स्वदेशी संस्कृति और विरासत 

ज्योति कुमारी

शोधार्थी, ईग्नू (नई दिल्ली)

सारांश

भारत हमारा अत्यंत प्राचीन देश है और भारतीय संस्कृति भी अत्यंत प्राचीन है। इस भिन्न भिन्न संस्कृतियों से भरे देश की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यहाँ व्यक्ति अपनी इच्छा अनुसार किसी भी क्षेत्र की संस्कृति को अपना सकता है। इन सभी संस्कृतियों के मूल में भारतीयता है, स्वदेशीपन है। आर्यों की इस संस्कृति का विस्तार हमें सनातन धर्म, बौद्ध धर्म, जैन धर्म आदि में देखने को मिलता है। हर धर्म की संस्कृति का एक अपना महत्व है। इस बहुआयामी संस्कृति से भरे भारत देश का स्वर्णिम अतीत रहा है। और अतीत से ही हमें अपनी संस्कृति को जानने व उसे अपनाने का अवसर मिला है। इस देश की विविध संस्कृति में कई तरह के बदलाव आए। कुछ सांस्कृतिक परंपराओं में भी परिवर्तन आए और कुछ परंपराएँ तो रूढ होती चली गई है। क्या इस बदलाव, इस परिवर्तन से मानव जीवन प्रभावित होता है? तो इसका उत्तर है बेशक हाँ, ये देश की संस्कृति व सभ्यता ही है जिसने मनुष्य के व्यक्तित्व निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। मनुष्य के आचार-व्यवहार, वेश-भूषा, खान-पान की शैली में ही उसकी संस्कृति ही झलकती है। विवेकानंद का कहना है कि हमें अपने भारतीय होने पर गर्व महसूस करना चाहिए। यहाँ की सभ्यता और संस्कृति हमें विरासत के तौर पर मिली है। इस पर प्रत्येक भारतीय को गर्व करना चाहिए।

बीज शब्द: भारत, संस्कृति, स्वदेश, विरासत, प्राचीन, धर्म

शोध आलेख

भारत हमारा अत्यंत प्राचीन देश है और भारतीय संस्कृति भी अत्यंत प्राचीन है। इस भिन्न भिन्न संस्कृतियों से भरे देश की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यहाँ व्यक्ति अपनी इच्छा अनुसार किसी भी क्षेत्र की संस्कृति को अपना सकता है। इन सभी संस्कृतियों के मूल में भारतीयता है, स्वदेशीपन है। आर्यों की इस संस्कृति का विस्तार हमें सनातन धर्म, बौद्ध धर्म, जैन धर्म आदि में देखने को मिलता है। हर धर्म की संस्कृति का एक अपना महत्व है। इस बहुआयामी संस्कृति से भरे भारत देश का स्वर्णिम अतीत रहा है। और अतीत से ही हमें अपनी संस्कृति को जानने व उसे अपनाने का अवसर मिला है। इस देश की विविध संस्कृति में कई तरह के बदलाव आए। कुछ सांस्कृतिक परंपराओं में भी परिवर्तन आए और कुछ परंपराएँ तो रूढ होती चली गई है। क्या इस बदलाव, इस परिवर्तन से मानव जीवन प्रभावित होता है? तो इसका उत्तर है बेशक हाँ, ये देश की संस्कृति व सभ्यता ही है जिसने मनुष्य के व्यक्तित्व निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। मनुष्य के आचार-व्यवहार, वेश-भूषा, खान-पान की शैली में ही उसकी संस्कृति ही झलकती है। विवेकानंद का कहना है कि हमें अपने भारतीय होने पर गर्व महसूस करना चाहिए। यहाँ की सभ्यता और संस्कृति हमें विरासत के तौर पर मिली है। इस पर प्रत्येक भारतीय को गर्व करना चाहिए।

भारतीय अतीत को जानने पर पता लगता है कि यहाँ कई देश की संस्कृति का प्रभाव पड़ा था, इन प्रभावों के बावजूद हमारी भारतीय संस्कृति अक्षुण्ण बनी रही। संस्कृति के चार अध्याय में दिनकर ने लिखा है – “भारतीय संस्कृति में चार बड़ी क्रांतियाँ हुई है और हमारी संस्कृति का इतिहास उन्हीं चार क्रांतियों का इतिहास है।’’1 आगे वे लिखते है – “भारत की संस्कृति, आरंभ से ही सामसिक रही है। उत्तर-दक्षिण, पूर्व-पश्चिम देश में जहां भी जो हिन्दू बसते है, उनकी संस्कृति एक है एवं भारत की प्रत्येक क्षेत्रीय विशेषता हमारी इसी सामसिक संस्कृति की विशेषता है।’’2 किसी भी देश की संस्कृति एक सतत प्रवहमान धारा के समान है, इसमें नए संदर्भों से टकराव भी है, पर इस टकराव के बावजूद भी उन संदर्भों को अनुकूलित कर वह स्वयं को चिकनाती हुई चलती है।

