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चीन में हिंदी का पुनर्जागरण काल: -डॉ. गंगा प्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ प्रोफेसर (हिंदी), क्वांगतोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय

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Vertical Scroll: हिंदी विश्व
चीन और भारत के रिश्तों का इतिहास बहुत पुराना
है। आज से हज़ारों साल पहले संस्कृत और भारतीय संस्कृति चीन आ चुकी थी। इसके बाद जब
महात्मा बुद्ध जब चीन आए तो उनका इस धरती ने गर्म जोशी से स्वागत किया।कुछ अपवादों
जिनमें युद्धकाल भी आ जाता है को छोड़कर चीन और भारत की समान सांस्कृतिक विरासत ने
दोनों देशों को बहुत मज़बूती से जोड़े रखा है। भाई-भाई की तरह दोनों देशों ने
 अपने-अपने दुख-दर्द बाँटे
हैं। अपनी-अपनी
 संस्कृतियों को साझा किया है। इसमें भाषा ने सदैव बड़ी भूमिका निभाई है। जैसे प्राचीनकाल
में दोनों को संस्कृत ने जोड़ा वही भूमिका आज हिन्दी निभा रही है।
  
आधुनिक काल में पश्चिम बंगाल के रहस्य और
अध्यात्म ने चीन को बहुत अधिक
 प्रभावित किया।इसका सबसे बड़ा प्रमाण बंगला साहित्यकारों की यहाँ व्यापक
स्वीकार्यता का होना है। सर्वाधिक टैगोर पढे-पढ़ाए जाते हैं। अनेक विश्वविद्यालयों
में उनके नाम पर अध्ययन अनुभाग हैं। उनके काव्य के तो यहाँ अनेक दीवाने मिल
जाएँगे। टैगोर और अरविंद के जीवनदर्शन
,काव्य,अध्यात्म और दार्शनिक सिद्धान्त यहाँ बड़ी गंभीरता के साथ अध्ययन -अध्यापन
में स्थान पाए हुए हैं। सेंजान विश्वविद्यालय की एक एक प्रोफेसर ने तो अरविंद
-दर्शन पर पी-एच.डी की है। यहाँ की माध्यमिक कक्षाओं के पाठ्यक्रमों तक में टैगोर
की उपस्थिति इनकी सर्व स्वीकार्यता की सहज पहचान काही जा सकती है।बांग्ला के बाद
हिंदी ने भी चीनियों को अपनी ओर आकृष्ट किया । इसमें सबसे पहले छायावादी काल में
हिंदी के रहस्य और रोमांटिसिज़्म ने स्वभाव से प्रकृति प्रेमी चीनियों का ध्यान अपनी
ओर खींचा । इसके बाद इनके लूशुन के समानधर्मा लेखक प्रेम चंद इन्हें गहरे प्रभावित
किया। साहित्य के बाद भाषा के रूप में पठन-पाठन के स्तर पर हिंदी के चरण सन्
 1942 मेंनेशनलिस्ट पार्टी की सरकार के समय में चीन
में पड़े। युन्नान प्रांत
 में पूर्वी भाषा का कॉलेज
स्थापित कियागया
,  जिसमें हिंदी थाईइंडोनेशियाई और वियतनामी सहित चार भाषाओं का शिक्षण शुरू हुआ। इस प्रकार इस धरती पर पहली
बार गैर यूनिवर्सल विदेशी भाषाओं के शिक्षण का श्रीगणेश हुआ। हिन्दी विभाग का
खुलना भी इसी
  समय के शिक्षा में हिन्दी के स्वर्णिम
इतिहास की शुरुआत मानी जा सकती है। इसके बाद
 भाषा का यह
प्रवाह पूर्वी भाषा कॉलेज युन्नान से चूंगचींग और चूंगचींग से
 नानजिंग तक पहुंचा। लेकिन हिंदी  का यह प्रवाह
सन्
1949 ई.में बीजिंग तक आते-आते थम और थक-सा गया। 
 बहुत लंबे कालखंड तक चीन
में हिंदी का प्रवाह स्थिर-सा रहा। इक्कीसवीं सदी में आकर हिंदी ने फिर अंगड़ाई ली
और एक अन्य विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग खोला गया। इसके बाद तो झड़ी ही लग गई ।
 
बीजिंग विदेशी अध्ययन विश्वविद्यालय, शीआन
इंटरनेशनल स्टडीज विश्वविद्यालय
गुआंग्डोंग विदेश अध्ययन विश्वविद्यालयशंघाई इंटरनेशनल
स्टडीज विश्वविद्यालय
युन्नान राष्ट्रीयता
विश्वविद्यालय
, चीन के संचार विश्वविद्यालय आदि में हिंदी
विभाग खुलने शुरू हुए तो सिसिलेवार खुलते ही चले गए।
 
बीजिंग विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग का इतिहास
सबसे पुराना है।इस
 विश्वविद्यालयको
पूर्वी भाषा कॉलेज विरासत में मिला है।भौगोलिक दृष्टि से
  बीजिंगशंघाईगुआंगज़ौ,शीआनकुनमिंग आदि शहरों यानी उत्तरी चीनपूर्वी चीनदक्षिण चीनउत्तर पश्चिमी और दक्षिण पश्चिम सब
क्षेत्रों
 में स्थित विश्वविद्यालयों
में हिंदी का पठन-पाठन होता है
  यहाँ हिन्दी विभाग स्थापित हैं। यहाँ के विश्वविद्यालयों में हिंदी के
पठन-पाठन पर एक विहंगम दृष्टि डालने और चीन में हिंदी की आधारभूमि तैयार करने में
जिन विश्वविद्यालयों की अग्रणी भूमिका रही है
, उनकी भौगोलिक 
स्थिति और कालवार विवरण निम्नवत है- 
विश्वविद्यालय
स्थान
स्थापित
होने का समय
बीजिंग
विश्वविद्यालय
बीजिंग
1942
शीआन
विदेशी अध्ययन विश्वविद्यालय
शीआन
2005
बीजिंग
विदेशी अध्ययन विश्वविद्यालय
बीजिंग
2007
चीन
के संचार विश्वविद्यालय
बीजिंग
2008
युन्नान
राष्ट्रीयता विश्वविद्यालय
कुनमिंग
2010
गुआंग्डोंग
विदेशी अध्ययन विश्वविद्यालय
केंटन
2012
शंघाई
विदेशी अध्ययन विश्वविद्यालय
शंघाई
2013
इसके अलावासिचुआन इंटरनेशनल स्टडीज विश्वविद्यालय में
हिन्दी विभाग खोलने की अनुमति दी गई
  हैपर अभी तक औपचारिक रूप से हिंदी का शिक्षण नहीं शुरू हुआ। दक्षिण पश्चिम
राष्ट्रीयता विश्वविद्यालय भी सक्रिय रूप से हिन्दी विभाग की तैयारी कर रहा है
,
एक-दो  वर्ष के भीतर यहाँ भी हिंदी की
शिक्षा शुरू होने की उम्मीद है।
अलग-अलग  विश्वविद्यालयों
के हिन्दी विभागों में शिक्षकों की स्थिति भिन्न-भिन्न
  है। बीजिंग विश्वविद्यालय ने चीन में सबसे पहले
हिन्दी विभाग खोला है
, जिसमें  भारत कीप्रमुख प्रांतीय भाषाओं और उनके साहित्य के अध्ययन की सुविधा उपलब्ध  है।  यह चीन का  एकमात्र
विश्वविद्यालय है जो हिंदी में डॉक्टरेट की उपाधि भी प्रदान करता है। इसलिए
 शिक्षकों के मामले में बीजिंग विश्वविद्यालय
काफ़ी समृद्ध है। इसमें हिंदी विभाग में दो प्रोफेसर
, एक
एसोसिएट प्रोफेसर
एक सहायक प्रोफेसर हैं।अन्य 
विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की स्थिति इतनी
समृद्ध तो नहीं है पर वहाँ भी हिंदी के सुचारु रूप से शिक्षण के लिए औसतन तीन से
चार शिक्षक हैं। इनमें अधिकांश शिक्षक चीनी ही हैं। किसी -किसी विश्व विद्यालय में
ही विदेशी विशेषज्ञ के रूप में भारतीय प्रोफेसर हैं
,नहीं तो
सारे विश्वविद्यालयों में चीनी नागरिक ही हिंदी पढ़ा रहे हैं । बीजिंग
विश्वविद्यालय में तो हिंदी के दो-दो
  चीनी प्रोफेसर
हैं। यहाँ के तीन प्राध्यापक हिंदी में पी-एच.डी हैं।यहाँ के प्रोफेसर जियांग जिंग
खुइ ने आधुनिक हिंदी नाटकों पर डाक्ट्रेट प्राप्त की है। नाटकों संबंधी उनके ज्ञान
पर मैं दंग था।उनके एक घंटे के साक्षात्कार में उनके मुँह से एक भी शब्द अङ्ग्रेज़ी
का मैंने नहीं सुना। उनके हिंदी पर अधिकार का इससे बड़ा सबूत और क्या चाहिए। मैंने
स्वयं को उनके सम्मुख बहुत सँभालकर रखा कि कहीं कोई अङ्ग्रेज़ी शब्द मुँह से न
निकाल जाए । उन्होंने मुझसे कहा कि
,” आप भारतीय
अंग्रेज़ी बोलने में जो गौरव अनुभव करते हैं वह हिंदी बोलने में नहीं।”उस समय
मैं पानी-पानी हो गया। इनके पचासों शोध पत्र और कई पुस्तकें प्रकाशित हैं। इनमें
प्रमुख हैं-
 हिंदी नाटक का अनुसंधान,
रवीन्द्रनाथ ठाकुर की रचनाओं का अध्ययन तथा भारत की संस्कृति और साहित्य का अध्ययन।

चीन के 
हिंदी शिक्षकों की हिंदी सेवा की जितनी सराहना की जाए कम है। उनका
भाषा के साथ-साथ साहित्य के क्षेत्र में भी बड़ा अवदान है। उनके साहित्यिक अवदान को
विशेष रूप से रेखांकित किए जाने की आवश्यकता है।
नाम
विश्वविद्यालय
अनुसंधान
का विषय
जिन
केमून
बेइजिंग
विश्विद्यालय
संस्कृत
साहित्य का इतिहास
1964
भारतीय
संस्कृति का शोध-संग्रह (1983)
महाभारत(किसी
के साथ अनुवाद)
मेघदूत
(अनुवाद) आदि लगभग 30 किताबें
लियू
अनऊ
बेइजिंग
विश्विद्यालय
हिंदी
साहित्य का इतिहास
प्रेमचन्द
की रचनाओं की आलोचना
रामायण
और महाभारत का अनुसंधान
अपेक्षित
दृष्टि
  से भारतीय और चीनी साहित्य का अध्ययन आदि लगभग 20 किताबें
जियांग
जिंग खुइ
बेइजिंग
विश्विद्यालय
हिंदी
नाटक का अनुसंधान
रवीन्द्रनाथ
ठाकुर की रचनाओं का अध्ययन
भारत
की संस्कृति और साहित्य का
 अध्ययन
गुओ
तोंग
बेइजिंग
विश्विद्यालय
आधुनिक
साहित्यकार अज्ञेय के उपन्यासों और कहानियों का अध्ययन
शंकर
की कलात्मक विशेषता
   आदि
देंग
बिंग
जनता
मुक्ति सेना का विदेशी भाषा कालेज
भारत
का अनुसंधान
भारत
का भक्ति आंदोलन और कृष्ण साहित्य
भारतीय  संस्कृति की विविधता   आदि
लिओ
बो
जनता
मुक्ति सेना का विदेशी भाषा कालेज
भारत
के
  साहित्यकार कमरलेश्वर के उपन्यासों और कहानियों का अनुसंधान
मोहन
राकेश की कहानियों की आलोचना आदि
रं
बिंग
शंघाई
विदेशी अध्ययन विश्वविद्यालय
प्रसाद
के
  आधुनिक कविता संग्रहों  का अनुसंधान
प्रसाद
के   चंद्रगुप्त
 नाटक का अधययन आदि
चीन के विश्वविद्यालयों में हिंदी विभागों के अधिकांश पाठ्यक्रमों में
कुछ न कुछ समानताएं हैं।
 प्रत्येक विश्वविद्यालय हिन्दी
भाषा के व्यावहारिक रूप के
  प्रयोग पर बल देता है और 
उसके कौशल को महत्व देता है। इन सभी का मुख्य उद्देश्य छात्रों को
उच्च स्तरीय हिन्दी की क्षमता से संपन्न करना है। सभी कोशिश करते हैं कि छात्र
हिंदी का पूर्ण व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त कर सकें।
  इस आधार पर भारतीय संस्कृति, नीतिशास्त्र 
और अर्थशास्त्र  आदि क्षेत्रों की पढ़ाई
पर भी ज़ोर जिया जाता है। इन समताओं के होते हुए भी विभिन्न विश्विविद्यालय अपने
-अपने ढंग से ही कुछ पाठ्यक्रम तैयार करते हैं
, जो एक दूसरे
से थोड़ा-से भिन्न भी हैं ।इन भिन्न रूप वाले पाठ्यक्रमों मेन श्रव्य -दृश्य पाठ
और व्यावहारिक संप्रेषण के कौशल वाले पाठ हैं।
अन्य विश्वविद्यालयों की अपेक्षा पीकिंग
विश्वविद्यालय का पाठ्यक्रम
 
विविधता से भरा,अधिक गंभीर और व्यापक है।
विशेष रूप से वैकल्पिक पाठ्यक्रमों में यह विशेषता बहुत ज़ाहिर है। पीकिंग
विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के छात्र अन्य सभी विभागों के समान
, एक संपन्न वैकल्पिक पाठयक्रमों  को चुन सकते
हैं
, जैसे साहित्यइतिहासदर्शनशास्त्रधर्म आदि।छात्र अपनी रुचि और
ज़रूरत के अनुसार स्वतंत्र रूप से इन व्यापक कोर्सों में से किसी को भी चुनने
 
के लिए स्वतंत्र  हैं। इन पाठ्यक्रमों
में बहुत से ऐसे विषय
  शामिल हैं,जो
भारत मेन भी हिन्दी भाषी प्रान्तों मेन पढ़ाए जाते हैं।ये विभिन्न कालेजों में
 
लागू हैं औरइन पाठ्यक्रमों के माध्यम से छात्र अधिक अच्छी तरह से
उपनी प्रतिभा का विकास कर सकते हैं।इनसे वे अपनी
  उच्च
स्तरीय हिंदी की क्षमता का उदाहरण प्रस्तुत कर सकते हैं ।
चीन के प्रायः सभी विश्वविद्यालयों में हिन्दी
के पाठ्यक्रम का रूप और तरीका
 
बेइजिंग विश्वविद्यालय से मिलता-जुलता है। इनके मुख्य पाठ्यक्रम हैं- आधारभूत हिन्दीउच्च
स्तरीय हिंदी
हिंदी ऑडियो-विडियो का श्रवणहिंदी पठन,हिंदीचीनी अनुवाद
इत्यादि। बीजिंग विदेश अध्ययन विश्वविद्यालय में वैकल्पिक विषय ज़्यादा हैं
,
जैसे चीन की संस्कृति, पुराने चीन के 
साहित्य शास्त्र आदि। इससे देखा जा सकता है कि बीजिंग विदेश अध्ययन
विश्वविद्यालय चीन की पुरानी संस्कृति पर बहुत महत्व देता
  है। शीआन विदेश अध्ययन विश्वविद्यालय,
युन्नान राष्ट्रीयता विश्वविद्यालय, गुआंग्डोंग विदेशी  अध्ययन
विश्वविद्यालय में हिन्दी पाठ्यक्रम
  की विशेषता  
उसका सैद्धान्तिक से अधिक व्यावहारिक होना है। इन
  विश्वविद्यालयों
में प्राचीन चीन के साहित्य शास्त्र का पाठ्यक्रम कम है। यहाँ सैद्धान्तिक की
अपेक्षा व्याहारिक कोर्स ही ज़्यादा है।
  गुआंग्डोंग
विदेशी
  अध्ययन विश्वविद्यालय में मुख्य रूप से
व्यापारिक
  हिंदी का कोर्स पढ़ाया जाता है। लेकिन इस
वर्ष मैंने बी.ए.तृतीय वर्ष के पहले सेमेस्टर मे
हिन्दी
साहित्य का इतिहास
पढ़ाया।विद्यार्थियों की रुचि को देखकर
मैं हतप्रभ था।कक्षा में तो उनकी सक्रियता थी ही कक्षा के बाहर भी वे कम सक्रिय
नहीं थे। जैसे ही आदिकाल समाप्त हुआ।उन्होने हीनयान
,महायान ,नाथ पंथ और स्वयंभू आदि कवियों पर प्रश्न पूछने शुरू कर दिए।चौरासी
सिद्धों को
 उन्होंने बौद्ध
धर्म से ऐसा जोड़ा कि मैं उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रहा। भक्तिकाल तक आते-आते
तथाकथित धर्म की दृष्टि से ये नास्तिक विद्यार्थी निर्गुण और सगुण को आधिकारिक तौर
पर अलगाने लगे थे। कबीर और अन्य निर्गुण कवियों तथा नाथ और सिद्ध कवियों की
सामाजिक कुरीतियों के खंडन की प्रवृत्तियों में साम्य दर्शा सकने
  में सक्षम हो गए थे।    
आम तौर पर बेइजिंग विश्वविद्यालय में हिंदी के पाठ्यक्रम  का प्रबंधन ऐसे किया जाता
है कि विद्यार्थियों को हिंदी इस तरह सिखाई जाए कि उनमें मौखिक
  और लिखित  दोनों शक्तियों  पर बल हो। उनकी दोनों शक्तियाँ प्रबल हों पर अन्य विश्वविद्यालय में हिंदी
के पाठ्यक्रम
  का प्रबंधन  केवल
भाषिक शक्ति यानी बोलचाल पर अधिक बल देता
  है।इस दृष्टि
ग्वाङ्ग्डोंग वैदेशिक भाषा अध्ययन विश्वविद्यालय ने अन्य विश्वविद्यालयों
व्यावहारिक भाषा नीति के साथ साहित्य के गंभीर अध्ययन के लिए भी एक खिड़की खोल ही
दी है। यह पर्णपरा मैं चाहता हूँ कि मेरी भारत वापसी के बाद भी बरकरार रहे। इसके
यहाँ के हिन्दी विभाग के निदेशक श्री ह्यू रुई और व्याख्याता श्रीमती त्यान केपिंग
को बराबर प्रेरित करता रहता हूँ।
विदेशी भाषा अच्छी तरह पढ़ाने के लिए
पाठ्य-पुस्तक चुनना बहुत महत्वपूर्ण है। वर्तमान समय में बेइजिंग विश्वविद्यालय के
द्वारा संकलित
  पाठ्यपुस्तक
सबसे लोकप्रिय है। अधिकतर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग इसका उपयोग कर रहे हैं। इस
पाठ्यपुस्तक में अनुप्रयुक्त व्याकरण के स्पष्टीकरण की बहुत सटीक और सुंदर
 
