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आदिवासी साहित्य के स्वरूप और अस्मिता- जीभावनी कुमार रजक

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आदिवासी साहित्य के स्वरूप और अस्मिता

शोधार्थी शोध निर्देशक

जीभावनी कुमार रजक प्रोफेसर रत्नेश विष्वक्सेन

हिंदी विभाग हिंदी विभाग

झारखंड केंद्रीय विश्वविद्यालय झारखंड केंद्रीय विश्वविद्यालय

सारांश

नई सदी में आदिवासी विमर्श व चिंतन साहित्य एवं समाज के लिए चर्चित विषय बना हुआ है। आदिकाल से ही आदिवासी समाज को एक पिछड़ा समाज मानकर उनके साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाता रहा है। जिस तरह साहित्य एक नए समाज का निर्माण करता है तथा समाज को नई स्थिति और दिशा प्रदान करता है जनजातीय साहित्य के रूप में ऐसी रचनाओं का प्रचार-प्रसार, पठन-पाठन किया जा रहा है, तथ्यों को नकारात्मक रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। आदिवासी साहित्य का स्वरूप व्यापक है। इस साहित्य में विद्रोह है, वेदना है, अभिव्यक्ति है नकार है। आदिवासी लेखन विविधताओं से भरा हुआ है। मौखिक साहित्य की समृद्ध परंपरा का लाभ आदिवासी रचनाकारों को मिला है। आदिवासी साहित्य आदिवासी व गैर आदिवासी साहित्यकारों के द्वारा प्रचुर मात्रा में लिखा जा रहा है जिससे आदिवासियों के प्रति लोगों का नजरिया बदल रहा है।

बीज शब्द:- आदिवासी, जनजाति, समाज, संस्कृति, आदिवासी साहित्य, जीवन शैली।

शोध आलेख

साहित्य एक नए समाज का निर्माण करता है तथा समाज को नई स्थिति और दिशा प्रदान करता है। बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में भारत में नए सामाजिक आंदोलन सामने आए जिसमें सभी लोगो ने बढ़ चढ़ कर हिसा लिया तथा दलितों, महिलाओं, आदिवासियों और आदिवासी समुदायों ने नई एकजुटता के माध्यम से अपने प्रति हो रहे शोषण का विरोध किया और पूरे समुदाय की मुक्ति के लिए एक सामूहिक अभियान चलाया। सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन के साथ-साथ साहित्यिक आंदोलन भी इस अभियान का मुख्य हिस्सा रहा दलित विमर्श और नारी विमर्श इसी का परिणाम है। आजादी के बाद सामने आए पहचान के विमर्शो में दलित विमर्श और महिला विमर्श के बाद सबसे नया विमर्श आदिवासी विमर्श था। अब आदिवासी चेतना युक्त आदिवासी साहित्य ने हिन्दी साहित्य मंडल पर अपनी उपस्थिति दर्ज करायी है आज आदिवासी साहित्य हिन्दी के अलावा लगभग 100 आदिवासी भाषाओं में बहुतायत में लिखे जा रहे है। दशकों के संघर्ष और प्रतिरोध के बाद आज आदिवासी साहित्य को एक स्वायत्त विषय के रूप में केंद्रीय परिधि में लाया जा रहा है तथा आदिवासी समाज और साहित्य आज लगातार चर्चा का विषय बना हुआ है। लेकिन आदिवासी समाज की तरह आदिवासी साहित्य का संघर्ष आज भी जारी है आदिवासी साहित्य आज भी अनेक समस्याओं और चुनौतियों का सामना कर रहा है। इसका मुख्य कारण जनजातीय समाज, जीवन के बाहर समाज की अपरिचितता और उपेक्षापूर्ण रवैया रहा है। जनजातीय साहित्य जनजातीय समाज से संवाद स्थापित करने का एक महत्वपूर्ण साधन रहा है, बशर्ते उसका उचित मूल्यांकन किया जाए, इसके लिए इसके मूल तत्वों की समझ होना आवश्यक है। आज जनजातीय साहित्य की उचित अवधारणाओं और मानकों का होना आवश्यक है आज आदिवासी साहित्य रचने के लिए लेखकों में होड़ हैं। आदिवासी संस्कृ ति, जीवन और समाज पर गैर-आदिवासी लेखकों द्वारा जनजातीय साहित्य का निर्माण किया जा रहा है, जबकि उन्हें आदिवासी दर्शन और संस्कृति का पर्याप्त ज्ञान भी नहीं हैं जनजातीय साहित्य के रूप में ऐसी रचनाओं का प्रचार- प्रसार, पठन पाठन किया जा रहा है, तथ्यों को नकारात्मक रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। आदिवासी साहित्य को लेकर ऐसा साहित्य ज्यादातर भ्रामक साबित हुआ है। आदिवासी साहि मूल्यांकन गैर आदिवासी मॉडल द्वारा किया जा रहा है आदिवासी साहित्य के सिद्धांत को दलित की तर्ज पर बनाने का प्रयास किया जा रहा है। गैर-आदिवासियों का आदिवासी साहित्य भी आदि को साम्राज्यवाद विरोधी अभियान में केवल आर्थिक संघर्ष के रूप में देखता है। सांस्कृतिक रूप से भी, आदिवासी दर्शन और साहित्य को आर्य संस्कृति में एकीकृत करने का प्रयास करता है संक्रमण के इस युगमें कुछ “आदिवासी’ लेखक और बुद्धिजीवी, जिनका सामाजिक वर्ग बदल रहा है, आदिवासियों के खिलाफ प्रवचन को बहुत सूक्ष्म तरीके से लेने के लिए गैर आदिवासी विश्व व्यवस्था की आधिपत्य संस्कृति की शब्दावली का उपयोग करते हैं। व्यवस्था की प्रतिष्ठा और पुरस्कारों से लदे ये बुद्धिजीवी आदिवासियों को अविकसित और पिछड़ा बताकर मेल-मिलाप का सुझाव दे रहे हैं। उनके अनुसार आदिवासी समाज और साहित्य तथा कथित मुख्यधारा को अपनाकर ही आधुनिक सभ्यता का लाभ उठा सकते हैं। इस परिदृश्य में आदिवासी साहित्य की अवधारणा और उसके मूल दार्शनिक आधार को मजबूती से रेखांकित करना बहुत जरूरी है। आदिवासी साहित्य के बारे में सही समझ, सही धारणा बनाना जरूरी है। यद्यपि आदिवासी साहित्य की अवधारणा या सिद्धांत पूरी तरह से विकसित नहीं हुआ है, फिर भी इसके प्रस्ताव अभी भी चर्चा के दौर से गुजर रहे हैं। आदिवासी साहित्य को समझने के लिए आदिवासियों की मौखिक परंपरा को समझना होगा, जो बहुत समृद्ध है। यद्यपि आदिवासी जीवन और समाज स्वयं किसी भी प्रकार के शास्त्रों या सिद्धातों में विश्वास नहीं करता है, लेकिन आदिवासी साहित्य के बारे में अनित करने वाले तथ्यों और प्रतिमानों को हल करने के लिए कुछ बुनियादी तत्वों पर चर्चा करना आवश्यक है। आदिवासी साहित्य के पाठ और समझ को नए सिरे से देखने और समझाने के लिए इसकी सामग्री और प्रकृति की समझ होना आवश्यक है। इस पर विचार करते हुए सबसे पहला सवाल यह उठता है कि आदिवासी साहित्य को क्या कहा जाएगा? आदिवासी दर्शन क्या है और आदिवासी साहित्य में इसका क्या महत्व है? किन लेखकों को आदिवासी साहित्य के अंतर्गत रखा जाना चाहिए? क्या जनजातीय साहित्य की अवधारणा शेष विश्व साहित्य से भिन्न है? साथ ही यह भी सवाल है कि क्या आदिवासी साहित्य को साहित्यिक परंपरा में पर्याप्त स्थान दिया गया है? क्या इस साहित्य को तथाकथित मुख्यधारा के साहित्य के समानांतर या विविधता के स्तर पर देखा जा सकता है? उपरोक्त सभी प्रश्न आदिवासी साहित्य की अवधारणा या रूप से संबंधित है। स्पष्ट है कि आदिवासी साहित्य आदिवासियों द्वारा लिखा गया है जिसमें आदिवासी संस्कृति, दर्शन, जीवन शैली, प्रकृति और उनकी समस्याओं का चित्रण किया गया है। इसे हम आदिवासी साहित्य कह सकते हैं। जनजातीय साहित्य से तात्पर्य उस साहित्य से है जिसमें आदिवासियों के जीवन और समाज को उनके दर्शन के अनुसार अभिव्यक्त किया गया है।’

आदिवासी साहित्य विविध परंपरा एवं कला रूपों का एक समुच्चय होता है, जिसमें सभी कला विधाओं के साथ-साथ प्रकृति की भी एक प्रमुख और सुनिश्चित भूमिका होती है अर्थात् वहाँ कलाओं का आपस में अन्योन्याश्रित संबंध होता है इस संदर्भ में वंदना टेटे का कहना है कि “आदिवासी साहित्य मूलतः सृजनात्मकता का साहित्य है ।

आदिवासी साहित्य का स्वरूप

आदिवासी साहित्य का स्वरूप व्यापक है। इस साहित्य में विद्रोह है, वेदना है, अभिव्यक्ति है, नकार है। आदिमों के सर्वागीण विकास के प्रश्न को लेकर यह स्थापित समाज व्यवस्था को ललकारता है। जो जीवन मूल्य आदिवासियों के नहीं है या विरोधी है यह साहित्य उन्हें अस्वीकारता हैं। आदिवासी लेखन तथाकथित मुख्यधारा के रंगभेद व नस्लीय छद्म साहित्य के मानदंडों को नकारते हुए धीरे-धीरे स्वयं के प्रतिमान गढ़ रहा है। इसकी अपनी भावभूमि है, सौंदसों बोध है, विश्व दृष्टि है सामूहिक मूल्यों एवं सहअस्तित्व में अटूट विश्वास ही उसकी विशेषता है आदिवासी दर्शन में प्रकृति और पुरखों के प्रति आभार का भाव निहित होता है। यह साहित्य समूचे जीव जगत को समान महत्त्व देकर मनुष्य की श्रेष्ठता के दंग को खारिज करता है। आदिवासी साहित्य की कोई केन्द्रीय विधा नहीं है। अन्य साहित्य की तरह इसमें आत्मकथात्मक लेखन भी उपलब्ध नहीं है क्योंकि आदिवासी समाज हम में विश्वास करता है न कि मैं में। इसे प्रतीकों के माध्यम से व्यक्त किया जाता है। वह सामूहिकता की बात करता हैं हम की चिंता करता है। इसलिए आदिवासी लेखकों ने अपने संघर्ष में कविता को मुख्य हथियार बनाया है। आदिवासी साहित्य अपने दायरे में अन्य उत्पीड़ित अस्मिताओं के प्रति संवेदनशील है। “इसके अंतर्गत शब्द, नृत्य, गीत, संगीत, चित्र, प्रकृति और समूची समष्टि समाहित है साहित्य समुच्च्य है इन सभी अभिव्यक्तियों काआदिवासी समाज में सृष्टि ही सर्वोच्च नियामक है। उसके दर्शन में “सत्य-असत्य”, “सुंदर-असुंदर”, “अच्छा बुरा”, “छोटा बढा”, “दलित-ब्राह्मण”, “मनुष्य-अमनुष्य” जैसी कोई विशिष्ट अवधारणा नहीं है।”

जातीय स्वरूप

भारत जैसे बड़े देश में कई आदिवासी जातियां निवास करती हैं। लेकिन हर किसी की पहचान एक जैसी नहीं होती। भौगोलिक भिन्नताओं के कारण आदिवासियों की सामाजिक, सांस्कृतिक और भाषाई विशेषताएँ भी भिन्न होती है। भौगोलिक रूप से भारतीय आदिवासी जातियां कई भागों में विभाजित है। भौगोलिक वितरण को ध्यान में रखते हुए सबसे पहले बीएस गुहा ने आदिवासियों को तीन जनजातीय क्षेत्रों में विभाजित किया है

• पश्चिम क्षेत्र इस क्षेत्र के पश्चिम में शिमला और लेह हैं, पूर्व की ओर लुशाई पर्वत और मिश्मी रोड़ है। इस क्षेत्र में आदिवासी समुदाय पूर्वी कश्मीर, पूर्वी पंजाब, हिमाचल प्रदेश, उत्तरी उत्तर प्रदेश, असम और सिक्किम में पाए जाते हैं। इस क्षेत्र की मुख्य जनजातियाँ रमा, खासी उर्फ डफला, मिरी, अपतानी, नागा, कुकी, लुसाई, लेप्चा, गारो, गैलोंग, जौनसारी, लावरी, कर्णफुली, थारू और लांबा हैं।

• मध्यवर्ती क्षेत्र बिहार, बंगाल, दक्षिणी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, दक्षिणी राजस्थान, उत्तरी महाराष्ट्र और उड़ीसा इस क्षेत्र के अंतर्गत आते हैं। इस क्षेत्र की प्रमुख जनजातियाँ हैं- संथाल, उरांव, हो, खोंड, भूमिज, लाडा, कोरा, गॉड, बैगा, भील, मीना, दमार आदि ।

दक्षिणी क्षेत्र इस क्षेत्र के मुख्य आदिवासी क्षेत्र हैदराबाद, मैसूर आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और कोचीन हैं अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में कई जनजातियाँ रहती हैं। इन क्षेत्रों की प्रमुख जनजातियाँ चेंचू इरुला, बनियन, कादर टोडा, कोटा और पुल्यान आदि हैं।’ चौपाल, विश्वहिंदीजन आदिवासी साहित्य का स्वरूप विश्वहिंदीजन चौपाल 2021 पृष्ठ ‘सुजन साहित्य. “आदिवासी की अवधारणा और जातीय स्वरूप साहित्य सृजन 2015 पृष्ठ

आदिवासी साहित्य की अस्मिता

20वीं सदी के अंतिम दशकों में भारत में नए सामाजिक आंदोलनों का उदय हुआ। महिलाओं, किसानों, दलितों, आदिवासियों और जातियों की ‘नई एकजुटता ने ऐसी मांगों और मुद्दों को उठाया जिन्हें स्थापित वैचारिक और राजनीतिक मुहावरों के माध्यम से आसानी से समझा और हल नहीं किया जा सकता था। इन अस्मिताओं ने अपने साथ होने वाले शोषण के लिए अपनी खास अस्मिता को कारण बताया और उस शोषण तथा भेदभाव से संघर्ष के लिए उस संबंधित अस्मिता / पहचान को धारण करने वाले समूह / समुदाय को अपने साथ लेकर अपनी मुक्ति के लिए सामूहिक अभियान चलाया। चूंकि इस प्रक्रिया में शोषण और संघर्ष का आधार अस्मिताएं हैं, इसलिए इसे अस्मितावाद की संज्ञा दी गई। वंचितों के शोषण के खिलाफ उठ खड़ी हुई मुहिम में सामाजिक राजनीतिक आंदोलन के अलावा साहित्यिक आंदोलन ने भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया है। स्त्रीवादी साहित्य और दलित साहित्य उसी का प्रतिफल है। अब आदिवासी चेतना से लैस आदिवासी साहित्य भी साहित्य और आलोचना की दुनिया में अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुका

आदिवासी लोक में “साहित्य सहित विविध कला माध्यमों का विकास” तथाकथित मुख्यधारा से पहले हो चुका था लेकिन वहां साहित्य सृजन की परंपरा मूलता मौखिकसे पहले हो चुका था लेकिन वहां साहित्य सृजन की परंपरा मूलता मौखिक रही जंगलों में खदेड़ दिए जाने के बाद भी आदिवासी समाज ने इस परंपरा को अनवरत जारी रखा ठेठ जनभाषा में होने और “सत्ता प्रतिष्ठानों से दूरी की वजह से यह साहित्य आदिवासी समाज की ही तरह उपेक्षा का शिकार हुआ” आज भी सैकड़ों देशज भाषाओं में आदिवासी साहित्य रचा जा रहा है, जिसमें से अधिकांश से हमारा संवाद शेष है ।

चूंकि आदिवासी साहित्य विमर्श अभी निर्माण-प्रक्रिया में हैं, इसलिए अभी इसके मुद्दे भी आकार ले रहे हैं। आदिवासी कौन हैंसे शुरू होकर आदिवासी समाज, इतिहास, संस्कृति, भाषा आदि पर पिछले एक दशक में कुछ बातें हुई हैं। हर साहित्यिक आंदोलन की शुरुआत और उसे आगे बढाने में एक या अधिक पत्रिकाओं की भूमिका होती है। साहित्य जगत में आदिवासी मुद्दों को उठाने, उनसे जुड़े सृजनात्मक साहित्य को प्रोत्साहन देने में इन पत्रिकाओं ने अहम योगदान दिया है- ‘युद्धरत आम आदमी (दिल्ली, हजारीबाग.संपादक- रमणिका गुप्ता) अरावली उदघोष (उदयपुर संपादक- बीपी वर्मा पथिक) ‘झारखंडी भाषा साहित्य, संस्कृति अखड़ा (रांची, संपादक- वंदना टेट) आदिवासी सत्ता (दुर्ग, छत्तीसगढ़, सपादक – केआर शाह) आदि। इनके अलावा तरंग भारती के माध्यम से पुष्पा टेटे, देशज स्वर के माध्यम से सुनील मिज और सांध्य दैनिक झारखंड न्यूज लाइन के माध्यम से शिशिर टुडु आदिवासी विमर्श को बढ़ाने में लगे हैं। बड़ी संख्या में मुख्यधारा की पत्रिकाओं ने आदिवासी विशेषांक निकालकर आदिवासी विमर्श को आगे बढाने में मदद की है, जैसे- ‘समकालीन जनमत (2003), दस्तक (2004), कथाक्रम (2012), इस्पातिका (2012) आदि । शुरू में हिंदी की प्रमुख पत्रिकाओं ने आदिवासी मुद्दों को छापने में उतनी रुचि नहीं दिखाई लेकिन अ विमर्श की बढ़ती स्वीकारोक्ति के साथ ही इन पत्रिकाओं में आदिवासी जीवन को जगह मिलने लगी है। छोटी पत्रिकाओं में आदिवासी लेखकों को पर्याप्त जगह मिल रही है।

आदिवासी लेखन विविधताओं से भरा हुआ है “मौखिक साहित्य” की समृद्ध परंपरा का लाभ आदिवासी रचनाकारों को मिला है आदिवासी साहित्य की उस तरह कोई केंद्रीय विधा नहीं है, जिस तरह स्त्री साहित्य और “दलित साहित्य की आत्मकथात्मक लेखन” है “कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक” सभी प्रमुख विधाओं में “आदिवासी” और “गैर-आदिवासी” रचनाकारों ने आदिवासी जीवन समाज की प्रस्तुति की है आदिवासी रचनाकारों ने आदिवासी अस्मिता और अस्तित्व के संघर्ष में कविता को अपना मुख्य हथियार बनाया है। आदिवासी लेखन में आत्मकथात्मक लेखन केन्द्रीय स्थान नहीं बना सका क्योंकि स्वयं आदिवासी समाज ‘आत्म’ से अधिक समूह में विश्वास करता है। अधिकांश आदिवासी समुदायों में काफी बाद तक भी निजी और निजता की धारणाएं घर नहीं कर पाई। परंपरा, संस्कृति, इतिहास से लेकर शोषण और उसका प्रतिरोध – सब कुछ सामूहिक है। समूह की बात आत्मकथा में नहीं, जनकविता में ज्यादा अच्छे से व्यक्त हो सकती है। आदिवासी कलम की धार तेजी से अपने प्रभाव क्षेत्र का विस्तार कर रही है। आजादी से पहले आदिवासियों की मूल समस्याएं वन उपज पर प्रतिबंध विभिन्न प्रकार के लगान, धन-शोधन, पुलिस-प्रशासन की ज्यादती आदि हैं, जबकि स्वतंत्रता के बाद भारत सरकार द्वारा अपनाए गए विकास के गलत मॉडल ने आदिवासियों को उनके जंगल और जमीन से दूर कर दिया है। आज विस्थापन उनके जीवन की मुख्य समस्या बन गयी है। इस प्रक्रिया में एक ओर उनकी सांस्कृतिक पहचान उनसे छूट रही है, दूसरी ओर उनके अस्तित्व की रक्षा का प्रश्न खड़ा हो गया है। अगर वे पहचान बचाते हैं तो अस्तित्व पर संकट खड़ा होता है और अगर अस्तित्व बचाते हैं तो सांस्कृतिक पहचान नष्ट होती है इसलिए आज का आदिवासी विमर्श अस्तित्व और अस्मिता का विमर्श है। चूंकि आदिवासी साहित्य अपनी रचनात्मक ऊर्जा आदिवासी विद्रोहों की परंपरा से लेता है, इसलिए उन आंदोलनों की भाषा और भूगोल भी महत्वपूर्ण रहा है। आदिवासी रचनाकारों का मूल साहित्य उनकी इन्हीं भाषाओं में है। हिंदी में मौजूद साहित्य देशज भाषाओं में उपस्थित साहित्य की इसी समृद्ध परंपरा से प्रभावित है कुछ साहित्य का अनुवाद और रूपांतरण भी हुआ है भारत की तमाम आदिवासी भाषाओं में लिखा जा रहा साहित्य हिंदी, बाग्ला, तमिल जैसी बड़ी भाषाओं में अनुदित और रूपांतरित होकर एक राष्ट्रीय स्वरूप ग्रहण कर रहा है। आखिर बिरसा सिदो-कानू और तमाम क्रान्तिकारी आदिवासियों और उनके आन्दोलनों से विद्रोही चेतना की वृत्ति के साथ पूरा आदिवासी साहित्य आगे बढ़ रहा है।

आदिवासी भाषाओं में रचित साहित्य की परंपरा

आदिवासी भाषाओं में लिपियों का विकास लगभग 150 साल पहले शुरू हुआ था। अब तक एक दर्जन से अधिक आदिवासी भाषाओं की लिपियां तैयार की जा चुकी हैं। कई आदिवासी भाषाओं ने पड़ोस में एक प्रमुख भाषा की लिपि को अपनाया है। निष्कर्षतः आदिवासी भाषाओं में लिखने और छापने की परंपरा भी सौ साल से अधिक पुरानी है। इस परंपरा की और जांच करने की जरूरत है। मौजूदा स्रोत सामग्री केमीणा गंगा सत्य” आदिवासी साहित्य विमर्श चुनौतियां और सनावनाएं फारवर्ड प्रेस 2013 पृष्ठ 1-2अनुसार, मेनासस ओडेया द्वारा ‘मटुरा कहानी नामक मुंडारी उपन्यास पहला आदिवासी उपन्यास है। यह 20वीं सदी के दूसरे दशक में लिखा गया था। इसके एक हिस्से का हिंदी में अनुवाद ‘चलो चाय बागान शीर्षक से किया गया था। आदिवासी भाषाओं में लिखे गए साहित्य का महत्व यह है कि विधाएं भले ही बाहरी समाजों और भाषाओं से ली गई हैं, लेकिन जब से रचनाकार अपनी मातृभाषा में लिख रहे हैं, व्यक्त विचारों और दर्शन में मौलिकता बनी हुई है।”

निष्कर्ष

आदिवासी साहित्य मुख्यधारा की संस्कृति के दायरे से बाहर रहकर “आदिवासियों के जीवन” को व्यक्त करने वाला, उनकी “संस्कृति, परम्पराऐं, संघर्ष, इतिहास” को एक स्तर से ऊपर उठाने वाला साहित्य है। यह गैर-आदिवासी समाज से पृथक है। इसे मात्र आदिवासी दृष्टिकोण से ही जाना समझा जा सकता है। गैर-आदिवासी समाज जब आदिवासी जीवन को आधार बनाकर साहित्य रचता है तो उसके विचार एवं संस्कार के संक्रमण का भय बना रहता है। इसे मात्र अध्ययन के द्वारा समझना संभव नहीं है, इसके लिए आदिवासी समाज के साथ रहना और जीना आवश्यक है। इसके बिना आदिवासी जीवन पर साहित्यिक मूल्यांकन करना कोरा बुद्धिविलास ही होगा।

संदर्भ सूची

  1. मीना, मोनिका, “आदिवासी साहितय की अवधारणा, साहित्य कुनज, 2018 पृष्ठ: 1
  2. माटी, अपनी वैचारिकी आदिवासी साहित्य विमर्श: अवधारणा और स्वरूप रविन्द्र कुमार मीना,
  3. अपनी माटी, 2020, पृष्ठ: 32 1
  4. चौपाल, विश्वहिंदीजन ” आदिवासी साहित्य का स्वरूप विश्वहिंदीजन चौपाल, 2021, पृष्ठ: 1
  5. सृजन साहित्य, “आदिवासी की अवधारणा और जातीय स्वरूप साहित्य सृजन, 2015, पृष्ठ 1
  6. मीणा गंगा सहाय आदिवासी साहित्य विमर्श चुनौतियां और संभावनाएं”. फारवर्ड प्रेस, 2013 पृष्ठ के 1-21
  7. मीणा, गंगा सहाय “आदिवासी साहित्यत की अवधारणा: गंगा सहाय मीणा, आदिवासी साहित्या. पृष्ठ: 1

अनुवाद और रोजगार की संभावनाएं

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अनुवाद और रोजगार की संभावनाएं

डॉ. श्रीराम हनुमंत वैद्य

श्री शिवाजी महाविद्यालय बार्शी,

तहसील बार्शी, जिला-सोलापूर

पिन- 413411

दूरभाष-9657243507

मेल- svaidya2012@gmail.com

सारांश

आज वैश्वीकरण के इस युग में किसी भी देश, भाषा या व्यक्ति को विश्व की तमाम उपलब्धियों से जुड़ने के लिए अनुवाद से बेहतर मार्ग उपलब्ध नहीं है। वर्तमान में रोजगार की संभावनाओं से संबंधित विमर्श किया जाए तो ज्ञात होता है कि विगत कई वर्षों से सरकारी नौकरियां नहीं निकल रही है। वर्तमान समय की बात करें तो कई जगहों पर सीएचबी (Clock Horse Basic) नीतियों से नियुक्तियां हो रही है या अतिथि और तदर्थ पदों की बातें हो रही है। इन सभी परिस्थितियों से स्पष्ट होता है कि केवल परंपरागत शिक्षा पर निर्भर न होकर व्यवसायिक या रोजगार परक शिक्षा की ओर ध्यान देना आवश्यक है। अनुवाद एकमात्र क्षेत्र है, जिसमें संपूर्ण विश्व समा जाता है। इसलिए उसमें रोजगार की संभावनाएं भी अधिक रही है। अनुवाद व्यवसायिक पाठ्यक्रम की उपाधि प्राप्त करने पर रोजगार की संभावनाएं महसूस होने लगती है, केवल कड़ी मेहनत करने का दृढ़ निश्चय होना चाहिए।

बीज शब्द:- अनुवाद, रोज़गार, वैश्वीकरण, संचार, विज्ञापन, दुभाषी, आशु, डबिंग, अवसर,तदर्थ, भ्रमण

शोध आलेख

आज वैश्वीकरण एवं भूमंडलीकरण के इस युग में अनुवाद की महत्ता एवं प्रासंगिकता बढ़ गई है। वही रोजगार की दृष्टि से अत्यंत कारगर सिद्ध हो रही है। अनुवाद का सूक्ष्म ज्ञान प्राप्त करने से निम्न रोजगार की संभावनाएं उपलब्ध हो सकती हैं। वह क्षेत्र निम्नानुसार है।

जनसंचार माध्यम

जनसंचार माध्यम का एक विशिष्ट संसार होता है, जिसमें सूचनात्मक साहित्यिक, मनोरंजन, राजनीति, मनोरंजन, बाजार, खेल, वाणिज्य, संपादकीय, ध्वन्यात्मक, दृश्यात्मक आदि विभिन्न विधाओं का समावेश होता है। इन संचार माध्यमों के साथ अनुवाद अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है।

भारतीय जनसंचार माध्यमों में अनुवाद अधिकांश अंग्रेजी से हिंदी एवं प्रांतीय भाषाओं में होता है। ताकि मुख्य समाचार एजेंसियों की भाषा अंग्रेजी होती है। आज वर्तमान युग में हिंदी भाषाओं में समाचार एजेंसियां कार्य कर रही है। वस्तुतः आज भारत की अनेक प्रांतीय समाचार, देश- विदेश के समाचार हिंदी या अंग्रेजी एजेंसियों से अनूदित करते हैं। आज भी स्थानीय माध्यमों के लिए अनुवाद ही एक मुख्य गतिविधि है। भोलानाथ तिवारी के अनुसार “समाचार माध्यमों के अनुवाद में संक्षिप्तियों, शिर्षकों के अनुवाद काफी दुष्कर होते हैं क्योंकि यह अधिकांशतः अंग्रेजी की प्रकृति के अधिक नजदीक होते हैं और इनका अनुवाद लक्ष्य भाषा में कई बार एक सीमित शब्द के रूप में होता है।”१

