गोविंद मिश्र के यात्रा-साहित्य में अंतर्निहित लोक-संस्कृति
– डॉ॰ सोमाभाई पटेल

हिंदी साहित्य की अन्य विधाओं की तरह यात्रा-साहित्य का भी ऐतिहासिक सफ़रनामा रहा है | भारतेन्दु पूर्व अधिकतर धार्मिक भावनाओं से प्रेरित हस्तलिखित यात्रा-वर्णन मिलते हैं | भारतेन्दु और उनके युग के रचनाकारों ने अपने निबंधों में यात्रा-स्थानों का वर्णन किया | इसी युग में यह विधा स्वतंत्र विधा के रूप में स्वीकृत हुई | वैसे छोटे-बड़े अनेक साहित्यकारों ने यात्रा-साहित्य लिखा लेकिन ख़ासकर पं॰ दामोदर शास्त्री (मेरी दक्षिण दिग्यात्रा) और बाबू देवीप्रसाद खत्री (रामेश्वर यात्रा) ने इस विधा को नई दिशा दी | भारतेन्दु युग में यात्रा-साहित्य दो रूपों में मिला; 1. विदेशी यात्रा-साहित्य 2. स्वदेशी यात्रा-साहित्य | द्विवेदी और छायावादी युग में इस विधा ने किशोरावस्था प्राप्त की | ठाकुर गदाधर सिंह, स्वामी सत्यदेव परिव्राजक, पंडित कन्हैयालाल मिश्र, पंडित जवाहरलाल नेहरू, डॉ॰ सत्यनारायण, प्रोफेसर मनोरंजन इस युग के महनीय यात्रा-साहित्यकार हैं |

स्वातंत्र्योत्तर काल में यह विधा वाकई युवावस्था पर पहुंची | पूर्ववर्ती यात्रा-साहित्य की अपेक्षा स्वातंत्र्योत्तर काल में यह विधा अच्छी तरह विकसित हुई | इस पड़ाव पर राहुल सांकृत्यायन, रामवृक्ष बेनीपुरी, भगवतशरण उपाध्याय, सेठ गोविंददास, रामधारीसिंह दिनकर, प्रभाकर माचवे, नरेश मेहता और यशपाल सिद्धहस्त हैं | इनके द्वारा यात्रा-साहित्य बड़ा रोचक बन पड़ा | आगे बढ़ते हुए समकालीन युग में तो यह विधा ख़ूब फली-फुली | कथ्यात्मकता, प्रकृति-सौंदर्य, कलात्मकता और सरल भाषा-शैली जैसे तत्वों को लेकर मजबूती पाने वाले इस युग में ख़ासकर मोहन राकेश, अज्ञेय, धर्मवीर भारती, निर्मल वर्मा, विष्णु प्रभाकर, ब्रिज किशोर नारायण, डॉ॰ नगेंद्र, आबिद सूरती, गोविंद मिश्र जैसे यात्रा-साहित्यकार लोकप्रिय सिद्ध हुए | फिर तो इस युग में यात्रा-साहित्य लिखने की बड़ी यात्रा चली और इस यात्रा के मुसाफिरों का नाम मात्र लें तो भी लंबी फहरिश्त हो जाएगी |

हिंदी यात्रा-साहित्य के विकास में समकालीन गोविंद मिश्र का प्रदान अहमियत रखता है | वे बहुमुखी प्रतिभासम्पन्न रचनाकार हैं | डॉ॰ प्रमिला त्रिपाठी के शब्दों में, “आधुनिक हिंदी साहित्य के निरंतर प्रगतिशील उपन्यासकार, कहानीकार, यात्रा-साहित्य रचयिता गोविंद मिश्र ने अपनी समृद्ध और सशक्त लेखनी तथा अद्वितीय प्रतिभा के बल से हिंदी साहित्य को पर्याप्त समृद्ध किया है |”1 अपनी साहित्योत्कृष्टि के कारण ही वे ‘आर्थस गिल्ड ऑफ इंडिया’, ‘व्यास सम्मान’, ‘प्रेमचंद पुरस्कार’, ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ से सम्मानित हुए हैं | वैसे सशक्त कथाकार के रूप में उन्होंने जितनी प्रसिद्धि पाई है उतने ही ख्यात वे यात्रा-साहित्य में भी हुए हैं | ‘धुंधभरी सुर्खी’ (1976), ‘दरख्तों