39.1 C
Delhi
होम ब्लॉग पेज 83

कवितई: बजरंग बिहारी ‘बजरू’

कवितई

                                बजरंग बिहारी ‘बजरू’

[1]

हेरित है इतिहास जौन दिन झूठ बदलि कै फुर होइगा
झूर आँख अंसुवात जौन दिन झूठ बदलि कै फुर होइगा।
हंडा चढ़ा सिकार मिले बिनु राजाजी बेफिकिर रहे
बोटी जब पहुंची थरिया मा झूठ बदलि कै फुर होइगा।
बिन दहेज सादी कै चर्चा पंडित जी आदर्स बने
कोठी गाड़ी परुआ पाइन झूठ बदलि कै फुर होइगा।
खाली हाथ चले जाना हैसाहूजी उनसे बोले
बस्ती खाली करुआइन जब झूठ बदलि कै फुर होइगा।
बजरूका देखिन महंथ जी जोरदार परबचन भवा
संका सब कपूर बनि उड़िगै झूठ बदलि कै फुर होइगा।

[2]

चढ़ेन मुंडेर मुल नटवर न मिला काव करी
भयी अबेर मुल नटवर न मिला काव करी।
रुपैया तीस धरी जेब, रिचार्ज या रासन
पहिलकै ठीक मुल नटवर न मिला काव करी।
जरूरी जौन है हमरे लिए हमसे न कहौ
होत है देर मुल नटवर न मिला काव करी।
माल बेखोट है लेटेस्ट सेट ई एंड्राइड   
नयी नवेल मुल नटवर न मिला काव करी।
रहा वादा कि चटनी चाटि कै हम खबर करब
बिसरिगा स्वाद मुल नटवर न मिला काव करी।

[3]

गजल मामूली है लेकिन लिहेबा सच्चाई
बिथा किसान कै खोली कि लाई गहराई।
इस्क से उपजै इसारा चढ़ै मानी कै परत
बिना जाने कसस बोली दरद से मुस्काई।
तसव्वुर दुनिया रचै औतसव्वुफ अर्थ भरै
न यहके तीर हम डोली न यहका लुकुवाई5
धरम अध्यात्म से न काम बने जानित है
ककहरा राजनीति कै, पढ़ी औसमझाई।
समय बदले समाज बोध का बदल डारे
बिलाये वक्ती गजल ई कहैम न सरमाई।
चुए ओरौनी जौन बरसे सब देखाए परे
बजरूकै सच न छुपे दबै कहाँ असनाई।

[4]

चले लखनऊ पहुंचे दिल्ली,
चतुर चौगड़ा बनिगा गिल्ली7
हाटडाग सरदी भय खायिन,
झांझर भये सुरू मा सिल्ली9
समझि बूझि कै करो दोस्ती,
नेक सलाह उड़ावै खिल्ली।
बब्बर सेर कार मा बैठा ,
संकट देखि दुबकि भा बिल्ली।
बजरूबचि कै रह्यो सहर मा,
दरकि जाय न पातर झिल्ली।

[5] 

का बेसाह्यो कस रहा मेला
राह सूनी निकरि गा रेला।
बरफ पिघली पोर तक पानी
मजाखैंहस संग संग झेला।
के उठाए साल भर खर्चा
जेबि टोवैं पास ना धेला।
गे नगरची  मुकुटधारी
मंच खाली पूर  भा खेला।
बहुत सोयौ राति भर ‘बजरू
अब  लपक्यो भोर की बेला।

[6]

जियै कै ढंग सीखब बोलिगे काका
भोरहरे तीर जमुना डोलिगे काका।
आँखि  अंगार  कूटैं  धान  काकी,
पुरनका घाव फिर से छोलिगे काका।
झरैया  हल्ल  होइगे  मंत्र  फूंकत
जहर अस गांव भीतर घोलिगे काका।
निहारैं   खेत   बीदुर  काढ़ि  घुरहू,
हंकारिन पसु पगहवा खोलिगे काका।
बिराजैं   ऊँच   सिंघासन   श्री   श्री
नफा नकसान आपन तोलिगे काका।
भतीजा हौ तौ पहुंचौ घाट ‘बजरू
महातम कमलदल कै झोरिगे काका।

[7]

उठाए बीज कै गठरी सवाल बोइत है
दबाए फूल कै मोटरी बवाल पोइत है।
इन्हैं मार्यौ उन्हैं काट्यौ तबौं  प्यास बुझी
रकत डरि कै कहां छिपिगा नसै नसि टोइत है।
जुआठा कांधे पर धारे जबां पर कीर्तिकथा
सभे जानै कि हम जागी असल मा सोइत है 
कहूं खोदी कहूं तोपी सिवान चालि उठा
महाजन देखि कै सोची मजूरी खोइत है।
 घटाटोप अन्हेंरिया उजाड़ रेह भरी
अहेरी भक्त दरोरैं यही से रोइत है।

[8]

देसदाना भवा दूभर राष्ट्रभूसी अस उड़ी
कागजी फूलन कै अबकी साल किस्मत भै खड़ी।
मिली चटनी बिना रोटी पेट खाली मुंह भरा
घुप अमावस लाइ रोपिन तब जलावैं फुलझड़ी।
नरदहा दावा करै खुसबू कै हम वारिस हियां 
खोइ हिम्मत सिर हिलावैं अकिल पर चादर पड़ी।
कोट काला बिन मसाला भये लाला हुमुकि गे।
बीर अभिमन्यू कराहै धूर्तता अब नग जड़ी।
मिलैं बजरूतौ बतावैं रास्ता के रूंधि गा 
मृगसिरा मिरगी औसाखामृग कै अनदेखी कड़ी।  
_____

सम्पर्क: 
फ्लैट नं.- 204, दूसरी मंजिल,
मकान नं. T-134/1,
गाँव- बेगमपुर,
डाकखाना- मालवीय नगर,
नई दिल्ली-110 017
फोन- 09868 261895

‘एक भारत श्रेष्ठ भारत’ की शिक्षक, शिक्षा और शिक्षार्थी ही आधार-प्रदीप सिंह

0

‘एक भारत श्रेष्ठ भारत’ की शिक्षक, शिक्षा और शिक्षार्थी ही आधार

*प्रदीप सिंह

सन 2015 में सरदार बल्लभ भाई पटेल की 140 वीं जन्म जयंती 31 अक्टूबर को ‘एक भारत श्रेष्ठ भारत’अभियान की शुरुवात देश के विभिन्न राज्यों में सांस्कृतिक एकता ,राष्ट्रीय एकीकरण को कला,संगीत और वाद्य द्वारा सीखने की प्रवृत्ति बढ़ाने हेतु किया गया।एक भारत श्रेष्ठ भारत अभियान मूलतः भारत के राज्यों के लिए है जिसमें प्रतिवर्ष एक राज्य किसी अन्य राज्य का चुनाव करेगा और उस राज्य की भाषा,इतिहास,संस्कृति,ज्ञान विज्ञान आदि को अपनाएगा और उसको पूरे देश के सामने बढ़ाएगा।अगले वर्ष किसी अन्य राज्य का चुनाव किया जाएगा।इस तरह यह योजना पूरे देश में चलती रहेगी जिससे राज्य आपस में संगठित होंगें।एक दूसरे भी भाषा को समझेंगे जिससे अनेकता में एकता का विकास होगा।सरदार पटेल की जीवनी और प्रधानमंत्री जी की प्रेरणा से शिक्षक और छात्र इस अभियान को सफलतम बनाने के लिए अपना सर्वोत्तम प्रयास कर रहे हैं।देश सीमाओं तथा राष्ट्र भूमि,जल और संस्कृति के संघात(संयुति) से निर्मित होता है।सरदार पटेल जी ने देश को एकता के सूत्र में पिरोनें का महान कार्य किया था।

प्रेरक प्रसंग:सरदार पटेल के पिताजी किसान थे और सरदार पटेल बाल्यकाल में अपने पिताजी के साथ खेत पर जाते थे।एक दिन सरदार पटेल के पिताजी खेत में हल चला रहे थे और पटेल जी उनके साथ चलते हुए पहाड़े याद कर रहे थे पहाड़े याद करते हुए इतना तन्मय हो गए कि पैर में कांटा चुभने पर भी उनकी तन्मयता में कोई प्रभाव नही पड़ा और वे पहाड़ा याद करते रहे अचानक उनके पिता जी की नजर पटेल जी के पाव पर पड़ी बड़ा कांटा देखकर चौंक गए फिर कांटा निकाला और घाव पर पत्ते बांधकर रक्त बहने से रोका।

सरदार पटेल की इस तरह की एकाग्रता और तन्मयता देखकर उनके पिताजी अत्यंत खुश हुए और उन्हें जीवन में बड़ा करने का आशीर्वाद दिया जिसको उन्होंने अपने जीवन काल में सफल किया।सरदार पटेल जी ने आज़ादी के बाद छोटे-छोटे राज्यों को देश में सम्मिलित कर देश का सुखद एवं शांतिपूर्ण एकीकरण किया था।आज उसी एकीकरण में एक भारत श्रेष्ठ भारत नव ऊर्जा द्वारा देश में शान्ति एवं एकता का संचार कर रहा है।

एक भारत श्रेष्ठ भारत अभियान में 36 राज्य और केंद्रशासित प्रदेश सम्मिलित रूप से एक दूसरे राज्य कस चुनाव करके उस राज्य की भाषा,संस्कृति,इतिहास,कला,विज्ञान आदि को अपनाएगा और दोनों राज्य इसी तरह से एकता के सूत्र में बंध जाएंगे ।देश की एकता एवं अखण्डता देश के विकास में बहुत सहायक सिद्ध होगी इस तरह की पहल देश के लिए मजबूती का कार्य करेगी।यह सोच बल्लभ भाई पटेल ने देश में बोई थी जिसको फलीभूत करने के लिए यह कदम उठाए जा रहे है जिससे बिना किसी मतभेद के आसानी से राज्यों के बीच संस्कारों का आदान प्रदान होगा जो कि भारत में एकता के रूप में उजागर होगा।पिछले कुछ समय से देश में सांप्रदायिकता का शोर सुनाई दे रहा है जिसे खत्म करना प्रत्येक नागरिक का परम कर्तव्य है लेकिन जेहन में आता है इस प्रकार की योजना एक बेहतर पहल है जो कि सरकार ने बहुत ही व्यवस्थित ढंग से सभी के सामने रखा है।यह अभियान आसानी से देश के भिन्न- भिन्न राज्यों को आपस में जोड़ रहा है। शिक्षकों और छात्रों के माध्यम से त्यौहारों की तरह ही खुशियां फैला रहा है।

मुख्य विशेषता:

1- एक भारत श्रेष्ठ भारत के तहत एक राज्य अन्य राज्य का चुनाव करके उंसकी भाषा ,संस्कृति को अपनाकर आगे बढ़ा रहा है इससे दोनों राज्यों के एक नया रिश्ता बन रहा है।

2-सरकार द्वारा राज्यों के बीच एक समिति का गठन किया गया है जो कि इस योजना को सही तरीके से क्रियान्वयन करने का कार्य कर रही है।

3-इस अभियान में सरकार,नागरिक,सामाजिक और सांस्कृतिक संगठन,सरकारी एवं निजी क्षेत्र मिलकर कार्य कर रहे हैं।

4-इस योजना के विस्तार के लिए आधुनिक संसाधन एवं मीडिया का उपयोग किया जा रहा है।

5-दो राज्य अपने छात्रों का आदान प्रदान कर रहे हैं जो एक वर्ष तक दूसरे राज्य की संस्कृति को समझ और सीख रहे हैं।

असम के बच्चों द्वारा मध्यप्रदेश के बुन्देलखण्ड के टीकमगढ़ जिले का परधोनी लोकनृत्य,असम का बिहू मध्यप्रदेश के बच्चों द्वारा,गुरुग्राम के छात्रों द्वारा झारखंड के आदिवासी भेषभूसा नृत्य संगीत गुजरात के बच्चों द्वारा ,झारखंड के बच्चों द्वारा डांडिया,दिल्ली के बच्चों द्वारा जम्मू काश्मीर का डोंगरी सीखना एक अभूतपूर्व प्रयोग है।

कहा जाता है कि दिल में उतरने का रास्ता पेट से होकर जाता है।

“जैसा भोजन खाइए, वैसा तन होए,

जैसा पानी पीजिए, वैसी वाणी होए।”

एक भारत श्रेष्ठ भारत अभियान के तहत शिक्षक और छात्रों का खानपान द्वारा एक दूसरे राज्यों के नजदीक आना भारत की एकता को और अधिक मजबूती प्रदान करेगा।स्कूलों ,कॉलेजों, विश्वविद्यालयों में ‘एक भारत श्रेष्ठ भारत(ईबीएसबी) क्लब ‘ द्वारा भाषा व संस्कृति के आधार पर गतिविधियों स्कूल पाठ्यक्रम में शामिल करने से एक राष्ट्र की अवधारणा को मजबूती मिल रही है।

प्रधानमंत्री जी ने स्पष्ट किया है कि योजना एक भारत श्रेष्ठ भारत देश की अखण्डता के लिए एक बहुत अच्छा प्रयास साबित होगा।इससे लोगों को एक दूसरे से जुड़ने का माहौल मिलेगा जो कि सभी तरह से देश के हित में कार्य करेगा ।उनके द्वारा अपने मासिक प्रोग्राम ‘मन की बात’ में भी इस योजना का जिक्र करते हुए समस्त देशवासियों से बढ़ चढ़कर सहयोग देने और सुझाव देने का आग्रह किया है

निष्कर्ष स्वरूप यह कहा जा सकता है कि जब विश्व के अन्यान्य देश नस्लभेदी और साम्प्रदायिक दंगों की आग में जल रहें हो उस समय भारत को जातीय संघर्ष की आग में झोंकने के प्रयास का सफल न होना भारत के राष्ट्रीय चरित्र का एक होना है।जिसमें ‘एक भारत श्रेष्ठ भारत अभियान’की भूमिका महत्वपूर्ण रही।इस अभियान को प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक की शिक्षा में अनिवार्य बनाए जाने की आवश्यकता है।जिससे शैक्षणिक प्रक्रिया में संलग्न शिक्षक और छात्र इस अभियान का अभिन्न अंग बनकर भारत को एक और श्रेष्ठ बनाने में अपनी भूमिका सुनिश्चित कर सकेंगे।

प्रदीप सिंह(शिक्षक कुशीनगर उत्तरप्रदेश),ईमेल-psingh.ddu@gmail.com,सम्पर्क सूत्र-9628737874

‘वैकल्पिक विकास में जैविक कृषि की भूमिका’-आशीष कुमार

0
photo of man standing on rice field
Photo by Nandhu Kumar on Unsplash

‘वैकल्पिक विकास में जैविक कृषि की भूमिका’

*आशीष कुमार

सारांश

संसाधनों के उपयोग द्वारा आजीविका की आवश्यकताओं की पूर्ति करना ही विकास होता है। समाज में व्याप्त बेरोजगारी और पलायन की समस्या के समाधान की आज आवश्यकता है। भारतीय कृषि पद्धति में सदैव ही जल, जंगल, जमीन पर महत्व दिया गया है। वैकल्पिक विकास में जैविक कृषि के योगदान को नकारा नहीं जा सकता है। जिस प्रकार से जैविक कृषि में रोजगार के नए-नए सृजन हो रहे है। जैविक कृषि में लागत कम तथा उत्पादन अधिक प्राप्त होता है। उत्पादों में गुणवत्ता अधिक होने कारण अनेक प्रकार की बीमारियों से बचाव होता है। इससे किसानों की आर्थिक स्थिति में सुधार आता है। पिछले कुछ वर्षों में तो जैविक कृषि क्षेत्र में लगातार बढ़ोत्तरी भी दर्ज की गई है। यही स्थिति रही तो आने वाले समय में जैविक कृषि रोजगार का महत्वपूर्ण साधन होगी। इस प्रकार कहा जा सकता है कि जैविक कृषि की वैकल्पिक विकास में अहम भूमिका होती है।

की-वर्ड : जैविक कृषि, बाजार, वैकल्पिक विकास, कृषि क्षेत्र।

भूमिका

भारत कृषि प्रधान व ग्राम्य प्रधान देश है। इसकी आत्मा गांवों में बसती है। और गांव का विकास कृषि पर निर्भर रहता है। भारत देश की लगभग 70% जनसंख्या गांवों में निवास करती है। (2011 की जनगणना के अनुसार) हालांकि इस आंकड़े में वर्तमान में कुछ कमी आई है इसका कारण है तेजी से हो रहा शहरीकरण। इसके बावजूद देश का समुचित विकास बिना कृषि के संभव नहीं है। कृषि को बेहतर और वैकल्पिक विकास में सहायक हो इसके लिए एक सुनियोजित कृषि पद्धति की आवश्यकता है। जैविक कृषि ऐसी पद्धति है जिसमें समग्र लाभ (कृषकों की दृष्टि से, पर्यावरण की दृष्टि से, मृदा की दृष्टि से, मानव की दृष्टि से) अर्जित हो जाते हैं। जैविक कृषि पद्धति से कम लागत में अधिक उत्पादन प्राप्त होता है। जैविक उत्पादों की बाजार में मांग अधिक होती है, जैविक उत्पादों की कीमत रासायनिक उत्पादों की अपेक्षा अधिक प्राप्त होती है। जब कृषि में उत्पादन अच्छा प्राप्त होता है, तथा कीमत अधिक मिलती है तो किसानों की आर्थिक स्थिति में सुधार आता है। जिससे किसी भी देश के विकास में गति प्रदान होती है। स्वास्थ्य लाभ के साथ जैविक कृषि में कम लागत आती है। कम लागत और अधिक उत्पादन से किसान समृद्ध होता है तो गांव का विकास होता है। इस प्रकार गांव के विकास से देश के वैकल्पिक विकास में सहायता प्राप्त होती है। अतः किसी भी देश के आर्थिक और सामाजिक विकास के लिए सबसे पहले गांव और गांव के किसानों को विकसित करने की आवश्यकता होती है। क्योंकि गांव का विकास ही देश के वास्तविक विकास को प्रदर्शित करता है। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में आजीविका का प्रमुख साधन कृषि है, इसके बारे में महात्मा गांधी ने एक बार कहा था कि “भारत की वास्तविक प्रगति का तात्पर्य शहरी औद्योगिकरण केंद्रों के विकास से नहीं, बल्कि गांवों के विकास से है।”

“मिट्टी की जुताई करने वाले ही अधिकार के साथ जीते हैं, शृंखला के शेष लोग उनके आश्रय की रोटी खाते हैं”। (थिरूवलूवर)

वैकल्पिक विकास की आवश्यकता

सतत विकास “वह विकास है जो भविष्य की आने वाली पीढ़ियों की क्षमताओं और बेहत्तरी से समझौता किए बिना वर्तमान समय की आवश्यकता को आसानी से पूरा किया जा सके, दूसरे शब्दों में कहा जाए एक ऐसा आर्थिक विकास जिसमें हमारे प्राकृतिक संसाधनों को किसी प्रकार की हानि न पहुंचाई जाए या प्राकृतिक संसाधनों के बर्बाद होने की गुंजाइश ना के बराबर हो”।

किसी भी देश के सतत विकास के लिए या वैकल्पिक विकास के लिए ग्रामीण विकास सबसे अनिवार्य होता है। ग्रामीण विकास की आवश्यकता इसलिए महसूस की गई क्योंकि भारत की ज्यादातर जनसंख्या गांवों में निवास करती है। इसलिए ऐसे विकल्पों की आवश्यकता थी जिससे ग्रामीण लोग समाज के साथ सामंजस्य बिठा सके। भारत जैसे देश में समतामूलक समाज की अवधारणा का विकास हो सकता है। एक तरफ जहां गांव में निवास करने वाले लोगों की खुशहाली एवं विकास जरूरी है वही प्राकृतिक संसाधनों का सदुपयोग एवं संरक्षण भी बहुत आवश्यक है।

गांधी जी जब भी विकास की बात करते हैं उनकी बातों के केंद्र में हमेशा गांव रहा है गांव के विकास व गांव के पुनर्निर्माण की बात को मुख्य मुद्दा मानते थे गांधीजी भी मानते थे कि गांव के विकास के बिना भारत देश का विकास संभव नहीं है इसलिए गांधीजी आदर्श गांव की मांग करते हैं और भारत के हर गांव को आदर्श ग्राम बनाने की अपनी मंशा भी जाहिर करते हैं। हरिजन सेवक में 1926 में वह इसको लेकर लिखते हैं “ग्रामीणों श्रम के इस प्रकार उठ जाने से ग्रामवासी कंगाल हो रहे हैं और अमीर लोग अमीर हो रहे हैं अगर यह क्रम ऐसे ही चलता रहा तो किसी प्रत्यय के बगैर ही गांवों का नाश हो जायेगा।”

प्राचीन काल से ही भारत कृषि प्रधान देश रहा है और यहां के लोग सदैव प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाकर रहते आए हैं। भारत में आज भी प्रकृति की पूजा का विधान है जिसका जिक्र वेद पुराणों के साथ-साथ अनेक रचनाओं में भी किया गया, परंतु जिस प्रकार से पिछले कुछ दशकों में प्रकृति के साथ लूट मचा रखी गई है और सतत विकास के महत्व को बिल्कुल ही नकार दिया गया है, मौजूदा पीढ़ी सिर्फ प्राकृतिक संसाधनों की रखवाली है और यह उसकी जिम्मेदारी भी है कि वह आने वाली पीढ़ी को बिना किसी प्रकार के हानि पहुंचाए यह प्राकृतिक संपदा अगली पीढ़ी को सौंपे और देश को एक बेहतर भविष्य प्रदान करें इस जिम्मेदारी को हम सबको मिलकर उठाना होगा और एक संकल्प के साथ आगे बढ़ना होगा।

सच्चिदानंद सिन्हा के अनुसार- “वैकल्पिक विकास के मॉडल की बात करना आज उसी तरह अर्थहीन है जैसे कभी यूटोपिया की बात करना समाजवादी आंदोलन के प्रारंभिक काल में था। कोई भी व्यवस्था सामने की हकीकत के संदर्भ में ही बनती है बनी बनाई कल्पना के अनुरूप नहीं”।