संचार माध्यम में डबिंग भी अनुवाद का महत्वपूर्ण आयाम है। आज भारतीय संचार माध्यमों में केवल भारतीय ही नहीं अपितु विदेशी कार्यक्रमों का डबिंग की सहायता से प्रदर्शन किया जाता है। यहां अच्छे अनुवादक की अत्यंत आवश्यकता होती है। डबिंग में लक्ष्य भाषा प्रकृति के अनुरूप अनूदित किया जाता है। सिनेमा विश्व में भी कई फिल्में डबिंग की सहायता से अन्य भाषाओं में प्रदर्शित की जा रही है। आर्थिक लाभ कमाने हेतु अनेक दिग्दर्शक अन्य फिल्म इंडस्ट्री के श्रेष्ठ फिल्म के डबिंग को प्राधान्य दे रहे हैं। जैसे- बाहुबली। सबसे अधिक धनार्जन करने का रिकॉर्ड इस फिल्म के नाम पर रहा है। आज हिस्ट्री नेशनल ज्योग्राफी, ई.एस.पी.एन,एनिमल, प्लेनेट तथा विभिन्न राष्ट्रों की कला एवं संस्कृतियों का प्रदर्शन करने वाली धारावाहिक कार्यक्रम भारतीय हिंदी भाषा के साथ-साथ अन्य सभी भाषाओं में प्रदर्शित होती है। अर्थात जनसंचार माध्यम में अनुवादक को रोजगार की अनंत संभावनाएं है। वह समाचार संपादक, अनुवादक, भाषांतरणकार, डबिंग संवाददाता प्रस्तुतकर्ता आदि अनेक जगहों पर काम कर सकता है। मार्शल मेक्लुहन के अनुसार “media is a extension of man अनुवादक को मीडिया की भाषा और उसके स्वरूप में अनंत विचरण करने के लिए पर्याप्त अवकाश देता है।”२ अर्थात अनुवादक को संचार माध्यम के क्षेत्रों में रोजगार की अनेक संभावनाएं है।

विज्ञापन

आज भूमंडलीकरण, बाजारवाद के इस युग में विश्व ने एक मंडी का रूप धारण किया है। अंतर्राष्ट्रीय बाजार, बहुराष्ट्रीय कंपनियां, भूमंडलीकरण और पर्यटन व्यवसाय के कारण विभिन्न भाषाओं में विज्ञापनों के अनुवाद की आवश्यकता महसूस हो रही है। आज अनुवाद केवल सामाजिक-संस्कृतिक गतिविधि तक सीमित नहीं बना है। उन्होंने व्यवसायिक रूप धारण किया है। विज्ञापनों के अनुवाद का सीधा संबंध मार्केटिंग बाजार और मुनाफे से रहा है। एक एक विज्ञापन अनुवाद के लाखों रुपए मानधन लिया जाता है। विज्ञापन अनुवाद में ऊपरी तौर पर केवल शब्द दिखाई देते हैं किंतु उसकी गहराई और संवेदना को समझना उतना आसान कार्य नहीं है। विज्ञापन अनुवादक से अपेक्षा होती है कि अनूदित विज्ञापन को लक्ष्य भाषा देश की जनता स्वीकार करें। अनुवाद करते समय लक्ष्य भाषा के सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, भौगोलिक परिस्थितियों का विशेष ध्यान रखें। आज संपूर्ण विश्व में विज्ञापन अनुवादकों की आवश्यकता है किंतु बाजार में अच्छे अनुवादक की कमी महसूस होती है।

सरकारी कार्यालय

आजादी के बाद हिंदी को राजभाषा का दर्जा देने के पीछे यही भावना थी कि वह संपर्क की भाषा के रूप में विकसित होकर प्रशासनिक भाषा बनें। उसे सरकारी कामकाज बोलचाल तथा व्यापार की भाषा बना दिया जाए। यह उचित भी था। भारत के अधिकांश लोग हिंदी को जानते थे, समझते थे। लेकिन कुछ भाषावाद या विवाद के कारण अंग्रेजी और हिंदी को राजभाषा के रूप में स्वीकार किया था। तभी से प्रशासनिक कार्य 2 भाषाओं में चलता है।

हमारे देश में अनेक भाषा, उपभाषा एवं उप बोलियों का संगम है । इस विविधता से भरे हुए देश में अनुवादक की आवश्यकता महसूस होती है। सरकारी और गैरसरकारी कार्यालयों में अनुवादक संविधान, अधिनियम अध्यादेश, बिल, नियमावली के अधीन फॉर्म करारों का हिंदी तथा अन्य भाषाओं में अनुवाद करते हैं। भारत सरकार द्वारा विभिन्न सरकारी कार्यालयों में कनिष्ठ अनुवादक, वरिष्ठ अनुवादक, हिंदी राजभाषा अधिकारी, दुभाषी आदि विभिन्न पदों की नियुक्ति भारत सरकार द्वारा की जाती है। कर्मचारी चयन आयोग प्रतिवर्ष लगभग 300-400 पद अनुवादक के लिए विज्ञापित करता है। किंतु केवल 100-150 छात्र परीक्षा में सफल होते हैं। उस का प्रमुख कारण अनुवाद क्षेत्र के प्रति सही मार्गदर्शन का अभाव रहा है। इसलिए अच्छे अनुवादक की कमी सदैव महसूस होती आई है। आज संपूर्ण भारतभर अनेक विभागों में अनुवादक काम कर रहे हैं। भारतीय संसद में अनेक अनुवादक है। उनमें से कई विदेश यात्रा जाते हैं या विदेश से आए प्रमुख व्यक्तियों के संवादों के समय आशु अनुवादक के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। अर्थात अनुवाद से रोजगार के अनेक अवसर प्राप्त किए जा सकते हैं। केवल योग्य और अच्छे अनुवादक की आवश्यकता है।

विधि एवं न्यायालय के कार्यालयों में अनुवाद की अत्यंत आवश्यकता है। भारत के संविधान के अनुच्छेद 348 में और राजभाषा अधिनियम 1963 की धारा 5 में यह प्रावधान के आधार पर किसी केंद्रीय अधिनियम का हिंदी अनुवाद करके राष्ट्रपति के प्राधिकार से भारत के राजपत्र में प्रकाशित किया जाता है। उच्चतम विधि एवं न्यायालय इन कार्यालयों में प्रकाशन योग्य निर्णय तथा विधि संबंधी साहित्य का अनुवाद विधायी विभाग करता है। इस विभाग में अनुवादक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इस विभाग में कानूनी अधिसूचना संविदाओ, बंधपत्रों या सरकारी महत्वपूर्ण पत्रों का हिंदी में तथा प्रादेशिक भाषाओं में अनुवाद किया जाता है।

भारतीय संविधान में संसदीय प्रणाली का महत्वपूर्ण स्थान है। इसके अंतर्गत राष्ट्रपति लोकसभा और राज्यसभा आते हैं। इसे संसद कहा जाता है। लोकसभा और राज्यसभा के सचिवालय में अंग्रेजी और हिंदी अनुवाद कार्य किया जाता है, जिसमें लोकसभा के मंत्रियों तथा संसद सदस्यों के भाषणों का अनुवाद किया जाता है। इस अनुवाद में कच्चे पर अधिक ध्यान देते हुए तत्काल अनुवाद करना आवश्यक रहता है। साथ ही दोनों सदनों ने पारित किए हुए कानून या सभा पटल पर रखे जाने वाले सभी कागज पत्रों का अंग्रेजी और हिंदी में अनुवाद किया जाता है। यह कार्य करने के लिए अनेक अनुवादकों की या हिंदी राजभाषा अधिकारियों की आवश्यकता महसूस होती हैं।

वाणिज्य का महत्वपूर्ण अंग बैंक है। बैंक का सीधा संबंध जनता के साथ लेनदेन के लिए होता है। वहां बैंकों के कामकाज की भाषा एवं अनुवादक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। अनुवादक बैंक के मुख्य शाखा उनसे आए सूचना विज्ञापन पत्र टिप्पणी ज्ञापन रिपोर्ट नियम पुस्तिका निविदा आदि का अनुवाद उस प्रदेश की भाषा या हिंदी में करते हैं। वहां बैंक के द्वारा एक राजभाषा अधिकारी या अनुवादक की नियुक्ति की जाती है।

सरकारी कार्यालयों में अनुवादक के रूप में कार्य करने के लिए निम्न शैक्षिक योग्यता आवश्यक है।

  1. किसी मान्यता प्राप्त विश्वविद्यालय अथवा समकक्ष से डिग्री स्तर पर अनिवार्य या वैकल्पिक विषय के रूप में अंग्रेजी या हिंदी में डिग्री या समतुल्य।
  2. हिंदी से अंग्रेजी या अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद में मान्यता प्राप्त डिप्लोमा अथवा प्रमाणपत्र पाठ्यक्रम अथवा भारत भर सरकार के केंद्र या राज्य सरकार के कार्यालय में हिंदी से अंग्रेजी या अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद कार्य में 2 वर्ष का अनुभव।

पर्यटन

भारत जैसे सामाजिक-सांस्कृतिक, भौगोलिक विविधता से भरे देश में पर्यटन क्षेत्र में अनुवाद से रोजगार की असीम संभावनाएं रही है। पर्यटन क्षेत्र का महत्व इस जानकारी से स्पष्ट होता है कि विश्व के करीब डेढ़ सौ देशों में विदेशी मुद्रा कमाने वाले कुल पांच क्षेत्रों में पर्यटन का स्थान आता है। अर्थात संपूर्ण विश्व में पर्यटन एक व्यवसायिक क्षेत्र बनकर उभर रहा है। केवल भारतीय ही नहीं तो विदेश के लोग भी भारत में पर्यटन करने आते हैं। भारत की रंग बिरंगी विविधता पर्यटक के आकर्षण का स्थान रहा है। पहाड़ों से बहते झरने, नदियां, अनेक परंपरागत मेले, ऐतिहासिक स्थल, इमारत, समुद्र की लहरें आदि अनेक ऐसे सुंदर पहलू, जो पर्यटकों को आकर्षित करते रहते हैं। उस महत्वपूर्ण स्थलों की जानकारी देने हेतु गाइड एवं मार्गदर्शक के रुप में आशु अनुवादक या अनुवादक की आवश्यकता रहती है। यह अनुवादक पर्यटकों को भ्रमण के दौरान उनकी भाषा में पर्यटन स्थल के ऐतिहासिक, संस्कृतिक जानकारी देते हैं। बदले में उन्हें काफी मानदेय प्राप्त होता है। आज भी पुरातत्व विभाग द्वारा अनेक अनुवादकों के विज्ञापन निकालते हैं। किंतु अच्छे अनुवादक मिलते नहीं है। भारत में अनेक पर्यटन स्थलों पर विदेशी पर्यटकों को अच्छे अनुवादक नहीं मिलते हैं, तो स्थानीय लोगों से काम चलाउ जानकारी प्राप्त की जाती है। यही स्थिति विदेशों में विपरीत है। वहां अनिवार्यता व्यावसायिक अनुवादक की नियुक्ति होती है, जिसका मानदेय प्रवेश के समय ही लिया जाता है।

अनुवाद एजेंसी

वैश्वीकरण के इस युग में अनुवादक अनुवाद एजेंसी की सहायता से घर बैठकर कार्य कर सकता है। आधुनिक तकनीकी संसाधनों के सहयोग से श्रेष्ठ अनुवादकों को साथ लेकर अनुवाद कार्य संपन्न किया जा सकता है। जिससे अनुवादकों कों अच्छा मानधन प्राप्त हो सकता है। हमारे भारत में अनेक ऐसे महापुरुष हैं, जिनका कार्य विशाल एवं भंडार जैसा है। उनके अनेक ऐसे दस्तावेज हैं, जो नष्ट होने की कगार पर है। वह केवल एक भाषा में होने के कारण अन्य भाषा भाषी अपरिचित रहे हैं। उनके कार्य विचार को जीवंत रखने के लिए विभिन्न संस्थाएं और शासन एक साथ कार्य करते हैं तो उन महान व्यक्तियों का कार्य संपूर्ण विश्व में बिखर सकता है। उदाहरण तौर पर महाराजा सयाजीराव गायकवाड का साहित्य और कार्य समृद्ध रहा है। उनका संपूर्ण साहित्य अंग्रेजी, हिंदी, मराठी भाषाओं में प्रकाशन के लिए महाराष्ट्र शासन द्वारा महाराजा सयाजीराव गायकवाड चरित्र साधन समिति की स्थापना की थी। इस अनुवाद कार्य की वजह से अनेक अनुवादकों को प्रति शब्द लगभग एक रुपया के आसपास पैसे मिले थे। ऐसे हमारे भारत में अनेक महान व्यक्ति हुए हैं जो प्रतिभा संपन्न थे। जिन्होंने अपनी कार्यकुशलता, विवेक के आधार पर संपूर्ण विश्व को एक दृष्टि दी है। अनेक पाश्चात्य देशों ने उनके ग्रंथों का अपनी भाषा में अनुवाद करते हुए अपने देश को समृद्ध बनाया है किंतु हमारे भारत में अनुवाद की गति बहुत धीमी गति से रहीं है। या हम कह सकते हैं की इसकी और देखने की दृष्टि आज भी काफी बदली नहीं है। सभी महान व्यक्तियों के साहित्य का अनुवाद करते हैं, तो उनका कार्य विश्व पटल तक जा सकता है। डॉ. पूरणचंद टंडन कहते हैं कि“ अनुवाद वास्तव में जीवन के युद्ध को जीतने का मूल मंत्र है। आत्मविश्वास से प्रदान करने वाला शुद्ध संकल्प है”३

आज भारत भर अनेक अनुवाद एजेंसियों की निर्मिती हो चुकी है। वह व्यावसायिक तौर पर अनेक कंपनियों, संस्थाओं के दस्तावेज पैसा लेकर अनुवाद करवाते हैं। यह कार्य मराठी-हिंदी अनुवाद, अंग्रेजी-हिंदी अनुवाद, अंग्रेजी- मराठी अनुवाद या मांग के अनुरूप सभी भाषाओं में अनुवाद करने की जिम्मेदारी अनुवाद एजेंसियों के माध्यम से पूरी की जाती है।

दुभाषी

“अनुवाद लिखने के स्थान पर बोलकर किया जाए तब उसे तत्काल भाषांतर अथवा आशु अनुवाद की संज्ञा दी जाती है।”४ उस तत्काल भाषण तुरंत करने वाले व्यक्ति को दुभाषी या आशु अनुवादक कहा जाता है। यह दुभाषी दो भाषाओं में बोलने वाली व्यक्तियों के बीच सेतु का कार्य करता है। विश्व में अनेक भाषाएं बोली जाती है, जब एक व्यक्ति एक देश या प्रदेश से दूसरे देश या प्रदेश में जाते हैं तो आपसे संप्रेषण के लिए दुभाषी की आवश्यकता महसूस होती है। वहीं अनुवादकों को रोजगार निर्मिती के अवसर उपलब्ध कराते हैं। आज वैश्वीकरण के इस युग में अनुवाद एजेंशिया, दुभाषी की नियुक्ति करके आवश्यकताओं की पूर्ति करवाते हैं। उस दुभाषी के लिए दो भाषाओं का सुक्ष्म ज्ञान आवश्यक होता है। उन्हें संबंधित भाषाओं के अधिकार के साथ हाजिर जवाबी, श्रवण शक्ति, स्मरण शक्ति, सामान्य ज्ञान, एकाग्र चित्त के साथ आत्मविश्वास होना अत्यंत आवश्यक है। दुभाषी के स्वर उच्चारण शैली गति लहजा आदि अनेक बातें महत्वपूर्ण होती हैं।

साहित्य

विभिन्न राष्ट्रों की साहित्यिक एवं सांस्कृतिक विरासत का आदान-प्रदान अनुवाद के माध्यम से ही संभव है। अनुवाद के माध्यम से ही अन्य भाषा के साहित्य का अध्ययन करने से नई अभिव्यक्ति, संवेदना, विचारधारा एवं शैली का परिचय हुआ है। परिणाम स्वरूप हमारे भारतीय साहित्य पर उसका प्रभाव दिखाई देता है। विश्व ही नहीं तो भारत जैसे बहु भाषीय देश में अनुवाद के माध्यम से ही विविध प्रांतों की सामाजिक, सांस्कृतिक सभ्यता का आदान प्रदान किया जाता है।

आज भूमंडलीकरण के इस युग में कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक संस्मरण, रेखाचित्र, यात्रा साहित्य, डायरी, एकांकी, कहावतें, लोकोक्तियां आदि अनेक क्षेत्र ऐसे हैं, जिनमें विश्व स्तर पर अनुवाद की सहायता से आदान-प्रदान का सिलसिला चल रहा है। विश्व के हर लेखक की इच्छा होती है कि उनकी उपलब्धियों से संपूर्ण विश्व परिचित हो। वहां उन उपलब्धियों को किसी भाषा में बंद नहीं करना चाहते हैं। परिणाम स्वरूप अनुवाद करने के लिए अच्छी राशि अनुवादक को दी जाती है। इससे अनुवादक का नाम विश्व में गूंजता है, तो अनुवादक को भी रोजगार मिलता है।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि आज अनुवाद रोजगार की दृष्टि से कारगर सिद्ध हो रहा है। देश-विदेश की अनेक एसी संस्थाएं हैं जो उन अनुवादकों को आजीवन अनुवाद कार्य दे सकते हैं। केवल शुद्ध निष्ठा एवं समर्पण भाव से अनुवाद कार्य होना चाहिए। आज अनेक ऐसे लोग हैं जो अच्छी नौकरियां छोड़कर घर से निरंतर अनुवाद कार्य कर रहे हैं

संदर्भ सूची

  1. अनुवाद की नई परंपरा और आयाम प्रधान संपा.- कृष्ण कुमार गोस्वामी प्रकाशन संस्थान नई दिल्ली, पृ- 173
  2. वहीं – पृ- 179
  3. प्रतिष्ठित अनुवादक- डॉ. पूरणचंद टंडन, संपा. भारतीय अनुवाद परिषद, पृ-193
  4. अनुवाद की नई परंपरा और आयाम:- संपा.कृष्णकुमार गोस्वामी,पृ-187

अपराधी जनजाति और औपनिवेशिक इतिहास-उद्देश शुक्ला

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अपराधी जनजाति और औपनिवेशिक इतिहास

उद्देश शुक्ला

शोध छात्र, मध्यकालीन एवं आधुनिक इतिहास विभाग

इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज

मोबाइल नंबर:-6386 2788 39

ईमेल: uddeshshukla08@gmail.co

सारांश

औपनिवेशिक लेखकों ने जब गुलाम देशों का इतिहास लिखा, तो वह पश्चिम को केंद्र में रख कर लिख रहे थे। जिससे वह परिधि में थे एवं उनके उपनिवेश परिधि के बाहर, जिससे वह भारत को स्वतः एक तुच्छ एवं असभ्य समुदाय के रूप में प्रदर्शित करते थे। उसी परिधि के बाहर कुछ जनजातीय समुदायों जो अंग्रेजी हुकूमत का विरोध वन कानूनों, रेल की पटरियों के निर्माण, जंगलों में किसी भी प्रकार के कार्यों का विरोध करते तथा लूटपाट करते थे, का अपराधीकरण कर दिया गया और उन्हें एक अधिनियम के तहत अपराधी जाति(क्रिमिनल ट्राईब) घोषित कर दिया गया, जिन्हे बाद में जरायम पेशा कहा जाने लगा। इन्हे आज तक उनके द्वारा स्थापित करने की कवायद जारी है। ‘एडवर्ड सईद’ ने अपनी पुस्तक “ओरिएंटलीजम” में यह बताया है कि उनके इतिहासकार ऐसा इतिहास लिखते थे, जो उन्हें पसंद होता था और जिस में भारत की सभ्यता एवं संस्कृति पर प्रश्न उठाया जाता था। यदि हम अपराधी जनजातियों की बात करें तो यह भारत में कोई नई नहीं थी लेकिन इसको एक संगठित रूप देकर अंग्रेजों ने सामान्य समुदाय से अलग कर दिया था। भारत में अपराधी जनजातियों की स्थिति आज भी निराशाजनक है। ये आज भी वेश्यावृत्ति, संगठित अपराध, सड़को पर रस्सियों पर नाचने का काम, शराब बनाना आदि कार्यों को जीवनयापन के लिए करने को मजबूर है।

मुख्य शब्द: अपराधी जनजाति, औपनिवेशिक, वेश्यावृत्ति, समुदाय, जरायम पेशा।

शोध आलेख

प्राचीन काल से ही रामायण एवं महाभारत में घुमंतु समुदाय एवं अपराधी जातियों की चर्चा हुई है जो डकैत, चोर आदि होते थे, जंगलों में रहते थे उनके खान-पान, रहन-सहन की चर्चाएं हुई है यह जंगली जानवरों को मार कर खाते थे।

बुद्ध की जातक कथा एवं जैनी गुफाओं से लुटेरे परिवारों के बारे में बहुत सारी जानकारियां हमें मिलती हैं तथा ‘कवरापल्ली’ में इसके साक्ष्य मिले हैं। जहां पर यह स्थाई रूप से बसे हुए थे जैन ग्रंथ के ‘उपदेश माला’ में ठग विद्या के बारे में बताया गया है कि किस प्रकार होते थे ‘स्कंदग्य’ तथा ‘धूर्तकल्प’ में भी स्कंद गुप्त के संघर्षों को दिखाया गया है कि वह किस प्रकार से लुटेरों से युद्ध करते हैं, उसके बाद में बाबर और औरंगजेब पढ़ते हैं तो हमें कहीं ना कहीं लुटेरों के बारे में जानकारी मिलती है।

यदि आधुनिक समय की बात की जाए तो सन 1700 में ‘फादर बुचेट’ का मदुरई में एक पत्र मिला था जिसमें उन्होंने चोरों की जाति के बारे में चर्चा की तथा उसके बाद ‘फादर मार्टिन’ ने सन 1700 मैं ही यह बताया कि किस प्रकार मद्रास में चोरों की जाति होती थी ‘मनूची’ ने भारत में लुटेरो के बारे में यह बताया की जो उस समय में बंजारे होते थे उनका शादी-विवाह, उनकी संस्कृति और परंपराएं किस प्रकार थी मुगल काल की बात करें तो ‘बाबर’ ने भी इसकी चर्चा की तथा ‘औरंगजेब’ ने ‘गरसिया’ जाति को एक लुटेरी जाति का दर्जा दिया था।

1670 ईसवी में फ्रांसीसी विद्वान ‘जीन कार्डिंन’ ने यह बताया कि उस समय की ‘कोली जनजाति’ एक लुटेरी जनजाति थी ‘फ्रैंकोइस बर्नियर’ ने मुगल दरबार में ‘कोली जनजाति’ को भारत की सबसे बड़ी लुटेरे जनजाति का दर्जा दिया था बाद में यही जातियां जिनमें प्रमुख रूप से भील, गुर्जर, मीना एवं अन्य जातियों ने उत्तर पश्चिमी भारत जिनमें प्रमुख रूप से राजस्थान में अपना राजपूतानाकरण किया तथा यह अपने आप को राजपूत कहने लगे। इसी प्रकार दक्षिण भारत में ‘कल्लर जाति’ बहुत ज्यादा प्रसिद्ध है जिसने अपने आप को राजा के रूप में घोषित किया।

सांसी, कालबेलिया, कुचबंधिय, कंजर अन्य जातियों ने भी अपने आप को राजपूताना बनाने की होड़ में इनका विरोध किया आधुनिक काल में अपराधी जातियों की बात करें तो ब्रिटिश सरकार ने एक सोची समझी राजनीति के तहत भारत में इन जातियों को अपराधी जनजाति बना दिया।

‘मिशेल फूको’ ने ज्ञान और शक्ति के संबंध में एक सिद्धांत दिया है वह कहते हैं कि जहां शक्ति होती है वही ज्ञान होता है और हम शक्ति के माध्यम से अपने ज्ञान को कई प्रकार से प्रदर्शित कर सकते हैं जैसे भारत में अंग्रेजी सरकार ने खुद को सर्वश्रेष्ठ स्थापित किया तथा हमको तुच्छ एवं असभ्य। अंग्रेजों के आने के पहले यह जातियां मुख्य रूप से जंगलों में रहती थी इनके आने के बाद उनके हस्तक्षेप से इनकी मुश्किलें बढ़ गई अभी तक शहरों से दूर रहने वाली ये जनजातियां शहरों की ओर जाने के लिए मजबूर थी पहले ये गांव में व्यापार के लिए एक जगह से दूसरी जगह जाती थी तथा तेंदूपत्ता, नमक, महुआ तथा कई प्रकार की औषधियां एक जगह से दूसरी जगह बेचती रहती थी जिससे इनका आर्थिक व्यापार भी चलता रहता था और खानपान भी चलता था रेलवे के आ जाने से इनका प्रतिरोध अंग्रेजों से सीधे तौर पर होने लगा और अंग्रेजों की रेलगाड़ी उनके तक आने लगी।ये भोली भाली जनजातियां इन सब से घबरा गई इससे पहले उन्होंने ऐसा कभी देखा ही नहीं था। बड़ी मात्रा में कुछ दिनों बाद इन पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए ‘भारतीय वन अधिनियम 1865’ लाया गया तथा इनके रहन-सहन खान-पान पर अप्रत्यक्ष रूप से अंग्रेजों का नियंत्रण होने लगा। यह घटना अचानक से अंग्रेजों के अधिनियम के अंतर्गत आने के बाद हुई 1857 के विद्रोह में इन जनजातियों ने सीधे रूप से हिस्सा लिया तथा यह अंग्रेजो के लिए मुश्किल हो रहा था इस आंदोलन में नाई, कुम्हार, डोम, निषाद, गार्सिया, आदि ने अपना योगदान दिया जिससे की ये जनजातियां प्रमुख रूप से चर्चा में आई तथा अंग्रेज अब इनसे डरने लगे क्योंकि उनको डर मात्र यहां के जमींदारों से नहीं बल्कि यहां के सामान्य जनजातियों से हो गया था।

अंग्रेजों ने इन जनजातीय क्षेत्रों में ईसाई मिशनरियों की स्थापना की तथा शिक्षा के नाम पर उनका धर्मपिवर्तन किया इनकी जो पारंपरिक चिकित्सा पद्धति थी, उसको भी दरकिनार कर छोटे छोटे अस्पतालों की स्थापना की जाने लगी। जंगलों पर अंग्रेजों का नियंत्रण स्थापित होने लगा तो जीवन यापन के लिए ये जनजातियां की तरफ प्रस्थान करने लगी तथा ये अब जंगल से निकलकर सड़को के किनारे रहने लगे।

अंग्रेजों ने अपराधी जनजाति अधिनियम के अंतर्गत बिना पंजीकरण के कहीं आना जाना अपराध घोषित कर दिया, रेलवे के आने के बाद कुछ प्रमुख जनजातियां प्रमुख रूप से प्रभावित हुई जो पश्चिमी तट पर रुई, महुआ, तेंदू इत्यादि ले जाती थी तथा वहां से नमक, अरेका, नारियल आदि लेकर आती थी जो व्यापार का सरल माध्यम था रेलवे के आ जाने से इनका व्यापार पूर्ण रुप से बंद हो जाता है और इनका आर्थिक जीवन संकट में आ जाता है। जिस कारण यह छोटी मोटी चोरी करना शुरू कर देते हैं यह समुदाय जो हमेशा से जंगलों पर आश्रित था तथा घुमक्कड़ जीवन व्यतीत करता था अब अंग्रेजों के नियंत्रण में आ गया था। जिन्हें यह अंग्रेज लुटेरे समझते थे जिनका उत्पादन की प्रणाली पर कोई अधिकार नहीं था जिससे यह चोरी डकैती में सम्मिलित होने लगे थे ‘डेविड अर्नाल्ड’ कहते हैं कि, भारत में ‘क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट’ को इसलिए लाया गया था जिससे भारत में घुमक्कड़, अर्ध-घुमक्कड़ तथा छोटे व्यापारी, जिप्सी, बहेलिए, पहाड़ी में रहने वाले जनजातीय समुदाय जो अभी तक अंग्रेजों के पहुंच से दूर थे उनको अपने अंतर्गत लाना था जिससे वह इन्हें अपने उद्योगों से अपनी मजदूर प्रणाली के दायरे में ला सकें। प्लासी के युद्ध के बाद सन् 1773 में इनकी नीतियां बनना प्रारंभ हुई तब से लेकर 1860 तक छोटे-मोटे कई अधिनियम बनते रहे, 1860 में ‘इंडियन पैनल कोड’ गठित किया गया जिसके तहत इन जनजातियों को रखा गया लेकिन बाद में वायसराय काउंसिल के एक अधिकारी सदस्य ‘जे.एफ.स्टीफन’ ने उनको भारत में जातीयता के आधार पर एक वंशानुगत अपराधी घोषित कर दिया, उनका विचार था कि जिस प्रकार से भारत में जाति व्यवस्था है उसी प्रकार से इन अपराधियों की एक जाति व्यवस्था है जिस प्रकार नाई का लड़का नाई बनता है, लोहार का लड़का लोहार बनता है उसी प्रकार से अपराधी का लड़का अपराधी होगा और इन्हें इसी आधार पर अपराधी जाति घोषित कर दिया गया।

19 वीं तथा 20 वीं सदी के अपराधियों की लूट, चोरी, डकैती, रहन-सहन, परंपरा एवं पुलिस का उनके साथ बर्ताव आदि को ध्यान में रखते हुए ‘स्टीफन स्पीलबर्ग’ ने 1984 में एक फिल्म बनाई जिसका नाम ‘इंडियाना जॉन्स एंड द टेंपल ऑफ डूम’ रखा।

