स्त्री विमर्श
हिंदी साहित्येतिहास लेखन में जातिवाद, संस्कृति और डॉ अम्बेडकर का सामाजिक चिंतन
हिंदी साहित्येतिहास लेखन में जातिवाद, संस्कृति और डॉ अम्बेडकर का सामाजिक चिंतन
डॉ. कर्मानंद आर्य
साहित्य के बिना समाज और समाज के बिना साहित्य की कल्पना असंभव है. समाज एक सामूहिक इकाई है और साहित्य भी बहुत सारी इकाइयों से मिलकर बनता है. यह तथ्य सृजन के हर क्षेत्र में लागू होता है. हिंदी साहित्य का अपना सात-आठ सौ वर्षों का इतिहास है. लेखन की एक बड़ी संख्या में इसमें आमद रही है. साहित्य की बहुत सी विधाओं का अब तक जन्म हो चुका है और कुछ काल के गाल में खुद को समाहित करने से नहीं रोक पायी हैं. प्रतिरोध के साहित्य ने वैसे अनेक मुकाम हासिल किये हैं पर साथ की एक जाति विशेष की कृपा के कारण इस का समुचित विकास नहीं हो पाया. पर इन सात-आठ सौ वर्षों का साहित्य क्या एकान्मुखी नहीं है? साहित्य उन अर्थों में प्रजातान्त्रिक नहीं हो पायी जहाँ उसे समाज के अन्य वर्गों का भी समुचित योगदान प्राप्त होता. होना तो यह चाहिए था कि उसमें सब वर्गों की भागीदारी होती. पर ऐसा हुआ नहीं. ऐसा क्यों नहीं हुआ, क्या साहित्य के बीज में ही कुछ ऐसा है जो उसके पेड़ में प्रकट होता रहता है? अपनी पुस्तक ‘आलोचना और विचारधारा’ में डॉ. नामवर सिंह लिखते हैं कि आलोचना की दुनिया विचारों की दुनिया है. और विचार के लिए चाहे गुरु-शिष्य परंपरा हो या विदग्ध लोगों का समुदाय, उनके बीच बातचीत और शास्त्रार्थ जरुरी है. बहस के जरिये एक पीढ़ी में जो सवाल उठते हैं उनके जबाब अगली पीढ़ी को देने होते हैं. पर यह बात-चीत बहुत लंबा अंतराल गुजरा और हुई नहीं. यहाँ लगभग संवादहीनता की स्थिति है.
साहित्य समाज का दर्पण है पर वह किस समाज का दर्पण है यह विषय विचारणीय है. जैसे ही हम उस दर्पण रूपी समाज की पहचान करने लगते हैं साहित्य की पोल खुलती चली जाती है. आपको उसमें सीधे-सीधे फांक नजर आने लगता है. साहित्य में जो प्रतिबिंबित होता है, वो असल में एक छोटे समाज की सामाजिक वास्तविकता है. जिस समाज का अंतर्विरोध साहित्य में है वह समाज केवल शिक्षित समुदायों का है. उससे समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग अलग है. जिसकी चिंताएं आवश्यकतायें बिलकुल अलग हैं. समाज में अगर समरूपता नहीं है तो साहित्य में भी आप समरूपता खोजेंगे तो नजर नहीं आयेगी. आप सबजेक्टिव ढंग से उसे प्रोजेक्ट नहीं कर सकते. भारत में साहित्य भले ही मानवमात्र के कल्याण का दावा करता हो परन्तु उसका मूलचरित्र असमानता बोधक है. वह भी जाति, वर्ण, स्थान के प्रभाव से मुक्त नहीं है. यहाँ तक कला और संस्कृति भी जातियों समुदायों के द्वारा पोषित होती हैं. वहां भी कुछ जातियों का वर्चश्व है तो कुछ जातियां हासिये पर धकेल दी गई हैं. साहित्यिक अभिव्यक्तियों में जाति, वर्ण, समुदाय के नुकीले नख–दन्त हमें चारो तरफ दिखाई देते हैं. इतिहास बताता है कि एक बड़े समुदाय के लिए पठन पाठन का अधिकार भारत में बहुत क्षीण रहा. कई हजार सालों तक यहाँ की लगभग अस्सी प्रतिशत जनता ने स्कूल का मुख तक नहीं देखा. इसलिए साहित्य समाज में उनकी भागीदारी न के बराबर रही. सैकड़ों वर्षों तक गरीबों और अमीरों की बोली भाषा में बहुत अंतर रहा. शारीरिक श्रम को यहाँ हेय दृष्टि से देखा गया और बुद्धिवाद पर कुछ ख़ास समुदायों का कब्ज़ा जमा रहा.
अंग्रेजी कहावत है कि जब आपके कमरे में कोई हाथी घुस जाए तो हाथी पर बात करना ज्यादा ठीक होता है. डॉ. अम्बेकर जिन प्रश्नों से लगातार जूझते रहे वे आजादी के पचास साल बाद भी प्रासंगिक बने हुए हैं इसलिए आज इस बात की आवश्यकता अधिक है की हम उन मुद्दों पर खुलकर बात करें. आरक्षण का विरोध तो हर कोई आसानी से कर लेता है पर सामाजिक भागीदारी की बात कोई नहीं करता. समाज और साहित्य में भयानक सामाजिक असमनाता है. उसको आज के परिदृश्य में समझना बहुत जरुरी है. साथ ही यह भी समझना जरुरी है कि डॉ. आंबेडकर को किन परिस्थियों ने बनाया. वे किससे प्रेरणा प्राप्त करते रहे. उनके इतने विराट व्यक्तित्व में और किन लोगों क व्यक्तित्व शामिल है. एक अस्पृश्य परिवार में जन्म लेने के कारण उन्हें सारा जीवन नारकीय कष्टों में बिताना पड़ा. उस समय एक दलित के रूप में जन्म लेना पशु होने से भी नीच कर्म था. अस्पृश्यता के कारण एक पशु तो तालाब का पानी पी सकता था पर एक दलित नहीं. बाबासाहेब आंबेडकर ने अपना सारा जीवन हिंदू धर्म की चतुवर्ण प्रणाली और भारतीय समाज में सर्वव्यापित जाति व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष में बिता दिया. चाहे समाज हो चाहे साहित्य उनका समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व का सपना नहीं पूरा हो पाया. मुक्तिबोध अपनी पुस्तक ‘मध्ययुगीन भक्ति आन्दोलन का एक पहलू’ में लिखते हैं कि ‘किसी भी साहित्य को हमें तीन दृष्टियों से देखना चाहिए. एक तो यह कि वह किन सामाजिक और मनोवैज्ञानिक शक्तियों से उत्पन्न है अर्थात वह किन शक्तियों के कार्यों का परिणाम है. किन सामाजिक, संस्कृत क्रियाओं का परिणाम है. दूसरा इसका अंतर्स्वरूप क्या है? किन प्रेरणाओं और भावनाओं ने उसके आंतरिक शब्द निरुपित किये हैं. तीसरे उसके प्रभाव क्या हैं? किन सामाजिक शक्तियों ने उसका सदुपयोग या दुरुपयोग किया है और क्यों? साधारण जन के किन मानसिक तत्वों को उसने विकसित या नष्ट किया है? आज के हिंदी साहित्य हमें इसी नजरिये से देखने की महती जरूरत है.
हिंदी-साहित्य और इतिहास दृष्टि : hindi-sahitya aur itihas drishti
राजेन्द्र यादव ने लिखा है कि सत्रहवी-अठारहवी उपनिवेश बनाने की शताब्दी थी, उन्नीसवीं उसके वैचारिक विस्तार की. बीसवीं इस मानसिक, भौगोलिक उपनिवेशों को तोड़ने की. इक्कीसवीं सदी सूचना साम्राज्यवाद की सदी है जिसमें विचार सूचना में बदल चुका है. ऐसी सूचना जिससे लड़ा नहीं जा सकता, केवल स्वीकार किया जा सकता है. जाति के आवरण में वाद ने हर तरफ घेरा डाला हुआ है. फिर चाहे आचार्य रामचंद्र शुक्ल हों, आचार्य द्विवेदी हो, रामविलास शर्मा हों, नामवर हों या चौथीराम यादव. सभी आलोचकों पर उनकी जाति हावी होती दिखाई देती है. वस्तुतः जाति को नकारने वाला सबसे अधिक जातिवाद फैलाता है. वह भ्रम का ऐसा संजाल फैलाता है कि जाति का कोई अस्तित्व नहीं है पर वह अपना सारा खेला उसी जाति को संज्ञान रखकर खेलता है. ‘मैनेजर पांडे लिखते हैं कि ‘साहित्य का अस्तित्व समाज से अलग नहीं होता है. इसलिए साहित्य का विकास समाज से काटकर नहीं हो सकता. साहित्य सामाजिक रचना है. साहित्यकार की की रचनाशील चेतना उसके सामाजिक अस्तित्व से निर्मित होती है. साहित्यिक कर्म की पूरी प्रक्रिया सामजिक व्यवहार का ही एक विशिष्ठ रूप है. इसलिए साहित्य का इतिहास समाज के इतिहास से अनेक रूपों में जुड़ा हुआ होता है. साहित्य का मूल्यांकन करने पर इसके विपरीत स्थितियां मिलती हैं. नामवर सिंह अपने एक निबंध में लिखते हैं कि ‘इतिहास लिखने की ओर कोई जाति तभी प्रवृत्त होती है जब उसका ध्यान अपने इतिहास के निर्माण की ओर जाता है. यह बात साहित्य के बारे में उतनी ही सच है जितनी जीवन के. हिंदी में आज इतिहास लिखने के लिए यदि विशेष उत्साह दिखाई पड़ रहा है तो यही समझा जाएगा कि स्वराज्य-प्राप्ति के बाद सारा भारत जिस प्रकार सभी क्षेत्रों में इतिहास-निर्माण के लिए आकुल है उसी प्रकार हिंदी के विद्वान एवं साहित्यकार भी अपना ऐतिहासिक दायित्व निभाने के लिए प्रयत्नशील हैं’ हिंदी साहित्य के इतिहास में ‘ हायरार्की आफ वैल्यूज’ को कायम करने की बात है. हिंदी साहित्य में शताधिक हिंदी साहित्य के इतिहास ग्रन्थ लिखे गए हैं पर उनमें ब्राह्मणवाद का वर्चस्व होने के कारण अन्य समुदायों को ठीक से जगह नहीं मिल पायी है. द्रष्टव्य है कि रामचंद्र शुक्ल जिस कवि या रचनाकार का नाम उल्लेख करते हैं उसकी जातिगत पहचान सबसे पहले कराते हैं. वे अपने पसंद के रचनाकारों को अधिक तरजीह देते हैं और जो उनकी विचारधारा में फिट नहीं बैठता है उसकों ख़ारिज करते हुए चलते हैं. हिंदी का यहीं इतिहास ग्रन्थ जो जातिवाद, क्षेत्रवाद से भरा हुआ है अन्य साहित्येतिहास ग्रन्थ इसी को आधार बनाकर लिखे गए हैं. इस इतिहास ग्रन्थ में बहुत सारी कमियां और भी है.यह केवल पूर्वी उत्तरप्रदेश के कुछ जिलों और बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान के कुछ जिलों के साहित्यकारों को ही शामिल करता है.
हिंदी जो राष्ट्रभाषा होने का दावा करती है उसका सम्पूर्ण चरित्र की पड़ताल इस इतिहास ग्रन्थ में की जा सकती है. समय के साथ इनकी पड़ताल होनी चाहिए. पं. हजारीप्रसाद द्विवेदी का ‘हिंदी-साहित्य : उसका उद्भव और विकास‘ प्रकाशित हुआ तो अनेक लोगों का धीरज टूट गया और बहुतों की ओर से शिकायत आई कि इतिहास द्विवेदीजी के गौरव के अनुकूल नहीं है, वैसे ज्यादातर लोगों को उनके सम्यक अद्यतन न हो पाने का कष्ट था. यह जानते हुए भी कि इतिहास घोषित रूप से छात्रों के उपयोगार्थ लिखा गया है, किसी का ध्यान उसके युग-सापेक्ष साहित्यिक बोध की नवीनता एवं सीमा की ओर नहीं गया. शुक्लजी के इतिहास के साथ उसे मिलाकर किसी ने यह देखने की कोशिश नहीं की कि दोनों इतिहासों में जो एक पीढ़ी का अंतर है उसके कारण परंपरा के निरूपण एवं मूल्यांकन में कहाँ-कहाँ अंतर आ गया है! हिंदी साहित्य के लगभग इतिहासों का जातिवादी अध्ययन किया जाए तो स्थितियां बहुत साफ़ नजर आती हैं. हिन्दी साहित्य के मुख्य इतिहासकार और ग्रन्थ इसी बात की पुष्टि करते हैं. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिंदी साहित्य का इतिहास लिखते हुए कवि लेखकों की जाति का नाम जरुर दिया है और कहीं कहीं गोत्र का भी.
आज भी हिंदी में पुराने और बड़े साहित्यकारों के नामों के साथ पण्डित, लाला और बाबू जैसे जातिसूचक संबोधन जोड़ने की प्रथा चलती है. यहाँ कवि की प्राथमिक पहचान उसकी जाति से जुड़ी हुई है. हालाँकि १९ वी सदी की इन जातिसभाओं का इतिहास सिलसिलेवार बहुत कम मिलता है क्योंकि इनमें से ज्यादातर सभायें बेअसर थीं. लड़कों की शिक्षा जैसे मुद्दों को छोड़कर ब्राह्मण और क्षत्रिय सभाओं ने तो अक्सर महत्वपूर्ण सुधारों का विरोध ही किया. जातीय द्वेष के एक मामले में आचार्य शुक्ल स्वयं लिखते हैं कि सिद्धों और योगियों का इतना वर्णन करके इस ओर हम ध्यान दिलाना आवश्यक समझते हैं कि उनकी रचनाएं तांत्रिक विधान, योगसाधना, आत्म निग्रह, श्वास निरोध, भीतरी चक्रों और नादियों की स्थिति, अंतर्मुखी साधना के महत्व इत्यादि की स्वाभाविक अनुभूतियों और दशाओं से उनका कोई सम्बन्ध नहीं. अतः वे शुद्ध साहित्य के अंतर्गत नहीं आती हैं. क्या हम पूछ सकते हैं उनके प्रिय कवि तुलसी,जायसी में यही सब तत्व मौजूद हैं पर उनकी वाणी इसपर एक शब्द नहीं बोलती है. ब्राह्मणी व्यवस्था हर किसी को ब्राह्मण बनाए रखना चाहती है. यह खेल वह किसी महापुरुष के जन्म के साथ टैग कर देती है. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल कबीर के बारे में लिखते हैं कि कबीर: ज्ञानाश्रयी शाखा, इनकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में अनेक प्रकार के प्रवाद प्रचलित है. कहते हैं काशी में स्वामी रामानंद का एक भक्त ब्राह्मण था जिसकी किसी विधवा कन्या को स्वामी जी ने पुत्रवती होने का आशीर्वाद दे दे दिया था. फल यहाँ हुआ कि उसे एक बालक उत्पन्न हुआ जिसे वह लहरतारा के ताल के पास फेक आयी. अली या नीरू नाम का जुलाहा उस बालक को अपने घर उठा लाया और पालने लगा. यही बालक आगे चलकर कबीरदास हुआ. यहाँ रामचंद्र शुक्ल दर्शाना चाहते हैंकि कबीर को चाहे आप कुछ भी कहिये पर वह हैं विशुद्ध ब्राह्मण का खून.
साहित्य का इतिहास और भेदभाव sahitya ka itihas aur bhedbhav
हिंदी साहित्य के अधिकतम इतिहास ग्रन्थ ‘सामान्य वितरण के खिलाफ’ है. हिंदी में वर्णवादी, जातिवादी आचार्य रामचंद्र शुक्ल का इतिहास प्रतिमान है तब सुमन राजे का इतिहास प्रतिमान कैसे हो सकता है? एक पंडित द्वारा हिन्दू मन से लिखा गया हिंदी का इतिहास धर्म और आस्था से कैसे अलग हो सकता है. दुनिया की जितनी महान कृतियाँ हैं वे दो सिरों की बात करती हैं. अभी एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय के हिंदी पाठ्यक्रम में ‘अस्मितामूलक’ साहित्य को स्थान देने के लिए एक लम्बी बहस छिड गई. प्रश्न था किस साहित्यकार को पाठ्यक्रम में जगह दी जाय और किसे छोड़ दिया जाय. पाठ्यक्रम में जगह बनाने के लिए किसी रचना अथवा रचनाकार में क्या योग्यता होनी चाहिए? क्यों कुछ लोगों को दिनकर, निराला, नामवर से बड़ा लेखक दूसरा नजर नहीं आता? वे आज भी ओमप्रकाश बाल्मीकि, प्रो. तुलसीराम, तेज सिंह, डॉ. धर्मवीर, डॉ. चौथीराम यादव, जयप्रकाश कर्दम, अनीता भारती, रमणिका गुप्ता, निर्मला पुतुल, विमल थोराट आदि से क्यों बचना चाहते हैं? क्या पाठ्यक्रम का कोई अपना चरित्र है या वह पाठ्यक्रम बनाने वाले के चरित्र पर ही निर्भर है. हिंदी की दलित धारा साहित्य में राधावाद, विष्णुवाद, कलावाद और भोंथरे मार्क्सवाद को एक सिरे से नकारती है क्योंकि साहित्य में इन ब्राह्मणी मूल्यों का केवल दुरुपयोग हुआ है. जनवादी आलोचक वीरेंद्र यादव अपने आलेख ‘बहुजन समाज और साहित्य कि मुख्यधारा’ में याद दिलाते हैं की रामविलास शर्मा जैसे हिंदी के आलोचक ‘रेणु’ कि कृतियों को नकारने का दुस्साहस क्यों करते हैं? क्या कारण है कि अपनी रचनात्मक मेधा से आमजन के सरोकारों पर लिखने वाला कोई दलित, ओबीसी रचनाकार उनके रडार पर नहीं आ पाता है. वे प्रेमचंद की कहानियों, उपन्यासों में आने वाले उन बहुजन नायकों की चर्चा उठाते हैं जो दलित और बहुजन हैं पर आये वे एक विशेष हिकारभाव से ही. निम्न वर्ग से आने वाले पात्रों कि रचना करते समय प्रेमचंद कि सावधानी का जिक्र भी इस आलेख में है. डॉ. मैनेजर पांडे अपनी किताब में लिखते हैं कि परंपरा और परिवर्तन में द्वंद्वात्मक सम्बन्ध होता है. परिवर्तन की व्याख्या का एक उद्देश्य नए परिवर्तनों को प्रेरित करना और दिशा देना भी होता है. साहित्य के परिवर्तन और विकास के मूल में समाज का परिवर्तन और मूल होता है. इतिहास निर्मित करने वालों को स्वयं इतिहास ने निर्मित किया होता है.
हिंदी लेखकों की जाति और उसका जातिवादी नामकरण : hindi lekhakon ki jati
इस ज्ञान- युग का “महाभारत” शस्त्र से नहीं, स्याही से लड़ा जाएगा. तुलसीदास ने अपनी किसी भी रचना में अपनी जाति का उल्लेख नहीं किया, लेकिन पेट भर कर जातिवादी रचनाएं लिखीं. शुद्रों को ताड़न का अधिकारी बताया. तुलसीदास नहीं बताते कि उनकी जाति क्या है और यह लिखते हैं- अधम जाति में विद्या पाए, भयहु यथा अहि दूध पिलाए. अर्थात जिस प्रकार से सांप को दूध पिलाने से वह और विषैला (जहरीला) हो जाता है, वैसे ही शूद्रों (नीच जाति वालों) को शिक्षा देने से वे और खतरनाक हो जाते हैं. जबकि जाति का विरोध करने वाले कबीर स्पष्ट लिखते हैं कि संत कबीर कहते हैं “जाति जुलाहा, नाम कबीरा” और फिर वे जातिवाद पर कसकर प्रहार करते हैं. गुरु रविदास लिखते हैं “कहि रविदास खलास चमारा” औऱ देखिए कि बे-गम-पुरा यानी भेदभाव से मुक्त शहर की कामना करते हैं औऱ जाति को बराबर निशाने पर लेते हैं. इसलिए कोई “कास्ट ब्लाइंड” बनने का नाटक कर रहा है और कह रहा है कि मेरी कोई जाति नहीं है, मैं तो हिंदुस्तानी मात्र हूं, तो उस पर आंख मूंदकर भरोसा नहीं किया जा सकता. को न परयौ एहि जाल में ? जाति के जाल में सभी फँसे हैं .आप फँसे तो क्या ? आप देखिए न भारतेंदु हरिश्चंद्र को ? वे तो युग प्रवर्तक कवि हैं .हिंदी साहित्य में उनके नाम पर ” भारतेंदु युग ” है.भारतेंदु ने किसका इतिहास लिखा ? अपनी जाति का इतिहास लिखा.अग्रवालों का इतिहास लिखा – अग्रवालों की उत्पत्ति( 1871).भारतेंदु ने किसका संगठन बनाया ? अपनी जाति का संगठन बनाया.वैश्यों का संगठन बनाया – वैश्य हितैषिणी सभा (1874 ).अपनी जाति का इतिहास लिखना और अपनी जाति का संगठन कायम करना हिंदी साहित्य में कोई नई बात थोड़े न है ? अवध के लोगों में यथोचित जानकारी का अभाव है ’इसकी एक अहं वजह जातिभेद की प्रथा है’ जिनके साहित्य में मिलने वाले की चेतना को ‘हिंदी नवजागरण कहा जाता है’ वास्तव में वे इन्हीं सनातन संस्थाओं से जुड़े हुए व्यक्ति थे. लेकिन पश्चिमोत्तर प्रान्त में बनी सभाएं इन सबसे अलग ढंग की थी. यहाँ जाति सभायें खुद ब्राह्मणों ने और दूसरी द्विज जातियों ने ही बनाई. यहाँ जाति सभायें ब्राह्मण वर्चश्व के खिलाफ उत्पीड़ित जातियों ने नहीं बनाई. साहित्य में शुक्ल युग, द्विवेदी युग, शुक्लोत्तर युग आदि क्या इंगित करते हैं?
अछूत की शिकायत :
‘शम्बूक, एकलव्य और कर्ण अपनी योग्यता, दक्षता और क्षमता में किससे कम थे परन्तु सिर्फ इसलिए उनका शारीरिक मानसिक वध किया गया कि उनके उत्थान से ब्राह्मणपुत्रों और राजपुत्रों की रोजी-रोटी समाप्त होती थी. उनका सम्मान छिनता था. उनके ऊपर आने का मतलब था दुनिया का नरक में डूबना. जहाँ उत्थान और उन्नति के सारे अवसरों पर ‘प्रवेश-निषेध’ की तख्तियां लगी हैं (यहाँ कुत्तों और शूद्रों का प्रवेश वर्जित). बारहवीं सदी में करुणा को ही धर्म और श्रम को पूजा समझने वाले एक ब्राह्मण बसवराजेश्वर ने कन्नड़ क्षेत्र के दलितों और अपने स्वजातियों के बीच विवाह संबंधों की रेडिकल परंपरा शुरू करने का दुसाहस किया था लेकिन बदले में उन्हें हताश मृत्यु का वरण करना पड़ा. उसने निचली जातियों में से जो वीरशैव गढ़े थे द्विज परम्परा ने लिंगायत के रूप में अपना लिया जिनका दलितों के खिलाफ प्रथम आक्रामक पंक्ति की तरह दोहन किया जाता है. हिंदी में एक अछूत को अपनी शिकायत दर्ज करनी पड़ी क्योंकि उसकी आवाज को अनसुना कर दिया गया. इतिहास में दाखिल होना तो और दूर की कौड़ी हो गई. इस पद के माध्यम से हम हासिये के एक बड़े समुदाय की पीड़ा को समझ सकते हैं.
