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बादल सरकार : युगांतकारी रंगकर्मी और उनकी त्रासदी: मुकेश बर्णवाल

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बादल सरकार : युगांतकारी रंगकर्मी और उनकी त्रासदी

                                                                                                                                     मुकेश बर्णवाल

किसी भी विशेष क्षेत्र समूह की सांस्कृतिक गतिविधि अपने स्तनीय राजनीतिक, सामाजिक हलचलों से प्रभावित होती है। भारतीय समाज में मौजूद विविधतापूर्ण सांस्कृतिक धाराएँ इस बात की बेहतर ढंग से तसदीक़ करती हैं। भारतीय संस्कृति में निहित इन विविधताओं के बावजूद सत्तर-अस्सी के दशक में भारत के विभिन्न प्रदेशों ने रंगकर्म में ऐसी संभावनाओं को विकसित होते देखा जिसमें ‘भारतीयता’ की गंध‘भारतीय’ रंगमंच जैसी अवधारणों को संभव बनाने की कुव्वत थी। इस दशक ने देश की सभी दिशाओं से ऐसे अव्वल दर्जे के रंग-व्यक्तित्व दिये जिनकी उपलब्धियां उस समय के रांगमंच में धूमकेतु की तरह चमकती हैं। उत्तर से मोहन राकेश, दक्षिण से गिरीश करनाद, पश्चिम से विजय तेंदुलकर, मध्य से हबीब तनवीर; इस सूची में पूर्व से बादल सरकार को शामिल कर लेने से हम सहज ही तब के ‘भारतीय’ रंगमंचीय परिवेश और हलचल की सम्पूर्ण रूप में जान और महसूस कर सकते हैं।
हालांकि उक्त पांचों कलाकार भारतीय रंगकर्म में बहुत महत्त्व रखते हैं लेकिन यदि हम प्रवृति के आधार पर अलगाना चाहें तो हबीब तनवीर और बादल सरकार दोनों का विशिष्ट कारणों से अपना विशिष्ट महत्त्व है। ये दोनों रंगकर्मी न सिर्फ कई अर्थों में समान हैं बल्कि दोनों ने रंगमंच को नई संभावनाएं भी दिखाईं। दोनों अपने शुरुआती काल से अंत तक रंगकर्म से जुड़े रहे; एक सम्पूर्ण रंगकर्मी के रूप में – नाटककार, रंगचिंतक, निर्देशक, अभिनेता के रूप में। हालांकि दोनों के रंगकर्म की अपनी –अपनी सीमाएं थीं जिनकी वजह से उनका प्रयोग उनके बाद आगे नहीं बढ़ सका लेकिन महत्त्वपूर्ण बात ये है की दोनों के रंगकर्म के केंद्र में जनभागीदारी ही थी। 
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बादल सरकार को भारतीय जनवादी रंगमंच का सबसे बड़ा वाहक कहा जा सकता है। वे ऐसे रंगकर्मी के तौर पर स्वीकार किए जाते हैं जो विषजमतापूर्ण स्थिति के शिकार ग्रामीण किसान, मजदूर, आदिवासियों के सरोकार को हाशिये से उठाकर लोगों के सामने लाने के लिए रंगकर्म को माध्यम बनाते हैं। वे रंगकर्म को एक जरूरी हस्तक्षेप के रूप में देखते हैं जिसके माध्यम से समाज में स्थित द्विभाजन की स्थिति को, जो औप्नोवेशिक इतिहास और उसके प्रभाव में ढले मानस का नतीजा है परिवर्तित किया जा सकता है, जिसके माध्यम से उपेक्षित वर्गों को अर्थिक, सामाजिक, सान्सकृतिक मुक्ति मिल सकती है। यह मक़सद न तो लोकप्रिय ग्रामीण स्थूल रंगमंच निहित था और न ‘आयातित’ शहरी और सूक्ष्म रंगमंच में, इसलिए रंगद्वारी रंगमंच से अपने रंगजीवन की शुरुआत करने वाले बादल सरकार ने पहले ‘आँगन रंगमंच’ और अंततः ‘तीसरा रंगमंच’ की संकल्पना को जन्म दिया।
बादल सरकार के रंगजीवन को तीन कालों में बांटा जा सकता है। पहले में उनके उन नाटकों को लिया जाता है जिसकी शुरुआत 1956 ई॰ से मानी जाती है जिसे पश्चिमी कामदी शैली से प्रभावित माना गया है, दूसरे में उनके लोकप्रिय और अमर नाटकों को शामिल किया जाता है जो रंगद्वारि मंच पर खेले गए। ये नाटक ‘बाकी इतिहास’,‘पगला घोडा’,‘एवम इंद्रजीत’,‘सारी रात’ इत्यादि हैं जिसके माध्यम से बादल सरकार अपने पुराने प्रयोगों को छोडते हुए कहीं जटिल –जीवन, मृत्यु, अस्मिता, अस्तित्व जैसे सवालों से जूझते हैं। ये नाटक अपने कथ्य की गहराई, जटिलता, बहुआयामिता के कारण देश की सभी भाषाओं में बहुचर्चित और बहुमंचित होकर भारतीय रंगमंच पर छाए रहे। इन नाटकों में कुछ चरित्र और स्थितियाँ इतनी गंभीर और चुनौतीपूर्ण थीं की विभिन्न निर्देशकों ने इसके कई-कई अर्थों के द्वार खोले। वास्तव में नाटककार के रूप में मूल्यांकन किया जाए तो ये नाटक ही वास्तव में बादल सरकार का प्रतिनिधित्व करते हैं। 
24 अक्टू॰ 1971 में कलकत्ता के ABTA हाल में ‘सगीना महतो’ नाटक के मंचन से उन्होने अपने नाट्य-काल का तीसरा दौर शुरू किया और एक नए रंग सफर की शुरुआत की। हिन्दी कविता में नकेनवादी कवियों को निरंतर नए प्रयोग करने का श्रेय दिया जाता है। उनकी कविता ‘साँझ’ में उन्होने बार-बार साँझ की नयी व्याख्या करते हुए अपने ही प्रयोगों को नकारकर नए प्रयो की ओर बढ़ते हैं। तभी तीसरे दौर में हम उनके पिछले किसी भी नाटकों की एक झलक भी नहीं देख पते हैं। इस दौर में वे न सिर्फ नाटककार के रूप में बल्कि रंगचिनतक, सिधान्तकर और कुशल निर्देशक के रूप में सामने आते हैं। यह समय ‘तीसरा रंगमंच’ के उदय का था जब उन्होने एक दूसरे से बिलकुल भिन्न शहरी और ग्रामीण रंगमंच की शक्तियों और कमजोरियों की शिनाख़्त कर ग्रोतोवस्की के ‘पुअरथिएटर’ के तर्ज़ पर नए सिद्धांत को रचा। इस अनूठे प्रयोग के लिए उन्होने लोक से जात्रा, तमाशा, कथकली, छऊ, मणिपुरी नृत्य, पश्चिम से लंदन का थिएटर-इन-राउंड, ब्राजीलियन रंगकर्मी अगस्त बोउल के ‘उत्पीड़ितों का थिएटर’, पोलिश रंगकर्मी ग्रोतोवस्की के ‘पूउर थिएटर’ की शैलियों से प्रेरणा प्राप्त की।   
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दरअसल उनके रंगकर्म का सरोकार उन लोगों से था जो जिंदगी की अपनी जद्दोजहद के कारण पैसे खर्च कर सभागारों में शायद ही कभी नाटक देख पाते थे और न ही सभागारों के नाटकों में उनके सरोकार महात्व्वपूर्ण होते थे, इसलिए उन्होने वैकल्पिक रंगमंच के रूप में ‘तीसरा रंगमंच’ की संकल्पना को जन्म दियाजिसके माध्यम से कम से कम खर्च में अपने लक्ष्य दर्शकों को रंगमंच से जोड़ा जा सके, जिनमें उनकी ज़िंदगी की कहानी हो। बंगाल अपनी नियति से संघर्ष करने का स्वर्णिम इतिहास वाला राज्य है। इसी संघर्ष की अगली कड़ी में उन्होने तीसरा रंगमंच के माध्यम से हस्तक्षेप किया; ऊंटक पहुँचने के लिए जिनके लिए जानना-समझना सबसे जरूरी है – ग्रामीण, किसान, मज़दूर, महिला, आदिवासी इत्यादि। इसके लिए एक ‘कम ख़र्चीले’ और गतिशील रंगमंच की जरूरत थी। तीसरे रंगमंच के चलते गाँव-देहात के सुदूर इलाकों तक नाटक को आसानी से ले जाया जा सका जो पहले संभव नहीं था। मतलब अगर वे नाटक देखने नहीं आ सकते तो हम ही उनके पास चलें। 
मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित बादल सरकार 1972 में ‘शताब्दी’ नाम के नाट्य समूह का गठन किया जिसकी शुरुआत तब कलकत्ता के कर्ज़न पार्क में विरोध आंदोलन के दौरान लाठी चार्ज में प्रोवीर दत्ता की मृत्यु से हुई। उन्होने इस घटना के विरोधस्वरूप वहीं खुले में एक नाटक खेला और तब से कर्ज़न पार्क में आने वाले लोग इस मुहिम में अप्रत्यक्ष रूप से भागीदार बन गए, बाद में इस मुहिम ने राज्य और देश के दूसरे हिस्सों में भी पैर पसारा। बादल सरकार मानते थे की यह प्रयोग इसलिए भी महात्त्वपूर्ण है की रंगमंच सैद्धांतिक रूप में एक मानवीय क्रिया है जहां दर्शकों और अभिनेताओं को बिना किसी असहजता के अबाधित के मिलना चाहिए, जिससे उनके बीच एक मानवीय संबंध बन सके। यही राजनीतिक मंच की भी जरूरत है जिससे विचारों का प्रभाव अभिनेताओं और दर्शकों को भी सोचने और बहस करने के लिए मजबूर करें। 
बादल सरकार ‘तीसरा रंगमंच’ के नाटकों में स्वतंत्र राष्ट्र में पनप रहे औपनिवेशिक और सामंती प्रवृत्तियों को उजागर कर उसपर प्रहार करते हैं जिससे दर्शकों का दिलो-दिमाग बेचैन हो जाता है। उनका कहना था की मैं एक ऐसे अस्त-व्यस्त समय में रह रहा हूँ जो विरोधाभासों का ढेर है इसलिए उनके नाटकों में एब्सर्डिटी दिख जाती है लेकिन इन सबके बीच उनके नाटकों का मूल स्वर उन लोगों के खिलाफ अपने गुस्से को जाहीर करना है जो गरीब को गरीब, मज़बूर को मज़बूर बनाए रखते हैं। उनके नाटक किसान, आदिवासी, युवा, महिला आदि समुदायों के संघर्षरत लोगों के साथी हैं। विषम स्थिति में मध्य वर्ग की तटस्थता की नीति पर वे कहते हैं- ‘आज के लोगों का खून ठंडा/ ठंडा/ ठंडा हो गया है।’ वे उनके आंतरिक प्रतिरोध को भी सामने लाते हैं। बादल सरकार ने जनता की चेतना को क्रांतिकारी दिशा में बदलाव के लिए तैयार करने के अनिवारी उपकरण के रूप में नाटक और रंगमंच को विकसित किया, उनके संघर्ष में रंगमंच को साथी बनाया।
चूंकि तीसरा रंगमंच के लिए दर्शकों की भागीदारी सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण थी इसलिए उन्होने दर्शकों और कलाकारों को साथ-साथ बिठाकर दर्शकों को भी एक पत्र के रूप में विकसित किया। वे इस बाटके सख़्त खिलाफ़ थे की दर्शक तो चुपचाप अंधेरे में में बैठे रहें और कलाकार उजाले में प्रस्तुति देते रहें। उनके अनुसार रंगद्वारी व्यवस्था में दर्शक कलाकारों से एकदम कट जाते हैं, इसलिए उनके नाटकों में दर्शक अक्सर चारों ओर बैठे या खड़े रहकर बहुत करीब से सबकुछ देखता है। दरअसल उन्होने रंगमंच, कलाकार और दर्शकों की दूरी को फटने का काम किया। ‘तीसरा रंगमंच’ में उन्होने मंच सज्जा, वेषभूषा, कृतिम रोशनी जैसे सभी कृतिम जरूरतों को गैर अनिवार्य बना दिया। उनका मानना था कि मात्र अभिनेता के शारीरिक चेष्टाओं, देहगतियों से नाटक खेला जा सकता है। उन्होने यह साबित कर दिया कि पैसे और सभागारों से रंगमंच नहीं चलता, रंगमंच के लिए अभिनेता की देह, न्यूनतम स्पेस और दर्शकों की कल्पनाशक्ति ही काफी है। 
‘तीसरा रंगमंच’ अपने समय का एकसाथ इतना लोकप्रिय, साथ ही विवादित नाट्य प्रयोग था कि एक तरफ बंगाल में ही रंगकर्मियों ने इसका तीव्र विरोध और बहिष्कार तक किया, कई साथी प्रयोग से जुड़े फिर हटते चले गए लेकिन प्रयोग की निरंतरता नहीं थमीं। वहीं इस शैली से प्रेरणा पाकर बंगाल और देश के छोटे-छोटे कस्बों और शहरों में सैंकरों नाट्य संस्थाओं ने जन्म लिया। बाद के दिनों में बंगाल के प्रोवीर गुहा का ‘लिविंग थिएटर’, लखनऊ के शशांक बहुगुणा के समूह ‘लकरिस’ का साइको फिजिकल , अनिल भौमिक की नाट्य संस्था ‘समानान्तर’, असम का ‘थिएटर ऑन व्हील’ इत्यादि ने बादल सरकार की नाट्य परंपरा को अगले स्तर तक पहुंचाया। 
एक तरफ जहां कई रंगकर्मियों ने उनकी धैली से प्रेरणा पाई वहीं उनके प्रयोग की सीमाएं भी उजागर हुईं। अभिनेता को सर्वोपरि मानने वाले मशहूर रंगकर्मी देवेंद्रराज अंकुर मानते हैं कि जब भी कोई शैली, सिधान्त अभिनेता को पृष्ठभूमि में धकेल देगा, वह बहुत दिनों तक जिंदा नहीं रह पाएगा। वे कहते हैं कि जिस ‘पुअर थिएटर’ से प्रेरित होकर बादल सरकार ने ‘तीसरा रंगमंच’ कि संकल्पना की थी, उसके सिद्धांतकार ग्रोतोवस्की ने ही उसकी सीमाओं को समझकर उसे छोड़ दिया था। यही वजह है कि तीसरा रंगमंच एक सीमा के बाद अपनी कहमक बरकरार नहीं रख पाया। 
दरअसल तीसरा रंगमंच अभिनेता के नादार निहित ध्वनि, भाव, रंगों के माध्यम से रंगमंच कि नई भाषा तैयार करने का दावा करती थी लेकिन विडम्बना थी कि यहाँ अभिनेता मात्र एक साधन बनकर रह जाता है। इसलिए इस रूप से एक भी उल्लेखनीय अभिनेता उभरकर सामने नहीं आ पाए। यही स्थिति हम हबीब तनवीर के नाट्य रूप में भी देख सकते हैं। उनके भी ‘नया थिएटर’ कंपनी ने अपने समय में एक नए सिद्धांत और रूप के साथ सार्थक हस्तक्षेप किया और बहुत सफल भी रहा लेकिन यहाँ भी अभिनेता नहीं बल्कि रूप ही महत्त्वपूर्ण रहा था और इससे भी कोई उल्लेखनीय अभिनेता उभरकर नहीं आया। यह कहा जा सकता है कि यदि बादल सरकार और हबीब तनवीर भी आगमनात्मक शैली अपनाते हुए नाट्य सिद्धांत देते तो शायद आज वो ज्यादा व्यावहारिक हो पाता अर्थात पहले एक सिद्धांत गढ़कर उसके हिसाब से आलेख रचना करने के बनिस्पत यदि उन्होने पहले से लिखित नाटकों के माध्यम से सिद्धांत को जन्म दिया होता तो वह ज्यादा ठोस, व्यावहारिक और दूरगामी होता। 
इन सारी सीमाओं के बावजूद बादल सरकार एक युगांतकारी रंगकर्मी थे। जनवादी रंगमंच अपने स्वरूप में मार्क्सवादी विचार से प्रभावित और गली-गली, शहर-शहर खेला जाने वाला होता है। नुक्कड़ भी इस प्रकार के रंगमंच का क सशक्त रूप है। बादल सरकार का रंगकर्म इस स्वरूप के विकास और विस्तार में किस प्रकार योगदान करता है, जनवादी रंगमंच के अन्य स्वरूपों पर इसने अपने दौर में ही नहीं बल्कि बाद में भी कितना प्रभाव डाला है, इसका मूल्यांकन भी जरूरी है। 
मुकेश बर्णवाल
असि. प्रोफे., हिंदी विभाग
विवेकानंद महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय
विवेक विहार, दिल्ली-95
संपर्क- 9810418613

महात्‍मा जोतीराव फुले द्वारा रचित मराठी रंगमंच का पहला नाटक – ‘तृतीय रत्‍न‘: डॉ. सतीश पावड़े

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महात्‍मा जोतीराव फुले द्वारा रचितमराठी रंगमंच का पहला नाटक – ‘तृतीय रत्‍न‘

— डॉ. सतीश पावड़े 
महात्‍मा जो‍तीराव फुले की रचनाओं में ‘तृतीय रत्‍न’ नाटक की चर्चा कई बार होती थी। किंतु प्रत्‍यक्ष में इस नाटक की ‘संहिता’(script) उपलब्‍ध नहीं थी। फुले के चरित्रकार पंढरीनाथ पाटील के निजी संग्रह से यह नाट्यकृति आखिरकार फुले के साहित्‍य के अनुसंधानकर्ताओं ने प्राप्‍त की। महात्‍मा फुले के हस्‍ताक्षरों में लिखी गयी इस पांडुलिपि ने सही मायने में नाटककार फुले का परिचय करवाया। महात्‍मा फुले समता प्रतिष्‍ठान के मुखपत्र ‘पुरोगामी सत्‍यशोधक’ में अप्रैल-जून 1979 के अंक में पहली बार यह नाट्यकृति प्रकाशित की गयी। अखंड, पवाडे, वैचारिक साहित्‍य के साथ फुले द्वारा लिखित इस नाटक ने भी सामाजिक जन-जागरण में महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाई है। 
महाराष्‍ट्र में सामाजिक-सांस्‍कृतिक परिवर्तन के लिए संघर्ष करने वाले, जीवन के अंतिम क्षणों तक ‘बहुजन हिताय- बहुजन सुखाय’ इस बुद्धवचन के अनुसार अपना जीवन समर्पित करने वाले इस महामानव के मानवीय मूल्‍यों का दृष्टिकोन ‘तृतीय रत्‍न’ इस नाटक में भी दिखाई देता है। शुद्रातिशूद्र समाज के जागरण हेतु, उनमें चेतना जगाने के लिए इस नाटक की रचना फुले ने की। इस नाटक के माध्‍यम से उन्‍होंने ब्राह्मणवर्ग द्वारा किए जा रहे शोषण का वास्‍तव प्रस्‍तुत किया है। धर्म के नाम पर विविध आडंबर, खोखली परंपराएं तथा धार्मिक मूल तत्‍वों की गुलामी आदि पर फुले ने इस नाटक द्वारा तीखा प्रहार किया है। 
‘तृतीय रत्‍न’ नाटक का विषय, आशय, रचना, पात्र, शैली, आकृतिबंध, संवाद आदि सभी एकक चिकित्‍सा का विषय बनना स्‍वाभाविक था। मराठी रंगमंच के उदय के इतिहास को इस नाटक ने चुनौती दी है। डेढ़ सौ साल के वनवास के पश्‍चात इस नाटक ने अपनी क्रांतिकारी छवि सिद्ध की है। मराठी रंगमंच का पहला नाटक, आद्य नाटक इस रूप में कई अनुसंधानकर्ताओं ने इस नाटक को लाकर खड़ा कर दिया है। इतना ही नहीं तो उसके समर्थन में कई पुरजोर दलीलें, सबूत भी प्रस्‍तुत किए हैं। 