व्यवस्था है।लेकिन यह पुस्तक मुद्रित न होकर टंकित है और छह दशक
पुरानी है। उसकी छाया प्रतियाँ होते-होते वर्ण तक विकृत रूप वाले हो गए हैं।उसमें
मंडारिन में जो भाषा-प्रयोग दिए गए हैं
, वे बहुत स्पष्ट हैं।
उन्हीं से जहां अस्पष्ट हिन्दी पाठ हैं
,उनको समझने में मदद
मिलती है। पीढ़ियों से चीन के
  हिन्दी छात्रों के
शिक्षण में इसका बड़ा योगदान
  है।इस पाठ्यपुस्तक की
अपनी सीमाएं हैं। उसका प्रयोग केवल आधारभूत हिंदी कोर्स मे ही हो सकता है
, दूसरे हिंदी कोर्स,जैसे-हिंदी श्रवण, हिंदी-चीनी अनुवाद, हिंदी लेखन आदि में 
इसका उपयोग नहीं किया जा सकता। यह  पाठ्यपुस्तक
कोई औपचारिक रूप से प्रकाशित हुई पुस्तक भी नहीं है।
  यह 
शिक्षकों के द्वारा समय-समय पर अपने  कक्षा
-शिक्षण के लिए तैयार किए गए पाठों का संकलन भर है। अतः एक ऐसे सुव्यस्थित
पाठ्यक्रम की आवश्यकता है जो भाषाविदों की निगरानी में
विदेशी
भाषा के रूप में हिन्दी
की दृष्टि से तैयार किया गया हो।
इस समय चीन में हिन्दी की लोकप्रियता और उसके
प्रसार को देखते हुए देश
,काल और
उसकी बदलती जरूरतों
  के अनुसार नई पाठ्यपुस्तकों को
संकलित और संपादित करना एक बहुत ज़रूरी काम हो गया है। यहाँ के लिए हिंदी की किसी
भी स्तर की
  पाठ्यपुस्तक के निर्माण के दौरान कुछ
नियमों का पालन अवश्य करना है
, जैसे सामग्री की विविधता और
छात्रों की समझ और उनके हिन्दी स्तर के अनुरूप होना ।अभी तात्कालिक रूप से
 
हमें हर श्रेणी के लिए कांसे कम एक-एक  ऐसी
उपयोगी और सरल पाठ्यपुस्तक तैयार करने की आवश्यकता है
, जो हर
दृष्टि से
 आधुनिक आर्थिक एवं सामाजिक विकास के अनुरूप
हो और अपने
 युग की मांग की पूर्ति करने में पूर्णतः
सक्षम भी हो।
 
यहाँ के  विश्वविद्यालयों के शिक्षक हिन्दी साहित्य,
भारतीय संस्कृति और अनुवाद के क्षेत्रों में शोध कर रहे 
हैं, विशेष रूप से साहित्य के गंभीर अध्येता
के रूप में उभर रहे हैं। कुछ शिक्षक भारतीय अर्थव्यवस्था के बारे में अध्ययन कर
रहे हैं। इस क्षेत्र में पीकिंग विश्वविद्यालय के शिक्षक बहुत आगे हैं। वे भारतीय
साहित्य
संस्कृतिधर्म के
बारे में अध्ययन कर रहे हैं। वहाँ पिछले दिनों यहाँ के विश्वविद्यालयी प्रशासन के
द्वारा एक साक्षात्कार में मुझे विषय विशेज्ञ बनाया
  गया
तो मैंने पाया कि यहाँ जो शोध करते हैं वे अपने यहाँ की अपेक्षा गंभीरता के साथ
करते हैं। यहाँ की एक प्रतिभागी सूरदास पर पी-एच.डीकर रही थी।वह पुष्टिमार्ग
,नवधा भक्ति और सूर के निर्गुण खंडन जैसे विषयों पर  मेरे पूछने के साथ ही उत्तर देने लगी थी।मैं इसी बात पर मुग्ध था कि उसने
किसी भी प्रश्न का
नहीं आतामें जवाब
नहीं दिया। चीन में हिंदी फैलती इस बेल से मैं तो बहुत आशान्वित हूँ। बीजिंग ही
नहीं शीआन विदेश अध्ययन विश्वविद्यालय के
  एक शिक्षक
अनुवाद पर और भारत की
  राष्ट्रीय स्थितियों पर 
शोध कर रहे हैं। अन्य कई विश्वविद्यालयों के शिक्षक हिंदी माध्यम से
भी
  भारतीय साहित्य या अनुवाद पर अनुसंधान कर रहे
हैं।हमारे प्रधानमंत्री की ची यात्रा के बाद यहाँ के विद्यार्थियों में हिंदी पढ़ने
का उत्साह बढ़ा है। अकेले हमारे विषविद्यालय में हिंदी में सत्तावन विद्यार्थी
हिंदी पढ़ रहे हैं।किसी दूसरे देश के किसी भी विश्वविद्यालय में यह संख्या मिलना
बहुत मुश्किल है।सही अर्थों में चीन में हिंदी का यह पुनर्जागरण काल है।
 हिंदी को यहाँ आजीविका भी
से जोड़ा गया है। चीन में हिन्दी के छात्र स्नातक होने के बाद तरह-तरह काम करने
लगते हैं। वे ऐसे विभागों में जाते हैं जहाँ से हिन्दी और हिंदुस्तान का रिश्ता
जुड़ता है। ये खोजी प्रवृत्ति
  के होते हैं। अधिकांश तो
बीए के बाद ही कुछ न कुछ व्यवसाय खोज ही लेते हैं। कुछ स्नातक विदेश में उच्च
शिक्षा के लिए चले जाते हैं। वहाँ
 वे दक्षिण एशिया के
बारे में विशेष अनुसंधान करते हैं।
 अमेरिका, ब्रिटेनहांगकांग आदि जगहों में वे हिन्दी छोड़कर दूसरे विषय  जैसे संचार विज्ञानबौद्ध धर्मअंतरराष्ट्रीय संबंधशिक्षा और अन्य विषयों को पढ़ते हैं। कुछ चीन
में ही रहकर एम.ए. करते हैं
, और कुछ सरकारी नौकरी में भी लग जाते हैं।सरकारी नौकरी
पाने वाले ज़्यादातर
 कस्टम और सुरक्षा विभाग में काम
करते हैं।
कुछ भारत स्थित चीनी मूल की  कंपनियों में काम
करने चले जाते हैं। कुछ स्नातक तरह- तरह के अंतर्राष्ट्रीय बड़े संस्थानों और
कंपनियों में काम करते हैं। जैसे एचएसबीसी
  बैंक,
हैएर और हुऐवेइ आदि कंपनियां।
 इसके अलावा हिंदी पढे-लिखे विद्यार्थी कालेज, टीवी स्टेशन आदि में काम करते है।जैसे
सीसीटीवी
,सीआर आई (चीन का अंतर्राष्ट्रिय रेटियो स्टेशन) में
काम करते हैं। और कुछ स्नातक उच्च स्तरीय शिक्षा संस्थान और विश्वविद्यालय में
हिन्दी पढ़ाने और अनुसंधान का काम भी करने लग जाते हैं।
 डॉ. गंगा प्रसाद शर्मा  गुणशेखर‘ 
प्रोफेसर
(हिंदी)
,
क्वांगतोंग
वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय
,
क्वाङ्ग्चौ,चीन। फोन-00862036204385 

