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बौद्ध धर्म और थेरी गाथाएँ –स्त्री मुक्ति का युगांतकारी दस्तावेज़: डॉ हर्ष बाला शर्मा

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Buddha statue
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बौद्ध धर्म और थेरी गाथाएँ –स्त्री मुक्ति का युगांतकारी दस्तावेज़

डॉ हर्ष बाला शर्मा 
असिस्टेंट प्रोफ़ेसर(वरिष्ठ प्रवक्ता)
इन्द्रप्रस्थ कॉलेज 
दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली

यह आलेख थेरी कही जाने वाली स्त्रियों द्वारा गाए गए गीतों (जिनकी भाषा मूलत: पालि है) के भीतर छिपे उनके साहस और उनकी अन्तर-वेदना की खोज प्रस्तावित करता है. प्राय: प्राचीन भारत के सन्दर्भ में गार्गी, अहल्या और लोमशा के जिक्र के पश्चात स्त्रियों के स्वर विशेषकर साहसी स्वर की चर्चा नहीं मिलती| यहाँ भाषा के स्तर पर भी एक परिवर्तन दृष्टव्य है| जब तक संस्कृत उच्च वर्ग की भाषा के रूप में स्थापित रहती है तब तक स्त्री तथा अन्य वर्णों का प्रवेश उस भाषा के भीतर नहीं होता ज्यों-ज्यों भाषा वैदिक रूप से लौकिक रूप की ओर अग्रसर होती है त्यों त्यों स्त्री तथा अन्य वर्णों के रचनाकार भाषिक संसार में प्रवेश करते दिखाई देते हैं| थेरी गाथाओं के अंतर्गत 73 थेरियों द्वारा गाए गए गीतों का संग्रह है जिसमें ब्राह्मण से लेकर निम्नतम वर्ण की स्त्रियों के उदाहरण हैं| कुछ कष्टों से घबराकर, कुछ परिवार द्वारा जबरन तो कुछ समस्त सुखों को छोड़कर स्वयं अपनी इच्छा से संघ में दीक्षित हुईं| कभी इन स्त्रियों की उपस्थिति को अवांछनीय माना गया तो कभी चमत्कारी! परन्तु ये स्त्रियाँ समस्त आलोचना सहकर भी संघ को छोड़ने के लिए तैयार नहीं हुईं|

यहाँ कई प्रश्न एक साथ उत्पन्न होते हैं—-

प्रथम यह कि क्या ये स्त्रियाँ सचमुच शिक्षित थी जो अपनी बात को लेखन में अभिव्यक्त कर सकीं?

यदि नहीं तो थेरी गाथाओं का संकलन किसके द्वारा किया गया? यदि हाँ तो शिक्षित समाज में स्त्रियों के संघ में प्रवेश को लेकर किस प्रकार की प्रतिक्रिया हुई?

महात्मा बुद्ध स्वयं स्त्रियों के संघ में प्रवेश को लेकर सहज नहीं थे, ऐसे में हम सब जानते हैं कि आनंद द्वारा बुद्ध से इस प्रवेश की अनुमति ली गई. फिर इतना साहस इन स्त्रियों के भीतर किस प्रकार मिलता है कि वे अपनी बात को न केवल सुस्पष्ट शब्दों में कह सकीं बल्कि अर्हत बनने की योग्यता भी हासिल कर सकीं?

80 ई.पू. त्रिपिटक में इसका लिखित रूप मिलता है. क्या उससे पूर्व ये गीत मौखिक साहित्य में प्रचलित रहे होंगें? मौखिक साहित्य के रूप में उपलब्ध ये गीत क्या सचमुच इन स्त्रियों के लिए समय काटने का साधन रहे होंगे अथवा जैसा कि ये थेरियाँ बार-बार कहती हैं— सुमुत्तिका सुमुत्तिका साधु मुत्तिकाम्हि तो क्या वे वास्तव में मुक्ति के स्वरूप को पहचान चुकी थीं|

थेरी गाथाओं के भीतर समाज, परिवार, दास प्रथा, वेश्यावृत्ति से लेकर समपूर्ण सामाजिक- आर्थिक प्रणाली को देखने की जिन दृष्टियों का विकास किया गया है, उनका इस प्रपत्र में अध्ययन किया गया है| लगभग 73 थेरियों के 522 गीतों के भीतर की दुनिया में प्रवेश करने का यह एक छोटा सा प्रयास है जिसमें थेरियों के माध्यम से उस समय की सामाजिक संरचना को समझा जाएगा, साथ ही संघ के प्रति थेरियों के दृष्टिकोण को भी समझने की कोशिश होगी क्योंकि आश्चर्यजनक रूप से इन स्त्रियों ने जिस संघ को मुक्ति के दस्तावेज के रूप में स्वीकार किया, आवश्यकता पड़ने पर उस संघ की भी आलोचना करने से भी उन्होंने परहेज नहीं किया|

इस साहस की और संघर्ष की उस यात्रा को मैं रेखांकित करना चाहती हूँ जिसने आने वाले युग में स्त्रियों को रचने और सोच का साहस प्रदान किया| यह भी रेखांकित करने की आवश्यकता है कि समस्त साहस पाश्चात्य शास्त्र से ही प्राप्त नहीं होता, थेरी स्त्रियाँ भारत की स्त्रियों के प्रयास और दमघोटूं वातावरण से निकलने के प्रयास की भी प्रतीक हैं जिन्हें रेखांकित किया जाना चाहिए|

की-वर्ड्स –थेरी-गाथा, थेरियाँ, गीत, संघ, मुक्ति, हिन्दी भाषा, पाली साहित्य, सामाजिक मुक्ति, साहस,प्रतीकात्मकता, त्रिपिटक

आलेख

किसी भी काल को समझने के लिए दो दृष्टियाँ सहायक होती हैं—एक जो उस काल और परिस्थिति से उपजी हैं और दूसरी जो लम्बे संघर्ष के दौरान निर्मित हुई है. दोनों की दृष्टियों की अपनी सीमाएं और संभावनाएं हैं परन्तु इन दोनों को मिलाजुला कर इतिहास ही एक समझ तैयार की जा सकती है|

स्त्री मुक्ति और अभिव्यक्ति की चर्चा सर्वप्रथम थेरी गाथाओं में मिलती है| महात्मा बुद्ध की इच्छा न होने पर भी आनन्द द्वारा बल दिए जानेके कारण इन स्त्रियों को संघ में प्रवेश प्राप्त हो सका| इसकी रचना को लेकर भी इतिहासकारों में मत-मतांतर है| न्यूमेन का मनना है कि थेरी गाथाओं की रचना स्त्री समाज द्वारा नहीं बल्कि पुरुषों द्वारा की गई है! बाद में कैथरीन ब्लैक स्टोन ने सिद्ध किया कि ये रचनाएँ स्त्रियों की है| क्षमा शर्मा ‘औरतें और औरतें’ नामक पुस्तक में लिखती हैं—“स्त्रियों को जब-जब अपनी बात कहने का मौका मिला है, उसने पूरी निडरता और साहस से अपनी बात को रखा है. भिक्षुणियों द्वारा ढाई हजार साल पहले लिखी गई ये गाथाएँ इस बात की प्रमाण हैं कि स्त्रियों के मन में अपनी स्थितियों को लेकर काफी असंतोष रहा होगा”1

कुल 73 थेरियों के संवाद इस ग्रन्थ में समाहित हैं तथा कुल 522 गाथाओं का संकलन किया गया है. थेरियों की पहचान और प्रशंसा का मूल मन्त्र पालि में लिखित उनके वे उदगार हैं जहाँ वे सामाजिक मुक्ति के लिए संघर्ष करती हुई नजर आती है| थेरियों की इन कथाओं के केंद्र में मुक्ति का प्रश्न है—यह ध्यातव्य है कि मूसल से मुक्ति हो या सांसारिक राग द्वेष के दुश्चक्र से, स्त्रियाँ इससे मुक्ति के लिए लगातार संघर्ष कर रही हैं—सामाजिक दृष्टि से ये स्त्रियाँ ब्राह्मण वर्ग से लेकर दास और शूद्र समाज से भी हैं परन्तु उच्च से निम्न तक उनकी दशा और दिशा में कोई भिन्नता नहीं दिखाई देती-थेरी समाज की स्त्रियाँ अधिकांशत: ब्राह्मण वर्ग से आती हैं—वैदिक धर्म के प्रति अनास्था तथा पारिवारिक स्थितियों के भीतर दमघोंटू वातावरण के प्रति विरोध भाव से भरकर ये स्त्रियाँ बौद्ध धर्मं के प्रति आकर्षित होती हैं| इन गाथाओं में मार( काम)के प्रति विरोध भाव भी मिलता है तथा मार के साकार रूप में आकर इन स्त्रियों को प्रलोभित करने के प्रसंग भी मिलते हैं—–

प्रसंगत: यह विचार करना उचित ही होगा कि ऐसे प्रलोभन स्त्रियों के समक्ष किसी मार ने तो नहीं परन्तु समाज के उन लोलुप पुरुषों ने ही रखे होंगे जो उनके रूप और यौवन पर अधिकार की चेष्टा कर रहे थे| यह अंदाज लगाना कतई कठिन नहीं कि अनेक रूपवती स्त्रियाँ स्वयं अपनी इच्छा से नहीं बल्कि उन तथाकथित मार(कामी पुरुष) से बचने और अपनी रक्षा करने में असमर्थता बोध से घिर कर भी संघ में प्रव्रजित हुई थीं, तथा अपने भीतर की इच्छाओं को सांसारिक तृष्णा मानकर उसका त्याग भी अचानक किसी विशेष क्षण में नहीं किया बल्कि मन को समझाने में एक लम्बे समय तक संघर्ष किया तब उन सांसारिक कहे जाने वाले मार्ग से वे स्वयं को मुक्त कर सकी|

दूसरी संख्या उन स्त्रियों की है जो पति अथवा संतान को खोकर अथवा अपने किसी प्रिय के मृत्यु शोक से विह्वल होकर संघ की ओर आकर्षित हुई अथवा मुक्ति के लिए आई| पटाचारा का उल्लेख अर्हत्व प्राप्त थेरी के रूप में मिलता है| यदि पृष्ठभूमि की ओर दृष्टिपात किया जाए तो संतानों और पति की मृत्यु के पश्चात् स्वगृह की ओर रोती – बिलखती जाती स्त्री को माता-पिता की मृत्यु की भी सूचना मिलती है| विह्वलता के इन चरम क्षणों में उसे बुद्ध की वाणी में शान्ति प्राप्त होती है!

इस सन्दर्भ में दो कथाओं की चर्चा अत्यंत महत्वपूर्ण है— एक कथा श्रावस्ती के श्रेष्ठि कुल की कन्या-उत्पल वर्णा तथा दूसरी वैशाली की नगरवधू आम्रपाली|

यह स्वयं में अत्यंत शोचनीय और विचारणीय तथ्य है कि आम्रपाली(अम्बपाली) की सुन्दरता से अभिभूत होकर वैशाली के राजकुमारों ने उससे विवाह करने की इच्छा जाहिर की| यह इच्छा इतनी बलवती हो गई कि परस्पर कलह की स्थिति उत्पन्न हो गई| इस कलह से मुक्ति पाने के लिए पंचायत ने निर्णय सुनाया कि राजकुमारों के मध्य परस्पर कलह चूंकि समाज के हित के लिए उचित नहीं इसलिए आम्रपाली को सभी की समान्य पत्नी( उप पत्नी-वेश्या) बना दिया गया!—‘सब्बेसं होतु’ आम्रपाली को गणिका बनाने के लिए कितना सरल तथ्य! समाज ने उस स्त्री की इच्छा और अनिच्छा को जाने बिना पितृसत्ता का कितना भयावह प्रयोग किया? आम्रपाली के सम्बन्ध में यह विचार भी किया जाना चाहिए कि उसे अपने शरीर से वितृष्णा बुद्ध के प्रव्रज्या सन्देश मात्र से हुई अथवा इतने पुरुषों द्वारा उसके शरीर के निरंतर उपभोग के कारण !

आम्रपाली लिखती है—

एदिसो अहू अयं समुस्स्यो, जज्जरो बहुदुखानमालयो /सोपलेप पतितो जराघरो….”

अर्थात एक समय यह शरीर सौन्दर्ययुक्त और शक्तिवान था, आज यह जर्जर और अनेक दुखों का घर है| आज वर्ष 2017 में इस तथ्य की उपेक्षा नहीं की जा सकती कि धर्म में दीक्षित होने के अतिरिक्त इन स्त्रियों के समक्ष और कोई रास्ता नहीं था! बौद्ध धर्म का वैशिष्ट्य उस संदर्भ में रेखांकित करना आवश्यक है कि इस धर्म ने उन स्त्रियों के लिए मार्ग बंद नहीं किए जिन्हें समाज ने या तो पतित मान लिया था अथवा पतित कर दिया था| यहाँ बौद्ध धर्मं में भी आनन्द की भूमिका और अधिक क्रांतिकारी रही होगी जिसने बुद्ध से तर्क करके भी स्त्रियों के लिए धर्म में स्वीकृति दिलवाई|

दूसरी स्त्री श्रावस्ती के श्रेष्ठि कुल की कन्या उत्पल-वर्णा है| इस कन्या की उम्र विवाह योग्य होने पर राजकुमारों ने इसके पिता को सन्देश दिए कि ‘उत्पलवर्णा को हमें दे दो’| धन और सम्मान होते हुए भी पिता सभी राजकुमारों को संतुष्ट करने में असमर्थ था( कितना भयावह होगा वह समाज जहाँ स्त्री के पास अपना सम्मान बचाने के लिए धर्म में दीक्षित होने के अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं था) ऐसे में उस स्त्री के समक्ष प्रव्रज्या के अतिरिक्त कौन सी राह थी? उत्पल-वर्णा ने दीक्षा ली और ऋद्धि प्राप्त भिक्षुणियों में अग्रणी मानी गई| बुद्धि की तीक्ष्णता से ही उसे यह योग्यता प्राप्त हुई होगी, यह कहने की आवश्यकता नहीं! सौन्दर्य और बुद्धि की योग्यता से पूर्ण यह स्त्रियाँ जीवन और सुख न चाहती रही हों, ऐसा प्रतीत नहीं होता परन्तु समाज के यौनाचार के समक्ष प्रव्रज्या लेने के अतिरिक्त कोई और राह इनके समक्ष दिखाई नहीं देती|

संघ में प्रव्रज्या लेने के पश्चात् भी ये स्त्रियाँ समाज की दूषित निगाहों से निरंतर बच सकी हों, ऐसा प्रतीत नहीं होता! परन्तु अपने अर्हत्व, बुद्धि और विश्वास के बल पर इस थेरियों ने उन कामी पुरुषों (जिन्हें मार कहकर सम्बोधित किया गया है) की कुटिल दृष्टि का सामना किया|

एक बड़ी संख्याँ उन स्त्रियों की है- जिन्होंने पारिवारिक त्रासदी के पश्चात संघ में दीक्षा ग्रहण की| पटाचारा अर्हत्व प्राप्त थेरियों में अत्यंत विशिष्ट मानी जाती है पर दीक्षा से पूर्व का जीवन उसके लिए अत्यंत कष्टकारक रहा| पारिवारिक मान्यताओं के विरोध में अपने घर के सेवक से विवाह करने का साहस जुटाने वाली स्त्री के रूप में वह सामाजिक और पारिवारिक कष्टों का सामना करती है –पति, सन्तान, माता पिता, भाई की मृत्यु कुछ ही दिनों के अन्तराल में होने से उसने अनेक कष्टों का सामना किया| अंतत: संघ में दीक्षित होकर उसने मन और मस्तिष्क को नियंत्रित किया| कथा सुनने में जितनी सरल लगती है—उससे अधिक आत्मपीडन और कष्ट की है| मन पर बुद्धि का नियंत्रण करने वाली ये स्त्रियाँ यदि वास्तव में ऐसा करने में सक्षम हो सकीं तो यह अत्यन्त आश्चर्य का विषय है| ऐसा नहीं कि बुद्धि पर व्यंग्य इन स्त्रियों को न सुनने पड़े हों— एक स्थान पर सोमा को सम्बोधित करते हुए मार(पितृसत्ता का प्रतीक) कहता है—

यं तं इसीहि पत्त्ब्बं ठानं दुरभि संभवं /न तं द्वयन्गुलपन्न्य, सक्का पप्पोतुमित्थिया ति | अर्थात जो स्थान ऋषियों को भी दुर्लभ है उसे दो अंगुली मात्र ज्ञान वाली स्त्री कैसे प्राप्त कर सकती है? यह उदाहरण मात्र सोमा के सन्दर्भ में नहीं बल्कि पुरुष समाज के स्त्री के प्रति दृष्टिकोण के सन्दर्भ में पढ़ा जाना चाहिए| इस अंगुली मात्र को स्पष्ट करते हुए भरत सिंह उपाध्याय लिखते हैं—“ सात-आठ वर्ष की अवस्था से ही स्त्रियाँ भात पकाना शुरू कर देती हैं किन्तु भात कब पाक गया, इसका वे ठीक से निर्णय तक नहीं कर सकती| जब तक दो-एक चावल हाथ से उठाकर अपनी आँखों से नहीं देख लेतीं| इसलिए उनकी प्रज्ञा को दो अंगुलि मात्र कहा गया है”2

ऐसे विचार आज भी देखने के लिए मिल जाते हैं पर सोमा उस युग और काल में भी जब स्त्रियों की शिक्षा दीक्षा के उदाहरण नहीं मिलते, मार का न केवल सामना करती है बल्कि प्रज्ञा को स्त्री-पुरुष संदर्भ से परे सिद्ध करती है| इस कथन के आलोक में यह कहना और स्वीकार करना अत्यन्त कठिन है कि ये स्त्रियाँ शिक्षित नहीं थी! सोमा का उत्तर है—

इत्थिभावो नो कि कयिरा चित्तम्ही सुसमाहिते…सम्मा धम्म विपस्ततो अर्थात स्त्री और पुरुष होना ज्ञान प्राप्ति से किस प्रकार सम्बद्ध है?

इसी प्रकार पूर्णा का उदाहरण भी समय और युग के सन्दर्भ में अत्यंत क्रांतिकारी है जहाँ वह एक ब्राह्मण से तर्क-वितर्क करते हुए उसे जल में स्नान करने से शुद्धि प्राप्त करने के संदर्भ में मार्ग दर्शाती है| उसका स्पष्ट मत है कि यदि जल में स्नान करने से मुक्ति मिले और पाप समाप्त हो जाएँ तो सभी पशु और पशु समान कर्म करने वाले मनुष्यों के लिए भी मुक्ति प्राप्त करना कितना सरल होगा! ब्राह्मण उसके मत से प्रभावित होकर न केवल संघ में दीक्षा लेता है बल्कि अब आचरण और कर्म के आधार पर स्वयं को ब्राह्मण स्वीकार भी करता है… पुन: इस बात पर बल देना होगा कि मुक्ति के पथ प्रदर्शन को भले ही धार्मिक पुस्तकों में मात्र बुद्ध की कृपा से इन स्त्रियों को ज्ञान प्राप्त होनी की चर्चा की गई है परन्तु मेरा स्पष्ट मत है कि बिना शिक्षा और आत्मिक ज्ञान के मुक्ति और ज्ञान का ऐसा समन्वय देखना सम्भव नहीं! यह स्त्रियाँ मुक्ति के सौन्दर्य का अनुभव कर चुकी हैं, इसीलिए तो मुत्ता थेरी कहती है—

So freed! So thoroughly freed am I! —

from three crooked things set free:

from mortar, pestle,

& crooked old husband.

Having uprooted the craving

that leads to becoming,

I’m set free from aging & death.3

मात्र कुबड़े पति से मुक्त होने की चर्चा नहीं बल्कि जीवन-मरण से भी मुक्ति का यहाँ उल्लेख है| आगे अपभ्रंश साहित्य में भी हमें इस इस मुक्ति का विकास दिखता है—मुंडे मुंडे मुंडिया /सिर मुंडे चित्तहु मुंडिया/चित्त्त्हम मुण्डनं जिम कियु /संसार हम खंडनं तिम कियु ….. चित्त की जिस मुक्ति के लिए संसार साधना करता आया है, ये थेरियाँ उसी मुक्ति का आस्वाद प्राप्त कर चुकी हैं—बुद्ध के सौजन्य से? अथवा भीतरी अंतर-राग-विराग से मुक्त होकर? अथवा संसार के प्रति भाव शून्य होकर? जो भी हो परन्तु आत्म पीड़ा से पर पीड़ा तक का साक्षात्कार करने वाली इन थेरियों के जीवन से स्त्री समाज का वह इतिहास आरम्भ होता दिखाई देता है जिसकी सिद्धि को पश्चिम का आभार न मानकर भारतीय परम्परा में देखे जाने की आवश्यकता है| यह लेख उसी दिशा में एक विनम्र प्रयास है|

ऐसी अनेक थेरी स्त्रियों की चर्चा यहाँ की जा सकती है जिन्होंने कभी समाज को ज्ञान का सन्देश दिया तो कभी कामी पुरुषों से मुक्ति पाने के लिए स्वयं का ही अंग-भंग कर लिया| शुभा नाम की थेरी ने भ्रष्ट युवक के समक्ष समर्पण करने की अपेक्षा अपने नेत्र भंग करने को बेहतर मार्ग माना| सुमेधा अपनी इच्छा से प्रव्रजित हुई, कृशा पुत्र की मृत्यु के पश्चात पीड़ित और विह्वल होकर बुद्ध की शरण में गई, अनुपमा ने अपने तोल के बराबर आठ गुना सोना और रत्न पुरुषों से लेने की अपेक्षा संघ में दीक्षा लेना स्वीकार किया|

यह उदाहरण स्त्री संघर्ष की कथा कहते हैं—जिस समाज में स्त्री की देह-यष्टि के अतिरक्त कोई उपयोगिता न समझी गई वहाँ स्त्रियों ने न केवल प्रज्ञा सिद्धि प्राप्त की बल्कि कामी पुरुषों से लेकर सभ्य कहे जाने वाले समाज को भी मार्ग दिखाया| अभिरूपा नंदा जैसे उदाहरण भी मिलते हैं जिसे होने वाले पति की मृत्यु के कारण प्रव्रज्या लेने पर विवश किया गया! महाप्रजापति गौतमी ने इन स्त्रियों को दीक्षा दी और पटाचारा की भी अनेक शिष्याएँ बनीं| गुरु शिष्य परम्परा से बनी ये स्त्रियाँ आने वाले न जाने कितने युगों और सदियों के लिए प्रेरणा स्रोत बनी रहेंगीं| साथ हेई इतिहास में झाँक कर देखने के लिए भी विवशा करेंगी कि अक्सर लिखित शब्दों के परे साहित्य कुछ वाचिक प्रतिध्वनियों का भी निर्माण करता है,जिसके लिए शब्दों के भीतर झांक कर देखना भी जरूरी है|

धन्यवाद

सन्दर्भ ग्रन्थ:

1 .औरतें और औरतें, क्षमा शर्मा, पृष्ठ 34

2 . थेरी गाथा, भरत सिंह उपाध्याय, पृष्ठ 57

3 . http://www.accesstoinsight.org/tipitaka/kn/thig/thig.01.00x.than.html#sutta-3

4 . सभी पालि उदाहरण उपरोक्त पुस्तक से

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महिलाओं की भूमिका-सुबोध कुमार गुप्ता

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2 people riding horses on brown sand during daytime
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भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महिलाओं की भूमिका

सुबोध कुमार गुप्ता
शोधार्थी
इतिहास विभाग 
टी.एम. भागलपुर विश्वविद्यालय, भागलपुर
इमेल- mr.subodhkumar2012@gmail.com
मोबाईल- 9939743304

आजादी की लड़ाई में महिलाओं ने न सिर्फ अंग्रेजों से जमकर लोहा लिया बल्कि क्रांति की जो आग लगाई उसी से घबड़ाकर अंग्रेजों ने अपने कदम पीछे हटाए.

इतिहास के पन्नो को पलटते हुए ज्यों-ज्यों हम पीछे जायेंगे महिलाओं के साहस से भरी कई कहानियाँ हमारे देश के गौरव को बढ़ाती दिखाई दे जाएगी. भारतीय वीरांगनाओं का जिक्र किए बिना 1857 से 1947 तक की स्वाधीनता की दास्तान शायद अधूरी रह जाएगी. यह भारत की नारी ही थी जिन्होंने अंग्रेजों को लोहे के चने चबवा दिए.

राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी स्वतंत्रता आन्दोलन में महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका को रेखांकित करते है. उन्होंने परतंत्र भारत से आह्वाहन किया था कि देश को आज़ाद कराने के लिए माताएं, बहिने सामने आये.

हम इतिहास उठाकर देखें तो ज्ञात होता है कि स्वतंत्रता आन्दोलन की सुगबुगाहट सन् 1857 से पहले ही आरंभ हो चुकी थी. इस सुगबुगाहट को विचारों और कर्तव्यों से पुष्ट करने के उत्तर दायित्व को महिलाओं ने निभाया था. सर्वप्रथम स्वतंत्रता की जंग लड़ने वाली स्त्रियों में बेगम हजरत महल का नाम आता है. बेगम युद्ध क्षेत्र का दौरा हाथी पर सवार होकर करती जिससे अंग्रेज चिढ़ जाते. इनकी सेना का नाम भी मुक्तिसेना था जिसने अंग्रेजों की लखनऊ रेजीडेंसी को घेर लिया था. लखनऊ पर जब अंग्रेजों ने अपना अधिपत्य जमा लिया तो वे नेपाल से भी सेना संचालन करती रही. स्वतंत्रता की भावना उनके भीतर कैसी थी, बेगम हजरत की कविता से ज्ञात हो जाता है:-

साथ दुनिया ने न दिया न मुकद्दर ने दिया,

रहने जंगल ने कब दिया जो शहर ने न दिया,

एक तमन्ना थी कि आज़ाद वतन हो जाए,

जिसने जीने दिया न चैन से मरने न दिया,

जमीन से आग बुझाने ये घटा उमड़ी थी,

हाँ, मगर उल्टी हवाओं ने ठहरने न दिया,

बिखर चला वो काफिला मकामें बौडी से,

चाल दुश्मन की कुछ ऐसी कि उभरने न दिया,

जुल्म की आंधियाँ बढ़ती रही लम्हा-लम्हा,

फिर भी परचम को आसमा से उतरने न दिया.

इतिहास में और पीछे चले तो एक और नाम सुनने को मिलेगा, वह नाम है वर्ष 1824 में फिरंगियों भारत छोड़ों का बिगुल बजाने वाली कित्तूर (कर्नाटक) की रानी चेनम्मा का.

जिन्होंने रणचंडी का रूप घरकर अपने अदम्य साहस व फौलादी संकल्प की बदौलत अंग्रेजी से छक्के छुड़ा दिए.

रायगढ़ की रानी अवंती बाई ने अंग्रेजों की नीतियों से चिढ़कर उनके विरुद्ध संघर्ष का ऐलान कर दिया और मंडला के खेटी गाँव में मोर्चा जमाया. उन्होंने अंग्रेज सेनापति वार्टर के घोड़े के दो टुकड़े कर दिए और उसके वो छक्के छुड़ाए कि वार्टर रानी के पैरों पर गिरकर प्राणों की भीख मांगने लगा.

रानी ने उसे माफ़ तो किया पर फिर उसी के हाथों धोखा खा गई. फिर उन्होंने जंगलों में रहते हुए सैन्य संचालन किया. जब ऐसा लगा कि अब तो अंग्रेजों की विशाल सेना से समक्ष समर्पण करना ही होगा. तो उन्होंने समर्पण करने के बजाय तलवार अपने सीने में उतार ली और प्राणोंत्सर्ग किए.

वीरांगनाओं की सूची को आगे बढ़ाये तो मुग़ल सम्राट बहादुर शाह जफ़र की बेगम जीनत महल का नाम भी सामने आएगा जिन्होंने दिल्ली और आस-पास के क्षेत्रों में योद्धाओं को संगठित किया और देश प्रेम का परिचय दिया.

“खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी|” अस्त्र-शस्त्र चलाने में माहिर रानी लक्ष्मी बाई नाना साहेब और तात्या टोपे के कुशल निर्देशन में साहसी रानी की परवरिश हुई थी.

“मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी” एस कथन का उद्धोष करने वाली रानी लक्ष्मी बाई ने अंग्रेजों की जमकर खबर ली थी. झाँसी का नेतृत्व करते हुए रानी लक्ष्मी बाई तमाम विपरीत परिस्थितियों के होते हुए भी कर्तव्य पथ से विमुख नहीं हुई. अपने छोटे से पुत्र को पीठ पर बाँधकर एक हाथ से घोड़े की रास संभाले तथा एक हाथ से तलवार भांजती रानी की तस्वीर आँख के सामने उभर जाती है. रानी को केवल अंग्रेजों का ही नहीं अपने ही भू-भाग के अन्य राजाओं का भी विरोध झेलना पड़ा था जो अंग्रेजों से मिले हुए थे या जिनकी झाँसी पर नजर थी. रानी लक्ष्मी बाई ने महिलाओं की एक अलग टुकड़ी- “दुर्गा दल” बनायी हुई थी. इसका नेतृत्व कुश्ती, घुड़सवारी और धनुर्विधा में माहिर झलकारी बाई के हाथों में था. झलकारी बाई ने कसम उठायी थी, कि जब तक झाँसी स्वतंत्र नहीं होगी, न ही मैं श्रृंगार करुँगी और न ही सिंदूर लगाऊँगी. अंग्रेजों ने जब झाँसी का किला घेरा तो झलकारी बाई जोशो-खरोश से साथ लड़ी. चूँकि उसका चेहरा और कद-काठी रानी लक्ष्मी बाई से काफी मिलता जुलता था, सो जब उसने रानी लक्ष्मी बाई को घिरते देखी तो उन्हें महल से बाहर निकल जाने को कही और स्वयं घायल सिंहनी की तरह अंग्रेजों पर टूट पड़ी और शहीद हो गई. कानपुर 1857 की क्रांति का प्रमुख गवाह रहा है. पेशे से तवायफ अजीजन बाई ने यहाँ क्रांतिकारियों की संगत में 1857 की क्रांति में लौ जलाई. 01 जून 1857 को जब कानपुर में नाना-साहेब ने नेतृत्व में तात्या टोपे, अजीमुल्लाह खान, बाला साहेब, सूबेदार टीका सिंह और शमसुद्दीन खान क्रांति की योजना बना रहे थे, तो उनके साथ उस बैठक में अजीजन बाई भी थी. इन क्रांतिकारियों की प्रेरणा से अजीजन ने मस्तानी टोली के नाम से 400 महिलाओं की एक टोली बनाई जो मर्दाना भेष में रहती थी. बिठुर के युद्ध में पराजित होने पर नाना साहेब और तात्या टोपे तो पलायन कर गए लेकिन अजीजन पकड़ी गई. युद्ध बंदी के रूप में उसे जनरल हैवलॉक के समक्ष पेश किया गया. जनरल हैवलॉक उसके सौन्दर्य पर रीझे हुए बिना न रह सका और प्रस्ताव रखा कि यदि वह क्षमा माँग ले तो उसे माफ़ कर दिया जायेगा. किन्तु अजीजन ने प्रस्ताव ठुकरा दिया और पलट कर कही कि माफ़ी तो अंग्रेजों को माँगनी चाहिए, जिन्होंने इतने जुल्म ढाये. इतने पर आग बबूला हो हैवलॉक ने अजीजन को गोली मारने के आदेश दे दिए. क्षणभर में अजीजन को गोली मार दी गई. कानपुर के स्वाधीनता संग्राम में मस्तानी बाई की भूमिका भी कम नही है. सौंदर्य कि मल्लिका मस्तानी बाई अंग्रेजों का मनोरंजन करने के बहाने उनसे ख़ुफ़िया जानकारी हासिल करती थी.

यह भी कम ही लोगो को पता होगा कि बैरकपुर में मंगल पाण्डेय को चर्बी वाले कारतूसों के बारे में सर्वप्रथम मातादीन ने बताया और मातादीन को इसकी जानकारी उसकी पत्नी लज्जों ने दी. लज्जों अंग्रेज अफसरों के यहाँ काम करती थी, जहाँ उसे यह सुराग मिला कि अंग्रेज गाय की चर्बी वाले कारतूस इस्तेमाल करने जा रहे है. इतना ही अगर यह कहा जाए कि 1857 की जंग की चिंगारी भड़काने और उसे हवा देने का काम नारीशक्ति ने किया तो यह भी अतिश्योक्ति नहीं होगी.

