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परंपरागत हिंदी काव्य में चित्रित दलित समाज और जीवन-डॉ. चैनसिंह मीना

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परंपरागत हिंदी काव्य में चित्रित दलित समाज और जीवन

डॉ. चैनसिंह मीना

दलित, स्त्री, आदिवासी, किसान, मजदूर, अल्पसंख्यकों आदि के जीवन संघर्ष और उनसे जुड़े विविध मुद्दों पर हिंदी के परंपरागत काव्य में पर्याप्त विचार विमर्श हुआ है। आधुनिक हिंदी काव्य के अंतर्गत युगीन साहित्यिक प्रवृतियों के साथ-साथ सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक, सांस्कृतिक संदर्भों में भी रचनात्मक लेखन किया गया। परंपरागत काव्य में अनेक गैर-दलित कवियों के नाम सामने आते हैं जिन्होंने दलित जीवन और उसकी समस्याओं पर पूरी संवेदना के साथ भाव और विचार व्यक्त किए हैं। यह बात अलग है कि वर्तमान दलित आलोचकों की दृष्टि में इन रचनाकारों का यह चित्रण सहानुभूति और पूर्वग्रहों से युक्त है। ओमप्रकाश वाल्मीकि ने साहित्यिक और आलोचकीय मान्यताओं द्वारा दलित लेखन में अपनी विशिष्ट छाप छोड़ी है। इस संदर्भ में उनका मत है कि “हिंदी के महान कवियों की रचनाओं को सामने रख कर बात की जाये तो निष्कर्ष स्वयं सामने आ जायेंगे। आधुनिक हिंदी साहित्य के शीर्षस्थ कवियों नागार्जुन, त्रिलोचन, शमशेर, केदारनाथ अग्रवाल, मुक्तिबोध की रचनाओं में हजारों साल से इस देश की विकास यात्रा को अवरुद्ध कर देने वाली वर्ण-व्यवस्था और उससे उपजी जाति व्यवस्था का उनकी रचनाओं में कहीं मुखर विरोध सुनायी पड़ता है? इनमें से नागार्जुन की ‘हरिजन गाथा’ या त्रिलोचन की ‘नगई महरा’ जैसी इक्का-दुक्का कविताओं को अपवाद मानकर छोड़ दें तो कहीं भी उनका स्वर पीड़ा के साथ स्वयं को नहीं जोड़ पाता है।”[1] यह परंपरागत हिंदी काव्य और आलोचना का यथार्थ है लेकिन तत्कालीन समय और समाज की परिस्थितियों एवं चुनौतियों के संदर्भ में गैर-दलित कवियों के रचना कर्म को रेखांकित करने का प्रयास तो किया ही जा सकता है। दलित जीवन का चित्रण करने वाले रचनाकारों में भारतेंदु हरिश्चंद्र, अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔद्य’, गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही’, भगवती चरण वर्मा, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, सुभद्रा कुमारी चौहान, नागार्जुन, रामधारी सिंह ‘दिनकर’, शिवमंगल सिंह ‘सुमन’, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, धूमिल, केदारनाथ सिंह, राजेश जोशी इत्यादि नाम उल्लेखनीय हैं। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने बड़ी सहजता से यह स्वीकार किया कि समाज में व्याप्त असमानता या भेदभाव का कारण सत्ताधारी वर्ग की वर्चस्ववादी नीतियाँ ही हैं-

‘अपरस, सोला, छूत रचि

किये तीन तेरह सबै

छौंका चौका लाय

बहुत हमने फैलाए अधर्म

बढ़ाया छुआछूत का कर्म।’

कुछ मुट्ठी भर लोग शासन और सत्ता पर काबिज होकर शोषणकारी नीतियाँ बनाते हैं। उल्लेखनीय है कि ऐसी नीतियों से बहुसंख्यक वर्ग व्यापक स्तर पर आक्रांत होता है। अदम गोंडवी ने आजाद भारत की ऐसी ही अकल्पनीय तस्वीर को अपने शब्दों में व्यक्त किया है- ‘सहमी सहमी हर नजर हर पाँव में जंजीर है/ ये मेरे आजाद हिंदुस्तान की तस्वीर है।’ दलित समुदाय के जीवन से जुड़े बिना उसके कष्टों और बिडंबनाओं को समझ पाना किसी के लिए भी विशेषकर समाज की मुख्यधारा के लिए कठिन और चुनौतीपूर्ण कार्य है। दलित समाज का परिवेश, वातावरण, रहन-सहन, वेषभूषा, खान-पान इत्यादि मुख्यधारा के व्यक्ति के लिए असह्य है। मुख्यधारा निरंतर इस समाज के परिवेश से अपने को दूर रखने का प्रयास करती रही है। गाँव और शहरों की सबसे अंतिम बस्ती में रहने वाले दलित समाज का हर शख्स पग-पग पर किसी-न-किसी समस्या या शोषण से आक्रांत है। उदाहरणस्वरूप अदम गोंडवी की कुछ काव्य पंक्तियों यहाँ दृष्टव्य हैं-

‘आइए महसूस करिए ज़िंदगी के ताप को

मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको

मैं निमंत्रण दे रहा हूँ- आएँ मेरे गाँव में

तट पे नदियों की घनी अमराइयों की छाँव में

गाँव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही हैं

तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए

बेचती हैं जिस्म कितनी कृष्णा रोटी के लिए।’

मुख्यधारा से सम्बद्ध संवेदना युक्त कवि जानता है कि छूत-अछूत का भाव महज एक भेदभाव पैदा करने की नीति है। वास्तविक तौर पर ऐसा कुछ नहीं होता। किसी व्यक्ति के द्वारा छू लेने मात्र से कोई अछूत कैसे हो सकता है? अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔद्य’ ने छूत-अछूत भावों और प्रसंगों में अपनी कलम चलाई है-

‘हरिऔद्य’ धरमधुरंधर मुदित होत,

मोह मद बिनसे प्रमादीन के मुये ते,

छाये रहे उर मैं अवनि के अछूते-भाव,

बनत अछूत ना अछूत-जन छूये ते।’[2]

राष्ट्रीय काव्यधारा में महत्त्वपूर्ण स्थान रखने वाले कवि मैथिलीशरण गुप्त ने ‘बुद्ध महाभिनिष्क्रमण’ कविता में राष्ट्र के अंतर्गत अछूत जीवन और उसकी त्रासदी को उकेरने का प्रयास किया है- ‘क्यों अछूत है आज अछूत?/ वे हैं हिंदू कुल संभूत/ गाते हैं श्री हरि का नाम/ आते हैं हम सबके काम/ बने विधर्मी वे अनजान/ मुसलमान किंवा क्रिस्तान/ तो हो जाते हैं सुपृश्य?/ हाय देव क्या दारुण दृश्य?’ भूख और लाचारी की मार सबसे अधिक दलित-दमित समाजों को झेलनी पड़ी है। आधुनिक भारत भी इस समस्या से मुक्त नहीं हो सका। रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के काव्य में इस समस्या का व्यापक चित्रण मिलता है-

‘श्वानों को मिलता दूध-वस्त्र, भूखे बालक अकुलाते हैं

माँ की हड्डी से चिपक ठिठुर, जाड़ों की रात बिताते हैं।

युवती के लज्जा वसन बेच जब ब्याज चुकाए जाते हैं

मालिक जब तेल-फुलेलों पर पानी-सा द्रव्य बहाते हैं

पापी महलों का अहंकार देता तब मुझको आमंत्रण।’

प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक दलित समाज की समस्याएँ इतनी विकराल हो चुकी हैं कि कवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ को आहत मन से यह कहना पड़ा- ‘दीन दलितों के क्रंदन बीच/ आज क्या डूब गये भगवान।’ यह कहने में कोई संकोच नहीं कि अछूत समुदाय के श्रम और जीवन संघर्ष पर ही सवर्ण समुदाय सछूत बना हुआ है या कहें कि उसका अस्तित्व कायम है। सवर्ण समुदाय की नजर में बहुत से कार्य घृणित और हेय हैं। उन सब कार्यों में मजबूरन या जबरन दलित समुदाय संलग्न है। गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही’ इस संदर्भ में भाव व्यक्त करते हैं कि दलित समुदाय की गैर मौजूदगी में यह कार्य स्वयं सवर्ण समाज को करना पड़ता-

‘सेवक अगर अछूत न होते

कैसे आप अछूते रहते

किसी तरह तो पूत न होते

सेवक अगर अछूत न होते।’[3]

ऐसा नहीं है कि गौतम बुद्ध, संत कबीर, संत रविदास आदि के विचारों ने केवल दलित-दमित या अस्मिता के लिए संघर्षरत समुदाय के लोगों को ही प्रभावित किया। इनके समस्त विचार या वाणियाँ मानवता के हित में थी। इन व्यक्तित्वों की मान्यताओं ने सवर्ण समुदाय के कवियों और उनके विचारों को भी व्यापक स्तर पर प्रभावित किया। इसी प्रभाव के आलोक में मुख्यधारा के काव्य में भी मानवीय भेदभाव की ऐतिहासिक परंपरा का चित्रण मिलता है-

‘एक ही विधाता के अमृत पुत्र, एक देश

कुछ यों अपूत कुछ पूत कैसे हो गए?

सब की नसों में रक्त एक ही प्रवाहित है

कुछ देवदूत कुछ भूत कैसे हो गये?

बंधु श्री वशिष्ठ, व्यास विदुर, पाराशर के

वाल्मीकि वंशज अछूत कैसे हो गये?’

अछूत होने का भाव उसे ही पीड़ित करता है जिसने अछूतपन की त्रासदी को झेला हो। यह याद रखा जाना चाहिए कि इस पीड़ा को किसी एक व्यक्ति ने नहीं बल्कि भारतीय सामाजिक परिदृश्य में करोड़ों व्यक्तियों ने सहा है। कितनी बड़ी बिडंबना है कि ‘वसुधैवकुटुंबकम’ के दर्शन को लेकर चलने वाले देश में करोड़ों लोगों के प्रति संवेदना व्यक्त करना तो दूर उन्हें छूना तक पाप समझा गया। ऐसी कुंठित मानसिकता और भेदभाव आज भी बदस्तूर जारी है। यह भेदभाव भारतीय सामाजिक संरचना में समरसता की भावना पर प्रश्नचिह्न लगाता है। यहाँ पर भगवती चरण वर्मा की कुछ महत्त्वपूर्ण काव्य पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं-

‘अरे ये इतने कोटि अछूत

तुम्हारे बेकौड़ी के दास

दूर है छूने की बात

पाप है आना इनके पास।’

मंदिर प्रवेश दलितों के लिए प्राचीन काल से ही वर्जित रहा। संभवतः मंदिर प्रवेश में पाबंदी के चलते ही मध्यकालीन समय में संत कवियों द्वारा निर्गुण काव्य रचा गया। तत्कालीन समय में संत कवियों के पास इसके अतिरिक्त और कोई विकल्प भी नहीं था। आधुनिक काल में आकार ही मंदिर प्रवेश के संदर्भ में अखिल भारतीय स्तर पर आंदोलन हुए। उल्लेखनीय है कि सभी धर्मों के मूल स्वरूप में जब विकृति का समावेश हो गया तो दलित-दमित वर्गों और स्त्री को दोयम दर्जे पर रखा गया। मंदिर प्रवेश के संदर्भ में भी शूद्र और स्त्री के लिए स्थिति बदतर ही रही। मंदिर प्रवेश के संदर्भ में स्त्री और अछूत जीवन की बिडंबना पर कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान ने अपने भाव व्यक्त किए हैं-

‘मैं अछूत हूँ मंदिर में आने का,

मुझको अधिकार नहीं है।

किंतु देवता यह न समझना,

तुम पर मेरा प्यार नहीं है।

प्यार असीम अमिट है फिर भी,

पास तुम्हारे आ न सकूँगी।

यह अपनी छोटी-सी पूजा,

चरणों तक पहुँचा न सकूँगी।’[4]

आधुनिक काल में अनेक सुधार आंदोलनों द्वारा सामाजिक परिवर्तन भी हुए। जाति और वर्ण के संदर्भ में आए कुछ परिवर्तनों को सुमित्रानन्दन पंत ने अपने काव्य में रेखांकित किया है- ‘जाति वर्ण की श्रेणी वर्ग की तोड़ भित्तियाँ दूर्धर/ युग-युग के बंदीगृह से मानवता निकली बाहर।’ छायावाद के बाद की कविता जन की ओर अधिक उन्मुख हुई। देश की आजादी के साथ निम्न वर्गों की सामाजिक प्रताड़नाओं से मुक्ति का संकल्प भी छायावादोत्तर हिंदी कविता में परिलक्षित होता है। ‘आधुनिक हिंदी कविता में दलित चेतना को व्यापक अभिव्यक्ति मिली है। हिंदी कविता का सृजन करने वाले प्रगतिशील कवियों ने दलित-शोषित की पक्षधरता की है। उनके द्वारा रचित कविताओं में शोषित वर्ग के दुख-दर्द को अभिव्यक्ति मिल सकी है। स्वयं दलित न होने पर भी इन कवियों ने शोषित तथा दलितों के जीवन में बदलाव लाने हेतु जन चेतना को जाग्रत किया।’[5] आधुनिक हिंदी कवियों में सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ का व्यक्तित्व अपनी अलग आभा रखता है। उन्होंने दलित, दमित, मजदूर, किसान, असहाय, स्त्री इत्यादि से जुई समस्याओं का बेवाकी से चित्रण किया। नि:संदेह दलित समाज की समस्याएँ व्यापक हैं। दलित समाज की त्रासदी को भी उन्होंने भली-भाँति पहचाना। इस समाज के दुखों को देखकर वे ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि-

‘दलित जन पर करो करुणा

दीनता पर उतर आए

प्रभु तुम्हारी शक्ति अरुणा।

हरे तन मन प्रीति पावन।’

दलित समाज को लेकर मुख्यधारा का कविमन सदैव द्वंद से युक्त रहा। पीड़ा के संदर्भ में ईश्वर का स्मरण भी कहीं-न-कहीं उसी व्यवस्था का समर्थन है जो इस समाज के कष्टों का कारण है। जिस ईश्वर और धर्म के नाम पर दलित समाज का शोषण किया गया उसी ईश्वर पर आस्था किसी भी लिहाज से दलित हित में नहीं है। दलित शोषण की दीर्घ परंपरा से निराला भली-भाँति परिचित हैं। निराला ने बीसवीं सदी में उभरती दलित चेतना को निराला को रेखांकित किया है- ‘जिस शूद्र को एक दिन सामाजिक नियमों के लांछन के कारण अवतार श्रेष्ठ श्रीराम के हाथों प्राण देने पड़े थे, वही शूद्र शक्ति आज सहस्त्र रामचंद्रों को पराजित कर देने में समर्थ है। अछूत ही आज भारत के प्रथम गण्य मनुष्य, चिंत्य समस्या है।[6] एक संवेदनशील मनुष्य और कवि होने के नाते उन्हें दलित-दमित वर्गों ऊपर होने वाला शोषण सहन नहीं होता। यही कारण है कि उन्होंने शोषण की परंपरा का शीघ्रता से खात्मा कर सामाजिक न्याय और समता की स्थापना का आह्वान किया-

‘जल्द जल्द पैर बढ़ाओ, आओ आओ।

आज अमीरों की हवेली

किसानों की होगी पाठशाला

धोबी, पासी, चमार, टेली,

खोलेंगे अंधेरे का ताला

एक पाठ पढ़ेंगे टाट बिछाओ

जल्द जल्द पैर बढ़ाओ, आओ आओ।’[7]

दलित समाज भारतीय संस्कृति का निर्माता रहा। आधुनिक भारतीय समाज और नव संस्कृति के विकास की बड़ी ज़िम्मेदारी भी उस पर है। कवि शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ दलित समाज की इस शक्ति से भली-भाँति परिचित हैं-

‘नव संस्कृति के अग्रदूत हैं

पद दलितों की आस।

एक तुम्हारी गति पर अटकी

मानवता की आस।

पर अजेय है आज तुम्हारी

पहले से भी शक्ति

जिसमें मिली विश्व भर के

दलितों की चिर अनुरक्ति।’

दलित शोषण की दृष्टि से नागार्जुन कृत ‘हरिजन गाथा’ कविता बहुत महत्त्वपूर्ण है। 1977 में पटना जिले के बेलछी गाँव में 13 दलित समुदाय के लोगों को जिंदा जला दिया गया था। सामंती समाज और उसी के पक्ष में खड़ा कानून, प्रशासन पूरी तरह इस घटना से अनभिज्ञ एवं मूक बना रहा। क्या यह लोकतंत्र के विपरीत अमानवीय और निंदनीय कृत्य नहीं था? अखिल भारतीय परिदृश्य में ऐसी अनेकानेक दलित नरसंहार की घटनाएँ घटित हुईं हैं। इन अमानवीय घटनाओं को सड़ी-गली, प्राचीन और क्रूर परंपराओं के नाम पर, वर्चस्व के नाम पर ही अंजाम दिया जाता है। उल्लेखनीय है कि इनमें से अनेक घटनाएँ उभरती दलित चेतना और सामाजिक परिवर्तन की आकांक्षा को नेस्तनाबूद करने के उद्देश्य से भी प्रायोजित होती हैं। ‘हरिजन गाथा’ कविता की पंक्तियाँ यहाँ दृष्टव्य हैं-

‘ऐसा तो कभी नहीं हुआ था कि

एक नहीं, दो नहीं, तीन नहीं

तेरह के तेरह अभागे

अकिंचन मनुपुत्र

जिंदा झोंक दिए गए हों

प्रचंड अग्नि की विकराल लपटों में।

साधन-सम्पन्न ऊँची जातियों वाले

सौ-सौ मनुपुत्रों द्वारा!’

