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हरियाणवी लोक साहित्य में अंबेडकरवाद के प्रवर्तक महाशय छज्जूलाल सिलाणा- दीपक मेवाती

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लोक साहित्य एवं संस्कृति

हरियाणवी लोक साहित्य में अंबेडकरवाद के प्रवर्तक महाशय छज्जूलाल सिलाणा

दीपक मेवाती

पीएच. डी. शोधार्थी (IGNOU)

नूंह (मेवात) हरियाणा

सम्पर्क – 9718385204  

ईमेल – dipakluhera@gmail.com

मानव जीवन के हर काल में सामाजिक कुरीतियों को दूर करने,  आमजन को इन कुरीतियों के प्रति जागृत करने का बीड़ा जिस भी शख्स ने उठाया आज उनकी गिनती महान व्यक्तित्व के रूप में होती है। संत कबीर दास, संत रविदास, बिरसा मुंडा, शियाजी राव गायकवाड, ज्योति राव फूले, सावित्रीबाई फूले, बीबी फातिमा शेख,डॉ. भीमराव अंबेडकर, मान्यवर कांशीराम आदि ऐसे ही व्यक्ति हुए जिन्होंने समाज में शोषित,  दलित,  पीड़ित जनता की आवाज उठाई एवं स्वयं के जीवन को भी इनके उत्थान के लिए समर्पित कर दिया। समय-समय पर देश के कोने-कोने में ऐसे अन्य व्यक्ति भी जन्म लेते रहे जिन्होंने समाज को जागृत करने की कोई नहीं बात बताई या फिर ऊपर वर्णित महान लोगों के विचारों का ही प्रचार प्रसार किया।

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     हरियाणा के झज्जर जिले के छोटे से गांव सिलाणा में 14 अप्रैल, 1922 को एक ऐसे ही महान व्यक्ति छज्जूलाल  का जन्म हुआ। उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन समाज की बुराइयों पर लिखते हुए आमजन के बीच बदलाव की बात करते हुए एवं अंबेडकरवाद का प्रचार-प्रसार करते हुए व्यतीत किया। छज्जूलाल जी के पिता का नाम महंत रिछपाल और माता का नाम दाखां देवी था। इनके पिता सन्त प्रवृति के व्यक्ति थे। वे हिंदी, संस्कृत व उर्दू भाषाओं के भी अच्छे जानकार थे। समाज में इनके परिवार की गिनती शिक्षित परिवारों में होती थी। इनकी पत्नी का नाम नथिया देवी था। इनके चाचा मान्य धूलाराम उत्कृष्ट सारंगी वादक थे। महाशय जी कुशाग्र बुद्धि के बालक थे। छज्जू लाल ने मास्टर प्यारेलाल के सहयोग से उर्दू, अंग्रेजी, संस्कृत और हिंदी भाषा का ज्ञान प्राप्त किया। महाशय जी ने 15 वर्ष की अल्पायु में ही कविता लिखना शुरू कर दिया था। इनकी कविताओं पर हरियाणा के एकमात्र राष्ट्र कवि महाशय दयाचंद मायना की शब्दावली का भी प्रभाव पड़ा। छज्जूलाल जी ने महाशय दयाचंद जी को अपना गुरु माना और स्वयं को उनके चरणों का दास मानते हुए लिखा  –

