उत्कृष्ट व्यंग्य रचनाओं का बेहतरीन संकलन
राहुल देव
उत्कृष्ट व्यंग्य रचनाएँ (दो खण्डों में)/ व्यंग्य संकलन/ सं. प्रेम जन्मेजय/ 2017/ यश पब्लिकेशन, नई दिल्ली/
व्यंग्य को सुशिक्षित मस्तिष्क के प्रयोजन की विधा मानने वाले वरिष्ठ व्यंग्यकार एवं संपादक प्रेम जन्मेजय के कुशल संपादन में यश पब्लिकेशन, नई दिल्ली से ‘उत्कृष्ट व्यंग्य रचनाएँ’ शीर्षक से दो खण्डों में आया व्यंग्य संकलन है | संपादक द्वारा पूर्व में सम्पादित ‘बीसवीं शताब्दी व्यंग्य रचनाएँ’ में इक्कीसवी शताब्दी की व्यंग्य रचनाओं को भी सम्मिलित करते हुए उसे संशोधित करते हुए परिवर्धित रूप में प्रकाशक द्वारा सुरुचिपूर्ण ढंग से प्रकाशित किया गया है |
आज जिस तरह हमारे जीवन में उत्तर आधुनिकता ने प्रवेश कर लिया है | चहुओर विसंगतियां-विडम्बनाए बिखरी पड़ी हैं | व्यंग्यकार का दायित्व आज पहले से कहीं ज्यादा है कि क्या वह सही विषयों को चुनकर उन्हें व्यंग्य रचना के रूप में आत्मसात कर साहित्यिक रूप दे पाता है या नही | व्यंग्य अखबारी सूचना या सम्पादकीय टीप जैसा न लगे इन तमाम बिन्दुओं की तरफ से भी सावधान रहने की जरुरत है | ऐसे में साहित्यिक रचनाओं का विशेषकर व्यंग्य जैसी अनिवार्य विधाओं की महत्ता से इंकार नही किया जा सकता | व्यंग्य अब मात्र एक शैली न रहकर स्वतंत्र विधा के रूप में विकसित होकर प्रथिष्ठित हो चुका है | व्यंग्य लिखने वाले बढ़े हैं | पत्र-पत्रिकाओं में व्यंग्य निरंतर छपा-पढ़ा जा रहा है | परिमाण के बरक्स उसकी गुणवत्ता एक अलग आलोचनात्मक पहलू है लेकिन ख़ुशी की बात है कि पाठकों की प्रिय विधा जिसकी कि हिंदी साहित्य में एक श्रेष्ठ परम्परा रही है निरंतर आगे की ओर गतिमान है | प्रेम जी द्वारा सम्पादित ‘व्यंग्ययात्रा’ पत्रिका का इसमें एक बड़ा योगदान है | वे निरंतर व्यंग्य की बेहतरी के लिए चिंतित और सतत लगन के साथ कार्य करते दिखाई देते हैं | उनकी मेहनत इस संकलन में भी दिखाई पड़ती है |
हिंदी व्यंग्य की स्थिति पर सम्पादक की एक जरूरी भूमिका इस संकलन के महत्त्व को बढ़ा देती है | इसमें उन्होंने हिंदी व्यंग्य को लेकर अपने मौलिक विचार प्रस्तुत किये हैं | हिंदी व्यंग्य ने अपना सही आकार स्वतंत्रता के बाद ही लेना शुरू किया | सम्पादक हास्य को व्यंग्य से अलग रखकर देखने के हिमायती हैं उन्हें लगता है कि हास्य का आग्रह व्यंग्य के असर को कमज़ोर करता है | उनका मानना है कि हास्य व्यंग्य की आवश्यकता नही है | इसी तरह विधा और शैली के प्रश्न पर अब आलोचकों के मध्य शायद कोई दो राय नही होनी चाहिए कि व्यंग्य लेखन की एक विधा ही है | हिंदी व्यंग्य और उसकी आलोचना को लेकर उठने वाले इस तरह के तमाम प्रश्नों के उत्तर प्रेम जी ने अपने विस्तृत सम्पादकीय में तलाशे हैं |
संकलन के 472 पृष्ठीय पहले खंड को 6 खण्डों में बांटा गया है जिसे नींव, उत्प्रेरक, आधार के रचनाकारों के बाद पहली पीढ़ी, दूसरी पीढ़ी, तीसरी पीढ़ी में बांटा गया है जिसमें कुल 90 व्यंग्यकारों के एक-एक व्यंग्य दिए गये हैं | इसी तरह 464 पृष्ठीय द्वितीय खंड को चौथी पीढ़ी, पांचवीं पीढ़ी तथा सहयोग शीर्षक तीन उपखंडों में विभाजित किया गया है जिसमें कुल 119 व्यंग्यकारों को लिया गया है | पुस्तक में शामिल व्यंग्यकारों के व्यंग्य मुख्यतः सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, मनोवैज्ञानिक, साहित्यिक, नैतिक एवं धार्मिक जीवन के विषयों की विसंगति को प्रस्तुत करते हैं | इस संकलन में हिंदी व्यंग्य के इतिहास को किस वैज्ञानिक आधार पर पीढ़ियों में विभाजित किया गया है यह स्पष्ट नही होता | पीढ़ियों के अंतर्गत रचनाकारों के ज्यादातर चयन संपादक ने अपनी समझ के आधार पर किये हैं | संकलन में कई लेखक ऐसे हैं जो कि अपनी रचनाशीलता के आधार पर अपने से पिछली या अगली पीढ़ी में जा सकते थे | तो वहीँ संकलन में द्वितीय खंड में कई लेखक आज ऐसे हैं जो व्यंग्य की राह छोड़कर किसी अन्य विधा में रचनारत है या जो अब लिख ही नही रहे | संभवतः एक बड़े आयोजन की सम्पादकीय सीमाओं के कारण ऐसा हुआ हो | लेखक की सूची में आज के परिदृश्य को देखते हुए पर्याप्त संशोधन की गुंजाईश दिखाई पड़ती है जिसे उम्मीद की जानी चाहिए कि अगले संस्करणों में ठीक कर लिया जाएगा | इधर नई सदी में कई बेहतरीन युवा व्यंग्य लेखकों का आगाज़ हुआ है जिन्होंने निरंतर अपने अच्छे व्यंग्य लेखन से सबका ध्यान आकृष्ट किया है उनकी रचनाशीलता को भी ऐसे स्थायी महत्त्व के संकलनों में स्थान मिलना चाहिए | फिर भी कुछेक सीमाओं के बावजूद एक बड़े समयांतराल की श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाओं को एक जगह पर एकत्रित करने के संपादक के इस प्रयास की सराहना होनी चाहिए | कुल मिलाकर यह संकलन हिंदी व्यंग्य के पाठकों, शोधार्थियों के लिए उपयोगी तथा संग्रहणीय है | हिंदी व्यंग्य से पाठक के परिचय, उसे एक जगह निकट से जानने समझने के लिए यह एक महत्त्वपूर्ण संकलन है |
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