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अर्जित पाण्डेय की कविताएँ

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1.हिन्दी माँ
आधुनिकता के गलियारों में
तरक्की की सीढी के नीचे
बदहवास बैठी हिन्दी माँ
आँखों से छलकता दर्द
चेहरे से विस्मय ,अवसाद
तरक्की की सीढियों पर चढ़ते
उसके बेटे
उसे साथ ले जाना भूल गये है
एकांत बैठी हिंदी माँ सिसकती
अपनी दशा पर हँस
किस्मत को कोस रही है
वक्त के बिसात पर
मोहरा बनी हिन्दी माँ |
हिन्दी माँ जिसने हमे बोली दी
रस दिए ,भाव दिए
कविता बनी श्रृंगार की
जब हम प्रेमी बने
कविता बनी करुणा की
जब रिश्ते हमारे टूटे
हास्य रस का पान करा
हँसना हमे सिखाया
वीभत्स रस से परिचय करवा
गले हमे लगाया|
माँ को भूले बेटे
किसी और माँ की आंचल में
जाकर सो रहे है
और हमारी हिन्दी माँ
बेजान बुत सी
चीख रही ,पुकार रही
कह रही
लौट आओ मेरे बच्चो मेरे पास
ले चलो मुझे भी अपने साथ

2.दुर्बल पुरुष 

हे पुरुष ,तोड़ दो
संसार के नियम की 
अनंत जंजीर को
जो रोकती है तुम्हे
अपने दर्द को
आँखों से बयाँ करने पर ,
पुरुष प्रधान समाज की
सत्ता के शिखर पर
कठोर बना कर
तुन्हें बैठा दिया जाता है
दुर्बल तुम भी होते है
इन नियमो ने तुम्हे
कसकर जकड रखा है
तुम अपने दर्द
सरेआम बयाँ नही कर पाते
सिसकते हो रोते हो
चार दीवारों के अन्दर
गम को सीने में दफ़न किये
बैचैनी की ज्वाला में तडपते
तन्हाई के साथ राख बनकर
बिखरते हो
तुम्हारे गर्व का सिंघासन
भावना के झोको से
हिल रहा है
इस गद्दी का त्याग कर
उतार फेको पुरुषार्थ का
दमघोटू चोला
सरेआम कहो
हा मै कमजोर हूँ
दर्द मुझे भी होता है


अर्जित पाण्डेय
आईआईटी दिल्ली
एमटेक
पता-sd 17
विंध्याचल हॉस्टल
आई आई टी दिल्ली
7408918861

हिंदी में जाने कैसे मोबाईल एप से बैंक में पैसे ट्रांसफर कर सकते हैं (हिंदी में एसआरके टेक्नीकल द्वारा जानकारी)

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कैसे करें मोबाईल एप से बैंक में पैसे ट्रांसफर 

आज शशि रंजन कुमार द्वारा आप जान सकते हैं कि कैसे मोबाईल एप से आप बैंक में पैसे ट्रांसफर किये जा सकते हैं. विश्वहिंदीजन पर आप हिंदी में सभी तकनीकी जानकारी प्राप्त करना चाहते हैं तो इनके चैनल को अवश्य सस्ब्क्रायिब करें-

अब एसआरके टेक्नीकल के द्वारा विश्वहिंदीजन पर हिंदी में तकनीकी संबंधी सभी जानकारी उपलब्ध

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हिंदी में तकनीकी जानकारी 

इस चैनल को बनाने के पीछे जो उद्देश्य है वो यह है कि कंप्यूटर की नई-नई तकनीक और सॉफ्टवेयर, मोबाइल से संबंधित सभी तकनीकी जानकारियॉ, हिंदी भाषा में उपलब्ध करायी जाएँ क्योंकि जो लोग अभी तक टेक्नोलॉजी के प्रयोग व जानकारियों से अनजान थे, उन सभी दोस्तों को बेहद आसान और सरल भाषा शैली में जानकारी प्राप्त हो सकेगी. शशि रंजन कुमार द्वारा संचालित इस यूट्यूब चैनल को अब आधिकारिक तौर पर विश्वहिंदीजन पर जोड़ा गया है ताकि हम तकनीकी जगत की जानकारी हिंदी भाषा में आप तक पहुंचा सके. 
यह सभी जानकारी आपको समय-समय पर मिलती रहे इसके लिए चैनल को सब्सक्राईब अवश्य करें.
इस कड़ी में आज पहला वीडियो- कैसे वर्ड फाईल को पीडीऍफ़ में बदलें 


हरकीरत हीर की कविताएँ

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अभी ख़ौफज़दा हैं ज़ख़्म
………….

मैंने ….
कह दिया है ख़ामोशी से
कुछ दिन और रहे
संग मेरे ….

कि आग में जलकर
मिट गये थे जो शब्द
वहाँ जन्मी नहीं है अभी कविता
उतरती पपड़ियों को अभी तक
नहीं भूला है
जलन का अहसास
अभी ख़ौफज़दा हैं ज़ख़्म ….

कि अभी ठहरे है रंग
झील की गहरी तलहटी में
गुम गये हैं ख़्याल किसी बीहड़ बियाबान में
बिख़रे बिखरे से हैं अक्स
आइना भी फेर लेता है नज़र
इक शोर नृत्य में हैं
आठों पहर ….

कि अभी
अँधेरे के पैर डराते हैं मुझे
झड़ती हैं आवाज़े दीवारों से
रात स्याह लिबास में
खींच लेती है शब्दों की ज़ुबाँ
इक पीड़ा रह रह साँस भरती है
कि अभी एक गंध बाकी है
लकीरों में …..

मैंने
कह दिया है ख़ामोशी से
कुछ दिन और रहे संग मेरे ….

……………………………

निशान
….

कई बार चाहा
ख़ामोशी की छाती पर
उगा दूँ कुछ अक्षर मुहब्बत के ..

चुप की रस्सियाँ खोल दूँ
टांक दूँ ख़्यालों में
फिर से इक मुहब्बत का गुलाब …

कंपकपाती रही अंगुलियाँ
अक्षरों की दहलीज़ पर
ज़ख़्म बगावत पर उतर आये
रूह पर पड़े खरोंचों के निशान
क़ब्र खोदने लगे
हवा मुकर गई मुस्कुराने से …

मैंने पलट कर
ख़ामोशी की ओर देखा
वह बनाने लगी थी पैरों से
रेत पर निशान …

…………………………

आग का रंग
….

ख़ामोशी की चादर ओढ़े
एकटक ..
निहारता है चाँद ..
झील की छाती में
अपनी ही झुलसी हुई
परछाई ….
..

मुहब्बत फेर लेती है नज़र
रात दर्द की झाँझर पहनेे
हौले हौले उतारती है
लिबास ……

ज़ख़्म खोल देते हैं खिड़कियाँ
साँस लेने लगती है नज़्म
रातभर चलता है पानी
आग पर नंगे पांव …

अक्षर रंग बदलते हैं
इक उदास रात का सफ़र
करते हैं शब्द ….

धीरे धीरे
करने लगती है मुहब्बत
रंगों का क़त्ल
और फैला देती है मुट्ठी भर
सामने फैले आसमां में
आग का रंग ……

………………………

रात लिखती है नज़्म
……………..
कोई सन्नाटा नहीं पूछता
जली लकीरों से कहानी
रह रहकर उठती टीस
रात की छाती पर लिखती है नज़्म
खामोश नज़रें टकरा कर लौट आती हैं
मुहब्बत की दीवारें से ….
दर्द हौले हौले सिसकता है
रात लिखती है नज़्म ..

सहसा देह से
इक फफोला फूटता है
कंपकँपता है जिस्म
कोरों पर कसमसाती हैं बूंदें
अँधेरा डराने लगता है
दर्द हौले हौले उतारता है लिबास
रात लिखती है नज़्म …..

धीरे धीरे ज़ख़्म
उतार देते हैं हाथों से पट्टियां
झुलसी लकीरों से ख़ामोशी करती है सवाल
दर्द अपनी करवट क्यों नहीं बदलता
लकीरें खामोश हैं
वक़्त ठठाकर हँसता है
रात लिखती है नज़्म ….