नाइजीरिया के टिव समुदाय के मौखिक शौर्य गीत:  प्रोफेसर हरदीप सिंह

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Looking Gorgeous With Tiv Cultural A25E225802599nger Fabric.
इन्यामत्सवाम गीत
(
Inyamtswam)
लेनिअर एम्यूज़ के अनुसार, “ इन्याम्त्स्वाम गीतों से निकला शौर्य काव्य  (Heroic poetry)  काव्य टिव (tiv) जाति के लोगों
में केवल लोकप्रिय ही नहीं है अपितु उनके जीवन को जमीन प्रदान करता है
|”(lanior Amase, Emanuel etall , 2016)|  प्रस्तुत शोध पत्र यह सिद्ध करता है कि जहाँ एक
ओर हीरोइक काव्य लोगों के बीच प्रतिस्पर्धा के लिए उत्साह पैदा करता है वहीँ दूसरी
ओर यह काव्य सामाजिक बुराइयों के विरुद्ध उन्हें खड़ा करता है, लोक संस्कृति को
बढ़ावा देता है और लोगों का मनोरंजन भी करता है
|  यह काव्य उन्हें अपनी परम्पराओं और
पूर्वजों के साथ जोड़ता है
| यदि टिव हीरोइक काव्य को सम्भाल कर न रखा गया तो इसका दुष्परिणाम यह हो
सकता है कि वर्तमान सूचना प्रौद्योगिकी युग की द्रुत गति की तरक्की में टिव हीरोइक
काव्य में निहित गुणों के लुप्त हो जाने का डर है
|
टिव नाइजीरिया के
बेन्यु (
Benue) राज्य की प्रसिद्ध जाति है|  टिव एक व्यक्तिवाचक नाम है जिसे
टिव जाति का पिता माना जाता है
|  रुपर्ट ईस्ट (2003) के अनुसार, टिव
के इप्सू और इक्न्गो
(Ipusu and Icôngo.) नाम के दो पुत्र थे| इन दोनों ने इस जाति की दो शाखाएँ स्थापित की|  इप्सू के अंतर्गत शित्रे, उकुम,
जेंगबाघ एवं जेसिरा (
Shitire, Ukum, Jemgbagh and Jecira) आते हैं| जबकि इकंगो (Icôngo) के अंतर्गत तोंगोव, युगोंडो, इकुरव, नोंगोव,इहरे, मासे, और तुरन (Tongov, Ugondo, Ikurav, Nôngov, Iharev, Masev
and Turan
) आते हैं|  यह वर्गीकरण टिव समाज  के लोगों के सामाजिक और राजनितिक संगठनों का
आधार है
| 
टिव समाज विभिन्न आयु
वर्गों में बंटा हुआ है
|  इन विविध आयु-वर्गों के अनुसार लोग
अनेक प्रकार की गतिविधियों में हिस्सा लेते हैं जैसे नृत्य उत्सव, अपने समुदाय के
लिए श्रमदान और आर्थिक सहयोग प्रदान करना
|  टिव समुदाय के लोगों की धर्म में
गहरी आस्था है
|  उनके धार्मिक विश्वास एवं
मान्यताएं दिव्यता (
akombo) और जादू-टोनो (witchcraft) के इर्द-गिर्द रहती हैं|  टिव लोग जादू टोनों को समाज में
व्यवस्था बनाए रखने के लिए आवश्यक मानते हैं
|
टिव समुदाय का मुख्य
व्यवसाय कृषि होने के कारण इस समुदाय के पुरुष विवाह को बहुत महत्त्व देते हैं
क्योंकि उन्हें पत्नी और बच्चे कृषि कार्य में सहयोग के लिए मिल जाते हैं
|  वास्तव में उनके परिवार के आकार पर
ही उनके खेत का आकार और सम्पत्ति की मात्रा 
निर्भर करते हैं
|  टिव पुरुष चाहे कितना ही धनवान
क्यों न हो, जब तक उसका विवाह नहीं हो जाता तब तक उसे ग़ैर ज़िम्मेवार समझा जाता है
|  उसका सामाजिक रुतबा कम हो जाता है
और वह अपनी आयु-वर्ग के अन्य युवकों के साथ प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकता
|  विवाहित होना नृत्य-उत्सव में
हिस्सा लेने की पहली शर्त है क्योंकि नृत्य में पत्नी का साथ होना आवश्यक है
| 
अफ्रीकन परम्परा में
काव्य का बहुत अधिक महत्व है क्योंकि वहाँ ऐसे अवसरों की संख्या बहुत अधिक है
जिनमे कविता का प्रयोग अनिवार्य है
|  शायद ही कोई अफ्रीकन ऐसा हो जो
किसी काव्य रूप के प्रयोग के बिना किसी गतिविधि में हिस्सा ले सके
|  इसका अभिप्राय यह है कि काव्य
अफ्रीकनो के दिन प्रतिदिन के कार्यकलाप के ताने बाने में गुंथा हुआ है
|  इस प्रकार टिव काव्य ‘कबीले की
जीवन शैली में रल-मिल गया है , और उनके दिन-प्रतिदिन के मामलों और जीवन की
समस्याओं को सुलझाने में मदद करता है” (
Jenkwe,1) टिव समुदाय के पास साहित्य के
मौखिक अंश मिलते हैं और उनके कुछ परम्परागत नृत्य हैं जिनकी प्रस्तुति वे अपने
गीतों के साथ करते हैं|  इनके अंतर्गत
स्वेंज (
Swange)(
https://www.youtube.com/watch?v=
8EU9y3nGzbA) एंग (Ange) ( https://www.youtube.com/watch?v=We1RJbbXKqI), गिरिन्या (Girinya), इबियमेघ (Ibyamegh), इंग्युघ (Ingyough), इन्यइन्या (Inyinya), आइवोम (Ivom), इन्याम्तस्वेम (Inyamtswam), आदि उल्लेखनीय नृत्य हैं|  सामन्यतया टिव समुदाय के इन
नृत्यों का वर्गीकरण उनके ऐतिहासिक और कलात्मक सन्दर्भ  में करते हुए उन्हें ऐसे नाम दिए जाते हैं जो
अवसर के अनुसार उनके उत्सवों, इतिहास और कला के अनुरूप होते हैं
| 
टिव समुदाय के लोग
अपनी शक्ति और संपत्ति के गौरवपूर्ण प्रदर्शन का छोटे से छोटा अवसर भी हाथ से जाने
नहीं देते
| वे निर्धनता को एक ऐसी बुराई के रूप में देखते हैं  जिसे किसी भी कीमत पर खत्म किया जाना चाहिए|  इस मन्तव्य की पूर्ती को हेरोइक
कर्म के रूप में देखा जाता है जिसका वे जश्न मनाते हैं
|  इससे सम्बन्धित नृत्यों को टिव लोग
गौरवपूर्ण मानते हैं
|
ये हीरोइक नृत्य उत्सव
व्यक्ति में अपने कार्य को समर्पण भाव और मेहनत के साथ करने के लिए उत्साहित करते
हैं
| टिव समुदाय में किसी व्यक्ति को ‘पुरुष’ तब माना जाता है जब वह कम से कम
किसी एक गौरवपूर्ण नृत्य का आयोजन करता है
|   इसके अतिरिक्त किसी व्यक्ति को उसकी तंगहाली से
बाहर निकलने के लिए अभद्र टिप्पणियों वाले गीत भी गाए जाते हैं
|  जिससे वह अपनी गरीबी की हालत से
बाहर निकलने के लिए पुरुषार्थ करे
| 
नृत्यों का आयोजन नई
नवेली दुल्हन या फिर मन पसंद पुरानी दुल्हन के स्वागत के लिए भी किया जाता है
|  इसमें दूल्हा-दुल्हन दोनों नृत्य
में भाग लेते हैं और मिलकर गीत गाते हैं
|  कई बार तरक्की मिलने पर अथवा
सामाजिक रुतबा बदने पर भी इन नृत्यों का आयोजन किया जाता है
|  इन नृत्यों से व्यक्ति की शारीरिक
और मानसिक थकान भी दूर होती है
|  टिव समुदाय का मुख्य पेशा कृषि
होने के कारण वह तनाव में रहता है और इन नृत्यों के माध्यम से वह तनावमुक्त हो
जाता है
| 
टिव समुदाय के इन
नृत्यों के साथ हीरोइक काव्य या गीतों को गाया जाता है
|  इस हीरोइक काव्य में धैर्य, ईमानदारी,
भ्रातृभाव, सख्त मेहनत, दया और करुणा जैसे गुणों की महिमा का बखान किया जाता है
|  इन मौखिक गीतों का प्रयोग टिव
समुदाय पारस्परिक एकता और समाज के विकास के लिए करता है
| 
इस शोध आलेख में इस
बात पर भी बल दिया गया है कि किसी भी समुदाय का मौखिक साहित्य भी बहुत उपयोगी होता
है
|  यह ‘कला कला के लिए’ सिद्धांत में
विश्वास नहीं रखता
| अपितु मौखिक साहित्य
के प्रयोगात्मक रूप का अध्ययन करता है
|  इस प्रयोगिक कार्य के अंतर्गत
लोगों को शिक्षित करना, उनमें नैतिक मूल्यों को धारण करने के लिए प्रेरित करना एवं
समाज के नियम-मर्यादाओं को तोड़ने वालों को चेतावनी देना है
|
टिव हीरोइक गीतों का
एक रूप वह है जो व्यक्ति के उच्च स्तर को प्राप्त करने के प्रदर्शन को लेकर गाए
जाते हैं
|  इन स्तुति गीतों में रूपक और
अतिशयोक्ति का प्रयोग रहता है
|
यहाँ यह समझ लेना आवश्यक
है कि टिव हीरोइक गीतों का सन्दर्भ यूरोप के क्लासिकल हीरोइक साहित्य से भिन्न है
|  यहाँ पर हीरो ईश्वर या ईश्वर के
अवतार नहीं हैं
|  न ही उनके पास कोई अतिमानवीय
शक्तियां हैं
|  ‘संक्षेप में , वे सामान्य व्यक्ति
हैं जो सामान्य कार्य-कलाप करते हैं’ (
Kunene, xvi) इन साधारण क्रिया कलापों को कवि रूपक, प्रतीकों और बिम्बों के प्रयोग से
असाधारण बना देता है
|  हीरो का वर्णन एक राक्षस अथवा
भयानक जीव के रूप में किया जाता है जो पल भर में ही अपने विरोधियों का सफाया कर
देता है
|
वीर गीतों में केवल
स्तुति गान और गुणों की महिमा ही नहीं होती अपितु ईर्ष्या व् द्वेष जैसे अवगुणों
की भर्त्सना भी की जाती है
| निम्नलिखित उदाहरण से यह स्पष्ट हो जाता है :
मेरे लोग, ऐसे नहीं
हैं ,
मका का पुत्र अबागी
तुम्हारी यह धरती ,
केवल
ईर्ष्या से भरी है ,
मेरे बच्चो
तुम्हारे देश की रक्षा
कौन करेगा ? (1)
उपर्युक्त गीत में
गायक अपने देश वासियों में ईर्ष्या व् द्वेष की भावना में जकड़े जाने की भर्त्सना
करते हुए पूछता है कि ‘तुम्हारे देश की रक्षा कौन करेगा ?
इसके परिणाम स्वरूप
लोग एक दूसरे की टांग खींचने में लगे रहते हैं जो देश के हित में नहीं है
|
एक अन्य उदाहरण
प्रस्तुत है :
हमारा राजा , एक कुलीन
व्यक्ति 
त्योज़ेर अगेरा
देखो जीवन की विडंबना
अगर तुम मेहनत नहीं
करोगे
लेकिन, जाकी
तो लोग तुम्हारी चुगली
करेंगे
कि तुम ग़रीब हो
इतने ग़रीब जैसे कि
बिखरे हुए सफ़ेद बालों वाला
|
अगर तुम स्ट्रगल करने
का निर्णय लेते हो
तो तुम्हें लोगों के
कोप का
भाजन बनना पड़ेगा ;
अगर तुम सुंदर वस्त्र
पहनते हो
तो तुम्हें लोगों के
कोप का
भाजन बनना पड़ेगा ;
अगर तुम्हारा खेत बड़ा
है ,
तो तुम्हें लोगों के
कोप का
भाजन बनना पड़ेगा ;
वे खिल्ली उड़ाते हुए
कहेंगे, तुम तो राजा
बन गए हो
तुम्हारी बराबरी कोई
नहीं कर सकता
| (2)
उपर्युक्त पद्यांश एक
ऐसी कटाक्षपूर्ण स्थिति दर्शाता है जहाँ अकर्मण्य और आलसी लोग तो उपहास का पात्र
बनते ही हैं अपितु परिश्रमी लोगों को भी समुदाय की नाराज़गी झेलनी पड़ती है
| धनाढ्य व्यक्तियों की
बेशुमार सम्पति देख कर दूसरों को कुढन होती है
|  इस ईर्ष्या, जलन और लोभ के कारण ही
टिव समुदाय के लोगों के बीच प्रॉपर्टी सम्बन्धी विवादों की संख्या बहुत अधिक है
जिसके कारण वहां जान-माल का बहुत नुकसान होता है
|  इस गीत का गायक परिश्रमी लोगों को
अपनी निंदा करने वालों से निर्भय रहने का आह्वान करता है
|  यह गीत ईर्ष्या, द्वेष और चुगली
करने वालों की भर्त्सना करते हुए सफलता की प्राप्ति करने वाले लोगों के उत्सव
मनाने की भूमिका तैयार करता है
|
जीवन में प्राप्तियों
के कारण सफल समझे जाने वाले व्यक्तियों का इन्यामत्स्वाम (I
nyamtswam)  नृत्य उनकी शक्ति और शौर्य का
प्रतीक है
|  इसमें असफल रहने वालों को अपने
समुदाय में औरत या बच्चे का दर्जा दिया जाता है
|  इस लिए उन्हें रंगभूमि में ख़तरनाक
इन्यामत्स्वाम (I
nyamtswam)  नृत्य के लिए तैयारी करनी पड़ती है
जैसा कि निम्नलिखित गीत से स्पष्ट है :
लोग रंगभूमि में
एकत्रित हैं,
इस लिए मैं चेतावनी
देता हूँ
वे रंगभूमि में
शीघ्र जगह बना लें ,
अन्यथा ,
इन्यामत्स्वाम
शुरू होने जा रहा है ,
इन्यामत्स्वाम आ रहा
है !
लोग अपने लिए जगह बना
लें
और बच्चे भी भाग जाएँ| (3)
किसी की वीरता का
प्रदर्शन इस बात पर भी निर्भर करता है कि वह ब्रह्माण्ड की शक्तियों जैसे सूर्य,
बिजली की कड़कड़ाहट , और वर्षा अदि का सामना किस प्रकार करता है
|  कवि कहता है कि इन्यामत्स्वाम (Inyamtswam)  नृत्य में इत्योसोंगो आगा (Ityôsongo Aga) छद्म वेश में सूर्य के मद्धिम होने, थंडर और बिजली चमक की प्रस्तुति करता
है
|  यह अनुष्ठाता शौर्य और साहस की
प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति है
|  थंडर और सूर्य की प्रतिक्रिया  अनुष्ठाता की प्रसिद्धी एवं प्रतिष्ठा को
प्रदर्शित करता है कि ब्रह्माण्ड की शक्तियां भी उसके आगे नत-मस्तक होती हैं :
इत्योसोंगो आगा
रंगभूमि
में दिखाई पड़ता है ,
मैंने देखा
थंडर और बिजली की कड़क
सूर्य काला पड़ गया था (4)
शौर्य और साहस के
प्रदर्शन का एक अन्य उदाहरण निम्नलिखित है जिसमें प्रतिष्ठित व्यक्ति अपनी तलवार
निकालकर शेर का सिर काट देता है :
आगा का पुत्र ,
इत्योसोंगो
तलवार म्यान से बाहर
खींचता है
वह शेर का सिर काटकर
उसका शरीर मुझे दे
देगा (5)
उपर्युक्त अंश ख्यातिप्राप्त
व्यक्ति के साहस का असाधारण प्रदर्शन है
| अपनी इस उपलब्धि की वजह से वह इन्यामत्स्वाम (Inyamtswam)  बन जाता है जो शेर तक को मार सकता
है
|  इस दृश्य का लाक्षणिक अभिप्राय यह
है कि शेर का सिर काटने वाला नृत्य सम्पन्न लोग स्वयं के लिए भी आयोजित करते हैं
और उस गायक के लिए भी जिसके पास कुछ नहीं है
|  टिव समुदाय की संस्कृति में
सम्पन्न व्यक्ति दूसरों के लिए भी इस प्रकार के नृत्यों का आयोजन करते हैं जिससे
उनकी ख्याति चतुर्दिक फ़ैल जाती है
| 
इन शौर्य गीतों में
केवल व्यक्तियों को ही महिमामंडित नहीं किया जाता बल्कि इनमें जीवन दर्शन की
अभिव्यक्ति भी हुई है
| मौत की निश्चितता के
विषय में टिव समुदाय की मान्यता की अभिव्यक्ति निम्नलिखित अंश में हुई है :
वन्यामूsss
मैं प्रतिभा से भरपूर
हूँ
लेकिन सतर्क नहीं रहा
इसलिए, ओरगी
मुझे छोड़ के चला गया
उस राह पर चला गया ,
ऊओह्हह्ह
चेम्बर की पुत्री, औरत
सड़क से ही क्रंदन करने
लगीं ;
उसको घर के अन्दर आने
दो, ऊओह्हह्ह
तुम, अग्बेर आगा
क्पेहे ,
ऊह , हाय ! तुम जीना
के रिश्तेदारों ने
क़त्ल की अनुमति दी थी
अब यहाँ देखो ;
म्बाचोम के बच्चों ने
इस भूमि को नष्ट कर दिया
|
उल्लू नेता बन गए हैं
,
यह भूमि
अब फलीभूत नहीं होगी ,
ऊह !
यह मुफ्फू का शाप है|(6)
उपर्युक्त अंश में
गायक अपने प्रिय ओरगी की मृत्यु का शोकगीत गा रहा है
| लेकिन शीघ्र ही वह कहता है कि ओरगी वहीँ गया है जहाँ सारी दुनिया ने जाना
है
|  निरंतर होने वाली मौतों के लिए वह
म्बचोम पर दोष मढ़ता है क्योंकि उसने अपेक्षित सतर्कता नहीं रखी
| जिससे कुछ असमाजिक तत्त्वों को जादू-टोना करने का मौका मिल गया जो इस भूमि
के कई युवाओं को लील गया
| कवि ने उल्लू शब्द का लाक्षणिक प्रयोग किया है कि जब देश का नेता उल्लू हो
तो किसी का भला नहीं हो सकता
| 
उल्लू को निशाचर पक्षी
होने के कारण टिव लोग इसे बुराई के साथ जोड़ कर देखते हैं
|  इस लिए यह बुरे नेतृत्व का प्रतीक
है जो बुराई को ही जन्म देता है
|  टिव समुदाय में मृत्यु को
जादू-टोने के साथ जोड़कर देखा जाता है क्योंकि टिव समुदाय के लोग यह मानते हैं कि
मृत्यु सहज नहीं होती बल्कि इसके पीछे चुड़ेलों और जादूगरों का हाथ होता है
| इस लिए कवि म्बचोम के बुजुर्गों को पाप और बुराई से बचने की सलाह देता है
ताकि उनका समाज विकसित हो सके
|
अगले अंश में गायक
अपने परिवार वालों के सामने ख़ुशी व्यक्त कर रहा है इस लिए डांस कन्सर्ट में ताल और
नृत्य तो होगा ही :
तुम , तुरुन बच्चो ,
मैं तुम्हें बताता
हूँ, ऊ
ss
और तुम्हें बताता हूँ
, ऊss
तुम मेरे परिवार के
सदस्य हो, याव
मेरे परिवार ने नृत्य
का आयोजन किया है
इसलिए मैं बड़बोला हो
गया
तोरदे , मैं नृत्य
शाला में आया हूँ
ड्रम की ताल हवा में
गूँज रही है ;
कोको अपने शरीर को लहरा
रहा है
उस कब्र में,  ऊह|(7)
उपर्युक्त अंश में
अपने आत्मीय म्बचोम की उन्नति के लिए हीरो मजीर केर ज़ुन्गुर बड़े गर्व से संगीत
कार्यक्रम का आयोजन करता है
| इसके आयोजक की अतिशयोक्तिपूर्ण व्यंजना करते हुए गायक कहता है कि ढोल की
ध्वनि इतनी तीव्र थी कि उस ख्याति प्राप्त व्यक्ति का दादा, कोको, भी अपनी कब्र
में कसमसाने लगा
|  यह अतिकथनी केवल ढोल की आवाज़ के
महत्त्व को बताने के लिए नहीं है अपितु उसके पूर्वजों की वीरतापूर्ण उपलब्धि  को स्वीकार करना भी है
|
त्योबुघ ग्बाची नाम के
एक अन्य सफल आइकॉन की महिमा में भी थंडर, वर्षा और बिजली चमकने का विशेष रूप से
उल्लेख किया गया है
|  गायक कहता है कि वह क्रोध की
चमकीली ड्रेस में जैसे ही शानदार तरीके से नृत्य समारोह में प्रवेश करता है तो
आसमान में तूफ़ानी बादलों की गड़गड़ाहट होने लगती है
|  यहाँ तूफ़ानी बादलों के क्रियाकलाप स्पष्ट
रूप से इन महान उपलब्धियों को दर्शाते हैं
|  गायक गाता है कि उइफ़न्दे कबीले में
सच्चे शूरवीर व्यक्ति को पैदा किया है जिसकी उपलब्धियों से किसी को भी ईर्ष्या हो
सकती है
|  कवि कहता है :
त्योबुघ ग्बाची
तुम क्रोध की ड्रेस
में सजे हुए हो
और नृत्य कार्यक्रम
में आ  रहे हो
तूफ़ानी बादल गड़गड़ा रहे
हैं
बहुत शान के साथ (8)
अगला काव्यांश
परम्परागत रूप से शक्तिशाली समझे जाने वाले नायितामें दमकोर की स्तुति में कहा गया
है, जो अपने समुदाय में माननीय है
|  इसकी प्राप्तियाँ अनगिनत हैं और
इसके आगमन से नृत्य कार्यक्रम में इंडयेर के ढोल से नया उत्साह फूट पड़ता है
| जैसा कि निम्नलिखित उदाहरण में द्रष्टव्य है :
नयितामेन दमकोर
नृत्य कार्यक्रम में
पधार रहे हैं
दमकोर का इन्दयेर
(लम्बा ढोल)
सारी रात बजता रहा (9)
इन्दयेर जो एक बहुत
बड़ा लम्बा ढोल होता है , उसे टिव समुदाय में पवित्र माना जाता है
|  टिव समुदाय का विश्वास है कि
इन्दयेर को पाने के लिए अतिमानवीय शक्तियों का होना आवश्यक है
| क्योंकि इसे काबू में रखना किसी आम आदमी के वश की बात नहीं है|  इसका प्रयोग बहुत ही महत्वपूर्ण और
इज्जतदार बुजुर्गों की मृत्यु की घोषणा करने के लिए किया जाता है
|  इसके अतिरिक्त इसे कई महतवपूर्ण
सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भी बजाया जाता है
| किसी समूह की एकत्रता में किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति के सम्मान में भी इसे
बजाया जाता है
|  यहाँ इन्दयेर का मालिक दमकोर है जो
कि सैलिब्रेंट का पिता है
| अतः पिता और पुत्र दोनों ही शौर्यवान हैं|
टिव काव्य में उपमा और
रूपक का प्रयोग विपुल मात्रा में मिलता है
| इनका प्रयोग वे व्यक्ति की महिमा करने के लिए शक्ति प्रतीकों और दार्शनिक
उक्तियों के लिए करते हैं
| जैसा कि निम्नलिखित उदाहरण से स्पष्ट है :
उयिना कवंगी   उकोर 
असेमा
दुनिया
एक लौकी जैसी है
अगर कोई है किस्मतवाला|
वह अपने गले में फंदा
लगा लेगा
|(10)
उक्त अंश में दुनिया
को लौकी की तरह रूपक में कहा गया है
|  गायक के अनुसार किसी व्यक्ति की
सफलता में उसकी किस्मत का भी हाथ होता है
| लौकी का रूपक जीवन के संघर्षों को दर्शाता है|  अगर कोई व्यक्ति अपने गले में फंदा
लगाने की क्षमता रखता है वह निश्चित रूप से सम्पन्न हो जाएगा
|  असफल वे हैं जिनकी रस्सी अर्थात
जीवन संघर्श अभी लौकी के गले में फंदा नहीं डाल सके हैं
|
टिव समुदाय में नृत्य
कार्यक्रम करने की होड़ सी लगी रहती है
|  इसलिए आयोजक भी पहले वाले नृत्य
कार्यक्रम से बढ़ कर करने की कोशिश करते हैं
|  अपनी पहचान दूसरों से अलग बनाने और
अपने आयु वर्ग से बेहतर प्रदर्शन के लिए कुछ सफल व्यक्ति नृत्य कार्यक्रम का आयोजन
करते हैं जिसमें वे अपने ग़रीब सम्बन्धियों को भी शामिल करते हैं
|
उदाहरण
दामोम का पुत्र, तामेन
का उत्सव पूरा हो गया
है ,
उसका गौरवशाली रुतबा
और उसके नृत्य
कार्यक्रम का आयोजन
उसकी माँ के
सम्बन्धियों के लिए
और मुझे भेजा गाने का
न्यौता
तभी तो मैं यहाँ आया
हूँ
|(11 )
निष्कर्ष :
निष्कर्ष रूप में यह
तथ्य सामने आता है कि नाइजीरिया के टिव समुदाय में विभिन्न अवसरों पर इन मौखिक
गीतों को गाने की परम्परा है
| यह उनकी संस्कृति का एक अटूट अंग है|  इन शौर्य गीतों का लक्ष्य वहाँ के
लोगों की विशेषताओं का गुणगान करना होता है
|  जो उनके जीवन में उमंग-उत्साह का
संचार करते हैं और उन्हें ईर्ष्या, जलन और अन्य अवगुणों से दूर रहने का संदेश देते
हुए अपना और अपने समुदाय का निरंतर विकास करने की प्रेरणा देते हैं
|
टिप्पणियाँ
1-     
 
Tiv                                                                     English
Ityô yam nahan
zee ooo,
                         My
people, its not so,
Abagi wan u Makaa
                               Abagi, son of Makaa
Tar wen ne mase
shin
                             This land of yours, only has
Iyuhwe, ityô yam,
                                  Envy, my kinsmen,
Ka an a kura ne
tar?
                                 Who will
safeguard your land?
2-
Tiv                                                                                              English
Zaki wase kpamor                                                   Our
king, the man of grandeur
Tyozer Agera,                                                                         Tyozer Agera,
Nenge shawon;                                                                 See the irony of life;
Ka we za shir
ayou ave
                                                     
 If you don’t struggle,
Kpa, Zaki                                                                                     But, Zaki.
Ityô i teman
imôngo awe,
                                                 
 People gossip about you.
Er u kungu ichan                                                                      That you are poor;
U kungu bee ivu
ve,
                                                      As poor as unkempt gray hairs.
Wa kaa di we u
nôngo
                                                    If you decide to struggle,
Kpa u kpera
iyongo ibo
                                                   But you incur the wrath
Hen ityô ve;                                                                               Of the people;
We a zer ikyondo
a engem
                                               If you wear nice clothes,
Kpa ukpera iyongo
ibo
                                                        But you incur the wrath,
Hen ityô ve;                                                                                Of the people;
We a nema sule u
a kehe
                                                     
 If you have a large farm,
Kpa u kpera
iyongo ibo
                                                          
 But you incur the wrath
Hen ityô ve,                                                                                 Of the people;
Ityô i ôron we
iger,
                                                                  They derogatorily
Er we u hingir
tor
                                                               Say, you have become king
Or a kuma je ga                                                                            No one can match you.
3 –
Tiv                                                                          English
Ior zua har shin
tembe,
                                       People have gathered in the arena,
Yô mlu ôron,                                                            
 So, I am warning,
Me shi ve na ian,
                                                 That they should make way
Hen tembe fefa,
gayô,
                                                 In the arena quickly,
Inyamtswam kange                                                    Otherwise, inyamtswam
Bee ve;                                                                              Is set to emerge;
– – – –                                                                                          – – – –
Inyamtswam gba
van ve ooo!
                                  Inyamtswam is coming ooo!
Ior i sor ian
doo-doo,
                                                People should make way properly,
Mbayev ve yevese
ooo-oo.
                                                Children
should run-ooo.
4 –
Tiv                                                                      English
Ityôsongo Aga due
                                             Ityôsongo Aga appeared
Shin tembe,
mnenge
                                             In the arena; I saw
Aôndo dura, kume                                              Thunder and lightning,
Dighin, kume pir
iyange.
                                  Dighin, and the sun was darkened.
5-
Tiv                                                                         English
Ityôsongo wan u
Aga,
                                        Ityôsongo, son of Aga
Nyôr ôôv sanker                                               Unsheathed a sword
Er wen a gber                                                        That he would cut off
Nom anyam
ityough,
                                                A tiger’s head.
Wen a nam gundu.                                              And give me the carcass.
6-
Tiv                                                                         English
Wanyam ooo,                                                  Wanyam ooo,
Mo mwa tsav ken
vanger,
                                I am full of wizardry
Kpa mo mkav                                    
 But was not vigilant enough,
Kwagh shin ishima
ze,
                                    So,
Orgee has
Orgee mase yemen
nee.
                                  Finally departed.
Me, hile zaan
ooh,
                                        Just lead the way ooh!
Wan Chember,
kwase
                                 Daughter of Chember, woman
Ingyôr va tôô
kweregh
                                  Ingyôr started wailing
Shin gbenda,                                                         From the road;
I de un a nyôr
ooo.
                                      Allow
her into the compound ooo.
We, Agber Aga
Kpehe,
                                 You, Agber Aga Kpehe,
Oooh! Ahoo ne
ityô i
                                        Oooh! Alas! you kinsmen of
Jina due jinge
war,
                                        Jina have consented to killings
Yô nenge ase,                                                             So, look at this;
Ônmbachom gba tar
ve.
                       Mbachom children have destroyed the land.
Avungu kar hemen                                                    Owls have become leaders,
A tar, ua doo                                                            The land
Shawon ze ooo,                                                    Can’t prosper ooo.
Ka ifan i Muufu.                                                
 It is Muufu’s curse.
7-
Tiv                                                                         English
Ne on Turan cii,                                             You, Turan children,
Tile mo kaa neo
ooo!
                                     Let me
tell you – ooo!
Shi mo kaa ne ooo
                                               And tell you – ooo,
Ne ityô yam Yaav,
                                      You, my Yaav kinsmen
Ityô yam i mir
amar
                                My
kinsmen organized a concert,
Yô mlu kaven
anom,
                                           So I am
boasting,
Torde m yar amar                                           Torde, I attended the concert,
Tsa ijô-genga
sômôn;
                                      Drum beats rent tha air;
Kôkô zômôn iyol                                              Kôkô twisted his body
Shin gema oooh.                                                        In the grave oooh.
8-
Tiv                                                                                  English
Tyobugh Gbachi                                                        Tyobugh Gbachi
U chir anger
ikyondo iyol,
                             You are dressed in anger cloth
U ngu van amar,                                              And are coming to the concert,
Aondo kume wura                                                    Thunder keeps rumbling
Yar-yar-a-ah.                                                                  
 Gloriously.
9-
Tiv                                                                                  English
Nyitamen Damkor                                                   Nyitamen Damkor
Ngu van amar,                                                  
 Is coming to the concert,
Indyer i Damkor                                               Damkor’s indyer (slit-log drum)
Nyin tsa imo.                                                            Sounded throughout the night.
10-
Tiv                                                                                         English
Uyina u Kwangi
Ukor Asama,
                                    Uyina Kwangi Ukor Asema,
Tar yô ka                                                                                The world
Wan ishegh, ka u
a
                                                              Is a bottle gourd,
Tsea or yô                                                                               
 If one is lucky,
Nan ta kor.                                         
                        