सभ्यता और संस्कृति में व्यापकता और गहराई का अंतर है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में – “सभ्यता मनुष्य के बाह्य प्रयोजनों को सहजलभ्य करने का विधान है और संस्कृति प्रयोजनातीत अंतर आनंद की अभिव्यक्ति।’’3 और यही कारण है कि भारतीय संस्कृति में खुलेपन की वृत्ति अधिक है। हमारे आदि धर्म ‘सनातन धर्म’ में भी परम तत्व के किसी निश्चित स्वरूप की व्याख्या नहीं की गयी है और ना ही किसी पवित्र ग्रंथ की मान्यता पर बल दिया है। इतनी विविधताओं को बीच आज भारतीय संस्कृति पाश्चात्य विचारों से प्रभावित होती रहती है। भारतीय संस्कृति का सामना पश्चिमी संस्कृति से नहीं अमेरिकी सभ्यता से प्रभावित हो रही है। हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास में लिखा है – “संस्कृतियों के संघर्ष में, जिस का नवीनतम उदाहरण उन्नीसवीं शती का पुनर्जागरण है,उसने विरूद्धों का सामंजस्य किया। वहाँ संघर्ष चैतन्य शक्ति से था। अब इस नई टकराहट में पश्चिम की यांत्रिक सभ्यता सामने है जो अपनी प्रकृति में जड़ है। शायद यहाँ बचाव की मुद्रा में समन्वय-साधना की शैली अधिक फलप्रद होगी।’’4

भारतीय संस्कृति आध्यात्मिक संस्कृति है जिसमें विनय और शक्ति का समावेश है। अन्य संस्कृतियां इस पर प्रभावित होती जा रही है। “हम इन संस्कृतियों से अछूते नहीं रह सकते है। इन संस्कृतियों से कितना लें और कितना छोड़ें, यह हमारे सामने बड़ी समस्या है। अपनी भारतीय संस्कृति को तिलांजलि देकर इनको अपनाना आत्महत्या होगी। भारतीय संस्कृति की समन्वयशीलता यहाँ भी अपेक्षित है, किन्तु समन्वय में अपना ना खो बैठना चाहिए। इसी संस्कृतियों के जो अंग हमारी संस्कृति में अविरोध रूप में अपनाए जा सकें,उनके द्वारा अपनी संस्कृति को सम्पन्न बनाना आपत्तिजनक नहीं है। अपनी संस्कृति चाहे अच्छी हो या बुरी, चाहे दूसरों की संस्कृति से मेल खाती हो या ना खाती हो, उससे लज्जित होने की कोई बात नहीं।’’ 5

जब हम सांस्कृतिक विरासत की बात करते है तो हमें इसे संपूर्णता में देखने की आवश्यकता है। विरासत का अर्थ केवल पौराणिक स्थल ओर स्मारक तक ही सीमित नहीं है। ‘यूनेस्को वर्ल्ड हेरिटेज साइट्स’ से भी बढ़कर अगर हमारे पास कोई सांस्कृतिक विरासत है तो वह है हमारा- ‘भारतीय साहित्य’। प्रत्येक भाषा के साहित्य के माध्यम से हम अपनी सांस्कृतिक विरासत से परिचित होते है। नई शिक्षा नीति में क्षेत्रीय भाषाओं को शामिल किए जाने से विविध संस्कृति को एक सूत्र में पिरोने का उपक्रम किया जा रहा है। यह हमारे लिए गर्व की बात है। भारतीय विरासत को समृद्ध बनाने में भारतीय भाषाओं में रचित साहित्य की ऐतिहासिक भूमिका रही है। आज व्यक्ति हिन्दी की अपेक्षा अंग्रेजी बोलना पसंद करते है, उन्हें अपनी भाषा की गरिमा को समझना होगा। अपनी भाषा के अतीत को समझना होगा। हिन्दी के आदि कवि अमीर खुसरों को हिन्दी से बेहद लगाव था। वे दीवान ‘गुर्रतुलकमाल’ में कहते है-

तुर्क-ए-हिन्दुस्तानियम मन हिंदवी गोयं जवाब,

चु मन तूती-ए-हिंदम अज़ रास्त पुरसी।

जे मन हिंदवी पुरस ता नग्ज़ गोयम,

शकर मिस्त्री न दारम कज़ अरब गोयं सुखन।।

कहने का तात्पर्य यही है की तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी की जिस हिन्दी की वे बात कर रहे है वो आज की खड़ी बोली हिन्दी है, जिसकी जड़ें संस्कृत में थी। पर आज हम इस सांस्कृतिक गौरव को त्याग रहे है। आधुनिक शिक्षा व्यवस्था को फिर से मजबूत करने की आवश्यकता है। महादेवी वर्मा संस्कृति और शिक्षा के विषय में लिखती है- “संस्कृति और साहित्य के साथ शिक्षा का संबंध अटूट है। विदेशी शासकों ने हमारे शिक्षालयों को ऐसा कारखाना बना डाला था जिसमें निर्जीव क्लर्क मात्र गढे जाते थे। उन्हें अपना शासन यंत्र चलाने के लिए ऐसे ही पुतलों की आवश्यकता थी जिनमें ना अपनी सांस्कृतिक विशेषताओं का ज्ञान होता था, ना अपने चरित्र का बल होता था।’’6 भारतीय साहित्य में स्वदेश का गौरवगान किया गया है। मैथिली शरण गुप्त व रामधारी सिंह दिनकर का साहित्य इसका उदाहरण है। गुप्त जी ने भारत-भारती में ना केवल अतीत का गौरवगान किया है अपितु वे वर्तमान और भविष्य के सुधार की बात करते है। वे भारतीय विरासत की गौरवगाथा इस रूप में करते है-

“भू लोक का गौरव, प्रकृति का पुण्य लीला स्थल कहाँ?

