न्यूज-चैनल आजतक द्वारा भारतीय साहित्य को आगे बढ़ाने के लिए ‘साहित्य आजतक’ नाम से एक नई शुरुआत की जा रही है. इसी 12-13 नवंबर को नई दिल्ली के इंदिरा गांधी नेशनल सेंटर ऑफ आर्ट्स में इस दो दिवसीय कार्यक्रम का आयोजन होगा. इस कार्यक्रम में भारतीय साहित्य के कई दिग्गज नामों के साथ-साथ मशहूर कवि, संगीतकार, एक्टर, लेखक और अन्य कलाकार यथा जावेद अख्तर, अनुपम खेर, कुमार विश्वास, प्रसून जोशी, पीयूष पांडे, अनुराग कश्यप, चेतन भगत, कपिल सिब्बल, नजीब जंग, हंस राज हंस, मनोज तिवारी, अनुजा चौहान, रविंदर सिंह, चित्रा मुद्गल, अशोक वाजपेयी, केदार नाथ सिंह, उदय प्रकाश, मालिनी अवस्थी, दारैन शाहदी, उदय महुरकर, हरिओम पंवार, अशोक चक्रधर, पॉपुलर मेरठी, गोविंद व्यास, राहत इंदौरी, नवाज देवबंदी, राजेश रेड्डी, स्वानंद किरकिरे, नसीरा शर्मा, मैत्रेयी पुष्पा, शाजी जमान और देवदत्त पाठक जैसे नाम भी शामिल होंगे. इसमें सांस्कृतिक कार्यक्रमों के आयोजन के साथ-साथ नए लेखकों को अपनी रचनाएँ प्रस्तुत करने का मौका भी मिलेगा. इसी के साथ चैनल एक प्रतियोगिता भी आयोजित कर रहा है जिसमें बेहतरीन रचनाओं को 1 लाख तक का पुरस्कार भी दिया जाएगा…
पंजीकरण एवं अधिक जानकारी के लिए लिंक पर जाएँ- http://aajtak.intoday.in/sahitya/
आजतक की एक पहल- ‘साहित्य आजतक’, जिसके द्वारा 12-13 नवंबर को नई दिल्ली के इंदिरा गांधी नेशनल सेंटर ऑफ आर्ट्स में इस दो दिवसीय कार्यक्रम का आयोजन.
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के श्रेष्ठ निबंध: संपादक-विनोद तिवारी
(व्यंग्य) एक बुद्ध और’ उर्फ़ ‘खरीदने जाना पमरेनियन’ – डॉ. हरीश नवल
रहा हूँ. हर वर्ष मेरे विद्यार्थी मेरे समक्ष ‘मांग और वितरण’, ‘उत्पादन और
विनिमय’ तथा ‘मंदी और लाभांश’ संबंधी अनेक प्रश्न और शंकाएँ रखते है. परंतु मैं
स्वयं व्यावहारिक रूप से इन सबसे अनभिज्ञ होने की वजह से कभी भी संतोषजनक उत्तर
नहीं दे पाया हूँ. छोटा सा सरकारी स्कूल है, विद्यार्थियों को तलने के तरीके यहाँ
ईज़ाद होते रहते है, जिनका लाभ मैं उठाता रहा हूँ. शायद मेरा यह ज्ञान सदा अल्प
रहता यदि मैं पिछले महीने अपने साले गिरीशजी के लिए उनके साथ राजधानी की सड़कों पर
कुत्ता ख़रीदने नहीं डोलता. हमारे देश की राजधानी भी बहुत विचित्र है, जो भी बाहर से आता है, यहाँ से कुछ-न-कुछ
ख़रीदना ही चाहता है. भले ही ब्लैक में ख़रीदे जाने वाली मारुती हो अथवा व्हाइट में
ख़रीदा जानेवाला पमरेनियन हो. पमरेनियन समझते हैं आप ? मैं तो पिछले महीने ही समझा
जब गिरीशजी ने बताया कि वह पमरेनियन नस्ल का कुत्ता ख़रीदना चाहते हैं. यह रेशम की
त्वचा वाला छोटा सा एक ख़ूबसूरत कुत्ता होता है, जिसे विदेशी और देशी महिलाएं गोद
में खिलाने को आतुर रहती हैं. अनेक छैला क़िस्म के जीवन हार्दिक इच्छा रखते हैं कि
कभी, उन्हें ही कोई पमरेनियन समझ ले, तभी तो वे दुम हिलाते आगे-पीछे घूमते भी पाए
जाते हैं. बीसवीं सदी के पूर्वार्ध से इंग्लैंड में पमरेनियन पालने का फ़ैशन चला
था, जो अब तक सारी दुनिया में छा गया है, जो फ़ैशन अंग्रेज़ी अंग्रेज़ करें उसे देशी
अंग्रेज़ कैसे न करें? अतः भारत भी इसी दुनिया में है.
भारत सरकार की ओर से उन्हें वेतन, जीप और नौकरों के अतिरिक्त भारी दौर-भत्ता भी
मिलता है. सरकारी कामकाज पुरे भारत में कहीं भी हो सकता है. इस अवसर का लाभ उठाकर
गिरीशजी देश के कोने-कोने में छाए समस्त मित्रों एवं संबंधियों के सभी प्रकार के
छोटे-बड़े उत्सवों में, अपने अमूल्य समय का कुछ-न-कुछ अंश निकालकर अवश्य पधारते
हैं. दिल्ली तो उनके लिए कंपनी बाग़ है, जहाँ उनका घूमना अन्य सरकारी अधिकारियों की
भाँति लगा रहता है. पिछले महीने उनके साले कृपालसिंह जी को फ़्रांस से भारत लौटना
था. उनका पतन दिल्ली विमान-पतन (सरल शब्दों में एयरपोर्ट) पर होना था, अतः उन्हें
लिवाने के लिए ज़ाहिर है कि गिरीशजी का दिल्ली-आगमन बोर सरकारी था. मेरे साले से
साले को आना था अतः मुझे भी स्कूल से तब तक ‘मेडिकल’ लेना ही था. जब तक गिरीशजी
दिल्ली में मौजूद रहते.
अपने घर से चालीस किलोमीटर दूर विमान-पत्तन पर पहुंचकर तीन-तीन घंटे प्रतीक्षा
करते रहे पर कृपालसिंह जी नहीं आये. जो टेलीग्राम उन्होंने दिया था उस पर भारतीय
डाक-तार विभाग की अति कृपा होने से उनके आगमन की तिथि मेरे मोहल्ले के प्रत्येक
सदस्य की दृष्टि से भिन्न थी.
वापस लौटना था, यह उनकी घरेलू सरकार का हुक्म था, जो बिना भत्ते के भी जरुर बजा
फरमाते थे. सुबह उठते ही वह मुझसे बोले, ‘कृपालसिंह तो आये नहीं हैं, मैं एक
कुत्ता ख़रीदकर घर ले जाना चाहता हूँ.’ मेरी आँखों में अनेक प्रश्न उत्तर आये. ‘कृपालसिंह
के बदले कुत्ता? मै समझा नहीं.’ वे बोले, ‘ऐसा है जीजा जी, घर से चलते वक्त संतोष
ने दिल्ली के दो काम बताये थे: एक कृपालसिंह को लिवाना है, दुसरे एक पमरेनियन
कुत्ता ख़रीदना है. कृपालसिंह तो आये नहीं, कुत्ता तो ले ही चलूँ वरना संतोष गुस्सा
करेगी कि दोनों में से किसी को भी नहीं लाये’
विषयक ज्ञान की पोल खुल गयी. पमरेनियन कहाँ मिलेगा? पूछने पर मैंने उनसे अंग्रेज़ी
का समाचार-पत्र देखने को कहा, मेरे घर तो हिंदी का ही अख़बार आता है, जिसे पढ़कर
कुत्ता नहीं ख़रीदा जा सकता. कुत्ते की ख़रीद विषयक विज्ञापन तो अंग्रेज़ी के ही
अख़बार में छपते हैं. जब प्रातः मैंने अख़बार वाले से अंग्रेज़ी का भी अख़बार माँगा तो
उसे घोर आश्चर्य हुआ. ऊपर से नीचे तक मुझे देखते हुए उसने पूछा, ‘आप और अंग्रजी?’
अंग्रेज़ी का अख़बार पकड़ा दिया. अख़बार के अनुसार उस दिन शहर में तीन विक्रेता कुत्ते
बेच रहे थे, जिनमें बंगाली मार्केट वाले कर्नल साहब के पास पमरेनियन था.
मेरे यहाँ तो फ़ोन होने का प्रश्न ही नहीं था, अतः मैंने पड़ोसवाले नाई की दुकान से
विज्ञापन में दिए गए नंबर पर फ़ोन करके कर्नल साहब से समय लिया, समय बारह बजे दोपहर
का तय हुआ.
मूंछ-युक्त एक चेहरा खिड़की से निकला, कर्नल साहब ही थे.
नेकर, गले में लाल स्कार्फ और पैरों में पड़ा हुआ सफ़ेद फ्लीट (ठीक पमरेनियन की
भांति)
पमरेनियन को ले आई. पीछे-पीछे नौकर पानी का जग लेकर आ रहा था. मेरा गला खुश्क हो
रहा था. गिरीश जी सरकारी अधिकारी हैं, अतः उन पर कोई विशेष रौब नहीं पड़ा. हमें
पानी पूछा नहीं गया बल्कि उससे हमारे हाथ धुलवा दिए गए ताकि हमारे स्पर्श से
पमरेनियन मैला न हो जाये. गिरीश जी ने पिल्ले का पूर्ण निरीक्षण किया. उसे पंजों
से, दुम से पकड़कर उल्टा-सीधा उठाया, नाख़ून गिने आदि-आदि. फिर दाम पूछा, ‘ओनली फाइव
हंड्रेड.’
इशारा करते हुए धीरे से कहा, ‘जीजा जी, ब्रीड देखो ब्रीड. कर्नल और पत्नी कितने
फिट और स्मार्ट हैं.’
जी ने पर्स निकला और सौ-सौ के पांच कड़कते नोट निकाल लिए. अचानक कर्नल साहब ने
पूछा, तुम क्या करता है?’
इंजीनियर.’ कर्नल बोले, ‘आई एम सारी. मैं यह कुत्ता आपको नहीं दे सकता, सवा बारह
बजे चीफ इंजीनियर आयेंगे, उन्हें दूंगा. आई बिलीव इन इक्वल स्टेटस.’ मैंने पूछा,
‘इक्वल स्टेटस व्हाट?’ कर्नल साहब ने मूंछ पर हाथ रखकर उत्तर दिया, ‘बराबरी का
दर्जा.’ गिरीश जी के हाथों का कुत्ता गिर गया. अपमान-बोध के समस्त चिन्ह लिए हम
कर्नल साहब की कोठी से बाहर आ गए.