हमनी के इनरा के निगिचे न जाईला जा
पांके में से भरि-भरि पियतानी पानी|
पनही से पिटि पिटि हाथ गोड़ तुरि दैले
हमनी के एतना काहे के हलकानी ||
यह बीसवीं सदी का दूसरा दशक था जब १९१४ में महावीर प्रसाद द्विवेदी की यशस्वी पत्रिका में दलित कवि हीरा डोम रचित ‘अछूत की शिकायत’ प्रकाशित हुई थी. इसके बाद क्रांति, लोकतंत्र, आधुनिकता और मानवाधिकारों को समर्पित पूरी शताब्दी में अछूत अपनी शिकायत के निराकरण की प्रतीक्षा करते रहे. उन्होंने शिकायत करने के हर जरिये का इस्तेमाल किया. उन्होंने परम्परा के दरबार में हाजिरी लगाईं और अन्त्यज से शूद्र बनने की कोशिश करके जाति के दायरे के भीतर ऊपर उठना चाहा. भक्ति आन्दोलन से बहले वे ईश्वर के दरबार से बहिष्कृत थे. संत कवियों ने उन्हें ईश्वर को उलाहना देना सिखाया था.
ब्राह्मणवाद ने कैसे एक दूसरे को पोषा :
नामवर सिंह ने भी एक उक्ति दे डाली कि ‘घोड़े पर लिखने के लिए क्या घोड़ा होना होगा?’ यहां उत्तर हां में होगा. घोड़े पर कसी गई जीन का वजन और उसकी कसावट का बंधन, उसके मुंह में लगाई गई लगाम का स्वाद, उस पर पड़ते कोड़े की फटकार का दर्द, उसके खुर में ठोंकी गई नाल का दंश घोड़ा ही बता सकता है, कोई और नहीं. परंतु यह भी सत्य है कि मनुष्य घोड़े की सवारी करना, उसकी दुलत्ती खाना, उसके रंग, उसकी हिनहिनाट की आवाज, उसकी सरपट चाल के साथ उससे सहानुभूति करता हुआ उसकी तकलीफ पर जरूर लिख सकता है, अभी घोड़ा नहीं लिख सकता. जिस विचारधारा ने भारत में ब्राह्मणों को सर्वश्रेष्ठ घोषित किया है, जिनके पास सत्ता को संचालित करने का अधिकार था और सबसे बड़ी बात जिनके पास अध्ययन-अध्यापन का अधिकार था, वे ही लेखन कार्य में भी लगे हुए थे. वेदों को अपौरूषेय सिद्ध किया जाता है, लोक वांङ्मय को जाने किस श्रेणी में रखा जाएगा? पौराणिक कृतियों के अतिरिक्त लौकिक रचनाओं के रचनाकारों के जो ज्ञात नाम हैं, ये सब कौन थे? उपनिषद, स्मृतियां, काव्यशास्त्र संस्कृत के ग्रंथ आदि की रचनाएं किनके द्वारा की जा रही थीं? स्वाभाविक है कि यही रचनाकार आलोचना कर रहे थे और कर रहे हैं. अब अपनी मानसिकता के साथ वे जैसी आलोचना कर रहे हैं, उसी खाचें में सबको खचित करना चाहते हैं, और सबसे यही अपेक्षा करते हैं.
यह वहीं नामवर हैं जो पिछले दिनों दिल्ली में दस पुस्तकों के विमोचन के अवसर पर लगभग चेतावनी देते हुए कहा था कि यदि साहित्य में आरक्षण दिया गया, तो जैसे राजनीति गन्दी हो गई, वैसे ही साहित्य का क्षेत्र भी गन्दा हो जायेगा. हिंदी साहित्य लेखन में जिस तरह की गुटबंदी और चाटुकारिता का आलम है वह काबिले गौर है. शिष्य बनाने की सनातन परम्परा हिंदी में आकर कैसे टूटती? हर मठाधीश अपने दो चार गुर्गे जरुर पालकर चलता है. वे गुर्गे श्वान की भाँती उनके चारो तरफ दुम हिलाते फिरते हैं और बदले में गुरु का बचा हुआ पाते हैं. मध्यकाल की तरह यहाँ सत्ता और भोक्ता के बीच गुरु नाम का एक मिडियोकर जरुर है. वह अपने चेलों को भोग की सारी सामग्री उपलब्ध कराता है. हिंदी में जो भी आलोचना और इतिहास लेखन विकसित हुआ वह इसी चेलावाद, जातिवाद और क्षेत्रवाद के आधार पर हुआ. इन्हीं आलोचकों ने हिंदी का सबसे ज्यादा नुकसान किया है. इतिहास ग्रंथों में अपने रिश्तेदारों को प्रश्रय, अपनी जाति को प्रश्रय, अपने चेलों को बढ़ावा और देशज शब्दों में कहें तो तू मेरी खुजा हैं तेरी खुजाओं की रीति पर सब हुआ. इसी परंपरा के पोषक सच्चे मैनेजर ‘मैनेजर पांडे’ अपनी पुस्तक ‘साहित्य और इतिहास दृष्टि’ में लिखते हैं कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी और रामविलास शर्मा ने अपने अपने इतिहास और आलोचना सम्बन्धी लेखन में पुरान्पंथियों, रीतिवादियों आधुनिकतावादियों और रूपवादियों के तरह-तरह के जनविरोधी और इतिहास विरोधी दृष्टिकोण के विरुद्ध संघर्ष किया. आज जब हम जनविरोधी और इतिहास विरोधी दृष्टिकोणों से संघर्ष करना चाहते हैं और जनता के मुक्ति संघर्ष में सहायक हिंदी साहित्य तथा उनके इतिहास की पक्षधर भूमिका की पहचान विकसित करना चाहते हैं तो यह आवश्यक है कि हम आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी और रामविलास शर्मा के ऐसे संघर्षों को याद करें. अब सोचने वाली बात है कि इनमें से सभी आलोचक पुराणपंथी और यथास्थितिवादी है तब ऐसी परम्परा को क्या नाम दिया जा सकता है. साहित्य में इससे बड़ा झूठ और क्या हो सकता है.
डॉ. आंबेडकर का सामाजिक चिंतन :
आंबेडकर एक समाजशास्त्री और राजनीतिज्ञ, समाज-सुधारक, अर्थ शास्त्री और कानूनविद थे, लेकिन सामान्य अर्थों में साहित्यकार नहीं थे. कहने भर के लिए माना जा सकता है कि आम्बेडकर की आत्मकथा ‘मी कसा झालो’ (मैं कैसे बना) से प्रेरणा लेकर दलित साहित्यकारों ने आत्मकथा की विधा विकसित की. आंबेडकर में ही दलित साहित्य के स्रोत दिखाने के लिए उदाहरण दिया जाता है. लेकिन साहित्य के क्षेत्र में आंबेडकर का असली महत्व कुछ और था.एक पथ-प्रदर्शक और मनोवैज्ञानिक मुक्ति के द्वार पर दलितों को खड़ा कर देने का महत्व. किसी भी विचारक पर चिंतन करते हुए यह आवश्यक हो जाता है कि हम यह सोचें कि वृहत्तर समाज के विकास में उस विचारक का योगदान सकारात्मक है या नकारात्मक. नि:संदेह यहां हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि डॉ. आंबेडकर अपनी सामाजिक चिंतक की भूमिका किन मुद्दों को ध्यान में रखते हुए निर्वाह कर रहे थे? उनके लिए महत्त्वपूर्ण क्या था? वह किस दृष्टिकोण से समाज को देख रहे थे? चिंतन की दार्शनिक भूमिका तक चलकर वह क्यों आए थे? इन सारे प्रश्नों का एक ही उत्तर है ‘जाति के दंश’ से उपजी सामाजिक असमानता को निराधार करना. जाति भेद की जड़ें खोदना, जाति प्रथा की चूलें हिला देना. सामाजिक असमानता के जितने भी कारण उन्हें दिखाई दे रहे थे, उन्हें समूल नष्ट करने हेतु वह साक्ष्य जुटा रहे थे. दूसरी तरफ डॉ. आंबेडकर से असहमति व्यक्त करने वाले लोग चूंकि स्थापित व्यवस्था के पोषक थे अत: डॉ. आंबेडकर से स्वभावत: अपनी असहमति प्रदर्शित कर रहे थे. यह भी सच है कि चाहे कितने ही संतुलित और निष्पक्ष होने के प्रयास किए जाएं पर अनायास ही हमारे संस्कार हमें अपने पक्ष में खड़ा कर लेते हैं. इसका यह आशय नहीं कि ये प्रयास विफल हो गए, आशय यह है कि इतनी यात्रा तो हो गई और आगे भी संभावनाएं बनी रहेंगी. ‘गौरव का लोकगीत:समकालीन दलित विश्वास के तीन घटक’ में दलित आन्दोलन पर विस्तृत काम करने वाले इलिअनर जिलिअट ने अपने आलेख में बाबा साहेब द्वारा मराठी में लिखी गई तीन पंक्तियों के अंग्रेजी अनुवाद में लिखा है कि :
हिन्दुओं को चाहिए थे वेद, इसलिए उन्होंने व्यास को
बुलाया जो सवर्ण नहीं थे|
हिन्दुओं को चाहिए था एक महाकाव्य, इसलिए उन्होंने
वाल्मीकि को बुलाया जो खुद अछूत थे|
हिन्दुओं को चाहिए था एक संविधान, और उन्होंने
मुझे बुला भेजा||
आंबेडकर की ऊर्जा का बड़ा हिस्सा धर्माधारित हिंसा को उद्घाटित और विश्लेषित करने में खर्च हुआ. दलित साहित्य में धर्मशास्त्रीय हिंसा पर प्रभूत सामग्री संचित है. सिर्फ शंबूक प्रसंग पर भारतीय भाषाओं में दलित रचनाकारों द्वारा लिखी कविताओं, कहानियों को इकट््ठा किया जाए, तो एक वृहद् ग्रंथ बन जाएगा! उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध और बीसवीं सदी के पूर्वार्ध के समाजसुधारकों और फुले-आंबेडकर जैसे सामाजिक क्रांतिकारियों के सतत प्रयासों ने उम्मीद बंधाई थी कि आजाद भारत में हिंसा के दुश्चक्र पर विराम लगेगा. कहने की जरूरत नहीं कि यह उम्मीद धूल-धूसरित हुई.
डॉ आंबेडकर कबीर, रैदास, दादू, नानक, चोखामेला, सहजोबाई आदि से प्रेरित हुए. कबीर को डॉ. आंबेडकर अपना दूसरा गुरु बताया. आधुनिक युग में ज्योतिबा फुले, सावित्री बाई फुले, रामास्वामी नायकर पेरियार, नारायण गुरु, शाहूजी महाराज, गोविन्द रानाडे आदि ने सामाजिक न्याय को मजबूती के साथ स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. डॉ. आंबेडकर ने ज्योतिबा फुले को अपना तीसरा गुरु बताया और अपनी सुप्रसिद्ध पुस्तक’हू वर दी शुद्राज’ उनको समर्पित की. अपने समर्पण में 10 अक्तूबर १९४६ को आंबेडकर ने लिखा ‘जिन्होंने हिन्दू समाज की छोटी जातियों से उच्च वर्णों के प्रति उनकी गुलामी की भावना के सम्बन्ध में जागृत किया और उन्होंने विदेशी शासन से मुक्ति पाने में भी सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना अधिक महत्वपूर्ण है, इस सिद्धांत की स्थापना की, उस आधुनिक भारत के महान ‘राष्ट्रपिता’ ज्योतिराव फुले की स्मृति को सादर समर्पित. डॉ आंबेडकर यह मानते थे कि फुले के जीवन दर्शन से प्रेरणा लेकर ही वंचित समाज की मुक्ति दे सकती है.
हिंदी साहित्य, साहित्येतिहास में आंबेडकर कहाँ ?
डॉ.अम्बेडकर कहते हैं कि मनुष्यमात्र को एक तर्कशील जमात बनाना होगा. मनुष्य को मनुष्य बनना होगा जिसमें प्रेम, सहिष्णुता, करुणा और मेहनत करने का माद्दा हो. जिसमें आत्मसम्मान हो और दूसरों को सम्मान देने की आदत हो, जो छद्म से दूर एक खुली किताब हो . अठारवीं सदी से पहले भारत की शिक्षा व्यवस्था पर यदि नजर डालें तो स्थिति बिलकुल शून्य है. अनपढ़ों की एक बड़ी जमात दिखाई देती ही. देश के चार या पांच प्रतिशत पुरुषों को ही पढ़ने का अधिकार रहा है. वे भी शिक्षा गुरुकुल या घर पर अध्यापक रखकर की जाने वाली शिक्षा रही है. शिक्षा के नाम पर तो यदि कोई स्त्री या दलित शास्त्रवचनों को सुन ले तो उसके कान में शीशा घोलकर डाल देने की बात यहाँ के विधि ग्रंथों में रही है. यानि केवल उस समुदाय के पास शिक्षा है जो या तो लूटकर्म में संलिप्त है या उसमें सहायक हो रहा है. डॉ. वीरभारत तलवार लिखते हैं कि कुल मिलाकर उन्नीसवीं सदी का नवजागरण हर दृष्टि से बड़े शहरों के आधुनिक शिक्षाप्राप्त भद्रवर्ग का सांस्कृतिक आन्दोलन था जिसका सम्बन्ध व्यापक अशिक्षित जनता से और गैर द्विज जातियों से बहुत कम था. एक युद्ध जिसे १९३० के आसपास बिहार के कुछ जिलों में दलित, खेतिहर और शिल्पकार जातियों के लोग लड़ते हैं और उसका कोई प्रत्यक्ष प्रभाव हिंदी के पंडितों को दिखाई नहीं देता है तो इसका कारण क्या है? मधुकर सिंह के उपन्यास ‘कथा कहो कुन्तो माई’ का प्रसंग इन्हीं सन्दर्भों में आता है. जाति-व्यवस्था को तोड़ने के लिए गौतम बुद्ध से लेकर ज्योतिबा फुले, कबीर, भीमराव आंबेडकर आदि ने आजीवन संघर्ष किया और वैज्ञानिक और ऐतिहासिक दृष्टि को अपनाने की सीख दी. ‘हिंदी दलित लिटरेचर एंड द पॉलिटिक्स ऑफ रिप्रेजेंटेशन’. के पहले दो अध्यायों में उत्तरप्रदेश में बीसवीं सदी के प्रारंभिक वर्षों में प्रकाशित दलित पर्चों की विवेचना की गई है. सार्वजनिक जीवन से अलग-थलग रहने को मजबूर दलितों में से कुछ ने अपने छापेखाना स्थापित किए. ऐसे ही एक उत्साही थे चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु. लखनऊ में सन 1899 में एक निम्न जाति (ओबीसी) परिवार में जन्मे जिज्ञासु ने 1930 के दशक में ‘कल्याण प्रकाशन’ की स्थापना की. शुरूआत में वे अपने लेखन द्वारा राष्ट्रवादी विचारों का प्रचार करते थे परंतु जल्दी ही उनका मुख्यधारा के राष्ट्रवादी आंदोलन से मोहभंग हो गया क्योंकि वह समाजसुधार के मुद्दे को पूरी तरह नजरअंदाज कर रहा था. बाद में वे आदि हिंदू आंदोलन के अछूतानंद और आंबेडकर के संपर्क में आए और उन्होंने अपनी प्रेस का नाम ‘हिंदू समाज सुधार कार्यालय’. से बदलकर ‘बहुजन कल्याण प्रकाशन’. रख दिया. जिज्ञासु की सोच में जिस तरह का परिवर्तन आया, कुछ वैसा ही परिवर्तन 20वीं सदी के प्रारंभिक वर्षों के कई दलित-ओबीसी लेखकों के विचारों में भी हुआ. उन्होंने हिंदू धर्म को पूरी तरह नकारना शुरू कर दिया. बहुजन लेखकों ने पर्चों का इस्तेमाल ”सामाजिक कार्य के औजार” बतौर करना शुरू कर दिया. सन 1920 के आसपास उनने दलितों के लिए अपने एक अलग सामाजिक क्षेत्र का निर्माण किया. उनके निशाने पर था हिंदू धर्म और उनका लेखन जाति, अछूत प्रथा, दलित इतिहास और भेदभाव से जुड़े मुद्दों पर केंद्रित था. हिंदी के किसी भी इतिहासकार ने हिंदी साहित्य पर आंबेडकर के प्रभाव को स्वीकार नहीं किया है जबकि वे गांधी के साथ एक केन्द्रीय व्यक्तित्व थे.
क्या कहते हैं हिंदी के गैर ब्राह्मण लेखक, आलोचक :
पिछले दो दशकों में सबाल्टर्न साहित्य के अध्ययन की तरफ लोगों का रुझान बढ़ा है. इसी का परिणाम है कि वर्तमान समाज में अस्मितावादी साहित्य ने व्यापक रूप से अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है. दलित समाज शोषण और उपेक्षा का शिकार रहा है जिसके अनेक कारणों में मुख्य कारण हैं उसका अशिक्षित होना. लेकिन इसके साथ ही दलित विमर्श की लिखित एवं वाचिक परंपराओं का भी तीव्र विकास हुआ है. भारत में मार्क्सवाद और जनवादी साहित्य पर वर्णवादी लोगों का कब्ज़ा यह दर्शाता है उसका भारतीय करण कर दिया गया है. हिन्दी रचनाजगत में दलित लेखकों की सक्रियता तीन क्षेत्रों में सामने आई. उन्होंने बड़े पैमाने पर रचनात्मक साहित्य लिखा. दलित लेखकों की कविताएँ और कथाकृतियाँ प्रकाशित हुईं. निचली गहराइयों से उछल-उछल कर आने वाली ये तस्वीरें इतनी खौफनाक हैं कि सारे समाज को दहलाकर रख देती हैं. डॉ. राजेन्द्र यादव अपने जातीय पहचान के बारे में लिखते हैं कि हुआ यूं कि मेरे अस्सी वर्ष पूरे होने पर अशोक वाजपेयी ने रजा फाउंडेशन की ओर से मेरा सम्मान किया. वहां उदय प्रकाश ने पिछड़ी जातियों के उत्थान की बात करते हुए कुछ ऐसी बातें कहीं जो मुझे सुरुचि पूर्ण नहीं लगीं. सन् 1952-54 तक मेरे तीन कहानी-संग्रह और एक उपन्यास आ चुके थे और मुझे शायद ही कभी याद आया हो कि मेरे नाम के पीछे लगा ‘यादव समाजिक पिछड़ेपन का संकेत है हो सकता है पारिवारिक पस्थितियों के कारण या व्यक्तिगत उद्यम के चलते. वर्ण-व्यवस्था में ब्राह्मïण शक्ति और सत्ता का प्रतीक है-(क्योंकि ज्ञान ही सत्ता है) वह अपने ज्ञान से सत्ताधारियों को नचाता रहा है, उधर बाकी सब सत्ता के याचक हैं. अगर औरों से छीनकर पूंजी पर एकाधिकार बनाये रखने और श्रम के सहारे जीविका अर्जित करने वालों के दो वर्ग हो सकते हैं तो ज्ञान के वर्चस्व और ऐंद्रिक अनुभवों के माध्यम से सृष्टि का साक्षात्कार करने वालों के दो वर्ग क्यों नहीं हो सकते? दोनों ही विभाजनों में एक वर्ग परोपजीवी है, इसलिए कला, आध्यात्म, जीव-ब्रह्मï के अमूर्तनों में आनंदानुभूति करता रह सकता है-वह ‘काव्य, शास्त्र विनोदेन कालो गच्छति धीमताम का कीर्तन नहीं करेगा तो क्या वह करेगा जो खून-पसीने से रोटी कमाता है या जमीन के नीचे और सागर के तूफानों में बीवी-बच्चों के लिए भोजन तलाशता है? उसे ही तो बलपूर्वक ज्ञान से दूर रखा गया है. अगर पूंजीपति को धन-पिशाच कहा जाता है तो इस ब्राह्मïण को ज्ञान-पिशाच क्यों नहीं कहा जाना चाहिए? समाज की यह भी सचाई है कि जातियों के बजाय बात विचारधारा की होनी चाहिए-सामाजिक न्याय की विचारधारा. विभाजन सामाजिक न्याय की विचारधारा के समर्थन और विरोध के आधार पर होना चाहिए. क्योंकि कोई भी जाति एक समरूप समुदाय नहीं है. उसके अंदर विभिन्न वर्ग, गुट और विचारधारायें होती हैं और इन्हीं के मुताबिक उसके अंदर से कई तरह की राजनीति और नेतृत्व उभरता है. इससे एक जाति के अंदर और विभिन्न जातियों के बीच भी टकराहट पैदा होती है. इसलिए विभाजन और संगठन सामाजिक न्याय की विचारधारा के आधार पर होना चाहिए, न कि जातियों के आधार पर. समस्या यह है कि हम जातिवाद से ग्रस्त समाज से कैसे लड़ें ? जातिवाद से ग्रस्त समाज,ऐसे समाज से भी बुरा है जिसमें गुलामी का प्रचलन हो, यह रंगभेद से भी बदतर है. यह एक ऐसा समाज है, जो यह हिंदी साहित्य में एक ही धारा है ब्राह्मणवाद : जिसे आप मुख्यधारा कहते हैं, वह दरअसल साहित्य की ब्राह्मणवादी धारा है. इस धारा के सभी रचनाकार ब्राह्मण थे, जिन्होंने वर्णव्यवस्था और हिन्दू संस्कृति के पुनरुत्थान को साहित्य की मुख्यधारा के रूप में स्थापित किया था. इस धारा ने वर्णव्यवस्था का खण्डन करने वाली किसी भी प्रगतिशील धारा को स्वीकार नहीं किया. समतावादी और मौलिक समाजवाद की धारा भारतेन्दु से पहले भी और उनके बाद भी , लगभग हर दौर में मौजूद थी.