 He hooks
a rope on the neck.
11-
Tiv                                                                                       
 English
Tamen, wan u
Daamom
                                                      Tamen, son of Daamom
A er shagba                                                                        Has finished celebrating,
Yôr bee ooo,                                                                   
 His prestigious status,
Hide wa wanigba                                                           
 And has organized a concert
Na amar, man,                                                                      For his maternal kinsman,
A yilem icham                                                                       And has invited me to sing.
Mve ye.                                                                                    That’s why I’ve come.
सन्दर्भ
East, R. T. (2003).The Akiga Story: The Tiv
as Seen by one of Its Members
. Ibadan: Caltop
Jenkwe, T. E. (1998). Yanmoel Yashi: A Study
of Tiv Oral Poetry
. Aba: Vitalis, 1998.
Kunene, D. P. (1971). Heroic Poetry of the
Basotho
. Oxford: U.P.
LANIOR AMASE, Emmanuel; ALEXIS TSAVMBU,
Aondover; THEOPHILUS KAAN, Aondover. The Tiv Poet And Heroism: A Study of
Inyamtswam Songs. International Journal of Comparative
Literature and Translation Studies
, [S.l.], v. 4, n. 1, p.
58-66, jan. 2016. ISSN 2202-9451. Available at: <
http://journals.aiac.org.au/index.php/IJCLTS/article/view/2033/1830>. Date
accessed: 18 Mar. 2016.
§ 
हिंदी विभाग,
सतीशचन्द्र धवन सरकारी कॉलेज, लुधियाना ,
अध्येता, भारतीय
उच्च अध्ययन संस्थान , शिमला , मोबाइल
09417717910

गिरमिटियाओं ने हिन्‍दी को अन्तर्राष्ट्रीय विस्तार दिया: डॉ. शुभ्रता मिश्रा

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indentured labourers

गिरमिटियाओं ने हिन्‍दी को अन्तर्राष्ट्रीय विस्तार दिया

– डॉ. शुभ्रता मिश्रा (वास्को-द-गामा, गोवा,)

निजी जरुरतों के लिए, अपने परिवार के पोषण के लिए बँधुआ मजदूर बनने तक की अपनी
निरीहता में स्वयं को उन तथाकथित समृद्धों के पैरों तले रौंदवाने के स्तर तक भी
गिर जाता है, क्योंकि उसके देश की सीमाएं उसके बौद्धिक स्तर के हिसाब से उसके भूखे
परिवार तक सिमटी होती हैं, जहाँ क्या देशभक्ति और क्या राष्ट्रभाषाॽ सिर्फ और
सिर्फ रोजी-रोटी कमाने की सुध, बच्चों के पेट में अन्न के कुछ दाने डल जाने की
चिंता। उनके ये मानदण्ड कहीं से उनको महान जैसे विशाल शब्द से उद्बोधित करने की
चेष्टा नहीं कर सकते। पर फिर भी वे महान हैं, निःसंदेह वे गिरमिटिए महान हैं,
जिन्होंने सत्रहवीं सदी में आये क्रूर अंगरेज़ों की बनाई गिरमिटिया प्रथा की
यातनाओं को झेला और निःशब्द सहा भी।
इतिहास के अनुसार भारत में अंग्रेजों द्वारा गिरमिटिया प्रथा सन् 1834 में
शुरु की गई थी, जिसमें वे ग़रीबी
, लाचारी, बेरोजगारी और भुखमरी से बेहाल लगभग 10 से 15 हज़ार भारतीय मजदूरों को हर साल गुलाम
बनने की शर्त पर एक
`एग्रीमेंट
 करवाकर फिजी, ब्रिटिश गुयाना,
डच गुयाना, कीनिया, मॉरिशस,
ट्रिनीडाड, टोबेगा, नेटाल (दक्षिण अफ्रीका) आदि देशों में भेज दिया जाता था। चूँकि ये लोग एग्रिमेंट
के तहत जाते थे और भारतीय लोग इस अँग्रेजी शब्द का उच्चारण गिरमिट करते थे, अतः
शनैः शनैः अँग्रेज भी उनको गिरमिट मजदूर कहने लगे। इस तरह इन मज़दूरों को
गिरमिटिया कहा जाने लगा और यह प्रथा भारत की अँग्रेजों द्वारा बनाई गई गिरमिटिया
प्रथा के नाम से इतिहास में दर्ज हो गई। गिरमिटिया प्रथा बाकायदा सरकारी नियमों और
सरकारी संरक्षण प्राप्त लोगों के कारोबार के तहत खूब फली फूली। जिन देशों में ये
भारतीय गुलाम इस प्रथा के तहत भेजे गए, आज भी वे देश गिरमिटिया देशों के नाम से
जाने जाते हैं।

उस समय भले ही गिरमिटियाओं की देशभक्ति परिवार की भेंट चढ़ने के लिए बाध्य रही
होगी, अपनी जन्मभूमि को फिर कभी न देख पाने की टीस भी हृदय के कहीं अंदरुनी कोने
में छिपा दी गई होगी, परन्तु उन देशों में पहुँचकर अनजाने में ही सही अपने देश की
संस्कृतियों, त्योहारों और परम्पराओं को इन गिरमिटियों ने छोड़ा नहीं। वे वहां
गन्ने के खेतों में काम करते हुए रामचरितमानस की चौपाइयों का गान करते थे और संकट
में हनुमान चालीसा पढ़ते थे। एग्रीमेंट के कारण वे पांच साल बाद छूट तो सकते थे,
लेकिन उनके पास इतना धन नहीं होता था कि वे वापस भारत लौट सकें। अतः बाध्यतावश वे
अपने ही तथाकथित स्वामी के पास काम करने लगते थे या किसी और के गिरमिटिये हो जाते
थे। गिरमिटिया एग्रीमेंट के तहत ये मजदूर बेचे जा सकते थे, काम न करने की स्थिति
में अथवा

कामचोरी करने पर बुरी तरह दण्डित भी किये जा सकते थे। यहाँ
तक कि गिरमिटियाओं को विवाह करने की छूट नहीं थी और यदि कुछ गिरमिटिया विवाह कर भी
लेते थे तो भी उन पर गुलामी वाले नियम ही लागू होते थे। इसके तहत उनकी स्त्रियाँ
और बच्चे किसी और को बेचे जा सकते थे। शिक्षा
, मनोरंजन आदि
मूलभूत आवश्यकताओं से भी उनको वंचित रखा जाता था। इन सभी सख्तियों में बँधे निरीह
से उन भारतीयों को किसी भी तरह से अपना हृदय कठोर बनाकर हजारों किलोमीटर दूर की उस
विदेशी भूमि में ही अपनी भारतमाता को स्थापित कर लेना पड़ा। अपने और अपनी
मातृभूमि, सब छूट गया था, शेष था तो सिर्फ हृदय में बसी अपनी संस्कृति, अपनी भाषा हिन्दी
और अपनी परम्पराएं, जिनको गिरमिटिया मज़दूरों से किसी तरह का कोई भी एग्रीमेंट
नहीं छीन सकता था।

सदियों पहले अपने देश छोड़ हजारों किलोमीटर दूर गए भारतीय गिरमिटिया लोगों को
एक दूसरे से जोड़े रखने की डोर एक ही थी वह थी उनकी अपनी भाषा हिंदी, जिसके माध्यम
से वे आपस में अपनी संवेदनाएं बाँट लेते थे।  हिंदी ने ही गिरमिटियों को अपनेपन और आत्मीयता
के साथ एक दूसरे से जोड़े रखा। गिरमिटियों ने इन देशों में हिंदी को जीवित रखकर एक
अनूठा स्थान दिया है, क्योंकि पीढ़ी दर पीढ़ी हिन्दी इन देशों में पुष्पित पल्लवित
होती रही है। वैसे तो सन् 1917 में ब्रिटिश सरकार ने इस गिरमिटिया एग्रीमेंट को
महात्मा गांधी,
गोपाल कृष्ण गोखले के साथ साथ ब्रिटिश सीएफ एंड्रयूज और
हेनरी पोलाक सहित अनगिनत भारतीयों के इस अमानवीय प्रथा को समाप्त करने की मुहिम
छेड़ने के चलते निषिद्ध घोषित कर दिया था। पर जो भारतीय उन देशों से कभी नहीं आ
पाए वे वहीं बस गए। इनमें से अधिकांश गिरमिटों ने वहाँ पर या तो स्वतंत्र मज़दूर
बनकर या छोटे-मोटे व्यापारी बनकर जीविकोपार्जन आरम्भ कर दिया। कुछ देशों में तो इन
भारतीय गिरमिटियों की संतानें प्रधानमंत्री से लेकर बड़े बड़े अधिकारी बने। मॉरीशस
के भूतपूर्व प्रधानमंत्री शिवसागर रामगुलाम इनमें से ही एक हैं। वर्तमान में एक
गिरमिटिया देश फिजी का उदाहरण लें, तो हम पाते हैं कि वहां की जनसँख्या 9 लाख है
और उसमें से साढ़े तीन लाख से अधिक लोग भारतीय मूल के हैं, जो फिजियन हिंदी बोलते हैं।
वर्तमान गिरमिटिया पीढ़ी के लोगों का हिंदी से आत्मीय संबंध आज भी अपने पूर्वजों
की तरह ही है। वे उन भारतीयों की तरह तो कदापि नहीं हैं जो हिन्दी की बात तो बहुत
करते हैं किन्तु हिन्दी में बात नहीं कर सकते। गिरमिटियाओं ने इस दुराग्रह से
स्वयं को मुक्त रखते हुए उन देशों में भारत की संस्‍कृति के साथ साथ हिन्दी भाषा को
जीवित रखा और लगातार समृद्ध किया। गिरमिटिया अपने ऊपर हो रहे अन्‍यायों और समस्त
दुख-दर्द के बावजूद भी भारतीय त्‍योहारों को पूरे उत्‍साह के साथ मनाते थे और वही
परम्परा आज भी उनके बच्चे निर्वहन करते आ रहे हैं। वैश्‍वीकरण के दौर में भारतीय
नई पीढ़ी जहाँ हिन्दी भाषा और संस्‍कृति से दूर होती जा रही है, वहीं आज भी
गिरमिटियाओं की नयी पीढियां आपस में हिन्दी में बात करते हुए दादा
, नाना,
चाचा, मामा, मौसा-मौसी आदि भारतीय संबोधनों को का ही उपयोग करती हैं। यहाँ तक कि बाद में गिरमिटियाओं
द्वारा मॉरीशस में भारत की संस्‍कृति पर आधारित बसाये गॉंवों में वे आज भी पूर्ण
भारतीयता के साथ रह रहे हैं।

अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर हिन्‍दी को स्थापित करने में गिरमिटिया देशों में
रहने वाले भारतीय लोगों के व्यापक योगदान से इंकार नहीं किया जा सकता है। आज कहने
को तो विश्व के 132 देशों में विस्तारित हिन्दी को तीन करोड़ अप्रवासी भारतीयों ने
फैलाया है, लेकिन सच यह है कि इनमें वे अप्रवासी भारतीय कदापि शामिल नहीं हैं,
जिनको हिन्दी बोलने में हीनता महसूस होती है, अपितु इनमें वे गिरमिटिये शामिल हैं,
जिन्होंने हिन्दी में बोलना अपनी शान समझा और उसका वैश्विक स्तर पर विस्तार करना
अपना धर्म। उन्होंने सही मायनों में विश्व के समक्ष इस बात को प्रस्तुत किया कि
अभिव्यक्ति
,
सामर्थ्य और साहित्य की दृष्टि से हिन्दी ही सर्वाधिक समर्थ
भाषा है। गिरमिटियों ने हिन्दी की वैश्विक स्थिति को बाजार की भाषा के रुप में
निरुपित कर एक नया ही स्वरुप दिया है। इस तरह गिरमिटियों ने शताब्दियों पूर्व
मजबूरी में ही सही वैश्विक परिवेश में भारत की उपस्थिति दर्ज कराकर हिंदी की
हैसियत में भी उन्नयन किया और भारतीय उपमहाद्वीप के लोगों के बीच खाड़ी देशों
, मध्य एशियाई देशों,
रूस,
समूचे यूरोप, कनाडा, अमेरिका तथा मैक्सिको जैसे प्रभावशाली देशों में रागात्मक जुड़ाव तथा
विचार-विनिमय का सबल माध्यम बनाया है। गिरमिटियों द्वारा हिन्दी के प्रचार व
प्रसार में इतने अधिक कार्य किए गए हैं कि इसी को दृष्टिगत रखते हुए भारत ने हिन्दी
को अन्तर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में संवर्द्धित करने के लिए विश्व हिन्दी सचिवालय
की स्थापना हेतु गिरमिटिया देश मॉरीशस को चुना। मॉरीशस के तत्कालीन प्रधानमंत्री
सर शिवसागर रामगुलाम ने विश्व हिन्दी सचिवालय की स्थापना का प्रस्ताव 1975 में
नागपुर में आयोजित प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन के दौरान रखा था। भारत और मॉरीशस की
सरकारों के बीच एक समझौते के तहत 11 फरवरी 2008 को गिरमिटियों द्वारा बसाए गए मोका
गाँव में विश्व हिन्दी सचिवालय स्थापित किया। यह सचिवालय तब से आज तक अनवरत विश्व
हिन्दी सम्मेलनों के आयोजन को एक संस्थागत व्यवस्था के तहत आयोजित करता आ रहा है।
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लेखक परिचय-
डॉ. शुभ्रता मिश्रा मूलतः भारत के मध्यप्रदेश से हैं और वर्तमान में गोवा में
हिन्दी के क्षेत्र में सक्रिय लेखन कार्य कर रही हैं। उन्होंने डॉ. हरिसिंह गौर
विश्वविद्यालय सागर से वनस्पतिशास्त्र में स्नातक (
B.Sc.) व स्नातकोत्तर (M.Sc.) एवम् विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन से वनस्पतिशास्त्र में पीएच.डी (Ph.D.) और पोस्ट डॉक्टोरल अनुसंधान कार्य किया।
डॉ. शुभ्रता मिश्रा की अँग्रेजी भाषा में वनस्पतिशास्त्र व पर्यावरणविज्ञान से
संबंधित अनेक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। सन् 2004 से हिन्दी में सतत्
वैज्ञानिक लेखन कर रही हैं। डॉ. मिश्रा के हिन्दी में वैज्ञानिक एवम् सामयिक लेख
विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में नियमितरुप से प्रकाशित होते रहते हैं। उनकी
अनेक कविताएँ भी विभिन्न कविता-संग्रहों में संकलित हैं।

प्रकाशित हिन्दी पुस्तकें
भारतीय अंटार्कटिक संभारतंत्र
धारा 370 मुक्त कश्मीर यथार्थ से स्वप्न की ओर

सम्मान
वीरांगना सावित्रीबाई फुले राष्ट्रीय फेलोशिप सम्मान (2016)
नारी गौरव सम्मान (2016)
राजीव गाँधी ज्ञान-विज्ञान मौलिक पुस्तक लेखन पुरस्कार-2012 (2014 में
प्रदत्त)
मध्यप्रदेश युवा वैज्ञानिक पुरस्कार (1999)

हिंदी पत्र पत्रिकाओं की सूची hindi patrika

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हिंदी पत्रिकाओं की सूची

भारतेन्दु युग की प्रमुख पत्र-पत्रिकाएं

प्रकाशन वर्षपत्रिका संपादकस्थान
1868कविवचन सुधा भारतेन्दु हरिश्चन्द्रकाशी
1873हरिश्चन्द्र पत्रिकाभारतेन्दु हरिश्चन्द्रकाशी
1874हरिश्चन्द्र चन्द्रिकाभारतेन्दु हरिश्चन्द्रकाशी
1881आनंद कादम्बिनीबद्रीनारायण चौधरी’प्रेमघन’मिर्जापुर
1877हिन्दी प्रदीपपं.बाल कृष्ण भट्टइलाहाबाद
1983ब्राम्हणपं. प्रतापनरायण मिश्रकानपुर

द्विवेदी युग की प्रमुख पत्र-पत्रिकाएं 

प्रकाशन वर्षपत्रिका संपादकस्थान
1900सरस्वतीमहावीर प्रसाद द्विवेदी इलाहाबाद
1902समालोचक चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’जयपुर
1907अभ्युदयमदनमोहन मालवीयकाशी
1909मर्यादाकृष्णकांत मालवीयइलाहाबाद
1913प्रतापगणेश विद्यार्थीकानपुर
1909इंदुआम्बिका प्रसाद गुप्तकाशी
1913प्रभाकालूरामखण्डवा
1914पाटिलपुत्रकाशी प्रसाद जयसवालपटना

छायावादी युग की प्रमुख पत्र-पत्रिकाएं

प्रकाशन वर्षपत्रिका संपादकस्थान
1920चांद रामरख सहगलइलाहाबाद
1921प्रभाबालकृष्ण शर्मा कानपुर
1922माधुरीदुलारे राम भार्गवलखनऊ
1928विशाल भारतबनारसी दास चतुर्वेदीकलकत्ता
1930हंसप्रेमचंदकाशी
1922समन्वयसूर्यकांत त्रिपाठी निरालाकलकत्ता
1922सरोजनवजादिक लाल श्री वास्तवकलकत्ता
1937साहित्य संदेशगुलाबरायआगरा
1923मतवालामहादेव प्रसाद सेठकलकत्ता
1921कर्मवीरमाखनलाल चतुर्वेदीजबलपुर
1921हिन्दी नवजीवनमहात्मा गांधीअहमदाबाद
1920देशराजेंद्र प्रसादपटना

