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भाषा विज्ञान पर आधारित पुस्तकें

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Samanya Bhasha Vigyan
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Hindi Ka Saral Bhasha Vigyan – Gopal Lal Khanna
Hindi Ka Saral Bhasha Vigyan
Hindi Bhasha Vigyan
Bhasha Vigyan Tatva
Bhasha Vigyan Sidhant Aur Swaroop
Bhasha Vigyan Sar
Bhasha Vigyan Sar
Bhasha Vigyan Sar
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Bhasha Vigyan Sameeksha
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Bhasha Vigyan Per Bhashan
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Bhasha Vigyan Kosh
Bhasha Vigyan Kitab Mahal Bholanath Tiwari
Bhasha Vigyan Ka Naya Rup
Bhasha Vigyan Evam Hindi Bhasha Ka Itihas
Bhasha Vigyan Aur Hindi Bhasha
Bhasha Vigyan Aur Bhojapuri
Bhasha Vigyan (1959)
Bhasha Vigyan
Bhasha Vigyan
Bhasha Vigyan
Bhasha Vigyan
Bhasha Shikshan Tatha Bhasha Vigyan
Bhartiya Sahitya Vol-ii (1956)
Bharteey Sahitya Munshee Abhinandan
Bharatiya Bhasha Vigyan
Bharatiy Bhasha Vigyan Ki Bhumika
Adhunik Bhasha Vigyan Aur Hindi Bhasha Sanvardhan
Adhunik Bhasha Vigyan Aur Hindi Bhasha Sanvardhan
Aakkchro Ka Aaramv Aur Bhasha Vigyan
1981 -Bhasha Vigyan
1951 -Bhasha Vigyan
19. Bhasha Vigyan Chakradhar Karnatak
18. Sanskrit Bhasha Vigyan Dr. Raj Kishor Singh

एनसीईआरटी (NCERT) कक्षा एक से बारह की पाठ्यपुस्तक- हिंदी विषय

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एनसीईआरटी (NCERT) कक्षा एक से बारह की पाठ्यपुस्तक- हिंदी विषय

कक्षा एक

कक्षा 2

कक्षा 3

कक्षा 4

कक्षा 5

कक्षा 6

कक्षा 7

कक्षा 8

कक्षा 9

कक्षा 10

कक्षा 11

कक्षा 12

उत्तर प्रदेश उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग, सहायक प्रोफ़ेसर, हिन्दी विषय पाठ्यक्रम एवं अध्ययन सामग्री

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उत्तर प्रदेश उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग, प्रयागराज

हिन्दी विषय पाठ्यक्रम एवं अध्ययन सामाग्री

यहाँ उत्तर प्रदेश उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग, प्रयागराज द्वारा आयोजित हिन्दी विषय में सहायक प्रोफेसर नियुक्ति हेतु लिखित परीक्षा का सम्पूर्ण पाठ्यक्रम, उनमें शामिल रचनाएँ एवं संबधित महत्वपूर्ण सामग्री एक जगह प्राप्त कर सकते हैं। सम्पूर्ण पाठ्यक्रम को मूल रूप में ही रखा गया है। पाठ्यक्रम में शामिल विषय एवं रचनाओं पर क्लिक करने पर आप उसकी पीडीएफ डाउनलोड कर सकते हैं साथ ही उसे पढ़ सकते हैं। सामग्री का संकलन विभिन्न मंचों के माध्यम से किया गया है।

नोट: आसमानी रंग वाली पंक्तियों पर क्लिक करके आप सहायक सामग्री प्राप्त करें।

1. हिंदी भाषा का इतिहास :

हिंदी की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि :-

2. नागरी लिपि का इतिहास विकास :

  • नागरी लिपि का उद्भव और विकास,
  • नागरी लिपि की विशेषताएं एवं मानकीकरण,
  • कंप्यूटर और देवनागरी लिपि से संबंधित सुविधाएँ एवं सॉफ्टवेयर
  • यूनिकोड

3. हिन्दी विस्तारीकरण के वैयक्तिक एवं संस्थागत प्रयास :

  • स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी का विकास,
  • हिंदी प्रसार के आंदोतन, प्रमुख व्यक्तियों एवं संस्थाओं का योगदान,
  • हिंदी से संबंधित सरकारी संस्थाएँ एवं विभाग,
  • सम्मान,
  • पुरस्कार
  • पत्र पत्रिकाएँ
  • हिंदी के जनमाध्यम
  • हिंदी पोर्टल एवं वेबपटल

4. हिंदी साहित्य का इतिहास :

5. हिंदी साहित्य की गद्य विधाएँ :

6. साहित्यशास्त्र और आलोचना :

7. हिंदी आलोचना के पारिभाषिक शब्द और कतिपय अवधारणाएँ :

  • काव्यभाषा, बिंब, मिथक, कल्पना, फैंतेसी, निजंधरी कथा, कविसमय, काव्यरूढ़ि
  • प्रतिभा, व्युत्पत्ति, अभ्यास, अनुभूति अप्रस्तुत योजना, संकेतग्रह, बिम्बग्रहण, आनंद की साधनावस्था और सिद्धावस्था, शीलदशा, भावदशा, ल्रोकमंगल, प्रत्यक्ष रूपविधान, स्मृत रूपविधान, कल्पित रूपविधान, भाव एवं मनोविकार, ज्ञानात्मक संवेदना और संवेदनात्मक ज्ञान, लाक्षणिक मूर्तिमत्ता, उपचार वक्रता, आदर्शोन्मुख यथार्थ, विरुद्धों का सामंजस्य, लघु मानव, मानोमयकोश, आलंबनत्व धर्म, अनुभूति, कल्पना, चेतना प्रवाह, रूप, कथ्य, सहदय,
  • विडंबना(आयरोनी), अजनबीपन(एलियनेशन), विसंगति (एब्सर्ड), अंतर्विरोध(पैराडॉक्स), संत्रास, विरोधाभास, विपथन उत्तरआधुनिकता, मार्क्सवाद, मनोविश्लेषणवाद, अस्तित्ववाद, यथार्थवाद, आदर्शवाद, अतियथार्थवाद, मानववाद, प्रभाववाद, आधुनिकतावाद, संरचनावाद, रूपवाद, अस्मितामूलक विमर्श (दल्नित, स्त्री, आदिवासी, थर्ड जेंडर)
  • पुनर्जागरण, गांधीवाद, अंबेडकर दर्शन, लोहिया दर्शन, एकात्म मानववाद, सांस्कृतिक आलोचना
  • हिंदी के प्रमुख आलोचक और उनकी आलोचनात्मक स्थापनाएँ
  • प्रमुख रचनाकार और रचनाएँ

8. हिंदी काव्य :

9. कथा साहित्य :

  • हिंदी उपन्यास :
  • प्रेमचंद – गोदान
  • चतुरसेन शास्त्री – वयम रक्षाम:
  • वृंदावनल्लाल वर्मा – विराटा की पद्मिनी
  • हज़ारी प्रसाद द्विवेदी – पुनर्नवा
  • सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अजेय: नदी के द्वीप
  • फणीश्वरनाथ रेणु – मैला आंचल
  • भगवती चरण वर्मा – भूल्ले बिसरे चित्र
  • शिव प्रसाद सिंह – नीला चाँद
  • अमृतलाल नागर – मानस का हंस
  • यशपात्र – झूठा सच
  • श्रीलाल शुक्ल – राग दरबारी
  • भीष्म साहनी: वसंती
  • मन्नू भंडारी – आपका बंटी
  • कहानी :
  • प्रेमचंद – दुनिया का अनमोल्र रतन, कफन
  • राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह – कानों में कंगना
  • विश्वम्भरनाथ शर्मा ‘कौशिक’ – ताई
  • चन्द्रधर शर्मा गुलेरी – उसने कहा था
  • जयशंकर प्रसाद – आकाशदीप
  • जैनेन्द्र – पत्नी
  • फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ – लालपान पान की बेगम, रसप्रिया
  • सच्चिदानन्द वात्स्यायन अजेय – रोज, शरणदाता
  • भीष्म साहनी – चीफ की दावत
  • उषा प्रियंवदा – वापसी
  • निर्मल वर्मा – परिंदे
  • कमलेश्वर – दिल्‍ली में एक मौत
  • राजेन्द्र यादव – जहाँ लक्ष्मी कैद है
  • मोहन राकेश – मलबे का मालिक
  • हिंदी नाटक :
  • भारतेंदु हरिश्चंद्र – अंधेरी नगरी
  • जयशंकर प्रसाद – चंद्रगुप्त
  • धर्मवीर भारती – अंधा युग
  • लक्ष्मीनारायण ताल – सिंदूर की होली
  • मोहन राकेश – आषाढ़ का एक दिन
  • उपेंद्रनाथ “अश्क’ – अंजो दीदी

10. कथेतर गदय विधाएँ :

  • हिंदी निबंध :
  • भारतेंदु हरिश्चंद्र – भारतवर्षोननति कैसे हो सकती है, वैष्णतता और भारतवर्ष
  • प्रताप नारायण मिश्र- आप, धोखा
  • बालकृष्ण अट्ट- साहित्य जन समूह के हृदय का विकास है
  • बालमुकुंद गुप्त – शिव शंभू के चिट्‌ठे
  • चंद्रधर शर्मा गुलेरी – धर्म और समाज
  • महावीर प्रसाद द्विवेदी – कवि कर्तव्य
  • सरदार पूर्ण सिंह – आचरण की सभ्यता
  • रामचन्द्र शुक्त्र – श्रद्धा और भक्ति
  • जीवनी :
  • विष्णु प्रभाकर – आवारा मसीहा
  • संस्मरण :
  • विष्णुकान्त शास्त्री – सुधियाँ उस चन्दन के वन की
  • यात्रा साहित्य :
  • निर्मल वर्मा – चीड़ों पर चांदनी
  • रेखाचित्र :
  • महादेवी वर्मा – मेरा परिवार
  • रिपोतार्ज :
  • फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ – ऋणजल धनजल
  • डायरी :
  • रमेशचन्द्र शाह – अकेला मेला
  • साक्षात्कार :
  • बनारसीदास चतुर्वेदी – प्रेमचंद के साथ दो दिन
  • पत्र साहित्य :
  • जानकी वल्लभ शास्त्री – निराला के पत्र
  • अमृत राय – चिट्‌ठी पत्री

पाठ्यक्रम से संबधित अन्य महत्वपूर्ण सामग्री

हिंदी साहित्य का आदिकाल- हजारी प्रसाद द्विवेदी, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना

हिंदी साहित्य की भूमिका: हजारीप्रसाद द्विवेदी

हिंदी साहित्य का इतिहास, रामचन्द्र शुक्ल, नागरीप्रचारिणी सभा, वाराणासी

साहित्य का इतिहास दर्शन: नलिन विलोचन शर्मा

हिंदी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास: रामकुमार वर्मा

हिंदी साहित्य का अतीत (भाग 1, 2): विश्वनाथ प्रसाद मिश्र

हिंदी साहित्य का इतिहास: पूरनचंद टंडन, विनीता कुमारी

रीतिकाव्य की भूमिका- डॉ. नगेन्द्र, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली

अप्रभ्रंश साहित्य: हरिवंश कोछड़

भाषा विज्ञान की भूमिका -देवेन्द्रनाथ शर्मा, राधाकृष्ण, दिल्ली

भाषा विज्ञान- भोलानाथ तिवारी, किताब महल, इलाहाबाद

सूरदास- भ्रमरगीत- संपादक रामचन्द्र शुक्ल,

जायसी- नागमती वियोग खंड

विद्यापति- विद्यापति की पदावली, संपा. रामवृक्ष बेनापुरी

पृथ्वीराज रासो (कयमास वध: कथासार), चंदरवरदायी

हिंदी साहित्य के इतिहास पर कुछ नोट्स: रसाल सिंह

पृथ्वीराज रासो: (सं) माता प्रसाद गुप्त

विद्यापति की पदावली: (सं) रामवृक्ष बेनीपुरी

जायसी-ग्रंथावली: रामचन्द्र शुक्ल (सं.)

भ्रमरगीतसार: रामचन्द्र शुक्ल (सं.)