भारतीय साहित्य-संस्कृति, सांस्कृतिक अवरोध :
भारतीय संस्कृति ने अपनी लम्बी विकास – यात्रा तय की है, जिसमें वैचारिकता, जीवन-संघर्ष, विद्रोह, आक्रोश, नकार, प्रेम, सांस्कृतिक छदम, राजनीतिक प्रपंच, वर्ण- विद्वेष, जाति के सवाल, साहित्यिक छल आदि विषय बार–बार दस्तक देते हैं. वस्तुतः आजतक जिसे भारतीय संस्कृति कहा जाता रहा है वह एक ख़ास समुदाय और जाति विशेष की संस्कृति है. यानी कि लोक और शिष्ट का भेद पहले से ही होता आया है. शोषकों की एक लयबद्ध संस्कृति को अभी तक भारतीय संस्कृति कहकर प्रचार-प्रसार किया जाता रहा है. यदि संस्कृति का ठीक से अध्ययन किया जाए तो पता चलेगा कि उसमें से भारत की सत्तर प्रतिशत जनता का हिस्सा गायब है. वे लगातार हासिये पर धकेले गए हैं. उनकी संस्कृति को संस्कृति माना ही नहीं गया. उच्च वर्णस्थ जातिवादी मानसिकता ने ग्राम्य या देशज कहकर नकार दिया गया. मूलतः यह संस्कृति नहीं अपितु विकृति है. शोषण, दमन, छुआछूत, जातिवाद, क्षेत्रवाद पर आधारित इस संस्कृति को मूलतः ब्राह्मण संस्कृति तो कहा जा सकता है भारतीय संस्कृति नहीं. किसी देश की संस्कृति तो वहां के निवासियों का आइना होती है. समाज, साहित्य, कला, जीवन में जिसे भारतीय संस्कृति कहा जाता रहा है उनका अब पुनर्पाठ होना चाहिए. जिस विषमतामूलक समाज में एक दलित संघर्षरत हैं, वहां मनुष्य की मनुष्यता की बात करना अकल्पनीय लगता है. इसी लिए सामाजिकता में समताभाव को मानवीय पक्ष में परिवर्तित करना दलित की आंतरिक अनुभूति है, जिसे अभिव्यक्त करने में गहन वेदना से गुजरना पडता है. भारतीय जीवन का सांस्कृतिक पक्ष दलित को उसके भीतर हीनता बोध पैदा करते रहने में ही अपना श्रेष्ठत्व पाता है. लेकिन एक दलित के लिए यह श्रेष्ठत्व दासता और गुलामी का प्रतीक है. जिसके लिए हर पल दलित को अपने ‘स्व’ की ही नहीं समूचे दलित समाज की पीड़ादायक स्थितियों से गुजरना पड़ता है. दलित चेतना दलित कविता को एक अलग और विशिष्ट आयाम देती है. यह चेतना उसे डा. अम्बेडकर जीवन–दर्शन और जीवन संघर्ष से मिली है.
यह एक मानसिक प्रक्रिया है जो इर्द-गिर्द फैले सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, शैक्षणिक, आर्थिक छदमों से सावधान करती है. यह चेतना संघर्षरत दलित जीवन के उस अंधेरे से बाहर आने की चेतना है जो हजारों साल से दलित को मनुष्य होने से दूर करते रहने में ही अपनी श्रेष्ठता मानता रहा है. इसी लिए एक दलित चेतना और एक तथाकथित उच्चवर्णीय चेतना में गहरा अंतर दिखाई देता है. भारत की सामासिक संस्कृति की बुनावट को रेखांकित करते हुए उच्च वर्णस्थ और नेहरु के पिछलग्गू रामधारी सिंह दिनकर अपनी पुस्तक ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में भारतीय संस्कृति को रेखांकित करते हुए लिखते है कि – भारतीय संस्कृति में चार बड़ी क्रांतियाँ हुई हैं और हमारी संस्कृति का इतिहास उन्हीं चार क्रांतियों का इतिहास है. पहली क्रांति तो तब हुई जब आर्य भारतवर्ष में आये अथवा जब भारतवर्ष में उनका आर्येत्तर जातियों से संपर्क हुआ. दूसरी क्रांति तब हुई जब महावीर और गौतमबुद्ध ने इस स्थापित धर्म या संस्कृति के विरुद्ध विद्रोह किया तथा उपनिषदों की चिन्ताधारा को खींचकर वे अपनी मनोवांछित दिशा की ओर ले गए. इस क्रांति ने भारतीय संस्कृति की अपूर्व सेवा की, किन्तु अंत में, इसी क्रांति के सरोवर में शैवाल भी उत्पन्न हुए और भारतीय धर्म और संस्कृति में जो गंदलापन आया, वह काफी दूर तक इन्हीं शैवालों का परिणाम था. तीसरी क्रांति उस समय हुई जब इस्लाम विजेताओं के धर्म के रूप में भारत पहुंचा और इस देश में हिंदुत्व के साथ उसका संपर्क हुआ. चौथी क्रांति हमारे समय में हुई जब भारत में यूरोप का आगमन हुआ. इसे वे चार सोपान कहते हैं. अब मान्य दिनकर जी से पूछा जाना चाहिए कि क्या भारत सिर्फ युद्धों या बर्बरों की संस्कृति को मानता है?
दिनकर जिस संस्कृति कह रहे हैं वह किन लोगों की संस्कृति है? क्या यह आदिवासियों, मूलनिवासियों, दलितों, पिछड़ों की संस्कृति है? क्या इसमें कुछ हिस्सा दक्षिण, उत्तर-पूर्व के लोगों का भी है? कुछ लोग भारतीय संस्कृति को विरुद्धों का सामंजस्य के तौर पर देखते हैं और उनमें तुलसी परंपरा के रामचंद्र शुक्ल सबसे आगे हैं. प्रभुत्वशाली संस्कृति अपनी सुरक्षा के लिए ‘पुनरुत्थान’ का रास्ता अख्तियार करती है. प्रभुत्वशाली संस्कृति के दो काम होते हैं- एक स्वयं कि रक्षा और दूसरा ‘प्रतिवाद’ प्रसिद्ध मानवशास्त्री राबर्ट रेडफील्ड संस्कृति के सम्बन्ध में जिसे ‘ग्रेट ट्रेडिशन’ तथा ‘लिटिल ट्रेडिशन’ कहते हैं नामवर सिंह अपनी पुस्तक ‘दूसरी परंपरा कि खोज’ में उन्हीं प्रवृत्तियों के प्रतिनिधित्व के लिए शास्त्र और लोक शब्द का प्रयोग कहते हैं. लोक के मन में शास्त्र के लिए हमेशा हीन ग्रंथि ‘इन्फ़िरियर कोम्प्लेक्स’ होता है. माग्रेट मीड की कृति सेक्स एण्ड टेम्परामेंट इन थ्री प्रिमिटीव सोसाईटीज यह स्पष्ट करती है कि जैविक भिन्नता नहीं बल्कि समाज और संस्कृति, पुरुषों और स्त्रियों के लिए भिन्न-भिन्न मानदंड तय करती है. उस मानक के हिसाब से समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा उनका अनुकूलन करती है. यह जैविक भिन्नता नहीं समाज और संस्कृति तय करती है कि किसके जन्म लेने पर काँसे की थाली बजेगी और किसके जन्म लेने पर उदासी की भाँय-भाँय गूँजेगी. कहते हैं किसी को गुलाम बनाना हो तो उसे सांस्कृतिक रूप से गुलाम बना दीजिये, उसके अतीत को इतना बिगाड़ दीजिये की वो कभी अपनी जड़े न खोज पाये. देर ही सही इन पर से पर्दा उठने का कार्य प्रारम्भ हो गया जिसे संघ परिवार सांस्कृतिक राष्ट्रवाद कहता है वह वस्तुतः पश्चिमी उपनिवेशवादियों द्वारा दिया ओरियंटलिज्म है. अपनी सामाजिक बनावट में वह शुद्ध सामंती है क्योंकि गैर बराबरी और शोषण दमन को धार्मिक आधार देता है. स्त्रियाँ दलित और पिछड़े ऊपर उठने की कोशिश न करें. इसके लिए धार्मिक आदेश और जन्मान्तर के कठोर नियम हैं. कुछ जातियां न ऊपर उठें न अपनी स्थिति बदलें क्योंकि यह व्यवस्था ईश्वरीय है. अपनी स्थिति के लिए वे नहीं उनके पूर्वजों, पूर्वजन्मों के कर्म जिम्मेदार हैं. यथास्थिति बनाये रखने के लिए प्रारब्ध एक ऐसी व्यवस्था है जिसके खिलाफ कोई विद्रोह नहीं किया जा सकता. कभी कर्म से बनीं होंगी हिन्दू धर्म कि जातियां मगर वे हजारो सालों से आज जन्म से ही निर्धारित होती हैं.
इतिहास की तीन महान सामाजिक क्रांतियाँ :
हिंदी के सुविचारित आलोचक चौथीराम यादव ने कहा था भारत में प्रमुख रूप से तीन सामाजिक क्रांतियाँ हुई है. एक भगवान बुद्ध की क्रांति, दूसरी भक्ति आन्दोलन या कबीर रैदास की क्रांति और तीसरी बाबा साहेब आंबेडकर की सामाजिक क्रांति. ये सब परिवर्तन कामी क्रांतियाँ थीं. कबीर और रैदास का सम्बन्ध बनारस से था. यह वही बनारस है जो सामंतों, पंडों, पुजारियों और वर्णपूजकों का गढ़ है. यहाँ न कबीर की सुनी गई न रैदास की. रैदास पंजाब में ज्यादा सुने गए. कबीर भी इधर उधर ज्यादा सुने गए उन्हें बनारस ने कम पूछा गया. बनारस या पूर्वांचल में कौन सुना गया यह जानना बहुत जरुरी है. ब्राह्मणों और तथाकथित आलोचकों के बीच तुलसीदास अधिक सुने गए. तुलसी दास के लिए आलोचकों में हुंवा, हुंवा का स्वर प्रबल है जबकि रैदास और कबीर के लिए ‘भों, भों, का स्वर सुनाई देता है. यह अकारण नहीं है. यह बताता है कि हुंवा-हुंवा का स्वर करने वाले लोग यथास्थितिवाद के समर्थक थे. वे स्टेटस बरकरार रखना चाहते थे. वे चाहते थे वर्णक्रम और जातिक्रम बना रहे. साम्रदायिकता बनी रहे. भों-भों का स्वर में वर्ण, जाति के विरुद्ध लिखने वाले लोग थे. मध्यकाल पर ध्यान दें तो एक बड़ी बात निकलती है मित्रों. गुरुग्रंथ साहिब में संत रैदास के पद मिलते हैं, कबीर के पद मिलते हैं, अन्य भाषाओँ समुदायों के स्वर मिलते हैं पर वर्णवादीयों के प्यारे, सबसे अधिक पूज्य तुलसीदास के पद हमें नहीं मिलते. वर्णवादी आलोचकों जैसे रामचंद्र शुक्ल, नामवर, रामविलास शर्मा जैसों का मानना है संत पढ़े लिखे नहीं थे इसलिए उनके पास समाज का कोई माडल नहीं था. वे तुलसी के रामराज्य में विश्वास करते हैं जिसमें दलितों, पिछड़ों, महिलाओं, आदिवासियों के लिए के लिए कोई जगह नहीं है. यदि कोई तुलसीदास के साथ खड़ा है तो वह दलितों, मुसलमानों, महिलाओं, आदिवासियों क ए साथ न्याय कैसे कर सकता है?
भाषा व्यवहार में भेदभाव :
प्रसिद्ध विचारक राजेन्द्र प्रसाद लिखते हैं कि सिंह गुरु घंटाल बौद्ध संत थे. इनकी याद में गुरु पद्म संभव ने 8 वीं सदी में गुरु घंटाल मंदिर की स्थापना की थी. यह मंदिर हिमाचल- प्रदेश के लाहौल-स्पीति जिले में है. ब्राह्मण और बौद्ध संस्कृति के आपसी टकराव के कारण ” गुरु घंटाल ” का अर्थापकर्ष हुआ है. आर्य और द्रविड़ संस्कृति के आपसी टकराव के कारण भी कई शब्दों का अर्थापकर्ष हुआ है जिसमें एक शब्द ” पिल्ला ” भी है. तमिल में ” पिल्ला ” मनुष्य के बच्चे को कहा जाता है ,जबकि आर्य भाषाओं में यह कुत्ते के बच्चे का बोधक शब्द है. जैन और ब्राह्मण संस्कृति के आपसी टकराव के कारण ” जिन” का अर्थ ” भूत- प्रेत” हो गया है.ऐसे तो भाषाविज्ञान कोश में कई ऐसी भाषाओं के नाम दर्ज हैं जो भूत- प्रेत से संबंधित हैं, मिसाल के तौर पर “भूत भाषा”, “प्रेत भाषा” , “पिशाच भाषा”, “चंडाल भाषा” आदि. ऐसी भाषाओं के नाम आस्ट्रिक और आर्य संस्कृति के आपसी टकराव के कारण है.बाहर से आई जातियों का भी अर्थापकर्ष हुआ है, मिसाल के तौर पर “हुड़हा” (लूटेरा), “उजबुक” (मूर्ख), ” कजाक” (डाकू) आदि.ये क्रमशः हूण (मंगोलियन), उजबेक (उजबेकिस्तान), कजाक (कजाकिस्तान) के बोधक शब्द हैं. आदिवासियों का एक तबका असुर है, जो झारखंड में निवास करता है और जिसका प्रमुख पेशा लोहा गलाने का है. असुर का अर्थ/प्रयोग तो हिन्दी शब्दकोष में जगजाहिर है, पर हिन्दी की आदिवासी विरोधी मानसिकता ने अन्य कई आदिवासी तबकों के नामों को घृणास्पद अर्थों से बढकर स्खलित किया है. जैसे “असुर” आदिवासियों का तबका है, वैसे चुहाड़, चाईं, चुतिया भी आदिवासियों के तबके हैं. इनका प्रयोग भी हिन्दी में किसी को अपमानित करने के लिए ही किया जाता है. लाख की चूड़ियां बनाने वाले कारीगर के लिए “लखेड़ा” शब्द प्रचलित है, पर भोजपुरी में लखेड़ा का अर्थ “आवारा” होता है. ऐसे ही न जाने कितने जातिसूचक शब्दों को शुद्धतावाची आचार्यों ने दूसरे अर्थों से भरकर गंदा और घृणास्पद बनाने का काम किया है.
अस्सी के दशक के बाद हिंदी में नया जातिवाद :
हिंदी में पिछले दो दशकों के दौरान दलित साहित्य की अवधारणा को जगह मिली है, लेकिन इसके प्रारंभिक दो विरोधाभास हैं. पहला यह स्वीकृत ‘हासिये का साहित्य’ है यानी मुख्यधारा कोई और है. इसी कोई और साहित्य को प्रगतिशील ‘जनवादी’ साहित्य कहते हैं. राजेन्द्र यादव समेत बहुत सारे लेखकों का मत है कि जो दलित साहित्य नहीं है वह द्विज साहित्य है. दलित साहित्य प्रमुखतः अम्बेडकरवादी साहित्य है. यह अभिजन साहित्य के रूपवादी अभिजन, कला वादी सिद्धांतों को नकारता है. कुछ हद तक यह मार्क्स, एंगेल्स और फ्रायड से जुड़ता है. यह साहित्य जातिवाद, वर्णवाद को एक सिरे से ख़ारिज करता है. यह सामाजिक मुक्ति पर विश्वास करता है. यह प्रतिरोध का साहित्य है. यह साहित्य में आरक्षण के सवाल को उठाता है और इस बात की मुखालफत करता है कि साहित्य पर केवल सवर्णों का कब्ज़ा रहे.
पुरस्कारों का जातिवादी इतिहास :
आधुनिक युग का समाज स्थूल से सूक्ष्म हुआ है , विज्ञान सूक्ष्म हुआ है , संस्कृति सूक्ष्म हुई है और जातिवाद भी पहले से अधिक सूक्ष्म हुआ है. स्थूल जातिवाद से सूक्ष्म जातिवाद कई गुना अधिक खतरनाक है. खबरों में , पुरस्कारों में , नामांकनों में , फाइलों में , सर्विस बुकों में , प्रोन्नतियों में , अधिसूचनाओं में , न्याय और प्रशासन – तंत्र में बड़ी सूक्ष्मता के साथ सूक्ष्म जातिवाद लिपटा हुआ है.इसे देखने के लिए स्थूल नहीं , सूक्ष्म आँख की जरूरत है.राज करने कई भेष बदलकर आएगा बहुरूपिया ! कभी साधु बनकर , कभी बालक बनकर , कभी सुधारक बनकर. हर बार ठगे जाइएगा .हर भेष नया होगा.भारत की जाति – प्रथा वह खजाना है , जिसे बाहरी आक्रमणकारियों ने लूटा नहीं , बल्कि और भर दिया कि खाओ जितना कम है एवं जियो जितना दम है.जाति तुम तो अजीब सम्पत्ति हो , भाई ! ऐसी सम्पत्ति जिसे राजा हरण नहीं कर सकता है , चोर चुरा नहीं सकता है और भाई बाँट नहीं सकता है. भारतीय ज्ञानपीठ जो भारत सरकार का उपक्रम है और भारत में नोबल के बराबर है में भी भारतीय इतिहास की तरह जातिवाद चरम पर है. वहां भी सवर्णवाद हावी है. यहाँ केवल हिंदी विषय की सूची संलग्न है : सन १९६८ में सुमित्रानंदन पन्त, जाति ब्राह्मण, १९७२ में रामधारी सिंह दिनकर, जाति भूमिहार ब्राह्मण, १९७८ में सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय, जाति ब्राह्मण, १९८२ महादेवी वर्मा, जाति कायस्थ, १९९२ में नरेश मेहता, जाति ब्राह्मण, १९९९९ में निर्मल वर्मा जाति खत्री, २००५ में कुंवर नारायण, जाति बनिया, २००९ में अमरकांत कायस्थ, २००९ में श्रीलाल शुक्ल, जाति ब्राह्मण. साहित्य के वर्चस्व की तरह यहाँ भी घोर जातिवादी नामों को देखकर लगता है कि हिंदी जगत कितना घोर असमानतावादी और जातिपोषक है.
डॉ. कर्मानंद आर्य
सहायक प्राध्यापक
भारतीय भाषा केंद्र
दक्षिण बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यालय, गया
बिहार-८२३००१
मो. ०८०९२३३०९२९
सिनेमा और सेंसर
सिनेमा और सेंसर
फिल्म समीक्षक अजय ब्रम्हात्ज्म के अनुसार ….. ‘एक ऐसा देश जिसके संविधान से हर नागरिक को अभिव्यक्ति की आजादी मिली हुई है, उस देश में किसी प्रकार के सेंसर की जरूरत भी है क्या ? देश के जागरुक फिल्मकार,दर्शक और नागरिक यह सवाल उठाते रहे हैं । समय-समय पर जिस प्रकार से फिल्में प्रतिबंधित की जाती हैं, उनसे इस सवाल की प्रासंगिकता और बढ़ जाती है। दूसरी तरफ, समाज का एक तबका मानता है कि अर्धशिक्षित भारतीय समाज में सेंसर की अनिवार्यता बनी रहेगी’ |
गांधी जी ने एक बार सेंसरशिप को अपने अंदाज़ में परिभाषित करते हुए कहा था, इफ यू डोंट लाइक समथिंग, क्लोज़ योर आइज़ | साउथ फिल्मों का सेंसर बोर्ड इस फलसफे के दोनों पहलुओं का इस्तेमाल करता है | अपने मुताबिक़ आंखें खोलता और बंद करता है | शायद इसीलिए इसे आए दिन क़ानूनी तमाचे पड़ते रहते हैं | अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता मे दायित्व का बोध भी स्पष्टत: निहित है| यह दूसरी बात है की उसका निर्वाह कम ही लोग करना चाहते है | विश्व का शायद ही कोई ऐसा देश होगा जहां किसी अभिव्यक्ति को किसी न किसी आधार पर कभी ना कभी प्रतिबंधित न किया गया हो | 1970 में एक मामले की सुनवाई में न्यायालय ने भी माना था कि सेंसर के मामले में सरकारी दखल जरूरी है।
सेंसर बोर्ड का प्रमुख कार्य स्वस्थ मनोरंजन और शिक्षा के लिए फिल्मों को प्रमाण पत्र देना है। भारत में चार कैटेगरी में प्रमाण पत्र दिए जाते हैं- यू,यूए,ए और एस । फिल्म के कंटेंट के आधार पर अभी फिल्मों को यू (यूनिवर्सल), ए (एडल्ट), यूए (पैरेंटल गाइडेंस) या एस (स्पेशल) सर्टिफिकेट दिए जाते हैं। इतिहास में जाएं तो भारत में फिल्मों को लकर पहली सेंसर नीति 1918 में बनी थी। तब अंग्रेजों का शासन था। भारत में सिनेमा को आए पांच साल हो गए थे। अंग्रेज शासकों को खतरा था की फिल्मों से स्वतंत्रता की राष्ट्रीय भावनाएं फैलायी जा सकती हैं। तब जिला मजिस्ट्रेट और पुलिस अधिकारी मिल कर तय करते थे कि फिल्मों को प्रदर्शन की अनुमति दी जाए या नहीं? उनका सारा जोर इसी पर रहता था कि फिल्मों में अंग्रेजो के खिलाफ कोई संदेश न हो,जबकि फिल्मकार राष्ट्रीय भावनाओं के बातें कहने और दिखाने के अप्रत्यक्ष तरीके खोज निकालते थे। आजादी के पहले अनेक फिल्में राष्ट्रीय भावनाओं के प्रचार-प्रसार की वजह से प्रतिबंधित भी की गईं।
सिनेमा जब जब अपनी अभिव्यक्ति व्यक्त करना चाहता है या करता तो सेंसरशिप उस अभिव्यक्ति की गले की फांस बन कर सामने होता है | आखिर क्योकि नहीं सेंसरशिप के ऐसे मानदंड बनाए जाते जो स्वयं मे उच्चस्तरीय हो | जिनहे निर्देशक स्वतः मानकर ही फिल्म का निर्माण करे | गौर करें तो अब सेंसर बोर्ड का मुख्य काम शालीनता और नैतिकता का पालन करवाना रह गया है। धूम्रपान,मदिरापान,अंग प्रदर्शन,चुंबन,अश्लीलता,हिंसा,गाली,गोली आदि की मात्रा और पात्रता ही अधिकारी जांचते रहते हैं। बॉलीवुड में समय-समय पर ऐसी कई फिल्में बनीं, जिनमें कई ‘बोल्ड सीन’ फिल्माए गए. इनमें से कई फिल्मों ने बेजोड़ व कलात्मिक फिल्मांकन की वजह से दर्शकों की तारीफें बटोरीं. कई फिल्में अर्द्धनग्न दृश्यों के कारण बुद्धिजीवियों की आलोचना का शिकार हुईं और ‘सेंसर बोर्ड’ की ओर उंगलियां उठीं |
पर बॉलीवुड ने इस तरह की आपत्तियों को यह कहकर खारिज कर दिया कि यह सीन तो कहानी की डिमांड है |
सेंसर की कार्यप्रणाली पर अगर शंका व्यक्त करते हुए कहा जाए तो देखने को मिलता है हाल ही मे बनी फिल्म विश्वरूपम को सेंसर बोर्ड ने पास किया था और तत्कालीन केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (सेंसर बोर्ड) की अध्यक्षा लीला सैमसन ‘विश्वरूपम’ पर रोक लगने से अचम्भित थी और उन्होंने कहा था कि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन है। और वही डेरा सच्चा सौदा प्रमुख गुरमीत राम रहीम की विवादास्पद फिल्म ‘मैसेंजर ऑफ गॉड’ (एमएसजी) को मंजूरी मिलने की खबरों के बीच सेंसर बोर्ड प्रमुख लीला सैमसन ने इस्तीफा देने का फैसला करती है | तो कहीं न कहीं यह अभिव्यक्ति कि स्वतन्त्रता का हनन ही है | एक और बड़ा सवाल ये उठता है कि जब फिल्म विश्वरूपम के किसी दृश्य पर किसी डॉयलाग पर सेंसर बोर्ड ने आपत्ति नहीं जतायी और फिल्म को हरी झंडी दे दी तो फिर आखिर क्यों राज्य सरकार ने सेंसर बोर्ड के फैसले का सम्मान नहीं किया और फिल्म की रिलीज पर रोक लगा दी.. ?