तू ही तू ही तेरा नाम हरदम तेरी आस

गुरु दयाचंद कृपा कीजियो मैं नित रहूँ चरण को दास।

महाशय जी 1942 तक ब्रिटिश आर्मी में रहे हैं किंतु इनका ध्यान संगीत की तरफ था तो इन्होंने आर्मी से त्यागपत्र देकर घर पर ही अपनी संगीत मंडली तैयार कर ली और निकृष्टतम जीवन जीने वाले समाज को जागृत करने के काम में लग गए। उन्होंने ऐसी लोक रागणियों की रचना की जो व्यवस्था परिवर्तन और समाज सुधार की बात  करती हो। महाशय जी 1988 के दौरान आकाशवाणी रोहतक के ग्रुप ‘ए’ के गायक रहे यहां पर उन्होंने लगातार 12 वर्ष गायन कार्य किया। महाशय जी का देहांत 16 दिसम्बर 2005 को हुआ। महाशय छज्जू लाल सिलाणा एक बहुमुखी प्रतिभा के धनी लोक कवि थे। उन्होंने अपने जीवन काल में 21 किस्सों  और एक सौ से अधिक फुटकल रागणियों की रचना की। इनके किस्सों में डॉ. भीमराव अम्बेडकर, वेदवती-रतन सिंह, धर्मपाल-शांति, राजा हरिश्चंद्र, ध्रुव भगत,  नौटंकी, सरवर-नीर, बालावंती, विद्यावती, बणदेवी चंद्रकिरण, राजा कर्ण,  रैदास भक्त शीला-हीरालाल जुलाहा, शहीद भूप सिंह, एकलव्य आदि किस्सों की रचना की। महाशय जी ने सामाजिक बुराइयों जैसे दहेज प्रथा, जनसंख्या, अशिक्षा, महिला-उत्पीड़न, जाति-प्रथा, नशाखोरी,  भ्रूण हत्या आदि पर भी रागणियों की रचना की।

            महाशय जी को जिस ऐतिहासिक किस्से के लिए याद किया जाता है वह डॉ. भीमराव अंबेडकर का किस्सा है। इस किस्से के द्वारा इन्होंने हरियाणा के उस जनमानस तक अपनी बात पहुंचाई जो देश-दुनिया की चकाचौंध से दूर था और जिसके पास जानकारी का एकमात्र साधन आपसी चर्चा और रागणियां ही थी। डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने आजीवन संघर्ष किया जिस कारण ही करोड़ों भारतीयों के जीवन में खुशियाँ आई। बाबा साहब के मूल मंत्र ‘शिक्षित बनो’, संगठित रहो व संघर्ष करो आज लाखों लोगों के जीवन में स्वाभिमान की ज्योति जला रहे हैं। हजारों वर्षों  से दुत्कारे लोग अपने अधिकार मांग रहे हैं। अब उन्हें मानव जीवन की गरिमा का एहसास हुआ है। दलित समाज के अंदर तार्किक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण जागृत हो रहा है। भारतीय संविधान के निर्माता बाबा साहब ने संविधान के माध्यम से अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जन जातियों के कल्याण के उपबन्ध ही संविधान में नहीं लिखे अपितु किसानों, महिलाओं, संगठित और असंगठित क्षेत्र के कर्मचारी मजदूरों के हितों से सम्बंधित उपबन्ध भी संविधान में जोड़े।  महाशय जी ने बाबा साहब के जन्म से लेकर उनके अंतिम क्षणों तक को काव्य बद्ध किया। बाबा साहब के जीवन को इन्होंने 31 रागनियों में समाहित किया। इन रागणियों को ये समाज को जागृत करने के लिए गाया करते थे। वे रागनीयां बहुत अधिक ह्रदय स्पर्शी हैं, जिनमें बाबा साहब के बचपन में जातिगत उत्पीड़न को दर्शाया गया है। जब इन रागणियों को सांग के माध्यम से दिखाया जाता है तब दर्शक की आंखों से आंसू बहने लगते हैं।

भीमराव के बचपन की घटना को महाशय जी लिखते हैं जब महारों के बच्चों को स्वयं नल खोल कर पानी पीने की इजाजत नहीं थी तो भीमराव अंबेडकर प्यास से व्याकुल हो उठते हैं, उसका चित्रण महाशय जी अपने शब्दों में करते हैं :-

बहोत दे लिए बोल मनै कौए पाणी ना प्याता

घणा हो लिया कायल इब ना और सह्या जाता।

म्हारै संग पशुवां ते बुरा व्यवहार गरीब की ना सुणता कौए पुकार

ढएं कितने अत्याचार सुणेगा कद म्हारी दाता।

विद्यालय में जिस समय भीमराव पढ़ते थे तो अध्यापक उनकी कॉपी नहीं जांचता था, अध्यापक भी उनसे जातिगत भेदभाव करता था। इस वाकये को सिलाणा जी लिखते हैं :-

हो मास्टर जी मेरी तख्ती जरूर देख ले

लिख राखे सै साफ सबक पढ़के भरपूर देख ले…..