…………………


अस्पताल के कमरे से

…………
वक़्त की फड़फड़ाती आग से
निकलता इक धमाका
जला जाता है हाथों के अक्षर
सपनों की तहरीरें
होंठों पर इक नाम उभरता है
रात सिसकियाँ भरती है
रह रह कर नज़रें
मुहब्बत के दरवाजे खटखटाती हैं

डराने लगता है आइना
दर्द की बेइन्तहा कराहटे
सिहर जाता है मासूम मन
जलन की असहनीय पीड़ा
फफोलों से तिलमिलाता जिस्म
देह बेंधती सुइयाँ
सफेद पोशों की चीरफाड़
ठगे से रह जाते हैं शब्द
संज्ञाशून्य हुई आँखें
एकटक निहारती हैं खामोशियों के जंगल

वक़्त धीरे धीरे मुस्कुराता है
अभी और इम्तहां बाकी है …

…………………………

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कथाकार कुणाल सिंह की गद्य पुस्तक ‘ सिनेमा नया सिनेमा ‘

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कथाकार कुणाल सिंह की गद्य पुस्तक ‘ सिनेमा नया सिनेमा ‘

प्रकाशक: आधार प्रकाशक प्राइवेट लिमिटेड


बुद्ध की अनत्ता के सिद्धांत की चोरी और आत्मा का वेदांती भवन: संजय जोठे

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बुद्ध की अनत्ता के सिद्धांत की चोरी और आत्मा का वेदांती भवन

वेदान्त या किसी भी अन्य आस्तिक दर्शन के अंधभक्तों से बात करते हुए बड़ा मजा आता है. कहते हैं ध्यान एक अनुभव है, इन्द्रियातीत अनुभव है. इसकी चर्चा नहीं की जा सकती इसे अनिर्वचनीय और अगम्य अनकहा ही रहने दो. अभी कल से एक प्रौढ़ और सुशिक्षित बुजुर्ग सज्जन से चर्चा चल रही थी. अंत में वे अपने सारे कमेंट्स डिलीट करके विदा हो गये और कह गये कि मैं कहता आंखन देखि, तुम शब्दों को संभालते रहो. कितनी ऊँची लगती है न उनकी बात ? लेकिन कितनी षड्यंत्रपूर्ण और बचकानी है असल में इसे देखिये. पहली बात तो वे कहते हैं कि इन्द्रियातीत अनुभव की चर्चा हो ही नहीं सकती,
अब यहाँ गौर से देखिये अनुभव का मतलब ही इन्द्रियों से प्राप्त ज्ञान है, इन्द्रियातीत अनुभव नाम का वेदांती शब्द स्वयं वेदान्त की तरह असंभव शब्द है. वेदांत का अर्थ होता है ज्ञान का अंत – यह अर्थ है तो अनर्थ कि क्या परिभाषा हो सकती है? विज्ञान सिद्ध कर चुका है कि ज्ञान या इन्फोर्मेशन या अनुभव या समझ (इस अर्थ में इन्फोर्मेशन) का कोई नाश नहीं होता. वेदान्त का अर्थ ही वेद (ज्ञान) का अंत है, इस तरह ज्ञान को नष्ट करने वाले दर्शन के रूप में वेदान्त का पूरे भारत पर क्या असर हुआ है वह समझ में आता है. हजारों साल तक अज्ञानी अन्धविश्वासी और गुलाम भारत तभी संभव है जब ज्ञान का सच ही में अंत कर दिया गया हो.
तो, वे सज्जन कह गए कि इन्द्रियातीत अनुभव या ज्ञान की चर्चा असंभव है. यह रसगुला चखने जैसा है कोई व्याख्या नहीं हो सकती. कुछ हद तक ये ठीक है लेकिन रसगुल्ले और मिठास के अनुभव को आधार बनाकर बहुत ठोस तर्क और तर्कपूर्ण अनुमान से बहुत कुछ जाना जा सकता है. इसी पर कोमन सेन्स और विवेक सहित कल्पनाशीलता टिकी हुई है जो कि किसी भी तथाकथित अध्यात्मिक ज्ञान से कहीं अधिक महत्वपूर्ण होती है.
कोई भी आध्यात्मिक ज्ञान या अनुभव कामन सेन्स से बड़ा नहीं होता. हो ही नहीं सकता. कामन सेन्स ने ही वह विज्ञान तकनीक, सभ्यता, नैतिकता और सौन्दर्यबोध दिया है जिसने हमें इंसान बनाया है. अब इन इंसानों को गुलाम और अन्धविश्वासी बनाकर उलझाए रखने के लिए सबसे जरुरी काम क्या होगा?
निश्चित ही तब सबसे जरुरी काम होगा कि ज्ञान के आधार और उसकी संभावना पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया जाए. सभी आस्तिक दर्शन और खासकर हिन्दू वेदान्त यही करता है. आजकल के बाबाओं को ओशो रजनीश, जग्गी वासुदेव, श्री श्री या मोरारी बापू जी या आसाराम बापूजी को देखिये. वे इन्द्रियों से हासिल ज्ञान को नाकाफी बताते हुए किसी अदृश्य अश्रव्य और अगम्य को अत्यधिक महत्व देते हैं
और इस एक मास्टर स्ट्रोक से वे उस तथाकथित अध्यात्मिक ज्ञान, ध्यान, समाधी और निर्विचार सहित आनंद और अनुभव मात्र की व्याख्या का अधिकार अपने पास सुरक्षित रख लेते हैं. इस तरह ज्ञान अनुभव और इनपर खडी सभी संभावनाओं की चाबी वे अपने पास रख लेते हैं और न सिर्फ अपना रोजगार बल्कि इस देश की जड़ता को भी सदियों सदियों तक बनाये रखते हैं.
क्या आपको ताज्जुब नहीं होता कि भारत में षड्दर्शन के बाद सातवाँ दर्शन क्यों पैदा नहीं हुआ? क्या दिक्कत है? यूरोप में तो हर दार्शनिक अपना नया स्कूल आफ थॉट आरंभ कर सकता है लेकिन यहाँ अरबिंदो, विवेकानन्द, शिवानन्द, योगानन्द सहित ओशो जैसे बाजीगरों को भी इन छः डब्बों में से कोई एक डब्बा पकड़ना होता है वरना वे भारतीय ज्ञान और दर्शन की छोटी सी और उधार ट्रेन से बाहर निकाल दिए जायेंगे.
लेकिन यूरोप में यह ट्रेन बहुत लंबी है. जितना चाहे उतना डब्बे जोड़ते जाइए. इसी से वहां नये ज्ञान विज्ञान तकनीक और सौंदर्यशास्त्र जन्म लेते ही रहते हैं. भारत की पूरी कहानी चार वर्ण और छः दर्शनों पर खत्म हो जाती है. यहाँ हाथ के पंजों की दस उँगलियों के परे कोई गिनती जाती ही नहीं. दस पर बस आ जाता है.
यह अगम्य और अनुभवातीत क्या है? अगर यह है तो आप या मैं या कोई और इसकी चर्चा कैसे कर रहा है? अगर यह इतना ही दूर और अगम्य है तो इसकी चर्चा क्यों करते हैं? ये आत्मा परमात्मा और समाधि की रात दिन की बकवास क्यों पिलाई जाती है? फिर जब कोई इनके बारे में सच में ही जिज्ञासा करे तो घबराकर कहेंगे कि ये सब अगम्य अगोचर है. अरे भाई जब ये अगम्य अगोचर अनिर्वचनीय है तो उसकी रात दिन मार्केटिंग और बकवास करते ही क्यों हो?
और ध्यान रखियेगा उसकी मार्केटिंग इस तरह की जाती है जैसे अभी ये बाबाजी आपके हाथ में निकालकर रख देंगे “अभी और यहीं” की भाषा में बात करेंगे और हजारों जन्म की साधना की बात भी करेंगे, गुरु की महिमा, शरणागती और गुरु शिष्य परम्परा की बात भी करेंगे.. ये ओशो रजनीश का सबसे मजेदार खेल रहा है. अमन और अनात्मा की संभावना पर जो ध्यान का अनुभव खड़ा है उसे आत्मा की बकवास के साथ सिखाते हैं. जब व्यक्ति सनातन आत्मा की चर्चा सुनकर “मैं” को मजबूत बना लेता है तब कहते हैं कि मैं से मुक्त होना ही सच्ची मुक्ति है.
अब यहाँ खेल देखिये एक तरफ आत्मा की सनातनता का सिद्धांत देकर आत्मा (मैं, मेरे होने के भाव) को मजबूत कर रहे हैं. फिर साधना सिखा रहे हैं कि इस मैं को विलीन कर दो, ये वेदान्त की जलेबी है. दूसरी तरफ बुद्ध को देखिये वे कहते हैं कि यह मैं होता ही नहीं इसे जान लो. तब इस मैं से मोह और आत्मभाव पैदा ही नहीं होगा. तब ध्यान समाधि या तादात्म्य हीनता एकदम आसान हो जाती है. लेकिन वेदान्त यह नहीं होने देता. वह सनातन आत्मा या मैं के भाव को ठोस खूंटे की तरफ गाड़ देता है फिर इसे विलीन करने का इलाज भी बता है. मतलब पहले कीचड में पाँव डलवाता है फिर स्नान भी करवाता है. इस प्रकार वेदांती हमाम और इसके ठेकेदारों का रोजगार बना रहता है.
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अब ध्यान दीजिये मैं को विलीन करने की टेक्नोलोजी असल में बुद्ध की अनत्ता की या अनात्मा की टेक्नोलोजी हैं जिसे ये चुराकर आत्मा की टेक्नोलोजी के नाम से मार्केटिंग कर रहे हैं. ऊपर से तुर्रा ये कि अनत्ता या मैं के विलीन होने पर जो शून्य बच रहता है उसे ये “आत्मज्ञान” कहते हैं. हद्द है मूढ़ता की.
मतलब समझे आप? आत्मा को मिटाने पर जो ज्ञान हुआ उसे बुद्ध की तरह अनात्मा का ज्ञान कहने में ये डरते हैं कि कहीं चोरी न पकड़ी जाए. उसे ये अनात्मा न कहके आत्मा का ज्ञान कहते हैं. हालाँकि ये भली भाँती जानते हैं कि आत्मा या स्व के विलीन होने पर ही इनका मोक्ष या बुद्ध का निर्वाण घटित होता है और इसीलिये तःताकथित अध्यात्म या धर्म की सारी सफलताएं असल में अनात्मा की सफलता हैं. फिर भी इनका षड्यंत्र देखिये कि इसके बावजूद भी आत्मा और उसकी सनातनता का ढोल बजाना बंद नहीं करते. यह कितना शातिर और गहरा खेल है आप अनुमान लगाइए.
इतना स्पष्ट सा विरोधाभास क्या इन्हें नजर नहीं आता? बिलकुल नजर आता है. लेकिन दिक्कत ये है कि अगर ये समाधि या ध्यान के अनुभव को अनात्मा के अनुभव या स्व (मैं/मेरा) के निलंबित हो जाने के अनुभव की तरह प्रचारित करने लगें तो इनमे और बुद्ध में कोई अंतर नहीं रह जाएगा. तब पूरे हिन्दू धर्म और वेदान्त को चोरी पकड़ी जायेगी.
इस खेल को गौर से देखिये और समझिये मित्रों. इस देश के शोषक धर्म पर इस स्तर से हमला करेंगे तो यह कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रह जाएगा और बहुत प्रकार से हम शोषण और अंधविश्वासों को चुनौती दे सकेंगे. तब भारत में नैतिकता, विज्ञान, न्यायबोध और धम्म का मार्ग आसान हो सकेगा.