अगर राज्य सरकार को ही सब कुछ तय करना है तो फिर सेंसर बोर्ड की जरूरत ही क्या है.. ? हालांकि ऐसी फिल्मों को प्रदर्शित करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए जिसमें समुदाय विशेष को निशाना बनाया गया हो या फिर ऐसे दृश्य या डॉयलाग हों जो समाज के लिए खतरा हों या समाज में वैमनस्य पैदा करते हों लेकिन सेंसर बोर्ड एक जिम्मेदार संस्था है और जब वह किसी फिल्म को प्रमाणित कर रहा है तो फिर सवाल नहीं उठने चाहिए। हालांकि संविधान के चतुर्थ भाग में सन्निहित राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों, में संविधान की प्रस्तावना में प्रस्तावित आर्थिक और सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना हेतु मार्गदर्शन के लिए राज्य को निदेश दिए गए हैं | अनुच्छेद51 के अनुसार, राज्य को अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा के संवर्धन हेतु प्रयास करने चाहिएं |तथा अनुच्छेद 51 ए के अंतर्गत राष्ट्र ध्वज और राष्ट्रीय गीत का सम्मान करने का अनुदेश दिया गया है |
एक और फिल्म जो पोर्न स्टार सनी लियोन की पहली हिंदी फिल्म थी, जिस्म 2 के प्रोमो देख ही समझ में आ गया था कि सेंसर बोर्ड फिल्म को पास करने में व्यवधान पैदा करेगा और ऐसा ही हुआ। अनसेंसर्ड प्रोमो को इंटरनेट पर लोड करने के बाद फिल्म की निर्माता-निर्देशक पूजा भट्ट मान रही थी कि इस समय उदार हो गया सेंसर बोर्ड आंख मूंदकर उनकी फिल्म को सर्टिफिकेट दे देगा। वे ‘ए’ (केवल वयस्कों के लिए) सर्टिफिकेट के लिए तैयार थीं, लेकिन उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब सेंसर बोर्ड ने ढेर सारे सीन उन्हें काटकर छोटे करने को कहा । सही मायने मे देखा जाय तो यह भी तो अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का हनन ही तो है | लेकिन वहीं आईटी एक्ट की धारा 66-ए के अनुसार यदि कोई व्यक्ति कंप्यूटर या संचार उपकरण के जरिए ऐसी सूचना प्रेषित करता है जो अत्यधिक आपत्तिजनक या भयभीत करने वाली हो तो उसे तीन साल तक की कैद और जुर्माने की सजा हो सकती है।
‘कमीने’, ‘इश्किया’, ‘ओमकारा’ और ‘गंगाजल’ जैसी फ़िल्में कथित अभद्र भाषा के इस्तेमाल की वजह से ख़ूब चर्चा में रहीं | वही फिल्म हम्टी शर्मा की दुल्हनिया फिल्म के ट्रेलर के आते ही सेंसर बोर्ड को आलिया भट्ट के इस किस सीन पर परेशानी हो गई। फिल्म से पूरा किस सीन तो नहीं हटा लेकिन उसकी लंबाई जरूर कम करनी पड़ी। एक विलेन फिल्म को सेंसर बोर्ड ने एक नहीं सात बार कट किया। यह दृश्य श्रद्घा कपूर और सिद्घार्थ मेल्होत्रा पर फिल्माए जाने थे।विद्या बालन की फिल्म डर्टी पिक्चर फिल्म रिलीज के पहले उसके कई दृश्यों को काटने पर अड़ गया। कुछ दृश्य तो तब भी कटे जब यह छोटे पर्दे पर रिलीज हुई।हिमेश रेशमिया की फिल्म द एक्सपोज में छिनी हुई साड़ी का दृश्य सेंसर को खटक गया। फिल्म में इस दृश्य का धुंधला करके दिखाया गया। चर्चित फिल्म मिल लवली में 175 कट सेंसर बोर्ड ने कट किए। आपने जो फिल्म देखी है वह इन 175 सीन के कट करने के बाद ही रिलीज हुई। संजय लीला भंसाली की फिल्म रामलीला 12 कट के बाद पास हुई। इसके बाद भी फिल्म के सीन चर्चाओं में रहे। सनी लियोनी की चर्चित फिल्म रागिनी एमएमएस 2 के एक सीन पर सेंसर को घोर दिक्कत थी। सेंसर को सनी के क्लीवेज दिखाने पर आपत्ति थी। बाद में फिल्म का एक दृश्य फिल्म से हटा भी दिया गया।
फिल्म की स्क्रिप्ट के आधार पर ही सीन लिए जाते है | कई फिल्मों मे प्रतिबंधित किए गए सीन जबरजस्ती निर्देशक डाल देते है पर कई फिल्मों मे ये देखने को मिलता है की प्रतिबंधित सीन ही कहानी की मांग है | ऐसे मे सेंसरशिप अभिव्यक्ति का खून करता दिखता है | राजा रवि वर्मा पर आधारित फिल्म रंग रसिया को रिलीज होने मे कितना समय लगा यह निर्देशक से ज्यादा कौन जान सकता है, पर फिल्म देखने के बाद एक दर्शक के तौर पर यह जरूर कह सकता हूँ फिल्म के किसी सीन को प्रतिबंधित किया जाना सरासर गलत था | अगर दूसरी फिल्मों मे तुलना करने पर इस फिल्म को देखे तो पाते है की कहीं ना कहीं फिल्म राजनीतिक दवाब के चलते पास और बैन की जाती है | मान लिया फिल्म किसी तरह रिलीज हो भी गयी तो राज्य सरकार अपना नियम कानून लगा कर उसे प्रदर्शित नहीं होने देती | ऐसी कई फिल्मों के उदाहरण आपको देखने को मिल जाएगे जिसमे एक राज्य ने फिल्म को हाथो हाथ लिया वही दूसरा राज्य उसे प्रतिबंधित कर देता | फिल्म पीके इसका ताजा उदाहरण है |
सेंसरशिप द्वारा राज्य किसकी स्वतन्त्रता को प्रभावित करता है –प्रेषक अथवा प्राप्तकर्ता की | निस्संदेह फिल्म के आख्यान मे काँट-छांट के आदेश देकर राज्य प्राप्तकर्ता के उन मौलिक अधिकारों की अवहेलना करता है जो सम्प्रेषण तथा उसके आदान से संबन्धित है | यह अधिकार तभी सुरक्षित रह सकते है जब सेंसर की कैंची को चलने से पूरी तरह रोक दिया जाय ||
अगर सेंसरबोर्ड और राज्य सरकार इसी तरह अपनी मनमानी करते रहे तो वह दिन दूर नहीं जब कोई निर्माता निर्देशक फिल्म की कहानी सेंसरबोर्ड के नियमों के अनुरूप ही लिख कर फिल्म को पास कराएगा लेकिन इससे सबसे ज्यादा नुकसान भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (1) को होगा | जिसके तहत भारत के नागरिक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अधिकार प्राप्त है |
मैं यह भी स्पष्ट कर देना चाहता हूँ की मौजूदा सेंसर बोर्ड के लिए गए फैसले के बाद क्या वही होता है जो सेंसर बोर्ड ने पास किया है | फिल्म के व (वयस्क A ) सर्टिफिकेट या फिर एस (स्पेशल) सर्टिफिकेट दिये जाने के बाद गारंटी है की वह फिल्म सिर्फ वही लोग देखेंगे जिनके लिए पास की गयी है. भले ही संविधान ने हमे आईटी एक्ट 66 A के तहत दिशा निर्देश दिये हुए है की कोई भी अश्लील सामाग्री ऑनलाइन किए जाने पार दंड का प्रावधान है | पर वयस्क श्रेणी के लिए पास की गयी फिल्म कुछ दिनो के पास इन्टरनेट पर आसानी से उपलब्ध हो जाती है | सेंसर बोर्ड अपने प्रमाण पत्र के आधार पर दर्शकों की अंतिम विभाजन रेखा तैयार नहीं की कर सकता जब तक उन सभी नियम कानूनों का पालन नहीं करता जो सेंसर बोर्ड और समाज के नैतिक मानदंडो के लिए बनाए गए है |
वर्तमान मे सेंसरशिप फिल्मों के प्रमोशनल टूल्स की जगह लेता हुआ दिखाई देने लगा है |
मनीष कुमार जैसल
पी-एच॰डी॰ शोधार्थी
नाट्यकला एवं फिल्म अध्ययन विभाग
महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय
वर्धा महाराष्ट्र 442001
वैष्णव भक्ति आन्दोलन का अखिल भारतीय स्वरुप
वैष्णव भक्ति आन्दोलन का अखिल भारतीय स्वरुप
अनुक्रम
भक्ति आंदोलन Bhakti Andolan
भारतीय इतिहास में मध्यकाल राजनीतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक तथा सामाजिक सभी दृष्टि से महत्वपूर्ण था । एक और जहाँ इस्लामी संस्कृति भारतीय सामाजिक संरचना को प्रभावित कर रही थी तो वहीं इसकी पृष्ठभूमि में भक्ति आंदोलन का सूत्रपात भी होता है । साहित्येतिहास में इसे स्वर्णिम काल की संज्ञा दी गई है । “भक्ति आंदोलन ने समय समय पर लगभग पूरे देश को प्रभावित किया और उसका धार्मिक सिद्धांतों, धार्मिक अनुष्ठानों, नैतिक मूल्यों और लोकप्रिय विश्वासों पर ही नहीं, बल्कि कलाओं और संस्कृति पर भी निर्णायक प्रभाव पड़ा।“

उत्तरी भारत में चोदहवीं से सत्रहवीं शताब्दी में फैली भक्ति आंदोलन की उद्दाम लहर समाज के वर्ण, जाति, कुल और धर्म की परिसीमाओं का अतिक्रमण कर सम्पूर्ण जनमानस की चेतना में व्याप्त हो गई थी । जिसने एक जन आंदोलन का रूप ग्रहण कर लिया । “भक्ति आंदोलन में साधक या भक्त के द्वारा मोक्ष प्राप्ति अथवा आत्म – साक्षात्कार के लिए परमात्मा के सगुण या निर्गुण रूप की भक्ति ही नहीं की गई वरन भक्ति के माध्यम से तदयुगीन सामाजिक जीवन में स्थित एक वर्ण या जाति के प्रति कीए गए अत्याचार, अन्याय और शोषण के खिलाफ असहमति और विरोध का प्रदर्शन था । साथ ही उसने जन सामान्य की आशाओं, आकांक्षाओं और आदर्शों की भी अभिव्यक्ति हुई थी ।“
भक्ति आंदोलन के केंद्र में सामाजिक व्यवस्था ही थी। प्राचीनतम रूढ़ियों, कर्मकांडों, वर्णवाद के खिलाफ एक सशक्त विरोध की लहर ही इस आंदोलन के केंद्र में थी । एक ऐसा वैचारिक आंदोलन जो भारतीय जनमानस के लिए पुनर्जागरण का युग भी था ।
भक्ति आंदोलन के जन्म को लेकर साहित्य के इतिहासकारों ने अपने अपने ढंग से तर्क दिये । यह भारतीय साहित्य के इतिहास में ऐसा वैचारिक आंदोलन था जिसकी सबसे अधिक व्याख्या की गई । इस आंदोलन की जड़ें इतनी गहरी थी की इस आंदोलन पर आज तक हर नई दृष्टि से विचार हो रहा है । “ जार्ज ग्रियर्सन ने इसे ईसाईयत की देन कहा तो आचार्या रामचंद्र शुक्ल ने मुसलमानी साम्राज्य की स्थापना को मुख्य कारण माना, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने सम्पूर्ण भक्ति आंदोलन और साहित्य को ‘भारतीय चिंता का स्वाभाविक विकास’ यानि परंपरा का विकास माना है”।
भक्तिकाल पर साहित्य विद्वानों से इतर इतिहासकारों ने भी प्रकाश डाला उनमें विशेषतः इरफान हबीब और रामशरन शर्मा रहे । इरफान हबीब के अनुसार “ उत्तर भारत में भक्ति आंदोलन की निर्गुण धारा के उत्थान में शिल्पियों और जाटों – कीसानों की प्रमुख भूमिका रही है । वे निर्गुण धारा को ‘एकेश्वर धारा’ कहते हैं”।
तेरहवीं-चोदहवीं शताब्दी में नए शासकों की सत्ता स्थापित होने पर विलास सामाग्री और सुविधाओं की मांग बढ़ी । केन्द्रीय सत्ता ( खिलजी-तुगलक-सूरी शासकों ) में स्थापित होने पर सड़कों,भवनों आदि का निर्माण तेजी से होने लगा । इससे अवर्ण, शिल्पियों की आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ । आर्थिक स्थिति बेहतर होने पर उनमें अपनी सामाजिक मर्यादा को ऊपर उठाने की भावना पैदा हुई । निर्गुण – पंथ के अवर्ण संतों की भावना का सामाजिक आधार यही था । भक्तिकाल में निम्न तबका ऊपर उठने की आकांक्षा रखने लगा तथा भक्तिकाल के रूप में उन्हे आशा की कीरण दिखाई दी ।
भक्तिकाल की सामाजिक सांस्कृतिक पृष्ठभूमि bhakti andolan ki samajik sanskritik prishthbhumi
भक्तिकाल की सामाजिक सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को जानना अति आवश्यक है । राजनीतिक दृष्टि से यह युग इस्लामी प्रभाव से आक्रांत रहा । मध्ययुगीन विश्व में काफी उथल पुथल के कारण इस्लामिक शासकों ने भारत की तरफ रुख किया । तुर्कों तथा इस्लाम के आक्रमण से भारतीय समाज में अस्थिरता का दौर चालू हुआ । “उत्तर भारत में इस्लाम के आगमन और 12वीं सदी के अंत में तुर्कों द्वारा राजपूत राज्यों की पराजय ने शक्तिशाली तत्वों को खुला छोड़ दिया । आने वाली सदियों में इसने भक्ति के लोकप्रिय आंदोलनों के विकास का मार्ग प्रशस्त किया”।
यह माना जा सकता है की प्रत्येक युग का साहित्य परिस्थितियों की उपज होता है । और मध्यकालीन धार्मिक आंदोलनों को तीव्र और गतिशील बनाने में इन परिस्थितियों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। परंतु मूलतः वह भारतीय चिंता की स्वाभाविक अभिव्यक्ति है। सहस्त्र वर्षों के अध्यत्मिक चिंतन का प्रतिफलन । उपनिषद उनके मूल स्रोत हैं । हिन्दी भक्ति को सच्चे परिप्रेक्ष में समझने के लिए यह आवश्यक है कि इसकी पूर्ववर्ती विचारधारा और धार्मिक साहित्य का अध्ययन किया जाए । इस दृष्टि से 8वीं से 15वीं सदी का धार्मिक साहित्य विशेष महत्व रखता है । पूरे देश में वेदमत और लोकमत का समन्वय हो रहा था अथवा यह कह सकते हैं कि पंडित वर्ग तक सीमित शास्त्रीय चिंतन के उच्च धरातल का स्थान अब जनमानस ले रहा था । भाषा और विचार दोनों दृष्टि से सम्पूर्ण धार्मिक आंदोलन लोकोन्मुख हो रहा था । संस्कृत का स्थान जन भाषाएँ ले रही थी, जिसमें शस्त्र निरेपक्ष उग्र विचारधारा का स्वर सुनाई पड़ रहा था । 8वीं सदी से प्रारम्भ हुये आंदोलन का न केवल धार्मिक अपितु सांस्कृतिक एवं सामाजिक महत्व भी था । यह आंदोलन इस दृष्टि से भी महत्वपूर्ण थे कि इन्होने ही राष्ट्रीय स्तर पर भक्ति आंदोलन की नीव रखी । मध्यकाल का भक्ति आंदोलन अचानक उत्पन्न नहीं हुआ बल्कि उसके विकास के सूत्र हमें 8वीं से 10वीं शताब्दी के धार्मिक आंदोलनों में प्राप्त होते हैं । मध्यकाल का आंदोलन सामाजिक दृष्टि से समानता और न्याय का आंदोलन है । यह वर्णव्यवस्था में पिसती, उंच-नीच की भेद भावना से कराहती तथाकथित अपरिश्य समझी जाने वाली जाति का आंदोलन है, जो वर्ग वैषम्य के अन्यायपूर्ण जूते को उतार फेंकने के लिए व्याकुल हो रही थी ।
भक्तिकाल के पथ प्रदर्शकों ने अपने युग काल के सभी सामाजिक वर्गों के समक्ष प्रश्न चिन्ह लगाए ।
“ दादू सो मोमिन मोम दिल होई ।
साईं कुं पहिचाने सोई ॥
ज़ोर न करे हराम न खाई ।
सो मोमिन भिस्ति में जाई ” ॥
भक्ति आंदोलन का महत्वपूर्ण पक्ष यह था कि इसमें विभिन्न संतों ने सामाजिक सुधार आंदोलन के माध्यम से समाज में एकता के सूत्र को सायोंजित किया । इरफान हबीब के अनुसार
“भक्ति आंदोलन के सभी नेता समाज की निम्न श्रेणियों और निम्न जातियों से संबन्धित थे । कबीर बनारस का जुलाहा, नानक एक छोटा व्यपारी, धन्ना एक जात कीसान, रैदास एक चमार और दादू एक बंजारा था । इन सबने एकेश्वरवाद को अपने सुधार आंदोलन का आधार बनाया”। उत्तर की तरह दक्षिण में विदेशी आक्रमणों से उत्पन्न संकट और विदेशियों के अर्यीकरण का प्रश्न तो न था, परंतु पिछड़ी, आदिम कबीलाई जातियों के संस्कृतिकरण की समस्या वहाँ कम गंभीर न थी । पुराना ब्राह्मण धर्म अनन्य प्रकृति के कारण यह कार्य करने में असमर्थ था । यह ऐसा कार्य था जिसे ईश्वर की सर्व सुलभ भक्ति पर आधारित वैष्णव और शैवमत सक्षमता के साथ सम्पन्न कर कर सकते थे । “शूद्र और निम्न जतियों को उनकी सुधरी हुई और मजबूत स्थिति तथा संख्या के अनुरूप कम से कम प्रशासनिक क्षेत्र में रियायतें व महत्व ब्रजबूलीकरके उन्हे संतुष्ट करने का कार्य भक्त ही कर सकते थे”। कुल मिलाकर दक्षिण में भारत की ऐसी धारा प्रवाहित हो रही थी जिसमें स्त्रियॉं सहित शूद्रों व निम्न वर्गों,जिनका अधिकांश वैष्णव धर्म के द्वारा संस्कृतिकरण की प्रक्रिया से आदिम कबीलाई जातियों से आया होगा, को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। ‘पेरीय पुराण’ के अनुसार नयनारों में कुछ ब्राह्मण थे, कुछ वेल्लाल और कुछ तो आदिवासी जातियों के थे । ‘इसी तरह बारह अलवारों में दो शूद्र और एक निम्न पनर जतियों का था’
दूसरे उत्थानकाल में भी हम भक्ति के प्रवाह को पहले लोक प्रवाह के रूप में ही पाते हैं । “शैव व वैष्णव भक्त अधिकांशतया सामान्य जनता के लोग थे । और अति भावमुलक भक्ति सरल धर्म की द्योतक थी । बाद में उनके भक्ति गीतों की सरलता, भावोंज्ज्वलता और उनकी सौन्दर्य भावना को पौराणिक अंधविश्वासों तथा तात्विक मताग्रहों के बीच दबा दिया गया”। आलवार भक्तों के उपरांत आने वाले वैष्णव आचार्य कट्टर धार्मिक कुलों के थे और परंपरागत शास्त्रों की सब मर्यादाओं की रक्षा करना अपना कर्तव्य समझते थे। इसलिय एक तरफ जहाँ वैष्णव में कर्मकांड,वर्णवाद,का विरोध था तो वहीं दक्षिण में शास्त्रों की अवहेलना को घोर दंडनीय माना जाता था । अलवार भक्तों में धार्मिक कर्मकांडों को नियमित रूप से अपनाया जाता था ।
भक्तिकाल के सामाजिक आंदोलन की पृष्ठभूमि पर भी सवाल उठता है । प्रश्न यह उठता है की क्या है जन – आंदोलन था ? यह सीमित अर्थों में ही जन आंदोलन था, सम्पूर्ण अर्थों में नहीं । यह जनता के जीवन स्तर में किसी परिवर्तन का अहवाहन नहीं करता । इस आंदोलन की दर्शननिक परिणति स्वयं की मुक्ति और ईश्वर से एकात्म स्थापित करना था । गुरु की सहायता से मोक्ष प्राप्ति तथा प्रभु कृपा पर अधिक बल था । इस आंदोलन का दार्शनिक पक्ष भी था । भक्त और ईश्वर का संबंध, धर्मग्रंथों की मान्यता तथा समाज के संबंध में इनके दृष्टिकोण अलग-अलग है ।
16वीं और 17वीं सदियों ने उत्तर, पूर्व और पश्चिम भारत में लोकप्रिय भक्ति के एक आश्चर्यजनक पुनरुत्थान को देखा जो समान्यतया विष्णु के अवतारों के रूप में राम और कृष्ण की पूजा के चारों और केन्द्रित था । पंजाब और राजस्थान के कुछ क्षेत्र को छोड़कर इन आंदोलनों ने लोकप्रिय एकेश्वर आंदोलनों को धूमिल कर दिया ।
मध्यकाल का युग त्रस्त समाज को विकल्प देने का भी था । समाज से निकले नेताओं ने अपने व्यक्तिगत विचारों को आंदोलन का रूप दिया था उसे धार्मिक जमा पहनाया गया । यूरोप के महान सुधार आंदोलन का उल्लेख करते हुए एंगल्स ने लिखा था –
“मध्य युग ने धर्म दर्शन के साथ विचारधारा के सभी रूपों, दर्शन,राजनीति विधिशास्त्र को जोड़ दिया और इन्हे धर्म दर्शन की उप-शाखाएँ बना दिया । इस तरह उसने हर सामाजिक और राजनीतिक आंदोलन को को धार्मिक जमा पहनाने के लिए विवश कर दिया । आम जनता की भावनाओं को धर्म का चारा देकर और सब चीजों से अलग अलग रखा गा । इसलिए, कोई भी प्रभावशाली आंदोलन आरंभ करने के लिए अपने धार्मिक हितों को धार्मिक जामें में पेश करना आवश्यक था ”।