छायावादोत्तर युग की प्रमुख पत्र-पत्रिकाएं

पत्रिका संपादकस्थान
प्रतीकअज्ञेयदिल्ली
कादम्बिनीराजेंद्र अवस्थीदिल्ली
धर्मयुगधर्मवीर भारतीमुम्बई
सारिकाकमलेश्वरदिल्ली
साप्ताहिक हिंदुस्तानमनोहर श्याम जोशीदिल्ली
हंसराजेंद्र यादवदिल्ली
गंगाकमलेश्वरदिल्ली
वर्तमान साहित्यधनंजयइलाहाबाद
आलोचनाडा. नामवर सिंहदिल्ली

समकालीन पत्रिकाओं की सूची

1. हंस, संजय सहाय (संपादक), editorhans@gmail.com

2. पाखी, प्रेम भारद्वाज (संपादक), premeditor@gmail.com, pakhimagazine@gmail.com

3. बया, गौरीनाथ (संपादक), rachna4baya@gmail.com

4. पहल, ज्ञानरंजन (संपादक), edpahaljbp@yahoo.co.in, editorpahal@gmail.com

5. अंतिम जन- दीपक श्री ज्ञान (संपादक)- antimjangsds@gmail.com, 2010gsds@gmail.com

6. समयांतर- पंकज बिष्ट (संपादक)- samayantar.monthly@gmail.com, samayantar@yahoo.com

7. लमही- विजय राय (संपादक)- vijayrai.lamahi@gmail.com

8. पक्षधर- विनोद तिवारी (संपादक)- pakshdharwarta@gmail.com

9. अनहद- संतोष कुमार चतुर्वेदी (संपादक)- anahadpatrika@gmail.com

10. नया ज्ञानोदय- लीलाधर मंडलोई (संपादक)- nayagyanoday@gmail.com, bjnanpith@gmail.com

11. स्त्रीकाल, संजीव चन्दन (संपादक), themarginalized@gmail.com,

12. बहुवचन- अशोक मिश्रा (संपादक)- bahuvachan.wardha@gmail.com

13. अलाव- रामकुमार कृषक (संपादक)- alavpatrika@gmail.com

14. बनासजन- पल्लव (संपादक)- banaasjan@gmail.com

15. व्यंग्य यात्रा, प्रेम जनमेजय (संपादक),vyangya@yahoo.compremjanmejai@gmail.com

16. अट्टहास (हास्य व्यंग्य मासिक), अनूप श्रीवास्तव (संपादक), anupsrivastavalko@gmail.com

17. उद्भावना- अजेय कुमार (संपादक)- udbhavana.ajay@yahoo.com

18. समकालीन रंगमंच- राजेश चन्द्र (सम्पादक)- samkaleenrangmanch@gmail.com

19. वीणा-राकेश शर्मा,veenapatrika@gmail.com

20. मुक्तांचल-डॉ मीरा सिन्हा,muktanchalquaterly2014@gmail.com,

21. शब्द सरोकार-डॉ हुकुमचन्द राजपाल,sanjyotima@gmail.com,

22. लहक-निर्भय देवयांश,lahakmonthly@gmail.com

23. पुस्तक संस्कृति। संपादक पंकज चतुर्वेदी।editorpustaksanskriti@gmail.com

24. प्रणाम पर्यटन हिंदी त्रैमासिक संपादक प्रदीप श्रीवास्तव लखनऊ उत्तर प्रदेश

 PRANAMPARYATAN@YAHOO.COM

25. समालोचन वेब पत्रिका, अरुण देव (सम्पादक), www.samalochan.com, devarun72@gmail.com

26. वांग्मय पत्रिका, डॉ. एम. फ़िरोज़. एहमद, (सम्पादक), vangmaya@gmail.com

27. साहित्य समीर दस्तक (मासिक), कीर्ति श्रीवास्तव (संपादक), राजकुमार जैन राजन (प्रधान सम्पादक), licranjan2003@gmail.com

28. कथा समवेत (ष्टमासिक), डॉ. शोभनाथ शुक्ल (सम्पादक), kathasamavet.sln@gmail.com

29. अनुगुंजन (त्रैमासिक), डॉ. लवलेश दत्त (सम्पादक), sampadakanugunjan@gmail.com

30. सीमांत, डॉ. रतन कुमार (प्रधान संपादक), seemantmizoram@gmail.com

31. शोध-ऋतु, सुनील जाधव (संपादक), shodhrityu78@yahoo.com

32. विभोम स्वर, पंकज सुबीर (संपादक), vibhomswar@gmail.com, shivna.prakashan@gmail.com

33. सप्तपर्णी, अर्चना सिंह (संपादक), saptparni2014@gmail.com

34. परिकथा, parikatha.hindi@gmail.com

35. लोकचेतना वार्ता, रवि रंजन (संपादक), lokchetnawarta@gmail.com

36. युगवाणी, संजय कोथियल (संपादक), Yugwani@gmail.com

37. गगनांचल,डॉक्टर हरीश नवल (सम्पादक), sampadak.gagnanchal@gmail.com

38. अक्षर वार्ता, प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा (प्रधान संपादक), डॉ मोहन बैरागी (संपादक) aksharwartajournal@gmail.com

39. कविकुंभ, रंजीता सिंह (संपादक), kavikumbh@gmail.com

40. मनमीत, अरविंद कुमार सिंह(संपादक), manmeetazm@gmail.com

41. पू्र्वोत्तर साहित्य विमर्श (त्रैमासिक), डॉ. हरेराम पाठक (संपादक), hrpathak9@gmail.com

42. लोक विमर्श, उमाशंकर सिंह परमार (संपादक), umashankarsinghparmar@gmail.com

43. लोकोदय, बृजेश नीरज (संपादक), lokodaymagazine@gmail.com

44. माटी, नरेन्द्र पुण्डरीक (संपादक), Pundriknarendr549k@gmail.com

45. मंतव्य, हरे प्रकाश उपाध्याय (संपादक), mantavyapatrika@gmail.com

46. सबके दावेदार, पंकज गौतम (संपादक), pankajgautam806@gmail.com

47. जनभाषा, श्री ब्रजेश तिवारी (संपादक), mumbaiprantiya1935@gmail.com, drpramod519@gmail.com

48. सृजनसरिता (हिंदी त्रैमासिक), विजय कुमार पुरी (संपादक), srijansarita17@gmail.com

49. नवरंग (वार्षिकी), रामजी प्रसाद ‘भैरव’ (संपादक), navrangpatrika@gmail.com

50. किस्सा कोताह (त्रैमासिक हिंदी), ए. असफल (संपादक), a.asphal@gmail.com, Kotahkissa@gmail.com

51. सृजन सरोकार (हिंदी त्रैमासिक पत्रिका), गोपाल रंजन (संपादक), srijansarokar@gmail.com, granjan234@gmail.com

52. उर्वशी, डा राजेश श्रीवास्तव (संपादक), urvashipatrika@gmail.com

53. साखी (त्रैमासिक), सदानंद शाही (संपादक), Shakhee@gmail.com

54. गतिमान, डॉ. मनोहर अभय (संपादक), manohar.abhay03@gmail.com

55. साहित्य यात्रा, डॉ कलानाथ मिश्र (संपादक), sahityayatra@gmail.com

56. भिंसर, विजय यादव (संपादक), vijayyadav81287@gmail.com

57. सद्भावना दर्पण, गिरीश पंकज (संपादक), girishpankaj1@gmail.com

58. सृजनलोक, संतोष श्रेयांस (संपादक), srijanlok@gmail.com

59. समय मीमांसा, अभिनव प्रकाश (संपादक), editor.samaymimansa@gmail.com

60. प्रवासी जगत, डॉ. गंगाधर वानोडे (संपादक), gwanode@gmail.com pravasijagat.khsagra17@gmail.com

61. शैक्षिक उन्मेष, प्रो. बीना शर्मा (संपादक), dr.beenasharma@gmail.com

62. पल प्रतिपल, देश निर्मोही (संपादक), editorpalpratipal@gmail.com

63. समय के साखी, आरती (संपादक), samaysakhi@hmail.in

64. समकालीन भारतीय साहित्य, ब्रजेन्द्र कुमार त्रिपाठी (संपादक), secretary@sahitya-akademi.gov.in

65. शोध दिशा, डॉ गिरिराजशरण अग्रवाल (संपादक), shodhdisha@gmail.com

66. अनभै सांचा, द्वारिका प्रसाद चारुमित्र (संपादक), anbhaya.sancha@yahoo.co.in

67. आह्वान, ahwan@ahwanmag.comahwan.editor@gmail.com

68. राष्ट्रकिंकर, विनोद बब्बर (संपादक), rashtrakinkar@gmail.com

69. साहित्य त्रिवेणी, कुँवर वीरसिंह मार्तण्ड (संपादक), sahityatriveni@gmail.com

70. व्यंजना, डॉ रामकृष्ण शर्मा (संपादक), shivkushwaha16@gmail.com

71. एक नयी सुबह (हिंदी त्रैमासिक), डॉ. दशरथ प्रजापति (संपादक), dasharathprajapati4@gmail.com

72. समकालीन स्पंदन, धर्मेन्द्र गुप्त ‘साहिल’ (संपादक), samkaleen.spandan@gmail.com

73. साहित्य संवाद , संपादक – डॉ. वेदप्रकाश, sahityasamvad1@gmail.com

74. भाषा विमर्श ( अपनी भाषा की पत्रिका), अमरनाथ (प्रधान संपादक), अरुण होता (संपादक), amarnath.cu@gmail.com

75. विश्व गाथा, पंकज त्रिवेदी (संपादक), vishwagatha@gmail.com

76. भाषिकी अंतरराष्ट्रीय रिसर्च जर्नल, प्रो. रामलखन मीना (संपादक), prof.ramlakhan@gmail.com

ज्ञानपीठ पुरस्कार Gyanpith Puraskar

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ज्ञानपीठ पुरस्कार

 ज्ञानपीठ पुरस्कार भारतीय ज्ञानपीठ न्यास द्वारा भारतीय साहित्य के लिए दिया जाने वाला सर्वोच्च पुरस्कार है। भारत का कोई भी नागरिक जो आठवीं अनुसूची में बताई गई २२ भाषाओं में से किसी भाषा में लिखता हो इस पुरस्कार के योग्य है। पुरस्कार में ग्यारह लाख रुपये की धनराशि, प्रशस्तिपत्र और वाग्देवी की कांस्य प्रतिमा दी जाती है। १९६५ में १ लाख रुपये की पुरस्कार राशि से प्रारंभ हुए इस पुरस्कार को २००५ में ७ लाख रुपए कर दिया गया जो वर्तमान में ग्यारह लाख रुपये हो चुका है। २००५ के लिए चुने गये हिन्दी साहित्यकार कुंवर नारायण पहले व्यक्ति थे जिन्हें ७ लाख रुपए का ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हुआ।

ज्ञानपीठ पुरस्कारों की सूची

वर्षलेखक का नामरचना या कृतिभाषा
1965जी शंकर कुरुपओटक्कुषल मलयलम
1966ताराशंकर बंधोपाध्यायगणदेवताबांग्ला
1967के. वी. पुत्तया 
उमाशंकर जोशी
श्री रामायण दर्शनम
निशिता
कन्नड
गुजराती
1968सुमित्रानंदन पंतचिदम्बराहिन्दी
1969फिराक गोरखपुरीगुल-ए-नगमाउर्दू
1970विश्वनाथ सत्यनारायणरामायण कल्पबरिक्षुमतेलगू
1971विष्णु डेस्मृति शत्वो भविष्यतिबांग्ला
1972रामधारी सिंह दिनकरउर्वशी हिन्दी
1973दत्तात्रेय रामचंद्र बेन्द्रेनकुवंतिकन्नड़
1974गोपीनाथ महान्तीमातीमटालउड़िया
1975पी वी अकिलानंदमचित्रपवईतमिल
1976आशापूर्ण देवीप्रथम प्रति श्रुतिबांग्ला
1977के शिवराम कारंतमुक्कजिया कनसुगालकन्नड
1978अज्ञेयकितनी नावों में कितनी बारहिन्दी
1979विरेन्द्र कुमार मृत्यंजयअसमिया
1980एस के पोट्रेक्काटओरू देसान्ति कथामलयालम
1981अमृता प्रीतम कागज ते कैनवासपंजाबी
1982महादेवीयामाहिन्दी
1983मस्ती वेंकटेशचिक्कावीरा राजेंद्र कन्नड
1984ताकाजी शिवशंकर पिल्लईकयारमलयालम
1985पनन लालमानवी नी भावईगुजराती
1986सचिदानंदओडिया
1987विष्णु वामन सिरवाडकरमराठी साहित्य में उनके योगदान के लिए मराठी
1988सी नारायण रेड्डीविश्व भरातेलगू
1989कर्तलुएन हैदरआखिरी शव के हमशफर उर्दू
1990विनायक कृष्ण गोककभारत सिन्धु रशिमकन्नड़
1991सुभाष मुखोपाध्यायपदातिक (पैदल सैनिक)बंगाली
1992नरेश मेहतासम्पूर्ण साहित्यहिन्दी
1993सीताकांत महापात्रभारतीय साहित्य में अतुलनीय योगदान के लिएओड़िया
1994यू आर अनंतमूर्तिकन्नड साहित्य में उनके योगदान के लिएकन्नड
1995एम टी बासुदेवन नायररंडामूझममलयालम
1996महाश्वेता देवीहजार चौरासीरा माबंगाली
1997आली सरदार जफारीउर्दू
1998गिरीश कर्नाडकन्नड़ साहित्य में उनके योगदान के लिएकन्नड
1999निर्मल वर्मासम्पूर्ण साहित्य हिन्दी
2000इन्दिरा गोस्वामीदातल हातिर उन्वेखुवा चोदहअसमिया
2001 राजेंद्र शाहध्वनिगुजराती
2002डी जयकांततमिल
2003विन्दा करंदीकरमराठी साहित्य में उनके योगदान के लिएमराठी
2004रहमान राहीसुभुक सोदा, कलामी राही और सियाह रोड़े जरेनगंजकश्मीरी
2005कुंवर नारायणसम्पूर्ण साहित्यहिन्दी
2006रविन्द्र कालेकर,
सत्ययव्रत शास्त्री

कोकडी
संस्कृत
2008अंखलाल मोहम्मद खान शहरयारउर्दू
2007ओ एन वी कुरूपममलयालम साहित्य में योगदान के लिएमलयालम
2009अमरकांत 
श्री लाल शुक्ल

हिन्दी
हिन्दी
2010चन्द्र शेखर कंबराकन्नड साहित्य में योगदान के लिएकन्नड़
2011प्रतिभा रेयज्ञ सेनीउड़िया
2012रावुरी भारद्वाज पाकुदुरल्लूतेलगू
2013केदारनाथ सिंहअकाल में सारसहिन्दी
2014भालचंद्र नेमाडेहिन्दू: जगण्याची समरूद्ध अडगलमराठी
2015रघुवीर चौधरी  अगृता गुजराती
2016 शंख घोषमूखरो बारो, सामाजिक नोयबंगाली
2017कृष्णा सोबती जिंदगीनामा, डार से बिछुड़ी , मित्रों मरजानीहिन्दी
2018अमिताभ घोषअंग्रेजी
2019 (55 वां) अक्किथम

साहित्य अकादमी पुरस्कार sahitya akademi award

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साहित्य अकादमी पुरस्कार

साहित्य अकादमी पुरस्कार भारत में एक साहित्यिक सम्मान है, जो साहित्य अकादमी प्रतिवर्ष भारत की अपने द्वारा मान्यता प्रदत्त प्रमुख भाषाओं में से प्रत्येक में प्रकाशित सर्वोत्कृष्ट साहित्यिक कृति को पुरस्कार प्रदान करती है।साहित्य अकादमी पुरस्कार की स्थापना 12 मार्च 1954 में हुई थी। यह एक साहित्यिक सम्मान है। यह पुरस्कार 22 भाषाओं के अलावा अंग्रेजी व‌‌‌ राजस्थानी भाषा में की गई रचनाओं के लिए दिया जाता है। साहित्य अकादमी पुरस्कार में ₹100000, एक प्रशस्ति पत्र और शाल दिए जाते हैं। यह पुरस्कार ज्ञानपीठ  पुरस्कार के बाद, भारत सरकार के द्वारा प्रदान किया जाने वाला दूसरा सबसे बड़ा साहित्यिक सम्मान है। यह पुरस्कार प्रत्येक वर्ष प्रदान किए जाते हैं।

साहित्य अकादमी पुरस्कार हिंदी सूची

वर्षसाहित्यकार का नामकृतिविधा
1955माखन लाल चतुर्वेदीहिमतरंगिणीकाव्य
1956वासुदेव शरणपद्मावत संजीवनी व्याख्याव्याख्या
1957आचार्य नारेन्द्र देवबौध धर्म दर्शनदर्शन
1958राहुल सांकृत्यायनमध्य एशिया के इतिहासइतिहास
1959रामधारी सिंह दिनकरसंस्कृति के चार अध्यायभारतीय संस्कृति
1960सुमित्रानंदन पन्त कला और बूढ़ा चादकाव्य
1961भगवतीचरण वर्माभूले बिसरे चित्रउपन्यास
 1962
1963अमृत राय कलम का सिपाही ( प्रेमचंद)जीवनी
1964अज्ञेय जी आंगन के पार द्वारकाव्य
1965डा. नागेन्द्ररस सिद्धांतविवेचना
1966जैनेन्द्र कुमारमुक्ति बोधउपन्यास
1967अमृतलाल नागरअमृत और विषउपन्यास
1968हरिवंशराय बच्चनदो चट्टानेंकाव्य
1969श्रश्री लाल शुक्लरागदरबारीउपन्यास
1970राम विलास शर्मानिराला की साहित्य साधनाजीवनी
1971नामवर सिंहकविता के नये प्रतिमानआलोचना
1972भवानी प्रसाद मिश्र बुनी हुई रस्सीकाव्य
1973हजारी प्रसाद द्विवेदीआलोक पर्वनिबंध
1974शिवमंगल सिंह सुमनमिट्टी की बारातकाव्य
1975भीष्म साहनीतमसउपन्यास
1976यशपालमेरी तेरी उसकी बातेंउपन्यास
1977समशेर बहादुर सिंहचूंका भी हूं में नहींकाव्य
1978भारत भूषण अग्रवालउतना वह सूरज हैकाव्य
1979सूदामा पांडेय ”धूमिल”कल सुना मुझेकाव्य
1980कृष्णा सोबतीजिन्दगीनामा जिन्दा रूखउपन्यास
1981त्रिलोचनताप के ‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌ताये हुए दिनकाव्य
 1982हरि शंकर परिसाईविकलांग श्रदा का दौरव्यंग
1983सर्वेश्वर दयाल सक्सेनाखूंटियों पर टंगे लोगकाव्य
1984रघुवीर सहायलोग भूल गए हैंकाव्य
1985निर्मल वर्माकव्वे और काला पानीकहानी संग्रह
1986केदारनाथ अग्रवालअपूर्वाकाव्य
1987श्री कांत वर्मा मगधकाव्य
1988नरेश मेहताअरण्यकाव्य
 1989केदारनाथ सिंहअकाल में सारसकाव्य
1990शिव प्रताप सिंहनीला चांदउपन्यास
1991गिरजा कुमार माथुरमें वक्त के हूं सामनेकाव्य
1992गिरीराज किशोरढाई घरउपन्यास
1993विष्णु प्रभाकरअर्द्धनारीश्वरउपन्यास
1994अशोक बाजपेईकही नहीं वहीं 
 