‘हरिजन गाथा’ कविता दलित जीवन की त्रासदी को चित्रित करने वाली श्रेष्ठ कविताओं में से एक है। यह कविता न केवल दलित शोषण को रेखांकित करती है बल्कि आज की आवश्यकता के अनुरूप भावी समाज का विकल्प भी प्रदान करती है। डॉ. मैनेजर पाण्डेय के अनुसार ‘इस कविता में भारतीय समाज-व्यवस्था के वर्तमान रूप का यथार्थ चित्र और उसके भावी विकास का संकेत है। भारत के गाँवों में सामंतों द्वारा खेतिहर मजदूरों-हरिजनों के क्रूरतम…. दमन का जैसा प्रभावशाली चित्रण हरिजन गाथा में है, वैसा इस बीच की किसी दूसरी कविता में नहीं है। नागार्जुन इस भयानक यथार्थ का त्रासद चित्रण करके चुप नहीं हो गए हैं। उन्होंने इस यथार्थ के परिवर्तन का संकेत भी दिया है। कविता में एक बच्चे के माध्यम से इतिहास प्रक्रिया व्यक्त हुई है। वह बच्चा इतिहास का बेटा है और भावी इतिहास का निर्माता है।’ मुख्यधारा के कविहृदय जातिप्रथा, धार्मिक कट्टरता, सांप्रदायिकता, भेदभाव एवं अप्रासंगिक प्राचीन रीति-रिवाजों के दुष्परिणामों से भली-भाँति परिचित हैं तथा राष्ट्र और समाज हित में जातिप्रथा को नेस्तनाबूद करने के समर्थक हैं। कवि केदारनाथ सिंह जातिप्रथा के खात्मे के संदर्भ में अपने भाव व्यक्त करते हैं कि-

‘भारत का सृजन अगर

फिर से करना

तो जाति-नामक रद्दी को

फेंक देना अपनी टेबुल के नीचे

टोकरी में।’[8]

भारत में वर्ण व्यवस्था की विकृति, सांस्कृतिक संक्रमण और धार्मिक कट्टरता के नाम पर तमाम संघर्षरत दलित-दमित वर्गों का शोषण किया गया। परंपरागत हिंदी कवियों में से कुछ इस तथ्य को नकारते हैं तो कुछ पूर्णतः स्वीकार करते हैं। वर्ण व्यवस्था की विसंगतियों के दुष्परिणामों को देखकर ही राजेश जोशी यह लिखने को मजबूर होते हैं कि-

‘मेरे मर जाने के बाद

जब लिखा जाए कहीं कि मैं हिंदू था

तो लिखा जाए साफ-साफ कि मैं शर्मिंदा था।’[9]

शिक्षा के प्रचार-प्रसार के बाद दलित समाज में अधिकार चेतना व्यापक स्तर पर जागृत हुई। आज दलित कविता में शोषण के विरुद्ध कवियों के आक्रोशित स्वर को देखा जा सकता है। उल्लेखनीय है कि यह आक्रोश न केवल दलित समाज से जुड़े कवियों का है बल्कि गैर दलित कवियों के यहाँ भी दलित-दमित दमन के संदर्भ में पर्याप्त मात्रा में आक्रोश मिलता है। उदाहरण स्वरूप बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ की काव्य पंक्तियाँ देखी जा सकती हैं- ‘लपक चाटते जूठे पत्ते/ जिस दिन देखा मैंने नर को/ उस दिन सोचा क्यों न लगा दूँ आग/ आज इस दुनिया भर को।’ प्राचीन काल से लेकर आज तक समस्या यही रही है कि दलित-दमित समाज जो किसी समय समता और स्वतन्त्रता से युक्त थे उन्हें मुख्यधारा के जीवन से नितांत दूर रखा गया। यह स्थिति आधुनिक काल में कुछ सुधरी लेकिन पूर्णतः खत्म नहीं हुई है। मुख्यधारा के काव्य में स्पष्ट तौर पर यह स्वीकार किया गया है कि यह प्रवृति या अमानवीयता समाज को उन्नति से दूर रखेगी। रूप नारायण पाण्डेय कृत ‘सत्यानाश भयो भारत को’ कविता इस सत्य को सम्मुख रखती है-

‘अपना ही अंग है अंत्यज असंख्य इन्हें,

गले न लगाया तो अवश्य पछताओगे।

ममता के मंत्र से विषमता का विश जो,

उतारा नहीं जाति को तो जीवित न पाओगे।

पक्षाघात पीड़ित समाज जो रहेगा पंगु,

उन्नति की दौड़ में कहाँ से जीत पाओगे।

साधना स्वराज की, सफल कभी होगी नहीं,

अगर अछूतों को न आप अपनाओगे।’[10]

ऐसा नहीं है कि मुख्यधारा के सभी कवि दलित जीवन के विरोधी हैं या उनकी संवेदना झूठी है। एक कवि के नाते संवेदना का प्रस्फुटन गैर दलित कवि में भी स्वाभाविक तौर पर मिलता है। कोई भी शोषक यह घोषित नहीं करेगा कि वह किसी का शोषण कर रहा है। जब दलित समाज के शोषण की बात आती है तो मुख्यधारा भी इसे अधिकांशतः नकारती ही रहती है। लेकिन मुख्यधारा के कुछ कवियों ने दलित समुदाय के प्रति इतिहास के संदर्भ में होने वाली साजिश का पर्दाफाश भी किया है। उदाहरणस्वरूप ऋषवदेव शर्मा की काव्य पंक्तियाँ देखी जा सकती हैं-

‘तुम्हारे अंधे इतिहास में

तुम्हारी सभ्यता के विकास में

मेरा गला जला जा रहा है

मेरी पीठ सुलग रही है

तेरी आँखों में चिंगारी धधक रही है

मेरे कानों में जलन भर रही है

और मेरी जीभ में चुभन हो रही है

तुम्हारे अंधे इतिहास में

अंकित है

मेरी हत्या का षड्यंत्र।’[11]

भारतीय समाज और संस्कृति के अंतर्गत ‘शस्त्र’ और ‘शास्त्र’ दोनों के जरिये दलित शोषण को व्यापकता से अंजाम दिया गया। रमणिका गुप्ता ने सदियों से चले आ रहे और कभी खत्म नहीं होने वाले शोषण के चक्रव्यूह को ‘अब मूरख नहीं बनेंगे हम’ कविता के माध्यम से स्पष्ट किया है- ‘एक शब्द गीता/ सब्र का जहर/ संतोष की अफीम/ भाग्य का चक्रव्यूह/ निष्काम प्रेम का नशा/ परिश्रम के/ फल से वंचित रखने की साजिश/ परजीवी जमातों का/ सर्जक/ निठल्ले लोगों का स्वर्ग।’ मूलभूत मानवीय आवश्यकताओं से वंचित समाज और उसकी समस्याओं को बहुलता से चित्रित किया गया है। सुख-सुविधाएँ बाद की बात है अधिकांशतः दलित समाज आज भी जीवन का गुजारा करने के लिए संघर्षरत है, सामाजिक सम्मान से वंचित है। रमणिका गुप्ता ने ‘प्रतिरोध’ कविता में दलित समाज की विद्रोही चेतना का कारण स्पष्ट किया है-

‘हमने तो कलियाँ माँगी ही नहीं

काँटे ही माँगे

पर वो भी नहीं मिले

यह न मिलने का एहसास

जब सालता है

तो काँटों से भी अधिक गहरा चुभ जाता है

तब

प्रतिरोध में उठ जाता है मन—

भाले की नोकों से अधिक मारक बनकर।’

गैर-दलित कवियों ने दलित जीवन के संदर्भ में जो भी कविताएँ लिखी हैं उनकी व्यापक स्तर पर चर्चा हुई। रामचन्द्र शुक्ल कृत ‘अछूत की आह’, सुभद्रा चौहान कृत ‘प्रभु तुम ही जानो’, श्रीहरिकृष्ण प्रेमी कृत ‘हरिजन बंधु’ भगवती चरण वर्मा कृत ‘हिंदू’, धूमिल कृत ‘मोचीराम’, वीरेन डंगवाल कृत ‘राम सिंह’, विष्णु खरे कृत ‘मैला ढोने की प्रथा’ आदि कविताएँ भी इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। भले ही दलित आलोचक मुख्यधारा के कवियों द्वारा रचित कविताओं को सिरे से खारिज करें या ये कविताएँ वर्तमान दलित कविता की कसौटी पर खरी नहीं उतरती हों किंतु इन कविताओं में निहित विचार किसी-न-किसी रूप में हिंदी दलित कविता और दलित समाज के सहयोगी अवश्य ठहरते हैं। इन कवियों के विचार जाति, वर्ण, वर्ग, धर्म, समाज, संस्कृति के संदर्भ में मानवीयता पर उसी प्रकार बल देते हैं जैसे दलित समुदाय के कवियों के विचार। दलित समाज के समकालीन यथार्थ से मुँह मोड़ना मुख्यधारा के कवियों के लिए भी आसान नहीं रहा। यह अवश्य है कि इस चित्रण में मुख्यधारा का अपना नजरिया है। डॉ. मैनेजर पाण्डेय के अनुसार ‘हिंदी में दलितों के जीवन पर उपन्यास और कविता लिखने वाले गैर-दलित ने अपने वर्ग और वर्ण-संस्कारों से मुक्त होकर ही दलित जीवन पर लिखा है। फिर भी, उनके लेखन में अनजाने में ही सही, सवर्ण संस्कारों की छाया आ गई है।’[12] जो भी हो हिंदी की मुख्यधारा के रचनाकारों ने दलित जीवन पर जो लिखा है उसे कमतर आँकना साहित्यिक दृष्टि से उचित नहीं। समकालीन समय में इस लेखन का भी अपना महत्त्व है। कथा साहित्य को लेकर प्रेमचंद पर भी तमाम आक्षेप लगाए गए। यहाँ सवाल उठता है कि क्या तत्कालीन समय में दलित जीवन से जुड़े मुद्दों पर प्रेमचंद जैसा साहित्य मिलता है? उस समय के सामाजिक परिवेश में इस तरह का लेखन (जिसे दलित आलोचक सहानुभूति से युक्त साहित्य मानते हैं) भी जोखिम में डालने वाला कार्य था। इसका कारण स्पष्ट है कि तत्कालीन समाज उस सहानुभूति के भी खिलाफ था। उल्लेखनीय है कि मुख्यधारा के काव्य के अंतर्गत दलित जीवन और समाज के संदर्भ में जैसा लेखन किया गया उसे तत्कालीन परिस्थितियों को ध्यान में रखकर ही आलोचकों को अपनी राय निर्मित करनी चाहिए न कि पूर्वग्रहों को ओढ़कर।

  1. संदर्भ:-

    ब्रजेश (संपादक); सृजन संवाद, अंक-10, अगस्त 2010, पृ. 142

  2. पंडित नंदकिशोर तिवारी (संपादक); चाँद (अछूत अंक), मई 1927, दूसरी आवृति 2008, राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा. लि., नई दिल्ली, पृ. 14
  3. पंडित नंदकिशोर तिवारी (संपादक); चाँद (अछूत अंक), पृ. 64
  4. माताप्रसाद; हिंदी काव्य में दलित काव्यधारा, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, सं. 1993, पृ. 76
  5. डॉ. रमेश कुमार; दलित चिंतन के सरोकार, पृ. 93
  6. सुधा, मासिक, लखनऊ, जून 1933, संपादकीय से
  7. विवेक निराला; निराला साहित्य में दलित चेतना, शिल्पी प्रकाशन, इलाहाबाद, 2006, पृ. 85
  8. केदारनाथ सिंह; सृष्टि पर पहरा, राजकमल प्रकाशन, सं. 2014, पृ. 47
  9. शरण कुमार लिंबाले; दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, वाणी प्रकाशन, सं. 2000, पृ. 25
  10. माताप्रसाद, हिंदी काव्य में दलित काव्यधारा, पृ. 77
  11. ऋषभदेव शर्मा; ताकि सनद रहे, तेवरी प्रकाशन, हैदराबाद, 2002, पृ. 56
  12. मैनेजर पाण्डेय; मेरे साक्षात्कार, किताबघर, नई दिल्ली, सं., पृ. 128
    डॉ. चैनसिंह मीना
    सहायक प्राध्यापक
    हिंदी विभाग
    पी.जी.डी.ए.वी. कॉलेज
    दिल्ली विश्वविद्यालय 
    नेहरू नगर, नई दिल्ली-110065
    मो.- 8010081419
    
    ई-मेल- csmeena.foa@gmail.com 

बाज़ारवाद, विज्ञापन और बचपन-डाॅ. प्रीति अग्रवाल

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three boys walking between buildings at daytime
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बाज़ारवाद, विज्ञापन और बचपन

डाॅ0 प्रीति अग्रवाल
पोस्ट डाॅक्टोरल रिसर्च फेलो
लखनऊ विश्वविद्यालय
लखनऊ
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वर्तमान समय के बाजारवादी व उपभोक्तावादी समाज में पूंजीवादी प्रचार तन्त्र की एक व्यापक परिघटना के रूप में फैला विज्ञापनों की दुनिया का तिलिस्म लोगों के सिर चढ़कर बोल रहा है। टी0वी0, अखबार, रेडियो, पत्र-पत्रिकाएं, इन्टरनेट, सड़कों के किनारे लगे बोर्ड, बस-स्टाॅप, रेलवे स्टेशन सब कहीं विज्ञापनों की भरमार है। इस बाजारवादी तथा उपभोक्तावादी संस्कृति में शिक्षा, चिकित्सा, कला, साहित्य, संस्कृति मीडिया, धर्म, खेल, राजनीति सब एक ‘प्रोडक्ट’ के रूप में तब्दील हो चुके हैं और खरीदे-बेचे जा रहे हैं। वैश्विक पूंजी के नियन्त्रण ने इनमें अनेक विकृतियां पैदा की हैं। आज बाजार हमारी जरूरतों पर निर्भर नहीं बल्कि वह खुद हमारी जरूरतें निर्धारित कर रहा है और मीडिया इसमें घी का काम कर रहा है। बाजार जहां मनुष्य को अब मात्र एक ‘उपभोक्ता’ के रूप में देखता है वहीं विज्ञापन जगत उस उपभोक्ता को विज्ञापित सामानों के अधिकाधिक उपभोग द्वारा ही स्वयं को अच्छा, स्मार्ट और आधुनिक साबित करने के लिए उकसाता है। आज विज्ञापन केवल वस्तुओं व सेवाओं की मार्केटिंग का माध्यम भर नहीं हैं अपितु पूंजीवाद के एक धारदार औजार के रूप में इसका तेवर उत्तरोत्तर आक्रामक और खतरनाक होता जा रहा है। कुछ भी करके अपने प्रोडक्ट कोे भौतिक बाजार में ही नहीं बल्कि लोगों के मन-मस्तिष्क में उतारकर उनकी मानसिकता पर वार करना ही अब विज्ञापनों का लक्ष्य बनता जा रहा है। लुभावने विज्ञापनों द्वारा हमारी सोंच को इस प्रकार भ्रमित कर दिया जाता है कि हमें विज्ञापनों में दिखाया गया हर झूठ सच लगता है और हम अपने विवेक को ताक पर रखकर सम्मोहित सा व्यवहार करते हैं। टीवी विज्ञापनों का उद्देश्य है खरीददार की बची खुची तर्क शक्ति समाप्त करना, विनिमय की आंतरिक तर्कबद्धता को अनावश्यक उपभोग की निम्नतम इच्छा में रूपांतरित करना। कई उदारपंथी और माक्र्सवादियों द्वारा स्वीकृत इस विचार के अनुसार अपनी बिक्री बढ़ाने और बाजार में हिस्सेदारी बनाए रखने के लिए विज्ञापनकर्ता कुछ भी कर सकते हैं।1 बच्चे उपभोक्ताओं के एक ऐसे बहुमूल्य एवं विशिष्ट वर्ग को निर्मित करते हैं जिनसे मजबूत संबंध स्थापित करने का प्रयास प्रत्येक विपणनकर्ता करता है। इस कार्य के लिए बाजार विज्ञापनों को एक माध्यम के रूप में प्रयोग करता है। यह एक आभासी दुनिया है जिसके जरिये हमें बताया जाता है कि हमारी प्रसन्नता, प्रतिष्ठा और आधुनिकता सभी इन वस्तुओं के उपभोग की समतुल्यता से निर्धारित होती है। जहां तक बच्चों का प्रश्न है, इलेक्ट्रानिक मीडिया आज बच्चों का मित्र, मार्गदर्शक तथा गुरू बनता जा रहा है। आज हम अपने बच्चों को सभी संभव सुख-सुविधाएं तो दे रहे हैं, किन्तु समय नहीं। बच्चे अपना अकेलापन तमाम तरह के इलेक्ट्रानिक उपकरणों जैसे-टी0 वी0, मोबाइल, कम्प्यूटर इन्टरनेट आदि के साथ बांट रहे हैं। बच्चों का बड़ों के साथ संवाद घटता जा रहा है। वैश्वीकरण ने आज इन उपकरणों की भूमिका पूरी तरह बदल दी है। ये सभी माध्यम अपने सामाजिक, सांस्कृतिक और लोकशिक्षण के दायित्व से कट चुके हैं और मात्र कारोबारी हित साधन में लिप्त हैं। बच्चे कल्पनाशील होते हैं। मीडिया की सतरंगी चमक उनकी कल्पना से मेल खाती है, अतः वे आसानी से मीडिया के प्रभाव में आ जाते हैं। मीडिया ही आज बच्चों की भाषा, संस्कार, व्यवहार, चिंतन, व्यक्तित्व आदि सभी को प्रभावित कर रहा है।2 उनका कोमल और सरल मन कल्पना और यथार्थ का अन्तर नहीं पहचानता अतः इनमें दिखने वाले पात्र, उनका व्यवहार, भाषा, वेषभूषा और कार्यशैली को आदर्श मानकर बच्चे उनका पूर्णतः अनुकरण करना चाहते हैं। सुप्रसिद्ध मीडिया समालोचक सुधीश पचैरी का मत है कि बच्चे निष्क्रिय उपभोक्ता होते हैं और विज्ञापनों की झनकार से सम्मोहित हो जाते हैं। उन्हें जो पसंद है वह हर कीमत पर उन्हें चाहिए।3 चिन्ता की बात यह है कि विज्ञापन कम्पनियों ने अपने प्रोडक्ट का बाजार भविष्य के लिए सुनिश्चित करने हेतु बच्चों को अपना ‘टारगेट’ बना लिया है। वर्तमान में जनमाध्यम बच्चों को उपभोक्ता की स्थिति में देख रहे हैं उन्हें बचपन भी तभी मान्य है जब वह उपभोक्ता होकर आता है जहां ऐसा नहीं होता वहां बाजार बालश्रम व बालमन के दोहन के पुराने हथियारों को और भी पैना व धारदार बनाकर उसकी मासूमियत के विरोध में प्रयुक्त करता है। अब हिंसा, कामुकता, रोमांस, संगीत, विज्ञान, खेल, धारावाहिक, कार्टून और सीरियल आदि को बचपन से नत्थी करके प्रस्तुत किया जा रहा है ताकि उसमें छुपी उपभोगवादी मानसिकता को मासूमियत में लपेट कर मन मस्तिष्क में इस तरह बैठा दिया जाए कि प्रतिवाद होने की संभावना ही लगभग समाप्त हो जाए। बचपन का प्रतिरोध आसान नहीं होता और बचपन द्वारा प्रायोजित वस्तु विशेष की इमेज को तोड़ना लगभग असंभव कार्य होता है, यह तथ्य पूंजीवाद, बाजार और विज्ञापन बखूबी जानता है। बच्चों के संदर्भ में विज्ञापनों की वैचारिक तत्व नीति को देखने पर कुछ मुख्य पहलू सामने आते हैं-