यही कथन 14वीं और 17वीं शताब्दियों के काल के भारत पर भी समान रूप से लागू होता है । परंतु यह शुद्धतः धार्मिक आंदोलन था । वैष्णव के सिद्धान्त मूलतः उस समय व्याप्त सामाजिक – आर्थिक यथार्थ की आदर्श अभिव्यक्ति थे । इस आंदोलन ने विभिन्न भाषाओं और विभिन्न धर्मवालों जन समुदायों को एक सुसंबंध भारतीय संस्कृति के विकास मदद की ।
भक्तिकाल की धाराएँ bhaktikal ki dharayein
भक्तिकाल की दो धाराएँ हमें मध्यकाल में दिखती है एक जिसे सगुण कहा गया है तथा दूसरा निर्गुण धारा । “निर्गुण और सगुण धारा में अंतर इस बात का नहीं है की निर्गुणियों के राम गुणी नहीं है और सगुण मतवादियों के राम और कृष्ण गुण सहित । निर्गुण और सगुण मतवाद का अंतर अवतार एवं लीला की दो अवधारनाओं को लेकर है” । निर्गुण मत के इष्ट भी कृपालु, सहृदय,दयावान करुणाकर है, वे भी मानवीय भावनाओं से युक्त है, वे न अवतार ग्रहण करते हैं न लीला । वे निराकार है, सगुण मत के इष्ट अवतार लेते हैं, दुष्टों का दमन करते हैं,साधुओं की रक्षा करते हैं और अपनी लीला से भक्तों के चित्त का रंजन करते हैं । भक्तिकाल की सगुण तथा निर्गुण धाराओं का विभाजन ईश्वर के लौकिक तथा आलौकिक रूपों को ध्यान में रखकर हुआ । “सम्पूर्ण भक्तिकाल में सगुण और निर्गुण भक्ति का द्वंद देखने को मिलता है, जहाँ सूरदास के भ्रमर गीत में उद्धव और गोपीयों के मध्य संवादों में यह झलकता है तो कबीर और तुलसी के राम के रूप में यह द्वंद मध्यकाल के रूप में स्थापित है” ।
अतः सगुण मतवाद में विष्णु के 24 अवतारों में से अनेक की उपासन होती है,यद्यपि सर्वाधिक लोकप्रिय और लोकपूजित अवतार राम एवं कृष्ण ही है ।
सगुण तथा निर्गुण दोनों की उपधाराएँ हैं । सगुण काव्य की उपधाराओं को राम-भक्ति शाखा तथा कृष्ण भक्ति शाखा कहा जाता है । निर्गुण की दो उपधाराएँ ‘ज्ञानाश्रयी शाखा’ और ‘प्रेमाश्रयी शाखा’ है । प्रेमाश्रयी ही हिन्दी हिन्दी का सूफी काव्य है । निर्गुण में ज्ञनाश्रयी शाखा के संतों ने ज्ञान पर अधिक बल दिया । इनमें कबीर, संत रैदास, गुरु नानक, दादूदयाल, सुंदरदास, रज्जब आदि आते हैं । सूफी संतों ने लोक प्रचलित कथानकों को अपने साहित्य में रचा । इन सभी संतों ने लोक प्रचलित कथानकों को अपने साहित्य में रचा। इन सूफी संतों में कुतुबन, मालिक मोहम्मद जायसी, मंझन, उस्मान, कासिम शाह, नूर-मुहम्मद प्रमुख थे ।
सगुण भक्त कवियों ने प्राचीन भारतीय मान्यताओं में नया संदेश दिया । सगुण भक्ति काव्य का सामाजिक, पारिवारिक एवं सांस्कृतिक सभी दृष्टियों से विशेष महत्व रहा । “मर्यादावद के पोषक राम भक्त कवि तुलसीदास ने जो सामाजिक आदर्श उपस्थित किया उसका प्रभाव आज भी विद्यमान है । तत्कालीन सामाजिक एवं सांस्कृतिक विश्रिंखलता एवं अराजकता के युग में उनकी वाणी ने भारतियों को श्रेयस्कर मार्ग दिखलाया। टूटते हुए पारिवारिक सम्बन्धों और स्वार्थ के लिए संघर्षशील मनुष्यों को आलोक ब्रजबूलीकिया । रामकाव्य इसका उत्कृष्ट उदाहरण है”।
भक्ति आंदोलन ने सम्पूर्ण भारत को भाषायी विविधता के बावजूद सांस्कृतिक एकता में बंधा । उदाहरण के लिए वैष्णव आंदोलन एक ही मत को लेकर चला परंतु उसका प्रचार प्रसार दक्षिण भारत से लेकर उत्तर भारत तक हुआ । राम तथा कृष्ण सम्पूर्ण भारत में जनमानस के लोकप्रिय चरित्र के रूप में उभरे।
लोक मर्यादा का आदर्श स्थापित करने की दृष्टि से अकेला ‘रामचरितमानस’ उत्तम ग्रंथ है । कृष्ण भक्त कवियों ने अपने आराध्य के लोकरंजक स्वरूप को उपस्थित करते हुए जीवन में आनंद का संचार किया । इन कवियों में निहित समर्पण की भावना ने अहं का विकास किया । सगुण भक्त कवियों का सर्वाधिक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक योगदान वर्ण व्यवस्था का आदर्श प्रस्तुत करते हुए उनका संरक्षण रहा है । इन कवियों ने एक और धूर्त पंडितों के संकीर्ण मतों का खंडन किया तो दूसरी और निर्गुणियाँ संतों के श्रुति सम्मत तथा विरति विवेक युक्त मार्ग के अनुकरण पर बल दिया । उस समय धर्म या संस्कृति के दो केंद्र बने काशी और वृन्दावन । इन केन्द्रों से जीवन के आचार और विचार दोनों पक्षों को बहुत प्रेरणा मिली ।
भक्त कवियों ने आभिजात्य के अछद्द को तोड़ा और इसके लिए अपने चरितनायकों को लोकभूमि पर संचारित किया । मूल्य भरे सामाजिक कर्म से ही मानव व्यक्तित्व को अर्थदीपति मिलती है । भक्ति काव्य अपने नायकों को देवत्व की भूमि से बाहर लाकर उन्हे सामान्यजन के मध्य सक्रिय करते है । तुलसी का ध्यान ग्राम – कृषक समाज है । सूर में कृषि – चरागाही संस्कृति की प्रधानता है । कबीर का बल सांस्कृतिक सौमनस्य पर है और जायसी प्रेमपंथ को विकल्प के रूप में प्रस्तुत करते हैं ।
“भक्तिकाव्य में लोकजीवन की केन्द्रियता के मूल में सजग सामाजिक – सांस्कृतिक चेतना है, जहाँ भक्तिशास्त्र पांडित्य, कर्मकांड, पुरोहितवाद से निकलकर सामान्य भूमि पर विचरण करती है” ।
भारतीय इतिहास में समाज के भीतर ही कलाओं का विकास होता रहा । सामाजिक परिवर्तन का स्पष्ट प्रभाव उन पर देखने को मिलता है । इन लोक कलाओं ने सदियों से अपने भीतर संस्कृत को संजोय रखा है ।
भक्तिकाल में जब भारत विशाल सांस्कृतिक बदलाव के दौर से गुजर रहा था, तो इन कलाओं ने अपने स्तर पर इसे बचाए रखा । भक्तिकाल में न केवल काव्यकला अपितु संगीत, नृत्य, चित्र, मूर्ति आदि कलाओं की उन्नति भी हुई । “सगुण भक्ति धारा के अधिकांश कवि संगीत के भी अच्छे जानकार थे । वृन्दावन, काव्य और संगीत दोनों का केंद्र था । अष्टछाप के सभी कवि अपने समय के श्रेष्ठ संगीतज्ञ थे । अकबरी दरबार के के प्रसिद्ध गायक तानसेन कृष्णभक्त कवि हरिदास के ही शिष्य थे । श्री नाथ जी के मंदिर में प्रतिदिन कीर्तन के आयोजन होते थे, जिनमें विभिन्न राग – रागनियों के आधार पर स्वरताललयबद्ध संगीत की गूंज सुनाई पड़ती थी । राधावल्लभ संप्रदाय के प्रसिद्ध आचार्य थे । इसी प्रकार हरीराम व्यास ध्रुपद शैली के प्रमुख प्रचारक थे” ।
कृष्ण भक्ति काव्य के माध्यम से नृत्य कला के विकास में भी सहायता मिली । कृष्ण भक्त कवि अपने उपास्य की प्रेममयी लीलाओं का आनंद विभोर होकर अभिनय करा करते थे, रासलीला के माध्यम से नृत्य कला की विविध झाँकीयाँ प्रस्तुत करते थे । इनके आराध्य श्री कृष्ण तथा नाट नागर थे । गौस्वामी तुलसीदास ने मानस के आधार पर रामलीला का प्रचार किया था । इस प्रकार रामलीला और रासलीला के माध्यम से जिस लोकधर्मी नाट्य परंपरा का विकास हुआ,उसने भारतीय सांस्कृतिक जीवन को बहुत गहराई तक प्रभावित किया । कत्थक नृत्य में प्रायः राधा-कृष्ण की प्रेममयी लीलाओं की ही अभिव्यक्ति हुई है । इस प्रकार इन भक्त कवियों ने भारतीय जीवन की आध्यात्मिक चेतना को दिशा-निर्देश दिया दिया तथा लोक जीवन में नूतन : स्फूर्ति का संचार भी किया ।
इन भक्त कवियों ने ईश्वर की लीलाओं को सामाजिक सांस्कृतिक चेतना का आधार बनाया तथा इन लीलाओं को लोकनाट्यों के माध्यम से जनमानस तक प्रसारित किया ।
भक्तिकाल का प्रतिपाद्य विषय की दृष्टि से महत्व है ही, अर्थात इन कवियों ने सदाचार की प्रतिष्ठा की, भगवान के नाम, रूप-गुण, लीला धामका चित्रण करते हुए भारतीय संस्कृति के प्रतिनिधि रक्षक बने तथा धर्म, दर्शन और ललित कलाओं के माध्यम से जीवन को परिपुष्ट किया । यह काल इतिहास में वैचारिक आंदोलन के रूप में जाना जाता है । एक ऐसा आंदोलन जिसने सम्पूर्ण भारत को एकसूत्र में जोड़ दिया । भाषायी विविधता के बावजूद राम और कृष्ण जन-जन में व्याप्त है । रामायण तथा महाभारत के प्रसंगों को संतों ने लोक कलाओं के माध्यम से जन-जन तक पहुंचाया । यह वास्तविक में समाजिक चेतना का का आंदोलन था ।
मुख्य बिन्दु :-
भक्ति साहित्य में जहाँ एक और मध्यकाल की सामाजिक, सांस्कृतिक चेतना उजागर हुई वहीं, दुसरी और मध्यकालीन लोक जीवन के भी पक्ष अंकीत हुए ।
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संतों ने भक्तिकाल में ईश्वरीय आलौकिक ता को लौकिक धरातल पर उतारा । यहाँ वह मानवीय चरित्र के रूप में आते है । यही कारण है की राम और कृष्ण दो अवतारों का चरित्र भारतीय जनमानस के मन में बसा ।
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भक्तिकाल में सबसे अधिक प्रभावी वैष्णव साहित्य ही रहा । इतिहास में व्याप्त कृष्ण की कथाओं को कलाओं के माध्यम से प्रचारित किया गया ।
भक्ति आंदोलन में सबसे प्रभावी कृष्णभक्ति शाखा रही । वैष्णव आंदोलन में संतों ने कृष्ण विषययक कथानकों का प्रचार किया खासकर उत्तर भारत में कृष्ण भारतीय लोकमानस में प्रचलित थे ।
1.2 वैष्णव भक्ति :- vaishnav bhakti
भक्तिकाल की सगुण धारा के अंतर्गत एक ऐसी शाखा थी जिसने सम्पूर्ण भारत की विचारधाराओं को प्रभावित किया । विष्णु आलोचित पुरानो में प्रमुख देवता के रूप में है । वायु पुराण और ब्रह्मांड पुराणों में उन्हे विश्वेस,प्रभु तथा सभी लोगों के करता की उपाधि दी गई है ।
“ विश्वेशो लोककृदेव:….”
“ प्रभुविष्णु दिवाकर:….”
भारतीय तत्वेताओं ने भक्ति के महात्म को समझा । विविध देवोपासनाओं के फलस्वरूप भक्ति संप्रदायों का जन्म हुआ । समन्वयवादी मनीषियों ने सबका सम्मान किया, परंतु वैष्णव भक्ति में कुछ ऐसे लोकपयोगी तत्व है, जिनके कारण इसका सर्वाधिक प्रसार हुआ । उन साधकों ने वैष्णव भक्ति में साधन –त्रय का समन्वय किया । जिससे भक्ति पाठ और भी प्रशस्त हुआ । अब भागवत भक्ति ही परम पुरुषार्थ समझी जाने लगी । भक्ति के परिवर्ती विकास पर प्रो॰ विल्सन ने इसे विभिन्न संप्रदायों के गुरुओं द्वारा अपनी प्रतिष्ठा के परिणामस्वरूप दृष्टि एवं प्रचारित बताया है ।
‘भक्ति’ शब्द की उत्पत्ति ‘भज’ धातु से हुई है। जिसका अर्थ है ‘भजना’,’भज’रूपी धन अथवा द्रव्य के अधिपति को भागवत कहा गया है अन जिसके लिए ‘भाग’ एक भाग निर्दिष्ट हुआ है । वह ‘भक्त’ ऋग्वेद में ‘भक्त’ ‘भक्ति’ और ‘भागवत’ शब्दों का प्रयोग इन्ही अर्थों में हुआ है । यदि आगे चलकर भवत शब्द से एक आलौकिक सर्वशक्तिमान परम तत्व का बोध होने लगा तो उसके मूल में यही तथ्य है की उस तत्व की कल्पना एक ऐसे शक्ति के रूप में की गई, जिसका समस्त एश्वर्य एवं सम्पदा पर प्रभुत्व था और जो अपने उपासक को उसका एक अंश, ’भक्ति’, ब्रजबूलीकर उसे अपना ‘भक्त’ बना सकती थी । इसी कारण ‘भक्ति’ और ‘भक्त’ के प्रारम्भिक प्रयोग कर्मवाच्य में हुए है और ऋग्वेद की एक ऋचा में अग्नि को भक्तों और अभक्तों में भेद करने वाला कहा गया है । ‘भागवत’ के अनुग्रह से ‘भाग’ के एक अंश के प्रापक, अतिग्रहिता होने से ‘भक्त’ और ‘भक्ति’ शब्द देवी शक्ति के आठ एक प्रकार की सहभागिता एवं घनिष्ठ आत्मीयता की भावनाओं को व्यक्त करने के लिए सर्वथा उपयुक्त थे और संभवतः इसी कारण धार्मिक विचारधारा में ‘भक्ति’ शब्द एक सशक्त प्रतीक सिद्ध हुआ ।
ऋग्वेद में अनेक अर्थों को अपने में अनुस्यूत करने के बावजूद ‘विष्णु’ शब्द का प्रयोग एक महान शक्ति के रूप में हुआ है । यस्क ने रश्मियों के व्याप्त होने के कारण सूर्य को विष्णु कहा है ,जिस विष्णु के प्रताप से वृष्टि होती है और साथ हि गायों को दुग्ध होता है उसका कालांतर में गोपवेषधारियों कृष्णारव्य विष्णु होना कल्पना गामी माना जाता है , विष्णु ही यजमान तथा देवगणों के लिए ब्रज प्राप्त कराने वाला होने से ब्रजनंदन गोपीजनवल्लभ हो सकता है । ‘विष्णु को कहीं इन्द्र, इन्द्र का सखा’ कहीं अग्नि बताया गया है ।
इस तरह विविध रूपों एवं नामों में उपासना का आधार होने पर भी वैदिक ऋषियों को एक परम सत्ता की आराधना अभीष्ट थी जो परिवर्ती वैष्णव भक्ति के रूप में दिखाई पड़ती है । वैष्णव धर्म में ‘अनुग्रह या प्रसाद’ की बड़ी महिमा गाई गाई है । श्रीमदभागवत महापुराण के ‘पोषनं तदनुग्रह’ के आधार पर ही वल्लभचार्य की पुष्टि मार्गीय भक्ति आधारित है । इनके अनुसार भक्ति की प्राप्ति केवल भागवत कृपा से होती है ।
वैष्णव धर्म या वैष्णव संप्रदाय का प्राचीन नाम भागवत धर्म या पंचरात्र मत है । इस संप्रदाय के प्रधान उपास्य देव वासुदेव है, जिन्हे ज्ञान, शक्ति बल, वीर्य, एश्वर्य और तेज इन छः गुणों के कारण भगवन या भगत कहा गया है ।
“ ज्ञान शक्ति बलैश्वर्य वीर्य तेजां स्त्रिशेषतः ।
भगवच्छ्वद वाच्यानि विना हर्येगुर्णादिभी:” ॥
महाभारत के अनुसार चारों वेदों और संखई योग के समावेश के कारण इसे ‘पांचरात्र’ कहते है । वैष्णव भक्ति के प्रचार में इसका प्रमुख स्थान है । आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने विष्णु और वासुदेव की एकता तथा वासुदेव भक्ति का प्रारम्भ महाभारतकाल में ही सिद्ध किया है । महाभारत के शांतिपर्व में विष्णु को वासुदेव कहा गया है ।
उपनिषदों, पुराणों ( विष्णु पुराण, वामन, वराह, नारद, पदम, मत्स्य, ब्रह्मवैवर्त ) के पश्चात श्रीमदभागवत में विष्णु का उल्लेख हुआ है, इसमें विष्णु के अन्य स्वरूपों एवं अवतारों का तो वर्णन किया ही गया है, भगवन के श्रीकृष्ण अवतार की विविध लीलाओं का वर्णन पर्याप्त रूप में किया गया है । श्रीमदभागवत के द्वारा ही सम्पूर्ण भारत वर्ष में वैष्णव धर्म का प्रचार हुआ । परवर्ती सभी वैष्णव संप्रदायों का आधार ग्रंथ यही रहा है । विष्णु के अवतारों का विस्तृत वर्णन भागवत में मिलता है ।भगवान का लीला – वैचित्र्य जनता इतना दुरूह है की समान्य लोग मोहित हो जाते हैं । यही कारण भी है की वैष्णव धर्म का इतना व्यापक प्रसार हो सका ।
विजयेन्द्र स्नातक ने अपने ग्रंथ ‘राधावल्लभ संप्रदाय सिद्धान्त और साहित्य’ में कहा है “ वैष्णव धर्म के विकास और प्रसार में पुराणों का सर्वाधिक योगदान रहा है । वैष्णव संप्रदायों के परवर्तन में जिन सिद्धांतों को स्वीकार किया गया उनमें से अधिकांश का आधार पुराण – साहित्य ही है। उदाहरणार्थ चतुः संप्रदाय के अतिरिक्त श्री कृष्ण चैतन्य का ‘गौड़ीय संप्रदाय’ श्रीवल्लभ संप्रदाय या पुष्टिमार्ग और हितहरिवंश का ‘राधा वल्लभ संप्रदाय’ मुख्यतः श्रीमदभागवत और ब्रह्मवैवर्त पुराण में प्रतिपादित भक्ति पद्धति और राधाकृष्ण स्वरूप को लेकर आगे बढ़े है।
कृष्ण की उपासना का साक्ष्य गुप्त युग में भी मिलता है साथ ही विभिन्न क्षेत्रों से प्राप्त प्राचीन कृष्ण की मूर्तियों से ज्ञात होता है की कृष्ण की उपासना अत्यंत प्राचीन काल से चलती आ रही है। लोकमानस में कृष्ण अलग-अलग उपनामों में व्याप्त थे । मध्यकाल में उत्पन्न भक्ति आंदोलन की सगुण शाखा में कृष्णकथा का विस्तार देखा जा सकता है । विष्णु के अवतारों में लोक रक्षक तथा लोक रंजक दृष्टिकोण से राम और कृष्ण की भक्ति का सर्वाधिक विस्तार हुआ । कृष्ण विष्णु के पूर्ण कला के अवतार कहे जाते हैं।
कहा गया है की ‘भक्ति द्रविड़ उपजै लाय रमानन्द’ श्रीमदभागवत पुराण के महातम वर्णन में भक्ति ने स्वयं नारदजी से कहा की में द्रविड़ में उत्पन्न हुई, कर्नाटक में बढ़ी…. अर्थात जिस भक्ति का सूत्रपात वैदिक युग से होता चला आ रहा था उसी को विकसित होने के सुअवसर द्रविड़ प्रदेश में हुआ । आलवार भक्तो के कारण दक्षिण में वैष्णव भक्ति का पूर्ण प्रचार प्रसार हुआ ।
वैष्णव भक्ति को प्रचारित प्रसारित करने वाले आचार्य शंकराचार्य के अद्वैत सिद्धान्त के विरुद्ध अपने दार्शनिक तथा व्यवहारिक विचार व्यक्त किया । उनकी विचारधारा को स्वीकार न कने वालों में रामानुजाचार्य, निंबकचार्य, माध्वाचार्य, विष्णुस्वामी एवं वल्लभाचार्य ने भक्ति के लिए नवीन मार्ग खोजा । भक्ति के क्षेत्र में इन आचार्यों की देन बहुमूल्य है क्योंकी विष्णु के अवतारी रूप राम और कृष्ण को इन्होने भक्ति का उपास्य देव बना दिया । मध्यकालीन भक्ति का जो रूप संस्कृत और भारतीय भाषाओं में विकसित हुआ उसका श्रेय इन्हीं आचार्यों को है । रामानुजाचार्य के बाद रमानन्द ने राम को अधिक व्यापक स्तर पर ग्रहण किया । रामभक्ति की यह परंपरा बाद में हिन्दी कवियों में तुलसीदास जैसे समर्थ कवि द्वारा अपने सर्वोच्च शिखर तक पहुंची । कृष्ण भक्ति के लिए निंबर्क, महत्व, विष्णुस्वामी तथा इनके बाद वल्लभचार्य, कृष्णचैतन्य, हितहरिवंश, हरिदास आदि भक्तों ने जो पर्यास कीए थे वे कृष्ण भक्ति को व्यापक आयाम ब्रजबूलीकरने वाले सिद्ध हुए । वैष्णव चैतना के माध्यम से सभी साहित्य एक दूसरे के समीपी है । बंगाल पूर्वाञ्चल में चैतन्य चंडीदास ने वैष्णव मत का प्रचार किया और वह अंचल वृन्दावन से जुड़ गया । बंगाल की वैष्णव चैतना का व्यापक प्रभाव रहा और चैतन्य की प्रेरणा से षटगोस्वामी, सनातन, रघुनाथदास, रघुनाथ भट्ट, गोपाल भट्ट, जीवगोस्वामी ने ब्रजमंडल में कृष्णभक्ति को वैचारिक आधार दिया । असम में शंकरदेव का ‘एकशरण धर्म’ काव्य तथा नाटक के माध्यम से प्रसारित हुआ और जनसमान्य में प्रभावी बना । तमिल अलवार संत एवं वैष्णवाचार्य तेलगु में बेमना, संभेर पोतना गुजरात में ‘नरसी मेहता, राजस्थान में मीरा आदि से इस व्यापक आंदोलन की सक्रियता का पता चलता है । अवतारवाद में कृष्ण सर्वोपरि देवता रहे और केंद्र में रखकर भक्ति काव्य विकसित हुआ । विष्णु के दो प्रमुख अवतार वैष्णव परंपरा को रचना में नई गति देते है । कृष्णकाव्य का ऐसा आकर्षण है की इसमें भी संप्रदाय जाति के है । रामायण – महाभारत के चरित नायक द्वापर के है, पर जहाँ तक भक्तिकाव्य का संबंध है, कृष्ण कुछ पहले आ गए और सोलह कला अवतार वाले अपने बहुरंगी व्यक्तित्व से लोकप्रिय भी हुई । राम त्रेता युग से जुड़कर भाषा रचना में थोड़ी देर से आए और चरित्र की मर्यादाओं ने उसकी सीमा तय कर दी । कृष्ण के चारों और एक समग्र लीला संसार है जिसमें राधा का प्रवेश नई भंगिमा का जन्मता है । प्रायः कहा जाता है की कृष्णकाव्य में लोकरंजक रूप अधिक है। जिसका एक कारण भागवत की प्रेरणा भी है । कृष्ण का महत्व यह है की उन्होने सम्पूर्ण कला संसार – मूर्ति, वास्तु, चित्र, संगीत आदि में स्थान प्राप्त किया । ये जनप्रिय देवता हुए और उनसे सनरस होने में कठनाई नहीं हुई । उन्हे केंद्र में रखकर संप्रदाय बने – निंबर्क, हरिदास, वल्लभ, राधावल्लभ आदि । विद्वान हाल चरित गाथा सतसई तथा गाथा सप्तसती का उल्लेख करते हैं । जहाँ कृष्ण राधा के प्रसंग आए हैं । रासलीला महत्वपूर्ण विषय बना,जिसका संकेत भागवत की रास पंचाध्यायी है । आगे चलकर जयदेव, विद्यापति में कृष्णागाथा को विकास मिला । जयदेव का गीतगोविंद अपनी मधुर कोंलकांत पदावली के लिए विख्यात है,जहाँ श्रृंगार खुली भूमि पर है और राधा कृष्ण का मानुषिकरण रासप्रसंग, मान-मुहार आदि में विशेष रूप से उभरा है । श्रृंगार की यह रासभूमि विद्यापति में विद्यमान है, जहाँ राधा लावण्य सार है और कृष्ण रास रूप हैं । संयोग – वियोग दोनों स्थितियों में विद्यापति के राधा-कृष्ण उन्मुक्त भूमिपर हैं । चैतन्य कृष्णगाथा को प्राथनाभाव से जोड़ते है और बंगाल तथा पूर्वाञ्चल में कृष्ण भक्तिकाव्य का मार्मिक विकास हुआ।