यह स्वतंत्र रूप से घूमने वाली जातियां अब भारत में अपराधी जाति घोषित हो चुकी थी तथा इन्हें किसी भी जगह पर स्थिर रहने के लिए नजदीकी पुलिस थाने में पंजीकरण कराना पड़ता था जिससे यह ज्ञात हो कि वह कहां पर रुके हुए हैं इन अपराधी जनजातियों को कहीं भी आने और जाने से पहले उनको यह सूचना पास के थाने में देनी पड़ती थी क्योंकि यह जरायम पेशा अब भारतीय तथा विदेशी सबके नजर में एक अपराधी घोषित हो चुके थे।

‘भारतीय वन अधिनियम 1865’ जो कि ब्रिटिश उपनिवेशवाद का विस्तार कर रहा था, ने इनको जंगलों के बाहर रहने के लिए विवश कर दिया था जंगल में रह रहे समुदाय अंग्रेजों के संपर्क में आ गए थे क्योंकि ऑपनिवेशिक सरकार सभी समुदायों पर शासन करना चाहती थी जिससे उन्हें आसानी से पहचान सकें, गौरतलब है कि इन जनजातियों के अपने पारंपरिक क्षेत्र से बाहर आने से इनकी परंपरावादी ज्ञान प्रणाली सहित आदिवासी लोगों की अमूर्त विरासत में अनेक रचनात्मक उत्पादक तत्व विद्यमान थे, जो आने वाली पीढ़ी के लिए अत्यंत लाभदायक होते का तेजी से विनाश होना आरंभ हो गया।

अंग्रेजों के विरुद्ध उन्होंने जगह-जगह सशस्त्र विद्रोह प्रारंभ कर दिए थे तथा अंग्रेजों से स्वतंत्र रूप से युद्ध किया लेकिन इतिहास की किताबों में उन्हें उतना महत्व नहीं दिया गया है अंग्रेजों ने इन्हें आर्थिक लाभ के लिए प्रयोग किया जिसके विरोध में इन जनजातियों ने युद्ध किया आधुनिक शस्त्र ना होने के कारण यह युद्ध में हार भी जाते थे।

इनके ऊपर अपराधी जाति का जो तमगा लगा था वह पूर्ण रूप से गलत था क्योंकि ब्रिटेन के 53 उपनिवेशों में कहीं भी इस प्रकार का अधिनियम लागू नहीं था यह केवल भारत में लागू किया गया था जो कि जातिगत आधार पर था और इन्हें अपराधी मान लिया गया था अंग्रेजी सरकार ने व्यापारियों, शिल्पकारो (जो बहुत ही छोटे स्तर पर ग्रामीण स्तर पर अपनी आर्थिक क्रियाएं करते थे) को एक अपराधी जाति के रूप में घोषित कर दिया था ये ऐसी जातियां थी जिनको स्थान बदलते ही पास के पुलिस थाने में सूचना देनी पड़ती थी।

उस समय की एक चर्चित बात यह थी कि झारखंड की जो आदिवासी तथा अपराधी जातियां थी। जिनमें प्रमुख रूप से संथाल, औरान, हो एवं मुंडा इत्यादि आते थे इनको जबरदस्ती आसाम के चाय बागानों में ले जाया जाता था तथा यह लालच दिया जाता था, कि ये अपराधी जनजाति अधिनियम से बाहर रखे जाएंगे तथा इनको कहीं भी आने-जाने की स्वतंत्रता होगी लेकिन वहां ले जाकर इनको ईसाई धर्म में परिवर्तित कर दिया जाता था तथा कहीं भी आने-जाने की स्वतंत्रता नहीं होती थी।

अपराधी जातियों से अंग्रेजों का ज्यादा से ज्यादा उद्देश्य आर्थिक लाभ लेना था क्योंकि वह इन्हें एक तुच्छ जाति समझते थे। अपराधी जातियों को अंग्रेज जबरदस्ती खदानों में पत्थर तथा कोयला खुदवाते थे तथा कठिन से कठिन कार्य करवाते थे। जो कार्य सामान्यतः लोग नहीं कर पाते थे जगह जगह चाय के बागानों में इनको ले जाया जाता था इसके इतर जो अंग्रेजी उद्योग एवं फैक्ट्रीया थी। उनमें इनको लगाया जाता था तथा बहुत ही बेरहमी से जानवरों कि तरह कार्य कराया जाता था इनको वहां ले जाकर यह लालच दिया जाता था कि इन्हें इस अधिनियम से मुक्त रखा जाएगा लेकिन वहां इनका धर्म परिवर्तन कर दिया जाता था।

यह अपराधी जनजातियां प्रमुख रूप से तीन प्रकार की होती थी जिनमें शिकारी, चरवाहे तथा छोटे व्यापारी होते थे। 1871 के अपराधी जनजाति अधिनियम के लागू होने के बाद में इनको अपराधी जाति का दर्जा दिया गया जिसके तहत यह जहां होते थे। उस स्थान की स्थानीय पुलिस पहले प्रारंभिक जांच करती थी उसके बाद दूसरे स्तर पर वहां के सुपरिंटेंडेंट ऑफ़ पुलिस द्वारा इसकी जांच की जाती थी। उसके बाद में जिला न्यायाधीश इस जांच को आगे बढ़ाता है तथा यह जांच फिर डीआईजी के पास जाती थी अंतिम रूप से इस पर संभागीय आयुक्त का हस्ताक्षर होता था। इस अधिनियम के तहत पंजीकरण कराने के बाद में कोई भी जाति यदि लंबे समय से आपराधिक कार्यवाही में नहीं है, तो वह इस पंजीकरण अधिनियम से अपने आप को बाहर निकालने के लिए प्रार्थना पत्र दे सकती थी।

सरकार की अपराधी जातियों के बारे में दो मान्यताएं थी, पहली यह कि कुछ जनजातियां ऐसी हैं जो जाति या जन्म से अपराधी हैं और वंशानुगत अपराधी हैं और दूसरे वह थे जो बाद में अपराधी बन जाते हैं। ‘हैकरवाल’ नाम के एक विद्वान हुए हैं उनके अनुसार, अपराधी चार प्रकार के होते थे जिनमें पहला अपरिवर्तनीय अपराधी दूसरा अभ्यस्त अपराधी तीसरा आकस्मिक अपराधी और चौथे क्रिमिनल ट्राइब यानी कि जरायम पेशा अपराधी होते थे। अपरिवर्तनीय अपराधी वह होते थे जो जानबूझकर अपराध करते थे और समृद्ध होने के बाद में वह लोगों को रोजगार के रूप में अपने गैंग में रखते थे तथा उनसे अपराध करवाते थे यह अपराध के लिए लोगों को प्रोत्साहित करते थे तथा अपना पेशा बाद में छोड़ देते थे। आकस्मिक अपराधी वे होते थे जिनका कार्य चोरी डकैती करना था ये वंशानुगत नहीं होते थे छोटी मोटी चोरी कर लिया करते थे जरायमपेशा जनजाति एक समुदाय के रूप में रहते थे कानून के तहत इनको रख दिया गया था। जिस व्यक्ति को अपराधी मान लिया जाता उसे जबरदस्ती अपराधी बना दिया जाता था एवं अपराधी होने के लिए बाध्य भी किया जाता था। सदरलैंड नामक समाजशास्त्री के अनुसार पहले अपराधी वे थे जो आर्थिक तंगी से जूझ रहे थे जबकि दूसरे अपराधी वह थे जो आर्थिक रूप से मजबूत थे लेकिन यह उनका पेशा था।

शेर सिंह के अनुसार, यह जातियां पहली बार 1773 में नजर आती है तथा 1861 में इन्हें अपराधी मान लिया जाता है। भारत में ये विभिन्न स्थानों पर विभिन्न नामों से जानी जाती हैं जिस समय भारत में क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट लाया जाता है। उस समय लगभग 130 प्रकार की जातियां होते हैं 1911 में पहली बार जब अलग-अलग रूप से इनका वर्गीकरण किया जाता है तो इन्हें सामान्य समुदाय से अलग कर दिया जाता है। जबकि इनमें कुछ ऐसी भी जातियां थी जो काली की उपासक थी तथा हिंदू रीति-रिवाजों का अनुसरण करती थी।

प्रसिद्ध समाजशास्त्री घियरे, इन जातियों को ‘पिछड़े हिंदू’ की संज्ञा दी है।

1911 में इन्हें हिंदुओं से अलग एक समुदाय बना दिया गया तथा इन्हें एक अपराधी जाति की श्रेणी में रख दिया गया। ‘ग्रीनेल महोदय’ के अनुसार अपराधी जनजातियां दो प्रकार की थी जिनमें पहली स्थाई दूसरी घुमक्कड़, जो स्थाई अपराधी जनजातियां थी यह चोर होते थे तथा जहां रहते थे वहां से दूर चोरी डकैती करने जाते थे। जबकि घुमक्कड़ अपराधी जनजातियां जगह जगह पर जाती रहती थी तथा वहां पर थोड़ा बहुत चोरी लूट करती थी जिनके पूर्वज अपराधी होते थे उनको प्रायः अपराधी मान लिया जाता था। जैसे जो पहले व्यापारी थे उनको व्यापारी माना जाता था जो चार-पांच सदी से व्यापार कर रहे हो उसी प्रकार इन अपराधियों को अपराधी मान लिया गया। क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट के अंतर्गत आने के बाद इन जातियों का बहुत ही ज्यादा शोषण हुआ।1932 ईस्वी में ब्रिटिश अधिकारी लेफ्टिनेंट जनरल जॉर्ज मैकमून ने अपनी पुस्तक ‘द अंडरवर्ल्ड ऑफ इंडिया’ में लिखा है कि, ये असभ्य जानवरों की तरह दिखने वाले लोग समाज की गंदगी तथा चर रहे पशुओं के समान है।

मैक्मून साहब दरअसल जिसकी बात कर रहे हैं वह कुख्यात अपराधी अधिनियम में पंजीकृत लोग हैं 1871 के अपराधी जनजाति अधिनियम में बहुत सारे संशोधन हो चुके हैं परंतु आज भी पुलिस की नजरों में यह सभ्य नहीं है। बंजारा एक घुमंतु समुदाय था जो प्रमुख रूप से राजस्थान, उत्तर पश्चिमी गुजरात, पश्चिमी मध्य प्रदेश एवं पूर्वी सिंध में घूम-घूम कर अपना जीवन व्यतीत करते थे। तथा अपने आप को राजपूतों का पूर्वज मानते थे आज भी उत्तर भारत में आसानी से देखे जाते है और इनकी स्थिति वैसी की वैसी बनी हुई है।

भारत की आजादी के पहले इन जनजातियों को समाज से अलग रखने के लिए सरकार ने 50 से ज्यादा ऐसे संरक्षित क्षेत्र बनाएं जिनके चारों तरफ ऊंची ऊंची दीवारें होती थी। और उन्हें उसमें कैदियों की भांति रखा जाता था तथा किसी प्रकार का अधिकार नहीं दिया गया जब भारत को आजादी मिली तो सबसे पहले 1949 में अनंत सयनम अयंगर के कहने पर एक समिति बैठाई गई। जिसके बाद 1952 में इनको इस एक्ट से मुक्त कर दिया गया तथा अब यह एक विमुक्त जाति के रूप में भारत में रहने लगी। फिर भी इसके ऊपर एक धब्बा लगा हुआ था। 1992 एल्बम मुक्त समुदायों में प्रमुख रूप से बहेलिया पारदी कंजर कुछ बंधिया निषाद कालबेलिया इत्यादि जनजातियां थी जो सड़कों पर या शहरों के किनारे झोपड़पट्टी में रहकर कुछ कलात्मक कार्य करके अपने जीवन का गुजारा करते थे तथा इनका कोई स्थाई निवास नहीं होता था। ये अपना सारा सामान अपने ऊपर ही लड़कर एक जगह से दूसरे स्थान पर आते जाते रहते हैं। अंग्रेजों के आने के बाद में इन जनजातीय महिलाओं ने वेश्यावृत्ति का रास्ता अपना लिया था जो आज भी उसी प्रकार चलता है।

निष्कर्ष:

आजादी के बाद भी इन जातियों पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया गया, लगातार इनके सुधार हेतु समितियां तो बनती रही पर इनकी स्थिति में कोई भी सुधार नहीं हो पाया। हालात यह है कि आप कितनी भी पत्रिकाएं पढ़ेंगे लेकिन इनका सही आंकड़ा आज भी उपलब्ध नहीं है। किसी में इनकी जनसंख्या 6 करोड़ है कहीं 10 करोड़ है कहीं 1%, कहीं 20 करोड़ है कोई स्पष्ट अनुमान नहीं है देश को आजाद हुए 75 साल हो गए परंतु इनकी स्थिति में बहुत ज्यादा परिवर्तन नहींं हुआ है।

अभी हाल ही में पूरे भारत में आजादी का अमृत महोत्सव मनाया गया लेकिन इन जनजातियों की कोई चर्चा नहीं, ये आज भी परिधि के बाहर ही है। प्रश्न ये उठता है कि क्या इनका कोई हीरो नहीं या इनकी इस देश की आजादी में कोई भूमिका नहीं।

आज भी इनकी बस्तियाँ जला दी जाती हैं। लोगों के मन में इनके लिए अभी भी एक भेदभाव बना हुआ है यदि बंजारा, कालबेलिया, कंजर कुछबंधिया समुदाय की बात करें तो आजादी के पहले से ही इनके घर की महिलाएं वेश्यावृत्ति में संलग्न थी। आजादी के 75 वर्ष गुजर चुके हैं परंतु देश में उनको अपना जीवन यापन करने के लिए आज भी वेश्यावृत्ति का सहारा लेना पड़ता है खासकर कंजर समुदाय के पुरुष काम करने में बड़े आलसी होते हैं तथा महिलाएं घर का खर्चा चलाने के लिए वेश्यावृत्ति जैसे धंधे को अपना लेती हैं। आज देश को आजाद हुए कितने साल हो गए हैं परंतु यह पेट पालने के लिए महिलाओं को देह व्यापार करना पड़ा है। आज भी आजादी के 75 साल हो चुके हैं लेकिन सड़कों पर महिलाएं विशेषकर कालबेलिया समुदाय की महिलाएं छोटे-छोटे कार्य मनोरंजन आदि के द्वारा जीवनयापन कर रही है। इनकी स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ है जैसी स्थिति उनकी आजादी के पहले थी वैसी ही स्थिति बनी हुई।आज भी कुछ जनजातियों में बेड़िया प्रथा का प्रचलन है जिसमें महिलाएं इस प्रथा में मजबूरी बस बंध जाती हैं जिसका प्रमुख कार्य वेश्यावृत्ति है। ऐसे ही राजस्थान की जनजातियां है जिनमें बुआ और भौजी का एक सिद्धांत है जिसमें स्त्री के मातृसत्तात्मक सत्ता के केंद्र में तो होती है। लेकिन उसके कार्य देह व्यापार के लिए होते हैं ना कि राज्य की सत्ता चलाने के लिए शहरों में या गांव में कुछ महिलाएं शराब बनाने के कार्य में अपने पति का सहयोग करती है बाद में विमुक्त घुमंतू तथा अर्ध घुमक्कड़ जातियों के लिए राष्ट्रीय आयोग बनाया गया। जिसके द्वारा आजादी के बाद इनको अनुसूचित जनजाति में रखा गया है तथा 2008 में रेनके आयोग की रिपोर्ट के अनुसार यह दुखद है कि, आजादी के इतने साल बाद भी इन समुदायों की स्थिति में कोई बेहतर सुधार नहीं हुआ है तथा पिछले अपराधों के या अधिनियम के कारण आज भी इनको उसके परिणाम भुगतने पड़ रहे है।

संदर्भ सूची

  1. अर्नोल्ड, डेविड, क्राइम एंड क्राइम कंट्रोल इन मद्रास, क्राइम एंड क्रिमिनलिटी इन इंडिया, यूनिवर्सिटी आफ एरिज़ोना, प्रेस।
  2. शेर, सिंह, 1965, द सेंसिस ऑफ़ पंजाब, मुंशीराम मनोहरलाल, दिल्ली।
  3. हरबर्ट, रिशेले, 1908, द पीपल आफ इंडिया, थेकर, स्प्रिंग एंड कंपनी, कोलकाता।
  4. थ्रस्टन एंड एडगर, कास्ट एंड ट्राइब आफ साउदर्न इंडिया, मद्रास यूनवर्सिटी प्रैस।
  5. आर सी वर्मा, इंडियन ट्राइब्स थ्रू द एजेस, 2011, मिनिस्ट्री ऑफ इंफॉर्मेशन एंड ब्रॉडकास्टिंग।
  6. राधा कृष्ण, मीणा, डिसंअनरेड बाय क्रिमिनल ट्राइब एंड ब्रिटिश कोलोनियल पॉलिसी, ओरिएंट लोंगमन, 2003, चंडीगढ़।

लेख

  1. Piliavsky, Anastasia, The Criminal Tribe in India Befor The British,
  2. मिश्रा, सौरभ, क्रिमिनल ट्राइब्स इन इंडिया, अकादमियां।

हिंदी कथा

  1. मोरवाल, भगवानदास, रेत, 2008, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली।

रिपोर्ट:

  1. रेंके आयोग, प्रेस सूचना ब्यूरो, 23-अप्रैल-2015 15:23 IST, भारत सरकार, सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय।

वेबसाइट:

  1. Www.jstor.com
  2. Www.researchgate.com

बंगाल : भारत विभाजन की प्रयोगशाला

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स्वाधीन भारत में जन्म लेने वाले आप और हम शायद विभाजन की विभीषिका वर्ष में एक दो बार पंद्रह अगस्त के समय याद कर लेते होंगे अथवा वो भी नहीं। परन्तु हमारा बंगाल अभी भी नहीं भुला। जी हाँ, बंगाल ! विभाजन से पहले आज के बांग्लादेश और पश्चिम बंगाल को मिलाकर बंगाल कहते थे! अंग्रेजी शासन का सबसे बड़ा ‘प्रोविंस’। 16 अक्टूबर 1905 में कर्जन ने बंगाल को दो भागों में बांटा जिसे 1908 से प्रारम्भ हुए बंग-भंग विरोधी आंदोलन के कारन वापस लेना पड़ा और 1911 में बंगाल पुनः एक हो गया। इस प्रकार अंग्रेजों का ‘फूट डालो, शासन करो’ वाला षड्यंत्र, हिन्दू-मुस्लिम जनसंख्या की बहुलता के आधार पर शासन की सुलभता के बहाने किए गए बंटवारे को जाग्रत समाज ने विफल कर दिया परन्तु सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न उठता है कि बंगभंग को विफल करने वाला समाज अगस्त 1947 में इसी बंगाल अर्थात भारत के विभाजन को क्यों नहीं रोक पाया?

भारत विभाजन में मूलतः पंजाब और बंगाल का विभाजन हुआ। भारत विभाजन की पहली प्रयोगशाला भी बना बंगाल। स्वतंत्रता से ठीक एक वर्ष पूर्व 16 अगस्त 1946 का ‘द ग्रेट कोलकाता किलिंग’ बंगाल के तत्कालीन प्रधानमंत्री और ‘बंगाल का कसाई’ नाम से कुख्यात सुरावर्दी की देखरेख में, जिन्ना, इक़बाल, और रहमत अली के सपनों को साकार करने का एक प्रयोग था। 30 जून 2007 को द टेलीग्राफ में ‘इक़बाल्स हिन्दू रिलेशन्स’ नामक प्रकाशित लेख में खुशवंत सिंह बताते हैं कि मोहम्मद इक़बाल के दादा कन्हैयालाल सप्रु एक कश्मीरी ब्राह्मण थे। यही इक़बाल, जिन्होंने ‘सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तां हमारा’ रच कर भारतीयों के ह्रदय में जगह बनाई, पृथक मुस्लिम राष्ट्र के एक वैचारिक सिद्धांतकार थे। इकबाल 21 जून 1937 को जिन्नाह को एक “निजी और गोपनीय’ पत्र में लिखते हैं “उत्तर-पश्चिम भारत और बंगाल के मुसलमानों को भारत और भारत के बाहर के अन्य राष्ट्रों की तरह अपने राष्ट्र के आत्मनिर्णय का हकदार क्यों नहीं माना जाना चाहिए? व्यक्तिगत रूप से मुझे लगता है कि उत्तर-पश्चिम भारत और बंगाल के मुसलमानों को वर्तमान में मुस्लिम अल्पसंख्यक प्रांतों की उपेक्षा करनी चाहिए। मुस्लिम बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक दोनों प्रांतों के हित में अपनाने का यह सबसे अच्छा तरीका है।” मुस्लिम लीग के जुलाई 1946 के मुंबई (बॉम्बे) अधिवेशन में जिन्ना ने कहा “अब समय आ गया है कि संवैधानिक तरीकों को छोड़ दिया जाए…. मुस्लिम राष्ट्र ‘डायरेक्ट एक्शन’ का सहारा ले।…. आज हमारे पास पिस्तौल भी है और हमलोग इसके इस्तेमाल करने की स्थिति में भी है”

जिन्नाह सही कह रहे थे। बंगाल में सुरावर्दी का शासन था और कोलकाता में रहमान अली के गुंडे थे। अंग्रेजों का तो इतना समर्थन था कि बंगाल का गवर्नर फ्रेडरिक बरोज ने कह दिया कि ‘उन्होंने दंगे की कोई खबर ही नहीं सुनी’. दस हजार से ज्यादा हिन्दुओं को मार दिया गया। घायलों और बलतकृत महिलाओं की संख्या भी हजारों में थी। सुरावर्दी पुलिस कंट्रोल रूम से सभी गतिविधियों को नियंत्रित कर रहा था। बाद में प्रशासन की उदासीनता और षड्यंत्र को समझ कर हिन्दुओं ने भी गोपाल मुखर्जी के नेतृत्व में प्रतिकार प्रारम्भ किया। अब सरकार को दंगे रोकने के लिए पुलिस भेजने की सूझी। इस प्रकार द ग्रेट कोलकाता किलिंग्स का भारत विभाजन मॉडल के एक ‘अर्द्ध सफल प्रयोग’ के रूप में अंत हुआ।

तो पहला सफल प्रयोग कौन सा था? नोआखली नरसंहार ! पद्मा और मेघना नदी के संगम स्थल पर कलकत्ता से दूर एक क्षेत्र जहां तब 81.4 प्रतिशत मुस्लिम और मात्र 18.6 प्रतिशत हिन्दू रहते थे। आज भी कुछ लोग पूछते हैं क्या हो जाएगा अगर मुस्लिमों की संख्या बढ़ जाएगी और वे बहुसंख्यक हो जाएंगे तो? इस प्रश्न का उत्तर विभाजन की विभीषिका का सबसे करूण और क्रुर अध्याय ‘आपरेशन नोआखाली’ देगा।नोआखाली को मुस्लिम लीग ने इस लिए चुना क्योंकि वो दिल्ली और कोलकाता से बहुत दूर स्थित एक मुस्लिम बहुल क्षेत्र था। नोआखाली में हिन्दुओं का आर्थिक बहिष्कार शुरू हुआ। मुस्लिम नेशनल गार्ड के सिपाही हिन्दुओं की दुकानों के सामने खड़े रहते थे। अगर कोई उनकी दुकान से कुछ खरीद लेता तो उसे सजा दी जाती थी। हिन्दूओं के घरों में गोमांश दे जाना, बलपूर्वक खाने को बाध्य करना, लड़कियों और महिलाओं का अपहरण कर निकाह करवा देने, जैसी मध्यकालीन कबीलाई बर्बरता के साथ-साथ इस प्रयोग को सफल करने का मुख्य दायित्व भूतपूर्व मुस्लिम सैनिकों को दी गई थी जिन्होंने सेना की रणनीतिक प्रशिक्षण के अनुभव के आधार पर नरसंहार की योजना बनाई थी। हिन्दू वहां से भाग न पाए इसलिए रास्ते खोद कर, नहरों और नदियों में गस्त लगा कर तथा अन्य माध्यमों से बहार के लोगो से पूर्णतः संपर्क काट दिया गया था। (22 अक्टूबर 1946, अमृत बाजार पत्रिका) . इस प्रकार एक सुनियोजित तरीके से नोआखली के अल्पसंख्यक हिन्दुओं को मार कर ऑपरेशन नोआखली सफल किया गया। आगे के दिनों में हम देखते हैं मुस्लिम लीग यही मॉडल प्रस्तावित पाकिस्तान के सभी भागों में लागु करती है और इस प्रकार वो कांग्रेस को भय तथा ख़राब भविष्य की चिंता से ग्रस्त करने के दुष्चक्र रचती है। अंग्रेज भी इन रक्पातों का दोष अपने पर नहीं लेना चाह रहे थे। अन्य सभी राजनैतिक तथा वैश्विक परिस्थितयों के साथ-साथ ये भी एक कारण था कि भारत का विभाजन समय से पूर्व ही कर दिया गया। बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर और सरदार पटेल जैसे नेता भी ‘एक्सचेंज ऑफ़ पापुलेशन’ और ‘भारत विभाजन’ के समर्थन में अपने विचार व्यक्त किए थे।

भारत विभाजन पर बहुत चर्चा होती है परन्तु प्रस्तावित पाकिस्तान के विभाजन पर बहुत कम चर्चा प्रबुद्ध समाज में होती है। जिन्ना की द्विराष्ट्र सिद्धांत और मुस्लिम लीग के योजना के अनुसार बंगाल और उत्तर पश्चिम भारत के मुस्लिम बहुल प्रदेशों को मिला कर अलग मुस्लिम देश पाकिस्तान का गठन होना था। इस पर मुस्लिम लीग, कांग्रेस और ब्रिटिश सरकार तीनों एकमत हो गए थे। इसी बीच सुहरावर्दी ने देखा कि अगर बंगाल का विभाजन होता है तो यह पूर्वी बंगाल के लिए आर्थिक रूप से बहुत खतरनाक सिद्ध होगा क्योंकि अधिकांश जूट मील, कोयले की खदाने ,महत्वपूर्ण उद्योग सभी पश्चिम बंगाल में रह जायेंगे। तब उसने शरत चंद्र बोस और कुछ प्रतिष्ठित राजनीतिज्ञों के साथ विभाजन का एक नया विकल्प सुझाया : अखंड और स्वतंत्र बंगाल !

1941 की जनगणना के अनुसार बंगाल में 53.4 % और 41.7% हिन्दू थे। बंगाल मुस्लिम बहुल प्रदेश था। यहाँ की हिन्दू जनता ‘द ग्रेट कोलकाता किलिंग्स’ और ‘नोआखली नरसंहार’ की बर्बरता को भूली नहीं थी। इन नरसंहारों के नायक सुहरावर्दी का यह प्रस्ताव अधिकांश लोगों को पसंद ही नहीं आया। हिन्दू महासभा के नेता डॉ श्यामा प्रसाद मुख़र्जी और कई नेताओं ने इस प्रस्ताव के विरुद्ध मोर्चा खोल दिया। डॉ मुख़र्जी ने वायसराय को पत्र लिखा। “अगर पिछले दस वर्षों में बंगाल के प्रशासन का निष्पक्ष सर्वेक्षण किया जाता है, तो ऐसा प्रतीत होगा कि हिंदुओं ने न केवल सांप्रदायिक दंगों और अशांति के कारण, बल्कि राष्ट्रीय गतिविधियों के हर क्षेत्र में, शैक्षणिक, आर्थिक, राजनीतिक और यहां तक ​​​​कि धार्मिक आधार पर भी प्रताड़ना झेला हैं।”
उन्हें समाज के विभिन्न वर्गों से भी समर्थन प्राप्त हुआ। कांग्रेस, वामपंथी नेताओं सहित विभिन्न क्षेत्रों में प्रतिष्ठित बंगाली ‘भद्रोलोक’ का भी समर्थन मिला। यह मूहिम संपूर्ण हिन्दू समाज का था जिसके एक अंश तथा मुख थे डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी। हिन्दू वामपंथी नेता भी कोलकाता किलिंग्स की घटना के बाद अंदर तक दहल ग‌ए थे जब उन्होंने मुस्लिम कामरेडों के द्वारा न्यूअलिपुर में अपने ही हिन्दू कामरेडों की बर्बर हत्या देखी। आम जनता भी बंगाली हिन्दु होमलैंड के पक्ष में थी। अंततः प्रस्तावित पाकिस्तान की सीमा निर्धारित होने से पूर्व ही 20 जुन 1947 को यह निश्चय हो गया कि अगर मुस्लिम राष्ट्र बनता है तो पश्चिम बंगाल पाकिस्तान का हिस्सा नहीं होगा। बाद में बंगाल से अलग हुआ हिस्सा पूर्वी पाकिस्तान कहलया जो 1971 के बाद पाकिस्तान से स्वतंत्र हो कर बांग्लादेश बना। आज 1946 के लक्ष्मी पूजा की रात को मजहबी नारों के साथ अल्पसंख्यक हिंदुओं की हत्या का साक्षी
नोआखली बांग्लादेश में और कोलकाता भारत में है!!