विनय पत्रिका: (सं.) वियोगी हरि

गोस्वामी तुलसीदास: रामचंद्र शुक्ल

तुलसी आधुनिक वातायन से: रमेश कुंतल मेघ

लोकवादी तुलसीदास: विश्वनाथ त्रिपाठी

तुलसी काव्य-मीमांसा: उदयभानु सिंह

नाथ संप्रदाय: हजारीप्रसाद द्विवेदी

हिंदी के विकास मे अपभ्रंश का योग: नामवर सिंह

पृथ्वीराज रासो की भाषा: नामवर सिंह

प्राकृत-अपभ्रंश साहित्य और उसका हिंदी पर प्रभाव: राम सिंह तोमर

सिद्ध-साहित्य: धर्मवीर भारती

विद्यापति: शिव प्रसाद सिंह

गोरखनाथ और उनका युग: रांगेय राघव

गोस्वामी तुलसीदास: रामचंद्र शुक्ल

तुलसी आधुनिक वातायन से: रमेश कुंतल मेघ

लोकवादी तुलसीदास: विश्वनाथ त्रिपाठी

तुलसी काव्य-मीमांसा: उदयभानु सिंह

सूरदास: रामचन्द्र शुक्ल

सूर साहित्य: हजारी प्रसाद द्विवेदी

महाकवि सूरदास: नंद दुलारे वाजपेयी

सूर और उनका साहित्य: हरवंशलाल शर्मा

सूरदास: ब्रजेश्वर वर्मा

कबीर: हजारी प्रसाद द्विवेदी

कबीर की विचारधरा: गोविंद त्रिगुणायत

कबीर साहित्य की परख: परशुराम चतुर्वेदी

त्रिवेणी: रामचन्द्र शुक्ल

जायसी: विजयदेव नारायण साही

अनामिका: निराला (राम की शक्तिपूजा, सरोजस्मृति)

तारापथ: सुमित्रानंदन पंत (बादल, भावी पत्नी के प्रति, नौका विहार, अनामिका के कवि के प्रति, आः धरती कितना देती है)

दीपशिक्षा: महादेवी (पंथ होने दो अपरिचित, सब बुझे दीपक जला लूँ, जब यह दीप थके तब आना, यह मंदिर का दीप, जो न प्रिय पहचान पाती, मोम सा तन घुल चुका, सब आँखों के आँसू उजले, मैं पलकों में पाल रही हूँ, पूछता क्यों शेष कितनी रात, अलि मैं कण कण को जान चली)

जयशंकर प्रसाद – नंददुलारे वाजपेयी, भारती भंडार, इलाहाबाद

कामायनी – एक पुनर्विचार – मुक्तिबोध, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली

निराला की साहित्य साधना खंड 1, निराला की साहित्य साधना खंड – 2, निराला की साहित्य साधना खंड 3

महादेवी वर्मा: जगदीश गुप्त, नई दिल्ली, 1994
चिंतामणि (भाग एक): रामचंद्र शुक्ल (केवल छह निबंध – भाव या मनोविकार, करुणा, लोभ और प्रीति, कविता क्या है, लोकमंगल की साधनावस्था, रसात्मक बोध के विविध रूप)

अशोक के फूल: हजारी प्रसाद द्विवेदी (केवल छह निबंध – बसंत आ गया है, अशोक के फूल, भारतीय संस्कृति की देन, भारतवर्ष की सांस्कृतिक समस्या, साहित्यकार का दायित्व, मनुष्य ही साहित्य का लक्ष्य है)।

[नोट: अन्य सामग्री को भी शीघ्र ही साझा किया जाएगा। मंच से जुड़े रहें ताकि परीक्षा से संबधित अन्य सामग्री भी आपको मिल सके। यदि आप अपने मंच को विश्वहिंदीजन से जोड़ना चाहते हैं तो कमेन्ट बॉक्स में लिंक एवं परिचय दें ]

कार्यालयी हिंदी एवं पत्र लेखन

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कार्यालयी हिंदी एवं पत्र लेखन

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हरियाणवी लोक साहित्य में अंबेडकरवाद के प्रवर्तक महाशय छज्जूलाल सिलाणा- दीपक मेवाती

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लोक साहित्य एवं संस्कृति

हरियाणवी लोक साहित्य में अंबेडकरवाद के प्रवर्तक महाशय छज्जूलाल सिलाणा

दीपक मेवाती

पीएच. डी. शोधार्थी (IGNOU)

नूंह (मेवात) हरियाणा

सम्पर्क – 9718385204  

ईमेल – dipakluhera@gmail.com

मानव जीवन के हर काल में सामाजिक कुरीतियों को दूर करने,  आमजन को इन कुरीतियों के प्रति जागृत करने का बीड़ा जिस भी शख्स ने उठाया आज उनकी गिनती महान व्यक्तित्व के रूप में होती है। संत कबीर दास, संत रविदास, बिरसा मुंडा, शियाजी राव गायकवाड, ज्योति राव फूले, सावित्रीबाई फूले, बीबी फातिमा शेख,डॉ. भीमराव अंबेडकर, मान्यवर कांशीराम आदि ऐसे ही व्यक्ति हुए जिन्होंने समाज में शोषित,  दलित,  पीड़ित जनता की आवाज उठाई एवं स्वयं के जीवन को भी इनके उत्थान के लिए समर्पित कर दिया। समय-समय पर देश के कोने-कोने में ऐसे अन्य व्यक्ति भी जन्म लेते रहे जिन्होंने समाज को जागृत करने की कोई नहीं बात बताई या फिर ऊपर वर्णित महान लोगों के विचारों का ही प्रचार प्रसार किया।

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     हरियाणा के झज्जर जिले के छोटे से गांव सिलाणा में 14 अप्रैल, 1922 को एक ऐसे ही महान व्यक्ति छज्जूलाल  का जन्म हुआ। उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन समाज की बुराइयों पर लिखते हुए आमजन के बीच बदलाव की बात करते हुए एवं अंबेडकरवाद का प्रचार-प्रसार करते हुए व्यतीत किया। छज्जूलाल जी के पिता का नाम महंत रिछपाल और माता का नाम दाखां देवी था। इनके पिता सन्त प्रवृति के व्यक्ति थे। वे हिंदी, संस्कृत व उर्दू भाषाओं के भी अच्छे जानकार थे। समाज में इनके परिवार की गिनती शिक्षित परिवारों में होती थी। इनकी पत्नी का नाम नथिया देवी था। इनके चाचा मान्य धूलाराम उत्कृष्ट सारंगी वादक थे। महाशय जी कुशाग्र बुद्धि के बालक थे। छज्जू लाल ने मास्टर प्यारेलाल के सहयोग से उर्दू, अंग्रेजी, संस्कृत और हिंदी भाषा का ज्ञान प्राप्त किया। महाशय जी ने 15 वर्ष की अल्पायु में ही कविता लिखना शुरू कर दिया था। इनकी कविताओं पर हरियाणा के एकमात्र राष्ट्र कवि महाशय दयाचंद मायना की शब्दावली का भी प्रभाव पड़ा। छज्जूलाल जी ने महाशय दयाचंद जी को अपना गुरु माना और स्वयं को उनके चरणों का दास मानते हुए लिखा  –

तू ही तू ही तेरा नाम हरदम तेरी आस

गुरु दयाचंद कृपा कीजियो मैं नित रहूँ चरण को दास।

महाशय जी 1942 तक ब्रिटिश आर्मी में रहे हैं किंतु इनका ध्यान संगीत की तरफ था तो इन्होंने आर्मी से त्यागपत्र देकर घर पर ही अपनी संगीत मंडली तैयार कर ली और निकृष्टतम जीवन जीने वाले समाज को जागृत करने के काम में लग गए। उन्होंने ऐसी लोक रागणियों की रचना की जो व्यवस्था परिवर्तन और समाज सुधार की बात  करती हो। महाशय जी 1988 के दौरान आकाशवाणी रोहतक के ग्रुप ‘ए’ के गायक रहे यहां पर उन्होंने लगातार 12 वर्ष गायन कार्य किया। महाशय जी का देहांत 16 दिसम्बर 2005 को हुआ। महाशय छज्जू लाल सिलाणा एक बहुमुखी प्रतिभा के धनी लोक कवि थे। उन्होंने अपने जीवन काल में 21 किस्सों  और एक सौ से अधिक फुटकल रागणियों की रचना की। इनके किस्सों में डॉ. भीमराव अम्बेडकर, वेदवती-रतन सिंह, धर्मपाल-शांति, राजा हरिश्चंद्र, ध्रुव भगत,  नौटंकी, सरवर-नीर, बालावंती, विद्यावती, बणदेवी चंद्रकिरण, राजा कर्ण,  रैदास भक्त शीला-हीरालाल जुलाहा, शहीद भूप सिंह, एकलव्य आदि किस्सों की रचना की। महाशय जी ने सामाजिक बुराइयों जैसे दहेज प्रथा, जनसंख्या, अशिक्षा, महिला-उत्पीड़न, जाति-प्रथा, नशाखोरी,  भ्रूण हत्या आदि पर भी रागणियों की रचना की।

            महाशय जी को जिस ऐतिहासिक किस्से के लिए याद किया जाता है वह डॉ. भीमराव अंबेडकर का किस्सा है। इस किस्से के द्वारा इन्होंने हरियाणा के उस जनमानस तक अपनी बात पहुंचाई जो देश-दुनिया की चकाचौंध से दूर था और जिसके पास जानकारी का एकमात्र साधन आपसी चर्चा और रागणियां ही थी। डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने आजीवन संघर्ष किया जिस कारण ही करोड़ों भारतीयों के जीवन में खुशियाँ आई। बाबा साहब के मूल मंत्र ‘शिक्षित बनो’, संगठित रहो व संघर्ष करो आज लाखों लोगों के जीवन में स्वाभिमान की ज्योति जला रहे हैं। हजारों वर्षों  से दुत्कारे लोग अपने अधिकार मांग रहे हैं। अब उन्हें मानव जीवन की गरिमा का एहसास हुआ है। दलित समाज के अंदर तार्किक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण जागृत हो रहा है। भारतीय संविधान के निर्माता बाबा साहब ने संविधान के माध्यम से अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जन जातियों के कल्याण के उपबन्ध ही संविधान में नहीं लिखे अपितु किसानों, महिलाओं, संगठित और असंगठित क्षेत्र के कर्मचारी मजदूरों के हितों से सम्बंधित उपबन्ध भी संविधान में जोड़े।  महाशय जी ने बाबा साहब के जन्म से लेकर उनके अंतिम क्षणों तक को काव्य बद्ध किया। बाबा साहब के जीवन को इन्होंने 31 रागनियों में समाहित किया। इन रागणियों को ये समाज को जागृत करने के लिए गाया करते थे। वे रागनीयां बहुत अधिक ह्रदय स्पर्शी हैं, जिनमें बाबा साहब के बचपन में जातिगत उत्पीड़न को दर्शाया गया है। जब इन रागणियों को सांग के माध्यम से दिखाया जाता है तब दर्शक की आंखों से आंसू बहने लगते हैं।

भीमराव के बचपन की घटना को महाशय जी लिखते हैं जब महारों के बच्चों को स्वयं नल खोल कर पानी पीने की इजाजत नहीं थी तो भीमराव अंबेडकर प्यास से व्याकुल हो उठते हैं, उसका चित्रण महाशय जी अपने शब्दों में करते हैं :-

बहोत दे लिए बोल मनै कौए पाणी ना प्याता

घणा हो लिया कायल इब ना और सह्या जाता।

म्हारै संग पशुवां ते बुरा व्यवहार गरीब की ना सुणता कौए पुकार

ढएं कितने अत्याचार सुणेगा कद म्हारी दाता।

विद्यालय में जिस समय भीमराव पढ़ते थे तो अध्यापक उनकी कॉपी नहीं जांचता था, अध्यापक भी उनसे जातिगत भेदभाव करता था। इस वाकये को सिलाणा जी लिखते हैं :-

हो मास्टर जी मेरी तख्ती जरूर देख ले

लिख राखे सै साफ सबक पढ़के भरपूर देख ले…..

एक बार भीमराव बाल कटाने नाई के पास जाता है तो नाई उसके बाल काटने से मना कर देता है और कहता है :-

एक बात पूछता हूं अरे ओ नादान अछूत

मेरे पास बाल कटाने आया कहां से ऊत

चला जा बदमाश बता क्यूं रोजी मारे नाई की

करें जात ते बाहर सजा मिले तेरे बाल कटाई की।

इस घटना में नाई भी इसीलिए बाल काटने से मना करता है क्योंकि उसे समाज की अन्य जातियों का डर है।

भीमराव अपने साथ घटित इस घटना को अपनी बहन तुलसी को बताते हैं :-

इस वर्ण व्यवस्था के चक्कर में मुलजिम बिना कसूर हुए

बेरा ना कद लिकड़ा ज्यागा सब तरिया मजबूर हुए।

एक बार भीम सार्वजनिक कुएं से स्वयं पानी खींचकर पी लेता है स्वर्ण हिंदू इससे नाराज होकर भीम को सजा देते हैं उसका चित्रण महाशय जी करते हैं:-

लिखी थी या मार भीम के भाग म्ह

भीड़ भरी थी घणी आग म्ह

ज्यूं कुम्हलावे जहर नाग म्ह ना गौण कुएं पै…..