काव्य
1995कुंवर नारायणकोई दूसरा नहींकाव्य
1996सुरेंद्र वर्मामुझे  चांद चाहिएउपन्यास
1997लीलाधर जागूडीअनुभव के आकाश में चांदकाव्य
1998 अरूण कमलनये इलाके मेंकाव्य
1999विनोद कुमार शुक्लदीवार में एक खिड़की रहती थीउपन्यास
2000मंगलेश डबरालहम जो देखते हैंकाव्य
2001अलका सरावगीकलिकथा वया बाईपासउपन्यास
2002राजेश जोशीदो पंक्तियों के बीचकाव्य
2003कमलेश्वरकितने पाकिस्तानउपन्यास
2004वीरेन डंगवाल पुष्पचक्र में सृष्ठाकाव्य
2005मनोहर श्याम जोशी  क्यापउपन्यास
2006ज्ञानेन्द्र पतिसशयात्माकाव्य
2007अमरकांतइन्हीं हथियारों से   उपन्यास
2008गोविंद मिश्र  कोहरे में कैद रंगउपन्यास
2009कैलाश बाजपेई हवा में हस्तताक्षरकाव्य
2010उदय प्रकाशमोहन दासकहानी
2011काशी नाथ सिंहरेहन पर रघूकाव्य
2012चन्द्रकान्ता देवतालेपत्थर फेंक रहा हूंकाव्य
2013मृदुला गर्गमिल जुल मनउउपन्यास
2014रमेश चंद्र शाहविनायक उपन्यास
2015राम दरश मिश्रआग की हंसीकाव्य
2016नासिरा शर्मापरिजातउपन्यास
2017रमेश कुंतल मेघ विश्व मिथक सरितसागरपुस्तक
2018 चित्रा मुद्गल पोस्ट बाक्स न. 203 नाला सुपाराउउपन्यास
2019नन्द किशोर आचार्यघोलते हुए अपनो कोकविता
2020अनामिकाटोकरी में दिगंत- थोरी गाथाकाव्य

व्यास सम्मान vyas samman

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vyas samman

व्यास सम्मान 

भारतीय साहित्य के लिए दिया जाने वाला ज्ञानपीठ पुरस्कार के बाद तीसरा सबसे बड़ा साहित्य-सम्मान है। इसकी स्थापना 1991में के के बिडला फाउंडेशन के द्वारा की गई। यह पुरस्कार हिन्दी लेखन में 10 वर्षो के उत्कृष्ट साहित्यिक कार्य के लिए दिया जाता है।  वर्तमान में इनामी राशि ₹ 4 लाख एवं एक प्रशास्ति पत्र और एक पट्टीका दी जाती है। पहला व्यास सम्मान 1991 में राम विलास शर्मा को उनकी रचना भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिन्दी के लिए दिया गया।

व्यास सम्मान सूची

वर्षलेखक का नामरचना या कृतिविधा
1991राम विलास शर्माभारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिन्दी
1992डा. शिव प्रसाद सिंह नीला चांदउपन्यास
1993गिरजा कुमार माथुरमैं वक्र के सामनेकाव्य
1994धर्मवीर भारतीसपना अभी भी काव्य संग्रह
1995कुंवर नारायणकोई दूसरा नहींकाव्य संग्रह
1996प्रो राम स्वरूप चतुर्वेदीहिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास
1997केदार नाथ सिंहउत्तर कबीर तथा अन्य कविताएंकाव्य
1998गोविंद मिश्रपांच आॅगनो वाला घरउपन्यास
1999श्री लाल मिश्रविसरामपुर का संत उपन्यास
2000गिरिराज किशोरपहला गिरमिटियाउपन्यास
2001रमेश चंद्र शाहआलोचना का पक्षआलोचना
2002कैलाश बाजपेईपृथ्वी का कृष्ण पक्षप्रबन्ध काव्य
2003चित्रा मुद्गलआवांउपन्यास
2004मृदुला गर्ग कंठ गुलाबउपन्यास
2005चन्द्रकांताकथा सरितासारउपन्यास
2006परमानंद श्रीवास्तवकविता का अर्थ 
2007कृष्णा सोबती  समय सरगमउपन्यास
2008मन्नू भंडारीएक क यह भीआत्मकथा
2009अमर कांत इन्हीं हथियारों से
2010विश्वनाथ प्रसाद तिवारीफिर भी कुछ रह जाएंगे
2011रामदरश मिश्रआम के पत्तेकाव्य संग्रह
2012नरेंद्र कोहली न भूतो न भविष्यतिउपन्यास
2013विश्वनाथ त्रिपाठीव्योमकेश दरवेशसंस्मरण
2014कमलकिशोर गोयनकाप्रेमचंद की कहानियों का काल क्रमानुसार अध्धयन
2015डाॅ सुनीता जैनक्षमाकाव्य
2016सुरेंद्र वर्माकाटना शमी का वृक्ष 
2017 ममता कालियादुक्खम – सुक्खम
2018 लीलाधर जगूडीजितने लोग उतने प्रेम
2019नासिरा शर्माकागज की नाव
2020प्रो शरद पगोर पाटिलपुत्र की साम्राज्ञी31 वां व्यास सम्मान

आत्मकथा : हिंदी साहित्य लेखन की गद्य विधा atmkatha

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grayscale photography of man walkning in room
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आत्मकथा : हिंदी साहित्य लेखन की गद्य विधा

               – डॉ. प्रमोद पाण्डेय

       आत्मकथा हिंदी साहित्य लेखन की गद्य विधाओं में से एक है। आत्मकथा यह व्यक्ति के द्वारा अनुभव किए गए जीवन के सत्य तथा यथार्थ का चित्रण है। आत्मकथा के केंद्र में आत्मकथाकार या किसी भी व्यक्ति विशेष के जीवन के विविध पहलुओं तथा क्रिया-कलापों का विवरण होता है। आत्मकथा का हर एक भाग मानव की जिजीविषा तथा हर एक शब्द मनुष्य के कर्म व क्रिया-कलापों से जुड़ा हुआ होता है। “न मानुषात् श्रेष्ठतर हि किंचित्” अर्थात मनुष्य से बढ़कर कुछ भी नहीं है। आत्मकथा के अंतर्गत आत्मनिरीक्षण, आत्मपरीक्षण, आत्मविश्लेषण, आत्माभिव्यक्ति यह आत्मकथा के द्वारा की जाती है। आत्मकथा के अंतर्गत सत्यता का विशेष महत्व होता है। यदि आत्मकथा में सत्यता नहीं होगी तो वह आत्मकथा उत्कृष्ट नहीं माना जाता है। आत्मकथा के अंतर्गत व्यक्तिगत जीवन के विविध पहलुओं, जो कि आत्मकथाकार ने स्वयं भोगा है तथा उसके अपने निजी जीवन व घटनाओं का सटीक व सही चित्र शब्दों के माध्यम से उकेरता है। आत्मकथाकार आत्मकथा लेखन में जिस शैली व भाषा का प्रयोग करता है वह उसकी अपनी स्वयं के जीवन अनुभव से जुड़ी होती है| आत्मकथा यह गद्य साहित्य का रूप है। जिसके अंतर्गत किसी व्यक्ति विशेष का जीवन वृत्तांत स्वयं के द्वारा ही लिखा जाता है।  आज आत्मकथा लेखन विधा को अपना स्वतंत्र अस्तित्व प्राप्त है तथा हिंदी गद्य साहित्य में अपना स्थान स्थापित कर चुकी है।

आत्मकथा का अर्थ 

          आत्मकथा यह ‘आत्म’ व ‘कथा’ के योग से बना है। जिसमें ‘आत्म’ का अर्थ है- अपना, स्वयं, निजी, स्वकीय आदि। इसी प्रकार ‘कथा’ का अर्थ है- कहानी, किस्सा, वार्ता, चर्चा आदि। अत: उपर्युक्त अर्थ के आधार पर ‘आत्मकथा’ का अर्थ हुआ- अपनी निजी कहानी, स्वयं का किस्सा, स्वकीय कहानी आदि।       आत्मकथा के अंतर्गत आत्मकथाकार की मुख्य भूमिका यह होती है कि वह अपने जीवन का सही ढंग से चित्रण करे। इसमें आत्मकथाकार कथा का पात्र स्वयं होता है।           आत्मकथा को परिभाषित करते हुए डॉ. श्यामसुंदर घोष ने लिखा है कि -“जब लेखक अपनी जीवनी स्वयं लिखे तो वह आत्मकथा है। आत्मकथा के लिए हिंदी में आत्मचरित या आत्मचरित्र शब्द प्रयुक्त होते हैं।” हिंदी साहित्य कोश के अनुसार -“आत्मचरित और आत्मचरित्र हिंदी में आत्मकथा के अर्थ में प्रस्तुत शब्द हैं और तत्वत: आत्मकथा से भिन्न नहीं हैं।” इसी क्रम में डॉ. माज़दा असद भी लिखते हैं कि ” स्वयं लिखी अपनी जीवनी आत्मकथा कहलाती है. इसे दूसरे शब्दों में इस प्रकार कहा जा सकता है – जब कोई व्यक्ति कलात्मक, साहित्यिक ढंग से अपनी जीवनी स्वयं लिखता है तब उसे आत्मकथा कहते हैं।”

आत्मकथा की परिभाषा 

आत्मकथा लिखते समय आत्मकथाकार को यह विशेष ध्यान रखना चाहिए कि आत्मकथा में रोचकता हो अन्यथा वह आत्मकथा नीरस और उबाऊ हो जाएगी। आत्मकथा को रोचक बनाने हेतु कुछ मुद्दे मानविकी पारिभाषिक कोश में लिखे गए हैं. वे मुद्दे इस प्रकार से हैं :-१- किन्हीं ऐतिहासिक घटनाओं या आन्दोलनों से यदि लेखक का संपर्क रहा हो तो उसका विवरण बाद की पीढ़ियों के लिए रोचक और उपयोगी होता है। क्योंकि उससे तत्कालीन मनोवृत्ति का कुछ सही अनुमान, सुलभ हो पाता है।२- हो सकता है कि स्वयं लेखक का ही इतिहास निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान रहा हो ? विख्यात विजेता, शासक, राजनीतिज्ञ अथवा चिंतक के विचारों का अपने तथा अन्य व्यक्तियों तथा घटनाओं के विषय में उसके मतामत का सदा महत्व रहता है।३- लेखक के दृष्टिकोण या विचारों में कुछ विशेषता या अनूठापन हो अथवा वह अपने युग से आगे की बात सोचने वाला हो।४- लेखक ऐसा व्यक्ति हो जिसके जीवन का मुख्य कार्य आत्ममंथन और चिंतन ही रहा हो।”   आत्मकथा को संस्मरण विधा भी माना जाता है। इस संदर्भ में अपने विचार व्यक्त करते हुए डॉ. हरिचरण शर्मा ने लिखा है कि “आत्मकथा एक संस्मरणात्मक विधा है जिसमें स्वयं लेखक अपने जीवन के विषय में निरपेक्ष होकर लिखता है। आत्मकथा वह साहित्यिक विधा है जिसमें लेखक अपनी सबलताओं और दुर्बलताओं का संतुलित एवं व्यवस्थित चित्रण करता है. आत्मकथा व्यक्ति के संपूर्ण व्यक्तित्व के निष्पक्ष उद् घाटन में समर्थ होती है।” परंतु इस संदर्भ में प्रसिद्ध आलोचक शिप्ले आत्मकथा व संस्मरण को परस्पर भिन्न मानते हैं। इस संदर्भ में वे लिखते हैं कि ” आत्मकथा और संस्मरण देखने में समान साहित्यिक स्वरूप मालूम पड़ते हैं, किंतु दोनों में अंतर है। यह अंतर बल संबंधी है। एक में चरित्र पर बल दिया जाता है और दूसरे में बाह्य घटनाओं और वस्तु आदि के वर्णनों पर ही लेखक की दृष्टि रहती है। संस्मरण में लेखक उन अपने से भिन्न व्यक्तियों, वस्तुओं, क्रियाकलापों आदि के विषय में संस्मरणात्मक चित्रण करता है जिनका उसे अपने जीवन में समय-समय पर साक्षात्कार हो चुका है।”  पं. जवाहरलाल नेहरू द्वारा लिखित “मेरी कहानी” को अनुवादित करके अब्राहम काउली आत्मकथा के संबंध में लिखते हैं कि ” किसी आदमी को अपने बारे में खुद लिखना मुश्किल भी है और दिलचस्प भी क्योंकि अपनी बुराई या निन्दा लिखना खुद हमें बुरा मालुम होता है और अगर हम अपनी तारीफ करें तो पाठकों को उसे सुनना नागवार मालूम होता है।”     इसी क्रम में आत्मकथा के संबंध में गुलाब राय अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखते हैं कि ” साधारण जीवन चरित्र से आत्मकथा में कुछ विशेषता होती है। आत्मकथा लेखक जितनी अपने बारे में जान सकता है उतना लाख प्रयत्न करने पर भी कोई दूसरा नहीं जान सकता किन्तु इसमें कहीं तो स्वाभाविक आत्मश्लाघा की प्रवृत्ति बाधक होती है और किसी के साथ शील-संकोच आत्म-प्रकाश में रुकावट डालता है।”          आत्मकथा अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने का सबसे आसान व सहज माध्यम है। आत्मकथा के द्वारा आत्मकथाकार अपने जीवन, परिवेश, महत्त्वपूर्ण घटनाओं, विचारधाराओं, निजी अनुभवों, अपनी क्षमताओं, दुर्बलताओं तथा अपने समय की सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों को शब्दों के  माध्यम से लोगों के समक्ष प्रस्तुत करता है।      