हिन्दी यात्रा-वृत्तान्त और समाज: डॉ. मुकुल रंजन झा

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हिन्दी यात्रा-वृत्तान्त और समाज

सारांश

पूरी दुनिया आज जहां खड़ी है उनमें विभिन्न विषयों व क्षेत्रों पर केन्द्रित यात्रा वृतान्त हमारे ज्ञान बर्द्धन और सामाजिक विकास के लिए धुरी का काम करती हैं। विभिन्न विषयों व क्षेत्रों की तरह ही साहित्य में भी यात्रा वृतान्त एक महत्वपूर्ण विधा के रुप में स्थापित हैं। लेकिन साहित्य का क्षेत्र समाज किसी निश्चित गतिविधि का क्षेत्र नहीं है। उसके आयाम इतने हैं जितने की साहित्यकार क्षमता रखते हैं। इसे असीमित कह सकते है। हर साहित्यिक यात्रा की  अपनी विशेषता होती है। साहित्यिक यात्राएं प्राकृतिक सौदर्यकेन्द्रित हो सकती है तो जन जीवन के व्यवहारों पर भी केन्द्रित हो सकती है। दरअसल साहित्य की किसी भी विधा  के विषयों व पात्रों एवं परिस्थितियों का निर्धारण तात्कालिक वजहों से भी होती है। समाज में चलने वाले विविध आंदोलनों का प्रभाव विषयों के निर्धारण पर स्वबाविक रुप से होता है।

बीज शब्द: यात्रा, साहित्य, विषय, क्षेत्र, ज्ञान

शोध आलेख                                                        

गति के नियमों की खोज विज्ञान की सबसे बड़ी उपलब्धि मानी जाती है। यह माना जाता है कि गति ही जीवन हैं। समाज ने गतिशीलता के विविध आयामों की पहचान की है जो कि अकादमिक स्तर पर विषय व क्षेत्र के रुप में परिभाषित होती है। राजनीतिक, इतिहास, सामाजिक विज्ञान आदि विषयों व क्षेत्रों में गतिशीलता का अध्ययन किया जाता है। इस गतिशीलता की पड़ताल और उन क्षेत्रों में गतियों को और विकसित करने के लिए संबंधित क्षेत्रों में शोध किए जाते हैं। शोध के अपने निश्चित नियम हैं। उनमें गति के ठहराव, उनके कारणों की खोज के बाद उन्हें और गतिवान बनाने के लिए शोधार्थी अपने अनुभवों व अनुभूतियों एवं कल्पनाओं को बतौर सुझाव पेश करते हैं। इस तरह से शोध की ही एक विधा यात्रा है। इसीलिए हम पाते हैं कि विभिन्न विषयों व क्षेत्रों के लिए  यात्राओं को बहुत महत्व दिया जाता है। महात्मा गांधी ने दांडी तक की यात्रा की। इस यात्रा ने भारतीय राजनीति के ठहराव को तोड़ा और राष्ट्र के भीतर  एक नई राजनीतिक उर्जा का संचार किया। अलबिरूनी ने भारत की यात्रा करके उसकी जटिलताओं और उस भूभाग में संभावनाओं की खोज अपनी यात्राओं के दौरान की। इस तरह हम यह पाते हैं कि पूरी दुनिया आज जहां खड़ी है उनमें विभिन्न विषयों व क्षेत्रों पर केन्द्रित यात्रा वृतान्त हमारे ज्ञान बर्द्धन और सामाजिक विकास के लिए धुरी का काम करती हैं।

विभिन्न विषयों व क्षेत्रों की तरह ही साहित्य में भी यात्रा वृतान्त एक महत्वपूर्ण विधा के रुप में स्थापित हैं। लेकिन साहित्य का क्षेत्र समाज किसी निश्चित गतिविधि का क्षेत्र नहीं है। उसके आयाम इतने हैं जितने की साहित्यकार क्षमता रखते हैं। इसे असीमित कह सकते है। हर साहित्यिक यात्रा की  अपनी विशेषता होती है। साहित्यिक यात्राएं प्राकृतिक सौदर्यकेन्द्रित हो सकती है तो जन जीवन के व्यवहारों पर भी केन्द्रित हो सकती है। दरअसल साहित्य की किसी भी विधा  के विषयों व पात्रों एवं परिस्थितियों का निर्धारण तात्कालिक वजहों से भी होती है। समाज में चलने वाले विविध आंदोलनों का प्रभाव विषयों के निर्धारण पर स्वबाविक रुप से होता है।

भारत में साहित्यक यात्राओं का समाज शास्त्रीय  अध्ययन का अभाव दिखता हैं। पिछली सदी के आखिरी वर्षों से समाज शास्त्रीय विषय भारतीय समाज में विमर्शों के केन्द्र में हैं। साहित्य के विभिन्न विधाओं को भी इस विमर्श ने गहरे स्तर पर प्रभावित किया हैं। लिहाजा साहित्य के क्षेत्र में यह शोध बेहद महत्वपूर्ण हो जाता है कि साहित्यिक यात्राओं में समाज शास्त्रीय दृष्टिकोण पर आधारित साहित्य की उपलब्धता किस रुप में है और यदि हैं तो उसकी सीमाएं क्या हैं। हर साहित्य का एक सामाजिक सरोकार होता है और भारत जैसे विभिन्नताओं व विविधताओं वाले समाज के लिए यह महत्वपूर्ण होता है कि किसी भी साहित्यिक रचनाकर्म के सरोकार की सीमाएं कहां जाकर रुकती है। साहित्य यात्राएं साहित्य के क्षेत्र में सृजनात्मकता को विस्तार देती है, यह तो सही है लेकिन उससे ज्यादा महत्वपूर्ण है कि साहित्यिक यात्राएं अन्य क्षेत्रों व विषयों के लिए भी खिड़कियां होती है। साहित्यिक यात्रा वृतांतों का समाज शास्त्रीय अध्ययन को एक नई पहल के रुप में देखा जा सकता हैं। 

इस प्रकार समाज और यात्रा-वृत्तान्त का घनिष्ठ सम्बन्ध है। यात्रा-वृत्तान्त में समाज किसी न किसी रूप में अवश्य प्रतिबिंबित होती है। इसलिए समाज के साथ यात्रा-वृत्त भी बदलता और विकसित होता है। किसी भी यात्रा-वृत्त को समझने के लिये उस समय के समाज को समझना आवश्यक होता है। जिस किसी भी यात्रा-वृत्तान्तकार का विषय जितना व्यापक होता है वह अपनी रचनाओं में भी उतनी ही विविधताओं से प्रकट होता है। यात्रा-वृत्तान्तकार एक सजग और संवेदनशील व्यक्ति होता है। इसलिए यात्रा-क्रम में उन्हें जितने प्रकार के अनुभव प्राप्त होते हैं वह अपनी यात्रा-वृत्तान्त में उन्हें शब्द देने का प्रयास करते हैं। यात्रा-वृत्तान्तकार का रचना भी उनके व्यक्तित्त्व के समान ही बहु आयामी है। इसलिए उनके यात्रा-वृत्तांत में जीवन के  कई मोड़ मिलते हैं।

यात्रा-वृत्तान्तकार ने समकालीन समाज की मान्यताओं  का अध्ययन बड़े ही स्वाभाविक रूप में किये हैं। इन मान्यताओं के कारण ही यात्रा-वृत्तान्तकार को लिखने की प्रेरणा मिली। इसी ने उनके ह्रदय में मानवता का झरना भी बहाया और वे समाज की भलाई के लिए कुछ सोचने-समझने और कुछ करने के लिए कदम –कदम पर आगे बढ़ते हुए दिखाई दिए।

हम पाते हैं कि यात्रा-वृत्तान्तकार कला की धनी होने के साथ-साथ समाजसेवी भी हैं। यात्रा-वृत्तान्त में भी उनका यह रूप उभर कर सामने आया है। लेखक के लिये यात्रा-वृत्त का प्रत्येक क्षण अमूल्य है। इसलिए गरीबों का जीवन भी यात्री के ह्रदय को द्रवित कर देता है। बड़ी कठिनाई से लेखक प्रतिदिन जीवन के कार्यों का और गरीबी का चित्रण करते हैं। अध्ययन बताते हैं कि लेखक को कितनी छोटी-छोटी बातें और चीजें रोक लेती है और अपनी तरफ खींचती है। और इन छोटी –छोटी बातों से उनकी सम्पूर्ण जीवन दृष्टि बनती है।

यात्रा-वृत्तान्तकार जीवन के विभिन्न पक्ष को संवेदित करते हैं। एक यात्रा-वृत्तान्तकार जो कुछ देखते–सुनते , ग्रहण करते हैं  सबका उन पर प्रभाव पड़ता है। उनके मन पर सबकी छाप पड़ती है। वह हर चोट से झंकृत होते हैं। उनकी कुछ न कुछ प्रतिक्रिया अवश्य होती है। वह दुखी होते हैं, खुश होते हैं , चिन्ता, भय, रोमांच आदि सब अनुभव उन्हें होती है। वह हँसते भी हैं। गुस्सा भी होते हैं। ये सारे भाव उनमें उत्पन्न होते हैं।यात्रा के संपर्क से उनमें जो कुछ घटित होता है उसे एक साथ व्यक्त करते हैं।

उनके यात्रा-वृत्तान्त में अनेक संवेदन मिलते हैं। जीवन के अनेक रूप और स्थितियाँ मिलती है। जैसे – नदी, पहाड़, मानव-जीवन, संघर्ष, आशा-निराशा सब कुछ यहाँ मिलता है। इनके यात्रा-वृत्तान्त में संवेदना के अनेक स्थल मिलते हैं। यही लेखक की श्रेष्ठता है। यही उनकी यात्रा-वृत्तान्त की शक्ति है।यात्रा-वृत्तान्तकार न तो सिर्फ समाजशास्त्री है न राजनीतिक लेखक बल्कि सम्पूर्ण जीवन के यात्री हैं।

यात्रा-वृत्तान्तकार की रचनाओं  में जीवन के प्रश्नों के साथ ही उनके समाधान की भी  अभिव्यक्ति हुई है। उनके यात्रा-वृत्तान्तों के अध्ययन को समझने के लिये उनके सामाजिक चिंतन को भी ध्यान में रखना आवश्यक है। वे दुःख का केवल यात्रा चित्रण करके नहीं रह जाते हैं बल्कि उसके कारक का अध्ययन करते हुए उसके समाधान का मार्ग भी प्रस्तुत करने की कोशिश करते हैं। वे प्रश्न भी करते हैं  और इन प्रश्नों के उत्तर के लिये वे जीवट की तरह दुःख की तह में भी जाते हैं।

आगे विस्तार की यह स्थिति समाज और उसके समूचे परिवेश में रमते हुए देश और विश्व के व्यापक छोरों को स्पर्श करते है।यात्रा-वृत्तान्तकार केवल दुखी के प्रति सहानुभूति दिखा कर ही नहीं रह जाता बल्कि एक सामाजिक सरोकार से युक्त यात्रा-वृत्तान्तकार के रूप में पाठक के लिए मनुष्य के कर्म के रूप को प्रस्तुत करने की कोशिश करते हैं। यात्रा-वृत्तान्तकार ने यात्रा-वृत्तान्त का चित्रण करते समय बाहरी वातावरण, स्थान विशेष  और सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों का अध्ययन किया है। इसके अंतर्गत यात्रा-वृत्तान्तकार ने बाहरी चित्रण में व्यक्तियों की वेश-भूषा, कार्य-व्यवहार, नाम, रूप-रंग, भाव-भंगिमा, विचारों का आदान-प्रदान आदि का अध्ययन किया  है।रचनाकार ने इन सब बातों को बहुत सुन्दर ढ़ंग से व्यक्त किया है। इस प्रकार यात्रा-वृत्तान्तकार बाहरी यात्रा चित्रण का समाजशास्त्रीय अध्ययन निम्नांकित रूप में किये हैं। यात्रा-वृत्तान्तकार समाज के जिस जाति की प्रवृत्तियाँ, रहन-सहन  या स्वभाव के बारे में जानना चाहते हैं उसके सम्बन्ध में कुछ जानने का सबसे अच्छा अवसरस्थान विशेष यात्रा का होता है। जैसे – “ मालूम हुआ कि जिस होटल में हम ठहराए गए हैं वह पीकिंग के बढ़िया होटलों में दूसरे नंबर पर है। लेकिन इस दस मंज़िले होटल कि इमारत में या कि इसके कमरों में ऐसा कुछ भी नहीं जिसे भव्य कहा जा सके। बड़े होटलों में सर्वथा अभाव था। कर्मचारी मेहनती थे, विशेष प्रशिक्षित नहीं। पूछताछ करने पर पता चला कि चीन में होटल विद्या सीखने कि कोई समुचित व्यवस्था अभी तक नहीं रही है। होटल के अधिकतर कर्मचारी आठवीं, दसवीं तक पढे लिखे लड़के-लड़कियां थे।”1  लेखक आधुनिक शहरों के भी यात्री हैं। उनकी यात्राओं में आधुनिक सभ्यता और विज्ञान की देन के बीच बड़े शहर के युवाओं की स्थिति का सुंदर वर्णन किये हैं। जैसे – “भारत और चीन के युवक इंजीनियर अमेरिका में जो काम दो हजार डॉलर में आसानी से कर देते हैं वही अमेरिकी कंप्यूटर इंजीनियर कम-से-कम पाँच हजार डॉलर में मुश्किल से करेंगे। शारीरिक और बौद्धिक दोनों ही प्रकार के काम गरीब देशों के लोग सस्ते में कर देते हैं। इसका एक कारण तो यह भी है कि अमेरिकी युवकों की प्रवृत्ति प्रोद्योगिकी शिक्षा, गणित और भौतिकी आदि में नहीं हो रही है। भारतीय और चीनी युवक प्रोद्यौगिकी में उनसे ज्यादा कुशल हैं। इसी प्रकार गरीब देशों के अकुशल मजदूर उनकी तुलना में श्रमिक श्रम करते हैं। क्या इससे यह भी निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि अति समृद्धि बच्चों को गैर जिम्मेदार और अकर्मण्य बनाती है बहरहाल, यह कहा जा सकता है कि अमेरिका जब तक स्वयं अपने देश में अकुशल और कुशल दोनों प्रकार के श्रम करने वालों की संख्या नहीं बढ़ाएगा, बाहर से जाने वालों को रोक नहीं पाएगा। चाहे वह इससे कितना भी परेशान क्यों न हो ?”2 

पिछले कुछ वर्षों में समाज की अवधारणा और लोकतन्त्र के प्रति चिंता ने यात्राओं में एक महत्त्वपूर्ण स्थान बना लिया है। तात्पर्य यह है कि आज दुनिया विकास के एक महत्त्वपूर्ण मोड़ पर खड़ा है। लेकिन यात्रा वृत्तान्तकार सामाजिक जीवन के विशेष पक्षों पर प्रकाश डालने की कोशिश कार रहे हैं।  प्रस्तुत पंक्तियाँ ‘आकाश ऐसे खुलता है ! शीर्षक यात्रापरक संस्मरण से उद्धृत है। “ गुवाहाटी से चलकर मेघालय की ओर आने वाला मार्ग आदिवासियों की जीवनरेखा की तरह है। शहर पीछे छूटते ही जनजातियों की दुनिया आकार लेने लगती है। थोड़ी-थोड़ी दूर पर सड़क से फूटकर दायें-बाएँ की ऊँची-नीची पहाड़ियों में गुम हो जाने वाले सँकरे कच्चे रास्ते बरबस गाँवों की पतली पतली गलियों की याद दिला देते हैं। इन पहाड़ियों के उस पार, जहाँ तक विकासशील भारत का पहुँचना आज तक संभव नहीं हुआ है, आदिवासियों के गाँव बसे हुए हैं। पहाड़ियों की पीठ पर और निचली संकीर्ण घाटियों में बसी हुई इनकी दुनिया आज भी आधुनिकता की आहट से निपट अनजान और 21 वीं सदी के विश्व से न जाने कितनी दूर है।”3 

शायद कहने की आवश्यकता नहीं है कि यात्राओं की दुनिया में सबसे अहम विषय समाज का ही है।  इस प्रकार हम पाते हैं कि यात्रा वृत्तान्तकार किसी न किसी सामाजिक संदर्भ से जुड़े हुए होते हैं। आचार्य श्री काकासाहेब कालेलकर के शब्दों में, “ हम करसियांग, दार्जिलिंग और कालीमपोंग इन तीनों स्थानों से भेंट करने आये हैं। रात में कलकत्ता से निकले और सारी रात उत्तर की यात्रा करते हुए सबेरे सिलिगुड़ी आ पहुँचे। पार्वतीपुर रात में कब निकल गया, इसका कुछ पता भी नहीं चला। कलकत्ता से सिलिगुड़ी तक की मसाफिरी किसी भी ऋतु में आह्लाद दायक ही होती है। हरे भरे खेत, उनके बीच सिर ऊंचा करने वाले पेड़, संगमरमर के समान बादलों को प्रतिबिम्बित करने वाले जलाशय और उनके बीच अपनी सुघडता से सुहाने वाली झोपड़ियाँ सभी कुछ देखने वाले को प्रसन्न करते हैं। इस आद्र मुल्क में रहने वाले को तो यह आँखों के लिए बिछी हुई दावत के समान ही प्रतीत होता है।”4   

इस प्रकार यात्री एक समाजशास्त्रीय विचारक की तरह उस सामाजिक परिवेश के बारे में प्रतिक्रिया करते हैं जिसमें वह रहते हैं। यह परिवेश अंदरूनी और बाहरी दोनों तरह का होता है। अंदरूनी संदर्भ में उसकी पृष्ठभूमि और व्यक्तिगत सोच होती है। जबकि बाहरी संदर्भ में समाज के अस्तित्तव को बनाए रखने वाला सम्पूर्ण परिवेश होता है। इस प्रकार यात्रा वृत्तान्तकार की लेखनी बहुआयामी है। जिसमें उन्होने सामाजिक तथ्यों का अध्ययन किया है। वह अपने अध्ययन में व्यक्ति के बजाए समाज पर विशेष ज़ोर देते हैं और यह बताने की कोशिश करते हैं कि सामाजिक घटनाएँ ही व्यक्ति को प्रभावित करती है। इस तरह यात्रा वृत्तान्तकार समाजशास्त्रीय दृष्टि से सामाजिक वस्तुओं को देखने परखने का काम करते हैं। चाहे समाज में सामाजिक स्थिति की बात हो या राजनीतिक स्थिति की बात। इस प्रकार यात्रा वृत्तान्तकार समाज में केवल अग्रणी की भूमिका में रहते हैं।  यात्रा वृत्तान्तकार केवल ऐसी सच्चाई को खोजने की चेष्टा करते हैं जो यात्रा को प्रासंगिक बना सके और सामाजिक मुद्दों पर ध्यान केन्द्रित करके ऐसा बदलाव ला सके जिससे समाज के सभी हिस्सों को लाभ मिल सके। प्रस्तुत पंक्तियाँ नीलेश रघुवंशी द्वारा लिखित ‘यात्रा अजंता की’ नामक यात्रा-संस्मरण से ली गई है। “ अजंता की हर गुफा को देखकर उसकी बदहाली पर कुछ टूटता है भीतर ही भीतर बिना आवाज। ऐसे क्षण चट्टान के पिघलने और ढहने के क्षण होते हैं। यह बेआवाज रोना किसके लिए है – किस पर रोना है यह। अजंता… अजंता … अजंता … जब भी अखबार या टी. वी. पर खूबसूरत लुभावना वह विज्ञापन देखती हूँ जिसमें फोकस होता है “इनक्रेडिबल इंडिया”अद्भुत भारत, अतुल्य भारत – तब रोता है कोई मेरे भीतर। अजंता के शिल्प और चित्रों के अधमिटे बदरंग रंग रात भर सिसकते हैं मेरे संग। अद्भुत भारत की अतुलनीय विश्व धरोहर अजंता तुम्हें इतने बरसों बाद क्यों देखा मैंने। वो भी इस हाल में। काश मैं तुम्हें तुम्हारे चरम उत्कर्ष में देख पाती। एकदम चुप सन्नाटे को चीरते तुम्हारे मौन के साथ गुजार पाती कुछ दिन, कुछ रात।”5  इन यात्रा वृत्तान्तकारों में राहुल सांकृत्यायन के भी कई उदाहरण है। एक अन्य उदाहरण विलियम मूरक्रोफ्ट के ‘अलमोड़ा से टिहरी’ नामक यात्रा के अंश से –

“ हमलोग 12 दिसम्बर 1819 को अलमोड़ा से जोशीमठ पहुँचे। न कुली और न याक ही पर्याप्त संख्या में उपलब्ध थे। फिर यह पता चला कि नीती दर्रा भी पार करने लायक नहीं है। हमें दो सप्ताह पहले यहाँ आना चाहिए था। 21 दिसम्बर को हुणिये नीती दर्रे से तिब्बत वापस आ गये थे। मैंने प्रस्ताव रखा कि हम समान यहीं कुलियों के पास छोड़कर दर्रा पार करने का प्रयास करें। लेकिन कुलियों ने मना कर दिया और कहा कि हम नष्ट होने को तैयार नहीं हैं। अतः हमने दर्रा पार करने का इरादा त्याग दिया। तय किया कि या तो अगली गर्मी की शुरुआत तक यहीं रहें या लद्दाख की यात्रा करें।”6          

यात्रा वृत्तान्तकारों ने अंतर निर्भरता और अंतर संबद्धता पर भी ज़ोर दिया है। जिसमें यात्री स्थिति को सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलुओं के रूप में एक साथ देखते हैं। उसमें उनकी विशेष रुचि रही है। इसमें उनके कार्य उल्लेखनीय है। इससे हमारे समाज में हो रहे सामाजिक परिवर्तन की प्रवृत्तियाँ का भी पता चलता है। इसलिए यात्रा वृत्तान्तकार परंपरा और आधुनिकता के विषयों पर भी ध्यान केन्द्रित करने की कोशिश करते हैं। जैसा कि हम अवगत हैं परंपरा और आधुनिकता को एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता और दोनों एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं। अध्ययन में पाते हैं कि जंगली इलाकों में रहने वाले और अपने सामाजिक जीवन के प्रत्येक पहलू में स्वतन्त्रता का जीवन बिताने वाले समाज आधुनिक विकास से कुल मिलाकर अछूते रहे हैं और आधुनिकीकरण का प्रभाव वहाँ कुछ खास कारणों से ही पहुंचा है। इन कारणों में वन और खनिज संसाधनों का दोहन ही शामिल है। अनिल यादव के शब्दों में, “एक आदिवासी ने कहा, “जिस दिन परेश बरुआ नहीं रहेगा इस इलाके में एक हवा अलग से आएगा।”7

 बाहरी दुनिया के संपर्क में आते ही वहाँ के लोगों को अपने अधिकारों और जमीन से हाथ धोना पड़ जाता है और वे एक नए और अजनबी सामाजिक परिवेश में जीने के लिए विवश हो जाते हैं। वहाँ के समाज पर आधुनिकीकरण का प्रभाव कई रूपों में पड़ा है। कुछ लोगों को आधुनिकीकरण से काफी लाभान्वित हुई है जबकि अधिकांश घाटे में रही हैं। इस तरह अनिल यादव समाज की बड़ी गंभीर समस्या पर कुछ इस तरह विचार कर रहे हैं। उनके ही शब्दों में,

“ देश के कुल उत्पादन का चौथाई हिस्सा असम के कुओं से निकाला जाता है। उसके बदले केन्द्र से मिलने वाली बहुत कम रॉयल्टी यहाँ की राजनीति का पुराना मुद्दा है। दिल्ली से चाय, तेल, कोयला ले जाती है बदले में सेना भेजती है – किसी भी दिल्ली विरोधी आंदोलन के आहवाहन का यह मंत्र है।”8   एक और उदाहरण

“एक और सरकारी योजना थी जिसमें रबड़ बोर्ड ने आदिवासियों की ज़मीनें सात साल के लिए लीज पर लेकर प्लांटटेशन किया था। यहाँ ज़मीनों के मालिक ही मजदूर थे जिन्हें प्लांटेशन और मार्केटिंग के हुनर सीख लेने के बाद बाकायदा एक प्रोसेसिंग यूनिट के उफार के साथ रबड़ इस्टेट वापस किए जाने थे। उस वक्त त्रिपुरा में करीब बीस हजार हेक्टेयर में रबड़ ईस्टेट थे और उत्पादन में केरल के बाद दूसरा नंबर हो चुका था। रबड़ बोर्ड ने सर्जिकल दस्ताने, सैडिल, टायर, रबड़ बैंड बनाने के कई प्रोजेक्ट तैयार किए थे जिनसे आगामी दिनों में उत्पादन होना था।… विजय हरांगखाल ने बताया, बहुत कम लोग जानते हैं कि देश का लगभग आधा शहद रबड़ के बगानों से पैदा होता है। रबड़ के फूलों पर मधुमक्खियाँ आती हैं। एक हेक्टेयर प्लांटेशन से औसतन दो कुंतल शहद तैयार होता है। रबड़ के फूलों पर बैठने वाली मधुमक्खियाँ के डंक झर तो नहीं जाते, मेरी इस जिज्ञासा पर वे देर तक हँसते रहे।”9

ध्यान देने की बात है कि केवल आधुनिकीकरण से समूची समाज में परिवर्तन नहीं आता है। कहने का तात्पर्य यह है कि सामाजिक परम्पराओं में इस प्रकार का गुणात्मक परिवर्तन नहीं आता है। लेकिन परंपरागत समाज में सामाजिक-धार्मिक आचार-व्यवहार का जारी रहना आवश्यक है। हमें यह समझना होगा की जो लोग आंदोलन के लिए सिर उठाते रहते हैं उन्हें तभी रोका जा सकता है जब आधुनिकीकरण या विकास के लाभों का समान वितरण किया जाये। क्योंकि आधुनिकता का स्वरूप किसी समाज के ऐतिहासिक अनुभवों के आधार पर भी निर्धारित होता है। शायद कहने की जरूरत नहीं है कि यात्रा में आधुनिकता आर्थिक रूप में अधिक दिखती है जबकि परंपरा सामाजिक रूप से कम दिखती है।                    

संदर्भ सूची

  1. मनोहर श्याम जोशी, क्या हाल हैं चीन के, पृष्ठ – 21
  2. तिवारी,विश्वनाथ प्रसाद, अमेरिका और यूरप में एक भारतीय मन,पृष्ठ-27
  3. प्रियंकर पालीवाल (संपादक),यात्राओं का जिक्र, पृष्ठ – 139 
  4. आचार्य श्रीकाकासाहेब  कालेलकर, पृष्ठ – 1 यात्रा का आनन्द.
  5. प्रियंकर पालीवाल (संपादक),यात्राओं का जिक्र, पृष्ठ –107
  6. शेखर पाठक (संपादक), पहाड़ -11, पृष्ठ – 26
  7. अनिल यादव, वह भी कोई देस है महराज, पृष्ठ -127
  8. वही, पृष्ठ -127
  9. वही, पृष्ठ -157-58

समावेशी शिक्षा का दर्शन एवं सिद्धांत-आनंद दास

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समावेशी शिक्षा का दर्शन एवं सिद्धांत

आनंद दास

सहायक प्राध्यापक, श्री रामकृष्ण बी. टी. कॉलेज (Govt. Spon.), दार्जिलिंग

संपर्क – 4 मुरारी पुकुर लेन, कोलकाता – 700067,

पोस्ट ऑफिस- उल्टाडांगा,

ई-मेल – anandpcdas@gmail.com,

मोबाइल- 9382918401, 9804551685.