के पार…शाम’ (1982), ‘झूलती जड़ें’ (1990), ‘परतों के बीच’ (1997), ‘और यात्राएँ’ (2004) उनके बढ़-चढ़कर यात्रा-वर्णन हैं | सशक्त यात्रा-साहित्य लिखने के पीछे उनकी प्रकृति का हाथ अवश्य है | एक तो सृजनात्मता के लिए जन्म से ही प्रयाग जैसी साहित्यिक और सांस्कृतिक भूमि विरासत में मिली | दूसरा, वे स्वभाव से ही घुमक्कड़, संवेदनशील, निडर, मानव धर्म के पक्षधर और राष्ट्र एवं प्रकृति-प्रेमी रहे हैं | “लेखक की घुमक्कड़ प्रवृत्ति, उपलब्ध हुए अवसरों ने सम्पूर्ण भारत एवं विश्व के लगभग सभी महत्वपूर्ण स्थलों के दर्शन करने में सहायक हुए हैं | देश में अंडमान-निकोबार, बस्तर, काश्मीर, उत्तरपूर्व की आदि जातीय जीवन की जिस बारीकी से समीक्षा की, वह भाषा, शैली एवं काव्य की दृष्टि से बहुत सुंदर है | इंग्लैंड, जापान, जर्मनी, चेकोस्लोवाकिया आदि देशों में भारतियों द्वारा जिया जा रहा जीवन, उन देशों की सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक जीवन का गहरा विश्लेषण एवं उनका भारतीय संदर्भ में विवेचन साहित्यिक कृति के स्तर पर उच्च कोटि के दस्तावेज़ हैं |”2

गोविंद मिश्र को लोक-संस्कृति के प्रति लगाव है | यह गुण उनके जीवन, व्यक्तित्व और साहित्य में कदम-कदम पर मिलता है | ख़ासकर उनके यात्रा-साहित्य में यह तत्व खूब उभरा है | वैसे भी अन्य विधा की अपेक्षा यात्रा-साहित्य में लोक-संस्कृति का निरूपण महत्वपूर्ण तत्व है | क्योंकि आज “सूचना प्रौद्योगिकी ने वैश्विक-ग्राम की कल्पना को साकार किया है, जिसके फलस्वरूप लोकसंस्कृति का आदान-प्रदान स्वाभाविक रूप से होता गया | लोक जीवन के आचार-विचार, रहन-सहन, खान-पान, रीति-रिवाज, वेशभूषा-केशभूषा, उत्सव, पर्व, त्यौहार, नृत्य-संगीत और लोक-व्यवहार के विविध रूपों में परिवर्तन होता गया | यह परिवर्तन सही-गलत तथा अच्छाई-बुराई जैसे रूपों में स्पष्ट झलकने लगा है | जिसके परिणामस्वरूप समाज की न्याय-प्रियता, आचरण की पवित्रता, मानव संवेदना, सहिष्णुता, सुसंस्कृतता, भावात्मकता, मानवीयता, आत्मीयता, दया, प्रेम, शांति, सहानुभूति, स्नेह, विश्वास जैसे जीवन मूल्य ध्वस्त हो गए | बदले में उदासीनता, अनाकर्षण, कठमुल्लापन, ताण-तनाव, बाजारूपन, वासनांधता, घिनौनापन, अमानवीयता, कामुकता, भोगवाद, पारंपरिक जकड़न, सभ्यता, अंधश्रद्धा, बखौलापन, अपवित्रता, असहिष्णुता, अन्याय, अत्याचार, अनाचार जैसी कुप्रवृत्तियाँ समाज में पनपती गई | ऐसी नकारात्मक कुप्रवृत्तियों को सकारात्मक बनाने में लोक-संस्कृति के मूल्यों का अध्ययन स्वाभाविक ही नहीं बल्कि अनिवार्य बन जाता है |”3 गोविंद मिश्र के यात्रा-साहित्य से गुजरते हैं तो इस बात का पता चलता है | उनके तमाम यात्रा-वर्णन लोक-संस्कृति का परिचय देते हैं |