करा ना बालक का भी ख्याल पीट-पीटकर करया बुरा हाल।

भीम और उनका परिवार जब मुंबई रहता था तो भीम स्कूल से छुट्टी के बाद चरनी रोड गार्डन में जाकर बड़े-बड़े महानुभाव पर किताबें पढ़ते थे। भीम को इस प्रकार पढ़ते देखकर सिटी गार्डन हाई स्कूल के हेड मास्टर केलुस्कर जो कि समाज सुधारक और मराठी लेखक भी थे, वे आश्चर्यचकित हुए उन्होंने भीम को शिक्षा का महत्व समझाया।

महाशय जी ने निम्नलिखित शब्दों के द्वारा इस घटना को बांधा है:-

मूर्ख मनुष्य मतिमंद पागल लिख पढ़ के विद्वान बणज्या

बोलण की तहजीब और रसीली जुबान बणज्या

अप टू डेट आदमी बढ़िया फैशन और डिजान बणज्या

जिस तै रकम कमाई जा उस गुण विद्या की खान बणज्या

थाणेदार कलेक्टर डिप्टी मेजर और कप्तान बणज्या

बैरिस्टर वकील मनिस्टर अकलमंद इंसान बणज्या

निचरली पैड़ी तै ऊंचे ओहदे पै चढज्या सै

उसका जन्म सुधर जा जो नर लिख पढ़ ज्या सै।

1907 में भीमराव ने मैट्रिक की परीक्षा पास की। कैलुस्कर ने भीमराव की आगे की शिक्षा के लिए भीमराव के पिता रामजी सूबेदार को आर्थिक सहायता का आश्वासन दिया। भीमराव का विवाह रमाबाई के साथ निश्चित हुआ। उस समय भीम की आयु 16 और रमा की 9 वर्ष थी। विवाह का चित्रण छज्जू लाल जी ने निम्न शब्दों में किया है:-

सूरज कैसा तेज भीम का, रमी चांदनी सी खिली,

दोनों की हो उमर हजारी, जोड़ी सोहणी खूब मिली।

भीमराव ने बी.ए. के लिए एल्फिन्स्टन कोलेज में प्रवेश ले लिया। घरेलू परिस्थितियों के कारण रामजी की आर्थिक स्थिति कमजोर हो गई। ऐसी स्थिति में श्री केलुस्कर भीमराव अम्बेडकर को लेकर बडौदा के शिक्षाप्रेमी महाराज सियाजिराव गायकवाड़ के पास गए। महराज ने भीमराव से कुछ सवाल किये, जिनका उत्तर भीम ने सुंदर ढंग से दिया। महाराज ने प्रसन्न होकर भीम को पच्चीस रूपये मासिक छात्रवृति देना स्वीकार किया। सन 1912 में भीमराव अम्बेडकर ने कड़ी मेहनत करके बी.ए. की परीक्षा पास कर ली। बी.ए. के बाद आर्थिक तंगी से उभरने के लिए उन्होंने बड़ौदा में लेफ्टिनेंट के पद पर नियुक्ति पायी। भीमराव के बडौदा जाने के बाद उनके पिता रामजी सूबेदार बहुत बीमार हो गए। भीमराव बीमारी के दौरान आते हैं तब रामजी द्वारा भीमराव को सम्बोधित करने के वाकये को कवि लिखते हैं:-

आखिरी अभिलाषा बेटा कहणा मेरा मान लिए

गरीबां का उद्धार करना हृदय के म्ह़ा ठाण लिए

पीड़ित और पतितों का सहारा बण बेटा

असंख्य तारों में चांद उजियारा बण बेटा

अछूतों का प्यारा बण बेटा, कर तन-मन-धन कुर्बान लिए

इनके हित म्ह गोळी खातर सीना अपणा ताण लिए।

2 फरवरी 1913 को रामजी सकपाल जी का देहांत हो गया। पिता की मृत्यु के पश्चात भीमराव महाराज सियाजिराव से मिले एवं उन्हें अपनी पीड़ा सुनाई। महाराज भीमराव की अंग्रेजी से प्रसन्न हुए एवं तीन वर्ष के लिए भीमराव की छात्रवृत्ति स्वीकृत इस शर्त पर की कि अमेरिका में तीन वर्ष अध्ययन के बाद 10 वर्ष बडौदा रियासत में नौकरी करनी पड़ेगी। अमेरीका जाने की बात सुनकर रमा बहुत उदास हुई, लेकिन भीमराव ने बड़े सूझ-बूझ से रमाबाई को समझा दिया। 15 जून 1913 को भीमराव बोम्बे से रवाना होकर न्यूयार्क पहुंचे। यहाँ पर उन्होंने कोलम्बिया विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया तथा बड़ी लगन से अध्ययन में जुट गए। इस घटना को कवि ने निम्न पंक्तियों के माध्यम से उकेरा है:-

एकाग्र एकचित लगा के पढ़ण लाग्या दिन और रात

लेट जाग के पुस्तक पढे जल्दी उठे बखत प्रभात

हरदम ध्यान रहै पढण म्ह सच्चे मन से करे खुबात

निंद्रा काबू करी भीम ने मन डाटा और साध्या गात

निश्चय दृढ़ करया मन म्ह लागी लगन यत्न एक साथ

विषय वासना मार साध नै, काम क्रोध को दे दी मात

मंजिल दिखी साफ़ आप होगी घट म्ह रुश्नाई।

भीम अमरीका जाकै लाग्या करण पढ़ाई।

कोलम्बिया यूनिवर्सिटी में सफलता प्राप्ति के पश्चात भीमराव का ध्यान लन्दन की ओर मुड़ा क्योंकि उनके ज्ञान की पीपासा शांत नहीं हुई थी। अम्बेडकर के आग्रह पर महाराज बडौदा ने उनकी छात्रवृति की अवधि दो वर्ष के लिए और बढ़ा दी। जिससे भीमराव लंदन से शिक्षा ग्रहण कर सकें। लंदन में उन्होंने एम.एससी. (अर्थशास्त्र) में दाखिला लिया और यहाँ के विशाल पुस्तकालयों में जाकर पढ़ाई शुरू कर दी। लेकिन इसी बीच भीमराव को समाचार मिला कि उनकी छात्रवृति की अवधि समाप्त हो गई है। इससे अम्बेडकर बहुत निराश हुए। लेकिन उन्होंने प्रो. एडविन कैनन की सहायता से लन्दन यूनिवर्सिटी में अध्ययन की इजाजत ले ली। भीम बडौदा के दीवान के बुलावे पर अगस्त 1917 में अपनी प्रतिज्ञा अनुसार दस वर्ष बडौदा रियासत की सेवा करने के लिए बडौदा पहुँच गए। लेकिन वहां पर कोई भी होटल भीमराव को ठहराने के लिए राजी नहीं हुआ और न ही कोई कमरा किराए पर मिला। भीमराव ने अपना नाम बदलकर एक पारसी सराय में शरण ली। इस सराय में बिजली का प्रबंध नहीं था। इसमें चूहे और चमगादड़ भी बहुत अधिक थे। अम्बेडकर को मजबूरीवश वहीं पर रुकना पड़ा। इस प्रकार बडौदा में भीम को बड़ी मुसीबतों का सामना करना पड़ा था। महाशय जी ने इस घटना को कुछ इस प्रकार लिखा है-

इस जात-पात के भेदभाव ने बडौदा म्ह घणा सताया

ढूंढ-ढूंढ लिया टूट भीम ठहरण नै नहीं ठिकाणा पाया

हार के लिया झूठ तै काम, भीम नै बदल्या अपणा नाम

एक सराह म्ह लिया थाम, जब पारसी धर्म बतलाया।

बडौदा के कटु अनुभवों से डॉ. अम्बेडकर को बहुत दुःख हुआ। उनके मन में विचार आया कि जब उन जैसे शिक्षित एवं सुसंस्कृत व्यक्ति के साथ ऐसा व्यवहार होता है तो उन अछूत भाइयों का क्या होगा जो अनपढ़ हैं। लाचारी और विवशता के कारण अम्बेडकर वापिस मुंबई लौट आये। बम्बई आकार भीमराव कैलुस्कर से मिले। तब कैलुस्कर ने अपने मित्र प्रोफेसर जोशी को पत्र लिखा जो उस समय बडौदा में रहते थे। श्री कैलुस्कर ने भीम के उनके घर में ठहरने की व्यवस्था के लिए कहा। प्रोफेसर जोशी ने सहमति दे दी। किन्तु जब भीमराव प्रोफेसर जोशी के घर पर पहुंचे तब पति-पत्नी को उनके विषय में झगड़ते हुए पाया। इस वाकये को महाशय जी ने लिखा है-

पत्नी : नीची जात अछूत आदमी नै घर मेरे म्ह लाया क्यूं

पति  : यो लिख्या-पढ़ा विद्वान मनुष्य तनै नीच अछूत बताया क्यूं

पत्नी : नीच अछूत आदमी के दर्शन म्ह टोटा हो से

पति  :  जो दूसरे नै नीच कहे वो माणस छोटा हो से

पत्नी :  वेद शास्त्र कहें नीच का संग घणा खोटा हो से

पति  :  कर्म बताया प्रधान जगत म्ह मरहम लोटा हो से।

इस अपमान को भीमराव अम्बेडकर आजीवन नहीं भूले। हालांकि प्रोफेसर जोशी अपने प्रगतिशील विचारों के कारण जाने जाते थे। लेकिन अपनी पत्नी के सामने मजबूर थे। भीमराव निराश होकर बोम्बे लौट आए। अब उनके सामने आर्थिक समस्या भी आन पड़ी। क्योंकि आजीविका का कोई साधन नहीं रह गया था। साल दो साल भीमराव यूंही कष्टों में जीवन व्यतीत करते रहे। एक दिन भीमराव को सूचना मिली कि बोम्बे के सरकारी सिडनेहम कोलेज ऑफ़ कोमर्स एंड इकोनोमिक्स में एक प्रोफेसर की जगह रिक्त है। डॉ. भीमराव का इंटरव्यू के बाद इस कोलेज में चयन हो गया। पहले ही दिन के लेक्चर से छात्र बहुत अधिक प्रभावित हुए। भीमराव के लेक्चर की जो चर्चा छात्रों ने आपस में की उसको महाशय जी लिखते हैं-

सुणों दोस्तों अमरीका तै विद्वान आया से

सिडनेहम म्ह प्रोफेसर भीमराव बताया से

करी कोलम्बिया तै पीएच.डी. जो चार कूट म्ह नामी से

अर्थशास्त्र और राजनैतिक विज्ञान का स्वामी से

आळकस सुस्ती ना धौरे मेहनती और कामी से

वो लैक्चर म्ह हद करदे ज्ञान म्ह चट्या-चटाया से।

भीमराव ने कुछ पैसे अपने वेतन से बचाए व छत्रपति साहूजी महाराज ने भी उनकी आर्थिक मदद की। जिससे ही भीम दोबारा अपनी पढ़ाई पूरी करने लन्दन जा सके। अप्रैल 1923 में भीमराव शिक्षा पूरी करने के पश्चात भारत लौट आए। जून 1923 उन्होंने एक वकील के तौर पर काम शुरू किया। जिसमें उन्होंने अपनी योग्यता का लौहा मनवाया। भीमराव को अभी तक भारत में एक दलित नेता के रूप में भी प्रसिद्धि प्राप्त हो चुकी थी। इसी कड़ी में भीमराव अम्बेडकर ने महाड़ के चावदार तालाब से पानी पीने के लिए आन्दोलन चलाया। इस आन्दोलन में शामिल होने आए लोगों को अध्यक्षीय भाषण के दौरान जिस प्रकार समाज की कुटिलता का परिचय भीमराव ने कराया उसको महाशय जी लिखते हैं-

देख-देख के मौका धोखा धुर तै करते आए

घने पोलसीबाज, पोप, पक्के बदमाश बताए…

त्रेता युग म्ह शम्बूक संग घणा मोटा जुल्म कमाया था

रैदास कबीर भक्त चेता पे जाति आरोप लगाया था

गुरु वाल्मीकि, सबरी भीलनी नै चमत्कार दिखलाया था

काशी म्ह कालिया भंगी नै हरिचंद का धर्म बचाया था

हिन्दुओं के पोथी-पुस्तक म्ह वे भी चंडाल कहाए।

19 मार्च 1927 की रात को कांफ्रेस के पश्चात सब्जेक्ट कमेटी की बैठक हुई। जिसमें निर्णय लिया गया कि सामूहिक रूप में चावदार तालाब पर पानी लेने के लिए जाएं। 20 मार्च को बाबा साहब ने कुछ इस प्रकार लोगों का उत्साहवर्धन किया-