बाज़ार में एक मेहता साहब हुआ करते थे, जो कुत्ते बेचते थे. मुझे बरसों बाद कुत्तों
से घिरा उनका व्यक्तित्व याद आ गया. बाल्यपन की स्मृति तेज़ होती है. मैंने गिरीश
जी से सीताराम बाज़ार चलने को कहा. आज कुत्ता ख़रीदकर ही लौटना था. एक गली में
पतले-से जीने वाला मकान मैंने ढूंढ निकाला. कोलंबस भी अमेरिका देखकर इतना खुश नहीं
हुआ होगा, जितना मैं हुआ. जीना चढ़कर हम लोग ऊपर पहुँचे. सब बदल चुका था, एक बड़ी-सी
कपडे की दुकान थी वहाँ पर. एक कर्मचारी से मैंने कहा, ‘यह मेहता साहब की ही दुकान
है न? हमें पमरेनियन चाहिए था.’
पूछा. ‘पमरेनियन है, सेठ जी?’ सेठ जी ने वहीं से विनीत स्वर में कहा, ‘माफ़ कीजिये,
हम इम्पोर्टेड आइटम नहीं रखते. आप लट्ठा ख़रीद लीजिये, दो थान दूँ?’
है. आप उसी के मुकाबले का हिंदुस्तानी कपड़ा ख़रीद लीजिये. हम इटली की मोहर लगा
देंगे.’
बेचते हैं?’ हमने बिगड़े स्वर में कहा, ‘क्यों, बरसों से तो इस भवन में कुत्ते ही
बिकते थे, अब क्या हो गया? मेहता साहब कहाँ हैं?’ दुकान-मालिक यह सुनकर रौद्र रस
का अवतार हो गया, ‘अभी तुझे वहीं भिजवाता हूँ, जहाँ मेहता साहब तेरह साल पहले से
गए हुए हैं.’ उसने भुजदंड फड़काये. मैंने गिरीश जी ओर देखा- वह करुण रस में नहा रहे
थे. उनके नेत्रों में पलायन के चिन्ह थे. हम लोग भाग निकले.
निकलते हुए भावुक होकर कहा, ‘जीजा जी, आपके होते हुए मुझे दिल्ली में पमरेनियन नही
मिल रहा है. आप एक कुत्ता तक नहीं दिलवा सकते हैं. आपके हजारों विद्यार्थी में से
कोई भी कुत्ता नहीं बेचता क्या? संतोष क्या कहेगी कि न कृपालसिंह ही आये और न
ही…….’
लगा, मैंने दिमाग पर ज़ोर डाला कि कुत्ता कहाँ से मिल सकता है? मुझे याद आया कि
जामा मस्जिद के पास भी जानवर बिका करते थे. हम तुरंत जामा मस्जिद पहुँचे. वहाँ
मछली बिक रही थी, बकरा बिक रहा था, कबूतर आदि-आदि सभी कुछ था, कुत्ता ही नहीं था.
पूछताछ करने पर पता चला कि कुछ पुरानी दुकानें मीना बाज़ार में पहुँच गयी हैं, वहाँ
कोशिश की जा सकती है.
खोजा पर कहीं कुत्ते की पूंछ नज़र नहीं आई. हमारी बेचैनी भांपकर एक तोते वाले ने
हमें राह दिखाई, बोला ‘भाईजान, चेहरे से मुर्दनी हटाइये मर्दानगी लाइये. मैं
कुत्ते बेचने वालों का पता बताता हूँ.’ मैंने लपककर उसके चरण स्पर्श करके विनती की
कि वे तुरंत पता बताएं. तोतेवाले ने कहा, ‘बता तो मैं ज़रूर दूँगा पर मेरी छोटी सी
शर्त है, वह यह कि आप मुझसे एक दर्जन तोते ख़रीद लो.’
तोतों में पटा. मैंने तोते वाले से कहा कि वह तोते दिए बिना ही पैसे ले ले और हमें
कुत्तेवाले का पता तुरंत बता दे. इस बात पर वह बिगड़ गया. ‘हम ईमानदारी और मेहनत की
कमाई खाते हैं. तोते के बदले में ही पैसा लेंगे. आप चाहे तो तोते यहीं उड़ा देना,
हम मेहनत से उन्हें फिर पकड़ लेंगे.’ हमने ऐसा ही किया. पैसे लेकर और तोतों को
पकड़कर पुनः पिंजरे में बंद करते हुए उसने हमें बताया कि कश्मीरी गेट के बाहर गंदे
नाले के किनारे बंजारों की बस्ती है जहाँ हर तरह के कुत्ते बेचे जाते हैं.
हम असली कुत्ता विक्रेता के पास पहुँच ही गए और उसे अपनी मांग बताई. वह व्यक्ति
बोला, ‘आप ठीक जगह आये हैं. मैं पमरेनियन आपको पचास रुपये में दे दूँगा, पर दूँगा
पांच दिन के बाद.’ मैंने पूछा, पांच दिन बाद क्यों?’’उसने बताया, ‘मेरी कुतिया
पिल्ला देने वाली है.’ हमने उससे निवेदन किया कि पांच दिन के बजाय पांच घंटे में
ही किसी तरह से एक पिल्ला दिलवा दे और दोगुने पैसे ले ले. वह तलखी से बोला, ‘मैं
पचास रूपए के पीछे अपनी कुतिया का कैरियर नहीं ख़राब करूँगा, आप पांच दिन बाद ही
आओ.’ अधिक अनुनय करने के बाद उसने कहा, ‘मैं आपको एक आदमी का पता देता हूँ, उसके
पास आपको पमरेनियन मिल सकता है, वहाँ चले जाओ, मेरा नाम लेना, मैं अभी उसका पता
देता हूँ.’
एक छोटा-सा छपा हुआ कार्ड ले आया. नाम पता देखते ही हम चौक पड़े. यह तो बंगाली
मार्केट वाले कर्नल साहब का ही पता था. वह बोला, ‘ये साहब हमारे थोक के ग्राहक
हैं. हर हफ़्ते आते हैं और जितने भी पिल्ले होते हैं, मुंहमांगे दाम में ख़रीदकर ले
जाते हैं, बड़े आदमी हैं, शौक भी बड़ा है.’
जहाँ बुझ गया वहीं मेरी आँखों के सामने मानो रोशनी के सैकड़ों झरने फूट पड़े. ऐसा
दिव्य प्रकाश हज़ारों वर्ष पूर्व सिद्धार्थ को बोधिवृक्ष के तले जब दिखाई दिया था,
तभी से वह बुद्ध कहलाने लगे थे. मेरे अंदर के अर्थशास्त्र के शिक्षक का अज्ञान
क्षणों में नष्ट हो गया. आवश्यकता और मांग से लेकर वितरण और लाभांश तक के सभी प्रश्न
स्वतः हल हो गए. चंद घंटों की कुत्ता ख़रीदने की तपस्या संभवतः सिद्धार्थ के घर
त्यागकर वर्षों की तपस्या से कहीं अधिक फलीभूत हो गयी थी. मुझे बोध हो गया था कि
मुझे अपने विद्यार्थियों से क्या कहना है और… और…. गिरीश जी सोच रहे थे न तो
कृपालसिंह और न पमरेनियन के मिलने पर, अब उन्हें संतोष को क्या बताना है.
अन्तोन चेख़व की कहानी – ग्रीषा, – मूल रूसी से अनुवाद : अनिल जनविजय
पहले पैदा हुआ ग्रीषा नाम का एक छोटा और मोटा-सा लड़का अपनी आया के साथ बाहर गली
में घूम रहा है। उसके गले में मफ़लर है, सिर पर बड़ी-सी टोपी
और पैरों में गर्म जूते। लेकिन इन कपड़ों में उसका दम घुट रहा है और उसे बेहद गर्मी
लग रही है। सूरज बड़ी तेजी से चमक रहा है और उसकी चमक सीधे आँखों में चुभ रही है।
ग्रीषा क़दम बढ़ाता चला जा रहा है। किसी भी नई चीज़ को देखकर वह उसकी तरफ़ बढ़ता है और
फिर बेहद अचरज से भर जाता है।
दुनिया में पहली बार क़दम रखा है। अभी तक उसकी दुनिया सिर्फ़ चार कोनों वाले एक कमरे
तक ही सीमित थी, जहाँ एक कोने में उसका खटोला पड़ा है और दूसरे कोने में उसकी आया का सन्दूक।
तीसरे कोने में एक कुरसी रखी हुई है और चौथे कोने में एक लैम्प जला करता है। उसके
खटोले के नीचे से टूटे हाथों वाली एक गुड़िया झलक रही थी। वहीं कोने में खटोले के
नीचे एक फटा हुआ ढोलनुमा खिलौना पड़ा हुआ है। आया के सन्दूक के पीछे भी तरह-तरह की
चीज़ें पड़ी हुई हैं जैसे धागे की एक रील, कुछ उल्टे-सीधे काग़ज़, एक ढक्कनरहित डिब्बा और एक टूटा हुआ जोकर खिलौना।
अभी बेहद छोटी है। वह सिर्फ़ अपनी माँ, अपनी आया और अपनी
बिल्ली को ही जानता है। माँ उसे गुड़िया जैसी लगती है और बिल्ली माँ के फ़र के कोट
जैसी। लेकिन माँ के कोट में न तो दुम ही है और न आँखें ही। ग्रीषा के कमरे का एक
दरवाज़ा भोजनकक्ष में खुलता है। इस कमरे में ग्रीषा की ऊँची-सी कुरसी रखी हुई है और
कमरे की दीवार पर एक घड़ी लगी हुई है, जिसका पेण्डुलम हर
समय हिलता रहता है। कभी-कभी यह घड़ी घण्टे भी बजाती है। भोजनकक्ष के बराबर वाला कमरा
बैठक के रूप में इस्तेमाल किया जाता है, जिसमें लाल रंग की
आरामकुर्सियाँ पड़ी हुई हैं। बैठक में बिछे कालीन पर एक गहरा दाग दिखाई पड़ता है, जिसके लिए ग्रीषा को आज भी डाँटा जाता है।
एक और कमरा है, जिसमें ग्रीषा को घुसना मना है। उस कमरे में अक्सर पापा आते-जाते दिखाई
पड़ते हैं। पापा ग्रीषा के लिए एक पहेली ही हैं। उसकी माँ और आया तो उसकॊ कपड़े
पहनाती हैं, खाना खिलाती हैं, उसको सुलाती हैं।
लेकिन ये पापा किसलिए होते हैं, यह ग्रीषा को मालूम
नहीं है। ग्रीषा के लिए एक और पहेली हैं उसकी मौसी। वही मौसी, जिसने उसे वह ढोल उपहार में दिया था, जो अब उसके खटोले के
नीचे फटा हुआ पड़ा है। यह मौसी कभी दिखाई देती है, कभी लापता हो जाती
है। आख़िर ग़ायब कहाँ हो जाती है? ग्रीषा पलंग के नीचे, सन्दूक के पीछे और सोफ़े के नीचे झाँककर देख चुका है, लेकिन मौसी उसे कहीं नहीं मिली।
जहाँ सूरज की धूप आँखों को चुभ रही है, इतनी ज़्यादा माँएँ
और मौसियाँ हैं कि पता नहीं वह किसकी गोद में जाए? मगर सबसे अजीब हैं
घोड़े। ग्रीषा उनकी लम्बी-लम्बी टाँगों को देख रहा है और कुछ समझ नहीं पा रहा। वह
आया की ओर देखता है कि शायद वह उसे कुछ बताएगी। लेकिन आया भी चुप है।
और डरावनी आवाज़ सुनाई पड़ती है। सड़क पर लाल चेहरे वाले सिपाहियों का एक दस्ता दिखाई
देता है, जो धीरे-धीरे उसकी ओर बढ़ रहा है। सिपाहियों के हाथों में तौलिए हैं। वे
शायद नहाकर लौटे हैं। ग्रीषा उन्हें देखकर डर गया और काँपने लगा। उसने आया की तरफ़
सवालिया निगाहों से देखा — कहीं कोई खतरा तो नहीं है? लेकिन आया नहीं डरी
थी। ग्रीषा ने सिपाहियों को आँखों ही आँखों में विदा किया और उन्हीं की तरह क़दमताल
करने लगा। सड़क के उस पार लम्बी थूथनों वाली कुछ बिल्लियाँ इधर-उधर भाग रही हैं।
उनकी जबानें बाहर निकली हुई हैं और पूँछें ऊपर की तरफ़ खड़ी हुई हैं। ग्रीषा सोचता
है कि उसे भी भागना चाहिए और वह बिल्लियों के पीछे-पीछे बढ़ने लगता है।
कहाँ जा रहे हो? बड़ी शरारत करते हो।
टोकरी में सन्तरे लेकर बैठी हुई थी। उसके पास से गुज़रते हुए ग्रीषा ने चुपचाप एक
सन्तरा उठा लिया। — यह क्या बदतमीज़ी है? — आया ने चिल्लाकर कहा
और सन्तरा उससे छीन लिया — तुमने यह सन्तरा क्यों उठाया?
