Saadat Hasan Manto Story Writer Featured New

Vertical Scroll: नव लेखन

सबसे ज़्यादा बदनाम साहित्यकार

– वीणा भाटिया

बदनाम लेखक मंटो पर उनके जीवन काल में ही कई किताबें लिखी गईं। मुहम्मद असदुल्लाह की किताब ‘मंटो-मेरा दोस्त’ और उपेन्द्रनाथ अश्क की ‘मंटो-मेरा दुश्मन’। मशहूर आलोचक मुहम्मद हसन अस्करी ने लिखा है, “मंटो की दृष्टि में कोई भी मनुष्य मूल्यहीन नहीं था। वह हर मनुष्य से इस आशा के साथ मिलता था कि उसके अस्तित्व में अवश्य कोई-न-कोई अर्थ छिपा होगा जो एक-न-एक दिन प्रकट हो जाएगा। मैंने उसे ऐसे अजीब आदमियों के साथ हफ़्तों घूमते देखा है कि हैरत होती थी। मंटो उन्हें बर्दाश्त कैसे करता है! लेकिन मंटो बोर होना जानता ही न था। उसके लिए तो हर मनुष्य जीवन और मानव-प्रकृति का एक मूर्त रूप था, सो हर व्यक्ति दिलचस्प था। अच्छे और बुरे, बुद्धिमान और मूर्ख, सभ्य और असभ्य का प्रश्न मंटो के यहां ज़रा भी न था। उसमें तो इंसानों को कुबूल करने की क्षमता इतनी अजीब थी कि जैसा आदमी उसके साथ हो, वह वैसा ही बन जाता था।”
इस विवरण से समझा जा सकता है कि मंटो कैसे उन किरदारों को अपने अफ़सानों में केंद्रीय भूमिका लाने में कामयाब हो पाए जो ज़िंदगी के सियाह हाशिये में गर्क थे। मंटो के किरदार तलछट में रहने वाले हैं, गटर में। बदबू, और सड़ांध मारते माहौल में रहने वाले लोग जिनका चरित्र बाहर से पूर्णत: घृणित दिखाई पड़ता है, पर जब हम उस किरदार के भीतर जाते हैं तो महसूस करते हैं कि वे पतित नहीं हैं, बल्कि मानवीय बोध और संवेदना से लबरेज हैं। कुल मिला कर कहा जा सकता है कि मंटो मनुष्य को मनुष्य के रूप में देखते हैं, इस दृष्टि से वह महान मानवतावादी लेखक हैं। मंटो की रचनाओं के पढ़ने के बाद यह कहना कि वह प्रकृत यथार्थ का चित्रण करते हैं, सही नहीं होगा। वैसे, मंटो पर फ्रांसीसी प्रकृत यथार्थवादियों का प्रभाव है। पर मंटो में गहरी राजनीतिक अंतर्दृष्टि भी है। उनकी कई कहानियों में राष्ट्रीय आंदोलन के ऐसे जीवंत चित्रण हैं, जो आंदोलन की प्रकृति को निर्धारित करते हैं। मंटो की कई कहानियां विभाजन की त्रासदी पर हैं और उनमें स्पष्ट पॉलिटिकल टोन है। इस दृष्टि से मंटो अपने समय से काफी आगे नज़र आते हैं। 
मंटो के समग्र साहित्य का संकलन करने और उनकी कई गुमशुदा रचनाओं को ढूंढ निकालने वाले ने ‘सआदत हसन मंटो, दस्तावेज़-1’ में लिखा है, “इस सृष्टि में अंधेरे और उजाले की लड़ाई कितने युगों से जारी है। मंटो ने इस लड़ाई का दृश्य उन आदमियों के कुरुक्षेत्र में भी देखा जो अंधेरों के वासी थे। हमारे परंपराबद्ध और नैतिक मूल्यों के टिमटिमाते दीये, जिन्होंने अंधे क़ानूनों को जन्म दिया था, उस अंधेरी दुनिया तक उन दीयों की रोशनी पहुंचने में असमर्थ थी। शायद इसीलिए मंटो उर्दू भाषा का सबसे ज़्यादा बदनाम साहित्यकार है, जिसे सबसे ज़्यादा ग़लत समझा गया। क़ानून अंधे थे, मगर वे आंखें जिनसे फ़िरंगी हुकूमत या ख़ुदा की बस्ती के तथाकथित बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, नैतिक उत्तरदायित्व की झूठी और पाखंडपूर्ण धारणा का झंडा ऊंचा करने वाले कथा साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादकों के चेहरे सजे हुए थे, क्या वे आंखें भी अंधी थीं? और वे साहित्य समालोचक, नैतिकता के वे प्रचारक जिन्होंने साहित्य को अपने विद्वेषों के प्रकाशन का एक आसानी से उपलब्ध माध्यम समझ रखा था, और जो लकड़ी की तलवारों से मंटो का सर क़लम करने की धुन में मगन रहे, आखिर वे क्या देख रहे थे? यह सवाल हमारा नहीं, और न ही नवयुग के सांस्कृतिक मूल्यों का है। यह सवाल मंटो की प्रताड़ित कहानियों, उन