चलो शूरमा आज तुम्हें शुभ काम पे जाणा से

महाड़ के चावदार तालाब का पाणी लाणा से

वर्ण व्यवस्था भस्म करण ने आग बन जाओ

मतना रहो गिजाई जहरी नाग बन जाओ

कदे तक ना बुझे वो चिराग बन जाओ

सोलह करोड़ अछूतों के तुम भाग बण जाओ

ए मरदानों हंस के बीड़ा तुमने ठाना से।

भीमराव अम्बेडकर की भरपूर कोशिशों के बाद जब कम्युनल अवार्ड के द्वारा दलित वर्गों को भी मुसलमाओं, इसाइयों और सिखों की भांति अपने प्रतिनिधि चुनने का अधिकार दिया गया तब गांधी जी इसके विरोध में मरणव्रत पर बैठ गए। बाबासाहब और गांधी जी के बीच 24 सितम्बर 1932 को पूना में समझौता हुआ। जिसके बाद गांधी जी ने मरणव्रत तो तोड़ा। बाबा साहब ने गांधीजी के सम्मुख समझौते की शर्तें कुछ इस प्रकार रखी थी-

गांधी जी मेरे सवाल का उत्तर दे सही बोल के

गरीबां का हकूक इब तै बिलकुल परमानेंट लिख दो

हर वास्तु म्ह साझा बाधा पूरा एग्रीमेंट लिख दो

नौकरी सर्विस म्ह हक ट्वंटी वन परसेंट लिख दो

वायसराय, गवर्नर, डिप्टी, मेजर, लेफ्टीनेंट लिख दो

बी.ए., एम.ए. डिग्री सारी ईब तै ग्रेजुएट लिख दो

लेंडलार्ड करो इन्हीं को सख्त हुकम अर्जेंट लिख दो

इस भारत के धनमाल का हिस्सा दे तोल-मोल के।

बाबा साहब अब हर पीड़ित, दुखी जन की आवाज बनने लगे। किसानों के पश्चात बाबा साहब ने रेल मजदूरों के हकों की आवाज उठाई। एक सभा में पिछड़े वर्ग के नौजवानों को सम्बोधित करते हुए बाबा साहब कहते हैं –

अ नौजवान उठ क्या करता आराम है

इस देश का सुधार करना तेरा काम है….

खुद आप जागज्या और दुनियां को जगा दे

लड़ अहिंसा का युद्ध सत की तोप दगा दे

छुआछूत का भूत इस भारत से भगा दे

बढ़ज्या वतन की शान अपनी जान लगा दे

ये अस्पृश्यता देश के लिए इल्जाम है।

जनवरी 1945 में डॉ. अम्बेडकर कलकत्ता गए। वहां पर गरीब, मजदूर व किसानों की एकता व संघर्ष पर बल दिया। उन्होंने कहा की अपनी पार्टी ‘शेड्यूल कास्ट्स फेडरेशन’ को मजबूत बनाओ। बाबा साहब ने लोगों को इस प्रकार आश्वस्त किया-

अभिमान करण आलां के आदर घट के रहेंगे

धन और धरती भारत के म्ह बंट के रहेंगे….

कानूनों के जरिये जुल्म कमाल मिटाया जागा

बैर द्वेष देश से तुरंत फिलहाल मिटाया जागा

बेईमान माणस का गंदा ख्याल मिटाया जागा

गरीब अमीरों का भी कतई सवाल मिटाया जागा

ईब सब इंसान एक दर्जे पे डट के रहेंगे।

14 अक्तूबर 1956 को जब बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर ने नागपुर में बौद्ध धर्म स्वीकार किया। उस समय दलित जनता जिस प्रकार के जोश से लबालब होकर नागपुर की ओर बढ़ रही थी, उसका चित्रण महाशय जी करते हैं-

लाखों की तादाद चली बन भीमराव की अनुगामी

बुद्धम शरणम गच्छामि, धम्मम शरणम गच्छामि

संघम शरणम गच्छामि…..

जो बतलाया भीमराव ने सबने उसपे गौर किया

बुद्ध धर्म ग्रहण करेंगे संकल्प कठोर किया

कूच नागपुर की ओर किया निश्चय लेकर आयामी

बुद्धं शरणम्……

6 दिसम्बर 1956 जिस दिन महामानव भीमराव अम्बेडकर की मृत्यु हुई। उस दिन बाबासाहब के निजि सचिव नानक चंद रत्तू जी रोते-रोते जो कुछ कहते हैं उसको सिलाणा जी लिखते हैं –

आशाओं के दीप जला, आज बाबा हमको छोड़ चले

दीन दुखी का करके भला, आज बाबा हमको छोड़ चले…

पीड़ित और पतित जनों के तुम ही एक सहारे थे

च्यारूं कूट म्ह मातम छा गया, दलितों के घने प्यारे थे

नम आखों से अश्रु ढला, आज बाबा हमको छोड़ चले।

इस प्रकार महाशय छज्जूलाल सिलाणा ने बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर के पूरे जीवन को हरियाणवी लोक साहित्य की विधा रागनी में काव्य बद्ध किया। जिससे आमजन को भी बाबा साहब के विचारों से रूबरू होने का अवसर प्राप्त हुआ। महाशय जी का हरियाणवी लोक साहित्य के लिए भी ये अतुलनीय योगदान है। क्योंकि अभी तक इस प्रकार का किस्सा किसी भी हरियाणवी लोक रचनाकर ने नहीं रचा है। महाशय जी ने भोली दलित जनता के हृदय में स्वाभिमान, मौलिकता और आत्मविश्वास पैदा करने की कोशिश की है। अंत में कहा जा सकता है कि महाशय छज्जूलाल सिलाणा हरियाणवी लोक साहित्य में अम्बेडकरवाद के प्रवर्तक हैं।

संदर्भित पुस्तक :- महाशय छज्जूलाल सिलाणा ग्रन्थावली (2013), सं. डॉ. राजेन्द्र बड़गूजर, गौतम बुक सैंटर दिल्ली।                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                         

बंगाल : भारत विभाजन की प्रयोगशाला

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स्वाधीन भारत में जन्म लेने वाले आप और हम शायद विभाजन की विभीषिका वर्ष में एक दो बार पंद्रह अगस्त के समय याद कर लेते होंगे अथवा वो भी नहीं। परन्तु हमारा बंगाल अभी भी नहीं भुला। जी हाँ, बंगाल ! विभाजन से पहले आज के बांग्लादेश और पश्चिम बंगाल को मिलाकर बंगाल कहते थे! अंग्रेजी शासन का सबसे बड़ा ‘प्रोविंस’। 16 अक्टूबर 1905 में कर्जन ने बंगाल को दो भागों में बांटा जिसे 1908 से प्रारम्भ हुए बंग-भंग विरोधी आंदोलन के कारन वापस लेना पड़ा और 1911 में बंगाल पुनः एक हो गया। इस प्रकार अंग्रेजों का ‘फूट डालो, शासन करो’ वाला षड्यंत्र, हिन्दू-मुस्लिम जनसंख्या की बहुलता के आधार पर शासन की सुलभता के बहाने किए गए बंटवारे को जाग्रत समाज ने विफल कर दिया परन्तु सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न उठता है कि बंगभंग को विफल करने वाला समाज अगस्त 1947 में इसी बंगाल अर्थात भारत के विभाजन को क्यों नहीं रोक पाया?

भारत विभाजन में मूलतः पंजाब और बंगाल का विभाजन हुआ। भारत विभाजन की पहली प्रयोगशाला भी बना बंगाल। स्वतंत्रता से ठीक एक वर्ष पूर्व 16 अगस्त 1946 का ‘द ग्रेट कोलकाता किलिंग’ बंगाल के तत्कालीन प्रधानमंत्री और ‘बंगाल का कसाई’ नाम से कुख्यात सुरावर्दी की देखरेख में, जिन्ना, इक़बाल, और रहमत अली के सपनों को साकार करने का एक प्रयोग था। 30 जून 2007 को द टेलीग्राफ में ‘इक़बाल्स हिन्दू रिलेशन्स’ नामक प्रकाशित लेख में खुशवंत सिंह बताते हैं कि मोहम्मद इक़बाल के दादा कन्हैयालाल सप्रु एक कश्मीरी ब्राह्मण थे। यही इक़बाल, जिन्होंने ‘सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तां हमारा’ रच कर भारतीयों के ह्रदय में जगह बनाई, पृथक मुस्लिम राष्ट्र के एक वैचारिक सिद्धांतकार थे। इकबाल 21 जून 1937 को जिन्नाह को एक “निजी और गोपनीय’ पत्र में लिखते हैं “उत्तर-पश्चिम भारत और बंगाल के मुसलमानों को भारत और भारत के बाहर के अन्य राष्ट्रों की तरह अपने राष्ट्र के आत्मनिर्णय का हकदार क्यों नहीं माना जाना चाहिए? व्यक्तिगत रूप से मुझे लगता है कि उत्तर-पश्चिम भारत और बंगाल के मुसलमानों को वर्तमान में मुस्लिम अल्पसंख्यक प्रांतों की उपेक्षा करनी चाहिए। मुस्लिम बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक दोनों प्रांतों के हित में अपनाने का यह सबसे अच्छा तरीका है।” मुस्लिम लीग के जुलाई 1946 के मुंबई (बॉम्बे) अधिवेशन में जिन्ना ने कहा “अब समय आ गया है कि संवैधानिक तरीकों को छोड़ दिया जाए…. मुस्लिम राष्ट्र ‘डायरेक्ट एक्शन’ का सहारा ले।…. आज हमारे पास पिस्तौल भी है और हमलोग इसके इस्तेमाल करने की स्थिति में भी है”

जिन्नाह सही कह रहे थे। बंगाल में सुरावर्दी का शासन था और कोलकाता में रहमान अली के गुंडे थे। अंग्रेजों का तो इतना समर्थन था कि बंगाल का गवर्नर फ्रेडरिक बरोज ने कह दिया कि ‘उन्होंने दंगे की कोई खबर ही नहीं सुनी’. दस हजार से ज्यादा हिन्दुओं को मार दिया गया। घायलों और बलतकृत महिलाओं की संख्या भी हजारों में थी। सुरावर्दी पुलिस कंट्रोल रूम से सभी गतिविधियों को नियंत्रित कर रहा था। बाद में प्रशासन की उदासीनता और षड्यंत्र को समझ कर हिन्दुओं ने भी गोपाल मुखर्जी के नेतृत्व में प्रतिकार प्रारम्भ किया। अब सरकार को दंगे रोकने के लिए पुलिस भेजने की सूझी। इस प्रकार द ग्रेट कोलकाता किलिंग्स का भारत विभाजन मॉडल के एक ‘अर्द्ध सफल प्रयोग’ के रूप में अंत हुआ।

तो पहला सफल प्रयोग कौन सा था? नोआखली नरसंहार ! पद्मा और मेघना नदी के संगम स्थल पर कलकत्ता से दूर एक क्षेत्र जहां तब 81.4 प्रतिशत मुस्लिम और मात्र 18.6 प्रतिशत हिन्दू रहते थे। आज भी कुछ लोग पूछते हैं क्या हो जाएगा अगर मुस्लिमों की संख्या बढ़ जाएगी और वे बहुसंख्यक हो जाएंगे तो? इस प्रश्न का उत्तर विभाजन की विभीषिका का सबसे करूण और क्रुर अध्याय ‘आपरेशन नोआखाली’ देगा।नोआखाली को मुस्लिम लीग ने इस लिए चुना क्योंकि वो दिल्ली और कोलकाता से बहुत दूर स्थित एक मुस्लिम बहुल क्षेत्र था। नोआखाली में हिन्दुओं का आर्थिक बहिष्कार शुरू हुआ। मुस्लिम नेशनल गार्ड के सिपाही हिन्दुओं की दुकानों के सामने खड़े रहते थे। अगर कोई उनकी दुकान से कुछ खरीद लेता तो उसे सजा दी जाती थी। हिन्दूओं के घरों में गोमांश दे जाना, बलपूर्वक खाने को बाध्य करना, लड़कियों और महिलाओं का अपहरण कर निकाह करवा देने, जैसी मध्यकालीन कबीलाई बर्बरता के साथ-साथ इस प्रयोग को सफल करने का मुख्य दायित्व भूतपूर्व मुस्लिम सैनिकों को दी गई थी जिन्होंने सेना की रणनीतिक प्रशिक्षण के अनुभव के आधार पर नरसंहार की योजना बनाई थी। हिन्दू वहां से भाग न पाए इसलिए रास्ते खोद कर, नहरों और नदियों में गस्त लगा कर तथा अन्य माध्यमों से बहार के लोगो से पूर्णतः संपर्क काट दिया गया था। (22 अक्टूबर 1946, अमृत बाजार पत्रिका) . इस प्रकार एक सुनियोजित तरीके से नोआखली के अल्पसंख्यक हिन्दुओं को मार कर ऑपरेशन नोआखली सफल किया गया। आगे के दिनों में हम देखते हैं मुस्लिम लीग यही मॉडल प्रस्तावित पाकिस्तान के सभी भागों में लागु करती है और इस प्रकार वो कांग्रेस को भय तथा ख़राब भविष्य की चिंता से ग्रस्त करने के दुष्चक्र रचती है। अंग्रेज भी इन रक्पातों का दोष अपने पर नहीं लेना चाह रहे थे। अन्य सभी राजनैतिक तथा वैश्विक परिस्थितयों के साथ-साथ ये भी एक कारण था कि भारत का विभाजन समय से पूर्व ही कर दिया गया। बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर और सरदार पटेल जैसे नेता भी ‘एक्सचेंज ऑफ़ पापुलेशन’ और ‘भारत विभाजन’ के समर्थन में अपने विचार व्यक्त किए थे।