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मराठी रंगमंच का उदय
कर्नाटक के उत्तरी क्षेत्र में स्थित ‘भागवत मंडली के खेल’ 1840 के आसपास पश्चिम महाराष्‍ट्र में खेले जाते थे। यह खेल कनार्टकी यक्षगान शैली से निर्मित थे। यह खेल उबड़खाबड़ तथा ठेठ गवार के स्‍वरूप में थे। इन खेलों को उस समय ‘तागडथोमऽऽऽ’ अथवा ‘अललर्डुरऽऽऽ’ खेल भी कहा जाता था। मनोरंजन हेतु दूसरा कोई पर्याय न होने के कारण यह खेल बहुत ही लोकप्रिय थे। सांगली संस्‍थान के तत्‍कालीन संस्‍थानिक श्रीमंत आप्‍पासाहब पटवर्धन के दरबार में इन खेलों का प्रदर्शन होता था। किंतु यह खेल उनको संतुष्‍ट नहीं कर पाते थे। उन्‍हें ऐसा खेल चाहिए था जो उनका अच्‍छा मनोरंजन कर सके। 
श्रीमंत के दरबार में भावे नामक सरदार थे। उनके सुपुत्र विष्‍णुदास भावे एक कलाकार थे। वे कविताएं लिखते, आख्‍यानों की रचना करते, उसे गाते भी थे। साथ ही वे कठपुतलियों का खेल भी करते थे। श्रीमंत ने विष्‍णुदास को दरबार में बुलाकर नया खेल प्रस्‍तुत करने का आदेश दिया और साथ में इस कार्य के लिए राजाश्रय भी। विष्‍णुदास ने उन्‍हीं पुराने खेलों का अध्‍ययन कर यक्षगान, भागवत का मिश्रण कर 5 नवंबर 1843 को ‘सीता स्‍वयंवर आख्‍यान’ का खेल श्रीमंत के दरबार में प्रस्‍तुत किया1 आज यही दिवस मराठी रंगमंच के स्‍थापना दिन के रूप में मनाया जाता है। 
‘सीता स्‍वयंवर’ यह आख्‍यान पौराणिक विषय पर आधारित था। यह खेल बहुत लोकप्रिय हुआ। विष्‍णुदास भी रुके नहीं, इन पौराणिक नाटकों की परंपरा आगे चलती रही। विष्‍णुदास के कार्य से प्रेरित होकर अन्‍य कई मंडलियाँ स्‍थापित की गयी। 1861-62 साल तक पौराणिक आख्‍यान नाटकों की लोकप्रियता चरम सीमा पर थी। यक्षगान, भागवत और दशावतारी खेलों का ही यह परिष्‍कृत स्‍वरूप था, जिसे विष्‍णुदास ने परिष्‍कृत किया था। राजाश्रय होने के कारण विष्‍णुदास अठ्ठारह-बीस सालों तक अपने खेलों का प्रदर्शन करते रहे। इसी समय 1855 में महात्‍मा ज्‍योतीबा फुले ने गरीब खेतिहर किसान के शोषण पर ‘तृतीय रत्‍न’ नाटक लिखा। एक और पुराणों पर आधारित आख्‍यान खेल नाटकों की भरमार जो समाज को वास्‍तविकता से दूर ले जा रहे थे। दूसरी ओर आम आदमी धार्मिक शोषण को, अज्ञान को, अशिक्षा को महात्‍मा फुले हाशिए पर ला रहे थे। इन दो घटनाओं की पार्श्‍वभूमि तथा उसके अर्थ को समझना निहायत आवश्‍यक है। 
तत्‍कालीन-राजनीतिक-सामाजिक परिस्थिति
1818 वर्ष में पेशवाई का अस्‍त हुआ। छत्रपति शिवाजी महाराज ने कडे परिश्रम, लगन और समर्पित भावनाओं से निर्माण किया। हिंदवी स्‍वराज्‍य भी ध्‍वस्‍त हो गया। ‘पेशवाओं ने देश डूबा दिया’ इस शब्‍दों में लोकहितवादी जैसे महामना ने पेशवाओं के कुकर्मों को उजागर किया। अंग्रेजों का आगमन, वसाहतवादी सुधारणाओं की भरमार, शिक्षा का तेजी से हो रहा प्रचार, सामाजिक कुरितियों पर मानवीय दृष्टि से हो रहा प्रहार, ऐसे एक नए वातावरण की नीव रखी जा रही थी। किंतु तत्‍कालीन मराठी रंगमंच को इससे कोई सरोकार नहीं था। राजाश्रय प्राप्‍त इस पौराणिक खेलों ने वर्तमान को छोड़कर दर्शकों को पुराण काल में बांधे रखा। 
उस समय चार वर्णो की व्‍यवस्‍था में सबसे अंतिम छोर पर स्थित शुद्रातिशुद्र वर्ग सामाजिक, सांस्‍कृतिक एवं आर्थिक शोषण में पिस रहा था। धर्म, जाति उस शोषण का सबसे बड़ा आधार थी। ब्राह्मणी व्‍यवस्‍था का वर्चस्‍व कायम था। सामाजिक विषमता, छूत-अछूत का भेद, धार्मिक पाखंडता, मानवीय मूल्‍यों की सुरक्षा इस पार्श्‍वभूमिवर महात्‍मा फुळे को ‘तृतीय रत्‍न’ नाटक लिखने की प्रेरणा मिली। ‘तृतीय रत्‍न’ उनके विचारों की एक सशक्‍त अभिव्‍यक्ति थी। 
मराठी रंगमंच के उदय की इस पार्श्‍वभूमि पर ‘तृतीय रत्‍न’ की भूमिका परखी जा सकती है। आम आदमी से जुड़ी यह नाट्यकृति थी। समकालीन वास्‍तव को फुले ने पुरजोर रूप में रखा। और शिक्षा की आवश्‍यकता को अग्रिम स्‍थान दिया। बहुजन समाज के उन्‍नति के लिए, धर्म, परंपरा और दकियानूसी विचारों ने वंचित रखे, शिक्षा के अधिकारों को उन्‍होंने आम आदमी को सौंपा, 1813 में पहला स्‍कूल खुला। 1824 में पूना में पहला स्‍कूल शुरू किया गया। 1840 में एजुकेशन बोर्ड (शिक्षा मंडल) स्‍थापित किया गया। 1833 में लड़कियों को शिक्षा प्रदान करने की आवश्‍यकता पर विचार होना शुरू हुआ। इस प्रकार शिक्षा को एक महत्‍वपूर्ण सामाजिक सुधार का दर्जा दिया गया। शिक्षा के उपलब्धि की हवाएं बहने लगी। मात्र इस समय में धर्मांध, ब्राह्मणी विचार परंपराओं के सिपहसालारों ने ही शिक्षा का विरोध करना शुरू किया। 
1854 तक यह प्रतिगामी दृष्टिकोन बरकरार था। 1854 के ‘ज्ञान प्रकाश’ में एक सनातनी कवि ने तो यहाँ तक लिख डाला कि अगर तुम अपने बच्‍चों को इन स्‍कूलों में भेजोगे तो आपके बच्‍चे अछूत हो जाएंगे और उसके कारण आपके खानदान को कालिख लगेगी। शिक्षा के प्रति खास बहुजन शिक्षा के प्रति यह सनातनी, धर्मांध, जातीयवादी शक्तियाँ भ्रम फैला रही थी। शुद्रातिशूद वर्ग को, बहुजन वर्ग को वे शिक्षा से दूर रखना चाहते थे। इस पार्श्‍वभूमिवर इस वर्ग के लिए शिक्षा की जरूरत है। उसी द्वारा उसकी उन्‍नति होगी। यह बात फुळे उन्‍हें बहुत गंभीरतापूर्वक बता रहे थे। अपनी यही भूमिका उन्‍होंने ‘तृतीय रत्‍न’ इस नाटक के माध्‍यम से रखी। शिक्षा पद्धति कैसी होनी चाहिए? शिक्षा के लाभ, उसकी जरूरत इन सारी बातों को उन्‍होंने ‘तृतीय रत्‍न’ में प्रभावी रूप से रखा है। यह भारत का पहला ‘एजुकेशन ड्रामा’ है। तात्‍पर्य ‘भारतीय शिक्षाप्रद नाटक’ के जनक के रूप में हम महात्‍मा फुले का उल्‍लेख कर सकते हैं। 
1848 के अगस्‍त माह में फुले ने पुणे में पाठशाला शुरु की। 03 जुलाई 1851 में उन्‍होंने ‘कन्‍याशाला’ शुरू की। 1845-1855 यह काल फुले द्वारा की गयी ज्ञानक्रांति, शिक्षाक्रांति का काल था और मात्र इस समय मराठी रंगमंच पुराणकथाओं के प्रदर्शन में मश्‍गूल था। किसी भी प्रकार के सुधार, परिवर्तन, न्‍याय, समकालीन वास्‍तविकता, सामाजिक परिवर्तन के साथ उसका कोई संबंध नहीं था। क्‍योंकि मराठी रंगमंच के उदय की प्रेरणा ही किसी एक राजा की जो अपना राजापद खो चुका है। गतस्‍मृतियों के अलावा उसके पास कुछ नहीं, उसके मनोरंजन की, जरूरत में थी। जो एक प्रकार का निजी मनोरंजन था। इस प्रक्रिया में आम दर्शकों का प्राथमिक विचार नहीं था। प्रारंभ में इस नाटक का औचित्‍य केवल एक दरबारी जरूरत का था। 
1826 में हुआ उमाजी नाईक का विद्रोह, पुना जिला में हुआ मछुआरों का विद्रोह, 1831 से 1842 तक अंग्रेज सरकार के खिलाफ हुए संघर्ष, यह सारी घटनाएं समाज को प्रभावित कर रही थी। आजादी का जुनून धीरे धीरे छा रहा था। दूसरी ओर अंग्रेजी हुकूमत अपने पैर शैने…शैने… जमा रही थी। इन समकालीन घटनाओं का कोई असर मराठी रंगमंच पर होता दिखाई नहीं दिया। मराठी रंगमंच के उदय से जुड़ा वह वर्ग था, जिसका न अंग्रेजों से लेना-देना था, न आजादी से था। सुधार, परिवर्तन, समाज जागरण की गतिविधि तो दूर की बात थी। शिक्षा का महत्‍व, सामाजिक विषमता, छूत-अछूत भेद, इन प्रश्‍नों का उनके लिए कोई महत्‍व नहीं था। क्‍योंकि यह वर्ग ब्राह्मणी शोषण व्‍यवस्‍था की आधार थी। समकालीन वास्‍तविकता से बहुत दूर ही था यह वर्ग। 
प्रसिद्ध नाटककार प्रा. गो.पु. देशपांडे ने मराठी रंगमंच का उदय तथा इस उदय के साथ जुडे ‘सीता स्‍वयंवर आख्‍यान’ तथा अन्‍य आख्‍यान नाटकों के बारे में अत्‍यंत महत्‍वपूर्ण बाते रखी है। वे कहते हैं ‘अपना इतिहास, अपनी संपन्‍नता, कल्‍पनाओं से निर्मित माध्‍यम द्वारा ही क्‍यों न हो, उसे खड़ा करने का यह प्रयास था। वास्‍तविकता एवं अपेक्षा इस बीच झूल रहे अभिजनवर्ग की स्‍वप्‍नपूर्ति ही इन नाटको ने की’। गो.पु. देशपांडे ने मराठी रंगमंच के उदय घटना को सटीक ढंग से विश्‍लेषित किया है। अपने व्‍यक्तिगत मनोरंजन के लिए अभिजन वर्ग द्वारा नाट्यकला का इस तर उपयोग किया गया। प्रारंभ में ‘लोकदर्शक’ का कोई विचार इस कृति में नही था। यह एक दरबारी प्रयास था। किंतु महात्‍मा फुले का ‘तृतीय रत्‍न’ यह नाटक की प्रेरणा सामाजिक थी। लोकदर्शक के जागरण की थी। जिसमें आम आदमी के शोषण से, उन्‍नति से, सामाजिक न्‍याय से जुड़े सवाल थे और जवाब भी। यह एक उद्देश्‍यपूर्ण, कृतिपूर्ण नाट्यकृति थी। इसीलिए मराठी रंगमंच का उदय, इसी नाटक से माना जाना चाहिए, यह विचार महत्‍वपूर्ण है। इसलिए महात्‍मा फुले ही सही अर्थों में मराठी रंगमंच के जनक कहलाने के हकदार हैं। 
‘तृतीय रत्‍न’ इस नाटक का विषय, आशय, शैली, आकृतिबंध, पात्ररचना, संवाद, भाषा, रूप, स्‍वरूप आदि नाट्य एककों के आधार पर पहला सामाजिक, पहला प्रायोगिक, पहला शिक्षापरक, पहला वैचारिक, पहला गद्य नाटक, पहला स्‍वतंत्र, पहला पथनाटक, पहला मुक्‍त नाट्य, पहला बहुजन, पहला दलित नाटक, पहला प्रबोधन नाटक, पहला जननाट्य, पहला समांतर, पहला विद्रोही, पहला देशीय नाटक, पहला वास्‍तववादी, पहला मूल्‍यनाटक, पहला नवनाट्य, पहला टोरस थिएटर, पहला संवादनाट्य, पहला थिएटर फॉर डिप्रेस्‍ड, पहला मासिकल नाटक, कृषि संस्‍कृति का, वैज्ञानिक दृष्टिकोण का पहला नाटक हम कह सकते हैं। कालसापेक्ष पहला आधुनिक नाटक भी हम उसे कह सकते हैं। ‘व्‍ही-इफेक्‍ट’ नाट्यतंत्र की धारणाएं भी उसमें निहित है। ऐसी कई संज्ञा एवं संकल्‍पनाओं के धरातल पर ‘तृतीय रत्‍न’ की विशेषताएँ परखी जा सकती है। 
आख्‍यान खेलों का स्‍वरूप
‘आख्‍यान’ यह कविता का ही एक प्रकार है। इसे हम ‘पद्य’ भी कह सकते हैं। विष्‍णुदास भावे ने पुराणों में से कुछ लोकप्रिय कथाएं चुनी। इन कथाओं को आख्‍यान स्‍वरूप कविताओं में पिरोया। भावे इस आख्‍यान खेलों को ‘नाट्यकविता’ भी कहते हैं। आमतौर पर इन कविताओं को नाटक कहना अनुचित लगता है। भावे के इन आख्‍यान नाटको में संवाद नहीं, पात्रों द्वारा की जाने वाली कृतियों के निर्देश नहीं, अभिनय से संबंधित कोई सूचनाएं नहीं। आख्‍यानों के विषय भी पुराणों में लिए गए हैं। आशय का कोई नया ‘कथ्‍य’ नहीं। ‘भावे द्वारा निर्मित नाटक’ कहने का कोई ठोस कारण भी नहीं मिलता। इसे हम संकलन या कारागिरी कह सकते हैं। अभंग, ओवी, गणवृत्तात्‍मक काव्‍य गाकर अभिनय करने की चेष्‍टा इन खेलों में की जाती थी। भावे खुद यह आख्‍यान गाते थे। आशय के अनुरूप, नाम निर्देश के अनुसार चरित्र रंगमंच पर आते थे। उबड़-खाबड़ हात, पैर, शरीर से कृति करते और मंच से चले जाते। क्‍या इसे हम नाटक की व्‍याख्‍या में रख सकते हैं। यह प्रश्‍न सही मायने में चर्चा का विषय है। 
मराठी रंगमंच के इतिहासकार श्री ना. बनहटटीने इन आख्‍यान खेलों को ‘नाट्य साहित्‍य’ में सम्मिलित करने से इंकार कर दिया1 आंतरराष्‍ट्रीय ख्‍याति के नाटककार गिरीश कर्नाड, अ.भा. मराठी नाट्य सम्‍मेलन के पूर्वाध्‍यक्ष प्रा. दत्ता भगत, विदुषी नाट्यालोचक प्रा. पुष्‍पा भावे, दलित तथा लोकनाट्य के विद्वान डॉ. रुस्‍तम अचलखांब, नयी पीढ़ी के समालोचक डॉ. पुरुषोत्तम मालोदे, डॉ. प्रवीण बन्‍सोड आदि ने महात्‍मा फुले को मराठी के आद्य नाटककार तथा तृतीय रत्‍न को आद्य मराठी नाटक के रूप में परिभाषित किया है।
सामाजिक रंगमंच का जन्‍म
भारतीय समाज व्‍यवस्‍था चार वर्णों पर आधारित है। जातिप्रथा या इस व्‍यवस्‍था का मुख्‍य लक्षण है। जाति भेद के साथ छुआछूत जैसी बीमारियों से शुद्रातिशूद्र समाज पीडित था। किंतु शोषक अभिजनवर्ग के लिए यह व्‍यवस्‍था ईश्‍वर का, धर्म का आदेश थी। शुदातिशूद्र होना मतलब उनके पूर्व जन्‍मों के पाप हैं और यह पाप भोगना ईश्‍वरादेश है। इसलिए शुद्रातिशूद्र का शोषण, उनकी प्रताड़ना भी धार्मिक, ईश्‍वरीय मानी जाती थी। ‘शोषण’ यह समस्‍या के रूप में देशने की कोई वजह अभिजनवर्ग के पास नहीं थी। किंतु ईश्‍वर तथा धर्म के इस पाखंडी कवच को ध्‍वस्‍त करने का कार्य महात्‍मा फुळे ने किया। चातुर्वर्ण, जातिभेद, छुआछूत आदि परंपरा के विरोध में उन्‍होंने रचनात्‍मक विद्रोह खड़ा किया। शिक्षा की जरूरत, वैज्ञानिक दृष्टिकोण का प्रचार, सामाजिक समानता के लिए संघर्ष, शुद्रातिशूद्रों का जनजागरण करने का कार्य उन्‍होंने किया। इन शोषण की जड़े ‘अज्ञान’ में होने के कारण ‘शिक्षा’ को उन्‍होंने अपना हथियार बनाया। ‘शिक्षा’ यह आदमी का ‘तीसरा नेत्र’ है। यह मंत्र उन्‍होंने पीडित-शोषित समाज को दिया। ‘तृतीय रत्‍न’ यह नाटक में पिछड़े समाज को शिक्षित करने की आवश्‍यकता पर उन्‍होंने बल दिया है। 
‘तृतीय रत्‍न’ में सामाजिक प्रश्‍नों को रखकर, न्‍याय प्राप्‍त करने की कोशिश की। इसलिए सामाजिक रंगमंच का प्रारंभ भी ‘तृतीय रत्‍न’ इस नाटक से ही होता है। किंतु मराठी रंगमंच की अभिजन धारा यह श्रेय उन्‍हें न देकर ‘मनोरमा’ नाटक के लेखक म.वा.पितले या फिर ‘शारदा’ के लेखक गोविंद बल्‍लाळ देवल को देती है। किंतु यहाँ यह बात गौरतलब है कि महात्‍मा फुले ने ‘तृतीय रत्‍न’ लिखा तब देवल पैदा भी नहीं हुए थे। किसी भी प्रकार से फुले को यह श्रेय न दिए जाने के प्रयास थे। जिस प्रकार ‘सीतास्‍वयंवर’ आख्‍यान नाटक दरबारी जरूरत से जन्‍मा था। उसी प्रकार शारदा नाटक की प्रेरणा भी ब्राह्मण परिवार से थी। ‘तृतीय रत्‍न’ की उपेक्षा हमारी वर्ण, धर्म, जात, पंथ प्रणित अभिजन विचारों की फलश्रृति थी। अभिजन वर्ग के जिस अभिरुचि को प्रमाण माना जाता था। उसमें बहुजन वर्ग के प्रश्‍न और बहुजन समाज के लेखक को कैसे सम्‍मान मिलता? “तत्‍कालीन मराठी नाटककारों के पास सामाजिक वास्‍तविकता को देखने की दृष्टि नहीं थी। साथ ही उनमें इच्‍छा का भी अभाव था।
दक्षिणा प्राईज कमेटी द्वारा उपेक्षा
दक्षिणा का मतलब होता है, दान देना। खासतौर पर ज्ञान में प्रवीण, ज्ञान साधाना में लीन विद्वानों के लिए छत्रपति शिवाजी महाराज के शासनकाल में यह योजना शुरु की गयी। छत्रपति संभाजी महाराज तदपश्‍चात् ताराराणी, शाहू महाराज के शासनकाल तक यह योजना चलती रही। किंतु पेशवाकाल में यह योजना केवल ब्राह्मणवर्ग तक सीमि‍त होती गयी। बहुजन, शुद्रातिशूद्र विद्वानों के लिए उसके दरवाजे बंद होते गए। 
महात्‍मा फुले द्वारा भी अपना ‘तृतीय रत्‍न’ नाटक दक्षिणा प्राईज कमेटी को ‘प्राईज’ हेतु प्रस्‍तुत किया गया। किंतु उसे इस कमेटी ने खारीज कर दिया। तत्‍कालीन अभिरुचि के यह नाटक होने का आरोप उनपर जड़ा गया। ब्राह्मण सदस्‍यों की इस कमेटी पर खासी पकड़ थी। एक शुद्र लेखक की, वह भी विद्रोही रचना का स्‍वागत वे कैसे कर पाते? उच्‍च जा‍तीय, उच्‍च वर्णीय संस्‍कृति, उसे शक्तिशाली बनाने वाली अभिरुची, इस अभिरुची की बनी परंपरा यह तत्‍कालीन ब्राह्मण प्रवृत्ति का सूत्र थी। और इस परंपरा, अभिरुचि तथा संस्‍कृति के विरोध में संघर्ष करना यह शूद्रातिशूद्र समाज के संघर्ष का सूत्र था। इस संघर्ष के परिणति के स्‍वरूप ‘तृतीय रत्‍न’ को नकारा गया। उसकी उपेक्षा की गयी। तत्‍कालीन प्रसार माध्‍यम पर भी इसी प्रतिगामी तत्‍वों की हुकूमत होने के कारण ‘तृतीय रत्‍न’ पर कहीं भी चर्चा नहीं हुई। आखिरकार सौ सालों की गुमनामी ‘तृतीय रत्‍न’ को झेलनी पड़ी। जून 1979 को पहली बार ‘तृतीय रत्‍न’ पुरोगामी सत्‍यशोध में प्रकाशित हुआ और चर्चा का, अनुसंधान का विषय बना। 
डॉ. सतीश पावडे
असिस्‍टेंट प्रोफेसर
नाट्यकला एवं फिल्‍म अध्‍ययन विभाग
महात्‍मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय
वर्धा (महाराष्‍ट्र) 442001

किसान आत्महत्या एवं सरकारी योजनाए: समाजशास्त्रीय विश्लेषण (विदर्भ के विशेष संदर्भ में): अभिषेक त्रिपाठी

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किसान आत्महत्या एवं सरकारी योजनाए: समाजशास्त्रीय विश्लेषण
(विदर्भ के विशेष संदर्भ में)

अभिषेक त्रिपाठी 
पी-एच.डी. शोधार्थी
प्रवासन एवं डायस्पोरा अध्ययन विभाग
म. गा. अं. हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा (महाराष्ट्र)
मो. 09405510301
Email- abhisheksocio1991@gmail.com 