(लिखी जा रही और शीघ्र प्रकाश्य किताब का एक अंश)
– © संजय जोठे
– *चित्र गूगल से साभार

पंजाबी की यादगार कहानियाँ (चार खंड : साठ कहानियाँ): सुभाष नीरव

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पंजाबी की यादगार कहानियाँ
(चार खंड : साठ कहानियाँ)

सुभाष नीरव जी के संपादन और अनुवाद में ‘पंजाबी की यादगार कहानियाँ’ पुस्तक चार खंडों में भारत पुस्तक भंडार से प्रकाशित हो रही है। जिसके पहले दो खंड(खंड-1 और खंड-2) प्रकाशित हो गये हैं, शेष दो खंड भी शीघ्र ही प्रकाशित होंगे, संभवत: मई 2017 तक। इस पुस्तक में पंजाबी की प्रथम कथा पीढ़ी के प्रसिद्ध कथाकार नानक सिंह(सन 1940 के आसपास) से लेकर पंजाबी की चौथी और वर्तमान कथा पीढ़ी तक के कुल साठ कहानीकारों की एक-एक यादगार कहानी का चयन किया गया है। हर खंड में 15-15 कहानियाँ हैं। पहले खंड के कथाकार हैं – नानक सिंह, ज्ञानी गुरमुख सिंह मुसाफिर, गुरबख्श सिंह प्रीतलड़ी, सुजान सिंह, संत सिंह सेखों, करतार सिंह दुग्गल, देविंदर सत्यार्थी, कुलवंत सिंह विर्क, संतोख सिंह धीर, अमृता प्रीतम, महिन्दर सिंह सरना, जसवंत सिंह विरदी, रामसरूप अणखी, गुरदयाल सिंह और नवतेज सिंह। दूसरे खंड के कहानीकार हैं – लोचन बख़्शी, प्रेम प्रकाश, अजीत कौर, गुलजार सिंह संधू, दलीप कौर टिवाणा, मोहन भंडारी, गुरबचन सिंह भुल्लर, सुखवंत कौर मान, भूपिंदर सिंह, किरपाल कज़ाक, जसबीर भुल्लर, वरियाम सिंह संधू, खालिद हुसैन, रघुबीर ढंढ़ और मोहम्मद मंशा याद।
प्रकाशक: भारत पुस्तक भंडार 
-सुभाष नीरव

हंस मार्च 2017 विशेषांक

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हंस मार्च 2017 विशेषांक
(24 फरवरी, 2017 को बाजार में उपलब्ध)
पृष्ठ लगभग 250
मूल्य लगभग 70 रुपये (रजिस्टर डाक के लिए 50 रूपए अतिरिक्त)
अपनी प्रति सुरक्षित कराएं।
एजेंटों से आग्रह है कि इस अंक के लिए आर्डर सुनिश्चित करवा लें।
संपर्क करें : 23270377, 41050047
ईमेल : editorhans@gmail.com

अरुणाभ सौरभ की लंबी कविता ‘आद्य नायिका’ पक्षधर से प्रकाशित

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संपर्क-

संपादक : विनोद तिवारी
सी-4/604, ऑलिव काउंटी सेक्टर-5, वसुंधरा गाज़ियाबाद-201012
01204572303(R), 09560236569(M)
C-4/604 Olive County, Sec-5 Vaundhara, Ghaziabad-201012
info@pakshdhar.com, pakshdharwarta@gmail.com
http://pakshdhar.com
www.facebook.com/pakshdhar

बाल-साहित्य सृजन: नई चुनॊतियां- -दिविक रमेश

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बाल-साहित्य सृजन: नई चुनॊतियां 