ऐसी ही वीरांगना ऊदा देवी थी, जिन्होंने पीपल के घने पेड़ पर छिपकर लगभग 32 अंग्रेज सैनिकों को मार गिराया. अंग्रेज असमंजस में पड़ गए और जब हल-चल होने पर कैप्टन वेल्स ने पेड़ पर गोली चलायी तो ऊपर से एक मानवाकृति गिरी. नीचे गिरने से उसकी लाल जैकट का उपरी हिस्सा खुल गया, जिससे पता चला कि वह महिला है. उस महिला का साहस देख कैप्टन वेल्स की आँखे नम हो गई, तब उसने कहा कि यदि मुझे पता होता कि वह महिला है तो मैं कभी गोली नहीं चलाता. नाना साहेब की पुत्री नैना देवी के त्याग को भला कौन विस्मृत कर सकता है? मैना को क्रांति का एक महत्वपूर्ण कार्य सौपा गया था. एक दिन मैना अंग्रेजों के द्वारा पकड़ ली गई. उसे बहुत प्रताड़ना दी गई वह अपने साथियों के नाम बता दें. किन्तु मैना देवी ने नहीं बताया. परिणामतः मैना देवी को अंग्रेजों ने जिन्दा जला डाला था. ऐसी कितनी वीरांगनाएँ है जिनका नाम तक इतिहास को पता नहीं है, पर इन सब लोगों ने अपना मूक त्याग किया है. इतना ही नहीं, अपरोक्ष रूप से अपने कपड़े जेवर आदि के द्वारा सिपाहियों को सहयोग देने वाली स्त्रियों को तो हम नामवार जानते भी नहीं है. खाना, कपड़ा देना ही नहीं सैनिकों के लिए कपड़े सिलना, बुनना भी एक महत्वपूर्ण प्राथमिक कार्य था जिसे महिलाओं ने देश की आजादी के लिए किया.

इतिहास गवाह है कि महिलाओं ने समय-समय पर अपनी बहादुरी और साहस का प्रयोग कर पुरुषों के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर चली है, आजादी की लड़ाई में जो महिलाएं बढ़-चढ़ कर हिस्सा ली है उसमें सावित्री बाई फूले, दुर्गा बाई देशमुख, अरुणा आसफ अली, सुचेता क्रिपलानी, विजय लक्ष्मी पंडित, कमला नेहरु, सरोजनी नायडी, कस्तूरबा गाँधी, मैडम भिकाजी कामा, एनी बेसेंट, डॉ० लक्ष्मी सेहगल के नाम को भुला नहीं जा सकता.

गाँधी की आजीवन संगिनी कस्तूरबा की पहचान सिर्फ यह नहीं थी, आजादी की लड़ाई में उन्होंने हर कदम पर अपने पति का साथ दी थी. आजादी की लड़ाई में पर्दें के पीछे रहकर सराहनीय कार्य की. कस्तूरबा गाँधी तथा कमला नेहरु के संघर्ष भी तो बेहद महत्वपूर्ण थे. इनका त्याग मूक था. इंदिरा गाँधी ने जब अंग्रेजों के विरुद्ध लोहा लेना चाही तो उनकी टोलको वानर सेना का नाम दिया गया जो विदेशी कपड़ो की होली जलने में सहयोगी सिद्ध हुई.

इतिहास के पन्नो में न जाने ऐसी कितनी दास्तान है, जहाँ वीरांगनाओं ने अपने साहस और जीवटता के दम पर अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए. 1857 की ग़दर में भारतीय महिलाओं में गजब की देश भक्ति देखने को मिली. अंग्रेजों की गुलामी से देश को आजाद कराने में न जाने कितने महिलाओं ने जान की बजी लगा दी अपना लहू बहायी और शहीद हो गई.

आजादी के 69 वर्षों के बाद भी भारतीयों के दिलों में उन वीरांगनाओं के लिए इज्जत कम नहीं हुई है, जिन्होंने भारत को आजाद करवाने में अहम भूमिका निभाई थी इन वीरांगनाओं से जुडी सम्मान, साहस और देशभक्ति की कहानियाँ आज भी हमारी आँखों को नम कर देती है.

भूमंडलीकरण और स्त्रीविमर्श-पूजा तिवारी

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two girl holding umbrella while walking beside graffiti
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‘भूमंडलीकरण और स्त्रीविमर्श’

 पूजा तिवारी 
शोधार्थी
हिंदी विभाग
हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय

”स्त्री के अधिकारों की चर्चा करने पर पूछा जाता है कि वह किस राष्ट्र की नागरिक है? उसका धर्म, उसकी जाति, उसका सम्प्रदाय क्या है? इन सवालों का जवाब यह है कि नारीवाद को राष्ट्रीय सीमा में बंद नहीं किया जा सकता.”[1]

– प्रभा खेतान

प्रभा खेतान के उपरोक्त कथन से स्पष्ट है कि नारीवाद या स्त्री विमर्श किसी एक देश विशेष की पूँजी नहीं है बल्कि यह सम्पूर्ण विश्व की स्त्रियों की मुक्ति का दस्तावेज है. यह मुक्ति है पितृसत्तात्मक सोच से मुक्ति, परम्परा से मुक्ति और उस बने-बनाये ढांचे से मुक्ति जिसमें स्त्रियों को सदैव पुरुषों की दासी के रूप में देखा गया है.

भूमंडलीकरण बीसवीं शताब्दी की ऐसी घटना है जिसने समस्त विश्व को आर्थिक दृष्टिकोण प्रदान किया. प्रत्येक वस्तु, प्रत्येक विमर्श यहाँ तक कि मनुष्य को भी आर्थिक दृष्टि से देखा जाने लगा. कह सकते हैं भूमंडलीकरण ने दुनिया को ‘अर्थ’ नामक चश्मा दिया जिससे सभी को यह विश्व बाज़ार जैसा दिखने लगा. इसी बीच भूमंडलीकरण के साथ-साथ ‘उदारीकरण’ और ‘निजीकरण’ की अवधारणा ने भी जन्म लिया. इस तिकड़ी ने विश्व के विभिन्न देशों के पारस्परिक सम्बन्ध को व्यापक रूप में प्रभावित किया. व्यापार और आर्थिक आदान-प्रदान ने संस्कृतियों, भाषाओँ, समाजों, कलाओं आदि के आदान-प्रदान का भी मार्ग प्रशस्त किया. किन्तु इस सत्य से मुंह नहीं फेरा जा सकता कि विकसित देशों की अपेक्षा भूमंडलीकरण से विकासशील देश अधिक प्रभावित हुए. इस प्रभाव के साथ विकासशील देशों में विकसित देशों की विचारधारा भी आयातित हुई.

तीन शब्द उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण आपस में जुड़कर आधुनिक समाज के प्रतीक ही बन बैठे हैं. किन्तु जिस आर्थिक सन्दर्भ में इन तीन शब्दों विशेषकर भूमंडलीकरण को देखा जाता है उससे भिन्न भी इसके कई आयाम हैं. 90 के दशकों में भूमंडलीकरण केवल ‘अर्थव्यवस्था’ का ही नहीं हुआ बल्कि विचारों, समाजों, साहित्यों और संस्कृतियों का भी हुआ. भूमंडलीकरण की प्रक्रिया विश्व के विभिन्न समाजों से रिसती परिवर्तित और विकसित सोच का परिणाम रही है. इस प्रक्रिया को विभिन्न विद्वानों ने विभिन्न चरणों में विकसित होते हुए देखा है. वस्तुतः इसकी प्राचीनता ग्रीक और रोमन सभ्यताओं के दौरान व्यापार के लिए निर्मित ‘सिल्क रूट’ तक देखी जाती है. यह भूमंडलीकरण का प्रथम दौर था जिसमें एक-दूसरे देश को जानने की प्रक्रिया चल रही थी. दूसरा दौर, औद्योगीकरण और तकनीकी विकास का है. इस दौर में, विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय कम्पनियों की स्थापना और उनके स्थापित होते आपसी आर्थिक सम्बन्ध को देखा जा सकता है. तीसरा और समकालिक दौर ‘व्यक्तिगत भूमंडलीकरण’ का है जिसने विश्व के व्यक्ति विशेष के विचार को प्रभावित किया. इस चरण में मानव किसी एक स्थान, गाँव, शहर या देश या प्रदेश का नहीं बल्कि सम्पूर्ण विश्व का हो गया और समस्त विश्व उसके लिए एक घर की तरह है. इस तरह ‘ग्लोबल विलेज’ की अवधारणा ने जन्म लिया. यह ‘ग्लोबल’ अब ‘लोकल’ हो गया और जो कुछ भी ‘लोकल’ था वह ‘ग्लोबल’ हो गया.

भूमंडलीकरण के सन्दर्भ में प्रभा खेतान का मानना है,”भूमंडलीकरण तो वह बिजली है जिससे आपका घर रौशन भी हो सकता है और आपके घर में आग भी लग सकती है.”[2] यह वाक्य भूमंडलीकरण के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पक्षों को दिखाता है. भूमंडलीकरण को किसी एक दृष्टिकोण विशेष से देखने पर उसके अन्य पक्षों से वंचित रह जाने की समस्या बनी रहती है. थॉमस फ्रीडमेन ने भूमंडलीकरण शब्द का स्पष्टीकरण करने के लिए ‘ल्क्सेस’ यानी कीमती गाड़ी और ‘ऑलिव ट्री’ अर्थात् परम्परा और उसके मूल्य की उपमा दी.[3] प्रत्येक व्यक्ति भूमंडलीकरण के दौर में ल्क्सेस यानी विलासिता चाहता है और विलासिता रुपी गाड़ी चलाने के लिए नये रास्ते बनाने के लिए परम्परा रुपी ऑलिव ट्री को काटना पड़ता है. इस परम्परा का त्याग ही भूमंडलीकरण की सबसे बड़ी विशिष्टता है.

भूमंडलीकरण ने स्त्री विमर्श को भी इसी परम्परा के त्याग का मार्ग दिखाया. 1960-70 के दौरान स्त्रियों को एक जुट करने के उद्देश्य से ‘सिस्टरहुड इज पावरफुल’ का नारा दिया गया. यह सिस्टरहुड की भावना भूमंडलीकरण के साथ-साथ बढ़कर ‘स्त्रीविमर्श’ का रूप लेती चली गयी. स्त्रियों के अस्तित्व या यों कहें पुरुष के साथ सहस्तित्व की अवधारणा की स्थापना करने वाला स्त्री विमर्श अब स्त्री की स्वतंत्र आर्थिक सत्ता की मांग करने लगा. हालाकि ममता कालिया का मानना है,”संसार में जब से स्त्री के जीवन और संघर्ष पर विचार प्रारभ हुआ, तब से नारी विमर्श आरम्भ हुआ.”[4] किन्तु विश्व के विभिन्न स्थानों पर स्त्री के हित में किये जा रहे आन्दोलनो ने विचारधारा के स्तर पर उतरकर धीरे-धीरे ‘स्त्री विमर्श’ का रूप बहुत बाद में धारण किया. स्त्री विमर्श की अवधारणा को रोहिणी अग्रवाल कुछ इस तरह से स्पष्ट करती हैं, ”हिंदी में विमर्श शब्द अंग्रेजी के discourse शब्द से आया है जिसका अर्थ है वर्ण्य विषय पर सुदीर्घ एवं गंभीर चिंतन. इस प्रकार स्त्री विमर्श का अर्थ है स्त्री को केंद्र में रखकर समाज, संस्कृति, परम्पराएँ और इतिहास का पुनरीक्षण करते हुए स्त्री की स्तिथि पर मानवीय दृष्टि से अनवरत विचार प्रक्रिया…स्त्री विमर्श स्त्री चेतना के प्रसार का आख्यान है.”[5]

स्त्री विमर्श का स्वरूप इस भूमंडलीकरण के दौर में काफी परिवर्तित हुआ है. जहाँ पहले यह स्त्री के अधिकारों, उसे एक मानव का दर्जा दिए जाने, उसे पुरुष के समान मानने के लक्ष्य को लेकर चल रहा था, वहीँ भूमंडलीकरण के विभिन्न चरणों से गुजरते हुए इसके उद्देश्यों में परवर्तन हुआ. संवैधानिक समानता के लक्ष्य को तो प्राप्त कर लिया गया किन्तु व्यवहारिक समानता से स्त्रियाँ अभी भी वंचित हैं. तसलीमा इस सम्बन्ध में लिखती हैं,” नारी वाद एक राजनीतिक थ्योरी और प्रेक्टिस है जो औरत को मुक्त करने के संग्राम में लिप्त है…नारीवाद की एक आसान संज्ञा है,”औरत भी इन्सान है’ यह बात जोर देकर कहना. ‘फेमेनिजम इज अ रेडिकल नोशन दैट विमेन आर ह्यूमन बीइंग.”[6]

नव उदारतावाद, उत्तर आधुनिकतावाद, अंतर्राष्ट्रीयकरण से बहु- राष्ट्रीयकरण की ओर बढ़ते समाज में स्त्रियों की स्तिथि में परिवर्तन तो हुआ है किन्तु यह अभी भी संतोषजनक स्तिथि तक नही पहुँच सका है. 1995 में स्त्रियों पर आयोजित पेइचिंग कॉन्फ्रेस में यूनिसेफ के निदेशक नालिन हाइज़र ने कहा कि दुनिया के 1.3 अरब लोग नितांत गरीब हैं. इसमें स्त्रियों की संख्या 70 प्रतिशत है. जबकि स्त्री दुनिया के कामकाज के घंटों में दो-तिहाई समय काम करती है. लेकिन दुनिया की आय से उसे केवल एक बटे दसवां भाग ही मिलता है. दुनिया की सारी संम्पत्ति के एक बटे दसवें भाग की ही वह मालकिन है.”[7] 10 वर्ष बाद यह तो कहा जा सकता है कि इन आंकड़ों में परिवर्तन हुआ है किन्तु यह परिवर्तन विश्व की आधी आबादी को उसके आधे हिस्से तक पहुँचाने में अभी भी सफल नही हो सका है. संयुक्त राष्ट्र संघ की स्त्रियों की स्तिथि पर आधारित 2015 की रिपोर्ट के अध्ययन करने पर यह साफ़ पता चलता है कि अभी भी इस सन्दर्भ में बहुत सी खामियां और बहुत कुछ किया जाना बाकी है. तभी निर्धारित ‘मिलेनियम डेवलपमेंट गोल’ को प्राप्त किया जा सकता है. इस सर्वे आधारित रिपोर्ट के अनुसार अभी भी विश्व में औरतों की आमदनी पुरुषों से 24 प्रतिशत कम हैं जबकि औरतें पुरुषों से दो तिहाई अधिक काम करती हैं. उनके काम करने का क्षेत्र पुरुषों की अपेक्षा असंगठित है जिसके कारण उनको कोई नियमित आय भी नहीं प्राप्त होती. दूसरी ओर, यद्यपि विश्व की विभिन्न संसद में महिलाओं की भागीदारी 22 प्रतिशत तक पहुँच गयी है किन्तु यह एक तिहाई से अधिक कहीं भी नहीं है. स्पष्ट है, राजनीतिक निर्णय में स्त्रियों की भागीदारी बढ़ाने से समाज कतरा रहा है. स्त्री शिक्षा का स्तर भी सुधरा है किन्तु अंतर अभी भी बाकी है. जहाँ युवाओं (स्त्री एवं पुरुष) की शिक्षा 1990 में 83 प्रतिशत थी वहीँ 2010 तक यह 89 प्रतिशत पहुँच चुकी है. किन्तु यह प्रश्न बार-बार उठता है कि यह अंतराल क्यों रह जा रहा है? वर्त्तमान स्त्री विमर्श ने इस अंतराल की तह में जाने और उसके लिए पर्याप्त विचार और चिंतन करने का मार्ग प्रशस्त किया है. और अनुराधा बेनिवाल के शब्दों में देखें तो पुरुष सबसे पहले सहूलियत प्राप्त करने का माहौल अपने लिए बनाता है इसलिए स्त्रियाँ सदैव पीछे रह जाती हैं.अनुराधा बेनीवाल के शब्दों में, ”सहूलियत के अनुसार सबसे पहले आदमी ढलता है, संस्कृति का बोझ औरतों को सौंपकर. फिर धीरे-धीरे महिलाएं भी बदलती हैं, लड़-झगड़कर.”[8]

वैश्वीकरण के स्त्री के सन्दर्भ में कुछ सकारात्मक तो कुछ नकारात्मक पक्ष नजर आते हैं. वैश्वीकरण ने भौतिकतावादी समाज का प्रचार किया. इस भौतिकतावादी समाज, ने स्त्री को वस्तु और बाज़ार बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. स्त्री विमर्श स्त्री समता के जिस उद्देश्य को लेकर चला था वह अभी भी बना हुआ है क्योंकि समाज का स्वरूप तो बदला है किन्तु उसमें रहने वालों की मानसिकता में कोई परिवर्तन नहीं हो सका है. स्त्रियों को लेकर अभी भी कहीं न कहीं भेदभाव की भावना काम कर रही है. यद्यपि भूमंडलीकरण ने स्त्रियों के लिये कई संभावनाओं के द्वार खोले हैं किन्तु इससे कई जोखिम भी बढ़ गये हैं. औरतों की तस्करी, किराये की कोख, बाज़ार की रौनक आदि के रूप में स्त्रियों का शोषण बढ़ रहा है. ‘सेक्स’ को लेकर समाज में जो खुलापन भूमंडलीकरण के कारण आया है उसने स्त्रियों को एक सेक्स का खिलौना बना दिया है. उसकी देह का इस्तेमाल पुरुषवादी मानसिकता वाला समाज तरह-तरह से कर रहा है.

वर्तमान स्त्री विमर्श समाजवादी, मार्क्सवादी और उग्र उन्मूलनवादी, उदारवादी और मनोविश्लेषणवादी स्त्री विमर्श आदि में बंटा हुआ है किन्तु सभी के मूल में एक उद्देश्य है और वह है स्त्री देह की मुक्ति. उसका उद्देश्य स्त्री को स्त्रीत्व से बाहर लाना है. उसे रूढ़ छवि से निकालना है. उसे अन्या के कलंक से उबारना है. वर्तमान स्त्री विमर्श का मूल स्वर प्रतिरोध का है. स्त्री विमर्श का उद्देश्य देह मुक्ति हो गया है. इस देह के कारण ही समस्त शुचिताएं और नैतिकताओं के ढकोसले बने हैं. किन्तु यह देह मुक्ति औरत को बाज़ार का शिकार बना देती है. बाज़ार की चकाचौंध में डूबी स्त्री आगे चलकर परित्यक्त किये जाने पर दोहरी सामाजिक और मानसिक प्रताड़ना झेलती हैं. इसका चित्रण लता शर्मा के उपन्यास ‘सही नाप के जूते’ में बहुत ही सटीक ढंग से किया गया है. स्त्री विमर्श का मूल उदेश्य स्त्री को ‘मेसोकिज्म’ (आत्म त्याग) की प्रवृत्ति से बाहर लाना है. वर्तमान स्त्री विमर्श इस देह के इस्तेमाल किये जाने से मुक्ति की मांग करता है. स्त्री अपनी देह की स्वामी है अतः उसे यह अधिकार होना ही चाहिए कि वह अपनी देह, अपनी कोख का प्रयोग किस तरह से करे. इसमें किसी का, किसी भी प्रकार का, हस्तक्षेप स्वीकार्य नहीं है. इस सन्दर्भ में तसलीमा नसरीन का मत है,” स्त्री अपने शरीर में बच्चेदानी धारण करती है, लेकिन बच्चेदानी की स्वतंत्रता धारण नहीं करती. बच्चेदानी में संतान धारण करने या न करने की स्वतंत्रता स्त्री को नहीं है. स्त्री के लिए कहा जाता है ‘मातृत्व में ही स्त्री की सार्थकता है.’ स्त्री भी यही मानती है. एक झूठ को स्त्री ज़िन्दगी भर अपने अन्दर पाल कर जीती है.”[9]

किन्तु जिन समाजों ने स्त्री को अपनी कोख का इस्तेमाल करने की छूट दी, वहां भी किराये की कोख के रूप में स्त्री का बार-बार शोषण किया जाता है. जहाँ स्त्री को छूट मिली उसने अपने शरीर को अपनी मजबूरी में बेचना शुरू किया किन्तु वहां भी पुरुष दलाल के रूप में सामने आ खड़ा हुआ. हर जगह पुरुष किसी न किसी रूप में स्त्रियों के लिए रोड़ा बनकर खड़ा होता रहा है. अब प्रश्न यह उठता है कि देह मुक्ति प्राप्त हो जाने पर भी क्या स्त्री वास्तव में स्वतंत्र हो जायेगी ? इसका उत्तर देना बहुत कठिन नहीं है. जब तक पुरुषों को ‘पुरुषोचित मनोवृत्ति’ से बाहर नहीं लाया जाएगा तब तक किसी भी तरह से स्त्री विमर्श अपने अंतिम लक्ष्य तक नहीं पहुंच सकता. शेक्सपियर ने पुरुष की प्रवृत्ति को भली-भांति समझते हुए कहा भी है,”मेन आर अप्रैल वेन दे वू, दिसम्बर वेन दे वेड’ (मुहब्बत के वक्त पुरुष अप्रैल की तरह तपता है और शादी के बाद दिसम्बर की तरह सर्द हो जाता है).”

स्त्री विमर्श अब ‘उत्तर स्त्रीवाद’ के चरण में प्रवेश कर चुका है. उत्तर स्त्रीवाद के दो ध्रुव् हैं पहला जहाँ स्त्री स्वतंत्र दिखती है और दूसरा जहाँ स्त्री अभी भी जमीनी समस्याओं से ही नही उबर पायी है. एक तरफ सम्भ्रांत वर्ग की महिलायें हैं जो शिक्षा प्राप्त कर आत्मनिर्भर हैं और दूसरी ओर हैं निम्न और दलित वर्ग की महिलाएं जिनके लिए चूल्हे-चौके की दुनिया से आगे कोई दुनिया नहीं है. ऐसे दौर में स्वतंत्रता के मानदंडों को प्राप्त करने वाली स्त्रियों ने लेखिकाओं, समाज सेविकाओं आदि के रूप में अन्य स्त्रियों को स्वतंत्र करने या यों कहें अपनी स्वतंत्रता के प्रति जागरूक करने का बीड़ा उठाया है. अपने लेखन से स्त्री को विमर्श तक पहुंचा दिया है और विमर्श से आगे वास्तविक स्वतंत्रता तक पहुँचाने के प्रयास में लगी हुई हैं. उदहारण के लिये :- यूरोपीय देशों में सीमोन द बोउआर, बैटी फ्राइडेन, वर्जिनिया वोल्फ, रेबेका वेस्ट, डेलस्पेंडर, एलिज़ाबेथ फिशर, शुलमिथ फायस्टोन, नैंसी चोदोरोव, इरिगरे, सिक्सू, जूलिया क्रिस्टोवा, जर्मन ग्रीयर, ग्लोरिया स्टाईनेम, मेरी वोल्स्टनक्राफ्ट आदि भारत में राजा राममोहन राय, विद्यासागर, महर्षि कर्वे, स्वामी दयानान्द सरस्वती, ज्योतिबा फूले, पेरियार, बाबा साहेब अम्बेडकर, सरोजिनी नायडू, हंस मेहता, राजकुमारी अमृत कौर, कमलादेवी चट्टोपाध्याय आदि के प्रयास उल्लेखनीय हैं. सूर्यबाला, चन्द्रकान्ता, प्रभा खेतान, मंजुल भगत, राजी सेठ, मैत्रेयी पुष्पा, ममता कालिया, चित्रा मुद्गल, नासिरा शर्मा, मन्नू भंडारी, दीप्ति खंडेलवाल, शिवानी, निरुपमा सेवती, मेहरुन्निसा परवेज़, आनामिका, राजेंद्र यादव, उषा प्रियंवदा, मंजुला भगत, नीलिमा सिंह, मृणाल पाण्डेय, कात्यायनी, क्षमा शर्मा, जया जादवानी, अलका सरावगी, गगन गिल आदि हिंदी की लेखिकाएं अपनी रचनाओं के माध्यम से स्त्री विमर्श की परम्परा को नये सन्दर्भों के साथ निरंतर आगे बढ़ा रही हैं. आनामिका स्त्री विमर्श के व्यापक होते पटल के संदर्भ में लिखती हैं,”आधुनिक विमर्शों पर मुख्य अभियोग यह है कि ये प्रत्याख्यान्मूलक हैं, पलटकर जवाब देते हैं, विचार या मेटानैरेटिव्स या वैचारिक आग्रहों या दूसरे बने-बनाये खांचों से भी अपना पल्ला ये झाड़ चुके हैं….बारिश-तूफ़ान में दोनों हांथों से ‘अस्मिता’ की छतरी ताने खड़ा हर ‘विमर्श’ सड़क के उस पार होने की कोशिश तो कर ही रहा है, कोशिश तो कर ही रहा है छतरी का घेरा बड़ा करने की.”[10]

भूमंडलीकरण के दौर का स्त्री विमर्श स्त्री के साथ-साथ समलैंगिकता, एकल अभिभावक, अविवाहित स्त्री, सहवासी समाज (लिव इन रिलेशन), आदि मुद्दों पर विचार कर रहा है. नव नारीवाद ‘बुद्धि के लिंग’ जैसी किसी अवधारणा में विश्वास नही करता. भूमंडलीकरण ने निश्चय ही स्त्री विमर्श और स्त्री लेखन की दिशा और दशा को बदला है. वर्त्तमान स्त्री विमर्श फ्रायड की मान्यता है कि ‘पुरुष को अपने मातृत्वबोध से अलग होकर कड़ा स्वाभाव बनाना होता है जबकि स्त्रियों को ऐसा नहीं करना पड़ता’ का विरोध करता है. देरिदा के संरचनावाद और लाका के मनोविश्लेषणवाद को आधार बानकर यह स्वीकार करता है कि स्त्रियों की स्थिति के लिए सबसे अधिक उत्तरदायी उनकी भाषा है जो पितृसत्ता द्वरा गढ़ी गयी है अतः स्त्रियों को अपनी मुक्ति के लिए अपनी भाषा स्वयं गढ़नी चाहिए. तात्पर्य यह है कि वर्तमान स्त्री विमर्श केवल संभ्रांत स्त्रियों का विमर्श नहीं है बल्कि यह हर वर्ग, जाति और क्षेत्र की स्त्री का संघर्ष है जिसके लिए प्रयास का स्तर भले ही अलग-अलग हो सकता है किन्तु उसके उद्देश्य सभी जगह एक ही हैं. स्त्री को समाज के प्रतिरोध के लिए स्वयं अपनी भाषा गढ़नी चाहिए न कि पुरुषों द्वारा निर्धारित भाषा का प्रयोग करना चाहिए.

स्त्री विमर्श के लिए धर्म अभी भी रोड़ा बना हुआ है. यद्यपि समाज ‘नैनोटेक्नोलोजी’ के युग में जी रहा है और उसका निरंतर उपयोग भी कर रहा है किन्तु धर्म के सन्दर्भ में उसकी सोच अभी भी पुरातनपंथी ही है जिसके कारण वह अपनी दुरुह्ताओं को नहीं त्याग नहीं पा रहा है. कुरान, हिन्दू धर्म के ग्रन्थ आदि में आस्था और स्त्री उद्धार की बात साथ-साथ नहीं चल पा रही है. क्योंकि ये धर्म स्त्री को बार-बार संयमित और पुरुष के अधीन होने का निर्देश देते हैं जो स्त्री विमर्श के विरुद्ध है. उदहारण के लिए कुरान का सूरा : बकर, आयत : 223 में स्त्री को उसके पति द्वारा चरने वाला अनाज कहा गया है. हिन्दू धर्म के आपस्तम्ब धर्म सूत्र, ऐतरेय ब्राह्मण, तैतरीय ब्राह्मण सभी में स्त्रियों के उत्तरदायित्व गिनाये गये हैं जिसमें से सर्वोपरि है पति की इच्छाओं की तुष्टि और उसकी आज्ञा का पालन करना. यह उत्तरदायित्व गिनाना या नियमों का व्याख्यान केवल स्त्रियों के सन्दर्भ में ही है. यह समाज की बर्बरता का प्रतीक है जो स्त्री को मानव न मानकर उसे गुलाम की श्रेणी में रखना चाहता है और आवश्यकता पड़ने पर उसका उपयोग करने से भी नहीं कतराता. कब उसे देवी के स्तर पर बैठा दिया जाय और कब पैरों की जूती घोषित कर दिया जाय, यह अवसर और जरूरत पर निर्भर करता है. इसी कारण ममता कालिया मानती हैं, ‘वर्त्तमान समय प्रागैतिहासिक काल से भी ज्यादा पिछड़ा तथा स्त्री के प्रति आक्रामक है.’[11] समाज की बर्बरता और स्त्री विमर्श के बदलते पहलुओं को सुधा अरोड़ा की कहानी ‘रहोगी तुम वही’, चित्रा मुद्गल के उपन्यास ‘आंवा’, नासिरा शर्मा की कहानियों ‘कुंइया जान’, ‘सरहद के इस पार’, ‘तारीखी सनद’, प्रभा खेतान की कहानी ‘छिन्नमस्ता’, मैत्रेयी पुष्पा की ‘फैसला’ कहानी और ‘चाक’ उपन्यास आदि स्त्री रचनाकारों की रचनाओं में देखा जा सकता है. हालाकि स्त्री विमर्श के सन्दर्भ में बहुत से पुरुष रचनाकारों और विचारकों जिनमें जॉन स्टुअर्ट मिल और राजेन्द्र यादव का नाम लिया जा सकता है, लेखन किया है किन्तु स्त्री समस्या का वास्तविक धरातल स्त्री लेखिकाओं की रचनाओं में ही महसूस किया जा सकता है. इसका कारण शायद यही है कि स्त्री इस त्रासदी की स्वयं भोक्ता रही है. और इस सन्दर्भ में हम सीमोन द बोउआर का वह कथन कैसे भूल सकते हैं जिसमें उन्होंने कहा है कि ‘अब तक लिखे गये सम्पूर्ण साहित्य पर शक किया जाना चाहिए क्योंकि लेखक और निर्णायक दोनों पुरुष ही है.’

यद्यपि वैश्वीकरण ने स्त्री समस्याओं का समाधान प्रस्तुत किया है किन्तु स्थानीय समस्याओं से स्थानीय तरीके से ही निपटा जा सकता है. उनका समाधान किसी अन्य देश से आयातित सोच के आधार पर नहीं किया जा सकता है. वस्तुतः कह सकते हैं कि स्त्री विमर्श को सही रूप में केवल स्त्रियाँ ही प्रस्तुत कर सकती हैं क्योंकि वे उस समस्या की स्वयं भोग्या हैं. किन्तु इसके लिए उन्हें किसी एकांगी दृष्टिकोण से बचकर चलना होगा. इसी सन्दर्भ में अनामिका का मत है,”विचारों का, श्रम का, रिवायतों का और पूँजी का विश्वायन अपने आप में अमंगलकारी नहीं ! अमंगलकारी है इसकी एक ध्रुवीय, एकांगी, एक पक्षीय प्रवृत्ति.”[12]. इस एक पक्षीयता से बचते बचाते स्त्री को अपने को बहुआयामी बनाना होगा. उसे अपने बीच से ही उन महान व्यक्तित्व को सामने लाना होगा जो पुरुषों के बीच से अब तक आते रहे हैं. तभी जाकर स्त्रियों की मानसिक प्रतिभा से भी यह संसार परिचित होगा जो अब तक इस भ्रम में रहा है कि केवल पुरुष ही अच्छा सोच और लिख सकता है. डॉ. सुधा बालाकृष्णन के अनुसार, ”स्त्री को अब जागरूक और व्यावहारिक होना ही है. श्रद्धा बनकर विश्वास रजत पग तल में बहते रहने से कुछ होने वाला नहीं है. अतः उसे श्रद्धा से इड़ा बनना है. अपनी व्यथा को गोपनीयता से नहीं खुल कर व्यक्त करना है. अथ अन्ना केरेनिना और शकुन्तला की व्यथा कथा टालस्टॉय या कालिदास नहीं स्वयं अन्ना और शकुन्तला को लिखनी है.”[13] यह स्त्री जीवन की विडंबना ही तो है कि वह मानव की श्रेणी में न होकर विमर्श के दायरे में फंसी है. वस्तुतः ज़रुरत तो अब यह आ पहुंची है कि स्त्री अब विमर्श के खांचे से बाहर आकर स्वयं अन्य विमर्शों के सम्बन्ध में निर्णय करे. इसी मंशा को नीलेश रघुवंशी अपनी कविता स्त्री विमर्श में कुछ इस तरह व्यक्त करती हैं,” मिल जानी चाहिये अब मुक्ति स्त्रियों को/ आखिर कब तक विमर्श में रहेगी मुक्ति?’