सारांश –

आज, सरकार और समाज के सामने यक्ष-प्रश्न है कि आखिर कब तक, मजबूर होकर, अन्नदाता किसान, सल्फास का जहर खाकर या फंदे से लटक कर, आत्महत्या करता रहेगा? खेती किसी भी मुल्क के जिंदा रहने की बुनियाद होती है। जब बुनियाद ही नहीं रहेगी, तो ढांचा बिखर जायेगा। हम चाहे जितनी तरक्की कर लें, लेकिन किसानों की तरक्की के बगैर सही मायने में देश खुशहाल नहीं होगा। आज, खेती मौत की फसल में बदल चुकी है। आंकड़े भयावह हैं। वर्ष 2013 में कुल 23,544 किसानों ने आत्महत्या की। यह घोर विडंबना है कि कृषि प्रधान भारत में, आर्थिक दिवालियेपन से पीड़ित, प्रति 22 मिनट में एक अन्नदाता किसान खुदकुशी कर रहा है। राष्टीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरों के अनुसार सन् 1995-2010 के पंद्रह वर्षों में 2 लाख 56 हजार 949 किसानों ने आत्महत्या की। 
मुख्य शब्द – 
आत्महत्या, विदर्भ, किसान, सरकारी योजनाए। 
भूमिका –
भारत देश की सबसे बड़ी इकाई गांव है। गांव में सामुदायिक भावना होती है। हमारा देश प्राचीनकाल से ही कृषि प्रधान देश है, उस समय लोगो का मुख्य पेशा पशुपालन व खेती उद्योग था। देश के किसान गरीब को पेट भरने के लिए अन्न, वस्त्र निवारा साहूकार और महाजनों ने छिना है। धूप तथा वर्षा से बचने के लिए उनके सिर पर छप्पर नहीं है। बंजर भूमि को समतल करके खेती योग्य बनाया। जहां सिचाई के लिए पानी एवं उपजाऊ भूमि थी। किसानों के लिए खेती 1965-66 में आई हरित क्रांति की दें है। जैविक खेती दूसरी हरित क्रांति भरपूर सिचाई पर आधारित है। फसल सूखने तथा कर्ज के तले दबने से किसान आत्महत्या कर रहा है। आज भारतीय किसान भयावह आर्थिक संकट के दौर से गुजर रहा है। किसान विविध समस्याओं से ग्रस्त है। भारत में कृषि के पिछड़े होने की समस्या महत्वपूर्ण मानी जाती है। इसके पीछे प्राकृतिक कारण, जनसंख्या विस्फोट, परम्परागत अनुपयोगी कृषि तंत्र, आर्थिक साधनों की कमी, ग्रामीण ऋणग्रस्तता की समस्या, ग्रामीण बेरोजगारी, तथा प्राकृतिक प्रकोप, आधुनिक खेती तकनीकी ज्ञान का अभाव, सरकार की उदासीनता, सरकारी योजनाओं का सही तरह से क्रियान्वयन न होना इन कारणों से किसान आत्महत्या कर रहा है। 
आज भी, किसानों की आत्महत्याओं का सिलसिला जारी है। ‘ह्यूमन सिक्युरिटी एण्ड द केस आफ फार्मर स्यूसाइड इन इंडिया-एन एक्सपोलोरेशन’ (डॉ. ऋतंभरा हैब्बार, 2007) के अनुसार आत्महत्या करने वाले किसानों में ज्यादातर नकदी फसल की खेती करने वाले थे। मिसाल के तौर पर महाराष्ट के कपास, कर्नाटक के सूरजमुखी, मूंगफली और गन्ना बोने वाले। आत्महत्या का मुख्य कारण खेती की उत्पादन लागत का बढ़ना और साहूकारों से कर्ज लेना था। कीटनाशक और उर्वरक बेचने वाली कंपनियों ने कर्नाटक और महाराष्ट के किसानों को कर्ज बांटे, जिससे किसानों पर कर्ज भार बढ़ा। ‘सेंटर फॉर ह्यूमन राइट्स ऐंड ग्लोबल जस्टिस’ के मुताबिक किसानों की हालत बेहद चिंताजनक है, क्योंकि भारत में 1995 के बाद से करीब डेढ़ लाख छोटे किसान खुदकुशी को मजबूर हुए हैं, उनमें से ज्यादातर कर्ज के बोझ से दबे हुए थे। साल-दर-साल हजारों किसान बढ़ते कर्ज का बोझ वहन नहीं कर पाते और खुद को मार डालते हैं। चाहे यह फसल की विफलता हो, लागत में वृद्धि, या बिचौलियों के हाथों शोषण हो, सबकी कहानी समान है। पराधीन भारत में कर्ज एवं शोषण के चक्र में फंसा ‘होरी’ अपनी छोटी-सी ‘गोदान’ की लालसा पूरी करने की प्रक्रिया में कारूणिक मौत का शिकार होता है। लेकिन, आज पूरा देश किसान आत्महत्याओं से अटा पड़ा है। यदि कोई किसान आत्महत्या को बाध्य होता है, तो यह समूचे मुल्क की हार है। पंजाब में, कभी संपन्नता का प्रतीक ट्रैक्टर, अब आत्महत्या का संकेतक बन गया है। पिछले एक दशक से सूखे की मार झेल रहे किसानों को बैंक कर्ज अदा करने के लिये अपने टैक्टर बेचने पड़ रहे हैं या फिर नीलाम हो रहे हैं। बैंक व टैक्टर एजेंसियों के दलाल, सूखे से जूझ रहे किसानों का खून चूसने पर आमादा हैं। कर्ज लेकर लिया गया टैक्टर किसानों के लिये दोहरी मार साबित हो रहा है। कर्ज अदायगी के लिये किसानों के टैक्टरों की ही नीलामी हो रही है। सूखे से जूझ रहे किसानों पर कर्ज अदायगी के लिए बैंकों का बर्बर व्यवहार मुश्किलें बढ़ा रहा है। जो लोग कर्ज नहीं अदा कर पा रहे हैं, वे अपने टैक्टर और जमीन बेच रहे हैं। जिनके पास बेचने के लिए कुछ नहीं है, वो मौत को गले लगा रहे हैं। आज, सरकार और समाज के सामने यह-प्रश्न है कि आखिर कब तक, मजबूर होकर, अन्नदाता किसान, सल्फास का जहर खाकर या फंदे से लटक कर, आत्महत्या करता रहेगा? खेती किसी भी मुल्क के जिंदा रहने की बुनियाद होती है। जब बुनियाद ही नहीं रहेगी, तो ढांचा बिखर जायेगा। हम चाहे जितनी तरक्की कर लें, लेकिन किसानों की तरक्की के बगैर सही मायने में देश खुशहाल नहीं होगा। इन किसानों में खेतिहर मजदूर भी हैं, जो भूमिहीन हैं। किसान के पसीने से नहाकर ही धरती सोना उपजती है। कृषि में लगे परिवार बर्बाद हो गए, अनगिनत महिलाएं विधवा हो गईं, गांव के गांव निराशा में डूब गए। इतना होने पर भी राजनीतिक सत्ता कारगर कदम उठाने को तैयार नहीं है। किसान के सिर पर सूखे और बाढ़ का प्रकोप तो तलवार बन कर लटकता ही रहता है, लेकिन इसके साथ-साथ कभी फसल अच्छी हो गई तो पैदावार का सही मूल्य दिलाने में सरकार उत्साहित नहीं होती। खराब और घटिया प्रकार का बीज उसका दुर्भाग्य बन जाता है। लागत की तुलना में जब आय ठीक नहीं होती है तो वह सरकारी कर्ज चुकाने में असफल रहता है। देश के गांवों में मौत का तांडव चल रहा है, किन्तु सरकारों को जैसे इससे कोई मतलब ही नहीं है। 
उद्देश्य –
प्रस्तुत शोध पत्र का उद्देश्य यह जानना है कि भारत में विभिन्न प्राकृतिक संसाधनों की प्रचुरता होने के कारण भी किसान आत्महत्या क्यों कर रहे हैं? किसानों के कृषि करने में लागत और उत्पादन में क्या अंतर है? वर्तमान सरकार की योजनाए किसानों के अनुकूल है या नहीं? भारत के विभिन्न राज्यों में किसान आत्महत्या का स्वरूप कैसा है? आत्महत्या से प्रभावित राज्यों में सरकार की योजनाओं का विश्लेषण करना, विदर्भ में किसान आत्महत्या के कारणों एवं सरकार के सहयोग की समीक्षा करना,किसानों के प्रति मीडिया की भूमिका इस शोध पत्र का मुख्य उद्देश्य है। 
शोध प्राविधि –
प्रस्तुत शोध पत्र व्याख्यात्मक प्रकार का है। तथ्यों के लिए प्रकाशित शोध ग्रंथों, पुस्तकों तथा द्वितीयक स्रोतों का उपयोग किया गया है। इसमें तथ्यों की विवेचना करते हुए उनके वैचारिक विश्लेषण को व्याख्यायित करने की कोशिश किया गया है। सरकारी आंकड़ों, समाचार पत्रों, सरकारी योजनाओं की भी मदद आंकड़ो को एकत्रित करने के लिए किया गया है। 
परिणाम एवं विवेचना –
किसानों की आत्महत्या के कारण विदर्भ में दिनों दिन विधवाओं की संख्या में बढ़ोतरी होती जा रही है। पूर्व केन्द्रीय कृषि मंत्री शरद पवार ने इस बात का दावा किया था कि वर्ष 2010 में 365 किसानों ने आत्महत्या की थी। यानी एक दिन में एक, इनमें से मात्र 65 ने कर्ज के कारण आत्महत्या की थी। लेकिन राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो इस दावे की पूरी तरह से पोल खोल देता है। अब सवाल यह है कि जब सरकार लागत के अनुसार कपास की कीमत नहीं देती है तो फिर उसके निर्यात पर प्रतिबंध क्यों लगाती है? इस बात को समझने के लिए कहीं दूर जाने की आवश्यकता नहीं है। पिछले साल 2009 में यह घटना घटी। 120 घंटे तक सरकार ने कपास के निर्यात पर प्रतिबंध लगाए रखा। लेकिन न जाने क्या बात है कि हड़बड़ी में लगाए गए इस प्रतिबंध को सरकार ने कुछ शर्तों के साथ रद्द कर दिया। पूर्व केन्द्रीय कृषि मंत्री शरद पवार का तो कहना था कि उन्हें इस बात की कोई जानकारी नहीं थी। लेकिन आनंद शर्मा ने इसका लूला-लंगड़ा बचाव किया। किन मिल मालिकों एवं धन्ना सेठों को लाभ पहुंचाने के उद्देश्य से उन्होंने यह निर्णय लिया ये तो वे ही जानें। लेकिन जो समाचार मिल रहे हैं उनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि सरकार ने कुछ शक्तिशाली लोगों के लिए यह निर्णय लिया। उसके समाचार सारे देश में पहुंचे और सरकार आलोचना का शिकार बने इससे पहले ही अपने पाप को छिपाने का भरपूर प्रयास किया। निर्यात पर प्रतिबंध लगते ही भाव घटे जिसमें दलालों और पूंजीपतियों की चांदी हो गई। पिछले वर्ष भी ऐसा ही नाटक खेला गया था, जिसमें गुजरात के ही किसानों को 14 हजार करोड़ का नुकसान हुआ था।
दूरदर्शिता की कमी पिछली बार जब यह घटना घटी थी। उस समय गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने, प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर कहा था कि जब हमने प्रतिबंध लगाया उस समय चीन ने अंतरराष्ट्रीय बाजार में अपने कपास का भारी जत्था बेचने के लिए निकाला। उससे चीन को भारी आय हुई। भारत सरकार में तनिक भी दूरदर्शिता होती तो इसका लाभ भारतीय किसान को मिलता। इस प्रकार का लाभ पहुंचाकर क्या भारत सरकार ने चीन के हौसले बुलंद नहीं किये? सरकार की इस अपरिपक्वता के रहते कोई किस प्रकार विश्वास कर सकता है कि हम चीन से आगे निकलेंगे और एक दिन महाशक्ति के पद पर प्रतिष्ठित हो जाएंगे। भारत में हर समय चीन की बात होती है। दुनिया में महाशक्ति बनने के लिए सबसे बड़ी प्रतिस्पर्धा चीन से है। चीन दुनिया में सबसे अधिक कपास पैदा करता है। विश्व में जितने हेक्टेयर पर कपास पैदा की जाती है उनमें हर चार में एक हेक्टेयर भारत के हिस्से में आता है। भारत में कुल 90 लाख हेक्टेयर जमीन पर कपास की खेती होती है। चीनी किसान का कपास पैदा कर के वारा-न्यारा हो जाता है, लेकिन भारतीय किसान के भाग्य में तो कपास के नाम पर आत्महत्या ही लिखी हुई है। 13 राज्यों के 40 लाख से अधिक किसान कपास की खेती करते हैं। 2009 में भारत के कुल निर्यात में 38 प्रतिशत कपास था, जिससे देश को 80 करोड़ रु. की विदेशी मुद्रा प्राप्त हुई थी। इसकी खेती के लिए मात्र कृषि मंत्रालय ही उत्तरदायी नहीं है, बल्कि वस्त्र और वाणिज्य मंत्रालया भी उत्तरदायी हैं। कॉटन कारपोरेशन आफ इंडिया की स्थापना 1970 में की गई, जो किसानों से कपास की खरीदी करती है। बेचारा किसान खुले बाजार में इसे नहीं बेच सकता है। इसलिए सरकार ही उसकी भाग्य विधाता बनकर उसका मूल्य तय करती है। 
राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार 2011 में कम से कम 14,027 किसानों ने आत्महत्या की है। इस तरह 1995 के बाद से आत्महत्या करने वाले किसानों की कुल संख्या 2,70,940 हो चुकी है। महाराष्ट्र में एक बार फिर आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या में बढ़ोतरी दर्ज की गयी है. महाराष्ट्र में 2010 के मुकाबले 2011 में आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या 3141 से बढ़कर 3337 हो गई. (2009 में यह संख्या 2872 थी)। बीते एक साल से राज्य स्तर पर आंकड़ों के साथ की जा रही भारी छेड़छाड़ के बावजूद यह भयावह आंकड़ा सामने आया है। आंकड़ों को कम कर बताने के लिए ‘किसान’ शब्द को फिर से परिभाषित भी किया गया। साथ ही सरकारों और प्रमुख बीज कंपनियों द्वारा मीडिया और अन्य मंचों पर महंगे अभियान भी चलाये गये थे। जिसमें यह प्रचार किया गया कि उनके प्रयासों से हालात बहुत बेहतर हुए हैं। महाराष्ट्र एक दशक से भी अधिक समय से एक ऐसा राज्य बना हुआ है जहां सबसे ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की है। 
किसान आत्महत्या से सबसे ज्यादा प्रभावित 5 राज्य 1995-2011
किसान आत्महत्या से सबसे ज्यादा प्रभावित 5 राज्य 1995-2011
वर्ष
महाराष्ट्र
आंध्र-प्रदेश
अर्नाटक
मध्य-प्रदेश     एवं छत्तीसगढ़
इन राज्यों में
कुल आत्महत्या
भारत में
प्रतिवर्ष किसानों की आत्महत्या
पांचो राज्यों
में कुल आत्महत्या का प्रतिशत
1995
1083
1196
2490
1239
6008
10720
56.04
1996
1981
1706
2011
1809
7507
13729
54.68
1997
1917
1097
1832
2390
7236
13622
53.12
1998
2409
1813
1883
2278
8383
16015
52.34
1999
2423
1974
2379
2654
9430
16082
58.64
2000
3022
1525
2630
2660
9837
166603
59.25
2001
3536
1509
2505
2824
10374
16415
63.20
2002
3695
1896
2340
2578
10509
17971
58.48
कुल (total)
20066
12716
18070
18432
69284
121157
57.19
2003
3836
1800
2678
2511
10825
17164
63.07
2004
4147
2666
1963
3033
11809
18241
64.74
2005
3926
2490
1883
2660
10959
17131
63.97
2006
4453
2607
1720
2858
11638
17060
68.22
2007
4238
1797
2135
2856
11026
16632
66.29
2008
3802
2105
1737
3152
10795
16196
66.66
2009
2872
2414
2282
3197
10765
17368
61.98
2010
3141
2525
2585
2363
10614
15964
66.49
2011
3337
2206
2100
1326
8969
14027
63.98
कुल
33752
20610
19083
23956
97401
149783
65.03
कुल 19952011
53818
33326
37153
42388
166685
270940
61.52
स्रोत – राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) रिपोर्ट
1995-2011
स्रोत – राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) रिपोर्ट 1995-2011
महाराष्ट्र में 1995 के बाद आत्महत्या करने वाले किसानों की कुल संख्या 54,000 का आंकड़ा छूने को है। इनमें से 33,752 किसानों ने 2003 के बाद आत्महत्या की है यानी इन नौ सालों में हर साल 3,750 किसानों ने आत्महत्या की। साथ ही महाराष्ट्र में 1995-2002 के बीच 20,066 किसानों ने आत्महत्या की थी यानी इन आठ सालों के दौरान हर साल 2,508 किसानों ने आत्महत्या की। उल्लेखनीय तथ्य यह है कि किसानों की आत्महत्या में भी वृद्धि हो रही है और देश भर में उनकी संख्या भी घट रही है। महाराष्ट्र में यह समस्या शहरीकरण के कारण और भी भयावह हो जाती है। गौरतलब है कि महाराष्ट्र देश का वह राज्य है जहां सबसे तेज गति से शहरीकरण हो रहा है। ‘बढ़ती आत्महत्या सिकुड़ती जनसंख्या’ का समीकरण यह बताता है कि कृषक समुदाय पर दबाव बहुत बढ़ गया है। 
किसानों की आत्महत्या की समस्या से सबसे बुरी तरह प्रभावित पांच राज्यों (महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश) के आंकड़े 2011 में हुई कुल किसान आत्महत्याओं के 64 प्रतिशत के आसपास है। 2010 में इन पांच राज्यों की प्रतिशत हिस्सेदारी 66 प्रतिशत के करीब थी। अब तो राज्य सरकारें भी एनसीआरबी को भेजे जाने वाले आंकड़ों में बड़े पैमाने पर हेरा-फेरी करने लगी हैं। ऐसे में जबकि उपरोक्त पांच राज्यों पर सुखाड़ के काले बादल मंडरा रहे हैं, महाराष्ट्र में विदर्भ और मराठवाड़ा क्षेत्रों में हालात तो पहले से ही काफी बुरे हैं। (यह स्थिति अधिकारियों को आंकड़ों में ज्यादा हेरा-फेरी करने के लिए उकसाती है)। यदि पिछले पांच वर्षों के छत्तीसगढ़ के वार्षिक औसत के आधार पर आकलन किया जाए तो राष्ट्रीय स्तर पर 2011 में आत्महत्या करने वाले किसानों की कुल संख्या 15,582 और उपरोक्त पांच राज्यों की कुल प्रतिशत हिस्सेदारी 68 प्रतिशत (10,524) के करीब हो जायेगी, जो अब तक की सबसे ऊंची प्रतिशत भागीदारी होगी। जब 1995 में पहली बार एनसीआरबी ने किसानों की आत्महत्या के आंकड़ों को अलग से सारणीबद्ध किया था, तब आत्महत्या करने वाले 56.04 फीसदी किसान उपरोक्त पांच राज्यों के थे। 2011 में पांच राज्यों में 2010 की तुलना में किसानों की आत्महत्या के आंकड़ों में 50 से अधिक की वृद्धि दर्ज हुई है। इन राज्यों में शामिल हैं, गुजरात (55), हरियाणा (87), मध्य प्रदेश (89), तमिलनाडु (82)। अकेले महाराष्ट्र में 2010 की तुलना में 2011 में 196 की वृद्धि देखी गई है। साथ ही नौ राज्यों में किसानों की आत्महत्या की संख्या में 50 से अधिक की कमी भी दर्ज की गई है। 2011 में 2010 के मुकाबले कर्नाटक में 485, आंध्र प्रदेश में 319 और पश्चिम बंगाल में 186 की गिरावट दर्ज की गई है। लेकिन ये सभी राज्य छत्तीसगढ़ से ‘पीछे’ हैं जहां राज्य सरकार के दावे के अनुसार 2011 में किसी भी किसान ने आत्महत्या नहीं की है. गौरतलब है कि छत्तीसगढ़ में 2010 में 1126 किसानों ने आत्महत्या की थी। 
भारत के पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने विदर्भ क्षेत्र के बदहाल किसानों को राहत देते हुए 37 अरब 50 करोड़ रूपए के पैकेज की घोषणा की थी। इस पैकेज के तहत घोषित राशि में से 21 अरब 77 करोड़ रूपए की राशि कृषि परियोजनाओं पर ख़र्च की और किसानों का 7 अरब 12 करोड़ रूपए का कर्ज़ माफ़ कर दिया गया था। पूर्व प्रधानमंत्री ने यह भी कहा कि प्रभावित परिवारों को तत्काल मदद देने के लिए विदर्भ क्षेत्र के सभी छह ज़िलाधिकारियों को 50-50 लाख रूपए दिए गए थे। इस राहत पैकेज को विदर्भ क्षेत्र के छह ज़िलों अमरावती, वर्धा, अकोला, वाशिम, बुलधाना और यावतमाल में इस्तेमाल किया जाना था। पूर्व प्रधानमंत्री ने पैकेज की घोषणा करते हुए पत्रकारों से कहा था , “विदर्भ के किसानों की समस्या हमारे लिए काफ़ी गंभीर विषय है। इसीलिए इस योजना के लागू होने की निगरानी मेरा कार्यालय ख़ुद करेगा। हम इस बात का ध्यान रखेंगे कि जो वादे किए गए हैं, उन्हें पूरा किया जाए.” उन्होंने कहा था कि इस पैकेज से क्षेत्र के किसानों की आर्थिक स्थिति में तो सुधार होगा ही, साथ ही कर्ज़ का बोझ भी हल्का होगा किन्तु विदर्भ में आत्महत्या के आकड़ें सरकारी योजनाओं और उनके क्रियानव्यन की पोल खोल के रख दे रहे हैं। 
वर्तमान महाराष्‍ट्र की देवेंद्र फड़ण्‍वीस सरकार ने अपना पहला बजट पेश किया। 1 लाख 98 हजार करोड़ का बजट पेश करते हुए वित्‍त मंत्री सुधीर मुगंतिवार का फोकस कृषि, सामाजिक और आर्थिक इंफ्रास्‍ट्रक्‍चर और उद्योगों के विस्‍तार पर रहा। सिंचाई व पीने के पानी की कमी ना हो इसीलिए प्रबंधन प्रणाली का विकेन्द्रीकरण करने हेतु 1000 करोड़ रुपए का कोष सरकार ने बनाया है। सूखाग्रस्त किसानों के लिए 4000 करोड़ रुपए का राहत कोष भी सरकार ने अलग से खर्च करने की सोची है। पूरे राज्य में सिंचाई के विकास और कड़े नियम के तहत प्रबंधन के लिए 7272 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है। विदर्भ में पूर्व मालगुजारी टंकियों के पुनःनिर्माण के लिए 100 करोड़, नाला बांध के काम के लिए 500 करोड़ रुपए का प्रावधान भी है। नए युग की खेती यानि सूक्ष्म सिंचाई के लिए भी 330 करोड़ रुपए का प्रावधान है। मनरेगा योजना के अंतर्गत 1948 करोड़, राष्ट्रिय कृषि योजना में 336 करोड़, राष्ट्रिय खाद्य सुरक्षा योजना और कृषि नवीनीकरण के अंतर्गत 257 करोड़ तथा राज्य रोजगार गैरंटी योजना के लिए 700 करोड़ रुपयों का कोष रखा गया है। ग्रामीण मार्ग योजना की घोषणा की गयी जिसके अंतर्गत ग्रामीण सड़कों के निर्माण व विस्तार के लिए 300 करोड़ रुपए का प्रावधान है और हर साल 1000 करोड़ रुपए तक इसे बढ़ाने का निर्णय भी लिया गया है। प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के तहत 790 करोड़ रुपए और जो इस योजना में ना गिने जाए उन सड़कों के कार्य के लिए 71 करोड़ रुपए का प्रावधान रखा गया है। 5000 किलोमीटर के सड़कों के मरम्मत और रखरखाव के लिए भी 3213 करोड़ रुपए रखे गए हैं। मोदी सरकार की तर्ज पर ‘आमदार आदर्श गाँव योजना’ को लागू किया जाएगा जिसमें सभी विधायकों के लिए एक एक गाँव को गोद लेने की अनिवार्यता होगी। ग्रामीण कारीगरी व हस्तकला को बढ़ावा देने के लिए वर्धा के सेवाग्राम में केंद्र की स्थापना की जाएगी। गरीबी रेखा के नीचे आने वालों के लिए गृह निर्माण, पंडित दीनदायल उपाध्याय घरकुल जागा खरेदी अर्थसहाय योजना के अंतर्गत भूमि खरीदने हेतु 50,000 रुपए तक की सहायता गरीब परिवारों मो मिलेगी और 884 करोड़ रुपए की लागत से इन परिवारों के लिए 1 लाख घरों का निर्माण किया जाएगा। यह बजट और योजनाएं विदर्भ में कितनी सफल होगी यह समय ही बताएगा, लेकिन इस बजट से यह आशा जरुर लगाई जा सकती है कि विदर्भ जो भारत में किसान आत्महत्या के स्थान के नाम से जाना जाता है, किसानों के लिए यह बजट शायद संजीवनी का कार्य करे।
निष्कर्ष – 
विकास की राह पर आगे बढने के लिए गांववासियों और किसानों का निरंतर कम होना व शहरों व शहरवासियों का का निरंतर बढ़ना अनिवार्य है। कुछ देशों का यह अनुभव रहा है तो इसका यह अर्थ नहीं है कि विकास कि राह पर आगे बढ़ने के साथ गांवों और खेती-किसानी की आजीविका को और मजबूत किया जाय, जहां एक ओर किसानों व विशेषकर छोटे किसानों की आजीविका को टिकाऊपन और मजबूती देना चाहिए, वहीं गांव व कस्बे के स्तर पर अधिक कुटीर व लघु उद्योगों को पनपाकर विविध तरह के रोजगारों व स्व रोजगारों का विस्तार होना चाहिए, जिससे ग्रामीण परिवारों को खेती के साथ-साथ, गांव में रहते हुए ही, अनेक अन्य रोजगार भी उपलब्ध हो सके। जलवायु बदलाव से जुड़े प्रतिकूल मौसम के इस दौर में खेती-किसानी को टिकाऊ और मजबूत बनाने के लिए सरकार के बजट में महत्वपूर्ण वृद्धि बहुत जरूरी है। इस बढ़े हुए बजट का लाभ सीधे-सीधे छोटे व मध्यम किसानों को पर्यावरण की रक्षा से मेल रखने वाली खेती की प्रगति के लिए मिलनी चाहिए, खेती किसानी की समृद्धि व रक्षा के लिए केवल खेती किसानी की नीतियों व वजट में सुधार पर्याप्त नहीं है, इसके साथ पूरी अर्थव्यवस्था में ऐसे बदलाव जरूरी हैं जो गांव-पक्षीय व किसान-पक्षीय हों। उदाहरण के लिए औद्योगिक नीति में ऐसे बदलाव करने चाहिए जिससे गांवों, कस्बों व छोटे शहरों में कुटीर व छोटे उद्योग अधिक पनप सके। 
समस्त विवेचन से यह तो निसंदेह कहा जा सकता है, की भारतीय किसान अपना जीवन कष्टमय रूप में निर्वाह कर रहा है। कृषि की दयनीय हालत के बावजूद अपने पहले बजट में सरकार ने कृषि आय की बात तो की, लेकिन कृषि बजट में कटौती कर दी। बजट में किसानों के लिए बजट में कुछ खास नहीं रहा। सरकार द्वारा जिस कृषि लोन की बात की जाती है। उसका फायदा किसानों से ज्यादा कृषि उद्योग से जुड़े लोगों को होता है। सरकार की अब तक की नीतियों और केंद्रीय बजट का साफ संदेश है कि किसानों को वह सांत्वना मात्र देने को तैयार नहीं हैं। किसानों की आत्महत्या इस विषय पर जनता की इच्छाओं, विचारों को समझना और उन्हें व्यक्त करना और जनता में वांछनीय भावनाओं को जागृत करना होगा। किसानों की आत्महत्या दोषों को निर्भयतापूर्वक प्रकट करने का उद्देश्य सामने रखकर समाचारों को प्राथमिकता देने की आवश्यकता है। वर्तमान सरकार और भविष्य की आने वाली सरकारों से भारतीय किसान यही उम्मीद लगायें हुए बैठा है कि कब उसके दिन बदलेंगे। अब तो यह वर्तमान सरकार और भविष्य की आने वाली सरकारों पर निर्भर करता है कि देश की भूख मिटाने वाले अन्नदाता की भूख कब मिटेगी यह भविष्य की गर्त में है। समस्त आंकड़ों के विवेचन और सरकारी योजनाओं के अवलोकन से फ़िलहाल यह आशा की जा सकती है की किसनों की आत्महत्या और उनकी समस्याओं का समाधान जरुर होगा।
संदर्भ ग्रंथसूची –
1. राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) रिपोर्ट 1995-2011
2. कुरुक्षेत्र अंक-हरितक्रांति जून, 2008. 
3. दीनानाथ, मनोहर. (2008). खेती का नया तंत्र और किसानों की आत्महत्या. श्रवण प्रकाशन: बारामती.
4. तिवारी, अर्जुन. (2004). जनसंचार एवं हिंदी पत्रकारिता. जय भारती प्रकाशन: इलाहबाद.
5. दैनिक भास्कर. 2 फरवरी 2015, नागपुर.
6. लोकमत. 4 मार्च 2015, नागपुर.
7. कुमार, मनोज. (मार्च 2011). समागम शोध पत्रिका, भोपाल.
8. लोकमत. 23 अगस्त 2015, नागपुर.