पहली तरह के विज्ञापन वे हैं, जिनमे बच्चे प्रमुख भूमिकाओं में हैं और विज्ञापित वस्तु व उत्पाद सीधे उनसे संपृक्त हैं।

दूसरी तरह के विज्ञापनों में बच्चे प्रमुख भूमिकाओं में तो हंै परंतु विज्ञापित वस्तु व उत्पाद सीधे उनसे संपृक्त नहीं हैं।

तीसरे तरह के विज्ञापनों में बच्चे प्रमुख भूमिकाओं में नहीं है तथा उत्पाद से भी प्रत्यक्षतः संबंधित नहीं है परंतु उनकी उपस्थिति समस्त वातावरण को विश्वसनीय बनाने में योगदान देती है। भारतीय परिवार की छवि को सजीव बनाने की रणनीति विज्ञापन में घर के भीतर बच्चों को दिखाने पर बल देती है।

विज्ञापन जब बाल छवियों का प्रयोग करता है तो इस प्रचार अभियान के द्वारा सीधे-सीधे उसके व्यवहार द्वारा हमला बोला जाता है। उसकी सारी बाल-छवियों, आचरण और क्रीड़ाओं को उत्पादक विज्ञापन में समाहित कर लेता है और इस तरह उसे एक आदर्श ग्राहक के रूप में प्रस्तुत किया जाता है कि अब वह आम ग्राहक का आदर्श बन जाता है।4 शैम्पू, तेल, साबुन, कार, कपड़े, जूते, फोन, फर्नीचर, मकान, शीतल पेय हर विज्ञापन में एक न एक बच्चा अवश्य मौजूद है। बच्चों के लिए यह चमक-दमक से भरा ‘मायालोक‘ एक आदर्श दुनिया है जिसे वह हर कीमत पर पाना चाहता है। बच्चे बाजार की चालों को समझने में असमर्थ हैं। बच्चों को प्रभावित करने के लिए अधिकतर विज्ञापनों में बाल कलाकारों को माॅडल के तौर पर लिया जा रहा है। विज्ञापनों के ये बच्चे आम बच्चों को लुभाते हैं। उनके जैसा दिखने के लिए, अपने दोस्तों के बीच दिखाने के लिए कि ‘मैं किसी के कम नहीं’ या अपने दोस्तों की बराबरी करने के लिए बच्चे अब वस्तु नहीं बल्कि ‘ब्रांड’ मांगते हैं और इच्छित वस्तुएं पाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। विज्ञापनों के इस भ्रामक संसार ने बच्चों के खान-पान की रुचियों व जीवन शैली को बदल दिया है जिससे उनके शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। एक बड़ी संख्या में खाद्य सामग्री से संबंधित विज्ञापन या तो बच्चों के टीवी चैनलों पर प्रसारित किए जाते हैं या उन प्राइम चैनलों पर प्रसारित किए जाते हैं जिन्हें बच्चे देखते हैं। यदि बचपन से संबंधित सर्वाधिक विज्ञापित किए जाने वाले खाद्य पदार्थों की बात करें तो उनमें मीठे खाद्य पदार्थ, कैंडी, डेजर्टस, कम पोषक पेय पदार्थ एवं नमकीन स्नैक्स जिन्हें सामूहिक रूप से ‘बिग फाइव’ खाद्य पदार्थ कहते हैं, इस श्रेणी में आते हैं यह वे उत्पाद हैं जिनके लिए बच्चे बार.बार अपने अभिभावकों से अनुरोध करते हैं। विज्ञापन दाता आमतौर पर अपने संभावित ग्राहकों को आकर्षित करने तथा बच्चों से अपने मजबूत संबंध स्थापित करने हेतु अपने विज्ञापनों में मस्ती, कल्पना, हास्य भाव, एनिमेशन आदि पर अपना सारा ध्यान केंद्रित करते हैं किंतु उनके इस प्रयास में इन खाद्य पदार्थों के पोषण संबंधी पहलुओं को साफ तौर पर नजर अंदाज कर दिया जाता है। इतना ही नहीं अपने उत्पाद के संवर्द्धन एवं समर्थन हेतु प्रायः बच्चों के लोकप्रिय कार्टून चरित्रों और मशहूर हस्तियों के नाम का भी विज्ञापनों में प्रयोग होता है कुछ विपणनकर्ता तो अपने उत्पाद का नामकरण ही विभिन्न कार्टून चरित्रों के नाम पर करते हैं जो मासूम बचपन को प्रभावित करने वाले कारक के रूप में उचित नहीं कहा जा सकता, उनके इस कृत्य को बचपन के ‘भावात्मक दोहन’ की श्रेणी में रखा जा सकता है।5 विभिन्न प्रकार के पोषक तत्वों से भरपूर भोज्य सामग्रियों के बजाय बच्चे अब फास्ट-फूड चाउमिन, पित्ज़ा, बगैर, चिप्स, चाॅकलेट, कोल्ड डिंक्स, केक, ब्रेड, बन आदि में ही रूचि रखते हैं। सर्वेक्षणों में यह तथ्य सामने आया है कि बच्चों में शर्करा, कोलेस्ट्रोल, उत्तेजना, तनाव, मानसिक विकार आदि बढ़ रहा है। उनकी शारीरिक क्षमता में कमी आती जा रही है जबकि मोटापा बढ़ रहा है। आंख व दांत छोटी उम्र में ही खराब हो रहे हैॅं। वे बीमारियां जो पहले केवल प्रायः प्रौढ़ों एवं बूढ़ों की मानी जाती थीं-मधुमेह, ब्लडप्रेशर, नेत्र रोग, हृदय रोग तथा पाचन तंत्र की गड़बड़ी आदि, अब बच्चों में तेजी से घर करती जा रही हैं। यही नहीं उनके मन-मस्तिष्क पर भी इसका गहरा असर है। ललचाऊ और भड़काऊ विज्ञापन उन्हें चिड़चिड़ा, फिजूलखर्च, जिद्दी, क्रोधी व हिंसक बना रहे हैं। लेडी इरविन काॅलेज की आहार विशेषज्ञ डाॅ0 सुषमा शर्मा कहती हैं कि ‘‘नूडल्स और झागवाले पेय जैसे फटाफट भोजन और आचरण में बदलाव के बीच एक तरह का संबंध है।’’ नेपाल में मध्यवर्ग के बच्चों की खान-पान संबंधी आदतों पर हाल में हुए एक अध्ययन से पता चलता है कि सप्ताह में तीन बार इस तरह का भोजन करने वाले बच्चे एकाग्रता की कमी से पीड़ित थे और अति चंचल भी। वे कहती हैं कि ‘अति चंचल बच्चे झगड़ालू बन जाते हैं।‘6 टेलीविजन बच्चों के जीवन में एक इलेक्ट्रॉनिक बेबी सीटर के रूप में प्रवेश करता जा रहा है बच्चे अपने समय का एक बड़ा भाग टेलीविजन देखने में व्यतीत करते हैं जिससे उनका संबंध टेलीविजन पर प्रसारित कार्यक्रमों के माध्यम से बढ़ता जाता है और विभिन्न प्रकार के उस्तादों के विषय में उनकी जानकारी में वृद्धि होती रहती है, कभी-कभी तो यह जानकारी इतनी बढ़ जाती है यह बच्चे अपने परिवार के अन्य सदस्यों को खरीदारी करने में सहयोग करते हैं और कहीं-कहीं तो वे परिवार के लिए स्वयं ही स्वतंत्र खरीदारी करते हैं। टेलीविजन पर लगातार आने वाले खाद्य पदार्थों के विज्ञापनों तथा बच्चों की इन विज्ञापनों के प्रति बढ़ती हुई रूचि के कारण इन उत्पादों एवं ब्रांडों के प्रति बच्चों की ब्रांड निष्ठा स्थापित हो जाती है, ऐसी स्थिति में माता-पिता के लिए बच्चों के खान-पान पर कठोर नियंत्रण करना असंभव सा हो जाता है। इतना ही नहीं उन लोगों द्वारा लगातार किसी उत्पाद का निषेध एवं उसको खरीदने की प्रवृत्ति को हतोत्साहित करना दुष्कर होता है और यदि वे फिर भी ऐसा करने का प्रयास करते हैं तो यह क्रिया बच्चों और उनके मध्य गतिरोध एवं संघर्ष को जन्म देती है। कुछ माता-पिता बच्चों के साथ टेलीविजन देखते हुए सक्रिय मध्यस्थता का कार्य करते हैं अर्थात अभिभावक बच्चों को मीडिया के सकारात्मक या नकारात्मक पहलुओं से अवगत कराते चलते हैं। इस प्रकार अभिभावक विज्ञापनों के दुष्परिणामों को कम करने में समर्थ हो सकते हैं क्योंकि जब अभिभावक बच्चों के साथ प्रोग्राम सामग्री पर चर्चा करते हैं तो यह चर्चा बच्चों को कार्यक्रम का मूल्यांकन करने में मदद करती है बच्चों को टेलीविजन से अधिक से अधिक सीखने के लिए प्रेरित भी करती है। विज्ञापनों के प्रति दृष्टिकोण संचार की प्रकृति एवं परिवारों द्वारा बच्चों के पालन-पोषण के तरीके आदि कुछ ऐसे महत्वपूर्ण घटक हैं, जिनके द्वारा विभिन्न परिवारों द्वारा प्रयुक्त मध्यस्थता शैली निर्धारित होती है। भारतीय परिवेश में टेलीविजन विज्ञापन के प्रति स्थापित धारणा है कि विज्ञापन एक अवैयक्तिक संप्रेषण है जिसका उद्देश्य विज्ञापन देखने वाले को नवीन उत्पादों से अवगत कराना एवं उसे बाजार के बारे में शिक्षित करना है तथा विज्ञापन उपभोक्ताओं के हाथ में एक उपयोगी सूचना अस्त्र है, किन्तु दिल्ली के 9 जनपदों में से 1000 परिवारों का चयन कर उनके बीच किए गए सर्वेक्षण से इस तथ्य का खुलासा होता है कि जब अभिभावकों से यह पूछा गया कि क्या उनकी राय में विज्ञापन बच्चों पर खाद्य सामग्री तथा खिलौने आदि खरीदने के लिए दबाव बनाते हैं, तो लगभग 72 प्रतिशत से भी ज्यादा उत्तरदाताओं ने यह स्वीकार किया तथा लगभग 76 प्रतिशत अभिभावक यह मानते हैं कि आधुनिक विज्ञापन बच्चों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ करते हैं। 71 प्रतिशत से भी ज्यादा उत्तरदाताओं का यह मानना है कि अभिभावकों तथा बच्चों के बीच संबंध को दर्शाने वाले आकर्षक विज्ञापनों के बार-बार दिखाए जाने के कारण विशिष्ट उपभोग प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलता है। 72 प्रतिशत से भी ज्यादा लोगों ने माना कि बहुराष्ट्रीय निगम बच्चों को अपने बाजार के केवल एक भाग के रूप में देखते हैं तथा वे उन बच्चों की भावनाओं के संदर्भ में कुछ नहीं सोंचते, जो उनका उत्पाद खरीदते हैं।7 इस प्रकार विज्ञापन बचपन संबंधी सभी पूर्व धारणाओं को उलट-पलट रहा है और जो नई इमेज बना रहा है वे संदर्भों के अभाव में भावहीन, अतार्किक, गतिशील एवं उत्तेजक हैं। आज विज्ञापनों की यह तिलिस्मी दुनिया हमारे बच्चों को कौन से स्वप्न बेच रही है, उनके सामने कौन से मूल्य गढ़ रही है, बच्चों के रोल माॅडल्स आज कौन बन रहे हैं, उनके व्यवहार में किस प्रकार के परिवर्तन परिलक्षित हो रहे हैं, उनका शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य किस प्रकार प्रभावित हो रहा है, इन सभी तथ्यों की जांच, पड़ताल करना अपरिहार्य है।

सन्दर्भ सूची

  1. आज की दुनिया में सूचना पद्धति-मार्क पोस्टर, 2010, पृ0-77

  2. वर्तमान परिवेश और बच्चों पर दबाव- लेख, डाॅ0 रवि शर्मा, आजकल, नवंबर 2009, पृ0-5

  3. यह लावा कहां से आता है-लेख, मधु जैन, ‘बच्चे और हम’- सम्पा0-राजकिशोर, 2005, पृ0-69

  4. उपभोग संस्कृति, बाजार और बचपन-रीनू गुप्ता, आदित्य पी0 त्रिपाठी आदि, 2013, पृ0-85

  5. वही, पृ0-8

  6. यह लावा कहां से आता है-लेख, मधु जैन, ‘बच्चे और हम’- सम्पा0-राजकिशोर, 2005, पृ0-69

  7. उपभोग संस्कृति, बाजार और बचपन-रीनू गुप्ता, आदित्य पी0 त्रिपाठी आदि, 2013, पृ0-143-152

  8. कितना तंदुरूस्त है आपका बच्चा – इंडिया टुडे, नवंबर, 2009

  9. बाजार की बिसात पर बचपन- दैनिक जागरण, नवंबर, 2012

  10. ‘टेलीविजन‘ समीक्षा सिद्धान्त और व्यवहार-सुधीश पचौरी, 2006

छन्द विन्यास: लेखक-डा संजीव चौधरी, समीक्षक-राजेश कुमार सिन्हा

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एक ख्याति लब्ध शल्य चिकित्सक का कवितायें लिखना या दूसरे शब्दों में कहें तो सिर्फ कवितायें नहीं लिखना बल्कि छन्द पर आधारित कवितायें लिखने के लिए काव्य लेखन कुंजी के रुप में एक पुस्तक लिख देने को सही मायने में मणि कांचन संयोग कहा जा सकता है,जो विरले ही देखने को मिलता है।डा संजीव कुमार चौधरी एक शल्य चिकित्सक होने के साथ साथ एक प्रोफेसर भी हैं जिनका पहला शौक है कवितायें लिखना।डा संजीव की यह तीसरी पुस्तक है जो काव्य सृजन में सबसे कठिन समझे जाने वाले विषय “छन्द”पर पूरी जानकारी देने के साथ साथ छन्द में काव्य लेखन की बारीकियों को उदाहरण के साथ समझाती भी है।ऐसे में यह कहना ज्यादा उचित होगा कि पहली बार किसी ने एक ऐसी सहायक पुस्तक तैयार की है जिसके सहयोग  से नये सृजक थोड़ा प्रयास करके छन्द  में अपनी कवितायें लिखना (जो आमतौर पर काफी जटिल कार्य माना जाता है)प्रारम्भ कर सकते हैं।

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यह पुस्तक कैसी होगी इसकी बानगी इसी बात से मिल जाती है कि प्राक्कथन भी छन्द और मात्रा को ध्यान में रख कर लिखा गया है छन्द लेखन प्रक्रिया पर भरा ज्ञान का भंडार आदिकाल से नवयुग तक अनेकों हैं विचार पुख्ता जो करना हो कविता का शिलान्यास मददगार साबित होगी यह पुस्तक छन्द विन्यास आज कवितायें खूब लिखी जा रही हैं और यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि आज की हिन्दी कविता भारत की और विश्व की बहुत सी कविता से बेहतर है।पर जब मुझ जैसा कोई नवोदित कवि अपनी बात छन्द-बद्ध तरीके से कहना चाह्ता है तो उसके सामने पहली समस्या यह होती है कि वह छन्द जैसे जटिल विषय का कितना अध्ययन करे कि वह अपनी अभिव्यक्ति छन्द-बद्ध रुप में प्रस्तुत कर सके,तो इसमें कोई दो राय नहीं कि ऐसी समस्या का समाधान यह पुस्तक अवश्य कर सकती है।

डा संजीव इस जटिलता का हल अपनी पुस्तक के पहले खण्ड मे बड़ी ही  सहजता से दे देते हैं भावना का कर श्रृंगार झंकृत करे मन के तार शब्द विहंसे मंद मंद कविता है वही तो छन्द और फिर डा सन्जीव आगे लिखते हैं प्रस्तुत है छन्द की सरंचना की यह अद्भूत कथा नवोदित रचनाकारों की दूर करेगी थोड़ी व्यथा स्वर-अक्षर कहलाए वर्ण तो सिर्फ स्वर मात्रा गति यति तुक मात्रा गणना से बंधती छन्द यात्रा अक्षर के उच्चारण काल को कवि कह्ते हैं स्वर हलन्त लगे अगर नहीं गिने जाते वर्ण वो अक्षर इस तरह एक कविता की पूरे छन्द विन्यास के सिद्धांत और उसके प्रयोग को समझाने की कोशिश की गई है।कह्ते हैं कि जीवन को जिस आँख से कविता देखती है वह कवि की अपनी होती है इसलिये उसमें दृश्य का अनूठापन और स्वप्न की अंतरंगता एक साथ पाई जाती है और इन दोनों के साथ मिलने के बाद जो अभिव्यक्ति के स्वर बनते या निकलते हैं वे बेशक विशेष होते हैं।ऐसे में यह कहा जा सकता है कि यहाँ कवि जिस नजरिये से छन्द को देखता है वह बिलकुल स्पष्ट है और अनोखा भी है :छन्द की जटिलता को सरल बनाते हुए नवोदित रचनाकारों को छन्द बद्ध रचनायें लिखने के लिए प्रोत्साहित करना।