सन्दर्भ सूची

पुस्तकें

  • प्रभा खेतान : बाज़ार के बीच और बाज़ार के खिलाफ (भूमंडलीकरण और स्त्री प्रश्न), वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली : 2004.
  • ममता कालिया : भविष्य का स्त्री विमर्श, वाणी प्रकाशन : नई दिल्ली, 2015.
  • मैत्रेयी पुष्पा : सुनों मालिक सुनो, वाणी प्रकाशन : नई दिल्ली, 2006.
  • रोहिणी अग्रवाल : साहित्य की ज़मीन और स्त्री मन के उच्छ्वास, वाणी प्रकाशन : नई दिल्ली, 2014.
  • डॉ. सुधा बालकृष्णन : नारी अस्तित्व की पहचान, वाणी प्रकाशन : नई दिल्ली, 2013.
  • मन्मथनाथ गुप्त: स्त्री पुरुष संबंधों का रोमांचकारी इतिहास, वाणी प्रकाशन :नई दिल्ली, 2005.
  • प्रभा खेतान : स्त्री उपेक्षिता, हिंदी पॉकेट बुक्स प्राइवेट लिमिटेड : नई दिल्ली, 2002.
  • अनामिका : स्त्री विमर्श के लोकपक्ष, वाणी प्रकाशन : नई दिल्ली, 2012.
  • तसलीमा नसरीन : औरत का कोई देश नहीं, वाणी प्रकाशन : नई दिल्ली, 2009.
  • तसलीमा नसरीन : औरत के हक़ में, वाणी प्रकाशन : नई दिल्ली, 19 वां संस्करण, 2008.
  • अनुराधा बेनीवाल : आजादी मेरा ब्रांड, राजकमल प्रकाशन : नई दिल्ली, 2016.
  • प्रभा खेतान : उपनिवेश में स्त्री : मुक्ति कामना की दस वार्ताएं, राजकमल प्रकाशन : नई दिल्ली, 2003.
  • पत्रिकाएं :-
  • हंस, सम्पादक – राजेन्द्र यादव, वर्ष 24, अंक-4, अक्षर प्रकाशन : नयी दिल्ली, नवम्बर 2009.
  • हंस, संपादक – राजेन्द्र यादव, वर्ष 14, अंक 6-7, अक्षर प्रकाशन :नई दिल्ली, जनवरी-फ़रवरी 2000

अंतर्जालिक स्त्रोत :

  • http://www.unwomen.org/en/digital-library/publications/2016/2/gender-chart-2015
  1. प्रभा खेतान : उपनिवेश में स्त्री :मुक्ति कामना की दस वार्ताएं, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2003.

  2. प्रभा खेतान : बाजार के बीच बाज़ार के खिलाफ़, पृष्ठ-24.

  3. प्रभा खेतान : बाजार के बीच बाज़ार के खिलाफ़, पृष्ठ-14

  4. ममता कालिया : भविष्य का स्त्री विमर्श, वाणी प्रकशन :नई दिल्ली, संस्करण :2015, पृष्ठ -7.

  5. रोहिणी अग्रवाल : साहित्य की जमीन और स्त्री मन के उच्छ्वास, वाणी प्रकाशन : नई दिल्ली, 2014, पृष्ठ – 11.

  6. तसलीमा नसरीन : औरत का कोई देश नहीं : वाणी प्रकाशन : नई दिल्ली, 2009, पृष्ठ -94.

  7. प्रभा खेतान :बाजार के बीच बाज़ार के खिलाफ़ पृष्ठ-50

  8. अनुराधा बेनीवाल : आजादी मेरा ब्रांड, राजकमल प्रकाशन :नई दिल्ली, 2016, पृष्ठ-177.

  9. तसलीमा नसरीन :औरत के हक़ में, वाणी प्रकाशन :नई दिल्ली : 19 वां संस्करण, 2008, पृष्ठ-191.

  10. अनामिका : स्त्री विमर्श के लोकपक्ष, वाणी प्रकाशन :नई दिल्ली, 2012, पृष्ठ-22.

  11. ममता कालिया : भविष्य का स्त्री विमर्श, वाणी प्रकशन :नई दिल्ली, संस्करण :2015, पृष्ठ- 10

  12. अनामिका : स्त्री विमर्श के लोकपक्ष, वाणी प्रकाशन :नई दिल्ली, 2012, पृष्ठ -18.

  13. डॉ सुधा बालाकृष्णन: नारी : अस्तित्व की पहचान, वाणी प्रकाशन : नई दिल्ली, 2013, भूमिका.

महिला मानवाधिकारों के पुरोधा डॉ.आंबेडकर-डॉ. चित्रलेखा अंशु

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महिला मानवाधिकारों के पुरोधा डॉ.आंबेडकर

डॉ. चित्रलेखा अंशु
असिस्टेंट प्रोफेसर
महिला अध्ययन,
मिथिला वि वि, बिहार

कुछ यक्ष प्रश्नों के उत्तर कभी दिए नहीं जाते और यदि उत्तर मिल भी गया हो तो व्यवस्था ऐसा दिखावा करती है कि उसे कुछ मालूम ही नहीं। यह बात महिला आरक्षण के संदर्भ में कहा गया है। क्योंकि आज भी महिला आरक्षण का प्रश्न यक्ष प्रश्न बनकर निरुत्तर है। हम पिछले कई वर्षों से महिला मुक्ति की संकल्पना देखते और उसे प्राप्त करने के लिए प्रयास कर रहे हैं। लेकिन ऐसे क्या कारण हैं कि महिलाओं की प्रस्थिति रिपोर्ट के तीन दशकों के बीत जाने के बाद भी राजनीतिक, सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक रूप से महिलाओं के पिछड़ेपन का कोई एक निश्चित कारण या उसका निदान हमें नहीं मिल पा रहा या फिर हम उसे ढूँढना नहीं चाह रहे। आर्थिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन से लड़ने के लिए सरकारी महकमों के प्रयासों के बावजूद राजनीतिक और सामाजिक पिछड़ापन महिलाओं को वैश्विक स्तर तक पिछड़ेपन की श्रेणी में लेकर पटक दे रहा है। महिलाएँ जिस वजूद से सियासी दाव-पेंच को सीखने की कोशिश करके आगे बढ़ाना चाहती हैं वैसे ही शासन और निर्देशन का सवाल पैदा हो जाता है। क्योंकि आज भी हमारे देश में यह माना जाता है कि महिलाएँ किसी भी संस्था और परिवार की मुखिया नहीं हो सकतीं फिर राजनीति में शासन तंत्र तक पहुँचने की बात हम सोच भी नहीं सकते।

सामाजिक और राजनीतिक रूप से महिलाओं का पिछड़ापन तथा भेदभाव केवल भारत में है ऐसी बात नहीं। तमाम विकसित देशों में पितृसत्तात्मक सवाल महिलाओं का पीछा दशकों दशक से करते आयें हैं और करते रहेंगे। इसका कारण महिलाओं के प्रति आज भी ‘ब्रेडविनर’ का पारंपरिक सवाल कई देशों में काम कर रहा है। अमेरिका जैसे देश में फर्स्ट अर्नर के सवाल तो बदले हैं पर व्यवस्था नहीं। इसका उदाहरण हम अभी हाल में हुए अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में देख सकते हैं कि हिलेरी जैसी राजनीतिक सुदृढ़ महिला के होने के बावजूद वहाँ की विकसित बुद्धि वाली जनता डोनाल्ड ट्रम्प जैसे गैरराजनीतिक और नौसिखिया राष्ट्रपति को चुनती है। इस सोच के पीछे राजनीतिक कारण जो भी रहें हों पर किसी देश के नेतृत्व का सवाल एक पुरुष के पक्ष में जाकर समाप्त हो जाता है और परंपरा की जीत भी हो जाती है। अमरीका वही देश है जहाँ नारीवाद की कई शाखाओं ने अपनी शुरुआत से दशकों तक बराबरी का संघर्ष किया है पर परिणाम नदारद हैं।

बहरहाल भारत में महिलाओं के अधिकार के लिए सामाजिक आंदोलन तो चले ही और बहुत हद तक कामयाब भी रहे। इसके साथ ही उनके अधिकारों की लड़ाई को आंबेडकर ने संविधान में हमेशा के लिए सुरक्षित कर दिया है क्योंकि बिना कानूनी अधिकारों के कोई भी लड़ाई लड़ना और जीतना आसान नहीं होता। हम सभी जानते हैं कि स्त्रियों के लिए हिन्दू कोड बिल पास करवाने के लिए आंबेडकर को क्या नहीं सहना और क्या नहीं झेलना पड़ा था। उनकी चिंता महिलाओं के लिए स्वाभाविक ही थी क्योंकि स्त्री और शूद्रों की परिस्थिति समाज में एक जैसी थी। और यदि समाज में दोनों की परिस्थिति एक जैसी है तो उसका निदान भी एक जैसा ही होना चाहिए था।

भारत के परिप्रेक्ष्य में महिला अधिकारों के प्रश्न कई स्तरों पर चलते हैं किन्तु सबका विलय महिला मुक्ति और समानता जैसे विचारों पर आकर मिल जाते हैं। यह साफ करना इसलिए आवश्यक है कि मार्ग चाहे जो भी हों पर पहुँचना सभी को एक ही मंजिल पर है। मेरी नजर में आंबेडकर इसलिए एक विशाल हृदय के नेता थे क्योंकि उन्होने हिन्दू कोड बिल बनाते वक्त इस तरह के कोई निर्देश नहीं दिए कि इसमें किस जाति या किस वर्ग की महिलाओं के अधिकारों की बात की जा रही है। उनकी दृष्टि में स्त्रियों का शोषण हर जाति, धर्म और वर्गों में होता है इसलिए उन्होने सावयवी रूप से कहीं भी अधिकारों को खंड-खंड में बाँटने की बात नहीं कही। हम सभी लोग परिवार और जाति में जेण्डर के सवालों से परिचित हैं कि स्त्रियाँ भले ही किसी भी जाति और वर्ग की हों पर जब उनकी तुलना उनके ही घरों में मर्द के साथ की जाती है तो उन्हें दोयम दर्जा मिलता है। उन्हें प्राथमिक दर्जा इसलिए नहीं मिलता कि वे सवर्ण या महिला हैं। दलित महिलाओं के तृ-स्तरीय शोषण की बात तो है ही। इसीलिए जब आज के संदर्भों में भी हम स्त्रियों की बात करते हैं तो उन्हें हम जाति और वर्गों की नजर से देखते हैं। बराबरी के प्रश्नों को पाटने के लिए महिला आरक्षण सभी जाति, वर्ग तथा धर्मों की महिलाओं को मिलना चाहिए। क्योंकि जिन महिलाओं के प्रतिनिधित्व को किसी जाति विशेष में देखते हुए हम स्तरों में बाँट देते हैं वहीं इसके विरोध में पितृसत्ता अपनी जाति और वर्ग को भूलकर महिला आरक्षण के विरोध में एक हो जाती हैं। और हम महिलाएँ अपने ही अधिकारों को जाति और वर्ग के आधार पर बाँटने के लिए एक दूसरे के सामने आ जाते हैं। शायद यही कारण रहा है कि महिला आरक्षण विधेयक 1994 से संसद में ठंडेबस्ते में पड़ी है।

महिला चेतना का निर्माण और आंबेडकर

बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ तक कई महिला संगठनों की उत्पत्ति हो चुकी थी। ‘‘इन संगठनों ने सामाजिक सुधारों के साथ-साथ मत देने का अधिकार भी मांगा। 1929 में, बाल विवाह पर रोक कानून को पास करवाने के बाद ये संगठन तलाक, उत्तराधिकार तथा संपत्ति के अधिकार के मामले उठाने लगे। 1934 में, ऑल इंडिया वीमेंस कांफ्रेंस ने हिंदूकोड का प्रस्ताव पास किया। सन् 1937 में हिंदू वीमेंस राइट टू प्रॉपर्टी कानून पास हुआ। सन् 1934 से 1951 तक हिंदू कोड पर बहस चलती रही। अत्यधिक विरोध के कारण नेहरु को कानून बनाने की प्रक्रिया रोकनी पड़ी। प्रथम चुनाव में भारी जीत के बाद सन् 1955 में हिंदू विवाह कानून, सन् 1956 में हिंदू उत्तराधिकार कानून हिंदू अल्पव्यस्क और संरक्षण कानून तथा हिंदू गोद लेने तथा पालने का कानून बना।’’[1] महिलाओं के स्वायत्त संगठन तथा डॉ. बाबा साहब अंबेडकर के प्रयास से महिला मानवाधिकार के प्रथम अध्याय की भारत में ‘हिंदू कोड बिल’ के रूप में शुरूआत हो चुकी थी। इसी आलोक में रेखा कस्तवार लिखती हैं कि, ‘‘स्त्रीवादी आंदोलनों की सशक्त पृष्ठभूमि स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान तैयार हो चुकी थी। उन्नीसवीं शताब्दी में पुरुषों द्वारा स्त्रियों की स्थिति में सुधार से शुरू(जिसे शुरूआती तौर पर ब्रिटिश आकाओं की प्रसन्नता के लिए स्वीकारा गया था)आंदोलन बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में समानता के अधिकारों द्वारा स्त्री को समाज का उपयोगी सदस्य बनाने से होता हुआ बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में स्वनिर्णय के अधिकार तक विस्तृत हुआ।’’[2]

महिला तथा मानव अधिकार के अंतर्गत स्त्री की चेतना जागृति का उद्देश्य बीसवीं सदी में पुष्ट होने लगा था। वर्ना उनकी स्वयं के बारे में कोई दृष्टि पैदा नहीं हुई थी। बीच-बीच में अधिकारों की मांगें उठ रही थीं किंतु उसे अधिक तवज्जों नहीं दिया जा रहा था। कारण यह था कि कुछ चुनिंदा महिलाएं ही उस संकीर्ण पितृसत्तात्मक समाज में अपने अधिकारों की मांग कर रही थीं। बाकी का पूरा का पूरा समाज अभी भी वैचारिक रूप से कुंद था। स्त्रियों को पुरूषों द्वारा दिखाई गई अपनी ‘माता, पत्नी तथा बहन की अच्छी तथा घरेलू छवि तक सीमित थी। जिसे उन्नीसवीं शताब्दी के समाज सुधारकों ने तथा स्वतंत्रता के समय गांधी ने पुष्ट किया था। इस परिप्रेक्ष्य में राधा कुमार लिखती हैं कि, ‘‘भारतीय नारी के आत्मबलिदानी स्वभाव के बारे में गांधी की संस्तुति कोई मौलिक नहीं थी क्योंकि उसकी प्रशंसा पहले ही समाज सुधारकों तथा पुनरूत्थानवादियों द्वारा की जा चुकी थी। वस्तुतः उन्होंने नारी स्वभाव का पुनर्रूपण ही किया। समाज सुधारकों ने जहाँ स्त्री की आत्मबलिदानी प्रकृति को सांस्कृतिक दबावों के चलते कष्टप्रद रूप में देखा वहीं पुनरूत्थानवादियों ने महिलाओं के संस्कारात्मक बलिदान को हिंदू स्त्री के गौरव की संज्ञा दी, परंतु गांधी ने स्त्री के आत्मबलिदानी स्वभाव को हिंदू संस्कारों के इतर माँ के रूप में भारतीय स्त्रीत्व के विशेष गुणों को परिभाषित किया। गांधी की दृष्टि में स्त्रियों द्वारा शांति और अहिंसा के प्रसार के लिए उनकी गर्भधारण एवं मातृत्व का अनुभव ही विशेष योग्यता है। अगर वे प्रसव की वेदना सह सकती हैं तो वे कुछ भी सह सकती हैं, कोई भी कष्ट उठा सकती हैं।’’[3]

राधा कुमार की इस टिप्पणी से यह स्पष्ट होता है कि स्त्री की परंपरागत छवि को बनाए रखना समाज में न केवल उन्हें उनके अधिकारों से वंचित रखेगा बल्कि इससे उनकी खुद के बारे में नारीवादी दृष्टि का विकास कभी नहीं हो पाएगा। स्त्रियों को रूढ़ि तथा संस्कार की बेड़ियों में जकडे़ रहने के कारण पितृसत्ता उसका शोषण अनवात जारी रखेगी। स्त्रियों को मानवाधिकार की प्राप्ति तभी हो सकेगी जब घरेलू जीवन के परंपरागत बोझ से बाहर निकालकर वह स्त्री मुक्ति के नए आयामों को देख सकेंगी।

उपनिवेशिक काल में स्त्री अधिकारों की चेतना नारीवाद की पहली पीढ़ी की महिलाओं के मस्तिष्क में उभरी। जिसमें पंडिता रमाबाई तथा सावित्री बाई फुले के योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता। जाति प्रथा विरोधी तथा स्त्री शिक्षा की समर्थक इन महिलाओं ने उस बंद समाज में शिक्षा की अलख जलाकर समाज को रोशनी दिखाने की चेष्टा की। तद्पश्चात दूसरी पीढ़ी के रूप में कमलादेवी चटोपाध्याय, मार्गेट कजिंस, भीकाजी कामा, सरोजिनी नायडू, एनी बेसेंट आदि का नाम आता है। जिन्होंने स्त्री शिक्षा, महिलाओं के वोट का अधिकार तथा राजनीति में महिलाओं की भी सक्रिय भूमिका की बात छेड़ी। इसके साथ ही राजनीति में पुरुषवादी वर्चस्व को तोड़ने का भी काम किया जब कांग्रेस के चुनाव में ‘‘श्रीमती बेसेंट को कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया और वे कांग्रेस की पहली महिला अध्यक्ष बनी।’’[4]

आशा शुक्ल तथा कुसुम त्रिपाठी अपनी पुस्तक में लिखती हैं कि, ‘‘हमारे इतिहास की किताबों में सरोजनी नायडू, ऐनी बेसेंट, अरूणा आसफ अली और उषा मेहता जैसी महिलाओं के योगदान का उल्लेखनीय विवरण है, लेकिन ऐसी हजारों अनजानी, अनसुनी महिलाऐं हैं जो अनेकों निषेधों व अवरोधों को पार कर सड़कों पर उमड़ पड़ी थीं। उन्होंने उपने को समूह में संगठित किया था, वे देशभक्ति गीत गाते हुए प्रभात फेरी निकालती थीं, प्रचारात्मक कार्यक्रम संचालित करती थीं तथा विदेशी शराब व विदेशी कपडे़ बेचने वाली दुकानों का घेराव करती थीं। वे उदारता के साथ कांग्रेस को कपड़े और गहने दान करती थीं। वे घरों में खादी बुनती थीं, इसके उपयोग के लिए प्रचार करती थीं एवं पुलिस आक्रमण तथा कैद को भी झेलती थीं।’’[5] विश्व का इतिहास इन अनदेखी, अनजानी महिलाओं के अविस्मरणीय योगदान को हमेशा याद रखेगा। उन महिलाओं के प्रति मैं अपने शोध के द्वारा आभार प्रकट करती हूँ जिन्होंने अनजाने में ही सही सिद्धांतों के परे जाकर व्यावहारिक जीवन में अपने अधिकारों के प्रति संगठित तथा जागरूक हुई भले ही वह पूरे भारत की स्वतंत्रता की कामना थीं। यह एक मानवतावादी विचार है जिसमें मनुष्य सभी की मुक्ति की बात करता है।

महिला अधिकारों की मांग के लिए उन्नीसवीं सदी के समाज-सुधार आन्दोलन की उदारवादी धारा से अपनी ‘आल इंडिया वुमन कमिटी’, (जिसका गठन 1927 में हुआ था), का बहुत बड़ा योगदान है। ‘‘1945 तक ए.आई. डब्ल्यू. सी ने ‘भारतीय महिलाओं के अधिकार का घोषणापत्र’ सूत्रबद्ध किया, जिसे निजी कानून में सुधार के लिए महिलाओं के लिए समान विरासत अधिकार, एक पत्नी प्रथा, तलाक का अधिकार, विवाह के लिए वर-वधू दोनों की सहमति, अंतरजातीय व अर्न्तविश्वासी विवाह और बच्चों पर समान अभिभावकत्व का अधिकार, जैसी सलाहों के द्वारा ठोस बनाया गया था।’’[6] आगे चलकर ‘हिंदू कोड बिल’ के रूप में ये सारे महिला अधिकार उसमें शामिल हुए जिसे अंबेडकर के द्वारा मौलिक बनाकर संविधान सभा में प्रस्तुत किया गया। तमाम कट्टरपंथी ताकतों तथा पुनरूत्थानवादियों के विरोध के बावजूद यह बिल अंततः महिला अधिकारों के हित में पूर्णतः तो नहीं किंतु अंशतः पारित हुआ। ‘‘जो चार कानून बनाए गए थे वे क्रमशः हिंदू उत्तराधिकार कानून। हिंदू अल्पवयस्कता एवं अभिभावकत्व कानून तथा हिंदू गोद एवं गुजारा कानून के रूप में जाने गए।’’[7] इन कानूनों के पारित होने से स्त्री के मूलभूत अधिकारों में वृद्धि अवश्य हुई। जिससे महिलाएं कानूनी रूप से संपत्ति, अभिभावकत्व, गोद तथा विवाह व्यस्क होने पर कर सकती थीं।

स्वतंत्रता के पश्चात उभरे जमीन, कृषि तथा मिल्कियत से उभरे श्रमिकों के बीच असंतोष ने उन्हें संगठित होने का मौका दिया। उस समय चीन में कम्युनिस्ट क्रांति हो चुकी थी। जिसका भारत के कम्युनिस्ट विचारकों पर जबरदस्त प्रभाव पड़ा था। फलस्वरूप श्रमिक, खेतिहर तथा किसान कम्युनिस्टों के नेतृत्व में रैलियां, हड़तालों तथा प्रदर्शन जमींदारों तथा सरकार की वादा खिलाफी के विरोध में होने लगी थी। महिला आंदोलन स्वायत्त रूप से अपने पंख विभिन्न मुद्दों के बरक्स फैलाने लगा था जिसमें दहेज का विरोध, मूल्य वृद्धि का विरोध, बलात्कार विरोध, पर्यावरण आंदोलन, पर्यावरण आंदोलन, गर्भपात के अधिकार, कन्या भ्रूण हत्या आदि का विरोध शामिल हैं। समाज के कुछ जागरूक पुरुष वर्ग के द्वारा महिला आंदोलन तथा उनकी मांगों से संबंधित कानूनों को बनाने की वकालत भी की गई तथा कानून बनाए भी गए। किन्तु वह समाज में कितनी सख़्ती से लागू हुए यह हम सभी को पता है।

वर्तमान स्थिति

बीच-बीच में इन बातों पर भी ध्यान दिया जाता रहा कि महिलाओं की समस्याओं को महिलाओं के नजरिए से देखा जाना चाहिए। साथ ही महिलाओं को भी यह हक हो कि वे अपने अधिकारों पर ठोस निर्णय या तो स्वयं लें या सशक्त कानून बनाने की सिफारिश कर सकें। यह दौर महिलाओं की सामाजिक, राजनीतिक भागीदारी का भी था क्योंकि उनके पैरों को हिन्दू कोड बिल बनाकर डॉ. आंबेडकर के द्वारा मजबूत किया जा चुका था। महिलाओं ने चारों ओर से महिला अधिकारों की चेतना को बल देने की ठानी जिसमें अकादमिक रूप से सशक्त बनना, योजनाओं और जागरूकता क माध्यम से उन्हें सशक्त बनाना शामिल था। महिलाअध्ययन विभागों के द्वारा अकादमिक रूप से मजबूती मिल रही थी किंतु एक स्थान अभी भी पूरी तरह से भरा नहीं गया था। वह था महिलाओं का राजनीति में प्रवेश। राजनीतिक सशक्तिकरण की बात पर बल दिया जाना इसलिए आवश्यक है क्योंकि महिलाओं ने लगभग सभी क्षेत्रों में मजबूत स्थिति बनाने की शुरुआत कर दी है। पिछले कई दशकों से वैश्विक तथा राष्ट्रीय राजनीति में माहिलाओं की बेदख़ली कहीं न कहीं महिला अधिकारों के रास्ते में काँटे की तरह है जिसे 1994 में महिला आरक्षण विधेयक के रूप में वर्ष 2017 तक मसलन 20 वर्षों तक दबाकर रखा गया है। कभी इसे जातीय राजनीति के कारण रोकना पड़ा, कभी पुरुषवादी चिंताओं के कारण तो कभी तरह तरह के पूर्वाग्रहों के कारण कि महिला आरक्षण के आ जाने से पुरुषों का स्थान छीन लिया जाएगा। महिला आरक्षण का विरोध वर्तमान में दिल्ली की सड़कों से उत्तर-पूर्व के वैस राज्यों तक फ़ैल गया है जिन राज्यों को हम जेण्डर समान राज्य के रूप में चिन्हित करते थे। नागालैंड के एक नेता ने कहा कि ‘राजनीति में महिला आरक्षण भ्रष्टाचार को बढ़ावा देगा’[8] तमाम मीडिया मोगल के द्वारा फैलाया गया प्रोपेगेंडा हो कि महिला आरक्षण से कहीं ‘परिवारवाद’ को ही बढ़ावा न मिले’[9]। इन तरह-तरह की भ्रामक अफवाहों के कारण महिला आरक्षण को कानून बनाकर मजबूत करने में एक और बढ़ा सामने आ खड़ी होती है।

हम सभी जानते हैं कि भारत में महिलाओं को आधी आबादी का दर्जा प्राप्त है अर्थात पूरी जनसंख्या का आधा भाग हैं। ऐसी स्थिति में सभी वैसे स्थानों पर जो महिला और पुरुषों को बराबरी के आधार पर मिलनी चाहिए, उसमें हमारा कुछ प्रतिशत तो इसी नाते होना चाहिए कि हम भी भारत के लोकतंत्र में निर्णायक महत्व रखते हैं। सभी आँकड़े पुष्ट करते हैं कि राजनीति, शिक्षा, रोजगार आदि के क्षेत्रों में महिलाओं की स्थिति क्या है। हमारे ऊपर अंतर्राष्ट्रीय दबाव भी है कि देश में महिलाओं की स्थिति में सुधार हो। साथ ही महिलाएँ स्वयं ये महसूस कर रही हैं कि समानता के अधिकार में उनका हक है फिर भी महिला आरक्षण जैसे मुद्दे को जातीय-पितृसत्तात्मक पूर्वाग्रहों की भेंट चढ़ा दी जाती है। समस्या तो तब पैदा होती है कि जातीय आरक्षण के आधार पर महिला आरक्षण भी हो जिससे महिला के सामने पुरुषवादी समाज एक महिला को खड़ा कर देता है। हमें हर हालत में सवर्ण महिला और दलित महिला की सोच से निकालना होगा वर्ना हम इसी तरह से मुद्दों से भटका दिए जायेंगे। यह सच है कि महिलाओं में भी शोषण के स्तर अलग-अलग जातियों में अलग-अलग होते हैं किन्तु हर महिला अपनी ही जाति में कहीं अधिक तो कहीं कम शोषित जरूर है। वैसे भी महिला आंदोलन वर्तमान में इतने खंडों में बंट चुका है कि पितृसत्तात्मक ताकतों को और भी मजबूती मिली है। और हमारी पूर्वाग्रह बाहरी मानसिकता कहीं यह मौका भी न खो दे क्योंकि किसी भी जाति और वर्ग की महिला का राजनीति में नेतृत्व का प्रतिशत आधी आबादी का प्रतिनिधित्व कर पाने में सक्षम नहीं है।

यही वजहें हैं कि डॉ. भीम राव आंबेडकर की कमी इस परिप्रेक्ष्य में बहुत खलती है जब उन्होंने हिन्दू कोड बिल बनाते वक्त सभी स्त्रियों के लिए सोचा था। उसे जाति और वर्ग में खंड-खंड नहीं किया था। क्योंकि वह महिला शोषण के केंद्र को अच्छी तरह से जानते थे कि परिवार में महिलाओं का द्वितीयक स्थिति में होना ही सबसे बड़ी समस्या है। जहाँ आज भी महिलाएँ नागरिकता के प्राथमिक पैरामीटर में नीचे हैं, आज तक वे घर की प्रमुख आय उपार्जक नहीं बन पाईं है, आज भी वे पुरुषों की पहचान को अपनी पहचान बनाकर घूमती हैं। वैवाहिक प्रतीकों को आज भी वही ढोती हैं, बलत्कृत हैं, दहेज की बली चढ़ रही हैं, कन्या समझकर मार दी जा रही हैं, एसिड डालकर पुरुषवाद की हीनग्रंथी का शिकार आज भी हैं। और दुख इस बात का है कि इसका स्तर समाज में गहरा होता जा रहा है और हम सभी महिलाएँ एक-दूसरे को समर्थन देने की जगह एक-दूसरे में उलझे हुए हैं। यहाँ पर पाकिस्तान का उदाहरण देना चाहूंगी जिस देश को हम महिला हिंसा के क्षेत्र में अग्रणी समझते हैं वहाँ ‘एसिड हमला’[10] पर 2012 में ही कानून बनाया जा चुका है। और उसपर कानून बनानेवाली सभी राजनीतिज्ञ महिलाएँ हैं जिन्होंने महिलाओं को मानव की नजर से पहले और दलित-सवर्ण के नजरिए से बाद में देखा। उनकी नजर में स्त्री हिंसा दलित और सवर्ण होने के कारण बाद में पुरुषों की ‘हीन ग्रंथी’ के कारण पहले होता है। यदि भारत में भी महिलाओं का राजनीति में प्रभुत्व बढ़ेगा तो सकारात्मक बदलाव ही आएगा। रही बात महिला आरक्षण के मिल जाने से परिवारवाद और भ्रष्टाचार बढ़ने की तो वर्तमान में क्या ये कम हो रहा है!