चंद्रहास की कविता – दुनिया कैसे मिटती होगी

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जब प्रकृति के कोमल अंगो पर ,
मानव गतिविधिया बढ जाती हैं …
जब जीवन दायी धरती पर ,
स्वारथ की लकीरें पड़ जाती हैं …
जब निज विकास के चक्कर में ,
पेढों की बाहें कट जाती हैं …
जब नदियां जीवन रेखा से ,
विष-धारा बन जाती है…
तब निश्चय ही इस जग में ,
काली छाया मंड राएगी …
सब शनै: शनै:बिखरेगा,
और अंत की स्थिति आएगी …
वसुधा के अश्रु निकलेंगे,
जो प्रलय की धारा बन जाएगी …
और प्रकृति खेलेगी खेल धरा पर ,
सारी दुनिया “पिच” बन जाएगी …
तब चीख चीख के धरती भी,
मानव से ये चिल्लाएगी –
रे मानव :
तूने बहुत प्रहार किया …
तीखे स्वादों के चक्कर में ,
बेजुबानो का आहार लिया …
जिसने तुझको छाया दी , काया दी ,
और जीवन जिससे चले निरंतर ,
वायु की ऐसी माला दी …
ऐसे औषधि , वट , वृक्षो का,
तूने जीवन छीन लिया …
इन सबने जीवन मे खुशियां दी ,
और तूने इनका अंत किया …
देख धरातल गतिविधि को,
पृथ्वी भी अब हिल जाती है …
औजारों सी दिखने वाली दुनिया में ,
लाशों की दुनिया दिख जाती है …
भैतिक-सुख की चाहत में ,
करुणा की स्थिति मिल जाती है …
नव-परिवर्तन के अवसर पर ,
क्षणिक विविधता दिख जाती है …
शायद ऐसे ही दुनिया मिट जाती है …
और जीवन की सांसे रुक जाती हैं ……

चंद्रहास पांडेय “चित्रकूट”

21वीं सदी की बड़ी और विकराल समस्या: अनीता देवी

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21वीं सदी की बड़ी और विकराल समस्या

अनीता देवी 
जल के बिना जीवन की कल्पना भी नही की जा सकती| जल प्रकृति का दिया एक अनुपम उपहार है जो न सिर्फ जीवन बल्कि पर्यावरण के लिए भी अमूल्य है| जैसे पानी के बिना जीवन संभव नहीं है वैसे साफ पानी के बिना स्वस्थ जीवन संभव नहीं| आज विश्व भर में स्वच्छ पेयजल के संकट की स्थिति बनी हुयी है|भारत जैसे विकासशील देश इस समस्या से सर्वाधिक प्रभावित हैं| “ विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार 21वीं सदी की सबसे बड़ी और विकराल समस्या होगी पेयजल की| इसका विस्तार सम्पूर्ण विश्व में होगा तथा विश्व के सभी बड़े शहरों में पानी के लिए युद्ध जैसी स्थिति हो जाएगी|”¹ जल का अंधाधुंध व विवेकहीन प्रयोग वर्तमान जल संकट का सबसे प्रमुख कारण है , जो आज विश्व के सम्मुख एक गंभीर समस्या के रूप में खड़ा है| एक मूलभूत आवश्यकता होने के कारण मानवीय प्रजाति सहित जीव ,वनस्पति व सम्पूर्ण पारिस्थितिक तंत्र के लिए जल जरूरी है| जल संकट ने मानव जाति के समक्ष असितत्व का संकट पैदा कर दिया है| उसके लिए जल की उपलब्धता सुनिश्चित करना एक बड़ी चुनौती बन गयी है|संयुक्त राष्ट्र के आकलन के अनुसार पृथ्वी पर जल की कुल मात्रा लगभग 1700 मिलियन घन कि.मी. है जिससे पृथ्वी पर जल की 3000 मीटर मोटी परत बिछ सकती है ,लेकिन इस बड़ी मात्रा में मीठे जल का अनुपात अत्यंत अल्प है| पृथ्वी पर उपलब्ध कुल जल में मीठा जल 2.7% है|इसमें से लगभग 75.2% ध्रुवीय प्रदेशों में हिम के रूप में विद्यमान है और 22.6% जल ,भूमिगत जल के रूप में है ,शेष जल झीलों ,नदियों ,वायुमंडल में आर्द्रता व जलवाष्प के रूप में तथा मृदा और वनस्पति में उपस्थित है|घरेलू तथा औधोगिक उपयोग के लिए प्रभावी जल की उपलब्धता मुश्किल से 0.8% है|अधिकांश जल इस्तेमाल के लिए उपलब्ध न होने और इसकी उपलब्धता में विषमता होने के कारण जल संकट एक विकराल समस्या के रूप में हमारे सम्मुख आ खड़ा हुआ है|
“यद्दपि जल एक चक्रीय संसाधन है तथापि यह एक निशचित सीमा तक ही उपलब्ध होता है| मानव को उपलब्ध होने वाले जल की मात्रा उतनी है जितनी कि पहले थी| परन्तु जनसंख्या में निरंतर वृद्धि तथा कुछ जलाशयों के ह्रास से प्रति व्यक्ति जल में भारी कमी आ रही है|1947 में स्वतंत्रता के समय भारत में 6008 घन मीटर जल प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष उपलब्ध था ,1951 में यह मात्रा घट कर 5177 घन मीटर प्रति व्यक्ति रह गई तथा 2001 में 1820 घन मीटर प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष रह गई| दसवीं योजना के मध्यवर्ती आकलन के अनुसार यह मात्रा 2025 में 1340 घन मीटर तथा 2050 में 1140 घन मीटर रह जाएगी|”²
देश का पानी सूख रहा है|धरती पर भी और धरती के नीचे भी| जलसंकट के कारण मराठवाड़ा और महाराष्ट्र के अन्य हिस्सों तथा आंध्र प्रदेश एवं तेलांगना के ग्रामीण क्षेत्रों से बड़ी संख्या में लोग नगरों की तरफ पलायन कर रहें है|
“ मराठवाड़ा के परभणी कस्बे में पानी के लिए झगड़ा न हो इसलिए अप्रैल के पहले हफ्ते में धारा 144 लगा दी गई| लातूर में ट्रेन से पानी पहुंचाया जा रहा है|”³
जल संसाधन पानी के वह स्रोत हैं जो मानव के लिए उपयोगी हों या जिनके उपयोग की संभावना हो। पानी के उपयोगों में शामिल हैं कृषि, औद्योगिक, घरेलू, मनोरंजन हेतु और पर्यावरणीय गतिविधियों में । वस्तुतः इन सभी मानवीय उपयोगों में से ज्यादातर में ताजे जल की आवश्यकता होती है । आज जल संसाधन की कमी, इसके अवनयन और इससे संबंधित तनाव और संघर्ष विश्वराजनीति और राष्ट्रीय राजनीति में महत्वपूर्ण मुद्दे हैं। जल विवाद राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय दोनों स्तरों पर महत्वपूर्ण विषय बन चुके हैं। यदि हम भारत के संदर्भ में बात करें तो भी हालात चिंताजनक है कि हमारे देश में जल संकट की भयावह स्थिति है और इसके बावजूद हम लोगों में जल के प्रति चेतना जागृत नहीं हुई है। अगर समय रहते देश में जल के प्रति अपनत्व व चेतना की भावना पैदा नहीं हुई तो आने वाली पीढ़ियां जल के अभाव में नष्ट हो जाएगी। हम छोटी छोटी बातों पर गौर करें और विचार करें तो हम जल संकट की इस स्थिति से निपट सकते हैं। विकसित देशों में जल रिसाव मतलब पानी की छिजत सात से पंद्रह प्रतिशत तक होती है जबकि भारत में जल रिसाव 20 से 25 प्रतिशत तक होता है। इसका सीधा मतलब यह है कि अगर मोनिटरिंग उचित तरीके से हो और जनता की शिकायतों पर तुरंत कार्यवाही हो साथ ही उपलब्ध संसाधनों का समुचित प्रकार से प्रबंधन व उपयोग किया जाए तो हम बड़ी मात्रा में होने वाले जल रिसाव को रोक सकते हैं।
विकसित देशों में जल राजस्व का रिसाव दो से आठ प्रतिशत तक है, जबकि भारत में जल राजस्व का रिसाव दस से बीस प्रतिशत तक है यानी कि इस देश में पानी का बिल भरने की मनोवृत्ति आमजन में नहीं है और साथ ही सरकारी स्तर पर भी प्रतिबंधात्मक या कठोर कानून के अभाव के कारण या यूं कहें कि प्रशासनिक शिथिलता के कारण बहुत बड़ी राशि का रिसाव पानी के मामले में हो रहा है। अगर देश का नागरिक अपने राष्ट्र के प्रति भक्ति व कर्तव्य की भावना रखते हुए समय पर बिल का भुगतान कर दे तो इस स्थिति से निपटा जा सकता है साथ ही संस्थागत स्तर पर प्रखर व प्रबल प्रयास हो तो भी इस स्थिति पर नियंत्रण प्राप्त किया जा सकता है। 
प्रत्येक घर में चाहे गांव हो या शहर पानी के लिए टोंटी जरूर होती है और प्रायः यह देखा गया है कि इस टोंटी या नल या टेप के प्रति लोगों में अनदेखा भाव होता है। यह टोंटी अधिकांशत: टपकती रहती है और किसी भी व्यक्ति का ध्यान इस ओर नहीं जाता है। प्रति सेकंड नल से टपकती जल बूंद से एक दिन में 17 लीटर जल का अपव्यय होता है और इस तरह एक क्षेत्र विशेष में 200 से 500 लीटर प्रतिदिन जल का रिसाव होता है और यह आंकड़ा देश के संदर्भ में देखा जाए तो हजारों लीटर जल सिर्फ टपकते नल से बर्बाद हो जाता है। अब अगर इस टपकते नल के प्रति संवेदना उत्पन्न हो जाए और जल के प्रति अपनत्व का भाव आ जाए तो हम हजारों लीटर जल की बर्बादी को रोक सकते हैं।
  • अब और कुछ सूक्ष्म दैनिक उपयोग की बातें है जिन पर ध्यान देकर जल की बर्बादी को रोका जा सकता है।
  • फव्वारे से या नल से सीधा स्नान करने के स्थान पर बाल्टी से स्नान करने से पानी की कर सकते हैं।
  • शौचालय में फ्लश टेंक का उपयोग करने की जगह यही काम छोटी बाल्टी से किया जाए तो पानी की बचत कर सकते हैं।
अब राष्ट्र के प्रति और मानव सभ्यता के प्रति जिम्मेदारी के साथ सोचना आम आदमी को है कि वो कैसे जल बचत में अपनी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी निभा सकता है। याद रखें पानी पैदा नहीं किया जा सकता है यह प्राकृतिक संसाधन है जिसकी उत्पत्ति मानव के हाथ में नहीं है। पानी की बूंद-बूंद बचाना समय की मांग है और हमारी वर्तमान सभ्यता की जरूरत भी। 
इस समस्या से उबरने के लिए मात्र सरकारी प्रयास ही पर्याप्त नहीं है क्योंकि जल का उपयोग सभी लोगों द्वारा किया जाता है और सभी का जीवन जल पर आश्रित है| देश के नागरिकों अपनी क्षमता के अनुसार जल संरक्षण के प्रयासों में अपना योगदान देना चाहिए तभी देश में नये लातूर को बनने से रोका जा सकता है| “वर्ल्ड वाच इंस्टीट्यूट के अनुसार पानी को पानी की तरह बहाना बंद करना होगा| यदि समाज पानी को एक दुर्लभ वस्तु नहीं मानेगा , तो आने वाले समय में पानी हम सबके के लिए दुर्लभ हो जायेगा|”4 
ग्लोबल वार्मिंग में वृद्धि भी वर्तमान जल संकट का एक महत्वपूर्ण कारण है| वैश्विक तापमान में होने वाली वृद्धि से विश्व के मौसम , जलवायु , कृषि व जल स्रोतों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है| ग्लोबल वार्मिंग के कारण तापमान में होने वाली वृद्धि से ग्लेशियर तीव्रता से पिघल रहें है| इससे भविष्य में जल संकट का खतरा उत्पन्न हो सकता है|
जल संकट से निपटने के लिए : 
  • तालाबों और गड्डों का निर्माण करना चाहिए जिससे वर्षा का जल एकत्रित हो सके और प्रयोग में लाया जा सके| इससे जलस्तर में वृद्धि होगी और भूमिगत जल बना रहेगा|
  • पेड़ों को काटने से रोकना और वृक्षारोपण को बढावा देना जिससे वैश्विक तापन की समस्या कम हो| वैश्विक तापन से हिम पिघलते हैं और हिम का जल नदियों के माध्यम से समुद्र में चला जाता है|
  • नदी किनारे बसने वाले नगरों द्वारा नदियों को प्रदूषित किया जाता है जिससे नदियों का जल पीने लायक नही रहता और नदियाँ सूखने की कगार पर आ खड़ी है उदाहरण के लिए दिल्ली में यमुना नदी| 
  • ·उत्तर भारत की नदियों में सदा जल बहता रहता है और दक्षिण भारत की नदियाँ सदा वाहनी नहीं रहती ऐसे में नदी जोड़ो परियोजना का सहारा लिया जा सकता है| 
  • अंत में कह सकते है कि सृष्टि के हर जीव का असितत्व पानी पर ही टिका है| जल संकट जैसी विकराल समस्या का सामना करने के लिए वयक्तिगत , सामुदायिक , सामाजिक ,राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सार्थक पहल की जरूरत है|
सन्दर्भ :
1. कुरुक्षेत्र पत्रिका , मई 2015
2. खंड – ‘घ’ 14.35 , भूगोल , डी. आर. खुल्लर 
3. पृष्ठ 26 , क्रानिकल , जून 2016
4. पृष्ठ 2 , क्रानिकल , जून 2016
5. दृष्टि The Vision ,करेंट अफेयर्स टुडे , नवम्बर 2015
शोधार्थी 
कमरा न.115/2
यमुना छात्रावास 
जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय
नई दिल्ली (110067)
मोबाइल न. 9013927321

कर्नल गैब्रियल गार्सिया मार्खेज और उपन्यास ‘एकांत के सौ वर्ष’: धर्मवीर यादव ‘गगन

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कर्नल गैब्रियल गार्सिया मार्खेज और उपन्यास ‘एकांत के सौ वर्ष’ 