शोध सारांश

आधुनिक युग में शिक्षा के क्षेत्र में भारी बदलाव और विकास हुआ है। आधुनिक युग में शिक्षा व शिक्षण प्रणाली को सुदृढ़, सुचारु व वैज्ञानिक बनाने के लिए विश्वभर के शिक्षाविदों ने अपने-अपने तरीक़े के ख़ोज किए, अनुसंधान किए, प्रयोग किए तथा उसे वास्तविक धरातल पर उतार कर कार्यान्वित भी किए हैं। ‘समावेशी शिक्षा’ उन्हीं नवीन खोजों का प्रतिफल है जो शिक्षा के क्षेत्र में एक नया मार्ग दिखती है। समावेशी शिक्षा समान शैक्षिक अवसरों प्रदान करता है, शिक्षा में पूर्ण सहभागिता सुनिश्चित करता है, सामुदायिक सहभागिता को प्रोत्साहित करता है, उत्कृष्ट शिक्षा प्रदान करने की बात करता है तथा सभी नागरिकों समानता के अधिकार व शिक्षा के मौलिक अधिकार की भी बात करता है। समावेशी शिक्षा बच्चों की शारीरिक, बौद्धिक, सामाजिक, भावनात्मक, भाषाई तथा आने वाली अन्य परिस्थितियों से सामंजस्य बनाकर समायोजित करती है। शैक्षिक समावेशन के लिए समावेशी शिक्षा आधार का कार्य करती है। शैक्षिक समावेशन के चारों ओर जो वैचारिक, दार्शनिक, सामाजिक और शैक्षिक ढ़ाँचा होता है वही समावेशी शिक्षा को परिभाषित करता है। प्रस्तुत शोध पत्र के माध्यम से समावेशी शिक्षा के दर्शन और सिद्धान्त के परतों को खोल कर उनका विश्लेषण करने का प्रयास किया गया है।

बीज शब्द – समावेशी शिक्षा, विशिष्ट बालक, सिद्धान्त, दर्शन, दिव्यांग, शिक्षार्थी ।

शोध आलेख

अवधारणात्मक परिचय – ‘समावेशी’ शब्द का सामान्य अर्थ है एक साथ या एक जगह रहना। समावेशी शब्द समेकित, समावेशित, सम्मिलित, एकीकृत, एकबद्ध, समाविष्ट, मिलना, समायोजन, साहचर्य, व्याप्त, साथ लेना आदि शब्द पर्याय के रूप में अक्सर देखा जाता है। ‘समावेशी’ शब्द समुदाय से संबंधित है। वहीं ‘शिक्षा’ शब्द का सामान्य अर्थ है ज्ञान, सीख, विद्या, सबक, तालीम, नसीहत, परामर्श, पढ़ाई-लिखाई, उपदेश आदि शब्द के रूप में प्रयोग किया जाता है। कृष्ण कुमार पाठक और शिव कुमार के शब्दों में – “विशिष्ट शिक्षा, एकीकृत शिक्षा और समावेशी शिक्षा जैसे शब्द शैक्षिक शब्दावली में विकलांग बच्चों की शिक्षा के संदर्भ में प्रयुक्त होते रहे हैं।”1 ‘समावेशी’ और ‘शिक्षा’ शब्द का अर्थ ज्ञात होने के पश्चात् हमें यह जानने की आवश्यकता है कि समावेशी शिक्षा है क्या ? इसकी आवश्यकता क्यों पड़ी? क्या समावेशी शिक्षा के बिना शिक्षा संभव नहीं है? इन सब मूलभूत प्रश्नों को जानने, समझने व विचार करने का सार्थक प्रयास करेंगे। ‘समावेशी शिक्षा’ शब्द अंग्रेजी के ‘Inclusive Education’ का पर्याय है। इसका आशय है सामान्य, दिव्यांगों तथा मंद बुद्धि शिक्षार्थी बिना किसी भेदभाव के एक ही विद्यालय में ज्ञान अर्जित करने से है। दूसरे शब्दों में कहें तो ‘समावेशी शिक्षा’ विशेष शैक्षणिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए एक ऐसे समेकित शिक्षा के मॉडल को संदर्भित करता है जो शिक्षार्थी की वैयक्तिक भिन्नता को देखकर बिना किसी भेदभाव व अंतर के समाज के समान अवसर उपलब्ध कराकर शिक्षा के एक सुनिश्चित स्तर पर पहुँचा जा सके। समावेशी शिक्षा के द्वारा सर्वप्रथम शिक्षार्थियों या छात्रों के बौद्धिक शैक्षिक स्तर की जाँच की जाती है, तत्पश्चात् उन्हें दी जाने वाली शिक्षा का स्तर निर्धारित किया जाता है।

शोध प्रविधि – तथ्यों और जानकारियों को व्यवस्थित करके क्रमबद्ध तथा वैज्ञानिक तरीके से विश्लेषित कर परिणाम को प्राप्त करने का प्रयास हुआ है। इसके साथ-साथ शोधपत्र को वैज्ञानिक तथा प्रमाणिक बनाने के लिए संदर्भित ग्रन्थों, पत्र-पत्रिकाओं तथा इण्टरनेट की भी सहायता ली गई है।

अध्ययन का विश्लेषण – शिक्षा किसी भी देश के विकास की आधारशिला होती है। शिक्षा केवल जीवनयापन के लिये ही नहीं दी जाती है बल्कि विविध प्रकार के संज्ञानात्मक, सृजनात्मक, रचनात्मक, भावनात्मक विकास के साथ सामाजिक, धार्मिक, नैतिक व सर्वांगीण आदि गुणों का भी विकास करती है। आज दुनियाभर में शिक्षा एक मौलिक अधिकार बन कर उभर रहा है जिसका उद्देश्य जन-जन तक शिक्षा पहुंचाना है, इसकी बुनियाद वर्षों पहले रखी जा चुकी थी। मानव विकास संसाधन मंत्रालय के समावेशित शिक्षा स्कीम(2003) के अनुसार, “समावेशित शिक्षा से तात्पर्य सभी सीखने वाले, बिना विकलांग एवं विकलांग नवयुवक पूर्व-विद्यालय प्रावधानों, विद्यालय और सामुदायिक शैक्षिक स्थानों पर उपयुक्त तंत्र एवं सहायक सुविधाओं के साथ एक साथ सीख(पढ़) सकें।”2 किसी भी शिक्षा को जन-जन तक पहुंचाना तभी संभव नहीं है जब तक कि शारीरिक, मानसिक, सामाजिक तथा संवेगात्मक रूप से भिन्न या विशिष्ट छात्र-छात्राओं को शिक्षा की मुख्य धारा में सम्मिलित ना कर लें। समावेशी शिक्षा विकसित होने से पहले प्राचीन सभ्यता के इतिहास की जड़ में जाकर देखें तो यह स्पष्टतः दिखाई देता है कि शारीरिक रूप से बाधित, सामाजिक रूप से प्रताड़ित शिक्षार्थियों की हत्या कर दी जाती थी या समाज में उन्हें हेय या कलंक को दृष्टि से देखा जाता था या उन्हें नगण्य समझा जाता था। पहले दिव्यांगों को स्वीकार न करने, दया की भावना से देखभाल करने तथा उनके शिक्षा के प्रति पृथक्कीकरण की स्थिति दृष्टिगोचर होती है। समावेशी शिक्षण प्रक्रिया को सार्थक बनाने एवं उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए शिक्षा दर्शन का ज्ञान आवश्यक है। समावेशी शिक्षा ‘मानवतावादी दर्शन’ पर आधारित है। मानवतावाद ‘शिक्षा’ को मौलिक अधिकार मानता है मानवतावादी दार्शनिकों की दृष्टि से प्रत्येक राज्य को प्रत्येक बालक के लिए बिना किसी भेद-भाव के शिक्षा की उचित व्यवस्था करनी चाहिए। समावेशी शिक्षा का दर्शन दिव्यांगों तथा मंद बुद्धि शिक्षार्थी के जीवन की कठिन समस्याओं और शिक्षा के समक्ष आने वाली कठिनाईयों पर चिन्तन, मनन एवं मन्थन करता है। समावेशी शिक्षा का दर्शन व्यावहारिक एवं सैद्धान्तिक पक्ष को प्रस्तुत करता है। समावेशी शिक्षा का दर्शन के अन्तर्गत शिक्षार्थी अद्वितीयता की श्रेणी में होता है और उसे अपने सहपाठियों की भाँति विकसित करने के लिए कक्षा में विविध प्रकार के शिक्षण व उपागम की आवश्यकता हो सकती है। शिक्षार्थी अपने हाल पे पीछे रह जाने के लिए उसे दोषी नहीं ठहराया जा सकता है। कक्षा में भली-भाँति समाहित न होने की स्थिति में विशिष्ट शिक्षार्थियों की बजाय स्वंय अध्यापक को जिम्मेदार समझना चाहिए। शिक्षार्थियों के प्रति शिक्षकों की भूमिका, उनके कर्त्तव्यों को सुनिश्चित करने में एवं कार्यों का विवरण तैयार करने में समावेशी शिक्षा के दर्शन की विशिष्ट भूमिका होती है। समावेशी शिक्षा का दर्शन ही समावेशी शिक्षण की प्रक्रियाओं के सम्पादन हेतु विधियों, प्रविधियों, सूत्रों, शिक्षणशास्त्रीय स्वरूपों एवं पाठ्यचर्या निर्माण के सिद्धान्तों का विकास करता है। उचित शिक्षा के अभाव में समावेशी शिक्षा में दर्शन जैसे विषय का विकास ही नहीं हो सकता है। समावेशी शिक्षा में दर्शन उन आदर्शों एवं मूल्यों को प्रस्तुत करता है, जिसका अनुसरण करके शिक्षार्थी पूरे विश्व को नई बुलंदियों पर ले जा सकता है। समावेशी शिक्षा का दर्शन की शुरुआत विशिष्ट शिक्षा के रूप में 17वीं. शताब्दी से दिखाई देती है। इसकी शुरुआत जॉन अमोस कॉमेनियस (John Amos Comenius) विचारों, सैद्धांतों एवं उनकी पुस्तक ‘द स्कूल ऑफ इन्फैन्सी’ (The School of Infancy,1628ई.) और ‘द आरबिस पिक्ट्स’ (The Orbis Pictus, Visible World in Picture,1658ई.) नामक पुस्तक से देखी जा सकती है। उन्होंने अपनी पुस्तक के माध्यम से बच्चों को व्यक्तिगत क्षमता और प्रवृत्ति पर उनके स्वच्छन्द विकास की प्रणाली निर्धारित करने का प्रयास किया। 18वीं. शताब्दी तक आते-आते जॉन लॉक (John Locke), रूसो (Russeaus) हर्बर्ट (Herbart) तथा फ्रोबेल (Froebel) आदि शिक्षाविदों के विचारों, विधियों और सिद्धांतों ने बालकों के अध्ययन को प्राकृतिक विधि का प्रणयन किया साथ ही बालकों के सहज विकास को पर्याप्त स्वतंत्रता प्रदान की फ्रोबेल (Froebel) को जिन्हें किंडरगार्टन (Kindergarten) शिक्षा का जन्मदाता भी कहा जाता है। 19वीं. शताब्दी में अमेरिका तथा यूरोप में दिव्यांग बालकों की समावेशी शिक्षा हेतु क्रमबद्ध प्रयास प्रारम्भ हुए। विशिष्ट शिक्षा या समावेशी शिक्षा के जन्मदाता अधिकांशतः यूरोप तथा अमेरिका के चिकित्सक विशेषज्ञ तथा शिक्षाविदों ने समावेशी शिक्षा के विकास हेतु अपना-अपना सहयोग दिया। समावेशी शिक्षा की अवधारणा का श्रेय सैम्युअल ग्रिडली होवे (Samuel Gridley Howe) एक अमेरिकी विद्वान व चिकित्सक को जाता है जिसने अपने कार्यों में दृश्य-श्रव्य बाधित शिक्षार्थियों के शिक्षण के लिए असराहनीय तथा उन्मूलनवादी कार्य किया है। इसके अतिरिक्त कई ख्यातिलब्ध विद्वानों ने समावेशी शिक्षा में विशेष भूमिका अदा की है जिनमें जीन मार्क गैसपार्ड (Jean Marc Gaspard Itard), एडॉअर्ड सेगुइनो (Edouard Seguin), सिगमण्ड फ्रायड (Sigmund Freud), ऐने सुलिवान (Anne Sullivan), थॉमस होपकिंस गैलाउडेट(Thomas Hopkins Gallaudet), फिलिप पिनेल (Philppe Pinel) आदि प्रमुख नाम हैं। 19वीं. शताब्दी में समावेशी शिक्षा के अध्ययन को अधिक महत्त्व दिया गया और पर्याप्त सफलता भी प्राप्त हुई। समावेशी शिक्षा के इस वैज्ञानिक अध्ययन को विश्वव्यापी बनाने के ध्येय में अमेरिका, जर्मनी, फ्रांस, इंग्लैण्ड तथा पोलैण्ड आदि प्राय: सभी पश्चिमी देशों में अन्तर्राष्ट्रीय शैक्षिक समितियों को स्थापना हुई। 20वीं.शताब्दी के उत्तरार्द्ध और 21वीं. शताब्दी में नवीन विचारों तथा धारणाओं ने दिव्यांगों, मंद बुद्धि तथा सामाजिक रूप से पिछड़े शिक्षार्थियों की शिक्षा के लिये नई दिशाओं में द्वार खोल दिए हैं। डॉ.अंकुर मदान लिखतीं हैं- “समावेशी शिक्षा की समझ विकसित करने के लिए, भारत में विकलांग बच्चों की स्थिति से सम्बन्धित मुद्दों को ऐतिहासिक और सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टिकोण से समझना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।”3

समावेशी शिक्षा का सिद्धांत

समावेशी शिक्षा समावेश के सिद्धान्त पर आधारित है। शिक्षार्थियों की शिक्षा, प्रशिक्षण, देखभाल एवं पुनर्वासन का इतिहास पुराना है लेकिन समावेशी शिक्षा में इसके स्वरूप का इतिहास नया है। प्रत्येक व्यक्तिगत गुणों में भिन्नता पायी जाती है। वह जन्मजात या आनुवांशिक भी हो सकते हैं अथवा नहीं भी। इन्हीं गुणों के आधार पर ही शिक्षार्थियों के शैक्षिक स्तर का निर्धारण उनकी बुद्धिलब्धि तथा क्षमताओं के आधार पर तय किया जाता है। ठीक इसी प्रकार दिव्यांगों, मंद बुद्धि तथा सामाजिक रूप से पिछड़े शिक्षार्थियों की शिक्षा आधार तय किया जाता है, पर इन्हें दी जाने वाली शिक्षा के तौर-तारीकें अलग-अलग प्रकार के होते हैं क्योंकि इन शिक्षार्थियों का मानसिक-बौद्धिक स्तर अलग-अलग होता है। समावेशी विद्यालय सभी को शिक्षा प्राप्त कराने के सिद्धान्त को पूरा करा पाने में प्रयासरत रहता है। अतः समावेशी शिक्षा के आधारभूत सिद्धान्त पृथक्कीकरण के सिद्धान्त के विरुद्ध एकीकरण के सिद्धान्त पर आधारित है। समावेशी शिक्षा के सिद्धान्त को निम्नलिखित रूप में अध्ययन व विश्लेषण कर सकते हैं –

1.समावेशित वातावरण का सिद्धान्त- समावेशित वातावरण से आशय है समावेशित विद्यालयी वातावरण से है। एक शिक्षार्थी को सीखने के लिए अच्छे वातावरण की आवश्यकता होती है, जहाँ उसकी सामाजिक और भावनात्मक जरूरतें पूरी हो सके। स्कूल का वातावरण शिक्षार्थी के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। समावेशी शिक्षा में हरेक प्रकार के शिक्षार्थी एक ही कक्षा में शिक्षा अर्जित करते हैं जिसकी वजह से उनमें विभिन्न प्रकार के वातावरण उत्पन्न होने की स्थिति पैदा होती है। विभिन्न प्रकार के वातावरण को एक ही वातावरण में डालने का काम समावेशी शिक्षा करता है। समावेशित शिक्षा के लिए यह आवश्यक है कि विद्यालय का वातावरण समावेशित, सुखद एवं स्वीकार्य होना चाहिए।

2.एकीकरण का सिद्धान्त– समावेशी शिक्षा में एकीकरण का सिद्धान्त इस बात को सुनिश्चित करने की प्रक्रिया को बताता है कि विशिष्ट शिक्षार्थी तथा सामान्य शिक्षार्थी को एक करना है। कहने का तात्पर्य यह है कि विद्यालयी शिक्षा व्यवस्था में अलग-अलग शिक्षा व्यवस्था की जगह एकीकृत समावेशी शिक्षा व्यवस्था लागू करना है। समावेशी शिक्षा का सामान्य शिक्षा पद्धति के साथ अंतरंग समन्वय हो ताकि दिव्यांग और दिव्यांग रहित बालकों की शिक्षा साथ–साथ चले और उन्हें समाज की मुख्य धारा से जोड़ने वाले एकीकरण का प्रयास करके उनकी विशेष आवश्यकताओं की पहचान कर उसके अनुरूप शिक्षित करना अधिक लाभप्रद होगा।

3.वैयक्तिक विभिन्नता का सिद्धान्त- व्यक्तिगत रूप से भिन्नता प्रत्येक व्यक्ति में किसी ना किसी रूप से दिखाई देती है। शिक्षा के क्षेत्र में भी शिक्षा मनोविज्ञानिकों ने यह स्पष्ट किया है कि शिक्षार्थियों में सामान्यतः वैयक्तिक विभिन्नताएं होती है। शिक्षार्थियों की शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक भिन्नता की वजह से उनमें विभिन्नताएं होती है। समावेशी शिक्षा में वैयक्तिक विभिन्नता को ध्यान में रखते हुए विशिष्ट आवश्यकताओं वाले शिक्षार्थी तथा सामान्य शिक्षार्थी की आवश्यकताओं का समन्वय करते हुए शिक्षण विधि, पाठ्यक्रम तथा पाठ्यसहगामी गतिविधियों का आयोजन किया जाने का प्रयास रहता है। अगर किसी शिक्षार्थी को समावेशी शिक्षा ग्रहण करते वक़्त किसी भी प्रकार की परेशानी या दिक्कत होती है तो उन्हें व्यक्तिगत रूप से वे शिक्षा दी जाती है ताकि उन्हें सामान्य शिक्षार्थियों के सामान बनाया जा सके। अतः समावेशी शिक्षा का सिद्धांत यह मानता है कि वैयक्तिक विभिन्नता के आधार पर प्रत्येक शिक्षार्थी की आवश्यकता को देखते हुए शिक्षण की व्यवस्था होनी चाहिए।

4.अभिभावकों के सहयोग का सिद्धान्त– समावेशी शिक्षा के सिद्धांत में अभिभावकों का सहयोग का सिद्धान्त निहित है। समावेशी विद्यालय में अध्ययनरत विशिष्ट व सामान्य शिक्षार्थियों की ख़ूबियों, कमियों और आवश्यकताओं पर शिक्षकों-अभिभावकों की परिचर्चा होनी चाहिए ताकि बालकों की यदि कोई वैयक्तिक या शैक्षिक समस्या है तो उसका हल खोजा जा सके। समावेशी शिक्षा के अंतर्गत अभिभावकों का सहयोग शिक्षक, विद्यालय प्रशासन, बालक तथा स्वयं अभिभावक के हित में होता है। अगर अभिभावक समावेशी शिक्षा में सहयोग देंगे तभी उचित प्रकार के समावेशी शिक्षा प्रदान किया जा सकता है और अधिगम की शक्ति को और ज्यादा बढ़ाया जा सकता है।

5.अविभेदी शिक्षा का सिद्धान्त- समावेशी शिक्षा बुनियादी सिद्धान्त यही है कि बिना किसी भेदभाव के सामान्य तथा विशिष्ट शिक्षार्थियों को एक साथ शिक्षा दी जाती हैं ताकि उनके अंदर भेदभाव व छुआछूत की भावना को मिटाया जा सके। अविभेदी शिक्षा का सिद्धान्त पृथकता की शिक्षा तथा पृथकता की भावना का घोर विरोधी है। अविभेदी शिक्षा का सिद्धान्त समय-समय पर शिक्षार्थियों की कठिनाइयों, समस्याओं तथा उनकी प्रगति का परीक्षण करने पर भी बल देती है, जिससे शिक्षा का उपयुक्त स्वरूप सुनिश्चित किया जा सके।

6.भागीदारिता का सिद्धान्त- समावेशी शिक्षा का सिद्धान्त सामान्य शिक्षार्थी, विशिष्ट शिक्षार्थी, शिक्षक, अभिभावक, विद्यालयीन स्टाफ तथा समुदाय के लोगों की भागीदारिता, प्रतिभागिता व सहभागिता पर पूरी बुनियाद टिकी है। समावेशी शिक्षा सभी तक सामान रूप से तभी पहुंच सकती है जब सबकी भागीदारी होगी। भागीदारिता से शिक्षार्थियों में आत्मविश्वास बढ़ता है, अनुशासित बनता है, व्यवहार में सुधार लाता है तथा व्यक्तित्व का विकास होता है।

7.विशिष्ट कार्यक्रमों का सिद्धान्त- शिक्षार्थी कई प्रकार की शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक तथा सामाजिक समस्या से ग्रसित होते हैं तथा तदनुसार उनकी विशेष आवश्यकताएं भी भिन्न–भिन्न होती हैं। समावेशी शिक्षा में विशिष्ट कार्यक्रमों द्वारा शिक्षार्थियों को उचित शिक्षा प्रदान करने का सबसे श्रेष्ठ तरीका है। शिक्षार्थी विशिष्ट कार्यक्रमों में भाग लेकर या उन्हें देखकर उनके अंदर अधिगम की ऊर्जा व शक्ति को बढ़ाया जाता है। इसीलिए समावेशी शिक्षा में विशिष्ट कार्यक्रमों द्वारा शिक्षा प्रदान करना मायने रखता है।

8.चिकित्सीय मॉडल का सिद्धान्त- चिकित्सीय मॉडल का सिद्धान्त के अंतर्गत शारीरिक रूप से अक्षम शिक्षार्थी आते हैं। जिनकी हड्डियों में कोई विकृति होने से हाथ, पैर, रीढ़ की हड्डी, जोड़ों आदि के कारण काम करने, चलने, फिरने, झुकने आदि में कमजोर हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त भी शिक्षार्थियों की कई शारीरिक अक्षमता अक्सर देखने को मिल जाती है। ऐसे में शिक्षार्थियों की शारीरिक कमी को ध्यान में रखकर ही शिक्षा देने की बात बताई जाती है।

9.निरस्त न करने का सिद्धान्त- समावेशी सिद्धान्त यह मानता है कि विशिष्ट और असुविधाग्रस्त किसी भी शिक्षार्थी को विद्यालय में प्रवेश करने से अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार किसी शिक्षार्थी या विशेष आवश्यकता वाले शिक्षार्थी को विद्यालय में प्रवेश से इंकार न किये जाने का प्रावधान है।

10.सर्वांगीण विकास का सिद्धान्त- समस्त सामान्य व विशिष्ट शिक्षार्थियों का, शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, वैयक्तिक, नैतिक, शैक्षिक तथा संवेगात्मक विकास समावेशी शिक्षा के सिद्धान्त का लक्ष्य है। समावेशी शिक्षण तथा पाठ्यसहगामी क्रियाओं का उद्देश्य भी इन्हीं लक्ष्यों को प्राप्त करना है। डॉ.सुभाष सिंह का कथन है- “समवेशी शिक्षा का मुख्य लक्ष्य बाधित छात्रों को अनुकूलतम पर्यावरण में सार्थक शिक्षा प्रदान करने से है ताकि उनका समुचित विकास हो।”4 सर्वांगीण विकास द्वारा ही शिक्षार्थियों में आत्मविश्वास तथा आत्मनिर्भरता उत्पन्न होती है और वे बेहतर देश के नागरिक बनने की ओर अग्रसर होते हैं।

निष्कर्ष – आज के युग में भारतीय समाज की परिस्तिथियों एवं शिक्षा में व्याप्त असमानताओं को देखते हुए जरूरी हैं कि भारतीय शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार हेतु समावेशी शिक्षा का विस्तार किया जाए तथा शिक्षा के समान अवसर उपलब्ध कराने का प्रयास किया जाए।

संदर्भ सूची

1. Chief Editor, Shinde Narayan Dr.Tukaram, Golden Research Thoughts, पाठक कृष्ण कुमार, कुमार शिव, समावेशी शिक्षा – एक नजर, Volume-4, Issue-10, April-2015, महाराष्ट्र, पृष्ठ संख्या – 2.

2. समन्वयक एवं संपादक, सिंह डॉ. कीर्ति, कुमार डॉ.अखिलेश, वर्धमान महावीर खुला विश्वविद्यालय, कोटा, समावेशित विद्यालय का निर्माण, बीएड-118, प्रकाशन वर्ष -2015, कोटा, पृष्ठ संख्या – 145.

3. रघुनाथ प्रेमा (मु.सं.) लर्निंग कर्व, मदान डॉ. अंकुर, सुसंगत समझ के निर्माण में चुनौतियाँ, अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी, सितम्बर, 2020, बैंगलौर/ कर्नाटक, पृष्ठ संख्या – 11.

4. Chief Editor, Virendra sharma, Shodh Shree, Volume-28 Issue-3, सिंह डॉ.सुभाष, समवेशी शिक्षा और उसका प्रबंधन, जुलाई-सितंबर 2018, जयपुर, पृष्ठ संख्या – 06.

ऑटिज्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर वाले बच्चों के शिक्षकों की समस्याएं :- एक अध्ययन:उजमा एजाज़,डॉ. मुकेश कुमार चंद्राकर

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3 boys sitting on brown bricks during daytime

ऑटिज्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर वाले बच्चों के शिक्षकों की समस्याएं :- एक अध्ययन

डॉ. मुकेश कुमार चंद्राकर

सहायक प्राध्यापक, गुरु घासीदास केंद्रीय विश्वविद्यालय ,बिलासपुर ,छत्तीसगढ़

उजमा एजाज़

शोध छात्रा, गुरु घासीदास केंद्रीय विश्वविद्यालय ,बिलासपुर, छत्तीसगढ़

सारांश

ऑटिज्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर एक विकासात्मक अक्षमता है, जो मुख्य रूप से शाब्दिक और अशाब्दिक संप्रेषण एवं समाजिक अंत: क्रिया को प्रभावित करता है । सामान्य रूप से यह डिस्ऑर्डर तीन वर्ष की उम्र के पूर्व शुरू होता है और बच्चे के शैक्षिक निष्पादन को प्रभावित करता है। प्राय: इस डिसऑर्डर के कुछ सामान्य लक्षण भी होते हैं जैसे एक ही क्रिया को बार-बार दोहराना, पुनरावृति क्रियाएं,अनावश्यक अनुक्रिया, असहयोगी व्यवहार एवं गंभीर रूप से भावात्मक कमी, इसलिए इन बच्चों का शैक्षिक निष्पादन विपरीत होता है। प्रस्तुत शोध पत्र में ऑटिज्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर बच्चों के शिक्षकों की शैक्षिक समस्याओं का अध्ययन किया गया है। इस अध्ययन हेतु छत्तीसगढ़ राज्य के बिलासपुर एवम् रायपुर जिले के विशेष विद्यालय के 25 शिक्षकों का चयन उद्देश्य पूर्ण प्रतिचयन विधि द्वारा किया गया। शोध उपकरण के रूप में शोधार्थी द्वारा स्वनिर्मित प्रश्नावली का प्रयोग किया है एवं प्रदत्त विश्लेषण हेतु प्रदत्त की प्रकृति के आधार पर प्रतिशत विश्लेषण एवं विषयवस्तु विश्लेषण तकनीकी का उपयोग किया गया। शोध निष्कर्ष के रूप में पाया गया कि ऑटिज्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर वाले बच्चों के शिक्षकों को बच्चे के व्यवहार से संबंधित, अभिभावकों की सहभागिता से संबंधित, अध्ययन-अध्यापन से संबंधित एवं प्रबंधन से संबंधित समस्याएं होती है विशेष कर बच्चों के व्यवहार से संबंधित समस्याओं का प्रतिशत प्रस्तुत अध्ययन में अधिक पाया गया।

बीज शब्द: विकास, लक्षण, डिसॉर्डर, सम्प्रेषण

शोध आलेख

ऑटिज्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर एक आजीवन चलने वाली तंत्रिका विकास् संबधी विकलांगता है जिसकी विशेषता है सामाजिक समझ और संचार में लगातार और व्यापक क्षीणता एवं खराब अनुकूलीत कामकाज, और प्रतिबंधित या दोहराव वाले व्यवहार (ए.पी.ए., 2013)। ऑटिज्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर एक ऐसी जटिल स्थिति है, जिसमें पीड़ित बच्चे का दिमाग अन्य बच्चों के दिमाग की तुलना में अलग तरीके से काम करता है अर्थात यह एक विकास संबंधी विकार है जिसमें बच्चे को बातचीत करने में, पढ़ने -लिखने में और समाज में मेल-जोल बढ़ाने में काफी परेशानियां होती है। ऑटिज्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर जीवन भर रहने वाली एक ऐसी समस्या है जिस में बच्चे को हमेशा विशेष सहयोग की जरूरत पड़ती है। हालाँकि उम्र बढ़ने के साथ-साथ ऑटिज्म के लक्षण कम होने लगते हैं जिससे वह आगे चलकर सामान्य बच्चों की तरह ही जीवन जी सकते है इसलिए ऑटिस्टिक बच्चों के माता-पिता को बच्चों की बदलती जरूरतों के साथ तालमेल बैठाने की काफी आवश्यकता होती है। ऑटिज्म से पीड़ित बच्चे हर दिन एक ही दिनचर्या पसंद करते हैं; इसमें बदलाव करने पर वे बहुत परेशान हो जाते हैं। प्रारंभिक अवस्था में ऑटिज्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर वाले बच्चे बोल नहीं पाते, उन्हें दूसरे बच्चों के साथ बातचीत करने के लिए गैर मौखिक व्यवहार का उपयोग करने में भी काफी समस्या होती है। यह डिसऑर्डर एक प्रकार का नहीं होता बल्कि कई प्रकार का होता है जो अनुवांशिक और पर्यावरणीय प्रभाव के सयोजनों के कारण होता है (एडक, 2019)। इस डिसऑर्डर के लक्षण आमतौर पर 12 से 18 महीने की आयु में दिखाई देते हैं जो सामान्य से लेकर गंभीर तक हो सकते हैं। किसी वस्तु की तरफ इशारा करना, अपनी मां की आवाज सुनकर मुस्कुराना या प्रतिक्रिया न देना, आंखों में आंखें मिला कर ना देखना, अकेले रहना, दूसरे बच्चों से घुलने मिलने से बचना, किसी एक जगह पर घंटों बैठना, किसी एक ही वस्तु पर ध्यान देना, एक ही काम को बार-बार करना, दूसरे व्यक्ति के शब्द को दोहराना, किसी काम को न करना, किसी विशेष प्रकार की आवाज, स्वाद और गंध के प्रति अजीब प्रतिक्रिया देना आदि कुछ सामान्य लक्षण है जो बच्चों में दिखाई देते है (मिश्रा एवं श्रीदेवी, 2017) इसलिए अभिभावकों को बच्चे के व्यवहार और उनके विकास पर ध्यान देने के लिए कहा जाता है। माता-पिता आमतौर पर सबसे पहले अपने बच्चे में असमान्य व्यवहार को ध्यान देते हैं और उनकी व्यवहार सम्बन्धित समस्या की पहचान करते हैं; तत्पश्चात विशेषज्ञों द्वारा बच्चों की देखने, सुनने, बोलने की क्षमता का आकलन किया जाता है एवं लक्षणों के आधार पर उन्हें ऑटिज्म से पीड़ित माना जाता है। इस विकार में दिमाग के बाकी शरीर से सम्प्रेषण करने की क्षमता कमजोर हो जाती है, इसलिए वह किस अंग को किस तरह काम करना है यह संदेश ठीक से नहीं दे पाता है (बिनेश, 2008)। यह अवस्था बच्चे के जीवन के प्रारंभ से ही उसके साथ होती है और जीवन भर बनी रहती है। ऑटिज्म से पीड़ित बच्चे को अन्य समस्याएं जैसे डिस्लेक्सिया, डिस्प्रेक्सिया, अटेंशन डिफिसिट हाइपरएक्टिविटी, लर्निंग डिसेबिलिटी, मेंटल हेल्थ प्रॉब्लम आदि समस्याएं भी होती है। जिसका निदान, मनोवैज्ञानिकों की सलाह, पुनर्वास सेवाएं, व्यवहार उपचार, कौशल प्रशिक्षण कार्यक्रम, अत्यधिक देखभाल द्वारा ही किया जा सकता है (रहमान, 2011)। इस कार्य में परिवार के सदस्यों की सहभागिता आवश्यक है। परिवार एवं समाज के सदस्यों के द्वारा शिक्षा के माध्यम से इन बच्चों को अपने आत्मबल को बढ़ाने का, अपने प्रतिभा निखारने का , अंतर्निहित शक्तियों को उभारने का अवसर दिया जाए तो वे समाज में बोझ न बन कर समाज के उपयोगी और सम्मानजनक सदस्य बन सकेंगे शिक्षक बहुत ही सशक्त माध्यम है इस विकार वाले बच्चों की दशा में सुधार लाने के लिए एवं उन्हें सही दिशा प्रदान करने के लिए।