‘धुंधभरी सुर्खी’ तथा ‘दरख्तों के पार… शाम’ में विदेशी लोक संस्कृति का परिचय मिलता है | ‘झूलती जड़ें’ में उन्होंने भारत के विविध अंचलों की अर्थात स्वदेशी लोक-संस्कृति का निरूपण किया है तो ‘परतों के बीच’ में स्वदेशी और विदेशी लोक-संस्कृतियों का वर्णन है | ‘धुंधभरी सुर्खी’ ब्रिटेन और यूरोप का लेखा-जोखा प्रस्तुत कर समाज का सांस्कृतिक परिचय रोचक और सजीव ढंग से दिया है | इस ग्रंथ की ख़ासियत यह कि लेखक ने सीधे रूप से सामाजिक स्तर पर दो जातियों एवं दो संस्कृतियों का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है | एक ओर दिल्ली के हवाई अड्डे पालम से लेकर लंदन के हीथरो हवाई अड्डे तक की यात्रा और प्राकृतिक सौंदर्य का यथार्थ वर्णन किया है तो लंदन के ख्यात स्थलों का आँखों देखा वर्णन किया है | स्वयं मिश्र जी का मत है कि “लेखक का जहाँ तक अपनी रचना से रिश्ता होता है, वहाँ एक तो जो भोगा हुआ है, उसका या जीवन का महत्व है | जिस चीजों ने उसे करीब से छूआ होगा, उनमें ज्यादा ताकत आएगी, ज्यादा वेग होगा, तनाव भी एकदम सीधा-सादा उतरेगा |”4 स्थान से प्रभावित होकर वर्णन करते हुए मिश्र जी लिखते हैं, “हिन्दुस्तानी शायद गरीब ही रहता है… यहाँ आकर और भी गरीब हो जाता है, वह चाहे मैं होऊँ या पढ़ने के लिए आया हुआ कोई नौजवान |… मैं यह सब तोड़ना चाहता हूँ |… किसी भी नई जगह के देखने के तरीके हो सकते हैं |… मुझे अपने ढंग से इंग्लैंड को ढूँढना है |… यह भी जानता हूँ कि बहुत ही योजनाबद्ध तरीके से चलने पर मैं सिर्फ इंग्लैंड कि बड़-बड़ी चीजों को देखकर लौट जाऊंगा, इस देश कि आत्मा में नहीं पैठ पाऊँगा |”5

गोविंद मिश्र की यत्र-तत्र दृष्टव्य तुलनात्मक दृष्टि में दो बातें उभरती हैं | एक लोक-संस्कृति के प्रति लगाव; दूसरी, आधुनिक सभ्यता और संस्कृति का विरोध | उनके वर्णनों का आशय कहता है कि आधुनिकता के कारण भारतीय जीवन मूल्यों और आदर्शों की अवमानना हुई है | नैतिक मूल्यों में गिरावट लाने वाली आधुनिक सभ्यता और संस्कृति के प्रति अतिवादी आग्रह लेखक को कतई पसंद नहीं | इसलिए स्वदेशी-विदेशी संस्कृति की दिशाहीनता, पतनोन्मुखता और नैतिक मूल्यों में आई गिरावट को उन्होंने खुले दिल से कहा है | अनेक उपशीर्षकों द्वारा प्रस्तुत ‘दरख्तों के पार… शाम’ यात्रा-वर्णन यूरोप के अंचलों की लोक-सांस्कृतिक यात्रा है | यह लेखक द्वारा ‘इंडियन काउंसिल ऑफ कल्चरल रिलेशन के तत्वावधान में आयोजित यूरोपीय देशों का सफ़र है | अत: यहाँ सांस्कृतिक स्थितियों का निरूपण ख़ास बन पड़ा है |

‘झूलती जड़े’ में आठ यात्रा लेखों में भारत के विभिन्न क्षेत्रों का लोक-सांस्कृतिक वर्णन है | लेखक ने मध्यप्रदेश के बस्तर आदिवासी जन-जीवन और उसके सामाजिक-सांस्कृतिक पहलुओं को स्थान दिया है | “‘परतों के बीच’ यात्रा-वर्णन में अच्युतन राजा की न्याय-व्यवस्था, विजयनगर के राजा की सुरक्षा-व्यवस्था, गुजरात राज्य में मकर-संस्कृति के अवसर पर अहमदाबाद और सूरत में होने वाला पतंग पर्व का सामूहिक