कृष्ण की उपासना की जहाँ प्रचार प्रसार हुआ , वहाँ गायन और नृत्य के साथ रहा । वैष्णव संगीतशास्त्र ( चौखम्बा प्रकाशन 1982 ) की भूमिका में दर्शना झवेरी ने लिखा है : “ श्री चैतन्य ने नाम कीर्तन का प्रवर्तन किया, जिसका ठाकुर नरोत्तम ने नए ढंग से विकास किया । श्री नरोत्तम ने आलाप, राग ताल आदि का प्रयोग कर रास अथवा लीला कीर्तन का प्रवर्तन किया”
‘रूपराम’ के धर्म मंगल और कल्हण की राजतरिंगिनी से पता चलता है की नटियों और देवदासियों द्वारा शास्त्रीय नृत्य किया जाता था और उसका प्रदर्शन बंगाल के मंदिरों में होता था । दरभंगा, मिथिला, गौड़, कामरूप, एवं कलिंग(उड़ीसा) शास्त्रीय संगीत एवं, नृत्य के प्रमुख केंद्र थे । गोड़ और मगध के जरिये नेपाल, कश्मीर एवं गांधार को भी बंगाल में संगीत, वाद्य एवं नृत्य की प्रेरणा मिली । निस्संदेह संगीत के सहयोग वैष्णव मत का प्रसार हुआ और वैष्णव मत की प्रेरणा से मणिपुर जैसे आर्येत्तर भाषा क्षेत्र में इस कला का विकास और प्रचार हुआ । विभिन्न प्रदेशों में लोकगीतों एवं लोकनृत्यों की परंपरा रही । महापुरुष शंकरदेव – ब्रजबूली ग्रंथावली सम्मेलन, प्रयास 1974 के संपादक लक्ष्मीशंकर गुप्त ने ठीक लिखा है की “ पूर्वाञ्चल में वैष्णव धर्म के उन्नायक “ शंकरदेव ने अपने नाटकों के के लिए “तत्कालीन जन समुदाय में प्रचलित नृत्य, गीत तथा मनोरंजन के साधन को ढांचे के रूप में ग्रहण किया और उनके साथ अनेक संस्कृत नाट्य नियमों का संयोजन करके अंकिया नाट का नवीन स्वरूप ढाला ।
संगीत नाटकों के साथ संगीत शब्द जोड़ने से अभिप्राय ऐसे नाटक जिनमे नृत्य,गीत,वाद्य,ताल तत्व मौजूद हो । 11वीं शताब्दी के पश्चात पूर्वी भारत में संगीत नाटकों का उदय हुआ । पूर्वी भारत में बिहार इन नाटकों की दृष्टि से सम्पन्न है । 11वीं शती में ही रचा गया ज्योतिरीश्वर ठाकुर का वर्णरत्नाकर लोक नाट्यों में संगीत पद्धति का आधार ग्रंथ है जिसमें, गीत, नृत्य, ताल , वाद्य, आदि का वर्णन किया गया है ।
असम के इस नवजागरण से मिथिला का गहरा संबंध था । 16वीं सदी में काशी, मिथिला, शांतिपुर, नवद्वीप आदि विद्या के केंद्र थे । मिथिला तो विशेष रूप से संगीत विद्या का केंद्र बना हुआ था । कोई आश्चर्य नहीं महापुरुष शंकरदेव की ब्रजबूली का आधार विद्यापति की पदावली की भाषा है और “ महापुरुष शंकरदेव ने अपने कीर्तन तथा अन्य काव्य की रचना से तत्कालीन आसामी भाषा में की , किन्तु गीतों की रचना ब्रजबुली में की ।
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सुशांत सुप्रिय की कविता
सुशांत सुप्रिय की कविता
1. एक जलता हुआ दृश्य
वह एक जलता हुआ दृश्य था
वह मध्य-काल था या 1947
1984 था या 1992
या वह 2002 था
यह ठीक से पता नहीं चलता था
शायद वह प्रागैतिहासिक काल से
अब तक के सभी
जलते हुए दृश्यों का निचोड़ था
उस दृश्य के भीतर
हर भाषा में निरीह लोगों की चीख़ें थीं
हर बोली में अभागे बच्चों का रुदन था
हर लिपि में बिलखती स्त्रियों की
असहाय प्रार्थनाएँ थीं
कुल मिला कर वहाँ
किसी नाज़ी यातना-शिविर की
यंत्रणा में ऐंठता हुआ
सहस्राब्दियों लम्बा हाहाकार था
उस जलते हुए दृश्य के बाहर
प्रगति के विराट् भ्रम का
चौंधिया देने वाला उजाला था
जहाँ गगनचुम्बी इमारतें थीं, वायु-यान थे
मेट्रो रेल-गाड़ियाँ थीं, शॉपिंग-माल्स थे
और सेंसेक्स की भारी उछाल थी
किंतु जलते हुए दृश्य के भीतर
शोषितों के जले हुए डैने थे
वंचितों के झुलसे हुए सपने थे
गुर्राते हुए जबड़ों में हड्डियाँ थीं
डर कर भागते हुए मसीहा थे
हर युग में टूटते हुए सितारों ने
अपने रुआँसे उजाले में
उस जलते हुए दृश्य को देखा था
असल में वह कोई जलता हुआ दृश्य नहीं था
असल में वह मानव-सभ्यता का
घुप्प अंधकार था
2. ‘जो काल्पनिक नहीं है’ की कथा
किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं थी
कथा में मेमनों की खाल में भेड़िये थे
उपदेशकों के चोलों में अपराधी थे
दिखाई देने के पीछे छिपी
उनकी काली मुस्कराहटें थीं
सुनाई देने से दूर
उनकी बदबूदार गुर्राहटें थीं
इसके बाद जो कथा थी, वह असल में केवल व्यथा थी
इस में दुर्दांत हत्यारे थे, मुखौटे थे
छल-कपट था और पीड़ित बेचारे थे
जालसाज़ियाँ थीं, मक्कारियाँ थीं
दोगलापन था, अत्याचार था
और अपराध करके साफ़
बच निकलने का सफल जुगाड़ था
इसके बाद कुछ निंदा-प्रस्ताव थे,
मानव-श्रृंखलाएँ थीं, मौन-व्रत था
और मोमबत्तियाँ जला कर
किए गए विरोध-प्रदर्शन थे
लेकिन यह सब बेहद श्लथ था
कहानी के कथानक से
मूल्य और आदर्श ग़ायब थे
कहीं-कहीं विस्मय-बोधक चिह्न
और बाक़ी जगहों पर
अनगिनत प्रश्न-वाचक चिह्न थे
पात्र थे जिनके चेहरे ग़ायब थे
पोशाकें थीं जो असलियत को छिपाती थीं
यह जो ‘काल्पनिक कहानी नहीं थी’
इसके अंत में
सब कुछ ठीक हो जाने का
एक विराट् भ्रम था
यही इस समूची कथा को
वह निरर्थक अर्थ देता था
जो इस युग का अपार श्रम था
कथा में एक भ्रष्ट से समय की
भयावह गूँज थी
जो इसे समकालीन बनाती थी
जो भी इस डरावनी गूँज को सुनकर
अपने कान बंद करने की कोशिश करता था
वही पत्थर बन जाता था …
3. माँ
इस धरती पर
अपने शहर में मैं
एक उपेक्षित उपन्यास के बीच में
एक छोटे-से शब्द-सा आया
वह उपन्यास
एक ऊँचा पहाड़ था
मैं जिसकी तलहटी में बसा
एक छोटा-सा गाँव था
वह उपन्यास
एक लम्बी नदी था
मैं जिसके बीच में स्थित
एक सिमटा हुआ द्वीप था
वह उपन्यास
पूजा के समय बजता हुआ
एक ओजस्वी शंख था
मैं जिसकी गूँजती ध्वनि-तरंग का
हज़ारवाँ हिस्सा था
वह उपन्यास
एक रोशन सितारा था
मैं जिसकी कक्षा में घूमता हुआ
एक नन्हा-सा ग्रह था
हालाँकि वह उपन्यास
विधाता की लेखनी से उपजी
एक सशक्त रचना थी
आलोचकों ने उसे
कभी नहीं सराहा
जीवन के इतिहास में
उसका उल्लेख तक नहीं हुआ
आख़िर क्या वजह है कि
हम और आप
जिन उपन्यासों के
शब्द बन कर
इस धरती पर आए
उन उपन्यासों को
कभी कोई पुरस्कार नहीं मिला ?
4. थोड़ा साथ, थोड़ा हट कर
ओ प्रिये
अपनी निजता में भी
मैं होता हूँ
तुम्हारे थोड़ा साथ
और थोड़ा तुमसे हट कर
जैसे ढलते सूरज की इस वेला में
खड़ी है मेरी परछाईं
थोड़ी मेरे साथ
और थोड़ी मुझसे हट कर
जैसे अपनी आकाशगंगा में
है हमारी पृथ्वी
थोड़ी अपने सूर्य के साथ
और थोड़ी उससे हट कर
हाँ प्रिये
कभी-कभी
मैं होता हूँ तुम्हारे थोड़ा साथ
और थोड़ा तुमसे हट कर
जैसे स्वर्ग से निष्कासन
के बाद आदम था
थोड़ा हव्वा के साथ
और थोड़ा उससे हट कर
5 . स्टिल-बॉर्न बेबी
सुप्रिय
वह जैसे
रात के आईने में
हल्का-सा चमक कर
हमेशा के लिए बुझ गया
एक जुगनू थी
वह जैसे
सूरज के चेहरे से
लिपटी हुई
धुँध थी
वह जैसे
उँगलियों के बीच में से
फिसल कर झरती हुई रेत थी
वह जैसे
सितारों को थामने वाली
आकाश-गंगा थी
वह जैसे
ख़ज़ाने से लदा हुआ
एक डूब गया
समुद्री-जहाज़ थी
जिसकी चाहत में
समुद्री-डाकू
पागल हो जाते थे
वह जैसे
कीचड़ में मुरझा गया
अधखिला नीला कमल थी …
सुशांत सुप्रिय
A-5001,
गौड़ ग्रीन सिटी,
वैभव खंड,
इंदिरापुरम ,
ग़ाज़ियाबाद – 201014
( उ. प्र. )
मो : 8512070086
ई-मेल : sushant1968@gmail.com
नाच्यो बहुत गोपाल
नाच्यो बहुत गोपाल
अनुराग कुमार पाण्डेय
‘नाच्यो बहुत गोपाल’ साहित्यकार अमृतलाल नागर द्वारा लिखित उपन्यास है। इसे राजपाल एंड सन्स, दिल्ली द्वारा सन् 2010 में प्रकाशित किया गया है। इसमें एक मेहतर (अछूत जाति) या ब्राह्मणी के मेहतर बनने के जीवन की सम्पूर्ण कथा को चित्रित किया गया है। इसमें समाज के संरचनागत ढांचे से सामाजिक-आर्थिक-मनोवैज्ञानिक और न-जाने कितने पक्षों में मिले यातनाओं व उपेक्षाओं का वर्णन किया गया है। अमृतलाल नागर के इस उपन्यास को पढ़ने से निःसन्देह यह कहा जा सकता है कि वे साहित्य जगत के मूर्धन्य व यशस्वी साहित्यकारों में से एक हैं। उनकी लेखन शैली इतनी प्रभावी है मानो लगता है कि यह पूरा घटनाक्रम आँखों के सामने ही घटित हो रहा हो। अमृतलाल नागर के अन्य उपन्यास भी अपने-आप में एक अनूठी लिए हुये हैं। ‘बूँद और समुद्र’, ‘अमृत और विष’, ‘मानस का हंस’ तथा ‘खंजन नयन’ ने उन्हें हिन्दी-साहित्य जगत का महत्वपूर्ण स्तम्भ बना दिया।
इस उपन्यास की रूप-रेखा तैयार होने में ढाई से तीन सालों का समय लग गया। इसमें उन्होने उपन्यास लिखने की प्रेरणा के बारे में भी लिखा है। उन्होने एक कथा सुनी थी कि एक धनी ब्राह्मण की पत्नी एक मेहतर युवक के साथ भाग गयी थी और वह अपने साथ काफी सारे गहने-जेवरात भी लेकर भागी थी। दो दिन बाद ही वह अपने प्रेमी सहित पकड़ी भी गयी थी। इस संबंध में उपन्यासकार को कोई अन्य जानकारी प्राप्त न हो सकी और उसकी जिज्ञासा व कल्पना इस उपन्यास के रूप में हमारे सामने प्रस्तुत हुई। इसके लिए अमृतलाल नागर ने कई मेहतरों के इंटरव्यू भी लिए और इसमें उनके प्रति आभार भी प्रकट किया गया है।
यूं तो ये कहानी निर्गुण की है, उसकी संवेदनाओं की है, उसके यातनाओं की है जो की उसके महिला मात्र होने पर अमानवीय अत्याचारों को बखूबी बयान करती है पर साथ ही साथ एक और पक्ष भी रहता है जो कि जाति और उसके संस्तरण से संबन्धित है, जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। इसी संस्तरण के आधार पर नायिका के जीवन में बदलाव लगातार होते रहे और उसकी प्रस्थिति भी समाज में परिवर्तित होती रही। वह कैसे ब्राह्मण से मेहतर तक के सफर को तय करती है और उसके इस सफर के दौरान यह खोखली जाति व्यवस्था भी अपने रूप को बदलते रहती है।
यह कहानी कई खण्डों में चलती रहती है। कभी साहित्यकार और निर्गुण के संवाद तो कभी निर्गुण के अतीत के जीवन से संबन्धित संवाद चलते रहते हैं। साहित्यकार की लेखन शैली के प्रवाह ने इन किरदारों व उनके भाव-आवेश को जीवंत कर देने सा प्रयास किया है। इस कहानी के मूल में है निर्गुण जो की एक ब्राह्मणी हैं। निर्गुण का जन्म संवत् 1962 में एक ऊंचे ब्राह्मण कुल में हुआ था। निर्गुण का पालन-पोषण उनके नाना-नानी के यहाँ हुआ। नाना-नानी के गुजर जाने के बाद निर्गुण के पिता उसे अपने साथ हवेली ले गए जहां वे मालकिन के रखैल थे। यहीं से निर्गुण के जीवन के उतार-चढ़ाव का सिलसिला जारी होता है। उस हवेली का माहौल बहुत गंदा था वहाँ रहने वाले सभी अपने-अपने स्तर पर अश्लीलता में लिप्त रहते थे। इस अश्लीलता ने निर्गुण को भी अपने आगोश में ले लिया। उसका जीवन एक पहेली बन चुका था जिसे सुलझाने के लिए तो सभी तैयार थे लिकिन वे उसे और भी उलझा ही जाते थे, चाहे वह अम्मां (हवेली की मालकिन) हों या नौकर खड़गबहादुर हो या बबुआ सरकार हों या मास्टर बसन्तलाल हों। सभी ने उसके साथ अपने-अपने स्वार्थ साध रखे थे। इनमें से बसन्तलाल मास्टर ही एक ऐसा किरदार था जो कि उसके प्रति कुछ सचेत था पर आगे चलकर वह भी पतित ही हो गया। इसी बीच वह बबुआ सरकार से गर्भवती होती है और उसके गर्भ को नष्ट किया जाता है। बबुआ सरकार के साथ प्रेम-प्रसंग में निकटता देखकर मालकिन ने उसका विवाह 75 साल के बूढ़े मसुरियादिन ब्राह्मण से करा दिया। वह निर्गुण को चारदीवारी में कैद रखता था और बूढ़े हो जाने के कारण निर्गुण की यौन-इच्छाओं को तृप्त भी करने में असंतुष्ट था। एक मेहतरानी आती थी जो मल-मूत्र साफ करती थी और उसी से निर्गुण बात किया करती थी। निर्गुण और बाहरी समाज के बीच वह एक माध्यम के रूप में थी। फिर मेहतरानी के छुट्टी पर जाने के एवज में उसका बेटा मोहन घर साफ-सफाई के लिए आने लगा। जिसे देखकर निर्गुण का यौवन जाग उठा। उसने जात-पात के बंधनों को तोड़ दिया और उसके साथ भाग गई। मोहन की माँ के दुत्कार देने के बाद वे मोहन के मामा-मामी के पास गए। वहाँ उसके मामा ने तो किसी तरह उसे स्वीकार लिया पर मामी के मन में उसके प्रति द्वेष की भावना सदा ही बनी रही। उससे जितना बन सका उसने निर्गुण (जो अब निरगुनिया बन चुकी थी) को सताया, कष्ट दिये, उत्पीड़न किए। शुरू-शुरू में तो मोहन ने भी मामी का साथ दिया और उसके कुकृत्यों में बराबर का भागी बना रहा। बाद में उसने इसका विरोध किया और अपनी मामी को खरी-खोटी भी सुनाई। निरगुनिया के मस्तिष्क में एक अलग ही द्वंद चल रहा था ब्राह्मणी और मेहतरानी का। वह मोहन के साथ रहकर मेहतरानी तो बन चुकी थी पर अन्तर्मन से अभी भी ब्राह्मणी ही थी। पर कब तक? लेखक के पुछने पर निरगुनिया बोलती हैं “मार से भूत भाग जाता है। फिर मन के ब्राह्मणपन की भला क्या विसात?” (नागर, 2010, 89)
मोहना कप्तान जैक्सन के बैंड में काम करता था और दोनों का संबंध भी घनिष्ठ था। बैंड में एक नया लड़का आता है-माशूक हुसैन। जो पहले वहीदा डाकू के गिरोह में था। वह एक भरे पूरे बदन का आकर्षक लड़का था। जैक्सन ने हुसैन को ईसाई बनाया और उसे नया नाम दिया डेविड। डेविड के प्रति जैक्सन को अपार प्रेम था परंतु यह प्रेम मोहना से उसके संबंध को भेद नहीं पाया। यद्यपि इसका प्रयास तो डेविड ने बहुत किया। जैक्सन ईसाई बनाने का काम भी किया करता था और उसने मोहना और उसकी बीवी (निरगुनिया) को भी यह सलाह दी। निरगुनिया इसके बिलकुल खिलाफ थी। वह तो वैसे भी किसी जात कि नहीं बची (ब्राह्मणी, नौकरानी, ठाकुरानी, मेहतरानी) तो धर्म परिवर्तन का आखिर क्या प्रयोजन। निरगुनिया के निवेदन पर मोहना जैक्सन से बैंड खरीदना चाहता है। तभी वहीदा डाकू मोहना से मिलता है और उसे बताता है कि माशूक ने उसके एक बेशकीमती हार की चोरी की है और उसे लेकर भाग गया है। तुम्हें यह पता लगाना है कि वह हार कहाँ है? मोहन ने वही किया और वहीदा को बताया की हार जैक्सन के घर में है। वहीदा डाकू वहां आता और जैक्सन को मार देता है और हार की खोज-बिन में लग जाता है। मोहना डेविड को मार-मार कर हार का पता लगता है और हार को वहीदा डाकू को सौप देता है। इसी बीच डेविड को मरा हुआ देखकर मोहना हड़बड़ा जाता है। वहीदा डाकू जाते-जाते मोहना को भी अपने साथ लिए जाता है। वहां पुलिस आती है। बसन्तलाल, जो अब दरोगा बन चुका है, निरगुनिया को पहचान लेता है और उसे थाने ले जाता है। दरोगा बसन्तलाल, निरगुनिया के गहने-जेवर ले लेता है और उसके साथ छेड़खानी करता है। निरगुनिया उससे मींठी-मींठी बातें करके वह से बच के निकल जाती है और बीमार होने के कारण सड़क पर ही कहीं बेहोश होकर गिर जाती है। मसीताराम, जो कि मोहन का नातेदारी में चाचा लगता है, उसे उठाकर अपने घर ले जाता है। निरगुनिया का इलाज करवाने के बाद वह 3-4 दिन में स्वस्थ्य हो गई। मसीताराम के साथ उसकी दोस्त गुल्लन चाची भी वही रहती थी और उसने भी निरगुनिया के इलाज में मदद की थी। निरगुनिया वहीं रहने लगी और कुछ महीने बाद पता चला कि मोहना डाकू बन गया है। उधर बसन्तलाल दरोगा, निरगुनिया को परेशान किया करता था। इस पर मसीताराम व गुल्लन ने उसे स्वामी वेद प्रकाशानन्द जी के वेद मंदिर चले जाने का सुझाव दिया और स्वामी जी से उसे मिलवाया। सारी व्यथा सुनाने के बाद वह मंदिर में रहने चली गयी। वेद मंदिर में ऋषिदेवी और वेदवती दो बहने रहती थी जिनसे निरगुनिया को काफी स्नेह और अपनापन मिला। वे दोनों ही यतनाओं व उत्पीड़न की मार से गुजर चुकी थीं। कुछ समय बीतने के बाद मोहना डाकू, निरगुनिया से मिलने आता है और उसके प्रति अपने प्रेम के दीपक को पुनः प्रज्वलित करता है। मोहना डाकू द्वरा मिले पैसे से निरगुनिया अपने अर्थात मसीताराम के घर व आर्थिक अस्त-व्यस्तता को नियोजित करती है। फिर एक किताब ‘रंगीला रसूल’ के कारण शहर में दंगा हो जाता है। इसके अतिरिक्त एक अन्य पुस्तक ‘तलकीने मजहब’ ने भी दंगे में अत्यंत वेग उत्पन्न कर दिया। इसके पृष्ठ 21 पर लिखा है, ‘सीता चौदह बरस रावन के कब्ज़े में रहने की वजह से उसकी गर्वीदा हो गई थी, इस वजह से सीता के रावन का कत्ल होना सख्त सदमे का वाइस हुआ। सीता अपने आशिके कद्रदान की मूरत बनाकर रोजाना पूजा करती थी।” (वही, 2010, 246) वहीं योगेश्वर श्रीकृष्ण के संबन्ध में 49वें पृष्ठ पर यह लिखा है, “नतीजा यह हुआ कि जिस तरह उसने बेशुमार बेगुनाहों का कत्ल किया था, उसका भी कत्ल हुआ और द्वारका की जमीन पर मुफ़्सिद-पर्दाज़ जानी से पाकोसाफ हो गई।” (वही, 2010, 246) इसके कारण हिन्दू लोगों का खून खौल उठा और प्रत्युत्तर के रूप में भीषण दंगा बन के उभरा। उसमें मोहना के मामा-मामी मारे जाते हैं। इसी बीच निरगुनिया को एक बेटी होती है जिसका नाम शकुंतला रखा गया। मोहना डाकू बेटी के पैदा होने के चार महीने बाद निरगुनिया और अपनी बेटी से मिलता है। मोहना हमेशा उसे आर्थिक सहायता देता रहता था। गुल्लन के बेटे नब्बू को मोहना डाकू द्वारा पीते जाने के कारण गुल्लन में मोहना व निरगुनिया के प्रति रोष व्याप्त हो रहा था। बसन्तलाल ने दरोगा की नौकरी छोड़ कर प्राइवेट जासूस का धन्धा खोल लिया पर वो मोहना डाकू की तलाश में लगा रहा। डेढ़ साल बाद मोहना डाकू, निरगुनिया से मिलने आया और अपने चाचा, बेटी शकुन्तला के लिए पैसे भी दिये। मोहना डाकू पर 5 हजार का इनाम भी सरकार ने रखवा दिया है। रिपुदमन सिंह चौहान वहां के नए दरोगा थे। इसके लालच और द्वेष में गुल्लन ने उसके ठिकाने को पुलिस में जा कर बता दिया। परिणामस्वरूप मोहना डाकू मारा गया और निरगुनिया की रही-सही आस भी इसी के साथ खत्म हो गयी।