कहानियों के चरित्रों -‘काली शलवार’ की सुलताना और ख़ुदाबख्श और शंकर और मुख़्तार, ‘धुआं’ के मसऊद और कुलसूम, ‘बू’ के रणधीर और बेनाम घाटन लड़की, ‘ठंडा गोश्त’ के ईशर सिंह और कुलवंत कौर, ‘खोल दो’ की सकीना और सिराजुद्दीन और ‘ऊपर, नीचे और दरम्यान’ के मियां साहिब, बेगम साहिबा, मिस सिलढाना, डाक्टर जलाल, नौकर और नौकरानी – इन सबका है। और इस सवाल का रुख उन अदालतों या इंसाफ़ की कुर्सी पर बैठे हुए उन इंसानों की तरफ़ नहीं, जिन्होंने मंटो को मुजरिमों के कटघरे मे खड़ा किया, बल्कि उन सामाजिक विद्वेषों की तरफ़ है जो सच के अस्तित्व से इनकार करने के आदी थे। यह सच मंटो की अपनी कल्पना की उपज न था। यह सच हमारे सामाजिक ढांचे की देन था। मंटो ने सिर्फ़ यह किया कि इस सच पर चढ़े हुए गिलाफ़ अपने क़लम की नोक से चाक कर दिए…”
इस ‘दस्तावेज़’ का पहला खंड समर्पित किया गया ‘मोपासां के नाम सौ बरस पहले जिसके बस जिस्म को मौत आई थी।’
मोपासां भी दुनिया के बदनाम लेखकों में शुमार हैं।
मंटो ने खुद और अपने अफ़सानों के बारे में लिखा है, “ज़माने के जिस दौर से इस वक्त हम गुज़र रहे हैं, अगर आप उससे नावाकिफ़ हैं तो मेरे अफ़साने पढ़िए। अगर आप इन अफ़सानों को बर्दाश्त नहीं कर सकते तो इसका मतलब यह है कि यह ज़माना नाक़ाबिले-बर्दाश्त है। मुझमें जो बुराइयां हैं, वो इस अहद की बुराइयां हैं। मेरी तहरीर में कोई नुक्स नहीं। जिस नुक्स को मेरे नाम से मंसूब किया जाता है, दरअस्ल मौजूदा निज़ाम का नुक़्स है-मैं हंगामापंसद नहीं। मैं लोगों के ख़्यालातो-जज़्बात में हेजान पैदा करना नहीं चाहता। मैं तहजीबो-तमद्दुन की और सोसाइटी की चोली क्या उतारूंगा, जो है ही नंगी। मैं उसे कपड़े पहनाने की कोशिश भी नहीं करता, इसलिए कि यह मेरा काम नहीं…लोग मुझे सियाह क़लम कहते हैं, लेकिन मैं तख़्ता-ए-सियाह पर काली चाक से नहीं लिखता, सफ़ेद चाक इस्तेमाल करता हूं कि तख़्ता-ए-सियाह की सियाही और ज़्यादा नुमायां हो जाए। यह मेरा खास अंदाज़, मेरा खास तर्ज़ है जिसे फ़हशनिगारी, तरक्कीपसंदी और ख़ुदा मालूम क्या-क्या कुछ कहा जाता है-लानत हो सआदत हसन मंटो पर, कमब़ख्त को गाली भी सलीक़े से नहीं दी जाती…”
अब इससे ज़्यादा एक लेखक और साफ़-साफ़ कह भी क्या सकता है! सौ बरस से ज़्यादा बीत गए जब मंटो साहब इस दुनिया में तशरीफ़ लाए थे। मक़बूल इंसान थे, बहुत जल्द ही ख़ुदा के प्यारे हो गए। महज़ 42 की उम्र में इस दुनिया को अलविदा कह दिया। एक छोटी-सी ज़िंदगी…और इस दरम्यान अदीबों की महफ़िलों से लेकर अदालतों के कठघरे और पागलखाने तक में नमूदार हुए। ज़िंदगी भुगतनी पड़ती है मानो जेल हो, पर मंटो ने ज़िंदगी को भोगा, देखा तहों के भीतर तक जाकर और दिखाने की पुरज़ोर कोशिश भी की…वो कड़वी सच्चाइयां जिन्हें देखकर भी हम देखना नहीं चाहते, मुंह फेर लेते हैं, पर ज़िंदगी की कड़वाहट तो खत्म नहीं होती। अपने-अपने जलवागाह हैं। मंटो कहते हैं ज़रा बाहर तो आइए जलवागाहों से, देखिए हक़ीक़त। जहां वो रोशनी डालते हैं, आंखों में चुभती है, तो क्या बंद कर लें आंखें या आंखों को फोड़ लें या फिर क्या करें?
यह दुनिया रोज़ बनती है। जैसे रोटी। दुनिया बनती रहेगी, बदलती रहेगी। सियाही बढ़ेगी या कम होगी, कह पाना मुश्किल है। पर ज़िंदगी के लिए, एक मुकम्मल ज़िंदगी के लिए जंग शायद खत्म न हो, क्योंकि समय का पहिया थमता और रुकता नहीं। मंटो का साहित्य समय से मुठभेड़ के दौरान आयद हुआ। ‘समय से मुठभेड़’ के क्रम में ही शायर अदम गोंडवी ने अपनी एक ग़ज़ल मरहूम मंटो को नज़र की है ‘जिसके अफ़साने में ठंडे गोश्त की रूदाद है।’ 
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