धर्मवीर यादव ‘गगन’ 
शोधार्थी—हिंदी विभाग,दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली 
मो. 09013710377, stargagan12@gmail.com 
आपकी याद में बात कहाँ से शुरू करूँ कर्नल गैब्रिया गार्सिया मार्खेज. आपके पास बातें बहुत हैं, पर उन बातों में बहुत कम बातों को मैं जनता हूँ. उसमें जो खास बात है वो आपके जीवन और समाज का ‘एकांत’. जिसे आपने जिया, पिया और साहित्य में अभिव्यक्त किया है. यह आपके जीवन की ‘नोबल’ बात है. इस एकांत की अंतिम मानवीय परिणति ‘प्रेम’ में हैं. यह प्रेम पूरी मानवता से है. जिसे प्राप्त करने के बाद मानव जाति हर तरह के बंधनों और उपनिवेशों से मुक्त होती है. आपके प्रेम करने का अंदाज—जादुई है, यथार्थवादी है. जिसे आपने साहित्य में ‘जदुई यथार्थवादी’ शैली में अभिव्यक्त किया है. यह एक ऐसी शैली है जिसमें जादू को यथार्थ की तरह और यथार्थ को जादू की तरह अभियव्यक्त किया जाता है. 
मानव सभ्यता के इतिहास में जिस इतिहास को विस्मृत कर दिया गया, उसी की अभिव्यक्ति है ‘एकांत का सौ वर्ष’ उपन्यास. जो बहुत गहराई से इस बात पर चिंता व्यक्त करता है कि मानव प्रगति के इतिहास में हमारे पूर्वजों द्वारा किए गए योगदान को विस्मृत कर दिया गया. यह आज भी किस तरह लोगों के दिल-दिमाग में स्वाभाविक रूप से एक परंपरा के साथ कभी ‘स्मृत’ तो कभी ‘विस्मृत’ हो रहा है. वास्तव में, इनका इतिहास में किया गया योगदान अविस्मरणीय है. जिसे लिखित इतिहास में जगह न दिए जाने के कारण लोगों को यह विश्वस ही नहीं होता है कि यहाँ के लोगों का इस यथार्थ के साथ मानव प्रगति के इतिहास में योगदान है. वर्चस्ववादी औपनिवेशिक सत्ता ने वहाँ के मानव प्रगति और संस्कृति का दमन करते हुए अपनी भाषा और संस्कृति को थोपा और स्थापित किया. और वहाँ की स्वाभाविक और स्वस्थ प्रगति को झूठा सिद्ध करने की कोशिश की. इस प्रक्रिया में जो यथार्थ था वो जादू हो गया और जो जादू था वो यथार्थ हो गया. मार्खेज इतिहास में भूला दिए गए इतिहास के इसी ‘एकांत’ को पकड़ते हैं. और उस ‘जादू’ को यथार्थ की तरह और ‘यथार्थ’ को जादू की तरह अभिव्यक्त करने के लिए ‘जादुई यथार्थवादी’ शैली का प्रयोग करते हैं. साथ ही इस शैली में साहित्यिक अभिव्यक्ति का एक प्रमुख कारण यह भी था कि औपनिवेशिक साम्राज्यवादीयों के समक्ष आप सीधे-सीधे अपनी बात कह भी नहीं सकते हैं. इसी कारण यह जादुई यथार्थवादी शैली को अपनाते हैं और यथार्थ को उसी शैली में अभिव्यक्त करते हैं. 
हमारी स्मृत का विस्मृत होना और विस्मृत का स्मृत होना. इस बात को दर्शाता है कि हमारी ‘स्मृती’ अर्थात् ‘याददास्त’ भी बनावटी है. वह कभी भी विस्मृत हो सकती है. उसे कभी भी भूला जा सकता है. इस उपन्यास में वस्तुओं के नाम और काम के प्रयोजन को लिख कर याद रखा जाता है; जैसे—“यह गाय है. जो सुबह सुबह दूध देती है. इसके दूध से काफी बनती है.” अर्थात् लोगों की दूध की कोडीकृत स्मृत, विस्मृत हो सकती है कि दूध किस उपयोग की वस्तु है. 
इस उपन्यास में ‘बुएनदीय’ परिवार का इतिहास जैसे एक दृष्टान्त है. वैसे ही वह पूरे अमेरिका के सामाजिक-सांस्कृतिक इतिहास को दृष्टान्त बना कर प्रस्तुत करता है. जो मानव प्रगति के इतिहास का संछिप्त प्रतिरूप है. आगे यह उपन्यास विकसित समाज को लक्ष्य करते हुए, लैटिन अमेरिका के औपनिवेसिक समाज के चरणों का खाका इतिहास की रेखीय गति-क्रम में हमारे सामने रखता है. ‘माकोन्दो’ पर किस तरह क्रमवार फ़्रांसीसी, अंग्रेज और स्पेनिस उपनिवेशों की स्थापना होती है. यह महत्वपूर्ण है कि इस ‘माकोन्दो’ की स्थापना मूलरूप से सबसे पहले कभी कर्नल बुएनदीय ने अपने 21 सहयोगियों के साथ की थी. जिसमें पहली पीढ़ी पितृसत्तात्मक है और ये जादू, टोना की फैंटेसी से युक्त है. जब यह समाज बाहरी दुनिया के संपर्क में आता है तब आदिवासी जीवन अनुसाशन प्रणाली का स्थान औपनिवेशिक शासन प्रणाली ले लेती है. इसी के साथ आदिवासी जीवन अनुशासन प्रणाली के बने रहने और औपनिवेशिक शासन प्रणाली के स्थापित होने को लेकर लड़ाई शुरू हो जाती है जो ‘गृह युद्ध’ के रूप में सामने आती है. यह बीस वर्षों तक चलती है. एक बड़े ‘गृह युद्ध’ के बाद वहाँ वर्चश्ववादी औपनिवेशिक शासन प्रणाली की ‘नगर पालिका’ स्थापित होती है. इस औपनिवेशिक वर्चस्व के स्थापित होने के साथ ही; बाहरी दुनिया की तकनीकों का प्रवेश होता है. जिसमें आधुनिक—ट्रेन, यंत्र, बिजली, सिनेमा, ग्रामोफोन और टेलीफोन आदि सब वर्चश्व और विकास के नए चिह्न के रूप में हमारे सामने आते हैं. 
यहाँ ऐतिहासिक परिवर्तन उस समय होता है. जब उत्तरी अमेरिका की ‘केला’ कंपनी वहाँ पहुँचती है और इसी के साथ ‘माकोन्दो’ औपनिवेशिक विदेशी ताकतों के वर्चस्व के प्रतिक के रूप में एक ख़ास तरीके का औपनिवेशिक केंद्र बनता है. इसी बीच वहाँ एक और नया व्यापारिक गुट पहुँचता है. जिससे सामाजिक टकराव होता है और साथ में प्राकृतिक आपदा भी आ जाती है. ये सभी टकराव की स्थितियाँ ‘माकोन्दो’ को अपने इतिहास के अंतिम चरण में पहुँचा देती हैं. 
मानव प्रगति के इतिहास में प्रागैतिहासिक अण्डों को आश्चर्यभरी नज़रों से देखते हुए यह उपन्यास इस दुनिया में प्रवेश करता है. मानव प्रागैतिहासिक काल से आधुनिक काल तक की प्रगति के इतिहास पर चिंतन करता है कि क्या हम जिस काल-सभ्यता की बात और विकास करते हुए प्रगति कर रहे हैं. क्या वह प्रगति हमें सृजन की तरफ ले जा रही है या विध्वंस की तरफ ले जा रही है ? जिस उन्मुक्तता के साथ ये बंजारे जिंदगी को जीते हुए बढ़ते जा रहे हैं. और ये बंजारे स्वयं को इस सभ्यता के ‘रिसर्चेबुल रेस’ के रूप में प्रस्तुत करते जा रहे हैं. उसके समानांतर आधुनिक प्रगती की सभ्यता को देखें तो आज अदभुत मानव प्रगित की दुनिया को मानव एक सेकेण्ड में ख़त्म कर देने, ध्वंस करने का दावा कर रहा है. दुनिया को ख़त्म करने वाले ‘परमाणु बम’, ‘हाईड्रोजन बम’ आदि बन चुके हैं. वहीं आदिवासी समाज घोषणा करता है कि “बहुत जल्द दुनिया बदलने वाली है.” वो अपनी प्रगति प्रक्रिया में आत्मविश्वास विकसित करते हुए कहते हैं—“चीजों में अपनी खुद की जान होती है.” वो आगे कहते हैं—“बस उनकी आत्मा जग जाने भर की देर है.” यह उस देश-काल का भौतिक यथार्थ है. तो क्या उस स्वप्न को हम यहाँ तक लेकर आगे चले जाते हैं कि—“जल्द ही दुनिया ख़त्म होने वाली है ?” क्या हम आधुनिक प्रगती का चोला पहने कहीं उस गहरे खतरनाक अतीत की ओर तो नहीं बढ़ रहे हैं ? जो असभ्यता, बर्बरता, हिंसा, जंगलीपन और पशुता लिए हुए है. किसी ने कहा है कि ‘सभ्यता का इतिहास बर्बरता का इतिहास है.’ इसी सन्दर्भ में ‘एकांत का सौ वर्ष’ उपन्यास मानव प्रगित के इतिहास पर चोट करता है. 
प्रागैतिहासिक समाज के प्रतीक के तौर पर पूरा ‘माकोन्दो’ जैसे-तैसे ऐतिहासिक प्रगति के दौर में प्रवेश करता है. जैसे ही वह इस दौर में प्रवेश करता है. वैसे ही उसे कृत्रिमता का ‘बोध’ कराने वाली स्थितियाँ बनती दिखती हैं; जैसे—कृत्रिमता का ‘बोध’ कराने वाली ‘चिड़ियों’ की जगह ‘घड़ियों’ ने ले ली. दक्षिण अमेरिका में महत्त्वपूर्ण माने जाने वाले ‘बबूल’ के पेड़ की जगह ‘बादाम’ के पेड़ ने ले लिया. इसी तरह माकोन्दो में जिलाधीस का प्रवेश इस बात का प्रतीक है कि अब एक प्रागैतिहासिक समाज आधुनिक समाज में परिवर्तित होने जा रहा है. जिसमें व्यवस्थित संस्थान और विस्तृत सत्तातंत्र होगा. तब सवाल उठता है कि यह सृजन है या विध्वंस ? जिसमें संस्था और सत्ता का वर्चस्व किसी का विध्वंस करने के लिए खड़ा किया जा रहा है; जैसे—उहोंने कहा, “कौन है यह आदमी” ? “न्यायाधीस” उर्सुला ने खिन्न मन से कहा “बताते हैं कि यह सरकार का भेजा हुआ नुमायिन्दा है.” 
यहाँ के सामाजिक भूगोल में ‘रिश्ते’ ‘रक्त-संबंधों’ में ही बनते हैं. जिसे ‘Incest’ अर्थात् कौटुम्बिक व्यभिचार कह सकते हैं. सामान्यतः समाजिक मान्यताओं में ‘रिश्ते’ ‘परिवार’ के बाहर बनते हैं. ‘Incest’ मतलब परिवार के अन्दर ‘यौनिक सम्बन्ध’ स्थापित करना. इस तरह के ‘यौनिक सम्बन्ध’ को दुनिया की लगभग सभी सभ्यताओं में वर्जित माना जाता रहा है. लेकिन इस उपन्यास का जो समाज है उसमें अदभुत कौटुम्बिक व्यभिचार विद्यमान है. जिसको लेकर उर्सुला भयभीत है. वह डरती है कि कहीं इस कौटुम्बिक व्यभिचार के कारण हमारे बच्चे सुअर के मुख वाले जानवर की तरह न पैदा होने लगें. लेकिन वह आगे चल कर इन बंधनों से बनने वाली नई धारणा से खुद और सबको मुक्त करती है. “बहुत प्यार करता है बुआ से ?” उसने औरेलियानो खासे से सरलता से पूछा. उसने जवाब दिया कि “हाँ”……. “अच्छी बात है. उर्सुला ने तय किया.” 
महत्त्वपुर्ण बात ये है कि इन मुक्त पारिवारिक, सामाजिक ‘यौन संबंधों’ के होने बाद भी ‘एकाकीपन’ उस परिवेश और समाज में व्याप्त है. यह ‘एकाकीपन’ वहाँ उतर कर उस परिवार और सामज को जैसे खाता है. यह ‘पन’ इस उपन्यास की कहानी को बुनता भी है. जो इतिहास के हस्तक्षेप या इतिहास के व्यवधान से युक्त होकर लिखा जाता है. यहाँ ऐसा समाज है. जो बाकि दुनिया और सभ्यता से बहुत अलग है. यह समाज अपने परिवर की दुनिया में गहरे तक समाया हुआ है फिर भी भयंकर उदासी में है. कारण कि वहाँ उदासी बहुत गहरे तक विद्यमान है; जैसे—“औरेलियानो ने कपड़े उतारे, संकोच से उद्वेलित, इस विचार को मष्तिस्क से निकाल देने में असमर्थ की उसकी नग्नता का उसके भाई से कोई साम्य नहीं था. लड़की के कई प्रयत्न के बावजूद, वह निरंतर और भी उदासीन और बहुत ही अकेला महसूस करता चला गया.” इस ‘एकाकीपन’ पर मार्खेज स्वयं लिखते हैं—“बुएनदिया परिवार में एकांत का श्रोत क्या है ? मेरे खयाल से प्रेम का अभाव ही एकाकीपन की जननी है…..यही उनके एकाकीपन और कुंठा का मूल कारण है.” 
इसी कारण इस उन्यास की अंतिम परिणति ‘प्रेम’ में होती है. जो इस समाज में नहीं था. इस परिणति के साथ ‘एकांत का सौ वर्ष’ ख़त्म होता है. बुएनदिया परिवार की अंतिम पीढ़ी जमकर ‘प्रेम’ करती है. उसी में डूबती-उपराती है. सब कुछ ख़त्म हो जाने के बाद भी, ये पीढियाँ सब कुछ भूल कर जमकर ‘प्रेम’ करती हैं. जो पहले यहाँ कभी नहीं हो सका था. इसके साथ ही यह परिवार हर तरह के ‘बंधनों’, ‘एकान्त’ और उपनिवेशों से मुक्त होता है. अब औरेलियनो और उर्सुला “दोनों एक ऐसे रिक्त संसार में बहते हुए से रहने लगे जिसका एक मात्र दैनिक व शाश्वत यथार्थ उनका प्रेम था.” किसने सोचा था कि “हम वाकई आदमखोरों की तरह जीने लगेंगे.” आदमखोरों की-सी जिंदगी अर्थात् हर तरह के बंधनों से मुक्त जिंदगी. बिल्कुल मुक्त, प्रेम से युक्त. “जैसे-जैसे पक्षी जनते अमरान्ता उर्सुल उन्हें जोड़ियों में उड़ा देती.” अर्थात् प्रेम मुक्त करता है. 
संदर्भ: 
1. कर्नल गैब्रियल गार्सिया मार्खेज, ‘एकांत के सौ वर्ष’, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, वर्ष 2007 
2. गाब्रियल गार्सिया मार्खेस : यथार्थ का मायावी चितेरा (आलेख), अक्षय काले, आव्हान पत्रिका, जून अंक 2014 
3. विकिपीडिया 
4. अपवाद ब्लॉग

       

 [जनकृति अंतरराष्ट्रीय पत्रिका में प्रकाशित लेख]

राजेंद्र यादव : साहित्य-सरोवर का ‘हंस’: ओमप्रकाश कश्यप

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Rajendra.yadav


राजेंद्र यादव : साहित्य-सरोवर का ‘हंस’