भारत विभाजन पर बहुत चर्चा होती है परन्तु प्रस्तावित पाकिस्तान के विभाजन पर बहुत कम चर्चा प्रबुद्ध समाज में होती है। जिन्ना की द्विराष्ट्र सिद्धांत और मुस्लिम लीग के योजना के अनुसार बंगाल और उत्तर पश्चिम भारत के मुस्लिम बहुल प्रदेशों को मिला कर अलग मुस्लिम देश पाकिस्तान का गठन होना था। इस पर मुस्लिम लीग, कांग्रेस और ब्रिटिश सरकार तीनों एकमत हो गए थे। इसी बीच सुहरावर्दी ने देखा कि अगर बंगाल का विभाजन होता है तो यह पूर्वी बंगाल के लिए आर्थिक रूप से बहुत खतरनाक सिद्ध होगा क्योंकि अधिकांश जूट मील, कोयले की खदाने ,महत्वपूर्ण उद्योग सभी पश्चिम बंगाल में रह जायेंगे। तब उसने शरत चंद्र बोस और कुछ प्रतिष्ठित राजनीतिज्ञों के साथ विभाजन का एक नया विकल्प सुझाया : अखंड और स्वतंत्र बंगाल !

1941 की जनगणना के अनुसार बंगाल में 53.4 % और 41.7% हिन्दू थे। बंगाल मुस्लिम बहुल प्रदेश था। यहाँ की हिन्दू जनता ‘द ग्रेट कोलकाता किलिंग्स’ और ‘नोआखली नरसंहार’ की बर्बरता को भूली नहीं थी। इन नरसंहारों के नायक सुहरावर्दी का यह प्रस्ताव अधिकांश लोगों को पसंद ही नहीं आया। हिन्दू महासभा के नेता डॉ श्यामा प्रसाद मुख़र्जी और कई नेताओं ने इस प्रस्ताव के विरुद्ध मोर्चा खोल दिया। डॉ मुख़र्जी ने वायसराय को पत्र लिखा। “अगर पिछले दस वर्षों में बंगाल के प्रशासन का निष्पक्ष सर्वेक्षण किया जाता है, तो ऐसा प्रतीत होगा कि हिंदुओं ने न केवल सांप्रदायिक दंगों और अशांति के कारण, बल्कि राष्ट्रीय गतिविधियों के हर क्षेत्र में, शैक्षणिक, आर्थिक, राजनीतिक और यहां तक ​​​​कि धार्मिक आधार पर भी प्रताड़ना झेला हैं।”
उन्हें समाज के विभिन्न वर्गों से भी समर्थन प्राप्त हुआ। कांग्रेस, वामपंथी नेताओं सहित विभिन्न क्षेत्रों में प्रतिष्ठित बंगाली ‘भद्रोलोक’ का भी समर्थन मिला। यह मूहिम संपूर्ण हिन्दू समाज का था जिसके एक अंश तथा मुख थे डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी। हिन्दू वामपंथी नेता भी कोलकाता किलिंग्स की घटना के बाद अंदर तक दहल ग‌ए थे जब उन्होंने मुस्लिम कामरेडों के द्वारा न्यूअलिपुर में अपने ही हिन्दू कामरेडों की बर्बर हत्या देखी। आम जनता भी बंगाली हिन्दु होमलैंड के पक्ष में थी। अंततः प्रस्तावित पाकिस्तान की सीमा निर्धारित होने से पूर्व ही 20 जुन 1947 को यह निश्चय हो गया कि अगर मुस्लिम राष्ट्र बनता है तो पश्चिम बंगाल पाकिस्तान का हिस्सा नहीं होगा। बाद में बंगाल से अलग हुआ हिस्सा पूर्वी पाकिस्तान कहलया जो 1971 के बाद पाकिस्तान से स्वतंत्र हो कर बांग्लादेश बना। आज 1946 के लक्ष्मी पूजा की रात को मजहबी नारों के साथ अल्पसंख्यक हिंदुओं की हत्या का साक्षी
नोआखली बांग्लादेश में और कोलकाता भारत में है!!

राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के तहत चार वर्षीय बी.ए. हिंदी पाठ्यक्रम

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उत्तर प्रदेश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के तहत चार वर्षीय बी.ए. हिंदी पाठ्यक्रम 2021-2022

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PROGRAMME SPECIFIC OUTCOMES

बी. ए. प्रथम वर्ष प्रथम सेमेस्टर के ‘हिंदी काव्य’ प्रश्नपत्र के अंतर्गत भारतीय ज्ञान परंपरा में हिंदी साहित्य के विभिन्न कालों के प्रतिनिधि कवियों की कविताओं के विषय में जानकारी देना तथा हिंदी काव्य के इतिहास की संक्षिप्त जानकारी देकर विद्यार्थियों को हिंदी कविता के विकास क्रम से अवगत कराना।

बी. ए. प्रथम वर्ष द्वितीय सेमेस्टर के ‘कार्यालयी हिंदी और कम्प्यूटर’ प्रश्नपत्र के अंतर्गत हिंदी के विद्यार्थियों को कार्यालय के कार्यों की मूलभूत जानकारी प्रदान करना ताकि वे कार्यालय के समस्त कार्यों को सुगमतापूर्वक कर सकें एवं उन्हें कम्प्यूटर का मूलभूत ज्ञान देकर कम्प्यूटर पर हिंदी में कार्य करने में सक्षम बनाना ताकि वे समुचित रोज़गार प्राप्त कर सकें।

बी. ए. द्वितीय वर्ष तृतीय सेमेस्टर के ‘हिंदी गद्य’ प्रश्नपत्र के अंतर्गत विद्यार्थियों को हिंदी गद्य की सभी विधाओं का सम्यक ज्ञान देना तथा उन्हें हिंदी के प्रतिनिधि उपन्यासकारों, कथाकारों, नाटककारों, एकांकीकारों, निबंधकारों एवं अन्य गद्य विधाओं के लेखकों के महत्त्वपूर्ण प्रदेय से परिचित कराना, ताकि विद्यार्थी इन सभी विधाओं से परिचित हो सकें और इस क्षेत्र में करियर बनाने के इच्छुक विद्यार्थी को इस हेतु तैयार करना ।

बी. ए. द्वितीय वर्ष चतुर्थ सेमेस्टर के ‘हिंदी अनुवाद’ प्रश्नपत्र के अंतर्गत विद्यार्थियों को हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी की प्रारंभिक जानकारी प्रदान करते हुए उन्हें वैश्विक प्रतिस्पर्धात्मक वातावरण के साथ सामंजस्य स्थापित करने में सक्षम बनाना तथा भारतीय संस्कृति और साहित्य के वैश्विक प्रचार प्रसार में सहायक बनाना और इस क्षेत्र में करियर बनाने के इच्छुक विद्यार्थी को इस हेतु तैयार करना।

बी.ए. तृतीय वर्ष पंचम सेमेस्टर सेमेस्टर के प्रथम प्रश्नपत्र ‘साहित्यशास्त्र और हिंदी आलोचना’ के अंतर्गत विद्यार्थी को साहित्यशास्त्र एवं आलोचना के अर्थ, महत्व और विषय क्षेत्र से परिचित कराना तथा उन्हें हिंदी आलोचना के रूप में भारतीय एवं पाश्चात्य काव्यशास्त्र के आधुनिक विकास के विविध रूपों और दिशाओं का साक्षात्कार कराना |

बी.ए. तृतीय वर्ष पंचम सेमेस्टर सेमेस्टर के द्वितीय प्रश्नपत्र ‘हिंदी का राष्ट्रीय काव्य’ के अंतर्गत हिंदी साहित्य एवं सिनेमा की राष्ट्रीय काव्य चेतना से जुड़े कवियों की रचनाओं के माध्यम से विद्यार्थियों में राष्ट्र के प्रति अनुराग जाग्रत करना और उन्हें भारतीय संस्कृति की विशिष्टता और महानता के विविध पक्षों से अवगत कराना और इस क्षेत्र में करियर बनाने के इच्छुक विद्यार्थी को इस हेतु तैयार करना।

बी. ए. तृतीय वर्ष षष्ठ सेमेस्टर सेमेस्टर के प्रथम प्रश्नपत्र ‘भाषा विज्ञान, हिंदी भाषा तथा देवनागरी लिपि’ के अंतर्गत विद्यार्थियों को भाषा के अंगों, हिंदी भाषा के उद्भव तथा विकास और देवनागरी लिपि के स्वरूप की जानकारी कराना एवं उन्हें हिंदी की वैज्ञानिक एवं संवैधानिक स्थिति से परिचित कराना।

बी. ए. तृतीय वर्ष षष्ठ सेमेस्टर सेमेस्टर के द्वितीय प्रश्नपत्र ‘लोक साहित्य एवं लोक संस्कृति के अंतर्गत भारतीय संस्कृति में जनश्रुति से निर्मित साहित्य के महत्वपूर्ण योगदान से विद्यार्थियों को परिचित कराना तथा लोक संस्कृति के विकास क्रम से विद्यार्थियों को अवगत कराना।

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बीए प्रथम वर्ष: प्रथम सत्र

हिंदी काव्य (कोड: A010101T)

Course outcomes:

हिंदी काव्य के प्रतिनिधि कवियों की कविताओं के विषय में जानकारी देना तथा हिंदी काव्य के संक्षिप्त इतिहास की जानकारी देकर विद्यार्थियों को हिंदी कविता के विकास क्रम से अवगत कराना ।

भारतीय ज्ञान परंपरा के अंतर्गत आदिकालीन एवं मध्यकालीन हिंदी काव्य का इतिहास : इतिहास लेखन की परंपरा एवं विकास:

भारतीय ज्ञान परंपरा और हिंदी साहित्य, हिंदी साहित्य का काल विभाजन, नामकरण एवं साहित्यिक प्रवृत्तियाँ । सिद्ध साहित्य, जैन साहित्य, रासो साहित्य, नाथ साहित्य और लौकिक साहित्य| भक्ति आंदोलन के उदय के सामाजिक एवं सांस्कृतिक कारण,भक्तिकाल के प्रमुख संप्रदाय और उनका वैचारिक आधार, निर्गुण और सगुण कवि और उनका काव्य । रीति काल की सामाजिक, सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, नामकरण, प्रवृत्तियाँ एवं परिप्रेक्ष्य । रीतिकालीन साहित्य के प्रमुख भेद (रीतिबद्ध, रीतिसिद्ध, रीति मुक्त, प्रमुख कवि और उनका काव्य) ।

आधुनिक कालीन काव्य का इतिहास :

सामाजिक, सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, नामकरण एवं प्रवृत्तियाँ, 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम और पुनर्जागरण, हिंदी नवजागरण, भारतेंदु युग, द्विवेदी युग एवं छायावाद की प्रवृत्तियाँ एवं अवदान । उत्तर छायावाद की विविध वैचारिक प्रवृत्तियाँ, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, नई कविता, समकालीन कविता, एवं उनकी रचनाएँ और साहित्यिक विशेषताएँ। प्रमुख कवि

आदिकालीन कवि :

विद्यापति :

(विद्यापति पदावली – संपा. : आचार्य रामलोचन शरण)

क. राधा की वंदना, ख. श्रीकृष्ण प्रेम (35), ग. राधा प्रेम – ( 36 )

गोरखनाथ :

(गोरखबानी : संपादक पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल गोरखबानी सबदी (संख्या 2,4,7,8,16), पद (राग रामश्री 10, 11)

अमीर खुसरो :

(अमीर खुसरो – व्यक्तित्व एवं कृतित्व : डॉ. परमानन्द पांचाल) कव्वाली – घ (1), गीत-ड़ (4), (13), दोहे – च (पृष्ठ 86 ), 05 दोहे – गोरी सोवे,खुसरो रैन,देख मैं, चकवा चकवी, सेज सूनी|