संदर्भ ग्रंथ:

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  1. अरोड़ा, सुधा,(2009) आम औरत जिंदा सवाल, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली

3.कुमार, राकेश, (2001), नारीवादी विमर्श, आधार प्रकाशन, पंचकूला, हरियाणा

4.कस्तवार, रेखा,(2006),स्त्री चिंतन की चुनौतियां, राजकमल प्रकाशन प्र.लि., नई दिल्ली

5.नेमा, डॉ. पी.पी. शर्मा, डॉ. के.के., मानवाधिकार सिद्धांत तथा व्यवहार, कालेज बुक डिपो, जयपुर

6.जोशी डॉ. गोपा, (2006), भारत में स्त्री असमानता एक विमर्श, हिन्दी माध्यम कार्यन्वय निदेशालय, दि.वि.वि., नई दिल्ली

7.ग्रीयर, जर्मेन, (अनु.) मधु. बी.जोशी, (2001),विद्रोही स्त्री, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली

8.कुमार, राधा, (2002), स्त्री संघर्ष का इतिहास, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली

9.शुक्ला, प्रो. आशा, त्रिपाठी कुसुम, (2004), स्त्री संघर्ष के मुद्दे, स्त्री अध्ययन विभाग, बरकतुल्ला वि.वि., भोपाल

समाचार पत्र:

1.हिन्दुस्तान टाइम्स ई पेपर, 4 फरवरी 2017

2.बीबीसी हिन्दी, 17 फरवरी 2017

Documentry

Saving face, 2012, pakistan

  1. जोशी, गोपा, (2006),भारत में स्त्री असमानता, पृ.-48
  2. कस्तवार, रेखा, (2006), स्त्री चिंतन की चुनौतियां, पृ.-99
  3. कुमार, राधा(2002), स्त्री संघर्ष का इतिहास, पृ.-174
  4. वही, पृ.-108
  5. शुक्ला, प्रो. आशा, त्रिपाठी कुसुम, (2004),स्त्री संघर्ष के मुद्दे, पृ.-4
  6. वही, पृ.-6
  7. कुमार, राधा, (2002), स्त्री संघर्ष का इतिहास, पृ.-202
  8. हिन्दुस्तान टाइम्स ई पेपर, 4 फरवरी 2017
  9. बीबीसी हिन्दी, 17 फरवरी 2017
  10. ‘Saviing face, ducumentry, 2012, Pakistan

हिंदी दलित साहित्य का इतिहास और विकास-डॉ० श्रीमती तारा सिंह

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हिंदी दलित साहित्य का इतिहास और विकास

– डॉ० श्रीमती तारा सिंह

भारतीय सामाजिक व्यवस्था में दलित का अभिप्राय उन लोगों से है, जिन्हें जन्म, जाति या वर्णगत भेदभाव के कारण हजारों सालों से सामाजिक न्याय और मानव अधिकारों से वंचित रहना पड़ा है । शुद्रों की भी हालत कोई खास अच्छी नहीं रही है, सवर्ण आज भी शुद्रों के साथ बैठकर खाने में,या उसकी बिरादरी में शादी-ब्याह से कतराते हैं । यह विडंबना ही है, कि समस्त प्राणियों में एक ही तत्व के दर्शन करने वाला, वर्ण-व्यवस्था को गुण और कर्म के आधार पर निर्धारित करनेवाला समाज, इतना कट्टर कैसे हो गया कि निम्न वर्ण या जाति में जन्म लेने वालों को सब प्रकार के अवसरों से वंचित किया जाता रहा और इन सड़ी-गली सोच के लिए ’मनुस्मृति’ को जिम्मेदार ठहरा दिया गया । हमारे देश का लम्बे अरसों तक गुलाम रहने का यह भी एक मुख्य कारण रहा है । हमारे स्वतंत्रता आन्दोलन के पुराधाओं ने भारत को इस कलंक पूर्ण प्रथा से मुक्त कराने का यथासाध्य प्रयास किया । भारत के संविधान अनुच्छेद 15 ( 2 बी ) के अंतर्गत यह प्रावधान रखा गया कि जाति के आधार पर, भारत के किसी भी नागरिक के साथ भेद-भाव नहीं किया जायगा ; लेकिन यह सब संविधान के पन्नों में सीमित रह गया । आज भी सवर्ण के कुएं से दलितों का पानी लेना मना है । दलितों की बस्तियाँ, सवर्णों से बिल्कुल अलग होती है, जहाँ से सवर्ण गुजरने से आज भी बचने की कोशिश करता है ।

इसके अलावा लम्बे समय तक, सामाजिक शोषण और दमन की शिकार रही, हरिजन और गिरिजन जातियों को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के रूप में सूचिबद्ध किया गया, ताकि इनके लिए सामाजिक न्याय सुनिश्चित किया जा सके । उनके प्रयासों का परिणाम कुछ-कुछ तो अब दीखने लगे हैं, लेकिन पूर्णतया अभी दूर है । सामाजिक और राजनैतिक क्षेत्रों में चली मानवाधिकारों की हवा ने दलित चेतना को प्रवाहित करने में बड़ा योगदान किया है । यही कारण है कि अब दलित साहित्यकार परम्परागत काव्य-शास्त्र और सौन्दर्य-शास्त्र को अपर्याप्त मानते हुए साहित्य की नई कसौटी की खोज में जुट गये हैं । दूसरी ओर ये लोग अफ़्रिका और अमेरिका की अश्वेत जातियों के साहित्य से भी प्रेरणा ले रहे हैं, जिससे दलितों का काव्य-शास्त्र केवल मनोरंजन के लिए नहीं, बल्कि समाज को झकझोड़ने और जगाने के लिए भी हो । म्लेच्छ, अछूत, दास तथा न जाने और कितने गाली-वाचक शब्दों से पुकारे जाने दलितों द्वारा रचित ” दलित चेतना साहित्य ” में अपने अनुभव को उच्चवर्ण के साहित्यकारों के अनुमान की तुलना में अधिक मार्मिक अभिव्यक्ति प्रदान करने में सक्षम हो रहा है, लेकिन इसे आत्मकथात्मक साहित्य ही कहा जा सकता है ।

हिंदी में 1980, बाद दलितों द्वारा रचित अनेक आत्म-कथानक साहित्य आईं, जिनके कुछ नाम इस प्रकार हैं _ मोहनदास, नैमिशराय, ओमप्रकाश, बाल्मीकि, सूरजपाल, चौहान आदि । 1999 में दलित पत्रिका का प्रकाशन हुआ, इसके बाद दलित उपन्यासों की रचना हुई । इतना ही नहीं, हिंदी साहित्य का दलित विमर्ष की दृष्टि से पुनर्पाठ भी आरम्भ हुआ, जिसके परिणाम स्वरूप, भक्ति-साहित्य को नई दॄष्टि से व्याख्यापन किया गया । सरस्वती में प्रकाशित ( 1914 में ) हीरा डोम की कविता, ’अछूत की शिकायत’ को दलित हिन्दी साहित्य की प्रथम रचना के रूप में स्वीकृति मिली ।

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दलित साहित्य को आगे ले जाने में फ़ुले और अम्बेडकर का बहुत बड़ा हाथ रहा । सर्वप्रथम यह मराठी साहित्य के रूप में आया । उसके बाद तेलगु, कन्नड़, मलयालम और तामिल में आया । बाकी भाषाओं में 20 वीं शदी के अंतिम दो दशकों में आया, लेकिन मलयालम दलित चिंतक कंचाइल्लय्या जब तक यह घोषणा करते हैं कि कुछ ही वर्षों बाद देखना, अंग्रेजी भारत की राष्ट्रभाषा बन जायगी, और हिन्दू-धर्म नष्ट हो जायगा ; वेद, उपनिषद तथा गीता से प्रेरणा प्राप्त करने वाले साहित्य के स्थान पर अम्बेडकरवादी दलित साहित्य सर्वव्यापी हो जायगा, तब वे वास्तव में दलित-विमर्ष को स्वार्थ और घृणा की राजनीति का शिकार बनाने की कोशिश करते हैं । ऐसे चिंतक दलित-साहित्य को आधुनिक विमर्ष के बजाय हिदू-विमर्ष के रूप में प्रस्तुत करते हैं । बावजूद यह सत्य है कि अम्बेडकर का साहित्य, दलित-मुक्ति की खोज, ग्यान की मुक्ति के रूप में करते हैं । जब भगवान बुद्ध आये तब उन्होंने ब्राह्मणवादी व्यवस्था से ग्यान को उच्च वर्णों के शिकंजे से मुक्त कराया था । आज भी दलित इसी कार्य को करने की कोशिश कर रहे हैं । इसके लिए संविधान में इन्हें संवैधानिक शक्ति भी प्राप्त है । यद्यपि मणिपुर में शेष भारत की तरह, यहाँ न तो वर्ण-व्यवस्था की विकृतियाँ पहले थीं, न ही आज है । कहते हैं, मणिपुरी समाज में 13 वीं,14 वीं शदी में मणिपुर में वैष्णव धर्म का जब प्रवेश हुआ, तब यहाँ सर्वप्रथम —

” जाति-पाति पूछे नहीं कोय”;

”हरि को भजे सो हरि के होय”

मानने वाले रामानंदी सम्प्रदाय आये । लगता है, मणिपुरी सम्प्रदाय को ये रामानंदी भा गये, तभी यहाँ वैष्णव धर्म का प्रचार हो सका । इतना ही नहीं, बंगाल के गौड़ीय सम्प्रदाय को भी यहाँ फ़लने-फ़ूलने का मणिपुर सम्प्रदाय ने भरपूर माहौल दिया । उसके प्रचारकों ने यहाँ जाति-व्यवस्था चलाने का भी प्रयास किया । मगर मणिपुरी समाज अपने संस्कार में इतने प्रबल थे,कि यहाँ जातिगत भेदभाव जड़ नहीं जमा सका । मणिपुर की तरह अरूणाचल प्रदेश, मिजोराम, मेघालय और नागालैंड में भी जाति-भेद न होने के कारण, वहाँ के साहित्य में दलित-विमर्ष नहीं है ।

निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि भारतीय साहित में दलित विमर्ष के व्यापक प्रचलन का मूल कारण जाति और वर्ण पर आधारित सामाजिक भेदभाव रहा है । जिस कारण बीसवीं शदी के अंत तक दलित वर्ग समाज में सर उठाकर खुद को दलित-वर्गीय कहने का भी हिम्मत नहीं उठा नहीं पाता था । लेकिन जब हिन्दू-धर्म के खोखले आदर्शों व संस्कृति को वे समझने लगे, तब इस व्यवस्था के विरुद्ध खड़े होने की हिम्मत करने लगे । आज दलित-साहित्य का उभार भारतीय समाज व्यवस्था के परिवर्तन का द्योतक ही नहीं, बल्कि एक प्रकार से सवर्ण समाज पर श्वेत-पत्र सा लगता है । यदि देखा जाय, तो दलित चेतना को इस जीवंत स्तर के तह पहुँचाने के लिए महात्मा ज्योति राव फ़ुले ( सन 1890 एवं सावित्री वाई फ़ुले 1831 ) जैसे समर्पित दंपति का योगदान विस्मृत नहीं किया जा सकता । इन्होंने 1848 में पहली कन्या पाठशाला खोली । 1851 में अछूतों के लिए पहली पाठशाला खोली और 1864 में विधवा विवाह सम्पन्न कराया । सावित्री वाई फ़ुले को दलित समाज की पहली भारतीय शिक्षिका बनने का गौरव प्राप्त है । कुल मिलाकर देखा जाय, तो दलित-समाज के सभी तबके के लोगों का स्वर, मुख्य धारा से अलग रहने की छ्टपटाहट अभिव्यक्ति करता है । हम उम्मीद कर सकते हैं, कि दलित चेतना का यह संघर्ष एक दिन उन्हें समाज की मुख्य धारा से जोड़ने के लिए बाध्य करेगी ।

हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं की कहानियों में दलित स्त्री का चित्रण और सामाजिक परिवेश-डॉ॰ स्वाति श्वेता

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हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं की कहानियों में दलित स्त्री का चित्रण और सामाजिक परिवेश

-डॉ॰ स्वाति श्वेता

मोहनदास नैमिषराय के अनुसार — “दलित शब्द मार्क्स प्रणीत सर्वहारा शब्द के समानार्थक लगता है, लेकिन इन दोनों में पर्याप्त भेद हैं दलित की व्याप्ति सीमित है, तो सर्वहारा की अधिक सर्वहारा के अंतर्गत प्रत्येक व्यक्ति आ सकता है,लेकिन दलित के अंतर्गत प्रत्येक सर्वहारा नहीं आ सकता “1

दलित-विमर्श समाज- व्यवस्था में परिवर्तन के लिए वैचारिक आह्वान है दलित साहित्य प्रतिबद्ध साहित्य है उसका अपना समाज दर्शन है दलित साहित्य काल्पनिक साहित्य नहीं है वह यथार्थ की धरती से जुड़ा है अदम गोंडवी कहते है–‘आइए,महसूस करिए ज़िंदगी के ताप को,मै चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको ‘ पर यदि हमने चमारों की गली ही नहीं देखी तो जिंदगी के ताप को कैसे समझ पाएंगे

समीक्षक डॉ॰एन॰सिंह के अनुसार–‘दलित साहित्य दलित लेखकों द्वारा लिखित वह साहित्य है जो सामाजिक,धार्मिक और मानसिक रूप से उत्पीड़ित लोगों की बेहतरी के लिए लिखा गया हो ‘2

ओम प्रकाश बाल्मीकि के अनुसार—‘ दलित साहित्य नकार का साहित्य है जो संघर्ष से उपजा है तथा जिसमे समता,स्वतंत्रता और बंधुता का भाव है और वर्ण व्यवस्था से उपजे जातिवाद का विरोध है ‘3 दलित कहानियों में तथाकथित सवर्ण पुरुषों द्वारा घर के भीतर स्वयं की स्त्रियों के शोषण की दासता और मुक्ति के स्वर सुने जा सकते हैं असमानता और अन्याय का पुरज़ोर विरोध और उसका खात्मा दलित कहानियों की विषयवस्तु है दलित कहानी की संवेदना और सरोकार को साहित्य के परम्परागत ढाँचे पर निर्मित मानदंडों के आधार पर समझना या परखना तर्कसंगत नहीं कहा जा सकता दलित साहित्य की वैचारिक तथा पृष्ठभूमि को समझना अपरिहार्य है दलित कहानियों की कथावस्तु का मूल आधार — असमानता,अन्याय और शोषण का खात्मा तथा अहिंसा पर आधारित समतापरक समाज की स्थापना करना,स्वतंत्रता और भाई-चारे के लिए माहौल बनाना आदि है

हिन्दी में ओम प्रकाश वाल्मीकि की कहानी ‘जिनावर‘ दलित स्त्री के साथ हो रहे अत्याचारों का चित्रण करती है कहानी में बिरजू की बहू का शोषण उसका अपना ससुर करता है पूरी हवेली में बिरजू की बहू के दर्द को सुनने वाला कोई नहीं सतवीर की किसनी का तीन महीने तक शारीरिक-मानसिक शोषण के बाद उसकी लाश मिलती है जिसकी गवाह अकेली बिरजू की बहू है बिरजू की बहू द्वारा विरोध के बाद निकाल दिया जाता है वह अपने मायके चली जाती है उसका वही मायका जहाँ उसके मामा ने दस साल की अवस्था में ही उसके अबोध शरीर को बर्बाद कर दिया था बिरजू की बहू का कथन है -‘यह सुनसान जंगल हवेलियों से ज़्यादा सुरक्षित है कम से कम भेड़िये आवेंगे तो रूप-रंग बदल कर तो नहीं आवेंगे ‘

ओम प्रकाश वाल्मिकी की एक और कहानी ‘यह अंत नहीं’ ग्रामीण दलित स्त्री चेतना की प्रामाणिक कहानी है जो कुदृष्टि रखने वाले पर साहसिक ढंग से पुरजोर वार करती है और दुश्मन की बेहयाई को कायरता में तब्दील कर देती है गाँव का बिसन दलित है, लेकिन वह वह गाँव के सामंतों के हाथों का मोहरा बन कर रह जाता है ऐसे में दलित स्त्री बिरमा को न्याय की आशा व्यर्थ दिखती है परंतु बिरमा की मुखरता ने सभी में आशा का संचार कर दिया — ‘ ना बिरमा यह अंत नही है तुमने हमें ताकत दी है हार को जीत में बदलेंगे, लोगों में विश्वास जगाकर, ताकि कोई बिसन मोहरा न बने ‘

डॉ॰ सुशीला टाकरे की कहानी – ‘ सिलिया ‘ एक दलित लड़की के बाल्यावस्था से युवती के बनने के बीच के अपमान अंतर्द्वंद्व और संघर्ष की कहानी है जिसे आत्मविश्वास है कि शिक्षा से ही सम्मान के शिखर तक पहुँचा जा सकता है कहानी धर्म के खोखलेपन पर प्रहार करती है भेड़ों और बकरियों का व्यवसाय करने वाले गाडरी के मुहल्ले के कुएँ से पानी पीने और सिलिया की ममेरी बहन मालती द्वारा कुएँ की बाल्टी और रस्सी छू जाने से बवेला मच जाता है और

मामी के हाथों मालती की पिटाई होती है यह उसके सामने अपमान का पहला दृश्य था सिलिया के सामने दूसरा दृश्य तब उठता है जब सहेली हेमलता ठाकुर के बहन की ससुराल में सास द्वारा जाति जान लेने के बाद उसके सामने से पानी का गिलास हटा लिया जाता है उस समय उसे बेहद प्यास लगी होती है और इस तरह बचपन के यह घावों को सहती सिलिया बड़ी होती है और समाज को बदलने का संकल्प लेती है — ‘ सिलिया ने तस किया, वह जीवनभर कोशिश करेगी कि समाज इन बातों को समझें, उनके मर्म को जाने सम्मान और अपमान के भेद को समझे और सही रूप में सम्मान का हकदार बने ‘

नीरा परमार की ‘ वैतरणी ‘, कावेरी की ‘ सुमंगली ‘, कहानी दलित स्त्री की बेबसी, लाचारी की वजहों को समझने समझाने की कोशिश करती नज़र आती है ये कहानियाँ दलित स्त्रियों द्वारा भारतीय समाज की भोगी गई विद्रूपताओं और विडंबनाओं की कहानियाँ हैं कहना न होगा कि ये कहानियाँ दलित स्त्रियों के दर्द का दस्तावेज़ हैं

कावेरी की कहानी ‘ सुमंगली ‘ के सुगिया की जीवन कथा मानो शारीरिक शोषण की एक डाक्यूमेंट्री ही है सुगिया जब बारह साल की थी तब उसे औरत बना दिया गया और चौदह बरस में वह माँ बन गई उसके बाद भी न जाने किस-किस के दोहन का शिकार होती रही — ‘ सुगिया फफकने लगती आसूँ की बूँद टप-टप चू पड़ती वह कैसे समझाए कि उजड़ी हुई गृहस्थी को वह अब हरा-भरा नहीं देख सकती ॰॰॰॰॰ जवानी भर उसके शरीर के ठेकेदारों ने अपनी हवस का शिकार बनाया ‘4

कुसुम मेघवाल की कहानी ‘अंगारा’ की जमना अपने बलात्कारियों को नहीं छोड़ती है प्रतिशोध की आग में जल रही जमना जुल्मी को ऐसी सजा देती है कि वह जीते जी मरे के समान रह जाता है — ‘ जमना आँखें फाड़े अपनी इज्जत लूटने वाले नर- पिशाच को देख रही थी अब उसकी बारी थी अंगारा बनी जमना दौड़ी-दौड़ी घर में गई और कोने में पड़ी दराती उठा लाई, सरकार और पुलिस जिसे सजा नहीं दे पाई, उसे जमना न दे दी अपना प्रतिशोध पूरा किया ‘5

राजेश कुमार बौद्ध की कहानी ‘ आतंक ‘ की विमला भी बलात्कारियों को मृत्युदंड देती है इन स्त्रियों में इस चेतना या उग्रता का एक आयाम तो दलित जागृति है ही वहीं वे पूरी स्त्रियों का प्रतिनिधित्व करती दिखाई देती है

दलित स्त्री के शोषण और जुल्म की अत्यंत मर्मस्पर्शी कहानी है ‘ उसका फैसला’ कहानीकार कालीचरण अपनी कहानी में दिखाते है कि बिंदो जो कहानी की नायिका है पर अत्याचार और प्रताड़णा उसका अपना पति और ससुर करते हैं,—” उसके ससुर महाशय जी ने जमकर दारू पी और आधी रात को सोती हुई बिंदो पर राक्षस की भाँति टूट पड़ा ॰॰॰॰॰ साली हरमजादी, तेरा जवानी का जोश थम नहीं रहा है चंदर से तो होता-हवाता नहीं है मै ही तेरी आग ठंडी करूँगा ”6 उस रात बिंदो

का जैसे सब कुछ खत्म हो गया

मराठी कहानियों में ज्योति लांजवार की कहानी ‘गिद्ध ‘ परिवार में होने वाले यौन उत्पीड़न पर प्रकाश डालती नज़र आती है कहानी में शब्बों की माँ सोचती है कि मर्दों की इस दुनिया में मर्द कहलाने वाला नामर्द कैसे हो सकता है? औरत ही तो इन मर्दों को जन्म देती है फिर मर्द का उसकी ओर देखने का नज़रिया ऐसा क्यूँ?

मराठी कहानी ‘ आयदान ‘दलित स्त्री लेखन में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखती है उर्मिला पवार इस कहानी की रचयिता है आपकी एक और कहानी ‘ कवच ‘ चर्चा में रही इस कहानी में पुरुष का स्त्री की ओर देखने का दृष्टिकोण कभी खुली भाषा में तो कभी सांकेतिक भाषा में बखूबी व्यक्त किया गया है

मराठी कथाकार प्रज्ञा दया पवार की कहानी ‘ पैडीक्योर ‘ ब्राह्मणवादी मानसिकता में जीती माया का सुखी दलित दंपत्ति का एक दूसरे के प्रति समर्पित प्रेम देख ईर्ष्या से भर उठने की कहानी है

गुजरती कहानी ‘ दरी’ दलित स्त्री और उसके सामाजिक परिवेश का चित्रण करती नज़र आती है लेखिका हास्यदा पंडया की यह कहानी एक दलित किशोरी के साथ उसके शिक्षक द्वारा किए जाने वाले बलात्कार को दिखती है कहानी जहाँ इस पर प्रकाश डालती है कि दलित की इज्जत-विज्ज्त कुछ नहीं होती वहीं इस पर भी प्रकाश डालती है कि बलात्कार के बारे में लड़की मुँह नहीं खोलेगी कहानी में आक्रोश के स्वर को न्यायोचित रूप से हिंसा और प्रतिरोध तक पहुँचता दिखाया गया है इस कहानी का कथानक आहत दलित अस्मिता के अपमान और बलात्कार का है

कहना न होगा कि दलित कहानियाँ दलित स्त्री परिवर्तन की इच्छा के साथ समानता , आत्मबोध, संवेदनशीलता की आवाज़ों को मुखर करती नज़र आती है रमणिका गुप्ता के शब्दों में — ‘ये कहानियाँ सामाजिक बदलाव लाने का आह्वान करती हैं इन कहानियों में आक्रोश है, आग है , गुस्सा है तो साथ-साथ संवेदना , मानवीयता और सब्र भी है न्याय की उत्कृष्ट लालसा है समानता की तीव्र ललक है भाईचारे की भावना है ‘7

संदर्भ

1॰ ओम प्रकाश वाल्मिकी, दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र,पृ॰ 0-21

2॰ डॉ॰ एन॰ सिंह, अंतिम दो दशक का हिन्दी साहित्य ,संपादक मीरा गौतम

3॰ ओम प्रकाश वाल्मिकी, दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र,पृ॰ 0-24

4॰ कावेरी , दलित साहित्य कहानी संचयन ,सं॰ रमणिका गुप्ता , पृ॰ 120

5॰ कुसुम मेघवाल ,दलित साहित्य कहानी संचयन ,सं॰ रमणिका गुप्ता , पृ॰ 141 6॰ काली चरण प्रेमी,नई सदी की पहचान,श्रेष्ठ दलित कहानियाँ, सं॰मुद्राराक्षस, पृ॰103

7॰ दूसरी दुनिया का यथार्थ, रमणिका गुप्ता,नवलेखन प्रकाशन , हजारीबाग ,1997

डॉ॰ स्वाति श्वेता

सहायक प्रोफेसर

swat.shweta@ymal.com गार्गी महाविध्यालय

(M) 9818434369 दिल्ली विश्वविद्यालय

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

हिंदी मराठी दलित उपन्यासों के संदर्भ में एक तुलनात्मक विवेचन-माधनुरे श्यामसुंदर

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‘सांस्कृतिक अस्मिता और दलित बस्तियां’

(हिंदी मराठी दलित उपन्यासों के संदर्भ में एक तुलनात्मक विवेचन)

– माधनुरे श्यामसुंदर

संस्कृति कहते ही भारतीय समाज में उत्सवधर्मी चेतना मूर्त हो जाती है। संस्कृति का एक स्थूल सा अर्थ त्यौहार, धार्मिक उत्सव, मिथकों व् इश्वर का प्रभा मंडल, कर्म कांड नैतिकताओं और आध्यात्मिकता के संदर्भ में समझा, समझाया जाता है। लेकिन क्या संस्कृति का दायरा मात्र इतना ही है? क्या संस्कृति केवल धर्म व अध्यात्म तक ही सीमित है? यदि हम संस्कृति और उसके कार्यों का अन्य अनुसंधान और वैचारिक सरणियों के जरिये देखे तो उसके अर्थ व परिभाषा बेहद विस्तृत हो जाती है।

ई. बी. टायलर ने संस्कृति को परिभाषित करते हुए लिखा है कि– “संस्कृति वह जटिल समग्रता है जिसमे ज्ञान, विश्वास, कलाएं, नैतिकताएं, विधि प्रश्न तथा अन्य और क्षमताएं और आदते है जिन्हें मनुष्य ने समाज के रूप में अर्जित किया है”।[1] स्पष्ट हो जाता है कि संस्कृति मात्र धार्मिकता नहीं है। वह अपने जटिलता में मनुष्य के संपूर्ण जीवन को समाहित किए हुई है। इसी प्रकार क्लाइड क्लुकहान संस्कृति को जीवन की समस्त गतिविधियों से जोड़ते है – “हर विशिष्ट संस्कृति में जीवन की समस्त गतिविधियों की एक रूपरेखा होती है”।[2]

इसी प्रकार प्रसिद्ध इतिहासकार रोमिला थापर संस्कृति को मानव विकास के साथ जोड़कर देखती है – “संस्कृति का अर्थ सबसे पहले स्वभाविक बुद्धि को बढ़ावा देना है। हाल के समय इस अर्थ का विस्तार हुआ है और यह मानव मन को विकसित करने का अर्थ देने लगा है। …संस्कृति में सभी व्यवहार–प्रतिमानों और जीवन शैलियों को समेट लिया गया है। …संस्कृति से आराम व्यवहार प्रतिमानों से है, भाषा परम्परा रीतिरिवाज और संस्थाएं इस में शामिल है”[3]। इस प्रकार संस्कृति को समाज से जोड़कर देखने के उपकृम में मुक्तिबोध लिखते है– “ जीवन जैसा है उसे अधिक सुंदर उदात्त और मंगलमय बनाने की इच्छा आरंभ से ही मनुष्य में रही है। यही इच्छा जब सामाजिक स्तर पर खा लेती है तब संस्कृति कहलाती है”।[4] स्पष्ट हो जात है कि संस्कृति का महत्त्वपूर्ण पक्ष जीवन को सुंदर व मंगलमय बनाना है लेकिन हम जब भारतीय (या हिन्दू) संस्कृति को देखते है तो पाते है कि उसमे (हिन्दू या ब्राह्मण संस्कृति) 15 प्रतिशत जनता के जीवन को तो सुन्दर व उदात्त बनाया है। लेकिन 85 प्रतिशत का जीवन यातना व शोषण से भर दिया। और ऐसा इसलिए हुआ कि संस्कृति को आज धर्म व नैतिकताओं विधि व नियमों तक सीमित कर दिया। जीवन को बेहतर बनाने वाली ऐतिहासिक प्रक्रियाओं को गौण कर दिया तथा उसे कर्म फल, विधि विधान तथा भाग्यवाद के खाते में डाल दिया।

सार रूप में कह सकते है कि संस्कृति जो कि मानव जीवन के संपूर्ण को समाहित करती है। मानव को मात्र जाति, धर्म अध्यात्म तक सीमित कर दिया है। संस्कृति का वास्तविक अर्थ प्रकृति समाज तथा जीवन जगत को जानना व वेहतर बनाना है। वैज्ञानिक व तार्किक ढंग के दृष्टिकोण के आधार पर ऐसा किया जा सकाता है। श्रम, समता तथा सह अस्तित्ववाली संस्कृति से जीवन बेहतर बन सकता है न कि यह पण्डे पुजारियों, ओझा सयानों द्वारा घालमेलकर पैदा की गई अप संस्कृति से।

भारत में दलित बस्तियों की क्या स्थिति है हम सब जानते है। उत्तर भारत में जिसे चमार और डोम कहते है वही महाराष्ट्र में महारों के नाम से जाने जानी वाली दलित बस्तियां गाँव की सीमा के बाहर होती है। एक तरफ सवर्ण रहते है तो एक तरफ दलित। दोनों की संस्कृति और दुनिया अलग अलग है। इसका चित्रण मोहनदास नैमिशराय के उपन्यास ‘मुक्तिपर्व’ में देखने को मिलता है। उपन्यास की कहानी एक दलित बस्ती की कहानी है, जहां के लोगों की लुगाई एक ही कमरे में है। वे सुबह ही घर से बाहर निकल पड़ते है और दिन भर खटने के बाद घर आते है। सभी गरीब है मुश्किल से दो वक्त की रोटी जुटा पाते है। लेखक ने जिस तरह से सामाजिक वातावरण का विस्तार से वर्णन किया है उससे दलित मुक्ति का संघर्ष एक चलचित्र की तरह पाठक के समक्ष चलता है। यह सब कुछ इतना सजीव है कि दलितों को वह आज भी अपने इर्द-गिर्द महसूस होता है, और गैर दलित पाठक भी दलित सवर्ण के बिच मौजूद मौलिक अंतर तथा दलित यातना को देखकर अनुभव कर सकते है। नैमिशराय वर्णन करते है– “चमार और डोम शहर की सीमा के इस तरफ थे। उस तरफ सवर्ण रहते थे तो इस तरफ दलित। दोनों की दुनिया अलग थी उधर बाग़ बगीचे थे तो इधर जंगल। उधर बाज़ार थे, पनघट थे, मंदिर थे, इधर श्मशान, कूड़ाघर, कलालों की दुकाने। दोनों तरफ के अपने – अपने संस्कार थे और अपनी – अपनी संस्कृति। जब वे दुसरे से टकराते थे तो मारकाट होती सवर्ण लटिया बल्लम चलाते हुए गलिया देते, खुले आम पेशाब करते और अपनी उदंड संस्कृति का परिचय देते फिर भी वे शहर के सभ्य कहलाते”।[5] इस उदंड संस्कृति के धनी सिर्फ सवर्ण ही नहीं थे, वरण उच्च वर्गीय मुसलमान भी थे। उपन्यास में नवाब अली वर्दी खां का जिक्र है उसी की हवेली में बंसी नौकरी करता है। नवाबी संस्कृति की अनेक झलकियाँ उपन्यास में है। ऐसी संस्कृति के सन्दर्भ में डॉ. तेज सिंह कहते है – “ मेरी निश्चित धारना है कि समाज में जिन सामाजिक वर्गों का वर्चस्व होता है, सत्ता भी उन्हीं सामाजिक वर्गों के हाथों में केन्द्रित होती है और उनकी असली लड़ाई सत्ता पर काबिज होने के लिए ही होती है ता कि समाज पर अपना सांस्कृतिक-वैचारिक वर्चस्व कायम किया जा सके। ऐसी स्थिति में सत्ता की अवधारणा का महत्त्व असंदिग्ध है। सत्ताएं तिन तरह की होती हैं –एक ज्ञान सत्ता दूसरी राजसत्ता और तीसरी धर्म सत्ता। जिस सामाजिक वर्ग के पास ये तीनों सत्ताएं होती है, वही वर्ग प्रभुत्वशाली होता है और अपना सांस्कृतिक वैचारिक वर्चस्व कायम करता है”।[6] जिस संस्कृति की तरफ तेज सिंह इशारा कर रहे है ये वही उदंड संस्कृति है जो नवाबे अली में देख सकते है। लिहाजा आज इस तरह की संस्कृति को ही ज्यादा तर रूप में देखा जा सकता है।

एक दूसरा उपन्यास ‘थमेगा नहीं विद्रोह’ उमराव सिंह जाटव का है इस में दलित संस्कृति को देख सकते हैं। इस उपन्यास में जो तथ्य आये है संभवतः 2000 इ.स. के आस पास के है क्योंकि उपन्यास के अनुसार यह जागृति उनमे स्वर्गीय बाबासाहब भीमराव अम्बेडकर द्वारा दिए गए अमोघ मंत्र ‘शिक्षित बनों, संगटित हो, संघर्ष करो’ के कारन है। अम्बेडर के कारण ही जाटव मोहल्ले में किसी बौद्ध विहार और किसी बौद्ध भंते के अभाव में ये लोग बुद्धधर्म के स्वतः अनुयायी है। लेकिन असंख्य देवी-देवताओं का पूजा-पाठ करते है। शीतलामाता, भुमियामायी माता, अहोई माई, छट पीर, चामुंडा माई आदि उनके जीवन में केन्द्रीय महत्त्व रखते है और ये लोग लांगुरिया के गीत गाते है ज्वालाजी और हिंगलाज की जात लगाते है सैकड़ों कोस भटकते है।

इसी को मध्य नजर रखते हुए अरुण साधू का उपन्यास झिपय्या जो मराठी का उपन्यास है इसमे जिस संस्कृति को बताया गया है शायद 65 साल के स्वतंत्रता के बावजूद भी कोई परिवर्तन नहीं आया। लेखक के शब्दों में ही – “पच्चीस पैसे का दो चम्मच दूध और चार चम्मच शक्कर लेकर झिपप्या भागता हुआ वापस आया। तब तक माँ ने मिटटी के चूले पर पानी से भरा एल्युमिनियम का बर्तन रख दिया था और चूले को जलने के लिए कागज़ के टुकडे, बढई की दूकान से लाए लकड़ी के छोटे टूकडे और भूसा, धज्जियां – जो भी उसके हाथ लगता था सब डाल रही थी और चूले को फूंकते हुए अभी भी गहरी नींद में खोई लीला पर बरस रही थी, “उठ ओ घोड़े, उठ! इत्ती बड़ी हो गयी पेड़ के माफिक फिर भी यहाँ खर्राटे मारती सो रही है। उठ और उस ब्लाउज को ठीक कर ले। इत्ती बड़ी हो गई है फिर भी जरा भी लाज शर्म नहीं है मुई को। दिन तो इतना निकल आया, अब लाइन पर कब जायेगी तू। आं? अब उठती है या दू एक लात कमर पे”?[7] उक्त विवेचन के बाद यह काहाँ जा सकता है कि दलितों की अपनी संस्कृति होती है। लिहाजा उनकी अपनी अस्मिता है। इसलिए दलित बस्तियों में होते हुए भी दलित समाज अपनी अस्मिता बनाये रखता है।