जैविक खेती एवं वैकल्पिक विकास

इसमें किसी भी भारतवासी को संदेह नहीं होना चाहिए कि भारत देश के विकास के लिए ग्रामीण विकास और कृषि विकास सबसे आवश्यक है। इसका प्रमुख कारण है भारत एक कृषि प्रधान व ग्राम प्रधान देश है। यहाँ लोगों की आजीविका का साधन मुख्य रूप से कृषि है। अतः ग्रामवासी जैविक कृषि को अपनाकर बहुत सी समस्याओं का सामना उचित प्रकार से कर सकते है। जनसंख्या में लगातार जिस प्रकार से बढ़ोतरी हो रही है। उससे जैविक कृषि पद्धति में खाद्यान्न समस्या का सामना करना पड़ सकता है ऐसा अनुमान बहुत से समाज शास्त्रियों और अर्थशास्त्रियों का है। जबकि यह एक भ्रम के शिवाय कुछ नहीं है। साथ ही अक्सर यह भी सुना जाता है कि जैविक कृषि कम उत्पादन देती है, लागत अधिक आती है। जबकि जैविक कृषि खाद्य समस्या से जुड़ी प्रत्येक समस्या का एक बेहतर विकल्प है। जैविक कृषि से जलवायु परिवर्तन में स्थिरता प्राप्त होती है। जैविक कृषि पानी की कमी को दूर करती है, मृदा की जल धारण क्षमता का विकास करती है, किसानों की गरीबी और कुपोषण जैसी समस्याओं का समाधान करती है। अतः जैविक कृषि से संबंधित पहलुओं और मिथकों पर विस्तार से चर्चा करने की आवश्यकता है। यह एक बेहतर विकल्प साबित हो सकती है वैकल्पिक विकास में। आवश्यकता है इसे सुनियोजित तरीके से अपनाने की।

जैविक खेती का परिदृश्य

आज विश्व के लगभग 181 देशों में 698 लाख हेक्टेयर भूमि पर जैविक खेती की जा रही है। पूरे विश्व में जैविक कृषि किसानों की संख्या 30 लाख के आसपास है। अगर भारत देश में जैविक कृषि के विस्तार की बात की जाए तो बीते कुछ वर्षों में बहुत तेजी से हुआ है। वर्ष 2017-18 में लगभग 36 लाख हेक्टेयर में प्रमाणित जैविक कृषि क्षेत्र था। 2017-18 में 17 लाख टन जैविक उत्पादों का उत्पादन किया गया। इस उत्पादन के मुख्य सहयोगी राज्य रहे, सिक्किम, असम, मध्य प्रदेश, केरल, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक आदि राज्य थे। वर्तमान में भारत से जैविक उत्पादों का निर्यात भी किया जा रहा है। इससे निश्चित तौर पर वैकल्पिक विकास में सहायता प्राप्त होगी और भविष्य में जैविक कृषि क्षेत्र को बढ़ावा मिलेगा।

इस सत्य से नकारा नहीं जा सकता है कि विश्व को जैविक कृषि भारत की देन है और जब भी जैविक कृषि का इतिहास टटोला जाएगा तो भारत और चीन ही इसके केंद में आएंगे। भारत और चीन की कृषि परंपरा 4000-5000 वर्ष पुरानी है। इस कारण यहां के किसानों का ज्ञान भी लगभग 5000 वर्ष पुराना है। जब से कृषि का आरंभ हुआ है तभी से भारत में खेती का स्वरूप मानव स्वास्थ्य के अनुकूल तथा प्राकृतिक वातावरण के लिए हितकारी हो इसका विशेष ध्यान रखा गया है। जब इन सभी विषयों पर ध्यान रखकर कृषि की जाती है तो जैविक और अजैविक पदार्थों के बीच आदान-प्रदान निरंतर चक्र चलता रहता है। जिसके कारण जल, मृदा, वायु तथा वातावरण प्रदूषित नहीं होता है।

भारतीय कृषि के इतिहास को देखने से पता चलता है कि यहाँ कृषि के साथ-साथ गोपालन भी किया जाता था जिसके प्रमाण हमारे धर्म ग्रंथों से प्राप्त होते हैं। महाभारत में वर्णित श्री कृष्ण और बलराम जिन्हें गोपाल वह हलधर के नाम से संबोधित किया जाता है। परंतु जैसे-जैसे कृषि का परिवेश बदलता गया वैसे-वैसे गोपालन भी कम होता गया तथा रासायनिक खादों और जहरीले कीटनाशकों के प्रयोग को महत्व बढ़ गया। जिसके कारण संपूर्ण विश्व के जैविक और अजैविक पदार्थों का संतुलन बिगड़ता गया। इसके परिणाम वर्तमान में सभी के सम्मुख हैं।

भारत में जैविक कृषि से रोजगार की संभावनाएं

आज भले ही देश के सीमित कृषि क्षेत्र में जैविक खेती की जा रही हो। परंतु यह संभव है कि आने वाले कुछ वर्षों में देश की कृषि योग्य मृदा पूर्ण रुप से जैविक कृषि में परिवर्तित हो जाए। क्योंकि खाद्य सुरक्षा की निरंतरता बनाए रखने के लिए परंपरागत कृषि पद्धति भी आवश्यक है। आज कुछ खास क्षेत्रों में ही जैविक कृषि की जा रही है। लेकिन समय के साथ इसको बढ़ावा मिलेगा। जैविक कृषि का यही बढ़ावा एक तरह के रोजगार का अवसर उत्पन्न करता है। आने वाले समय में जैविक कृषि से संबन्धित रोजगार के अवसर कुछ इस प्रकार होंगे-

  • जिस प्रकार से जैविक कृषि को विश्व भर में बढ़ावा मिल रहा है उसके अनुसार बीजों की उपलब्धता में कमी है। इसलिए किसान बीजों का उत्पादन कर अच्छी कीमत पर बेच सकते हैं। इससे किसानों की आय में वृद्धि होगी साथ ही रोजगार की भी प्राप्ति होगी। जिससे रोजगार के और नए अवसर उत्पन्न होंगे।
  • जैविक रेस्टोरेंटस खोलना, जैविक कृषक पाठशाला चलाना आदि।
  • जैविक फार्म तथा प्राकृतिक रूप से रखरखाव के स्थानों पर इको भ्रमण में लोगों की रुचि बढ़ रही है जहां लोग जैविक खाद्य पदार्थ आदि व्यवस्थाओं को पसंद करते हैं। भारत में जैविक कृषि फार्म भ्रमण का प्रचलन बढ़ रहा है।
  • जैविक कृषि संबंधी समझ विकसित करने के लिए विशेष कौशल विकास केंद्र खोले जा सकते हैं।
  • जैविक कृषि में बाजार अनुसंधान, उपभोक्ता सर्वे, प्रीमियम मूल्य, सरकारी प्रोत्साहन कार्यक्रम आदि कि सूचना कृषकों तक जल्दी पहुंचाने के लिए विशेषज्ञ सेवाओं की जरूरत है। इच्छुक एवं निपुण व्यक्तियों के लिए यह एक नया एवं अच्छा व्यवसाय हो सकता है।
  • जैविक दूध संबंधी उत्पादों के क्षेत्र में व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से रोजगार के नए अवसर उत्पन्न किए जा सकते हैं।
  • जैविक कृषि की अच्छी समझ रखने वाला व्यक्ति या संगठन एपीडा से प्रशिक्षण प्राप्त कर जैविक कृषि क्षेत्र में सेवादाता का कार्य कर सकते हैं।
  • जैविक रूप से उत्पादित वस्तुओं के प्रमाणीकरण में भी अनेक व्यक्तियों को रोजगार प्राप्त होगा।
  • जैविक कृषि में फसल चक्र को अपनाया जाता है इससे कृषि क्षेत्र में वर्ष भर रोजगार के अवसर बने रहते हैं।
  • ग्रामीणों को जैविक कृषि पद्धति के उपयुक्त प्रशिक्षण दिए जाएं जिससे उनके कौशल का विकास हो। तथा बाद में इसी कौशल से किसान रोजगार के नए अवसरों का सृजन कर सकें।
  • जैविक कृषि में अनेक प्रकार की जैविक खादों का प्रयोग होता है, इन खादों के उत्पादन कार्यों से रोजगार के अनेक नए सृजन होते हैं।

जैविक कृषि के उत्पादों की गुणवत्ता

यह तो सर्वविदित सत्य है की जैविक कृषि उत्पादों की गुणवत्ता रासायनिक कृषि उत्पादों की गुणवत्ता से अधिक होती है। अनेक अनुसंधान से भी यह सिद्ध हो गया है। जैविक कृषि से उत्पादित उत्पादों में शुद्ध पदार्थ, खनिज और ऑक्सीकारक विरोधी तत्व पाए जाते हैं। जो मानव स्वास्थ्य को बेहतर बनाए रखने में सहायक सिद्ध होते हैं। जैविक कृषि उत्पादित वस्तुओं में अम्लीय तत्व कम मात्रा में प्राप्त होते हैं, नाइट्रेड की मात्रा रासायनिक कृषि की अपेक्षा जैविक कृषि में 50% कम होती है जो मानव और पशु-पक्षियों के स्वास्थ्य के लिए हितकारी होती है। जैविक रूप से उत्पादित उत्पादों में स्वाद अधिक होता है। इस प्रकार यह प्रमाणित हो चुका है कि जैविक कृषि उत्पाद रासायनिक कृषि उत्पाद से बेहतर और लाभकारी है।

निष्कर्ष-

भारत प्राचीन काल से कृषि प्रधान देश रहा है, यहाँ पर परंपरागत कृषि या जैविक कृषि प्रारम्भ से होती आ रही है। वर्तमान समय में जैविक कृषि वैकल्पिक विकास में अहम भूमिका का निर्वहन कर रही है, जहां एक तरफ जैविक कृषि के माध्यम से नए-नए रोजगार का सृजन हो रहा है, वहीं जैविक कृषि से उत्पादित उत्पादों की गुणवत्ता रासायनिक कृषि की अपेक्षा श्रेष्ठ होती है। जिससे मानव, पर्यावरण और मृदा स्वास्थ्य के लिए बेहतर है। जब सभी क्षेत्रों में उचित वृद्धि होती है तो वैकल्पिक विकास को एक प्रकार की गति प्राप्त होती है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि जैविक कृषि वैकल्पिक विकास में सहायक होती है।

संदर्भ-सूची

  1. अग्रवाल, ड. ग. (2011). सजीव खेती. वाराणसी: सर्व सेवा संघ प्रकाशन.
  2. ओझा, ए. ए. (2020). भारत में जैविक कृषि : स्थिति एवं सरकार के प्रयास. क्रॉनिकल, 27, 28.
  3. काशिव, ड. आ. (2012). जैविक खेती : इक्कीसवीं सदी में फसलों की उत्पादकता बढ़ाने का एकमात्र साधन . जअप, 22.
  4. कुमार, ड. द., & शिवे , ड. य. (2019). सतत विकास में जैविक कृषि की भूमिका . कुरुक्षेत्र , 05-11.
  5. गांधी, म. (1909). हिंद स्वराज . अहमदाबाद : नवजीवन प्रकाशन .
  6. गांधी, म. (2005). मेरे सपनों का भारत. अहमदाबाद : नवजीवन प्रकाशन .
  7. चितौरी, व. (2012). जैविक खेती (सजीव खेती). वाराणसी : सर्व सेवा संघ प्रकाशन .
  8. चौहान, ड. श. (2017). सन 2022 तक कृषकों की आय को दोगुना करना . प्रतियोगिता दर्पण , 79-82.
  9. झा, र. क. (2012). जैविक खेती और पर्यावरण संरक्षण. नंद प्रचार ज्योति-10, 45, 46 .
  10. टॉक, प. क. (2017). जैविक खेती की समग्र अवधारणा . जयपुर : सिद्धिविनायक प्रिंटर्स .
  11. तिवारी, र. क., तिवारी , श., & हरिशंकर. (2017). जैविक खेती के नए आयाम एवं प्रमाणीकरण. लखनऊ: OnlineGatha – The Endless Tale.
  12. दिनकर, र. स. (1956). संस्कृति के चार अध्याय. नई दिल्ली : साहित्य अकादमी.
  13. दुबे, श. (1996). विकास का समाजशास्त्र . नई दिल्ली : वाणी प्रकाशन .
  14. धर, प. (2011). भूमि सुधारों की दुनिया में भारत. योजना, 22-23.
  15. पटनायक, क. (2000). विकल्पहीन नहीं है दुनिया . नई दिल्ली : राजकमल प्रकाशन .
  16. पांडेय, ड. व. (2018, june 11). krishisewa. Retrieved july sundey, 2019, from www.krishisewa.com: https://www.krishisewa.com/articles/soil-fertility/890-organic-farming-land-and-life-requirements.html
  17. पालेकर, स. (2011). क्या रासायनिक खेती षडयंत्र है? अमरावती : अथर्व ग्राफिक्स, सेट पॉइंट .
  18. बामेहता, ड. अ. (2011). परंपरागत जैविक कृषि ही है हमारा आधार . जअप, 05.
  19. राठौर, क. र. (2012). कैसे कटे, कृषि रासायनों का जाल ? जअप, 26-27.
  20. लाम्बा, र. (2017 ). जैविक कृषि में रोजगार के नए आयाम . साकेत मार्गदर्शिका , 15-16.
  21. विभाग, क. (2008). जैविक खेती . गाजियाबाद : राष्ट्रीय जैविक खेती केंद्र .
  22. विभाग, क. (2015-16). उत्तर प्रदेश में जैविक खेती. उत्तर प्रदेश: कृषि विभाग .
  23. शर्मा, अ. क. (2017). जलवायु परिवर्तन के असर को करे बेअसर जैविक खेती. साकेत मार्गदर्शिका , 05-06.
  24. शर्मा, क., & प्रधान, स. (2011). जैविक खेती समस्याएँ और संभावनाएं. योजना, 31-34.
  25. शर्मा, स. क. (2016). जैविक कृषि की ओर बढ़ते किसानों के कदम . Pratidhvani The Echo , 47.
  26. शर्मा, स. क. (2016). जैविक खेती की ओर बढ़ते किसान के कदम . Pratidhwani the Echo, 46-51.
  27. शासन, म. प. (2011). मध्य प्रदेश की जैविक कृषि नीति . भोपाल : किसान कल्याण तथा कृषि विभाग मंत्रालय .
  28. शुक्ल, ड. प. (2015). जैविक खेती . जयपुर: पोइंटर पब्लिशर्स.
  29. सारस्वत, स. (2011). जैविक खादों से कृषि उत्पादन में वृद्धि . योजना , 51-52.
  30. सिंह, अ. क. (2020). भारतीय परिदृश्य में जैविक कृषि की दशा एवं दिशा. कृषि मंजूषा , 06.

* पी-एच.डी. (शोध छात्र)

गांधी एवं शांति अध्ययन विभाग

महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय

वर्धा, महाराष्ट्र- 442001

E-mail: ashishpatel3135@gmail.com

Mob. 9839853135

गुमनामी के अंधेरों में खोया सितारा : इंद्र बहादुर खरे-डॉ.नूतन पाण्डेय

0

गुमनामी के अंधेरों में खोया सितारा : इंद्र बहादुर खरे

डॉ.नूतन पाण्डेय*

इंद्र बहादुर खरे हिंदी जगत की वे महान विभूति हैं,जिन्होंने भौतिक रूप से इस संसार में कुछ ही दिनों के लिए अवतरण लिया, लेकिन अल्प समय में ही वे साहित्य को इतना कुछ दे गए, जिसके लिए हिंदी साहित्य सदैव उनका ऋणी रहेगा। आयु की दृष्टि से रोबर्ट बर्न्स, बायरन ,कीट्स ,पुश्किन और रांगेय राघव आदि महान साहित्यकारों की परंपरा का अनुसरण करने वाले इंद्र बहादुर खरे को मात्र बत्तीस वर्ष की आयु (16/12/1922-13/04/1953) का वरदान मिला, लेकिन वीणापाणि माँ सरस्वती ने उनकी कलम को अपने आशीर्वाद से यथासंभव अभिसिंचित किया। अपनी लेखनी की अद्भुत प्रभावोत्पादकता के बल पर उन्होंने जो लिखा,जितना लिखा उसकी गुणवत्ता को साहित्य जगत द्वारा कतई नजरंदाज नहीं किया जा सकता। जीवन की अल्पावधि में ही इंद्र बहादुर खरे ने साहित्य की अनेक विधाओं में अपनी कलम चलाकर गंभीर साहित्य का सृजन किया लेकिन उनकी अधिकांश रचनाएं उनके जाने के बाद प्रकाशित हुईं । यह हिंदी साहित्य का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि उनके जीवनकाल में उनकी रचनाएं लोगों तक नहीं पहुँच सकीं लेकिन उनकी लेखनी में एक ऐसा जादू था, शिल्प का एक ऐसा चमत्कार था, भावों का एक ऐसा अपूर्व संयोजन था, पाठक जिसके वशीभूत हुए बिना नहीं रह सकते। इंद्र बहादुर खरे के साहित्यिक प्रदेय की बात करें तो मूलरूप से वे कवि के रूप में चर्चित रहे। भोर के गीत,सुरबाला,सिंदूरी किरण ,विजन के फूल,रजनी के पल (गद्य कविता), हेमू कालानी, नीड़ के तिनके और आंबेडकर एक नई किरण कविता संग्रहों में समय-समय पर लिखी गई उनकी कविताएँ प्रकाशित हुई हैं। उनके गीतों की संख्या लगभग पांच सौ के ऊपर पहुँचती है, जिनमें राष्ट्रपरक गीतों के साथ ही बालगीतों की भी बहुलता है। अपने देशभक्तिपरक गीतों के माध्यम से इंद्र बहादुर खरे ने अपने प्रशंसकों के मध्य एक विशिष्ट स्थान बनाया। कविताओं के अतिरिक्त उन्होंने गद्य की अनेक विधाओं ,जैसे –कहानी,उपन्यास और अनेक विषयों पर आलेख भी लिखे । आरती के दीप,सपनों की नगरी,आजादी के पहले आजादी के बाद और जीवन पथ के राही उनके प्रमुख कहानी संग्रह हैं जिनमें समाज के गंभीर विषयों को वर्ण्य विषय बनाया है । कश्मीर,जीवन पथ के राही, मेरे जीवन नहीं और लख होली आदि उपन्यासों ने इंद्र बहादुर खरे को एक पुख्ता आधार-स्तंभ प्रदान किया जिससे उनको बहुमुखी साहित्यकार के रूप में स्थान बनाने में सहायता मिली। साहित्य सृजन के अतिरिक्त अन्य विविध साहित्यिक गतिविधियों से भी उनकी आजीवन सक्रिय रूप से संलग्नता बनी रही। पत्रकारिता के क्षेत्र में उनकी विशिष्ट रुचि थी। अपनी इसी रुचि के कारण उन्होंने समय-समय पर अनेक पत्रिकाओं का संपादन कार्य किया,जिनमें ख्यातिलब्ध साहित्यकार रामकुमार वर्मा के साथ “प्रकाश” पत्रिका, हरिशंकर परसाईं के साथ “हरिंद्र” पत्रिका और पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी के साथ “युगारंभ” पत्रिका का विशेष रूप से उल्लेख किया जा सकता है ।

इंद्र बहादुर खरे को मूलतः उनके गीतों के लिए स्मरण किया जाता है । गीत लिखना शायद उनके ह्रदय के सर्वाधिक नजदीक और सबसे प्रिय कर्म था । वे कविता लिखना अपने जीवन का आधार मानते थे जिसके बिना उनका जीवन अपूर्ण था, तभी वह कविता लिखने के क्षण को अपने जीवन की सबसे सुखद अनुभूति मानकर कहा करते थे -“जिस दिन मेरे मन के अंतस में गीत की कली खिलती है,उस दिन ऐसा लगता है मानो जिन्दगी के दिगंत व्यापी रेगिस्तान में बाढ़ आ गई हो । जन्म- जन्म की प्यासी आँखों में जैसे कोई शीतल मीठा स्वप्न विहंस गया हो । कविता मेरे जीवन के समस्त अभावों की पूर्ति है। कविता में ही मुझे आनंद की चिरशांति के दर्शन होते हैं ।”

“भोर का गीत” इंद्र बहादुर खरे की प्रसिद्ध और सर्वाधिक लोकप्रिय कृति कही जा सकती है,जिसमें संकलित गीतों को उन्होंने सन 1939-42 के मध्य अर्थात सत्रह से बीस वर्ष की आयु में लिखा था । गीत लिखना उनकी सहजात और स्वाभाविक प्रवृत्ति रही है जो स्थाई भाव होकर उनके ह्रदय के अंतस्थल में विराजती थी, और स्वतः ही गीतों के रूप में फूट पड़ती थी । गीत लिखने का यह उद्वेग कब और कैसे प्रवाहित हो जाता था इससे वे बिलकुल अनजान होकर कहते हैं कि-“ कह नहीं सकता कि मैंने कब से गीत लिखना प्रारंभ किया ।प्रेरणा की एक निश्चित तिथि नहीं।डाली पर खिलने वाला फूल जैसे अपनी मधु , अपनी आभा,अपनी खुशबू की परिभाषा नहीं कर सकता, अपनी नाभि में बसी कस्तूरी की खुशबू को मस्त मृग जैसे अपने को मालिक नहीं मान सकता वैसे ही मैं भी नहीं जानता कि मेरे गीतों के फूलों ने कब खिलना सीख लिया ।”

