सत्ता के दाँव –पेंच से रूबरू कराती रघुवीर की कविताएँ

डॉ. मणिबेन पटेल

रघुवीर सहाय की कविताओं में लोकतंत्र के बचाव की गहरी चिंता है। उन्होंने लोकतंत्र को महज सत्ता से जुड़े संदर्भ में ही नहीं देखा बल्कि वे लगातार सामाजिक संरचना और आपसी संबंधों के विविध स्तरों के बीच भी इसकी स्थापना के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहे। अलोकतांत्रिक व्यवस्था और संबंधों को अपनी कविता का विषय बनाते रहे। १९५० में लोकतांत्रिक देश घोषित होने के बाद भी स्थितियाँ नहीं बदली। झूठे और मक्कार लोगों का ही महिमामंडन किया गया , उन्हें प्रतिष्ठित किया गया। देश के विकास के नाम पर आज भी क़ुरबानी माँगी जा रही।विस्थापन और विनाश का मंजर हम अपने चारों ओर देख सकते हैं। ‘शाइनिंग इण्डिया ‘ और ‘अच्छे दिन’ के नाम पर लगातार सपने दिखाए जा रहे हैं। किसका देश, किसका विकास और किसके अच्छे दिन , प्रश्न आज भी वही है। रघुवीर सहाय लिखते हैं-

“हम ही क्यों यह तकलीफ उठाते जाएं

दुख देने वाले दुख दें और हमारे

उस दुख के गौरव की कविताएँ गाएं

……………….

हम सहते हैं इसलिए की हम सच्चे हैं

हम जो करते हैं ले जाते हैं वे

वे झूठे हैं लेकिन सबसे अच्छे हैं

जब ठौर नहीं मिलता है कोई दिल को

हम जो पाते हैं उसपर लुट जाते हैं

क्या यही पहुँचना होता है मंजिल।”

आज भी हमारा समय-समाज घनघोर असमाजिकताओं की जकड़न में घुट रहा है। हत्या-आत्महत्या के दौर से गुजरती पीढ़ी के दुख-दर्द को दूर करने की अपेक्षा, उन निहायत चालाक सत्ताधारियों से ही करना हमारी नियति बनकर रह गयी है। ऐसे में लोकतंत्र का अंतिम क्षण है कहकर हँसने वाले नेतृत्वकारी वर्ग को रघुवीर सहाय ने बेनकाब किया है। अरक्षित, असहाय जिन्दगी और सत्ता का विरोध ही उनकी कविताओं के केंद्र में रहा है, आजादी के बाद से ही शासकों के बड़े–बड़े वायदे, उपदेशों के सिलसिले शुरू हुए और लोग लगातार उनके झाँसे में आते रहे।आज स्थिति यह है कि हम अपने ही देश में देशद्रोही कहलाकर परायों सी जिन्दगी जीने को अभिशप्त हैं। चारों ओर भय का माहौल बनाया जा रहा है। बहुसंख्यकों की आजादी को कुछ लोगों ने कैद कर रखा है। जनविरोधी प्रवृत्ति वाले सत्ताधारियों के लिए संस्कृति, देशप्रेम, दया, करुणा और बहस सबकुछ प्रायोजित है। जनजीवन के लिए उनके पास खोखले शब्दों के शिवाय कुछ भी नहीं। उनकी असंवेदनशीलता के कारण मानवीय मूल्यों पर भारी संकट उपस्थित होता जा रहा है। पदलोलुप देशभक्तों ने देश की दुर्दशा करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ा है। जनआंदोलनों को कुचलने , जनता का शोषण करने , सत्ताविरोधी संस्कृति , साहित्य और लोगों का दमन जोरों पर है। विचारों से परहेज करना आज की सत्ता का स्वभाव बनता जा रहा है। जीवन के हलचल , आजादी के अहसास और जायज हक़ माँगने भर से सत्ता अपने भविष्य को असुरक्षित समझने लगती है और अक्रामक रूख़ अख्तियार कर लेती है। रघुवीर सहाय सत्ता के केंन्द्रीकरण का विरोध और ताकत के उचित बँटवारे की माँग करते हैं। आज सत्ता में बने रहना ही सबसे बड़ी राजनीति हो गयी है। जनप्रतिनिधियों का जनता के प्रति अपने दायित्वों से कोई सरोकार नहीं है , वे महज सत्ता का भोग करना चाहते हैं। धर्म , जाति , हिंसा , घृणा आदि के माध्यम से जनता को विभाजित करने की उनकी पुरानी रणनीति आज भी अपनाई जा रही है। अख़बार, प्रेस ,सूचनातंत्र सब पर हमला किया जा रहा। असली समाचार देश की जनता तक पहुँचता ही नहीं। रघुवीर सहाय इस राजनीति से बेखबर नहीं हैं। वे सत्ता के दाँव–पेंच को बखूबी समझते हैं। जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि जनता से डरता है। उसे न खुद पर विश्वास रहता है न जन समाज पर। भय के कारण वह जनता की कमजोरियों को और अधिक विस्तार देता है। विचार , बहस आदि से भरसक बचने तथा नागरिकों का मनोबल तोड़ने का प्रयास करता है।उन्हें दिमाग़ी गुलाम बनाने का हर सम्भव प्रयत्न करता है। रघुवीर सहाय की कविताएँ हमें राजनीति के मर्म से रूबरू कराती हैं। उसके जनविरोधी चरित्र की पहचान कराती हैं। पतनशील सत्ता की सेवा करने के लिए विवश पत्रकारिता से परिचित कराती हैं –