भक्तिकालीन निर्गुण कवि :

कबीर :

(कबीरदास – संपा. श्यामसुंदर दास)

क. गुरुदेव को अंग -01, 06, 11, 17, 20 ख – बिरह कौ अंग – 04, 10, 12, 20, 33

मलिक मोहम्मद जायसी :

(मलिक मोहम्मद जायसी – संपा. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल)

मानसरोदक खंड (01 से 06 पद तक)

भक्तिकालीन सगुण कवि :

सूरदास :

(भ्रमरगीत सार-संपा. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल)

(पद संख्या 07, 21, 23, 24, 26)

गोस्वामी तुलसीदास :

(श्रीरामचरित मानस-गोस्वामी तुलसीदास, गीता प्रेस गोरखपुर)

अयोध्या काण्ड-दोहा संख्या 28 से 41

रीतिकालीन कवि:

केशवदास :

(कविप्रिया ( प्रिया प्रकाश ) – लाला भगवानदीन)

तृतीय प्रभाव – 1, 2, 4, 5

बिहारीलाल :

(बिहारी रत्नाकर – जगन्नाथ दास रत्नाकर)

प्रारंभ के 10 दोहे

घनानंद :

(घनानंद ग्रन्थावली-संपा., विश्वनाथ प्रसाद मिश्र) सुजानहित- 1, 4, 7

आधुनिककालीन कवि :

भारतेंदु हरिश्चंद्र : मातृभाषा प्रेम पर दोहे, रोकहूँ जो तो अमंगल होय, ब्रज के लता पता मोहि कीजे

जयशंकर प्रसाद : कामायनी के श्रद्धा सर्ग के प्रथम दस पद, आंसू के प्रथम पांच पद

सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ : वर दे वीणा वादिनि वर दे, तुलसीदास (प्रारंभ के दस पद), वह तोड़ती पत्थर

सुमित्रानंदन पन्त : मौन निमंत्रण, प्रथम रश्मि, यह धरती कितना देती है

महादेवी वर्मा : बीन हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ, फिर विकल हैं प्राण मेरे, यह मन्दिर का दीप इसे नीरव जलने दो

छायावादोत्तर कवि और हिंदी साहित्य में शोध :

अज्ञेय : नदी के द्वीप, नया कवि : आत्म स्वीकार, नंदा देवी – 6 (नंदा बीस तीस- एक मरु दीप)

नागार्जुन : अकाल और उसके बाद, बादल को घिरते देखा है

धर्मवीर भारती : बोआई का गीत, कविता की मौत (दूसरा सप्तक, सम्पादक अज्ञेय)

शमशेर : 1 बात बोलेगी हम नहीं, भेद खोलेगी बात ही 2 काल तुझसे होड़ है मेरी (कविता)

दुष्यंत: 1 हो गयी है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए,

2 तो तय था चिरागा हर एक घर के लिए।

सन्दर्भ ग्रन्थः

1. डॉ. नगेंद्र, (संपा.), हिंदी साहित्य का इतिहास, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, 1976

2. बच्चन सिंह, हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, 1996 3. शुक्ल, रामचंद्र, हिंदी साहित्य का इतिहास, लोक भारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2019

4. तिवारी, रामचंद्र, हिंदी गद्य का इतिहास, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, 1992

5. चतुर्वेदी, रामस्वरूप, हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2019 6. सिंह, नामवरआधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियाँ, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2011

7. ओझा, डॉ. दुर्गाप्रसाद एवं राय डॉ. अनिल, छायावादोत्तर काव्य प्रतिनिधि रचनाएं, प्रकाशन केंद्र, लखनऊ,

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8. ओझा, डॉ. दुर्गाप्रसाद, आधुनिक हिंदी कविता, प्रकाशन केंद्र, लखनऊ, 2011

9. ओझा, डॉ. दुर्गाप्रसाद एवं कुमार, डॉ. राजेश, आधुनिक काव्य प्रतिनिधि रचनाएँ, प्रकाशन केंद्र, लखनऊ, 2014

10. द्विवेदी, हजारी प्रसाद, हिंदी साहित्य का आदिकाल, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना, 1961, तृतीय संस्करण

11.भटनागर, डॉ. रामरतन, प्राचीन हिंदी काव्य, इंडियन प्रेस लिमिटेड, प्रयाग, 1952

12.द्विवेदी, हजारी प्रसाद, हिंदी साहित्य की भूमिका, हिंदी ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, मुम्बई, 1940

13. श्रीवास्तव, डॉ. रणधीर, विद्यापति : एक अध्ययन, भारतीय ग्रन्थ निकेतन, नयी दिल्ली, 1991

14.सिंह, डॉ. शिवप्रसाद, विद्यापति, हिंदी प्रचारक पुस्तकालय, वाराणसी, 1957

15.वर्मा, रामकुमार, संत कबीर, साहित्य भवन लिमिटेड, इलाहाबाद, 1943

16. द्विवेदी, हजारी प्रसाद, कबीर, हिंदी ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, मुम्बई, 1946

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18. वर्मा, रामलाल, जायसी: व्यक्तित्व एवं कृतित्व, भारतीय ग्रंथ निकेतन, दिल्ली 1979

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22. वाजपेयी नन्ददुलारे, सूर संदर्भ, इंडियन प्रेस लिमिटेड, प्रयाग

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24. दीक्षित राजपति, तुलसीदास और उनका युग, ज्ञानमंडल लिमिटेड, वाराणसी, 1953

25.सिन्हा डॉ. अरविन्द नारायण, विद्यापति : युग और साहित्य, विनोद पुस्तक मन्दिर, आगरा

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27.चतुर्वेदी रामस्वरूप, हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली

28. त्रिगुणायत गोविन्द, कबीर की विचारधारा, साहित्य निकेतन, कानपुर

29.उपाध्याय विशम्भर नाथ,सूर का भ्रमरगीत : एक अन्वेषण, विनोद पुस्तक मन्दिर, आगरा

30. किशोरीलाल, घनानन्द : काव्य और आलोचना, साहित्य भवन, इलाहाबाद

31.भटनागर रामरतन, केशवदास : एक अध्ययन, किताब महल, इलाहाबाद, 1947

32.शर्मा किरणचन्द्र, केशवदास : जीवनी, कला और कृतित्व, भारती साहित्य मन्दिर, दिल्ली, 1961

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34. शर्मा, रामविलास, निराला की साहित्य साधना, भाग-2, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, 1981, द्वितीय

संस्करण

35.गौड़, राजेंद्र सिंह, आधुनिक कवियों की काव्य साधना, श्रीराम मेहता एंड संस, आगरा, 1953

36. सक्सेना, द्वारिका प्रसाद, हिंदी के आधुनिक प्रतिनिधि कवि, विनोद पुस्तक मन्दिर, आगरा

37. कुमार विमल, छायावाद का सौन्दर्यशास्त्रीय अध्ययन, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली,

38. तिवारी, भोलानाथ, प्रसाद की कविता, साहित्य भवन, प्रयागराज

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40. शर्मा, रमेश, पन्त की काव्य साधना, साहित्य निकेतन, कानपुर

41. तिवारी, विश्वनाथ प्रसाद, समकालीन हिंदी कविता, राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली

42.चतुर्वेदी, रामस्वरूप, अज्ञेय का रचना संसार, राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली

43.सिंह, विजयबहादुर, नागार्जुन का रचना संसार, सम्भावना प्रकाशन, हापुड़, 1982

44. अष्टेकर, कटघरे का कवि धूमिल, पंचशील प्रकाशन, जयपुर

45. नवल, नंदकिशोर, मुक्तिबोध, साहित्य अकादेमी, नयी दिल्ली

46. त्रिपाठी, डॉ. हंसराज, आत्मसंघर्ष की कविता मुक्तिबोध, मानस प्रकाशन, प्रतापगढ़

47. सिंह, शम्भूनाथ, छायावाद युग, सरस्वती मन्दिर प्रकाशन, वाराणसी, 1962

48. अज्ञेय, दूसरा सप्तक, प्रगति प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रतीक प्रकाशन माला, 1951

49.सिंह, डॉ, उदयप्रताप, नाथ पंथ और गोरखबानी, आर्यावर्त्त संस्कृति संस्थान, दिल्ली, 2001

50. डॉ. प्रेमशंकर, प्रसाद का काव्य

51. डॉ. रामविलास शर्मा, निराला की साहित्य साधना, भाग 1, 2, 3, 4

महात्मा गाँधी की पुस्तक ‘हिन्द स्वराज’ की प्रासंगिकता-अमन कुमार

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man in black jacket standing on pathway between bare trees
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महात्मा गाँधी की पुस्तक ‘हिन्द स्वराज’ की प्रासंगिकता

अमन कुमार

पीएच.डी(शोधार्थी)

(गुजरात केन्द्रीय विश्वविद्यालय)

मो. 931270598

ई.मेल- aman1994rai@gmail.com

सारांशः- 2 अक्टूबर 2021 को महात्मा गांधी जी की 152 वीं जन्म दिवस मनाई जाएगी । लिहाजा इस हिसाब से बापू की रचना हिंद स्वराज की प्रासंगिकता पर चर्चा करना अनिवार्य हो जाता हैं । महात्मा गांधी जी ने अपनी पुस्तक ‘हिंद स्वराज’ को भारत आने से काफी वर्ष पूर्व लिखा था । बापू ने यहां पुस्तक भारत के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक स्थिति को ध्यान में रखकर लिखा था। मुझे तो यह लगता है, कि प्रत्येक भारतवासी को यह पुस्तक अवश्य पढ़नी चाहिए। बापू ने अपनी पुस्तक को विभिन्न अध्यायों में विभाजित कर भारत की तमाम समस्याओं का समाधान इस पुस्तक में दिया हैं । बापू इस पुस्तक के माध्यम से कहीं ना कहीं एक आदर्श भारत, एक आदर्श समाज, एक आदर्श व्यक्ति और एक आदर्श व्यक्तित्व की निर्मिति चाहते हैं । इस पुस्तक के अध्ययन से हम बापू की दूरदर्शिता से भी वाकिफ होंगे । यह पुस्तक एक व्यक्ति के संपूर्ण विकास हेतु महत्वपूर्ण दस्तावेज है । बापू के जन्मदिवस पर प्रत्येक भारतीय को यह अवश्य विचार करना चाहिए कि क्या हम ऐसे भारत का निर्माण कर पाए? जिसकी कल्पना पूज्य बापू ने की थी?

बीज शब्दः- हिन्द स्वराज, राजनैतिक-सार्वजनिक, अशांति और असंतोष, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, कांग्रेस और उसके कर्ता-धर्ता, सनातन भारतीय सभ्यता, शांति एवं सुव्यवस्था, हिन्दू-मुस्लिम संबंधों, सांस्कृतिक परिष्कार, वसुधैव कुटुम्बकम, देश-काल, आधुनिक प्रजातंत्र,

भूमिकाः- भारत को स्वतंत्रता दिलाने में जिन लोगों का नाम लिया जाता है उनमें महात्मा गाँधी अग्रणी है। हिंदी ही नहीं अपितु सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में जिस व्यक्ति पर सबसे अधिक लिखा गया उनमें महात्मा गाँधी का नाम महत्वपूर्ण है। महात्मा गाँधी ने स्वयं भी अपने साठ वर्षो के व्यस्ततम राजनैतिक-सार्वजनिक जीवन के बीच विपुल साहित्य रचा। उनका यह साहित्य उनके लेखों, बयानों, भाषणों और पत्रों में फैला है। उनकी व्यवस्थित रचनाएँ है ‘हिन्द स्वराज’, ‘आत्मकथा’, अथवा ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’ तथा ‘दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास’ है। इनमें से ‘हिन्द स्वराज’ सबसे लोकप्रिय और प्रासंगिक पुस्तक है। यह पुस्तक महात्मा गाँधी के सक्रिय सार्वजनिक जीवन की प्रारंभिक कृतियों में से एक है। ‘हिन्द स्वराज को महात्मा गाँधी की सम्पूर्ण रचनाओं का सर कहा जा सकता है दूसरे शब्दों में यह पुस्तक महात्मा गाँधी के विचारों का दर्पण है।