इंद्र बहादुर खरे प्रकृति सौंदर्य के अनुपम पुजारी थे । उनके गीतों में प्रकृति के कण-कण की सुखद अनुभूति व्याप्त है और ये अनुभूति मात्र भौतिक और बाह्य नहीं है बल्कि उसका एक आभ्यंतरिक दृष्टिकोण भी है जो उन्हें छायावादी कवियों के समकक्ष ला खडा करता है । प्रकृति का मौन निमंत्रण उन्हें न केवल परमात्मा के और निकट ले जाता है बल्कि उसके निस्सीम सौंदर्य के साक्षात् दर्शन भी कराता है जो अन्यत्र दुर्लभ है । सृष्टि के सौंदर्य की रहस्यमय अभिव्यक्ति इंद्रबहादुर खरे के गीतों का वह ख़ूबसूरत पक्ष है जो दैहिक होने के बावजूद देहातीत है,लौकिक होने पर भी परलौकिक है और भौतिक होने पर भी अध्यात्म की ओर प्रवृत्त है । तभी तो कवि यह स्वीकार करता है कि-“ मेरे गीतों की भूमि बिलकुल पार्थिव है ,आध्यात्मिक नहीं है। धरती पर नर-नारी ,फूल –पौधे,नदी-तालाब,पर्वत-घाटी के रूप में जो राशि-राशि सौंदर्य बिखरा पडा है मैं उसी का पुजारी हूँ । रूप की प्रस्तुति मुझे प्रिय है । यह सौंदर्य ही मेरी आत्मा का रस है – मेरे गीतों की पार्श्वभूमि है । उपर्युक्त स्वीकरण के बावजूद वह इस वास्तविकता को अस्वीकृत नहीं कर पाता कि-“ भावों के अभिव्यक्तिकरण में मैंने सदा बौद्धिक पीठिका का सहारा लिया है । इसमें यह भ्रम न हो कि मैं बुद्धि और हृदय को एक मानता हूँ । मेरा तात्पर्य यह है कि ह्रदय की बातें जब एक भोली गंभीरता के साथ,जब अज्ञान बनकर भी अपने समस्त ज्ञान के साथ व्यक्त की जाती हैं तब मुझे अभिव्यक्तिकरण में सुखद तृप्ति का अनुभव होता है । कवि जब तक जीवन के समस्त व्यापारों के प्रति दार्शनिक दृष्टिकोण को प्रश्रय नहीं देता ,उसकी सारे बातें बच्चों के सामान चंचल और सारहीन होती हैं,भले ही उनमें थोड़ी देर को श्रोता को लुभाने की शक्ति हो । दार्शनिक दृष्टिकोण को मैंने सदैव महत्त्व दिया है । ” अपने इसी अध्यात्मिक दृष्टिकोण के कारण कवि ह्रदय का प्रकृति के रहस्यमय स्वरूप की ओर आकर्षित होना अत्यंत स्वाभाविक है जिससे प्रभावित होकर वे सहसा गा उठते हैं :

तुमसे क्या पहचान बढाऊँ

तुम रहस्य हो, मैं जिज्ञासा

युग-युग डूबूं, थाह न पाऊँ

जीवन के विविध भावों को ग्रहण करने के लिए जिस प्रकार की सूक्ष्म निरीक्षण दृष्टि एक कवि में अपेक्षित होती है और उन भावों को गहनता से शब्दों में उतारने के लिए भाषा और छंद को अनूठे ढंग से संयोजित करने की जैसी क्षमता एक कुशल कवि में होनी चाहिए, उस सन्दर्भ में इंद्रबहादुर खरे की लेखनी निश्चित ही धनी मानी जाएगी । छंद्बधता और लयात्मकता की जुगलबंदी इनके गीतों को अपूर्व गेयता प्रदान करती है और इस जुगलबंदी के पीछे उनकी दीर्घ स्वर साधना और शिल्प पर उनका पूर्णाधिकार है । इंद्र बहादुर खरे ने अपने गीतों में अनेक प्रयोग किये जिनका प्रभाव उनके पूर्ववर्ती कवियों पर स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है । इंद्र बहादुर खरे के गीतों में आशा और उत्साह की खनक है,प्रेरणा की लहराती हिलोरें हैं ,संसार में बिखरे सौंदर्य के प्रति रागभाव है ,परमात्मा के प्रति समर्पण के लिए निष्ठा है, सांसारिक जगत के प्रति सहज मानवीय संवेदना है और इन सबके साथ ही इस जीवन पर अगाध विश्वास भी है । तभी तो जीवन के अंतिम समय में असाध्य बीमारी से जूझने के बावजूद उनमें जीवन-सौंदर्य की अदम्य अभिलाषा और जीने की भरपूर इच्छा है :

सच मानो संसार बहुत ही है प्यारा,

अब लाख बुलाये मृत्यु ,मैं न जाउंगा

गीतकार होने के साथ ही इंद्र बहादुर खरे ने गद्य विधा में भी अपनी कलम चलाई है।उनके कई कहानी संग्रह प्रकाशित हुए हैं जिनकी कहानियाँ कलात्मकता सौदर्य और भावबोध की दृष्टि से बेहतरीन मानी जाती हैं, बावजूद इसके वे खुद को कहानीकार के रूप में नहीं देखते और बड़ी विनम्रता से स्वीकारते हैं कि वे न तो जन्मजात कहानी लेखक हैं और न ही उन्हें ऐसा वातावरण मिला कि कहानीकार के साँचें में खुद को ढाल सकते । लेकिन जिसने भी उनकी कहानियों को पढ़ा है ,वह इस बात से इत्तेफाक रखता है कि उनकी कहानियाँ जीवन के बहुत करीब हैं, जो अपने भावबोध द्वारा समाज को व्यापक रूप से चित्रित करती हैं, उसकी समस्याओं को उठाती हैं, उन्हें अभिव्यक्ति देती हैं और इसी कारण आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं,जितनी उस समय थीं जब वे लिखी गई थीं । इस सन्दर्भ में मैं यहाँ उनकी एक कहानी का विशेष रूप से उल्लेख करना चाहूंगी, जिसका शीर्षक है ‘जीवन पथ के राही’। अपनी इस कहानी के बारे में इंद्र बहादुर जी के महत्वपूर्ण विचार उल्लेख्य हैं,जहाँ वे कहते हैं कि-“ यह जीवन के पथ की कहानी है, ऐसी कहानियाँ जीवन का सत्य बन जाती हैं जो दुनिया के हर साधारण मनुष्य का हाथ पकड़ उसी की कहानी बन जाती हैं –और हर मनुष्य की कहानी आलेख्य नहीं-इसीलिए विश्वास नहीं होता ।”

इस कहानी में भारतीय समाज में स्त्री की शोचनीय स्थिति का चित्रण करते हुए स्त्री विमर्श के नए रास्ते खोले हैं । हमारे समाज में यह स्त्री की दुर्नियति ही कही जाएगी कि जीवन की प्रत्येक अवस्था में उसे समाज के ठेकेदारों द्वारा विविध प्रकार के शोषणों का सामना करना पड़ता है । प्रस्तुत कहानी भी फूलो नामक एक लडकी की कहानी है ,जब वो बहु बनकर सोना लोधी के घर जाती है तो उसे सर आँखों पर रखा जाता है ,लेकिन दुर्भाग्यवश उसके पति की असमय मृत्यु से उसके भाग्य पर ताले ला जाते हैं और उसे ससुराल में “एक जवान लड़के को चाट जाने” के अपराध में दिन – रात अपमान सहना पड़ता है । अकेले जीवन काटती फूलो के जीवन में अचानक उसी गाँव का नंदन नामक एक आधुनिक विचारों वाला युवक प्रवेश करता है । नन्दन के मन में उसके प्रति प्रेम का भाव उपजता है, गाँव वालों से यह सहन नहीं होता और उबके द्वारा प्रताड़ित किये जाने पर वह गाँव छोड़कर चली जाती है । लेकी दुर्भाग्य उसका पीछा नहीं छोड़ता और वह वैश्यवृत्ति करने वाली एक महिला के फ़ंदे चढ़ जाती है,लेकिन फूलो की निश्छलता देखकर वह उसे अपनी बेटी मान लेती है । भाग्य उसे एक बार फिर नंदन के सामने लाकर खड़ा कर देता है और नन्दन उसके समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखता है । नंदन के पिता जो गांव के ठाकुर हैं वे भी इस विवाह के लिए अपनी रजामंदी दे देते हैं । फूलो की कहानी सुखद मोड़ की ओर जाती लगती है,लेकिन नंदन जब फूलो ,अपने प्रथम प्यार के चिह्नों को देखने आम के पेड़ के नीचे जाकर देखता है तो पाटा है कि फूलो ने प्राण त्याग दिए थे,न जाने क्यों? लोगों का कहना था कि शाम को घर लौटे हुए किआनों,चरवाहों ने उसे देखा और जैसे-तैसे कटने वाले गाँव के कलंक को पुनः गाँव में घुसते जान उसका अंत कर दिया । कहानी के अंत में कहानीकार का कथन जहाँ ह्रदय विदारक और दिल को छूने वाला है वहीँ समाज पर एक तमाचा है, एक कडा प्रहार है, जिसे सहना तथाकथित सभ्य समाज के लिए आसान नहीं होगा– नन्दन अब रूपपुर का जमींदार है उसने फूलो की समाधि बनवा दी है । समाधि का ऊपरी हिस्सा सदा ही फटा रहता ही। लोगों का कहना है कि फूलो की आत्मा रोती है,इसलिए वह समाधि फट जाती है । नंदन रोज सुबह शाम उसकी पूजा करता है और गाँव वाले जमींदार की बात नहीं टालते : वे भी उसे “प्रेम की देवी” मानकर उस पर फूल चढाते हैं । वे ‘पुन्य’ लूटने से भला क्यों बचें ? कितना क्रूर और कटु सत्य है यह हमारे दोहरे आवरण वाले समाज का जिसका इंद्र बहादुर इस कहानी में पर्दाफ़ाश करते हैं । वही समाज जो उसे चैन से जीने नहीं देता, उस पर तरह-तरह के लांछन लगाकर उसका अपमान करता है,वही उसकी जान लेने के पश्चात् उसे देवी का तमगा दे देता है । इंद्र बहादुर समाज की इस कठोर विसंगति पर अट्टहास करते हैं,व्यंग्य करते हैं साथ ही उस पर अपनी पीड़ा भी व्यक्त करते हैं । इन सबके साथ ही वे समाज की व्यवस्था और कुरीति पर अनेक प्रश्न भी खड़े करते हैं जिसमें स्त्री की समाज में असुरक्षा,विवाह के बाद के नारकीय जीवन ,अपने भविष्य के लिए स्वतंत्र निर्णय लेने की असमर्थता ,घर-बाहर हर जगह शारीरिक-मानसिक शोषण और समाज का उसके प्रति असमानता और दोयम दर्जे का अमानवीय व्यवहार आदि मुद्दों का समावेश हो जाता है । कहानी सोचने पर विवश करती है कि समय के परिवर्तन के साथ क्या स्त्री के प्रति समाज के रवैये में सकारात्मक परिवर्तन आया है या फिर स्थितियां अभी भी जस की तस बनी हुई हैं ।

जीवन-पथ के राही कहानी के समान ही इंद्र बहादुर खरे की अन्य सभी कहानियाँ जीवन के अनेक मूल्यवान अनुभवों से परिपूर्ण हैं जिनमें समाज की विसंगतियों,जीवन मूल्यों , प्रेमपरक आदर्शों और स्त्री उत्थान से संबंधित विभिन्न मुद्दों को उठाया गया है । इंद्र बहादुर खरे की कहानियाँ समाज के लिए महत्वपूर्ण सन्देश लेकर चलती हैं और एक स्वस्थ सोच युक्त समाज निर्माण की कामना रखती हैं । उनकी कहानियों में सत्यता के साथ कल्पना का,जग के साथ ह्रदय का मेल है और इनके लिए वे पाठकों से भी अपेक्षा रखते हैं कि -“न तो इनमें कोई दर्शन की खोज करे, न शाश्वत चिंतन की आशा और न विश्व को खुली आँखों से देखने की चेष्टा, केवल कहानी के ही निकटस्थ आकर इन्हें समझे और सोचे कि कहाँ तक बात ठीक है और कहाँ तक बालकों की बातों सी नादान है ।”

इस प्रकार कह सकते हैं कि इंद्र बहादुर खरे ने साहित्य जगत को जितना दिया, निश्चित ही उसका मूल्यांकन करना अभी शेष है । यह हमारे समाज का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि इंद्र बहादुर खरे जैसे साहित्य को समर्पित अनेक निस्वार्थ साधक ऐसे हैं जिन्हें जीवित रहते वह मान- सम्मान नहीं मिल पाता, जिसके वे अधिकारी हैं । यहाँ तक कि उनकी साधना, उनकी कृतियों का भी परिस्थितिवश संतोषजनक और सम्यक मूल्यांकन नहीं हो पाता । यह संतोष की बात है कि खरे जी के परिवार के प्रयत्नों से पिछले कुछ समय से मध्यप्रदेश और विभिन्न राज्यों के विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में उनकी कृतियों को शामिल किया गया है और विद्यार्थियों द्वारा उनके साहित्य पर शोध कार्य भी किए जा रहे हैं । देश के प्रकाशन के क्षेत्र में अग्रणी वाणी प्रकाशन,दिल्ली द्वारा उनकी कई किताबों का प्रकाशन भी किया गया है ।

एक साहित्य साधक को क्या चाहिए, बस पाठकों तक उसके लेखन की पहुँच ,साहित्य जगत में उसकी एक निश्चित पहचान और उसकी रचनाओं को साहित्यिक जगत की स्वीकृति । लेकिन कई बार साहित्य जगत इन विभूतियों को जीते जी पहचान नहीं पाता जिस कारण वह इन विराट व्यक्तित्वों की छाँव से वंचित रह जाता है । लेकिन निश्चित ही यह सभी हिंदी प्रेमियों के लिए संतोषजनक है कि इंद्र बहादुर जी के परिवारीजनों के व्यक्तिगत प्रयत्नों से आज उनकी रचनाएं प्रकाशित होकर साहित्य प्रेमियों तक पहुँच रही हैं और डॉ.खरे अपनी रचनाओं के माध्यम से हमारे आसपास हैं, हमारे भीतर पुनर्जीवित हो रहे हैं ।लेखक की असली पूंजी,असली धरोहर उसकी रचनाएं ही होती हैं, जिनसे वह अपने पाठकों तक पहुँचता है । सरकार और संस्थाओं का यह कर्तव्य है कि वे इस दिशा में आगे आयें और इस तरह की योजनाएं अमल में लायें जिसके माध्यम से डॉ. खरे और उन जैसे साहित्य सेवकों का लेखन व्यर्थ न जाए और उनके साहित्य की सार्थकता अनंत काल तक बनी रहे।

*सहायक निदेशक,केंद्रीय हिंदी निदेशालय

शिक्षा मंत्रालय,भारत सरकार

ई-मेल-pandeynutan91 @gmail.com

डिजिटल दुनिया और युवा पीढ़ी-दिव्या शर्मा

0
laptop keypad
Photo by Andras Vas on Unsplash

डिजिटल दुनिया और युवा पीढ़ी

*दिव्या शर्मा

सोशल मीडिया मुख्यतया किसी कंप्यूटर या संचार के आपले से जुड़ा है। अनेकों प्रकार की वेबसाइट और एप्स हमें लोगों से जोड़ते हैं सोशल मीडिया की मदद से ही आज कोई भी प्रतिभाशाली व्यक्ति अपनी प्रतिभा को प्रस्तुत करके लोकप्रियता प्राप्त कर सकता है। ” सोशल मीडिया आपको विचारों सामग्री सूचना और समाचार इत्यादि को बहुत तेजी से एक दूसरे को साझा करने में सक्षम बनाता है। पिछले कुछ वर्षों से सोशल मीडिया के उपयोग में अप्रत्याशित रूप से वृद्धि हुई है तथा इस ने दुनिया भर के लाखों उपयोगकर्ताओं को एक साथ जोड़ लिया है। ” 1 सोशल मीडिया में प्रयोग तरीके ताजगी पन स्थायित्व आदि का प्रयोग हुआ है। नेलसन कहते हैं – ” इंटरनेट प्रयोक्ता अन्य साइट्स की अपेक्षा सामाजिक मीडिया साइट्स पर ज्यादा समय व्यतीत करते है । दुनिया में दो तरह की सिविलाइजेशन का दौर शुरू हो चुका है, वर्चुअल और फिजिकल सिविलाइजेशन । आने वाले समय में जल्द ही दुनिया की आबादी से दो तीन गुना अधिक आबादी अंतरजाल पर होगी। दरअसल अंतरजाल एक ऐसी टेक्नोलॉजी के रूप में हमारे सामने आया है जो उपयोग के लिए सबको उपलब्ध है और सर्वहिताय हैं। सोशल नेटवर्किंग साइट्स संचार व सूचना का सशक्त जरिया है, जिनके माध्यम से लोग अपनी बात बिना किसी रोक-टोक के रख पाते हैं। यहीं से सामाजिक मीडिया का स्वरूप विकसित हुआ है ।” 2