अगर इस उपन्यास के पूरे विमर्श को देखें तो यह जाति, वर्ग, लिंग और उसकी शक्ति (सत्ता) के आस-पास घूमता रहता है। वास्तव में ये सभी विमर्श, एक मसलें के रूप में उनके लिए हैं जो स्वयं तो एक ऐसे स्तर पर विराजमान हैं जिन्हे न तो इस विमर्श के परिणाम से कोई फर्क है और न ही इसकी कोई आवश्यकता। क्योंकि जो स्वयं सत्ता-संरचना में है उसके लिए क्या नियमावली और क्या मान्यता? वे तो स्वयं में ही कानून हैं। जो कोई इस सत्ता-संरचना को चुनौती देता है वो या तो मिटा दिया जाता है या तो सत्ता-संरचना उसे अपने में मिला लेती है। (वेबर, 1905) जिसके कारण न तो नियमों में बदलाव आता है और न ही इसके लिए प्रयास ही हो पता है। इस विमर्श और उसकी समस्या से दिक्कत तो उन लोगों को होगी जो कि हाशिये पर के लोग हैं। इस साहित्य के माध्यम से कई गंभीर मसलों पर विचार किया गया है। किस प्रकार का जीवन निर्गुण (ब्राह्मण) का था? किस प्रकार की जीवन-शैली निरगुनिया (मेहतरानी) का था? इस संबंध में समाज का रवैया किस प्रकार का था? महिलाओं के प्रति समाज का रूप कैसा था? इत्यादि प्रकार के गंभीर सवालों का जवाब साहित्यकार ने बड़ी ही स्वच्छता व सफलता से दिया है। अमृतलाल नागर ने उपन्यास के माध्यम से आजादी से पहले के समाज में हो रही घटनाओं का अच्छा परिवेश प्रस्तुत किया है। उन्होने उस समय में जाति के वर्चस्व के साथ-साथ शक्ति के अस्तित्व को भी सूचित किया है। जब निरगुनिया का पति मोहना, डाकू बन जाता है तो स्वतः समाज में उसकी स्थिति में परिवर्तन होता है। यह उसके लिए एक बेंचमार्क जैसे प्रयोग होता है।
साहित्यकार के अनुसार निरगुनिया का जीवन एक ऐसे बेपेंदी के लोटे के समान बन चुका था कि जो बस यहाँ से वहाँ नाचता ही रहे और अपने स्थिर होने की कल्पना मात्र ही कर सके। पर या संभव होना भी अपने-आप में एक संशय का मसला है।
अब मैं नाच्यो बहुत गुपाल।
काम क्रोध को पहिर चोलना कण्ठ विषै की माल।।
अब मैं नाच्यो बहुत गुपाल।…
पी-एच.डी. समाजशास्त्र
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी
लौटना है फिलवक्त जहाँ हूँ
लौटना है फिलवक्त जहाँ हूँ
–अनिरुद्ध उमट
ईमेल-anirudhumat1964@gmail.com
“कोई कवि यशः प्रार्थी कवि है या नहीं, इसे जाँचने की मेरे पास एक ही कसौटी है। यदि वह मुझ से कहता है कि मेरे पास कुछ महत्व की बातें है जिन्हें कहने के लिए मैं कविता करता हूँ, तो मुझे उसके कवित्व पर सन्देह हो जाता है। किन्तु यदि वह कहता है कि मैं तो शब्द का पीछा करता हूँ– शब्द पर कान लगाकर उसकी बात सुनने की कोशिश करता हूँ, तो मुझे यकीन हो जाता है कि हाँ, यह आदमी जरूर कवि बन सकता है।”
-ऑडेन
किसी भी कला में आग्रह का अतिरेक अक्सर उस की सहज प्रकृति को भंग कर देता है. यह प्रकृति उस कला माध्यम के साथ के हमारे रिश्ते हमारी संलग्नता को प्रकट करती है. सृजन के क्षणों में अपनी बात को व्यक्त करने की तीव्रता के दबाव के चलते यह भी संयम आवश्यक होता है कि हम खुद उस माध्यम की ग्रहणशीलता और स्वायत्तता के प्रति भी विवेकवान रहें, उसके प्रति आवश्यक रूप से हम में सहज उदारता रहनी चाहिए. यह संतुलन ही कला और कलाकार के आपसी सम्बन्ध को वांछित रूप ग्रहण कर पाने में सबसे आवश्यक होता है. किसी कलाकार के सृजन में यह संतुलन कितना सध पाता है यह उसकी कृति से रूबरू होने पर प्रकट हो जाता है. अपने माध्यम के प्रति यह निष्ठा, धैर्य ही उस कलाकार को वयस्कता प्रदान करता है. ऐसी कला किसी भी समय में हमेशा अपनी अर्जित भूमि पर फलती रहती है. उसे किसी भी समय के बाहरी दबाव तब अपनी तात्कालिकता से प्रभावित नहीं कर सकते.
कोई भी कलाकार कला के इस आंतरिक, सहजावस्था के प्रस्फूटन के क्षणों में अपनी अनुभूति को कितना स्थगित रख पाता है, कितना किसी अव्यक्त को व्यक्त हो पाने का अवकाश अपनी कला में उपलब्ध करा पाता है, उसका यह बोध ही उसकी रचना में समग्रता से भिन्न-भिन्न रूपों में छवि पाता है. जितनी ही यह छवि नैसर्गिक होती है उतनी ही आत्मीय उसकी अनुभूति भी. जो ह्मारे संवेदन को उसकी गहराई में अपनी प्राकृतिक अवस्था में अंगीकार करती है.
पारुल पुखराज के पहले कविता संग्रह ‘जहाँ होना लिखा है तुम्हारा’ को पढ़ते हुए उस अव्यक्त को भाषा में रूपायित होते हुए देखा जा सकता है. इसे पढ़ते हुए हमारे मन में मौन
2
की लय और लय का मौन व्यापने लगता है. शब्द यहाँ वाहक भी है वहन भी. वे कभी खुद कुछ कहते हैं कभी कहने को सुनने में लीन हो जाते हैं.
भाषा को पारुल की कविताओं में अपनी तरह से व्यापने का अवकाश मिलता है जो इस मंशा का अपनी नैसर्गिकता में स्वीकार है कि कहने से अधिक कहने को सुनना है. दिखाने से अधिक दृश्य को खुद दृश्य होते रहने की आकांक्षा में घटित होने देना है.
अपनी सृजनात्मकता में ये कविताएँ चीजों को उनकी स्थिति से उनके मूल से विछिन्न नहीं करती बल्कि जैसी वे हैं उसी में कुछ और हो जाने की संभावना की प्रतीक्षा करती है. वे इसमें अपनी ओर से जाहिर होता-सा कोई हस्तक्षेप नहीं करती बल्कि अपने हर तरह के जतन को वे संकोच में अप्रकट होते देने में अधिक सहज रहती है.
यह उनकी काव्य प्रतिभा का बहुत महत्वपूर्ण पक्ष है कि उनके यहाँ बाहर को भीतर पर और भीतर को बाहर के अतिरेक में हावी नहीं होने दिया गया है. उनका स्वर अपनी रचना में पृथक से नहीं बल्कि उसके होने में ही खुद को घुला देता है. ऐसा करने के लिए निश्चय ही कवि में अपनी अनुभूति, संवेदना और माध्यम के प्रति गहरी निष्ठा का भाव आवश्यक होता है जो पारुल के काव्य कर्म में बेहद संजीदगी से निभाया जाता है.
‘प्रतीक्षा’ एक शब्द है जो इन कविताओं में अदृश्य रहते हुए कई-कई रंगों, रूपों, ध्वनियों में प्रकट होता है. हर क्षण की स्वायत्तता में वह अपनी हर बार पृथक ही छटा में, नियति, विडंबना, कामना, स्वप्न, मौन में प्रवेश करता है. उस क्षण के उस बसाव में वह नितांत अछूता, प्रथम प्रस्फूटन में खुद को होने देता है. जीवन के इस नितांत भीतरी अनुभव को उसके अपने ही अँधेरे में सीढ़ी दर सीढ़ी उतरने का आश्वासन इस कवि के यहाँ मिलता है. इसलिए वह अपनी आदिम नैसर्गिकता में उन्मुक्त हो शब्दों में व शब्दों के आसपास के मौन और राग में घुलने लगता है. जहाँ वह नहीं भी दिखता प्रतीत होता है वहां भी वह सांस थामे, अपलक मंद धडकनों के आवागमन में बैठा होता है. यह इस संग्रह की काया का मुख्य गान है, स्वर है- जो गहराती शाम में उठते धुंए सा आकाश में विलीन होने लगता है. कोई है जो अज्ञात है मगर उसका होना इस भाषा के अदीखे किसी स्थल में इस गान के विलम्बन में किसी कनात सा तनता जाता है. इस गान के उठते-बहते प्रवाह में अजाने से स्थल पलके खोलने लगते हैं.
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किसके हाथ उठाते हैं कौर
कौन जीमता है
थाल से
अदृश्य
रसोई में
उमगती कंठ में
हिचकी
काँपता जल पात्र
वह अज्ञात है, अदृश्य है मगर वह है- प्रतीक्षा की देह लिए भिन्न-भिन्न रूपों, आवाजों में. प्रतीक्षा और अज्ञात एक जगह किसी एक क्षण में एक-दूजे में घुल जाते हैं और पृथक न रह एक देह में सांस लेने लगते हैं. यह देह में इस तरह एकल हो जीवन में उसका विचरना, रूप लेना, स्पर्श करना, सुनना, स्पन्दित होना, स्वप्न हो जाना, हिचकी में घुट जाना, बेसुध हो हर कुछ का अतिक्रमण कर जाना कला के ताल पर किसी बिसरे वृक्ष की छाया सा अपने सूने में भीगता-काँपता हमारे भीतर हमें पुकारता है. इस पुकार को खुद में महसूस करते हम देखते हैं कि उस एक क्षण में ही हम अपने स्व से कुछ संवाद कर पाए हैं. ऐसे संवाद को जो अक्सर पूरे जीवन में हमें अपने स्मरण में ही नहीं आता, न अपनी उपस्थिति में, न अपनी अनुपस्थिति में.
१
जाना है
जहाँ
हो रही मेरी प्रतीक्षा
लौटना है
फिलवक्त जहाँ हूँ
4
२
मुक्त होना
मुक्त करना है
३
उस अज्ञात की सुध में
वह बावड़ी का अँधेरा भी थी कहीं
‘अवकाश’ और ‘मौन’ वे दो और शब्द हैं जो पारुल की कविताओं में बसने पर हमें अपने जगत में उतरने का अवसर देते हैं. एक-दूजे में अपनी सम्पूर्ण सत्ता में स्थिर रहते ये दो शब्द एक-दूजे में प्रविष्ट होते हैं और काव्य में उनका वह प्रकट रूप नितांत प्रथम घटित के अनुभव में हमारे भीतर उतरने लगता है. भीतर के उस समस्त जाने-पहचाने भूगोल पर उसकी छाया पसरने लगती है और इसी दरमियान उसकी आवाज वह नहीं रह जाती जो ऐन इस क्षण से पूर्व थी.
विरह जो है वह विरह ही नहीं. कुछ और भी है. क्या है वह, इसे कविता किसी सरलीकृत सुविधा में नहीं देखती, न ही सुझाती है बल्कि उसकी समस्त भीतरी संश्लिष्टता में खुद गुंथती, उलझती है. कंटीली झाड़ी में किसी परछाई सी. पारुल के काव्य में जो है वह वह नहीं है वह कुछ और होने की संभावना में, असमंजस में, ठिठकता-झिझकता, संशय में लिथड़ा अपने से बाहर कभी-कभी झाँकने का उपक्रम करता है. और कभी इस उपक्रम के विपरीत अतल में यूँ धंसने लगता है कि जो नहीं है वह नहीं ही नही कुछ और भी हो सकता है, संभावनाओ की चट्टानों को दरकाता खुद को विस्फोट होने देता सा.
निषिद्ध
हैं कुछ शब्द
जीवन में
जैसे कुछ
जगहें
5
अंधी कोई
बावड़
जैसे
सिसकी अधूरी
सूना
आकाश
व्यक्त हो जिनमें तुम
जहाँ होना लिखा है तुम्हारा
कवि आलोचक रमेशचन्द्र शाह के शब्दों में, ‘जीने का आस्वाद ही नहीं जीने का सबब ढूँढने की बेकली से प्रेरित पारुल की कविताओं के बारे में कहना कठिन है, कि यहाँ राग की खींच ज्यादा प्रबल है, या कि विराग की? राग और विराग दोनों के मेल-अनमेल से ही अपना रूपाकार रचती और पाती हैं ये कविताएँ.’ अपने उपलब्ध अति आग्रही यथार्थ और समय के मध्य स्थित कवि के भीतर कोई गहरी सांस्कृतिक समृद्धि की ठोस भूमि है जो उसे तुमुल कोलाहल या अतिरेक से बचाए मन की बात में अवस्थित रहने देती है. अपनी भाषा के वैविध्यपूर्ण अतीत और उसके गहरे संस्कार उसे विचलित होने से बचाए रखते हैं. किसी भी तरह की चकाचौंध से अविचलित यह काव्य अपनी जड़ों की गहराई और वहाँ से ग्रहण किए जाते जीवन रस से विकसित होता है. उसके यहाँ जीवन अपनी सघनता और सतत नैरन्तर्य में सूक्ष्मता से अनुभव की प्रगाढ़ता को ग्रहण करता है. उसके संशय, उसके आश्चर्य, उसकी स्तब्धता उसके काव्य की प्राण शक्ति है. यह हर दृश्य से तादात्म्य हो जाने की बजाय दृष्टा भाव में प्रतिष्ठित होते जाना किसी योगी की चरम सिद्धि से पृथक नहीं.
७
प्रीत करेगा
छुएगा नहीं
उदासी
निःशब्द
गुजर जाएगा
एकांत से
बिना फेंके
अपनी आवाज का
कंकर
मौन में
तुम्हारे
२
खिलाता है परिचय
अपने ही अपरिचित मन से
मौन
कहीं जोग है
कहीं तप
कहीं
रास साधक का
8
रचा कुछ भी जा सकता है
आत्माओं के मौन में
अनुभव को उसकी शाब्दिक देह से बाहर ले आ उसे उसकी निरावरण दैहिकता में कुछ क्षणों के लिए अवाक होने देना और खुद ही की देह को स्पर्श कर पाने का निसंकोच धरातल दे पाना किसी भी रचनाकर्म की दीर्घ यात्रा के बाद का ही पड़ाव या विराम स्थल होता है. एक ऐसी यात्रा जिसमें आप यात्री नहीं खुद यात्रा होने में घटित होने लगें. वहाँ सब कुछ होता है, किन्तु सब कुछ न होने की भी नियति में खुद को विलीन होते स्वीकारता वह अपनी मंथरता में प्रगाढ़ प्रवाह की देह लिए किसी चरम बिंदु में अंततः समाहित हो जाता है.
जीवन के हाहाकार में आवाज के बियाबान में पारुल की कविता में कोई दाना दाना पाप चुगता है.जहाँ ‘पुकार’ अपने होने बल खाती देखती है कि-
खोजना
याद करना है
याद करने पर
याद करने की आवाज
नही होती
एक ऐसी बंजर नींद इन कविताओं अपनी जाग में विकल है जिसमें कोई एक भी ऐसा स्वप्न नहीं जिस पर जीवन का दाँव खेला जा सके, जहाँ ‘दुःख/क्षण भर भी/ हरा रहता नहीं’. पारुल की कविताओं में शब्द आते हैं पर ऐन किसी क्षण अपने आने को स्थगित करते लगभग विस्मृत हो चुके स्थल की चुप्पी को अपने स्वर में उभरने का अवसर देते हैं. इन कविताओं में ‘कोरी रह गई डूब’ का अहसास अपने घने एकांत में हरा होने लगता है. उनकी कविता बुदबुदाती है कि, ‘ढांप पलकें / सदियों की जाग पर / हरा एकांत / मेरा / और हरे.’ जिसमें ‘खुलते संकोच के धागों में / आहिस्ता-आहिस्ता / आवाज की गिरह भी ढीली पड़ती है’. उनकी कविता के व्योम में ये पंक्तियाँ गूंजने लगती है-
९
नदी की धार पर विशाल बजरा
तन उसका
मध्य रात्रि
जिसके पाल खुल कर हवा में सरगोशी कर रहे थे
उस
बेला
…….
…….
उस अज्ञात की सुध में
वह बावड़ी का अँधेरा भी थी कहीं
अपने होने की विकलता और उसका अवगुंठन कला में किसी आजीवन प्रतीक्षित क्षण में अपना स्वर, रूप ग्रहण करने की तरलता महसूस करने लगता है. ‘उस बेला वह कुछ भी हो सकती थी’ सरीखी पंक्ति लिखने में, न लिखने में अपना आप खुद लिखती है. इन कविताओं में जहाँ, जिसका, ‘होना’ लिखा है की नियति को अपने निर्जन और अतल में विकसने का अवकाश उपलब्ध है. वे प्रार्थना करती हैं कि, ‘हे प्रभु / विचरने दो इच्छा के देवालय में / निर्भय उसे.’ कामना, स्वप्न, राग, स्मृति के छोर यहाँ एक बिंदु पर उस देह का भेद मिटाते एक दूजे में घुल जाते हैं.
पीठ पर लिए कब से चल रहा कोई
अथक
किसी का स्वप्न
समापन बिंदु किए अदेखा निरंतर
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गतिमान
पृथ्वी के अंतिम छोर तक
सुर साधे
शिथिल पाँव
निश्चित है उसकी अनूठी यात्रा
पीठ पर जिसकी किसी अन्य के स्वप्न का भार
यह ‘पीठ’ किसी और की नही खुद कला ही वह रूप है. जो कलाकार के सुर साधने पर वांछित रूप में रूपायित हो जाती है. हिंदी कविता में ऐसा बहुत कम देखने में आता है जहाँ खुद कवि के पास कहने, जताने के अपने आग्रह के आधिक्य में यह स्मरण कहीं पीछे छूट जाता है कि खुद भाषा के समीप मौन बैठना भी स्वयं में एक पूर्ण अनुभव होता है. ऐसे ही अनुभव के क्षण हेतु कवि-आलोचक नन्दकिशोर आचार्य का कथन याद आता है कि. ‘कविता मूलतः संवेदनात्मक या अनुभूत्यात्मक अन्वेषण होती है…कविता की सार्थकता किसी विचार में घटा दिए जाने में नहीं, बल्कि अपने ग्रहीता को चेतना की उस भूमि पर लाने में है, जिसमें कोई भी अनुभूति स्वयं ही अपना अर्थ होती है.’
पारुल पुखराज का यह संग्रह अत्यंत वाचाल, राजनीतिक आग्रहों के घटाटोप में रचनात्मकता के प्रति स्वयं के होने को समर्पित होने में सार्थकता तलाशता एक संकोची कदम है. जोसेफ ब्रोड्स्की ने कभी कहा था कि ‘स्मृति विस्मृति की संगिनी है’. ये कविताएँ उस संगीनी के संग छाया-सी चलती हैं और किसी मध्य के सेतु को तलाशती है जिस पर से गुजरते उसे सदियों से जब्त रूदन का बे-आवाज फूटना दिखता है. अक्सर कला में कहने का आग्रह अपने निराग्रही रूप से अपरिचित रह जाता है. इन कविताओं का ‘कहना’ अगर कुछ ‘कहता-सा दिखता है’ तो पाठ के समय व उसके पश्चात के दीर्घ स्मरण में वह दिखना भी रचनाकार की विवशता जान पड़ता है, शब्दों और कवि के साथ ये अजीब नियति-
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यातना होती है कि वे कहने के लिए बने होते हैं पर अक्सर वे अपने इस होने का भार त्यागना चाहते हैं. पारुल की कविताओं में यह महसूस होता है कि जैसे कहना भी कोई विवशता है, यदि कवि के राग में ऐसा कोई ईश्वरीय क्षण संभव होता हो जहाँ इसे भी न कहा जा सके तो वे उतना भी न प्रकट करें.