जश्न, उस पर्व में होने वाली विभीषिका, गाँधी धाम और शेष कच्छ में होने वाला परंपरा और आधुनिकता का अंतर, आसाम में अहंकारी राजा की डर से उस समाज में लड़कियों को बदसूरत करने की प्रथा, बालविवाह पद्धति, प्राचीन वास्तुकला में होनेवाला हिन्दू-मुस्लिम समन्वय, ट्रिनिडाड एवं रूस के सैर का अनुभव, विदेशी लोगों की उदार नीति, साहित्य तथा साहित्यकारों के प्रति होने वाली आत्मीयता, प्रेम-भावना, सहानुभूति, शांति, उत्सुकता, युवा पीढ़ी का संगीत-नृत्य, सेक्स का माहौल आदि का सूक्ष्म निरीक्षण रहस्यमयी आत्मिक गर्माहट के साथ प्रस्तुत हुआ है |”6 अर्थात ‘परतों के बीच’ में देश-विदेश के प्राकृतिक स्थानों के साथ-साथ लोक-जीवन का परिदृश्य भी अंकित हुआ है |
स्वदेशी समाज और लोक-संस्कृति का चित्रण करने में मिश्र जी सफल हैं | उन्होंने मध्यप्रदेश के बस्तर के जीवन की छोटी-बड़ी हलचल को अपने कैमरे में उतारा है | वे लिखते हैं, “हफ्ते में एक दिन किसी खास जगह बाज़ार लगता है, जहाँ आस-पास के लोग खरीददारी के लिए जाते हैं | शहर और तहसील के आस-पास के बाज़ारों में रुपया-पैसा चल पड़ा है, पर भित्री इलाकों में अब भी चीजों का आदान-प्रादान की खरीदी-बिक्री है | ज़्यादातर आदमी-औरतें कपड़े पहनने लगे हैं, पर लौकी की तुमड़ी में सल्फी (ताड़ी जैसा पेय) हर तीसरे आदमी के पास होगी | जहाँ कहीं बैठे पत्तों में सुड़कते भी दिखते हैं | दिलचस्प चीज यह है कि अब आदिवासी नवयुवक-नवयुवतियाँ भी जीप, कार या ट्रक से लिफ्ट मांगते दिखते हैं |”7 आदिवासी लोगों के लिए मेला मौज-मस्ती का खास अवसर है |

विविध सामाजिक परम्पराओं का चित्रण लेखक ने आकर्षक ढंग से किया है | उनके वर्णन इतने सशक्त हैं कि पाठक की आँखों के सामने वे सजीव हो उठते हैं | विवाह पद्धति का मशहूर वर्णन बखूबी बन पड़ा है | आदिवासी लड़कियों के नृत्य की पद्धति बताते हुए कदमों की लयबद्धता को चित्रित किया है | परंपरा का वर्णन करते हुए वे लिखते हैं, “यहाँ विवाह के पहले लड़कियों को काफी स्वतन्त्रता है, लेकिन एक बार बांध जाने के बाद अब यह जिस के साथ चाहे नहीं बैठ सकती | अगर पति छूटकर आ गया और उसे पता चला तो खून-खराबा होगा |… ब्याह तय होते ही लड़के वाला लड़की वाले के यहाँ सल्फी या कोई और दारू, कम-से-कम दो गायें, एक बकरी, एक मुर्गा और एक सूअर भेजता है |”8 आदिवासी लड़कियों को विवाह के पहले आज़ादी होती है और विवाह के बाद उन्हें सामाजिक बंधनों का निर्वाह करना पड़ता है | देवी-देवताओं के प्रति इस समाज की मान्यताएँ भी अचरजभरी हैं |