सतयुग,द्वापरयुग , त्रेता युग एवं कलयुग के दौर में आज के युग को यदि हम डिजिटल युग कहें तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। डिजिटल युग ने आम मनुष्य के जीवन में इतनी बड़ी क्रांति लाकर खड़ी कर दी है कि मानव जो ईश्वर की सबसे सुंदर रचना है, वह अपना अस्तित्व ही भूलता जा रहा है। समय के साथ धार्मिक, सामाजिक, वैश्विक, पारिवारिक एवं सांस्कृतिक मूल्य की आयाम एवं उनकी रूप रेखाएं बदलती जा रही हैं। आजादी 1947 में हमें अंग्रेजों से मिली किंतु उस आजादी को आज की पीढ़ी ने नए मूल्यों में दर्शाया है। आजादी चाहे बोलने की हो, परिवार की हो, समाज की हो। और यह प्रतिभा बढ़ चढ़कर हमें दिखाई दे रही है सोशल मीडिया पर। फिर चाहे वह टि्वटर हो फेसबुक हो या अन्य मैसेंजर एप्स हो। एक गणना यंत्र का निर्माण चार्ल्स बैबेज ने सन १८२२ में किया था जिसका उद्देश्य मनुष्य के समय की बचत करना होगा। कुछ जानकारियों को एकत्र करना होगा। संगणक के बाद धीरे-धीरे नेटवर्क बढ़ता गया और संपूर्ण देश में एक क्रांति छा गई। ” सबसे पहला संगणक १८२२ में एक गणितज्ञ चार्ल्स बैबेज ने बनाया था। उन्होंने एक गणना करने वाली मशीन बनाई जिसे डिफरेंस मशीन कहा जाता था। पहला इलेक्ट्रॉनिक कंप्यूटर जिसने वर्तमान संगणक को आकार दिया वह ENIAC था ।यह १६४५ और १६४६ के बीच ‘ जॉन विलियम और जॉन एकटे ‘ द्वारा बनाया गया था। —— हिंदुस्तान में जो सबसे पहला संगणक बना उसका नाम ‘सिद्धार्थ’ है। इंटरनेट कंप्यूटर का सबसे बड़ा नेटवर्क है। इंटरनेट से अब तक 17 अरब डिवाइस जुड़ चुके हैं। ” 3 कंप्यूटर से जुड़ी चीजों को जमा करने के लिए तरह-तरह के डिवाइस, फ्लॉपी, सीडी, डीवीडी एवं पेन ड्राइव आदि का इस्तेमाल किया जाता है। प्रश्न उठता है मन में कि यह मशीन मनुष्य की मदद के लिए बनाई गई थी। इंटरनेट का उपयोग भी मनुष्य के लिए उपयोगी ही रहा है परंतु मनुष्य न जाने कब इंटरनेट के जाल में स्वयं ही फंस गया। क्या हम इस जाल से कभी मुक्त हो पाएंगे? यह एक चिंता का विषय है और उत्तर अभी हम शायद ना दे सके। किंतु यह बात वर्ल्ड विचारणीय है कि ‘ अति सर्वत्र वर्जनीय ‘ की उक्ति चरितार्थ है। सोशल मीडिया जैसे ब्लॉग्स, फेसबुक, इंस्टाग्राम , ट्विटर या अन्य मैसेंजर एप्स और समय बिताने वाले लोग सामान्य जीवन में काफी नीरस एवं अंतर्मुखी हो जाते हैं। यह एक करिश्माई योग भी है पलक झपकते ही हम विश्व के किसी भी कोने के व्यक्ति से जुड़ सकते हैं। वहां की जानकारियां प्राप्त कर सकते हैं। सोशल मीडिया का ही प्रभाव है कि बाह्य जिंदगी में 1000 लोगों से जुड़े व्यक्ति अक्सर अकेला बैठा पाया जाता है। बर्लिन विश्वविद्यालय के प्रोफेसर लूस ब्रिंग ने अपने एक महत्वपूर्ण शोध में कहा है, ” समाज पर इंटरनेट की सूचना तंत्र का प्रभाव हर क्षण बढ़ता जा रहा है तथा इसके अच्छे तथा बुरे दोनों तरह के नतीजे दुनिया को चौकानेवाले नजर आ रहे हैं। इंटरनेट ने लोगों को अलग-थलग करना भी शुरू कर दिया है क्योंकि जो लोग इंटरनेट पर ज्यादा समय गुजारते हैं वह लोगों से रूबरू होने पर अपना समय तथा व्यक्तित्व धीरे-धीरे इंटरनेट में ही खोने लगते हैं।” 4 सोशल मीडिया पर अधिक वक्त गुजारने पर मनुष्य का धीमे-धीमे खत्म हो रहा है। जिन प्राकृतिक नजारों की फोटो को हम सोशल मीडिया पर पसंद करते हैं उन दृश्यों को अपने आसपास बनाने का हम 1% भी योगदान नहीं देते है। युवा पीढ़ी- सोशल मीडिया पर अपना समय सबसे ज्यादा बिताती है। यह एक नशे की तरह है। एक 2 वर्ष के बच्चे के हाथ में माता पिता अपना मोबाइल या टैब जब पकडाते हैं तब शायद यह वे लोग सोचते तक नहीं होंगे कि वे अपने बच्चे को ऐसा नशा दे रहे हैं जो उसके भविष्य को खतरे में डाल रहा है। सोशल मीडिया की वजह से बहुत से लोगों का टैलेंट उभर कर आता है। लोगों को अपनी प्रतिभा को दर्शाने के लिए एक ऐसा मंच प्राप्त हुआ है जो वह स्वयं चुनता है। प्रसिद्धि मुकाम को हासिल कर सकता है। ” इस वर्चुअल दुनिया की अफीम की तरह लत लगने के आसार भी दिखाई दे रहे हैं। यहां इस पीढ़ी को शारीरिक तौर पर कोई खतरा नहीं होता और नए होने की कोई संभावना भी है लेकिन मानसिक तौर पर विकलांग पर अब दिखाई दे रहा है। इससे निजात पाने का उपाय वर्चुअल दुनिया में मिलने के आसार भी कम होते हैं। इसलिए मानसिक आघात प्रत्याघाट से उभरने की उनकी क्षमता पर भी प्रश्नचिन्ह उपस्थित हो जाता है। ” 5 हमारे देश का भविष्य हमारी आने वाली पीढ़ी है। हम सब जानते हैं कि हमारी नई पीढ़ी अपने भविष्य को उज्जवल बनाने के लिए किस प्रकार की प्रयत्न कर रही है। आज हर बच्चे और युवा के हाथ में महंगी फोन उपलब्ध है। 2020 की कोरोना एक महामारी ने एक बहुत बड़ी क्रांति क्षेत्र में लाकर खड़ी कर दी। शिक्षण जगत को भी क्षेत्र से जोड़ दिया। जिन परिवारों की स्थिति सामान्य से भी कमजोर थी उन माता-पिता के द्वारा भी बच्चों के लिए स्मार्टफोन खरीदा या दिलाया गया है। बच्चे कुछ घंटों की पढ़ाई के बाद फोन को रखने की बजाय इस डिजिटल दुनिया में उड़ने लगे हैं। जिन्होंने अभी उड़ान सीखी है उन्हें डिजिटल दुनिया का आकाश अपनी और आकर्षित कर रहा है। भी अपने लक्ष्य से भटक रहे हैं। धीमे धीमे अध्ययन जो एक महत्वपूर्ण पहलू है एक बड़ा विद्यार्थी वर्ग उससे दूर हो रहा है। हमारी शैक्षणिक व्यवस्था से कमजोर हो सकती है। शिक्षा के क्षेत्र में पीछे हैं और सीधा सा अर्थ निकलता है कि देश का भविष्य सुरक्षित नहीं है। बच्चों की चीज को पाने की तलाश उन्हें निराश ना कर दे। उसे निराशा के बादल में स्वयं को अकेला न पाए इसका ध्यान माता पिता एवं परिवार को संपूर्ण रूप से रखना चाहिए। सोशल मीडिया के सकारात्मक पहलुओं के साथ-साथ इसके नकारात्मक पक्ष की भी हम चर्चा करेंगे। जिसे हम साइबर क्राइम कहते है। यह एक कंप्यूटर और नेटवर्क से जुड़ा अपराध है। कंप्यूटर की मदद से किया गया कोई भी गैरकानूनी गलत कार्य कंप्यूटर अपराध कहलाता है। साइबर अपराध के तहत किसी की निजी जानकारी को प्राप्त करके उसका गलत उपयोग करना साइबर क्राइम है। किसी की महत्वपूर्ण जानकारियों को चुरा लेना, उन्हें नष्ट करना, किसी तरह का फेरबदल करना, जानकारी को किसी के साथ साझा करना उन का गलत इस्तेमाल करना अपराध है। इसी तरह कंप्यूटर अपराध में किसी की गतिविधियों पर नजर रखना, हैकिंग , फिशिंग एवं वायरस का हमला करना होता है। साइबर क्राइम का जन्म कहीं से भी हुआ हो, परंतु इसका अंत किसी के पास नहीं है। आज युवा पीढ़ी इस बीमारी से ग्रसित हैं। स्वभाव में अहम का आना, स्वयं को श्रेष्ठ समझना, वाचिक स्वतंत्रता व्यक्ति को स्वच्छंद बना रही है। आज मीडिया एवं सरकार के सूत्र में साइबर आतंकवाद की वजह से होने वाला नुकसान गहरी चिंता का विषय बना है।” अपनी अवधारणाओं से परिवार, समाज और अंत में राष्ट्र का हित होना चाहिए इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती। लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं होता। समाज विघातक कृत्य, समाज में विभाजन करने वाली आतंकवादी अपने मंसूबों को अंजाम देते हैं, रेव पार्टियों का आयोजन किया जाता है। इसलिए साइबर क्राइम अब तेजी से बढ़ रहा है।” 6 आज भी कंप्यूटर पर नई नई खोज अविष्कार रुके नहीं है। युवा वर्ग, वैज्ञानिक नई नई खोजो से मनुष्य को सर्वश्रेष्ठ बनाने का जहां भरसक प्रयत्न कर रहे हैं वही एक वर्ग धोखा – अपना लिंग परिवर्तन करके मनोरंजन करना, सेक्स के लिए खोली दुकान बन रहे हैं। “लड़कियां लड़कों के नाम से एवं लड़के लड़कियों के नाम से फेक अकाउंट खोलते हैं। इन फेक अकाउंट के माध्यम से धोखाधड़ी और बदनामी बढ़ रही है। नेट अब सेक्स की नुमाइश और ओपन शॉप बन गई है। इससे ही अनेक सामाजिक समस्याओं का निर्माण हो रहा है और गुनाहों को खाद पानी भी मिल रहा है। यहां तक कि जिसने नेट को जन्म दिया उनके हाथ में भी अब यह बात नहीं रही है और हम सब नेटीजंस के हाथों से इसके सूत्र कब से फिसल गए हैं इसका हमको पता भी नहीं चला। ” 7 सुबह उठकर प्रभु के दर्शन के स्थान पर आज की युवा पीढ़ी प्रथम दर्शन सोशल मीडिया का करना चाहती है। दिन भर में कितने लाइक्स मिले इसकी प्रतिस्पर्धा बड़ी ही जोर शोर से फेसबुक, इंस्टाग्राम आदि सोशल मीडिया पर हर दिन चलती रहती है। कुछ समय पूर्व एक और चलन मीडिया पर आया था जिसमे लाइक्स कम मिलने पर बच्चों ने आत्म सम्मान पर इस बात को ले लिया एवं आत्म हत्या जैसा कदम वो उठाने लगे थे। एक लेखक के अनुसार,” जिज्ञासा और अभिव्यक्ति मनुष्य की जन्मजात प्रवृत्तियां है। इसलिए मनुष्य कोई भी नई बात जानने पर उसे दूसरों तक पहुंचाने के लिए सदैव अधीर रहता है। आजकल लोगों को सुबह उठते ही दो चीजों का ध्यान आता है सोशल साइट्स और चाय। अक्षय दिन की शुरुआत सोशल साइट्स को छूने से होती है। बहुत सारे माध्यम होने के बाद भी सोशल साइट का महत्व बढ़ना आश्चर्यजनक ही है। सोशल साइट्स खबर प्राप्त करने का सर्वोत्तम साधन है। इसे कहीं भी और कभी भी प्रयोग में लाया जा सकता है, इसलिए इसका महत्व कभी भी कम नहीं हो सकता। ” 8

तो हम कह सकते हैं कि अगर समय रहते हुए नई पीढ़ी को नहीं संभाला गया तो हम विनाश की लहरों में डूब ना जाए। देश को बाहरी परिजनों से जितना सुरक्षित रखना है उतना ही देश को आंतरिक रूप से मजबूत बनाना होगा। युवा वर्ग को इस अंतरजाल से मुक्त होना पड़ेगा। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि वह एक साधन है,यंत्र है। जितना सोशल मीडिया और साइबर क्राइम से बच्चों, युवाओं को दूर रखा जाए उतना ही देश मजबूत होगा। फोन का उपयोग मुफ्त के इंटरनेट ने बढ़ा दिया है। परंतु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मुफ्त में मिली वस्तुएं हमें नशा करा देती हैं और एक बार लत लगने पर उससे दूर होना बहुत मुश्किल है। अंतिम उल्लेख देना चाहूंगी शिक्षा विधिज्ञ शकील इंजीनियर अपनी पुस्तक मी एंड इंटरनेट वर्ल्ड में लिखते हैं कि, ” सोशल साइट्स या इंटरनेट यह एक गंदी नाली की तरह है हम अपनी सोच के अनुसार इस गंदी नाली से मनचाही हीरे चुने और गंदी वस्तुओं को छोड़ दें।” 9

हम अपनी सोच बदलें ताकि देश बदल सके। सोशल मीडिया युवाओं के लिए महत्वपूर्ण परिबल हो सकता है जरूरत है उसके महत्व को समझने की। इसके दोनों पहलुओं से बच्चों को, युवाओं को अवगत कराने की। हमें उन्हें समझाना होगा कि किस प्रकार से वे इसका सदुपयोग अपने समाज के, देश के विकास के लिए करे।

संदर्भ सूची –

  1. www.hindikiduniya.com
  2. रवींद्र प्रभात – जनसंदेश टाइम्स, 5 जनवरी 2014 , पृष्ठ संख्या – 1 ( पत्रिका – ए टू जेड लाइव) शीर्षक : आम आदमी की नई ताकत बना सोशल मीडिया,
  3. डॉ. विजय महादेव गाड़े – सोशल मीडिया – समसामयिक परिपेक्ष्य में , पृष्ठ संख्या – भूमिका से
  4. डॉ. कृष्ण कुमार रत्तू – नया मीडिया संसार – मीडिया क्रांति के नए संदर्भ – पृष्ठ संख्या – 118
  5. डॉ. विजय महादेव गाड़े – सोशल मीडिया – समसामयिक परिपेक्ष्य में , पृष्ठ संख्या – 21
  6. डॉ. विजय महादेव गाड़े – सोशल मीडिया – समसामयिक परिपेक्ष्य में , पृष्ठ संख्या – 22
  7. डॉ. विजय महादेव गाड़े – सोशल मीडिया – समसामयिक परिपेक्ष्य में , पृष्ठ संख्या – 22
  8. धीरज कुमार – बेनिफिट ऑफ सोशल साइट्स – पृष्ठ संख्या – 78
  9. दैनिक सकाल – 03/ 08/2016

शोधार्थी

विषय – हिंदी

हेमचंद्राचार्य उत्तर गुजरात यूनिवर्सिटी

पाटण ( गुजरात)

भारतीय सिनेमा का चुनिया यानी ‘लवेबल-विलेन’-तेजस पूनियां 

0

भारतीय सिनेमा का चुनिया यानी ‘लवेबल-विलेन’

-तेजस पूनियां 

फिल्‍मों में खलनायक का पर्याय बने अभिनेता अमरीश पुरी ने कई यादगार किरदार निभाए हैं। और आज उनकी 89 वीं जयंती है। जन्म हुआ नवांशहर जलंधर पंजाब की धरती पर साल था 1932 लेकिन फिल्मों की तरह ही जीवन से जुड़े किस्से भी रोचक रहे। 40 साल की उम्र में बॉलीवुड में फिल्म ‘रेशमा और शेरा’ से डेब्यू किया। जिसके बाद अपने पूरे करियर में 450 से ज्यादा फिल्में की। पिछले दिनों एक फ़िल्म देखी थी ‘कामयाब… उम्मीदों के किस्से’ हालांकि उस फिल्म की कहानी जैसा जीवन तो नहीं रहा अमरीश का लेकिन उस फ़िल्म की कहानी की तरह ही वे हमें डायलॉग जरूर दे गए फिर वो ‘दिलजले’ हो या ‘मोगैंबो’। IMG 20210622 091456
अमरीश पुरी ने फिल्मों में हीरो बनने के लिए जो स्क्रीन टेस्ट दिया था वे उसे पास नहीं कर पाए थे। इस बात से निराश हो उन्होंने मिनिस्ट्री ऑफ लेबर में काम किया। इसी दौरान उन्होंने स्टेज पर एक्टिंग और फिल्मी पर्दे पर विलेन के रुप में काम करना भी शुुरू किया। कुछ फिल्‍मों में सकारात्मक भूमिकाएं भी अदा की। दमदार और रौबदार आवाज के मालिक अमरीश पुरी के शानदार अभिनय को कभी भुलाया नहीं जा सकेगा। 12 जनवरी 2005 को दुनिया को अलविदा कहने वाले इस शानदार अभिनेता ने इंडस्ट्री में एक लंबा समय बिताया।
उनके कुछ किरदार अमर हो गए जैसे फिल्‍म ‘नागिन’ में तांत्रिक बाबा भैरोनाथ का किरदार फिल्‍म की जान बन गया। नागमणि में उनके गेटअप ने एक अलग ही मैनरिज्‍म क्रिएट किया। इसके अलावा मिस्‍टर इंडिया में मोगैंबो का किरदार बच्‍चे से लेकर बूढ़े तक को याद है आज भी। ‘मोगैबो खुश हुआ’ डायलॉग हर किसी की जुबान पर आज भी चढ़ा हुआ है। आज भी लोग इस डायलॉग को बोलते हुए सुने जाते हैं। यह किरदार अमरीश को हमेशा के लिए लोगों के दिलों में जिंदा तथा सिनेमा के इतिहास में अमर कर गया।
फिल्‍म तहलका में अपने एक अलग देश ‘डांगरीला’ बसाकर जुल्‍म और अत्‍याचार की इंतहा करने वाला संगीत प्रेमी जनरल डॉग के किरदार को कौन भूल सकता है। एक अन्य फ़िल्म जो दो दोस्‍तों की कहानी पर आधारित थी और नाम था ‘सौदागर’ , में दोस्‍त वीर और राजेश्‍वर के बीच झगड़ा कराने वाले चुनिया मामा के किरदार को भी शायद ही कोई भूल पाया हो। शकुनी मामा जैसे इस किरदार में अपने अभिनय से जान डालने वाले इस विलेन ने फिल्‍म ‘दामिनी’ में गुस्‍सैल और चीखने-चिल्‍लाने वाले बैरिस्‍टर इंद्रजीत चड्ढा का किरदार  निभाया जो उस जमाने के हर सिने फैन को अभी तक याद होगा। इस किरदार में अमरीश लीड एक्‍टर सनी देओल से कहीं भी कमतर नजर नहीं आए थे।
अमरीश ने पॉजिटिव यानी सकारात्मक किरदार भी निभाए। फिल्‍म ‘दिलवाले दुल्‍हनिया ले जाएंगे’ जो करीबन 20 साल तक मुंबई के मराठा मंदिर सिनेमा में चलती रही, में एक कड़क पिता चौधरी बलदेव सिंह के किरदार में उनके अभिनय को खूब सराहना मिली। इस किरदार में उनका ‘जा सिमरन जा, जी ले अपनी जिंदगी’ डायलॉग आज तक लोगों की जुबान पर चढ़ा हुआ है। हालांकि इस फ़िल्म को मैंने कई बार टीवी पर आते हुए देखा था। लेकिन हर बार रिमोट से चैनल बदल देता या कमरे से बाहर चला जाता था। कारण बस एक था किसी दिन मुंबई जाना होगा तो ट्रेन से ही सफ़र किया जाएगा। उसी समय यह फ़िल्म देखूँगा नहीं तो नहीं और यह छोटी सी ख्वाहिश पूरी हुई थी साल 2017 के मध्य में।
download 6 1
ख़ैर इसी तरह फिल्‍म ‘परदेस’ में किशोरी लाल का किरदार भी कुछ ऐसा ही था। किशोरी लाल अपने बेटे की गलतियों पर पर्दा जरूर डालता है, लेकिन किसी की खुशियों की कीमत पर नहीं। इस किरदार को भी काफी सराहा गया था।
फिल्‍म ‘कोयला’ के राजा साहब भी बॉलीवुड के खतरनाक खलनायकों में आज भी गिने जाते हैं। ‘ग़दर’ आह इस फिल्‍म को भी शायद ही कोई भूल पाया होगा। फिल्‍म गदर में जितनी सराहना सनी देओल के दमदार डायलॉग्‍स को मिली, उससे कम सराहना अशरफ अली के किरदार में अमरीश पुरी को भी नहीं मिली। और इन दोनों के चलते ही मुक्कमल फ़िल्म बनी ‘ग़दर एक प्रेम कथा’। साल 2001 में आई फिल्‍म ‘नायक’ सोशल-पॉलिटिकल फिल्‍म थी। इसमें भी अमरीश नेगेटिव रोल में थे और मुख्‍यमंत्री बलराज चौहान का किरदार निभाया था। इस किरदार में भी उन्होंने खूब तारीफ बटोरी।
फिल्मों में आने से पहले अमरीश की दिली ख्वाहिश थी कि वे एक हीरो बने। इसके लिए उन्होंने एक  ऑडिशन भी दिया लेकिन साल 1954 में तब उन्हें एक प्रोड्यूसर ने उनको ये कहते हुए बाहर का रास्ता दिखा दिया कि उनका चेहरा बड़ा पथरीला सा है। वे निराश जरूर हुए लेकिन हार नहीं माने और रुख किया रंगमंच का। नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा के निदेशक के रूप में हिंदी रंगमंच को जिंदा करने वाले इब्राहीम अल्क़ाज़ी 1961 में उनको थिएटर में लाए।  कभी बंबई में कर्मचारी राज्य बीमा निगम में नौकरी कर रहा यह शख़्स थिएटर में सक्रिय हो गया। रंगकर्मी सत्यदेव दुबे के सहायक बने लेकिन छोटे कद के इस आदमी से सीखना उन्हें अजीब लगता  लेकिन बाद में वही उनका गुरु बना और अमरीश ने भी उन्हें पूरा सम्मान दिया।
images 4 1 1 1 1 1
कर्मचारी राज्य बीमा निगम की अपनी करीब बीस साल से ज़्यादा की सरकारी नौकरी छोड़ देने वाला शख़्स उस वक़्त ए ग्रेड के अफसर थे। हालांकि वे नौकरी बहुत पहले छोड़ देना चाहते थे लेकिन गुरु सत्यदेव दुबे के कहने पर उन्होंने
नौकरी नहीं छोड़ी। सत्यदेव ने कहा था कि जब तक फिल्मों में अच्छे रोल नहीं मिलते वे ऐसा न करें। आखिरकार डायरेक्टर सुखदेव ने उन्हें एक नाटक के दौरान देखा और अपनी फिल्म ‘रेशमा और शेरा’ (1971) में एक सहृदय ग्रामीण मुस्लिम किरदार के लिए कास्ट कर लिया। तब वे करीबन चालीस साल के थे। और किसने सोचा था कि एक दिन फिल्मी दुनिया में आने के लिए संघर्ष करने वाला यह इंसान खलनायिकी के लिए ही सबसे ज़्यादा रक़म वसूल करने वाला अभिनेता बनेगा तथा अपनी मनपसंद के मुताबिक फ़िल्म करेगा। उनकी आखिरी फ़िल्म साल 2005 में आई सुभाष घई की  ‘किसना- दी वरियर पोएट’ थी।
images 1 1 1 1 1 1 1 1 2
अमरीश पुरी ने सत्तर के दशक में कई अच्छी फिल्में की।  सार्थक सिनेमा के अलावा कमर्शियल सिनेमा में भी उनका मुकाम जबरदस्त रहा। विधाता फ़िल्म के बाद घई की ही फ़िल्म ‘हीरो’ के बाद उन्हें कभी पीछे मुड़कर नहीं देखना पड़ा। हालात यहां तक हो गए कि कोई भी बड़ी कमर्शियल फिल्म बिना अमरीश पुरी को विलेन लिए नहीं बनती थी।
सिनेमा में हर खलनायक का अपना स्टाइल, गैटअप, संवाद अदायगी का तरीका रहा है और वह उसी स्टाइल की बदौलत दर्शकों के दिलो-दिमाग पर तब तक राज करता रहा है जब तक कि नए विलेन ने आकर अपनी लम्बी लकीर न खींच दी हो।  के.एन.सिंह, प्रेमनाथ, प्राण, अमजद खान से शुरू हुआ यह सिलसिला अमरीश पुरी पर आकर ठहर सा गया था। इन हस्तियों ने खलनायक के स्तरीय एवं बहुआयामी चेहरे समाज एवं सिनेमा के सामने प्रस्तुत किए, जो आज भी हिन्दी सिनेमा में मानक माने जाते हैं।
ऊंची कद-काठी और बुलंद आवाज के मालिक अमरीश इन सबसे आगे निकल गए और उनकी गोल घूमती आंखें सामने खड़े व्यक्ति के भीतर आज भी दहशत पैदा करने का माद्दा रखती है। यही कारण है कि उनकी फिल्में आकर चली जाती थीं, मगर उनका किरदार दर्शकों को बरसों तक याद रह जाता था। अमरीश पुरी अक्सर कहा करते थे कि वे ‘लवेबल-विलेन’ हैं। जब अमरीश पुरी ने अपने आप को विलेन के अवतार में ब्रांड बना लिया तो हॉलीवुड के बेताज बादशाह स्टीवन स्पीलबर्ग ने अपनी फिल्म ‘इण्डियाना जोंस एंड द टेम्पल ऑफ डूम’ (1984) में उन्हें मुख्य विलेन की भूमिका के लिए भी ऑफर दिया। अमरीश ने स्पीलबर्ग की अपेक्षाओं के अनुरूप काम भी किया और इससे उनकी पहचान अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हो गई। इसके बाद हॉलीवुड फिल्मों के कई ऑफर उन्हें मिले, मगर भारत में रहकर जो रोल मिले उन्हें करना ही उन्होंने अधिक मुनासिब समझा।
images 2 1 1 1 1 1 2 1
अमरीश पुरी अपने समकालीन खलनायकों को अक्सर ‘चॉकलेट बॉयज’ कहकर बुलाते थे। उनके जैसे बहुआयामी अभिनेता को दिग्गज फिल्मकार श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, शेखर कपूर, सुभाष घई, प्रियदर्शन, राकेश रोशन, राजकुमार संतोषी मिले, जिन्होंने उनकी प्रतिभा को परखा और उन्हें संतुष्टि करते हुए उनकी पसंद के रोल उन्हें दिए। एक दौर था जब अमरीश पुरी की अभिनय क्षमता से उनके साथ काम करने वाले हीरो तक भी घबराते थे क्योंकि उनका मानना था कि फिल्म के तमाम सीन तो यह चुरा कर ले जाएगा। फिल्मी दुनिया का विलेन कैंसर की बीमारी की वजह से 12 जनवरी 2005 को यह दुनिया छोड़कर चला गया। उनके जाने के बाद सिनेमा को दूसरा वैसा दमदार खलनायक आज तक नहीं मिल पाया है।
*तेजस पूनियां 
शिक्षा- शिक्षा स्नातक (बीएड)
स्नातकोत्तर हिंदी
पता – 177 गणगौर नगर , गली नँबर 3, नजदीक आर एल जी गेस्ट हाउस
संपर्क -9166373652
ईमेल- tejaspoonia@gmail.com

