पर से पर्दा उठा रही है, तब किसी की मदद कैसे मिलेगी? मिलता रहा अवरोध, डराया गया, धमकाया गया, बहकाया गया, मिलता रहा असहयोग फिर भी आत्मकथा लेखन चलता रहा, उसे छपना ही था-आखिर वह छपकर रही। छपने के बाद भी अनेक प्रताड़नाओं का सामना करना पड़ा। मेरी आत्मकथा के विरोध में अब आक्रोश ज़्यादा नहीं बताया जाता, फिर भी वह पति के हृदय में धधकता रहता है कि उनकी पत्नी ने समाज को सच्चाई क्यों बताई। बच्चे तटस्थ ही रहे। कभी बेटा कहता रहा-‘‘मम्मी यह सब लिखना ठीक नहीं है।‘‘ मैंने प्यार से बच्चों को समझाया-‘‘जो तुम्हारे पापा ने किया, क्या वह ठीक था?‘‘ मैं अब किसी विरोध और अत्याचार की परवाह नहीं करती। मैं अपने रास्ते चल रही हूँ। मैं एक साहित्यकार हूँ, समाज की प्रतिनिधि हूँ, समाज की हितचिंतक और मार्गदर्शक हूँ।
16. राजेन्द्र कुमार- आत्मकथा लेखन के लिए दलित महिलाओं को किस तरह प्रेरित किया जाए, जिससे समाज के सामने षोषण एवं दोहन की सच्चाई सामने आ सके?
डॉ. सुशीला टाकभौरे- लुधियाना, पंजाब से प्रकाशित ‘अन्यथा‘ पत्रिका ने 2007 में दलित और अश्वेत महिलाओं के आत्मकथन पर विशेषांक निकाला था। उसी में पहली बार मेरा आत्मकथांश भी छपा था। पत्रिका में छपा हुआ आत्मकथांश पढ़कर मुझमें आत्मविश्वास जागा था कि मैंने सही ढंग से, सही बात सबके सामने बेबाक रूप से रख दी है। इसी प्रकार दिल्ली से प्रकाशित और डॉ. तेजसिंह द्वारा सम्पादित ‘अपेक्षा‘ पत्रिका ने भी दलित महिला आत्मकथन पर विशेषांक निकाला था। सम्पादक और सह-सम्पादक ने बहुत अनुरोध के साथ उस समय अनेक दलित महिलाओं से उनके अनुभव कथन और आत्मकथांश लिखवा कर पत्रिका में छापे थे। तब बड़ी संख्या में दलित महिलाओं के आत्मकथांश समाज के सामने आए। यदि इसी तरह दलित महिलाओं को प्रोत्साहित किया जाता रहे, तो अनेक दलित महिलाओं की आत्मकथा परिपूर्ण रूप में प्रकाशित हो सकेगी, जिससे समाज के सामने उनके शोषण और दोहन की सच्चाई भी सामने आ सकेगी। दलित महिलाओं को आत्मकथा लेखन के लिए उत्साह, प्रोत्साहन और प्रकाशन के लिए सहयोग की आवश्यकता है।
17. राजेन्द्र कुमार- पुरूषों के द्वारा लिखी दलित आत्मकथाओं में किसकी रचना आपको बेहद पसंद आई और क्यों?
डॉ. सुशीला टाकभौरे- दलित पुरूष आत्मकथाकारों ने अपने अपने जाति-समाज की व्यथा-कथा बताते हुए छुआछूत, जातिभेद के अपने सच्चे अनुभवों को चित्रित किया है। सबके अपने जीवन के पहलू है, अपने लेखन के अपने ढंग है। सभी की अपनी-अपनी विशेषताएँ हैं। ऐसे में किसी एक पुरूष दलित आत्मकथा को बेहद पसंद करना और बाकी को उपेक्षित रखना कठिन है। ओमप्रकाश वाल्मीकि जी की ‘जूठन‘ आत्मकथा भी अपनी जगह है, तो नैमिशराय जी की ‘अपने-अपने पिंजरे‘ की अपनी जगह है, इसी तरह सूरजपाल चैहान की ‘तिरस्कृत‘ और प्रो. तुलसीराम जी की ‘मुर्दहिया‘ की अपनी जगह है। मैंने सभी आत्मकथाओं में अलग-अलग विशेषताएँ देखी है। अतः यहाँ किसी एक के पसंद या नापसंद का सवाल ही नहीं है। इसी तरह ‘मेरा बचपन मेरे कंधों पर‘ आत्मकथा की भी अपनी जगह है।
18. राजेन्द्र कुमार- दलित आत्मकथाओं में किसकी रचना समाज को सबसे अधिक प्रभावित करती है?
डॉ. सुशीला टाकभौरे- इसमें किसी एक व्यक्ति का नाम न लेकर आत्मकथा का नाम होना चाहिए कि वह अपनी किन विशेषताओं से समाज को किस तरह प्रभावित करती है। आत्मकथा लेखन के अपने सिद्धान्त हैं। साथ ही दलित आत्मकथा लेखन का अपना उद्देश्य है। दलित आत्मकथा समाज की सच्चाई को पारदर्शिता के साथ दिखाती है। एक पुरूष की आत्मकथा की अपेक्षा एक दलित स्त्री की आत्मकथा में दलित और स्त्री होने के दोहरे सन्ताप का निरूपण होता है। इसके साथ यह भी जरूरी है कि वह ‘दलित साहित्य लेखन‘ के मानदण्डों पर कितनी खरी उतरती है। मनुवादी हिन्दू समाज व्यवस्था की विषमता भेदभाव का विरोध और समतावादी समाज रचना की मान्यता की स्थापना सहज ही समाज को प्रभावित करेगी। ‘अपने-अपने पिंजरे‘ आत्मकथा पहले छपी थी, मगर ‘जूठन‘ आत्मकथा ने समाज को अपनी विशेषताओं से अधिक प्रभावित किया है।
19. राजेन्द्र कुमार- दलित महिलाओं की दयनीय दशा सुधारने हेतु आप क्या सुझाव देना चाहेंगी?
डॉ. सुशीला टाकभौरे- मेरा सुझाव यही है कि जाग्रत महिलाएँ सभी महिलाओं को संगठित एवं जागृत करें। समय-समय पर, स्थान-स्थान पर महिला जागृति के कार्यक्रम लेकर महिलाओं को प्रोत्साहित करें। पुरूष समाज से बातचीत और विचार विमर्श करके समाज में स्त्रियों की दयनीय स्थिति को सुधारने के कार्यक्रम बनाएँ। वृद्ध, प्रौढ़, युवा और किशोर आयु वर्ग की महिलाओं के लिए अलग-अलग कार्यक्रम आयोजित करके उनकी आयु गट के अनुसार उनका मार्गदर्शन किया जाए। अनुभव कथन जैसे सत्र आयोजित करके कार्यक्रमों में सबके सामने उनके पारिवारिक और सामाजिक शोषण की घटनाओं को सुना जाए, साथ ही प्रस्ताव पारित करके ऐसी घटनाओं और ऐसे अन्यायी, अत्याचारी लोगों का धिक्कार किया जाए। दयनीय, शोषित, पीड़ित महिलाओं में आत्मविश्वास जगाकर उन्हें साहसी और लड़ाकू बनाया जाए ताकि वे अपनी लड़ाई स्वयं लड़ना सीखें। उनमें शिक्षा और स्वावलम्बी होने की भावनाओं को विकसित किया जाए।
20. राजेन्द्र कुमार- दलित महिलाओं को आप क्या संदेश देना चाहेंगी?
डॉ. सुशीला टाकभौरे- संदेश देना बड़ी बात है, मैं परामर्श ही दे सकती हूँ, जो दलित वर्ग अम्बेडकरवाद से जुड़ गया है वह जागृत हो चुका है, उनकी महिलाएँ भी जाग्रत हैं फिर भी दलित महिलाएँ अभी भी अध्ययन और चिन्तन-मनन से नहीं जुड़ पाई हैं। अतः ज़रूरी है कि दलित महिलाएँ अपने इतिहास हो जाने, वर्तमान को समझें और भविष्य के अपने सपनों को साकार बनाएँ।
जो दलित वर्ग अभी भी हिन्दू धर्म से जुड़ा है और अम्बेडकरवादी विचारधारा से दूर है, उनकी महिलाओं में जागृति नहीं हैं, उनमें हिन्दू धर्मान्धता है। ऐसी महिलाओं को विशेष रूप से जागृत करने की आवश्यकता है तभी सम्पूर्ण नारी वर्ग जाग्रत हो सकेगा। दलित महिलाएँ आपसी जातिभेद को भूलकर एकता संगठन को महत्त्व दें। शिक्षा और स्वावलम्बन को महत्त्व दें। साथ ही युवा पीढ़ी की लड़कियों का मार्गदर्शन करके उन्हें योग्य कार्यकर्ता बनाएँ। उनमें नेतृत्व की क्षमता का निर्माण करें।
बेटा-बेटी के विवाह के निर्णय लेते समय महिलाओं की राय को महत्त्व दिया जाता है। अतः महिलाएँ समाज में विशेष रूप से अन्तर्जातीय विवाह को महत्त्व देकर जाति तोड़ने का काम करें। यह बाबा साहब का सपना था। इन्हें पूरा करना हम सब दलित महिलाओं की जिम्मेदारी है।
राजेन्द्र कुमार
शोधार्थी (हिंदी)
पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय,
रायपुर (छत्तीसगढ़)
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