यहाँ एक सवाल यह भी उठता है कि छन्द में क्यों लिखा जाये?जाहिर तौर पर यह विमर्श का विषय हो सकता है या इस पर लम्बी चौड़ी बहस की जा सकती है। बेशक अगर सामान्य अर्थों में समझा जाये तो छन्द रचना की गेयता को बढ़ा कर उसे मधुर और खूबसूरत बना देता है जिससे पाठक को एक सुखद अनुभूति होती है ,पर डा संजीव न तो  इस बहस में पड़ते हैं और न ही छन्द के पैरोकार के रुप में नज़र आते हैं बल्कि उनकी मंशा यही है कि नवोदित रचनाकार इसे इतना जटिल नहीं समझें जितना इसे मान लिया जाता है।इस पुस्तक में चार खण्ड हैं पहले में छन्द परिचय दूसरे में मात्रिक छन्द तीसरे में वर्णिक छन्द और चौथे में छन्द मुक्त/नव सृजन के बारे में चर्चा की गई है।मात्रिक छन्द में 60 वर्णिक में 61 और नव सृजन के अन्तर्गत 17 अलग अलग प्रकार की विधा पर चर्चा भी उसी विधा में लिखी गई रचना के माध्यम से की गई है।इस विशेषता को इन उदाहरणों के माध्यम से देखा जा सकता है।पर यहाँ मेरे विशेषता का अर्थ विशेषता है अद्वितीयता नहीं,अद्वितीय होने पर दूसरों से अपनी निजता का साझा नहीं रह जाता अथार्त संवाद और सम्प्रेषण पर भी प्रश्न चिन्ह लग जाता है।मात्रिक छन्द
मात्रा भार का ध्यान रख रचे जाते जो छन्द प्रचलित हैं साहित्य में अनेकों मात्रिक छन्द हर चरण में जो हो मात्रा की गणना समान ऐसी रचनाओं को सम मात्रिक लेते हैं मान 
सम मात्रिक के भी कई प्रकार हैं मसलन अहीर, तोमर, लीला ,मधु मालती, मनोरम ,चौपाई सगुण ,सिन्धु राधिका ,रोला, गीता, विष्णु पद, छन्न पकैया, तांटक, विधाता और कुण्डलिया आदि।
वर्णिक छन्द 
वर्णों की गणना आधारित होता छन्द वर्णिक मात्रा गिनने का इसमें न रहे प्रतिबंध तनिक लघु गुरु का क्रम भी जो होते चरणों में तय गणों के नियत क्रम सजा करें चरण निश्चय सात चरणों में वर्णों की संख्या रखे समान सम वर्णिक छन्द को दें वर्णिक वृत का  मान वर्णिक छन्द के भी कई प्रकार हैं मसलन मल्लिका, स्वागता, भुजंगी, शालिनी, इन्दिरा, तोटक, चामर, सवैया मदिरा, किरीट, घनाक्षरी, मनहरण घनाक्षरी आदि।
मुक्तछन्द /नव सृजन 
आधुनिक युग की मुक्तछन्द है देन लय प्रवाह बना येन केन प्रकारेण मात्रा वर्ण गणना का ना होवे मान स्वछन्द गति भाव वश यति विधान 
इसके भी कई प्रकार हैं मसलन तुकान्त/अतुकांत मुक्त छन्द, पंचाट छन्द , हाइकु , तांका , सेदोका , वर्ण पिरामिड ,डमरू काव्य ,माहिया, गीत विधा, चतुष्पदी मुक्तक और क्षणिकाएं आदि।
इसके अतिरिक्त डा संजीव ने अपनी एक नई काव्य विधा “पंचाट छन्द विधा” भी इजाद की है।
पंचाट नाम की मेरी नव मौलिक विधा न कठिन परम्परागत नियम की दुविधा रचे समूह रख सम तुकान्त पँक्तियाँ पाँच समूहों के अलग तुकान्त ना लायें आँच समूहों की संख्या रख लें चाहे जितनी न्यूनतम तीन तो मगर होगी ही रखनी


डा संजीव चौधरी की” छन्द विन्यास” को पढ़ कर ऐसा नहीं लगता कि वे पेशे से एक शल्य चिकित्सक हैं बल्कि ऐसा लगता है कि वे छन्द विधा के चिकित्सक हैं।इसमें कोई दो राय नहीं कि इनकी यह कृति पठनीय और संग्रहनीय है जिसका स्वागत किया जाना चाहिये।

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राजेश कुमार सिन्हा

बान्द्रा (वेस्ट),

मुंबई -507506345031

हवा का इंतजाम (बालकथा- संग्रह), लेखक : गोविंद शर्मा, समीक्षक- ज्ञानप्रकाश ‘पीयूष’

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समीक्ष्य कृति:  हवा का इंतजाम (बालकथा- संग्रह) 
लेखक : गोविंद शर्मा 
प्रकाशक : साहित्यागार, जयपुर -03
प्रथम संस्करण : 2021.
पृष्ठ संख्या : 80,   मूल्य :  ₹200.00/- (सजिल्द)

भाव संवेदनाओं से संपृक्त प्रेरक बालकथा-संग्रह :हवा का इंतजाम

विगत पाँच दशकों से सृजन-कर्म में रत सिद्धि-लब्ध बाल साहित्यकार गोविंद शर्मा का  सद्य प्रकाशित बालकथा-संग्रह “हवा का इंतजाम” ने बाल साहित्य जगत में एक और पुरजोर दस्तक दी है। यह बालकों के जीवन में संस्कारों की उज्ज्वल जोत जगाता है  तथा उनका समुचित मार्गदर्शन ,ज्ञानवर्धन व मनोरंजन करता है। गोविंद जी के अनुसार – यह संग्रह उनका गृह-उत्पाद है।उनके शब्दों में कहें तो – ” इस संग्रह को मेरा गृह-उत्पाद भी कह सकते हैं। कहानियाँ मैंने लिखी हैं, कहानियों के साथ रेखाचित्र और प्रथम आवरण मेरी दोहिती प्राची मटोलिया ने बनाए हैं।
एक कहानी ‘वनराज और गजराज’का रेखाचित्र और अंतिम कवर मेरे पौत्र अम्बुज शर्मा ने बनाया है। कहानियों को क्रम दिया है,छोटे पौत्र रितिक शर्मा ने।”

समीक्ष्य कृति में कुल 17 बाल कथाएँ संगृहीत हैं, जो बाल मनोविज्ञान के धरातल पर आधारित, सरल व सुबोध भाषा में रचित हैं तथा भाव-संवेदनाओं से संपृक्त हैं। इनमें बाल सुलभ जिज्ञासा,कौतूहल, कल्पना का समुचित वैभव, रोचकता और मनोरंजन के साथ सामाजिक संदेश भी विद्यमान हैं जो पुस्तक की 
अर्थवत्ता ,बोधगम्यता व  उपादेयता में चार चाँद लगाते हैं। 

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संग्रह की पहली बालकथा “हवा का इंतजाम” 
दादा-पोते के आत्मिक प्यार को उद्घाटित करती है 
और संयुक्त परिवार के महत्त्व को भी प्रतिपादित करती है क्योंकि बाल प्रतिभा के सर्वांगीण विकास में माता-पिता के लालन-पालन व निर्देशन के साथ दादा-दादी के निश्छल प्यार की भी अहम भूमिका
होती है। इसी कहानी की मूल संवेदना के आधार पर आलोच्य कृति का नामकरण “हवा का इंतजाम” किया गया है जो कि सर्वथा समीचीन एवं उपयुक्त है।

“वनराज और गजराज” कहानी में शेर को वनराज और हाथी को गजराज कहने की सार्थकता पर रोचक ढंग से संवादात्मक शैली में प्रकाश डाला गया है।
“कला की कद्र” कहानी प्रस्तुतीकरण और सन्देश की दृष्टि से बहुत उत्कृष्ट है। इसमें कला के महत्त्व पर प्रकाश डालने के साथ उच्च विचारों की उपादेयता 
को भी रेखांकित किया गया है। 
गोविंद शर्मा की इन कहानियों को पढ़कर बालक संस्कारवान बनेंगे और उनमें कला व उच्च विचारों के प्रति आस्था पैदा होगी।

” चिंपू के सच्चे दोस्त” और “चिंपू बन गया” कहानियाँ
भी बड़ी प्रभविष्णु और शिक्षाप्रद हैं। “चिंपू के सच्चे दोस्त” में बताया गया है कि जानवर मानव से गुणों में कम नहीं होते। वे बड़े समझदार होते हैं।हमें उन पर शक नहीं करना चाहिए तथा “चिंपू बन गया” कहानी मानव के मनोविज्ञान पर प्रकाश डालती है। यदि किसी मानव के सामने उसकी प्रशंसा की जाए तो वह ऊर्जावान हो कर अच्छा प्रदर्शन करने लगता है और सफ़लता अर्जित कर लेता है।
“हौसले की उड़ान” बैल की जगह गाड़ी में खुद जुत कर पानी की सेवा करने वाले आसाराम की प्रेरणादायी व शिक्षाप्रद कहानी है।
“चूहागढ़ में चुनाव” हास्य मिश्रित व्यंग्यात्मक शैली में रचित एक प्रभावशाली बालकथा है। इसमें सरकारी गोदामों की दुर्दशा पर तीक्ष्ण कटाक्ष किया गया है। लेखक ने सरकारी गोदामों को चूहागढ़ कहा है क्योंकि वहाँ असंख्य चूहों का साम्राज्य होता है। कहानी में दो चूहों ‘उल्टा’और ‘पुल्टा’ के बीच चुनाव लड़ने की प्रतियोगिता होती है। ‘उल्टा’ चुनाव जीत कर चूहागढ़ में सुधार करना चाहता है। वह अपना चुनाव घोषणा-पत्र तैयार करता है। उसका मानना है कि चूहे अनाज की नई-नई बोरियों को काट देते हैं।उनमें से थोड़ा-सा अनाज खाते हैं और बहुत-सा अनाज खराब कर देते हैं। अतः वह चाहता है कि अनाज की बोरियों को रखते समय जो अनाज जमीन पर नीचे गिर जाता है,चूहे उसी अनाज को खाएँ,वे  बोरियों को न काटें।
परन्तु ‘पुल्टा’  “खूब खाने और खूब बिखराने” की नीति में विश्वास  रखता है ।वह इंसानों को अपने ख़िलाफ़ मानता है कि “वे हमें पिंजरों में बंद कर के खुले में,झाड़ियों में या दूसरों के घरों में छोड़ देते हैं और
हमें मरवाने के लिए बिल्लियाँ  पालते हैं।” 
चुनाव हुआ ।उल्टा चुनाव जीत गया। ज़्यादातर वोटरों ने अच्छा काम करने के पक्ष में वोट दिए। पुल्टा ने उल्टा को बधाई दी और उसकी नीति के अनुसार ही अच्छा काम करने का मन बनाया। उसने उल्टा से कहा- ” ठीक है, अब मेरी बात सुनो। तुम्हें सौ में से नब्बे ने सही माना है। अब मैं भी तुम्हें सही मान गया हूँ। जो नौ हैं उन्हें हम दोनों मिलकर बनाएंगे ।तुमने बहुत अच्छी बातें अपने घोषणा-पत्र में लिखी हैं। एक मेरी तरफ से जोड़ लेना कि हम चूहे अब यहाँ-वहाँ खुले में शौच नहीं करेंगे। इसके लिए कुछ स्थान निश्चित करेंगे।हमारे शौच से ही अनाज दूषित होता है जब हम किसी के लिए नुकसान पहुँचाने वाले नहीं होंगे तो वे हमें क्यों मारेंगे?”
” वाह, मैं तुमसे सहमत हूँ।” 
“हम अपने चूहागढ़ में सुधार करेंगे।उसके बाद  दूसरी जगह स्थित चूहागाँव, चूहानगर,चूहापुर,चूहा कॉलोनी में हम अच्छी बातों के लिए काम करेंगे।”पृष्ठ-34.
इस प्रकार लेखक ने प्रस्तुत कहानी के माध्यम से बालकों  के मन में अच्छाई  का बीजारोपण करने का
श्लाघनीय प्रयास किया है तथा यहाँ-वहाँ शौच न करने व स्वच्छता को बढ़ावा देने के सामयिक सामाजिक स्वच्छता अभियान को पुष्ट किया है। 
ये कहानियाँ न केवल बालकों के लिए उपयोगी हैं अपितु हर वर्ग के पाठकों के लिए प्रेरणादायी ,
मनोरंजक व ज्ञानवर्धक हैं।

इन बाल कहानियों के अतिरिक्त ” टांय-टांय फिश, बब्बू जी और मोबाइल,परीक्षा परी का उपहार,देश की सेवा,वह सच बोला,बुद्धि की तलाश,दोस्ती, बदल गया बदलू, जूते व हाथी पर ऊँट आदि कहानियाँ विविध विषयों पर आधारित बहुत रोचक, ,ज्ञानवर्धक एवं सन्देशप्रद हैं जो देश प्रेम, मानव सेवा ,वृक्षारोपण,
दोस्ती की उपादेयता व सत्य बोलने के महत्त्व आदि पर सरल शब्दों में प्रकाश डालती हैं। 
बाल कहानियों की कथावस्तु से मेल खाते आकर्षक चित्र इस कृति का वैशिष्टय हैं जो समीक्ष्य कृति की बोधगम्यता को सुग्राह्य बनाते हैं। 
समीक्ष्य कृति कथ्य,शिल्प, अभिव्यक्ति कौशल व रचना अभिप्रेत की दृष्टि से बहुत श्रेष्ठ है। इनमें सरल-मुहावरेदार भाषा व हास्य-व्यंग्य प्रधान शैली 
का सुंदर प्रयोग हुआ है। वर्तमान  समय में ऐसे प्रेरणादायी बालकथा साहित्य के सृजन की नितांत आवश्यकता है। मुझे आशा है कि गोविंद शर्मा जी भविष्य में इससे भी उत्कृष्ट बालकथा साहित्य का सृजन कर अपने पाठकों को उपकृत करेंगे।शुभकामनाओं सहित।
शुभेच्छु
ज्ञानप्रकाश ‘पीयूष’
पता-
ज्ञानप्रकाश ‘पीयूष’ आर.ई.एस.
पूर्व प्रिंसिपल,
1/258, मस्जिद वाली गली, 
तेलियान मोहल्ला,नजदीक सदर बाजार सिरसा-125055(हरि.) संपर्क–094145-37902,070155-43276
ईमेल-gppeeyush@gmail.com

योग

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योग
माया के लोभी नहीं  
बड़भागी वह लोग,
तन ,मन सदा स्वस्थ रहे, 
करते हैं नित योग
करते हैं नित योग , 
डाह से दूर सदा हैं
चैन , प्रेम, संतोष , 
हृदय  में रचा बसा है
कहें ’ओ्म’ कविराय , 
भाग्य से दिन फिर आया
विश्व करेगा योग, 
इसी मे ब्रह्म समाया !
-ओम प्रकाश नौटियाल

जनता द्वारा मूल्यांकित कवि हैं रमई काका! : विश्वनाथ त्रिपाठी

जनता द्वारा मूल्यांकित कवि हैं रमई काका! : विश्वनाथ त्रिपाठी

यह ४८-४९ की बात है, भारत आजाद हो गया था। मैं बलरामपुर में पढ़ता था। बलरामपुर रियासत थी, अवध की मशहूर तालुकेदारी थी वहाँ, समझिये कि लखनऊ और गोरखपुर के बीच की सबसे बड़ी जगह वही थी। वहीं मैं डी.ए.वी. स्कूल से हाई स्कूल कर रहा था। वहाँ एक बहुत अच्छा स्कूल था, एल.सी. कहलाता था, लॊयल कॊलिजिएट, महाराजा का बनवाया हुआ था और बहुत अच्छा था। उसमें बहुत अच्छे अध्यापक होते थे। संस्कृत के पं. रामप्रगट मणि थे। उर्दू में थे इशरत साहेब जिनको हम गुरू जी कहते थे। वहाँ मुशायरे बहुत अच्छे होते थे, बहुत अच्छे कवि सम्मेलन होते थे। एक बार कवि सम्मेलन हुआ वहाँ, उसी में रमई काका आये हुए थे।

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 रमई काका के साथ एक कवि थे, ‘सरोजनाम में था उनके। नये कवि थे, मशहूर थे। लेकिन रमई काका ज्यादा मशहूर थे। तब रमई काका की उमर रही होगी ३५-४० के बीच में। अच्छे दिखते थे, पतले थे। काली शेरवानी पहने थे। पान खाए हुए थे। उन्होंने काव्य-पाठ किया। उन्होंने जो कविताएँ पढ़ीं, तो उसकी पंक्तियाँ सभी को याद हो गईं। अवधी में थी, बैसवाड़ी में। इतना प्रभाव पड़ा उनके काव्य-पाठ का, कि हम लोगों ने एक बार उनका काव्य-पाठ सुना और कविताएँ याद हो गयीं। कवि सम्मेलन समाप्त होने के बाद भी हम लोग उन कविताओं को पढ़ते घूमते।

जो कविता उनकी सुनी थी, उसका शीर्षक था ध्वाखा होइगा। अभी याद है, इसकी पंक्तियाँ इस तरह हैं:
हम गयन याक दिन लखनउवै , कक्कू संजोगु अइस परिगा
पहिलेहे पहिल हम सहरु दीख , सो कहूँकहूँ ध्वाखा होइगा!
जब गएँ नुमाइस द्याखै हम , जंह कक्कू भारी रहै भीर
दुई तोला चारि रुपइया कै , हम बेसहा सोने कै जंजीर
लखि भईं घरैतिन गलगल बहु , मुल चारि दिनन मा रंग बदला
उन कहा कि पीतरि लै आयौ , हम कहा बड़ा ध्वाखा होइगा!