रचनाकार परिचय :-
प्रकाशन- मधुमती राजस्थान साहित्य अकादमी की पत्रिका, विश्वगाथा गुजरात की पत्रिका, परिकथा दिल्ली से प्रकाशित पत्रिका, जनकृति अंतरराष्ट्रीय बहुभाषी ई पत्रिका, अक्षरवार्ता अंतरराष्ट्रीय मासिक रिफर्ड प्रिंट पत्रिका, परिवर्तन: साहित्य एवं समाज की त्रैमासिक ई पत्रिका, हस्ताक्षर मासिक ई पत्रिका (नियमित लेखक) सहचर त्रैमासिक ई पत्रिका, कनाडा में प्रकाशित होने वाली प्रयास ई पत्रिका, पुरवाई पत्रिका इंग्लैंड से प्रकाशित होने वाली पत्रिका, हस्तक्षेप- सामाजिक, राजनीतिक, सूचना, चेतना व संवाद की मासिक पत्रिका, सबलोग पत्रिका (क्रिएटिव राइटर), आखर हिंदी डॉट कॉम, लोक मंच पत्रिका सर्वहारा ब्लॉग, ट्रू मीडिया न्यूज डॉट कॉम, स्टोरी मिरर डॉट कॉम सृजन समय- दृश्यकला एवं प्रदर्शनकारी कलाओं पर केन्द्रित बहुभाषी अंतरराष्ट्रीय द्वैमासिक ई- पत्रिका तथा कई अन्य प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं, ब्लॉग्स, वेबसाइट्स, पुस्तकों आदि में 200 से अधिक लेख-शोधालेख, समीक्षाएँ, फ़िल्म समीक्षाएं, कविताएँ, कहानियाँ, तथा लेख-आलेख प्रकाशित एवं कुछ अन्य प्रकाशनाधीन। कई राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियों में पत्र वाचन एवं उनका ISBN नम्बर सहित प्रकाशन।

कहानी संग्रह – “रोशनाई” अकेडमिक बुक्स ऑफ़ इंडिया दिल्ली से प्रकाशित।

सिनेमा आधारित पुस्तक पर शोधरत।

सारा का सारा समाज ही ढह रहा है : ‘घासीराम कोतवाल’नाटक की प्रासंगिकता का संदर्भ-हरदीप सिंह

0

सारा का सारा समाज ही ढह रहा है : ‘घासीराम कोतवाल’नाटक की प्रासंगिकता का संदर्भ

हरदीप सिंह, प्रोफेसर, 
दूरभाष: 09417717910

‘घासीराम कोतवाल’नाटक को देखते समय अथवा पढ़ते समय दर्शक और पाठक के मन में सहज ही यह बात उतर जाती है कि ‘सारा का सारा समाज ही ढह रहा है, चुक रहा है |’(1) प्रस्तुत शोध पत्र में इसी कथन कि पुष्टि की गई है और विशेष रूप से राजनैतिक और सामाजिक क्षेत्र में नैतिक मूल्यों के क्षरण का आकलन किया गया है| विजय तेंदुलकर के अनुसार,

“‘घासीराम कोतवाल’एक विशिष्ट समाज स्थिति की ओर संकेत करता है | वह समाज स्थिति न पुरानी है और न नई | न वह किसी भौगोलिक सीमा रेखा से बंधी है, न समय से ही | वह स्थल कालातीत है, इसलिए ‘घासीराम’और ‘नाना फड़नवीस’भी स्थल कालातीत हैं | समाज स्थितियां उन्हें जन्म देती हैं, देती रहेंगी |”(2)

इस विशिष्ट स्थल कालातीत स्थिति को ‘जब्बार पटेल’ने निर्देशक का वक्तव्य में और अधिक स्पष्ट है :

“इस नाटक में घासीराम और नाना फड़नवीस का वयक्ति संघर्ष प्रमुख होते हुए भी तेंदुलकर ने इस संघर्ष के साथ – साथ अपनी विशिष्ट शैली में तत्कालीन सामाजिक एवं राजनैतिक स्थिति का मार्मिक चित्रण किया है। परिणामतः सत्ताधारी एव जनसाधारण की सम्पूर्ण स्थिति पर काल – अवस्थापन के अंतर से विशेष अंतर नहीं पड़ता। घासीराम हर काल और समाज में होते है और हर काल और समाज में उसे वैसा बनाने वाले और बनाकर मौका ताक उसकी हत्या करने वाले नाना फड़नवीस भी होते ही है – वह बात तेंदुलकर ने अपने ढंग से प्रतिपादित की है। ” (3)

इसकी प्रासंगिकता की पुष्टि निम्नलिखित बातों से सिद्ध होती है :-

  1. समाज की अधोगति : आम जनता में झूठ बोलने की प्रवृत्ति:

‘घासीराम कोतवाल ‘नाटक में गिरते हुए मानव मूल्यों को दिखाया गया है। समाज में भोग विलास और व्यभिचार की प्रवृत्ति जब अपने चरम शिखर पर पहुँचती है तो झूठ बोलना आम बात हो जाती है । जिस समाज में लोग कोठे पर जा कर नाच देखने के लिए अपनी घरवालियों से यह कर झूठ बोलते हैं कि हम मंदिर जा रहे हैं उस समाज के नैतिक मूल्यों के पतन का अंदाज़ सहज ही लगाया जा सकता है । एक हिंदी फ़िल्म आई थी जिसमें पुलिस को पुख्ता जानकारी मिलती है कि किसी स्थान पर देह व्यापार का कारोबार चल रहा है । इस जानकारी के आधार पर पुलिस जब वहाँ रेड मरने पहंचती है तो वहाँ सब लोग पहले से ही भगवान् की आरती कर रहे होते हैं । क्योंकि उस देह व्यापार के अड्डे की दीवारों पर पहले से ही धार्मिक चित्रकारी की हुई थी इसलिए पुलिस के आने की सूचना मिलते ही सभी वेश्याएं सर पर पल्लू डाल कर पूजा करने का ढोंग करती हैं । इस नाटक में भी मंदिर जाने का ढोंग करके पुरुष लोग बाबनीखानी के कोठे पर नाच देखने जाते हैं | नाटक के पूर्वार्ध के शुरू में सारे ब्राहम्ण मंदिर जाने के बहाने बावनखनी में गुलाबी का लावणी नाच देखने जाते है, जबकि उनकी पत्नियां घरों में मन मसोस कर रह जाती हैं।

उदाहरण :

“बाम्हन बावनखनी कौं धायौ अरु बाम्हनी घरै रही । बाम्हनी घरै रही, घरई घर में सूल रही । बाम्हनी बात जोवै, आँखिन में रैन नसावै |” (4)

सूत्रधार : ” बावनखनी में बाम्हनी घरें रहबू करै,बाम्हन रमि रह्यौ भजन कीर्तन मैं, जहानम मसान मैं। बाम्हन चितचाव सों दरसन – परसन करैं, तहाँ बाम्हनी वाकी एकांत – सेवन करैं।”

कोठे पर लोग किस प्रकार की चेष्टाएँ करते हैं वह निम्न उधाहरण से स्पष्ट हो जाता है :

‘लोग श्रृंगारिक चेष्टाएँ करते हुए निचली सतह पर उतर आए हैं।’(5) ‘नाच समाप्त होते ही जोर- जोर से सीटियाँ बजाते हैं और पगड़ी उछालते हैं|’(6)

इस प्रकार नाटक में गिरते हुए मानव मूल्यो को दिखाया गया है, यह आम जीवन में नैतिकता के पतनशील समाज का जीवंत चित्रण है |

  1. पुलिस का भ्रष्टाचार, उत्पीड़न और राक्षसी चेहरा-

‘सेवा, सुरक्षा, शांति’; ‘आपके साथ, आपके लिए, सदैव’; ‘courage, care, commitment’, ‘आपकी सेवा में तत्पर’, पोलिस की हक़ीक़त इन आदर्श वाक्यों से कोसों दूर है । आए दिन पुलिस की ज्यादती से आम नागरिकों का सामना होता है । चाहे मामला निजी न्याय पाने का हो या राजनैतिक, पुलिस मानो एक दमनकारी ताक़त के रूप में अपने ज़ालिम बल प्रयोग की साड़ी हदें पार करती हुई नज़र आती है । विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में पुलिस का खौफ इस कदर हावी है कि एक हमदर्द और न्यायपरायण पुलिस का सपना ख़्वाबों सा दूर लगता है ।

पुलिस देश के आम आदमी के साथ कैसा व्यवहार करती है अपने नाटक में विजय तेंदुलकर इसे सिद्धहस्तता से दर्शाते हैं | घासीराम कन्नौज से पूना नगरी में रोज़गार की तलाश में आया एक आम आदमी है जो गलती से पुलिस के हत्थे चढ़ जाता है । पुलिस उस पर चोरी करने का झूठा आरोप मढ़ती है और उसके साथ दुरव्यवहार करती है | इस बात की पुष्टि निम्न उदाहरण से होती है –

“ब्राहम्ण : आदमी नहीं हजूर,जेबकतरा हता। राँड की औलाद, जिसने मेरी दच्छिना चुराए ली। बिसके हाथ झड़ जाएँ,कीड़े पड़े,बिसके मक्खियाँ भिनके,बिसके—“ (7)

घासीराम का बहुत अधिक अपमान किया जाता है, मारपीट भी की जाती है ‘लहुलुहान घासीराम को दो सिपाही घसीट कर लाते है और पटक देते है।

पहला सिपाही : मर स्साले इसी कुठरिया में –

दूसरा सिपाही : चुप्पचाप ! नहीं तो बना देंगे गठरिया -पुटरिया हड्डियों की। लगाऊँ हरामी की जाँघो के बीच,खस्सी -सा बिबियाएगा स्साला – ‘ (8)

घासीराम को सूअर की औलाद कहकर तिरस्कृत किया जाता है :

“ सिपाही :- चलो स्साला ! चोर कहीं का ,सूअर की औलाद ! फिर कभी इस पवित्तर पुन्न नगरी की तरफ रुख करेगा तो गर्दन उड़ा देंगे,समझा? ले जा काला मूँ हिया से। खबरदार जौ लौट के आया पूना। तेरा साया तक न पड़े इस नगरी पै -चल हट निकल –।“ (9)

पुलिस कर्मियों द्वारा आम जनता का अपमान किया जाता है। किसी भी व्यक्ति को पकड़कर उसे तंग कर मार-पीट करना आदि सब कार्य आज भी होते हैं। अतः यह इस रूप से भी प्रासंगिक प्रतीत होता है।

‘बिला परमिट मुर्दा फूँकना बंद !’(10)

‘नीच जातवारे की रोटी खाना गुन्हाय है — !’(11)

” बिला परमिट खस्सी चीरना, पेट गिराना, खानदानी औरत का छिनाली करना, छिनाल की भड़ुआगिरी करना, बाम्हन का बदकारी करना, कोऊ सो छेड़छाड़ करना, चोरी चपाटी करना, तल्लाकबारी जोरू के साथ घोरबा करना, खसम जीता होय तो यार को घर में घुसाना, अपनी जात छिपाना, जाल सिक्का ढालना, जान देना – सब गुन्हाय है – ” (12)

घासीराम कोतवाल बनने के बाद पूना शहर की परिक्रमा करने लगता है । आम जनता को टोकने, ठोकने, मुश्कें बाँधने, परमिट जांचने का काम शुरू हो जाता है । आम जनता प्रताड़ित होती है । कोई रात को घर से बहार नहीं निकल सकता है :

” घासीराम : कहाँ जा रहा है?

सूत्रधार : ऐसेई सरकार ।

घासीराम : चोरी करने?

सूत्रधार : ने S ई S सिरकार

घासीराम : तो फिर रंडीबाजी करने?

सूत्रधार : नई सिरकार ।

घासीराम : ( तमाचा मारकर ) सच बोल ! ” (13)

औरतों की कोई इज्जत नहीं रहती, महिला उत्पीड़न एक आम बात हो जाती है । एक खानदानी औरत को जबरन घर से बाहर निकाल कर प्रताड़ित किया जाता है :

“ घासीराम : (पैनी आँख से देखकर ) खानदानी हो न ! ( औरत होंठ चबाकर सर झुकाकर ‘हाँ’कहती है )

मंगलसूत्र तो दिखाना । ( वह दिखाती है । ) असली है, या दिखावे का? इसका मालिक यही है या कोई और?”(14)

जहां एक ओर नाना और गौरी रस में आकंठ डूबे हैं वहाँ घासीराम फरमान जरी करता है,

” अपनी बीबी और अपने शौहर को छोड़ कर अगर कोई दीगर मर्द औरतों के साथ रंग खेलता हुआ दिखाई दे तो फ़ौरन हिरासत में ले लो । नैतिकता की रक्षा करनी होगी, हर सूरत में करनी होगी ।” (15)

नाटक में वर्णित सामाजिक स्थिति की अराजकता की इन्तहा तब दिखाई पड़ती है जब किसी की अर्थी की चिता जलाने के लिए भी परमिट माँगा जाता है । और असली परमिट को जाली कह कर झूठ को सच सिद्ध किया जाता है और कहीं भी सुनवाई नहीं होती |

बेगुनाह को चोरी के झूठे आरोप में जेल में डाल दिया जाता है और अपनी बेगुनाही साबित करने के लिए जबरन अग्नि परीक्षा ली जाती है । यहाँ नाटककार ने पुलिस को क्रूरता की सभी हदें पार करते हुए दिखाया है :

” लाओ जी वो तप हुआ लोहे का गोला । हाथ पकड़ना इसके । कसके । चिल्लाये तो भी न छोड़ना । सिंकने देना पक्का । खाल के जलने की गंध आनी चाहिए, गंध !

ब्राह्मण बिबियाता है …। वह एकदम आर्ट स्वर में चीखता है । गोला छिटकाकर अलग गिराया जाता है । ब्राह्मण लुँज-पुँज होकर गिर पड़ता है, अधमरा-सा । घासीराम यह सब बड़ी दिलचस्पी से देख रहा है, हँस रहा है, मुस्कुरा रहा है, मूँछों पर ताव दे रहा है |” (16) इस तरह पुलिस अपनी कारगुज़ारी दिखने के लिए बेगुनाहों से ज़बरन गुनाह क़ुबूल करवाती है । घासी राम उस ब्राह्मण के दोनों हाथ काट कर पूना शहर के बाहर फिंकवाने का हुकुम जारी करता है । इस तरह घासीराम के खौफ से पूना नगरी थर थर कांपती है |

‘इण्डिया करप्शन एंव ब्राइवरी रिर्पोट’के अनुसार भारत में रिश्वत मांगे जाने वाले सरकारी कर्मचारियों मे 30 प्रतिशत की भागीदारी पुलिस तन्त्र की है। ज्यादातर पुलिस द्वारा रिश्वत प्रथिमिकी  दर्ज करवाने, आरोपी के खिलाफ मामला दर्ज करने मे कोताही बरतने या मामला न दर्ज करने तथा जाँच करते समय सबूतों को नजरदांज करने सम्बन्धी मामलों मे ली जाती है। रसूखदारों के दबाव मे काम करना तथा अवांछित राजनैतिक हस्तक्षेप को झेलना पुलिस अपना कर्तव्य समझने लगी है। हांलाकि पुलिस तन्त्र की स्थापना कानून-व्यवस्था को कायम रखने के लिये की गई थी तथा आज भी सामाजिक सुरक्षा तथा जनजीवन को भयमुक्त एंव सुचारू रूप से चलाना पुलिस तन्त्र का विशुद्ध कर्तव्य है। इस क्षेत्र में पुलिस को पर्याप्त लिखित एंव व्यवहारिक अधिकार भी प्राप्त है। भारत के राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक विकास, बढती जनसख्या, प्रौद्योगिकी का विकास, अपराधों का सफेद कॉलर होना इन तमाम परिस्थितियों के कारण पुलिस तन्त्र की जबाव देही के साथ जिम्मेदारी भी बढने लगी है। लेकिन भारतीय समाज में पुलिस की तानाशाहीपुर्ण छवि, जनता के साथ मित्रवत ना होना तथा अपने अधिकारी के दुर्पयोग के कारण वह आरोपो से घिरती चली गई। आज स्थिति यह है कि पुलिस बल समाज के तथा कथित ठेकेदारों, नेताओं तथा सत्ता की कठपुतली बन गई है। समाज का दबा-कुचला वर्ग तो पुलिस के पास जाने से भी डरने लगा है पुलिस वर्ग को तमाम बुराइयों तथा कुरीतियों ने घेर लिया है पुलिस में भ्रष्टाचारी और अपराधी करण के कई मामलें हमारे सामान्य जीवन में सामने आते रहते है। चूंकि पुलिस के पास सिविल-समाज से दूरियाँ बनाये रखने और उनके ऊपर असम्यक प्रभाव बनाये रखने की तमाम व्यवहारिक शक्तियाँ है तो साधारण वर्ग आवाज उठाने की जहमत नही रखता। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की सरकार में तो पुलिस भर्ती प्रक्रिया में ही भ्रष्टाचार का बढ़ा मामला सामने आया था तथा बिहार में भी आरोप लगे थे कि कुछ अधीनस्थ पुलिस कर्मचारी प्रोन्नति के लिये अपने उच्च अधिकारियों को खुश करने में रिश्वत का सहारा ले रहे थे।

  1. पदलोलुप्ता :

पदलोलुप व्यक्ति अपने चरित्र से कितना गिर सकता है इसे दिखने के लिए नाटककार ने घासीराम को अपनी फूल सी बेटी को नाना की हवस का शिकार बनाते हुए दिखाया है । वह कोतवाल के पद की प्राप्ति के लिए अपनी बेटी ललिता गौरी का सौदा नाना के साथ करता है | वह पद प्राप्त करने के लिए इस हद तक गिर जाता है कि अपनी बेटी ललिता गौरी को नाना फड़नवीस के आगे चारे के रूप में इस्तेमाल करता है। वह नाना फडनवीस को अपनी बेटी देने के बदले कोतवाल का पद प्राप्त करता है। इस बात की पुष्टि निम्न उदाहरण से होती है –

“घासीराम :’‘ठीक ! श्रीमान,रिआया का मुँह बंद करने के वास्ते मुझे शहर पूना का कोतवाल मुकर्रर कर दें।“ (17)

नाना : कोई और तरकीब बताओ –

घासीराम : तरकीब हो या तरतीब,जो है,यही है; अगर ये नहीं है तो ललिता गौरी भी नहीं है। वो आइंदा आने वाली नहीं है। ‘‘(18)

पदलोलुप्ता की दृष्टि से भी यह नाटक प्रासंगिक प्रतीत होता है क्योंकि आधुनिक समय में भी वयक्ति पद के लालच में किसी भी हद तक गिर जाता है। अपनी बेटी,पत्नी आदि की इज्ज्त की परवाह नहीं करता।

  1. नैतिकता का पतन :

नाना फड़नवीस घासीराम की बेटी ललित गौरी को प्राप्त करना चाहता है। जो कि बहुत ही कम उम्र की है। वह कहता है –

‘अरी, तू हमारे लिए बेटी की तरह है,पडोसी की।’(19)

“हमें तुझ पे प्यार आ रहा है। आहाहा ! ये तुम्हारा शरमाना – जान तुम पर निसार है; ये बन्दा तावेदार है वस्ल का तलबगार हूँ; तेरे इश्क में प्यारी बेकरार हूँ. मुझसे बेकली सही ना जाए, आ ! मेरे सीने से लग जा। ” (20)

वह घासीराम को उस लड़की के विषय में पूछता है कि –

“वो मिलेगी? मिलेगी वो? आह क्या कहने है उस पुख्ता ठोस ईमारत के रे ! तूने देखा था उसे? उभारदार, मुलायम,रसभरी और नरम – ओहोहोहो ! इतनी छुई अंग्रेजी पर ऐसी एक नही। इसकी सानी नहीं रे ! कोन थी?