भारतीय गावों की रचना तथा समाज रचना देखने के बाद यह आश्चर्य होता है कि यहाँ के गाँवों की तथा समाज की रचना इतनी एक जैसी कैसी है? शहरों में ऐसा चित्र नहीं है। लेकिन गाँवों की रचना एक जैसी ही है। चाहे महाराष्ट्र हो या मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश या अन्य प्रदेशों में भी गाँवों की वैचारिक पहचान अलक होगी लेकिन रचना अलग नहीं है। यहाँ जाति के आधार पर गाँव की रचना होती है। मुख्य गाँव में सभी सवर्ण रहते है। अवर्ण गाँव के बाहर रहते है। गाँव में जाति के अधार पर गलियां बनती है जैसे- ब्राह्मण गली, राजपूत गली आदि। यह एखाद गाँव में अथवा राज्य में होता तो समज सकते है। परन्तु पुरे भारतीय गांवों की रचना इस पद्धति की ही हैं। सवर्ण के घर मजबूत, आकर्षक तो अवर्ण के घर घास-फूस के होते है गाँव तथा घर मानव निर्मित है इस कारण ऐसा भेदभाव है। छप्पर में मातापुर भी ऐसा ही एक गाँव है। यह पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आता है। मातापुर की रचना भी तमाम भारतीय गाँवों जैसी ही है। ‘गंगा के तट पर बसा पश्चिमी उत्तर प्रदेश का एक छोटा सा गाँव मातापुर। अन्य भारतीय गाँवों की तरह मातापुर में भी थोड़े से सुखी और संपन्न शेष दीन और दरिद्र है। सुखी संपन्न लोगों में सवर्ण कहलाने वाले ब्राह्मण, पुरोहित, ठाकुर, जमीदार तथा लाल-साहूकार हैं। दूसरे गाँवों की तरह सवर्ण लोग उपर की तरह तथा अवर्ण कहे जानेवाले गंगा की ओर निचान में बसें हैं। नीचन की ओर गंगा के इस छोर का आखिरी घर सुखा का हैं और फिर कुड़ी-बिठौड़े शुरू हो जाते हैं ’।[8]

इस तरह इन उपन्यासों की तुलना करने के बाद जिन बस्तियों का जिक्र हुआ है इस से साफ़ हो जाता है कि दलितों की संस्कृति और सवर्णों की संस्कृति में कितना अंतर है। इस संदर्भ में तेज सिंह कहते है – “इस दृष्टी से संस्कृति के दो रूप उभरकर सामने आ जाते है एक, सामान्य तो दूसरा विशिष्ट। सामान्य रूप में संस्कृति जनता की संस्कृति यानी जन संस्कृति होती है, जिसमे समाज के विभिन्न समुदायों की आदतों-रुचियों, रीती-रिवाजो, प्रथाओं, विश्वाशों, धारणाओं और विचारों में कुछ समानता होती है तो दूसरी तरफ विशिष्ठ रूप में संस्कृति वर्गीय संस्कृति होती है जिसे वर्चस्ववादी संस्कृति कहना जादा ठीक है उसका सीधा संबंध राजसत्ता से होता है यानी वह राजसत्ता की चाकरी करनेवाली संस्कृति होती है जो धर्म सत्ता से लेकर साम्प्रदायिक रूप धारण कर लेती है। यह संस्कृति का सबसे विनाशकारी रूप होता है जिसमे एक विशेष समुदाय और धर्म का हित सर्वोपरि होता है”।[9]

ऊपर युक्त उपन्यासों की तुलना के बाद बाद दलितों की और सवर्णों की संस्कृति में कितना अंतर है यही दिखाने का पर्यास रह है।

– माधनुरे श्यामसुंदर

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संदर्भ :-

1. अपेक्षा – सं. तेज सिंह – अक्तूबर, दिसंबर 2013

2. मुक्तिपर्व – मोहनदास नैमिशराय – अनुराग प्रकाशन नई दिल्ली, 2011

3. प्रतिरोध की बहुजन संस्कृति – डॉ. तेज सिंह – बुक्स इंडिया दिल्ली, 2011

4. झिपय्या – अरुण साधू – राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली,1998

5. छप्पर – जय प्रकाश कर्दम – राहुल प्रकाशन, दिल्ली, 2007

6. थमेगा नहीं विद्रोह – उमराव सिंह जाटव – वाणी प्रकाशन नई दिल्ली, प्र.स. 2008

  1. अपेक्षा – सं.तेज सिंह, अक्तूबर – दिसंबर – 2013, पृ. स. 52

  2. अपेक्षा – सं.तेज सिंह अक्तूबर – दिसंबर – 2013, पृ. स. 52

  3. अपेक्षा – सं.तेज सिंह अक्तूबर – दिसंबर – 2013, पृ. स. 52

  4. अपेक्षा – सं.तेज सिंह अक्तूबर – दिसंबर – 2013, पृ. स. 53

  5. मुक्तिपर्व –मोहनदास नैमिशराय – पृ.सं. 65

  6. प्रतिरोध की बहुजन संस्कृति डॉ. तेज सिंह पृ.सं. 05

  7. झिपय्या – अरुण साधू – पृ.सं. 15

  8. छप्पर – जय प्रकाश कर्दम – पृ.सं. 05

  9. प्रतिरोध की बहुजन संस्कृति –डॉ. तेज सिंह पृ.सं. 09

दलित कहानी की वैचारिकी-ओमप्रकाश मीना

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woman carrying pot on her head
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दलित कहानी की वैचारिकी

ओमप्रकाश मीना (शोधार्थी)

भारतीय भाषा केंद्र, ज.ने.वि.,नई दिल्ली -110067

हिंदी कहानी का आरम्भ उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम चरण से माना जाता है। इसका आरम्भ लोककथा शैली से होता है क्योंकि भारत में लोककथा शैली की एक प्राचीन परम्परा रही है। प्रेमचन्द और प्रसाद युग में आकर कहानी सुगठित रूप में सामने आती है। तब से लेकर हिंदी कहानी नई कहानी, अकहानी, सचेतन कहानी, सहज कहानी, समांतर कहानी, जनवादी कहानी, सक्रिय कहानी के दौर से गुजरती है लेकिन इस दौर की कहानियों की विडम्बना यह है कि इनमें दलित समाज लगभग गायब रहा है। प्रेमचन्द की ‘सद्गति’, ‘दूध का दाम’, ‘ठाकुर का कुआँ’ जैसी कहानियों में दलित चेतना एवं संघर्ष के संकेत देखने को मिलते हैं। सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ के यहाँ भी सुगबुगाहट के संकेत मात्र ही देखने को मिलते हैं, लेकिन उनके यहाँ भी दलित चेतना की प्रखर अभिव्यक्ति नहीं दिखाई पड़ती है। इस दौर की गैर-दलित कहानियाँ गाँधीवादी और मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित रहीं है, जो कि दलित समाज की संवेदना को समझने में कारगर साबित नहीं होती हैं। सही मायने में साहित्य में दलित समाज की उपस्थिति हाशिए पर रही है। इसलिए साहित्य में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए दलित साहित्यकार सामने आए। इसके साथ ही हिंदी में दलित साहित्य परम्परावादी साहित्य से अपनी अलग पहचान बनाता है। हिंदी में दलित साहित्य नब्बे के दशक में एक साहित्यिक आंदोलन के रूप में सामने आता है, जिनमें दलित साहित्यकारों ने अपनी अग्रणी भूमिका निभाई। इस तरह पारम्परिक साहित्य से अलग होकर अपने समाज की अस्मिता को लेकर दलित वर्ग के लेखकों ने सशक्त भूमिका निभाई।

1990 के बाद दलित कहानी लेखन में गतिशीलता आती है और फुटकर कहानियों के अलावा दलित कहानीकारों के अनेक कहानी संग्रह प्रकाशित हुए हैं। दलित कहानी की विकास यात्रा में सशक्त भूमिका निभाने वालों में– ‘ओमप्रकाश वाल्मीकि, डॉ. प्रेमशंकर, रजत रानी ‘मीनू’, मोहनदास नैमिशराय, डॉ.कुसुम वियोगी, डॉ.सुशीला टाकभौरे, सुमन प्रभा रजनी, वंदिता कमलेश्वर, डॉ.जयप्रकाश कर्दम, डॉ.श्यौराज सिंह ‘बेचैन’, प्रेम कपाड़िया, विपिन बिहारी, सत्यप्रकाश, डॉ.दयानन्द बटोही, बी.एल.नैयर, डॉ.कुसुम मेघवाल, सी.बी.भारती, कर्मशील भारती, तेजपाल सिंह ‘तेज’, उमराव सिंह ‘जाटव’, रत्नकुमार सांभरिया, डॉ.शत्रुघ्न कुमार, डॉ.कालीचरण सनेही, डॉ.हेमलता महीश्वर, रूपनारायण सोनकर, अनीता भारती, डॉ.अजमेर सिंह काजल, डॉ.सूरज बड्त्या, राजेंद्र बडगुजर, डॉ.कौशल पंवार और सुजाता पारमिता आदि हैं। इन कहानीकारों ने दलित कहानी के माध्यम से दलित समाज की संवेदनाओं को बारीकी से उकेरा हैं। इनकी कहानियां शोषणकारी व्यवस्था के खात्मे के लिए दलितों में हीनताबोध को तोड़ती हुई दलितों को संघर्ष के लिए अभिप्रेरित करती हैं, साथ ही महात्मा ज्योतिबा फुले एवं बाबा साहब के प्रगतिशील विचारों से रूबरू कराती हुई दलितों का मार्गदर्शन करती हैं। दलित कहानी की वैचारिकी के संदर्भ में डॉ.राम चंद्र लिखते हैं- “हिंसा और घृणा आधारित हिन्दू व्यवस्था की जगह समता एवं करुणा की आकांक्षा दलित वैचारिकी का आधार स्तम्भ है जो बुद्ध से डॉ.अम्बेडकर तक के लम्बे इतिहास की देन है। अम्बेडकरवादी विचारधारा की मौजूदगी दलित कहानी की मूल संवेदना है,जिससे दलित चेतना की निर्मिति हुई है। अस्मिताबोध दलित कहानियों का मूल कथ्य हैं।”1 दलित कहानियों में आक्रोश, प्रतिक्रिया एवं संघर्ष के स्वर विद्यमान है, शोषणकारी व्यवस्था का खात्मा कर समता, बंधुता एवं भाईचारे की स्थापना करना दलित कहानी का उद्देश्य है। सही मायने में दलित कहानी एक साहित्यिक आंदोलन के रूप में सशक्त रूप से सामने आती है, जिसे वैचारिक ऊर्जा बुद्ध के दर्शन, महात्मा फुले एवं बाबा साहब डॉ.अम्बेडकर के जीवन संघर्ष एवं विचारों से मिलती है।

संवैधानिक सुरक्षा एवं अधिकारों की प्राप्ति के बाद बाबा साहब के विचारों से प्रेरित समाज के निचले तबके के लोग शिक्षित होकर जातिगत पेशों से मुक्त होने लगे हैं। शिक्षा से दलितों, महिलाओं और तमाम निचले तबकों में चेतना आई है। वे अपने अधिकारों के लिए संघर्ष हेतु प्रेरित हुए हैं और अपने अस्तित्व एवं अस्मिता के लिए उठ खड़े हुए हैं। बाबा साहब का मूल मंत्र- ‘शिक्षित बनो’, ‘संगठित हो’ और ‘संघर्ष करो’ एवं ‘अप्पो दीपो भव’ अर्थात् ‘अपना दीपक स्वयं बनो’! इन मूल मंत्रों ने सदियों से शोषित दलितों में हीनताबोध को तोड़कर उनमें संघर्ष एवं चेतना के बीज बोये। इस संदर्भ में बाबा साहब लिखते हैं- “प्रत्येक व्यक्ति को शिक्षित किया जाना चाहिए। हर एक व्यक्ति में अपनी रक्षा की क्षमता होनी चाहिए। अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए, प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह बहुत जरुरी भी है।”2 यानी शिक्षा ही एक ऐसा अस्त्र है, जिससे सामाजिक भेदभाव और शोषणकारी व्यवस्था को खत्म किया जा सकता है। शिक्षित होने से दलित समाज सदियों से चली आ रही शोषणकारी व्यवस्था को समझ सकता है और अपने संवैधानिक एवं मानवीय अधिकारों के प्रति जागरूक हो सकेगा। शिक्षा ही उनके अन्दर बैठे हीनताबोध व धर्मशास्त्रों के आतंक को तोड़ पायेगी। इसी संदर्भ में शिक्षा की महत्ता के बारे में महात्मा ज्योतिबा फुले लिखते हैं- “विद्या के न होने से बुद्धि नहीं, बुद्धि के न होने से नैतिकता न रही, नैतिकता के न होने से गतिमानता, गतिमानता के न होने से धन-दौलत न मिली, धन-दौलत न होने से शूद्रों का पतन हुआ। इतना अनर्थ एक अविद्या से हुआ।”3 इससे स्पष्ट होता है कि शिक्षित न होने के कारण दलितों का सामाजिक-आर्थिक-धार्मिक शोषण किया जाता रहा है, अज्ञानतावश वे जाति-वर्ण व्यवस्था को नियति मान बैठे और अपने अधिकारों से अनभिज्ञ रहे।

संवैधानिक अधिकारों की प्राप्ति के बाद फुले एवं बाबा साहब के विचारों से प्रेरित दलित समाज शिक्षित होने लगा है और अपने अधिकारों को जानने लगा है। दलित कहानियों के मद्देनजर देखा जाए तो दलित कहानी शिक्षा के प्रति महात्मा फुले एवं बाबा साहब के दिए गए विचारों से पाठकों को अभिभूत कराती है। डॉ.सुशीला टाकभौरे की कहानी ‘सिलिया’ में सिलिया इस भेदभाव आधारित समाज में बराबरी एवं इज्जत का दर्ज़ा पाने के लिए संघर्ष करती है और शिक्षित होकर समाज में बदलाव लाने के लिए प्रतिबध्द होती है- “सिलिया सोचने लगी थी कि कैसे मात किया जा सकता है इस हालात को? कैसे हम अपनी इज्जत और बराबरी का दर्ज़ा पा सकते हैं? ….हीनता और दीनता के भाव न जाने कब के जा चुके थे? वह मन ही मन सोच रही थी झाड़ू नही कलम। हाँ कलम ही उसके समाज का भाग्य बदलेगी।”4 इस तरह सिलिया कलम के माध्यम से दलित समाज की प्रगति एवं विकास के लिए प्रतिबध्द होती है। शिक्षा के माध्यम से वह शोषणकारी समाज में बदलाव लाना चाहती है। वह दृढ़ संकल्प लेती है- “मैं बहुत आगे तक पढूंगी, पढ़ती रहूंगी, उन सभी परम्पराओं के मूल कारणों का पता लगाऊँगी, जिन्होंने हमें समाज में अछूत बना दिया है । मैं विद्या, बुद्धि और विवेक से अपने आपको ऊँचा साबित करके रहूंगी, किसी के सामने झुकूंगी नहीं, न ही कभी अपमान सहन करुँगी।”5 बाबा साहब ने सामाजिक आदोंलनों के माध्यम से सोये हुए दलित समाज में शिक्षा की अलख जगाई, क्योंकि उनका विश्वास था कि सामाजिक बुराईयों और अन्याय के खात्मे के लिए शिक्षा ही प्रभावकारी अस्त्र है।

बाबा साहब लड़का-लड़की की शिक्षा के समान अवसर के लिए अभिभावकों को प्रेरित करते हैं। बाबा साहब का मानना था कि ‘स्त्री शिक्षा के बगैर दलित समाज ब्राह्मणवाद के विरुद्ध जीती हुई लड़ाई हार जायेगा। सही मायने में सामाजिक विकास की यात्रा में स्त्री की सहभागिता के लिये स्त्री शिक्षा बहुत आवश्यक है। इसी संदर्भ में सन् 1913 में न्यूयार्क में पढ़ते हुए डॉ.अम्बेडकर ने अपने पिता के एक मित्र को जवाब देते हुए पत्र में लिखा था- “यह गलत है कि माँ-बाप बच्चों को जन्म देते हैं कर्म नहीं देते। माँ-बाप बच्चों के जीवन को उचित मोड़ दे सकते हैं, यह बात अपने मन पर अंकित कर यदि हम लोग अपने लड़कों की शिक्षा के साथ ही लड़कियों की शिक्षा के लिए भी प्रयास करें तो हमारे समाज की उन्नति तीव्र होगी। इसलिए आपको नजदीक रिश्तेदारों में यह विचार तेजी से फैलाना चाहिए।”6 इस तरह बाबा साहब समाज की उन्नति के लिए पुरुष के साथ-साथ स्त्री शिक्षा को भी अत्यंत आवश्यक मानते हैं। बाबा साहब की स्त्री शिक्षा के प्रति इस वैचारिकी को रजत रानी ‘मीनू’ ‘सुनीता’ कहानी में दर्शाती हैं। कहानी में सुनीता के माँ-बाप लड़की को पराया धन समझकर पढ़ाने के पक्ष में नहीं होते है, लेकिन सुनीता हार नहीं मानती और अपनी माँ को समझाती है- “माँ चमार और भंगी को इसलिए पुश्तों से शिक्षा से दूर रखा गया ताकि ये लोग अपना सफाई का,चमड़े का पुश्तैनी धंधा न छोड़ें। अगर पढ़ेगे तो ये बोलने लगेंगे। यह अपने हक़ की बात करने लगेंगे और उन्हें पाने लायक बन जायेंगे।”7 एक दिन सुनीता उच्च शिक्षा प्राप्त कर राजनीति में दलित समाज का प्रतिनिधित्व करती है और अपने माँ-बाप एवं समाज का नाम गौरवान्वित करती है। तब उसके पिता को अपनी इस पुरुषवादी मानसिकता पर शर्मिंदगी महसूस होती है कि लड़की को पढ़ाकर क्या करेगे, यह तो पराया धन है। इस तरह कहानी वर्णव्यवस्था के साथ-साथ पितृसत्ता को चुनौती देती है और बदलाव के लिए सोचने को विवश करती है। बाबा साहब के विचारों के चलते आज स्त्री सभी क्षेत्रों अपनी योग्यता के बल पर सहभागिता निभा रही हैं।

बाबा साहब के विचारों से प्रभावित होकर स्त्री हर क्षेत्र के विकास में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही है। दलित समाज की स्त्री शिक्षा के प्रति तो जागरूक हुई है, लेकिन उसे कदम-कदम पर इस पुरुषसत्ता एवं वर्णव्यवस्था से जूझना पड़ रहा है। दलित छात्रा ही नहीं दलित छात्रों को भी उच्च शिक्षण संस्थानों में जातिगत भेदभाव का शिकार होना पड़ रहा हैं, क्योंकि शिक्षण संस्थानों में मनुवादी मानसिकता से ग्रसित सवर्ण लोग उच्चे पदों पर आसीन है, वे नहीं चाहते कि दलित समाज पढ़-लिखकर उन्नति करें, क्योंकि इससे उनके वर्चस्व के खात्मे का भय है। शिक्षण संस्थानों में आज भी दलित छात्र-छात्राओं का मानसिक-शारीरिक शोषण होता है। इसी संदर्भ में ओमप्रकाश वाल्मीकि की ‘घुसपैठिये’ कहानी शिक्षण संस्थाओं में दलित छात्रों के साथ जातिगत भेदभाव के आधार पर हो रहे जुल्म एवं अत्याचारों का पर्दाफाश करती है। कहानी में दलित छात्र सुभाष सोनकर को सवर्ण छात्र प्रणव मिश्रा मारपीट करके अधमरा कर देता है। प्रणव मिश्रा के अंजाम पर कोई कार्यवाही नहीं होती है। डीन महोदय को दलित छात्रों का आना घुसपैठ लगता है। वह आरक्षण के विरोध में जहर उगलता है और दलित छात्रों को आरक्षण मिलना सवर्ण छात्रों के साथ नाइंसाफी मानता है, इसीलिए दलित छात्रों पर सवर्ण छात्रों की ज्यादतियों को उचित मानता है। इसके चलते दलित छात्र-छात्राएँ अपनी पढाई बीच में छोड़ देते हैं या आत्महत्या का विकल्प चुनते हैं। जो दलित छात्र विरोध करते हैं उन दलित छात्रों की हत्या तक कर दी जाती है। इस संदर्भ में लेखक लिखते हैं:- “सोनकर को पहली ही परीक्षा में फेल कर दिया गया था। क्योंकि उसने प्रणव मिश्रा के खिलाफ़ पुलिस में नामजद रपट लिखाने का दुस्साहस किया था, डीन और अन्य प्रोफेसरों तक शिकायत पहुँचाने की हिमाकत की थी, यह भूलकर कि वह इस चक्रव्यूह में अकेला फंस गया है, जहाँ से बाहर आने के लिए उसे कौरवों की कई अक्षैहिण सेना और महारथियों से टकराना पड़ेगा। परीक्षाफल का व्यूह भेदकर सोनकर बाहर नहीं आ पाया था। कई महारथियों ने निहत्थे सोनकर की हत्या कर दी थी।”8 इसी तरह जयप्रकाश कर्दम की ‘सूरज’ कहानी में दलित छात्र सूरज की हत्या को आत्महत्या कहकर प्रचारित किया जाता है। सूरज कॉलेज में अम्बेडकर जयंती मनाने के जरिये दलित छात्रों में संगठित चेतना एवं संघर्ष का बीज बोता है। इसकी प्रतिक्रिया में कुछ सवर्ण छात्र सूरज की हत्या कर देते हैं, क्योंकि इससे इनके जातिगत वर्चस्व एवं श्रेष्ठता को चुनौती मिलती है। इस तरह दलित कहानी शिक्षण संस्थानों में व्याप्त जातिगत भेदभाव के क्रूर एवं असंवेदनशील चेहरे को सामने लाती है और शिक्षण संस्थाओं पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करती है।

आज दलित वर्ग के छात्र-छात्राएँ अपने अधिकारों के प्रति सचेत हैं, उन्हें किसी द्रोणाचार्य का एकलव्य बनना मंजूर नहीं हैं। कावेरी ‘द्रोणाचार्य एक नहीं’ कहानी में शिक्षण संस्थानों में हो रहे भेदभाव को दर्शाते हुए दलितों में संघर्ष एवं चेतना के स्वर को अभिव्यक्त करती हैं। कहानी में दलित छात्र सुवास स्कूल हैडमास्टर द्वारा पिटाई करने और हरामी कहने पर प्रतिक्रियास्वरूप कहता है- “सर हरामी होगा झूठ बोलने वाला। मैं भीरु एकलव्य नहीं कि आप जैसे द्रोणाचार्य के सामने सब कुछ हार जाऊँ। आपके स्कूल में सिर्फ ऊँचे कहाने वाले ही पढ़ेगे। मुझे नहीं चाहिए ऐसी पढाई।”9 इस तरह दलित छात्र आज एकलव्य बनने को तैयार नहीं है, वह अपने अधिकारों के प्रति सचेत हो गया है। इसी संदर्भ में ओमप्रकाश वाल्मीकि की ‘कहाँ जाये सतीश?’ कहानी में भी दलित छात्र के संघर्ष को रेखांकित किया गया है। इस कहानी में सतीश बाबा साहब के विचारों से प्रेरित है और मेहनत-मजदूरी करके किताबें खरीदकर पढ़ाई करता है, ताकि वह शिक्षित होकर अपना गांव का विकास कर सके। उनकी ‘पच्चीस चौका डेढ़ सौ’ कहानी में भी अशिक्षित एवं अज्ञानी दलितों के शोषण को दर्शाया गया है, साथ ही शिक्षा से आई उनकी चेतना को भी रेखांकित किया गया है। इस कहानी में सुदीप पढ़-लिखकर नौकरी करता है और अपनी पहली तनख्वाह पिताजी को गिनाकर चौधरी के शोषण का पर्दाफाश करता है, तो उसके पिता में चौधरी के प्रति आक्रोश का भाव पैदा होता है। इस तरह बाबा साहब के विचारों से प्रेरित शिक्षित दलित वर्ग सवर्णों के शोषण तंत्र को समझने लगा है और अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने लगा है।

उच्च शिक्षण संस्थानों, अकादमिक संस्थानों एवं विश्वविद्यालयों में दलित छात्र-छात्राओं के साथ वर्णव्यवस्था के पुजारी मनुवादी प्रोफ़ेसर उनकी मेहनत और सपनों के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। ये लोग दलित छात्रों को अयोग्य घोषित कर उनकी आरक्षित सीटें खाली रखतें हैं। इसी संदर्भ में डॉ.दयानन्द बटोही ‘सुरंग’ कहानी में दर्शाते हैं। कहानी में एक दलित छात्र को रिसर्च करने नहीं दिया जाता है, साक्षात्कार में डॉ.विष्णु सर हिलाते हुए कहता है- “कोई हो, सरकार भले कानून बना दी हो, घोड़े की रस्सी तो हमारे हाथों में हैं। आपका रिसर्च में नही होगा।”10 इस तरह विश्वविद्यालयों में दलित शोधार्थियों के साथ रिसर्च करने में मनुवादी लोग अड़चने पैदा करते हैं, लेकिन दलित वर्ग अपने अधिकारों के प्रति सचेत है और शोषण एवं भेदभाव के खिलाफ़ प्रतिक्रिया व्यक्त करने लगा है। कहानी में दलित शोधार्थी इस भेदभाव के खिलाफ़ प्रतिक्रिया व्यक्त करता है- “डॉ.साहब आप भूल जाये कि मैं हरिजन हूँ, गुलाम हूँ। पराधीनता की जंजीर टूटनी है। आज तक आप जैसे तानाशाह ने अँधेरे में हम लोगों को रखा है। अब मैं पूछता हूँ-आप क्यों रिसर्च नहीं करने देगें? ….डॉ.साहब यह भूल जाइये कि आपसे दया की भीख मांग रहा हूँ। मैं पूछता हूँ आप लोग हरिजन कल्याण का ढ़िंढ़ोरा क्यों पिटते हैं, आरक्षण कहाँ दे रहे हैं।”11 इस तरह कहानी उच्च शिक्षण संस्थानों में मनुवादी मानसिकता से ग्रसित ऊँचे पदों पर पदासीन सवर्णों के शोषण का प्रतिकार करती है और शिक्षित दलित समाज में बदलाव की बेचैनी को दर्शाती है। अम्बेडकरवादी विचारों से प्रेरित दलित शिक्षार्थी एकलव्य बनने की भूल नहीं करते हैं, बल्कि अपने शैक्षिक हक़ के लिए संघर्ष करते हैं एवं शोषण का प्रतिकार करते हैं|

बाबा साहब ने दलितों में शिक्षा के प्रति चेतना जाग्रत की है। इसी के चलते शिक्षा से दलितों में हीनताबोध की भावना ख़त्म होने लगी और उनमें स्वाभिमान, संघर्ष एवं चेतना का स्वर मुखरित हुआ हैं। इसके चलते दलित समाज शोषणकारी एवं अपमानजनक पुश्तैनी धंधों को त्यागकर नए रोजगार पाने की ओर उन्मुख हुआ है। इसी संदर्भ में सूरजपाल चौहान की ‘परिवर्तन की बात’ दलितों में व्याप्त चेतना को दर्शाती है। कहानी में दलित किसना मरे जानवर उठाने वाला पुश्तैनी धंधा का त्यागकर दूसरा धंधा अपनाने की पहल करता है। इस संदर्भ में वह थानेदार से कहता है- “क्या आप यही चाहते हैं कि हम जीवन भर गाँव के मरे जानवर ही उठाते रहें। अब समय बदल रहा है, लोग अपना पुश्तैनी धंधा छोड़कर दूसरे कार्य करने लगे हैं। हम दूसरा अन्य कोई भी काम कर अपना पेट भर लेंगे, लेकिन मरा जानवर हम नहीं उठायेंगे।”12 उनकी ‘साजिश’ कहानी भी इसी ओर संकेत करती है, कहानी में जब बैंक मैनेजर नत्थू को बेबकूफ बनाकर टेम्पों के लिये ऋण ना देकर सूअर फॉर्म के लिए ॠण दे देता है। नत्थू की पत्नी शांता बैंक मैनेजर की साजिश का पर्दाफ़ाश करती है और नत्थू के साथ दलित युवकों को लेकर बैंक के बाहर इकट्ठा होकर बैंक मैनेजर के खिलाफ आवाज उठाती है। अंत में बैंक मैनेजर को नत्थू के लिये ट्रांसपोर्ट का लोन सैक्शन करना पड़ता है। यह कहानी शिक्षित दलित समाज में संगठित चेतना को दर्शाती है। यह बदलाव की ऊर्जा बाबा साहब एवं फुले के विचारों एवं संघर्ष से मिल रही हैं। उनके विचारों एवं संघर्ष से प्रेरित होकर दलित समाज पारम्परिक शोषणकारी व्यवस्था के बदलाव लिए एकजुट होकर संघर्षरत हो गया है। दलितों ने शोषण के तमाम तरीकों को समझ लिया हैं, जिसे वे संगठित होकर बेनकाब कर रहे हैं। हालांकि इस बदलाव के लिए उन्हें काफी कठिनाईयाँ एवं संघर्ष झेलने पड़ते हैं, विशेषकर गाँवों में बदलाव कड़ी चुनौती है, लेकिन इस चुनौती को दलितों की संगठित चेतना ने स्वीकार कर लिया है।

स्त्री वर्षों से पुरुषसत्तात्मक व्यवस्था की शिकार रही है, उसकी इच्छाएं-आकांक्षायें, सुख-दुःख सब पुरुष पर निर्भर रही हैं। स्त्री को भोग्य-विलासिता की वस्तु समझा जाता रहा है। हिन्दू धर्म में तो अजीब विडम्बना देखने को मिलती है-एक तरफ़ स्त्री को माँ दुर्गा, काली, सरस्वती, लक्ष्मी आदि देवियों के रूप में पूजा जाता रहा है, दूसरी तरफ स्त्री पुरुषसत्तात्मक व्यवस्था की शिकार हो रही है, उन्हें भोग्य की वस्तु समझा जाता रहा है। नब्बे के दशक में स्त्री विमर्श स्त्री की समस्याओं को लेकर सामने आया। मैत्रेयी पुष्पा, मन्नू भंडारी, प्रभा खेतान, डॉ.सुमन राजे, नासिरा शर्मा, ममता कालिया आदि स्त्री साहित्यकारों ने स्त्री साहित्य में सशक्त भूमिका निभाई। शोषणकारी पुरुषसत्तात्मक व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह का स्वर उभरकर सामने आया। लेकिन दलित स्त्री का स्वर इनके यहाँ भी दबा ही रहा। इसी के चलते दलित स्त्री लेखन सामने आया है, क्योंकि यहाँ समस्या सहानुभूति-स्वानुभूति को लेकर है। स्त्री लेखिका स्त्री की व्यथा को समझ सकती है, लेकिन सवर्ण स्त्री लेखिका एक दलित स्त्री की व्यथा को ठीक से अभिव्यक्त नहीं कर पा रही है। दलित साहित्य ने गैर एवं दलित स्त्रियों की व्यथा एवं वेदना का चित्रण बारीकी से किया है। दलित और गैर-दलित जीवन में मौजूद पितृसत्ता पर सवाल करना दलित कहानी का महत्त्वपूर्ण मुद्दा रहा है। दलित स्त्री लेखन में दलित समाज के अंतर्विरोधों पर प्रकाश डाला गया है | दलित साहित्य में स्त्री और पुरुष लेखन का वैचारिक आधार फुले-अम्बेडकरवाद ही है। बाबा साहब डॉ.अम्बेडकर ने नारी के चहुमुंखी विकास के लिए स्वतंत्र भारत के पहले विधि मंत्री के रूप में ‘हिन्दू कोड़ बिल’ का प्रारूप बनाया। परन्तु पुरुषवादी मानसिकता के चलते संसद में यह बिल पास न हो सका और इससे आहत होकर उन्होंने मंत्रीपद से त्यागपत्र दे दिया। हालांकि बाद में ‘हिन्दू कोड़ बिल’ चार भागों में बांटकर कानून में शामिल कर लिया गया है, जिनमें बाबा साहब के ‘हिन्दू कोड़ बिल’ सिद्धांत शामिल है। इस तरह बाबा साहब ने महिलाओं की दशा सुधारने में अथक प्रयास किये हैं।

बाबा साहब समाज की उन्नति के लिए महिलाओं की उन्नति को आवश्यक मानते हैं- “मैं समाज की उन्नति का अनुमान इस बात से लगता हूँ कि उस समाज में महिलाओं की कितनी प्रगति हुई है। नारी की उन्नति के बिना समाज एवं राष्ट्र की उन्नति असम्भव है।”13 इस तरह वे समाज की उन्नति एवं निर्माण में नर-नारी की समान सहभागिता पर जोर देते हैं। उन्होंने महिलाओं की उन्नति के लिए स्त्री शिक्षा को आवश्यक माना, साथ ही दलित समाज की प्रगति का पैमाना दलित स्त्री की प्रगति से माना। इस संदर्भ में उनका मानना था कि ‘यदि लड़कों के साथ-साथ लड़कियों की शिक्षा की ओर भी ध्यान देने लग जाए तो हम अतिशीघ्र प्रगति कर सकते हैं।’ शिक्षा के कारण आज स्त्री हर क्षेत्र में प्रवेश कर चुकी है, कोई भी क्षेत्र अछूता नहीं रहा है।