एक बार भीमराव बाल कटाने नाई के पास जाता है तो नाई उसके बाल काटने से मना कर देता है और कहता है :-

एक बात पूछता हूं अरे ओ नादान अछूत

मेरे पास बाल कटाने आया कहां से ऊत

चला जा बदमाश बता क्यूं रोजी मारे नाई की

करें जात ते बाहर सजा मिले तेरे बाल कटाई की।

इस घटना में नाई भी इसीलिए बाल काटने से मना करता है क्योंकि उसे समाज की अन्य जातियों का डर है।

भीमराव अपने साथ घटित इस घटना को अपनी बहन तुलसी को बताते हैं :-

इस वर्ण व्यवस्था के चक्कर में मुलजिम बिना कसूर हुए

बेरा ना कद लिकड़ा ज्यागा सब तरिया मजबूर हुए।

एक बार भीम सार्वजनिक कुएं से स्वयं पानी खींचकर पी लेता है स्वर्ण हिंदू इससे नाराज होकर भीम को सजा देते हैं उसका चित्रण महाशय जी करते हैं:-

लिखी थी या मार भीम के भाग म्ह

भीड़ भरी थी घणी आग म्ह

ज्यूं कुम्हलावे जहर नाग म्ह ना गौण कुएं पै…..

करा ना बालक का भी ख्याल पीट-पीटकर करया बुरा हाल।

भीम और उनका परिवार जब मुंबई रहता था तो भीम स्कूल से छुट्टी के बाद चरनी रोड गार्डन में जाकर बड़े-बड़े महानुभाव पर किताबें पढ़ते थे। भीम को इस प्रकार पढ़ते देखकर सिटी गार्डन हाई स्कूल के हेड मास्टर केलुस्कर जो कि समाज सुधारक और मराठी लेखक भी थे, वे आश्चर्यचकित हुए उन्होंने भीम को शिक्षा का महत्व समझाया।

महाशय जी ने निम्नलिखित शब्दों के द्वारा इस घटना को बांधा है:-

मूर्ख मनुष्य मतिमंद पागल लिख पढ़ के विद्वान बणज्या

बोलण की तहजीब और रसीली जुबान बणज्या

अप टू डेट आदमी बढ़िया फैशन और डिजान बणज्या

जिस तै रकम कमाई जा उस गुण विद्या की खान बणज्या

थाणेदार कलेक्टर डिप्टी मेजर और कप्तान बणज्या

बैरिस्टर वकील मनिस्टर अकलमंद इंसान बणज्या

निचरली पैड़ी तै ऊंचे ओहदे पै चढज्या सै

उसका जन्म सुधर जा जो नर लिख पढ़ ज्या सै।

1907 में भीमराव ने मैट्रिक की परीक्षा पास की। कैलुस्कर ने भीमराव की आगे की शिक्षा के लिए भीमराव के पिता रामजी सूबेदार को आर्थिक सहायता का आश्वासन दिया। भीमराव का विवाह रमाबाई के साथ निश्चित हुआ। उस समय भीम की आयु 16 और रमा की 9 वर्ष थी। विवाह का चित्रण छज्जू लाल जी ने निम्न शब्दों में किया है:-

सूरज कैसा तेज भीम का, रमी चांदनी सी खिली,

दोनों की हो उमर हजारी, जोड़ी सोहणी खूब मिली।

भीमराव ने बी.ए. के लिए एल्फिन्स्टन कोलेज में प्रवेश ले लिया। घरेलू परिस्थितियों के कारण रामजी की आर्थिक स्थिति कमजोर हो गई। ऐसी स्थिति में श्री केलुस्कर भीमराव अम्बेडकर को लेकर बडौदा के शिक्षाप्रेमी महाराज सियाजिराव गायकवाड़ के पास गए। महराज ने भीमराव से कुछ सवाल किये, जिनका उत्तर भीम ने सुंदर ढंग से दिया। महाराज ने प्रसन्न होकर भीम को पच्चीस रूपये मासिक छात्रवृति देना स्वीकार किया। सन 1912 में भीमराव अम्बेडकर ने कड़ी मेहनत करके बी.ए. की परीक्षा पास कर ली। बी.ए. के बाद आर्थिक तंगी से उभरने के लिए उन्होंने बड़ौदा में लेफ्टिनेंट के पद पर नियुक्ति पायी। भीमराव के बडौदा जाने के बाद उनके पिता रामजी सूबेदार बहुत बीमार हो गए। भीमराव बीमारी के दौरान आते हैं तब रामजी द्वारा भीमराव को सम्बोधित करने के वाकये को कवि लिखते हैं:-