घासीराम कहता है – ‘कोई हो, हुकुम दे तो खिदमत में पेश कर दूँ।“ (21)

इससे घासीराम के चरित्र की नैतिक पतन दृष्टिगोचर होती है। वह पद प्राप्त करने के लिए अपनी बेटी को ज़रिया बनाता है। वह अपने बारे में कहता भी है –

” गौर से देखो, कैसे अपनी लाड़ली बेटी ललिता गौरी को इस दरिन्दे की दावत बनाया है मैंने देखो इस बाप को, जो अपनी पेटजोई बेटी से पेशा करता है। देख लो, कैसे मेरी बिटिया हरजाई हुई जाती है। वो ठूँठ खूसट देखो; कैसे उसकी नरम जवानी को चीथ – चीथकर चांभ रहा है। – थूको- मुंझ पे – मेरे मूँ में पेशाब करो ! चीर के दो कर दो मुझे – मगर मैं छोड़ूगा नहीं। इस पूना शहर में सूअर का राज कायम कर ही दम लूँगा।

” घर फूँक तमाशा देखो, सब लोग ताली बजाओ, ताली बजाओ।” (22)

इस प्रकार बदले की भावना घासीराम को इस कदर अँधा कर देती है कि वह सही – गलत सब जानते हुए भी अपनी बेटी को नाना के हवाले करता है। आज भी इसी प्रकार नाना एवं घासीराम जैसे अनेक वयक्ति है जो इस प्रकार के कार्य करते है नैतिकता का पतन आज भी उसी स्तर पर हो रहा है जैसा पहले हुआ करता था, अतः इस पक्ष से भी यह नाटक प्रासंगिक प्रतीत होता है।

5- राजनेताओं की कामवासना का खुला चित्रण :

नाना आज के राजनेता का प्रतीक है क्योंकि आज भी भारत के कितने ही राजनेता बलात्कार और नारी के शोषण के आरोप में जेल में सजा भुगत रहे हैं लेकिन सजा पाने वालों की संख्या आटे में नमक जितनी है | इस नाटक में नाना की छह पत्नियां होती है। फिर भी वह कम उम्र की ललिता गौरी को अपनी अवश हवस का शिकार बनाता है और अंत में उसे मार देता हैं फिर वह सातवां विवाह करवाता हैं:

यों तो नाना कर चुके छै शादियां,

किस्मत बुरी फलती नहीं छै बीबीयाँ

करना पड़ा है सातवां उनको वियाह

दिल नहीं भरता करें क्या, आह ! (23)

नाना की कामुतरता का इन पंक्तियों से पता चलता है –

उदहारण – ‘‘नाना की वधु एक किनारे कांपती हुई खड़ी हैं।

नाना सदरी उतारता है। कुरते की बांह मोड़ता है।

कामातुर है। वधु के पास जाकर छेड़छाड़ करता है। वह बहुत

डर जाती है। ‘‘(24)

नाना ‘’आऒ प्यारी,आऒ / हमारे पास आऒ, हमारे पहलू में समा

जाओ। (वह नजदीक नही आती ) कितना इंतज़ार कराओगी? वह डर

जाती है,ऒहों,तुम तो बेवजह शरमाती हो,यकीनन हम पै बिजलियां

गिराती हो। नाजुक बदन हो,लाज क्यों ओढ़े फिरो? हटाओ भी

,उतारकर अलग कर दो। ‘‘(25)

6- कुटिल राजनीती की दुनाली बंदूक

घासीराम कोतवाल नाटक नेताओं की धूर्त्तता की अद्भुत मिसाल पेश करता है । राजनेता अपना उल्लू सीधा करने में कितने माहिर हैं यह घासीराम कोतवाल नाटक से सिद्ध हो जाता है । इस सम्बन्ध में नाटक के पूर्वार्ध के अंत में नाना का निम्नलिखित कथन किसी व्याख्या की अपेक्षा नहीं रखता;

“ जाS, घसियारे, कल के छोकरे, तुझे बना दिया हमने कोतवाल ! जाS, नंगा होक नाच, बजा गाल, मगर इस नाना की चाल तू नहीं जानता । अरे मरदूद ! हमने भरी है बंदूक, राजनीतिवाली, दुनाली । पहले धमाके में चित्त हो जाएगी लज़ीज़ लौंडिया तेरी; दूसरे धमाके के साथ नाच उठेगी पुण्यनगरी पूरी । अबे घसिये ! तू बाहरी, परदेसी, हमने तुझे बख्शी है याँ की सबसे ऊंची कुर्सी । जानता है क्यों? ताकि तमाम साजिशें खुद ब खुद कट जाएं, बलबाईयों की धज्जियाँ उड़ जाएं ! अव्वल तो तुम उनमें शामिल हो नहीं सकते, हो भी जाओ तो काबिले एतबार नहीं हो सकते । क्यों? तुम बाहरी आदमी हो, हमारी दहलीज़ के टुकड़खोर कुत्ते हो । तुम्हरी जंजीर हमारे हाथ होगी; तुम्हें भी तो हमारी जरूरत होगी । घासीराम तुम चित्तपावन बम्हनों से बढ़कर ऐंठू होंगे, रॉब गांठोगे, धाक जमाओगे । पुख्ता बंदोबस्त करोगे, यों हमारी फ़िक्र मिटाओगे । हमारी गलतियां, भूलें तुम्हरे नाम होंगी, हम महफूज़ रहेंगे बदनामियाँ तुम्हरी होंगी । करने को हम भुगतने को हमारा कोतवाल |”

ukuk us?kkfljke dk mi;¨x cM+h /kwrZrk ls fd;k gS ij tc mudk jpk ßjk{klß iyVdj mUgh d¨ pqu©rh nsus yxrk gS r¨ ukuk gh mls u“V Hkh dj nsrk gS

नाटक के अंत में घासीराम के वध का हुकुम पुलिस एनकाउंटर जैसा है –

“ घासीराम का सर मूंड कर सिन्दूर छिड़का जाएगा । उसके बाद ऊँट पै उल्टा बिठाके जुलुस निकला जाएगा, पस्चात हाथी के पाँव से बांधकर घुमवाया जाएगा और सबके अंत में सूली पै चढ़ाया जाएगा |” (27)

इसके बाद नाना का सम्बोधन, ” इस पापी घासीराम की लाश को यहीं पड़ी रहने दो, सड़ने दो । गिद्धों को, कुत्तों को उसे चीथने दो । कीड़ों को खाने दो । उसकी लाश को जो उठाएगा उसे सख्त सजा दी जाएगी |….. इसलिए आज से, अभी से, तीन दिन तलाक शहर पूना में जश्न मनाया जाए, उत्सव मनाया जाए । यह हमारी आज्ञा है – ! ” (28)

निष्कर्ष रूप में यह सामने आता है कि आज के समाज में नाटक लिखने के समय से कोई फर्क नहीं आया है और ही घासीरामों की संख्या और ननाओं की संख्या में तीव्र वृद्धि हो रही है । समाज में तमोप्रधान वृत्तियों का बोलबाला है । ऐसा लगता है कि ईश्वर नहीं अपितु भ्रष्टाचार सर्व व्यापक है । हवा में कामवासना की तीखी ज़हरीली गंध व्यापक है । राजनेताओं की आँखों पर धृतरास्ट्र की तरह पट्टी बंधी है । जिस समाज स्थिति का अंकन तेंदुलकर ने एक अंकुर के रूप में प्रस्फुटित किया था वह अब कलकत्ते के बनियान ट्री की तरह फ़ैल गई है जिसकी जड़ें खोजने का कार्य अब असम्भव है । आज एक दिन भी ऐसा नहीं होता जब कोई दुष्कर्म या किसी भ्रष्टाचार का भंडाफोड़ नहीं होता । यह स्थिति बहुत ही चिंताजनक है । इसी के लिए कहा गया है कि ‘विनाशकाले विपरीतबुद्धि विनश्यन्ति ‘

references

  1. ज़ब्बार पटेल, निर्देशक का वक्तव्य, घासीराम कोतवाल, अनुवादक वसंत देव, नई दिल्ली : विद्या प्रकाशन, 2004, पृष्ठ 8
  2. विजय तेंदुलकर, घासीराम कोतवाल, अनुवादक वसंत देव, नई दिल्ली : विद्या प्रकाशन, 2004, पृष्ठ 6
  3. ज़ब्बार पटेल, निर्देशक का वक्तव्य, घासीराम कोतवाल, अनुवादक वसंत देव, नई दिल्ली : विद्या प्रकाशन, 2004, पृष्ठ 7
  4. विजय तेंदुलकर, घासीराम कोतवाल, अनुवादक वसंत देव, नई दिल्ली : विद्या प्रकाशन, 2004, पृष्ठ 30
  5. वही, पृष्ठ 30
  6. वही, पृष्ठ 30
  7. वही, पृष्ठ 39
  8. वही, पृष्ठ 39
  9. वही, पृष्ठ 41
  10. वही, पृष्ठ 57
  11. वही, पृष्ठ 58
  12. वही, पृष्ठ 58
  13. वही, पृष्ठ 60
  14. वही, पृष्ठ 63
  15. वही, पृष्ठ 65
  16. वही, पृष्ठ 71
  17. वही, पृष्ठ 52
  18. वही, पृष्ठ 52
  19. वही, पृष्ठ 45
  20. वही, पृष्ठ 45
  21. वही, पृष्ठ 46
  22. वही, पृष्ठ 48-49
  23. वही, पृष्ठ 77
  24. वही, पृष्ठ 79
  25. वही, पृष्ठ 79-80
  26. वही, पृष्ठ 53
  27. वही, पृष्ठ 95
  28. वही, पृष्ठ 98

एल. जी.बी.टी. पर आधारित मराठी नाटक-डॉ. सतीश पावड़े

0

एल. जी.बी.टी. पर आधारित मराठी नाटक

डॉ. सतीश पावड़े

एल.जी.बी.टी का अर्थ ‘लेसबियन’ (स्‍त्री-स्‍त्री संबंध)’ गे‘(पुरूष-पुरूष संबंध), ‘बायसेक्‍शुएल ‘(स्‍त्री-स्‍त्री, स्‍त्री-पुरूष और पुरूष-पुरूष संबंध) ‘ट्रान्‍ससेक्‍शुएल’(अर्थात स्‍त्री से पुरूष में अथवा पुरूष का स्‍त्री में लिंग परिवर्तन) आम तौर व्‍यापक स्‍तर पर इस प्रकार के व्‍यक्ति इन चार वर्गो में में विभाजीत किए जाते है।

इन चार वर्गो पर सर्वाधिक अर्थात 30 के करीब नाटक आज मराठी में लिखे गये है। लिंगभाव से संबंधित चरित्र ‘बृहन्नडा’ कृष्णाजी प्रभाकर खाडिलकर ‘संगीत सौभद्र’ मे पहली बार चित्रित किया गया. आधुनिक मराठी रंगमंच मे 1980 के दशक में जानेमाने नाटककार तथा भारतीय रंगमंच के श्रेष्‍ठतम हस्‍ताक्षर विजय तेंदुलकर ने अपने ‘मित्राची गोष्‍ठ’ नाटक द्वारा समलैंगिकता का प्रश्न हाशिये पर लाया । यह नाटक स्‍त्री समलैंगिकता (लेसबियन)पर आधारित था। उनके पश्‍चात सतीश आळेकर ने अपने ‘बेगम वर्बे’ नाटक में ‘ट्रान्‍सजेंडर ’ (एंड्रोजिनी ) के विषय को रखा । हालांकी इस नाटक में ‘स्‍त्री पार्ट’ करनेवाला पुरूष कलाकार कैसे धीरे धीरे स्‍त्रीत्‍व धारण करता है यह बताया है।

10906351 806108479447061 6345359076886899514 n

इन दो प्रमुख नाटक के अलावा ‘गे’ रिलेशनशीप दुष्‍यंतप्रिय (सारंग भाकरे), ‘एक-माधवबाग’ (चेतनदातार), ‘पुरूषोत्‍तम’ तथा ‘पार्टनर’ (बिंदुमाधव खिरे), ‘ऑफबीट’ (जमीर कांबळे), आदी कुछ प्रमुख नाटकों का मंचन राष्‍ट्रीय स्‍तर पर किये जा रहे है। ‘ट्रान्‍सजेंडर’ के रूप में ‘पुन्‍हा-पुन्‍हा वस्‍त्रहरण’ (नाथा चितळे) ‘तो ——ती——ते——‘(सुषमा देशपांडे, जमीर कांबळे), हिजडा (सागर लोधी ),जैसे नाटकों ने हिजडो के प्रश्न पर नाटक लिखे है। इनके अलावा एल.जी.बी.टी. से संबंधित विषयों को लेकर ‘मी पण माझे’ (दैवेंद्र लुटे), ‘छोटयाशा सुटीत’ तथा ‘पुर्णविराम’ ( सचीन कुंडलकर) ‘सहा बोटांचा तळ हात’ (अनिल देशमुख), ‘षस्‍ठय’ (संजय पवार), ‘बुद्धिबळ आणि झब्‍बू’ (च.प्र.देशपांडे), ‘अलिबाबा चालिस चोर’ जैसे नाटक अत्‍यंत गंभीरता से लिखे गये है।

किंतु इसके अलावा पुरूष वेश्‍याओं के प्रश्‍नपर लिखा गया ‘ एक चावट संध्‍याकाळ’, लेस्बियन संबधोपर लिखा गया ‘नवरा हवाय कशाला’ जसे पुरूष लै‍गिंकता पर लिखा गया ‘ शिश्‍नाच्‍या गोष्‍ठी‘ जैसे स्‍तरहीन नाटक भी लिखे और खेले गये है । जिन नाटकों का उल्‍लेख यहा किया गया है यह सभी नाटक केवल एल .जी.बी.टी के विषय पर लिखे गये है ।

कुछ और ऐसे नाटकों का यहा उल्‍लेख करना मुझे आवश्‍यक प्रतीत होता है, जो अपनी कथावस्‍तु और कलात्‍मक अभिव्‍यक्ति के स्‍तर पर विशेष उल्‍लेखनीय है। यह सभी नाटक सिधे तौर पर एल.जी.बी.टी. के प्रतिनिधित्‍व नही करते. बर्टोल्‍ट ब्रेख्त्त कि ‘माता धिराई’ लिंग से तो स्‍त्री है पर व्‍यक्तित्‍व, कर्तृत्‍व से पुरूष है। और गौरतलब है की यी भूमिका भी भारतीय रंगमंच के जानेमाने एक्‍टर मनमोहन सिंग ने निभाई थी। दुसरा नाटक है ‘अर्थातरंण्‍यास’ (रविंद्र इंगळे) जो प्रसिद्ध दलित लेखक बाबुराव बागुल के ‘सुड’नामक लघु उपन्‍यास पर लिखा गया है । जिसकी नायिका स्त्री लैंगिकता को दफन कर उपरी तौर पुरूष बन कर जीती है। ‘बिन बायांचा तमाशा’ जैसा लावणी का सुपरहीट कार्यक्रम सारे पुरूष कलाकार बेहतरीन ढंग से प्रस्‍तुत करते है ।

भारतीय नाटककार नाग बोडस का मराठी में अनुदित नाटक ‘नर-नारी’में नारी भूमिका निभानेवाले नट के नपुंसक होने की मानसिक प्रक्रिया को यह नाटक ‘हशिए’पर लाता है। इवा इन्‍सलर का मराठी में वंदना खरे द्वारा अनुदित नाटक ‘योनीच्‍या मनीच्‍या गुजगोष्‍ठी’, एल.‍जी.बी.टी. पर आधारित नाटकों का परिप्रेक्ष्‍यअधिक चिंतनशील बनाता है । इसके अलावा लिंगभाव के परिप्रेक्ष्‍य में ‘अवध्‍य’ (चि.त्र्यं.खानोलकर) ‘घासिराम कोतवाल’, ‘सखाराम बाईंडर’ (विजय तेंडूलकर) ‘वासनाकांड’, ‘गार्बो’, ‘सोनाटा’ (महेश एलकुंचवार) ‘रगतपिति’ (श्‍याम पेठकर) ‘हयवदन’(गिरीश कर्नाड) ‘चार चौघी’ (प्रशांक दळवी) ‘मी रेवती देशपांडे ’, एग्रेसिव’, ‘आली पाळी गुप चिळी’ ‘आईचे पत्र’, जैसे नाटकों की भी चर्चा की जा सकती है।

‘लिंगभाव’ की जो परिकल्‍पनाएं, परिभाषाएं तथा सिद्धांत नारीवादी चिंतको द्वारा प्रस्‍तुत किये गये है, वह क्‍या’ एल.जी.बी.टी. इन चार वर्गोंपर लागू होते है ? नारीवाद के परिप्रेक्ष्‍य में कुछ हद तक ‘लेसबियन’वर्ग समाविष्‍ट करने का प्रयास हुआ है। उदाहरण के तौर पर 1995 में बिजिंग में जो चौथी अंतरराष्‍ट्रीय महिला परिषद आयोजित की गयी थी, जिसमें एक सत्र लेसबियन स्त्रियों हेतु आयोजित किया गया था। इसके पूर्वभारत में भी ‘तिरूपति’ में 1994 में संपन्‍न भारतीय स्‍त्री आंदोजन के अधिवेशन में कैनेंडियन लेसबियन कार्यकर्ता एलिसन ब्रेवर के मुख्‍य उपस्थिति में ‘लेसबियन’ से संबंधित विषय पर विशेष संगोष्‍ठी का आयोजन किया गया था। तात्‍पर्य नारिवादी परिप्रेक्ष्‍य में एल. अर्थात लेसबियनीटी का अभ्‍यास, आलोचना, समीक्षा, लिंगभाव (जेंडर) आधार पर संभव है। किंतु ‘गे’ ‘बायसेक्‍सुएल’ और ट्रान्‍सजेंडर्स’ से संबंधित प्रश्‍नों को क्‍या हम इस ‘लिंगभाव’ अथवा ‘जेंडर’ की दृष्टिकोन से विश्‍लेषित कर सकते है? ‘गे’ अंत: पुरूष है । ट्रान्‍सजेंडर भी अपूर्ण स्त्री अथवा पूर्णत: पुरूष है। तो क्‍या हम इन पूर्व या वर्तमान पुरुषों को जो नारिवादी ‘लिंगभाव’की परिकल्‍पना एवं परिभाषा में विश्‍लेषित कर सकते है। क्‍योंकि यह सारी अवस्‍थाएं समाल संस्‍कृति निर्मित नही बल्‍की जैविक (बायोलॉजी‍कल)है। और हमारा नारीवादी सिद्धांत ‘लिंगभाव’को जैविक जैविक नही अपितु पुरूषप्रधानता से निर्मित सामाजिक सांस्‍कृतिक व्‍यवस्‍था उपादानों,साधनों-संसाधना से मंडित मानता है।

‘मित्राची गोष्‍ठ’ नाटक में पहली बार ‘लेसबियन प्रोटोगॉनिस्‍ट’ चरित्र की रचना तेंडूलकरने की है। यह नाटक उस समय का समय से आगे कहॉ जा सकता है एैसा नाटक था । इस नाटक में तेंडूलकरने नाट्यात्‍मकता, विषय का अलगपण, तथाकथित विद्रोह आदी के चलते लेसबियनीटी से संबंधित अपेक्षित कर्न्‍सर्न् को गवा दिया। इसलिए उस नाटक अंत सकारात्‍मक नही बल्‍की नकारात्‍मक पद्धती से किया गया। इसके बावजुद 1980 के दशक के सामाजिक व्‍यवस्‍था और अवस्‍था का दर्शन यह नाटक करवाता है। जिस समय लेसबियानीटी अथवा होमोसेक्‍सुएलिटी एक विकृति अथवा सामाजिक अपराधसे जादा कुछ नही था। ‘सुमित्रा-नमा’ की यह प्रेमकहाणी को एक अभिशाप के रूप में इस नाटक में प्रस्‍तुत किया गया ।

समाज में लिंग पर आधारित पहचान के कारण समलैंगीक समुह के अपनी पहचान से वंचित होना पडता है। लिंगपर आधारित पहचान की मांग जमीर कांबळे का नाट‍क ‘ऑफ बीट’ करता है। सामान्‍य वर्ग के कलाकार नही मिलने के कारण अतत: यह नाटक समलैंगिक समुह द्वारा खेला गया। माध्‍यमों द्वारा इस नाटक की काफी सराहना की गयी। नारीवाद में ‘एड्रोजिनी’ संज्ञा का उल्‍लेख मिलता है। इस संज्ञा के परिप्रक्ष्‍य में सतीश आळेकर का नाटक ‘बेगम बर्वे ‘ सटीक बैठता है। इस संज्ञा के अनुसार बर्बे नामक चरीत्रमें स्‍त्री-पुरूष दोनों के गुणविशेष पाये जाते है। इस तरह के चरित्र बायोसेक्‍शुएल वर्ग में पाए जाते है। आळेकर ने नाट्यात्‍मक और कलात्‍मकता के साथ अपने कर्न्‍सर्न को प्रभावी रूप से अभिव्‍यक्‍त किया है।हालही में ‘मी रेवती देशपांडे ‘ नामक प्रोफेशनल नाटक आय है , जिसमे एनड्रोजिनी अथवा बायो सेक्सूअल का तत्व उपरी तौर पर दर्शया गया है , पर यह मूल प्रश्न को स्पर्श तक नाही करता. केवल मनोरंजन के नाम पर एक स्तर्हीन और भोंडापण इस नाटक मे दिखाई देता है ,कारण है लेखक का इस प्रश्न के प्रति कन्सर्न नाही होना ।

‘तो-ती-ते’ तथा ‘पुन्‍हा पुन्‍हा वस्‍त्रहरण’ यह नाटक हिजडों (ट्रान्‍सजेंडर्स) की सत्‍यकथा एवं घटनाओं पर आधारित नाटक है । इस में हिजडों के शोषण तथा प्रताडनाओं को अभिव्‍यक्‍त किया गया है। दो जेंडर्सके बिच पिसता थर्डजेंडर ‘तृतीयपंथ’ (ट्रान्‍स जेंडर्स ,नो जेंडर ,अथवा ब्‍लॅक या ब्लॅक जेंडर.फोर्थ जेन्डर) पर आधारीत यह नाटक बहुतही मर्मस्‍पशी है। सम लैंगिकता के आंदोलन से जुडे बिंदू माधव खिरे ने पुरूषोत्‍तम और पार्टनर जैसे नाटक लिखे । यह नाटक निश्‍चित रुप से कन्‍सर्न के साथ लिखे गये है। पुरुषोत्तम नाटक मे उन्होने समलैंगिकता कि वकालत ही नही कि बल्की सह जीवन ,विवाह हेतू कानून और समाज के मान्यता का भी आग्रह किया है। ‘ऑफबिट’के लेखक जमीर कांबळे भी अपने आपको जाहिर रुप से इसी वर्ग से मानते है और गौरव के साथ उसके कर्न्‍सन की घोषणा भी करते है। चर्चित सभी नाटकों में ‘दुष्‍यंतप्रिय’ यह नाटक नाट्यात्‍मकता, कलात्‍म्‍कता, प्रतिबद्धता और कर्न्‍सन आदी सभी दृष्टिकोन से एक श्रेष्‍ठ नाटक माना जा सकता है। यह नाटक ‘ सारंग भाकरे ने लिखा और निर्देशित भी किया है।

मुलत: यह नाटक गे संबंधों के श्रेणी में आता है। इसे ‘लवस्‍टोरी ऑफ द मॅन’ भी कहा जाता है। दुष्‍यंत – शंकुतला प्रसिद्ध मिथक अथवा मिथककथा पर इस नाटक की रचना की गयी है। नाटक में भूमिका करनेवाले दो पुरुषों की यह कहाणी है। जिसमें से एक पुरुष प्रॉक्‍झी के रुप में शंकुतला का रोल कर रहा होता है। प्रेम-प्रणय के दृश्‍यों को अभिनित करते वे दोनों प्रगाढ प्रेमसूत्र में बंध जाते है। यह नाटक यही पर खत्‍म नही होता बल्‍की दृष्‍यंत शंकुतला की ‘लिजंडरी’ प्रेमकहाणी का परिप्रेक्ष्‍य समलैंगिकसंबंधों के परिप्रेक्ष्‍यमें उसके निर्वचन(इंटरप्रिटेशन) के साथ रखा गया है।