इसमें फिर तमाम स्थितियाँ आती हैं, हम कहाँ-कहाँ गये फिर वहाँ क्या हुआ। एक जो गाँव का ग्रामीण है वह शहर जाता है तो उसे अपरिचित दुनिया मिलती है। उस अपरिचित दुनिया में वह अपने को ढाल नहीं पाता। वहाँ का आचार-विचार-व्यवहार सब अपरिचित होता है। वह भी उस दुनिया में आश्चर्य में रहता है और दूसरे भी उसे लेकर आश्चर्य में पड़ते हैं। इसमें एक जगह है, दुकान में जैसे औरत की मूर्ति बनाकर कपड़े पहना देते हैं तो वह ग्रामीण उसे सचमुच की औरत समझ बैठता है, लोगों के बताने पर समझ में आता है कि ध्वाखा होइगा।फिर एक जगह सचमुच की औरत को वह माटी की मूर्ति समझ कर हाथ रख बैठता है, स्थिति इस तरह बन जाती है, ‘उइ झझकि भकुरि खउख्वाय उठीं , हम कहा फिरिव ध्वाखा होइगा!बहुत अच्छी कविता है।

रमई काका की कविताएँ देशभक्ति की भावना से भरी हुई हैं। उनकी हर तरह की कविताओं में, चाहे वह हास्य कविताएँ हों, व्यंग्य की कविताएँ हों, शृंगार की कविताएँ हों; सबमें देशभक्ति का भाव रचा-बसा है। एक तो देशभक्ति का भाव दूसरे वे कविताएँ आदमी को बनाने की, संवारने की, कर्तव्य पथ पर लगाने की प्रेरणा देती थीं। एक तरफ तो कविताओं में देशभक्ति का पाठ था दूसरी तरफ वे कविताएँ एक आचार-संहिता भी इससे प्रस्तुत करती थीं; चाहे हास्य से, चाहे व्यंग्य से, चाहे करुणा से, चाहे उत्साह देकर। ये कविताएँ जीवनवादी कविताएँ भी हैं। चूँकि ये कविताएँ अवधी में थीं इसलिए बड़ी आत्मीय थीं। बड़ा फर्क पड़ जाता है, कविता कोई अपनी बोली में हो, कविता कोई राष्ट्रभाषा में हो और कविता कोई विदेशी भाषा में हो। आस्वाद में भी बड़ा अंतर पड़ जाता है।

भारत वर्ष नया नया आजाद हुआ था। उस समय बड़ा उत्साह-आह्लाद था। आशा-आकांक्षा भी थी। हालांकि विभाजन की त्रासदी झेल रहा था देश, और वह भी कविता में व्यक्त होता था। ये जो कविताएँ अवधी में हैं, भोजपुरी में हैं या दूसरी बोलियों में हैं, हम लोग समझते हैं कि इनमें ज्यादातर हास्य या व्यंग्य की ही कविताएँ होती हैं। इन कविताओं के सौंदर्य-पक्ष की कई बातों की हम उपेक्षा कर देते हैं। जैसे बौछारकी यह कविता अवधी मेंहै

 ‘विधाता कै रचना’:
जगत कै रचना सुघरि निहारि
कोयलिया बन-बन करति पुकारि
झरे हैं झर-झर दुख के पात
लहकि गे रूखन के सब गात
डरैयन नये पात दरसानि
पलैयन नये प्वाप अंगुस्यानि
पतौवन गुच्छा परे लखाय
परी है गुच्छन कली देखाय
कली का देखि हँसी है कली
गगरिया अमरित की निरमली
प्रकृति की इतनी सुन्दर कविताएँ निराला को छोड़ दीजिये तो शायद ही खड़ी बोली के किसी कवि के यहाँ मिलें। निराला की भाषा और इस भाषा में कितना अंतर है। एकदम सीधे असर! जगत कै रचना सुघरि निहारि / कोयलिया बन-बन करति पुकारि’ : अब इसका आप विश्लेषण करें तो कोयल जो बोल रही है वह जगत की सुन्दर रचना को निहार करके बोल रही है। यह निहारना क्रिया अद्भुत क्रिया है। इसका उपयुक्त प्रयोग खड़ी बोली में निराला ने किया है। सरोज स्मृतिमें जब सरोज के भाई ने उसे पीटा, दोनों बच्चे थे खेल रहे थे, तो पीट कर मनाने लगे सरोज को — ‘चुमकारा फिर उसने निहार। बेचारी छोटी बहन है, रो रही है, ये सारी बातें उस निहारने में आ गयीं। निहारका अप्रतिम कालजयी उपयोग तुलसीदास ने किया है। जनक के दूत जब दशरथ के यहाँ पहुँचे संदेश ले कर कि दोनों भाई सकुशल हैं, तो दशरथ दूतों से कहते हैं:
भैया, कुसल कहौ दोउ बारे।
तुम नीके निज नैन निहारे॥


निहारनादेखना नहीं है। मन लगा कर देखने को निहारना कहते हैं। कोयलिया बन-बन पुकार रही है। यह तो सीधे लोकगीतों से आया है। हमारे यहाँ अवधी के कवि हैं, बेकल उत्साही, बलरामपुर के हैं, हमारे साथ पढ़ते थे। उनकी पहली कविता जो बहुत मशहूर हुई थी, ‘सखि बन-बन बेला फुलानि। बन-बन का मतलब सर्वत्र।

ये हमारे जो कवि हैं, अन्य को दोष क्या दूँ मैंने भी नहीं किया यह काम, जिनके अंदर सौंदर्य है उनका विश्लेषण हम लोग नहीं करते। बाकी कविताओं का तो करते हैं। होता यह है कि फिर ये हमारे कवि उपेक्षित रह जाते हैं। जो इनके योग्य है, वह इन्हें मिलता नहीं है। दुर्भाग्य कुछ ऐसा है कि जिन लोगों ने अवधी भाषा को, इसके सौंदर्य को ऊपर उठाने का जिम्मा ले रखा है जोकि अच्छा काम है लेकिन मैं इस अवसर पर जरूर कहना चाहता हूँ कि उन लोगों की गतिविधियों को देख करके ऐसा नहीं लगता कि ये लोग सचमुच किसी उच्च आदर्श से, देशप्रेम से या अवधी के प्रेम से काम कर रहे हैं। कभी-कभी तो यह शक होने लगता है कि वे अपने छोटे-छोटे किसी स्वार्थ से लगे हुए हैं। ऐसे में भी ये कवि उपेक्षित रह जाते हैं। ऐसे ही कवियों में रमई काका भी हैं। वरना जरूरत तो यह है कि बहुत व्यापक दृष्टि से इन कवियों का पुनर्मूल्यांकन क्या कहें, मूल्यांकन ही नहीं हुआ है, यह किया जाय। लेकिन जनता ने इनका मूल्यांकन किया है। अभी भी जहाँ रमई काका की कविताएँ पढ़ी जाती हैं, लोग सुनते हैं, उन पर इनका असर होता है।

(प्रस्तुति: अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी। यह लेख विश्वनाथ त्रिपाठी जी द्वारा बोलागया, जिसे बाद में लिपिबद्ध किया गया। साभार: अवधी कै अरघान से)

[जनकृति के लोकभाषा विशेषांक में प्रकाशित]

आधुनिक अवधी काव्य में व्यंग्य – डॉ. अरविंद कुमार

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आधुनिक अवधी काव्य में व्यंग्य – डॉ. अरविंद कुमार

 जब से सृष्टि का विकास हुआ है तब से मानव अपनी मनः भावनाओं की अभिव्यक्ति करता रहा है। हंसना मुस्कराना, रोना, एवं व्यंग्य करना उसका स्वाभाविक गुण है। अवधी काव्य में व्यंग्य का रूप जो मिलता है वह गोस्वामी तुलसीदास द्वारा विरचित रामचरित मानसके नारद मुनि के मोह से मिलता है। एक बार मायावश नारद जी को कामाग्निसतायी तो नारद जी भगवान विष्णु के पास रूप मांगने गये तो भगवान विष्णु के पास रूप मांगने गए तो भगवान विष्णु ने कहा,

                        हरसि मिले उठि रमानिकेता। बैठे आसन रिहसि समेता॥

                        बोले बिहसि चराचर राया। बहुते दिनन कीन्हि मुनि दाया॥

            रमानिवास भगवान् उठकर बड़े आनन्द से उनसे मिले और ऋषि (नारद जी) के साथ आसन पर बैठ गये। चराचर के स्वामी भगवान हँसकर बोले – हे मुनि! आज आपने बहुत दिनों पर दया की।’’ 1

            भगवान ने नारद जी को आगे भी सावधान होने के लिए कहा,

                        रूख बदन करि बचन मृदु बोले श्री भगवान।

                        तुम्हरे सुमिरन तें मिटहि मोह मार मद मान॥

            भगवान रूखा मुँह करके कोमल वचन बोले – हे मुनिराज! आपका स्मरण करने से दूसरों के मोह काम मद और अभिमान मिट जाते हैं। फिर आपके लिए तो कहना ही क्या है”2

            स्वयंवर में शिवजी के गण उन पर व्यंग्य करने लगते है। जैसेकि

                        करहिं कूटि नारदहि सुनाई। नीकि दीन्हि हरि सुन्दरताई ॥

                        रीझिहि राजकुआँरि छबि देखी। इन्हहि बरिहि हरि जानि बिसेसी॥

            वे नारद जी को सुना-सुनाकर व्यंग्य वचन कहते थे – भगवान ने इनको अच्छी सुंदरतादी है । इनकी शोभा देखकर रीझ ही जाएगी औश्र हरि’ (वानर) जानकर इन्हीं को खास तौर से वरेगी।’’3

            आगे चलकर नारद जी का मोह भंग हो गया। खीझि कर नारद जी ने गणों को श्राप दे देते है। यह खीझ मानव के मन में विद्यमान है। इन्हीं खीझों के कारण उसके मानस पटल में व्यंग्य की सृष्टिहोने लगती है।

            आधुनिक अवधी कवियों में वंशीधर शुक्ल रमई काका गुरु प्रसाद सिंह मृगेश’  राजेश दयालु राजेश’  बल भद्र दीक्षित पढ़ीसआद्या प्रसाद मिश्र उन्मत्त द्वारिका प्रसाद मिश्रत्रिलोचन शास्त्री, जुमई खॉ आजादआद्याप्रसाद पीयूषजगदीश पीयूषसुशील सिद्धार्थ भारतेंदु मिश्रविशाल मूर्ति मिश्रविशालनिर्झर प्रताप गढ़ी दयाशंकर दीक्षित देहाती’  काका बैसवारीविकल गोंडवीलवकुश दीक्षितकेदारनाथ मिश्रचंचलअजमल सुल्तानपुरीसतीश आर्यअदम गोंडवीइत्यादि की सर्जनात्मक प्रतिभा ने अवधी को अभिव्यक्ति का नया अंदाज दिया है।

            बलभद्र प्रसाद दीक्षित पढ़ीसकी एक मात्र अवधी काव्य संग्रह चकल्लस’ (१९३३) है। पढ़ीस जी के ग्राम- जीवनानुभवों का प्रमाणिक दस्तावेज है। पढ़ीस के अनुभव -जगत का एक  पहलू गाँव का समस्या ग्रस्त और विसंगतिमय जीवन है जिस पर व्यंग्य मूलक भाषा में चोट करना वे अपना कर्त्तव्य-कर्म मानते हैं। मनईसोनामालीतिरफलासिठ्ठाचारभलेमानसरईसी, ठाटुहम और तुम लरिकउनू एम.ए. पास किहिनहम कनउजिया बाभन आहिनइत्यादि इसी कोटि में आने वाली कविताएँ हैं। मनईकविता में दुश्चरित्रव्यक्तियों राक्षसहोने तक की संज्ञा देते हैं। जैसेकि

                        जो अपनयि मा बूड़ा बाढ़ा,

                        संसारु सयिंति कयि सोंकि लिहिस

                        वुहु राकसु हयि, वहु दानव हयि!

                        अब कउनु कही सुंदर मनई 4

            वंशीधर शुक्ल की कविता का सर्वप्रमुख बिषय है गाँव और किसान पर उनका किसान गाँवखेत के प्रति नहीं अपने देश के प्रति भी सजग है। अशिक्षा अज्ञानता स्वार्थ नई सभ्यता पुरानी परंपराओं और रीतियों में होने वाले बदलाव पर व्यंग्य करते हुए राम-मड़ैया’  कविता में कहते हैः

                        करिया अच्छर  भैंसि बराबरि उजड़ मूढ़ भगवान

                        मचा अँधेरू स्वार्थ का गाना बैरिन का सम्मान।

                        जहाँ नहीं व्यापी अंगरेजी जमि न सकी सुलतानी,

                        नई सभ्यता डरि डरि भागी घर-घर रीति पुरानी।5

            किसान के अर्जीकविता में भारतीय समाज में निर्धनता पर व्यंग्य करते हुए कवि कहता है :

                        गुल्लर हाँथन ते छीनइ भइँसिन का खूब खवावइ

                        जब मेहरी मुँहि ते माँगइ तब उ कुतवा हुइरावइ।

                        वह हुकुरु-हुकुरु कइ रोवइ गिरि-परि कै घर का आवइ

                        जब झुरसइ लगइ करेजा तब पानी सींचि जुड़ावइ।’’ 6

            चन्द्रभूषण त्रिवेदी रमईकाकाका रचना क्षेत्र ग्राम्य जीवन के अनुभवों को विस्तृत फलक पर चित्रित किया है। गाँव की जड़ता और वहाँ के अंधविस्वासों पर प्रहार करने वाली उनकी शैली पाठक और श्रोता के मन को बरबस बाँध लेती है। कचेहरीबरखोजबुढ़ऊ का ब्याह, यह छीछाल्यादरि द्याखौदिसासूलपहली नौकरीतलबध्वारवासाहब ते भ्याँटइत्यादि कविताओं से उनके व्यंग्य-विषय स्पष्ट होते हैं। दादा का खेतुकविता में कवि विरासत में मिली जमीन  को पाकर फूले नहीं समाता है जैसेकि

                        है मिला बपौती मा हमका , फिरि हकु कस दुसरे क्यार हो।

                        केतनिहुँ देवारिन पर यहिका गहबर अँधिया३ भगावा है।’’ 7

            त्रिलोचन शास्त्री का एक मात्र पूर्वी अवधी में लिखित अमोला’ (१९८७) काव्य है। इस काव्य में २७०० बरवै संकलित हैं। अमोला’ (१९८७) की रचनाशीलता के विषय में विश्वनाथ त्रिपाठी का कथन है अमोला त्रिलोचन की सबसे सहज कृति है। यह अभिव्यक्ति उनकी रचनात्मक अनिवार्यता थी। इसमें मुक्तकों में संकलित अंतरंग जीवन-कथा का रस है। अमोलाजनपदीय है इसीलिए वास्तविक भी और सार्वभौम भी। इसमें युग की पीड़ा निजी पीड़ा में निहित होकर आई है। पीड़ा को त्रिलोचन ने बैसवाड़े के किसान का बोली में हमें सुनाया है इसी फक्कड़पने में अंगीकार करके। मानो उपवास बेकारी भूख उपेक्षा आकाश वनस्पति प्रिय-संयोग आदि जीवन -अमोला की डाले, पत्ते, जड़े और फुनगियाँ हों।’’ 8

            कवि त्रिलोचन कहते है चतुर व्यक्ति से सदैव सावधान रहो वह मीठा बोलकर रिश्ता बना लेगा :

                        चाँड़ चँड़ासे केहु केहु से नगचाइ।

                        लखि के बोलइ दादा काका भाइ॥’’9

            कवि ऐसे लोगों के बारे में कहता है जिन्होंने आपके साथ बुरा व्यवहार किया है। यदि चतुर मित्र आपके साथ कूटिनीति करता है, तो समयानुकुल आपको चुप रहना होगा। कवि का कथन है :

                        राजू तोहँकाँ लिहेन सङ्हती लूटि।

                        चुप  मारा  जे सुने  ऊ  करे  कूटि॥’’ 10

            कवि विश्वनाथ पाठक भी सर्वमंगलामहाकाव्य में देशद्रोहियों पर व्यंग्य किया है । न्याय व्यवस्था को कटघरे में खड़ा करते हुए कहता है :

                        उल्लू बइठे न्यायासन पै

                        राजदंड  लै  हाथे

                        वै हंसन का न्याय पढ़ावें,

                        बड़े गरब के साथ।’’ 11

            यहाँ उल्लूशब्द से आशय अपात्र व्यक्ति सेतथा हंसनशब्द का अर्थ पात्रव्यक्ति से अर्थात न्यायशील व्यक्ति से है। सत्ता शासन अन्यायी अत्याचारी व्यक्तियों के हाथों न्यायवस्थाआ गयी है। उत्तम चरित्र वालों के हाथों में न्याय व्यवस्थादुश्चरित्र व्यक्तियों के हाथों में चली गई है।

            आद्या प्रसाद मिश्र उन्मत्तअनेक कविताओं में व्यंग्य की सहज अभिव्यक्ति हुई है। उनका नितांत अहिंसक है। उनका आक्रोश क्रूरता तक नहीं आता । वे आक्रोश के आक्रामक रूप और व्यंग्य के तीखेपन को हास्य की निर्मलता में ढाल देने वाले सिद्धहस्त कवि हैं। उनकी व्यंग्य कविताओं में तोहरी नानी के हाँड़े माझाड़े रौ मँहगुआदैजा कै मारी कलझि-कलझि पंडित कै परबतिया मरिगैइत्यादि हैं। माटी और महतारीकविता संकलन में उन्मत्त जी सांप्रदायिक उन्माद को उत्पन्न करने वालों की अच्छी खबर लेते है।

                        कबहूँ मस्जिद कबहूँ मंदिर कबहूँ गुरुद्वारा कै बवाल

                        हर परब तीज-तिउहारे मा मनई मुरगा अस भै हलाल।

                        ई चाल-ढाल झंडा- नारा तोहका दुसरेन से मोह अहै

                        आपन पुरखा आपन धरती तोहका अपनेन से द्रोह अहै।

                                    सुख पाया अपनी धरती पै दुसरे कै झंडा गाड़े मा।

                                    तोहरी नानी कै हाँड़े मा।’’12

                                                                        (तोहरी नानी कै हाँड़े मा कविता से)

            इसी तरह उन्मत्त जी ने अपनी कविता झाड़े रौ मँहगुआमें राजनेताओं और उनके चमचों -पिच्छलगुआं पर तीखा व्यंग्य किया है।

            वैश्वीकरण के इस दौर जब समस्त विश्व को एक ग्रामके रूप में स्थापित कर दिया है। ऐसे में हम एक वास्तविक दुनिया का समाज देखने के लिए सपना देख रहे हैं। तब भारत के एक ही गाँव में जाति-धर्म ऊँच-नीच छोटे-बड़े की भावना खत्म होने का नाम ही नहीं लेती। इस उत्तर आधुनिक युग में छुआछूत अपने पूरे वैभव और ठाटबाट के साथ जीवित है। जुमई खाँ आजाद की कविता कवन मनईमें इस करारे व्यंग्य का स्वाद लिया जा सकता है। जैसेकि

                        छुवई पाई न बसनवाँ कवन मनई।

                        छुआछूम औ भेद-भाव मां फरक न तनिकौ आवा

                        इतना दिन होइगा सोराज का तबौ न फुरसत पावा।

                        खावा पतवा मा भोजनवाँ कवन मनई।

                        छुवई पाई न बसनवाँ कवन मनई॥’’13

            एक ओर हम प्रगति पथ पर चलने का झूठा दिखावा कर रहे हैं दूसरी ओर ब्लैकमेलिंग, ब्लैक मार्केटिंग, घूसखोरी, भ्रष्टाचार में  सचमुच आगे बढ़ते जा रहे है। हाँ देश के महान होने का ढिंढोरा जरूर पीट रहे हैं। नेताओं का जन्मदिन अवश्य मना रहे हैं। नौकरी के लिए आयोजित समस्त परीक्षाओं को संदेह के घेरे में खड़ा करके पउआ भिड़ा रहे हैंघूस दे रहे हैं और नौकरी प्राप्त कर रहे हैं। इन स्थितियों पर व्यंग्य करने वाली आजाद की जन्मदिनकविता  सराहनीय है :

“भरतीय भाव से आरती साजि कै, लीडरन कै जन्मदिन मनावत रहब।

तेल चाही खरीदबै बिलकेइ से हम, मुल प्रगति पथ पर दियना जरावत रहब।

—————————————————————————-

सख्त कानून बनियन बरे बन गवा, अब मिलावट कै कौनो सवालइ न बा।

अफसरी रंग आपन जमाये अहै, चोरी-डाका कै कौनो बवालै न बा॥’’ 14

अवधी व्यंग्यकारों में विशालमूर्ति मिश्र विशालका एक अलग स्थान है। उनकी व्यंग्य कविताओं में इनके कौन भरोसा लेइहैं वेचि वतनवाँजुर्म केहू आन कै जुर्माना माँगै हमसेहे भइया अपना देश महान केतनाससुरी बेइमनियाँखटिया खड़ी विस्तरा गोलरक्षा किहा तुही भगवानरे मा गयि ससुरी परधानीछाता कै अकाल मौत, पी.ए.सी। कै भरतीझूठी बात नहीं अब फुरवइ सोनचिरैया तरि गयि पलटि के देखा मुसकी मारै मुसम्मात मँहगाईफील गुड फैक्टरकाट्या सब कै कान बहादुर गजब किह्याखूब किह्या कल्यान बहादुर गजब किह्याइत्यादि इनकी हास्य-व्यंग्यपरक श्रेष्ठ अवधी कविताएं हैं। फिर भी भारत देश महान। कितना कडुवा व्यंग्य है – हम तमाचा मारकर गाल लाल कर रहे हैं। भारतीय वोट राजनीति का पोल खोलते हुए कवि कहता है : –

                        जनता माने केवल ओट । बाकी सब कुछ उनकै नोट,

                        एक्कै लक्ष्य एक संधान – रक्षा किहा तुही भगवान।

                          ..                      ..                      ..                    ..