काँच के एक टुकड़े पर पड़ी, जो जलती हुई
मोमबत्ती की तरह चमक रहा था। वह उस काँच को भी उठाना चाहता था, मगर डर रहा था कि उसे फिर से डाँट पड़ सकती है।
डील-डौल वाला एक आदमी उनकी तरफ़ आ रहा था, जिसके कोट के बटन
चमक रहे थे। उस आदमी ने पास आकर आया से हाथ मिलाया और वहीं खड़ा होकर उससे बातें
करने लगा। ग्रीषा की ख़ुशी का कोई पारावार नहीं था। सूरज की धूप, बग्घियों का शोर, घोड़ों के दौड़ने की
आवाज़ें और चमकदार बटन — यह सब देखकर वह बेहद ख़ुश था। ये सब दृश्य ग्रीषा के लिए
नए थे और उसका मन ख़ुशी से भर गया था। वह ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगा था।
चमकदार बटनवाले आदमी के कोट का एक पल्ला पकड़कर ग्रीषा चिल्लाया।
ने फिर ज़ोर से कहा। वह कहना चाहता था कि कितना अच्छा हो अगर हम अपने साथ माँ, पापा और बिल्ली को भी ले लें। मगर वह अभी अच्छी तरह से बोलना नहीं जानता
था।
ग्रीषा को लेकर गली से एक इमारत के अहाते में मुड़ी। अहाते में बर्फ़ अभी भी पड़ी हुई
थी। चमकदार बटनों वाला वह आदमी भी उनके पीछे-पीछे चल रहा था। बर्फ़ के ढेरों और
अहाते में जमा हो गए पानी के चहबच्चों को बड़े ध्यान से पार करते हुए वे इमारत की
गन्दी और अन्धेरी सीढ़ियों पर चढ़कर ऊपर एक कमरे में पहुँच गए।
हुआ था। कोई चीज़ तली जा रही थी। ग्रीषा ने देखा कि अँगीठी के पास खड़ी एक औरत
टिक्के बना रही है। ग्रीषा की आया ने उस रसोईदारिन का अभिवादन किया फिर पास ही पड़ी
बेंच पर बैठ गई। दोनों औरतें कुछ बातचीत करने लगीं। गरम कपड़ों से लदे ग्रीषा को
गरमी लगने लगी। उसने अपने आस-पास देखा और सोचा कि इतनी गरमी क्यों है। फिर कुछ देर
वह रसोईघर की काली हो गई छत को ताकता रहा और फिर अँगीठी की तरफ़ देखने लगा।
! — आया ने चीख़कर उससे कहा — ज़रा इन्तज़ार करो !
शराब की एक बोतल और तीन जाम समोसों से भरी प्लेट के साथ मेज़ पर रख दिए। दोनों
औरतों और चमकदार बटनों वाले आदमी ने अपने-अपने जाम उठाकर टकराए और वे उन्हें पीने
लगे। उसके बाद उस आदमी ने आया और रसोईदारिन को गले से लगा लिया। फिर तीनों धीमी
आवाज़ में कोई गीत गाने लगे।
हाथ समोसों की प्लेट की तरफ़ बढ़ाया। आया ने एक समोसा तोड़कर उसका एक टुकड़ा ग्रीषा को
पकड़ा दिया। ग्रीषा समोसा खाने लगा। तभी उसने देखा कि आया तो कुछ पी भी रही है। उसे
भी प्यास लग आती है। रसोईदारिन अपने जाम से उसे एक घूँट भरने देती है। घूँट भरने
के बाद वह बुरा-सा मुँह बनाता है और घूर-घूरकर सबकी ओर देखने लगता है। फिर वह धीरे
से खाँसता है और ज़ोर-ज़ोर से अपने हाथ हिलाने लगता है। रसोईदारिन उसे देखकर हँसने
लगती है।
ग्रीषा अपनी माँ को, दीवारों को और अपने खटोले को यह बताने
लगता है कि आज वह कहाँ-कहाँ गया था और उसने क्या-क्या देखा। इसके लिए वह सिर्फ़
अपनी जबान का ही इस्तेमाल नहीं करता, बल्कि अपने चेहरे के
भावों और हाथों का भी इस्तेमाल करता है। वह दिखाता है कि सूरज कैसे चमक रहा था, घोड़े कैसे भाग रहे थे, अँगीठी कैसे जल रही
थी और रसोईदारिन कैसे पी रही थी।
नहीं आती। लाल चेहरे वाले सिपाही, बड़ी-बड़ी बिल्लियाँ, घोड़े, काँच का वह चमकता हुआ टुकड़ा, सन्तरे वाली औरत, सन्तरों की टोकरी, चमकदार बटन… ये
सभी चीज़ें उसके दिमाग में चक्कर काट रही हैं। वह करवटें बदलने लगता है और अपने
खटोले पर ही एक कोने से दूसरे कोने की ओर लुढ़कने लगता है… और आख़िरकार अपनी
उत्तेजना बरदाश्त न कर पाने के कारण रोने लगता है।
गया?
रहा है और चीख़ रहा है — जा…जा… अँगीठी…भाग !
से ज़्यादा खा लिया है, माँ सोचती है और ग्रीषा को, जो नए दृश्यों के प्रभाव से उत्तेजित था, दवा पिलाने लगती है।
(कहानी)- “रामजी महाराज या आज की सीता”: डॉ. सरस्वती जोशी, पैरिस
से गुरू व सीता सी नारियों से विहीन नहीं !)