आखिरी अभिलाषा बेटा कहणा मेरा मान लिए

गरीबां का उद्धार करना हृदय के म्ह़ा ठाण लिए

पीड़ित और पतितों का सहारा बण बेटा

असंख्य तारों में चांद उजियारा बण बेटा

अछूतों का प्यारा बण बेटा, कर तन-मन-धन कुर्बान लिए

इनके हित म्ह गोळी खातर सीना अपणा ताण लिए।

2 फरवरी 1913 को रामजी सकपाल जी का देहांत हो गया। पिता की मृत्यु के पश्चात भीमराव महाराज सियाजिराव से मिले एवं उन्हें अपनी पीड़ा सुनाई। महाराज भीमराव की अंग्रेजी से प्रसन्न हुए एवं तीन वर्ष के लिए भीमराव की छात्रवृत्ति स्वीकृत इस शर्त पर की कि अमेरिका में तीन वर्ष अध्ययन के बाद 10 वर्ष बडौदा रियासत में नौकरी करनी पड़ेगी। अमेरीका जाने की बात सुनकर रमा बहुत उदास हुई, लेकिन भीमराव ने बड़े सूझ-बूझ से रमाबाई को समझा दिया। 15 जून 1913 को भीमराव बोम्बे से रवाना होकर न्यूयार्क पहुंचे। यहाँ पर उन्होंने कोलम्बिया विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया तथा बड़ी लगन से अध्ययन में जुट गए। इस घटना को कवि ने निम्न पंक्तियों के माध्यम से उकेरा है:-

एकाग्र एकचित लगा के पढ़ण लाग्या दिन और रात

लेट जाग के पुस्तक पढे जल्दी उठे बखत प्रभात

हरदम ध्यान रहै पढण म्ह सच्चे मन से करे खुबात

निंद्रा काबू करी भीम ने मन डाटा और साध्या गात

निश्चय दृढ़ करया मन म्ह लागी लगन यत्न एक साथ

विषय वासना मार साध नै, काम क्रोध को दे दी मात

मंजिल दिखी साफ़ आप होगी घट म्ह रुश्नाई।

भीम अमरीका जाकै लाग्या करण पढ़ाई।

कोलम्बिया यूनिवर्सिटी में सफलता प्राप्ति के पश्चात भीमराव का ध्यान लन्दन की ओर मुड़ा क्योंकि उनके ज्ञान की पीपासा शांत नहीं हुई थी। अम्बेडकर के आग्रह पर महाराज बडौदा ने उनकी छात्रवृति की अवधि दो वर्ष के लिए और बढ़ा दी। जिससे भीमराव लंदन से शिक्षा ग्रहण कर सकें। लंदन में उन्होंने एम.एससी. (अर्थशास्त्र) में दाखिला लिया और यहाँ के विशाल पुस्तकालयों में जाकर पढ़ाई शुरू कर दी। लेकिन इसी बीच भीमराव को समाचार मिला कि उनकी छात्रवृति की अवधि समाप्त हो गई है। इससे अम्बेडकर बहुत निराश हुए। लेकिन उन्होंने प्रो. एडविन कैनन की सहायता से लन्दन यूनिवर्सिटी में अध्ययन की इजाजत ले ली। भीम बडौदा के दीवान के बुलावे पर अगस्त 1917 में अपनी प्रतिज्ञा अनुसार दस वर्ष बडौदा रियासत की सेवा करने के लिए बडौदा पहुँच गए। लेकिन वहां पर कोई भी होटल भीमराव को ठहराने के लिए राजी नहीं हुआ और न ही कोई कमरा किराए पर मिला। भीमराव ने अपना नाम बदलकर एक पारसी सराय में शरण ली। इस सराय में बिजली का प्रबंध नहीं था। इसमें चूहे और चमगादड़ भी बहुत अधिक थे। अम्बेडकर को मजबूरीवश वहीं पर रुकना पड़ा। इस प्रकार बडौदा में भीम को बड़ी मुसीबतों का सामना करना पड़ा था। महाशय जी ने इस घटना को कुछ इस प्रकार लिखा है-