दलित स्त्री दोहरे शोषण की मार झेल रही है। बाबा साहब के विचारों से प्रेरित होकर गैर-दलित एवं दलित स्त्रियाँ शिक्षित होकर उन्नति कर रही हैं और दुनिया के हर क्षेत्र में अपनी भागीदारी निभा रही हैं। वे अपने अधिकारों के प्रति सचेत हो गयी हैं, लेकिन अभी तक स्त्री के प्रति पुरुषवादी समाज की सोच नहीं बदली है। वह स्त्री को भोग्य-विलासिता की वस्तु के रूप में देखता आ रहा है और इसी सोच की शिकार अधिकतर दलित वर्ग की स्त्री होती रही हैं। हर रोज दलित स्त्रियों का शारीरिक—मानसिक शोषण होता रहा है। यहाँ तक की वह दलित समाज में भी पितृसत्ता के शोषण की शिकार होती हैं।

आज स्त्री किसी भी रिश्ते के छत के नीचे पूर्णरूपेण सुरक्षित नहीं है क्योंकि खून के रिश्तों में भी यौन शोषण की बू आने लगी है। इसलिए बाबा साहब ने कहा था कि ‘समाज की उन्नति स्त्री की उन्नति के बिना संभव नहीं है। जिस दिन स्त्री बैखोफ होकर स्वतंत्र, उन्मुक्त जीवन जीने लगेगी, उस दिन से सही मायने में समाज उन्नति करने लगेगा’। पुरुषसत्तात्मक समाज में आज भी स्त्री सुरक्षित नहीं है, इसलिए दलित एवं गैर-दलित स्त्री को अपने अधिकारों एवं सुरक्षा का बीड़ा स्वयं उठाना होगा। बाबा साहब के मूल मंत्र- ‘अप्पो दीपो भव’। अर्थात् ‘अपना दीपक स्वयं बनो’ से प्रेरित होकर अपना निर्णय खुद लेना होगा। इसके लिए स्त्री को उच्च शिक्षा प्राप्त करनी होगी, ताकि आत्मनिर्भर बनकर स्वाभिमान एवं गौरव की जिन्दगी जी सके। दलित स्त्री एवं पुरुष कथाकारों की कहानियों में श्रम से जुड़ी यौन समस्या, पुरुषसत्तात्मक एवं वर्ण-व्यवस्था के विरुद्ध आक्रोश, समाज में बराबरी के लिए संघर्ष, शिक्षा के प्रति जाग्रति बड़ी जीवंतता के साथ प्रकट हुई है। इस संदर्भ में ओमप्रकाश वाल्मीकि की ‘फेमनिस्ट’ कहानी प्रमुख है, जिसमें श्वेता अपने पुरुषवादी पति व समाज का प्रतिकार करती है। वह पुरुषोत्तम राम एवं भीष्म पितामह पर सवाल खड़ा करती है- “और जानती हूँ तुम्हारे मर्यादा पुरुषोत्तम राम को जो वास्तव में घोर मर्दवादी थे। उस राम को जानती हूँ जो सीता जैसी पतिव्रता नारी को भी शंका की निगाह से देखा था। और अंततः अग्नि परीक्षा तक ली थी। उस राम को,जो सूर्पनखा के नाक-कान काटकर कुरूप बनाया था।…“नहीं, सिर्फ राम ही नहीं, तुम्हारे दूसरे महापुरुष भीष्म पितामह को भी मैं दंभी, दुराचारी और मर्दवादी ही मानती हूँ। …हाँ भीष्म पितामह भी मर्दवादी ही थे, दुराचारी थे। वरना क्या जरुरत थी अपने रिश्तेदारों के लिए अम्बा, अम्बिका और अंबालिका को अपने बाजू की ताकत से अगवाकर उन्हें सौपने की। आज की सही भाषा में उन्होंने ‘किडनैप’ ही तो किया था।”14 यह कहानी शोषणकारी परम्परा के आदर्श एवं प्रतीकों के नकारती है। इसमें पुरुषसत्तात्मक व्यवस्था के प्रति नकार की अभिव्यक्ति देखने को मिलती है, साथ ही स्त्री के अस्तित्व एवं अस्मिता की लड़ाई भी। बाबा साहब के विचारों से प्रेरित श्वेता स्त्री की दासता एवं शोषण के लिए बनाए गए प्रतिमानों, आदर्शों, नैतिक बंधनों, धार्मिक एवं सामाजिक मूल्यों को तोड़ती है और अपने अस्तित्त्व एवं अस्मिता के लिए पुरुषवादी पति से लड़ाई लड़ती है।

बाबा साहब के विचारों से प्रेरित होकर दलित स्त्री में सामाजिक सहभागिता की आकांक्षाएं जाग्रत हुई हैं। वह हर क्षेत्र में बराबरी के लिए संघर्ष कर रही हैं। इसी संदर्भ में जयप्रकाश कर्दम की ‘मूवमेंट’ कहानी में सुनीता हर क्षेत्र में बराबरी की बात करती है। वह अपने पति के मूवमेंट पर सवाल खड़ा करती है- “तुम बराबरी की बात करते हो न, बराबरी का मतलब है हर क्षेत्र में हर स्तर पर बराबरी। हर किसी की अवसर की स्वतंत्रता और समानता। मेरी सारी जिन्दगी तो परिवार की जिम्मेदारियाँ निभाते हुए घर की चारदीवारी की भेंट चढ़ रही है। मेरे लिए कौनसा अवसर है इस पर नहीं सोचोगे तुम कभी। यही तो सबसे बड़ी दिक्कत है। मैं पूछती हूँ क्या यही प्रगतिशीलता है तुम्हारी कि बाहर जाकर अन्याय और असमानता के खिलाफ भाषण झाड़ों और खुद घर में असमानता का व्यवहार करो? यही मूवमेंट है तुम्हारा?’’15 यह कहानी दलित समाज के उस अन्तर्विरोध को उजागर करती है, जहाँ दलित कार्यकर्त्ता, दलित साहित्यकार बातें तो स्त्री मुक्ति की करते हैं। अपने भाषणों एवं लेखन में स्त्री-पुरुष समानता की बात करते हैं लेकिन अपने परिवार में उनकी पुरुषवादी मानसिकता हावी रहती है। इस तरह कहानी समाज की उन्नति के लिए स्त्री-पुरुष सहभागिता पर जोर देती है।

दलित स्त्री का शारीरिक शोषण जमींदारों, मिल कारखानों के मालिकों द्वारा होता रहा है। लेकिन बाबा साहब के विचारों से प्रेरित दलित स्त्री शोषण का प्रतिकार करने लगी है। जयप्रकाश कर्दम की ‘सांग’ कहानी में चंपा का बीमार पति भुल्लन मुखिया के खेत पर काम कर पाने की स्थिति में नहीं है| थोडा मन बहलाने के लिये वह सांग का खेल देखने चला जाता है| इस पर मुखिया नाराज हो जाता है और बेरहमी से भुल्लन को पीट-पीटकर मार देता है। पति के मरने के कुछ वर्ष बाद गाँव में फिर से सांग खेला जाता है| शीला के जिद करने और अपने पति की हत्या एवं शोषण के खिलाफ़ प्रतिक्रिया व्यक्त करने चंपा सांग देखने जाती है। इस पर मुखिया चंपा को गाली-गलौच देता हुआ उसे मारने के लिए हाथ उठाता है तो चंपा अपने हाथ में पकड़े गंडासे से मुखिया के सिर के दो टुकड़े कर देती है। यह कहानी हिंसा को प्रेरित नहीं करती है, बल्कि इस वर्णवादी एवं पुरुषवादी व्यवस्था का प्रतिकार करती हैं। दलित स्त्री की हत्या और बलात्कार जैसी घटनाएँ आज भी हर-रोज बेलगाम घटित हो रही है। इसी तरह गौरीशंकर नागदंश की ‘जंगल की आग’ कहानी में विधायक फुलतोड़ती देवी बसमतिया का बलात्कार कर रहे मंत्री जगनलाल की हत्या कर देती है। उसे जेल हो जाती है, वह एक वाक्य बार-बार दुहराती है- “मैंने जंगल में आग लगा दी, मैंने जंगल में…।”16 यानी फुलतोड़ती देवी ने स्त्री वर्ग में शोषणकारी व्यवस्था के खिलाफ़ प्रतिरोध, आक्रोश एवं संघर्ष की आग लगा दी है। उसके स्वर में आक्रोश एवं प्रतिक्रिया के जज्बात विद्यमान है।

इसी क्रम में हुबलाल राम अकेला की कहानी ‘किसके हो तुम’ समाज में दहेज़ समस्या को रेखांकित करती है। कहानी में सरिता यमराज से कहती है- “महामहिम हमारे देश में कुछ लड़कियों की शादी उनकी मर्ज़ी के मुताबिक नहीं होती हैं।…हमारे देश में नौकरी पाने के लिए नौजवान लाखों रुपये रिश्वत में देते हैं बदले में आठ-दस घंटे प्रतिदिन काम कर चार-पांच अंकों में तनख्वाह पाते हैं। परन्तु एक दुल्हन लाखों रूपये दहेज़ लेकर आने के बावजूद ससुराल की ऐसी अवैतनिक लौंडी बना दी जाती है। जिसका शारीरिक और मानसिक शोषण जीवनपर्यंत होता रहता है।”17 यह कहानी देश की भ्रष्टाचारी व पुरुषसत्ता पर सवाल खड़ा करती है। इस तरह दलित कहानी शोषणकारी व्यवस्था का पर्दाफाश करती हुई उसके प्रति आक्रोश एवं चेतना के स्वर को रेखांकित करती है।

दलित कहानी बाबा साहब के अंतर्जातीय विवाह संबंधी विचारधारा को सामने लाती है। बाबा साहब डॉ.अम्बेडकर जातिप्रथा के खात्मे के लिए अंतर्जातीय विवाह पर जोर देते हुए कहते हैं- “मुझे भरोसा है कि अंतर्जातीय विवाह ही इसका वास्तविक उपचार है। रक्त के एकीकरण से ही आपसी भाईचारे की भावना पैदा की जा सकती है और जब तक यह बंधुत्व की भावना नहीं होगी, संबंधी होने, जुड़े होने की भावना सर्वोपरि नहीं होगी, जाति द्वारा पैदा की गयी अलगाव की भावना, भिन्न होने की भावना समाप्त नहीं होगी। …जातिप्रथा समाप्त करने के लिए वास्तविक उपचार अंतर्जातीय विवाह है। जातिप्रथा के निर्मूलन के रूप में कोई अन्य व्यवस्था कारगर नहीं हो पायेगी।”18 बाबा साहब का मानना था कि कानूनी तौर पर समानता तो मिल चुकी है, लेकिन समाज में जातिगत भेदभाव बना हुआ है, इसलिए वे सामाजिक स्तर पर समानता लाने के लिए रोटी-बेटी के संबंध बनाने पर जोर देते हैं। इसी संदर्भ में राज वाल्मीकि की ‘इस समय में’ कहानी इसी विचारधारा पर आधारित है। कहानी में मिली अपनी पिताजी से कहती है- “पापा आज हम सब एक साथ मिलकर शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। पढ़-लिखकर जागरूक बनेंगे, अच्छा कैरियर बनायेगें, इंटर कास्ट मैरिज करेंगे तो धीरे-धीरे जाति का फैक्टर डिमोलिश हो जायेगा। पति कहेगा, मैं बच्चों के साथ अपना टाइटल लगाऊंगा और पत्नी कहेगी मैं अपना टाइटल लगाऊँगी। अंत में निर्णय लिया जायेगा कि किसी का टाइटल न लगाया जाए। इस तरह जाति का विनाश हो जायेगा।”19 कहानी बाबा साहब की वैचारिकता को दर्शाती है, साथ ही लोगों को अंतर्जातीय विवाह के लिए प्रेरित करती है। इस कहानी में शिक्षित नई पीढ़ी का अंतर्जातीय विवाह के प्रति रुझान को दर्शाया गया है। इसी संदर्भ में ओमप्रकाश वाल्मीकि की ‘मैं ब्राह्मण नहीं हूँ’ कहानी सुनीता के माध्यम से बाबा साहब के विचारों को प्रतिष्ठापित करती है। कहानी में जब गुलजारी लाल शर्मा मोहनलाल मिरासी के बेटे अमित के साथ अपनी बेटी सुनीता की शादी तय करता है, लेकिन जब गुलजारी लाल को मोहनलाल की मिरासी जाति होने का पता चलता है तो वह अपनी बेटी की अमित के साथ शादी करने से मना कर देता है। लेकिन सुनीता इसका प्रतिकार करती है- “पापा …आप बने रहिये श्रेष्ठ …ब्राह्मण …मिरासी से ऊँचे। लेकिन मैंने कभी भी अपने आपको ब्राह्मण नहीं माना …यह सच्चाई है। न मैंने ‘शर्मा’ होने की आड़ में कभी ब्राह्मण बनने की कोशिश की। मेरे लिए ब्राह्मण होना ही इंसान की श्रेष्ठता का प्रतीक नहीं है। यह एक भ्रम है जिसमें सभी ऊँच-नीच का खेल खेल रहे हैं। आप जितना मातम मनाएं …मैं शादी अमित से ही करुँगी। उसके पुरखों का मिरासी होना मेरे लिए कोई मायने नहीं रखता …।”20 कहानी शिक्षित दलित-गैर दलित युवकों-युवतियों में अंतर्जातीय विवाह के प्रति बढ़ते रुझान की ओर संकेत करती है। जाति को लेकर शिक्षित गैर-दलित वर्ग की भी सोच बदलने लगी है। इसी तरह राज वाल्मीकि की ‘खुशबू अचानक’ कहानी अंतर्जातीय विवाह के प्रति नई पीढ़ी के दृढ़ संकल्प को रेखांकित करती है। कहानी का पात्र रोहित दलित और मोहिनी राजपूत समाज से है, दोनों एक-दूसरे को प्रेम करते हैं और तमाम बाधाओं का अनुमान होते हुए भी शादी करने का दृढ़ संकल्प करते हैं। रोहित मोहनी को खाप पंचायत एवं उसके कट्टर परम्परावादी राजपूत पिता की अडचनों के बारे में ध्यान दिलाता है, लेकिन मोहिनी बिना डरे व्यवस्था के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए पहल करती है। कहानी अंतर्जातीय विवाह की पहल के लिए युवाओं को प्रेरित करती है और जाति व धर्म के बंधन को तोड़कर स्वतंत्र जीवन जीने के लिए प्रेरणा देती है।

लेकिन अंतर्जातीय विवाह को सामाजिक रूप से स्वीकृति नहीं मिली है। सवर्णों की नज़र में अंतर्जातीय विवाह का मतलब दलितों के साथ वैवाहिक संबंध बनाने से नहीं, बल्कि सवर्णों के बीच के वैवाहिक संबंध से है। जयप्रकाश कर्दम की ‘नो बार’ कहानी इसी ओर संकेत करती है। कहानी में अनीता के पिता को राजेश के दलित होने का अहसास होता है तो वह अपनी बेटी से उसकी जाति के बारे में पूछता है। इस पर अनिता जाति के औचित्य को दरकिनार करती है, लेकिन अनीता का पिता अपनी बात कहता है- “वह सब तो ठीक है कि हम जाति-पांति को नहीं मानते और हमने मैट्रोमोनियल में ‘नो बार’ छपवाया था। लेकिन फिर भी कुछ चीजे तो देखनी होती है। आखिर ‘नो बार’ का यह मतलब तो नहीं कि किसी चमार-चूहड़े के साथ …।”21 कहानी सैध्दांतिक एवं व्यावहारिक जीवन में अंतर का पर्दाफाश करती है। सवर्णवादी समाज के लिए अंतर्जातीय विवाह का संबंध ब्राह्मण-वैश्य-क्षत्रिय समाज से है, न कि दलितों के साथ। सवर्ण समाज अंतर्जातीय विवाह दलित समाज के साथ करना ही नहीं चाहता है। इसी तरह सूरजपाल चौहान की ‘हैरी कब आएगा?’ कहानी इसी यथार्थ को उजागर करती है। कहानी का पात्र हैरी मोनिका पर मुग्ध होकर उससे शादी करने का फैसला करता है। यहाँ तक इस संबंध में वह अपने माँ-बाप से भी बात कर लेता है। लेकिन जैसे ही हैरी को मोनिका के दलित जाति से होने का पता चलता है तो वह मोनिका से शादी करने का निर्णय बदल लेता है और मोनिका से मुंह मोड़ लेता है। यहाँ तो जातिप्रथा के चलते परस्पर प्यार और स्नेह का अर्थ ही बदल जाता हैं।

आज प्रेम विवाह के चलते अंतर्जातीय विवाह में बढ़ोतरी तो हुई है, लेकिन सामाजिक तौर पर अनुमति नहीं मिल पा रही है। इसमें समाज काफी अड़चने पैदा करता है, क्योंकि हमारा समाज पूर्वाग्रह से ग्रसित है और रुढिगत परम्पराओं में बंधा हुआ है, जिसके चलते प्रेम विवाह को ख़ारिज करता है। उनकी नज़र में प्रेम विवाह समाज के लिए अभिशाप जैसा कार्य है। यहाँ तक की समाज के परम्परावादी लोग अमानवीयता की हद पार करते हुए अंतर्जातीय विवाह करने वाले प्रेमी युगल को मौत के घाट उतार देते हैं। इस संदर्भ में भागीरथ मेघवाल की ‘सूरज की चिता’ कहानी अंतर्जातीय विवाह के प्रति सवर्णवादी समाज की अमानवीय मानसिकता को दर्शाती है। कहानी की नायिका चंदा गाँव के जमींदार ठाकुर की बेटी है, जो अपने गाँव के दलित युवक के साथ शहर भागकर पति-पत्नी के रूप में रहने लगती है। लेकिन चंदा के भाई द्वारा दोनों को धोखे से गाँव बुलाया जाता है और सरेआम सूरज को जिन्दा जला दिया जाता है।

अंतर्जातीय विवाह में जाति एक दीवार के रूप में खड़ी है। जाति-व्यवस्था को बनाए रखने में धर्म एवं शास्त्रों की अहम भूमिका रही हैं, क्योंकि हिन्दू समाज जाति को धर्म से जोड़कर देखता है। इस संदर्भ में बाबा साहब लिखते हैं- “अंतर्जातीय भोज एवं विवाह उन आस्थाओं और सिध्दांतों के प्रतिकूल हैं जिन्हें हिन्दू पवित्र मानते हैं। जातिप्रथा ईंट की दीवार या कांटेदार तारों की पंक्ति जैसी भौतिक वस्तु नहीं है जो हिन्दुओं को आपस में रोक रही हो, इसलिए उसे गिराना ही होगा।”22 इसलिए बाबा साहब अंतर्जातीय विवाह के लिए समाज को शास्त्रों एवं धर्म के आतंक से मुक्त कराने की बात करते हैं- “अंतर्जातीय विवाह और भोज कृत्रिम तरीके से जबरदस्ती घुट्टी पिलाने की तरह है। प्रत्येक स्त्री व पुरुष को शास्त्रों की गुलामी से मुक्त करना होगा। लोगों के मस्तिष्क को शास्त्रों पर आधारित घातक धारणाओं से स्वतंत्र करना होगा। तब ये सभी स्त्री-पुरुष आपके बताये बिना ही अंतर्जातीय भोज व विवाह करेंगे।”23 यही वजह है कि समाज धर्म एवं शास्त्रों के आतंक से मुक्त नहीं है और वह जाति-व्यवस्था में जकडा हुआ है, क्योंकि समाज में धर्म की पवित्रता के नष्ट होने से अनिष्ट की आशंका डर समाया हुआ है। इसलिए सबसे पहले इस डर को निकालना होगा, वरना जातिप्रथा के खात्मे के लिए अंतर्जातीय भोज एवं विवाह का अभियान सफल नहीं हो पायेगा। यही कारण है कि सैध्दांतिक जीवन में समानता की बात करने वाला सवर्ण समाज व्यावहारिक जीवन में जातिप्रथा से मुक्त नहीं हो पाया है। इसके लिए समाज को धर्म एवं शास्त्रों की घातक धारणाओं से निजात दिलानी होगी। अंतर्जातीय विवाह को लेकर लिखी गई दलित कहानी बाबा साहब डॉ.अम्बेडकर के विचारों को सही ढंग से व्याख्यित करती है, साथ ही अंतर्जातीय विवाह के संबंध में समाज की सोच को बारीकी से सामने रखती है।

दलित कहानी दलित आंदोलन की प्रमुख चुनौतियों से टकराती है। दलित आंदोलन में बड़ी चुनौतियां दलित समाज में आपसी अंतर्विरोध, उपजातियों में विभाजन, रूढ़ियों एवं आडम्बरों और शिक्षित दलित वर्ग में व्याप्त ब्राह्मणवादी मानसिकता, जातीय हीनताबोध एवं समाज के प्रति उनकी उदासीनता आदि हैं। ये समस्याएँ दलित आन्दोलन को कमजोर बना रही हैं। दलित आन्दोलन को आगे बढ़ाने के लिए इन चुनौतियों से निपटना अत्यंत आवश्यक है। दलित समाज भी उपजातियों में बंटा हुआ है। उनमें आपसी अंतर्विरोध बार-बार उभरकर सामने आता है । बाबा साहब ने ‘संगठित रहने’ पर जोर दिया था ताकी एकजुट होकर इस शोषणकारी वर्ण-व्यवस्था का खात्मा किया जा सके। दलित कहानी उनके बीच आपसी अन्तर्विरोधों से अवगत कराती हुई बाबा साहब के विचारों के मद्देनजर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करती है। जयप्रकाश कर्दम की ‘गोष्ठी’ कहानी बुद्धिजीवी दलित लेखकों के आपसी अन्तर्विरोध का पर्दाफाश करती है। कहानी भंगी और चमार जाति के लेखकों में जातीय-भेदभाव को दर्शाती है- “डॉ.समिपी ने बेझिझक कहा, “वह भंगी लगता है। देखो न अपने प्रत्येक लेख में वह ओमप्रकाश वाल्मीकि का उल्लेख जरुर करता है और वाल्मीकि को ही समस्त दलित लेखकों में सबसे ऊपर रखता है।”24 कहानी में दलित लेखक डॉ.समीपी का यह वाक्य उसकी संकीर्ण सोच को दर्शाता है। कुमार आदित्य डॉ.समीपी की इस संकीर्ण सोच पर अफ़सोस व्यक्त करता है- “कुमार आदित्य, डॉ.सुमन समीपी को, बौद्ध और अम्बेडकरवादी आन्दोलन से जुड़ा होने के कारण समन्वयवादी व्यक्ति समझते थे। डॉ.समीपी के मुख से इस तरह की संकीर्णतापूर्ण बातें सुनकर उनको धक्का सा लगा और वह सोचने को विवश हुए कि यह कैसा अम्बेडकरवाद है? बाबा साहब अम्बेडकर ने जीवन-भर जाति का विरोध किया और जाति-विहीन समाज के निर्माण के लिए संघर्षरत रहे। फिर कैसे उनका कोई अनुयायी जाति-संकीर्णता की बात कर सकता है?”25 इस तरह के दलितों में व्याप्त उपजातिगत भेदभाव जाति एवं वर्ण व्यवस्था के खिलाफ आंदोलन के लिए चिंता का विषय बना हुआ है। समानता, समता, बंधुत्व की बातें करने वाले दलित बौद्धिक वर्ग व्यवहार में उपजातिगत भेदभाव से ग्रसित हैं। दलित आंदोलन का उद्देश्य भेदभाव रहित, समानता पर आधारित समाज की स्थापना करना है। इसके लिए दलितों को उपजातिगत भेदभाव त्यागकर संगठित संघर्ष करना होगा। इस संदर्भ में कुमार आदित्य के माध्यम से जयप्रकाश कर्दम कहानी में दर्शाते हैं- “सबसे पहले हम भंगी और चमार, सभी पढ़े-लिखे और समझदार लोगों को यह समझाने का प्रयास करेंगे कि हमारी आर्थिक दुर्दशा और सामाजिक पिछड़ेपन का कारण हमारी जाति हैं। हमें जाति व्यवस्था का विरोध करना चाहिए। हमारी उन्नति और विकास जाति-व्यवस्था के नाश पर टिका हुआ है। हमें जातिवाद से ऊपर उठना चाहिए और इसके लिए हमें चाहिए कि हम अपने अन्दर से जाति-भेद की दूरी को मिटायें।…हम लोगों को बताए कि वे आपस में रोटी-बेटी के संबंध बनायें। रक्त संबंध बनाने से अपने आप नजदीकियां आ जाएगी।”26 कहानी डॉ. अम्बेडकर के रोटी-बेटी के संबंध की वैचारिकी के माध्यम से दलितों को जाति-वर्ण व्यवस्था के नाश के लिए संगठित संघर्ष के लिए आह्वान करती है। आवश्यक कि सबसे पहले दलित समाज में व्याप्त उपजातिगत भेदभाव को ख़त्म करें। शिक्षित वर्ग को प्रेम विवाह के माध्यम से उपजातिगत भेदभाव को खत्म करने की ओर कदम उठाने चाहिए।

इसी क्रम में ओमप्रकाश वाल्मीकि ‘शवयात्रा’ कहानी दलितों में भंगी और चमार जाति के आपसी अंतर्विरोधों को सामने लाती हैं। कहानी में सुरजा बल्हार शहर से पैसा कमाकर लाता है और वह पक्का मकान बनाना चाहता है। लेकिन चमारों द्वारा उसका पक्का मकान नहीं बनने दिया जाता है। चमारों की निष्ठुरता का दूसरा उदाहरण सुरजा की दस वर्षीय पोती, कल्लन की बेटी सलोनी की डॉक्टर द्वारा न देखने के कारण मृत्यु हो जाती है और बीमार पोती के इलाज में अपेक्षित मदद नहीं मिलती है। यहाँ तक उस बच्ची के दाह-संस्कार के लिए चमार अपने श्मशान घाट के प्रयोग की अनुमति नहीं देते हैं। चमारों का भंगी समाज के प्रति संवेदनशून्य होना दलित समाज की सामूहिक दुर्बलता की ओर संकेत करता है। दलितों में व्याप्त उपजातियां दलितों में सामूहिकता की भावना को पनपने नहीं दे रही हैं। यह कहानी दलितों में व्याप्त कोरे अम्बेडकरवाद का भी फर्दाफाश करती है। यह कहानी दलितों को गंभीरता से विचार करने पर विवश करती है, अन्यथा उनकी शक्ति विघटित रहेगी और वे मुक्ति की चाह को मूर्त रूप नहीं दे सकेंगे। इस संदर्भ में डॉ.पूरणसिंह की ‘अंतर्कलह’ कहानी भी दलित समाज में व्याप्त भेदभाव को उजागर करती है। इसमें जाटव और वाल्मीकि समाज में आपसी मतभेद को दर्शाया गया है। दलितों में आपसी अन्तर्विरोध ब्राह्मणवाद, जातिवाद के खिलाफ उनकी लड़ाई को कमजोर बना रहा है।

लेकिन ये सोचनीय है कि दलितों में भी यह उप-जातिगत भेदभाव आख़िर पनपा कैसे? इसे समझना होगा कि दलितों में भी उपजातियां क्यों और कैसे पनपी? इसकी तह में जाने पर हम जानेगें कि समाज में वर्ण-जाति सवर्णों ने बनाये, उन्होंने ही दलितों को भी उपजातियों में बाँट दिया, ताकी दलित इस जाति-वर्णव्यवस्था के खिलाफ़ संगठित न हो पाए। इस संदर्भ में महात्मा ज्योतिबा फुले ‘गुलामगिरी’ में लिखते हैं- “जब से ब्राह्मणों ने शूद्रादि-अतिशूद्रों में जातिभेद की भावना को पैदा किया, बढ़ावा दिया, तब से उन सभी के मन-मस्तिष्क आपस में उलझ गए और घृणा से अलग-अलग हो गए। ब्राह्मण-पुरोहित अपने षडयंत्र में कामयाब हुए। उनको अपना मनचाहे व्यवहार करने की पूरी स्वतंत्रता मिल गयी। इस बारे में एक कहावत प्रसिद्ध है कि ‘दोनों का झगड़ा और तीसरे का लाभ’। मतलब यह कि ब्राह्मण-पंडा-पुरोहित ने शूद्रादि-अतिशूद्रों के आपस में नफरत के बीज जहर की तरह बो दिए और खुद उन सभी की मेहनत पर ऐशों-आराम कर रहे हैं।”27 इस संदर्भ में डॉ.सुरेश मारुतिराव मुले की ‘गुरु देवो भव’ कहानी सवर्णों की साजिशों का पर्दाफाश करती है। कहानी में ब्राह्मण शिक्षक दलित शिक्षकों में फूट डालने के फ़िराक में लगे रहते हैं। गणित का प्राध्यापक एक दलित शिक्षक पर कॉलेज की प्राध्यापिका के सामने टिप्पणी करता है, तो वह उसकी ब्राह्मणवादी मानसिकता पर प्रहार करती है- “वह अगर अब्राहम लिंकन है तो तुम क्या हिटलर हो? हम जो एकता से रहते हैं सो सुहाता नहीं? तुम लोग युगों-युगों से दलितों में फूट डालते आए हो और आज आधुनिक युग में भी ऐसा काम करते हुए तुम्हें शर्म नहीं आती? जब शिक्षित दलितों का ही तुम लोग आज तक शोषण कर रहे हो। तो क्या हमारे अशिक्षित और कमजोर मासूम दलितों को जीने दोगे? होशियार? आइन्दा ऐसी बाते होगी तो मुंह की खानी पड़ेगी।”28 कहानी सवर्णों की दलितों में फूट डालने की साजिश को बेनकाब करती है और उनकी असलियत का पर्दाफाश करती है। साथ ही दलितों को संगठित संघर्ष के लिये प्रेरित भी करती है|

दलितों में आपसी अंतर्विरोध एवं भेदभाव के अतिरिक्त कतिपय शिक्षित दलित युवकों में पनप रहे ब्राह्मणवाद एवं जाति को लेकर हीनताबोध और समाज के प्रति उदासीनता दलित आन्दोलन की नींव को कमजोर कर रही है। शिक्षित दलित युवक अच्छे ओहदों पर पहुंचकर अपनी ही समाज को हेय की दृष्टि से देखते हैं। वे समाज में अपना स्टेटस बनाए रखने के लिए अपनी जाति को छिपाते हैं, इसके चलते वे अपनी बिरादरी से नाता तोड़कर अपनी जाति छिपाकर ब्राह्मणवादी जीवन जी रहे हैं। वे भूल जाते हैं कि जिस जातिप्रथा एवं ब्राह्मणवाद के विरुद्ध बाबा साहब ने लड़ाई लड़ी और उनके संघर्षों के चलते आज उन्हें सम्माननीय जीवन जीने के अधिकार मिले हैं, उसी ब्राह्मणवाद और भेदभाव को ये दलित युवक बढ़ावा दे रहे हैं। दलित कहानी इस यथार्थ को सामने लाती है कि आज का शिक्षित दलित वर्ग इस ब्राह्मणवाद के कुचक्र में फंस रहा है। इस संदर्भ में डॉ.उमेश कुमार सिंह की ‘माफ़ी’ कहानी दलितों में व्याप्त ब्राह्मणवाद को दर्शाती है। ‘माफ़ी’ कहानी में दलित पात्र कप्तान रघुनाथ परवार अपने आपको अपनी बिरादरी से अलग समझता है। अपने ऊँचे पद एवं संपन्नता के चलते वह अपनी जाति-बिरादरी के प्रति उत्तरदायित्व से विमुख हो गया, यहाँ तक कि अपने ही समाज के प्रति हेय दृष्टिकोण अपनाते हुये उनका अपमानित तक करता है। जब गाँव का पीड़ित वृद्ध सखाराम परवार जब उसके यहाँ बंगले पर जाता है, तो उसे अपमानित करके बंगले से निकलवा देता है। वह गाँव का नाम सुनते ही गुस्से में आकर उस पर बरस पड़ता है- “शर्म नहीं आती है तुम्हें, बिना बात शिकायत लेकर चले आते हो। नहा धोकर नहीं आ सकते हैं। कम से कम नए कपड़े पहनकर आते। साले भंगी चमारों की तरह चले आते हैं। अपने बाप का घर समझ रखा है।”29 जिस समाज ने रघुनाथ को अच्छे पद पर पहुँचने के काबिल बनाया, आज उसी समाज के प्रति उनका नजरिया ब्राह्मणवादी हो गया है। इस तरह कहानी नौकरीपेशा दलितों में व्याप्त ब्राह्मणवादी मानसिकता को दर्शाती है।