“बीस बड़े अखबारों के प्रतिनिधि पूछें पच्चीस बार

क्या हुआ समाजवाद

कहें महासंघपति पच्चीस बार हम करेंगे विचार

आँखे मारकर पच्चीस बार हँसे वह , पच्चीस बार

हँसे बीस अख़बार।”

यह कविता लोक चेतना की रक्षा का दावा करने वाली पत्रकारिता अखबारों के खोखलेपन को उजागर करती है। सत्ता और पत्रकारिता के गठजोड को बेनकाब करती है। आज की व्यवस्था और तन्त्र के बीच फंसा साधारण मनुष्य असहाय होकर भी जीने का संघर्ष कर रहा है। भारतीय लोकतंत्र में मतदाताओं के असुरक्षित जिन्दगी की खबरें उन्होंने अपनी कविताओं में दर्ज किया है –

“फिर जाड़ा फिर गर्मी आई

फिर आदमियों के पाले से, लू से मरने की खबर आई

न जाड़ा ज्यादा था न लू ज्यादा

तब कैसे मरे आदमी

वे खड़े रहते हैं तब नहीं दिखते

मर जाते हैं तब , लोग जाड़े और लू की

मौत बताते हैं।”

अभावग्रस्त लोगों की जीवन स्थितियाँ, मरता हुआ समाज, सिकुड़ता हुआ देश, नेतृत्वकारियों की मसखरी, डूबता हुआ लोकतंत्र कवि की मूल चिंता का विषय है। आज ऐसी ताकतें सक्रिय हैं जो जिन्दगी को दहशत बनाने पर आमदा हैं। आदमी घरों में बेदम -सा होता जा रहा है। उसकी कोशिशें, जिंदादिली खत्म होती जा रही है। उदार खुलापन, गर्माहट, सच्ची मानवीयता दम तोडती सी नजर आ रही है। हिंसा की राजनीति फल–फूल रही है। साधारण श्रमजीवी आदमी मारा जा रह है। संवेदनाशून्य , आत्मकेंद्रित होता समाज हत्यारे को पहचानते हुए भी मारे दहशत के चुप है। चोर, बदमाश, माफिया, हत्यारे, झूठे, लुटेरे, गुंडे सत्ता पर काबिज हैं। चारों ओर अँधेरा गहराता जा रहा है। राजनीति के अंधड़ से मनुष्य को बचाना कठिन चुनौती बनती जा रही है। ‘लोकतंत्र’ एक अश्लील मजाक बनकर रह गया है। ऐसे कठिन समय में मानवद्रोही चेहरे को बेनकाब करने वाली रघुवीर सहाय की कविताएँ याद आती हैं –

“यह समाज मर रहा है इसका मरना पहचानो मंत्री

देश ही सबकुछ है धरती का क्षेत्रफल सबकुछ है

सिकुडकर सिंहासन भर रह जाय तो भी वह सब कुछ है

राजा ने मन में कहा जो प्रजा की दुर्बलता को नहीं पहचानता

वह अपने देश को नहीं बचा सकता प्रजा के हाथों से।”