ओमप्रकाश कश्यप

‘‘विडंबना यह है कि नितांत अधार्मिक साधन ही धर्म की रक्षा करते हैं, मानवता को बचाए रखने के लिए निरंकुश अमानवीयता का इस्तेमाल करना पड़ता है, नैतिकता की शुचिता बनाएरखने के लिए न जाने कितनी अनैतिकताओं का सहारा लेना पड़ता है. गांधी जी की ‘गरीबी’ कितनी महंगी पड़ती थी—इसे खुद सुशीला नैयर ने बताया है….सही है कि साध्य ही साधनों को ‘जस्टीफाई करता है, मगर साध्य स्वयं इतना ‘महान’ है कि उसके लिए हर तरह का साधन सही है, तो सवाल उठेगा कि साध्य की महानता तय करने वाले कौन हैं? रावण गलत है, राम सही या कौरव अधार्मिक हैं, पांडव धार्मिक—यह तय करने वाले राम और पांडव ही हैं न, बल्कि उनसे भी ज्यादा उनकी विजय उन्हें सही बनाती है. एक ही धर्म के दो संप्रदाय एक-दूसरे के खून के प्यासे हो जाते हैं, क्योंकि दोनों अपने-अपने कॉज के प्रति सच्चे होते हैं….अगर हम साध्य और साधन के सवाल को सिर्फ नैतिक या बौद्धिक स्तर पर ही रखेंगे, तो शायद कहीं नहीं पहुंच पाएंगे. या तो साध्य(कॉज) ही हवाई लगने लगेगा या सारे साधन अनैतिक.’’ —राजेंद्र यादव, खंड-खंड पाखंड, पृष्ठ 21. 
खुद को ‘हंस’ का पुराना पाठक मानता हूं. इधर कुछ महीनों से संबंध टूटा हुआ था. इसलिए नहीं कि राजेंद्र यादव(अगस्त 28 1929, आगरा—अक्टूबर 28 2013, मयूरविहार, दिल्ली) के लेखन या उनके द्वारा उठाए जाने वाले मुद्दों में अविश्वास था. बस इसलिए कि लेखन-पाठन की प्राथमिकताओं में बदलाव था. ‘हंस’ ही क्यों दूसरी साहित्यिक पत्रिकाओं के संपर्क में भी कम ही रहा. इसका कभी, कोई मलाल भी नहीं हुआ. क्योंकि सामाजिक बदलाव के जिन मुद्दों पर ‘हंस’ बात करता था, या जिन विषयों को राजेंद्र यादव अपने संपादकीय में उत्तेजक बहस के रूप में उठाते थे, उनमें भी वे जिनमें मेरी विशेष रुचि थी—उन्हें विस्तार देती दूसरी और महत्त्वपूर्ण सामग्री आसानी से अन्यत्र उपलब्ध थी. पत्रिका के रूप में ‘हंस’ की जो सीमा थी, उसमें राजेंद्र जी की तमाम सदाशयता और प्रतिबद्धता के बावजूद वैचारिक सामग्री कम ही आ पाती थी. कहानी की पत्रिका के रूप में प्रतिष्ठित ‘हंस’ को, उसके बड़े पाठक-लेखक वर्ग से काटकर विशुद्ध वैचारिक पत्रिका में बदल देना संभव भी नहीं था. वैसे भी राजेंद्र यादव का प्रथम अनुराग कहानी से था. साहित्य में उनकी प्रतिष्ठा नई कहानी आंदोलन के प्रवर्त्तक के रूप में भी थी. लेकिन कहानी, विशेषकर नई कहानी के नाम पर पिछले कुछ दशकों में जो लिखा जा रहा था, वह अपन के गले नहीं उतरता था.
स्वयं राजेंद्र यादव यह मानते थे कि हिंदी कहानी, कहानी की मूल विशेषता कहानीपन को बिसराकर अधिक से अधिक वर्णनात्मक होती जा रही है. इस व्यतिक्रम से कहानी ने न केवल अपने बंधे-बंधाए पाठक खोए हैं, बल्कि उसकी कसावट एवं प्रभाव में भी कमी आई है. प्रतिष्ठित कहानी-पत्रिका के संपादक की यह निराशा विचारणीय थी. इसके बावजूद ‘हंस’ अपनी सर्वाधिक चहेती पत्रिका बनी थी, तो केवल अपने लेखों तथा उनसे भी अधिक राजेंद्र जी के संपादकीय के नाते. उसमें वे ज्वलंत मुद्दों को पूरी बेबाकी और लेखकीय निष्ठा के साथ उठाते थे. ‘हंस’ के लेखों में मैं हमेशा एक अलंघ्य ऊंचाई पाता रहा. शायद इसीलिए उसमें न तो कभी छपा, न ही एकाध अवसर को छोड़कर कोई रचना प्रकाशन के लिए भेजी. उसपर ठसक यह कि ‘हंस’ या किसी अन्य पत्रिका में न छपने का कभी मलाल भी नहीं हुआ. कहानी विधा में अरुचि के बावजूद ‘हंस’ को नियमित खरीदता और पढ़ता जरूर रहा.
विचारों की डोर कहीं न कहीं ‘हंस’ की वैचारिकी से जुड़ती थी, इसलिए कभी निराश नहीं होना पड़ता था. कुछ और चाहे न हो, ‘हंस’ का संपादकीय मन को अनूठी तृप्ति दे जाता था. कुछ वर्ष पहले ‘हंस’ में आत्मस्वीकृतियों का दौर चला था. ईसाई धर्म में आत्मस्वीकृति को धार्मिक मान्यता प्राप्त है. गिरजाघर में पादरी के सामने जाकर व्यक्ति अपने अपकर्मों को स्वीकार कर बोझ मुक्त हो सकता है. आदमी देवता नहीं है. देवता नामक मिथ उसने मनुष्यता के आदर्श के रूप में गढ़े हैं. अपनी सीमाओं के चलते मनुष्य गलती भी करता है. उन गलतियों से कई बार सबक लेता है, कई बार नहीं भी लेता. फिर भी जाने-अनजाने हुई गलती या अपराध की आत्मस्वीकृति मानव-मन से अनावश्यक विकारों को दूर कर उसे तनावमुक्त करती है. ‘आत्मस्वीकृति’ अथवा ‘अपराध-स्वीकृति’ के मूल में यही अवधारणा है. इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि पश्चिम में धर्मों का विकास अध्यात्मपरक होने से ज्यादा तत्वपरक ढंग से हुआ है. भारतीय दर्शनों में जो स्थान ब्रह्म का है, यूनानी दर्शन में वही ‘शुभ’ का है. उसके अनुसार ‘शुभ’ नैतिक उत्थान की सर्वोच्च अवस्था है. अपने जीवन को ‘शुभता’ की ओर निरंतर अग्रसर करना, मानव-मात्र का लक्ष्य है. इसके लिए आवश्यक है कि मनुष्य को अपनी कमजोरियों की जानकारी हो. उन गलतियों का बोध हो जो उसने जाने-अनजाने की हैं. उनके लिए क्षमा-याचना और पुन: न दोहराने का संकल्प ही आत्मस्वीकृतियों को सार्थक बनाता है. आत्मस्वीकृतियों के पीछे निहित यह दर्शन मनुष्य को अपनी दुर्बलताओं को स्वीकारने का साहस जगाकर उनमें बेहतर इंसान बनने की प्रेरणा जगाता है. हिंदू धर्म में यह काम ईश्वर भरोसे छोड़ दिया जाता है. 
भारतीय प्रज्ञा ने दर्शन की अनेक ऊंचाइयों को छुआ, अपनी उपलब्धियों से विश्व-भर को चमत्कृत भी किया है. इसके बावजूद यदि समग्र रूप से देखें तो उसमें आस्था का अनुपात कुछ ज्यादा ही रहा है. अपनी उपलब्धि पर गुमान करने, आत्मश्लाघा की प्रवृत्ति वैदिक मनीषियों में आरंभ से ही थी. ऋग्वेद की ऋचाओं के अस्तित्व में आने में जो समय लगा सो लगा. बाद के मनीषियों की सारी की सारी मेहनत उन्हें सहेजने तथा उनका कर्मकांडीकरण करने में नजर आती है. मौलिकता और ज्ञान के विस्तार पर बहुत कम ध्यान गया है. वैदिक ऋचाओं का गायन कैसे हो, यह सामवेद में समझाया गया. यजुर्वेद में उसके कर्मकांड पक्ष को विस्तार दिया गया. यज्ञों के प्रकार तथा उनके आयोजन पर विस्तार से लिखा गया. अथर्ववेद सहित बाकी उपनिषदों में भी उसी को आगे बढ़ाया गया है. कई स्थानों पर तो मौलिकता की चिंता किए बगैर ऋग्वेद के मंत्रों को ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर दिया गया है.
आस्था को रूढ़ि अथवा जीवन की अनिवार्यता के रूप में थोपने का दुष्परिणाम यह हुआ कि मनुष्य को चलने के लिए बंधी-बंधाई लीक मिली. जिसमें आदमी के अपने विवेक, निर्णय-सामर्थ्य, रुचि, स्वभाव आदि का हस्तक्षेप अनपेक्षित था. इसका कुफल यह हुआ कि सामाजिक-सांस्कृतिक मामलों में मनुष्य विवेक के उपयोग से निरंतर कटता गया. धार्मिक आडंबरवाद के चलते गलतियों को सार्वजनिक रूप में स्वीकारने के बजाए उनपर पर्दा डालने की परंपरा बनी रही. जबकि धार्मिक रूप में स्वीकार्य होने के कारण पश्चिम में पश्चाताप और अपराध-स्वीकृति को साहित्यिक मान्यता प्राप्त हुई. रूसो के बाकी लेखन के साथ उसकी आत्मस्वीकृतियां भी पर्याप्त चर्चित रही हैं. भारत में ऐसे विषय उठाने की परंपरा न होने के बावजूद ‘हंस’ ने उसकी शुरुआत की थी. ये राजेंद्र जी ही थे जो नई पहल से घबराते नहीं थे. न आलोचकों की कभी परवाह करते थे. उनमें गजब का लोकतांत्रिक साहस था. अभिव्यक्ति और विचार के लिए बड़े से बड़ा खतरा उठाने को वे हरदम तैयार रहते थे. उनके सत्साहस के फलस्वरूप ‘हंस’ हिंदी-पट्टी की अनेक बौद्धिक-सामाजिक जड़ताओं पर प्रहार करने में कामयाब हुई, विशेषकर दलित और स्त्री-मुक्ति के सवालों को लेकर. इसके लिए राजेंद्र जी को सार्वजनिक तथा व्यक्तिगत रूप से यथास्थितिवादियों की आलोचनाओं, यहां तक कि व्यक्तिगत हमलों का शिकार भी होना पड़ा. लेकिन वे अपने मोर्चे पर अडिग रहे. उनके समय में नई और उत्तेजक बहसों को जितना वैचारिक स्पेस ‘हंस’ ने दिया, हिंदी की दूसरी पत्रिकाएं शायद वैसा कर सकीं. 
‘हंस’ की उस बहुचर्चित श्रंखला में कई नामी-गिरामी लेखक-लेखिकाओं की आत्मस्वीकृतियां छपी थीं. तथाकथित शुद्धतावादियों को उसमें ‘अनर्थ’ ही दिखा था. आत्मस्वीकृति का साहस दिखाने वाले लेखक भी सर्वथा निर्दोष न थे. वे नैतिक और सामाजिक अपराधों को तो थोड़े-बहुत स्पष्टीकरण के साथ स्वीकारने का साहस दिखा रहे थे, किंतु कानूनी और आर्थिक भ्रष्टाचार के प्रति आत्मस्वीकृति का साहस पूरी तरह गायब था. कुल मिलाकर आत्मस्वीकृतियों का वह सिलसिला लेखिकाओं की ‘बोल्डनेस’ तथा लेखकों के विचलन तक सिमटा हुआ था. शायद इसीलिए भी आलोचकों को सवाल उठाने का अवसर मिला था. आत्मस्वीकृतियों का सिलसिला ज्यादा लंबा नहीं चल सका. यूं भी अपने अपकर्म सार्वजनिक करने के लिए शेर का कलेजा चाहिए, जो भारतीय परिवेश में कदाचित असंभव है. बहरहाल, शुद्धतावादियों के बीच राजेंद्र जी की उस पहल की भी वैसी ही आलोचना हुई जैसी ‘हंस’ के दूसरे प्रयासों को लेकर होती थी. नाराजगी के असली कारण दूसरे थे. बहाना देह-संबंधों पर बेबाक लेखन को बनाया गया. आलोचकों में अधिकांश वही थे जो अजंता-एलोरा की गुफाओं में भारतीयता का गौरव खोजते आए हैं, ‘गीत-गोविंद’ की प्रशंसा करते न अघाते थे; और जिनके लिए भारतीय कविता का श्रेष्ठतम हिस्सा ‘रीतिकाल’ से आता है. जिनके लिए वर्ण-भेद समर्थक तुलसी हिंदी के सबसे बड़े कवि हैं. 
दरअसल जिस सामाजिक न्याय के प्रति ‘हंस’ समर्पित था, उसका ठोस संवैधानिक आधार था. एक संवैधानिक प्रतिबद्धता की ओर से आंखें मोड़ लेने का एकमात्र हथियार सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का हो सकता था. इसलिए जब-जब ‘हंस’ और राजेंद्र यादव पर उंगली उठी, मामला ‘संस्कृति पर खतरा‘ बताया गया. इसके बावजूद उनके नेतृत्व में ‘हंस’ दमित अस्मिताओं के उभार के लिए निरंतर पहल करता रहा. स्त्री और दलित स्वाभिमान की लड़ाई को उसने हिंदी पट्टी पर सबसे बड़ा मंच दिया. इससे यथास्थितिवादी शक्तियां उसके विरुद्ध लामबंध होती गईं. ‘अक्षर प्रकाशन’ और ‘हंस’ के जमाने से जो मित्र उनके साथ लगे थे, वे अपने लिए सुरक्षित कोना देखकर उसमें समाने लगे. हंस कार्यालय को ‘एक ऐसा षड्यंत्र कक्ष कहा गया, जहां हर समय किसी को उठाने-गिराने, पटाने-मिटाने की खुराफातें होती रहती हैं….’ उसे ‘अपराध डैन(मांद)’ की संज्ञा दी गई, ‘जहां काला चश्मा चढ़ाए, पाइप फूंकता एक माफिया-डॉन ठेठ फिल्मी अंदाज में साहित्यिक जालसाजियों का संचालन करता रहता है.’ इसके बावजूद अपनी लेखकीय प्रतिबद्धताओं के साथ राजेंद्र जी डटे रहे. इससे उन्हें नए मित्र और संगी-साथी मिले. फलस्वरूप कारवां बढ़ता गया. राजेंद्र जी के संपादन में ही ‘हंस’ ने कांतिकुमार जैन के संस्मरण सिलसिलेवार छापे थे, जो खूब चर्चित हुए. उनके अलावा समाजविज्ञान पर योगेंद्र यादव जी ने उसमें लिखा. स्त्री, दलित अस्मिता तथा अल्पसंख्यक मुद्दों पर ज्वलंत सामग्री ‘हंस’ में लगातार आती रही, जिसने हिंदी पट्टी में वैचारिक आंदोलनों को गति दी.
कोई भी पत्रिका अपने समय के आंदोलनों, समाजार्थिक-राजनीतिक और सांस्कृतिक परिवर्तनों से निरपेक्ष नहीं रह सकती. साहित्यिक पत्रिका पर तो यह नियम और भी गंभीरता से लागू होता है. राजेंद्र यादव के नेतृत्व में ‘हंस’ ने सदैव समसामयिक विषयों को विमर्श का मुद्दा बनाया. प्रेमचंद के जन्मदिन 31 जुलाई 1986 से इस पत्रिका ने राजेंद्र यादव के संपादन में जब दुबारा दस्तक दी तो उसने बहुत जल्दी अपना विशिष्ट पाठक-वर्ग बना लिया. एक साहित्यिक पत्रिका की खूबी पाठक की बौद्धिक क्षुधा को शांत करना-भर नहीं है, बल्कि उसे नई परिस्थितियों और चुनौतियों को समझने तथा और उनका समाधान खोजते रहने की समझ देना भी है. ‘हंस’ ने यही किया, इसलिए वह समाज में बड़े बौद्धिक आयोजनों की गवाह और उत्प्रेरक बन सकी. आलोचकों के कटाक्ष, ‘हंस’ कार्यालय को ‘छज्जु का चौबारा’, ‘राजदरबार’ तथा वहां आनेवालों को ‘राजदरबारी’ कहने के बावजूद यह पत्रिका गत 27 वर्ष की अपनी पुनः-प्रकाशन अवधि में, जनसरोकारों से शायद ही कभी दूर गई हो. प्रेमचंद का नाम लिए बिना ही राजेंद्र जी उनकी परंपरा को निरंतर विस्तार देते रहे. जनसरोकारों के प्रति ‘हंस’ की प्रतिबद्धता का क्या कोई ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य भी है? यह जानना भी जरूरी है, इसके लिए स्मृति में तत्कालीन दौर की कुछ यादें ताजा करनी होंगी.
भारत का स्वतंत्रता आंदोलन कई मायने में अनूठा था. यह बोध कि देश के जमींदार, साहूकार, व्यापारी और पुरोहित वर्ग के स्वार्थ अंग्रेजों से जुड़े हैं, और वे सरकार के विरोध में जाने वाले नहीं हैं—जनसाधारण के संगठित विद्रोह की प्रेरणा बना था. यह वर्ग सामाजिक-राजनीति मुक्ति की आस लेकर आंबेडकर और गांधी के नेतृत्व में स्वाधीनता संग्राम में उतरा था. उसे अंग्रेजों से उतनी शिकायत न थी, जितनी अपने ही देश के धर्म के ठेकेदारों तथा जाति के अलंबरदारों से जो हजारों वर्षों से उनका शारीरिक-मानसिक शोषण करते आए थे. उन्हें लगता था कि देश की आजादी उनके लिए राजनीतिक स्वतंत्रता के साथ सामाजिक-सांस्कृतिक मुक्ति का संदेश भी लेकर आएगी. लेकिन आजादी मिलते ही जनता को किनारे कर वर्चस्वकारी शक्तियां पुनः सत्ता पर सवार हो गईं. इससे जनाक्रोश बढ़ना स्वाभाविक था. सत्ताओं के खेल में उनके साथ हमेशा छल हुआ है—यह एहसास उन्हें लामबंद कर रहा था. जयप्रकाश नारायण ने ‘संपूर्ण क्रांति’ का नारा दिया तो वे नई स्फूर्ति एवं प्रेरणाओं के साथ पुनः एकजुट होने लगीं. उस आंदोलन फलस्वरूप अस्तित्व में आई ‘जनता पार्टी’ अपने प्रमुख नेताओं के वर्गीय सोच का शिकार थी. असल में इंदिरा विरोध के नाम पर लोकतंत्र विरोधी, सत्ता की भूख से आकुल-व्याकुल, प्रतिक्रियावादी ताकतें एकजुट हुई थीं. उनके लिए राजनीतिक सत्ता वर्षों पुराने सांस्कृतिक वर्चस्व को बनाए रखने का माध्यम थी. इस वर्ग के नेताओं द्वारा सामूहिक हितों पर स्वार्थ को वरीयता देने के कारण संपूर्ण क्रांति का लक्ष्य पूरा न हो सका. क्रांति-संकल्प के साथ तेजी से उभरी ‘जनता पाटी’ कांतिविहीन होकर बिखर गई. देश को बेहतर राजनीतिक विकल्प देने का जनता पार्टी का प्रयोग असफल हुआ था. 1984 में कांग्रेस का पुनः सत्ता में आना, इंदिरा गांधी की हत्या, राजीव गांधी का प्रधानमंत्री बनना, फिर उनकी सरकार पर भ्रष्टाचार और नाकारापन के आरोप, तत्कालीन उथल-पुथल से भरपूर भारतीय राजनीति की ये प्रमुख घटनाएं थीं. इससे भारत के राजनीतिक हलकों में थोड़ी-बहुत अस्थिरता पनपी, किंतु सकारात्मक परिणाम यह हुआ कि सहस्राब्दियों से शोषण, उत्पीड़न, तिरष्कार और उपेक्षा का दंश झेलती आई जातियों में आत्मसम्मान और स्वाभिमान की भूख जागने लगी थी. अभी तक दूसरों के आदेश अथवा इशारों पर मतदान करने वाले लोग अपने नफा-नुकसान को देख स्वतंत्र निर्णय लेने लगे. विशेषकर स्त्री और दलित, लोकतांत्रिक माहौल का फायदा उठाने के लिए एकजुट हो रहे थे. उसके फलस्वरूप शरद यादव, मुलायम सिंह यादव, लालू यादव, मायावती, एच. डी. देवगौड़ा, रवि राय, रामविलास पासवान, चौ. चरण सिंह, देवीलाल जैसे हाशिये के अनेक नेता अचानक महत्त्वपूर्ण हो उठे थे. लेकिन बहुमत के आधार पर सत्ता-शिखर पर पहुंचना एक बात है तथा शिखर पर रहकर देश का नेतृत्व करना दूसरी. शताब्दियों से शासित होते इन वर्गों में शासन करने का कोई संस्कार न था. उनकी संस्कृति ही ऐसी थी, जो सत्ता से अनुकूलन करना सिखाती थी. इसलिए लोकतंत्र के सहारे सत्ता-शिखर पहुंचे उत्पीड़ित वर्गों के नेताओं की हैसियत, विशेषकर उत्तर और मध्य भारत के राज्यों में दूसरे दर्जे की थी. यदा-कदा अवसर भी मिलता था तो अनुभव और आत्मविश्वास की कमी से सरकार चला पाने में नाकाम सिद्ध होते थे. लोकतंत्र की सफलता सामान्य सहमति और विरोधों के समाहार पर टिकी होती है, उसके लिए आवश्यक अनुभव उन्हें न था. दक्षिण भारत में सांस्कृतिक वर्चस्व के विरुद्ध संघर्ष अपेक्षाकृत पहले शुरू हो चुका था, इसलिए वहां के हालात में किंचित सुधार था. तत्कालीन परिवर्तनकामी राजनीति की वह स्वाभाविक विडंबना थी.
ऐसे ही चुनौतीपूर्ण समय में ‘हंस’ का पुनर्प्रकाशन आरंभ हुआ. एक प्रबुद्ध साहित्यकार के रूप में राजेंद्रजी सामाजिक-राजनीतिक हलचल को बहुत करीब से देख रहे थे. वे समझ भी रहे थे कि वैकल्पिक राजनीति को मुख्यधारा की राजनीति बनाने के लिए जमीनी तैयारी की जरूरत है. यह कार्य स्त्री, दलित, अल्पसंख्यक सहित अन्य वंचित जमातों के प्रबोधीकरण तथा उनके आत्मविश्वास को लौटाने के साथ ही संभव है. दरअसल सांस्कृतिक पूर्वाग्रह प्रायः इतने जटिल होते हैं, कि एक बार उनके चंगुल में फंस जाने के बाद व्यक्ति की हालत अनुसरणकर्ता जैसी हो जाती है. इसके विपरीत अभिजात संस्कृति का समस्त तामझाम सत्ता से अनुकूलन पर टिका होता है. वहां शिखर पर बने रहने हेतु आवश्यक समझौता की अंदरूनी छूट होती है. ग्राम्शी ने समानता और स्वतंत्रता हेतु अभिजन वर्गों के सांस्कृतिक वर्चस्व से मुक्ति को जरूरी माना है. इसके लिए उसने अभिजन संस्कृति के समानांतर जनसंस्कृति के उभार पर जोर दिया है. उसके अनुसार दास इसलिए दास होता है, क्योंकि उसकी संस्कृति उसको दास होना सिखाती है. डॉ. आंबेडकर का कहना था कि गुलाम को उसकी गुलामी का एहसास करा दो, वह क्रांति कर देगा. राजनीतिक चेतना सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना की अनुगामी है. इसलिए अंबेडकर और ग्राम्शी दोनों, सामाजिक-सांस्कृतिक मुक्ति को राजनीतिक स्वतंत्रता जितनी ही महत्त्वपूर्ण मानते थे. ‘हंस’ द्वारा उठाए गए प्रमुख मुद्दों में स्त्री, दलित, अल्पसंख्यक आदि प्रमुख थे. राजेंद्र यादव ने पिछड़े वर्ग को छुआ तक नहीं था. न ही कभी पिछड़े साहित्य की मांग को आगे रखा था. राजेंद्र यादव स्वयं पिछड़े वर्ग से आते थे; और उनकी दमदार उपस्थिति को यदि पिछड़े वर्गों का प्रतिनिधित्व स्वीकार लिया जाए तो यह परिकल्पना आसान हो सकती है कि सदियों से उत्पीड़न का शिकार रहे वर्गों यथा पिछड़ों, स्त्री, अल्पसंख्यक आदि को लेकर ब्राह्मणवाद के विरुद्ध बड़ा मोर्चा बनाने का संकल्प ‘हंस’ की शुरुआत से ही उनके मन में था. जिस तरह से उन्होंने अकेले ही ब्राह्मणवाद के विरुद्ध मोर्चा साधा, उसके आधार पर उन्हें हिंदी का वाल्तेयर कहा जा सकता है.   
राजेंद्र यादव राजनेता न थे. उन्हें हम लेखक-विचारक कह सकते हैं, किंतु उनका पहला प्यार रचनात्मक साहित्य से था. प्रेमचंद ने लिखा था—‘साहित्य राजनीति के आगे जलने वाली मशाल है.’ यही सूत्र राजेंद्रजी का मार्गदर्शक, पथप्रदर्शक सिद्ध हुआ. उम्मीदों को बचाए रखने, नए सपनों को गढ़ने की चाहत, अपने बूते आगे बढ़ने का आत्मविश्वा, घोर नैराश्य के विरुद्ध आशाबाद उनके आरंभिक उपन्यास ‘प्रेत बोलते हैं(सारा आकाश)’ की भूमिका में रामधारी सिंह दिनकर की कविता-पंक्ति के माध्यम से कुछ यों प्रकट हुआ था—‘सेनानी करो प्रयाण अभय भावी इतिहास तुम्हारा है/ये नखत अमा के बुझते हैं, सारा आकाश तुम्हारा है.’ यह अनायास न होकर भविष्य की कार्ययोजना का प्रेरणा बिंदू था. अपने लेखों, संपादकियों के माध्यम से राजेंद्र यादव दमित वर्गों को इसी प्रयाण-यात्रा के लिए अनुप्रेत करते रहे.
प्रेमचंद को आदर्श मानने वाला, साहित्य को समाज और राजनीति की मशाल बनाने को उद्धत कलम का एक योद्धा यही कर सकता था. कह सकते हैं कि राजेंद्र यादव को कहानीकार आजादी के बाद के युवामन के सपनों और समाज के कड़वी हकीकतों ने बनाया था, किंतु उनके संपादक को गढ़ने में प्रेमचंद के अलावा जयप्रकाश नारायण के संघर्ष तथा उनके ‘संपूर्ण क्रांति’ आंदोलन का भी योगदान था. ‘हंस’ से पहले उन्होंने ‘अक्षर प्रकाशन’ की शुरुआत अपने कुछ मित्रों के साथ की थी. हिंदी में जहां पुस्तकों का सीधा बाजार न हो, जहां प्रकाशकों को सरकारी खरीद पर निर्भर रहना पड़ता हो, वहां एक लेखक के लिए जिसकी अपनी नैतिक प्रतिबद्धताएं भी होती हैं, प्रकाशन चलाना हंसी खेल न था. प्रकाशन की असफलता और नौकरी न करने की जिद के बीच ‘हंस’ की स्थापना, ऐसे ही संघर्षपूर्ण जिजीविषा की देन थी. आगे जैसा कि सभी जानते हैं, अपनी स्थापना के बाद ‘हंस’ ने जो डगर पकड़ी, उसकी सही-सही परिकल्पना संभवतः राजेंद्रजी को भी नहीं रही होगी. लेखकों-विचारकों के मामले में प्रायः ऐसा होता है. वे किसी नई कृति या विचार को जन्म देकर, उसे अपनी तरह विस्तार देने के लिए आगे बढ़ते हैं. मगर एक स्थिति ऐसी आती है, जब कथानक स्वयं आगे बढ़ने लगता है. लेखक की भूमिका उसकी डोर पकड़कर पीछा करने तक सिमट जाती है. यही बात विचार के भी साथ है. उसका बीज तत्व मानस में उमगता है. उसके बाद विचारक को ज्यादा कुछ नहीं करना पड़ता. दिमाग में पहले से मौजूद प्रत्ययों, अवधारणाओं तथा तर्कशक्ति के ताने-बाने के बीच वह स्वयं विस्तार लेने लगता है. ‘हंस’ के साथ भी यही हुआ था. एक कहानी के रूप में आरंभ हुई पत्रिका ने अपने विशिष्ट सरोकार के साथ जैसे ही जनमानस में अपनी पहचान निर्मित की, उसे वहीं से खाद-पानी मिलने लगा. उसके बाद ‘हंस’ के संपादक मंडल का काम पत्रिका को चेतना-संपन्न पाठकों की इच्छा और जनसरोकारों से जोड़कर आगे बढ़ाते रहने तक सिमट गया.
भारत में जाति व्यवस्था का प्रभाव या कहो कि कुप्रभाव इतना गहरा है कि बड़े से बड़ा लेखक विचारक उसके प्रभाव में आ ही जाता है. बचपन से बड़ा होने तक व्यक्ति जिन जातीय संस्कारों के बीच वह पलता और बड़ा होता है, उनसे एकाएक मुक्त हो पाना असंभव होता है. यदि बचना भी चाहे तो दूसरे लोग उसकी पहचान जाति नाम के पुच्छल्ले से जोड़कर करने लगते हैं. इसलिए आजाद भारत के निर्माण को जाति और संप्रदाय के प्रभावों से दूर रखने हेतु आवश्यक व्यवस्थाएं संविधान निर्माताओं द्वारा की गई थीं. इसके बावजूद कुछ जातियों की सत्ता पर पकड़ इतनी गहरी थी कि वे लोकतंत्र को भी अपने स्वार्थ और सुविधा के अनुसार हांक सकती थीं. लेकिन विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार द्वारा मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू करना एक ऐसा निर्णय था, जिससे जाति-व्यवस्था जो अभी तक बहुसंख्यक वर्गों के शोषण का माध्यम थी—परिवर्तन का उपकरण बनने लगी. जिस जाति के नाम पर दलितों और पिछड़ों का शोषण होता आया था उसी को हथियार बनाकर लोग संगठित होने लगे. दूसरों के लिए, दूसरों के कहने पर मतदान करते आई दमित जातियों के मतदाताओं ने पहली बार अपने जाति/वर्ग के नेताओं को संसद और विधानसभा में पहुंचाना आरंभ कर दिया. संख्या में बहुसंख्यक होने के नाते उन्हें यह अधिकार भी था. जरूरत इस अधिकार चेतना को जन-जन तक पहुंचाने की थी.
बहरहाल, मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद जो देश-भर में उपद्रव हुए, उसके विरोध में जैसी राजनीतिक लाठियां भांजी गईं, उससे ‘हंस’ को परिवर्तनकामी शक्तियों के बीच पैठ बनाने में मदद की. हालांकि इसकी उन्हें कीमत भी चुकानी पड़ी. आरंभ में पत्रिका के साथ ऐसे बहुत से लेखक जुड़े जो राजेंद्रजी के कहानीकार को तो महत्त्व देते थे, किंतु परिवर्तनकामी विचारधारा या साहित्य की पत्रिका को वैचारिक प्रतिबद्धता जोड़ना उन्हें स्वीकार न था—वे धीरे-धीरे उनसे किनारा करने लगे. राजेंद्र यादव को उसकी कोई चिंता न थी. इस मामले में गजब के लोकतांत्रिक थे. दूसरों की असहमतियों का सम्मान करना उन्हें आता था. असहमतियों के बीच अपनी वैचारिक निष्ठा को सुरक्षित रखने हेतु उनमें पर्याप्त आत्मविश्वास भी उनमें था. उनके नेतृत्व में दमित चेतनाओं को स्वर देने की जो डगर ‘हंस’ ने पकड़ी, उसपर साथ देने के लिए नए और समर्पित यायावार पहले से ही प्रतीक्षारत थे.
1991 के बाद देश में आर्थिक उदारीकरण के नाम पर पूंजी और कारपोरेट घरानों का जल-जंगल और जमीन को लूटने का खेल चला. नतीजा यह हुआ कि पूंजीवादी ताकतें समाज और सरकार पर अपनी पकड़ बनाने लगीं. मनुष्य का अवमूल्यन कर उसको महज ‘उपभोक्ता’ मान लिया गया. यह साम्राज्यवाद का नया रूप था, जिसमें राष्ट्रों को तलवार के बजाय आर्थिक नीतियों द्वारा योजनाबद्ध तरीके से समर्पण के लिए मजबूर किया जाता था. ‘हंस’ ने इस मोर्चे पर भी काम किया. जहां जरूरी लगा, राजेंद्रजी ने कथित उदारीकरण के नाम पर कारपोरेटीकरण का जमकर विरोध किया.
राजेंद्र यादव के ‘हंस’ की विशेषता थी कि उसमें जो छपता था, वह विमर्श की दृष्टि से नया, बेबाक और बेलाग होगा था. उसकी गमक दिलो-दिमाग पर देर तक सवार रहती थी. चाहे वह विषय के चयन को लेकर हो या भाषा को, राजेंद्रजी सभी में मौलिक नजर आते थे. उन्होंने ‘हंस’ में महिला और दलित साहित्यकारों को खुलकर स्थान दिया. इसके लिए उन्हें लंबा विरोध भी झेलना पड़ा. ‘हंस’ को बदनाम करने के लिए लोगों ने उनपर अश्लीलता के आरोप लगाए. उसे सांस्कृतिक अपसंस्करण का वाहक कहा गया. तमाम किस्म के दबावों के बीच राजेंद्रजी अपने मूल्यों पर अडिग बने रहे. दलित-अस्मिता के संघर्ष में उन्होंने सदैव दलित साहित्यकारों, विचारकों का साथ दिया. ओमप्रकाश बाल्मीकि की आत्मकथा ‘जूठन’ को शीर्षक देने का श्रेय भी उन्हीं को जाता है.
राजेंद्र यादव और ’हंस’ के सरोकारों को केवल स्त्री और दलित तक सीमित कर देना, उनके योगदान को कम करके आंकना होगा. हालांकि ’हंस’ तो इतने भर से भी साहित्यिक पत्रिकाओं में शीर्ष पर बना रह सकता है. ‘हंस’ की प्रतिबद्धता पूरे जनसमाज के प्रति थी. ‘हंस’ ने जिस तरह धर्म के आडंबरवाद पर चोट की, उतनी मुखरता से शायद ही किसी और पत्रिका ने आवाज उठाई हो. राजेंद्र यादव हिंदी में स्त्री-विमर्श के सूत्रधारों में से थे. उन्होंने प्रभा खेतान को सीमोन दा बोउआर की कृति ‘दि सेकिंड सेक्स’ का हिंदी अनुवाद करने के लिए प्रेरित किया, जो हिंदी में ‘स्त्री-उपेक्षिता’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ. हिंदी में स्त्री विमर्श को आगे बढ़ाने में जितना योगदान इस अकेली पुस्तक का है, उतना शायद ही किसी और पुस्तक का होगा. निश्चय ही इसका श्रेय राजेंद्र यादव को जाता है. भारत में लड़की को होश संभालते ही समझाया जाता है, तुम्हारा शरीर तुम्हारा नहीं है. उसपर तुम्हारे पति का अधिकार होगा. और जब तक विवाह नहीं हो जाता तब तक तुम पिता के संरक्षण में हो. राजेंद्र का स्त्री विमर्श इसी विसंगति पर केंद्रित था. वे मानते थे कि व्यक्ति होने के नाते अपने शरीर पर सबसे पहला अधिकार स्त्री का होता है. पुरुष समाज को स्त्री के इस अधिकार का सम्मान करना चाहिए.
राजेंद्र यादव के आलोचक भी कम न थे. कुछ तो मृत्यु के कुछ दिन पहले तक भी भड़ास निकालते रहे. उनपर तरह-तरह के लांछन लगाते रहे. यह उनकी मजबूरी है—यह हकीकत को राजेंद्र जी भी जानते थे. इसलिए आलोचकों की बातों की परवाह किए बगैर वे अपने काम में लगे रहते थे. इसी लिए वे राजेंद्र यादव थे. अंत में बस इतना कि राजेंद्र यादव के आलोचक आज चाहे जितना दंभ कर लें, समय की छननी में उनके नाम कहीं दूर बिला जाएंगे, मगर राजेंद्र यादव साहित्य-जगत में दीपस्तंभ की भांति रहेंगे, उनके संपादकीय अपने युग की आवाज की तरह पढ़े जाएंगे.

opkaashyap@gmail.com
[जनकृति अंतरराष्ट्रीय पत्रिका के ‘हिंदी पत्रिका विशेषांक’ में प्रकाशित लेख]