नीना को ही नहीं अधिकतर लोगों को या तो याद नहीं या ज्ञात नहीं, पर वे एक महिला थीं, और पुरुषों में कम, स्त्रियों में, विशेष तौर से परंपरावादी स्त्रियों में
अत्यंत लोकप्रिय थीं । उन्हें रामजी महाराज के नाम से पुकारा जाता था । नीना के
मामा एक पढ़ेलिखे उच्च पदाधिकारी थे और उनके आधुनिकवाद से प्रभावित मामी गुरुओं
आदि में विश्वास नहीं किया करती थीं । अपने पिता के गाँव में स्कूल की कमी होने से
नीना ननिहाल में रहकर पढ़ाई कर रही थी और नीना की सही परवरिश की चिंता में मग्न
मामी उसके सामने विभिन्न सामाजिक समस्याओं का वर्णन करती रहती थीं । वही अक्सर
गुरुओं-साधुओं के नकारात्मक किस्से सुनाने वाली मामी अचानक उसे जल्दी-जल्दी होमवर्क
करा पास के मंदिर में कथा-कीर्तन सुनने ले जाने लगीं । जब पहली बार सुना :
“रामजी महाराज की कथा में चलना है,” तो नीना ने कल्पना
की : कोई पंडितजी होंगे, पर मंदिर पहुँचने पर
उसे मंच पर एक करीब ३५-३६ वर्ष की परम सुंदरी महिला दिखाई दी, गहरे गुलाबी वस्त्रों में, जिसके चेहरे पर
अद्वितीय ओज था । उसे उसकी सूरत में पुस्तकों में पढ़ी मीराबाई का आभास होने लगा ।
उसकी वाणी के माधुर्य भरे आकर्षण को नीना जीवन भर नहीं भूल पाई । उन भजनों को वह
आज ५० साल बाद भी गुनगुनाती है भावुक सी हो कर । उसे मोहित सा कर लिया रामजी
महाराज की सौम्यता, सुंदरता व चेहरे के ओज ने । वह अक्सर
मामी से आग्रह करने लगी मंदिर जाने का ।
एकादशी का व्रत था । नीना मंदिर में बैठी थी, कीर्तन चल रहा था ।
“नटनागर तुम्हारे चरणों में, भगवान तुम्हारे
चरणों में नित ध्यान मैं अपना लगाया करूँ… ” का भजन गा रहे थे सब । कुछ
मैले से कपड़े पहने एक व्यक्ति जो लुहार था और प्रथम पंक्ति में बैठा था अचानक
फूट- फूट कर रोने लगा । सब लोग चुप हो गये और रामजी महाराज की व उसकी ओर देखने लगे
। कुछ ही क्षणों में सब ने देखा कि रामजी की आँखों से भी धाराएँ बह रही हैं ।
उनहोंने अपनी एक शिष्या को संकेत किया कि उनका उस दिन का सारा चढ़ावा उस व्यक्ति
को दे दिया जाए । वे अक्सर अपना सारा चढ़ावा गरीबों में बाँट दिया करती थीं, यह कोई नई बात नहीं थी पर वह व्यक्ति गिड़गिड़ाता सा बोला : “मुझे धन
की नहीं आप की ज़रूरत है, मैं आपको लेने आया
हूँ, आप मेरी सब चूकें माफ कर दो, मैं आप के लायक नहीं
पर मुझे और इसको क्षमा कर घर चलो… ” उसके पास बैठी एक लुहारिन उठ कर रामजी
के पैरों में पड़ने लगी । रामजी उसे क्षमा प्रदान कर देने जैसी मुद्रा में उठ, मंच से उतर उन दोनों को शांत करने लगीं । उस समय उनके चेहरे पर अनेकों
विभिन्न रंग एक साथ दिखाई दे रहे थे । मंदिर में सन्नाटा छा गया । सैंकड़ों आँखे
नम हो गईं । रामजी महाराज जो सदा अपना परिचय स्वयं को “परदेसी फकीर” कह
कर दिया करती थीं, उनका असली परिचय सब को मिल गया था ।
अचानक सब को १५ वर्ष पहले की घूँघट में लिपटी, नित्य मार खा, फूट-फूट कर रोती पड़ोस की लुहारिन याद आ गई । हाँ यह वही थी ! वही अनपढ़
गँवार सी अबला ! जिसके पति के खड़ूस स्वभाव के कारण कोई उसे छुड़ाने भी नहीं जाता
था । जिसका पति : “अब तेरी छाती पर सौत लाऊँगा,” कह सच में एक दिन एक
लुहारन को ले आया था । उस रात दोनों ने उसे खूब पीटा था । सर्दी की ठिठुरती रात
में उसका विलाप दूर तक सुनाई दे रहा था । फिर अक्सर ऐसा होने लगा । लोग आदी से हो
गये । पर एक सुबह अचानक सुनने में आया : “पड़ोस की लुहारिन कहीं भाग गई, घर में नहीं है…” ससुराल वालों ने लांछन लगाए । मैके वालों ने कभी
सफाई दी, कभी चार गालियाँ । लुहारों में नाता होना आम बात है लोगों ने महत्व नहीं
दिया और धीरे-धीरे सब उसे भूल गये पर सब ने यह मान लिया कि अवश्य उसने दुखी हो
दूसरा घर कर लिया, उसे कोई मिल गया ।
रात आत्महत्या करने निकली, नदी तक गई भी पर
डूबने का साहस नहीं कर पाई । कहाँ जाऊँ, कहीं भी जाऊँ, पर इस पति के घर अब नहीं जाऊँगी… सोचती-सोचती वह अनायास ही रेलवे स्टेशन
पहुँच गई । टिकिट के पैसे पास में नहीं थे सो बिना टिकिट ही गाड़ी में चढ़ गई । वह
डिब्बा उज्जैन का था । थकान से चूर रामूड़ी को रोते रोते नींद आ गई, लोगों ने सोचा : “शायद कोई रिश्तेदार मर गया है ।” जब नींद जगी
तो गाड़ी उज्जैन पहुँच चुकी थी । गाड़ी से उतर स्टेशन से बाहर कैसे निकली, पता नहीं । कहते हैं : कानों के बुंदे टिकिट चेकर को दे दिये थे । पर
प्रश्न था अब ? अब कहाँ जाए ? एक भिखारिन से पूछा कि कुछ खाने की
जुगत कैसे बैठ पाएगी । बातों-बातों में भिखारिन ने एक रामसनेही महाराज के आश्रम का
पता बता दिया । रामुड़ी भूखी-प्यासी आश्रम में पहुँची । वहाँ के महाराज उसकी दुखद
कथा सुन भाव विभोर हो गये । उसकी सुंदर आभा में उन्हें सीता रोती दिखी या शकुंतला
यह तो नहीं पता पर उन्होंने उसे बेटी मान लिया । उस दिन से वह आश्रम में ही रह
ज्ञानार्जन करने लगी । वह आश्रम का सारा काम करती, और बाकी समय में
गुरूजी के और शिष्यों के साथ बैठ अध्ययन करने लगी । उसकी वेशभूषा, रहन सहन सब बदल गये, वह वहाँ के साधुओं
से गुलाबी वस्त्र पहनने लगी और अब उसका नाम “रामजी महाराज” हो गया । वह
बहुत प्रतिभाशालिनी थी । कुछ ही वर्षों में शास्त्रों का काफी ज्ञान अर्जित कर
लिया । लोग उसे महाराज की बेटी मानने लगे । धीरे-धीरे वह प्रवचन देने लगी । उसके
व्यक्तित्व व ज्ञान ने लोगों प्रभावित कर लिया और वह एक लोकप्रिय संत की श्रेणी
में गिनी जाने लगी । लोग उसके स्वरचित भजन सुनते समय मंत्रमुग्ध से हो जाते थे ।
पर उसके अपने मुहल्ले में वह आज भी थी : “एक लुहारिन, कहीं किसी अनजाने के
साथ भागी हुई लुहारिन !” उसके समाज को शिकायत थी कि : “दुखी थी तो
माता-पिता से कह, उनकी मार्फत दूसरा घर यानी नाता क्यों
नहीं कर लिया ? इस तरह भाग कर पीहर-सासरे की नाक क्यों कटवाई ?” परिवार में उसका
ज़िक्र करना एक प्रकार से मना सा था । वह परिवार के लिये घर की आन या शान नहीं शरम
की वस्तु थी, एक पापणी-दुष्टणी, कलंकणी…
१३ वर्ष बीत चुके थे । एक दिन उसके गुरूजी ने अपनी शिष्या या समझो अपनी दत्तक
पुत्री को आदेश दिया : “अब समय आ गया है तुमको अमुक शहर में जाकर भगवद्
प्रचार करना है ।” यह तो उसके अपने शहर का नाम था । उसने बहुत टालना चाहा पर आदेश
तो आदेश था । रामजी महाराज अपने एक दो आश्रम वासियों के साथ अपने शहर में पहुँच एक
मंदिर में ठहरीं और भगवान की भक्ति का प्रचार करने लगीं । शीघ्र ही लोकप्रिय हो
गईं और हज़ारों लोग उनके प्रवचन व भजन सुनने आने लगे ।
उनका पति भी आने लगा, उसने उनहें पहचान लिया । वह अपने मन पर
पड़े बोझ को सह नहीं पाया और उन्हें वापस घर लेजाने का आग्रह कर रहा था ।
बड़ी विचित्र स्थिति थी । अब तो कई लोगों को ध्यान आ गया । “हाँ हाँ !
यह तो वही लुहारिन है, अरे यह तो किसी के साथ नहीं भागी !…
पर यह ऐसी विदुषी कैसे बन गई ! आदि आदि,” पर रामजी ने वापस उस
गृहस्थाश्रम को स्वीकार नहीं किया । वे वहाँ उपस्थित हर व्यक्ति से मिलीं, अपने पुराने परिचय को स्वीकार कर लिया, उस दिन का चढ़ावा
अपने पति के घर भिजवा दिया, और उसी रात वापस
उज्जैन लौट गईं । कहते हैं कि रात में शहर छोड़ने से पहले अपनी ससुराल के मकान के
बाहर जा कर उसे प्रणाम किया था और आगे बढ़ते समय उनकी आँखे झर रही थीं ।
: “अब कलियुग है, वाल्मीकि का युग अलग था, अब वह युग कहाँ ?” पर हम देखते हैं कि
भारत माता आज भी वाल्मीकि व सीता को जन्म देती है और देती रहेगी पर उनको
ढूँढ पाना सरल नही !
की तरह भिक्षा माँगते रामबोला को तुलसी दास बना दिया, एक मूढ़ से व्यक्ति
को महा कवि काली दास बना दिया, एक लुहार पीड़ित
अबला को रामजी महाराज बना दिया ।
जावेद उस्मानी की रचनाएं
बार तो उस रूप में आती नही कभी
जिंदगी को हुज़ूर अब तो , जुमला बनाईये नहीं
आप की मंज़िल ख़ास है कि अवाम है
धोखे में सबकी जान और फंसाईये नही
घर की ये कोई बात नही बात है मुल्क की
सच सुनिये , सच से मुँह छुपाईये नही
सोचिए जनाब भूख से मौत के मसले का कोई
छत्तीस करोड़ गुण गान पर बहाईये नही
आज कल तो भावनाओं की सौदागरी ही वोट है
लोगो के यकीन पर यूँ चोट पहुंचाइये नहीं
सियासी तड़का लगा,महका घर मारे छौंक
आश्वासन का बारह मसाला चाहा जितना दिया झोंक
समय चुनावी पर्व मनाने का , कहाँ लगी है कोई रोक
खुद की कमियों को दूसरों पर चाहो जितना दो ठोक
चलाओं शब्द वाण बातों का , खंजर गहरा दो भोक
मातम क्या करना है ,जब नही किसी को कोई शोक
दक्षिण न पूरब न पश्चिम
न मंदिर न मजिस्द न हिंदू न मुस्लिम
हम एक थे कल भी,
आज भी हिंदोस्तां हम है
तन पर कोई आंच आने लगे गर
पासबानो की जान जाने लगे गर
भूल हर आई बीती,
हम-कदम, हमनवा, हम जुबाँ
हम है
शहादत को , सौ सौ सलाम मेरे भाई
सुनहरे गोलगप्पे बातों की रसमलाई
बधाई हो सरकार बहुत बहुत बधाई
नए पुराने , सारे बयानो की है दुहाई
आगे बढ़ ,अब तो करो कुछ भरपाई
––– —-
शासन का , आश्वासन
आश्वासन का ,
शासन
राशन पर , भाषण
भाषण ही , राशन
जुमला हड्डी स्व आसन
उपलब्धि स्वर्ण सिंहासन
क्या बोले, किस सच के
तराजू में किसे तौले
हर ओर अजब शोर है, चुप ही रहिए कहीं जाईये नहीं
हम , दर्द अब और बढ़ा है
जीने की, न जाने कैसी दवा है
वही है वक्त के अमीर कहकहे
सुन रहे अब नए किस्से अनकहे
चली कैसी , ये नयी
सबा है
ले , कर रही मरने की दुआ है
दीपक यात्री की रचनाएं
निकलते जा रहे हैं दिन
मुठ्ठियों के रेत-सा
फिसलता जा रहा है – जीवन
शनै: शनै: क्षीण हो रही हैं
तुम्हारी स्मृतियाँ
पाथर होता जा रहा है – मन
प्रेम, हो सके तो
मुझे माफ करना
प्रयोजन में होम हो जाने को, अब
न्योछावर कर दिया – यह जीवन।
……………………………………..