                        वैसे उदई भान वैसे भान। न उनके पूँछ न उनके कान,

                        सब कुछ होय आन कै तान – रक्षा किहा तुही भगवान॥’’ 15

            जगदीश पीयूष अपने नव गीतों में देश की त्रासद स्थिति पर व्यंग्य करते हुए लिखते हैः-

                        भवा देश म चलन।

                        भाई भाई से जलन॥

                        कैसे जियरा कै हलिया बताई माई जी।

                        केका चबरा कै गलवा देखाई माई जी॥

                        रोवें कनिया म लाल ।

                        भये बनिया बेहाल॥

                          *          *          *

                        होय लूट पाट मार।

                        बाटै रेवड़ी अन्हार॥’’ 16

            मँहगाई के मार से आम – जनजीवन त्रस्त है। समस्त उत्पाद खाद्यान्न, डीजल, पेट्रोल, मँहगा होने से उन्हे खरीद पाना मुश्किल है। कवि अपने गीतों में इस वेदना को व्यंग्य के रूप में प्रस्तुत करते हुए कहते है :

                        डीजल आवै दूने दाम।

                        बिजुरी होइगै जै जै राम॥

                        लरिका पांवें नाहीं सेवई औ खीर रामजी।

                        मंहगी होइगै हमरी गटई कै जंजीर रामजी॥’’ 17

            प्राथमिक शिक्षा में शिक्षकोंपर व्यंग्य करते हुए सुशील सिद्धार्थ भारतीय शिक्षा व्यवस्था की पोल खोलते है। उनके गीतों से स्पष्ट समझा जा सकता है :

                        बारा बजे महट्टर आये

                        तइकै सोइ रहे तनियाये

                        कहिकै गदहौ पढ़ौ पहाड़ा, चुप्पे ते।

                        सिच्छा के भे बंद केंवाड़ा, चुप्पे ते॥

                          *                      *                      *

                        चादरि ओढि़ व्यवस्था स्वावै

                        फाइल फाइल कुतवा रवावै

                        द्यास की आंखि म परिगा माड़ा चुप्पे ते॥’’ 18

            दुनिया आज संक्रमण काल की परिधि में आ गयी है  संस्कृति भी प्रभाव पड़ना लाजमी है। भारतीय समाज पश्चिमी सभ्यता का असर पड़ रहा है। ऐसे में कवि की पैनी नजर तुरंत भाँप लेती है। भारतेंदु मिश्र के गीतों में इस पीड़ा की कसक व्यंग्य के रूप में देखी जा सकती है। जैसेकि :

                        रीति रिवाज पश्चिमी हुइगे

                        लगै लागि पछियाहु।’’ 19

            भारतीय समाज में व्याप्त दहेज एक विकराल समस्या है इसका जितना इलाज किया जा रहा है उतना ही बढ़ता जा रहा है। भारतेंदु मिश्र की नजर इससे ओझल नहीं होने पाई है :

                        सविता की किरनै फूटि रहीं

                        कुता – छंगो सुखु लूटि रहीं

                        तिकड़म की चाल ते अजान

                        बिनु ब्याही बिटिया है जवान ।’’ 20

            दहेजको आज लोगों ने स्वीकार कर लिया है क्योंकि लोग ले रहें है लोग दे रहें है। इसका हल यही है कि दहेजलेने व दहेजदेने वालों के घर विवाहही न करे युवा। इस बात को माता-पिता को भी समझना होगा।

            अनीस देहाती अवधी रचनाकारों में अपना विशिष्ट स्थान बनाए हुए है। वह बहुत ही सधा व्यंग्य करते है तो लोग तिलमिला उठते है । करम कमाई, चँहटा में बूड़ अहै, अरे राम! इतनी अंधेर, केहका देई वोट, मेल – मोहब्बत, रुपइया की खातिरइत्यादि से ओत – प्रोत कविताएं हैं। मेल – मोहब्बत कविता में हिंदु-मुस्लिमपर व्यंग्य करते हुए कहते हैं :

                        मेल –मोहब्बत दुआ – बंदगी,

                        अस गायब भै पाँड़े ।

                        वह देखा ! अब्दुल्लौ चच्चा, खसकेन आँड़े-आँड़े।’’ 21

            क्योंकि बात-चीत , मेल-मिलाप आपस में रिश्ते मजबूत होते है । ऐसे तो आपसी भाई-चारा में दरार पड़ती है। अनीस देहाती इस दरार को मिटाना चाहते हैं। उनकी रचनाओं में विस्तार ही देखा जा सकता है । कवि कहीं न कहीं भाग्यवादी है वह स्वयं पर व्यंग्य करता है :

‘‘सबर करा इ आपन -आपन

करम कमाई बाबू जी।

के देखिस कब चोर-पुलिस मा,

हाथापाई बाबू जी।

            जवन उठा लुंगाड़ा छिन मा,

            टोला जरिके राख भवा,

            एकादसी का लरिकै खेलेन

            हड़ाहडाई बाबू जी।’’ 22

            कवि जयसिंह व्यथितसज्जन को सचेत करते हुए दुरजन की पहचान कैसे करनी चाहिए। उदाहरण देते हुए कहते है :

                        सज्जनता कै ढाल लई दुरजन करै अहेर।

                        सिधवा-सिधवा पेड़ का , करै काटि कै ढेर॥

                        दुरजन अपनी ताक मा, सदा लगावै दावँ।

                        पहिरि अँचला संत कै , घूमै गाँवैं गाँव ॥’’ 23

            व्यथितफैसनकविता में परिधानपर व्यंग्य करते हैं । फैसन के कारण  असली वस्तुएवं नकली वस्तु में पहचान करना बेहद मुश्किल हो गया है।

                        खान पान सनमान मा, फैसन बा अगुवान ।

                        असली का नकली कहै, नकली भा भगवान॥

                          *                      *                      *

                        देखे घर-घर जाइकै फैसन कै करतूत।

                        छोटके बड़के पै चढ़ा ई पश्चिम कै भूत॥’’ 24

            कवि इतने से ही संतुष्ट नहीं है, वह धरम-करम, जातिवाद, भूख, दहेज, स्वास्थ्य, शराब से होने वाले नुकसान इत्यादि पर भी व्यंग्य करता है।

            विजय बहादुर सिंह अक्खड़’  बोर्ड परीक्षा, देखा देखी, हमहूँ अबकी परधान होबपरिवेश का यथार्थ चित्रण व्यंग्य के रूप में किया है। दिखावेपन का कवि उल्लिखित करता हुआ कहता है । जब पिता शराब पियेगा तो पुत्र भी उसी का अनुसरण करेगा। जैसेकि

                        देखा-देखी पाप होइ रहा देखा-देखी पुन्न

                        बाप मस्त गाँजा मा बेटवा दारू पी के टुन्न।’’ 25

            आज तो समय एकल परिवार का हो गया है संयुक्त परिवार विरले ही देखने में शायद मिल जाय। ऐसे में एकल परिवारविखंडित संरचना का मुख्य कारण आये दिन हो ने वाले पारिवारिक झगड़े, आमदनी का स्रोत कम होना, कमाए एक उसी पर समस्त परिवार का टिके रहना । आये दिन खिच – खिच, चिक-चिक, मोटे तौर सास -बहु  के संबन्धों में खटास होना । आजकल तो सास को अपनी प्रिय बहू नहीं समझती न ही बहु साससमझती है। क्योंकि सासबहु को दूसरे की बिटिया समझती रहती और बहु सासबहु को  कभी अपनी माँनहीं समझ पाती है। इन्हीं कमियों को निर्झर प्रतापगढ़ीने आज की सास पतोहुनामक कविता में व्यंग्य के रूप् में प्रस्तुत किया है :

                        अपुवा बुढ़ायी दायीं सोरहौ सिंगार करैं

                                    दिन भै घुमति रहैं गाँव -गली नाका।

                        अपुवा सुपारी खाय पिच्च थूँकि रहैं

                                    ओकरे जौ मन होय परि जाय डाका।

                        मधु कै माछी एस भुन -भुन – भुन -भुन लागि रहीं

                                    सुनत -सुनत ओकर जिउ भवा पाका ।

                        दौडि़ के पतोहु एक बेलना हचकि दिहेस

                                    सासु जी की खोपड़ी मा लाग तीन टाँका”। 26

            निष्कर्षतः इन रचनाकारों की कविताओं के माध्यम से बेइमानों, भ्रष्टाचारियों,  भ्रष्ट नौकरशाह आधुनिक शिक्षा-व्यवस्था, दहेज फैशन, चोरों, लुटेरों, दुश्चरित्र, खल-कामी, दुर्जन,  पारिवारिक विखण्डन की विसंगतियों , राजनीतिक छल-छदम, साम्प्रदायिक उन्माद, ऊँच-नीच, छुआ-छूत, बेरोजगारी, रीति-रिवाज परंपराओं में परिवर्तन , पश्चिमी सभ्यता का प्रभाव इत्यादि पर व्यंग्य किया गया है।

संदर्भ:

1.         रामचरित मानस : तुलसीदास , टीकाकार हनुमान प्रसाद पोद्दार  (मझला साइज गीता प्रेस, गोरखपुर , संस्करण 2007, पृ० 115

2.         वही पृ० 115 -116

3.         वही पृ० 119-120

4.         आधुनिक अवधी काव्यः सं० डा० महावीर प्रसाद उपाध्याय, प्रकाशन केंद्र डालीगंज रेलवे क्रासिंग, सीतापुर रोड लखनऊ पृ० 70

5.         वही पृ० 80

6.         वही पृ० 81

7.         वही पृ० 151

8.         युग तेवर : सं० कमल नयन पाण्डेय, त्रैमासिक , दिस० – फरवरी 2008-09 वर्ष 3-4 अंक -4, पृ० 192

9.         अमोला : त्रिलोचन शास्त्री, पृ० 93

10.       वही पृ० 95

11.       आधुनिक अवधी काव्य : सं० डॉ० महावीर प्रसाद उपाध्याय, पृ० 103

12.       माटी औ महतारी : आद्या प्रसाद मिश्र उन्मत्त , पृ० 49-50

13.       पहरुआ : जुमई खाँ आजाद, पृ० 74

14.       वही, पृ० 35

15.       गीता माधुरी : विशालमूर्ति मिश्र विशालपृ० 109

16.       अवधी त्रिधारा : सं० राम बहादुर मिश्र, अवधी अकादमी सृजनपीठ गौरीगंज, सुल्तानपुर (उ०प्र०) संस्करण 2007, पृ० 54

17.       वही पृ० 55

18.       वही पृ० 90

19.       वही पृ० 120

20.       वही पृ० 107

21.       करम कमाई : अनीस देहाती ,अनुज प्रकाशन बाबागंज, प्रतापगढ़ उ०प्र०  संस्करण 2009, पृ० 52

22.       वही पृ० 88

23.       अवध सतसई : डा० जयसिंह व्यथित, गुजरात हिंदी विद्यापीठ, कमलेश पार्क  महेश्वरी नगर ओढ़व अहमदाबाद सं० 1999 पृ० 44

24.       वही, पृ० 66

25.       निर्झर प्रतापगढ़ी : हास्य फुलझडि़याँ  पृ 53

                                                                                        संप्रतिः असि० प्रो० हिंदी

                                                                                     रा० म० महावि० ढिंढुई पट्टीप्रतापगढ़उ०प्र०

अवधी सम्राट पं. बंशीधर शुक्ल को याद करते हुए-राहुल देव

अवधी सम्राट पं. बंशीधर शुक्ल को याद करते हुए

 राहुल देव

अवधलोक की वृहद्त्रयी में से एक जनकवि बंशीधर शुक्ल का जन्म उत्तर प्रदेश के लखीमपुर (खीरी) जिले के मन्यौरा गाँव के एक कृषक परिवार में वसंतपंचमी के दिन सन 1904 ई. को हुआ था | इनके पिता पं. छेदीलाल शुक्ल कर्म से कृषक और हृदय से कवि थे | वह अपने क्षेत्र में आल्हा गायक के रूप में प्रसिद्द थे | अपने आसपास के इस अनुकूल परिवेश का प्रभाव बालक बंशीधर शुक्ल पर भी पड़ा | सन 1919 में पिता की मृत्यु हो जाने के बाद पारिवारिक ज़िम्म्मेदारियों का भार अल्पायु में ही उनके कन्धों पर आ पड़ा | पिता की असामयिक मृत्यु से शुक्ल जी की वद्यालयीय शिक्षा कक्षा आठ तक ही हो सकी | बाद में घर पर ही उन्होंने स्वाध्याय से संस्कृत-उर्दू-हिन्दी-अंग्रेजी भाषाओँ का ज्ञान प्राप्त किया | जीविका के लिए कुछ समय के लिए उन्होंने पुस्तक व्यवसाय का कार्य भी भी किया। इसी बीच वह कविताएं भी लिखने लगे। पुस्तक व्यवसाय से जुड़ने के कारण उनका अक्सर कानपुर आना-जाना होता था। इसी दौरान वह गणेश शंकर विद्यार्थी के संपर्क में आए और उन्हीं की प्रेरणा से वह सन 1921 में राजनीति में सक्रिय हुए। सन 1938 में आप ने लखनऊ में रेडियों में नौकरी भी की | जीवनसंघर्षों ने कवि बंशीधर शुक्ल के व्यक्तित्व और कृतित्व को धीरे-धीरे जीवंत और जीवट बना दिया | शुक्ल जी ने बापू के नमक आंदोलन से लेकर आजाद भारत में लगाई गयी इमेर्जेन्सी में भी जेल यात्रायें की। खूनी परचा, राम मड़ैया, किसान की अर्ज़ी, लीडराबाद, राजा की कोठी, बेदखली, सूखा आदि रचनाये उस दौर में जनमानस में खूब प्रचलित रही। आजादी के बाद 1957 में पं. बंशीधर शुक्ल लखीमपुर क्षेत्र से विधायक बने। अपनी राजनीतिक दौर में भी वह बेहद सादगी के साथ रहे | 1978 में शुक्ल जी को उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान ने उन्हें ‘मलिक मोहम्मद जायसी पुरस्कार’ से सम्मानित किया। बाद में संस्थान ने इस जनकवि को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए उनकी रचनाओं का समग्र संकलन रचनावली के रूप में भी प्रकाशित किया | आज़ादी के सिपाही और अवधी साहित्य के अनन्य उपासक बंशीधर शुक्ल ने 76 वर्ष की आयु में अप्रैल सन 1980 में इस दुनिया को अलविदा कह दिया |

समाजवादी रुझान के शुक्ल जी की रचनाओं में विषयगत विविधता है | गरीब और किसान वर्ग की व्यथा-कथा से तो इनका काव्य भरा पड़ा है । ऐसी ही उनकी एक मार्मिक कविता ‘अछूत की होरी’ को देखें तो,

“हमैं यह होरिउ झुरसावइ। 
खेत बनिज ना गोरू गैया ना घर दूध न पूत।
मड़ई परी गाँव के बाहर, सब जन कहैं अछूत॥
द्वार कोई झँकइउ ना आवइ।
..
हमैं यह होरिउ झुरसावइ।
ठिठुरत मरति जाड़ु सब काटित, हम औ दुखिया जोइ।
चारि टका तब मिलै मजूरी, जब जिउ डारी खोइ॥ 
दुःख कोई ना बँटवावइ।
..
हमैं यह होरिउ झुरसावइ।
नई फसिल कट रही खेत मा चिरइउ करैं कुलेल।
हमैं वहे मेहनत के दाना नहीं लोनु न तेल॥
खेलु हमका कैसे भावइ।
..
हमैं यह होरिउ झुरसावइ।
गाँव नगर सब होरी खेलैं, रंग अबीर उड़ाय।
हमरी आँतैं जरैं भूख ते, तलफै अँधरी माय॥
बात कोई पूँछइ न आवइ।
..
हमैं यह होरिउ झुरसावइ।
सुनेन राति मा जरि गइ होरी, जरि के गई बुझाय।
हमरे जिउ की बुझी न होरी जरि जरि जारति जाय॥
नैन जल कब लैं जुड़वावइ।
..
हमैं यह होरिउ झुरसावइ।
हाड़ मास जरि खूनौ झुरसा, धुनी जरै धुँधुवाय।
जरे चाम की ई खलइत का तृष्णा रही चलाय॥
आस पर दम आवइ जावइ।
..
हमैं यह होरिउ झुरसावइ।
यह होरी औ पर्ब देवारी, हमैं कछू न सोहाइ।
आप जरे पर लोनु लगावै, आवै यह जरि जाइ॥
कौनु सुखु हमका पहुँचावइ।
..
हमैं यह होरिउ झुरसावइ। 
हमरी सगी बिलैया, कुतिया रोजुइ घर मथि जाय।
साथी सगे चिरैया कौवा, जागि जगावैं आय॥
मौत सुधि लेइउ न आवइ।
..
हमैं यह होरिउ झुरसावइ।“