अमरीकी कविता: शैलेन्द्र चौहान

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अमरीकी कविता

शैलेन्द्र चौहान 

प्रथम महायुद्ध के पूर्व ही अमरीका की पूंजीवादी व्यवस्था की आलोचना होने लगी थी। अनेक लेखकों ने समाजवाद को मुक्ति के मार्ग के रूप में अपनाया। ऐसे लेखकों के अग्रणी थियोडोर ड्रेज़र, जैक लंडन और अप्टन सिंक्लेयर थे। एडविन मार्खम और विलयम ह्वॉन मूडी की कविताओं में भी वही स्वर है। वाल्ट ह्विटमन को छोड़कर १९वीं सदी के अंतिम और २०वीं सदी के प्रारंभ के वर्ष कविता में साधारण उपलब्धि से आगे न जा सके। अपवाद स्वरूप एमिली डिकिन्सन (१८३०-१८८६) है जो निश्चय ही अमरीका की सबसे बड़ी कवयित्री है। उसकी कविताओं का स्वर आत्मपरक है और उनमें उसके ग्रामीण जीवन और असफल प्रेम के अनुभव तथा रहस्यात्मक अनुभूतियाँ अभिव्यक्त हुई हैं। डिकिन्सन की कविता में यथार्थ, विनोद, व्यंग्य और कटाक्ष, वेदना और उल्लास की विविधता है। चित्रयोजना, सरल और क्षिप्र भाषा, खंडित पंक्तियों और कल्पना की बौद्धिक विचित्रता में वह आधुनिक कविता के अत्यंत निकट है। आधुनिक अमरीकी कविता का प्रारंभ एडविन आलिंगटन रॉबिंसन (१८६९-१९३५) और राबर्ट फ्ऱास्ट (१८७४-१९६३) से होता है। परंपरागत तुकांत और अतुकांत छंदों के बावजूद उनका दृष्टिकोण और विषयवस्तु आधुनिक है; दोनों में अवसादपूर्ण जीवन के चित्र हैं। रॉबिंसन में अनास्था का मुखर स्वर है। फ्ऱास्ट की कविता की विशेषताएँ अंतरंग शैली में साधारण अनुभव की अभिव्यक्ति, संयमित, संक्षिप्त और स्वच्छ वक्तव्य, नाटकीयता और हास्य तथा चिंतन का सम्मिश्रण है। पो और डिकिन्सन रूपवादी शैली से प्रभावित अन्य उल्लेखनीय कवि वैलेस स्टीवेंस (ज. १८७९), एलिनार वाइली (१८८५-१९२८), जॉन गोल्डफ्लेचर (१८८६-१९५०) और मेरियन मूर (ज. १८८७) हैं। हैरियट मुनरो (१८६०-१९३६) द्वारा शिकागो में स्थापित पोएट्री : ए मैगज़ीन ऑव वर्स अमरीकी कविता में प्रयोगवाद का केंद्र बन गई। इसके माध्यम से ध्यान आकर्षित करनेवाले कवियों में वैचेल लिंडसे (१८७९-१९३१), कार्ल सैंडबर्ग (ज. १८७८) और एडगर ली मास्टर्स (१८६९-१९५०) प्रमुख हैं। ये ग्रामों, नगरों और चरागाहों के कवि हैं। मास्टर्स कविता में गहरा विषाद है, लेकिन सैंडबर्ग की प्रारंभिक कविताओं में मनुष्य में आस्था का स्वर ही प्रधान है। हार्ट क्रेन (१८९९-१९३२) में ह्विट्मन का रोमानी दृष्टिकोण है। यह रोमानी दृष्टिकोण नाओमी रेप्लांस्को, जॉन गार्डन, जॉन हाल ह्विलॉक, आइवर विंटर्स और थियोडोर रोथेश्क की कविताओं में भी है। आर्किबाल्ड मैक्लीश (ज. १८९२) की कविताओं में सर्वहारा के संघर्षों का चित्र है। स्टीफेन विंसेंट बेने (१८९८-१९४३) व्यापक मानव सहानुभूति का कवि है। उसके वैलड अत्यंत सफल हैं। होरेस ग्रेगरी (ज. १८९८) और केनेथ पैचेन (ज. १९११) की कविताओं पर भी ह्विट्मन का प्रभाव स्पष्ट है। दूसरी ओर रॉबिंसन जेफर्स (ज. १८८७) है जो अपनी कविताओं में मनुष्य के प्रति आक्रोशपूर्ण घृणा और प्रकृति के दारुण दृश्यों से प्रेम के लिय प्रसिद्ध है। एमी लॉवेल (१८७४-१९२५) और एच.डी. (हिल्डा डूलिटिल : ज. १८८६) ने इमेजिस्ट काव्यधारा का नेतृत्व किया। एज़रा पाउंड (ज.१८८५) और टी.एस. इलियट (१८८८-१९६५) ने आधुनिक अमरीकी कविता में प्रयोगवाद पर गहरा असर डाला। उनसे और “मेटाफ़िज़िकल’ शैली के रूपवाद से प्रभावित कवियों में जान क्रोवे रैंसम (ज. १८८८), कॉनरॉड आइकेन (ज. १८८९), रॉबर्ट पेन वैरेन (ज. १९०५), ऐलेन टेट (ज. १८९९), पीटर वाइरेक (ज. १९१६), कार्ल शैपीरो (ज. १९१३), रिचर्ड विल्बुर (ज. १९२१), आर.पी. ब्लैकमूर (ज. १९०४) तथा अनेक अन्य कवि हैं। अभिव्यक्ति में घनत्व, चमत्कार और दीक्षागम्यता उनकी विशेषताएँ हैं। इनके अनुसार “कविता का अर्थ नहीं, अस्तित्व होना चाहिए।” प्रयोगवादियों में ई.ई. कर्मिग्ज़ (ज. १८९४) पंक्तियों के प्रारंभ में बड़े अक्षरों को हटाने तथा विरामों और पंक्तियों के विभाजन में प्रयोगों के लिए प्रसिद्ध हैं। २०वीं सदी की कवयित्रियों में सारा टीज़डेल (१८९४-१९३३) और एड्ना सेंट विंसेंट मिले (१८९२-१९५०) अपने सानेटों और आत्मपरक गीतों की स्पष्टोक्तियों के लिए प्रसिद्ध हैं। मिले में प्रखर सामाजिक चेतना है। जेम्स वेल्डेन जॉन्सन (१८७१-१९३८), लैंगस्टेन ्ह्रूाजेज़ (ज. १९०२) और काउंटी क्लैन (१९०३-४६) नीग्रो कवि हैं जिन्होंने नीग्रो जाति की समस्याओं पर ध्यान केंद्रित किया। द्वितीय महायुद्धोत्तर कालीन अमरीकी कविता बीट अथवा बीटनिक कवियों एवं विद्योचित कवियों के पारस्परिक संघर्ष एवं विरोध को लक्षित करती है। राबर्ट लोवल के शब्दों में यह संघर्ष अनगढ़ एवं परिष्कृत कविता के बीच पारस्परिक विरोध का संघर्ष है। इस वर्गीकरण के बावजूद हम देखते हैं कि इस २५ वर्ष की अवधि में अनेक बीटनिक कवि विद्योचित बन गए तथा अनेक विद्योचित कवियों ने बीटनिक शैली को अपनाया। बीटनिक कवियों में समाज के प्रति विद्रोह की भावना है। वे सभी सामाजिक संस्थाओं को घृणा की दृष्टि से देखते हैं और अपने लिए आत्यंतिक व्यक्तिगत स्वतंत्रता चाहते हैं। वे अति मुक्तछंद में मानमाने ढंग से लिखते हैं। काव्य उनकी जीवनशैली का मात्र उपफल है। वे मदिरा, नशा, यौन प्रयोगों, एवं मादक द्रव्यों की सहायता से भावोद्दीपन की तीक्ष्णता को बढ़ाने का प्रयास करते हैं एवं नीग्रो तथा जैज़ संगीतज्ञों के संत्संग में भगवद्दर्शन की आशा रखते हैं। अपनी कविताओं को वे विलियम कार्लास विलियम्ज़ अथवा जैक केरुआक को समर्पित करते हैं। जैन, बौद्ध, एवं पूर्वी संस्कृति के तांत्रिक अथवा “असामाजिक’ पक्षों से आकर्षित ये नए बोहिमियाई “आवारे’ हैं जो समाज का विरोध एवं आदिमवाद, मूलवृत्ति, शक्ति तथा रक्त की उपासना करते हैं। काव्य में बीटनेक शैली के प्रमुख लेखक हैं ऐलन गिंसबर्ग, ग्रेगोरि कोरसो, गैरी स्नाइडर तथा लारेंस फ़लिगेटी। केनेथ रेक्सराथ, केनथ पैचन, राबर्ट डंकन, डेनिस लेवरतोव, चार्ल्ज़ ओल्सन, राबर्ट क्रीली जडसन क्रूज तथा जिल आर्लोवित्स की कविताओं पर भी बीटनिक शैली का प्रभाव पड़ा है। बीट कविता की आसन्नता एवं ओज मानवी अस्तित्व के नंगे चरित्र को गति देता है।
ऐलन गिंसबर्ग की हाउल (१९५६) अमरिकी समाज के नरकवासी कवि द्वारा मनुष्य के आधुनिक अस्तित्व का उच्छेदन करती है। उनकी पंक्तियाँ प्रेम, अथवा क्रोधरूपी कोड़े की फटकार से आधुनिक जगत्‌ के सारे संत्रास एवं विभीषिका का स्पर्श कर उनसे आगे ब्रह्मांडी य पवित्रता तक पहुँचती हैं। राजनीतिक, हत्या, पागलपन, स्वापकव्यसनी, समलिंगसंबंध, अथवा तांत्रिक या ज़ेन तटस्थता की विषयवस्तु का भार उनकी पंक्तियाँ सदा ही वहन करने में समर्थ नहीं होती। गिंसबर्ग की कविता की सबसे बड़ी विशेषता उसका रहस्वादी तत्व है। उसका दूसरा प्रकाशन “कैडिश’ (१९६०) भी इन्हीं गुणों से युक्त है एवं मनुष्य की संवेदना को अनुभूत यथार्थ के सीमातंक क्षेत्र तक ले जाता है। “बाट’ शब्द के प्राय: तीन अर्थ दिए जाते है-(१) समाज का निम्नस्तर जहाँ संस्थाओं एवं परिपाटियों ने दलित कवि को दबा रखा है, (२) जैज़ संगीत की लय एवं ताल जो काव्यसंगीत को उत्प्रेरित करता है, एवं (३) भगवद्दर्शन। ग्रेगरी कोर्सो के “द वेस्टल लेडी आन ब्रैटल’, “गैसोलीन’, तथा “द हैपी बर्थडे ऑव डेथ’ में छंद बीट आदर्श के संनिकट हैं। वह जैज़ के विस्फोटक प्रभाव एवं हिप्स्टर नर्तकों की भाषा तथा शब्दों का अनुकरण करता है। लारंस फलिगेटी के “अ कॉनी’ आइलंड ऑव द माइंड’ में गली काव्य लिखने का प्रयास किया गया है। कविता को अध्ययन कक्ष के बाहर गलियों में लाया गया है। अन्य बीट कवियों के नाम हैं गे स्नाइडर, फिल वेलन एवं माइकेल मक्लूअर। बीट कविता अमरीका की अंतर्भौम कविता है। बीट ही के समान दो अन्य अंतर्भोम संप्रदाय भी हैं-ब्लैक माउंटन कवि एवं न्यू पार्क कवि। पहले संप्रदाय में चार्ल्ज़ ओलसन, राबर्ट क्रीली, राबर्ट डंकन एवं जानथन विलियम्ज़ आते हैं। दूसरे संप्रदाय के अंतर्गत डेनिस लेवर्तोव, ल राय जोंज़ एवं फ्रैंक ओ’ हारा आते हैं। बहुत सारे बीट्निक कवि आत्मसंन्धान के लिये भारत में भी आये थे और हिन्दू धर्म से प्रभावित हुये थे।
२०वीं सदी के अन्य प्रयोगवादियों में मार्क ह्वॉन डोरेन, लियोनी ऐडम्स, रॉबर्ट लॉवेल, हॉबर्ट होरन, जेम्स मेरिल, डब्ल्यू. एस. मर्विन, डेलमोर श्वार्ट्‌ज, म्यूरिएल रुकेसर, विनफ़ील्‌ड टाउनले स्कॉट, एलिज़ाबेथ बिशप, मेरिल मूर, ऑगडेन नैश, पीटर वाइरेक, जान कियार्डी आदि ऐसे कवि हैं जिनपर वाल्ट ह्विट्मन की कविता का आंशिक प्रभाव है। अपेक्षाकृत नए प्रयोगवादियों में जॉन पील विशप, रैंडाल जेरेल, रिचर्ड एबरहार्ट, जॉन बैरिमैन, जॉन फ्रेडरिक निम्स, जॉन मैल्कम ब्रिनिन और हॉवार्ड नेमेरोव हैं। सामाजिक यथार्थ और स्वस्थ जनवादी चेतना को महत्व देनेवाले आधुनिक कवियों में वाल्टर लोवेनफ़ेल्स, मार्था मिलेट, मेरिडेल ले स्यूर, टॉमस मैक्ग्राथ, ईव मेरियम, केनेथ रेक्सरॉथ इत्यादि उल्लेखनीय हैं।
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प्रवासी परिधि में स्वदेशी चकाचौंध (तेजेंद्र शर्मा की कहानियों के बहाने ): डॉ राजेश श्रीवास्तव, भोपाल (म०प्र०)

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 प्रवासी परिधि में स्वदेशी चकाचौंध(तेजेंद्र शर्मा की कहानियों के बहाने )

-डॉ राजेश श्रीवास्तव, भोपाल (म०प्र०)