हवाओं ने भी देखा नहीं चेहरा
चाँदनी हर आँगन उतरती रही
धरा ने भी सबको दिया बसेरा
बटवरा रंग-रुप और दिलों का
ऊंच-नीच, झोपड़ी-महलों का
आओ, इंद्रधनुषी रगों की यहाँ
हम एक प्यारी नगरी बसाते हैं
हम, कोई नया तराना गाते हैं
हम प्रेम पुष्प है, प्रेम पल्लव हैं
प्रेम गुच्छ हैं चलो प्रेम लुटाते हैं।
कितना पगला है, जो मिट जाऐगा वह नाम ढूंढ़ता
है
हर एक घर में माँस का लोथड़ा जिस्मों-जान ढूंढ़ता है
ले जाएगी
जो रास्तों में भटक गया है कदमों के निशान ढूंढ़ता है
सूखी रोटी खा कर भी आज जो दीनो-ईमान ढूंढता है।
…………
ऐ माई
कहाँ तोहरा गाँव है री!
के हऊवे तोहर बाउ-मतारी
माई-सी नाक है का तोहरी
ई कपार बाउ सन है का री
कहाँ से खरीदी हो ई साड़ी
केतना हजार किलोमीटर में
पसरल ई तोहार अंचरा है री!
ऐ गंगा, ऐ माई
कहाँ तोहरा गाँव है री!
ई तोहार पाँव हअ कि विधाता के घड़ी
चलत-चलत थकती नहीं है का री
कहीं थमको, सुस्ताओ थोड़ा आराम करो
तहूँ हमार माई जैसी लगती हो
दिन हो की राती खटती ही रहती हो
ऐ बुढ़िया सुनती नहीं हो का री
ऐ गंगा, ऐ माई कहां तोहरा गाँव है री!
अब गुमसाईन-सी गंहात रहत हो
ऐ थेथर बुढ़िया तोहरा नाक नहीं का री!
काहे बहती हो ई कुत्तवन के बीच
इनका लिए माई-मौगी सब बराबर हैं
सब कसैया हैं, पाठी हैं सब छागर हैं
लौट जाओ बुढ़िया तुम अपना गाम
जहाँ रहो इज्जत से रहो, करो विसराम
ऐ बुढ़िया सुनती नहीं हो कान में तूर है का री!
मत बहो, मत बहो, लौट जाओ
अपना गाँव री!
लाख की चूड़ियाँ हैं
दो अना दो की
उनके हाथ नहीं आए
कलाई जिनकी ढ़ाई
और माथा हाथीपाँव
क्योंकि यह माथे से
पहनी जाती है
उभरती हैं
चुभती हैं
कलेजे की कलाई पर
और खईंक बनकर
रह जाती है
टनकती हुई घाव-सी
मेरी यह
लाख की चूड़ियाँ
दो अना दो की।
……………………………..
पगली आँखो का धोखा है, सफर में ऐसा होता है
क्या
वहाँ भी कोई रहता है खंडहर कभी खंडहर होता है क्या
मोहब्बत में झगड़ने का कोई और तरीका होता है क्या
पगलों की किस्मत है यह, हरएक को नसीब होता है
क्या।
______………………….
बहुत ही दलदल हुआ करती है
भटकाव और घुप अंधरे से भरी
मैं हुँ कि यहीं कहीं भटक गया हूँ
शायद दलदल में धस गया हूँ
पर मैं बाहर आऊंगा
एक दिन
क्योंकि मुझे घुटनेभर पानी में
खेत जोतना चौकी देना
धान रोपना आता है
मैं किसान का बेटा हूं
खून जलाकर फसल उगाना
सीखा नहीं है खून में है।
______………..
पर मैं लिखना चाहता हूँ
लिखते-लिखते
एक दिन लिखूँगा ही
छुच्छ भात-सी कविता
जीवन की सारी
व्यंजनाओं से दूर
एकदम निर्वात
शून्य।
_____
सब लिखो
जब तक धार न आए, दाल-भात-तीमन-तरकारी सब लिखो
रखकर कूट दो
खेत-पथारी, बोईन-पसारी, काकी-दाई,
बाउ-महतारी सब लिखो।
लिखो कि लिखकर चैन से सोना है, मिट्टी का होना
है सो सब लिखो
सो मटियातेल में बोरकर, आँगन-पछुआर से जोड़कर-
शब्द सब लिखो।
ब्लॉग: http://deepakyatri.blogspot.in/
न्यूज़ीलैंड में हिंदी शिक्षण: रोहित कुमार ‘हैप्पी’ संपादक, भारत-दर्शन, न्यूज़ीलैंड
और माओरी न्यूज़ीलैंड की
आधिकारिक भाषाएं है। सामान्यतः अँग्रेज़ी का उपयोग किया जाता है। न्यूज़ीलैंड
की लगभग
46
लाख की जनसंख्या में फीजी भारतीयों सहित भारतीयों की कुल संख्या
डेढ लाख से अधिक है। 2013 की जनगणना के अनुसार हिंदी न्यूज़ीलैंड में सर्वाधिक बोले जाने वाली
भाषाओं में चौथे नम्बर पर है। अँग्रेज़ी,
माओरी व सामोअन के बाद हिंदी सर्वाधिक बोले/समझे जाने वाली
भाषा है। 2013 की जनगणना के अनुसार 66,309 लोग हिंदी का उपयोग करते हैं।
न्यूज़ीलैंड जनगणना 2013 में
सर्वाधिक बोले जानी वाली शीर्षस्थ 10 भाषाएं
यूं
तो न्यूज़ीलैंड कुल 40 लाख की आबादी वाला छोटा सा देश है, फिर भी हिंदी
के मानचित्र पर अपनी पहचान रखता है। पंजाब और गुजरात के भारतीय न्यूज़ीलैंड में
बहुत पहले से बसे हुए हैं किन्तु 1990 के आसपास बहुत से लोग मुम्बई, देहली, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, हरियाणा
इत्यादि राज्यों से आकर यहां बस गए। फीजी से भी बहुत से भारतीय राजनैतिक तख्ता-पलट
के दौरान यहां आ बसे। न्यूज़ीलैंड में फीजी भारतीयों की अनेक रामायण मंडलियां
सक्रिय हैं। यद्यपि फीजी मूल के भारतवंशी मूल रुप से हिंदी न बोल कर हिंदुस्तानी
बोलते हैं तथापि यथासंभव अपनी भाषा का ही उपयोग करते हैं। उल्लेखनीय है कि फीजी में
गुजराती,
मलयाली, तमिल, बांग्ला, पंजाबी और
हिंदी भाषी सभी भारतवंशी लोग हिंदी के माध्यम से ही जुडे़ हुए हैं।
न्यूजीलैंड
में मंदिर,
मस्जिद, गुरुद्वारा, हिंदी सिनेमा, भारतीय
रेस्तरॉ,
भारतीय
दुकानें,
हिंदी
पत्र-पत्रिका,
रेडियो
और टीवी सबकुछ है। यहां दीवाली का मेला भी लगता है और स्वतंत्रता-दिवस समारोह का
आयोजन भी धूमधाम से होता है। यहां बसे भारतीयों को लगता ही नहीं कि वे देश से दूर
हैं।
फीजी
में रामायण ने गिरमिटिया लोगों के संघर्ष के दिनों में हिंदी और भारतीय संस्कृति
को बचाए रखने में महान भूमिका निभाई है। इसीलिए ये लोग तुलसीदास को श्रद्धा से स्मरण
करते हैं। तुलसी कृत रामायण यहां के भारतवंशियों के लिए सबसे प्रेरक ग्रंथ है।
जन्म-मरण,
तीज-त्योहार
सब में रामायण की अहम् भूमिका रहती है। फीजी के मूल निवासी भी भारतीय संस्कृति से
प्रभावित हैं। भारतीय त्योहारों में फीजी के मूल निवासी भी भारतीयों के साथ मिलकर
इनमें भाग लेते हैं। बहुत से मूल निवासी अपनी काईबीती भाषा के साथ-साथ हिंदी भी
समझते और बोलते हैं। न्यूज़ीलैंड में बसे फीजी मूल के भारतवंशी यहां भी अपनी भाषा
व संस्कृति से जुड़े हुए हैं।
न्यूज़ीलैंड
में 1996
में
हिंदी पत्रिका भारत-दर्शन के प्रयास से एक वेब आधारित ‘हिंदी-टीचर’ का आरम्भ
किया गया। यह प्रयास पूर्णतया निजी था। इस प्रोजेक्ट को विश्व-स्तर पर सराहना मिली
लेकिन कोई ठोस साथ नहीं मिला। पत्रिका का अपने स्तर पर हिंदी प्रसार-प्रचार जारी
रहा। भारत-दर्शन इंटरनेट पर विश्व की पहली हिंदी साहित्यिक पत्रिका थी।
आज
न्यूज़ीलैंड में हिंदी पत्र-पत्रिका के अतिरिक्त हिंदी रेडियो और टीवी भी है
जिनमें ‘रेडियो तराना‘ और ‘अपना एफ एम‘ अग्रणी हैं। हिंदी
रेडियो और टी वी अधिकतर मनोरंजन के क्षेत्र तक ही सीमित है किंतु मनोरंजन के इन
माध्यमों को आवश्यकतानुसार
हिंदी अध्यापन का एक सशक्त माध्यम बनाया जा सकता है। न्यूज़ीलैंड में हर सप्ताह
कोई न कोई सांस्कृतिक कार्यक्रम होता है। हर सप्ताह हिंदी फिल्में प्रदर्शित होती
हैं। 1998
में
भारत-दर्शन द्वारा आयोजित दीवाली आज न्यूज़ीलैंड की संसद में मनाई जाती है और इसके
अतिरिक्त ऑकलैंड व वेलिंग्टन में सार्वजनिक रुप से स्थानीय-सरकारों द्वारा दीवाली
मेले आयोजित किए जाते हैं।
औपचारिक
रुप से हिन्दी शिक्षण की कोई विशेष व्यवस्था न्यूज़ीलैंड में नहीं है लेकिन पिछले
कुछ वर्षों से ऑकलैंड विश्वविद्यालय में ‘आरम्भिक‘ व ‘मध्यम’ स्तर की
हिन्दी
‘कंटिन्यूइंग
एजुकेशन‘
के
अंतर्गत पढ़ाई जा रही है ।
ऑकलैंड
का भारतीय हिंदू मंदिर भी पिछले कुछ वर्षों से आरम्भिक हिंदी शिक्षण उपलब्ध करवाने
में सेवारत है। कुछ अन्य संस्थाएं भी अपने तौर पर हिंदी सेवा में लगी हुई हैं।