कवि के सामाजिक सरोकारों और उसकी जनपक्षधर सोच को दर्शाती यह कविता 1936 में लिखी गयी थी | ध्यातव्य है कि हिंदी साहित्य जगत में वह समय प्रगतिशील चेतना के उभार का दौर था | ऐसे में शुक्ल जी अवधांचल में इस तरह की कविता लिख रहे थे | यानि कि उन्हें अपने समय का भलीभांति ज्ञान था तभी उनकी रचनाएँ लोगों को प्रभावित कर सकने में सफल हो पातीं थीं | दुखद है कि इस सन्दर्भ में उनका समग्र मूल्यांकन न हो सका | आलोचकों द्वारा उनकी रचनाधर्मिता को लेकर लगातार उपेक्षा की गयी | प्रश्न यह है कि क्या क्षेत्रीयता आलोचना में रूकावट डालने का कोई मपदंड थी, विचार करें तो हम पाते हैं कि ऐसा नहीं है | सोचिये अगर ऐसा होता तो तुलसी बाबा साहित्य जगत में आज कहाँ पर होते ? हिंदी पट्टी के कई प्रतिभाशाली कवियों के साथ यह दोहरा व्यवहार हुआ | अवधी, ब्रज, मैथिली, राजस्थानी, मगधी, छत्तीसगढ़ी, भोजपुरी, बुन्देलखंडी आदि हिंदी की तमाम सारी बोलियाँ हैं | फिर आलोचकों का यह पूर्वाग्रह समझ से परे है | उन्हें समझना होगा कि हिंदी भाषा अगर एक वृक्ष है तो उसकी बोलियाँ उसकी शाखाएं हैं जिसे उससे अलग नहीं किया जा सकता | अन्य लोगों की तो छोड़ दीजिये अब तो अंचलों के लोग भी अपनी भाषा के प्रति जागरूक नज़र नहीं आते | वैश्वीकरण और भाषाई दुराग्रह से आज बोलियाँ भी अपने अस्तित्व से जूझ रही हैं | हमारी अस्मिता पर मंडराता यह संकट गंभीर है इसे सभी को समझना होगा |

इसके अतिरिक्त उठो सोने वालों सबेरा हुआ है..जैसी पंक्तियाँ हों या उठ जाग मुसाफिर भोर भई..जैसी कालजयी कविता । ‘उठ जाग मुसाफ़िर भोर भई’ कविता से मेरा पुराना नाता है क्योंकि बचपन में अक्सर सुबह सुबह घर पर माता जी या पिता जी इस गीत को गाया करते थे | शुक्ल जी अपने समय में बहुत लोकप्रिय कवि रहे थे | उनके इसी योगदान को लेकर आज भी हम उन्हें सम्मान के साथ याद करते हैं | जनमानस में उनकी लोकप्रियता का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता था कि अवध के गाँव-गाँव में लोगों को उनकी रचनाएँ जबानी याद थीं |

जीवन-जगत की तमाम स्थितियों-परिस्थितियों ने उनमें व्यवस्था के प्रति विद्रोही स्वर पैदा किया था | उस समय देश में स्वतंत्रता आन्दोलन अपने चरम पर था | इस सबका प्रभाव कवि बंशीधर शुक्ल पर भी पड़ा और उन्होंने स्वतंत्रता आन्दोलन में अपनी सक्रिय भागीदारी करते हुए अनेक बार जेल गये | शुक्ल जी वैचारिक स्तर पर कहीं न कहीं गाँधी जी से भी बहुत प्रभावित थे | गाँधी जी को याद करते हुए लिखी गयी उनकी ‘गाँधी बाबा के बिना’ शीर्षक यह कविता दृष्टव्य है,

हमरे देसवा की मँझरिया ह्वैगै सूनि,

अकेले गाँधी बाबा के बिना।

कौनु डाटि के पेट लगावै, कौनु सुनावै बात नई,

कौनु बिपति माँ देय सहारा, कौनु चलावै राह नई,

को झँझा माँ डटै अकेले, बिना सस्त्र संग्राम करै,

को सब संकट बिथा झेलि, दुसमन का कामु तमाम करै।

सत्य अहिंसा की उजेरिया ह्वैगै सूनि,

अकेले गाँधी बाबा के बिना।

उन्होंने स्वतंत्रता से पहले अगर अंग्रेजों की खिलाफत की तो वहीँ स्वतंत्रता मिलने के बाद लोकतंत्र के समाजवादी विरोधी चेहरे को देखकर उन्होंने यह भी कहा, ओ शासक नेहरु सावधान/ पलटो नौकरशाही विधान/ अन्यथा पलट देगा तुमको/ मजदूर, वीर, योद्धा, किसान |” उनकी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि व साफगोई यहाँ स्पष्ट है |

शुक्ल जी ने हिंदी और अवधी दोनों में लेखन किया | अवधी उनकी मातृभाषा थी | उन्हें भान था कि

लोगों के बीच अपनी बात रखने का सर्वश्रेष्ठ माध्यम उनकी अपनी भाषा-बोली में ही संभव है इसीलिए उन्होंने एक सच्चे जनकवि की भांति अपना अधिकतर लेखन लोकभाषा अवधी में ही किया |

उनकी एक प्रसिद्द कविता ‘महेंगाई’ को देखें,

“हमका चूसि रही मंहगई।
रुपया रोजु मजूरी पाई, प्रानी पाँच जियाई
पाँच सेर का खरचु ठौर पर, सेर भरे माँ खाई। 
सरकारी कंट्रोलित गल्ला हम ना ढूँढे पाई
छा दुपहरी खराबु करी तब कहूँ किलो भर पाई।
हमका चूसि रही मंहगाई।“

बंशीधर शुक्ल की लम्बे लेखन सफ़र (1925 से लेकर 1980 तक) के पीछे एक वृहद् अनुभव संसार था | अपने परिवेश से उन्हें जो कुछ भी मिला उसे उन्होंने अपनी लेखनी के माध्यम से वे लगातार अपनी पूरी ईमानदारी और प्रतिबद्धता के साथ अभिव्यक्त करते रहे | वर्ष 2014 में आपकी जन्मशती पर ‘अवध ज्योति’ पत्रिका के द्वारा विशेषांक निकाला जा रहा है | यह कार्य बहुत ही सराहनीय है | इस तरह के प्रयासों को और गति मिलनी चाहिए | कुल मिलाकर कहा जाय तो  शुक्ल जी लोकचेतना से संपृक्त एक राष्ट्रवादी कवि हैं | उन्हें मालूम है कि लोक से विमुख रहकर साहत्य रचने का कोई मतलब नहीं | उनका सम्पूर्ण साहित्य समाज को नई राह दिखाने वाला साबित हुआ | ऐसे रचनाकारों को साहित्य में आज उनका उचित स्थान न दिया जाना हिंदी साहित्य की कृतघ्नता ही कही जाएगी |

संपर्क सूत्र- 9/48 साहित्य सदन, कोतवाली मार्ग, महमूदाबाद (अवध) स.प्र.) ईमेल- rahuldev.bly@gmail.com

शिवमूर्ति की कहानियों की संरचना में अवध-लोक: प्रदीप त्रिपाठी

शिवमूर्ति की कहानियों की संरचना में अवध-लोक

       प्रदीप त्रिपाठी

          आजमगढ़, उत्तरप्रदेश

              Mob- 08928110451

tripathiexpress@gmail.com

                   कहानियों की संरचना में लोक-जीवन की उपस्थिति की एक लंबी फेहरिस्त रही है।  इन लेखकों की रचनाओं में जो लोक-चरित्र, लोक-समस्याएँ, लोक-परंपराएँ, लोक-भाषा एवं लोक-गीत चित्रित हैं, निश्चित रूप से उल्लेखनीय है। यह बात अलग है कि अंचल विशेष के कारण उसकी बोली और उसकी समस्याओं की प्रकृति में फर्क पड़ सकता है परंतु लोक-जीवन की जो सामान्य प्रकृति है, वह किसी भी लोक समाज में दिखेगी ही।

            शिवमूर्ति लोक-जीवन के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनका सरोकार अवध क्षेत्र से है। उनकी रचनाओं में आंचलिकता की गहरी पैठ है। प्रेमचंद और रेणु की परंपरा के वे एक ऐसे कथाकार हैं जिन्होंने हिंदी कहानी में ही नहीं अपितु पूरे कथा-साहित्य में समाज के भूले-भटके और बेहद सामान्य चरित्रों को जिस तरह से क्लासिक बनाया, निस्संदेह महत्त्वपूर्ण है। शिवमूर्ति का सबसे बड़ा योगदान उनकी लोक-जीवन के प्रति गहरी संवेदना, लोक-चरित्र की गहरी समझ व अभिव्यक्ति रही है। उनके समूचे साहित्य में अपने समाज को जीवंत बनाने वाले ऐसे चरित्रों की समृद्ध उपस्थिति रही है जो तेजी से बदलती दुनिया में लुप्त होते जा रहे हैं। केशर-कस्तूरी की केशर, तिरियाचरित्तर की विमली जैसे पात्र इसके सशक्त उदाहरण हैं। शिवमूर्ति की कहानियों का केंद्र बिंदु हाशिए का समाज रहा है। वे समाज से ऐसे पात्रों को उठाते हैं जो अन्य रचनाकारों की सोच से या तो परे होते हैं या वे उन चीजों को सूक्ष्म समझकर किनारे कर देते हैं। शिवमूर्ति की कहानियाँ कला, संवेदना एवं लोक के उस द्वन्द्व को प्रस्तुत करती हैं जिसमें जीत अंतत: संवेदना की ही होती है।

लोकभाषा का वैशिष्ट्य

भाषा की बुनावट में लोक का अपना अलग ही वैशिष्ट्य है। किसी भी रचनाकार को उसके शिल्प और संवेदना से अलग करके नहीं देखा जा सकता है। भाषा-शैली की बुनावट ही रचना सशक्त एवं जीवंत बनती है। भाषा-रचना में भावाभिव्यक्ति का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। शिवमूर्ति की कहानियों में रचना-शिल्प की अहम विशेषता उनकी भाषा है। शिवमूर्ति अपनी कहानियों की भाषा स्वयं नहीं बुनते बल्कि अपने पात्रों के द्वारा ही बुनवाते हैं। उनके पात्रों की भाषा खाँटी अवधी है।   शिवमूर्ति की भाषा के साथ संवेदनाएँ स्वतः जुड़ी हुई होती हैं। यह ऊर्जा उन्हें लोक से ही मिलती है। शिवमूर्ति की यह प्रवृत्ति उन्हें एक बड़े रचनाकार होने का ही परिचय नहीं दिलाती बल्कि उन्हें स्थापित भी करती है। उदाहरण के लिए  कहानी सिरी उपमा जोग में लालू की मार्इ के पत्र को देखा जा सकता है-सरब सिरी उपमा जोग, खत लिखा लालू की मार्इ की तरफ से ,लालू के बप्पा को पाँव छूना पहुंचेआगे समाचार मालूम हो कि हम लोग यहाँ पर राजी खुशी से हैं और आप की राजी खुशी के लिए भगवान से नेक मनाया करते हैं।…. इधर दोतीन साल से आपके चाचा जी ने हम लोगों को सताना शुरू कर दिया है, किसी न किसी बहाने कभीकभी कमला को भी रतेपीटते रहते हैं।कहते हैंगाँव छोड़कर भाग जाओ नहीं तो महतारी बेटे का मूड़ काट लेगें जिस सादगी एवं सरलता की बात हम शिवमूर्ति कहानियों में करते हैं उसका एक महत्त्वपूर्ण आयाम लोक-जीवन की भाषा है। वह शब्दों को लोक से चुराते हैं जो न केवल सरल और सुबोध हैं बल्कि व्यंजक और पारदर्शी भी हैं। शिवमूर्ति की भाषा अपनी सादगी में सुंदर और नितांत संप्रेषणीय है। उनकी कहानियाँ ग्राम्य-जीवन एवं आंचलिकता से लैस हैं। वे अनुभवों की गहरार्इ से उपजी भाषा है। रवि भूषण के शब्दों में कहें तो –ये शिवमूर्ति के अनुभव ही हैं जो उनकी भाषा में गुथकर सूक्तियाँ बने। ये वे सूक्तियाँ हैं जिनमें जीवन का सत्य बोलता है। प्रवाह, सरलता, चित्रमयता, व्यंजकता और सारगर्भिता शिवमूर्ति के रचनात्मक भाषा के वे गुण हैं जो उनकी रचनाओं को लम्बा आयुष्य देते हैं।

            शिवमूर्ति की भाषा के कर्इ रूप-रंग हैं। अपना ठाठ भी है। उनका वाक्य-विन्यास भिन्न है, वाक्य छोटे हैं। वाक्यों में सहायक क्रियाओं का कम प्रयोग करना उनकी विशिष्ट शैली है। भाषा के स्तर पर शिवमूर्ति में बड़ा वैविध्य नहीं रहा है। वे आज भी जन-भाषा के समर्थक हैं। प्रेमचंद ने साहित्य का उद्देश्य निबंध में इस बात की ओर संकेत किया है- जो जनसाधारण का है, वह जनसाधारण की भाषा लिखता है। शिवमूर्ति की कथा-भाषा लोक-भाषा है चूँकि उनके सभी पात्र लगभग ग्रामीण परिवेश के हैं। उनकी भाषा में अवधी लहजे के साथ तद्भव और देशज शब्दों का प्रयोग सर्वाधिक है। उनकी भाषा अर्थगर्भित है, सरल प्रसंगानुकूल है। 

            शिवमूर्ति की भाषिक संरचना का अपना एक अलग ही अंदाज है। समकालीन हिंदी कथाकारों की भाषा से उनकी भाषा-शैली पूर्णतया भिन्न है। शिवमूर्ति ने अपनी भाषा के संदर्भ में स्वयं कहा है कि-भाषा की ताकत मैं लोकजीवन और लोकगीतों से बटोरता हूँमैं प्रचलित मुहावरों की शक्ति सजोता रहता हूँ। मैं अपनी कहानियों में इस शक्ति को विस्तार देता हूँ।इससे यह पूर्णत: स्पष्ट हो जाता है कि शिवमूर्ति का रचना-संसार लोक से ही निर्मित होता है। लोक ही उनकी कहानियों का रंग है। देशकाल, स्थान, पात्र-संबंध आदि के आधार पर यह भाषा अपने विविध रूपों में प्रकट हुर्इ है। शिवमूर्ति के यहाँ भाषा का जनतांत्रिक रूप है। इनके यहाँ लोक-भाषा का पूरा सम्मान है। कर्इ वाक्य सूक्तियों की तरह हैं। केशर-कस्तूरी कहानी में केशर जब यह कहती है-दुख काटने से कटेगा, भागने से तो और पिछुआएगा।तो यह उक्ति निजी न होकर सामाजिक हो जाती है।

कोर्इ भी रचनाकार अपने समय और समाज से किसी न किसी रूप से प्रभावित अवश्य होता है। शिवमूर्ति की रचनाओं को यदि शैलीगत दृष्टि से देखा जाय तो इन पर रेणु की शैली का असर दिखता है। यह उनकी शैली से प्रभावित ही नहीं बल्कि कर्इ कदम आगे तक भी जाते हैं। शिवमूर्ति का शिल्प अत्यंत सहज है। उनके पात्रों की भाषा कथ्य को सहज सरल एवं प्रभाशावली बनाने में सहयोग देती है। जाहिर है, गाँव की उबड़-खाबड़ जमीन से निकलने के कारण शिवमूर्ति के पात्र वहाँ की बोली, लहजे और नज़ाकत से वाकिफ़ हैं। शिवमूर्ति के यहाँ ग्रामीण-जीवन का बहुत ही ठोस एवं मुकम्मल चित्र है। 

शिवमूर्ति ने अपनी कहानियों में आंचलिकता के साथ-साथ क्षेत्रीय शब्दों और रंगों का भरपूर प्रयोग किया है। उनकी भाषा विविध रंगों के साथ-साथ लोक (ग्रामीण) संवेदना को पूरी शालीनता से प्रस्तुत करती है। वे सामान्य शब्दावली को ही अर्थ-गरिमा और सांकेतिकता देने में सफल सिद्ध हुए हैं। इनके साधारण वाक्य व्यापक अर्थवत्ता के साथ व्यंजनापूर्ण हैं। इनकी कहानियों में चित्रित लोक-जीवन कहानियों में जहाँ रोचकता प्रदान करता है वहीं शिल्प के नए-नए विविध आयाम भी खोलता है। लोक-कथा लोकोक्तियों एवं मुहावरों के सहारे शिवमूर्ति अपनी कहानियों को धार देते हैं और लोक-भाषा उस धार को अति तीक्ष्ण करती है जिससे उनकी भाषा और अधिक सारगर्भित बन जाती है। उदाहरण के तौर पर हम उनकी कहानी ख्वाजा! ओ मेरे पीर की शुरुआती पंक्तियों को देख सकते हैं-माधवपुर से सिंहगढ़ तक सड़क पास हो गर्इ। तो सरकार ने आखिर मान ही लिया कि ऊसर जंगल का यह इलाका भी हिन्दुस्तान का ही हिस्सा है। शिवमूर्ति का शिल्प पाठकों की संवेदना और युगानुकूल अभिव्यक्ति में निहित है। अंचल में व्याप्त जीवन की गहरार्इ, जीवनगत यथार्थ और उन स्थापनाओं के वातावरण को प्रकट करने में भी शिवमूर्ति सर्वथा चित्रकार से प्रतीत होते हैं।

भाषा की ताकत मैं लोकजीवन और लोकगीतों से बटोरता हूँ: शिवमूर्ति

            लोक-गीत लोक के दु:ख-द और संवेदना की गहरी अनुभूति कराते हैं। शिवमूर्ति लोक-गीतों के सशक्त प्रयोगकर्ता हैं। उनका मानना है कि लोक-गीतों का प्रयोग किसी भी रचना को सशक्त एवं जीवंत बनाने में मुकम्मल होते हैं। उन्होंने अपनी कहानियों में लोकगीतों का अद्भुत प्रयोग किया है। मिसाल के तौर पर केशर-कस्तूरी कहानी को देखा जा सकता है-