-दिविक रमेश
        
सृजन किसी भी समय का क्यों न रहा हो अपने उपजने में वह चुनॊतीपूर्ण ही रहा होगा। हर उचित ऒर अच्छी रचना सजग ऒर जिम्मेदार रचनाकार के समक्ष चुनॊती ही लेकर आती हॆ। लेकिन जब हम सृजन के साथ ’नई चुनॊतियां’ जोड़ते हॆं तो उसका आशय निरन्तर बदलते सामाजिक-प्राकृतिक परिवेश में नई समझ ऒर नए भावबोध की गहरी समझ से लॆस रचनाकार की परम्परा की अगली कड़ी के रूप में अपेक्षित सृजन को संभव करने वाली तॆयारियों से होता हॆ। यूं मेरी समझ में तो हर जिम्मेदार बाल साहित्यकार के सामने उसकी हर अगली रचना नई चुनॊती ही लेकर आती हॆ क्योंकि यहां न कोई ढर्रा काम आता हॆ ऒर न ही कोई सीख। सही मायनों में तो अन्तत: अपना बोना ऒर अपना काटना ही प्राय: काम आता हॆ।चाल या चलन को चुनॊती देते हुए। अपने प्रगति-प्रयोगों के प्रति उपेक्षा के आघात सहते हुए भी। अन्यथा बालक को दो क्षण भी नहीं लगते किसी भी रचना से मुंह फेरते। क्षमा कीजिए मॆं शुरु में ही नोबेल पुरस्कार विजेता अमेरिकी लेखक विलियम फॉकनर ऒर गुलजार के कथनों का जिक्र करना चाहूंगा। विलयम फॉकनर के अनुसार, ’आज सबसे बड़ी त्रासदी यह हॆ कि अब लोगों की समस्याओं का आत्मा या भावना से कोई लेना-देना नहीं रह गया हॆ।अब सबके मन में सिर्फ एक ही सवाल हॆ -मॆं कब मशहूर बनूंगा/बनूंगी।जो भी युवा लेखक ऒर लेखिकाएं हॆं वे अपनी इस चाहत के कारण खुद से द्वद्व कर रहे हॆं। इसी द्वंद्व के कारण वे जमीनी हकीकत ऒर इंसानी भावनाओं को भूल गए हॆं। उन्हें एक बार फिर से जॊवन के शाश्वत सत्य ऒर भावनाओं के बारे में सीखना होगा, क्योंकि इसके बिना कोई भी रचना बेहतर नहीं हो सकती। कविया लेखक की जिम्मेदारी बनती हॆ कि वह ऎसा लिखे जिसे पढ़ने वाले व्यक्ति के मन में साहस, सम्मान, उम्मीद ऒर जज्बा पॆदा हो, जो उसे प्रेरित कर सके अपने जीवन की मुश्किलों के आगे डटे रहने ऒर जीतने के लिए।’ भले ही यह विलियम फॉकनर द्वारा 10 दिसम्बर 1950 को स्टॉकहोम में नोबल पुरस्कार ग्रहण करते समय दिए गए भाषण का अंश हॆ लेकिन मॆं इसे आज भी प्रसंगिक मानता हूं। मॆं इसे बाल साहित्य लेखन पर घटा कर भी देखना चाहूंगा भले ही बालक के रूप में व्यक्ति की बात करते हुए इसमें कुछ ऒर बातें भी जोड़ने की आवश्यक्ता पड़ेगी। मसलन उत्कृष्ट बाल साहित्य लेखन के संदर्भ में हमेशा बाल सुलभ जिज्ञासाओं ऒर उनकी अभिरुचि के अनुसार रचना को मज़ेदार बनाने ऒर बाल सुलभ प्रश्नों को रचनात्मक ढंग से उभारने की भी बहुत बड़ी चुनॊती ऒर जिम्मेदारी निभाए बिना काम नहीं चलता। यदि कोई कविता प्रश्न जगाने में सफल हो जाए तो समझ लेना चाहिए कि वह सार्थक हॆ, भले ही वह प्रश्न का उत्तर न भी दे पायी हो। अमेरिकी लेखिका ऒर बच्चों के लेखन के लिए अत्यंत प्रसिद्ध मेडेलीन एल एंगल (Madelien L’ Engle, 1918-2007) के शब्दों में, “I believe that good questions are more important than answers, and the best children’s books ask questions, and make the readers ask questions. And every new question is going to distrurb someone’s universe.” सहित्य में प्रश्न उठाना बहुत आसान नहीं होता क्योंकि प्रश्न उठाया ही जब जाता हॆ जब उसके उत्तर की ओर जाने की दिशा का ज्ञान हो। गनीमत हॆ कि हिन्दी ऒर अन्य भारतीय भाषाओं के बाल साहित्यकारों में आज अनेक ऎसे भी हॆं जो ऊपर बतायी गयी लेखकीय जिम्मेदारी की चुनॊती को भलीभांति निभा रहे हॆं। ऒर उन्हीं के लेखन से भारतीय बाल साहित्य लेखन की वॆश्विक ऒर उत्कृष्ट छवि निरंतर बन भी रही हॆ। दूसरा कथन बाल साहित्यकार के रूप में गुलजार का हॆ जिसके द्वारा लेखन की एक अन्य चुनॊती की ओर इशारा किया गया हॆ। । उनके अनुसार,”बच्चों की भाषा सीखना एक चुनौतीपूर्ण काम है। जैसे पीढ़ियां बदलती हैं, वैसे ही भाषा भी परिवर्तित होती हैं।’ इस कथन से सहमत होना ही पड़ेगा ऒर हमारे बहुत से लेखक इस चुनॊती को भी बखूबी स्वीकार किए हुए लिख रहे हॆं।वस्तुत: आज एस.एम.एस , टेलीविजन, नई टेक्नोलोजी, फिल्मों, इंटरनेट युक्त कम्प्यूटर आदि की भाषा, ऒर अब तो समाचार पत्रों की भाषा अपना एक अलग स्वरूप लेकर बालकों की दुनिया में भी प्रवेश करता चला गया हॆ। आज के बाल साहित्यकार को इस ओर ध्यान देना पड़ता हॆ। हिन्दी के स्वरूप में जहां एक ओर महानगरीय भाषा-स्वरूप में अंगेजी का घोल मिलता हॆ वहां लोक की भाषाओं का अच्छा सुखद छोंक भी मिलता हॆ। स्पष्ट हॆ कि इस स्वरूप को सहज रूप में अपनाना भी एक नई चुनॊती हॆ।यहीं यह भी कहना चाहूंगा कि यह ठीक हॆ कि बाल साहित्य म्रें ऎसी भाषा का सहज उपयोग होना चाहिए जो आयु वर्ग के अनुसार बच्चे की शब्द -सम्पदा के अनुकूल हो । लेकिन एक समर्थ रचनाकार उसकी शब्द-सम्पदा में सहज ही वृद्धि करने की चुनॊती भी स्वीकार करता हॆ।
बाल-साहित्य सृजन की चुनॊतियों पर थोड़ा विराम लगाते हुए पहले मॆं अपने मन की एक ऒर दुखद चिन्ता सांझा करना चाहूंगा जो भारतीय समाज में बालक के महत्त्व को लेकर हॆ। क्या हमारे समाज के तमाम बालक उन न्यूनतम सुविधाओं ऒर अधिकारों से भी सम्पन्न हॆं जिनका हमें किताबी या भाषणबाजियों वाला ज्ञान अवश्य हॆ? कहना चाहता हूं कि बालक (नर-मादा, दोनों) हमारी सांस की तरह हॆ। जिस तरह ऊपरी तॊर पर सांस हम मनुष्यों की एक बहुत ही सहज ऒर सामान्य प्रक्रिया हॆ लेकिन हॆ वह अनिवार्य। उसी तरह बालक भी भले ही ऊपरी तॊर पर सहज ऒर सामान्य उपलब्धि हो लेकिन हॆ वह भॊ अनिवार्य। ऒर जब मॆं बालक की बात कर रहा हूं तो मेरे ध्यान में शहरी, कस्बाई, ग्रामीण, आदिवासी, गरीब, अमीर, लड़की, लड़का आदि सब बालक हॆं। न सांस के बिना मनुष्य का जीवित रहना संभव हॆ ऒर न बालक के बिना मनुष्यता का जीवित रहना। यह विडम्बना ही हॆ कि समाज में बालक के अधिकारों की बात तक कही जाती हॆ लेकिन वह अभी तक कागजी सच अधिक लगती हॆ, जमीनी सच कम। आज साहित्य में दलित, स्त्री ऒर आदिवासी विमर्श की तरह ’बालक(जिसमें बालिका भी हॆ) विमर्श’ की भी जरूरत हो चली हॆ। हमारा अधिकांश बाल लेखन महानगर/नगर केन्द्रित हॆ ऒर प्राय:वहीं के बच्चे को केन्द्र में रखकर अधिकतर चिन्तन-मनन किया जाता हॆ तथा निष्कर्ष निकाले जाते हॆं। लेकिन मॆं जोर देकर कहना चाहूंगा कि आज ज़रूरत बड़े-छोटे शहरो ऒर कस्बों के साथ-साथ गावों ऒर जगलों मे रह रहे बच्चों तक भी पहुंचने की हॆ । ऒर उन तक कॆसे किस रूप में पहुंचा जाए, यह भी कम बड़ी चुनॊती नहीं हॆ। मेरी बाल रचनाओं में जो गांव आ जाता हॆ उसका एक सहज कारण मेरा गांव से होना ऒर अभी तक थोड़ा-बहुत गांव से जुड़ा रहना हॆ। यह अलग बात हॆ कि वॆसी रचनाओं के प्रति मसलन नंदन में प्रकाशित मेरी बाल कविता ’चने का साग’ आदि के प्रति खास ध्यान नहीं जा सका हॆ। वस्तुत: आज हमारे बाल-लेखकों की पहुंच ग्रामीण ऒर आदिवासी बच्चों तक भी सहज-सुलभ होनी चाहिए । इसमें साहित्य अकादमी, अन्य अकदमियों ऒर नेशनल बुक ट्रेस्ट आदि की महत्त्वपूर्ण भूमिका हो सकती हॆ। शिविर लगाए जा सकते हॆं, कार्यशालाएं आयोजित की जा सकती हॆं ।