अच्युतन राजा की न्याय-व्यवस्था का वर्णन वर्तमान राजनेताओं को विचार करने पर मजबूर करने वाला सिद्ध है | मिश्र जी के यात्रा-वर्णन इस अर्थ में भी राष्ट्र को सर्वांगी रूप से उन्न्त करने में सहायक हैं | यहाँ उनके ‘परतों के बीच’ में वर्णित घटना उचित है | विजयनगर के राजा ने अपनी रानियों की सुरक्षा के लिए अनेक योजनाएँ बनायी थीं | इस संदर्भ में मिश्र जी लिखते हैं, “पास में ही ग्यारह कमरों की एक और कतार है | चूंकी यह भीतर के गार्डन्स से मिलते-जुलते हैं, इसलिए यह अनुमान लगाया जाता है कि यह रानियों के गार्डों के रहने के लिए ही होगा |”9 संक्रांति के दिन आसमान में पतंगबाजी के पर्व के जरिए सारे सारा शहर सामूहिक जश्न मनाता है | लेखक ने बताया है कि अहमदाबाद के इस पर्व में हिंदू और मुस्लिम शामिल होकर आनंद लेते हैं | लेकिन आज-कल इस पर्व के बहाने सांप्रदायिक दंगे होते हैं और यह वृत्ति प्रोफेशनल गुंडों द्वारा होती है | देखिए, “पूरा शहर पतंग उड़ा रहा था तो जाहिर था उसमें हिन्दू-मुसलमान भी थे |… फिर भी अहमदाबाद में जो पिछले वर्षों से सांप्रदायिक दंगे होते रहे हैं | आदमी अपनी नीचता में कितना शातिर होता है कि पतंगों के खेल को जो अहमदाबाद को जोड़ने का काम करता है, उसी से कटुता से कटुता के बीच उठाकर उड़ता है और उन्हें जगह-जगह बिखेरता है |”10 यहाँ लेखक का प्रयोजन सामाजिक सद्भावना को मजबूत करना रहा है | आज “सब ओर आतंकवाद, नक्सलवाद, भाषावाद, प्रांतवाद, भाई-भतीजावाद पनप रहा है | ऐसी भयावह परिस्थितियों में मनुष्य का लक्ष्य उन लोक-सांस्कृतिक मूल्यों की ओर आकर्षित होना स्वाभाविक है; जो सदियों से विश्व-मानवता के संरक्षक रहे हैं | यात्रा का इतिहास जितना पुराना है उतना मानव समाज | यात्रा मानव के निराश एवं निरस जीवन को आनंद देती है | जीवन के प्रति आस्थावान बना देती है और नए सिरे से जीवन जीने की प्रेरणा भी… | यात्रा मानव मन की जिज्ञासा तथा कौतूहलवर्धकता को तृप्त कर देती है और मनुष्य के अनुभव को समृद्ध भी कर देती है |”11

गोविंद मिश्र प्रशासनिक क्षेत्र के यायावरी अधिकारी रहने के कारण उन्हें विदेशी समाज और उसकी संस्कृति का अनुभव हुआ, जो उनके यात्रा-वर्णनों में चित्रित है | ‘धुंधभरी सुर्खी’ में इंग्लैंड के समाज की वृत्ति और संस्कार निरूपित हैं | उन्हें असहायता दिखाने में नहीं; परिश्रम में सुख-चैन है | भारत और विदेश की तुलना करते हुए वे बताते हैं, “ट्यूब स्टेशनों पर आते-जाते यहाँ के लोगों के चेहरे और हिंदुस्तान में इसी तरह दफ्तर से लौटते हुए चेहरे जो बसों की लंबी लाईन में लगे होते हैं या बस के आने की दिशा की ओर ताकते हुए इंतजार करते होते हैं या बस में घुसने के लिए बाकायदे कुश्ती लड़ते हैं-दोनों ही मेरे सामने हैं | यहाँ आना-जाना दिल्ली के मुक़ाबले आसान है, जबकि भारत में वह एक खास जोखिम है… फिर भी वहाँ चेहरों पर वह बदहवासी नहीं दिखती जो यहाँ है |”12 दूसरा यह कि विदेशों में अकेलेपन की प्रवृत्ति ज्यादा है |