अध्ययन की आवश्यकता

ऑटिज्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर एक जटिल न्यूरोलॉजिकल डिसऑर्डर है जिसमें बच्चों के मानसिक विकास रूक जाता है यह उस क्षमता को प्रभावित करता है जिसके द्वारा एक बच्चा दूसरे के साथ संप्रेषण करता है। आटिज्म वाले बच्चे दुनिया को अलग नजर से देखते हैं, सुनते हैं, और महसूस करते हैं, यह विकार लड़कियों की तुलना मे लड़कों को बहुत अधिक प्रभावित करता है और जन्म से लेकर तीन साल की उम्र तक विकसित होता है (डेल 2006)। यह एक ऐसी विकृतियों का समूह है जिसमें विकास के एक या एक से अधिक क्षेत्र जैसे भाषा विकास, सामाजिक विकास, संवेगात्मक विकास, संज्ञानात्मक विकास प्रभावित होता है जिसके कारण वे किसी के साथ खुलकर बात नहीं करते, किसी के बात का जवाब देने में अधिक समय लेते हैं, दुसरों की परवाह नहीं करते और अपने में ही व्यस्त रहते हैं। इन बच्चों की आवश्यकता सामान्य बच्चों की आवश्यकता से बहुत भिन्न होती है जिसके कारण आटिज्म वाले बच्चे सामान्य शैक्षिक परिवेश में अपने आप को असहज महसूस करते हैं इसलिए इन बच्चों को विशेष शिक्षा की आवश्यकता होती है ताकि वह स्वयं को सहज महसूस कर सकें और अपनी क्षमता व आवश्यकता के अनुरूप शिक्षा प्राप्त कर सकें। इस प्रकार के बच्चे या तो बौद्धिक रूप से सक्षम होते हैं या असक्षम होते है। जो बौद्धिक रूप से असक्षम होते हैं उन्हें काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, वह किसी भी विषय को काफी देर से समझते हैं, परिणाम स्वरूप उनकी उपलब्धि व प्रदर्शन पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है। ऑटिज्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर में कौन सा बच्चा किस विधि से सीखेगा यह बच्चे में ऑटिज्म के प्रकार के आधार पर निर्धारित होता है जिसमें संचार, सामाजिक कौशल, एवं व्यवहार से संबंधित मतभेद शामिल है। यह सब मतभेदों के साथ ऑटिज्म बच्चों को शिक्षित करने में शिक्षकों को काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है (बेरी, 2008)। इन्हीं सब आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए शोधार्थी ने इस विषय पर अध्ययन करने की आवश्यकता महसूस की, ताकि इस अध्ययन के जरिए उन सभी समस्याओं पर प्रकाश डाला जा सके जो एक शिक्षक को ऑटिज्म बच्चों के शिक्षण के समय होती है।

समस्या कथन

ऑटिज्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर वाले बच्चों के शिक्षकों की शैक्षिक समस्याओं का अध्ययन करना।

उद्देश्य

प्रस्तुत अध्ययन के उद्देश्य निम्नानुसार है

  1. ऑटिज्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर वाले बच्चों के शिक्षकों की बच्चों के व्यवहार से संबंधित समस्याओं का अध्ययन करना। (प्रश्न 1 से 11 )
  2. ऑटिज्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर वाले बच्चों के शिक्षकों की अभिभावकों की सहभागिता से संबंधित समस्याओं का अध्ययन करना। (प्रश्न 12 से 16)
  3. ऑटिज्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर वाले बच्चों के शिक्षकों की अध्ययन अध्यापन से संबंधित समस्याओं का अध्ययन करना। (प्रश्न 17 से 22 )
  4. ऑटिज्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर वाले बच्चों के शिक्षकों की प्रबंधन से संबंधित समस्याओं का अध्ययन करना। (प्रश्न 23 से 27 )

कार्यात्मक परिभाषाएं दृष्टिकोण

ऑटिज्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर: एक जटिल विकासात्मक निशक्तता है जो प्राथमिक रूप से व्यक्ति के संप्रेषण एवं सामाजिक योग्यता को प्रभावित करता है तथा पुनरावृत्ति व्यवहार द्वारा परिलक्षित होता है।

शिक्षकों की समस्याएं– शिक्षकों की समस्याओं से तात्पर्य ऑटिज्म बच्चों के शिक्षण के समय बच्चों के व्यवहार, माता-पिता की सहभागिता, अध्ययन-अध्यापन एवं प्रबंधन से संबंधित समस्या से है।

शोध प्रविधि

शोध में शोध प्राविधि का महत्वपूर्ण स्थान है। शोध अध्ययन के उद्देश्य इसकी प्राविधि तय करते हैं। वर्तमान अध्ययन में शोधकर्ता ने ऑटिज्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर वाले बच्चों को पढ़ाने के समय शिक्षकों सम्मुख आने वाली समस्याओं का अध्ययन करना है जिसके लिए शोध कर्ता ने सर्वेक्षण पद्धति का उपयोग किया है।

न्यादर्श

शोध अध्ययन के लिए जनसंख्या के तौर पर छत्तीसगढ़ राज्य के ऑटिज्म विद्यालयों में कार्यरत शिक्षकों को शामिल किया गया था। प्रस्तुत अध्ययन में सुविधाजनक न्याय दर्श प्रक्रिया का उपयोग करते हुए 25 शिक्षकों का चयन किया गया। इन चयनित न्याय दर्श को ऑटिज्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर वाले बच्चों के शिक्षण के समय होने वाली समस्याओं से संबंधित प्रश्नावली दी गई जिनमें से सभी 25 शिक्षकों ने इस प्रश्नावली का उत्तर दिया।

अध्ययन के लिए उपकरण

प्रस्तुत अध्ययन में शोधार्थी द्वारा शोध अध्ययन हेतु प्रदत्त संकलन करने के लिए एक प्रश्नावली विकसित की गई। इस प्रश्नावली में कुल 27 कथन थे जो कि ऑटिज्म बच्चों के शिक्षकों को शिक्षण के समय बच्चों के व्यवहार (प्रश्न 1 से 11), माता-पिता की सहभागिता (प्रश्न 12 से 16), अध्ययन-अध्यापन (प्रश्न 17 से 22) एवं प्रबंधन (प्रश्न 23 से 17) से संबंधित थे। इस प्रश्नावली में खुली एवं बंद दो प्रकार के प्रश्न थे | बंद प्रश्नों पर शिक्षकों को ‘हाँ’ या ‘नहीं, के रूप में एवं खुली प्रश्नों पर अपनी प्रतिक्रिया ‘लिखित’ रूप में व्यक्त करनी थी।

आंकड़ों का विश्लेषण और व्याख्या

प्रश्नावली के ‘बंद’ प्रश्नों को आवृत्ति को प्रतिशत में बदलकर प्रदत्तों को विश्लेषित किया गया एवं ‘खुली’ प्रश्नों के उत्तरों को ‘शारान्षित विषयवस्तु विश्लेषण’ तकनीकी से विश्लेषित किया गया | अधयन के परिणामों को उद्देश्यों के आधार पर विभिन्न तालिकाओं में प्रस्तुत किया गया है।

उद्देश्य 1

अध्ययन का प्रथम उद्देश्य ऑटिज्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर वाले बच्चों के शिक्षकों को बच्चों के व्यवहार से संबंधित समस्या का अध्ययन करना था। अतः तालिका 1 में इस उद्देश्य के लिए शिक्षकों से पूछे गए प्रश्नों के उत्तरों को प्रतिशत में प्रस्तुत किया गया है।

तालिका 1 – ऑटिज्म बच्चों के व्यवहार से संबंधित समस्याओं का प्रतिशत विश्लेषण

प्र.क्र. कथन हाँ नहीं
आवृत्ति प्रतिशत आवृत्ति प्रतिशत
1. क्या बच्चा बारबार उत्तेजित होता है? 14 56% 11 44%
2. क्या बच्चा बार-बार हकलाता है ? 13 52% 12 48%
3. क्या बच्चे से बात करते समय उसके बात को समझना कठिन होता है ? 10 40% 15 60%
4. क्या बच्चे बोलते समय बारबार स्वाभाविक /आस्वाभाविक रूप से रुक जाता है? 25 100%
5. क्या बच्चा बोलने की अपेक्षा संकेतों का उपयोग करता है? 9 36% 16 64%
6. क्या बच्चे को अमूर्त बातों को समझाने में कठिनाई होती है? 25 100%
7. क्या बच्चा सीखने के लिए बहुत अधिक निर्भरता दर्शाता है? 25 100%
8. क्या इन बच्चों को सिखाने के लिए अधिक आवृत्ति /अभ्यास की आवश्यकता होती है? 25 100%
9. क्या बच्चा भली प्रकार से से पढ़ पाता है? 15 50% 15 50%
10. क्या बच्चा पढ़ने में बारबार शब्दों को छोड़ देता है? 13 52% 12 48%
11. अन्य बच्चों की तुलना में ऑटिज्म बच्चों को कोई काम कौशल सिखाने में अधिक समय लगता है? 25 100%

उपरोक्त तालिका के विश्लेषण से यह स्पष्ट पता चलता है कि 100% शिक्षक मानते हैं कि ऑटिज्म वाले बच्चे बोलते समय बार-बार रुक जाते हैं, उन्हें अमूर्त बातों को समझने में कठिनाई होती है, सिखने के लिए बहुत निर्भर रहता है, सिखाने के लिए अधिक आवृत्ति कि आवश्यकता होती है तथा उन्हें कोई कौशल सिखाने के लिए अन्य बच्चों कि अपेक्षा अधिक समय लगता है | यह इसलिए होता है क्यों कि इन बच्चों को सम्प्रेषण करने में कठिनाई होती है तथा वे सामान्य बच्चों से भिन्न होते हैं | तालिका से यह भी स्पष्ट होता है कि 56 प्रतिशत शिक्षकों को बच्चों के बार- बार उत्तेजित होने से, 52 प्रतिशत शिक्षकों को बच्चों के बार-बार हकलाने से अध्ययन-अध्यापन में समस्या होती है एवं 60 प्रतिशत शिक्षकों को बच्चों से बात करते समय उनकी बातों को समझना कठिन नहीं लगता है | 50 प्रतिशत शिक्षक ऑटिज्म बच्चों के भली भाँती न पढ़ पाने के कारण एवं 52 प्रतिशत शिक्षक बच्चों द्वारा पढ़ते समय शब्दों को छोड़ने के कारण बहुत अधिक कठिनाई महसूस करते हैं | उपरोक्त विश्लेषण के आधार पर हम कह सकते हैं कि ऑटिज्म वाले बच्चों को पढ़ाने-लिखाने के समय उनके व्यवहार के कारण शिक्षकों को समस्याओं का सामना करना पड़ता है |

2.उद्देश्य

अध्ययन का द्वित्तीय उद्देश्य ऑटिज्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर वाले बच्चों के शिक्षको को अभिभावकों की सहभागिता से संबंधित समस्या का अध्ययन करना था | अतः तालिका 2 में इस उद्देश्य के लिए शिक्षकों से पूछे गए प्रश्नों के उत्तरों का प्रतिशत विश्लेषण निम्न में प्रस्तुत किया गया है।

तालिका 2- अभिभावकों की सहभागिता से संबंधित समस्याओं का प्रतिशत विश्लेषण

प्र.सं. कथन हाँ नहीं
आवृत्ति प्रतिशत आवृत्ति प्रतिशत
12 बच्चे के शैक्षिक विकास के संबंध में माता-पिता से भी आप प्रतिक्रिया लेते हैं? 20 80% 5 20%
13 क्या बच्चों के शैक्षिक विकास हेतु माता-पिता की भी सहभागिता ली जाती है? 20 80% 5 20%
14 क्या माता-पिता के सुझाव के आधार पर शैक्षिक गतिविधियों में संशोधन/परिवर्तन किया जाता है? 20 80% 5 20%
15 माता पिता के सुझाव के आधार पर शैक्षिक गतिविधि में संशोधन /परिवर्तन करने पर कोई समस्या होती है? 5 20% 20 80%
16 आप इन बच्चों के माता-पिता से सहयोग की अपेक्षा रखते हैं? 25 100%

तालिका 2 को देखने से स्पष्ट है कि क्रमशः 80 प्रतिशत शिक्षक बच्चों के शैक्षिक विकास के सम्बन्ध में माता-पिता से प्रतिक्रिया लेते हैं, उनकी सहभागिता भी अपने शिक्षण कार्य में लेते हैं एवं उनके सुझाव के आधार पर अपने शैक्षणिक कार्यक्रम में संशोधन/परिवर्तन भी करते हैं | ऐसा शायद इसलिए है क्योंकि माता-पिता के सहयोग के बिना बच्चों की व्यवहार में परिवर्तन लाना कठिन कार्य है और बच्चे जब ऑटिज्म से पीड़ित हों तो यह और भी कठिन है | माता-पिता ही हैं जो शिक्षक को अपने बच्चे की सही-सही जानकारी प्रदान कर सकते हैं |

80 प्रतिशत शिक्षकों का कहना है कि माता-पिता के सुझाव से उन्हें अपने शैक्षिक गतिविधि में परिवर्तन करने में कोई समस्या नहीं होती है एवं शिक्षक सुझाव के आधार पर अपने शैक्षिक गतिविधि में परिवर्तन भी कर लेते हैं। सभी शिक्षकों (100 प्रतिशत) इन बच्चों के माता-पिता से सहयोग की अपेक्षा रखते है क्योकि बच्चों के व्यवहार में परिवर्तन तभी संभव है जब इनके माता-पिता घर पर भी सिखाने की कोशिश करें। संक्षेप में हम कह सकते हैं बिना माता-पिता के सहयोग से ऑटिज्म बच्चों के व्यवहार में एवं शैक्षिक गतिविधि में परिवर्तन लाना कठिन है | अतः, शिक्षक हमेशा माता-पिता की सहयोग की अपेक्षा रखते हैं |

उद्देश्य 3

अध्ययन का तृतीय उद्देश्य ऑटिज्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर वाले बच्चों के शिक्षकों को अध्ययन-अध्यापन से संबंधित समस्या का अध्ययन करना था | अतः तालिका तीन में इस उद्देश्य के लिए शिक्षकों से पूछे गए प्रश्नों के उत्तरों का प्रतिशत विश्लेषण कर प्रस्तुत किया गया है।

तालिका 3 शिक्षकों को अध्ययनअध्यापन से संबंधित समस्याओं का प्रतिशत विश्लेषण

प्र.सं. कथन हाँ नहीं
आवृत्ति प्रतिशत आवृत्ति प्रतिशत
17 बच्चों को शिक्षा व प्रशिक्षण देते समय आप बच्चों का ऑटिज्म के आधार पर वर्गीकरण करते हैं? 25 100%
18 आप ऑटिज्म के प्रकार व स्तर के आधार पर शिक्षण उद्देश्यों का निर्धारण करते हैं? 25 100%
19 निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति के पश्चात उनका मूल्यांकन करने में कठिनाई आती है? 25 100%
20 शैक्षणिक गतिविधियों से संबंधित कार्यक्रमों का आयोजन करने में आपको कठिनाई होती है? 25 100%
21. क्या आपको शैक्षिक गतिविधियों में तकनीकी संसाधनों के उपयोग से समस्याएं होती हैं? 25 100%
22 बच्चों को अभीप्रेरित करने हेतु विशेष कार्यक्रम भी आपके द्वारा संचालित किए जाते हैं? 20 80% 5 20%

तालिका 3 को देखने से स्पष्ट है कि सभी शिक्षक (100%) बच्चों को शिक्षण और प्रशिक्षण देते समय ऑटिज्म के प्रकार के आधार पर वर्गीकरण करते हैं एवं शिक्षण उद्देश्यों का निर्धारण करते समय ऑटिज्म के प्रकार और स्तर को भी ध्यान में रखते हैं | शिक्षकों को निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए उनका मूल्यांकन करने में किसी भी शिक्षक को कोई भी समस्या नहीं होती है। यह इसलिए हो सकता है की सभी शिक्षक बच्चों की आवश्यकता के आधार पर उन्हें शिक्षा प्रदान करते हैं | सभी शिक्षकों (100 %) को शैक्षिक गतिविधियों से संबंधित कार्यक्रमों का आयोजन करने में, विभिन्न गतिविधियों में तकनीकी संसाधनों के उपयोग करने आदि में उन्हें किसी भी प्रकार की समस्या नहीं होती | 80 प्रतिशत शिक्षकों का कथन है की इन बच्चों को अभीप्रेरित करने हेतु विशेष कार्यक्रम जैसे ‘खेलकूद’, ‘गीत’, ‘कविता’, ‘चित्रकला प्रतियोगिता’ का आयोजन स्कूलों में शिक्षकों के द्वारा किया जाता है। संक्षेप में हम कह सकते है की ऑटिज्म बच्चों के अध्ययन-अध्यापन के समय शिक्षकों को बहुत ज्यादा समस्या नहीं होती है परन्तु तालिका 1 को देखने से यह पता चलता है की शिक्षकों को आटिज्म बच्चों के व्यवहार से सम्बंधित कुछ-कुछ समस्या जैसे की बार-बार हकलाना, उत्तेजित हो जाना, शब्दों को छोड़-छोड़ कर पढना आदि समस्याओं का सामना करना पड़ता है |

4.उद्देश्य

अध्ययन का चतुर्थ उद्देश्य ऑटिज्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर वाले बच्चों के शिक्षकों को प्रबंधन से संबंधित समस्या का अध्ययन करना था | अतः तालिका चार में इस उद्देश्य के लिए शिक्षकों से पूछे गए प्रश्नों के उत्तरों का प्रतिशत विश्लेषण कर प्रस्तुत किया गया है।

तालिका 4 – शिक्षकों को प्रबंधन से संबंधित समस्याओं का प्रतिशत विश्लेषण

प्र.सं. कथन हाँ नहीं
आवृत्ति प्रतिशत आवृत्ति प्रतिशत
23 क्या शैक्षणिक कार्यक्रमों का नियोजन एवं संचालन विशेषज्ञ द्वारा किया जाता है? 25 100%
24 क्या स्कूल में सहायक शिक्षण सामग्री बच्चों की संख्या के अनुपात में पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है? 25 100%
25 क्या सहायक शिक्षण सामग्री उचित अवस्था में उपलब्ध है? 25 100%
26 क्या आप को व्यवसायिक वृद्धि हेतु प्रशिक्षण में भेजा जाता है? 25 100%
27 क्या बच्चों के शैक्षिक विकास हेतु नवाचार के साधनों को आप उपयोग करते हैं? 25 100%

उपरोक्त तालिका को देखने से स्पष्ट है कि सभी शिक्षकों (100 प्रतिशत) के लिए शैक्षिक कार्यक्रमों का नियोजन एवं संचालन विशेषज्ञ द्वारा किया जाता है | इन कार्यक्रमों के अनुरूप उनकी स्कूलों में सहायक शिक्षण सामग्री बच्चों की संख्या के अनुपात में पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है एवं यह सामग्री उचित अवस्था में भी है जिसके कारण शिक्षकों को बच्चों को शिक्षित करने में किसी प्रकार की कोई समस्या नहीं होती है | 100 प्रतिशत शिक्षकों को संस्थान द्वारा समय-समय पर विभिन्न स्थानों में आयोजित होने वाले प्रशिक्षण कार्यक्रम में भी भेजा जाता है जहाँ उन्हें बच्चों को शिक्षित करने से संबंधित उपयोगी जानकारी दी जाती है | सभी शिक्षकों द्वारा बच्चों के शैक्षिक विकास हेतु नवाचार के साधनों जैसे ‘प्रोजेक्टर’, ‘कंप्यूटर’, ‘फ्लैश कार्ड’, ‘लर्निंग किट’, ‘चार्ट’ आदि का उपयोग किया जाता है। उपोराक्त तालिका के अनुसार यह कहा जा सकता है कि शिक्षकों को प्रबंधन से किसी भी प्रकार का कोई समस्या नहीं होती है एवं उन्हें पूर्ण सहयोग मिलता है |

निष्कर्ष एवम् सुझाव

ऑटिज्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर से प्रभावित बच्चों को शिक्षा प्रदान करना एक कठिन प्रक्रिया है क्यों कि इसके विभिन्न स्तर हैं और यह पता लगाना मुश्किल होता है कि इन बच्चों को कैसे शिक्षित किया जाए | प्रत्येक बच्चों के लिए अलग-अलग तरीके की आवश्यकता होती है और बच्चे अलग अलग प्रतिक्रिया भी देते है | इस शोध के परिणाम से यह स्पष्ट होता है कि शिक्षकों को अधिक समस्या बच्चों के व्यवहार से होती है जैसे बार-बार उत्तेजित हो जाना, बच्चे के बोलते समय बार-बार स्वभाविक एवं स्वाभाविक रूप से रुक जाना, संकेतों का उपयोग करना, अमूर्त बातों को सिखाने में कठिनाई (100 प्रतिशत), सीखने के लिए शत प्रतिशत निर्भरता, सिखाने के लिए अधिक आवृत्ति/अभ्यास की आवश्यकता, पढ़ते समय शब्दों को छोड़ देना आदि है | शत प्रतिशत शिक्षकों का कहना था कि ऑटिस्टिक बच्चों को अन्य बच्चों कि तुलना में कोई भी कौशल सिखाने में अधिक समय लगता है|

अतः इन बच्चों के शिक्षण एवं पुनर्वास के लिए प्रबंधन करने की काफी आवश्यकता है। शोध के परिणाम यह भी बताते हैं कि बच्चों के शैक्षणिक विकास हेतु माता-पिता कि सहभागिता ली जाती है एवं उनके सुझावों को भी शामिल किया जाता है | अध्ययन में पाया गया कि सभी शिक्षकों द्वारा ऑटिज्म बच्चों के माता-पिता से केवल यही सहयोग की अपेक्षा की जाती है कि वह जो कुछ भी स्कूल में सिखाया जाता है उसे घर में भी सिखाने की कोशिश करें तो बच्चा बहुत जल्द आत्मनिर्भर बन सकता है | बेनसन (2008) ने भी अपने शोध में पाया कि माता-पिता कि सहभागिता से बच्चे जल्दी सिख पाते हैं | इस शोध में 80 प्रतिशत शिक्षकों का कथन था की इन बच्चों को अभीप्रेरित करने हेतु विशेष कार्यक्रम जैसे ‘खेलकूद’, ‘गीत’, ‘कविता’, ‘चित्रकला प्रतियोगिता’ का आयोजन स्कूलों में शिक्षकों के द्वारा किया जाता है। इस शोध में यह भी पाया गया कि शिक्षकों प्रबंधन से कोई भी समस्या नहीं हैं | ऑटिज्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर के प्रकृति को देखते हुए यदि इनके अभिभावको को यदि समय समय पर प्रशिक्षण प्रदान किया जाए तो वे अपने बच्चों को भली भाँती शिक्षित कर पायेंगे | इसके साथ साथ शिक्षकों को भी समय-समय पर ऑटिज्म से सम्बंधित नयी जानकारी एवं शिक्षण पद्धति से परिचित होना बहुत आवश्यक है | क्योंकि इंसान की शक्ति उसकी आत्मा में होती है और आत्मा कभी विकलांग नहीं होती है ,कोशिश करने से यह बच्चे हर वह मुश्किल और असंभव कार्य कर सकते हैं जो सामान्य बच्चे करते है।

संदर्भ सूची

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उत्तराखंड की लोक गाथाएँ : जागर के संदर्भ में-दिवाकर भटेले

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nature, india, jungle

उत्तराखंड की लोक गाथाएँ : जागर के संदर्भ में

दिवाकर भटेले

पी.एच.डी. शोधार्थी (इतिहास)

विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन

मो.न.- 8860069749

divakar.divakar1987@gmail.com

सारांश

उत्तराखंड की सांस्कृतिक परंपराओं में लोक गाथाओं का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। उत्तराखंड की सांस्कृतिक परंपराओं में जागर गाथाओं की अपनी अलग पहचान है।जागर गाथाएँ लोक संस्कृति के अभिन्न अंग लोक गाथाओं के अंतर्गत आती है। जागर का आयोजन देव अवतरण से संबंधित है। जिसके माध्यम से देवता का आव्हान कर मानव शरीर में देवता का अवतरण कराया जाता है। इन गाथाओं से उत्तराखंड की संस्कृति को समझने में बहुत आसानी होती है। क्यों कि इनके कथानक में वहां की संस्कृति की झलक देखी जा सकती हैं।उत्तराखंड की संस्कृति विभिन्न तत्वों के सम्मिश्रण से व्युत्पन्न हुई एक साझी संस्कृति है, जिसके निर्माण में समय-समय पर विभिन्न कारकों ने अपना प्रभाव स्थापित किया है। उत्तराखंड की सांस्कृतिक परंपराओं के निर्माण के लिए उत्तरदाई कारकों के अंतर्गत उत्तराखंड की भौगोलिक स्थिति, कृषि की कमतर संभावनाएं, आवागमन के साधनों की कमी, मध्य काल में हुए प्रवास और स्थानीय समुदाय का न्यूनतम संपर्क विशेष उल्लेखनीय है।उत्तराखंड में प्रचलित धार्मिक मान्यताएं विभिन्न संप्रदाय समुदायों के प्रभाव को प्रदर्शित करती हैं ।जटिल भौगोलिक स्थिति और समय-समय पर होने वाले प्राकृतिक प्रकोप के फलस्वरुप यहां के निवासियों की शक्ति पूजा ,टोटम और अलौकिक शक्तियों में बहुत आस्था है। उत्तराखंड के जनमानस की हिंदू धर्म के प्रमुख देवी देवताओं की अपेक्षा स्थानीय लोक देवी-देवताओं पर अधिक आस्था है। उत्तराखंड के जनमानस के द्वारा रचित और पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित यह लोक गाथाएं जनसामान्य के जीवन से संबंधित विभिन्न पक्षों का बोध कराती हैं ,अतः इन लोक गाथाओं के माध्यम से शासक वर्ग के इतिहास के साथ ही जन सामान्य की परिस्थिति और सामाजिक सांस्कृतिक प्रवेश की जानकारी प्राप्त की जा सकती है।

बीज शब्द- जागर, लोक गाथाएँ, पवाडें, प्रणय गाथाएँ, चैती गाथाएँ, देव जात्राएँ, आवजी-बाजगी