हिंदी के इस अध्ययन-अध्यापन का कोई स्तरीय मानक नहीं है। स्वैच्छिक हिंदी अध्यापन
में जुटे हुए भारतीय मूल के लोगों में व्यावसायिक स्तर के शिक्षकों का अधिकतर अभाव
रहा है।
हिन्दी
पठन-पाठन का स्तर व माध्यम अव्यावसायिक और स्वैच्छिक रहा है। कुछ संस्थाओं द्वारा अपने स्तर पर हिंदी पढ़ाई
जाती है। पिछले कई वर्षों से वेलिंग्टन हिंदी स्कूल में भी आंशिक रुप से हिंदी
पढ़ाई जा रही है जिसके लिए
सुश्री सुनीता नारायण की हिंदी सेवा सराहनीय है। वेलिंग्टन के हिंदी स्कूल की
सुनीता नारायण 1995
से
हिंदी पढ़ा रही हैं। भारत-दर्शन का ऑनलाइन
हिंदी टीचर 1996
से
उपलब्ध है। वायटाकरे हिंदी स्कूल हैंडरसन में हिंदी कक्षाओं के माध्यम से हिंदी का
प्रचार कर रहा है व सुश्री रूपा सचदेव अपने स्तर पर हिंदी पढ़ाती हैं। महात्मा
गांधी सेंटर में भी हिंदी पढ़ाई जाती है। प्रवीना प्रसाद हिंदी लैंगुएज एंड कल्चर
में हिंदी की कक्षाएं लेती हैं। पापाटोएटोए हाई स्कूल एकमात्र मुख्यधारा का ऐसा
स्कूल है जहाँ हिंदी पढ़ाई जाती है, यहाँ सुश्री अनीता बिदेसी हिंदी का
अध्यापन करती हैं। । इसके अतिरिक्त सुश्री सुशीला शर्मा भी कई वर्ष तक ऑकलैंड
यूनिवर्सिटी की कंटिन्यूइंग एजुकेशन में हिंदी पढ़ाती रही हैं। स्व० एम सी विनोद
ने बहुत पहले ऑकलैंड में हिंदी शिक्षण की व्यवस्था की थी लेकिन समुचित सहयोग न
मिलने के कारण कक्षाएं बंद करनी पड़ी थी। न्यूज़ीलैंड में हिंदी पत्रकारिता में भी
उनका योगदान भुलाया नहीं जा सकता। 1998 में भारत-दर्शन द्वारा आयोजित दीवाली
आज न्यूज़ीलैंड की संसद में मनाई जाती है और इसके अतिरिक्त ऑकलैंड व वेलिंग्टन में
सार्वजनिक रुप से स्थानीय-सरकारों द्वारा दीवाली मेले आयोजित किए जाते हैं।
पिछले
कुछ वर्षों से काफी गैर-भारतीय भी हिंदी में रुचि दिखाने लगे हैं। विदेशों में
हिंदी को बढ़ावा देने के लिए पाठ्यक्रम को स्तरीय व रोचक बनाने की आवश्यकता है।
विदेशों
में हिन्दी पढ़ाने हेतु उच्च-स्तरीय कक्षाओं के लिए अच्छे पाठ विकसित करने की
आवश्यकता है। यह पाठ स्थानीय परिवेश में, स्थानीय रुचि वाले
होने चाहिए। हिंदी में संसाधनों का अभाव हिन्दी जगत के लिए विचारणीय बात है!
अच्छे
स्तरीय पाठ तैयार करना, सृजनात्मक/रचनात्मक अध्यापन प्रणालियां
विकसित करना,
पठन-पाठन
की नई पद्धतियां और पढ़ाने के नए वैज्ञानिक तरीके खोजना जैसी बातें विदेशों में
हिन्दी के विकास के लिए एक चुनौती है।
भारत
की पाठ्य-पुस्तकों को विदेशों के हिंदी अध्यापक अपर्याप्त महसूस करते हैं क्योंकि
पाठ्य-पुस्तकों में स्थानीय जीवन से संबंधित सामग्री का अभाव अखरता है। विदेशों
में हिंदी अध्यापन का बीड़ा उठाने वाले लोगों को भारत में व्यावहारिक प्रशिक्षण
दिए जाने जैसी सक्षम योजनाओं का भी अभाव है। स्थानीय विश्वविद्यालयों के साथ भी
सहयोग की आवश्यकता है। इस दिशा में भारतीय उच्चायोग एवं भारतीय विदेश मंत्रालय
विशेष भूमिका निभा सकते हैं। जिस प्रकार ब्रिटिश काउंसिल अंग्रेजी भाषा को बढ़ावा
देने के लिए काम करता है, उसी तरह हिंदी भाषा व भारतीय संस्कृति
को बढ़ावा देने के लिए क़दम उठाए जा सकते हैं।
विदेशों
में सक्रिय भारतीय मीडिया भी इस संदर्भ में बी.बी.सी व वॉयस ऑव
अमेरिका से सीख लेकर, उन्हीं की तरह हिंदी के पाठ विकसित करके
उन्हें अपनी वेब साइट व प्रसारण में जोड़ सकता है। बी बी सी और वॉयस ऑव अमेरिका
अंग्रेजी के पाठ अपनी वेब साइट पर उपलब्ध करवाने के अतिरिक्त इनका प्रसारण भी करते
हैं। इसके साथ ही
सभी हिंदी विद्वान/विदुषियों, शिक्षक-प्रशिक्षकों को चाहिए कि वे आगे
आयें और हिंदी के लिए काम करने वालों की केवल आलोचना करके या त्रुटियां निकालकर ही
अपनी भूमिका पूर्ण न समझें बल्कि हिंदी प्रचार में काम करनेवालों को अपना
सकारात्मक योगदान भी दें। हिंदी को केवल भाषणबाज और नारेबाज़ी की नहीं सिपाहियों की
आवश्यकता है।
पहली हिंदी साहित्यिक पत्रिका, ‘भारत-दर्शन‘ के
संपादक हैं।
संपादक, भारत-दर्शन
2/156, Universal Drive
Henderson, Waitakere
Auckland, New Zealand
Ph: 0064 9 8377052
Fax: 0064 9 837 8532
E-mail: editor@bharatdarshan.co.nz
चीन में हिंदी का पुनर्जागरण काल: -डॉ. गंगा प्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ प्रोफेसर (हिंदी), क्वांगतोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय

है। आज से हज़ारों साल पहले संस्कृत और भारतीय संस्कृति चीन आ चुकी थी। इसके बाद जब
महात्मा बुद्ध जब चीन आए तो उनका इस धरती ने गर्म जोशी से स्वागत किया।कुछ अपवादों
जिनमें युद्धकाल भी आ जाता है को छोड़कर चीन और भारत की समान सांस्कृतिक विरासत ने
दोनों देशों को बहुत मज़बूती से जोड़े रखा है। भाई-भाई की तरह दोनों देशों ने अपने-अपने दुख-दर्द बाँटे
हैं। अपनी-अपनी संस्कृतियों को साझा किया है। इसमें भाषा ने सदैव बड़ी भूमिका निभाई है। जैसे प्राचीनकाल
में दोनों को संस्कृत ने जोड़ा वही भूमिका आज हिन्दी निभा रही है।
अध्यात्म ने चीन को बहुत अधिक प्रभावित किया।इसका सबसे बड़ा प्रमाण बंगला साहित्यकारों की यहाँ व्यापक
स्वीकार्यता का होना है। सर्वाधिक टैगोर पढे-पढ़ाए जाते हैं। अनेक विश्वविद्यालयों
में उनके नाम पर अध्ययन अनुभाग हैं। उनके काव्य के तो यहाँ अनेक दीवाने मिल
जाएँगे। टैगोर और अरविंद के जीवनदर्शन,काव्य,अध्यात्म और दार्शनिक सिद्धान्त यहाँ बड़ी गंभीरता के साथ अध्ययन -अध्यापन
में स्थान पाए हुए हैं। सेंजान विश्वविद्यालय की एक एक प्रोफेसर ने तो अरविंद
-दर्शन पर पी-एच.डी की है। यहाँ की माध्यमिक कक्षाओं के पाठ्यक्रमों तक में टैगोर
की उपस्थिति इनकी सर्व स्वीकार्यता की सहज पहचान काही जा सकती है।बांग्ला के बाद
हिंदी ने भी चीनियों को अपनी ओर आकृष्ट किया । इसमें सबसे पहले छायावादी काल में
हिंदी के रहस्य और रोमांटिसिज़्म ने स्वभाव से प्रकृति प्रेमी चीनियों का ध्यान अपनी
ओर खींचा । इसके बाद इनके लूशुन के समानधर्मा लेखक प्रेम चंद इन्हें गहरे प्रभावित
किया। साहित्य के बाद भाषा के रूप में पठन-पाठन के स्तर पर हिंदी के चरण सन् 1942 में, नेशनलिस्ट पार्टी की सरकार के समय में चीन
में पड़े। युन्नान प्रांत में पूर्वी भाषा का कॉलेज
स्थापित कियागया, जिसमें हिंदी , थाई, इंडोनेशियाई और वियतनामी सहित चार भाषाओं का शिक्षण शुरू हुआ। इस प्रकार इस धरती पर पहली
बार गैर यूनिवर्सल विदेशी भाषाओं के शिक्षण का श्रीगणेश हुआ। हिन्दी विभाग का
खुलना भी इसी समय के शिक्षा में हिन्दी के स्वर्णिम
इतिहास की शुरुआत मानी जा सकती है। इसके बाद भाषा का यह
प्रवाह पूर्वी भाषा कॉलेज युन्नान से चूंगचींग और चूंगचींग से नानजिंग तक पहुंचा। लेकिन हिंदी का यह प्रवाह
सन्1949 ई.में बीजिंग तक आते-आते थम और थक-सा गया।
में हिंदी का प्रवाह स्थिर-सा रहा। इक्कीसवीं सदी में आकर हिंदी ने फिर अंगड़ाई ली
और एक अन्य विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग खोला गया। इसके बाद तो झड़ी ही लग गई ।
बीजिंग विदेशी अध्ययन विश्वविद्यालय, शीआन