तेजेंद्र शर्मा को प्रवासी कथाकार की श्रेणी में गिनना बहुत अटपटा लगता है . लेकिन यह तो सच ही है . उनकी कहानियां भारतीय परिवेश की बारीकियों का परिचय इस प्रकार कराती हैं कि यह विश्वाश करना कठिन हो जाता है कि वे परदेश में रह रहे हैं . अनेक कहानीकारों की चर्चा में मुझे कई बार शामिल होने का अवसर मिला है किन्तु इस बार यह अवसर बिलकुल अलग है . इस समय दिमाग में कहानियां नहीं तेजेंद्र शर्मा का मुस्कुराता चेहरा भर है , जिसे मैंने केवल तस्वीरों में ही देखा है . कभी दो- चार शब्दों भर बातचीत हुई भी है तो उसके कोई माने नहीं . हां , जब तब , यहाँ –वहां , इधर-उधर , हर कहीं उनकी साहित्यिक लोकप्रियता की चर्चा का भी कम असर नहीं है . तेजेंद्र शर्मा की कहानियों से रूबरू होने के पीछे दो कारण और भी हैं .पहला तो यह कि वे प्रवासी कथाकार हैं . (प्रवासी और अप्रवासी होना एक पहेली है मेरे लिए . कालेज के दिनों में भी मैं इन दो शब्दों के बीच गच्चा खा जाता था. प्रवास एवं इसके विभिन्न स्वरूपों के साथ अनेक भ्रम हैं . इसके सही एवं व्यापक अर्थ को सीमित कर अब केवल ‘विदेश में रहने वाले को ही’ प्रवासी समझा जाने लगा है . गलत होते हुए भी, प्रवासी शब्द का, यह अर्थ अब रूढ़ हो गया है । ‘प्रवास‘ के स्थान पर ‘अप्रवास’ या ‘प्रवासी’ के स्थान पर ‘अप्रवासी’ शब्द का प्रयोग देखने में आ रहा है .) तेजेंद्र शर्मा का प्रवासी होना बड़े मायनेदार है.शायद इसी वजह से उन्होंने अधिक पाठकों ,संपादकों ,प्रकाशकों ,मित्रो और लेखकों को आकर्षित किया है . लेकिन यह एक बेहतरीन स्थिति है खासकर हिंदी के लिए. यू के , लन्दन में रहकर वे हिंदी कथा का दीपक जलाए हुए हैं. हिंदी भाषा की ज्योति जगमगा रही है. हिंदी भाषा के प्रचार प्रसार का जो काम अनेक संस्थाएं और सरकार तक कर रही है उसे वे सहयोग कर रहे हैं . हिंदी का चतुर्दिक प्रचार-प्रसार हो रहा है . और हिंदी का साहित्य भी समृद्ध हो रहा है – साधुवाद . 
प्रवासी लेखन को लेकर भारतीय आलोचकों , खासकर बामपंथी आलोचकों में बहुत उपेक्षा का भाव रहा है . उसके कुछ कारण सच भी हैं . प्रवासी होने की आड़ में कई रसूकदार लोग साहित्यकार बन गए हैं . वे अन्य कारणों से लोकप्रियता प्राप्त करने में सक्षम हैं . प्रवासी लेखन के बारे में किसी ने एक सवाल किया है .मैंने कहीं पढा था – प्रवासी व्यक्ति होता है उसकी भाषा नहीं . इसलिए प्रवासी साहित्य जैसी कोई धारा की आवश्यकता नहीं है . मेरा मानना है कि प्रवासी साहित्य एक अलग ही धारा है . क्योकि उसमें जो नज़रिया है वो अलग है . एक प्रवासी लेखक कई संस्कृतियों , देशकाल की स्थितियों ,रीति-रिवाजों, प्रथाओं , परम्पराओं, खान-पान ,और साहित्यिक गुणों से जाने- अनजाने वाबस्ता होता रहता है . यही गुण उसे भारतीय लेखन परम्परा से अलग पहचान देता है .देश की राजनीति और सामाजिक सरोकारों और कला संस्कृति पर निरपेक्ष दृष्टि रखना एक प्रवासी लेखक के लिए अधिक आसान है .बशर्ते उसमें यह सब क्षमता भी हो . तो लन्दन में वर्षों से रहने वाले तेजेंद्र शर्मा और रचनाकर्म करने वाले हिंदी में कहानी लिखें , चर्चित हों , सम्मानित हों और हिंदी का गौरव बढे –यह बड़ी बात है . 
उनके तीन कहानी संग्रह अभी मैंने देखे है – ‘ढिबरी टाइट’ (1994), ‘देह की कीमत’ (2001) तथा “बेघर आँखें” (2007). इसके अलावा और भी बहुत से संग्रह हैं उनके . काला सागर, यह क्या हो गया, सीधी रेखा की परतें, कब्र का मुनाफा, दीवार में रास्ता, मेरी प्रिय कथाएँ, प्रतिनिधि कहानियाँ आदि संग्रहों को देखने का सौभाग्य मुझे नहीं मिला . अलबत्ता छुटपुट कहानियां पत्रिकाओं में देख पाया हूँ . 
तेजेंद्र शर्मा की कहानियाँ उनके सजग साहित्यकार होने का प्रमाण है। वे अपने आसपास से ही अपने पात्र चुन लेते हैं जो बिलकुल उनके साथ कदमताल करते चलते हैं . विषय वैविध्य और विषयों की सामायिकता और कथा साहित्य में शिल्प एवं शैली के स्तर पर जो परिवर्तन हुए हैं, उनकी झलक तेजेंद्र शर्मा की कहानियों में देखने को मिलती है।
तेजेंद्र शर्मा बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं .किन्तु उनकी असली पहचान उनके रचना संसार से है . (हालाकि यह भी एक सच है कि भारत की जितनी निगरानी वे रखते हैं , उतनी तो यहाँ के बहुत सारे फन्ने खां भी नहीं रख पाते ). कहानियों और कहानीकारों को स्थापित करने का काम हिंदी जगत में प्राय आलोचक जन ही करते आये हैं . और आलोचक भी एक से बढ़कर एक कद्दावर हुए है . सबके सब श्रद्धेय , पूज्यनीय , आदरणीय , लम्बे समय तक हिंदी कहानी को आलोचकों की दृष्टि ने खूब पहचाना . अब हालात बदल गए हैं आलोचकों को पूछता कौन है?(क्षमा करें) आलोचक घर की खिड़की खुली रखते हैं .आलोचकों के विकल्प भी तो बहुत हैं . अपनी पत्रिका , अपना प्रकाशन , अपने पाठक , अपना सम्मान , अपना मीडिया . आलोचक तो खुद मुश्किल में है . उन्हें कोई कवर ही नहीं करता . (क्षमा करें , मैं अब तक तेजेंद्र शर्मा की कहानियों पर नहीं , उनकी कहानी तक पहुचने की प्रक्रिया पर ही बात कर रहा हूँ . लेकिन इतना फिर भी कहना चाहता हूँ , अधिक तड़क – भड़क से बात तो बन सकती है लेकिन कहानी नहीं बनती . तेजेंद्र शर्मा की कहानी बन रही है .प्रवासी परिधि में स्वदेशी चकाचौंध का जादू चल पडा है . उनकी कहानी हिंदी की मुख्य धारा को प्रभावित कर रही है – यह भी बड़ी बात है )
तेजेंद्र शर्मा की कहानियों में जो सबसे बड़ी बात मुझे अपील करती है , वह उनकी अनगढ़ शैली है . बावजूद इसके उनकी कुछ कहानिया मुझे रोककर उनके ठेठ प्रवासी होने का अहसास भी करा जाती हैं . मैं बड़े सद्भाव के साथ यह कहना चाहता हूँ कि उनकी कुछ कहानियां जो मैंने पढ़ी हैं उनके आधार पर मैं उन्हें प्रवासी तमगे से अलग नहीं कर पाया . एकाध कहानी का उदाहरण भी दे ही दूं . जैसे – टेलीफोन लाइन . 
टेलीफोन लाइन की शुरुआत में ही कुछ शब्द परेशान कर देते हैं . फोन , टेलीफोन और मोबाइल शब्दों के प्रयोग में थोड़ी असावधानी हुई है – 
टेलिफ़ोन की घन्टी फिर बज रही है .अवतार सिंह टेलिफ़ोन की ओर देख रहा है . सोच रहा है कि फ़ोन उठाए या नहीं . आजकल जंक फ़ोन बहुत आने लगे हैं. लगता है जैसे कि पूरी दुनियां के लोगों को बस दो ही काम रह गये हैं – मोबाईल फ़ोन ख़रीदना या फिर घर की नई खिड़कियां लगवाना . अवतार सिंह को फ़ोन उठाते हुए कोफ़्त- सी होने लगती है. सवाल एक से ही होते हैं, “हम आपके इलाके में खिड़कियां लगा रहे हैं. क्या आप डबल ग्लेज़िंग करवाना चाहेंगे ? ” या फिर “सर क्या आप मोबाइल फ़ोन इस्तेमाल करते हैं ? ” (टेलीफोन लाइन से )
लाइन शब्द प्राय लेंड लाइन के लिए ही प्रयोग में आता है . मोबाइल के लिए नेटवर्क का प्रयोग हो रहा है . टेलीफोन पर लम्बी बातचीत तो ठीक पर उसके संवादों में कहीं कुछ खटकता है , कहीं – कहीं . 
तुम्हें वो उषा याद है क्या ? ”
“कौन सी उषा ? ”
“वही जो स्कूल के बाहर ही रहती थी. आर्ट्स में थी. वो मुकेश का गाना गाया करती थी, –जियेंगे मगर मुस्कुरा न सकेंगे, कि अब ज़िन्दगी में मुहब्ब्त नहीं है. ” 
“हां जी, उस रोंदड़ को कौन भूल सकता है. बोलती थी तो लगता था कि अब रोई के तब रोई….उसने छ : साल तक बस वो एक ही गाना सुना सुना कर बोर कर दिया…..वैसे अवतार, गाती ठीक थी, …मुझे मुस्कुराए हुए तो एक ज़माना ही बीत गया है.”
“जानती हो उसने एक दिन मुझे कहा था कि अवतार तुम कोई माडर्न नाम रख लो न ! आई विल कॉल यू ऐवी ! अवतार बहुत पुराना सा नाम लगता है. तुम में जो सेक्स अपील है, नाम भी वैसा ही होना चाहिये…. उसके बाद उसने मुझे हमेशा ऐवी कह कर ही बुलाया… मुझे पता ही नहीं चलता था कि मुझे बुला रही है…. वैसे रोंदड़ नहीं थी यार. अच्छी भली लड़की थी… सांवली भी थी. मुझे गोरे रंग के मुकाबले हमेशा सांवला रंग ज़्यादा अट्रेक्ट करता है.”
“मैने भी नोट किया था कि तुमने यह बात स्कूल में दो तीन बार दोहराई थी. तुम्हें अपर्णा सेन बहुत सुन्दर लगती थी…. गोरी चिट्टी हिरोइनें नहीं… फिर इंगलैण्ड में क्या करते हो ?.. किसी गोरी मेम से चक्कर नहीं चला क्या ? ”
“अरे हमारा क्या चक्कर चलना, एक शादी की थी, वो भी संभाली नहीं गई…. फिर से कंवारा बना बैठा हूं. ”
तेजेंद्र शर्मा की यह कहानी एक ओर नायक अवतार सिंह को फोकस करती है तो दूसरी ओर सोफिया जैसे बिंदास केरेक्टर को सामने लाती है . सोफिया का चरित्र बिलकुल अलग है . पचता नहीं है .
स्कूल में साथ पढने वाली कोई लड़की कैसे इस तरह की बात कर सकती है – “अवतार मियां तुम भूल रहे हो कि मेरी शादी हायर सेकेण्डरी पास करते ही हो गई थी. अभी तो अट्ठारह की भी नहीं हुई थी…. जब शादी होगी, तो सुहागरात भी होगी… और जब वो होती है तो पेट फूल ही जाता है. दो बार फूला और दो बार हवा निकलवा दी. वर्ना चार चार को ले कर बैठी होती. हमारे मर्द भी तो जाहिल होते हैं. उनके लिये औरत बस इसी काम के लिये होती है. हर साल एक बच्चा बाहर निकाल लो….बेग़ैरत होते हैं सब. ”
स्कूल के दिनों की घटनाओं के वर्णन में कुछ बडेपन का असर ज्यादह है . सोफ़िया का टेलीफोन पर यह कहना भी अजीब है – “जानते हो कितना जी चाहता था कि मुझे कोई सोफ़ी कह कर लिपटा ले अपने साथ. और फिर वही सोफी अचानक अपनी विधवा बेटी से विवाह का प्रस्ताव अवतार के सामने रख देती है. स्कूल की यादों में केवल लड़कियों के प्रेम , आकर्षण और फ्लर्ट के सिवा कुछ नज़र नहीं आता . हिदू- मुसलमान, सिख , आतंकवाद की घटनाओं में उलझी लपटी और टेलीफोन लाइन की लम्बी बातचीत में यह कहानी पाठक को बहुत उलझाती है . 
अब एक और कहानी हथेलियों में कम्पन – अद्भुत कहानी . परिजनों की अस्थियाँ लेकर हरिद्वार की यात्रा . संवेदना के साथ यथार्थ के धरातल पर झकझोरने वाली अनुभूतियाँ . बहुत ईमानदारी और सच्चाई के साथ लिखी गई कहानी .नरेन् मौसा और कथानायक के बीच मित्रवत व्यवहार है .छोटे –छोटे ख्याल एक विचारvicvividvidhvidhavidhaavidhaarvidhaaravidhaaraaधारा बनकर गहरे संवेदन का साक्षात्कार कराते हैं – मृत्यु क्या केवल एक शारीरिक स्थिति है? क्या कर्मकाण्ड जीवन और मृत्यु के साथ जुड़ा रहना चाहिये? क्या किसी की मृत्यु पर रोना आवश्यक है?… मुझ जैसे अज्ञानी लोग इन सवालों से जूझते रहते हैं।
नरेन त्रिखा का अनुभव संसार बहुत बड़ा है . वे अपने पिता, चाचा, मामा, दो साढ़ुओं, एक साली, एक साले, अपने समधी और कई दोस्तों की अस्थियां हरिद्वार पहुंचा चुके हैं. उनका इन पण्डों को अच्छी तरह समझते थे. उन्हें इन सबसे बातचीत करने का एक लम्बा अनुभव है. बाऊजी की मृत्यु के झटके से भला कहां उबरा था. नरेन मौसा की एक एक बात मेरे लिये फ़रमान था. मुझे आशा थी कि किसी ऐसी जगह जाकर अस्थि विसर्जन करेंगे जैसा कि गंगा नदी को चित्रों में देखा है. मगर नहीं… एक पण्डा मिला जिसने कहा कि यहां ऊपर जो धारा बहती है यहां बेहतर अस्थि विसर्जन होता है. नरेन मौसा ने हामी भर दी. 
मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था… मृत्यु सीधी और सरल क्यों नहीं हो सकती? क्यों कुछ लोग मृत्यु में भी ऑनर्स और पीएच. डी. कर लेते हैं. क्यों हम मरने के बाद उनके द्वारा लूटे जाने पर भी उफ़ नहीं करते? क्यों हर मज़हब का इन्सान मौत के सामने इतना बेचारा हो जाता है? क्यों हम मृतक की आत्मा की शान्ति के लिये बेवक़ूफ़ियों पर बेवक़ूफ़ियां करते चले जाते हैं? हम तो महानगरों में रहने के कारण पूरी तरह से धार्मिक नहीं रहे… मगर जो छोटे शहरों, कस्बों या गांव में रहते हैं… उनका शोषण ये धर्म के ठेकेदार किस तरह करते होंगे. 
कर्मकाण्डो की यह दुनिया बड़ी विचित्र है . तेजेंद्र शर्मा कितनी सरलता से वह सब कह देते हैं , जिसके बारे में सोचते हुए भी सारे बदन में झुरझुरी आ जाती है . 
चारों तरफ़ से घिरा एक स्थान है जहां एक गाय बंधी खड़ी है, एक चारपाई है, एक बिस्तर बंधा हुआ है, एक लालटेन, एक छाता, एक टाइम पीस, एक जोड़ी मर्दाना कपड़े और एक जोड़ी ज़नाना कपड़े, एक मर्दानी चप्पल और एक ज़नाना चप्पल. वहां पास एक और खटिया पर एक पण्डा सुस्ता रहा था. मैं अनायास पूछ बैठा, -ये सब क्या है?
नरेन मौसा से पहले ही पण्डा स्वयं बोल पड़ा, -देखो बेटा हम यहां क्रियाकर्म करते हैं. मरने वाले की आत्मा की शान्ति के लिये हम वे सब चीज़ें यहां रखते हैं जिनकी उसे अगली ज़िन्दगी में ज़रूरत होगी. तुम यहां मृतक के नाम से जो जो चीज़ें दान कर जाओगे, वे सब उसे स्वर्ग में मुहैय्या हो जाएंगी. यहां पांच सौ से ले कर पांच हज़ार तक के क्रियाकर्म की सुविधा मौजूद है. 
मेरी आंखों में अनिश्चितता देख कर पण्डा स्वयं ही बोल पड़ा, -इसमें परेशान होने की तो कोई बात ही नहीं ना. देखिये, अगर आपका बजट पांच सौ रुपये का है तो बस आप खाट, बिस्तर और कपड़ों को हाथ लगा दीजिये. ये मृतक के नाम से दान हो जाएंगे. जैसे जैसे आप नग बढ़ाते जाएंगे, वैसे वैसे दाम बढ़ते जाएंगे. पांच हज़ार में गौदान का लाभ भी मिल जाएगा. 
मृत्यु दर्ज करवाने का दृश्य तो और भी अधिक बौराने वाला है . –
उस बहीखाते में मैंने अपने हाथों से अपने बाऊजी की मृत्यु के बारे में विवरण लिखा. ऐसा लगा जैसे बाऊजी की मृत्यु अब हुई है, इसी पल. कमरे की सीलन… बहीखातों की महक… और फ़ाउण्टेन पेन से की गई एन्ट्री… आंखों में जमे हुए आंसू… एक बार छत की तरफ़ देखा… कम से कम बीस फ़ुट ऊंची तो होगी ही… ऊपर तक बहीखाते ही बहीखाते… चारों तरफ़ से दीवारें तो दिखाई ही नहीं दे रही थीं… ट्यूब-लाइट जल रही थी… कमरा उजला था… बस लाल लाल बहीखाते… क्या कभी ये सभी नाम एक दूसरे से बातचीत करते होंगे… ये तो सभी एक ही बिरादरी, भाषा और क्षेत्र के लोग हैं… क्या उस कमरे में सरायकी भाषा सुनाई देती होगी… ये मृतक आपस में क्या बातें करते होंगे… इतनी शांति मुझे अस्थि विसर्जन करते समय नहीं मिली थी जितनी कि शकुन्तला पाठक की हवेली में मृत्यु दर्ज करवाते समय मिली. praaspraapraprp
(इस कहानी को मैंने कई दफा पढ़ा. दिल भर आया . अभी कुछ दिन पहले ही मैंने अपनी माँ को सदा के लिए खोया है . पिता भी कुछ वर्ष पहले चल बसे . माँ और पिता के अस्थि विसर्जन का एक दृश्य अभी आँखों में ही बसा है और दूसरा तेजेंद्र शर्मा की कहानी में देखता हूँ . संवेदना के स्तर पर यह कहानी बहुत बड़ी कहानी है .) 
इस कहानी का उत्तरार्द्ध और भी ख़ास है .नरेन् मौसा के तीस वर्षीय बेटे की अस्थि विसर्जन का समय है यह . आज गंगा उल्टी बहने वाली है… आज पुत्र अपने पिता की मृत्यु बहीखाते में नहीं भरेगा… आज पिता अपने पुत्र का नाम लिख कर हस्ताक्षर करेगा… ठीक उसी पन्ने में नीचे जहां उसने अपने पिता की मृत्यु का विवरण भरा था. 
इन दो कहानियों से तेजेंद्र शर्मा के कहानी के सभी पक्षों को यक़ीनन ठीक तरह से नहीं समझा जा सकता . लेकिन यह लेखक बिलकुल बेनकाब है . बेनकाब क्या, नकाब तो कभी थी ही नहीं . सब कुछ पारदर्शी .वे एक बड़े लेखक हैं. 
ख्यातिनाम व्यंग्यकार गिरीश पंकज जी ने तेजेंद्र शर्मा के बारे में कहीं लिखा है कि उन्हें अपने बड़े होने का अहसास ही नहीं. लेखक अगर अच्‍छा इंसान न बन सके, तो उसका लेखन बेमानी है. तेजेंद्र शर्मा के लेखन में गहरी करुणा है. उनकी तमाम कहानियाँ मनुष्‍य की प्रवृत्तियों की गहरी पड़ताल करते हैं और पाठक को सोचने पर विवश कर देते हैं. विदेश में रह रहे भारतवंशियों की समस्‍याओं को लेकर या फिर यहाँ से विदेश जाने की ललक रखने वाले रिश्‍तेदारों के स्‍वार्थों की कहानियाँ भी तेजेंद्र ने खूब लिखी हैं. महानगरीय त्रासदियों पर भी उनकी अनेक कहानियाँ हैं. अब तो उनकी कहानियाँ अनेक भाषाओं में भी अनूदित होने लगी हैं. लेकिन तेजेंद्र शर्मा सभी प्रभावों से परे हैं . उनकी कहानियां निजी विचार-विचारधारा तथा प्रवृत्ति को थोपती नहीं है . 
उन्हीं की तरह बड़ी कहानीकार ज़किया ज़ुबैरी जी लिखती हैं -तेजेंद्र शर्मा की लेखन प्रक्रिया एक मामले में अनूठी है. वह अपने आसपास होने वाली घटनाओं को देखते हैं, महसूस करते हैं, और अपने मस्तिष्क में मथने देते हैं. जबतक कि घटना कहानी का रूप नहीं ग्रहण कर लेती. तेजेन्द्र जितने अच्छे कहानीकार हैं उतने ही अच्छे इन्सान भी हैं और बेहद अच्छे दोस्त भी. तेजेंद्र शर्मा एक ख़ुदा-तरस इन्सान है जो कि ज़मीनी हक़ीकत से जुड़ा हुआ है. दूसरों को हंसाने वाला, ख़ुश रखने वाला यह इन्सान, हज़ारों दुख अपने सीने में छिपाए दिन रात इसी कोशिश में रहता है कि कैसे किसी का भला कर दिया जाए. यह संवेदनशील व्यक्ति केवल कहानीकार ही नहीं, कवि भी है और मानव मन की दुखती रगों को पकड़ता है. तेजेंद्र की कहानियां और कविताएं उसके साहित्यिक जीवन का दर्पण हैं.
कैसर तमकीन ने तेजेंद्र शर्मा के उर्दू कहानीपुट पर लिखा है – शर्मा साहिब की कहानियों का मजमुआ (संकलन) ‘ईटों का जंगल’ इस तार्रुफ़ के साथ हमारे हाथ में आता है कि यह हिंदी से उर्दू में तरजुमा (अनुवाद) है। बात ज़रा चौंका देने वाली लगती है क्योंकि हिन्दी से उर्दू या उर्दू से हिंदी तरजुमें के कोई ख़ास मायने नहीं हैं. यह तो सिर्फ़ रसमुल ख़त (लिपि) बदलने की बात होती है. दूसरी बात यह भी है कि तेजेन्द्र शर्मा की कहानियों को तो हिंदी या उर्दू की कहानी कह पाना मुश्किल है. वह इतनी आसान ज़बान लिखते हैं कि हिंदी और उर्दू पढ़ने वाले सभी लोग आसानी से समझ जाते हैं. प्रेमचन्द की तरह शर्मा साहिब की कहानियां भी उस ज़बान में हैं जो उत्तरी हिन्दुस्तान में एक कोने से दूसरे कोने तक बोली और समझी जाती है. थोड़े बहुत फ़र्क के साथ यह उन तमाम जगहों पर आम बोली की तरह इस्तेमाल होती है जहां एशियाई लोग रहते हैं . इस किताब में शर्मा साहिब की कहानियों को तरजुमा कहना अच्छा नहीं लगता. यहां तो सिर्फ़ लिपि बदली गई है. कहानी की देवी एक ही है. पहले यह सिर्फ़ साड़ी पहने हुए थी और अब यह शलवार कमीज़ पहन कर आई है – पर शलवार कमीज़ भी तो पूरे भारत का लिबास है. 
तेजेंद्र शर्मा की लोकप्रियता का यह आलम है कि बड़े – बड़े लेखक भी उनके लेखन की अवहेलना नहीं कर पाते . बहुमुखी प्रतिभा के धनी तेजेंद्र शर्मा की रचनाओं पर विस्तार से शोध किया जाना प्रतीक्षित है . प्रवासी परिधि में स्वदेशी चकाचौंध करते तेजेंद्र शर्मा हिंदी साहित्य के लिए भी एक ज़रूरी लेखक बन गए हैं . 
डॉ राजेश श्रीवास्तव 
विभागाध्यक्ष –हिंदी , शासकीय महाविद्यालय बुदनी (म०प्र०)
बी-१६ ,लेकपर्ल रेजिडेंसी , ई-८ ,अरेरा कालोनी, भोपाल(म०प्र०),भारत 
मो-9827303165 , urvashiurvashibhopal@gmail.com 
सम्पादक – उर्वशी, शोध, साहित्य एवं संस्कृति की अन्तरराष्ट्रीय त्रैमासिकी

सबसे ज़्यादा बदनाम साहित्यकार: – वीणा भाटिया

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Saadat Hasan Manto Story Writer Featured New

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सबसे ज़्यादा बदनाम साहित्यकार

– वीणा भाटिया

बदनाम लेखक मंटो पर उनके जीवन काल में ही कई किताबें लिखी गईं। मुहम्मद असदुल्लाह की किताब ‘मंटो-मेरा दोस्त’ और उपेन्द्रनाथ अश्क की ‘मंटो-मेरा दुश्मन’। मशहूर आलोचक मुहम्मद हसन अस्करी ने लिखा है, “मंटो की दृष्टि में कोई भी मनुष्य मूल्यहीन नहीं था। वह हर मनुष्य से इस आशा के साथ मिलता था कि उसके अस्तित्व में अवश्य कोई-न-कोई अर्थ छिपा होगा जो एक-न-एक दिन प्रकट हो जाएगा। मैंने उसे ऐसे अजीब आदमियों के साथ हफ़्तों घूमते देखा है कि हैरत होती थी। मंटो उन्हें बर्दाश्त कैसे करता है! लेकिन मंटो बोर होना जानता ही न था। उसके लिए तो हर मनुष्य जीवन और मानव-प्रकृति का एक मूर्त रूप था, सो हर व्यक्ति दिलचस्प था। अच्छे और बुरे, बुद्धिमान और मूर्ख, सभ्य और असभ्य का प्रश्न मंटो के यहां ज़रा भी न था। उसमें तो इंसानों को कुबूल करने की क्षमता इतनी अजीब थी कि जैसा आदमी उसके साथ हो, वह वैसा ही बन जाता था।”
इस विवरण से समझा जा सकता है कि मंटो कैसे उन किरदारों को अपने अफ़सानों में केंद्रीय भूमिका लाने में कामयाब हो पाए जो ज़िंदगी के सियाह हाशिये में गर्क थे। मंटो के किरदार तलछट में रहने वाले हैं, गटर में। बदबू, और सड़ांध मारते माहौल में रहने वाले लोग जिनका चरित्र बाहर से पूर्णत: घृणित दिखाई पड़ता है, पर जब हम उस किरदार के भीतर जाते हैं तो महसूस करते हैं कि वे पतित नहीं हैं, बल्कि मानवीय बोध और संवेदना से लबरेज हैं। कुल मिला कर कहा जा सकता है कि मंटो मनुष्य को मनुष्य के रूप में देखते हैं, इस दृष्टि से वह महान मानवतावादी लेखक हैं। मंटो की रचनाओं के पढ़ने के बाद यह कहना कि वह प्रकृत यथार्थ का चित्रण करते हैं, सही नहीं होगा। वैसे, मंटो पर फ्रांसीसी प्रकृत यथार्थवादियों का प्रभाव है। पर मंटो में गहरी राजनीतिक अंतर्दृष्टि भी है। उनकी कई कहानियों में राष्ट्रीय आंदोलन के ऐसे जीवंत चित्रण हैं, जो आंदोलन की प्रकृति को निर्धारित करते हैं। मंटो की कई कहानियां विभाजन की त्रासदी पर हैं और उनमें स्पष्ट पॉलिटिकल टोन है। इस दृष्टि से मंटो अपने समय से काफी आगे नज़र आते हैं। 
मंटो के समग्र साहित्य का संकलन करने और उनकी कई गुमशुदा रचनाओं को ढूंढ निकालने वाले ने ‘सआदत हसन मंटो, दस्तावेज़-1’ में लिखा है, “इस सृष्टि में अंधेरे और उजाले की लड़ाई कितने युगों से जारी है। मंटो ने इस लड़ाई का दृश्य उन आदमियों के कुरुक्षेत्र में भी देखा जो अंधेरों के वासी थे। हमारे परंपराबद्ध और नैतिक मूल्यों के टिमटिमाते दीये, जिन्होंने अंधे क़ानूनों को जन्म दिया था, उस अंधेरी दुनिया तक उन दीयों की रोशनी पहुंचने में असमर्थ थी। शायद इसीलिए मंटो उर्दू भाषा का सबसे ज़्यादा बदनाम साहित्यकार है, जिसे सबसे ज़्यादा ग़लत समझा गया। क़ानून अंधे थे, मगर वे आंखें जिनसे फ़िरंगी हुकूमत या ख़ुदा की बस्ती के तथाकथित बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, नैतिक उत्तरदायित्व की झूठी और पाखंडपूर्ण धारणा का झंडा ऊंचा करने वाले कथा साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादकों के चेहरे सजे हुए थे, क्या वे आंखें भी अंधी थीं? और वे साहित्य समालोचक, नैतिकता के वे प्रचारक जिन्होंने साहित्य को अपने विद्वेषों के प्रकाशन का एक आसानी से उपलब्ध माध्यम समझ रखा था, और जो लकड़ी की तलवारों से मंटो का सर क़लम करने की धुन में मगन रहे, आखिर वे क्या देख रहे थे? यह सवाल हमारा नहीं, और न ही नवयुग के सांस्कृतिक मूल्यों का है। यह सवाल मंटो की प्रताड़ित कहानियों, उन कहानियों के चरित्रों -‘काली शलवार’ की सुलताना और ख़ुदाबख्श और शंकर और मुख़्तार, ‘धुआं’ के मसऊद और कुलसूम, ‘बू’ के रणधीर और बेनाम घाटन लड़की, ‘ठंडा गोश्त’ के ईशर सिंह और कुलवंत कौर, ‘खोल दो’ की सकीना और सिराजुद्दीन और ‘ऊपर, नीचे और दरम्यान’ के मियां साहिब, बेगम साहिबा, मिस सिलढाना, डाक्टर जलाल, नौकर और नौकरानी – इन सबका है। और इस सवाल का रुख उन अदालतों या इंसाफ़ की कुर्सी पर बैठे हुए उन इंसानों की तरफ़ नहीं, जिन्होंने मंटो को मुजरिमों के कटघरे मे खड़ा किया, बल्कि उन सामाजिक विद्वेषों की तरफ़ है जो सच के अस्तित्व से इनकार करने के आदी थे। यह सच मंटो की अपनी कल्पना की उपज न था। यह सच हमारे सामाजिक ढांचे की देन था। मंटो ने सिर्फ़ यह किया कि इस सच पर चढ़े हुए गिलाफ़ अपने क़लम की नोक से चाक कर दिए…”
इस ‘दस्तावेज़’ का पहला खंड समर्पित किया गया ‘मोपासां के नाम सौ बरस पहले जिसके बस जिस्म को मौत आई थी।’
मोपासां भी दुनिया के बदनाम लेखकों में शुमार हैं।
मंटो ने खुद और अपने अफ़सानों के बारे में लिखा है, “ज़माने के जिस दौर से इस वक्त हम गुज़र रहे हैं, अगर आप उससे नावाकिफ़ हैं तो मेरे अफ़साने पढ़िए। अगर आप इन अफ़सानों को बर्दाश्त नहीं कर सकते तो इसका मतलब यह है कि यह ज़माना नाक़ाबिले-बर्दाश्त है। मुझमें जो बुराइयां हैं, वो इस अहद की बुराइयां हैं। मेरी तहरीर में कोई नुक्स नहीं। जिस नुक्स को मेरे नाम से मंसूब किया जाता है, दरअस्ल मौजूदा निज़ाम का नुक़्स है-मैं हंगामापंसद नहीं। मैं लोगों के ख़्यालातो-जज़्बात में हेजान पैदा करना नहीं चाहता। मैं तहजीबो-तमद्दुन की और सोसाइटी की चोली क्या उतारूंगा, जो है ही नंगी। मैं उसे कपड़े पहनाने की कोशिश भी नहीं करता, इसलिए कि यह मेरा काम नहीं…लोग मुझे सियाह क़लम कहते हैं, लेकिन मैं तख़्ता-ए-सियाह पर काली चाक से नहीं लिखता, सफ़ेद चाक इस्तेमाल करता हूं कि तख़्ता-ए-सियाह की सियाही और ज़्यादा नुमायां हो जाए। यह मेरा खास अंदाज़, मेरा खास तर्ज़ है जिसे फ़हशनिगारी, तरक्कीपसंदी और ख़ुदा मालूम क्या-क्या कुछ कहा जाता है-लानत हो सआदत हसन मंटो पर, कमब़ख्त को गाली भी सलीक़े से नहीं दी जाती…”
अब इससे ज़्यादा एक लेखक और साफ़-साफ़ कह भी क्या सकता है! सौ बरस से ज़्यादा बीत गए जब मंटो साहब इस दुनिया में तशरीफ़ लाए थे। मक़बूल इंसान थे, बहुत जल्द ही ख़ुदा के प्यारे हो गए। महज़ 42 की उम्र में इस दुनिया को अलविदा कह दिया। एक छोटी-सी ज़िंदगी…और इस दरम्यान अदीबों की महफ़िलों से लेकर अदालतों के कठघरे और पागलखाने तक में नमूदार हुए। ज़िंदगी भुगतनी पड़ती है मानो जेल हो, पर मंटो ने ज़िंदगी को भोगा, देखा तहों के भीतर तक जाकर और दिखाने की पुरज़ोर कोशिश भी की…वो कड़वी सच्चाइयां जिन्हें देखकर भी हम देखना नहीं चाहते, मुंह फेर लेते हैं, पर ज़िंदगी की कड़वाहट तो खत्म नहीं होती। अपने-अपने जलवागाह हैं। मंटो कहते हैं ज़रा बाहर तो आइए जलवागाहों से, देखिए हक़ीक़त। जहां वो रोशनी डालते हैं, आंखों में चुभती है, तो क्या बंद कर लें आंखें या आंखों को फोड़ लें या फिर क्या करें?
यह दुनिया रोज़ बनती है। जैसे रोटी। दुनिया बनती रहेगी, बदलती रहेगी। सियाही बढ़ेगी या कम होगी, कह पाना मुश्किल है। पर ज़िंदगी के लिए, एक मुकम्मल ज़िंदगी के लिए जंग शायद खत्म न हो, क्योंकि समय का पहिया थमता और रुकता नहीं। मंटो का साहित्य समय से मुठभेड़ के दौरान आयद हुआ। ‘समय से मुठभेड़’ के क्रम में ही शायर अदम गोंडवी ने अपनी एक ग़ज़ल मरहूम मंटो को नज़र की है ‘जिसके अफ़साने में ठंडे गोश्त की रूदाद है।’ 
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