हिंदी में 1980, बाद दलितों द्वारा रचित अनेक आत्म-कथानक साहित्य आईं, जिनके कुछ नाम इस प्रकार हैं _ मोहनदास, नैमिशराय, ओमप्रकाश, बाल्मीकि, सूरजपाल, चौहान आदि । 1999 में दलित पत्रिका का प्रकाशन हुआ, इसके बाद दलित उपन्यासों की रचना हुई । इतना ही नहीं, हिंदी साहित्य का दलित विमर्ष की दृष्टि से पुनर्पाठ भी आरम्भ हुआ, जिसके परिणाम स्वरूप, भक्ति-साहित्य को नई दॄष्टि से व्याख्यापन किया गया ।
दलित स्त्री को इस सामन्ती व्यवस्था में गाँव के भू मालिको एवं संपन्न वर्ग द्वारा दलित महिलाओं के प्रति जुल्म व दुर्व्यवहार होते आए हैं। ‘थमेगा नहीं विद्रोह’ उपन्यास में तीन महिलाओं के साथ बलात्कार होता है जिस में अबोध चावली, रामबती गंगा की बहु आदि। इनके साथ दुष्कर्म भी होता है और एखाद हत्या भी कर दी जाती है। इस तरह अपराध जगण्य और क्रूरतम अपराध है।
दलित साहित्य की एक निश्चित विचारधारा है, जो समता, स्वतंत्रता और बंधुता को स्थापित करती है। दलित साहित्य अम्बेडकरवादी और फूले (ज्योतिबा फूले) की विचारधारा पर आधारित है।
दलित महिलाओं का शोषण सर्वाधिक हुआ है लेकिन साहित्य की मुख्यधारा में उनका जीवन अनुपस्थित रहा है, मुख्यधारा की बात छोडिए दलित साहित्य में भी वह पर्याप्त प्रतिनिधित्व की भागीदार नहीं बन पाई है।
महिला आत्मकथाकारों में कौशल्या बैसंत्री की ‘दोहरा अभिशाप’ एवं सुशीला टाकभौरे की ‘शिकंजे का दर्द’ उल्लेखनीय है। पुरुष लेखक की तुलना में दलित लेखिकाओं की आत्मकथाएं उतनी मात्र में उपलब्ध नहीं है। भारतीय वर्ण व्यवस्था के तले दलित स्त्रियाँ ने मानसिक एवं शारीरिक पीड़ा की दोहरी मार सही है। प्रस्तुत लेख में कौशल्या बैसंत्री कृत ‘दोहरा अभिशाप’ और सुशीला टाकभौरे कृत ‘शिकंजे का दर्द’ आत्मकथाओं में अभिव्यक्त व्यथा का चित्रण किया गया है।
समकालीन हिंदी साहित्य में दलित और स्त्री साहित्य की दो ऐसी धाराएँ प्रवाहित हो रही हैं जो हमारे समाज के मूलभूत और पुरातन प्रश्नों के उत्तर देने का प्रयत्न कर रही हैं। बहुत हद तक दलितों के सामने वही चुनौतियाँ हैं जिनका ग्रामीण और शहरी भारत के निर्धन सामना करते हैं। जीवनयापन की समस्या का सामना प्रत्येक जाति और वर्ग के निर्धन को करना पड़ता है लेकिन साथ ही साथ यह भी तथ्य हमारे सामने है कि अन्य जातियों के मुकाबले दलित जातियों में निर्धनता ज्यादा गहराई से पैठी हुई है। गरीबी के अलावा छुआछूत, आंतरिक सोपानीकरण, नव-ब्राह्मणवाद, रूढि़वादी मानसिकता, भाग्यवाद इत्यादि कुछ ऐसे केंद्रीय समस्याएँ हैं जिन्हें दलित समाज के समग्र विकास में प्रमुख अवरोधक माना जा सकता है।