इंटरनेशनल स्टडीज विश्वविद्यालय, गुआंग्डोंग विदेश अध्ययन विश्वविद्यालय, शंघाई इंटरनेशनल
स्टडीज विश्वविद्यालय, युन्नान राष्ट्रीयता
विश्वविद्यालय, चीन के संचार विश्वविद्यालय आदि में हिंदी
विभाग खुलने शुरू हुए तो सिसिलेवार खुलते ही चले गए।
सबसे पुराना है।इस विश्वविद्यालयको
पूर्वी भाषा कॉलेज विरासत में मिला है।भौगोलिक दृष्टि से बीजिंग, शंघाई, गुआंगज़ौ,शीआन, कुनमिंग आदि शहरों यानी उत्तरी चीन, पूर्वी चीन, दक्षिण चीन, उत्तर पश्चिमी और दक्षिण पश्चिम सब
क्षेत्रों में स्थित विश्वविद्यालयों
में हिंदी का पठन-पाठन होता है । यहाँ हिन्दी विभाग स्थापित हैं। यहाँ के विश्वविद्यालयों में हिंदी के
पठन-पाठन पर एक विहंगम दृष्टि डालने और चीन में हिंदी की आधारभूमि तैयार करने में
जिन विश्वविद्यालयों की अग्रणी भूमिका रही है, उनकी भौगोलिक
स्थिति और कालवार विवरण निम्नवत है-
विश्वविद्यालय
|
स्थान
|
स्थापित
होने का समय |
बीजिंग
विश्वविद्यालय |
बीजिंग
|
1942
|
शीआन
विदेशी अध्ययन विश्वविद्यालय |
शीआन
|
2005
|
बीजिंग
विदेशी अध्ययन विश्वविद्यालय |
बीजिंग
|
2007
|
चीन
के संचार विश्वविद्यालय |
बीजिंग
|
2008
|
युन्नान
राष्ट्रीयता विश्वविद्यालय |
कुनमिंग
|
2010
|
गुआंग्डोंग
विदेशी अध्ययन विश्वविद्यालय |
केंटन
|
2012
|
शंघाई
विदेशी अध्ययन विश्वविद्यालय |
शंघाई
|
2013
|
हिन्दी विभाग खोलने की अनुमति दी गई है, पर अभी तक औपचारिक रूप से हिंदी का शिक्षण नहीं शुरू हुआ। दक्षिण पश्चिम
राष्ट्रीयता विश्वविद्यालय भी सक्रिय रूप से हिन्दी विभाग की तैयारी कर रहा है,
एक-दो वर्ष के भीतर यहाँ भी हिंदी की
शिक्षा शुरू होने की उम्मीद है।
के हिन्दी विभागों में शिक्षकों की स्थिति भिन्न-भिन्न है। बीजिंग विश्वविद्यालय ने चीन में सबसे पहले
हिन्दी विभाग खोला है, जिसमें भारत कीप्रमुख प्रांतीय भाषाओं और उनके साहित्य के अध्ययन की सुविधा उपलब्ध है। यह चीन का एकमात्र
विश्वविद्यालय है जो हिंदी में डॉक्टरेट की उपाधि भी प्रदान करता है। इसलिए शिक्षकों के मामले में बीजिंग विश्वविद्यालय
काफ़ी समृद्ध है। इसमें हिंदी विभाग में दो प्रोफेसर, एक
एसोसिएट प्रोफेसर, एक सहायक प्रोफेसर हैं।अन्य
विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की स्थिति इतनी
समृद्ध तो नहीं है पर वहाँ भी हिंदी के सुचारु रूप से शिक्षण के लिए औसतन तीन से
चार शिक्षक हैं। इनमें अधिकांश शिक्षक चीनी ही हैं। किसी -किसी विश्व विद्यालय में
ही विदेशी विशेषज्ञ के रूप में भारतीय प्रोफेसर हैं,नहीं तो
सारे विश्वविद्यालयों में चीनी नागरिक ही हिंदी पढ़ा रहे हैं । बीजिंग
विश्वविद्यालय में तो हिंदी के दो-दो चीनी प्रोफेसर
हैं। यहाँ के तीन प्राध्यापक हिंदी में पी-एच.डी हैं।यहाँ के प्रोफेसर जियांग जिंग
खुइ ने आधुनिक हिंदी नाटकों पर डाक्ट्रेट प्राप्त की है। नाटकों संबंधी उनके ज्ञान
पर मैं दंग था।उनके एक घंटे के साक्षात्कार में उनके मुँह से एक भी शब्द अङ्ग्रेज़ी
का मैंने नहीं सुना। उनके हिंदी पर अधिकार का इससे बड़ा सबूत और क्या चाहिए। मैंने
स्वयं को उनके सम्मुख बहुत सँभालकर रखा कि कहीं कोई अङ्ग्रेज़ी शब्द मुँह से न
निकाल जाए । उन्होंने मुझसे कहा कि,” आप भारतीय
अंग्रेज़ी बोलने में जो गौरव अनुभव करते हैं वह हिंदी बोलने में नहीं।”उस समय
मैं पानी-पानी हो गया। इनके पचासों शोध पत्र और कई पुस्तकें प्रकाशित हैं। इनमें
प्रमुख हैं- हिंदी नाटक का अनुसंधान,
हिंदी शिक्षकों की हिंदी सेवा की जितनी सराहना की जाए कम है। उनका
भाषा के साथ-साथ साहित्य के क्षेत्र में भी बड़ा अवदान है। उनके साहित्यिक अवदान को
विशेष रूप से रेखांकित किए जाने की आवश्यकता है।
नाम
|
विश्वविद्यालय
|
अनुसंधान
का विषय |
जिन
केमून |
बेइजिंग
विश्विद्यालय |
संस्कृत
साहित्य का इतिहास(1964)
भारतीय
संस्कृति का शोध-संग्रह (1983)
महाभारत(किसी
के साथ अनुवाद)
मेघदूत
(अनुवाद) आदि लगभग 30 किताबें |
लियू
अनऊ |
बेइजिंग
विश्विद्यालय |
हिंदी
साहित्य का इतिहास
प्रेमचन्द
की रचनाओं की आलोचना
रामायण
और महाभारत का अनुसंधान
अपेक्षित
दृष्टि से भारतीय और चीनी साहित्य का अध्ययन आदि लगभग 20 किताबें |
जियांग
जिंग खुइ |
बेइजिंग
विश्विद्यालय |
हिंदी
नाटक का अनुसंधान
रवीन्द्रनाथ
ठाकुर की रचनाओं का अध्ययन
भारत
की संस्कृति और साहित्य का अध्ययन |
गुओ
तोंग |
बेइजिंग
विश्विद्यालय |
आधुनिक
साहित्यकार अज्ञेय के उपन्यासों और कहानियों का अध्ययन
शंकर
की कलात्मक विशेषता आदि |
देंग
बिंग |
जनता
मुक्ति सेना का विदेशी भाषा कालेज |
भारत
का अनुसंधान
भारत
का भक्ति आंदोलन और कृष्ण साहित्य
भारतीय संस्कृति की विविधता आदि
|
लिओ
बो |
जनता
मुक्ति सेना का विदेशी भाषा कालेज |
भारत
के साहित्यकार कमरलेश्वर के उपन्यासों और कहानियों का अनुसंधान
मोहन
राकेश की कहानियों की आलोचना आदि |
रं
बिंग |
शंघाई
विदेशी अध्ययन विश्वविद्यालय |
प्रसाद
के आधुनिक कविता संग्रहों का अनुसंधान
प्रसाद
के चंद्रगुप्त नाटक का अधययन आदि |
कुछ न कुछ समानताएं हैं। प्रत्येक विश्वविद्यालय हिन्दी
भाषा के व्यावहारिक रूप के प्रयोग पर बल देता है और
उसके कौशल को महत्व देता है। इन सभी का मुख्य उद्देश्य छात्रों को
उच्च स्तरीय हिन्दी की क्षमता से संपन्न करना है। सभी कोशिश करते हैं कि छात्र
हिंदी का पूर्ण व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त कर सकें। इस आधार पर भारतीय संस्कृति, नीतिशास्त्र
और अर्थशास्त्र आदि क्षेत्रों की पढ़ाई
पर भी ज़ोर जिया जाता है। इन समताओं के होते हुए भी विभिन्न विश्विविद्यालय अपने
-अपने ढंग से ही कुछ पाठ्यक्रम तैयार करते हैं, जो एक दूसरे
से थोड़ा-से भिन्न भी हैं ।इन भिन्न रूप वाले पाठ्यक्रमों मेन श्रव्य -दृश्य पाठ
और व्यावहारिक संप्रेषण के कौशल वाले पाठ हैं।
विश्वविद्यालय का पाठ्यक्रम
विविधता से भरा,अधिक गंभीर और व्यापक है।
विशेष रूप से वैकल्पिक पाठ्यक्रमों में यह विशेषता बहुत ज़ाहिर है। पीकिंग
विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के छात्र अन्य सभी विभागों के समान, एक संपन्न वैकल्पिक पाठयक्रमों को चुन सकते
हैं, जैसे साहित्य, इतिहास, दर्शनशास्त्र, धर्म आदि।छात्र अपनी रुचि और
ज़रूरत के अनुसार स्वतंत्र रूप से इन व्यापक कोर्सों में से किसी को भी चुनने
के लिए स्वतंत्र हैं। इन पाठ्यक्रमों
में बहुत से ऐसे विषय शामिल हैं,जो
भारत मेन भी हिन्दी भाषी प्रान्तों मेन पढ़ाए जाते हैं।ये विभिन्न कालेजों में
लागू हैं औरइन पाठ्यक्रमों के माध्यम से छात्र अधिक अच्छी तरह से
उपनी प्रतिभा का विकास कर सकते हैं।इनसे वे अपनी उच्च
स्तरीय हिंदी की क्षमता का उदाहरण प्रस्तुत कर सकते हैं ।
के पाठ्यक्रम का रूप और तरीका
बेइजिंग विश्वविद्यालय से मिलता-जुलता है। इनके मुख्य पाठ्यक्रम हैं- आधारभूत हिन्दी, उच्च
स्तरीय हिंदी, हिंदी ऑडियो-विडियो का श्रवण, हिंदी पठन,हिंदी–चीनी अनुवाद
इत्यादि। बीजिंग विदेश अध्ययन विश्वविद्यालय में वैकल्पिक विषय ज़्यादा हैं,