भारतीय बच्चों का परिवेश केवल कम्प्यूटर, सड़कें, मॉल्ज, आधुनिक तकनीकि से सम्पन्न शहरी स्कूल, अंतर्राष्ट्रीय परिवेश ही नहीं हॆ( वह तो आज के साहित्यकार की निगाह में होना ही चाहिए), गांव-देहात तक फॆली पाठशालाएं भी हॆ, कच्चे-पक्के मकान-झोंपड़ियां भी हॆं, उन के माता-पिता भी हॆं, उनकी गाय-भॆंस-बकरियां भी हॆं ।प्रकृति का संसर्ग भी हॆ। वे भी आज के ही बच्चे हॆं । उनकी भी उपेक्षा नहीं होनी चाहिए जो कि दिख रही हॆ। अत: बाल साहित्यकारों को इस या उस एक ही कोठरी में रहकर नहीं बल्कि समग्र रूप में सोचना होगा । और यह भी एक बड़ी चुनॉती है ऎसा सोचा भी जा रहा हॆ। गांव देहात से जुड़ने की इच्छा रखने वाले एक शहरी बच्चे की कल्पना करते हुए मॆंने कभीअपनी एक कविता में लिखा था-“चिड़िया कभी पंख में भरकर /थोड़ी हवा गांव की लाना/ पंजों में अटकाकर अपने/थोड़ी सी मिट्टी भी लाना …..पुस्तक में ही जिसे पढ़ा हॆ/उसकी थोड़ी झलक दिखाना …..।” यहां मुझे एक कवि अश्वघोष जी की बाल कविताओं की याद हो आयी हॆ ।दृष्टि संपन्न कवि हॆं । उनकी कविताएं विशेष ध्यान चाहती हॆं । क्षमा चाहते हुए यह भी लिखना चाहता हूं कि रूसी बाल कविताओं में कुत्ता-बिल्ली-उल्लू आदि के प्रति आधुनिक अथवा नई दृष्टि संपन्न रचनाएं पढ़्ते पढ़ते खुद मेरे ग्रामीण् मन ने कभी गधे पर एक कविता लिखवा ली थी जिसमें गधा अपने प्रति पारम्परिक व्यवहार का प्रतिकार करते हुए खुद को ’वेटलिफ्टर’ के रूप देखने की समझ देता हॆ-“बहुत नाम हॆ मेरा जग में/इसीलिए सब चिढ़ते बच्चो/अच्छे-भले’वेटलिफ्टर’ को/जलकर कहते ’लद्दु’’ बच्चो” । मॆ समझाता हूं इस प्रकार की सम्यक समझ ऒर लेखन भी एक प्रकार से नई चुनॊती का निर्वाह ही कहा जाएगा। 
ऎसा नहीं हॆ कि बच्चे को लेकर आज चिन्ता ऒर चिन्तन उपलब्ध न हो। बच्चे के स्वतंत्र व्यक्तित्व, उसके बहुमुखी विकास को लेकर गहरा विचार, विशेष रूप से, पिछली सदी से होता आ रहा हॆ। जॆसे-जॆसे सदियों से परतंत्र रह रहे देश आजाद होते गए ऒर नवजागरण के प्रकाश से जगमगाते गए वॆसे-वॆसे बच्चे की ओर भी अपेक्षित ध्यान देने का माहॊल बनाए जाने की कोशिशों का जन्म हुआ। मनुष्य ही नहीं बल्कि राष्ट्र के निर्माण के लिए बच्चे के चतुर्दिक विकास को आवश्यक मानने की समझ उपजी। इस समझ को उपजाने में बाल साहित्यकारों की भूंमिका भी अहं रही हॆ ऒर इसके विकास में भी बाल-साहित्यकार पूरी तरह समर्पित नज़र आ रहे हॆं। लेकिन आज का लेखक इस परम्परा को तभी आगे ले जाने में सक्षम होगा जब वह विलियम फॉकनर द्वारा ऊपर बताए गए मोह से अपने को बचाए रखेगा। वस्तुत:, संक्षेप में कहना चाहूंगा कि बड़ों के लेखन की अपेक्षा बच्चों के लिए लिखना अधिक प्रतिबद्धता, जिम्मेदारी, निश्छलता, मासूमियत जॆसी खुबियों की मांग करता हॆ। इसे लेखक, प्रकाशक अथवा किसी संस्था को बाजारवाद की तरह प्रथमिक रूप से मुनाफे का काम समझ कर नहीं करना चाहिए। बाल साहित्यकार के सामने बाजारवाद के दबाव वाले आज के विपरीत माहॊल में न केवल बच्चे के बचपन को बचाए रखने की चुनॊती हॆ बल्कि अपने भीतर के शिशु को भी बचाए रखने की बड़ी चुनॊती हॆ। कोई भी अपने भीतर के शिशु को तभी बचा सकता हॆ जब वह निरंतर बच्चों के बीच रहकर नए से नए अनुभव को खुले मन से आत्मसात करे। लेकिन यह बच्चों के बीच रहना ’बड़ा’ बनकर नहीं बल्कि जॆसा कोरिया के बच्चों के सबसे बड़े हितॆषी, उनके पितामह माने जाने वाले सोपा बांग जुंग ह्वान (1899-1931) ने बच्चे के कर्तव्यों के साथ उसके अधिकारों की बात करते हुए ’कन्फ्य़ूसियन’ सोच से प्रभावित अपने समाज में निडरता के साथ एक आन्दोलन -“बच्चों का आदर करो” शुरु करते हुए कहा था, ’टोमगू’ या साथी बनकर। अपने को अपने से छोटों पर लादने, बात-बात पर उपदेश झाड़ने, अपने को श्रेष्ठ समझने ऒर मनवाने तथा अपने अंहकार के आदि बड़ों के लिए यह काम इतना आसान नहीं होता। लेकिन जो आसान कर लेते हॆं वे इसका आनन्द भी जानते हॆं ऒर उपयोगिता भी।यदि हम चाहते हॆं कि बाल-साहित्य बेहतर बच्चा बनाने में मदद करे ऒर साथ ही वह बच्चों के द्वारा अपनाया भी जाए तो उसके लिए हमें अर्थात बाल-साहित्यकारों को बाल-मन से भी परिचित होना पड़ेगा। उनके बीच रहना होगा। उनकी हिस्सेदारी को मान देना होगा। अमेरीकी कवि ऒर बाल-साहित्यकार चार्ल्स घिग्न(Charles Ghigna, 1946) के अनुसार, “जब आप बच्चों के लिए लिखो तो बच्चों के लिए मत लिखो। अपने भीतर के बच्चे के द्वारा लिखो।” आज के बाल-साहित्य लेखन के सामने यह भी एक चुनॊती हॆ।हमें, हिन्दी के अत्यंत महत्त्वपूर्ण बाल साहित्यकार ऒर चिन्तक निरंकार देव सेवक से शब्द लेकर कहूं तो ’बच्चों की जिज्ञासाओं, भावनाओं ऒर कल्पनाओं को अपना बनाकर उनकी दृष्टि से ही दुनिया को देखकर जो साहित्य बच्चों को भी सरल भाषा में लिखा जाए, वही बच्चों का अपना साहित्य होता हॆ।’ 
पर एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह भी हॆ कि क्या व्यापक संदर्भ में बच्चे को एक ऎसा पात्र मान लिया जाए जिसमें बड़ों को अपनी समझ बस ठूंसनी होती हॆ। मॆं समझता हूं कि आज जरूरत बच्चे को ही शिक्षित करने की नहीं हॆ, बड़ों को भी शिक्षित करने की हॆ। इसलिए बाल साहित्यकार के समक्ष यह भी एक बड़ी ऒर दोहरी चुनॊती हॆ। वस्तुत: सजग लोगों के सामने मूल चिन्ता यह भी रही हॆ कि कॆसे सदियों की रूढ़ियों में जकड़े मां-बाप ऒर बुजुर्गों की मानसिकता से आज के बच्चे को मुक्त करके समयानुकूल बनाया जाए। साथ ही यह भी कि आज के बच्चे की जो मानसिकता बन रही हॆ उसके सार्थक अंश को कॆसे प्रेरित किया जाए ऒर कॆसे दकियानूसी सोच के दमन से उसे बचाया जाए।गोर्की ने अपने एक लेख ’ऑन थीसस’ (1933) में लिखा था कि हमारे देश में शिक्षा का उद्देश्य बच्चे के मस्तिष्क को उसके पिता ऒर बुजुर्गों की अतीत की सोच से मुक्त कराना हॆ। ध्यान रहे कि अतीत की सोच से मुक्त कराना ऒर अतीत की जानकारी देना दो अलग-अलग बातें हॆं। आवश्यकतानुसार, अपने इतिहास ऒर परंपरा को बच्चे की जानकारी में लाना जरूरी हॆ। आस्ट्रिया की लूसियाबिन्डर ने उचित ही कहा हॆ कि कोई भी राष्ट्र मजबूत नहीं हो सकता, यदि उसके बच्चे अपने देश के इतिहास ऒर रिवाजों की जानकारी नहीं रखते। अपने अनुभवों को नहीं लिख सकते ऒर विज्ञान तथा गणित के बुनियादी सिद्धांतों की समझ नहीं रखते। अर्थात बच्चे में एक वॆज्ञानिक दृष्टि को विकसित करते हुए अपने इतिहास, रिवाजों आदि की आवश्यक जानकारी देनी होती हॆ। आज बड़ों में ’हिप्पोक्रेसी’ भी देखने को मिलती हॆ।ऒर यदि उसके प्रति सजग नहीं किया जाए तो वह सहज ही बच्चों तक भी पहुंचती हॆ। ऒर इस काम की चुनॊती का सामना बाल साहित्यकार अपने लेखन में बखूबी कर सकता हॆ। हमारे यहां ऒर किसी भी समाज में कहने को तो कहा जाता हॆ कि काम कोई भी हो, अच्छा होता हॆ, महत्त्वपूर्ण होता हॆ लेकिन इस सोच या मूल्य को कार्यान्वित करते समय अच्छे- अच्छों की नानी मर जाती हॆ। हर कोई अपने बच्चे को कुछ खास कार्यों ऒर पदों पर देखना चाहता हॆ ऒर अपने बच्चे को वॆसी ही सलाह भी देता हॆ, अन्य कामों को जाने-अनजाने कमतर या महत्त्वहीन मान लेता हॆ। ऒर जब बच्चे को बड़ा होकर किसी भी कारण से तथाकथित कमतर या महत्त्वपूर्ण कार्य ही करना पड़ जाता हॆ तो वह हीन भावना से ग्रसित रहता हॆ। कुंठित हो जाता हॆ। रूसी कवि मयाकोवस्की की एक कविता हॆ ’क्या बनूं’। अपने समय में इस कविता के माध्यम से कवि ने हर काम की प्रतिष्ठा को समानता के आधार पर रेखांकित करते हुए बच्चों पर प्राय: लादे जाने वाले कुछ लक्ष्यों की प्रवृत्तिपरक एक नई चुनॊती का बखूबी सामना किया था। एक अंश देखिए:
बेशक अच्छा बनना डाक्टर,
पर मजदूर ऒर भी बेहतर,
श्रमिक खुशी से मॆं बन जाऊं,
सीख अगर यह धन्धा पाऊं।
…………..
काम कारखाने का अच्छा
पर ट्राम तो उस से बेहतर,
काम अगर सिखला दे कोई
बनूं खुशी से मॆं कंडक्टर।
कंडक्टर तो मॊज उड़ाए
बिना टिकट के वे तो दिन भर
जहां-तहां पर आएं, जाएं।
काम सभी अच्छे, वह चुन लो,
जो हॆ तुम्हें पसन्द। (अनु०:डॉ. मदन लाल ’मधु’)
ऎसी रचनाओं से निश्चय ही बालकों को जहां राहत मिलती हॆ वहीं अभिभावकों को एक नई लेकिन सही-सच्ची समझ भी। 
आजकल (हालांकि थोड़े पहले से) बाल साहित्य लेखन के संदर्भ में एक चर्चा बराबर पढ़ने-सुनने में मिल जाती हॆ जिसे चाहें तो हम परम्परा बनाम आधुनिकता की बहस कह सकते हॆं जिसने एक ऒर तरह की चुनॊती को जन्म दिया हॆ।। एक सोच के अनुसार राजा-रानी, परियां, राक्षस, चूहे, बिल्ली, हाथी, शेर, ऒर यहां तकि की फूल-फल, पेड़-पॊधे आदि आज के लेखन के लिए सर्वथा त्याज्य हॆं क्योंकि इनकी कल्पना बालक के लिए विष बन जाती हॆ। उन्हें अंधविश्वासी ऒर दकियानूसी बनाती हॆ। विरोध पारंपरिक, पॊराणिक थथा काल्पनिक कथाओं का भी हुआ। ऒर यह तब हुआ जब कि सामने प्रसिद्ध डेनिश लेखक हेंस क्रिश्चियन एंडरसन के ऎसा लेखन मॊजूद था जिसमें प्राचीन, पारंपरिक लोककथाओं को अपने समय के समाज की प्रासंगिकता दी गई थी जॆसा कि बड़ों के साहित्य में इतिहास या मिथ आधारित कृतियों में मिलता हॆ। मॆं भी मानता हूं कि राजा-रानी, परियों भूत-प्रेतों को लेकर लिखे जाने वाले ऎसे साहित्य को बाहर निकाल फेंकना चाहिए जो अंधविश्वास, दकियानूसी, कायरता, निराशा आदि अवगुणों का जनक हो। यह सत्य हॆ ऒर इसे मॆं गलत भी नहीं मानता कि आज भारत में बच्चों का एक सॊभाग्यशाली हिस्सा उस अर्थ में मासूम नहीं रहा हॆ जिस अर्थ में उसे समझा जाता रहा हॆ। हालांकि यह कहना कि वह किसी भी अर्थ में मासूम नहीं रहा यह भी ज्यादती होगी। बेशक आज उसके सामने संसार भर की सूचनाओं का अच्छा खासा भण्डार हॆ ऒर उसका मानसिक विकास पहले के बालक से कहीं ज्यादा हॆ। वह बड़ों के बीच उन बातों तक में हिस्सा लेने का अत्मविश्वास रखता हॆ जो कभी प्रतिबंधित मानी जाती रही हॆं।आज का बच्चा प्रश्न भी करता हॆ ऒर उसका विश्वसनीय समाधान भी चाहता हॆ। आज के सजग बच्चे की मानसिकता पुरानी मानसिकता नहीं हॆ जो प्रश्न के उत्तर में ’डांट’ या ’टाल मटोल’ स्वीकार कर ले। वह जानता हॆ कि बच्चा मां के पेट से आता हॆ चिड़िया के घोंसले से नहीं। दूसरे, हमें बच्चे को पलायनवादी नहीं बल्कि स्थितियों से दो-दो हाथ करने की क्षमता से भरपूर होने की समझ देनी होगी। अहंकारी उपदेश या अंध आज्ञापालन का जमाना अब लद चुका हॆ। बात का ग्राह्य होना आवश्यक हॆ। ऒर बात को ग्राह्य बनाना यह साहित्यकार की तॆयारी ऒर क्षमता पर निर्भर करता हॆ। तो भी विज्ञान, नई टेक्नोलोजी, वॆश्विक बोध ऒर आधुनिकता आदि के नाम पर शेष का अंधाधुंध, असंतुलित ऒर नासमझ विरोध भी कोई उचित सोच नहीं हॆ।लंदन में जन्में लेखक जी.के. चेटरसन (G.K. Chesterton -1874-1936) ने जो कहा वह आज भी सोचने को मजबूर कर सकता हॆ -“परी कथाएं (Fairy Tales) सच से ज्यादा होती हॆं: इसलिए नहीं कि वे बताती हॆं ड्रेगन होते हॆं बल्कि इसलिए कि वे हमें बताती हॆं कि उन्हें हराया जा सकता हॆ।”ओड़िया भाषा के सुविख्यात साहित्यकार मनोज दास का मानना हॆ कि बाल ऒर बड़ों का यथार्थ एक नहीं होता।उनके शब्दों में, “His realism is different rom the adult’s. He does not look at the giant and the fairy from the angle of genetic possibility. They are a spontaneous exercise for his imaginativeness–a quality that alone can enable him to look at life as bigger and greater than what it is at the grass plane.” डॉ. हरिकृष्ण देवसरे की एक पुस्तक हॆ ’ऋषि-क्रोध की कथाएं’ जिसमें सुर भी हॆं, असुर भी हॆं ऒर राजा भी हॆ ऒर पुराण भी हॆ। ऎसे ही उन्हीं की एक ऒर पुस्तक हॆ-’इनकी दुश्मनी क्यों” जिसमें कुत्ता भी हॆ, बिल्ली भी हॆ, चूहा भी हॆ, सांप भी हॆ, हाथी भी हॆ ऒर चींटी भी हॆ। ऒर ये मनुष्य की भाषा भी बोलते हॆं। इसी प्रकार अत्यंत प्रतिष्ठित बाल-साहित्यकार ऒर चिन्तक जयप्रकाश भारती की ये पंक्तियां भी देखिए जो आज के बच्चे के लिए हॆं: एक था राजा, एक थी रानी
दोनों करते थे मनमानी
राजा का तो पेट बड़ा था
रानी का भी पेट घड़ा था।
खूब वे खाते छक-छक-छक कर
फिर सो जाते थक-थक-थककर।
काम यही था बक-बक, बक-बक 
नौकर से बस झक-झक, झक-झक
तो क्या बिना यह सोचे कि राजा-रानी आदि का किस रूप में इनका अगमन हुआ हॆ, वह कितना सृजनात्मक हॆ, इनका बहिष्कार कर दिया जाए क्योंकि इनमें न कोई वॆज्ञानिक आविष्कार हॆ ऒर न ही कोई आधुनिक बालक-बालिकाएं या व्यक्ति। दूसरी ओर देवसरे जी की एक ऒर पुस्तक हॆ ’दूरबीन’ जो दूरबीन के जन्म का इतिहास समने लाती हॆ ऒर वह भी कहानी के शिल्प में। लेकिन मुझे इसे रचनात्मक बाल-साहित्य की श्रेणी में लेने में स्पष्ट संकोच हॆ। वस्तुत: यह बालोपयोगी साहित्य की श्रेणी में आती हॆ जिसके अंतर्गत सूचनात्मक या जानाकारीपूर्ण विषय आधारित सामग्री होती हॆ भले ही शिल्प या रूप कविता ,कहानी आदि का ही क्यों न हो। कविता की शॆली में तो विज्ञापन भी होते हॆं पर वे कविता नहीं होते। यह पाठ्य पुस्तक जरूर बन सकती हॆ। यह ’लिखी गई पुस्तक हॆ जो विवरणॊं ऒर तथ्यों से लदी होने के कारण सृजनात्मक बाल साहित्य जॆसी रोचकता, मजेदारी ऒर पठनीयता से वंचित हॆ। गनीमत हॆ कि अंत में स्वयं लेखक ने पात्रों के माध्यम से स्वीकार किया हॆ-“बबलू ऒर क्षिप्रा, दूरबीन के बारे में इतनी मज़ेदार ऒर विस्तृत जानकारी प्राप्त कर बहुत प्रसन्न थे।” लेकिन ऎसे साहित्य के लिखे जाने की भी अपनी बड़ी आवश्यकता हॆ।