‘हिन्द स्वराज’ का महत्व गांधीवाद के लिए लगभग वैसा ही है जैसा मार्क्सवाद के लिए कम्युनिस्ट पार्टी के घोषणा पत्र का। सन् 1909 में लन्दन से दक्षिण अफ्रीका की वापसी की यात्रा में मूलतः गुजराती में लिखी इस पुस्तक का प्रकाशन आधुनिक भारतीय इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना है । सर्वप्रथम यह ‘इंडियन ओपिनियन’ के गुजराती संस्करण में दो लेखों में प्रकाशित हुआ। 1910 में सरकार ने इसे खतरनाक मानते हुए जब्त कर लिया। उसी वर्ष गाँधीजी ने इसका अनुवाद अंग्रेजी में प्रस्तुत किया और तब से लेकर आज तक यह पुस्तक प्रासंगिक बनी हुई है। महात्मा गाँधी ने ‘हिन्द स्वराज’ के विषय में 1921 के ‘यंग इंडिया’ के गुजराती अनुवाद में लिखा कि “यह बालक के हाथ में भी दी जा सकती है। यह द्वेष-धर्म की जगह प्रेम-धर्म सिखाती है; हिंसा की जगह आत्म-बलिदान को रखती है; पशुबल से टक्कर लेने के लिए आत्मबल को खड़ा करती है; इसकी अनेक आवृत्तियाँ हो चुकी हैं; और जिन्हें इसे पढने की परवाह है उनसे इसे पढने की मैं जरुर सिफारिश करूँगा..।”1

इस प्रदत्त पत्र में मैं ‘हिन्द स्वराज’ पुस्तक के अध्यायों की चर्चा करते हुए इस पुस्तक की प्रासंगिकता पर विचार करूँगा। ‘हिन्द स्वराज’ पुस्तक के प्रथम तीन अध्यायों में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस तथा भारतीय जन जागरूकता का जिक्र आया है। पहले अध्याय का शीर्षक ‘कांग्रेस और उसके कर्ता-धर्ता’ है। इस अध्याय में गांधीजी अपनी दृष्टी में आम-आदमी व लोकपक्ष का तर्क प्रस्तुत करते हैं । ‘हिन्द स्वराज’ का दूसरा अध्याय ‘बंग-भंग’ एवम् तीसरे अध्याय ‘अशांति और असंतोष’ आपस में जुड़ा हुआ है। दूसरे अध्याय में अंग्रेजी हुकूमत द्वारा बंगाल का बंटवारा (1905) और तीसरे अध्याय में बंग-भंग के बारे में अंग्रेज सरकार के निर्णय के उपरांत पूरे देश और खासकर बंगाल में पैदा हुए “अशांति और असंतोष” के बारे में अपना विश्लेषण प्रस्तुत किया है। हिन्द स्वराज के दूसरे अध्याय में ‘बंग-भंग’ के बारे में गाँधीजी कहते हैं, “स्वराज के बारे में सही जागृति के दर्शन बंग-भंग से हुई।…प्रजा एक दिन में नहीं बनती, उसे बनाने में कई बरस लग जाते हैं।”2 तीसरे अध्याय में बंगाल विभाजन के परिणाम स्वरूप उपजे अशांति एवं असंतोष के बारे में अपने विश्लेषण में गाँधीजी कहते हैं कि नींद और जागने की प्रक्रिया में अंगडाई की स्थिति स्वाभाविक होती है ठीक उसी प्रकार गुलामी की प्रक्रिया में सुप्त चेतना और आत्म चेतना के बीच अशांति और असंतोष भी स्वाभाविक है। गाँधीजी ने इस अशांति और असंतोष को समाज के विकास के लिए जरूरी माना। उनका मानना था कि अशांति और असंतोष उसी समाज में होगा जो अपनी यथा-स्थिति से खुश नहीं होगा और अपने भीतर किसी प्रकार सकारात्मक बदलाव चाहता होगा। अर्थात अशांति और असंतोष की भी समाज के विकास में बड़ी भूमिका है गाँधी जी के यह विचार इतने प्रासंगिक हैं कि किसी भी देश-काल में विश्व की किसी भी सभ्यता के समाज पर लागू किए जा सकते हैं।

अध्याय चार, ‘स्वराज क्या है?’ इस अध्याय से हिन्द स्वराज का असली असली घोषणापत्र शुरू होता है। इस अध्याय में गाँधीजी स्वराज का अर्थ एवं प्रकृति समझते हैं। उनका कहना है कि यह समझना बहुत आवश्यक है कि इस देश से अंग्रेजों क्यों निकाला जाना चाहिए। गाँधी जी कहते हैं कि कुछ लोग अंग्रेजों को तो इस देश से भगाना चाहते हैं परंतु वे अंग्रेजी राज और अंग्रेज़ी राज के विधान में कोई बुराई नहीं देखते। गाँधीजी ने स्वराज के सही अर्थ को इस अध्याय में स्पष्ट किया है। इस अध्याय को पढ़ कर स्वराज की जो विस्तृत परिकल्पना स्पष्ट होती है जो बहुत शुद्ध और विराट है। गाँधीजी जिस स्वराज की तस्वीर सामने रखते हैं वह स्वशासन से पूर्व व्यक्ति के आत्मिक परिष्कार की मांग करता है। ऐसा स्वराज भारत में आज भी प्रासंगिक है।

आधुनिक औद्योगिक सभ्यता की मीमांसा अध्याय पांच और छः में की गई है। अपनी कल्पना के स्वराज की चर्चा गाँधीजी हिन्द स्वराज के पांचवें अध्याय में करते हैं। जिसका शीर्षक है- ‘इंग्लैंड की हालत’। गांधीजी कहते हैं कि इंग्लैंड में जो राज्य चलता है वह ठीक नहीं है और हमारे लायक नहीं है। इंग्लैंड की संसद तो बांझ और वेश्या है। वास्तव में इस अध्याय में अंग्रेजी राज के विधान को अपने तर्क से नकारते हैं। इस अध्याय में गाँधीजी ने आधुनिक प्रजातंत्र की संसदीय प्रणाली की सही और कटु आलोचना प्रस्तुत की है। इस आलोचना का महत्व समकालीन भारतीय संदर्भ में और भी बढ़ गया है। गाँधीजी के संसदीय व्यवस्था पर किए गये विचार आज भारत में बहुत प्रासंगिक हैं।

छठे अध्याय का शीर्षक है- ‘सभ्यता का दर्शन’। इस अध्याय का सैद्धान्तिक आधार एक ओर सनातन भारतीय सभ्यता की उनकी समझ है जो मूलतः गाँधीजी की व्यक्तिगत अनुभूतियों पर आधारित हैं तो दूसरी ओर यह प्लेटो, रस्किन, थोरो और टाल्सटाय की रचनाओं से प्रभावित है। भारतीय दृष्टि से यूरोपीय सभ्यता की प्रारम्भिक सैद्धान्तिक आलोचना है। आधुनिक सभ्यता की इतनी सटीक, इतनी कटु, इतनी सरल भाषा में और इतनी कलात्मक आलोचना अन्यत्र दुर्लभ है। पश्चिम की सभ्यता की जिन खामियों को गाँधीजी ने अपने समय में ही पहचान लिया था। आज उन्हीं खामियों की वजह से भारत अपनी अस्मिता पर, संस्कृति पर संकट महसूस कर रहा है। गाँधीजी के यह विचार आज बहुत प्रासंगिक हो चुके हैं।

‘हिन्दुस्तान कैसे गया?’ का वर्णन अध्याय सात में है। सातवें अध्याय में गाँधीजी पिछले अध्याय के तर्क को आगे बढ़ाते हैं। इस अध्याय का शीर्षक में गाँधीजी ने स्पष्ट किया कि – “हम अपनी पारम्परिक संस्कृति की आन्तरिक कमियों या समाज व्यवस्था की रणनीतिक कमजोरियों के कारण या अंग्रेजी संस्कृति की आन्तरिक शक्ति या उनकी समाज व्यवस्था की आन्तरिक गुणवत्ता के कारण नहीं हारें हैं बल्कि हमारे प्रभुत्व वर्ग और उभरते हुए मध्य वर्ग के लोभ और लालच के कारण बिना संघर्ष किये एक स्वैच्छिक समझौते के तहत हारे हैं।”3 अंग्रेजी राज एक अनैतिक एवं चालबाज सभ्यता की उपज है जो लोभ, लालच और अनैतिक समझौतों का प्रचार करती है और एक साजिश के तहत हमारे शासक एवं व्यापारी वर्ग को रिझाकर अपना उल्लू सीधा करती है। गाँधीजी उस समय उपनिवेशवाद की जिन खामियों को इंगित कर रहे थे वह खामियां आज के इस नवउपनिवेशवादी युग में अत्यंत प्रासंगिक है।

गाँधीजी का मानना था कि अंग्रेजों को यहाँ लाने वाले हम ही हैं और वे हमारी बदौलत ही यहाँ रहते हैं। हमने उनकी सभ्यता अपनायी है, इसलिए वे यहाँ रह रहे हैं। जिस दिन एक देश के रूप में हिन्दुस्तान का स्वाभिमान जाग गया और हमने उनकी शैतानी सभ्यता का आकर्षण त्याग दिया उसी क्षण हमें गुलामी से आजादी मिल जायेगी। वास्तव में इस अध्याय में हिन्दुस्तान अंग्रेजों के हाथ में क्यों है, इसकी सूक्ष्म व्याख्या की गई है। इस अध्याय में गाँधीजी ने भारत के लोगों की जिन कमजोरियों और लालच को इंगित किया है वह आज भारतीय समाज में चरम पर है पश्चिमी सभ्यता ने आज भारत को अपने रंग में पूरी तरह रंग दिया है जिसने भारतीय सभ्यता को पूर्णतः बिगाड़ कर रख दिया है।

आठ से ग्यारह तक गाँधीजी हिन्दुस्तान की दशा की व्याख्या करते हैं। अध्याय आठ में गाँधीजी कहते हैं कि ‘आज हिन्दुस्तान की रंक (कंगाल) दशा है। हिन्दुस्तान अंग्रेजों से नहीं, बल्कि आजकल की सभ्यता से कुचला जा रहा है, उसकी चपेट में वह फंस गया है। उसमें से बचने का अभी भी उपाय है, लेकिन दिन-ब-दिन समय बीतता जा रहा है। मुझे तो धर्म प्यारा है। हिन्दुस्तान धर्मभ्रष्ट होता जा रहा है। धर्म का अर्थ मैं यहां हिन्दू, मुस्लिम या जरथोस्ती धर्म नहीं करता। लेकिन इन सब धर्मों के अंदर जो धर्म है वह हिन्दुस्तान से जा रहा है। हम ईश्वर से विमुख होते जा रहें हैं। धर्म से विमुखता गाँधीजी की पहली चिन्ता है। दूसरी चिन्ता गाँधीजी की यह है कि आधुनिक लोग हिन्दुस्तान पर यह तोहमत लगाते हैं कि हम आलसी हैं और गोरे लोग मेहनती और उत्साही हैं। गाँधीजी आगे कहते हैं कि हिन्दुस्तानी लोगों ने इस झूठी तोहमत को सच मान लिया है और आधुनिक मानदंडो पर खरा उतरने के लिए अनावश्यक रूप से गलत दिशा में प्रयत्नशील हो गये हैं। हिन्दू, मुस्लिम, जरथोस्ती, ईसाई सब धर्म सिखाते हैं कि हमें दुनियावी बातों के बारे में मंद और धार्मिक (दीनी) बातों के बारे में भी उत्साही रहना चाहिए। हमें अपने सांसारिक लोभ, लालच और स्वार्थ की हद (सीमा) बांधनी चाहिए और आत्म विकास एवं सांस्कृतिक परिष्कार पर ज्यादा ध्यान केंद्रित करना चाहिए। गाँधीजी बल देकर कहते हैं कि जैसे पाखंड आधुनिक सभ्यता में पाया जाता है उसकी तुलना में सभी धर्मों में पाया जाने वाला व्यवहारिक पाखंड कम खतरनाक और कम दुखदायी होता है। आधुनिक सभ्यता एक प्रकार का मीठा जहर है। उसका असर जब हम जानेंगे तब पुराने वहम और धार्मिक पाखंड इसके मुकाबले मीठे लगेंगे। आधुनिक सभ्यता के वहमों और पाखंडों से आधुनिक सभ्यता में आस्था रखने वाले लोगों को लड़ने का कोई कारण नजर नहीं आता। जबकि सभी धर्मों के भीतर धर्म और पाखंड के बीच धार्मिक संघर्ष सदैव चलता रहा है। गाँधीजी की तीसरी चिन्ता यह है कि कुछ लोगों को भी भ्रम है अंग्रेजों ने हिन्दुस्तान में शांति एवं सुव्यवस्था कायम की है और अंग्रेज नहीं होते तो ठग, पिंडारी, भील आदि आम आदमियों का जीना नामुमकिन कर देते। गाँधीजी इसे भी अंग्रेजी राज प्रेरित आधुनिक कुप्रचार मानते हैं। इन सबका इस अध्याय में गहराई से विचार किया गया है।