विदेश में साहित्य और साहित्यकारों का सम्मान होता है | अरे, उनके स्मारक भी बनते हैं | दांपत्य-जीवन में तनाव और गिरावट वहाँ खूब है | पारिवारिक सम्बन्धों में टूटन के किस्से तो मिश्र जी ने खूब निरूपित किए हैं | स्त्री-पुरुष के गहरे आकर्षण की जगह वहाँ समलैंगिकता और लैसबियनिज़्म की प्रवृत्ति बढ़ रही है | विदेश में शराब और सैक्स को एकदम सहज लिया जाता है | लड़के-लड़कियाँ रात बड़ी देर तक नशे में डूबे रहते हैं | देखिए, “शाम होटल के बारे में बीती | फिर एक ओर चीनी रेस्तरां में खाना | लौटकर टेलीविज़न देखता रहा | रात दस बजे के बाद होटल के नीचे तहखाने में शराब और संगीत का शोर शुरू हो गया था | कुछ-कुछ वैसा ही जैसा क्वींस बरो होटल लंदन में था |”13 पढ़ाई के लिए विदेश जाने वाली लड़कियाँ पढ़ाई के साथ-साथ अपने जिस्म का सौदा भी करती हैं | जर्मन जैसे देश में यह वृत्ति खूब देखने मिलती है | वहाँ इस बात के लिए कोई बंधन नहीं | कमाई और पढ़ाई दोनों साथ-साथ करती हैं | “सिर्फ बीच-बीच में मेडिकल परीक्षण होता है ताकि मामला साफ-सुथरा रहे |”14 विदेशी जिंदगी मशीनी जिंदगी है | मशीन आदमी के जिस्म में बैठ गई है | वहाँ के आदमी की हरकतें भी पुर्जों के समान बन रही हैं | इस प्रकार मिश्र ने विदेशी समाज, संस्कृति, लोक-संस्कृति का इतना वैविध्यभरा और रोचक वर्णन किया है जिसके बारे में लिखने बैठे तो बड़ा ग्रंथ होने की संभावना है | अत: यहाँ लोक-संस्कृति को उजागर करने वाले प्रसंगों को प्रतीक रूप रखा है |
कुलमिलाकर गोविंद मिश्र का यात्रा-साहित्य सिर्फ स्वदेश-विदेशी लोक-संस्कृति को जानने-पहचानने और यात्रा करने की इच्छा जागृत करना मात्र नहीं है | उसमें भारतीय संस्कृति, भारतीय दर्शन एवं भारतीय अध्यात्म का समर्थन है | उनके “यात्रा साहित्य में प्रस्तुत लोकसंस्कृति मानव जीवन की कुसंगतियों, विसंगतियों, कुप्रवृत्तियों के साथ-साथ कुकर्मों को नष्ट कर जीवन को उत्कर्ष एवं उन्नयन के साथ-साथ सत्कर्म का मार्ग वरण करती है इसमें संदेह नहीं |”15 उसमें समाज को सही दिशा निर्देश के साथ-साथ मृत्युलोक को अमर करने का उपक्रम भी है |

संदर्भ-संकेत :
1. डॉ॰ प्रमिला त्रिपाठी, गोविंद मिश्र और उनकी साहित्य साधना, पृ॰ प्रस्तावना से उद्धृत
2. वही, पृ॰ प्रस्तावना से उद्धृत
3. डॉ॰ प्रकाश मोकाशी, यात्रा साहित्यकार गोविंद मिश्र, पृ॰ फ्लैप से
4. गोविंद मिश्र, लेखक की जमीन, पृ॰ 14
5. गोविंद मिश्र, धुंधभरी सुर्खी, पृ॰ 13
6. डॉ॰ प्रकाश मोकाशी, यात्रा साहित्यकार गोविंद मिश्र, पृ॰ 24
7. गोविंद मिश्र, झूलती जड़ें, पृ॰ 13
8. वही, पृ॰ 16
9. गोविंद मिश्र, परतों के बीच, पृ॰ 16
10. वही, पृ॰ 31
11. डॉ॰ प्रकाश मोकाशी, यात्रा साहित्यकार गोविंद मिश्र, पृ॰ फ्लैप से
12. गोविंद मिश्र, धुंधभरी सुर्खी, पृ॰ 48
13. वही, पृ॰ 147
14. गोविंद मिश्र, दरख्तों के पार… शाम, पृ॰ 48
15. डॉ॰ प्रकाश मोकाशी, यात्रा साहित्यकार गोविंद मिश्र, पृ॰ फ्लैप से
डॉ॰ सोमाभाई पटेल
हिंदी विभागाध्यक्ष,
नीमा गर्ल्स आर्ट्स कॉलेज, गोझारिया-384470
जिला : मेहसाना (उ॰ गुजरात) |
चलभाष : 9429226037