बालक को ज्ञानवर्धक पुस्तकें भी चाहिए। मेरा मानना हॆ कि बड़ों के रचनात्मक लेखन की रचना-प्रक्रिया ऒर बच्चों के रचनात्मक लेखन की प्रक्रिया समान होती हॆ। रचनाकार किसी भी विषय को ट्रीटमेंट के स्तर पर मॊलिकता ऒर नई मानसिकता प्रदान किया करता हॆ। महाभारत के वाचन ऒर उसकी कथाओं पर आधारित बाद के साहित्य में मॊलिक अंतर होता हॆ। राजा-रानी, हाथी, चिड़िया, चांद, तारे आदि पर नई दृष्टि से लिखा जा सकता हॆ ऒर लिखा जा भी चुका हॆ। मांग यह होनी चाहिए कि राजा-रानी की व्यवस्था की पोषक अथवा परियों की ढ़र्रेदार कल्पना को कायम रखने वाली प्रवृत्ति का बाल-साहित्य से त्याग किया जाए। आज के बाल साहित्य में तथाकथित रंग-रंगीली परियों के स्थान पर ज्ञान ऒर संगीत परी जॆसी परियों की भी कल्पना मिलती है जो बच्चॊं को एक नयी सोच प्रदान करती हॆं। हाल ही में एक समाचार प्रकाशित हुआ था कि हेरी पोटर की एक विचित्र कल्पना को वॆज्ञानिकों ने यथार्थ कर दिखाया। यह कम आश्चर्य की बात नहीं है कि हेरी पोटर ने बिक्री के कितने ही रिकार्ड तोड़े हैं बावजूद तमाम आधुनिताओं के। सच तो यह भी है कि आज परियों, राजा रानी आदि को लेकर और विशेष रूप से उनके पारंपरिक रूप को लेकर लिखना बहुत कम हो गया है और जो है उसे मान्यता भी नहीं मिलती। आज तो नई ललक के साथ वस्तु ऒर अभिव्यक्ति की दृष्टि से बाल साहित्य में नए-नए प्रयोग हो रहे हॆं। वस्तुत: समस्या उन लोगों की सोच की हॆ जो जाने-अनजाने बाल साहित्य को ’विषयवादी’ विषय केंद्रित मानते हॆं। अर्थात जिनका मानना हॆ कि बाल-साहित्य में रचनाकार विषयों पर लिखते हॆं- मसलन पेड़ पर, चिड़िया पर, राजा-रानी पर, दूरबीन,टी.वी पर, इत्यादि। यदि रचना विषय निर्धारित करके लिखी जाती हॆ तब तो उनके मत से सहमत हुआ जा सकता हॆ। लेकिन सृजनात्मक साहित्य, चाहे वह बड़ों के लिए हो या बालकों के लिए, विषय पर नहीं लिखा जाता। वस्तुत: वह विषय के अनुभव पर लिखा जाता हॆ । अर्थात रचना रचनाकार का कलात्मक अनुभव होती हॆ। बात को ऒर स्पष्ट करने के लिए कहूं कि पेड़ या साइकिल को विषय मानकर निबन्ध, लेख आदि लिखा जा सकता हॆ, कविता, कहानी आदि रचनात्मक साहित्य नहीं। पेड़ पर लिखी कविता पेड़ पर विषयगत जानकारी से एकदम अलग हो सकती हॆ, बल्कि होती हॆ। वह पेड़ का कलात्मक अनुभव होता हॆ।आज बाल-साहित्य सृजन में वॆज्ञानिक दृष्टि की आवश्यकता हॆ ऒर यह लेखक के लिए एक चुनॊती भी हॆ। वॆज्ञानिक दृष्टि का अर्थ यह नहीं हॆ कि बच्चे को कल्पना की दुनिया से एकदम काट दिया जाए। कल्पना का अभाव बच्चे को भविष्य के बारे में सोचने की शक्ति से रहित कर सकता हॆ। वॆज्ञानिक दृष्टि ’काल्पनिक’ को भी विश्वसनीयता का आधार प्रदान करने का गुर सिखाती हॆ जो आज के बच्चे की मानसिकता के अनूकूल होने या उसकी तर्क-संतुष्टि की पहली शर्त हॆ। विज्ञान ऒर वॆज्ञानिक दृष्टि में अंतर होता हॆ। विज्ञान मनुष्य के मूल भावों, संवेदनाओं आदि का विकल्प नहीं हॆ जो बालक ऒर मनुष्यता के विकास के लिए जरूरी हॆं।।ओड़िया के प्रसिद्ध लेखक मनोज दास ने अपने एक लेख ‘Talking to Children: The Home And The World’ में लिखा हॆ-’no scientific or technological discovery can alter the basic human emotions, sensations and feelings. Social, economic and policial values amy change, but the evolutionary values ingrained in the consciousness cannot change–values that account for our growth.” आज वॆज्ञानिक दृष्टि को सजग रह कर अपनाने की चुनॊती अवश्य हॆ। मुझे तो युगोस्लाव कथाकार, उपन्यासकार श्रीमती ग्रोजदाना ओलूविच की अपने साक्षात्कार में कही यह बात भी विचारणीय लगती हॆ-“मेरा ख्याल हॆ कि लोगों को सपनों ऒर फन्तासियों की उतनी ही जरूरत हॆ, जितनी कि दाल-रोटी की, यही वजह हॆ कि लोग आज भी परीकथाएं पढ़ते हॆं।”(सान्ध्य टाइम्स, नयी दिल्ली, 16 फरवरी, 1982)| अब मॆं अपने संदर्भ में एक निजी चुनॊती को जरूर सांझा करना चाहता हूं। हम देख रहे हॆं कि इधर यॊन शोषण के हिंसा के स्तर तक पर होने वाली घटनाओं की भरमार हमें कितना विचलित कर रही हॆ ऒर इसमें हमारे बालक भी सम्मिलित हॆं-शिकार के रूप में भी ऒर कभी-कभी शिकारी के रूप में भी। मॆं लाख कोशिश करके भी इस दिशा में अब तक बाल-साहित्य सृजन नहीं कर पाया हूं, बावजूद आमिर खान के टी.वी. पर आए कार्यक्रम के। लेकिन इस नई चुनॊती से जूझ जरूर रहा हूं। 
थोड़ी बात इलॆक्ट्रोनिक माध्यम ऒर टेक्नोलोजी के हॊवे की भी कर ली जाए जिन्होंने विश्व के एक गांव बना दिया हॆ। यह बात अलग हॆ कि भारत में आज भी अनेक बच्चे इनसे वंचित हॆं। इनसे क्या वे तो प्राथमिक शिक्षा तक से वंचित हॆं। कितने ही तो अपने बचपन की कीमत पर श्रमिक तक हॆं। अपने परिवेश ऒर परिस्थितियों के कारण अनेक बुरी आदतों से ग्रसित हॆं। वे भी आज के बाल साहित्यकार के लिए चुनॊती होने चाहिए ? खॆर जिन बच्चों की दुनिया में नई टेक्नोलोजी की पहुंच हॆ उनकी सोच अवश्य बदली हॆ। अच्छे रूप में भी ऒर गलत रूप में भी। विषयांतर कर कहना चाहूं कि मॆं टेक्नोलोजी या किसी भी माध्यम का विरोधी नहीं हूं, बल्कि वे मानव के लिए जरूरी हॆं। उनका जितना भी गलत प्रभाव हॆ उसके लिए वे दोषी नहीं हॆं बल्कि अन्तत: मनुष्य ही हॆ जो अपनी बाजारवादी मानसिकता की तुष्टि के लिए उन्हें गलत के परोसने की भी वस्तु बनाता हॆ।फिर चाहे वह यहां का हो, पश्चिम का हो या फिर कहीं का भी हो। होने को तो पुस्तक के माध्यम से भी बहुत कुछ गलत परोसा जा सकता हॆ। तो क्या माध्यम के रूप में पुस्तक को गाली दी जाए। एक जमाने में चित्रकथाओं की विवादास्पद दुनिया में अमर चित्रकथा ने सुखद हस्तक्षेप किया था। कहना यह भी चाहूंगा कि पुस्तक ऒर इलॆक्ट्रोनिक माध्यमों में बुनियादी तॊर पर कोई बॆर का रिश्ता नहीं हॆ। न ही वे एक दूसरे के विकल्प बन सकते हॆं। दोनों का अस्तित्व एक दूसरे के कारण खतरे में भी नहीं हॆ। आज बहुत सा बाल साहित्य इन्टेरनेट के माधय्म से भी उपलब्ध हॆ।अत: जरूरत इस बात कि हॆ कि दोनों के बीच बहुत ही सार्थक रिश्ता बनाया जाए।किताबों की किताबें भी कम्प्यूटर पर पढ़ी जा सकती हॆं। इसके लिए कितने ही वेबसाइट हॆं। हां बाल साहित्य सृजन के क्षेत्र में बंगाली लेखक ऒर चिन्तक शेखर बसु की इस बात से मॆं भी सहमत हूं कि आज का बालक बदलते हुए संसार की चीज़ों में रुचि लेता हॆ लेकिन इसका अर्थ यह नहीं हॆ वह अपनी कल्पना की सुन्दर दुनिया को छोड़ना चाहता हॆ। लेखक के शब्दों में,” Children today take active intrest in things of the changed world, but this does not mean leaving their own world of fantasy….They love to read new stories where technology plays a big part. But that is just a fleeting (क्षणिक) phase. They feel comfortable in their eternal all-found land.” . मॆं कहना चाहूंगा कि चुनॊती यह हॆ कि बाल साहित्यकार उसे मजा देने वाले काल्पनिक लोक को कॆसे पिरोए कि वह बे सिर-पॆर का न लगते हुए विश्वसनीय लगे। सजग बच्चे को मूर्ख तो नहीं बनाया जा सकता। ऒर अपनी अज्ञानता से उसे लादना भी नहीं चाहिए। सूझ-बूझ ऒर कल्पना को सार्थक बनाने की योग्यता आज के बाल साहित्यकार के लिए अनिवार्य हॆ। निश्चित रूप से यह विज्ञान का युग हॆ। लेकिन बच्चे की मानसिकता को समझते हुए उसे समाज ऒर विज्ञान से रचना के धरातल पर जोड़ने के लिए कल्पना की दुनिया को नहीं छोड़ा जा सकता। बालक को एक संवेदनशील नागरिक बनाना हॆ तो उस राह को खोजना होगा जो उसके लिए मज़ेदार ऒर ग्राह्य हो, उबाऊ नहीं।जिसे विज्ञान बाल साहित्य कहते हॆं उसे भी बालक तभी स्वीकार करेगा जब उसके पढ़ने में उसे आनन्द आएगा। 