हिंदी की प्रमुख आत्मकथाएँ और आत्मकथाकार

   हिन्दी में आत्मकथा लेखन की एक लंबी परंपरा रही है। इस परम्परा को तीन कालखण्डों में विभाजित किया गया है जो कि निम्नवत है :-१-आत्मकथा लेखन का आरंभिक काल :-                     हिंदी की पहली आत्मकथा सन् 1641 में बनारसीदास जैन द्वारा लिखित ‘अर्द्धकथा’ को माना गया है। इस आत्मकथा में लेखक ने अपने गुणों और अवगुणों का यथार्थ चित्रण किया है। पद्यात्मक शैली में लिखी गई इस आत्मकथा के अलावा संपूर्ण मध्यकाल में हिंदी में कोई और दूसरी आत्मकथा नहीं मिलती है। हिंदी साहित्य लेखन के अंतर्गत गद्य लेखन की अन्य विधाओं के साथ आत्मकथा लेखन विधा भी भारतेंदु हरिश्चंद्र के समय में विकसित हुई। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने पत्रिकाओं में प्रकाशन के द्वारा इस विधा को न सिर्फ पल्लवित किया बल्कि अपितु इसे आगे बढ़ाने में अहम् भूमिका भी निभायी। उन्होंने अपने स्वयं के जीवन पर आधारित आत्मकथा “एक कहानी कुछ आपबीती कुछ जगबीती” का लेखन किया। जिसका आरंभिक अंश “प्रथम खेल” नामक शीर्षक से प्रकाशित हुआ था। यह आत्मकथा आम-बोलचाल की भाषा में लिखी गई जो कि रोजमर्रा के जीवन में प्रयोग किए जाने  वाले शब्दों की बहुलता इस आत्मकथा में दिखाई देती है।      भारतेंदु हरिश्चंद्र के अलावा इस कालखण्ड के आत्मकथाकारों द्वारा लिखी गई आत्मकथाओं में से सुधाकर द्विवेदी की ‘रामकहानी’ तथा अंबिकादत्त व्यास की ‘निजवृतांत’ को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया  है।       इसी क्रम में सन् 1875 में स्वामी दयानंद सरस्वती की आत्मकथा सामने आई। इस आत्मकथा में दयानंद सरस्वती के जीवन के विविध पहलुओं को उजागर किया गया है। सत्यानंद अग्निहोत्री की आत्मकथा ‘मुझ में देव जीवन का विकास’ का पहला खण्ड सन् 1909 में और दूसरा खण्ड सन् 1918 में प्रकाशित हुई। सन् 1921 में परमानंद जी की आत्मकथा ‘आपबीती’ प्रकाशित हुई। इस आत्मकथा में आत्मकथाकार ने स्वतंत्रता आंदोलन में अपने योगदान, अपनी जेल यात्रा तथा आर्य समाज के प्रभाव को उकेरा है। सन् 1924 में स्वामी श्रद्धानंद की आत्मकथा ‘कल्याणमार्ग का पथिक’ प्रकाशित हुई। जिसमें उन्होंने अपने के जीवन संघर्षों का सही-सही चित्रण किया है।२- स्वतंत्रता-पूर्व आत्मकथा लेखन :-           हिंदी आत्मकथा साहित्य के विकास में ‘हंस’ पत्रिका में प्रकाशित आत्मकथांकों का विशेष योगदान रहा है। सन् 1932 में प्रकाशित अंक में जयशंकर प्रसाद, वैद्य हरिदास, विनोदशंकर व्यास, विश्वंभरनाथ शर्मा , दयाराम निगम, मौलवी महेशप्रसाद, गोपालराम गहमरी, सुदर्शन, शिवपूजन सहाय, रायकृष्णदास, श्रीराम शर्मा आदि साहित्यकारों और गैर-साहित्यकारों के जीवन के कुछ अंशों को प्रेमचंद ने स्थान प्रदान किया।सन् 1941 में प्रकाशित इस काल की सबसे महत्वपूर्ण आत्मकथा श्यामसुंदर दास की ‘मेरी आत्मकहानी’ है। इसमें लेखक ने अपने जीवन की निजी घटनाओं को कम स्थान देते हुए इतिहास और समकालीन साहित्यिक गतिविधियों को अधिक प्राधान्य दिया है। इसी कालखण्ड के आस-पास बाबू गुलाबराय की आत्मकथा ‘मेरी असफलताएँ’ भी प्रकाशित हुई। जिसमें बाबू गुलाब राय ने व्यंग्यात्मक शैली में अपने जीवन की असफलताओं का सजीव चित्र उकेरा है।इसी क्रम में सन् 1946 में राहुल सांकृत्यायन की आत्मकथा ‘मेरी जीवन यात्रा’ का प्रथम भाग प्रकाशित हुआ। सन् 1949 में दूसरा तथा सन् 1967 में उनकी मृत्यु के उपरांत तीसरा भाग प्रकाशित हुआ। सन् 1947 के आरंभ में देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की आत्मकथा “मेरी जीवन यात्रा” प्रकाशित हुई। इस आत्मकथा में राजेंद्र प्रसाद ने देश की दशा का वर्णन किया है।३- आत्मकथा लेखन का स्वातंत्रयोत्तर काल :- (1947 के बाद से अब तक)सन् 1948 में वियोगी हरि की आत्मकथा ‘मेरा जीवन प्रवाह’ प्रकाशन हुआ। इस आत्मकथा में समाज के निम्न वर्ग का मार्मिक वर्णन किया गया है। यशपाल की आत्मकथा ‘सिंहावलोकन’ का प्रथम भाग सन् 1951 में, दूसरा भाग सन् 1952 में और तीसरा भाग सन् 1955 में प्रकाशित हुआ। सन् 1952 में ही शांतिप्रिय द्विवेदी की आत्मकथा ‘परिव्राजक की प्रजा’ प्रकाशित हुई। इसमें लेखक ने अपने जीवन की करुण कथा का वर्णन किया है। सन् 1953 में देवेंद्र सत्यार्थी की आत्मकथा ’चाँद-सूरज के बीरन’ प्रकाशन हुआ।    सन् 1960 में प्रकाशित पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ की आत्मकथा ‘अपनी खबर’ प्रकाशित हुई।         हरिवंशराय बच्चन की आत्मकथा ‘क्या भूलूँ क्या याद करूँ’ (सन् 1969), ‘नीड़ का निर्माण फिर-फिर’ (सन् 1970), ‘बसेरे से दूर’ (सन् 1977) और ‘दशद्वार से सोपान तक’ (सन् 1985) चार भागों में विभाजित एवं प्रकाशित हिंदी की सर्वाधिक सफल और महत्वपूर्ण आत्मकथा मानी जाती है । बच्चन की आत्मकथा ने अनेक आत्मकथाकारों को जन्म दिया। बच्चन जी के बाद प्रकाशित आत्मकथाओं में वृन्दावनलाल वर्मा की ‘अपनी कहानी’ ( (सन् 1970), देवराज उपाध्याय की ‘यौवन के द्वार पर’ (सन् 1970), शिवपूजन सहाय की ‘मेरा जीवन’ (सन् 1985), प्रतिभा अग्रवाल की ‘दस्तक ज़िंदगी की’ (सन् 1990) और भीष्म साहनी की ‘आज के अतीत’ (सन् 2003) प्रकाशित हुई।       समकालीन आत्मकथा साहित्य में दलित आत्मकथाओं का भी विशेष रूप से  योगदान रहा है। ओमप्रकाश वाल्मीकि की ‘जूठन’, मोहनदास नैमिशराय की ‘अपने-अपने पिंजरे’ और कौशल्या बैसंत्री की ‘दोहरा अभिशाप’, सूरजपाल चौहान की आत्मकथा ‘तिरस्कृत’ (2002) तथा ‘संतप्त’ (2006) आदि आत्मकथाओं ने इस विधा को एक नया आयाम प्रदान किया ।     वर्तमान समय में महिला और दलित आत्मकथाकारों ने इस विधा को सामाजिकता से जोड़ा है। महिला कथाकारों में मैत्रेयी पुष्पा, प्रभा खेतान आदि का नाम विशेष रूप से लिया जाता है जिन्होंने आत्मकथा का लेखन किया है।       इसी क्रम में आत्मकथा एवं कथा साहित्य पर तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से दृष्टिपात करते हैं तो इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि आत्मकथा व्यक्ति के जीवन यात्रा की कहानी होती है परंतु यह कहानी अधूरी रहती है क्योंकि इसमें व्यक्ति के जीवन के एक पड़ाव का लेखा-जोखा ही प्रस्तुत किया जाता है। यदि आत्मकथा लेखन पूर्ण हो जाने के बाद लेखक कुछ और वर्षों तक जिंदा रहता है तो उन वर्षों का ब्यौरा आत्मकथा द्वारा प्राप्त नहीं होता है। जबकि कथा साहित्य में काल्पनिकता होने के बावजूद उसके अंतर्गत कहानी का प्रारंभ, विकास और अंत सुनियोजित ढंग से तथा व्यवस्थित रूप से होता है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि आत्मकथा व्यक्ति विशेष के जीवन की अनुकृति होने के साथ-साथ कथा साहित्य की तुलना में यह अनियोजित एवं अपूर्ण होती है। अत: कथा साहित्य के अंतर्गत इसे अधूरी कथा की संज्ञा दी जा सकती है क्योंकि कोई भी आत्मकथा लेखक अपनी मृत्यु के बाद तो आत्मकथा लिख नहीं सकता और जीवित रहकर लिखी गई आत्मकथा में जीवन के कुछ अंश शेष रह जाते हैं। कहना न होगा कि आत्मकथा का अंत यह किसी कथा साहित्य की भॉति पूर्व नियोजित अंत नहीं होता है। बावजूद इसके आत्मकथा में कथावस्तु, चरित्र-चित्रण, भाषा-शैली, कथोपकथन, उद्देश्य और वातावरण जैसे कथा साहित्य के तत्व विद्यमान रहते हैं।      कहना न होगा कि हिंदी आत्मकथा साहित्य यह कथाकार के अपने जिए हुए जीवन की मार्मिक अभिव्यक्ति है। आत्मकथा आज अपने जीवन की सार्थकता के कारण दिन-प्रतिदिन उँचाइयों की ओर अग्रसर है तथा हिंदी साहित्य में अपना स्थान सुनिश्चित किए हुए है।

संदर्भ ग्रंथ सूची१- आदर्श हिंदी शब्दकोश – पं. रामचन्द्र पाठक (सं.)

२- साहित्य के नये रूप – डॉ. श्यामसुंदर घोष

३- हिंदी साहित्य का इतिहास – डॉ. हरिचरण शर्मा

४- हिंदी साहित्य कोश- धीरेन्द्र वर्मा

५- मानविकी पारिभाषिक कोश- डॉ. नगेन्द्र ( सं.)

६- काव्य के रूप – गुलाब राय

७- गद्य की नयी विधाएँ – डॉ. माज़दा असद

नाम : डॉ. प्रमोद पाण्डेय 

(एम.ए. , पीएच.डी. – हिंदी)पता : ए-201, जानकी निवास, तपोवन, 

रानी सती मार्ग, मालाड (पूर्व), मुंबई – 400097.

(महाराष्ट्र)मो.नं. : 09869517122ईमेल : drpramod519@gmail.com

यात्रा साहित्य : स्वरूप एवं तत्त्व yatra sahitya

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silhouette of man walking along field leading to mountain
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यात्रा साहित्य : स्वरूप एवं तत्त्व

ओप्रकाश सुंडा

शोधार्थी हिंदी विभाग

राजस्थान केन्द्रीय विश्वविद्यालय

बांदर सिंदरी, किशनगढ़, अजमेर – 305817

मेल आईडी – opsunda2408@gmail.com

आज जातीयता के उच्च सौपान पर पहुँचा ये मानव अपनी आदिम अवस्था में कैसा रहा होगा इसकी कल्पना ही की जा सकती है। शायद उस समय उसके पास रहने को घर भी नहीं होगा? वह पागल की तरह इधर – उधर भटकता फिरता होगा ? आस पास के जंगली पेड़ पौधों और छोटे – मोटे कीट पतंगों को खाकर अपनी उदर पूर्ति करता होगा ? शायद उसमे विवेक शून्य होगा ? पर प्राकृतिक वातावरण और जलवायु ने ऐसी स्थिति पैदा कर दी होगी कि वह आने वाले संकट का सामना करने के लिए उपाय सोचने लगा होगा? समय ने उसे चलना सिखाया और वह एक स्थान दूसरे स्थान की ओर जाने लगा । स्थान परिवर्तन के दौरान उसका जीवन जगत के अनेक अनुभवों और वातावरणीय विविधताओं से पाला पड़ा होगा? इस वैविध्य ने ही उसे आगे बढ़ने की प्रेरणा दी होगी? अब उसके सामने अनंत आकाश पड़ा था और घूमने के लिए सारी दुनिया। मानव का ये तब से चला सिलसिला आज भी अनवरत जारी है।

यात्रा अर्थ एवं परिभाषा

‘यात्रा’ शब्द संस्कृत की ‘या’ धातु में ष्ट्रन + टाप प्रत्यय के योग से बना है जिसका अर्थ है जाना, गति, सफर।1 एक स्थान से दुसरे स्थान तक तक जाने की क्रिया सफर।2 डॉ हरदेव बाहरी हिंदी शब्द कोश में इसका अर्थ बताते है – ‘एक स्थान से दूसरे स्थान को जाना, प्रस्थान या प्रयाण, यात्रा व्यवहार (जैसे जीवन यात्रा )। जैनाचार्ये श्री विजय धर्म सूरि की दृष्टि में यात्रा शब्द गमन या प्रस्थान आदि का बोध करता है। वे उल्लेख करते है – प्रस्थीयते स्थानाच्चलते
प्रस्थानाम्। गम्यते गमनं।। व्रजनं व्रज्या।। आस्यारि। इति क्ययं।। आभिनिर्यायायतेदभिनिर्माण, प्रयायते प्रयानाम् स्वार्थे के प्रयाणंक…. “ यात्यस्या यात्रा” हु यामा इति।”4  विभिन्न शब्द कोशों में यात्रा का अर्थ घूमने या स्थान परिवर्तन के अर्थ में आता ही है। शब्द कोश में प्रयोजन के संदर्भ में अलग – अलग अर्थ मिलते है। जीवन निर्वाह, व्यवहार, उपाय, उत्सव, प्रस्थान, प्रयाण, तीर्थ यात्रा; एक स्थान से दूसरे स्थान को जाने की क्रिया; यात्रियों का देवदर्शन या देवपूजन के लिए प्रस्थान, चढाई, युद्ध यात्रा।5  डॉ हरदेव बाहरी ने संस्कृत – हिंदी शब्द कोश में ‘यात्रा’ शब्द का प्रयोग अटन, देशाटन, पर्यटन, विचरण, भ्रमण, सफर, अतिक्रमण तथा गति के अर्थ में प्रयुक्त किया गया है। यायावरी भी यात्रा के पर्याय रूप में प्रयुक्त होता है।6 सदैव घुमने – फिरने वाले को साधारणतः यायावर कहा जाता है और क्रिया को यायावरी। मुसाफिरी भी इसी अर्थ में प्रयुक्त होता है। इसके अन्य पर्यायो में खानाबदोश, घुमक्कड़, फेरीवाला, बंजारा, सन्यासी, आदि शब्द भी प्रयुक्त होते हैं।7वृत्तान्त का आशय है – एक वृत्त का अंत। यात्रा में एक परिवृत की दुनिया गोल है अर्थात हम घूम – फिर कर एक वृत्त पूरा करते हैं। इस प्रकार दुनिया का चक्कर (वृत) पूरा करना – यात्रावृत है। यात्रा के लिये प्रत्येक भाषा में अलग – अलग शब्द हैं। जो घूमने फिरने व एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाने की क्रिया में प्रयुक्त होते हैं :– हिंदी – यात्रा;  बंगला – यात्रा, सफर, गमन; गुजराती – यात्रा; मलयालम – यात्रा; पंजाबी – पेंडा; उर्दू – सफर; संस्कृत – यात्रा; मराठी – प्रवास; तमिल – प्रयाणं। अँगरेजी में ‘टूरिज्म’ यात्रा का पर्याय है। लेटिन के ‘टूअर’ से ‘टूरिज्म’ का निर्माण हुआ। लैटिन का ही एक और  शब्द है –‘टोरंस’ जिसका अर्थ एक औजार से है जो पहिये की तरह गोलाकार होता है। शायद इसी से ‘यात्राचक्र’ या ‘पैकेज टूअर’ का विचार सृजित हुआ होगा। 1643 ई० के आसपास विभिन्न क्षेत्रों और राष्ट्रों के भ्रमण के लिये इसका प्रयोग किया गया।वर्तमान में हिंदी में प्रचलित शब्द पर्यटन भी इसी का द्योतक है। पर्यटन विस्तृत भू – भाग में किया जाने वाला भ्रमण। पर् – परिधि, अटन – घूमना – फिरना अर्थात एक परिधि विशेष में घूमना – फिरना। संस्कृत साहित्य में बाणभट्ट के लिये आवारा शब्द का प्रयोग किया गया है। यहाँ आवारा से तात्पर्य गृहस्थ जीवन को छोड़कर इधर – उधर भटकने वाला आवारा है।चरैवेति-चरैवेति-चरैवेति अर्थात चलते रहो – चलते रहो – चलते रहो …। वैदिक युग का सूत्र वाक्य गुरुकुलों में ऋषियों द्वारा अपने शिष्यों को ज्ञान देने के लिये चलते रहने का सन्देश देने के लिये किया था। विद्यार्थी दुनिया भर में सैर करके ज्ञान प्राप्त करते थे। यात्रा शब्द जीवन जगत के अनेक अर्थों को अपने में समेटे हुए है। जीवन एक यात्रा है। धार्मिक अर्थों में मनुष्य जन्म से लेकर मृत्यु पर्यंत यात्रा करता रहता है। संसार मिथ्या ज्ञान है, इसको पार करने के लिये यात्रा करनी पड़ती है । परमात्मा तक पहुँचने की क्रिया इसी यात्रा द्वारा निष्पन्न होती है। दार्शनिक दृष्टि से यात्रा का आशय है कि व्यक्ति जीवन भर यात्रा करता है और मरने के बाद कहते है कि ‘इहलोक की यात्रा’ कर गया और समस्त जीवन क्रिया का ही नाम पड़ गया – जीवन यात्रा ।            

यात्रा साहित्य का विकास

यात्रा शब्द सामान्यत: प्रवास के अर्थ में प्रयुक्त होता है। प्रवास अर्थात अपने घर से दूर बसना या वास करना । ये लोग प्रवासी कहलाते हैं । संचरणशीलता मनुष्य मात्र की प्रवृत्ति है। यात्रा का उद्देश्य भिन्न भिन्न हो सकता है जैसे  –  व्यापार, ज्ञान, मनोरंजन, विलास आदि। व्यक्ति द्वारा एक परिवृत एक निश्चित समय में किया गया भ्रमण यात्रा है तथा यात्रा के समय किये गये अनुभव, संवेदनात्मक अनुभूति, समाज के साथ निर्विकार जुड़ाव का भाव, समाजगत चेतना का यथार्थ बोध तथा अन्य संवेदनात्मक तत्त्व यात्राकार के व्यक्तित्व में पचकर लेखनी के सहारे जब कलात्मक रूप धारण करते है तो यात्रा साहित्य का निर्माण होता है ।सभ्यता विकासक्रम के प्रथम सोपान में आदिम और जंगली मनुष्य वनों में इधर – उधर की खाक छानता फिरता होगा । भोजन की तलाश में एक स्थान से दूसरे स्थान – पता नहीं कितनी लम्बी दूरी तय की होगी । “प्राकृतिक आदिम मनुष्य परम घुमक्कड़ था । खेती बागवानी तथा घर द्वार से मुक्त वह आकाश के पक्षियों की भांति पृथ्वी पर सदा विचरण करता था। जाड़े में यदि इस जगह था तो गर्मियों में वहाँ से दो कोस दूर ।”8 सामाजिक जीवन में प्रवेश हुआ और वह नियत स्थान पर घर बनाकर रहने लगा। शायद सुरक्षा की विचार-भावना और एक ही जगह भोजन की उपलब्धता ने ऐसी प्रेरणा दी होगी। सामाजिक जीवन ने उन्हें बहुत सी सुविधाएँ और सुरक्षा प्रदान की, परन्तु सामाजिक नैतिकता ओर नियमों में आबद्ध मनुष्य का मन मुक्ति के लिये छटपटाने लगा। इसी मुक्ति की कामना को हृदय में संजोये मनुष्य ने फिर घर छोड़ा होगा, परन्तु उसे वापस लोटना पड़ता क्योंकि सामाजिक दायित्वों से मुक्ति नही मिली। घुमक्कड़ी के समय उसे अत्यंत रोमांच ओर आनंद की अनुभूति हुई होगी। अब यात्रा पर निकलना उसकी स्वाभाविक प्रवृति हो गई। व्यक्ति जब भी जीवन की समस्याओं, संसार के दुखों, कष्टों ओर मानसिक संताप से घिरा उसने घुमक्कड़ी अपनाई। वह वापस लौटकर यात्रा के अनुभव अन्य लोगों को सुनाता होगा । “दैनिक साहसिक यात्रा के अनुभव का आत्मश्लाघा से पूर्ण वर्णन कदाचित उनकी पहली अभिव्यक्ति रही होगी ।”9जब लोगों में शिक्षा ग्रहण करने की प्रवृति जगी। लोग एक दूसरे से मिलकर अपने अनुभव बाँटने लगे। उस समय आज की भांति शायद अत्याधुनिक साधन नही थे परन्तु “सभ्यता के इस युग में भी लोग प्राय: यात्रायें किया करते थे। जल और स्थल दोनों प्रकार की यात्राएँ होती थी ……लोगों के पास जहाज थे। वे दुनिया का भौगोलिक वृतांत भी खूब जानते थे। वे सभ्य शिक्षित, उदार, साहसी, व्यापार कुशल, कला निपुण अद्यवसायी थे। ….हमारे साहित्य के ग्रन्थ इस काल की यात्राओं से भरे पड़े हैं । वैदिक और लौकिक संस्कृत भाषा के ग्रंथों से भरे पड़े हैं ।”10 वैदिक सूक्तो में अनेक देवताओं की यात्राओं का उल्लेख मिलता है ।मनुष्य का इन यात्राओं के पीछे का प्रयोजन मात्र आत्मिक शांति ही नहीं बल्कि भौतिक क्रियाएँ भी रही हैं। समाज निर्माण के साथ ही व्यक्ति को अपनी आवश्कताओं की पूर्त्तता हेतु अन्य मनुष्यों से संपर्क साधना पड़ा। भय ने मनुष्य को प्रकृति पूजक भी बना दिया। वह किसी व्यक्ति या स्थान विशेष के प्रति कृतज्ञ होता गया और मन में श्रद्धा-भक्ति का भाव उमड़ पड़ा। इस प्रकार किसी तीर्थ या देवस्थान की यात्रा का चलन सामने आया। लोग झुण्डों में किसी उत्सव की भांति यात्राएँ किया करते थे। उनके द्वारा ये यात्राएँ अपने आराध्य के प्रति भक्ति भाव की अभिव्यक्ति थी। तीर्थाटन को पाप शमन का साधन माना जाने लगा और यात्राओं सिलसिला सा चल पड़ा ।मनुष्य की व्यापारिक प्रवृति ने भी यात्राएँ करने के लिये बाध्य किया। वह छोटी से छोटी चीज से लेकर बड़ी से बड़ी चीजों का आदान – प्रदान करने के लिये, स्वयं द्वारा निर्मित चीजों के वितरण, सामान खरीदने तथा अन्य विनिमय का कार्य करने के लिये इधर – उधर भागने लगा। एक दूसरे से बढ़ते  संपर्क ने मनुष्य के व्यक्तिगत संबंधों को विस्तार प्रदान किया । दूर – दूर वैवाहिक संबंध स्थापित किये जाने लगे । एक समय ऐसा भी रहा होगा जब वरयात्रा कई महीनों तक मीलों लंबी दूरी तय करके पहुँचती  होगी  ।प्राचीन काल में आज की भांति गली कूंचे में शिक्षा संस्थान उपलब्ध नहीं थे और न ही आज की सी शिक्षा पद्धति थी। मीलों लम्बे क्षेत्र में कहीं – कहीं गुरुकुल हुआ करते थे। विद्यार्थी ज्ञान प्राप्ति के लिए दुनिया का भ्रमण करता था। शिक्षक भी ज्ञान प्राप्ति और अनुभव के लिये लम्बी यात्राएँ किया करते थे। शंकराचार्य जैसे दार्शनिक द्वारा देश के चारों कोनों की यात्राएँ की गई और चार ज्ञान केंद्र स्थापित किये गए।इस प्रकार प्राणी जगत पृथ्वी की उत्पत्ति से लेकर आज तक चरेवैति – चरेवैति – चरेवैति का आदर्श निभाता आ रहा है। पुरातत्व खोजों में मिले गिरिकंदराओं के कोटरों में मनुष्य वास के प्रमाण, समुद्र व पृथ्वी में समाहित सभ्यताओं की निशानियाँ तथा काल की ये अंतहीन चाल मनुष्य की घुमक्कड़ी के प्रथम बीज बिंदू से लेकर आज तक की कहानी सप्रमाण कहती है। यात्रा मार्ग में मनुष्य को प्रकृति के प्रांगण में फैले अंतहीन सौंदर्य ने अभिभूत किया होगा । धीरे – धीरे प्रकृति के इन आकर्षक दृश्यों – कल कल करती नदियों, विराट पर्वत शिखर, विहँसते झरने, विशाल जंगल, उमड़ता सागर, गिरिकंदराएँ व एकांत में अगणित तारा पंक्तियों से चमकता नील गगन आदि को आत्मसात करके मनुष्य उनके साथ एकाकार हो लगा। इन दृश्यों से हृदयगत भावनाओं का उमड़ता ज्वार मनुष्य को और भी निकट ले गया। प्रकृति से उनकी दैनिक जीवन की आवश्कताओं की पूर्ति तो होती ही थी, साथ ही साथ “प्राकृतिक दृश्यों के आत्मसात एवम् विशिष्ट अनुभूति की यह मानव भावना और आकर्षण ही वस्तुतः यात्रा साहित्य की मूल भित्ति है ।”11 कहा जा सकता है कि मनुष्य की स्वभावगत विशेषता चंचलता, आत्मतुष्टि की खोज तथा भौतिक आवश्कताओं ने उसमें सौंदर्य बोध की दृष्टि विकसित की, परिणामस्वरूप वह अपनी अभिव्यक्ति के लिये यात्रा साहित्य को कलात्मक रूप देने लगा । उसके व्यक्तित्व, ज्ञान, संस्कार और अनुभव ने मिलकर आज के यात्रा साहित्य का भवन तैयार किया ।