फैला मनोहर गिरी हिमालय और गंगाजल जहां।

सम्पूर्ण देशों से अधिक किस देश का उत्कर्ष है?

उसका कि जो ऋषिभूमि है, वह कौन? भारतवर्ष है।।’’

सिर्फ साहित्यिक पुस्तकें ही नहीं आध्यात्मिक पुस्तकें भी हमारी सांस्कृतिक विरासत है, इन पुस्तकों में स्वदेश के प्रति प्रेम, आदर व कर्तव्यनिष्ठ होने का संदेश है। वेद, उपनिषद, पुराण आदि हमारी धरोहर है जिन्हें, ना केवल अध्ययन करने की आवश्यकता है अपितु उन सूत्र वाक्यों को व्यवहार में लाने की भी जरूरत है। भारत की सांस्कृतिक विरासत समस्त विश्व के लिए किसी अजूबे से कम नहीं है। यहाँ की विविधताओं में भी एकता है, यह सच में गौरव की बात है। डॉ ए.एल.वाशम ने ‘भारत की सांस्कृतिक विरासत’ नामक अपनी प्रामाणिक पुस्तक में नोट किया है कि ‘हालांकि सभ्यता के चार मुख्य उद्गम होते है जो पूरब से पश्चिम की ओर प्रस्थान करने वाले चीन, भारत फर्टाइल क्रिसेंट तथा भू मध्य रेखा विशेष रूप से ग्रीक और इटली है, परंतु भारत अधिक श्रेय का हकदार है क्योंकि भारत में अधिकांश एशिया के धर्म जीवन को गहन रूप से प्रभावित किया है। भारत ने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से विश्व के अन्य भागों पर भी अपना प्रभाव छोड़ा है।’

भारतीय संस्कृति हमें निरंतर उन्नति की ओर अग्रसर करती है। इतनी समृद्ध परंपरा को चिरकाल तक स्मरणीय बनाए रखने के लिए प्रत्येक मनुष्य को योगदान थोड़ा-थोड़ा देना चाहिए। अपनी संस्कृति सभ्यता को बचाए रखने के लिए उन्हें जीवित रखना होगा, थोड़े बहुत परिवर्तित रूप में ही सही उन्हें विलुप्त होने से बचाना होगा। महादेवी जी लिखती है- “निरंतर प्रवाह का नाम नदी है, जब शिलाओं से घेरकर उसका बहना रोक दिया गया, तब उसे हम चाहे पोखर कहे चाहे झील, किन्तु नदी के नाम पर उसका कोई अधिकार नहीं रहा। संस्कृति के संबंध में यह और भी अधिक सत्य है, क्योंकि वह ऐसी नदी है जिसकी गति अनंत है। वह विशेष देश, काल, जलवायु में विकसित मानव-समूह की व्यक्त और अव्यक्त प्रवृतियों का परिष्कार करती है और उस परिवार से उत्पन्न विशेषताओं को सुरक्षित रखती है।’’7

संस्कृति में एक समन्वयात्मक समष्टि है जो विकास के विविध रूपों को आपस में जोड़ती है और हमारी भारतीय संस्कृति तो विविध संस्कृतियों की समन्वयात्मक समष्टि है। इसके समझने के लिए हमें अत्यधिक उदार, निष्पक्ष और व्यापक दृष्टिकोण की आवश्यकता है। इस बहुमूल्य विरासत के महत्व को समझना जरूरी है जिससे आने वाली पीढ़ी के लिए इसे संरक्षित कर सकें। आज पूरा विश्व भारतीय संस्कृति के रंग में रंग रहा है, यहाँ के दर्शन को अपना रहा है। इस विशाल संस्कृति के हम उत्तराधिकारी है, इसकी रक्षा की जिम्मेदारी भी हमारी है।

संदर्भ सूची

  1. रामधारी सिंह दिनकर, संस्कृति के चार अध्याय, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण-2009, पृष्ठ- 13
  2. वही
  3. रामस्वरुप चतुर्वेदी, भारत और पश्चिम संस्कृति के अस्थिर संदर्भ, लोकभारती प्रकाशन, संस्करण-2010, पृष्ठ- 46
  4. वही
  5. बाबू गुलाब राय, भारतीय संस्कृति की रूपरेखा, ज्ञानगंगा, दिल्ली, संस्करण- 2008, पृष्ठ-19
  6. महादेवी वर्मा, भारतीय संस्कृति के स्वर, राजपाल एण्ड सन्स्, संस्करण- 1994, पृष्ठ-54
  7. वही, पृष्ठ-20