समीक्षक पता: माजी सा की बाड़ी,
राजकीय मुद्रणालय के समीप,
बीकानेर ३३४००१
कविता संग्रह- ‘जहाँ होना लिखा है तुम्हारा’
लेखक- पारुल पुखराज
प्रकाशक- सूर्य प्रकाशन मन्दिर, बीकानेर
वर्ष- २०१५
मूल्य – १५० रुपये
सत्ता के दाँव –पेंच से रूबरू कराती रघुवीर की कविताएँ
सत्ता के दाँव –पेंच से रूबरू कराती रघुवीर की कविताएँ
डॉ. मणिबेन पटेल
रघुवीर सहाय की कविताओं में लोकतंत्र के बचाव की गहरी चिंता है। उन्होंने लोकतंत्र को महज सत्ता से जुड़े संदर्भ में ही नहीं देखा बल्कि वे लगातार सामाजिक संरचना और आपसी संबंधों के विविध स्तरों के बीच भी इसकी स्थापना के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहे। अलोकतांत्रिक व्यवस्था और संबंधों को अपनी कविता का विषय बनाते रहे। १९५० में लोकतांत्रिक देश घोषित होने के बाद भी स्थितियाँ नहीं बदली। झूठे और मक्कार लोगों का ही महिमामंडन किया गया , उन्हें प्रतिष्ठित किया गया। देश के विकास के नाम पर आज भी क़ुरबानी माँगी जा रही।विस्थापन और विनाश का मंजर हम अपने चारों ओर देख सकते हैं। ‘शाइनिंग इण्डिया ‘ और ‘अच्छे दिन’ के नाम पर लगातार सपने दिखाए जा रहे हैं। किसका देश, किसका विकास और किसके अच्छे दिन , प्रश्न आज भी वही है। रघुवीर सहाय लिखते हैं-
“हम ही क्यों यह तकलीफ उठाते जाएं
दुख देने वाले दुख दें और हमारे
उस दुख के गौरव की कविताएँ गाएं
……………….
हम सहते हैं इसलिए की हम सच्चे हैं
हम जो करते हैं ले जाते हैं वे
वे झूठे हैं लेकिन सबसे अच्छे हैं
जब ठौर नहीं मिलता है कोई दिल को
हम जो पाते हैं उसपर लुट जाते हैं
क्या यही पहुँचना होता है मंजिल।”
आज भी हमारा समय-समाज घनघोर असमाजिकताओं की जकड़न में घुट रहा है। हत्या-आत्महत्या के दौर से गुजरती पीढ़ी के दुख-दर्द को दूर करने की अपेक्षा, उन निहायत चालाक सत्ताधारियों से ही करना हमारी नियति बनकर रह गयी है। ऐसे में लोकतंत्र का अंतिम क्षण है कहकर हँसने वाले नेतृत्वकारी वर्ग को रघुवीर सहाय ने बेनकाब किया है। अरक्षित, असहाय जिन्दगी और सत्ता का विरोध ही उनकी कविताओं के केंद्र में रहा है, आजादी के बाद से ही शासकों के बड़े–बड़े वायदे, उपदेशों के सिलसिले शुरू हुए और लोग लगातार उनके झाँसे में आते रहे।आज स्थिति यह है कि हम अपने ही देश में देशद्रोही कहलाकर परायों सी जिन्दगी जीने को अभिशप्त हैं। चारों ओर भय का माहौल बनाया जा रहा है। बहुसंख्यकों की आजादी को कुछ लोगों ने कैद कर रखा है। जनविरोधी प्रवृत्ति वाले सत्ताधारियों के लिए संस्कृति, देशप्रेम, दया, करुणा और बहस सबकुछ प्रायोजित है। जनजीवन के लिए उनके पास खोखले शब्दों के शिवाय कुछ भी नहीं। उनकी असंवेदनशीलता के कारण मानवीय मूल्यों पर भारी संकट उपस्थित होता जा रहा है। पदलोलुप देशभक्तों ने देश की दुर्दशा करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ा है। जनआंदोलनों को कुचलने , जनता का शोषण करने , सत्ताविरोधी संस्कृति , साहित्य और लोगों का दमन जोरों पर है। विचारों से परहेज करना आज की सत्ता का स्वभाव बनता जा रहा है। जीवन के हलचल , आजादी के अहसास और जायज हक़ माँगने भर से सत्ता अपने भविष्य को असुरक्षित समझने लगती है और अक्रामक रूख़ अख्तियार कर लेती है। रघुवीर सहाय सत्ता के केंन्द्रीकरण का विरोध और ताकत के उचित बँटवारे की माँग करते हैं। आज सत्ता में बने रहना ही सबसे बड़ी राजनीति हो गयी है। जनप्रतिनिधियों का जनता के प्रति अपने दायित्वों से कोई सरोकार नहीं है , वे महज सत्ता का भोग करना चाहते हैं। धर्म , जाति , हिंसा , घृणा आदि के माध्यम से जनता को विभाजित करने की उनकी पुरानी रणनीति आज भी अपनाई जा रही है। अख़बार, प्रेस ,सूचनातंत्र सब पर हमला किया जा रहा। असली समाचार देश की जनता तक पहुँचता ही नहीं। रघुवीर सहाय इस राजनीति से बेखबर नहीं हैं। वे सत्ता के दाँव–पेंच को बखूबी समझते हैं। जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि जनता से डरता है। उसे न खुद पर विश्वास रहता है न जन समाज पर। भय के कारण वह जनता की कमजोरियों को और अधिक विस्तार देता है। विचार , बहस आदि से भरसक बचने तथा नागरिकों का मनोबल तोड़ने का प्रयास करता है।उन्हें दिमाग़ी गुलाम बनाने का हर सम्भव प्रयत्न करता है। रघुवीर सहाय की कविताएँ हमें राजनीति के मर्म से रूबरू कराती हैं। उसके जनविरोधी चरित्र की पहचान कराती हैं। पतनशील सत्ता की सेवा करने के लिए विवश पत्रकारिता से परिचित कराती हैं –
“बीस बड़े अखबारों के प्रतिनिधि पूछें पच्चीस बार
क्या हुआ समाजवाद
कहें महासंघपति पच्चीस बार हम करेंगे विचार
आँखे मारकर पच्चीस बार हँसे वह , पच्चीस बार
हँसे बीस अख़बार।”
यह कविता लोक चेतना की रक्षा का दावा करने वाली पत्रकारिता अखबारों के खोखलेपन को उजागर करती है। सत्ता और पत्रकारिता के गठजोड को बेनकाब करती है। आज की व्यवस्था और तन्त्र के बीच फंसा साधारण मनुष्य असहाय होकर भी जीने का संघर्ष कर रहा है। भारतीय लोकतंत्र में मतदाताओं के असुरक्षित जिन्दगी की खबरें उन्होंने अपनी कविताओं में दर्ज किया है –
“फिर जाड़ा फिर गर्मी आई
फिर आदमियों के पाले से, लू से मरने की खबर आई
न जाड़ा ज्यादा था न लू ज्यादा
तब कैसे मरे आदमी
वे खड़े रहते हैं तब नहीं दिखते
मर जाते हैं तब , लोग जाड़े और लू की
मौत बताते हैं।”
अभावग्रस्त लोगों की जीवन स्थितियाँ, मरता हुआ समाज, सिकुड़ता हुआ देश, नेतृत्वकारियों की मसखरी, डूबता हुआ लोकतंत्र कवि की मूल चिंता का विषय है। आज ऐसी ताकतें सक्रिय हैं जो जिन्दगी को दहशत बनाने पर आमदा हैं। आदमी घरों में बेदम -सा होता जा रहा है। उसकी कोशिशें, जिंदादिली खत्म होती जा रही है। उदार खुलापन, गर्माहट, सच्ची मानवीयता दम तोडती सी नजर आ रही है। हिंसा की राजनीति फल–फूल रही है। साधारण श्रमजीवी आदमी मारा जा रह है। संवेदनाशून्य , आत्मकेंद्रित होता समाज हत्यारे को पहचानते हुए भी मारे दहशत के चुप है। चोर, बदमाश, माफिया, हत्यारे, झूठे, लुटेरे, गुंडे सत्ता पर काबिज हैं। चारों ओर अँधेरा गहराता जा रहा है। राजनीति के अंधड़ से मनुष्य को बचाना कठिन चुनौती बनती जा रही है। ‘लोकतंत्र’ एक अश्लील मजाक बनकर रह गया है। ऐसे कठिन समय में मानवद्रोही चेहरे को बेनकाब करने वाली रघुवीर सहाय की कविताएँ याद आती हैं –
“यह समाज मर रहा है इसका मरना पहचानो मंत्री
देश ही सबकुछ है धरती का क्षेत्रफल सबकुछ है
सिकुडकर सिंहासन भर रह जाय तो भी वह सब कुछ है
राजा ने मन में कहा जो प्रजा की दुर्बलता को नहीं पहचानता
वह अपने देश को नहीं बचा सकता प्रजा के हाथों से।”
रघुवीर की कविताएँ यथार्थ की एक दुनिया को उद्घाटित करती हैं। जनसामान्य से उनका आत्मीय तादात्म्य बेहद सघन है। आमजन की बेचारगी, विवशता, लाचारी को उनकी कविताएँ अभिव्यक्त करती हैं।कवि अत्याचारी शक्तियों के चेहरों की पहचान करता है। उन ताकतवर लोगों को चिह्नित करता है जो साधारण जन में भय का वातावरण पैदा करते हैं। आज हर शासक पुराने आतातायी शासक की जगह लेते ही उसी के पद-चिह्नों पर चल पड़ता है , उसी की तरह व्यवहार करने लगता है। किसी भी प्रकार जनता को चैन नहीं लेने देता। आज जो जितना बड़ा मक्कार और सत्य का विरोधी है वह उतना ही आदरणीय है। रघुवीर सहाय आज के शासक और शासन करने की नीतियों को बखूबी समझते हैं –
“दुनिया एक ऐसे दौर से गुजर रही है जिसमें
हर नया शासक पुराने के पापों को आदर्श मानता
और जन वंचित जन जो कुछ भी करते हैं काम–धाम, राग–रंग
वह ऐसे शासक के विरुद्ध ही होता है
यह संस्कृति उसको पोसती है जो सत्य से विरक्त है।”
आज विचारधारात्मक सहमति या फिर बल प्रयोग के माध्यम से प्राय: शासक वर्ग शोषण आधारित समाज व्यवस्था कायम रखने की कोशिश करता है। रघुवीर सहाय व्यवस्था के अमानवीय रूप, छल-छद्म के बीच जीने को अभिशिप्त मनुष्य को भी अपनी कविताओं में अभिव्यक्त करते हैं –
“निर्धन जनता का शोषण है
कहकर आप हँसे
लोकतंत्र का अंतिम क्षण है
कहकर आप हँसे
सबके सब हैं भ्रष्टाचारी
कहकर आप हँसे
चारों ओर बड़ी लाचारी
कहकर आप हँसे
कितने आप सुरक्षित होंगे
मैं सोचने लगा
सहसा मुझे अकेला पाकर
फिर से आप हँसे।”
सत्ता की अमानवीय हंसी , व्यवस्था के यथार्थ का चित्रण , लोकतंत्र की निष्क्रियता, व्यापक भ्रष्टाचार और जनता की विवशता को बड़े सटीक ढंग से रघुवीर सहाय अपनी कविताओं में प्रस्तुत करते हैं। आज नई प्रतिभा को सामाजिक चेतना के विषय में बलपूर्वक अशिक्षित रखने की गम्भीर साजिश रची जा रही है। रचनात्मकता को कुंठित और विकृत करने का अभियान चालू है। किसी ख़ास व्यक्ति का दैवीकरण कर उसी को देश समझाने का भ्रम फैलाया जा रहा है। धर्म के नाम पर नृशंस हत्याओं को जारी रखने के लिए नये–नये माहौल बनाए जा रहे हैं। और अपराधियों की सुरक्षा हेतु न्यायपालिका को भी भयभीत करने का प्रयास होता रहा है। रघुवीर सहाय की कविताएँ जिन्दगी की वास्तविकताओं, सचाइयों की खबर देती हैं। वे लिखते हैं –
“कविता न होगी साहस न होगा
एक और ही युग होगा जिसमें ताकत ही ताकत होगी
और चीख न होगी।”
आज के समकालीन परिदृश्य और वर्तमान समय में रघुवीर सहाय को सबसे प्राणवान, जीवंत, समर्थ और नवीनता का प्रस्तोता कहा जाय तो अतिश्योक्ति न होगी। इनकी कविताओं में जीवन के प्रति अटूट आस्था है। इनकी काव्ययात्रा मानवीय भागीदारी और सहानुभूति का समर्थन करती रही है। उनके पास नितांत देशी अनुभव और सरोकार थे। वर्तमान समय , समाज में उनकी कविताओं की प्रासंगिकता दिन-ब-दिन बढ़ती ही जा रही है। आज आम लोगों का मानवीय गरिमा के साथ जीना दूभर हो गया है।ऐसे में जीवन विरोधी स्थिति की पहचान करती रघुवीर सहाय की कविताएं हमें उससे मुठभेड़ की शक्ति प्रदान करती हैं। उन्होंने जहाँ भी जनता के अधिकारों को सरकारों द्वारा रौंदता हुआ देखा, पूरी ताकत के साथ उसका विरोध किया। उनकी कविताएँ लोकतांत्रिक शासन में सत्ता के विभिन्न रूपों की पड़ताल करते हुए उसके मनुष्य विरोधी चरित्र का पर्दाफास करती हैं। असहमति को विकासशील लोकतंत्र का मूल्य मानने वाले रघुवीर सहाय सच्चे अर्थों में पारदर्शी, स्वाधीन लोकचेतना सम्पन्न लोकतंत्र के समर्थक कवि थे।
कविता
कविता
गुलाबचंद पटेल
कविता में संवेदना और प्रेम की नदियाँ बहती है | सच्चा कवि-रचनाकार वो है जो किसी भी स्थान या जगा की परवाह किये बिना कविता की रचना करने में ही रस होता है | कितने लोग कविता पढना टालते है | कितने लोगों को कभी कभी कविता सुनने में भी रस होता nahinahinनहीं है | लेकिन कितने किस्से ऐसे होते है जिसमे कविता आदमी को टालती है | ह्रदय और मन की सूक्ष्म भावनाओं से कविता की रचना होती है | इसमें अनहद का नाद होता है | इसी लिए कवि इश्वर के करीब होते है |
कविता स्थल और शुक्ष्म की ओर की यात्रा है | इसीलिए संतोने परम पिता इश्वर की प्राप्ति के लिए कविता द्वारा ही प्रयत्न किया है | कविता की किताब कम पढ़ी जाती है | कविता मनुष्य के जीवन से दूर जा रही है उसका एक ही कारण है कि, मनुष्य सवेंदन हिन हो गया है इसके कारण कविता ने अपनी नजाक़त और मार्मिक अभिव्यक्ति खो दी है |
साहित्य समाज का अरीसा है | साहित्य प्रतिबिम्ब (परछाई) भिन्न नहीं लेकिन समाज का प्रतिनिधि है | जीवन के साथ रचा हुआ साहित्य ही सुन्दर होता है |
हिंदी साहित्यकार प्रेमचंदजी कर सुर है, कि साहित्य केवल मन (दिल) बह्लानेकी चीज नहीं है मनोरंजन के सिवा उसका और भी उदेश्य है | जो दलित है, पीड़ित है, वंचित है, चाहे वो व्यक्ति को या समूह उसकी वकालत करना ही साहित्य का कर्म है |
साहित्य में समाज के निचले स्तर का दलित, पीड़ित शोषित वर्ग के मनुष्यों की अवहेलना करने के कारण दलित साहित्य का जन्म हुआ है | पांडित्य और प्रशिष्टता के युग में भाषा और साहित्य की मुखधारा से समाज का अंतिम मनुष्य वंचित रह जाने के कारण दलित साहित्य का उद्भव ही कारण है | साहित्य दलित नहीं होता | लेकिन जिस साहित्य में दलित, पीड़ित, शोषित समाज की परछाई उनका सामाजिक जीवन की कठिनाईयां और अच्छी बातों का प्रतिरूप दिखाई देता है, वो दलित साहित्य है |
कविता सामाजिक परिवर्तन का माध्यम है | रचनाकार आलोचक पैदा करता है | समय समय पर समाज में उत्तम मनुष्य पैदा होते रहे हैं ऐसे हर समय में श्रेष्ट कविता की सरिता निरंतर बहती रही है |
कविता भाषा का अलंकार है | कविता संस्कृति का विशेष महत्वपूर्ण अंग है | जिस कविता में मनुष्य की बात नहीं होती वह कविता लोगों के दिल को छुती नहीं | कितनी रचनाएं ऐसी होती है जो विवेचक को खुश कर के इनाम पा लेती है | मनुष्य की बात करने वाली कविता ही लोगों में संवेदना प्रगट करती है |
कवि जहोन किट्स ने अपने कवि मित्र जहोन टेलर को कहा था कि कविता वृक्ष के पन्नों की तरह खिलती नहीं है वो अच्छा है |
कविता सूक्ष्म भावों को अपने में समा लेने वाली पेन ड्राइव हैं | कविता मैं लघु कथा का रस होता है | ललित कला के निबंध का गद्य की छटा का आस्वाद होता है | अमेरिकन पत्रकार डॉन मार्कविस ने ये बात अच्छी तरह की है |
कविता लिखना वो गहरी खाई में गुलाब की पंखुड़ी डाल के उसकी आवाज का प्रतिध्वनी सुनने के लिए प्रतीक्षा करने के बराबर है |
मनुष्य जाति के लिए हिंसा, अज्ञानता, झगडे-फसाद और कोलाहल से भरी इस दुनिया में कविता एक आश्वासन है | कविता का आम मनुष्य के साथ संबंध रहता ही है |
कवीर अपनी कविता में कहते है कि,
“बहता पानी निर्मला, बांध गंधीला होय
साधूजन रमते भले, दाग न लगे कोई”
कबीरजी अपनी कविता के माध्यम से कहते हैं की जो पानी बहता रहता है वो बहुत निर्मल और शुध्ध होता है और बंधा हुआ पानी गंदा होता है | “रनिंग वोटर इज ओलवेझ क्लीन” | कुदरती गति से बहता पानी हंमेशा स्वच्छ और पारदर्शक होता है | पवित्र होता है | बहेते पानी में लयबध्ध संगीत का अनुभव होता है | बहता पानी जिवंत होता है |बंध पानी बेजान होता है |
उपनिषद ने कहा है की चरे वेति – चरे वेति | चलते रहो-चलते रहो | आप कहाँ से आते हो वो महत्वपूर्ण नहीं हैं | और आप कहाँ जाने वाले है उसका भी आपको मालूम नहीं है वो बात भी बराबर है लेकिन बस चलते रहो |
स्कोटीश नवलकथाकार (उपन्यास लिखने वाला) रॉबर्ट लुइ स्टीवन्स ने लिखा है कि, “I travel not to go anywhere but to go” | इसका मतलब है कि में कहीं जाने के लिए नहीं लेकिन चलने के लिए चलता हूँ | अच्छा प्रवासी वो होता है जो किसी भी प्रकार की सोच मन में नहीं लाता | चलने मतलब मात्र हाथ पैर हिलाके चलना वो नहीं हैं | चलने के साथ शरीर और मन दोनों चलना चाहिये | चलने की बात कुदरत के साथ जुड़ जाती है तब वो आध्यात्मिक बन जाती है | समाज के साथ संवाद करने से वो समाजीक बन जाती है |
संत कबीर ने कहा है कि साधू हंमेशा खेलता रहता है, लोगों के साथ निश्वार्थ भाव से वो लोगों के लिए चलता रहता है | उसको दाग कैसे लगे? कितने लोग यात्रा को निकलते है लेकिन सामान के साथ वो वापस लोटते हैं तब उनके सामान में बढ़ावा होता है लेकिन उन में कोई सुधार यानि कि बदलाव नहीं आता | कितने लोग ऐसे है कि एक ही जगा बैठे रहते हैं लेकिन वो भीतर से चलते हैं | सूक्ष्म रूपमें वो लोगों से संपर्क बनाए रखते हैं | उनका आध्यात्मिक विकास होता है | उनका मन-ह्रदय प्रसन्न रहता है | इसके सन्दर्भ में कबीर की ये साखी है;
“बंधा पानी निर्मला, जो एक गहिरा होय
साधुजन बैठा भला, जो कुछ साधन होय” |
बंधा पानी निर्मल हो सके, यदि वो गहरा हो तो | इसी तरह एक जगह बैठा हुआ साधू संत भी निर्मल और सात्विक हो सकता है | यदि वो जप-तप में डूबा हुआ है तो |
कभी कभी एक शब्द या पंक्ति से कविता निर्माण होती है | “सुनो भाई साधू” गीत उस का उदहारण है | कभी कभी कविता लिखने का अवसर लम्बे अरसे तक प्राप्त नहीं होता है | लेकिन कभी कभी ऐसा भी होता है कि कविता की लहर मन में अचानक दौड़ आती है |
संत रविदास की कविता-
“प्रभुजी तुम चन्दन हम पानी तुम दिया हम बाती”
कितनी अच्छी है ?
हिलाने से बच्चा सोता है, राजा जागता है“
वेनुगोपालजी की पंक्ति है |
तुलसीदास, पिंगलीदास, केशवदास – ये सब हिंदी कवि है |
“माली आवत देख के कलियाँ करे पुकार,
फूलों को तो चुन लिया, कब हमें चुन लेगा”?
साठोतरी हिंदी कविता : हिंदी कविता लेखन के क्षेत्र मैं सन १९६० के बाद एक परिवर्तन परिलक्षित होता है | जिसके अंतर्गत करीब तीन दर्जन से अधिक काव्यान्दोलन चलाये गए | जिस में से अकविता आन्दोलन को मह्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ | साठोतरी हिंदी कविता की दिशाएं काफी व्यापक रूप धारण किये हुए है | साठोतरी हिंदी कविता की सबसे प्रमुख विशेषता, आझादी से मोहभंग रही है | जिस के अंतर्गत साठोतरी कवियोंने राजनितिक, आर्थिक तथा सामाजिक क्षेत्रों की बुराइयों को उखाड फेंकने के लिए कविता को अपना माध्यम बनाया | अत: कहना न होगा कि साठोतरी हिंदी कविता की दिशायें व्यापक द्रष्टिकोण वाली है | सन १९६० के बाद हिंदी कविता में विशेष रूपसे राजनितिक की और झुकाव परिलक्षित होता है |
साठोतरी जनवादी कविता में प्रेम की एक नयी द्रष्टि दिखाई देती है | इन कवियों का प्रेम संबंध रूमानी न रहकर यथार्थ के कठोर धरातल पर पैदा होता एवं परिपक्व होता है | इस के साथ ही नारी की एक नयी पहेचान सामने आती है | जिस में नारी भोग्या या दासी न रहकर सहभागिनी है | अनेक जगहों पर नारी का क्रान्तिकारी रूप सामने आता है | स्त्रियाँ हाथ में बन्दुक ले कर शोषक और बलात्कारी व्यवस्था के खात्मे के लिए मैदान में आ जाती है |
कविता को वाणी की आँख कहते हैं | कविता में डिब्ब गुर्राता है | झुग्गी के छेद को टपकाता है | कविता सिर्फ शब्दों का बिसात नहीं है, वाणी की आँख है | हिंदी कविता की विषय वस्तु स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद लोगों के समक्ष उपस्थित समस्यायों को उजागर करती है |
गुलाबचंद पटेल
कवि लेखक अनुवादक
नशा मुक्ति अभियान प्रणेता
गांधीनगर गुजरात
मो.०९९०४४८०७५३