रघुवीर की कविताएँ यथार्थ की एक दुनिया को उद्घाटित करती हैं। जनसामान्य से उनका आत्मीय तादात्म्य बेहद सघन है। आमजन की बेचारगी, विवशता, लाचारी को उनकी कविताएँ अभिव्यक्त करती हैं।कवि अत्याचारी शक्तियों के चेहरों की पहचान करता है। उन ताकतवर लोगों को चिह्नित करता है जो साधारण जन में भय का वातावरण पैदा करते हैं। आज हर शासक पुराने आतातायी शासक की जगह लेते ही उसी के पद-चिह्नों पर चल पड़ता है , उसी की तरह व्यवहार करने लगता है। किसी भी प्रकार जनता को चैन नहीं लेने देता। आज जो जितना बड़ा मक्कार और सत्य का विरोधी है वह उतना ही आदरणीय है। रघुवीर सहाय आज के शासक और शासन करने की नीतियों को बखूबी समझते हैं –

“दुनिया एक ऐसे दौर से गुजर रही है जिसमें

हर नया शासक पुराने के पापों को आदर्श मानता

और जन वंचित जन जो कुछ भी करते हैं काम–धाम, राग–रंग

वह ऐसे शासक के विरुद्ध ही होता है

यह संस्कृति उसको पोसती है जो सत्य से विरक्त है।”

आज विचारधारात्मक सहमति या फिर बल प्रयोग के माध्यम से प्राय: शासक वर्ग शोषण आधारित समाज व्यवस्था कायम रखने की कोशिश करता है। रघुवीर सहाय व्यवस्था के अमानवीय रूप, छल-छद्म के बीच जीने को अभिशिप्त मनुष्य को भी अपनी कविताओं में अभिव्यक्त करते हैं –

“निर्धन जनता का शोषण है

कहकर आप हँसे

लोकतंत्र का अंतिम क्षण है

कहकर आप हँसे

सबके सब हैं भ्रष्टाचारी

कहकर आप हँसे

चारों ओर बड़ी लाचारी

कहकर आप हँसे

कितने आप सुरक्षित होंगे

मैं सोचने लगा

सहसा मुझे अकेला पाकर

फिर से आप हँसे।”

सत्ता की अमानवीय हंसी , व्यवस्था के यथार्थ का चित्रण , लोकतंत्र की निष्क्रियता, व्यापक भ्रष्टाचार और जनता की विवशता को बड़े सटीक ढंग से रघुवीर सहाय अपनी कविताओं में प्रस्तुत करते हैं। आज नई प्रतिभा को सामाजिक चेतना के विषय में बलपूर्वक अशिक्षित रखने की गम्भीर साजिश रची जा रही है। रचनात्मकता को कुंठित और विकृत करने का अभियान चालू है। किसी ख़ास व्यक्ति का दैवीकरण कर उसी को देश समझाने का भ्रम फैलाया जा रहा है। धर्म के नाम पर नृशंस हत्याओं को जारी रखने के लिए नये–नये माहौल बनाए जा रहे हैं। और अपराधियों की सुरक्षा हेतु न्यायपालिका को भी भयभीत करने का प्रयास होता रहा है। रघुवीर सहाय की कविताएँ जिन्दगी की वास्तविकताओं, सचाइयों की खबर देती हैं। वे लिखते हैं –

“कविता न होगी साहस न होगा

एक और ही युग होगा जिसमें ताकत ही ताकत होगी

और चीख न होगी।”

आज के समकालीन परिदृश्य और वर्तमान समय में रघुवीर सहाय को सबसे प्राणवान, जीवंत, समर्थ और नवीनता का प्रस्तोता कहा जाय तो अतिश्योक्ति न होगी। इनकी कविताओं में जीवन के प्रति अटूट आस्था है। इनकी काव्ययात्रा मानवीय भागीदारी और सहानुभूति का समर्थन करती रही है। उनके पास नितांत देशी अनुभव और सरोकार थे। वर्तमान समय , समाज में उनकी कविताओं की प्रासंगिकता दिन-ब-दिन बढ़ती ही जा रही है। आज आम लोगों का मानवीय गरिमा के साथ जीना दूभर हो गया है।ऐसे में जीवन विरोधी स्थिति की पहचान करती रघुवीर सहाय की कविताएं हमें उससे मुठभेड़ की शक्ति प्रदान करती हैं। उन्होंने जहाँ भी जनता के अधिकारों को सरकारों द्वारा रौंदता हुआ देखा, पूरी ताकत के साथ उसका विरोध किया। उनकी कविताएँ लोकतांत्रिक शासन में सत्ता के विभिन्न रूपों की पड़ताल करते हुए उसके मनुष्य विरोधी चरित्र का पर्दाफास करती हैं। असहमति को विकासशील लोकतंत्र का मूल्य मानने वाले रघुवीर सहाय सच्चे अर्थों में पारदर्शी, स्वाधीन लोकचेतना सम्पन्न लोकतंत्र के समर्थक कवि थे।