इसी क्रम में सत्यप्रकाश ‘दलित ब्राह्मण’ कहानी में दलितों में व्याप्त ब्राह्मणवादी मानसिकता को दर्शाते हुये चिंता जाहिर करते हैं। कहानी में दलित विजय रंजन कुरील भारत सरकार का उच्चाधिकारी है, लेकिन दलितों के प्रति हेय दृष्टि रखता है तथा समाज के प्रति उत्तरदायित्व से विमुख रहता है। इससे चिंतित शिवदत साहब उसे समझाते है- “देखिये बंधु, आज मैं या आप जिस पद पर है हमें वहां पहुँचाने में समाज ने भी त्याग किया। उसका भी योगदान है इसमें। अहम भूमिका निभाई है समाज ने उसमें। हमें अपने सामाजिक दायित्वों को कदापि न भूलना चाहिए। उसके हितों की रक्षा के प्रति कटिबद्ध होना चाहिए।”30 कहानी में माहेश्वरी साहब भी उनके कोरे अम्बेडकरवाद पर सवाल खड़ा करता है। अगर शिक्षित दलित समुदाय दलित समाज का उचित प्रतिनिधित्त्व नहीं करता है तो वह भी दलितों की नज़र में शोषक ही कहलायेगा। ऐसे में ब्राह्मणवादी समाज और उनमें कोई फ़र्क नहीं रह जाता है। यह कहानी ब्राह्मणवादी शिक्षित दलित वर्ग को कठघरे में खड़ा करती है। बाबा साहब अम्बेडकर ने लम्बे संघर्ष के दौरान दलित समाज को अधिकार दिलवाए, बावजूद ये लोग उनके त्याग एवं संघर्ष को भूल जाते हैं। ये अपने ही समाज के प्रति ब्राह्मणवादी रवैया अपनाते हैं। कहानी में कतिपय दलितों में पनप रही ब्राह्मणवादी मानसिकता का यथार्थ चित्रण किया गया है। इसी तरह ओमप्रकाश वाल्मीकि की ‘अंधड़’ कहानी शिक्षित दलित वर्ग की मानसिकता को उजागर करती है, साथ ही उसमें बदलाव की और भी संकेत करती है। कहानी के नायक मिस्टर लाल वैज्ञानिक पद पर आसीन है। कई वर्षों बाद वह अपनी छोटी बच्ची पिंकी को लेकर अपने माँ-पिताजी के घर आता है, तो उसकी बच्ची पिंकी उन्हें असभ्य और गंदा कहती है। इस पर मिस्टर एस.लाल पश्चाताप करता हैं कि उसने एक झूठी जिन्दगी को सच मानकर अपने माता-पिता के योगदान को ही भूला दिया। कहानी कतिपय शिक्षित वर्ग की इस संकीर्ण मानसिकता का चित्रण कराती है, साथ मानसिक बदलाव की ओर संकेत करती है। इस तरह दलित कहानी बाबा सहाब डॉ.अम्बेडकर के लम्बे संघर्ष और त्याग के बारें में शिक्षित दलित युवकों को अवगत कराती है। दलित कहानी शिक्षित दलित समुदाय को आत्मशोध के लिए विवश करती है और संकीर्ण ब्राह्मणवादी मानसिकता के प्रति सचेत करती है, साथ ही दलित समाज की उन्नति के लिए उत्तरदायित्व की भावना के लिए प्रेरित करती है।

दलित कहानी की वैचारिक प्रतिबद्धता घृणा, हिंसा और प्रतिशोध के स्थान पर समता, करुणा, भातृत्व और प्रतिरोध पर आधारित है। ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानी ‘मुंबई कांड’ में यह वैचारिक प्रतिबद्धता साकार होती है। कहानी का दलित पात्र मुंबई कांड के प्रतिक्रियास्वरूप महात्मा गाँधी की मूर्ति पर जूते की माला पहनाने के लिए उठ खड़ा होता है, लेकिन ऐसा करने से पूर्व उसके कदम रुक जाते है और वह सोचता है- “अरे! मैं यह क्या कर रहा हूँ। मुंबई में किसी ने मेरे विश्वास पर चोट की और मैं यहाँ की आस्था पर चोट करने जा रहा हूँ। कुछ गांधीजी को ‘बापू’ कहते हैं और कुछ अम्बेडकर को ‘बाबा’; वहाँ ‘बाबा’ कहने वाले मारे गए, यहाँ बापू वाले मारे जा सकते हैं। ‘बाबा’ कहने वालों पर भी गाज गिर सकती है। जो भी मरे तो निर्दोष ही मारे जायेगे …नहीं …यह रास्ता न बुद्ध का है और न ही अम्बेडकर का।”31 कहानी प्रतिशोध और प्रतिरोध की बारीकियों को स्पष्ट करती है। बाबा साहब ने वर्णव्यवस्था के खात्मे के लिए मनुस्मृति दहन किया, चावदार तालाब का पानी पिया और कालाराम मंदिर में प्रवेश करने जैसे क्रांतिकारी कदम उठा़ये और दलितों में संगठित चेतना जाग्रत की। उन्होंने प्रतिक्रियास्वरूप कभी भी हिंसक कदम उठा़ने के लिए प्रेरित नहीं किया। यह कहानी बाबा साहब के इन विचारों को बारीकी से समझाती है। इसी तरह रूपनारायण सोनकर की ‘होली का बल्ला तरे तरे’ कहानी बाबा साहब की वैचारिकी को दर्शाती है। कहानी में सवर्ण समाज होली के अवसर पर दलित स्त्रियों को गाली देता है, जिसकी प्रतिक्रिया में दलित समाज भी सवर्ण स्त्रियों को गाली देता है। दोनों तरफ़ से ही औरतें ही जलील होती हैं, इस पर ब्लॉक प्रमुख बलवंत यादव फटकार लगाता है-“न कोई उच्च है और न कोई नीच है। विश्व के किसी भी देश में त्यौहारों में किसी भी औरत को गाली देने की प्रथा नहीं है।”32 इससे प्रभावित दलित समाज सोचने को विवश होता हैं और किसी भी औरत को इस तरह लज्जित न करने का संकल्प लेता है- “संगीलाल, सैद्धालाल व अन्य युवक इस प्रकार की गंभीर सामाजिक बुराईयों को दूर करने के लिए कोई ऐसा रास्ता खोज रहे थे जहाँ किसी भी औरत को इस तरह सरेआम लज्जित न होना पड़े।”33 प्रतिशोध की भावना से समस्या का समाधान सतही ही होगा और इससे समाज में द्वेष एवं घृणा का भाव फैलने लगेगा। कहानी में पुरुषवादी मानसिकता को भी दर्शाया गया है। भारतीय समाज खासकर हिन्दुओं में औरतों के नाम पर गाली-गलौच किया जाता रहा है, चाहे औरत किसी भी समाज की हो। औरतें सदियों से पुरुषवादी मानसिकता की शिकार रही है। उनका सदियों से शोषण होता रहा है। किसी भी सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन हिंसा तथा प्रतिशोध से नहीं किया जा सकता, इससे समस्या को जड़ से खत्म नहीं कर सकते। हमारे सामने देश विभाजन के समय हिन्दू–मुस्लिम दंगों का इतिहास गवाह है कि इस प्रतिशोध की आग में ना जाने कितनी बेगुनाह हिन्दू–मुस्लिम औरतों की अस्मिता तार-तार हुई और कितने ही मासूम बच्चे और औरतें अपनों से दूर बिछुड़ गये। इस प्रतिशोध की आग में त्रासदी के अलावा कुछ प्राप्त नहीं हुआ। इसलिए बाबा साहब व्यक्ति की बजाय व्यवस्था के विरुध्द प्रतिरोध करने पर जोर देते हैं। उनका मानना हैं कि ‘असली दुश्मन ये भेदभाव आधारित धर्म-शास्त्र है और समाज इनके बंधन में बंधा हुआ है’।

प्रतिशोध की भावना से लिखी गयी दलित कहानी को दलित साहित्य के दायरे अंतर्गत नहीं रखा जा सकता है। इसी संदर्भ में रत्नकुमार सांभरिया की ‘शर्त’ कहानी है, जिसमें दलित पानाराम की बेटी के साथ गावं के मुखिया जसवीर का बेटा बलात्कार करता है। मुखिया जसवीर पानाराम से इस घटना पर दुःख व्यक्त करता है और पानाराम की कुछ भी शर्त मानने के लिए तैयार होता है। तो पनाराम मुखिया के सामने शर्त रखता है- “मुखिया साब, इज्जत का सवाल है यह। आपकी इज्जत सो मेरी इज्जत। आपकी लड़की मेरे लड़के के साथ रात रहेगी।”34 कहानी में पानाराम बेहूदी शर्त रखता है कि लड़की की बेआबरू का बदला मुखिया की लड़की को बेआबरू करना। पानाराम और जसबीर दोनों की बेटी बेकसूर हैं, लेकिन इस प्रतिशोध की आग में वह मुखिया जसबीर की बेटी को बेआबरू करवाने की शर्त रखता है। इस तरह की कहानी को दलित कहानी के दायरे के अंतर्गत नहीं रखा जा सकता। इस तरह का साहित्य दलित आंदोलन एवं बाबा साहब के आदर्श समाज के लिए मददगार साबित नहीं हो सकता है। दलित कहानी डॉ.अम्बेडकर व महात्मा फुले की वैचारिकी को लेकर आगे बढ़ती है और उनकी वैचारिकी में घृणा व प्रतिशोध का भाव कहीं नहीं आता है।

भारतीय मार्क्सवादी दलितों की समस्या को आर्थिक दृष्टि के मद्देनज़र देखते हैं। वे अन्य सुधारों की तुलना में आर्थिक सुधारों को प्राथमिकता देते हैं, जबकि दलितों की मूल समस्या जाति की समस्या है। इस विषय पर बाबा साहब लिखते हैं- “जाति एक ऐसा राक्षस है जो आपका रास्ता काटेगा। जब तक आप इस राक्षस को नहीं मारते तब तक आप न तो कोई राजनीतिक सुधार कर सकते हैं और न ही आर्थिक सुधार कर सकते है।”35 यानी जाति-व्यवस्था एवं वर्णव्यवस्था का खात्मा किये बगैर सुधार लाना संभव नहीं है। मार्क्सवादी मानते हैं कि जाति-वर्णव्यवस्था की समस्या श्रम के विभाजन से जुड़ी हुयी है| लेकिन जातिव्यवस्था के चलते श्रम विभाजन ही नहीं, श्रमिकों का भी विभाजन होता है। लाल झंडे वाले मार्क्सवादी संगठन व्यवस्था में परिवर्तन की बात करते हैं, बगैर इस वर्णव्यवस्था का खात्मा किये। इस विषय पर बाबा साहब लिखते हैं- “आर्थिक क्रांति के लिए श्रमिकों में उत्साह भरने के लिए कार्ल मार्क्स ने उनसे कहा,‘आपके पास बेड़ियों के अलावा खोने के लिए कुछ नहीं है।’ लेकिन जातिप्रथा के विरुद्ध हिन्दुओं को जगाने के लिए कार्ल मार्क्स का यह नारा बिलकुल बेकार है। क्योंकि हिन्दुओं के बीच सामाजिक एवं आर्थिक अधिकार बड़ी सुन्दरता से बंटे हुए है। कुछ जातियों के पास कम और कुछ के पास अधिक है।”37 सही मायने में हिन्दुत्ववादी भारतीय समाज में मार्क्सवादी विचारधारा जातिगत-भेदभाव को खत्म करने में कामयाब नहीं दिखायी पड़ती है| दूसरी सबसे बड़ी समस्या यह है कि भारतीय मार्क्सवादी अपने पूर्वाग्रह से ग्रसित है| यानी मार्क्सवाद के नाम पर छलावा भी कर रहे है| अपने आप को प्रगितशील मानने वाले भीतर से ब्राह्मणवादी मानसिकता में जकड़े हुये है| इसी सन्दर्भ में ओमप्रकाश वाल्मीकि ‘प्रमोशन’ कहानी में मार्क्सवादियों के दोहरे चरित्र का पर्दाफ़ाश करते हैं। कहानी में दलित पात्र सुरेश की स्वीपर पद से कामगार के पद पर पदोन्नति होती है, इससे खुश सुरेश अपनी पत्नी से कहता है ‘अब हम भंगी नहीं रहे, मजदूर हो गये है और मजदूर-मजदूर भाई-भाई होते हैं।’ मजदूर बनने के बाद वह ‘लाल झंडा यूनियन’ का सदस्य बन जाता है, लेकिन मजदूर-यूनियन के सदस्य सुरेश के साथ जातिगत भेदभाव करते हैं। यानी ये मार्क्सवादी संगठन मजदूरों, किसानों के हित की बात तो करते हैं, लेकिन ये व्यवहार में हिंदुत्व के रक्षक बने बैठे हैं। जब सुरेश की ड्यूटी केमिकल प्लांट में मजदूरों को दूध वितरण करने में लगती है तो उसके साथी मजदूर इसका विरोध करते हैं। उसका साथी मजदूर अब्दुल कादिर कहता है- “साहब आपको पता नहीं …सुरेश स्वीपर है …उसके हाथ की कोई चीज कैसे खा पी सकता है।”38 इस तरह सुरेश मजदूर बनकर भी स्वीपर ही रहता है। मार्क्स के सिद्धांत पर ‘मजदूर-मजदूर भाई- भाई’ के नारे देने वाले मार्क्सवादी संगठन एवं पार्टियाँ दलित मजदूरों का वही स्थान रखते हैं, जो बाह्मणवादी समाज में निश्चित है। यह कहानी भारतीय मार्क्सवाद के असली चेहरे का पर्दाफाश करती है, जो विचारधारा के स्तर पर समाजवाद की बात करता है, लेकिन व्यवहार में वर्ण-व्यवस्था के पोषक बने हुए हैं। जब तक मार्क्सवादी जाति एवं वर्णव्यवस्था को प्रमुख मुद्दे के रूप में नहीं उठायेंगे, तब तक वे दलितों के हितेषी नहीं बन सकते हैं।

इसी क्रम में डॉ.जयप्रकाश कर्दम की ‘कामरेड का घर’ कहानी भारत में मार्क्सवादियों के दोहरे चरित्र का पर्दाफाश करती है। कहानी में कॉमरेड अभय तिवारी मार्क्सवाद का चोला ओढ़े हिंदुत्व को संरक्षण देता है, तो उसका साथी असलम उसके इस दोगलेपन का प्रतिकार करता है- “मेरे यहाँ रुकने का अब कोई औचित्य नहीं है। मैं तो यह मानकर चल रहा था कि आप लोग सच में प्रगतिशील है और परिवर्तन के अपने संकल्प के प्रति ईमानदार है। इसलिए मैं आप लोगों के साथ जुड़ा था। लेकिन आप लोग तो अन्दर से हिन्दू धार्मिकवाद में पूरी तरह से जकड़े हुए है और उसकी रक्षा कर रहे हैं। ऐसे आपसे कोई उम्मीद करना बेमानी है। आपके सिद्धांत और व्यवहार के दोगलेपन ने मुझे निराश किया है। मैं इस दोगलेपन के साथ नहीं रह सकता।”36 कहानी मार्क्सवादियों के छद्म वेश की पोल खोलती है और उनके अन्दर व्याप्त ब्राह्मणवादी मानसिकता को बेनकाब करती है। भारतीय मार्क्सवादी व्यवहारिक जीवन में पहले हिन्दू है और बाद में मार्क्सवादी। वे अपने व्यवहारिक जीवन में जाति-व्यवस्था, वर्णव्यवस्था को अपनाते हैं और सिध्दांतों में मार्क्सवाद की बात करते हैं। इस तरह ये मार्क्सवाद और ब्राह्मणवाद दोनों को एक साथ लेकर चलते हैं।

दलितों का शोषण धर्म एवं शास्त्रों की आड़ में होता रहा है। शोषणकारी धर्म एवं शास्त्रों की पवित्रता एवं श्रेष्ठता के चलते सदियों से दलितों का शोषण होता रहा है। डॉ.भीमराव अम्बेडकर ने इस वर्णव्यवस्था के खात्मे के लिए शास्त्रों, वेदों, उपनिषदों व ईश्वर का नकार किया। बाबा साहब धर्म एवं शास्त्रों की पवित्रता एवं श्रेष्ठता के भ्रम को तोड़ते हैं और दलितों को आह्वान करते हुए लिखते हैं- “आपको तर्क न मानने वाले और नैतिकता को नकारने वाले वेदों व शास्त्रों को बारूद से उड़ा देना होगा। श्रुति एवं स्मृति के धर्म को खत्म करना होगा। इसके अलावा और कुछ करना लाभदायक नहीं होगा। इस मामले में मेरा यही मत है।”39 बाबा साहब जाति व्यवस्था का असली शत्रु शास्त्रों को मानते हैं। इस संदर्भ में वे लिखते हैं- “हिन्दू इसलिए जातिप्रथा का पालन नहीं करते क्योंकि वे अमानुषिक हैं या असंतुलित मस्तिष्क के हैं। वे जातिप्रथा को मानते हैं, क्योंकि वे धर्म को गंभीरता से लेते हैं। जातिप्रथा का पालन करने वाले लोग गलत नहीं है । मेरी राय में जाति की धारणा से धर्म को जोड़ना गलत है। यदि यह ठीक है तो जिस असली शत्रु से हमें जूझना है वे शास्त्र हैं जो जाति का धर्म सिखाते हैं, न कि वो लोग जो जातिप्रथा का पालन करते हैं।…शास्त्रों की पवित्रता में लोगों के विश्वास को ख़त्म करना वास्तविक उपचार है। …शास्त्रों की सत्ता को चुनौती न देकर, लोगों को उनकी पवित्रता व स्वीकृति में विश्वास देने की अनुमति देकर, उनकी आलोचना करना उनको कर्मों के लिए अमानुषिक व विवेकहीन कहकर कोसना, सामाजिक सुधार का बड़ा बेतुका तरीका है।”40 दलित कहानी इस वर्णव्यवस्था के खात्मे के लिए शोषणकारी हिंदू धर्मशास्त्रों का नकार करती है। ओमप्रकाश वाल्मीकि की ‘सपना’ कहानी बाबा साहब की इसी वैचारिकी को दर्शाती है। कहानी में दलित पात्र गौतम मंदिर के निर्माण में दिन-रात मेहनत करता है और जब मंदिर में पूजा अनुष्ठान होता है, तो उसे मंदिर के बाहर बैठने को कहा जाता है। गौतम जब इसका विरोध करता, तो नटराजन शास्त्रों की पवित्रता एवं सामाजिक नियमों के हवाला देते हुये कहता है कि गौतम दलित है, इसलिए इसे पूजा-अनुष्ठानों में नहीं बैठाया जा सकता है। कहानी शास्त्रों की पवित्रता एवं सामाजिक नियमों के आड़ में हो रहे भेदभाव का पर्दाफाश करती है। कहानी का सवर्ण पात्र ऋषिराज शास्त्रों एवं नियमों की पवित्रता एवं श्रेष्ठता को तोड़ता है। गौतम भी इन अनुष्ठानों का बहिष्कार करता है- “चलो ,भाई हम लोग घर चलते है। ऐसे अनुष्ठानों में बैठकर क्या होगा, जहाँ आदमी को आदमी की तरह न समझा जाए।”41 कहानी में ऋषि नामक पात्र गौतम को परिस्थिति से लड़ने के लिए प्रेरित करता है। ‘सपना’ कहानी वर्णव्यवस्था के विरुद्ध सीधी कार्यवाही के लिए प्रेरित करती है, साथ ही धर्मशास्त्रों-धार्मिक अनुष्ठानों की पवित्रता एवं श्रेष्ठता का निषेध करती है।

ऐसा नहीं है कि बाबा साहब समाज के लिए धर्म की आवश्यकता को नकारते हैं, बल्कि वो समाज के लिए लोकतांत्रिक धर्म की आवश्यकता पर जोर देते हैं- “आप अपने धर्म को अनिवार्य रूप से सैद्धांतिक आधार दें- एक ऐसा आधार जो स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व का पर्याय हो- तात्पर्य यह है कि जो आपके धर्म को लोकतांत्रिक आधार दें।”42 इस तरह वे स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व पर आधारित धर्म की वकालत करते हैं। डॉ.जयप्रकाश कर्दम ‘मंदिर’ कहानी में रंगलाल धर्म के नाम पर कर रहे अनैतिक और गैर-कानूनी कार्य कर रहे लोगों पर प्रतिक्रिया व्यक्त करता है- “मेरे बारे में आप कोई भी धारणा बना सकते हैं। आप लोग इसके लिए स्वतंत्र हैं, मैं इस पर कोई टिप्पणी नहीं करूँगा। किन्तु, यदि अनैतिक और गैर-क़ानूनी काम करना धर्म है तो अच्छा है मुझे अधार्मिक ही मानिये। धर्म यदि यह सब सिखाता है तो मैं कभी धार्मिक नहीं होना चाहूँगा। और यदि अन्याय और अनैतिकता का साथ न देना असामाजिकता है तो मैं स्वयं को असामाजिक माना जाना पसंद करूँगा।”43 इस तरह कहानी धर्म के नाम पर अनैतिकता और अन्याय का विरोध करती है। इसी संदर्भ में सत्यप्रकाश की ‘बिरादरी भोज’ कहानी में निरर्थक परम्पराओं एवं रीति-रिवाजों का प्रतिकार किया गया है। कहानी में दलित पात्र निरर्थक मृत्युभोज परम्परा का बहिष्कार करता है और पिता के मृत्युभोज पर मिले कर्ज़ से खेतों की सिचाई के लिए इंजन खरीद लाता है। इसी तरह ओमप्रकाश वाल्मीकि की ‘सलाम’ कहानी वर्षों से चली आ रही अपमानजनक सलाम प्रथा को तोड़ती है। इसी तरह डॉ.कुसुम वियोगी की ‘मुंडन’ कहानी भी धार्मिक कर्मकांडों का खंडन करती है, कहानी का पात्र दिनेश अपनी बच्ची के बाल गंगा घाट पर बैठे पाखंडी पंडों द्वारा न उतरवाकर नाई के द्वारा उतरवाता है। इस प्रकार दलित कहानी शोषण के तमाम धार्मिक-ग्रंथों, धार्मिक-अनुष्ठानों, परम्पराओं एवं रीति-रिवाजों को तोड़ती है और दलितों को परिवतर्न के लिये प्रेरित करती है।

धर्म और सम्प्रदाय के नाम पर स्वार्थी लोग समाज में दंगे-फसाद फैलाते रहे हैं। इस सन्दर्भ में बाबा साहब डॉ.भीमराव अम्बेडकर लिखते हैं- “जाति ने हालांकि एक काम किया है। इसने हिन्दू समाज को पूरी तरह से असंगठित और अनैतिक अवस्था में ला दिया है। …यह तो जातियों का समूह मात्र है। प्रत्येक जाति अपने अस्तित्व के प्रति सचेत है। इनका अस्तित्व जाति-व्यवस्था के जारी रहने का कुल परिणाम है। जातियां एक संघ भी नहीं बनाती। कोई जाति दूसरी जातियों से जुड़ने की भी भावना नहीं रखती, सिर्फ़ हिन्दू-मुस्लिम दंगे के समय ये आपस में जुडती है।”44 रूपनारायण सोनकर की ‘सद्गति’ कहानी धर्म के नाम पर स्वार्थी लोगों द्वारा फैलाये जा रहे धार्मिक-उन्मांद और भेदभाव पर कुठाराघात करती है। कहानी का पात्र मियां शब्बीर अंततः ग्लानि महसूस करता हुआ कहता है- “मैंने गुनाह किये हैं। मैं मानवता को भूल गया था। स्वार्थ, अँधा धर्म और मजहब ने मुझे बिलकुल अंधा कर दिया था। हम दोनों समुदाय के लोग भाई-भाई हैं। मैंने अपने भाइयों को मारकर बहुत बड़ा अपराध किया है। मुझे सजा मिलनी चाहिए।”45 इसी संदर्भ में डॉ.पूरण सिंह की ‘यूज एंड थ्रो’ कहानी धर्म के नाम पर दंगा फ़ैलाने वाले स्वार्थी लोगों से सचेत करती है। कहानी में दलितों एवं गरीबों को धर्म के पुजारी धर्म के नाम पर इस्तेमाल करते हैं। जैसा कि बाबा साहब ने कहा कि ‘विभिन्न जातियों में बंटे लोग हिन्दू-मुस्लिम दंगों के समय एक हो जाते हैं’। कहानी इसी तरफ इशारा करती है कि दलित श्यामलाल पर सवर्णों ने अमानवीय व्यवहार किया। फिर भी धर्म के नाम पर वह उनके जाल में फंस जाता है और उनका साथ देता है। श्यामलाल की पत्नी उन्हें इस चालाकी के प्रति सचेत करती है कि इन मुसलमानों ने तुम्हें कभी अपमानित नहीं किया फिर तुम इन धूर्त ब्राह्मणों की बातों में आकर उनकी जान के दुश्मन क्यों बने हो। लेकिन श्यामलाल चुपके से रात को इस स्वार्थी धर्म के ठेकेदारों के साथ चला जाता है और दंगे के बलि चढ़ जाता है। जब शांडिल्य साहब श्यामा को हिन्दू-मुस्लिम लड़ाई में फंसाना चाहता है, उसकी माँ उसे रोकती है और कहती है- “ये धर्म सम्प्रदाय! और झूठ तथा ढोंग के सहारे लोगों को धोखा देने वाले लोग, तुम्हें कभी चैन से नहीं सोने देंगे।”46 इस तरह कहानी धर्म एवं सम्प्रदाय के नाम पर दंगा फ़ैलाने वाले स्वार्थी लोगों का पर्दाफाश करती हुई सचेत करती हैं। ये स्वार्थी लोग धर्म के नाम पर दंगा करवाकर राजनीतिक दांवपेंच खेलते हैं और इनके चलते बेगुनाह लोग दंगों बलि चढ़ जाते हैं।

दलितों की स्थिति सुधारने के लिए डॉ.अम्बेडकर राजनीतिक ताकत को महत्वपूर्ण मानते हैं। उनका मानना था कि ‘राजनीतिक अधिकारों के जरिये दुर्बल वर्ग सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक अधिकार प्राप्त करेंगे’। इस संदर्भ में उन्होंने प्रथम गोलमेज सम्मलेन में कहा था कि -“हमें बार-बार याद दिलाया जाता है कि दलित वर्गों की समस्या सामाजिक समस्या है और उसका समाधान राजनीति में नहीं है। हम इस विचार का जोरदार विरोध करते हैं। हम यह महसूस करते हैं कि जब तक दलित वर्गों के हाथों में राजनीतिक सत्ता नहीं आती, उनकी समस्या का समाधान नहीं हो सकता।”47 बाबा साहब ने इसी आवश्यकता को महसूस किया, इसलिए उन्होंने 1936 में ‘स्वतंत्र मजदूर पक्ष’, 1942 में ‘रिपब्लिकन पार्टी’ की स्थापना की। उनका मानना था कि राजनैतिक शक्ति ही दलितों के सर्वांगीण विकास की चाबी है। इसी वैचारिकी को डॉ.जयप्रकाश कर्दम ‘रास्ते’ कहानी में दलित छात्रों की पार्टी ‘स्टूडेंट्स फेडरेशन’ के माध्यम से दर्शाते हैं। दलित छात्र संगठन की आवश्यकता के संदर्भ में लेखक पार्टी अध्यक्ष ब्रहमसिंह के माध्यम से अपना दृष्टिकोण रखते हैं। इस संदर्भ में ब्रहमसिंह कहता है- “यहाँ पर एन.एस.यू.आई. और ए.बी.वी.पी का दबदबा है। छात्र संघ के चुनावों में इन्हीं दोनों संगठनों में कभी कोई एक संगठन विजयी होता है और कभी दूसरा। हम इनमें से ही किसी एक संगठन के साथ मिलकर चुनाव लड़ सकते हैं। लेकिन हमारी समस्या यह है कि इन दोनों में से कोई भी संगठन दलित समर्थक या दलित हितों के प्रति पॉजिटिव नहीं है। किसी भी संगठन के साथ चुनावी तालमेल के लिए आवश्यक है कि उनकी नीतियों का भी हमारी नीतियों के साथ तालमेल हो। जिन संगठनों की नीतियाँ ही दलित विरोधी हों, उनके साथ हमारा तालमेल कैसे हो सकता है।”48 शिक्षण संस्थानों में दलित छात्र-छात्राओं के साथ जातिगत भेदभाव होते रहते हैं। उनकी आवाज प्रशासन भी नहीं सुनता है, क्योंकि वहां भी ब्राह्मणवादी लोग बैठे हुए हैं। छात्र-सगठनों पर अधिकांशत सवर्णों का बोलबाला है। इसलिए शिक्षण संस्थानों में दलित छात्र-संगठनों का होना आवश्यक है, ताकी संगठित होकर जातिगत भेदभाव के खिलाफ आवाज उठा सकें। छात्र राजनीति ही नहीं भारतीय राजनीति में दलितों के प्रतिनिधित्व के लिए दलित पार्टी एवं संगठनों की आवश्यकता है। भाजपा, कांग्रेस एवं समाजवादी-मार्क्सवादी आदि पार्टियों ने दलित समाज की समस्याओं को मुख्य मुद्दा कभी नहीं बनाया। दलितों एवं बहुसंख्यक वर्ग की पार्टी बसपा दलितों समाज की समस्या को मुख्य मुद्दे के रूप में सामने लाती है।

आज सत्ता के लिए पार्टी नेता किसी भी स्तर तक गिर जाते हैं। राजनीति में सत्ता के लिये अपराधीकरण बढता जा रहा है। वोट बैंक की राजनीति के चलते भ्रष्ट नेता देश में जातिगत भेदभाव एवं सांप्रदायिकता को बढ़ावा दे रहे हैं। भारत में सरकार का अलोकतांत्रिक रूप दिनोंदिन उभरकर सामने आ रहा हैं। सरकार अपने स्वार्थ के चलते लोगों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ कर रही है। बाबा साहब ने लोकतांत्रिक सरकार के संदर्भ में लिखा हैं- “यह भाईचारा ही है जो लोकतंत्र का एक मात्र दूसरा नाम हो सकता है। लोकतंत्र केवल सरकार का एक रूप भर नहीं है। यह बुनियादी रूप से संगठित रूप में रहने तथा संयुक्त रूप में बातचीत के अनुभव का एक तरीका भी है। निश्चित रूप से यह अपने साथ के लोगों के प्रति सम्मान तथा प्रतिष्ठा का रवैया है।”49 दलित कहानी डॉ.अम्बेडकर के इन्हीं लोकतांत्रिक मूल्यों को प्रतिष्ठापित करती है, साथ ही राजनीति में लोकतंत्रिक मूल्यों के पतन का पर्दाफाश भी करती हैं। रत्नकुमार सांभरिया की ‘बाढ़ में वोट’ कहानी राजनीति विसंगति को उजागर करती है। कहानी में बाढ़ की स्थिति से पीड़ित लोगों की समस्याओं से बेफिक्र नेता आका के चरित्र का पर्दाफाश किया गया है। वह वोट बैंक की राजनीति के लिए बाढ़ का दौरा करता है और चुनावी जोड़-तोड़ बैठाता है- “देशी मुर्गे के भुने गोश्त के साथ सिप-सिप पी जा रही विदेशी शराब का नशा ज्यों-ज्यों चढ़ता गया था, आका में क्रोध बढ़ता गया था, “वह तो उसकी बस्ती पैसे में आ गई, उस रात, वरना…। बीस वोटों की जीत, जीत हुई। नाक बची, कटते।”50 कहानी गिरते हुये राजनीतिक मूल्यों के पतन का पर्दाफाश करती है, साथ ही लोगों में पनप रही राजनीतिक चेतना से भी अवगत कराती है। कहानी में बलवीर के नौ साल का लड़का प्रतिक्रिया व्यक्त करता है- “बलवीर का नौ साल का लड़का शूरवीर चौथी कक्षा में पढ़ता था। उसने रेत का लड्डू बनाकर आका के माथे पर मारा था, तानकर।”51 यानी नई पीढ़ी इन राजनीतिक दांवपेचों को समझ चुकी हैं। इस तरह दलित कहानी राजनेताओं के दोहरे चरित्र का पर्दाफाश करती है, साथ ही उनके दांवपेचों व षडयंत्रों को बेनकाब करती है।