अभिज्ञान शांकुतल नाटक के परिप्रेक्ष्‍य में दृष्‍यंत- शंकुतला के मिथकीय प्रेमप्रसंग का अन्‍वयार्थ सर्जनशीलता के साथ नाटककार ने स्‍पष्‍ट किया है। वहां स्‍त्री–पुरूष संबंध है तो यहां पुरूष-पुरूष संबंध है। फिर भी लिंगभाव का एक नया अर्थ देने का प्रयास यह नाटक करता है। अभिज्ञान शांकुतम का नाट्यविधान, कथावस्‍तु, प्रसंगों को यहां इस नये परिदृश्‍य में रखा गया है। जैसे दुष्‍यत- शंकुतलाका प्रेम सार्वजनिक होते ही मुल दुष्‍यंत के जैसेही इस नाटकमें काम करनेवाला दुष्‍यंत पुरूष शंकुतला को पहचाननेसे इनकार करताहै। अंतत:अभिज्ञान शांकुतल में जिस तरह’ हैपी एन्‍डींग’ होता है, उसी प्रकार पुरूष शंकुतला और पुरूष दुष्‍यंत हमेशा के लिए एक हो जाते है। लिंगभाव से परे जाकर मिथक का यह आधुनिक निर्वचन सर्जनशीलता और गे संबंधों के प्रति कर्न्‍सन का अच्‍छा उदाहरण है। ‘सेम मिथिक फ्रेमवर्क’ इस नाटककी खासियत है। प्रेम विरह स्‍वयं को बचाने का प्रयास दबाब में अस्‍वीकार की कृति तथा अंत में स्‍वीकार आदी सूत्रों का यह योग्‍य तरिके से अनुपालन किया गया है । एक प्रकार से इसे ‘मिथिक प्रर्पोशन ऑफ द टेल’ भी कहा गया है। प्रेम की एक सर्वमान्‍य श्रेष्‍ठतम, सर्जनशील साहित्‍य‍िकृति के मानदंडो को लेखक द्वारा पुर्नरचना कर उसका गंभीरता के साथ निर्वचनही नही बल्‍की पूर्ननिर्वचन भी किया है। समलैंगिकता के विषयों को भी गंभीरता और प्रतिबद्धता के साथ वगैरे किती भ्रांति के अभिव्‍यक्‍त किया है।

अपने अपने तरिके से यह सभी नाटक एल.जी.बी.बी. सं संबंधित विषयों को कर्न्‍सन के साथ गंभीरता के साथ अपनी भूमिका के साथ अभिव्‍यक्‍त करते है । उनके एल.जी. बी.टी. यथार्थ को स्‍वीकार कर उसकी सार्वत्रिक रुप से घोषणा करते है। जो लेखक इस श्रेणी में नहीं होने के बाद भी मानवता के आधार पर एल.जी.बी.टी. समुहों के हक और अधिकार का समर्थन करते है। इस संदर्भ में चेतन दातार के ‘एक-माधवबाग’ नाटक का मैं विशेष रुप से उल्‍लेख करना चाहुंगा। यह एक ऐसे विधवा स्‍त्री की कहाणी है। जो वगैर पती के अपने बच्‍चों को बडे जद्योजहद के साथ लालनपालन कर रही है। फिर अचानक उसे पता चलता है कि उसका होनहार बेटा ‘गे ‘,है समलिंगी है। इसके पश्‍चात वह मॉ की जो भावनिक संघर्ष की यात्रा है वह बहुत प्रभावी है। अतत:अपने बेटे को वह उसके समलैंगिक व्यक्तित्व के साथ हिंमत के साथ स्‍वीकारती भी है और उसका जैविक, वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्‍य में समर्थन भी करती है। चेतन दातार न ‘गे’ थे ना किसी ऐसे आंदोलन के वे कार्यकर्ता थे । इसके बावजुद एक कर्न्‍सन के साथ मानवता के साथ, मानवीय मुल्‍यों के साथ,प्रतिबद्धता के साथ उन्‍होंने एक-माधवबाग यह एकल नाट्य प्रयोग के रुप में उसकी रचना की, जिसे मोना आंबेगावकर जैसी मशहुर अभिनेत्री अपने बेजोड अभिनय के साथ देश-विदेश में मंचित करती है।

यह सभी नाटकएक नाटक विधा के रुप में भी परिपूर्ण है। प्रयोग धर्मिता के साथ नाट्यरचना की सभी इकाईयों के साथ नाट्यात्‍मक मूल्‍य के साथ नाट्शिल्‍प और शैली के साथ अपनी पूर्णता के साथ अभिव्‍यक्‍त होते है। इसलिए मंचीय क्षमता भी उनमें भरपूर है । लेकीन क्‍या कभी यह नाटक अपने ‘ब्‍लाईंड’ अथवा ‘ब्‍लँक जेंडर’ जैसी स्थिति में मुख्‍यधारा’के नाटक के रुप में स्‍वीकारे जाएंगे? या उन्‍हें भी दर्शक द्वारा प्रचलित सामाजिक मान्‍यताओं का शिकार होना पडेगा यह भी एक महत्‍वपूर्ण प्रश्‍न है।

फिर भी कुछ प्रश्‍न शेष है। नारिवादी विमर्श में सिमॉन बुवा नारी के दोयम दर्जे की श्रेणी कि आलोचना करती है। इस दोयम दर्जे के खिलाफ लढ़ती है, लढने की प्रेरणा देती है। इस परिप्रेक्ष्‍य में एल जी बीटी को कौन से श्रेणी रखा जाए और क्‍यो। क्‍या नारी को एक मनुष्‍य/मानव समझा जाने की मांगइस समुह के लिए लागू हो सकतीहै। दूसरा प्रश्‍न है, लिंग पर आधारित श्रम विभाजन के तीन महत्‍वपूर्ण अंग है, उत्‍पादन ,पुनरउत्‍पादन तथा समुदाय सहतत्‍व, इस वर्ग के साथ एल.जी .बी.टी. को कैसे जोडा जा सकता है।

अत: यह वर्ग भी परंपरागत पितृसत्‍ता प्रधान, पुरुषसत्‍ता प्रधान व्‍यवस्‍था का शिकार है। सामाजिक मान्‍यता देने में सबसे बड़ा रोडा यही व्‍यवस्‍था है। ऐसे स्थिति में नारिवाद इस अवस्‍था को कैसे देखता है। इस एल.जी.बी.टी. समाज की और कैसे लिंगभाव से देखा जाना चाहिए। क्‍या जेंडर ब्‍लाईड की संज्ञा हंशिए पर आएगी। अथवा सिमांतीकरण का यह एक उपेक्षित प्रश्‍न रह जाएगा ?उत्‍पादकता के मुल्‍यों के आधार पर इस वर्ग की श्रेणी स्‍थान क्‍या होगा। गृहिणी, पारिवारिक सदस्‍य, स्‍वयत्‍त उत्‍पादन के रुप में हम इस वर्ग को कैसे देख सकते है ? यह मुल प्रश्न है ,जिस पर चर्चा होना आवश्यक है ।

संदर्भ – संदर्भ ग्रंथ सूची

  1. लिंगभाव का मनो‍वैज्ञानिक अन्‍वेषण प्रतिच्‍छेदी क्षेत्र – लि‍ला क्षेत्र वाणीप्रकाशन, नई दिल्‍ली प्रथम संस्‍करण -2004
  2. मी हिजडा—मी लक्ष्‍मी- लक्ष्‍मीनारायण त्रिपाठी मनोविकास प्रकाशन, पुणे प्र.आ. 2012
  3. भरारी (चवथी जागतिक महिला परिषद, बिजिंग -1995) – डॉ. सीमा साखरे सीमा प्रकाशन, नागपुर प्र.आ. 1995
  4. लिंगभाव – समजून घेताना –कमला भसीन (भाषांतर श्रृती तांबे) लोकवाड़ प्रकाशन गृह ,मुबंई प्र.आ. 2010

अप्रकाशित नाट्यालेख

  1. दुष्‍यतप्रिय – सारंग भाकरे
  2. एक, माधवबाग – चेतन दातार
  3. पुरूषोत्‍तम – बिंदु माधव खिरे
  4. ऑफ बीट – जमीन कांबळे
  5. पुन्‍हा पुन्‍हा वस्‍त्रहरण – नाथा चितळे

(इसके अलावा ‘गुगल’से प्राप्‍त विविध नाटकों की आलोचनाएं व अन्‍य सुचनाएं )

डॉ. सतीश पावड़े

असिस्‍टेंट प्रोफेसर

नाट्यकला एवं फिल्‍म अध्‍ययन विभाग

म.गां.अं.हि.वि.,वर्धा

भ्रमणध्‍वनि – 09372150158

ई मेल –satish_pawade@yahoo.co.in

हिंदी साहित्य और सिनेमा-अजय कुमार चौधरी

0
two reels
Photo by Noom Peerapong on Unsplash

हिंदी साहित्य और सिनेमा

अजय कुमार चौधरी

पहले मैं आपको दो बातें स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि सिनेमा और साहित्य का धरातल अलग-अलग है | सिनेमा शुध्द मनोरंजन प्रधान होता है जिसमें दर्शकों के मांग का ख्याल रखा जाता है, दर्शक को जो चाहिए फिल्म इंडस्ट्री वहीं परोसता है जिसका सीधा संबंध व्यवसाय से होता है,जबकि साहित्य संवेदना और अनुभूति प्रधान होता है, साहित्य दर्शकों के मांग पर नहीं बल्कि साहित्यकार अपनी निजी संवेदना और अनुभूति को केंद्र में रखकर समाज के यथार्थ रूप को सामने लाने का प्रयास करता है | दो धरातल पर होने के बावजूद साहित्य और सिनेमा कई विंदुओं पर मिल भी जाता है | सिनेमा कल्पना प्रधान है ,भावों की अभिव्यक्ति के लिए ऐसे दृश्यों का निर्माण कर दिया जाता है जो शब्दों के द्वारा संभव नहीं है | वहीं साहित्य शब्दों के माध्यम से जिस वातावरण का निर्माण करता है उसे दृश्यरुप में लाना फ़िल्मकारों के लिए कभी –कभी चुनौती भी बन जाती है | साहित्यकार शब्दों के जिस वातावरण का निर्माण करता है उसे पाठक अपनी-अपनी कल्पना द्वारा अलग-अलग भाव और दृश्य मन में बनाते हैं |जबकि फ़िल्मकर द्वारा तैयार किया गया वातावरण दर्शकों के लिए एक जैसा होता है | फ़िल्मकार अपने अनुभव के द्वारा साहित्य से ली गई सामाग्री का ज्यों का त्यों रूपान्तरण नहीं कर पता है या करना नहीं चाहता है क्योंकि वह साहित्य को फिल्म के रूप से परोसना चाहता और साहित्य फिल्म के साँचे में पूर्णरूप से उतार नहीं पता और यहीं से साहित्य और सिनेमा का अंतर्संबंध में विलगाव उत्पन्न हो जाता है |फिल्म समीक्षक विमलेंदु विमलेंदु जी ने साहित्य और सिनेमा के अंतर्संबंध को स्पष्ट करते हुए कहते है कि1 “साहित्य और सिनेमा का सम्बंध भी दो पड़ोसियों की तरह रहा. दोनो एक दूसरे के काम तो आते रहे लेकिन यह कभी सुनिश्चित नही हो पाया कि इनमे प्रेम है या नही.|”

सिनेमा ने अपने आरंभिक चरण में साहित्य से ही प्राण-तत्व लिया. यह उसके भविष्य के लिए ज़रूरी भी था. दरअसल सिनेमा और साहित्य की उम्र में जितना अधिक अंतर है, उतना ही अंतर उनकी समझ और सामर्थ्य में भी है. विश्व सिनेमा अभी सिर्फ 117 साल का हुआ है. साहित्य की उम्र से इसकी तुलना की जाय तो यह अभी शिशु ही है साहित्य के सामने.” उदाहरण के लिए अभी हाल ही में एक मूवी आई थी ‘बाहुबली’ | इस फिल्म में जिस तकनीक के प्रयोग से जिस वातावरण का निर्माण किया गया है उसे हूबहू साहित्य में उतार पाना बड़े से बड़े लेखकों के चुनौती है |ऐसे जगह पर आकार ही साहित्य अपनी सीमा का जान पाती है |

प्रेमचन्द के ‘ गोदान ‘ पर बनी फिल्म को छोड़ दें तो रेणु की कहानी पर बनी ‘तीसरी कसम’ ने दुनिया को कुछ अमर पात्र दिये. महाश्वेतादेवी की कहानी पर बनी ‘रुदाली’ के दृश्य अविस्मरणीय हैं. विमल मित्र के उपन्यास पर बनी ‘साहब,बीवी और गुलाम’, टैगोर की कहानी-‘नष्टनीड़’ पर सत्यजीत राय की फिल्म ‘चारुलता’, सृजन के नये आयामों की तलाश करती हैं.

http://2.bp.blogspot.com/-2APANWqqQnY/VXubMKQKsxI/AAAAAAAAJFg/gMB_hpjowy8/s200/usne_kaha_tha_1324470687.jpg

सिनेमा को मण्टो का साथ लेना पड़ा. मण्टो की लेखनी से ‘किसान कन्या’, ‘मिर्ज़ा गालिब’, ‘बदनाम’ जैसी फि़ल्में निकलीं. प्रेमचंद और अश्क भी इस दौर में सिनेमा से जुड़े और मोहभंग के बाद वापस साहित्य की दुनिया में लौट गए. बाद में ख्वाजा अहमद अब्बास, पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र, मनोहरश्याम जोशी, अमृतलाल नागर, कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव, रामवृक्ष बेनीपुरी, भगवतीचरण वर्मा, राही मासूम रज़ा, सुरेन्द्र वर्मा, नीरज, नरेन्द्र शर्मा, कवि प्रदीप, हरिवंशराय बच्चन, कैफी आज़मी, शैलेन्द्र, मज़रूह सुल्तानपुरी, शकील बदायूँनी इत्यादि ने भी समय-समय पर हिन्दी सिनेमा में किसी न किसी रूप में अपनी आमद दर्ज कराई.

बांग्ला लेखक शरतचंद्र के उपन्यास ‘देवदास’ पर हिन्दी में चार फिल्में बनीं और कमोबेश सभी सफल रहीं. प्रेमचन्द की कहानी ‘शतरंज के खिलाड़ी’ पर सत्यजीत रॉय ने इसी नाम से फिल्म बनाई, जो वैश्विक स्तर पर सराही गई. भगवतीचरण वर्मा के अमर उपन्यास ‘चित्रलेखा’ पर भी फिल्में बनीं, जिनमें एक सफल रही. बाद में साहित्यिक कृतियों पर आधारित फिल्मों को आर्ट फिल्मों के खांचे में रखकर इनका व्यावसायिक और हिट फिल्मों से अलगाव कायम करने का प्रयास किया गया, जिससे ऐसी फिल्मों का आर्थिक पहलू प्रश्नचिह्नांकित हो गया और फिल्मकारों ने साहित्यिक कृतियों पर फिल्म बनाने से परहेज करना शुरू कर दिया.

. हालांकि अमिताभीय युग में भी सत्यजीत रॉय, मृणाल सेन, कमाल अमरोही, ऋषिकेश मुखर्जी, बासु भट्टाचार्य, श्याम बेनेगल, एम. एस. सत्थू, एन. चंद्रा, मुजफ्फर अली, गोविन्द निहलानी, आदि ने अपने-अपने स्तर से साहित्य, सिनेमा और समाज का त्रयी में सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयास किया लेकिन ये सभी चाहे-अनचाहे ‘आर्ट सिनेमा’ में बँधने को बाध्य हुए.

एक कारण और भी था कि इस दौरान साहित्यिक कृतियों पर बनने वाली फिल्में एक-एक कर असफल होने लगी थीं. प्रेमचंद की रचनाओं पर बनीं ‘गोदान’, ‘सद्गति’, ‘दो बैलों की कथा’, फणीश्वरनाथ रेणु के उपन्यास पर बनी ‘तीसरी कसम’, मन्नू भंडारी की रचनाओं पर आधारित ‘यही सच है’, ‘आपका बंटी’ और ‘महाभोज’, शैवाल की कहानी पर आई फिल्म ‘दामुल’, धर्मवीर भारती के उपन्यास पर आधारित ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’, चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ की कहानी पर आधारित ‘उसने कहा था’, संस्कृत की रचना ‘मृच्छकटिकम्’ पर आधारित ‘उत्सव’, राजेंदर सिंह बेदी के उपन्यास पर बनी ‘एक चादर मैली सी’ आदि का असफल होना सिनेमा और साहित्य से दूरी की एक बड़ी वजह बन गया.

साहित्य और सिनेमा के अन्तर्सम्बन्धों पर गुजराती फिल्म समीक्षक बकुल टेलर ने बेहद सारगर्भित टिप्पणी की है. उनका कहना है, “साहित्यिक कृतियों पर बनी फिल्म अपने आप अच्छी हो, ऐसा नहीं होता. वास्तविकता यह है कि साहित्यिक कृति का सौन्दर्यशास्त्र और सिनेमा का सौन्दर्यशास्त्र अलग-अलग हैं और सिनेमा सर्जक भी साहित्यकृति के पाठक रूप में साहित्यिक आस्वाद तत्वों पर मुग्ध होकर उनका सिनेममेटिक रूपांतरण किए बगैर आगे बढ़ जाते हैं.“

बंकिमचंद्र की कृति पर बनी ‘आनंदमठ’, विमल मित्र कृत ‘साहब बीबी और गुलाम’, आर. के नारायण के अंग्रेज़ी उपन्यास पर बनी ‘गाइड’, उडि़या लेखक फकीरमोहन सेनापति की रचना पर बनी ‘दो बीघा ज़मीन’ और मिर्ज़ा हादी की उर्दू कृति पर बनी ‘उमराव जान’ फिल्मों की सफलता का सबसे बड़ा कारण परिवेश की समनुरूपता रहा है

चलचित्र और साहित्य के अंतर्सम्बन्ध पर अनेक विचारकों ने अपने मत दिए हैं:-

उमेश राठौर लिखते हैं, ‘फिल्म और साहित्य‘ के परस्पर लगाव का प्रश्न सदैव से ही जीवन्त रहा है। इस सम्बन्ध को विकसित करने में गीत, कविता, नाटक और उपन्यास की चर्चा भी अक्सर होती रही है, लेकिन फिल्में केवल उपन्यासों पर ही नहीं बनी-कथाओं पर भी निर्मित की गई।7

सम्पादक ‘मार्यर शामसी‘ ने चलचित्रों को ‘यांत्रिकी, कला और तकनीकी‘ का मेल मानते हुए लिखा है,“Cinema is a highly mechanical medium. It uses many mechanical devices like cameras, microphones, dubbing machines, editing machines etc. Film is a product of intraction between machines, artistic and technical people”. 8

वे आगे लिखे हैं, “In the beginning, it was considered as a medium of cheep entertainment, but now it was come to be considered as art form. Interactual and serious thinkers have associated themselves with cinema”. 9

‘जयदेव तनेजा‘ के शब्दों में, ‘‘कला प्रयास है, प्रयोग है, सृष्टि है, जीवन है-वस्तु नहीं है। रंग कला भी इसी अर्थ में एक उत्सव है, एक अनुष्ठान है- जीवनमय है, जीवनदायी है।‘‘10

वे पुनः लिखते हैं, ‘‘इसमें कोई संदेह नहीं कि अनेक कथा-कृतियाँ रंगमंच और सिनेमा के माध्यमों से सफलतापूर्वक रूपांतरित हुई हैं।‘‘11

रंगमंच और सिनेमा के प्रबुद्ध अभिनेता बलराज साहनी का कथन है, ‘‘फिल्म-कला को ‘आॅपरेशन टेबल‘ पर रखिए और उसकी चीरफाड़ कीजिए तो पता चलेगा कि फिल्म-कला दरअसल एक कला का नाम नहीं, बल्कि अनगिनत कलाओं के समूह का नाम है।‘‘12

सम्पादक डाoनाल्ड एच0 जान्सटान के अनुसार, “Cinematic adaptation of books, players, poems, diaries and comics demonstrate films profuse influence on print media”. 13

पुनश्च, “In addition to book adaptations, film is, able to extend the run of a play indefinitely through its climatic adaptation of it.” 14

पुनश्च, “Hence, film has a profound influence on print media, giving them a visual dimension that extends the original text’s popularity and scope”. 15

‘सुधीर ‘सुमन‘‘ के शब्दों में, ‘‘सिनेमा मनुष्य के कला के साथ अंतर्सम्बन्ध का दृश्यरूप है। मनुष्य के जीवन में जो सुंदर है उसके चुनाव के विवेक का नाम सिनेमा है।‘‘16

इस प्रकार अनेक विद्वानों ने चलचित्र एवं साहित्य के मध्य गहन अंतर्सम्बन्ध स्वीकार किए हैं। एक सत्य यह भी है कि चलचित्र में विविध कलाओं का समाहार सरलता से सम्भव है। यदि हम साहित्य के चलचित्र रूपांतरण का अध्ययन करे तो भी चलचित्र की उपादेयता स्वयं सिद्ध होती है।

ब्रज के संस्कार लोक-गीतों में निहित नारी वेदना-डॉ. बौबी शर्मा

0
green wooden window painting
Photo by Abhinav Srivastava on Unsplash

ब्रज के संस्कार लोक-गीतों में निहित नारी वेदना

डॉ. बौबी शर्मा

सर्वप्रथम ब्रज शब्द का प्रयोग वेदों में दृष्टिगोचर होता है जहाँ उन शब्दों से किसी भौगोलिक सीमा का तो आभास नहीं होता है परन्तु किसी खास क्षेत्र विशेष की ओर अवश्य संकेत करते हैं। ब्रज का शाब्दिक अर्थ है- ‘‘गौशाला, गोष्ठ-गवामय, ‘ब्रज’ वृधि कृष्णव राधौ आद्रिव’’1, ‘‘ब्रज गच्छ गोष्ठम’’2, यत्र गावो भूरि श्रृंगा आयासः’’3 और उन सबसे ब्रज के सन्दर्भ में संस्कृत उक्ति बनी- ’’ब्रजान्ति गावों यस्मिन्निति ब्रज।’’ अर्थात जहाँ गायें विचरण करती हैं या चरती हैं, वह ब्रज है। वस्तुतः ब्रज भगवान् कृष्ण की लीला भूमि का परिचायक है। ब्रज का कृष्ण गोप-गोपी से घनिष्ठ सम्बन्ध है। यही कारण है कि वेद ब्रज को ‘गोलोक’, गोलोकाख्यधाम् गोकुल आदि नामों से सम्बोधित करते हैं।