इसी क्रम को नवें अध्याय में ‘हिन्दुस्तान की दशा’ की व्याख्या करते हुए रेलगाड़ियों के महत्व पर प्रकाश डालते हैं। हिन्दुस्तान की तत्कालीन दशा के बारे में गाँधीजी की सोच यह है कि- “वास्तव में जिन चीजों ने हिन्दुस्तान को रंक (कंगाल) बनाने में सबसे बड़ी भूमिका निभाई है उसे ही हम लोगों ने लाभकारी मानना शुरू कर दिया है। हिन्दुस्तान को रेलों ने, वकीलों ने और डॉक्टरों ने कंगाल बना दिया है। गाँधीजी की दृष्टि में आधुनिक सभ्यता एक अदृश्य रोग है। इसका नुकसान मुश्किल से मालूम हो सकता है |”4 इस अध्याय का मूल उद्देश्य आधुनिक सभ्यता के तकनीकी आधार पर सूक्ष्म समालोचना है। इसमें गाँधीजी कहना चाहते हैं कि किसी भी सच्ची, अच्छी और कल्याणकारी सभ्यता का आधार धर्म, नीति और मूल्य होते हैं तथा यंत्रों, तकनीकों एवं मशीनों का उपयोग मात्र साधन के रूप में होता है। जबकि आधुनिक सभ्यता का आधार मूल्य, नीति और धर्म के बदले आधुनिक तकनीक वाला मशीन बन जाता है। गाँधीजी तकनीक की सांस्कृतिक उपयुक्तता का प्रश्न उठाते हैं। उनका मानना है कि मनुष्य के जीवन, आकांक्षा, सुख-दुख, सफलता-असफलता, हानि-लाभ, प्रगति-पतन जैसे मूल विषयों को जब मूल्यों के स्थान पर तकनीक परिभाषित करने लगते हैं तब सभ्यता पर असली संकट आता है। गाँधीजी के तर्क में दम तो है परन्तु पिछले अध्यायों के तर्क से थोड़ी असंगति भी दिखती है।

गाँधीजी की पांचवीं चिन्ता यह है कि – “लोग अंग्रेजों के इस कुप्रचार को सच मानते हैं कि हिन्दुस्तानी लोग अंग्रेजों और रेलवे के आने से पहले एक राष्ट्र नहीं थे और एक राष्ट्र बनाने में हम लोगों को सैकड़ों बरस लगेंगे। गाँधीजी साफ-साफ कहते हैं कि यह बिल्कुल बेबुनियाद बात है। जब अंग्रेज हिन्दुस्तान में नहीं थे तब भी हम एक राष्ट्र थे। हमारे विचार एक थे। हमारा रहन-सहन एक था। तभी तो अंग्रेजों ने यहां एक राज्य कायम किया। हमारे बीच भेद तो बाद में उन्होंने पैदा किया। एक राष्ट्र का अर्थ यह नहीं कि हमारे बीच कोई मतभेद नहीं था।”5 परन्तु हमारे बीच एकता के महत्वपूर्ण सूत्र प्राचीनकाल से रहे हैं। हमारे यहां रेलवे नहीं थी लेकिन हमारे समाज के प्रमुख लोग पैदल या बैलगाड़ी में हिन्दुस्तान का सफर करते थे। वे लोग एक-दूसरे की भाषा सीखते थे। देश के चारों कोनों तक लोग तीर्थ करने जाते थे। हमारे यहां एकता का सूत्र अलग प्रकार के रहें हैं।

हिन्द स्वराज के दसवें अध्याय में गाँधीजी हिन्दुस्तान में हिन्दू-मुस्लिम संबंधों की दशा-दिशा की समालोचना करते हैं। हिन्दुस्तान की तत्कालीन दशा के बारे में गाँधीजी की छठी चिन्ता यह है कि विदेशी शिक्षा और कुप्रचार के प्रभाव में कुछ लोग मानने लगे हैं कि भारत में हिन्दू-मुसलमान कभी मिलकर नहीं रह सकते। यह एक काल्पनिक मिथ है। हिन्दुस्तान में इसलिए सभी धर्मों और मतों के लिए स्थान है। यहां राष्ट्र सभ्यतामूलक अवधारणा है। राष्ट्र या सभ्यता का अर्थ यहां तात्विक रूप से सदैव विश्व व्यवस्था या वसुधैव कुटुम्बकम के रूप में रहा है। नये धर्मों या विदेशी धर्मों एवं उनके अनुयायियों के प्रवेश से यह राष्ट्र कभी आतंकित और चिंतित नहीं होता। यह एक सनातन सभ्यता है, सनातन राष्ट्र है। यह अंततः मिटने वाली नहीं है। जो नये लोग इसमें दाखिल होते हैं, वे इस राष्ट्र की प्रजा को तोड़ नहीं सकते, वे इसकी प्रजा में अंततः घुल-मिल जाते हैं। हिन्दुस्तान ऐसा रहा है और आज भी ऐसा ही है। गाँधीजी ने स्पष्ट किया कि पूजा पद्धति, रीति-रिवाज और उपासना की साम्प्रदायिक व्यवस्था के स्तर पर हिन्दू-मुसलमानों में अंतर अवश्य है परंतु यह अंतर उन्हें दो राष्ट्रों की प्रजा नहीं बना सकता। 1947 में देश के बंटवारे के अवसर पर भी गाँधीजी ने नहीं माना कि दो राज्य बनने से भारत और पाकिस्तान नामक दो राष्ट्र बन गए। वे हमेशा मानते रहे कि भारत में राष्ट्र की अवधारणा सभ्यतामूलक रही है, एक प्रकार की भू-सांस्कृतिक अवधारणा रही है और समय-समय पर इनमें न सिर्फ एक से अधिक राज्य होते रहें हैं बल्कि उनके बीच राजनैतिक शत्रुता भी रही है। गाँधीजी का मानना था कि बंटवारे के बावजूद भारत और पाकिस्तान के हिन्दू-मुसलमान एक ही सभ्यता के अंग रहेंगे।

हिन्द स्वराज के ग्याहरवें अध्याय में वे तत्कालीन हिन्दुस्तानी समाज में वकीलों, जजों और आधुनिक न्यायालयों के द्वारा ब्रिटिश राज के संवर्धन की समालोचना करते हैं। उस समय के हिंदुस्तानी समाज के बारे में गांधीजी की सातवीं चिंता भारतीय समाज में वकीलों के बढ़ते महत्व को लेकर है। उनकी राय में वकीलों ने हिंदुस्तान को गुलाम बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इस अध्याय में गांधीजी भारतीय वकीलों की सुप्त राष्ट्रवाद को जगाकर उन्हें अंग्रेजों से असहयोग करने के लिए प्रेरित करते हैं।

हिंद स्वराज के बारहवें अध्याय में वे हिंदुस्तान की तत्कालीन दशा से संबंधित अपना पाँचवाँ लेख डॉक्टर शीर्षक से पूरा करते हैं। इस दृष्टि से पांच लेखों के अंतर्गत गांधीजी की आठवीं चिंता वकीलों, डॉक्टरों जैसे नये पेशों के प्रचार-प्रसार के बहाने अनीति अधर्म के नये-नये क्षेत्रों के प्रचार प्रसार को लेकर है। इस अध्याय के संदर्भ में ध्यान देने पर इसमें अंग्रेजी राज के विरुद्ध और हिंदुस्तानी सभ्यता में स्वराज की प्राप्ति की दृष्टि में गांधी अपना आठवां तर्क और अंतिम चिंता प्रस्तुत करते हैं। यह अध्याय अंग्रेजी राज और आधुनिक सभ्यता के खिलाफ है यह अध्याय गांधीजी के तरकश का अंतिम बाण है। इस अध्याय में अंग्रेजी राज में डॉक्टरों की भूमिका की वे सरल भाषा में समालोचना प्रस्तुत करते हैं। यह अध्याय अपने समय से काफी पहले उत्तर आधुनिकता के आधार पर ही व्यक्ति को अपना डॉक्टर खुद बनने, अपने शरीर के स्वभाव और जरूरतों को समझकर अपने रोगों का खुद इलाज करने और अपने सर्वांगीण स्वास्थ्य का ख्याल रखने की अपील करता है। साथ ही साथ अंग्रेजी राज के हिंदुस्तान में बने रहने का अंतिम और सबसे मजबूत नैतिक स्तंभ ढहाने की कोशिश करता है।

हिंद स्वराज के अंतिम अध्याय में गांधीजी पूरे हिंद स्वराज का निष्कर्ष बताते हैं साथ ही पाठक गांधीजी से राष्ट्र के नाम और उनके संदेश के बारे में पूछता है। गांधीजी का संदेश स्पष्ट है कि “इस रास्ते से मैं कहूंगा कि जिस हिंदुस्तानी को स्वराज की सच्ची खुमारी या मस्ती चढ़ी होगी, वही अंग्रेजों से ऊपर की बात कह सकेगा और उनके रोब से नहीं दबेगा।… सच्ची मस्ती तो उसी को चढ़ सकती है, जो ज्ञानपूर्वक समझ-बूझकर यह मानता हो कि हिंद की सभ्यता सबसे अच्छी है और यूरोप की सभ्यता चार दिन की चांदनी है।”5

हिंद स्वराज में जिस आधुनिक सभ्यता की निंदा-भर्त्सना की गई है, उसके पीछे गांधीजी की मूल भावना यही है कि यह आधुनिक सभ्यता मनुष्य की आत्मा की अवहेलना कर उसके शारीरिक सुख को महत्वपूर्ण मानती है। यह मुख्यतः भौतिक और आध्यात्मिकता के बीच के चुनाव का मामला है। आधुनिक सभ्यता की प्रेरणा मनुष्य को उपभोक्ता मानने में है जबकि गांधीजी ‘हिन्दस्वराज’ के मनुष्य को नियन्ता मानते हैं। शरीर सुख या उपभोक्तावाद की बढ़त से ना सिर्फ मनुष्य की आत्मीयता की, आध्यात्मिकता की अवमानना होती है, बल्कि बाह्य जगत के साथ उसकी आत्मीयता से बाधित होती है और समाज के विभिन्न समूहों के बीच एक परिचय और संवेदनहीनता की स्थिति बनती है। परंतु हिंद स्वराज को दो सभ्यताओं के टकराव के रूप में देखने के साथ-साथ भविष्य के समाज की रूपरेखा के मॉडल के रूप में भी देखना चाहिए और समूचे मानव और प्रकृति के संतुलित और समग्र दृष्टिकोण के तहत भी इसका महत्व बनता है जिसमें पूर्व और पश्चिम का सवाल शायद उतना नहीं है जितना अच्छे और बुरे का,करणीय और अकरणीय का और व्यापक अर्थ में पुण्य और पाप का। गाँधीजी के यह विचार उन सभी सभ्यताओं के लिए प्रासंगिक है जो अपने मूल को खोती जा रही हैं।

निष्कर्षतः हिंद स्वराज गांधी द्वारा लिखी उन महत्वपूर्ण रचनाओं में से है जिसे गांधीजी ने अपने विचार व दर्शन को स्पष्ट करने के लिए लिखा। राज्य समाज व राष्ट्र पर गांधी के विचारों की शायद यह सबसे परिष्कृत वस्तु स्पष्ट व्याख्या थी यद्यपि हिंद स्वराज एक मौलिक रचना है तथापि इसे लिखने के क्रम में गांधी कुछ प्रमुख पाश्चात्य विचारकों के साथ-साथ भारतीय दर्शन से अत्यधिक प्रभावित हैं इसमें गांधीवादी राजनीति के कुछ अत्यंत ही मौलिक सिद्धांतों का प्रतिपादन हुआ है दूसरे शब्दों में गांधी ने अपनी वास्तविक स्थिति को हिंद स्वराज के माध्यम से स्पष्ट किया तथा अंत तक उस पर कायम रहे वास्तव में हिंद स्वराज में हिंदुस्तान के स्वराज की उपलब्धि के लिए गांधी की संपूर्ण रणनीति का सबसे निर्णायक पहलू सामने आता है इसके अलावा स्वराज व सत्याग्रह से संबंधित गांधीजी के सामाजिक व राजनीतिक विचारों का सबसे प्रमाणिक दस्तावेज है। हिंद स्वराज में गांधी जी ने अपने पूर्व भारतीयों की अपेक्षा कहीं अधिक मौलिक रूप से भारतीय समाज के आध्यात्मिक व नैतिक ताने-बाने तथा यूरोपीय राज्यों के तथा राजनीतिक रूप से भ्रष्ट प्रकृति के बीच के अंतर को स्पष्ट किया है

सन्दर्भ ग्रन्थ

  1. हिन्द स्वराज, गाँधी महात्मा, शिक्षा भारती प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2017, पृष्ठ संख्या-25
  2. वहीं, पृष्ठ संख्या-45
  3. वहीं, पृष्ठ संख्या-56
  4. वहीं, पृष्ठ संख्या-70
  5. वहीं, पृष्ठ संख्या-77