दलित कहानी आदिवासी समाज की संवेदनाओं को भी अपनी कथावस्तु का विषय बनाती है। आज भूमंडलीकरण और उदारीकरण के दौर में इनका शोषण और ज्यादा बढ़ गया है। ओमप्रकाश वाल्मीकि की ‘जंगल की रानी’ कहानी में ठेकेदारों एवं प्रशासनिक अधिकारियों (दिकुओं) द्वारा हो रहे आदिवासी स्त्री के शोषण को दर्शाया गया है। अपने जल, जंगल, जमीन से विस्थापित कर दिए जाने से आदिवासी स्त्रियां कारखानों एवं मीलों में मजदूरी करती हैं, जहाँ उनका दिकुओं द्वारा शारीरिक शोषण होता है। इसी शोषण का शिकार कहानी में आदिवासी स्त्री कमली होती है। हालाँकि कमली अपने अस्तित्व एवं अस्मिता के लिए संघर्ष करती है और प्रतिरोध करते हुए शहीद हो जाती है। इस तरह आदिवासी स्त्री दिकुओं के शोषण का शिकार बन हो रही है। यहाँ तक कि प्रशासनिक अधिकारी एवं पुलिस प्रशासन भी रक्षक बनने की बजाय भक्षक बने बैठे हैं, वे भी आदिवासी औरतों के शोषण में लिप्त होते हैं। कहानी व्यवस्था के क्रूरतम चेहरे को उजागर करती है। आदिवासी स्त्री का शोषण दिकुओं द्वारा ही नहीं होता है, बल्कि वे अपने समाज में व्याप्त अंधविश्वास एवं सामाजिक विसंगतियों के चलते भी शोषित होती है। हालाँकि आदिवासी स्त्री मर्यादाओं व आदर्शो के बंधन में उस तरह नहीं बंधी है, जैसा की हिन्दू समाज में स्त्री मर्यादाओं व आदर्शो के बंधन में बंधी होती है। फिर भी गोनेंग प्रथा (दहेज प्रथा), डायन प्रथा जैसी कुप्रथाओं के चलते बेबस एवं दयनीय जिन्दगी जी रही हैं। डॉ.सी.बी.भारती की ‘भूख’ कहानी जनजाति समुदाय में स्त्री के शोषण को दर्शाती है कि किसनी को उसका बाप पैसों के लालच में गैर-आदिवासी के हाथों बेच देता है। इस तरह यह कहानी आदिवासी समाज में व्याप्त स्त्री शोषण को उजागर करती है। विदित है कि भारत में दहेज़ की समस्या विकराल रूप धारण कर चुकी हैं, जिसकी तपिश में औरत की अस्मिता एवं अस्तित्व दाँव पर लगा हुआ है।

आदिवासी समाज का विकास के नाम पर बाहरी लोगों (दिकुओं) द्वारा शोषण किया जाता रहा है। उन्हें उनके जल, जंगल एवं जमीन से बेदखल करके उनकी सभ्यता एवं संस्कृति को नष्ट किया जा रहा है। आज आदिवासी समाज शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार एवं मूलभूत आवश्यकताओं से वंचित है। इसका जिम्मेदार हिन्दू समाज रहा है, जिसने कभी उसे ऊपर उठने ही नहीं दिया। इस संदर्भ में डॉ.अम्बेडकर लिखते हैं- “संभवतः वे ये मानने को तैयार न हो कि आदिवासी आदिम (जंगली) रह गये क्योंकि उनको सभ्य बनाने, चिकित्सा सहायता देने, उनमें सुधार करने और सभ्य नागरिक बनाने के लिए प्रयास नहीं किये गए।…आदिवासियों को सभ्य बनाने का अर्थ है उन्हें अपनाना, उनके बीच रहना, भाईचारे की भावना पैदा करना, संक्षेप में कहा जाए तो उन्हें प्यार करना। किसी हिन्दू के लिए यह सब कैसे संभव होगा। उसका सम्पूर्ण जीवन अपनी जाति को बचाने में खप जाता है।”52 इसी वैचारिकी को ओमप्रकाश वाल्मीकि ‘शाल का पेड़’ कहानी में रेखांकित करते हुए लिखते हैं- “आदिवासियों के विकास उनकी शिक्षा को लेकर भी कभी सोचते हो? ..उनकी आर्थिक स्थिति कैसी है? ठेकेदारों द्वारा उनका कैसे शोषण होता है? वहां की प्राकृतिक संपदा का दोहन करने वाले लोग कौन है? जिन्हें वे आदिवासी ‘दिकू’ कहकर बुलाते हैं, जिन्होंने इनकी जमीनों पर कब्ज़ा कर लिया है। वे कोई बाहरी लोग नहीं हैं। इसी देश धर्म के लोग हैं।”53 यानी दिकुओं द्वारा देश के विकास के नाम पर आदिवासी समाज का शोषण किया जा रहा है। कभी इन्होंने आदिवासी समाज को शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी सुविधाएँ मुहैया नहीं करायी, बल्कि उनकी जमीन हड़पकर उन्हें विस्थापित कर दिया। इन विस्थापित आदिवासियों का ना राशन कार्ड में नाम है और ना ही मददाता सूची में नाम है, यानी वे भारतीय नागरिकता से ही वंचित हैं। मेरा मानना है कि इन सवर्णों से ज्यादा असभ्य कोई नहीं है, जिस प्रकृति की रक्षा के लिए आदिवासी समाज लड़ रहा है, उसे ये लोग नष्ट करने पर तुले हैं। राष्ट्रीय विकास के नाम पर जंगल काटे जा रहे हैं। कहानी इसी समस्या को उठाती हैं। कहानी में मनुवादी पात्र तिवारी अपने अधिकारी को शाल का पेड़ कटवाने की सलाह देता है, जिसका आदिवासी अगरिया तार्किक विरोध करता है- “सर! यह बहुत खतरनाक सुझाव है। जिसे विध्वसंक या विनाशकारी कहना ज्यादा सही होगा। भला कोई इतने विशाल और खुबसूरत पेड़ को काट देने की सलाह कैसे दे सकता है। समथिंग रांग विथ तिवारी। और हाँ, मि. तिवारी आप जानते हैं ये पेड़ प्रतिदिन कितनी प्राणवायु हमें देता हैं? प्रकृति का तोहफा है यह पेड़ … और तुम इसे काट देने की बात कह रहे हो।”54 कहानी में आदिवासी समाज के जल, जंगल, जमीन की समस्या को उठाया गया है और आदिवासियों की विस्थापन की समस्या, ठेकेदारों द्वारा शोषण को कथावस्तु का विषय बनाया है, साथ ही आदिवासी संघर्ष एवं प्रतिरोध की भावना को भी विकसित किया है। ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानी डॉ.अम्बेडकर के विचारों से प्रभावित है, साथ ही आदिवासी आंदोलन की वैचारिकी से भी प्रभावित है।

निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि दलित कहानी समन्वयवादी एवं सृजनात्मक दृष्टिकोण को अपनाती है। भेदभाव आधारित शोषणकारी मनुवादी समाज में व्याप्त उन तमाम शोषणकारी हथकंडों से प्रताड़ित दलित जीवन की व्यथा एवं संवेदना को उकेरती है। साथ ही संघर्ष, चेतना एवं स्वाभिमान की भावना से परिपूरित होकर तमाम शोषण के हथकंडों को बेनकाब करती है। दलित कहानी में दया, बेबसी एवं लाचारी का भाव न होकर संघर्ष, स्वाभिमान, एवं संगठित चेतना का भाव विद्यमान है। दलित समाज में शिक्षा से आई चेतना ने सदियों से व्याप्त हीनताबोध को तोड़ते हुए आत्मसम्मान एवं स्वाभिमान का भाव जागृत किया है। दलित कहानी जातिवाद, वर्णव्यवस्था एवं पितृसत्तात्मक व्यवस्था के पोषक हिन्दू धर्म के शास्त्रों, धार्मिक कर्मकांडों, रीति-रिवाजों एवं परम्पराओं का निषेध करती है। हिंसा और घृणा पर आधारित व्यवस्था की जगह समता, करुणा एवं मैत्री की भावना को कथावस्तु में व्यंजित करती है। इस तरह दलित कहानियां बाबा साहब के आदर्श समाज की परिकल्पना को साकार रूप देने में अहम भूमिका निभाती हैं। स्त्री-पुरुष की समाज में समान सहभागिता की आवश्यकता पर जोर देते हुए दलित समाज की उन्नति एवं विकास का मार्ग प्रशस्त करती है। गैर-दलित वर्ग की सहभागिता के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाती है। साथ ही आदिवासी समाज एवं अल्पसंख्यक वर्ग के शोषण की दास्ताँ को बयां करती हुई उनके संघर्ष एवं चेतना के स्वर को अभिव्यंजित करती है। समग्र रूप से दलित कहानी फुले एवं अम्बेडकरवादी दृष्टिकोण को अपनाती है।

संदर्भ स्त्रोत:-

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  54. वही, पृ. 61

संपर्क

ओमप्रकाश मीना (शोधार्थी)

भारतीय भाषा केंद्र , जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय

नई दिल्ली-110067

मोबाइल- +91 9968545904

ई मेल – omi.meena1992@gmail.com

 

वैश्विक परिदृश्य में दलित साहित्य-अनिता जायसवाल

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woman in green and yellow sari standing on green grass field during daytime
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वैश्विक परिदृश्य में दलित साहित्य

अनिता जायसवाल

हिन्दी दलित साहित्य की पहली कहानी कौन-सी है यह विवाद रहता है परंतु प्रसध्दि दलित समीक्षक डॉ एन.सिह सहित अनेक साहित्यकारों का यह मानना रहा है अर्थात जयप्रकाश कर्दम का उपन्यास है।‘ छापर’ हिन्दी दलित साहित्य का प्रथम उपन्यास है। यही स्थिती हिन्दी कहानी की भी है। समस्या पर लिखी यह है कि हम दलित समस्या पर लिखी पहली कहानी किसे माने। संतीश द्वरा रचित हिन्दी की दलित कहानी ‘वचनबद्द’ है जो अप्रैल 1975 में ‘मुक्ति’ स्मारिका में प्रकाशित हुई थी उसके बाद डॉ ‘मीनू’ मोहनदास नैमिशराय की कहानी ‘सबसे बड़ा सुख’ और ओमप्रकाश वाल्मीकि कहानी ‘अंधेरी बस्ती’ का हैं। में कहानीयां क्रमशः कथालोक में 1978 में और निर्णायक भी (दलित पत्रिका) में अगस्त 1980 के अंक में प्रकाशित हुई थी।

हिन्दी के दलित कहानीकारों की वरिष्ठ पीढ़ी में ओमप्रकाश, वाल्मीकि, मोहनदास, नैमिषशराय, सूरजपाल चौहान ,जयप्रकाश कर्दम, बुध्दशरण हंस, कुसुम मेघालय के नाम विशेष उल्लेखनीय है। तो नयी पीढ़ी में पुरन सिहं, अनिता भारती रजतरानी ‘मीनू’ रजनी दिसोदिया, मुकेश मानस उमेशकुमार सिहं, सूरज बडजात्या आदि के नाम उल्लेखनीय है ।

सही मायने में देखे तो 1980 के बाद से हिन्दी साहित्य में कहानी लेखन कर प्रति सजगता दिखाई देनी शुरू होती है 1990 के बाद इस दिशा में उत्साहजनक गतिशीलता आई और फुटकर कहनियों के अलावा अनेक कहानिकारों के कहानी संग्रह प्रकाशित हुई संग्रहों में मोहनदास नैमिशराय का आवाजे ओमप्रकाश वाल्मीकि का सलाम डॉ ठाकुर प्रसाद राही का संग और अन्य कहानियाँ संग और अन्य कहानियाँ सत्यप्रकाश का चंद्रमोलि का रक्तबीज,सूरजपाल चौहान का हैरी कब आएगा कुसुम वियोगी का चार इंच की कलम,डॉ सुशील टाकभौर के दो कहानी संग्रह टूटता बहम और अनुभूति के धेरे तथा युवा लेखक विपिन बिहारी के तीन कथा संग्रह अपना मकान पुनर्वास और आधे पर अंत विशेष रूप से उल्लेखनीय है ।

अध्ययन की दृष्टि से हिन्दी की दलित कहानियों को तीन भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है यथा-आदर्शवादी कहानियाँ, यथार्थपरक कहानियाँ और चेतना मूलक कहानियाँ । यह कहने की आवश्कता नहीं है कि दलित साहित्य का प्रेरणा-स्त्रोत बाबा साहब ने जातिविर्दान और वर्ग विहीन समाज के रूप में ऐसे समाज की कल्पना की जो समता,न्याय, स्वतंत्रता और भ्रातृत्व पर आधारीत हो उँच-नीच छुआछुत आदि के लिए कोई जगह नहीं हो हिन्दी में ऐसे कई दलित कहानियाँ मिलती है । जिनमे समाज- परिवर्तन का आदर्श कई रूपों में देखने में मिलता है ।

ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानी है पच्चीस चौका डेढ़ सौ। अशिक्षित जनसमुदाय का शोषण किस प्रकार युग-युगों से किया जा रहा ही । इस कहानी में मिलता है । सुदीप नामक दलित बालक पढ़ लिखकर नौकरी प्राप्त कर लेता है। पहली तनख्वाह लेकर वह घर वापस आ रहा है । घर आकर उसने अपने पिता को नोट गिनकर समझाता है कि पच्चीस चौका सौ है डेढं सौ नहीं तब भी वह दलित पिता इस पर विश्वास करने के लिए तैयार हो जाता है कि पच्चीस चौका सौ डेढ़ सौ नहीं जैसे कि उसके मालिक चौधरी ने उसे समझाया था। इस पहचान से उसके मन में चौधरी को लेकर जो विश्वास रूढ़ हो चुका था । वह हमेशा के लिए बिखर जाता है। और उसका मन घृणा और प्रतिशोध की भावना से भर जाता है । तब वह कहता है। कीड़े पड़ेगे चौधरी……. को पानी देने वाला भी नहीं बचेगा यह कहानी प्रेमचन्द की सवा सेर गेहूँ की याद दिलाने वाली कहानी है । इस कहानी में सौ रुपया कर्ज लेकर सुदीप का पिता अपनी पत्नी का इलाज करवाता है। जिसके लिए उसे जिन्दगी भर कर्जदार बने रहना पड़ता है। वह उस कर्ज को चुकाने के लिए दिन-रात मेहनत करता पर ऋणमुक्त नहीं हो पाता है। इसलिए वह चौधरी को कोसता है और श्राप देता है इसके आगे कहने के लिए उससे बढ़कर चौधरी के खिलाफ कुछ करने की क्षमता नहीं । फिर भी इस कथन से पूरे विरोध और प्रतिशोध की आवाज़ मुखर हो उठती है।

इस तरह अंगारा में जमना नामक सत्रह वर्षीय चमार लड़की पर अत्याचार होता है मोहनदास नैमिशराय की कहानी अपना गाँव कबूतरी नामक दलित युवती की कथा प्रस्तुत करते हुए ठाकुरों के अत्याचारों का पर्दाफाश किया है। इसके अलवा भी बहुत सी कहानियाँ है जो इसी भाव पर आधारित है। यह दलितों की मानसिकता स्पष्ट है। वे अन्याय,अत्याचार,अपमान के खिलाफ संघर्ष करके अपने को विजयी देखना चाहते है दलित साहित्य में अधिकांश कहानियाँ यथार्थपरक है । इन कहानियों में सवर्ण हिन्दू समाज के सामवादी चरित्र और दलितों के प्रति उनके व्यवहार का सहज और यथार्थ रूप चित्रित किया गया है। डॉ. श्यौरजसिंह वेचैन की कहानी भी इसी विषय पर केन्द्रीत है ।

इस कहानी में सवर्ण प्राध्यापक अपने पर्यवेक्षण में शोध कार्य कर रही दलित छात्रा का दैहिक शोषण कर उसे गर्भवती बना देता है जो बाद में एक पुत्र को जन्म देकर कुँवारी माँ बनने को अभिशप्त होती है ।हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में दलित आलोचनाग्रंथ, दलित शोधग्रंथ समीक्षात्मकग्रंथ भी लिखे गये है । यदि देखा जाए तो दलित चेतना को जीवित स्तर तक पहुँचाने में महात्मा ज्योतिराव फुले एवं सावित्रीबाई फुले का बड़ा योगदान है।

दलित विमर्श की चर्चा समाजिक, राजनीतिक एवं साहित्यिक संदर्भ तलाशे जायें तो सभी मूल स्वर मुख्य धारा से अलग रहने की छटपटाहट अभिव्यक्त करता है ।

संदर्भ ग्रंथ –

  • हिशिए से बाहर- डॉ. रजत रानी मीनु
  • यातना की परछाई-डॉ.ड एन सिंह
  • हिन्दी समकालीन कहानी विविध विमर्श-डॉ दयानन्द तिवारी
  • दलित साहित्य दो हाजार-जयप्रकाश संदर्भ
  • समकालीन दलित- डॉ. कुसुम वियोगी

शोध छात्रा

अनिता जायसवाल

मोबाइल न.9821541336

श्री जगदीश प्रसाद झाबरमल टीबड़ेवाला विश्वविद्याल

विद्यानगरी, चुरूरोड़,झुन्झुनु, राजस्थान।

नाच्यो बहुत गोपाल-अनुराग कुमार पाण्डेय

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नाच्यो बहुत गोपाल

अनुराग कुमार पाण्डेय
पी-एच.डी. समाजशास्त्र
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी

‘नाच्यो बहुत गोपाल’ साहित्यकार अमृतलाल नागर द्वारा लिखित उपन्यास है। इसे राजपाल एंड सन्स, दिल्ली द्वारा सन् 2010 में प्रकाशित किया गया है। इसमें एक मेहतर (अछूत जाति) या ब्राह्मणी के मेहतर बनने के जीवन की सम्पूर्ण कथा को चित्रित किया गया है। इसमें समाज के संरचनागत ढांचे से सामाजिक-आर्थिक-मनोवैज्ञानिक और न-जाने कितने पक्षों में मिले यातनाओं व उपेक्षाओं का वर्णन किया गया है। अमृतलाल नागर के इस उपन्यास को पढ़ने से निःसन्देह यह कहा जा सकता है कि वे साहित्य जगत के मूर्धन्य व यशस्वी साहित्यकारों में से एक हैं। उनकी लेखन शैली इतनी प्रभावी है मानो लगता है कि यह पूरा घटनाक्रम आँखों के सामने ही घटित हो रहा हो। अमृतलाल नागर के अन्य उपन्यास भी अपने-आप में एक अनूठी लिए हुये हैं। ‘बूँद और समुद्र’, ‘अमृत और विष’, ‘मानस का हंस’ तथा ‘खंजन नयन’ ने उन्हें हिन्दी-साहित्य जगत का महत्वपूर्ण स्तम्भ बना दिया।

इस उपन्यास की रूप-रेखा तैयार होने में ढाई से तीन सालों का समय लग गया। इसमें उन्होने उपन्यास लिखने की प्रेरणा के बारे में भी लिखा है। उन्होने एक कथा सुनी थी कि एक धनी ब्राह्मण की पत्नी एक मेहतर युवक के साथ भाग गयी थी और वह अपने साथ काफी सारे गहने-जेवरात भी लेकर भागी थी। दो दिन बाद ही वह अपने प्रेमी सहित पकड़ी भी गयी थी। इस संबंध में उपन्यासकार को कोई अन्य जानकारी प्राप्त न हो सकी और उसकी जिज्ञासा व कल्पना इस उपन्यास के रूप में हमारे सामने प्रस्तुत हुई। इसके लिए अमृतलाल नागर ने कई मेहतरों के इंटरव्यू भी लिए और इसमें उनके प्रति आभार भी प्रकट किया गया है।

यूं तो ये कहानी निर्गुण की है, उसकी संवेदनाओं की है, उसके यातनाओं की है जो की उसके महिला मात्र होने पर अमानवीय अत्याचारों को बखूबी बयान करती है पर साथ ही साथ एक और पक्ष भी रहता है जो कि जाति और उसके संस्तरण से संबन्धित है, जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। इसी संस्तरण के आधार पर नायिका के जीवन में बदलाव लगातार होते रहे और उसकी प्रस्थिति भी समाज में परिवर्तित होती रही। वह कैसे ब्राह्मण से मेहतर तक के सफर को तय करती है और उसके इस सफर के दौरान यह खोखली जाति व्यवस्था भी अपने रूप को बदलते रहती है।

यह कहानी कई खण्डों में चलती रहती है। कभी साहित्यकार और निर्गुण के संवाद तो कभी निर्गुण के अतीत के जीवन से संबन्धित संवाद चलते रहते हैं। साहित्यकार की लेखन शैली के प्रवाह ने इन किरदारों व उनके भाव-आवेश को जीवंत कर देने सा प्रयास किया है। इस कहानी के मूल में है निर्गुण जो की एक ब्राह्मणी हैं। निर्गुण का जन्म संवत् 1962 में एक ऊंचे ब्राह्मण कुल में हुआ था। निर्गुण का पालन-पोषण उनके नाना-नानी के यहाँ हुआ। नाना-नानी के गुजर जाने के बाद निर्गुण के पिता उसे अपने साथ हवेली ले गए जहां वे मालकिन के रखैल थे। यहीं से निर्गुण के जीवन के उतार-चढ़ाव का सिलसिला जारी होता है। उस हवेली का माहौल बहुत गंदा था वहाँ रहने वाले सभी अपने-अपने स्तर पर अश्लीलता में लिप्त रहते थे। इस अश्लीलता ने निर्गुण को भी अपने आगोश में ले लिया। उसका जीवन एक पहेली बन चुका था जिसे सुलझाने के लिए तो सभी तैयार थे लिकिन वे उसे और भी उलझा ही जाते थे, चाहे वह अम्मां (हवेली की मालकिन) हों या नौकर खड़गबहादुर हो या बबुआ सरकार हों या मास्टर बसन्तलाल हों। सभी ने उसके साथ अपने-अपने स्वार्थ साध रखे थे। इनमें से बसन्तलाल मास्टर ही एक ऐसा किरदार था जो कि उसके प्रति कुछ सचेत था पर आगे चलकर वह भी पतित ही हो गया। इसी बीच वह बबुआ सरकार से गर्भवती होती है और उसके गर्भ को नष्ट किया जाता है। बबुआ सरकार के साथ प्रेम-प्रसंग में निकटता देखकर मालकिन ने उसका विवाह 75 साल के बूढ़े मसुरियादिन ब्राह्मण से करा दिया। वह निर्गुण को चारदीवारी में कैद रखता था और बूढ़े हो जाने के कारण निर्गुण की यौन-इच्छाओं को तृप्त भी करने में असंतुष्ट था। एक मेहतरानी आती थी जो मल-मूत्र साफ करती थी और उसी से निर्गुण बात किया करती थी। निर्गुण और बाहरी समाज के बीच वह एक माध्यम के रूप में थी। फिर मेहतरानी के छुट्टी पर जाने के एवज में उसका बेटा मोहन घर साफ-सफाई के लिए आने लगा। जिसे देखकर निर्गुण का यौवन जाग उठा। उसने जात-पात के बंधनों को तोड़ दिया और उसके साथ भाग गई। मोहन की माँ के दुत्कार देने के बाद वे मोहन के मामा-मामी के पास गए। वहाँ उसके मामा ने तो किसी तरह उसे स्वीकार लिया पर मामी के मन में उसके प्रति द्वेष की भावना सदा ही बनी रही। उससे जितना बन सका उसने निर्गुण (जो अब निरगुनिया बन चुकी थी) को सताया, कष्ट दिये, उत्पीड़न किए। शुरू-शुरू में तो मोहन ने भी मामी का साथ दिया और उसके कुकृत्यों में बराबर का भागी बना रहा। बाद में उसने इसका विरोध किया और अपनी मामी को खरी-खोटी भी सुनाई। निरगुनिया के मस्तिष्क में एक अलग ही द्वंद चल रहा था ब्राह्मणी और मेहतरानी का। वह मोहन के साथ रहकर मेहतरानी तो बन चुकी थी पर अन्तर्मन से अभी भी ब्राह्मणी ही थी। पर कब तक? लेखक के पुछने पर निरगुनिया बोलती हैं “मार से भूत भाग जाता है। फिर मन के ब्राह्मणपन की भला क्या विसात?” (नागर, 2010, 89)

मोहना कप्तान जैक्सन के बैंड में काम करता था और दोनों का संबंध भी घनिष्ठ था। बैंड में एक नया लड़का आता है-माशूक हुसैन। जो पहले वहीदा डाकू के गिरोह में था। वह एक भरे पूरे बदन का आकर्षक लड़का था। जैक्सन ने हुसैन को ईसाई बनाया और उसे नया नाम दिया डेविड। डेविड के प्रति जैक्सन को अपार प्रेम था परंतु यह प्रेम मोहना से उसके संबंध को भेद नहीं पाया। यद्यपि इसका प्रयास तो डेविड ने बहुत किया। जैक्सन ईसाई बनाने का काम भी किया करता था और उसने मोहना और उसकी बीवी (निरगुनिया) को भी यह सलाह दी। निरगुनिया इसके बिलकुल खिलाफ थी। वह तो वैसे भी किसी जात कि नहीं बची (ब्राह्मणी, नौकरानी, ठाकुरानी, मेहतरानी) तो धर्म परिवर्तन का आखिर क्या प्रयोजन। निरगुनिया के निवेदन पर मोहना जैक्सन से बैंड खरीदना चाहता है। तभी वहीदा डाकू मोहना से मिलता है और उसे बताता है कि माशूक ने उसके एक बेशकीमती हार की चोरी की है और उसे लेकर भाग गया है। तुम्हें यह पता लगाना है कि वह हार कहाँ है? मोहन ने वही किया और वहीदा को बताया की हार जैक्सन के घर में है। वहीदा डाकू वहां आता और जैक्सन को मार देता है और हार की खोज-बिन में लग जाता है। मोहना डेविड को मार-मार कर हार का पता लगता है और हार को वहीदा डाकू को सौप देता है। इसी बीच डेविड को मरा हुआ देखकर मोहना हड़बड़ा जाता है। वहीदा डाकू जाते-जाते मोहना को भी अपने साथ लिए जाता है। वहां पुलिस आती है। बसन्तलाल, जो अब दरोगा बन चुका है, निरगुनिया को पहचान लेता है और उसे थाने ले जाता है। दरोगा बसन्तलाल, निरगुनिया के गहने-जेवर ले लेता है और उसके साथ छेड़खानी करता है। निरगुनिया उससे मींठी-मींठी बातें करके वह से बच के निकल जाती है और बीमार होने के कारण सड़क पर ही कहीं बेहोश होकर गिर जाती है। मसीताराम, जो कि मोहन का नातेदारी में चाचा लगता है, उसे उठाकर अपने घर ले जाता है। निरगुनिया का इलाज करवाने के बाद वह 3-4 दिन में स्वस्थ्य हो गई। मसीताराम के साथ उसकी दोस्त गुल्लन चाची भी वही रहती थी और उसने भी निरगुनिया के इलाज में मदद की थी। निरगुनिया वहीं रहने लगी और कुछ महीने बाद पता चला कि मोहना डाकू बन गया है। उधर बसन्तलाल दरोगा, निरगुनिया को परेशान किया करता था। इस पर मसीताराम व गुल्लन ने उसे स्वामी वेद प्रकाशानन्द जी के वेद मंदिर चले जाने का सुझाव दिया और स्वामी जी से उसे मिलवाया। सारी व्यथा सुनाने के बाद वह मंदिर में रहने चली गयी। वेद मंदिर में ऋषिदेवी और वेदवती दो बहने रहती थी जिनसे निरगुनिया को काफी स्नेह और अपनापन मिला। वे दोनों ही यतनाओं व उत्पीड़न की मार से गुजर चुकी थीं। कुछ समय बीतने के बाद मोहना डाकू, निरगुनिया से मिलने आता है और उसके प्रति अपने प्रेम के दीपक को पुनः प्रज्वलित करता है। मोहना डाकू द्वरा मिले पैसे से निरगुनिया अपने अर्थात मसीताराम के घर व आर्थिक अस्त-व्यस्तता को नियोजित करती है। फिर एक किताब ‘रंगीला रसूल’ के कारण शहर में दंगा हो जाता है। इसके अतिरिक्त एक अन्य पुस्तक ‘तलकीने मजहब’ ने भी दंगे में अत्यंत वेग उत्पन्न कर दिया। इसके पृष्ठ 21 पर लिखा है, ‘सीता चौदह बरस रावन के कब्ज़े में रहने की वजह से उसकी गर्वीदा हो गई थी, इस वजह से सीता के रावन का कत्ल होना सख्त सदमे का वाइस हुआ। सीता अपने आशिके कद्रदान की मूरत बनाकर रोजाना पूजा करती थी।” (वही, 2010, 246) वहीं योगेश्वर श्रीकृष्ण के संबन्ध में 49वें पृष्ठ पर यह लिखा है, “नतीजा यह हुआ कि जिस तरह उसने बेशुमार बेगुनाहों का कत्ल किया था, उसका भी कत्ल हुआ और द्वारका की जमीन पर मुफ़्सिद-पर्दाज़ जानी से पाकोसाफ हो गई।” (वही, 2010, 246) इसके कारण हिन्दू लोगों का खून खौल उठा और प्रत्युत्तर के रूप में भीषण दंगा बन के उभरा। उसमें मोहना के मामा-मामी मारे जाते हैं। इसी बीच निरगुनिया को एक बेटी होती है जिसका नाम शकुंतला रखा गया। मोहना डाकू बेटी के पैदा होने के चार महीने बाद निरगुनिया और अपनी बेटी से मिलता है। मोहना हमेशा उसे आर्थिक सहायता देता रहता था। गुल्लन के बेटे नब्बू को मोहना डाकू द्वारा पीते जाने के कारण गुल्लन में मोहना व निरगुनिया के प्रति रोष व्याप्त हो रहा था। बसन्तलाल ने दरोगा की नौकरी छोड़ कर प्राइवेट जासूस का धन्धा खोल लिया पर वो मोहना डाकू की तलाश में लगा रहा। डेढ़ साल बाद मोहना डाकू, निरगुनिया से मिलने आया और अपने चाचा, बेटी शकुन्तला के लिए पैसे भी दिये। मोहना डाकू पर 5 हजार का इनाम भी सरकार ने रखवा दिया है। रिपुदमन सिंह चौहान वहां के नए दरोगा थे। इसके लालच और द्वेष में गुल्लन ने उसके ठिकाने को पुलिस में जा कर बता दिया। परिणामस्वरूप मोहना डाकू मारा गया और निरगुनिया की रही-सही आस भी इसी के साथ खत्म हो गयी।

अगर इस उपन्यास के पूरे विमर्श को देखें तो यह जाति, वर्ग, लिंग और उसकी शक्ति (सत्ता) के आस-पास घूमता रहता है। वास्तव में ये सभी विमर्श, एक मसलें के रूप में उनके लिए हैं जो स्वयं तो एक ऐसे स्तर पर विराजमान हैं जिन्हे न तो इस विमर्श के परिणाम से कोई फर्क है और न ही इसकी कोई आवश्यकता। क्योंकि जो स्वयं सत्ता-संरचना में है उसके लिए क्या नियमावली और क्या मान्यता? वे तो स्वयं में ही कानून हैं। जो कोई इस सत्ता-संरचना को चुनौती देता है वो या तो मिटा दिया जाता है या तो सत्ता-संरचना उसे अपने में मिला लेती है। (वेबर, 1905) जिसके कारण न तो नियमों में बदलाव आता है और न ही इसके लिए प्रयास ही हो पता है। इस विमर्श और उसकी समस्या से दिक्कत तो उन लोगों को होगी जो कि हाशिये पर के लोग हैं। इस साहित्य के माध्यम से कई गंभीर मसलों पर विचार किया गया है। किस प्रकार का जीवन निर्गुण (ब्राह्मण) का था? किस प्रकार की जीवन-शैली निरगुनिया (मेहतरानी) का था? इस संबंध में समाज का रवैया किस प्रकार का था? महिलाओं के प्रति समाज का रूप कैसा था? इत्यादि प्रकार के गंभीर सवालों का जवाब साहित्यकार ने बड़ी ही स्वच्छता व सफलता से दिया है। अमृतलाल नागर ने उपन्यास के माध्यम से आजादी से पहले के समाज में हो रही घटनाओं का अच्छा परिवेश प्रस्तुत किया है। उन्होने उस समय में जाति के वर्चस्व के साथ-साथ शक्ति के अस्तित्व को भी सूचित किया है। जब निरगुनिया का पति मोहना, डाकू बन जाता है तो स्वतः समाज में उसकी स्थिति में परिवर्तन होता है। यह उसके लिए एक बेंचमार्क जैसे प्रयोग होता है।

साहित्यकार के अनुसार निरगुनिया का जीवन एक ऐसे बेपेंदी के लोटे के समान बन चुका था कि जो बस यहाँ से वहाँ नाचता ही रहे और अपने स्थिर होने की कल्पना मात्र ही कर सके। पर या संभव होना भी अपने-आप में एक संशय का मसला है।

अब मैं नाच्यो बहुत गुपाल।

काम क्रोध को पहिर चोलना कण्ठ विषै की माल।।

अब मैं नाच्यो बहुत गुपाल।…