जैसे चीन की संस्कृति, पुराने चीन के
साहित्य शास्त्र आदि। इससे देखा जा सकता है कि बीजिंग विदेश अध्ययन
विश्वविद्यालय चीन की पुरानी संस्कृति पर बहुत महत्व देता है। शीआन विदेश अध्ययन विश्वविद्यालय,
विश्वविद्यालय में हिन्दी पाठ्यक्रम की विशेषता
उसका सैद्धान्तिक से अधिक व्यावहारिक होना है। इन विश्वविद्यालयों
में प्राचीन चीन के साहित्य शास्त्र का पाठ्यक्रम कम है। यहाँ सैद्धान्तिक की
अपेक्षा व्याहारिक कोर्स ही ज़्यादा है। गुआंग्डोंग
विदेशी अध्ययन विश्वविद्यालय में मुख्य रूप से
व्यापारिक हिंदी का कोर्स पढ़ाया जाता है। लेकिन इस
वर्ष मैंने बी.ए.तृतीय वर्ष के पहले सेमेस्टर मे ‘हिन्दी
साहित्य का इतिहास‘ पढ़ाया।विद्यार्थियों की रुचि को देखकर
मैं हतप्रभ था।कक्षा में तो उनकी सक्रियता थी ही कक्षा के बाहर भी वे कम सक्रिय
नहीं थे। जैसे ही आदिकाल समाप्त हुआ।उन्होने हीनयान ,महायान ,नाथ पंथ और स्वयंभू आदि कवियों पर प्रश्न पूछने शुरू कर दिए।चौरासी
सिद्धों को उन्होंने बौद्ध
धर्म से ऐसा जोड़ा कि मैं उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रहा। भक्तिकाल तक आते-आते
तथाकथित धर्म की दृष्टि से ये नास्तिक विद्यार्थी निर्गुण और सगुण को आधिकारिक तौर
पर अलगाने लगे थे। कबीर और अन्य निर्गुण कवियों तथा नाथ और सिद्ध कवियों की
सामाजिक कुरीतियों के खंडन की प्रवृत्तियों में साम्य दर्शा सकने में सक्षम हो गए थे।
है कि विद्यार्थियों को हिंदी इस तरह सिखाई जाए कि उनमें मौखिक और लिखित दोनों शक्तियों पर बल हो। उनकी दोनों शक्तियाँ प्रबल हों पर अन्य विश्वविद्यालय में हिंदी
के पाठ्यक्रम का प्रबंधन केवल
भाषिक शक्ति यानी बोलचाल पर अधिक बल देता है।इस दृष्टि
ग्वाङ्ग्डोंग वैदेशिक भाषा अध्ययन विश्वविद्यालय ने अन्य विश्वविद्यालयों
व्यावहारिक भाषा नीति के साथ साहित्य के गंभीर अध्ययन के लिए भी एक खिड़की खोल ही
दी है। यह पर्णपरा मैं चाहता हूँ कि मेरी भारत वापसी के बाद भी बरकरार रहे। इसके
यहाँ के हिन्दी विभाग के निदेशक श्री ह्यू रुई और व्याख्याता श्रीमती त्यान केपिंग
को बराबर प्रेरित करता रहता हूँ।
पाठ्य-पुस्तक चुनना बहुत महत्वपूर्ण है। वर्तमान समय में बेइजिंग विश्वविद्यालय के
द्वारा संकलित पाठ्यपुस्तक
सबसे लोकप्रिय है। अधिकतर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग इसका उपयोग कर रहे हैं। इस
पाठ्यपुस्तक में अनुप्रयुक्त व्याकरण के स्पष्टीकरण की बहुत सटीक और सुंदर
व्यवस्था है।लेकिन यह पुस्तक मुद्रित न होकर टंकित है और छह दशक
पुरानी है। उसकी छाया प्रतियाँ होते-होते वर्ण तक विकृत रूप वाले हो गए हैं।उसमें
मंडारिन में जो भाषा-प्रयोग दिए गए हैं, वे बहुत स्पष्ट हैं।
उन्हीं से जहां अस्पष्ट हिन्दी पाठ हैं,उनको समझने में मदद
मिलती है। पीढ़ियों से चीन के हिन्दी छात्रों के
शिक्षण में इसका बड़ा योगदान है।इस पाठ्यपुस्तक की
अपनी सीमाएं हैं। उसका प्रयोग केवल आधारभूत हिंदी कोर्स मे ही हो सकता है, दूसरे हिंदी कोर्स,जैसे-हिंदी श्रवण, हिंदी-चीनी अनुवाद, हिंदी लेखन आदि में
इसका उपयोग नहीं किया जा सकता। यह पाठ्यपुस्तक
कोई औपचारिक रूप से प्रकाशित हुई पुस्तक भी नहीं है। यह
शिक्षकों के द्वारा समय-समय पर अपने कक्षा
-शिक्षण के लिए तैयार किए गए पाठों का संकलन भर है। अतः एक ऐसे सुव्यस्थित
पाठ्यक्रम की आवश्यकता है जो भाषाविदों की निगरानी में ‘विदेशी
भाषा के रूप में हिन्दी‘की दृष्टि से तैयार किया गया हो।
प्रसार को देखते हुए देश,काल और
उसकी बदलती जरूरतों के अनुसार नई पाठ्यपुस्तकों को
संकलित और संपादित करना एक बहुत ज़रूरी काम हो गया है। यहाँ के लिए हिंदी की किसी
भी स्तर की पाठ्यपुस्तक के निर्माण के दौरान कुछ
नियमों का पालन अवश्य करना है, जैसे सामग्री की विविधता और
छात्रों की समझ और उनके हिन्दी स्तर के अनुरूप होना ।अभी तात्कालिक रूप से
हमें हर श्रेणी के लिए कांसे कम एक-एक ऐसी
उपयोगी और सरल पाठ्यपुस्तक तैयार करने की आवश्यकता है, जो हर
दृष्टि से आधुनिक आर्थिक एवं सामाजिक विकास के अनुरूप
हो और अपने युग की मांग की पूर्ति करने में पूर्णतः
सक्षम भी हो।
भारतीय संस्कृति और अनुवाद के क्षेत्रों में शोध कर रहे
हैं, विशेष रूप से साहित्य के गंभीर अध्येता
के रूप में उभर रहे हैं। कुछ शिक्षक भारतीय अर्थव्यवस्था के बारे में अध्ययन कर
रहे हैं। इस क्षेत्र में पीकिंग विश्वविद्यालय के शिक्षक बहुत आगे हैं। वे भारतीय
साहित्य, संस्कृति, धर्म के
बारे में अध्ययन कर रहे हैं। वहाँ पिछले दिनों यहाँ के विश्वविद्यालयी प्रशासन के
द्वारा एक साक्षात्कार में मुझे विषय विशेज्ञ बनाया गया
तो मैंने पाया कि यहाँ जो शोध करते हैं वे अपने यहाँ की अपेक्षा गंभीरता के साथ
करते हैं। यहाँ की एक प्रतिभागी सूरदास पर पी-एच.डीकर रही थी।वह पुष्टिमार्ग,नवधा भक्ति और सूर के निर्गुण खंडन जैसे विषयों पर मेरे पूछने के साथ ही उत्तर देने लगी थी।मैं इसी बात पर मुग्ध था कि उसने
किसी भी प्रश्न का ‘नहीं आता‘में जवाब
नहीं दिया। चीन में हिंदी फैलती इस बेल से मैं तो बहुत आशान्वित हूँ। बीजिंग ही
नहीं शीआन विदेश अध्ययन विश्वविद्यालय के एक शिक्षक
अनुवाद पर और भारत की राष्ट्रीय स्थितियों पर
शोध कर रहे हैं। अन्य कई विश्वविद्यालयों के शिक्षक हिंदी माध्यम से
भी भारतीय साहित्य या अनुवाद पर अनुसंधान कर रहे
हैं।हमारे प्रधानमंत्री की ची यात्रा के बाद यहाँ के विद्यार्थियों में हिंदी पढ़ने
का उत्साह बढ़ा है। अकेले हमारे विषविद्यालय में हिंदी में सत्तावन विद्यार्थी
हिंदी पढ़ रहे हैं।किसी दूसरे देश के किसी भी विश्वविद्यालय में यह संख्या मिलना
बहुत मुश्किल है।सही अर्थों में चीन में हिंदी का यह पुनर्जागरण काल है।
से जोड़ा गया है। चीन में हिन्दी के छात्र स्नातक होने के बाद तरह-तरह काम करने
लगते हैं। वे ऐसे विभागों में जाते हैं जहाँ से हिन्दी और हिंदुस्तान का रिश्ता
जुड़ता है। ये खोजी प्रवृत्ति के होते हैं। अधिकांश तो
बीए के बाद ही कुछ न कुछ व्यवसाय खोज ही लेते हैं। कुछ स्नातक विदेश में उच्च
शिक्षा के लिए चले जाते हैं। वहाँ वे दक्षिण एशिया के
बारे में विशेष अनुसंधान करते हैं। अमेरिका, ब्रिटेन, हांगकांग आदि जगहों में वे हिन्दी छोड़कर दूसरे विषय जैसे संचार विज्ञान, बौद्ध धर्म, अंतरराष्ट्रीय संबंध, शिक्षा और अन्य विषयों को पढ़ते हैं। कुछ चीन
में ही रहकर एम.ए. करते हैं, और कुछ सरकारी नौकरी में भी लग जाते हैं।सरकारी नौकरी
पाने वाले ज़्यादातर कस्टम और सुरक्षा विभाग में काम
करते हैं।
करने चले जाते हैं। कुछ स्नातक तरह- तरह के अंतर्राष्ट्रीय बड़े संस्थानों और
कंपनियों में काम करते हैं। जैसे एचएसबीसी बैंक,
हैएर और हुऐवेइ आदि कंपनियां।
सीसीटीवी,सीआर आई (चीन का अंतर्राष्ट्रिय रेटियो स्टेशन) में
काम करते हैं। और कुछ स्नातक उच्च स्तरीय शिक्षा संस्थान और विश्वविद्यालय में
हिन्दी पढ़ाने और अनुसंधान का काम भी करने लग जाते हैं।
(हिंदी),
वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय ,