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हिमालय बन रक्षक प्रहरी, सागर निशदिन चरण पखारे।
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जैसे चलती यह पुरवाई, मै तो बस ऐसे ही चला था,
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कोकिला की कूक सूनी हूक अंतस् गढ़ बना है। भाव निर्जन राग नीरव और मन पतझड़ बना है॥
अजन्मा प्रतिकार
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कुंठित मन का अधार है बेकारी, भुखमरी,भ्रष्टाचार और अन्याय तथा शोषण का फैला हुआ साम्राज्य.
सच की जान निकल जाती है
डॉ. कुसुम सिंह
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जुलाई 4, 2021
इस तरह बातों की भीड़ में सच्ची बात खो जाती है
हे अर्जुन…
अम्बरीष कुमार सिंह
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हे अर्जुन उठा गांडीव पोंछ दे मानवता के अश्रु से भींगे नयन
सावन की प्रथम फुहार
स्वाति सौरभ
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जुलाई 2, 2021
सुनी आज पपिहे की बोली , कहां चली मंडुकों की टोली? क्यों हुआ चातक भाव विह्वल, क्यों मुसकाई वसुंधरा मंद- मंद?
मैं मरघट का बूढ़ा बरगद:चन्दन
विश्वहिंदीजन
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जून 28, 2021
दूनिया भर की खुशियाँ भोगे…. चार पीढ़ियाँ आगे देखे, चार पीढ़ियाँ पीछे देखे…. कई-कई सालों से हर इंद्रिय को भोगे…. जीवन से उकताये लोगों का आना….
कविता- नींद
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जून 26, 2021
कविता- नींद - डॉ. ऋचा त्रिवेदी
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