शोध आलेख

लोक गाथाएँ उत्तराखंड की संस्कृति का अभिन्न अंग है ।इन गाथाओं की उत्पत्ति कैसे हुई इसे समझने के लिए इन लोक गाथाओं की उत्पत्ति के संबंध में दिए गए विभिन्न सिद्धांतों को समझना आवश्यक है ।इसके साथ ही लोक गाथाओं की विशेषताओं का उल्लेख करना भी समीचीन होगा। लोक गाथाओं की उत्पत्ति विषयक विभिन्न विद्वानों द्वारा समय-समय पर विभिन्न सिद्धांत प्रतिपादित किए जाते रहे हैं । जैसे जर्मनी के विद्वान जैकब ग्रिम ने लोक गाथाओं पर किए गए अपने अनुसंधान में यह पाया की लोक गाथाओं का निर्माण स्वतः होता है। वह लोकगाथा के निर्माण के लिए व्यक्ति विशेष की जगह समुदाय को प्रमुखता प्रदान करते थे उनका मानना था की इन गाथाओं का निर्माण किसी समुदाय द्वारा ही किया जा सकता है। लोक गाथा के निर्माण के संबंध में अगस्त विल्हेम श्लेगल, जैकब ग्रिम से भिन्न मत रखते हैं। उनका मानना है की लोक गाथाओं का निर्माण किसी समुदाय द्वारा नहीं किया जा सकता बल्कि यह किसी व्यक्ति विशेष की ही रचना होती है। स्टेंथल ने भी लोक गाथा संबंधित अपने सिद्धांत में समुदाय वाद को ही प्रमुखता दी है। उनका मानना है कि किसी जाति विशेष के संपूर्ण व्यक्तियों के द्वारा ही लोक गाथाओं का निर्माण किया जाता है। उन्होंने लोक गाथा के निर्माण को आदिम समाज से जोड़ते हुए लिखा है कि आदिम समाज और प्राचीन असभ्य जातियों में भावनाएं और मूल प्रवृत्तियां एक समान ही पाई जाती थी और समुदाय की प्रधानता ही सर्वोच्च हुआ करती थी। इंग्लैंड के विद्वान विशप पर्सी द्वारा भी लोक कथाओं की उत्पत्ति संबंध सिद्धांत दिया गया है। उनके सिद्धांत को चारण वाद के नाम से जाना जाता है। पर्सी का मत है की लोक गाथाओं की रचना चारणों अथवा भाटों के द्वारा की गई है। फ्रांसिस जेम्स चाइल्ड के मतानुसार लोक गाथाओं की रचना भी किसी काव्य की तरह व्यक्ति विशेष के द्वारा की जाती है। परंतु लोक गाथाओं के संदर्भ में उसके रचनाकार का कोई विशेष महत्व नहीं होता है।व्यक्ति विशेष की कृति होने के पश्चात भी लोक गाथा विभिन्न व्यक्तियों द्वारा गाई जाती हैं जिसके फलस्वरूप लोक गाथाओं में परिवर्तन और परिवर्धन रहता है। भारतीय साहित्यकार कृष्ण देव उपाध्याय ने भी लोक कथाओं से संबंधित एक सिद्धांत प्रतिपादित किया है। जिसे समन्वयवाद के नाम से जाना जाता है। उपर्युक्त उल्लिखित सिद्धांत लोक गाथाओं की उत्पत्ति का कारण है उनका मानना कि किसी एक वाद को इन लोक गाथाओं की निष्पत्ति का कारण मानना समीचीन प्रतीत नहीं होता है।

लोक गाथाओं की विशेषताएँ

लोक गाथाओं की कुछ मौलिक विशेषताएं होती है यथाः प्रमाणिक मूल पाठ का अभाव ,रचयिता का अज्ञात होना, ,संगीत और नृत्य का अभिन्न साहचर्य, स्थानीयता का प्रचुर पुट ,मौखिक प्रवृत्ति, उपदेशात्मक प्रवृत्ति का अत्यन्ताभाव ,रचियता के व्यक्तित्व का अनस्तित्व, लंबा कथानक ,टेक पदों की पुनः आवृत्ति। उल्लेखित विशेषताओं के अनुसार हम देख सकते है कि कुछ विशेषताएँ ऐसी है जिसे प्रायः सभी लोक गाथाओं में देख सकते है। कि इसका रचयिता के बारे में जानकारी प्राप्त नही होती है। साथ ही इन गाथाओं का कोई प्रमाणिक मूल पाठ भी उपलब्ध नहीं हो पाता है। संभवत: यह गाथाएं प्राय: जाति समुदाय या समूह के द्वारा सम्मिलित तौर पर रची जाती हैं, इसलिए गाथाओं के मूल पाठ का पता लगाना मुश्किल कार्य है। समय दर समय जनसामान्य अपनी सहूलियत के अनुसार इन गाथाओं में परिवर्तन तथा परिवर्धन करता रहता है और साथ ही साथ समुदाय विशेषों में भाषा क्षेत्र के आधार पर एक ही गाथा के अनेक रूप निर्मित कर दिए जाते हैं। ऐसी परिस्थिति में यह पता करना अत्यंत दुष्कर कार्य हो जाता है। कि विभिन्न रूपों के अंतर्गत गाथा का मूल पाठ कौन सा है। संगीत और नृत्य लोक गाथाओं के अभिन्न अंग होते हैं। गाथाओं की प्रस्तुति के समय नृत्य और वाद्य के प्रयोग से गाथाओं को मनोरंजक और रुचिकर रूप प्रदान किया जाता है। लोक गाथाओं की एक विशेषता उसमें स्थानीयता का समुचित उल्लेख होना भी है ,जिस प्रदेश क्षेत्र विशेष में जो लोक गाथा प्रचलित होती है उस क्षेत्र की स्थानीय ,सामाजिक और सांस्कृतिक व्यवस्थाओं का वर्णन लोक गाथा में देखने को मिलता है। मौखिक प्रवृत्ति लोक गाथाओं की मौलिक विशेषता है प्रायः लोक गाथाओं का प्रचार और प्रसार पीढ़ी- दर- पीढ़ी मौखिक रूप से हस्तांतरित होता रहता है। कुछ विद्वानों का तो मत है कि यदि लोग गाथाएं लिपिबद्ध कर दी जाती है तो उनकी अभिवृद्धि नहीं होती है।

उत्तराखंड की सांस्कृतिक परंपरा

उत्तराखंड की सांस्कृतिक परंपराओं में लोक गाथाएँ, लोकगीत, लोक नृत्य ,देव जात्राएँ , उत्सव ,पर्व, मेले इत्यादि विशेष रूप से उल्लेखनीय है। अगर हम उत्तराखंड की सांस्कृतिक परंपराओं पर दृष्टिपात करे तो हिन्दू धर्म की छाप स्पष्ट परिलक्षित होती है और इसके साथ ही सांस्कृतिक परंपराओं में स्थानीयता का भाव दृष्टिगत होता है। स्थानीय तत्वों का समावेश ही उत्तराखंड की सांस्कृतिक परंपराओं को विशेषता प्रदान करता है। उत्तराखंड में प्रचलित संस्कृति के विभिन्न आयामों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित प्रस्तुत है।

लोक गाथाएँ

गोविंद चातक ने उत्तराखंड में प्रचलित लोक गाथाओं को चार भागों में विभाजित किया है।

  1. जागर गाथाएँ अथवा धार्मिक गाथाएँ
  2. पवाडे अथवा वीरगाथाएँ
  3. प्रणय गाथाएँ
  4. चैती गाथाएँ

जागर अथवा धार्मिक गाथाएँ मुख्य तौर पर धार्मिक अनुष्ठानों में देवताओं के आव्हान और नर्तन के लिए गाई जाती हैं। इसके साथ ही आवजी-बाजगी समुदाय (उत्तराखंड में वाद्य यंत्रों के वादक समुदायों को आवजी-बाजगी समुदाय कहा जाता है) सवणो॔ के द्वार पर जाकर वाद्य यंत्र( ढोल, दमौ, हुडकी इत्यादि) बजाते हुए देवताओं की धार्मिक गाथाओं का गायन करते हैं। जागर एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है जागरण या जगाना। जागर उत्तराखंड में देव- आराधना और देव आह्वान की एक धार्मिक- अनुष्ठानिक विधि है, जिसमें विशेष कर्मकांडीय पद्धति से मानव शरीर में देवता का अवतरण करवाया जाता है। जागर की प्रक्रिया से आराध्य देव अथवा आह्वान किए गए देवता को किसी मनोकामना पूर्ण होने पर धन्यवाद प्रदान किया जाता है अथवा कष्टों के निवारण के परिपेक्ष्य में देवता से प्रार्थना की जाती है। उत्तराखंड में प्रसिद्ध वीर गाथाओं को पवाड़ा कहा जाता है। इन गाथाओं में युद्ध के अवसरों पर नायकों के शौर्य वर्णन, साहस और पराक्रम के विवरण मिलते हैं। जीतू बगड़्वाल ,कुफू चौहान, माधौसिंह भंडारी ,राना रावत, जगदेव पंवार इत्यादि पात्रों की वीर गाथाएँ पवाडों के तौर पर प्रचलित है। प्रणय गाथाएं भी उत्तराखंड की संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। प्रणय गाथाओं के अंतर्गत नायक- नायिकाओं के प्रणय प्रसंगों और प्रेम आख्यानों के विवरण मिलते हैं। जीतू-भरना, गजू-मालारी ,राजुला -मालूशाही ,फ्यूली- रौतेली इत्यादि गाथाओं को हम प्रणय गाथाओ तौर पर देख सकते हैं। प्रणय गाथाओं में भी नायक- नायिकाओं के शौर्य पराक्रम के विवरण प्राप्त होते हैं। चैती गाथाऍं वे गाथाएँ हैं जो आवजी-वादक समुदाय के द्वारा हिंदू पंचांग के चैत माह में सवर्ण वर्गों के ग्रहद्वार पर अन्न मांगते हुए गाई जाती हैं। इन गाथाओं के विवरण में स्त्रियों का अपने मायके और परिजनों, विशेषकर अपने भाइयों के प्रति अपार स्नेह की अभिव्यक्ति दृष्टिगत होती है ।सदेई की गाथा,जसी की गाथा, सरू की गाथा और गोरधना की गाथा को चैती गाथाओं के तौर पर जाना जाता है।मुख्य तथ्य यह है कि गाथाओं के विवरणों के अनुसार इनमें विभाजन करना अत्यंत दुष्कर कार्य है। वीर गाथाऍं, प्रणय गाथाएँ भी हैं और प्रणय गाथाओं में शौर्य,पराक्रम, साहस जैसे वीरता की भावना के विवरण भी मिलते हैं। इसी प्रकार चैती गाथाओं के विवरणों में भी प्रणय प्रसंगों का उल्लेख है। जागर गाथा में शौर्य और प्रणय के प्रसंग प्राप्त होते हैं।

जागर शब्द को कई तरह से विश्लेषित किया जा सकता है। एक अर्थ में इसे देव अवतरण की प्रक्रिया की कर्मकांडीय पद्धति के तौर पर समझा जाता है और इसके साथ ही कर्मकांडीय पद्धति में देव गाथा के रूप में गाया जाता है। एंड्रयू अल्टर ने जागरण शब्द के अर्थ में कहा है कि, जागरण का तात्पर्य है जगाना इसमें देवता को आस्था पूर्वक जगाना शामिल है। ऐसा समझा जाता है की जागरण की कर्मकांडी प्रक्रिया में देवता नाचने और वार्तालाप के लिए आता है। गढ़वाल में जागर और जागरण शब्द के बीच विभेद किया जाता है। जागरण शब्द धार्मिक उत्सव को प्रदर्शित करता है। वही जागर का तात्पर्य उन क्रियाकलापों से है जिनमें नाटकीय प्रदर्शन, गीत, गाथा और उसे प्रदर्शित करने वाले लोग और उनके समूह सम्मिलित हैं।

जागर के प्रकार

स्थल के अनुसार जागर के दो रूप देखने को मिलते हैं: भीतरी जागर एवं बाहरी जागर।भीतरी जागर का आयोजन मुख्यतः घर में ही संपन्न किया जाता है। यह घर के अंदर किसी चौकोर आगन में या घर के किसी कक्ष में हो सकता है। भीतरी जागर में सामान्यतः घर के लोग तथा पारिवारिक सदस्य सम्मिलित होते हैं। इस प्रकार के जागरण में बाहरी व्यक्ति का प्रवेश वर्जित होता है। अगर भीतरी जागर के आयोजन में उपयोग किए जाने वाले वाद्य यंत्रों पर गौर करें तो उसका स्वरूप भी बाहरी जागर के वाद्य यंत्रों से अलग दिखाई देता है। भीतरी जागर में प्रयुक्त होने वाले वाद्य यंत्रों में मुख्य तौर पर कांसे की थाली, हुड़का और बांसुरी जैसे वाद्य यंत्रों का प्रयोग किया जाता है। भीतरी जागर की समय अवधि मुख्यतः 1 दिन या रात्रि की होती है बाहरी जागरों का आयोजन सामान्य तौर पर किसी देवस्थल के प्रांगण अथवा गांव के सामूहिक स्थान पर किया जाता है। जिस गांव में बाहरी जागर का आयोजन किया जा रहा होता है। उसमें उस गांव के निवासियों के अतिरिक्त आस-पास के गांव के लोग भी सम्मिलित होते हैं। एक और जहाँ भीतरी जागर में आयोजनकर्ता एवं डंगरियों की संख्या अपेक्षाकृत कम होती है,वही दूसरी ओर बाहरी जागर में आयोजनकर्ता एवं डंगरियोंकी संख्या अपेक्षाकृत अधिक होती है। बाहरी जागर के आयोजन से पूर्व जिस जगह पर बाहरी जागर का आयोजन किया जाना है उस स्थल को साफ किया जाता है और उस स्थल के चारों ओर बड़े-बड़े झंडे जो सामान्यतः लाल और सफेद रंग के होते हैं लगाए जाते हैं। झंडे इस बात का सूचक होते हैं कि, इस स्थान पर कोई धार्मिक कृत्य होने वाला है। बाहरी जागर में प्रयुक्त होने वाले वाद्य यंत्रों में मुख्य तौर पर ढोल, नगाड़े और रणसिंघा जैसे वाद्य यंत्रों का प्रयोग किया जाता है।

जागर में भाग लेने वाले लोग और उनकी भूमिका

जागर की अनुष्ठानिक प्रक्रिया में कुछ लोगों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है जिन्हें जानना आवश्यक है।

1: जगरिया

2: डंगरिया

3: स्योंकार-स्योंनाई

4: बाजगी

इसके अलावा स्योंकार के घर के अन्य सदस्य संबंधी मित्रगण गांव पड़ोस के लोग भी जागर में दर्शक की तरह शामिल होते हैं तथा देवता से आशीर्वाद प्राप्त करते हैं।

जागर के संबंध में गाथा गायक को जगरिया कहा जाता है। इसका मुख्य कार्य देवता की जीवनी, उसके प्रमुख मानवीय और दैवीय गुणों को लोक वाद्यों के वादन के साथ एक विशेष शैली में गाकर देवता को जागृत कर उसका अवतरण डंगरिया के शरीर में कराना होता है। जागर के संदर्भ में डंगरिया उस व्यक्ति को कहते हैं जिसके शरीर में देवता का अवतरण होता है।अवतरण के संदर्भ में यह भी देखने को मिलता है की देवी देवताओं का अवतरण स्त्री-पुरुष दोनों शरीर में हो सकता है। जिस घर के लोगों द्वारा जागर आयोजित किया जाता है उस घर के स्वामी को स्योंकार कहा जाता है। इसे जगरिया का ग्राहक भी कहा जा सकता है। गृह स्वामी की पत्नी को स्योंनाई कहा जाता है इस प्रकार स्योंकार-स्योंनाई जागर के मेजबान होते हैं और जगरिया इनके द्वारा ही अनुष्ठान के शुरू होने से पहले की पवित्रीकरण की क्रिया करवाता है। बाजगी जागर की अनुष्ठानिक प्रक्रिया में जगरिया के साथ गायन में तथा वाद्य यंत्रों को बजाने में सहयोग करते।हैं इस प्रकार से जगरिया के वह सहायक होते हैं। बाजगी को हिवारी भी कहा जाता है।

लोक गाथाएं समाज का प्रतिबिंब होती है। लोक गाथाओं में सामाजिक विश्वासों, व्यवहारों ,विचारों प्रचलित मान्यताओं आदि का विवरण होता है। इन गाथाओं में मे तत्कालीन प्रचलित रीति रिवाज, मान्यताओं ,विश्वास , जातीय संरचना एवं सामाजिक संबंधों के प्रति दृष्टिकोण इत्यादि के संदर्भ में उल्लेख प्राप्त होते हैं। इन गाथाओं में जहां एक और ईर्ष्या, द्वेष, कलह,विवाहेत्तर संबंध और कामासक्ति जैसे सामाजिक विचारों से संबंधित प्रश्नों का विवरण है, वहीं दूसरी ओर वीरता, साहस, निष्ठा, बलिदान, प्रेम और उदारता जैसे मानवतावादी विचारों का उल्लेख भी किया जाता है। इन गाथाओं में मनुष्य की कठिन और विपरीत परिस्थितियों में देवी देवताओं के द्वारा उनकी सहायता किए जाने संबंधी विवरण उपलब्ध होते हैं। इन लोक गाथाओं का सामाजिक और धार्मिक दृष्टिकोण से विश्लेषण करने के पश्चात हमें उत्तराखंड की सामाजिक संगठन के साथ ही वहां प्रचलित धार्मिक- सामाजिक रीति-रिवाजों और विभिन्न समुदायों की प्रथाओं का अध्ययन भी प्राप्त हो जाता है ।क्योंकि इन्हीं समाजों के द्वारा पूर्व में इन लोक गाथाओं का रचना की गई है।निश्चित तौर पर इनकी सामाजिक मान्यताओं, प्रथा और धार्मिक परंपराओं का लोक गाथा के निर्माण पर अत्यंत गहरा प्रभाव रहा होगा।उत्तराखंड में प्रचलित इन लोग गाथाओं केअध्ययन से सामाजिक मान्यताओं और प्रथाओं की जानकारी प्राप्त होती है। लोक गाथाओं के आधार पर सामाजिक संगठन और समाज में प्रचलित परंपराओं प्रथाओं का अध्ययन किया जा सकता है ।इन लोक गाथाओं के प्रसंग तत्कालीन समय में प्रचलित धार्मिक परंपराओं प्रचलित मान्यताओं, सामाजिक भेदभाव, सामाजिक व्यवस्था ,महिलाओं की परिस्थिति और मानवीय विवादों की अभिव्यक्ति प्रदर्शित करते दिखाई देते है।

उत्तराखंड की संस्कृति में जागर गाथाओ का महत्वपूर्ण स्थान देखने को मिलता है ।यह गाथााएँ वहां के लोकजीवन की अभिव्यक्ति हैं। उत्तराखंड की संस्कृति में प्रचलित जागर गाथाएँ वहाँ के समाज की राजनैतिक ,सामाजिक एवं धार्मिक अवस्था का चित्र प्रस्तुत करती हैं। तथा साथ ही वहां के निवासियों के मनोभावों, दर्शन एवं भक्ति आंदोलन के प्रभाव की अभिव्यंजना प्रदर्शित करती हैं। जागर गाथा में जहां एक और पौराणिक कालीन साहित्य में वर्णित कथाओं का समावेश देखने को मिलता है, वहीं दूसरी ओर मध्यकालीन राजनीतिक व्यवस्था एवं ऐतिहासिक घटनाओं का विवरण भी दृष्टिगोचर होता है ।इन गाथाओं में प्रेम, युद्ध ,सौन्दर्य निरूपण ,अभाव के वृतांत एवं मानवीय व्यवहारों जैसे ईर्ष्या, द्वेष, छल, करूणा के विवरण भी उपलब्ध होते हैं। रूढ़िवादिता, अंधविश्वास ,तंत्र -मंत्र ,जादू -टोना जैसे लोक विश्वासों के प्रसंग इन गाथाओं में प्रचुर मात्रा में प्राप्त होते हैं।इन जागर गाथाओं की श्रॅखला उत्तराखंड के निवासियों के जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा है ।ब्राह्मणनिष्ठ परंपराओं के मुख्य देवी देवताओं से परे स्थानीय समुदायों में पूजित लोक देवी-देवताओं की परंपरा एवं उनकी आराधना पद्धति यहां तुलनात्मक रूप से अधिक महत्वपूर्ण है ।लोक देवी देवताओं की आराधना पद्धति ब्राह्मणनिष्ठ परंपरा का अनुसरण ना करते हुए स्थानीय स्तर पर विकसित की गई है , जिसमें ब्राह्मणनिष्ठ परंपरा में कर्मकांड संपन्न करवाने वाले ब्राह्मण वर्ग के पुरोहितों की कोई भूमिका नहीं होती है।

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इंसानियत के खिलाफ इंसान की लड़ाई है अवतार-2-रमेश कुमार राज

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आलेख

इंसानियत के खिलाफ इंसान की लड़ाई है अवतार-2

रमेश कुमार राज

असिस्टेंट प्रोफेसर,

हिन्दू कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय

“भरत कीन्ह यह उचित उपाऊ। रिपु रिन रंच न राखब काउ।।” अर्थात ‘भरत ने यह उचित ही उपाय किया। शत्रु और ऋण को जरा भी शेष नहीं रखना चाहिए। नहीं तो वह बढ़ता ही जाता है।’ लक्ष्मण को यह संदेह तब हुआ था जब भरत अपनी चतुरंगिणी सेना को लेकर राम से मिलने, उन्हें वापस बुलाने वन की ओर जा रहे थे। लक्ष्मण को लगता है कि भरत अयोध्या को निष्कंटक बनाने के उद्देश्य से उनकी तरफ आ रहे हैं। स्वयं राम भी थोड़े समय के लिए विचलित हुए थे और कहा था- “बहुरि सोचबस भे सियरवनू। कारन कवन भरत आगमनू” अर्थात ‘क्या कारण है कि सेनाओं को लेकर भरत जंगल की ओर आ रहे हैं?’ राजनीति विज्ञान का मनोविज्ञान ही यही है कि शत्रु को कभी जीवित नहीं छोड़ना चाहिए। वरना अवसर पाकर वह पलटवार जरूर करता है।

‘अवतार: द वे ऑफ वाटर’ की शुरुआत इसी समस्या से होती है। ‘अवतार’ में यह लड़ाई जहाँ पर खत्म हुई थी, इसकी शुरुआत वहीं से होती है। पहले भाग में जंगलवासियों ने आकासवासियों पर विजय हासिल की थी और कैदियों को वापस उसके अपने मुल्क भेज दिया था। इस फिल्म में वापस आए वही पराजित कैदी अपनी पूरी ताकत के साथ, पहले से भी भयंकर हथियार लेकर फिर से जंगल पर हमला करते हैं। जिंदा छोड़ दिए गए शत्रु ने फिर से वापसी की और पेंडोरा जंगल को तबाह कर दिया। पूरे जंगल में आग लगा दी। इस दृश्य को देखने के बाद ऐसा लग रहा था कि इसी आग से बचने के लिए जंगलवासी जल में शरण लेंगे और वहीं से अपना संघर्ष जारी रखते हुए शत्रुओं पर पुनः विजय प्राप्त करेंगे। ऐसा होता तो शायद कहानी में और रोचकता आती। पर ऐसा नहीं हुआ। लेकिन जो हुआ वह भी हमें आकर्षित करता है। हमें कभी बोरियत महसूस नहीं कराता। बाँधे रखता है। फिल्म का सेकेंड हाफ थोड़ा स्लो जरूर है, पर जल और जलचर दृश्यों को देखकर मन उसी समुद्र में गोते लगाने लगता है।

अवतार-2 की कहानी मानव संघर्ष के इतिहास को बयान करती है। श्रेष्ठ जाति आर्य ने अपने अत्याधुनिक हथियार के बल पर जिस प्रकार मूल निवासियों को नष्ट कर उसकी जमीन पर कब्जा किया, वैसी ही कहानी इस फिल्म की है। जमीन खत्म हो रही है, नए ठिकाने के लिए आदमी जंगल की ओर पलायन कर रहे हैं। इसके लिए वह जंगल के जीवों को नष्ट कर देना चाहते हैं। जंगलवासी अपनी जीवन रक्षा के लिए इसके खिलाफ बगावत करता है जिसे इंसान बागी कहता है। इस तरह की उपाधियाँ पहले भी संघर्षशील लोगों को दी जाती रही है। जिसने भी साम्राज्यवादी, विसतारवादी ताकतों के खिलाफ संघर्ष किया उसे उन्होंने राक्षस, काफिर, उग्रवादी कहा। आज उसे ही माओवादी, अर्बन नक्सल, खालिस्तानी या पाकिस्तानी कहा जाता है। जंगल का नायक जेक सली (सैम वर्थिंगटन) और उसकी पत्नी नायिका नेतिरी (जोई साल्डाना) आदमी की निगाह में बागी हैं। क्योंकि दोनों डटकर आदमियों का मुकाबला करते हैं। लेकिन इस बार वे बहुत सतर्क, सावधान और चिंतित हैं। क्योंकि इस बार वे सिर्फ दो नहीं हैं। उसका पूरा परिवार है। दो बेटे हैं। दो बेटियाँ हैं जिसमें से एक को उसने गोद लिया है। उसके साथ एक इंसानी लड़का भी है जो नावी परिवार (जंगलवासी का परिवार) के साथ रहकर ही पला-बढ़ा है और उसी के साथ रहना चाहता है। इसलिए नायक युद्ध नहीं चाहता। युद्ध इंसानियत के खिलाफ है। जीवन के खिलाफ है। जंगलवासी इस बात को समझ रहा है, लेकिन आकासवासी आदमी को यह बात समझ में नहीं आती। इस फ़िल्म में बड़ी खूबसूरती के साथ यह बताया गया है कि जिसे हम जंगली समझते हैं असल में वही संवेदनशील इंसान है और जिसे हम सभ्य समाज कहते हैं वह महा धूर्त, विश्वासघाती, दंभी और जंगली जानवर है। जंगलवासियों में इंसानियत है और आकासवासियों में हैवानियत। निजी स्वार्थ के लिए वह प्रकृति का दोहन करना चाहता है। यह इंसान का जंगलियों से नहीं बल्कि जंगलियों का इंसान से जंग की कहानी है। इंसानियत के खिलाफ इंसान के लड़ाई की कहानी है।

इन दिनों हिंदी में भी कुछ ऐसी फिल्में बनी हैं जिसमें जंगल को बचाने की जद्दोजहद दिखाई गई है। इसमें ‘भेड़िया’ और ‘कांतारा’ का नाम शामिल हैं। दोनों ही फिल्मों में जंगल को बचाने के लिए आदमी को अपनी आदमियत त्यागकर कल्पना और अंधविश्वास का सहारा लेना पड़ता है। एक ने चौपाया भेड़िया बनकर दोपाया इंसानी जानवरों का शिकार किया तो दूसरे ने अपने कुल देवता की सहायता से उसका मुकाबला किया। दोनों ही फिल्में विशुद्ध रूप से अंधविश्वास पर आधारित है। मानव समाज की जटिलताएँ उसे विश्वसनीय बनाती हैं। अमानवीयता इस कदर हावी है कि व्यक्ति हर हाल में आतताईयों का विनाश चाहता है, भले ही वह अंधविश्वास के ही जरिए क्यों न हो। आदमी में जब लड़ने की क्षमता समाप्त हो जाती है तब अंधविश्वास का जन्म होता है। इसका सीधा-सीधा मतलब यही है कि जानवरों से लड़ने के लिए इंसान को जानवर बनना पड़ता है। मुझे ‘लोन रेंजर’ फिल्म का एक संवाद याद आ रहा है। उसमें जॉन डीप के सह कलाकर के भाई की जब हत्या हो जाती है तब वह दुःखी होकर अपने चेहरे का मास्क उतारकर फेंक देता है। जॉन डीप उसे मास्क पहनने को देता है और कहता है- “एक दिन ऐसा आएगा जब हर अच्छे आदमी को नकाब पहनना पड़ेगा।” आप हमारे स्वतंत्रता सेनानी लेखकों को पढ़िए, अधिकांश लेखकों ने छद्म नाम से अंग्रेजों के खिलाफ लिखा। छद्म नाम से लिखना मुखौटा लगाने जैसा ही है। बुराई से लड़ने के लिए वहाँ मुखौटा लगाना पड़ा, नाम बदलना पड़ा, यहाँ ‘भेड़िया’ और ‘दूत-भूत’ बनकर उसका सामना करना पड़ा। ‘अवतार-2’ आदमियों द्वारा जंगल को हड़प लेने के षड्यंत्र से ही संघर्ष करती है।