श्री कृष्ण की लीला-भूमि इस ब्रज का विस्तार कितना है? यह निश्चय करना बड़ा ही मुश्किल है। इसका कारण यह है कि इस सन्दर्भ में विद्वानों में मतैक्य नहीं है। डॉ. सत्येन्द्र के अनुसार- ‘‘ब्रज की ऐतिहासिक और भौगोलिक सीमाएँ आज भी अनिश्चित एवं विवादास्पद है, किन्तु ब्रज की छाप समस्त भारत पर पड़ी है, इसमें कोई सन्देह नहीं कर सकता।’’4 ब्रज नामकरण से पूर्व इसके कई नाम है, यथा-मध्यदेश, ब्रह्मर्षि- ब्रह्मवर्त, शूरसेन, मथुरा-मण्डल, ब्रज या ब्रज मण्डल आदि। अधिकांश विद्वान ब्रज के केन्द्र में मथुरा को स्वीकारते हैं- ‘‘भारत के उस प्रदेश का नाम ब्रज है जो मथुरा को केन्द्र मानकर चैरासी कोस के बीच स्थित है।’’5 भगवान कृष्ण की ब्रज-संस्कृति से ओत-प्रोत ‘ब्रज-चैरासी’ ही ब्रज क्षेत्र के अन्तर्गत लोकमान्य है और रहेगा।

लोक-कवि अपनी भावाभिव्यक्ति हेतु अनेकानेक तरीकों-धुन – लय- तान आदि का प्रयोग करता है। जिसके लिए वह विभिन्न शैलियों का इस्तेमाल करता है। ये अभिव्यक्तियाँ संक्षिप्त एवं विस्तृत हुआ करती हैं। इनके अतिरिक्त ये अभिव्यक्तियाँ संक्षिप्त एवं विस्तृत हुआ करती हैं। इनके अतिरिक्त ये अभिव्यक्तियाँ गद्य-पद्य एवं मिश्रित तीनों माध्यमों से हुआ करती हैं। इन वैभिन्नयताओं के कारण लोक-काव्य को विभिन्न वर्गों में विभक्त करने की सम्भावनाएँ बनती है जिनके आधार पर लोक-साहित्य के मर्मज्ञ विद्ववानों ने उसे लोक-गीत, लोक-गाथा, लोक-कथा, लोक-नाट्य, मुहावरों, लोकोक्तियों और अन्य प्रकीर्ण विभागों में विभक्त किया है। जिनमें लोक-गीत अंग्रेजी के ‘फोक सांग’ का पर्याय है। यह लोक-साहित्य की सशक्त एवं प्रधान विधा है। लोक-गीत सरल, मधुर एवं गेय हुआ करते हैं जिनमें लय-तान एवं संगीतात्मकता का सरल एवं स्वाभाविक प्रवाह हुआ करता है। लोकगीत सामूहिक जन-चेतना के गर्भ से उद्भूत होते हैं। ये लोक मानस की वे सहज् सरल एवं स्वाभाविक भावाभिव्यक्तियाँ हैं, जिनमें जन-मानस के नैसर्गिक, निश्चल एवं अकृत्रिम जीवन का प्रतिबिम्ब दृष्टिगोचर होता है। इनमें लोक-मानस की कामनाएँ, भावनाएँ, उल्लास और विषाद सब कुछ समाहित है और बगैर जटिलता, गोपनीयता, दुरूहता, अश्लीलता के। भोले-भाले मन की भोली-भाली अभिव्यक्तियाँ लोक-जीवन के सत्य को अनुस्यूत किये हुए हैं, जहाँ ताल-तलैया, पीपर-पनघट, बासंती धानी चुनरी ओढ़े धरा, आम-अमराइयाँ, पर्वत-पठार, नदी-पोखर, कछार, झार-निर्झर, कुंज-निकुंज, कूप-बाबड़ी, अरण्य-प्रान्त, रेगिस्तान, मेघ-मालाएँ, बरसते बादल, होरी, रसिया, फाग, आल्हा, सोहर-विवाह, किंबहुना सम्पूर्ण लोक-जीवन ही समाहित है। यही कारण है कि लोकगीतों के उद्गम स्थल के अन्वेषक डॉ. देवेन्द्र सत्यार्थी लिखते हैं-’’ कहाँ से आते हैं गीत? स्मरण-विस्मरण की आँख मिचैली से। कुछ अठ्ठाहास से। कुछ उदास हृदय से। कहाँ से आते हैं इतने गीत? जीवन के खेत से उगते हैं ये गीत।’’6 लोकगीत जनमानस में अत्यंत प्राचीनकाल से परम्पराबद्ध चले आ रहे हैं। इनका गीतकार अनाम हुआ करता है। इसकी परम्परा मौखिक एवं श्रुत हुआ करती है। युग परिवर्तन के साथ-साथ इनमें भी संशोधन एवं परिवर्तन हुआ करते हैं। डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल का मत है-’’ लोकगीत कभी न छीजने वाले रस के सोते हैं। वे कण्ठ से गाने के लिए और हृदय से आनन्द लेने के लिए हैं।’’7 संगीतात्मकता, सरलता, प्रवाहमयता, सरसता, प्रभावकता, स्वाभाविकता, आकृत्रिमता, परम्परानुगतता, लघुता, लोक-भाषा, अनाम रचनाकार, श्रुति परम्परा आदि लोकगीतों की विशेषताएँ हैं।

ब्रज के लोक-गीतों में वहाँ का सम्पूर्ण जीवन प्रतिबिम्बित होता है। ब्रज क्षेत्र के सुख-दुख, आमोद-प्रमोद, आनन्द उत्साह आदि की अभिव्यक्ति इन लोकगीतों के माध्यम से होती है। जनमानस के सर्वाधिक नैकट्य के कारण लोक-जीवन की जैसी सफल अभिव्यक्ति इन गीतों के माध्यम से होती है वैसी नागरिक गीतों के द्वारा सम्भव नहीं है। सम्पूर्ण ब्रज-प्रदेश भक्ति-भावना से ओत-प्रोत तीज त्यौहारों का प्रदेश है। उत्तर आधुनिक युग में भी ब्रज प्रदेश में पारिवारिक आत्मीयता काफी हद तक विद्यमान है, जिसका दिग्दर्शन सामाजिक जीवन में दृष्टिगोचर होता है। यद्यपि सामाजिक परिवर्तन से कोई भी प्रदेश अछूता नहीं रहता, ब्रज भी इससे विलग नहीं है तथापि ब्रज के लोक के कलाकार इन परिवर्तनों के मध्य भी अपनी वाणी से लोक-मानस का श्रृंगार करते रहे हैं। ब्रज के लोक-गीत विविध प्रकार के होते हैं। यथा-संस्कार गीत, ऋतु गीत, धार्मिक गीत, जाति-गीत, श्रम-गीत, कथागीत आदि।

शास्त्रों में सोलह संस्कारों का वर्णन है। शास्त्रों से वंचित लोक-मानस भी जाने-अनजाने इन संस्कारों में जीता है। गर्भाधान, पुंसवन, जन्म जनेऊ, विवाह और मृत्यु से कौन वंचित है? प्रत्येक संस्कार हेतु जन-मानस ने विभिन्न धार्मिक अनुष्ठान और उनके लिए लोकगीत बनाये हैं जो विभिन्न अवसरों पर बड़ेहर्षोल्लास सहित गाये जाते हैं। ये लोकगीत संस्कारों के प्रधान अंग हैं। ब्रज भी इनमें असम्पृक्त नहीं है। यहाँ जन्म से मृत्यु पर्यन्त गीत ही गीत है जिनमें नारी हृदय की वेदना के अनेक दृश्य बिखरे पड़े हैं।

आज हम पुरूष-प्रधान समाज में रह रहे हैं, जहाँ नारी को हीन और पराधीन माना जाता है। यह सब कैसे हुआ इस प्रक्रिया से सभी परिचित है। आर्य संस्कृति में माँ को सर्वोच्च पद दिया गया है। ‘मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, आचार्य देवो भव, परन्तु इतना विशद पद देकर भी पुरूष ने नारी को अपने अधीन बनाये रखने की व्यवस्था की है। ‘‘जहाँ नारी की पूजा होती है, वहाँ देवता वास करते हैं, यह घोषण करके भी उसे बचपन में पिता के अधीन, यौवन में पति की दासी और बुढ़ापे में सन्तान पर निर्भर माना जाता है। किसी ने कभी यह घोषण नहीं की, कि बचपन में पुत्री के समान पुत्र भी माता-पिता पर निर्भर रहता है, यौवन में वह पति के बिना जी नहीं सकता। बुढ़ापे में तो पति-पत्नी एक दूसरे के सच्चे मित्र होते हैं।’’8

वस्तुतः यह सच है कि उत्तर आधुनिकता के इस युग में भी नारी पर अत्याचार हो रहे हैं। प्राचीनकाल से लेकर आज तक नारी किसी न किसी मोड़ पर अत्याचारों को सहन कर रही हैं। लोकगीत इसके जीवंत प्रमाण है, जिनमें नारी वेदना को सहज, सरल शब्दों में मार्मिक अभिव्यक्ति दी गयी है।

ब्रज में पुत्र जन्म के अवसर पर लम्बा अनुष्ठान होता है। गर्भाधान से जन्म के मध्य के समस्त संस्कार जन्म संस्कार के अन्तर्गत आते हैं। सामाजिक मान्यता है कि निपूते का मुँह देखना पाप है। पुत्री बेशक ‘लक्ष्मी’ होती है परन्तु वह तो पराया धन होती है। इसके विपरीत पुत्र ही पार (भव-सागर से) लगाता है। बन्ध्या की चहुँ ओर दुर्गति होती है। उसके लिए तो ताल, पोखर नदी, आदि भी सूख जाते हैं, उधर पुत्रवती के समस्त दोष, गुण में बदल जाते हैं। निःसंतान स्त्री को निपूती कहकर अपमानित किया जाता है इसके विपरीत पुरूष के साथ ऐसा व्यवहार नहीं किया जाता। ब्रज के एक लोक-गीत में बाँझिनि, सास-ननद के तानों से खिन्न होकर गंगा में डूबने के लिए चल पड़ती है तो गंगा उसे पुत्रवती होने का वरदान देती है-

राजे गंगा किनारे एक तिरिया, सु ठाढ़ी अरज करै।

गंगा एक लहर हमें देउ तौ जामै डूँबि जैऐ, अरे जामै डूबि जैऐं।

कै दुखरी तोयें सासुरी-ससुर को, कै पिया परदेस।

कै दुःखरी तोयें मात-पिता कै, कै तेरे माँ-जाए वीर।

काए दुःख डूबि जैऐ।

ना दुःखरी मोयें सासुरी ससुर कौ, नाऐं मेरे पिया परदेस

………………………………………..

सासु, बहू कहि नां बोलै, ननद भाभी ना कहै

नाहिं राजे, बे हरि बाँझ कहि टेरें तौ छतियाँ जू फटि गई।

जाई दुःख डूबिहों सों जाई दुःख डूबि हौं।9

गंगा उसे वरदान देती है। वह घर लौटकर बढ़ई से काठ का पुत्र बनवाती है और सूर्यदेव से करूण विनती करती है। देव कठपुतले में प्राण डाल देते हैं। फिर क्या? बधाई बजती हैं और मंगल गान होते हैं और उस नारी का मान बढ़ जाता है-’’ धनि धनि गंगे तोई धनि ऐं, तैने बढ़ाई मेरी मान।’’

बाँझ होने के कारण स्त्री को बाघिन तक मारकर खाना पाप समझती है। उसे डर है कि यदि वह बाँझ को खा लेगी तो वह भी बाँझ हो जायेगी। इस अवधी भाषा के लोकगीत में भी निःसंतान स्त्री की इसी मार्मिक वेदना को अभिव्यक्ति मिली है-

घरवाँ से निकरि बाँझिनिया जंगल बिच ठाढ़ी हो,

रामा वन से निकरी बघिनियाँ वो दुख, सुख पूछइ हो।

तिरिया, कौन विपतिया की मारी जंगल बिच ठाढ़ी हो,

सासु मोरी कहेली बाँझिनिया, ननद ब्रजवासिनी हो।

बाघिन जिनकी में बारी बियाही, उइ घर से निकारेनि हों,

बाघिन हमका जो तुम खाइ लेतिउ बिपतिया से छूटित हों,

जइवाँ से तुम आइउ, लउटि उहाँ जाओ तुमहिं नाहीं खइबइ हों,

बाँझिन, तुमका जो हम खाइ लेबइ हमहुँ बाँझिन होबइ हो।10

बाघिन ही नहीं नागिन भी बाँझ स्त्री को डसने के लिए तैयार नहीं होती। बाँझ को हर समय घृणा की दृष्टि से देखा जाता है। माँ न बनना स्त्री के लिए सब दुखों से बढ़कर है। जब कोई सन्तान न हो, तो इच्छा होती है कि एक कन्या ही जन्म ले ले, किन्तु जब यह भान होता है कि कन्या तो पराया धन है, तब पुत्र जन्म की ही कामना की जाती है। यथा-

मैं तो पहिले जनौंगी धीयरी,

मेरी जो कोख होय कुलच्छिनी।

जाकी गरजति आवैगी बारात री,

पालिकी चढ़ि आवै साजना।

मेरो घरू जो रितो अरू पेटुरी,

मेरी धीयरी जमइया लै गयौ।

मैं तो बहुरि जानोंगी पूतरी

मेरी जो कोखि होय सुलच्छिनी,

जाकी गरजति जाइगी बराइत री।

पालिकी चढ़ि आवै कुलवधू

मेरो घरू तौ भरौ अरू पेटुरी।

मेरी रूनुक-झुनुक डोलै कुलवधू।’’

ब्रज क्षेत्र में विवाह संस्कार के अवसर पर वर अथवा कन्या की मां अपनी भाई के यहांँ भात न्योतने जाती है। उसके इस निमंत्रण पर भाई विवाह से एक-दिन पूर्व या विवाह वाले दिन अपनी बहन तथा उसके ससुराल पक्षवालों के लिए वस्त्रादि लेकर भात पहनाने जाता है और उचित समय पर भात पहनाता है। भात के लिए बहिन की आँखें अपने पीहर की ओर निहारती रहती हैं। जिस बहिन के भाई नहीं होता है उसके लिए तो यह बहुत ही कारूणिक प्रसंग बन जाता है। ब्रज क्षेत्र में एक ऐसा ही भात का गीत है जिसमें एक बहन के भाई नहीं है लेकिन फिर भी वह अपने पति से आग्रह करती है भात नौतने के लिए जाने को। उसका पति जब कहता है कि तुम्हारे तो भाई नहीं है किसको भात का निमंत्रण दोगी तब वह कहती है कि मेरे पीहर में महुए का पेड़ है जिसको में निमंत्रण दूँगी। देखिए एक बहन की वेदना का गीत-

एसौ री होइ कोई कुमर छत्तिरी, हमैं पीहर पहुँचावे जी,

तुम तौरी गोरी जनम की सोगिनि, तिहारे पीहर कहाएँ जी।

हमरे पीहर एकु महुए कौ बिरवां, बापै भात हम नौतेंजी,

एकु बनु नाखि दूजौ बनु नाखियौं, तीजे बन पीहर पहुँचे जी

रोमत-रोमत महुए ढिंग पहुँची, भइया होइ तौ बोलै जी

कौन बिरन पैरी भातु रे माँगियौ, कौन बिरन की हौ बहिना जी।12

……………………………………………………..

महुए ने उस बहन के निमंत्रण को स्वीकार कर लिया। विवाह की तिथि पूछकर आने का आश्वासन दिया। उसने शर्त रखी कि जब तुम भात पहनो तब महुए के पट्टा (पीढ़ा) पर पैर मत रखना। जब वह भात पहनाने आता है तो पहले वह अपनी सास-ननद आदि परिजनों को भात पहनवाती है। जब उसकी बारी आती है तो वह भूलवश महुए के पट्टा पर पैर रख देती है। फिर क्या होता है उसका भाई गायब हो जाता है। सास-ननद ताने मारती हैं कि भूत कहीं भात पहनाते हैं क्या? इस प्रकार दृश्य बहुत ही कारूणिक बन जाता है। बहन रूदन करने लगती है। उसके मन एक ही मलाल रह जाता है कि जी भरके भाई से मिल न सकी।

भारतीय कन्या पराई धरोहर मानी जाती है। विवाह होते ही उसे अपना चिर-परिचत घर और परिवार को छोड़कर जीवन भर के लिए एक दूसरे अनजान घर में चला जाना पड़ता है। बेटी की विदाई के अवसर पर मर्मभेदी व करूणाविगलित करने वाले लोक-गीतों की ब्रज क्षेत्र में भरमार है। प्रत्येक बेटी के माता-पिता का हृदय इन गीतों को सुनकर द्रवित हो उठता है। कारूणिक मनोदशा का जीवन्त चित्र उपस्थित करता एक ब्रज लोक-गीत देखिए-

‘‘छोटे बीरन ने पकड़ी पलकियां

मेरी बहन कहाँ जाइ हो।

छोड़ो बीरन हमारी पलकियां,

हमकूँ तौ छायौ परदेस जी

तुमकूँ तौ छाई बीरन लाल अँटरिया,

हमकूँ तौ छायौ परदेस जी

मइया के रोवे ते नदिया बहति ऐ,

बाबुल के रोवे ते सागर-ताल जी।’’

सामाजिक कर्तव्यों में बँधे माता-पिता भी, जिन्होंने जन्म दिया, पाला पोसा और प्यार के साथ ‘बिटिया’ कहकर पुकारा, उसे अपने पास रखने में अपने को असमर्थ पाते हैं। कन्या अपनी और अपने मांँ-बाप की इस विवशता को भली-भांति समझती है; किन्तु क्या करें उसका हृदय नहीं मानता। बेटी की विदा के अवसर की वेदना की इस लोकगीत में मार्मिक अभिव्यक्ति देखने को मिलती हैं-

तेरा चर्खा सूना होय बाबुल तेरी धीय बिना,

मेरी बहू कातेंगी हे लाड़ो बेटी जाव घराँ।

………………………..

मेरी गाड़ी अटकी रे, बाबुल तेरी गलियों में

दो ईंटें कढ़वा दूँ हे लाड़ो बेटी जाव घराँ।

तुझे बाबुल कौन कहे, बाबुल तेरी धीय बिना

आँसू तो भर आये नैन कि लाड़ो बेटी जाव घराँ।13

वास्तव में बेटी की विदा की स्थिति बड़ी करूणाजनक हो उठती है महाकवि कालिदास कृत ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्’ में शकुन्तला की विदा के समय महर्षि कण्व कहते हैं- ‘‘आज शकुन्तला विदा होगी। इसलिए मेरा हृदय दुख से भारी हो रहा है। आँसुओं के बहने को रोकने से मेरा गला भर आया है। मेरी दृष्टि चिन्ता के कारण निश्चेष्ट हो गई है। मुझ जैसे वनवासी को शकुन्तला के प्रति स्नेह होने के कारण इस प्रकार का दुख अनुभव हो रहा है, तो गृहस्थ लोग पहली बार पुत्री के वियोग से कितने अधिक दुखित होते होंगे।’’

स्पष्टतः लोक-गीतों का सम्बन्ध लोक-जीवन से होता है। लोक-गीत लोक जीवन के जीवंत चित्र हुआ करते हैं। लोक-जीवन का रहन-सहन, बोली-भाषा, आचार-व्यवहार, शिष्टाचार, धर्म-कर्म, पशु-पक्षी प्रकृति, हर्ष-उल्लास, सुख-दुख, संस्कृति आदि सभी को समाहित किये रहते हैं ये लोक-गीत। सम्पूर्ण ब्रज-मण्डल में लोकगीतों की भरमार है। यहाँ प्रत्येक अवसर के लिए विभिन्न तरह के गीत प्रचुर मात्रा में मिलते हैं। विभिन्न संस्कारों के अवसर पर गाये जाने वाले ये गीत नारी वेदना को मार्मिकता के साथ अभिव्यक्त करते हैं। इन संस्कार गीतों का सृजनकर्ता कोई पुरूष न होकर अज्ञात महिला समूह ही रहा होगा, जिसके कारण नारी-वेदना के सहज-चित्रों की भरमार इन संस्कारी लोक-गीतों में पग-पग पर मिलती है।

सन्दर्भ-

1. ऋग्वेद – 1.10.7

2. यजुर्वेद – 1.25

3. शुक्ल यजुर्वेद – 6.3

4. डा0 सत्येन्द्र, ब्रज का लोक साहित्य, पृ0-903

5. पोद्दार अभिनन्दन ग्रन्थ में डा0 दीनदयाल गुप्त

6. धरती गाती है – डा0 देवेन्द्र सत्यार्थी, पृ0 178

7. धीरे बहो गंगा – डा0 वासुदेव शरण अग्रवाल, पृ0 9

8. विष्णु प्रभाकरः संस्कृति क्या है, पृ0 51

9. उदघृतः डा0 सत्येन्द्र-पोद्दार अभिनन्दन ग्रन्थ-स0 वासुदेवशरण अग्रवालपृ0 116

10. डा0 गोपाल बाबू शर्माः लोक जीवन में नारी-विमर्श, पृ0 52

11. वही पृ0 57

12. निज संग्रह- अप्रकाशित

13. डा0 गोपाल बाबू शर्माः लोक जीवन में नारी-विमर्श पृ0 35

 

ग्राम$पो0 – उसरम

तहसील- खैर

जिला-अलीगढ़ (उ0प्र0)

मो0- 8126967718