मॆं उन कुछ चुनॊतियों की ओर भी, बहुत ही संक्षेप ऒर संकेत में ध्यान दिलाना चाहूंगा जो आज के कितने ही बाल साहित्यकार के लिए सृजनरत रहने में बाधा पहुचा सकती हॆं। मॆंने प्रारम्भ में बालक के प्रति समाज की उपेक्षा के प्रति ध्यान दिलाया था। सच तो यह हॆ कि अभी बालक से जुड़ी अनेक बातों ऒर चीज़ों जिनमें इसका साहित्य भी मॊजूद हॆ के प्रति समुचित ध्यान ऒर महत्त्व देने की आवश्यकता बनी हुई हॆ। न बाल साहित्यकार को ऒर न ही उसके साहित्य को वह महत्त्व मिल पा रहा हॆ जिसका वह अधिकारी हॆ। उसको मिलने वाले पुरस्कारों की धनराशि तक में भेदभाव किया जाता हॆ। उसके साहित्य के सही मूल्यांकन के लिए न पर्याप्त पत्रिकाएं हॆं ऒर न ही समाचार-पत्र आदि। साहित्य के इतिहास में उसके उल्लेख के लिए पर्याप्त जगह नहीं हॆ।बाल साहित्यकार को जो पुरस्कार-सम्मान दिए जाते हॆं वे उसे प्रोत्साहित करने की मुद्रा में दिए जाते हॆं। साहित्य अकादमी ने बाल साहित्य ऒर बाल साहित्यकारों को सम्मानित करने की दिशा में बहुत ही सार्थक कदम बड़ाएं हॆं लेकिन मेरी समझ के बाहर हॆ कि क्यों नहीं ज्ञानपीठ ऒर नोबल पुरस्कार देने वाली संस्थाएं ’बाल साहित्य’ को पुरस्कृत करने से गुरेज किए हुए हॆ।इसी प्रकार बाल साहित्य की अधिकाधिक पहुंच उसके वास्तविक पाठक तक संभव करने के लिए बहुत कुछ करना बाकी हॆ। हिन्दी के संदर्भ में बाल साहित के अंतर्गत कविता ऒर कहानी के अतिरिक्त अन्य विधाओं में भी सृजन की बहुत संभावनाएं बनी हुई हॆ। भारत के संदर्भ में आज बहुत जरूरी हॆ कि तमाम भारतीय भाषाओं में उपलब्ध बाल साहित्य अनुवाद के माध्यम से एक-दूसरे को उपलब्ध हो। उत्कृष्ट बाल साहित्य के चयन प्रकाशित होते रहने चाहिए। भारतीय बाल साहित्यकारों को समय-समय पर एक मंच पर लाने की आवश्यकता हॆ ताकि बाल-साहित्य सृजन को सही दिशा मिल सके। इस दिशा में साहित्य अकादमी का यह कदम जिसके कारण हम यहां एकत्रित हॆं अत्यंत स्वागत के योग्य हॆ। 
जोर देकर कहना चाहूंगा कि आज साहित्य में बालक(जिसमें बालिका भी सम्मिलित हॆ) विमर्श की बहुत जरूरत हॆ। आज हिन्दी में उत्कृष्ट बाल साहित्य उपलब्ध हॆ, विशेषकर कविता। लेकिन अभी बहुत कुछ ऎसा छूटा हॆ जिसकी ओर काफी ध्यान जाना चाहिए। उचित मात्रा में किशोरों के लिए बाल-साहित्य सृजन की आवश्यकता बनी हुई हॆ। तमाम तरह के अनुभवों को बांटते हुए हमें अपने बच्चों को ऎसे अनुभवों से भी सांझा करना होगा, अधिक से अधिक, जो मनुष्य को बांटने वाली तमाम ताकतों ऒर हालातों के विरुद्ध उनकी संवेदना को जागृत करे। उसके बड़े होने तक इंतजार न करें। मॆं तो कहता हूं कि सच्चा स्त्री विमर्श भी बालक की दुनिया से ही शुरु किया जाना चाहिए। भारत के बड़े भाग में आज भी लड़के-लड़की का दुखदायी ऒर अनुचित भेद किया जाता हॆ। मसलन लड़की को बचपन से ही इस योग्य नहीं समझा जाता कि वह लड़के की रक्षा कर सकती हॆ। एक कविता हॆ, ’जब बांधूंगा उनको राखी’ जिसमें लड़के की ओर से बाराबरी की बात उभर कर आती हॆ:
मां मुझको अच्छा लगता जब
मुझे बांधती दीदी राखी
तुम कहती जो रक्षा करता
उसे बांधते हॆं सब राखी।
तो मां दीदी भी तो मेरी
हर दम देखो रक्षा करती
जहां मॆं चाहूं हाथ पकड़ कर
वहीं मुझे ले जाया करती।
मॆं भी मां दीदी को अब तो
बांधूंगा प्यारी सी राखी
कितना प्यार करेगी दीदी
जब बांधूंगा उनको राखी!
कितने ही घरों में चूल्हा-चॊका जॆसे घरेलू काम लड़की के ही जिम्मे डाल दिए जाते हॆं। लेकिन शायद होना कुछ ऎसा नहीं चाहिए क्या जॆसा इस कविता ’मॆं पढ़ता दीदी भी पढ़ती’ में हॆ। एक अंश इस प्रकार हॆ:
कभी कभी मन में आता हॆ
क्या मॆं सीख नहीं सकता हूं
साग बनाना, रोटी पोना?
मॆं पढ़ता दीदी भी पढ़ती
क्यों मां चाहती दीदी ही पर
काम करे बस घर के सारे?
सबकुछ लिखते हुए बाल साहित्यकारों की ऎसी रचनाएं देने की भी जिम्मेदारी हॆ जिनके द्वारा संपन्न बच्चों की निगाह उन बच्चों की ओर भी जाए जो वंचित हॆं, पूरी संवेदना के साथ। कविता ’यह बच्चा’ का अंश पढ़िए:
कॊन हॆ पापा यह बच्चा जो
थाली की झूठन हॆ खाता ।
कॊन हॆ पापा यह बच्चा जो
कूड़े में कुछ ढूंढा करता ।
पापा ज़रा बताना मुझको
क्या यह स्कू्ल नहीं हॆ जाता ।
थोड़ा ज़रा डांटना इसको
नहीं न कुछ भी यह पढ़ पाता ।
अंत में, संक्षेप में कहना चाहूंगा कि बड़ों के लेखन की अपेक्षा बच्चों के लिए लिखना अधिक प्रतिबद्धता, जिम्मेदारी, निश्छलता, मासूमियत जॆसी खुबियों की मांग करता हॆ। इसे लेखक, प्रकाशक अथवा किसी संस्था को बाजारवाद की तरह प्राथमिक रूप से मुनाफे का काम समझ कर नहीं करना चाहिए। बाल साहित्यकार के सामने बाजारवाद के दबाव वाले आज के विपरीत माहॊल में न केवल बच्चे के बचपन को बचाए रखने की चुनॊती हॆ बल्कि अपने भीतर के शिशु को भी बचाए रखने की बड़ी चुनॊती हॆ। कोई भी अपने भीतर के शिशु को तभी बचा सकता हॆ जब वह निरंतर बच्चों के बीच रहकर नए से नए अनुभव को खुले मन से आत्मसात करे। अकेले होते बच्चे को उसके अकेलेपन से बचाना होगा। लेकिन यह बच्चों के बीच रहना ’बड़ा’ बनकर नहीं, बल्कि जॆसा कोरिया के बच्चों के सबसे बड़े हितॆषी, उनके पितामह माने जाने वाले सोपा बांग जुंग ह्वान (1899-1931) ने बच्चे के कर्तव्यों के साथ उसके अधिकारों की बात करते हुए ’कन्फ्य़ूसियन’ सोच से प्रभावित अपने समाज में निडरता के साथ एक आन्दोलन -“बच्चों का आदर करो” शुरु करते हुए कहा था, ’टोमगू’ या साथी बनकर। अपने को अपने से छोटों पर लादने, बात-बात पर उपदेश झाड़ने, अपने को श्रेष्ठ समझने ऒर मनवाने तथा अपने अंहकार के आदि बड़ों के लिए यह काम इतना आसान नहीं होता। लेकिन जो आसान कर लेते हॆं वे इसका आनन्द भी जानते हॆं ऒर उपयोगिता भी।यदि हम चाहते हॆं कि बाल-साहित्य बेहतर बच्चा बनाने में मदद करे ऒर साथ ही वह बच्चों के द्वारा अपनाया भी जाए तो उसके लिए हमें अर्थात बाल-साहित्यकारों को बाल-मन से भी परिचित होना पड़ेगा। उनके बीच रहना होगा। उनकी हिस्सेदारी को मान देना होगा। अमेरीकी कवि ऒर बाल-साहित्यकार चार्ल्स घिग्न(Charles Ghigna, 1946) के अनुसार, “जब आप बच्चों के लिए लिखो तो बच्चों के लिए मत लिखो। अपने भीतर के बच्चे के द्वारा लिखो।” आज के बाल-साहित्य लेखन के सामने यह भी एक चुनॊती हॆ।हमें, हिन्दी के अत्यंत महत्त्वपूर्ण बाल साहित्यकार ऒर चिन्तक निरंकार देव सेवक से शब्द लेकर कहूं तो ’बच्चों की जिज्ञासाओं, भावनाओं ऒर कल्पनाओं को अपना बनाकर उनकी दृष्टि से ही दुनिया को देखकर जो साहित्य बच्चों को भी सरल भाषा में लिखा जाए, वही बच्चों का अपना साहित्य होता हॆ।’ यहां मुझे महाकवि जिब्रान की कुछ कविता पंक्तियां याद हो आयी हॆं जिनसे मॆं इस प्रपत्र का अंत करना चाहूंगा। पंक्तियां हॆं:
तुम्हारे बच्चे तुम्हारे नहीं हें।
जिन्दगी जीने के वे प्रयास हें।
तुम केवल निमित्त मात्र हो,
वे तुम्हारे पास हॆं, फिर भी-वे तुम्हारे नहीं हें।
उन्हें अपना विचार मत दो,
उन्हें प्रेम चाहिए।
दीजिए उन्हें घर उनके शरीर के लिए
लेकिन, उनकी आत्मा मुक्त रहने दीजिए।
तुम्हारे स्वप्न में भी नहीं,
तुम पहुंच भी नहीं पाओगे–
ऎसे कल से 
उन्हें अपने घर बनने दीजिए
बच्चे बनिए उनके बीच,
लेकिन अपने समान उन्हें बनाइए मत।