स्वरूप    

“चलना मनुष्य का धर्म है जिसने इसको छोड़ा वह मनुष्य होने का अधिकारी नहीं है।”12  शास्त्र भी यही बात अनुमोदित करते हैं कि चलते रहो – चलते रहो – चलते रहो। मनुष्य स्वभावतः ही संचरणशील है। स्थान की आबद्धता उब पैदा करती है। व्यक्ति जीवन में सुख और आनंद चाहता है। व्यक्ति के समस्त कार्यकलाप इसी आनंद को पाने के लिये प्रायोजित हैं। समाज और परिवार की निर्मिति, नियम, और कायदे, व्यक्तित्व पर नैतिक बंधन आदि समस्त प्रायोजित या स्वाभाविक कार्यवृत्तियाँ व्यक्ति को जीवन में सुख देने के लिये हैं। इन सुखों की कामना और प्राप्त करने के भौतिक प्रयास व्यक्ति मन को थका देते हैं। इस थके हुए मन की विश्रांति किसी ऐसी जगह है जहाँ समस्त दायित्वों से मुक्ति मिले और मनुष्य आत्म की पड़ताल में व्यस्त हो जाये। एकांत यात्रा देती हैं। “यात्रा यायावर को तठस्थ दृष्टि देती है। वह रोज के द्वंद्व पूर्ण जीवन में रहकर प्राप्त नहीं होती। अपने जीवन के निकट वातावरण से हटकर निजी परिस्थितियों के दबाव से मुक्त होकर मन में कोई कुंठा नहीं रहती।”13 वह स्वयं को स्वतंत्र महसूस करता है। यात्री बनकर जब व्यक्ति निकलता है तो उसे प्राकृतिक सौंदर्य, नया समाज नई जगह का इतिहास और भूगोल, विभिन्न व्यक्तियों के भिन्न – भिन्न आचरण, रहन – सहन, शिक्षा, व्यवस्थाएँ आदि आकर्षित करते हैं। वहाँ के जीवन संग व्यतीत समय अनुभव प्रदान करता है। उसे अनेक चीजे पसंद आती हैं। अनेक स्वभाव के प्रतिकूल भी होती है। वह मात्र उपरी चीजों को देखता भर नहीं, साथ – साथ उनके विश्लेषण की प्रक्रिया भी चलती रहती है। वह उस परिवेश से एकतान होकर इतिहास के झरोखों से देखता हुआ उनका सांस्कृतिक और मनोवेज्ञानिक विश्लेषण भी करता है। वह उन सबको एक क्षण अनुभव करके जी लेना चाहता है। वहाँ की समस्याएँ निजी बन जाती हैं। एक साहित्यिक यात्री चीजों को देख और विश्लेषण करके नहीं छोड़ देता अपितु तथ्य और सौंदर्य के सहारे उसके शब्द वहाँ का जीवन राग अलापने लगते हैं । “यात्रावृत्त में देश–विदेश की प्राकृतिक रमणीयता, नर – नारियों के विभिन्न जीवन सन्दर्भ, प्राचीन एवं नवीन चेतना की कलाकृतियों की भव्यता तथा मानवीय सभ्यता के विकास के द्योतक अनेक वस्तु चित्र यायावर लेखक के मानस रूप में रूपायित होकर व्यक्तिक रागात्मक उषा से दीप्त हो जाते हैं।”14 उन निजी अनुभूतियों को लेखक ऐसी कलात्मक अभिव्यक्ति प्रदान करता है कि पाठक मानसिक धरातल पर अपना अस्तित्व विस्मृत कर देता है और वहाँ की सैर करने लगता है ।यात्रावृत्त अकाल्पनिक गद्य विधा है । इसमें यात्राकार सामना की गई परिस्थितियों के यथार्थ अंकन का प्रयास करता है। हालाँकि कलात्मक अभिव्यक्ति होने के कारण कल्पना से नकारा नहीं जा सकता परन्तु यात्रावृत्त में चित्रित प्रत्येक दशा यात्रकार की निजी अनुभूति होती है, अनुभूतियों को वह यथातथ्य सिद्ध कर सकता है। कल्पना का संयोग उसे रोचक बना देता है। लेखक की भावनाएँ उस परिवेश और वहाँ के मनुष्य की जीवनगत संवेदना को आत्मसात करती है, वह यात्रावृत्त मानों वहाँ का मानवीय इतिहास हो। जिसमें घटनाओं के साथ–साथ व्याक्तिचेतना, संस्कार, सांस्कृतिक जीवन, सामाजिक और आर्थिक क्रियाएँ, राजनीतिक और भौगोलिक स्थितियाँ, विचार तथा धारणायें समाहित होती हैं ।इस प्रकार यात्रा साहित्य मनुष्य के उड़न-छू मन द्वारा की गई सैर की निजगत अनुभूतियों से आप्लावित ऐसी अभिव्यक्ति है जो पाठक को उस परिवेश और समय के साथ यात्रा कराती है …अनुभव कराती है…उस जीवन की संवेदनाएँ तथा जीवन को उल्लास व उमंग से भर देती है ।

यात्रा साहित्य के तत्व     

किसी भी विधा की बनावट के मूल में कोई न कोई ऐसी चीज होती है जो उसे अन्य विधाओं से अलगाती है और वो है मूलभूत तत्व । उन तत्वों के आधार पर निर्णय किया जाता है कि वो साहित्यिक है या नहीं । यात्रा वृत्तान्त भी एक साहित्यिक विधा है। अगर उसमें वे तत्व निहित हैं जो उसे साहित्य बनाते हो। यात्रा साहित्य में हम संख्या गिनकर तत्व निर्धारित नहीं कर सकते क्योंकि उसका ढांचा जीवन की भांति अत्यंत विस्तृत है। हम नहीं कह सकते कि वहाँ या कल्पना, या तो तथ्य, या तो वैयक्तिकता,या तो चित्रात्मकता से काम चल जाएगा । यात्राकार के सम्पूर्ण जीवन के अनुभव से लेकर समसामयिक घटनाओं की सृष्टि उसमें समाहित होती है। फिर भी सामान्यत: कुछ तत्व निर्धारित किए जा सकते हैं। यथा :-यात्रावृतांत की रचना करते समय स्थान विशेष की भौगोलिक परिस्थितियों, आचार–विचार, रीति – रिवाज, इतिहास, संस्कृति, परिवेश, प्रकृति, जीवन–कला-दर्शन आदि को दिखाया जाता है। स्थानीयता वह तत्व है जिसके चारों ओर सम्पूर्ण यात्रावृतांत घूमता है। वर्णित स्थान का चयन लेखक की दृष्टि और पसंद पर निर्भर करता है। कोई चीज उसके लिये प्रिय हो सकती है तो कोई उसकी दृष्टि में निकृष्ट कोटि की। यात्रा वृतान्त्त में यात्रा किये गये स्थान की वस्तुस्थिति का चित्रण आवश्यक है अन्यथा बिना उसके अन्य स्थितियों का चित्रण असंभव हैं।तथ्य इतिहास या भूगोल का विषय है, परन्तु यात्रा साहित्य की प्रमाणिकता उसकी तथ्यात्मकता में ही निहित है । लेखक द्वारा दिए गये तथ्य कोई आँकड़े या घटना भर नहीं होते बल्कि उनको अन्य स्थितियों से इस प्रकार संबद्ध किया जाता है कि वे बुद्धि पर बोझ न रहकर सहज ही कथ्य के भाग बन जाते हैं।कल्पना के बिना साहित्य नहीं लिखा जा सकता । यात्रा साहित्य में भी बिना कल्पना के वह साहित्यिक विधा नही बन सकती क्योंकि “लिखते समय अतीत को वर्तमान एवम् अप्रत्यक्ष को प्रत्यक्ष करने की क्षमता इसी कल्पना तत्व में निहित है ।”15 आत्मीयता ही ऐसा तत्त्व है जो पाठक को रचना से जोड़े रखता है । यात्रा में मिला प्रत्येक व्यक्ति महत्वपूर्ण होता है, यात्री का लगाव उनसे मात्र औपचारिक ही नहीं होता अपितु संवेदनात्मक और आत्मीय होता है । यात्रा साहित्य में उस आत्मीयता पूर्ण व्यवहार का वर्णन ही रचना को आत्मीय बना देता है।यात्रा में पड़ने वाले कुछ क्षण के मेहमान मार्ग, जंगल, पर्वत, व्यक्ति और सामाजिक जीवन-यात्री इनमें डूबता उतरता चलता जाता है। इन सब को वह अपने नजरिये से देखता है। यहाँ यात्रा व्यक्ति द्वारा होती है। यात्रा वृत्तान्त में वर्णन नितांत व्यक्तिगत दृष्टि से होता है। “यात्रा के समय उसका व्यक्तित्व ओर भी हावी हो जाता है क्योंकि व्यक्ति को अपनी अभिरुचि यथा-खानपान, वेशभूषा, पारिवारिक सुख सुविधा आदि का जितना तीव्र बोध प्रवास के क्षणों में होता है उतना परिजनों और आत्मीय बंधुओं के साथ रहते नहीं होता !”16वर्णन की रोचकता यात्रावृतान्त्त का मूल तत्व है। पढ़ते समय जो चीज मन में रोमांच पैदा कर दे तथा पाठक की जिज्ञासा शब्द-दर-शब्द बढती ही जाये। रोचकता ही ऐसा तत्व है जो यात्रा साहित्य की पुस्तक को पर्यटन पुस्तिकाओं से अलगाता है। यात्री का उद्देश्य समय निकलने के लिये घूमना–फिरना नहीं होता। वह सैर किए गए क्षणों को अनुभव करता हैं उनसे आत्मीयता स्थापित करता है। यात्राकार का जुड़ाव इस कदर गहरा होता है कि वहाँ का प्राकृतिक सौन्दर्य जनजीवन, समस्याएँ आदि से वह संवेदना के गहरे स्तर पर तादात्म्य तो स्थापित करता ही है साथ ही साथ एक कलाकार की भेदक दृष्टि द्वारा कलात्मक वर्णन से वहाँ के दृश्यों को प्रत्यक्ष कर देता है। संवेदना के गहरे स्तर पर जुड़कर सौन्दर्य दृष्टि वृत्तान्त को साहित्यिक रूप देती है। लेखक का ज्ञान और अनुभव यात्रा में पड़ने वाली प्रत्येक चीज को समझने में सहायक होता है। वह अपने अनुभवों के आधार पर निष्कर्ष निकालता है, तुलना करता है और कारणों की खोज करता है। ज्ञान और अनुभव के बिना यात्रा फीकी लगने लगती है और वह वस्तु वर्णन सा प्रतीत होने लगता है। लेखक के अनुभव ही महत्वपूर्ण नहीं होते बल्कि अभिव्यंजना कोशल भी महत्वपूर्ण होता है। भाषा और शैली का प्रयोग ही वर्णन की रुक्षता से बचाता है। लेखक प्राय: लोटकर स्मृति के आधार पर या यात्रा में लिखी गई डायरी के माध्यम से ही बाद में संपादित करके यात्रावृत्त की रचना करते हैं। वे यात्रा के समय अपने परिजनों या परिचितों को लेखे गये पत्रों को यात्रानुभवों के रूप में काम में लेते हैं। इससे शैली में आत्मीयता या रोचकता आ जाती है। “सामान्य घटनाओं के वर्णनों में बोलचाल की भाषा की सहजता, प्रकृति या भावनात्मक क्षणों के वर्णन में कलात्मकता, दृश्यों के मूर्तिकरण में चित्रात्मकता और बिम्बधर्मिता, विचारों की अभिव्यक्ति में गाम्भीर्य तथा स्थितियों के विश्लेषण में भाषा का प्रोढ़, प्रांजल और बोधगम्य रूप दिखाई पड़ता है !”17  शैली की ही विशेषता है कि पाठक निरंतर जुड़ा रहता है !किसी दृश्य का मूर्तिकरण करना चित्रात्मकता या बिम्बधर्मिता है। लेखक द्वारा यात्रा स्थल का वर्णन इस प्रकार करना की पढ़ते समय दृश्य आँखों के सामने जीवंत हो जाये। बिंब निर्माण करना किसी यात्रा लेखक की सबसे बड़ी सफलता है। यात्रा वृत्त का एक और महत्त्वपूर्ण तत्त्व जो उसका आधार है–समसामयिकता। उपर्युक्त तत्त्वों के बिना तो यात्रावृत्त का निर्माण हो ही सकता, परन्तु उसमे कालगत बोध स्वभाविकता ला देता है। इससे यह अहसास नहीं होता कि हम इतिहास की कोई घटना पढ़ रहे है। हम समय के साथ–साथ यात्रा करने लगते हैं।
संदर्भ1.      वामन शिवराम आप्टे, संस्कृत हिंदी शब्द कोश, कमल प्रकाशन, नवीन संस्करण  2.      वृहत प्रमाणिक हिंदी कोश, लोकभारती प्रकाशन, 2012 पृष्ठ – 7853.      हरदेव बाहरी, हिंदी शब्द कोश, राजपाल प्रकाशन 2013 पृष्ठ – 681 4.      डॉ संध्या शर्मा, हिंदी यात्रा साहित्य की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, बुक पब्लिकेशन, 2015 पृष्ठ – 155.      अद्यतन हिंदी शब्द सागर, साहित्यागार प्रकाशन पृष्ठ –7826.      डॉ संध्या शर्मा, हिंदी यात्रा साहित्य की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, बुक पब्लिकेशन, 2015 पृष्ठ – 15 77.      सहज समांतर कोश, राजकमल प्रकाशन, 2015 पृष्ठ – 7468.      राहुल सांकृत्यायन, घुमक्कड़ शास्त्र, हिंदी समय.कॉम से9.      डॉ हरसिमरन कोर भुल्लर, समकालीन यात्रा वृत्तों में सांस्कृतिक सन्दर्भ, के.के. पब्लिकेशन 2009, पृष्ठ – 1   10.  सुरेन्द्र माथुर,हिंदी यात्रा साहित्य का उद्व और विकास, 1962 , पृष्ठ – 1211.  डॉ संध्या शर्मा, हिंदी यात्रा साहित्य की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि,  बुक पब्लिकेशन, 2015 पृष्ठ -29 12.   राहुल सांकृत्यायन, घुमक्कड़ शास्त्र, हिंदी समय.कॉम से13.   मोहन राकेश,परिवेश, भारतीय ज्ञानपीठ 1967 पृष्ठ-7514.   रामचंद्र तिवारी, हिंदी का गद्य साहित्य, विश्वविद्यालय प्रकाशन, 2015 पृष्ठ – 52715.   डॉ हरिमोहन, साहित्यिक विधाएं : पुनर्विचार, वाणी प्रकाशन 2005 पृष्ठ – 27616.   डॉ संध्या शर्मा, हिंदी यात्रा साहित्य की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, बुक पब्लिकेशन, 2015 पृष्ठ – 2217.   डॉ हरसिमरन कोर भुल्लर, समकालीन यात्रा वृत्तों में सांस्कृतिक सन्दर्भ,के.के. पब्लिकेशन 2009,  पृष्ठ- 25[साभार: जनकृति के अप्रैल 2019 अंक में प्रकाशित]