यह बात अब निरर्थक साबित हो रही है कि इंसान से ज्यादा समझदार इस धरती पर कोई दूसरा प्राणी नहीं है। उसकी हरकतों से यही पता चल रहा है कि वह सबसे बड़ा धूर्त और स्वार्थी है। छली और कपटी है। इंसान अब इंसान नहीं रहे। उसमें पशु वृत्ती आ गई है। वह जब बल से नहीं जीत पाता तो छल से काम लेता है। ‘अवतार-2’ में उसने इस छल का प्रयोग किया है। उसने जंगलियों को मारने के लिए उन्हीं के जैसे जंगली लोगों को तैयार किया है ताकि वे आसानी से उसके साथ घुल-मिलकर उसके प्रत्येक ठिकानों पता लगा सके। कर्नल माइल्स (फिल्म का मुख्य खलनायक) ‘अवतार’ में मर गया था। लेकिन ‘अवतार-2’ में उसकी यादों और उसके डीएनए से उसका नया वर्जन तैयार किया जाता है जो बिलकुल जंगलवासियों की तरह ही दिखता है। उसमें नहीं है तो सिर्फ संवेदना। सबके सब खूँखार और हत्यारे हैं। उसमें और मूल जंगलवासियों में वही फर्क है जो आदमी और रोबोट में होता है। उसकी पूरी टुकड़ी खूनी अवतार में हैं जिसका एकमात्र उद्देश्य है जेक सली (नायक) और उसके परिवार को नष्ट करना ताकि आसानी से पूरे जंगल पर कब्जा किया जा सके। यह पूरी प्रक्रिया ठीक वैसी ही है जैसे आर्यों ने कुछ द्रविड़ों की सहायता से शेष द्रविड़ों का दमन किया था, राम ने सुग्रीव की सहायता से बाली को और विभीषण की सहायता से रावण का वध किया। अंग्रेजों ने भी तथाकथित भारतीयों की सहायता से ही भारतीयों पर लम्बे समय तक राज किया। इंसानों द्वारा निर्मित ये जंगली जंगल में आकर तबाही मचाते हैं। उसकी इसी विनाशकारी हरकतों से जंगलवासी को पता चल जाता है कि वे पेंडोरा जंगल के निवासी नहीं है बल्कि जंगल को बर्बाद करने वाले आदमियों द्वारा भेजे गए शैतान हैं जो जीवन को नष्ट कर रहे हैं। अचानक उसकी चपेट में नायक के बच्चे आ जाते हैं। फिल्म का असल संघर्ष यहीं से शुरू होता है। नायक-नायिका अपने बच्चों को बचाने में तो सफल हो जाते हैं लेकिन इंसानी बच्चे को वह शैतान उठाकर ले जाता है। वह किसका बेटा है, यह किसी को नहीं पता। वह नायक के परिवार के साथ जंगल में पला-बढ़ा है। उसे जंगल का कोना-कोना पता है। इसलिए नायक को चिंता होती है कि कहीं उस लड़के ने खलनायक को सब कुछ बता दिया तो वह पूरे जंगल को बर्बाद कर देगा, जंगल का सम्पूर्ण जीवन नष्ट कर देगा। इसलिए वह अपने कबीले के दूसरे व्यक्ति को जंगल का राजा बनाकर परिवार सहित एक द्वीप पर जलवासी के पास शरण लेने चला जाता है। परिस्थितियों से समझौता कर नायक अपने परिवार को सुरक्षित रखने के उद्देश्य से जंगल से पलायन करता है और ऐसे द्वीप पर पहुँचता है जहां की प्रजाति जलीय जीव जैसे हैं। वे समुद्र में तैरना, गहरे उतरना जानते हैं। जलीय जीवों से उसका पारिवारिक संबंध है। समुद्र की सबसे बड़ी मछली उसका पारिवारिक रिश्तेदार है। नायक का परिवार जलवासी के यहाँ शरण लेता है और वहाँ का तौर-तरीके सीखता है, जलजीवों की सवारी करना सीखता है और थोड़े-बहुत आपसी रंजिशों के बाद एक-दूसरे के साथ घुलमिल जाता है। यह प्राकृति सामंजस्य की कथा के साथ-साथ मनुष्य द्वारा प्रकृति के विनाश की भी कथा है। जंगलवासी जलवासी के साथ सामंजस्य स्थापित करने में सफल होता है लेकिन मनुष्य जंगलवासी के साथ ऐसा करने में नाकाम है। इसका एकमात्र कारण इंसान का स्वार्थ और भूमि विस्तार की मंशा है। उसे पता है कि खनिज और जीवन वर्धक पदार्थ धरती और जल के किस-किस कोने में है। वह सब हड़प लेना चाहता है। यह पदार्थ भूभाग पर ही नहीं, जलीय जीवों में भी पाया जाता है। इसके लिए वह जलरानी ह्वेल का शिकार करते हैं और उसके मस्तिष्क से द्रव्य पदार्थ निकालते हैं ताकि उसके सेवन से अमर हुआ जा सके, लंबी उम्र पायी जा सके। इंसान को इस द्रव्य के बारे में पता है लेकिन स्वयं जलीय जीवों को इसके बारे में पता नहीं होता। ठीक ‘कस्तुरी कुंडल बसे’ जैसा ही। यही पदार्थ हासिल करने का प्रयास पहले भी हुआ था जिसमें ह्वेल परिवार के कई सदस्यों की मृत्यु हो गई थी। लेकिन जलवासी को लगता है कि इस हिंसा की जिम्मेदार ह्वेल है। उसी की हिंसात्मक प्रवृत्ति के कारण ऐसा हुआ है। इसलिए जलवासियों ने उसे बेदखल कर दिया है। वह निर्वासन की जिंदगी बिताती है। तभी उसकी भेंट नायक के छोटे बेटे से होती है और दोनों में गहरी मित्रता हो जाती है। दो विभिन्न प्रजातियों की यह मित्रता दर्शाती है कि प्रेम की भाषा सृष्टि के प्रत्येक जीवों को समझ में आती है, सिवाय मनुष्य के। भिन्न प्रकृति का यह मेल अलग ही लोक का सृजन है। उस ह्वेल की जिंदगी ‘तेजाब’ फिल्म के नायक अनिल कपूर जैसी है जिसे बिना किसी अपराध के तड़ीपार का जीवन जीने को अभिशप्त होना पड़ता है।

नायक का जंगल से पलायन करने का विचार उसकी पत्नी सहित किसी भी जंगलवासी को उचित नहीं लगता है। पर नायक नहीं चाहता कि उसकी वजह से उसका पूरा जंगल परिवार खत्म हो जाए। अपनी आन के कारण वह जंगल को नष्ट नहीं करना चाहता। अलाउद्दीन खिलजी की कट्टरता पर अमीर खुसरो ने कहा था-

मुल्के-दिल कर दी खराज़ तीरे-नाज़।

ब-दरीं वीरान सुलतान हनोज॥

अर्थात, “तूने हृदय की देश को अपनी नाज़ की तलवार से (अपने अहंकार के कारण) उजाड़ डाला। बर्बाद कर दिया। अब इस वीराने में सुल्तान बनकर बैठा है।” जंगल के नायक को ऐसा सुल्तान नहीं बनना है। उसे राजा बनने से ज्यादा चिंता अपनी प्रजा की जिंदगी की है, अपने परिवार की है। यह बात परिवार वाले जंगली जीव समझ सकता है, बेऔलाद बेपरिवार इंसानों के पास अभी ऐसी समझ का विकसित होना बाकी है। परिवार की चिंता नायक को पलायन करने पर मजबूर करता है। जैसे ‘जानवर’ फिल्म में अक्षय कुमार गुमनामी की जिंदगी जीने को मजबूर होते हैं और बाबू लोहार बनकर अपना गुजारा करते हैं। ‘अवतार-2’ का नायक ठीक वैसे ही जलवासी का जीवन जीने को मजबूर है। लेकिन शत्रु यहाँ भी उसका पीछा नहीं छोड़ता। जब उसके बच्चे पर संकट आता है तब मजबूरन उसे युद्ध करने के लिए तैयार होना पड़ता है। वह जलवासियों के साथ मिलकर शत्रुओं का सामना करता है। इस संघर्ष में नायक का बड़ा लड़का मारा जाता। यहाँ मुझे हॉलीवुड की ही एक और फिल्म ‘Patriot’ (2000) की याद आ रही है। उसका नायक भी पारिवारिक चिंता के कारण ही युद्ध त्यागकर एक साधारण किसान का जीवन व्यतीत करता है। लेकिन जब उसके सामने ही उसके बेटे को गोली मार दी जाती है तब मजबूरन उसे हथियार उठाना पड़ता है। ‘जानवर’ के बाबू लोहार को भी इसी कारण अंत में जानवर बनना पड़ता है। अकासवासी, जंगलवासी और जलवासी के बीच की इस भयंकर लड़ाई में बहुत-से जलीय जीव भी मारे जाते हैं। तब नायक को यह अहसास होता है कि पलायन करने के बाद भी जीवन कहीं सुरक्षित नहीं है। इसलिए पलायन कर कहीं और घर बनाकर नहीं बसा जा सकता। जंगल ही उसका घर है और वहीं रहकर उसे शत्रुओं से लड़ना चाहिए। वह ऐसा इसलिए भी सोचता है कि इस लड़ाई में उसने नाहक ही जलजीवों को झोंक दिया। यह उसकी अपनी लड़ाई थी। मारे गए निर्दोष जलजीव भी। उसे अपने बेटे की मौत का दुःख तो है ही, वह जलजीवों की मौत से भी परेशान है। खुद को इसका जिम्मेदार मानता है। इसलिए जंगल लौटकर रहने का मन बनाता है। यहीं पर यह फिल्म संकेत करती है कि इसका अगला पार्ट भी बनेगा। क्योंकि फिल्म का मुख्य शत्रु अभी जिंदा है।

यह फिल्म परिवार के महत्व को दर्शाती है। माता-पिता अपने बच्चों की रक्षा करने के लिए कुछ भी कर सकते हैं। पूरी फिल्म माता-पिता द्वारा अपने बच्चों की की जाने वाली सुरक्षा पर आधारित है। नायक का छोटा बेटा बहुत शरारती है। वह अक्सर संकट पैदा करता है। लेकिन बड़ा भाई और पिता सदैव उसकी रक्षा करते हैं। वह पिता और बड़े भाई के प्यार को नहीं समझता। उसे लगता है कि पिता बड़े बेटे से ज्यादा प्यार करते हैं, उससे कम। उसके मन का यही हीन भाव उसे बार-बार गलत करने को उकसाता है। उसी की मूर्खता के कारण बड़े भाई की जान चली जाती है। जब बच्चे खलनायक की कैद में होते हैं तब नायक अपनी पत्नी से कहता है- “चलो, अपने बच्चों को (बेटियों को) घर ले आते हैं।” यह संवाद सिहरन पैदा करता है। उसका एक और संवाद लम्बे समय तक कानों में गूँजता रहेगा- “पिता रक्षा करता है। यही धर्म है एक अच्छे पिता का।” पिता का मतलब पिलर है, ताकत है, घर की छत है। माँ यदि बच्चों की छाती होती हैं तो पिता उसकी पीठ हैं। पूरी फिल्म माता-पिता का अपने बच्चों के प्रति समर्पण की करुण कथा है।

पिछले साल हॉलीवुड की ‘DOM’ नामक वेबसीरीज आई थी। उस वेबसीरीज के नायक का बेटा ड्रग्स की चपेट में आ जाता है। बहुत सारी समस्याओं में उलझता है। लेकिन पिता हर स्थिति में उसकी रक्षा करते हैं। पिता का अपनी संतान के प्रति वैसा समर्पण विरल है। संतान जैसी भी हो, माता-पिता का प्यार उसके प्रति कभी कम नहीं होता। अभी हाल में हमने देखा कि जब शाहरुख खान के बड़े बेटे को ड्रग्स मामले में करीब एक माह तक पिता से दूर रखा गया तब शाहरुख खान ने वह सबकुछ किया जो एक पिता को करना चाहिए था। एक भी रात उन्होंने चैन से नहीं सोया होगा। इस दर्द, पीड़ा और प्यार को उसे भी महसूस करना चाहिए जिसका अपना कोई परिवार नहीं है। यह फिल्म प्रेम, परिवार और इमोशन्स को ऐसे दिखाती है जैसे वह हमारे परिवार की कहानी हो। अपना परिवार बसाने के लिए हमें दूसरों का परिवार नष्ट नहीं करना चाहिए। यही इस फिल्म का मुख्य उद्देश्य है। शायद मनुष्य जाति को यह बात समझ में आ जाए। क्योंकि हिंसा, युद्ध से किसी का कल्याण नहीं हो सकता। “हिंसा कितनी भी जायज क्यों न हो, हिंसा को ही जन्म देती है।”

अज्ञेय की विभाजन संबंधी कहानियों में अभिव्यक्त मानवीय मूल्य और उनकी प्रासंगिकता-ताजवर बानो

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अज्ञेय की विभाजन संबंधी कहानियों में अभिव्यक्त मानवीय मूल्य और उनकी प्रासंगिकता

ताजवर बानो

शोधार्थी, हिंदी विभाग

दिल्ली विश्वविद्यालय

ईमेल-tajverbano30@gmail.com

सारांश

विभाजन एक ऐसी त्रासदी जो रूप बदल कर बार-बार हमारे समक्ष आ खड़ी होती है और सांझा संस्कृति के धागे को क्षीण करती है ऐसे में मानवीय मूल्यों की बात करना आवश्यक हो जाता है.अज्ञेय की कहानियों के केंद्र में रोटी ,कपड़ा और मकान न होकर विभाजन की त्रासदी से क्षीण हुई मानवीय संवेदना की अभिव्यक्ति है .ये कहानियां मानवीय मूल्यों के आग्रह की कहानियां हैं

बीज शब्द: विभाजन, त्रासदी, मानवीय, मूल्य, आधुनिक, भाव, बोध, शरणार्थी, सांझा संस्कृति

शोध आलेख

आज़ादी की सुबह अपने साथ भयावह त्रासदी को लेकर आई. लाखों करोड़ों इंसान अपनी जगह से उखड़ गए कहीं वे शरणार्थी हुए तो कहीं मुहाजिर. विभाजन की घटना ने भारतीय उपमहाद्वीप को हिला कर रख दिया था ऐसे में मानवीय संकट का गहरा जाना स्वभाविक था.इस संकट की गंभीरता की पड़ताल ‘अज्ञेय’ की कविता ‘मानव की आंख’ की इन पंक्तियों से की जा सकती है-

“कोटरों से गिलगिली घृणा यह झांकती है

मान लेते यह किसी शीत रक्त, जड़ दृष्टि

जल-तलवासी-तेंदुए के विष नेत्र हैं”

यद्यपि इस घटना ने लोगों के जीवन को भटका दिया और उनके समक्ष अस्तित्व को बचाने का प्रश्न सबसे बड़ा प्रश्न था और भागना तो जैसे जीवन का हिस्सा बन गया था

“भागो, भागो चाहे जिस ओर भागो

अपना नहीं है कोई, गति ही सहारा यहाँ

रुकेंगे तो मरेंगे”

ठीक इसी बात को तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष ‘श्री कृपलानी’ के शब्दों में कहें तो “डर ये नहीं कि लोग मारे गए हैं या विधवाएं विलाप कर रही हैं या यतीम चिल्ला रहे हैं या बहुत से घर जला दिए गए हैं डर यह कि अगर ये सिलसिला चलता रहा तो हम नरभक्षण की स्थिति में पहुंच जाएंगे.”

ये स्थितियां ऐसी थी कि सांझा संस्कृति की इमारत की नींव को हिला कर रख दिया था. ऐसे समय में जब ‘रुकना’ ‘मरने’ का पर्याय बन गया हो, यतीम चिल्ला रहे हो. शहर और क़स्बों ने छोटे-छोटे भारत और पाकिस्तान की शक्ल इख़्तियार कर ली हो, मुहल्ले हिंदू मुहल्ले और मुस्लिम मुहल्ले में बंट गए हो जिनके अपने बार्डर भी हो, मानवीयता प्रश्नों से घिरी हो तब अगर कोई इंसानियत के दामन को रक्तरंजित होने से बचाने की कोशिश कर रहा तो प्रतीत होता है कि दीपक की लौ काम कर रही है. इसी सन्दर्भ में ‘नरेंद्र मोहन’ अपनी किताब ‘विभाजन की त्रासदी’ में लिखते हैं-

“व्यापक पैमाने पर हो रहे ख़ून ख़राबे और मानव विरोधी कारनामों के बावजूद उन काले दिनों में भी दोनों पक्षों में ऐसे लोग थे जो धरती से, संस्कृति से जुड़े-बंधे महसूस करते रहे थे कि भौगौलिक रूप से सीमाएं निर्धारित होने से दिल नहीं बंट पाते. बंटवारे की विभीषिका को उससे उत्पन्न होने वाले संबंधों तथा मनोवैज्ञानिक ग्रंथियों को सांस्कृतिक धरातल पर मानवीय दृष्टि से देखने वाले ये ही संवेदनशील व्यक्ति थे जिन्होंने संस्कृति को मिटने से बचाने के लिए पूरी तरह प्रयत्न किया.सवाल ये नहीं कि ये प्रयत्न बड़ा है या छोटा महत्व इस बात का है कि ये एक प्रयत्न है- राजनीतिक क्रूरता और निर्ममता, सांप्रदायिकता, घृणा पाखंड और हिंसा तथा सांस्कृतिक पृथकता के सिद्धांत को झुठलाने वाला है.”

विभाजन की इतनी बड़ी घटना जिसने बड़े पैमाने पर लोगों को प्रभावित किया उससे साहित्य भी अछूता ना रह सकता था इस घटना ने भारतीय साहित्य को एक अलग मोड़ दिया. इतिहास, स्मृति, संस्कृति को लेकर सृजन की जो प्रक्रिया उस दौर में शुरू हुई वह अभी तक जारी है. बंटवारे के कारण जो स्थितियां पैदा हुई , उन स्थितियों ने नयी तरह की ग्रंथियों और विकृतियों को जन्म दिया. भारतीय भाषाओं की कहानियों में उन्हें संवेदना, मूल्यों और वैचारिक दृष्टि से देखा गया है. ज़्यादातर कहानियां उस समय के अनुभव पर आधारित है-

“कहीं प्रत्यक्ष अनुभवों से कहानी की सीधी बुनाई की गई है, घटनाओं और प्रसंगो के ब्यौरे दिए गए हैं तथा अंत तक आते-आते उन्हें मानवीय संवेदनाओं के सूत्र में पिरो दिया गया है… कथ्य और अभिव्यक्ति दोनों द्ष्टियों से विभाजन संबंधी कहानियों ने भारतीय कथा परिदृश्य में सार्थक हस्तक्षेप किया है इतिहास बोध को कथा में डालने की शुरुआत इन कहानियों से हुई…

“विभाजन संबंधी कहानियों का अगर ग्राफ़ तैयार करें तो कई बातें प्रकाश में आ सकती है. भारतीय संस्कृति, समाज, भाषा और राजनीति के तेज़ी से बदलते चेहरे की जो झलक इन कहानियों से मिलती है उसका एक पक्ष उजला है तो दूसरा अंधेरा अंधेरे उजले पक्ष साथ ही हैं.कई तरह के उतार-चढ़ावों, कई क़िस्म की असंगतियों-विसंगतियों से यह चेहरा इतना कटा-फटा दिखता है कि पहचानना मुश्किल है.”

‘अज्ञेय’ ने विभाजन से संबंधित कुल छ: कहानियाँ लिखी हैं. जिसमें से पांच कहानियाँ सन् 1947 में लिखी गई और एक कहानी सन्1957 में लिखी गई. इन कहानियों की रचना का समय वह समय है जब देश सांप्रदायिकता और राजनीति की आग में जल रहा था. मानवीय मूल्य राख का ढेर हो गये थे. मनुष्य का मनुष्य से विश्वास उठ गया था. अज्ञेय की विभाजन संबंधी कहानियों के केंद्र में रोटी, कपड़ा और मकान ना होकर विभाजन की त्रासदी से क्षीण हुई मानवीय संवेदना की अभिव्यक्ति है.

अज्ञेय स्वयं लिखते हैं “ये कहानियाँ भारत विभाजन का विभ्राट और उससे जुड़ी हुई मन:स्थितियों की कहानियां हैं.एक बार फिर ये कहानियाँ आहत मानवीय संवेदना की और मानवीय मूल्यों के आग्रह की कहानियाँ हैं.”

ये कहानियाँ केवल और केवल भावात्मक अभिव्यक्ति नहीं है बल्कि गहरी चिंता है उन मूल्य, प्रेम और सद्भाव के खो जाने की जो हमारी पहचान है. ये कहानियाँ इंसान को इंसान बनाने का आग्रह हैं. ये कहानियाँ अंधेरे बंद कमरे में रोशनदान से छनकर आती हुई रोशनी की तरह हैं.’अज्ञेय’ लिखते हैं-

“आज का फ़ैशन मूल्यों का अस्तित्व भी मानने का नहीं है पर मेरी समझ में यह कहना कि आज हम संपूर्णतः मूल्य विरहित समाज में जीते हैं उतना ही बड़ा पाखंड है जितना यह मानना कि समाज में सब शाश्वत मूल्य प्रतिष्ठित है… मैं नहीं मानता कि मानव समाज मूल्यों के बिना जी सकता है, अस्तित्व रख सकता है. जिस समाज में मूल्य नहीं है वह समाज नहीं है मानव समाज होना दूर की बात है. मूल्य मानव की रचना है मूल्य रचना ही उसका मानवत्व हो”

अज्ञेय की कहानी ‘रमंते तत्र देवता’ दर्शाती है कि मानवीयता जहाँ एक ओर कलुषित हो रही है वहीं दूसरी ओर बिशन सिंह जैसे किरदार भी समाज में मौजूद हैं जो एक स्त्री को ना सिर्फ़ पनाह देते हैं बल्कि उन्हें सुरक्षित घर भी पहुंचाते है “ मैंने उससे कहा डरे नहीं, मेरे साथ धरमतल्ले पार कर ले, अगर के. सी. दास की दुकान पर उसका आदमी मिल गया तो ठीक, नहीं तो वहाँ से बालीगंज की ट्राम चलती होगी, उसमें जाकर गुरुद्वारे में जाकर रात रह जाए और सबेरे मैं उसे घर पहुंचा आऊंगा” उस स्त्री के पति द्वारा उसे अंदर ना आने देने और बाद में किसी तरह अंदर आने देने पर बिशन सिंह के मन में शंकाए उठती है. इंसानियत के खो जाने का डर बिशन सिंह को चिंता में डूबो देता है. यद्यपि उस समय में बिशन सिंह जैसे लोग कम थे लेकिन चिंतित थे. पूरी कहानी मानवीय-मूल्यों के ह्रास हो जाने की चिंता को व्यक्त करती है यद्यपि बिशन सिंह के रूप में मानवीयता की आवाज़ ऊंची है. बिशन सिंह के शब्दों में “सारे मुसलमान अरब और फ्रांस और तातार से नहीं आए थे.सौ में एक होगा जिसको हम अरब या फ्रांस के तातार की नस्ल कह सकें और मेरा तो ख्याल नहीं तजरिबा है के अरब और ईरानी बड़ा नेक,मिलनसार और अमनपसंद होता है तातारियों से साबिका नहीं पड़ा .बाकी सारे मुसलमान कौन हैं?हमारे भाई ,हमारे मज़लूम जिनका मुंह हज़ारों बरसों से रगड़ते आए हैं”

ऐसे में जब धरम के नाम पर मार काट मची हो.इन विचारों का आना और उन्हें अभिव्यक्त कर पाना बिशन सिंह जैसे क़िरदार के साहस का प्रतीक है जो मानवीयता के झंडे को झुकने से बचाने के लिए हर संभव प्रयास करते हैं.

इसी कड़ी में अज्ञेय की प्रसिद्ध कहानी ‘शरणदाता’ है जो विभाजन पर आधारित हिंदी कहानियों में श्रेष्ठ मानी जाती है. इस कहानी में एक और आदर्श का पुट है वहीँ दूसरी ओर विभाजन के परिप्रेक्ष में सूक्ष्म मानवीय संवेदनाओं की अभिव्यक्ति है.अताउल्लाह के यहाँ खाने में ज़हर का मिला होना और देविंदर लाल के द्वारा चिट्ठी को चुटकी से उड़ा देना उन दोनों के परिवर्तित भावों का चित्रण इस कहानी में है .भावों का यह परिवर्तन अनायास नहीं है ये परिस्थितियों से प्रभावित हैं.कहानी में मुख्य चरित्र के रूप में ज़ेबूं सामने आती है जिसका व्यवहार और सहजता अनायास ही मन में उतरता चला जाता है और जो किसी धर्म विशेष से सम्बंधित न हो कर केवल इंसानियत की मिसाल के तौर पर सामने आती है

“अब्बा ने जो किया या जो करना चाहा उसके लिए मैं माफ़ी मांगती हूँ और यह भी याद दिलाती हूँ उन की उसकी काट मैंने ही कर दी थी .एहसान नहीं जताती,मेरा कोई एहसान आप पर नहीं है-फिर सिर्फ यह इल्तिजा करती हूँ की आपके मुल्क में अकलियत का कोई मजलूम हो तो याद कर लीजियेगा इसलिए नहीं की वह मुसलमान है बल्कि इसलिए की आप इंसान है”

विभाजन संबंधी कहानियों में अगली कहानी ‘बदला’ है.इस कहानी में ‘बदला’ शब्द का अर्थ व्यापक और विस्तृत है.यहाँ बदला मौत के बदले मौत जैसा अर्थ न ग्रहण कर नए सन्दर्भों में आता है.यहाँ बदले का मतलब अमानवीयता के बदले मानवीयता से है.इस कहानी के केंद्र में ट्रेन में बैठे सरदारजी हैं जो दंगों में अपना सब कुछ गंवाने के बाद भी बदले की भावना से ग्रसित नहीं है बल्कि रास्ते भर एक मुसलमान की रक्षा करते हैं.

“सिख ने कहा, आप बैठी रहिये.यहाँ आपको कोई डर नहीं है.मैं आपको अपनी बहिन समझता हूँ और इन्हें अपने बच्चे…आपको अलीगढ तक ठीक -ठाक मैं पहुंचा दूंगा,उससे आगे खतरा भी नहीं है.”अन्यत्र वह अपने सामने बैठे हुए व्यक्ति को धिक्कारते हुए कहता है-“औरत की बेईज्ज़ती औरत की बेईज्ज़ती है ,वह हिन्दू या मुसलमान नहीं वह इंसान की माँ की बेईज्ज़ती है.शेखूपूरे में हमारे साथ जो हुआ सो हुआ,मगर मैं जानता हूँ की उसका मैं बदला कभी नहीं ले सकता क्यूंकि उसका बदला हो नहीं सकता.”

इन तीन कहानियों के अतिरिक्त विभाजन से सम्बंधित तीन अन्य कहानियां ‘मुस्लिम-मुस्लिम भाई भाई,लेटर बॉक्स ,’नारंगियाँ’मौजूद हैं.मुस्लिम-मुस्लिम भाई भाई’ उस समय के कडवे यथार्थ से साक्षात्कार कराती है. यह कहानी वर्ग-चेतना के दर्प को बड़ी निर्ममता से उघाड़ती है.इंसानियत की बदहाली की तस्वीर खींचती है. ‘मधुरेश’ लिखते हैं- “अज्ञेय के विरोधी ही नहीं उनके समर्थक भी अज्ञेय की अभिजात चेतना और संस्कारों की बात जब-तब करते रहें हैं.कोई भी वर्ग चेतना धर्म और मज़हब से नहीं,अपने वर्गहितों से अनुप्राणित होती है. इस कहानी में अपनी वर्ग चेतना को अतिक्रमित करके अज्ञेय अमीना,सकीना और जमीला जैसी साधनहीन औरतों की पक्षधरता करते हैं …वहां मुसलमान मसला होने के नाते मुसलमान की रक्षा और सहायता न होकर अपने से छोटों को हिकारत की निगाह से देख कर अपने अभिजात दर्प को देह्लाते हुए,झपटी हुई सुविधाओं को बदस्तूर भोगते रहने का है”

नारंगिया’ कहानी 1957 में आई .ये कहानी दो शरणार्थी भाइयों हरसू और परसू की कहानी है जो उनकी समस्याओं,उनकी जिजीविषा और मानव -प्रेम को दर्शाती है.इस सन्दर्भ में परसू का यह कथन उल्लेखनीय है-“साले रिफ्यूजी बनकर आया है तो हौसला रखना सीख दिल बढ़ने से कोई मरता,उसके सिकुड़ने से मरते हैं.”

वर्तमान परिदृश्य को केंद्र में रखते हुए ये कहानियां पुनर्पाठ की मांग करती हैं और यही इनकी प्रासंगिकता भी है क्योंकि जो हम देख रहें हैं उसकी जड़ें विभाजन में निहित हैं.इसी सन्दर्भ में ‘नरेंद्र मोहन’ लिखते हैं “क्या हम एक लम्बे अंतराल में एक ही विभाजन को विभाजन रूप में नहीं झेलते आ रहे हैं?और एक अग्निकांड निरंतर जगह नहीं बदल रहा?क्या एक विभाजन अन्य कई छोटे-छोटे विभाजन की कड़ियों से जुड़ता हुआ आजादी से आज तक ही हमारी ज़िन्दगी के लिए फंदा नहीं बना रहा.”

अज्ञेय की विभाजन संबंधी कहानियों में मानवीयता का स्वरुप झांकता है.ये कहानियां इस बात की पैरवी करती हैं की खंडहर पर भी फूल उगाये जा सकते हैं.ये कहानियां तपती धूप में ठंडी छीटों का काम करती हैं.

सन्दर्भ सूची

  1. मानव की आँख,अज्ञेय ,कविता कोश
  2. रुकेंगे तो देखेंगे,अज्ञेय,कविता कोश
  3. पृष्ठ संख्या 19,विभाजन की त्रासदी, नरेंद्र मोहन
  4. पृष्ठ स.23विभाजन की त्रासदी,नरेंद्र मोहन
  5. पृष्ठ स.25,विभाजन की त्रासदी,नरेंद्र मोहन
  6. पृष्ठ स.260,अज्ञेय की कहानियों का पुनर्पाठ
  7. पृष्ठ स.171,अज्ञ्री की कहानियों का पुनर्पाठ
  8. रमंते तत्र देवता, गद्यकोश, अज्ञेय
  9. शरणदाता, गद्यकोश, अज्ञेय
  10. बदला, गद्यकोश, अज्ञेय
  11. पृष्ठ स.१७७, मधुरेश, सम्पादक-विश्वनाथ प्रसाद तिवारी
  12. नारंगियाँ, गद्यकोश, अज्ञेय
  13. पृष्ठ स.30 विभाजन की त्रासदी, नरेंद्र मोहन