            मोछिया तोहार बप्पा हेठ न होर्इ हैं,

            पगड़ी केहू न उतारी, जी.. र्इ र्इ।

            टुटही मँड़इया में जिनगी बितउबै

            नाहीं जाबै आन की दुआरी जी र्इ र्इ ।।” (केशरकस्तूरी)

 ऐसा ही एक और गीत जिसमें विमली की तरफ आकर्षित बिल्लर गाँव-घर के यथार्थ को वर्णित करता है साथ ही विमली को अपने प्रेम का संदेश भी देता है-

            ”…अरे टुटही मँड़इया के हम हैं राजा

            करीला गुजारा थोरे मा

            तोर मन लागै न लागै पतरकी

            मोर मन लागल बा तोरे मा।”  ((केशरकस्तूरी)

            निश्चित रूप से शिवमूर्ति एक मजे हुए रचनाकार हैं। उनके पास अपनी बात को संक्षेप में रखने का हुनर है। ग्रामीण जीवन में पर्वों-त्यौहारों के गीतों का किस प्रकार से लोग निर्वाह करते चले आ रहे हैं उसकी अभिव्यक्ति हम ख्वाजा! ओ मेरे पीर कहानी में मामा के होली-गीत के जरिये देख सकते हैं-

            सब दिन बसंत जग थिर न रहै

            आवत पुनि जात चला….रे पपीहा प्या ….रे –”

            शिवमूर्ति लोक से गहरे रूप में संपृक्त हैं। उन्हें अपने समाज का खाँटी अनुभव है, उसे वह अपनी रचनाओं में हूबहू टाँकने में कोई कसर नहीं छोड़ते। शिवमूर्ति अपनी कहानियों में लोकगीतों का प्रयोग करने के साथ-साथ उसकी सुदृढ़ परंपरा को बचाए रखने की कोशिश करते हैं। उनकी यही कला उन्हें अपने समकालीन रचनाकारों से अलग करती है।

लोकोक्तियाँ और मुहावरे रचना को जीवंत एवं सारगर्भित बनाते हैं

मुहावरे अथवा लोकोक्तियाँ एक अनुभवपरक ऐसी अभिव्यक्ति है जिसमें जीवन के सुख-दु:ख हास-परिहास, रंग-व्यंग्य, अतीत-वर्तमान का प्रतिबिंब दिखार्इ देता है। शिवमूर्ति की कहानियों में इसका अद्भुत प्रयोग हुआ है। उदाहरण के रूप में हम उनकी कहानियों में लोकोक्तियों एवं मुहावरों को देख सकते हैं- भेड़ ही खेत खा गर्इ, कसार्इ की गाय, अँखिया फूट गर्इ है (तिरियाचरित्तर),दूधपानी अलग करै वाले (कसार्इबाड़ा), चूना लगाना इत्यादि। उनकी कहानियों में कहावतों की भी भरमार  है। जैसे- जेकर काम उही से होय, गदहा कहै कुकुर से रोय, (कसार्इबाड़ा) आदि।

शिवमूर्ति ने अपनी कहानियों में भाषा को जीवंतता प्रदान करने के लिए ग्रामीण मुहावरो एवं कहावतों का प्रयोग किया है। इससे भाषा में गांभीर्य, प्रवाह एवं अभिव्यक्ति में स्पष्टता आर्इ है। शिवमूर्ति ने अपनी कहानियों में प्रतीकों का भी सहारा लिया है। रतौंधी, नाक, सठियाना, हेडलाइट, छिकनहवा, कातिक की कुतिया, विभीषण, पके कैथ की महक, गाँठ पकड़ लेना जैसे प्रत्येक बिंब उनकी कहानियों के कथ्य को और सारगर्भित बना देते हैं।

 गौर करें तो भाषा के धरातल पर शिवमूर्ति अत्यंत सरस हैं। गाँव-देहात की शब्दावली या उच्चारण का प्रयोग कहानी को संप्रेषण की दृष्टि से और सशक्त बनाते हैं। कनमनाना (ध्यान जाना) मुराही (नटखट), सुतंत्र (स्वतंत्र), निमरी (दुबली-पतली), पतरकी (पतली), बेसी (ज्यादा), टेम (समय), आदि शब्द कहानी को जीवंत बनाने के साथ-साथ शब्द-अर्थ की विभिन्न छवियों को भी उजागर करते हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि शिवमूर्ति अपनी कहानियों में जिस शिल्प (भाषा, मुहावरे, लोकोक्तियों शब्द-प्रयोग आदि) को लेकर आते हैं वह अद्भुत तो है ही साथ ही उनकी विशिष्ट पहचान भी है। 

अवधी लोकगीतों में वर्णित स्त्री समस्या का अध्ययन-अंशु यादव

2 boys in water during daytime
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अवधी लोकगीतों में वर्णित स्त्री समस्या का अध्ययन

अंशु यादव

मानव की अंतरंग प्रकृति ही लोककलाओं को जन्म देती है। तदान्तर मानव अपने अब तक के उपार्जित संस्कारों से उसे (लोककलारूपों को) युगसंदर्भानुकूल या अपने व्यक्तित्व के अनुकूल ढालकर अभिव्यक्त करता है। प्रकृति में घटने वाली घटनाओं के प्रति वह बेखबर नहीं रहता है । वह उसे जानना और समझना चाहता है। अगर वह उसे समझ लेता है तो उसे अभिव्यक्त करना चाहता है। यही अभिव्यक्ति लोककलाओं के विभिन्न रूपों में हमें  प्राप्त है । लोकसाहित्य में भावाभिव्यक्ति की एक विधा लोकगीत भी है। लोकगीतों को केवल मनोरंजन का साधन नहीं माना जा सकता, न ही लोकगीत बिल्कुल  काल्पनिक होते हैं ।  बल्कि उनमें कहीं न कहीं सामाजिक सच्चाई छिपी होती है। लोकगीत की सर्वप्रथम व्युत्पत्ति उस समय हुई, जब समाज अविभक्त और एकात्म स्वरूप में था। जनसमुदाय के बीच उठते कौंधते विचार, विषय एवं अनुभाव का समावेश लोकगीत में होता है। लोकगीत भारतीय लोक संस्कृति का चिरवाहक और प्राणाधार है। लोकगीतों में तत्कालीन सामाजिक जीवन एवं गोचर संस्कृति यथा नगर, ग्राम, समाज, परिवार, पशु-पक्षी, हाट-बाजार, युद्ध-प्रेम, श्रृंगार-करुण, आस्था-अंधविश्वावस तथा शौर्य-पराक्रम का जीवंत व सहज चित्रण हुआ है।

            लोकगीत लोकमन की अभिव्यक्ति है इनके मूल में संगीत और नृत्य के तत्व निहित हैं । लोकगीत किसी एक व्यक्ति द्वारा रचित नहीं होते बल्कि पूरे समाज द्वारा रचे जाते हैं। लोकगीत मानव जीवन में पूरी तरह रच बस गए हैं । लोकगीत लोक-जीवन की मस्ती के परिचायक, जीवन की रसात्मकता, रागात्मकता के उद्गार एवं उमंग का चटक रंग हैं ।

            मनुष्य अपने जीवन में सुख-दुख का जो अनुभव करता है, अपने परिवेश प्रकृति में जो कुछ देखता है, उससे सहज रूप से उत्पन्न भावों को वह अपनी वाणी तथा हाव-भाव से व्यक्त करता है । साधारण जन अपने मस्तिष्क और हृदय पर प्रभाव डालने वाली घटनाओं के बारे में गाकर, नाचकर रागात्मक भावनाओं की भाषागत अभिव्यक्ति करता है । लोकगीत लोक जीवन में प्रतिदिन उषाकाल से मध्य रात्रि तक किसी क्रिया से निविर्वाद रूप से जुड़े होकर मनुष्य को स्फूर्ति प्रदान करते हैं । इसलिए लोकगीतों को स्वत: स्फूर्त गीत कहा गया हैं ।

            समाज अथवा राष्ट्र के उदय में स्त्री और पुरुष का समान महत्व होता है पुरुष यदि घर के बाहर के कार्यों को उन्नत एवं सुचारु रूप से करता है तो स्त्री सेवा एवं स्नेह आदि के साथ घर के विभिन्न कार्यों का निर्वाह करती है स्त्री और  पुरुष एक दूसरे के पूरक है, जीवन में स्त्री एंव पुरूष दोनों चक्रों के समान रूप से चलने पर ही जीवन सुखमय बनता है । समाज में स्त्री के विभिन्न रूप हैं जैसे-पुत्री, पत्नी, माता आदि ।

            स्त्री समाज का एक अभिन्न अंग है स्त्री के बिना समाज की कल्पना ही नहीं जा सकती है। स्त्री सर्वदा अपना कार्य कर्तव्य निष्ठा के साथ पूर्ण करती है ।  स्त्री को उसके सामाजिक अधिकार कभी नहीं मिल पाए हैं।  स्त्री  चाहे पुत्री, पत्नी, माता के रूप में हो उसके साथ पुत्री होने पर पुत्र के साथ तुलना, पत्नी होने पर परिवार के साथ तुलना तथा माता होने पर ज़िम्मेदारी के नाम पर अमानवीय व्यवहार किया जाता है । यहाँ पर मनु द्वारा कही गई बात सिद्ध होती है कि नारी को बचपन में पिता, जवानी में पति तथा प्रौढ़ावास्था में पुत्रों के संरक्षण में रहना चाहिए। भारतीय समाज की सम्पूर्ण ढांचागत व्यवस्था स्त्री का शोषण करती आ रही  हैं। पुरुष अपने आप को बचाने के लिए मनु नाम की चादर ओढ़ना भी नही भूलता है। भारतीय समाज में स्त्री की वेदना, कुंठा, करुणा, पीड़ा, भावनाओं और समस्याओं का व्यापक वर्णन महिलों ने लोकगीतों के माध्यम से भी किया है । अवधी में स्त्री संबंधित अनेक लोकगीत मिलते हैं।

            अवधी पूर्वी हिंदी की एक बोली है। यह उत्तर प्रदेश में लखनऊ, रायबरेलीसुल्तानपुर,बाराबंकी,हरदोईफतेहपुर,सीतापुरलखीमपुरप्रतापगढ़फैजाबाद और आंशिक रूप से मिर्जापुर, जौनपुर, इलाहाबाद आदि जिलों में बोली जाती है। तुलसीदास ने अपने “रामचरितमानस” में अयोध्या को अवधपुरी कहा है। इसी क्षेत्र का पुराना नाम कोसल भी था जिसकी महत्ता प्राचीन काल से चली आ रही है।

            अवधी लोकसाहित्य में स्त्री संबंधित लोकगीतों की प्रचुरता है । विषयवस्तु के आधार पर इन गीतों का वर्गीकरण इस प्रकार किया जा सकता है – संस्कार गीत, पर्व-त्यौहार के गीत, धार्मिक गीत, ऋतु गीत, जाति गीत, पारंपरिक खेल गीत, राष्ट्रीय गीत, सांस्कृतिक गीत, श्रम गीत, अन्य गीत आदि । इन सभी लोकगीतों में स्त्री की भागीदारी व्यापक स्तर पर मिलती हैं।

            अवधी लोकगीतों में स्त्रियों की अनेक समस्याओं का वर्णन मिलता हैं। जैसे- बाल विवाह की समस्या, कन्या भ्रूण हत्या की समस्या, दहेज़ प्रथा  की समस्या, बेमेल विवाह की समस्या, सती प्रथा की समस्या, परदा प्रथा की समस्या, सतीत्व परीक्षा, गोदना की प्रथा, बंध्या स्त्री की समस्या और विधवा स्त्री की समस्या इत्यादि ।

बाल विवाह

            प्राचीन समय से ही भारत में बाल विवाह का प्रचलन रहा है।

                        खेलत रहिइउ मैं मइया की गोदिया, खेलत चउंक परीउरे ।

                        केहिके दुवारे बइया बाजन बाजे, केई के दुआरे क चार रे ।

                        तुम्हरे दुवारे बेटी बाजन बाजे, तुम्हरे दुवारे का चार रे ।   

कन्या भ्रूण हत्या की समस्या

            भारतीय समाज में धार्मिक अंधविश्वास, पुरुषात्मकसत्ता, दहेज प्रथा आदि के कारण कन्या भ्रूण हत्या की समस्या दिन पर दिन बढ़ती जा रही हैं । इसी पीड़ा को अवधी समाज की स्त्रियों ने अवधी लोकगीतों के माध्यम से व्यक्त किया है जो इस प्रकार है –

                        भीतरा से दायज अँगना म गने

                        कोसय बेटी जनमवां

                        जनतिउ जो बेटी जनम लेहैं मोरी

                        डलितिउ मैं कोखिया गिराय रे

                        मरतिउ जहर विष खाय रे 

दहेज प्रथा

            भारतीय समाज में दहेज प्रथा एक बहुत बड़ी कुरीति है इसके कारण माता-पिता के लिए लड़कियों का विवाह एक अभिशाप बन गया है । जीवन साथी चुनने का सीमित क्षेत्र बाल-विवाह की अनिवार्यता कुलीन विवाह शिक्षा एंव सामाजिक प्रतिष्ठा, धन का महत्व ,महंगी शिक्षा, सामाजिक प्रथा एंव प्रदर्शन तथा झूठी शान आदि के कारण दहेज लेना और देना आवश्यक हो गया है। दहेज प्रथा के माता-पिता अपनी पुत्री का विवाह योग्य वर से नही कर पाते । अवधी लोकगीतों में  दहेज की समस्या का  वर्ण इस प्रकार है कि सुंदर कन्या के अनुरूप योग्य वर न मिलने से पिता निराश होकर उसे कुमारी रहने को कहता है ।

                        वै वर मांगै हाथी से घोड़ा

                        मांगै मोहरा पचास

                        वै वर मांगै बेटी नौ लाख दहेज

                        मोरे बूते दइयो न जाय ।

बंध्या स्त्री की समस्या                   

            भारतीय समाज में जिस स्त्री के कोई बच्चा नहीं होता उसे बंध्या कहा जाता है । इसके साथ-साथ अगर किसी स्त्री के केवल पुत्री हो और उसने किसी पुत्र को जन्म नहीं दिया तो उसे भी लोग बंध्या कहते है और परिवार में उसे तरह-तरह के ताने सुनने पड़ते है । इसके साथ ही उसका पति या तो दूसरी शादी कर लेता है या उसे छोड़ देता है ये भी एक समस्या है जिसे अवधी लोकगीतों के माध्यम से स्त्रियाँ अपनी पीड़ा को व्यक्त करती हैं ।

                        सासू मोरी कहे बझिनिया, ननद  वृजवासिन,

                        जेकर बारी वियाहिया वै घरा से निकारे । 

पारिवारिक कलेह

             भारतीय समाज हमेशा से सयुंक्त परिवार के रूप में रहता था और संयुक्त परिवार में कभी-कभी पारिवारिक कलेह होते रहते थे । जैसे- सास-बहू कलह, ननद-भोजाई कलह और देवरानी और जेठानी का कलह लेकिन।  सामाजिक मर्यादाओं के कारण स्त्री चुपचाप पारिवारिक कलह को सहती रहती है।  यहाँ तक अगर कभी पति-पत्नी में किसी बात को लेकर बहस हो जाती थी  तो स्त्री यह समझ के चुप हो जाती थी कि पति उसका परमेश्वर है और वह उसके साथ कुछ भी कर सकता है ।

            परिवारी कलह की इस समस्या को अवध प्रांत की स्त्रियों ने अवधी लोकगीतों के माध्यम से व्यक्त किया है । ननद-भाभी का एक गीत इस प्रकार जिसमें ननद अपनी भाभी को बहुत दुखी करती हैं तो भाभी गीत के माध्यम से व्यथा-कथा व्यक्त करती है –

            दुपहरिया से झगरा डालेओ मोरी ननदी

            भोरोरे हम बढ़नी से अंगना बहारेन

            अँगना मा कूड़ा फइलाएओ मोरी ननदी ।

बेमेल विवाह

बाल विवाह एंव जीवन साथी के चुनाव की स्वतन्त्रता के नहीं होने के कारण कई बार लड़कियों का विवाह अनुपयुक्त लड़कों से करवा दिया जाता है। शिक्षा की असमानता, आदि के कारण उनमें वैचारिक मतभेद उत्पन्न हो जाता है और उनका वैवाहिक जीवन सफल नहीं होता है। ऐसी स्थिति में स्त्री को ही अधिक कष्ट उठाने पड़ते है। अशिक्षा एवं परंपरावादी व्यवस्था के चलते आज भी अनमेल विवाह हो रहे  है।  अवधी लोकगीतों में बेमेल विवाह (बालिका व वृद्ध का विवाहबालक व युवती का विवाह आदि) बहु-विवाह प्रथा का मार्मिक अंकन देखने को मिलता है। यथा- इस विवाह गीत में वृद्ध-विवाह का मज़ाक उड़ाया गया है।   

            बरहै बरिसवा कै मोरि  रँगरैली असिया बरसि क दमाद।

        निकरि न आवै तू मोरि रँगरैली अजगर ठाढ़ दुवार।।1।।

        बाहर किचकिच आँगन किचकिच बुढ़ऊ गिरै मुँह बाय।

        सात सखी मिलि बुढ़ऊ उठावैं बुढ़ऊ क सरग दिखाय।।2।।

सतीत्व परीक्षा

            प्रवासी पति के लौटने पर सास-ननद की ईर्ष्यामय शिकायत के परिणामस्वरूप कुलवधू को अपने सतीत्व की परीक्षा देनी पड़ती थी । अवधी लोकगीतों में इस परीक्षा का वर्णन मिलता है और स्त्री को अपने सतीत्व की परीक्षा अग्नि, जल, सूर्य या पृथ्वी को साक्षी मानकर शपथ या सतीत्व परीक्षा का वर्णन मिलता है जो इस प्रकार है-

                        जब बहिनी चली हैं अगिनि किरियवां

                        खौला तेल भये जुड़ पनिया हो रामा

                         जब बहिनी चली हैं गंगा किरियवां

                        गगरी गई है झुराई हो रामा

                        जब बहिनी चली हैं सुरुजु किरियवां

                        उगा सुरुजु गए हैं छिपाए हो रामा

                        जब बहिनी चली हैं धरती किरियवां

                        धरती म उठा भुंइडोलवा हो रामा