इस जात-पात के भेदभाव ने बडौदा म्ह घणा सताया

ढूंढ-ढूंढ लिया टूट भीम ठहरण नै नहीं ठिकाणा पाया

हार के लिया झूठ तै काम, भीम नै बदल्या अपणा नाम

एक सराह म्ह लिया थाम, जब पारसी धर्म बतलाया।

बडौदा के कटु अनुभवों से डॉ. अम्बेडकर को बहुत दुःख हुआ। उनके मन में विचार आया कि जब उन जैसे शिक्षित एवं सुसंस्कृत व्यक्ति के साथ ऐसा व्यवहार होता है तो उन अछूत भाइयों का क्या होगा जो अनपढ़ हैं। लाचारी और विवशता के कारण अम्बेडकर वापिस मुंबई लौट आये। बम्बई आकार भीमराव कैलुस्कर से मिले। तब कैलुस्कर ने अपने मित्र प्रोफेसर जोशी को पत्र लिखा जो उस समय बडौदा में रहते थे। श्री कैलुस्कर ने भीम के उनके घर में ठहरने की व्यवस्था के लिए कहा। प्रोफेसर जोशी ने सहमति दे दी। किन्तु जब भीमराव प्रोफेसर जोशी के घर पर पहुंचे तब पति-पत्नी को उनके विषय में झगड़ते हुए पाया। इस वाकये को महाशय जी ने लिखा है-

पत्नी : नीची जात अछूत आदमी नै घर मेरे म्ह लाया क्यूं

पति  : यो लिख्या-पढ़ा विद्वान मनुष्य तनै नीच अछूत बताया क्यूं

पत्नी : नीच अछूत आदमी के दर्शन म्ह टोटा हो से

पति  :  जो दूसरे नै नीच कहे वो माणस छोटा हो से

पत्नी :  वेद शास्त्र कहें नीच का संग घणा खोटा हो से

पति  :  कर्म बताया प्रधान जगत म्ह मरहम लोटा हो से।

इस अपमान को भीमराव अम्बेडकर आजीवन नहीं भूले। हालांकि प्रोफेसर जोशी अपने प्रगतिशील विचारों के कारण जाने जाते थे। लेकिन अपनी पत्नी के सामने मजबूर थे। भीमराव निराश होकर बोम्बे लौट आए। अब उनके सामने आर्थिक समस्या भी आन पड़ी। क्योंकि आजीविका का कोई साधन नहीं रह गया था। साल दो साल भीमराव यूंही कष्टों में जीवन व्यतीत करते रहे। एक दिन भीमराव को सूचना मिली कि बोम्बे के सरकारी सिडनेहम कोलेज ऑफ़ कोमर्स एंड इकोनोमिक्स में एक प्रोफेसर की जगह रिक्त है। डॉ. भीमराव का इंटरव्यू के बाद इस कोलेज में चयन हो गया। पहले ही दिन के लेक्चर से छात्र बहुत अधिक प्रभावित हुए। भीमराव के लेक्चर की जो चर्चा छात्रों ने आपस में की उसको महाशय जी लिखते हैं-

सुणों दोस्तों अमरीका तै विद्वान आया से

सिडनेहम म्ह प्रोफेसर भीमराव बताया से

करी कोलम्बिया तै पीएच.डी. जो चार कूट म्ह नामी से

अर्थशास्त्र और राजनैतिक विज्ञान का स्वामी से

आळकस सुस्ती ना धौरे मेहनती और कामी से

वो लैक्चर म्ह हद करदे ज्ञान म्ह चट्या-चटाया से।

भीमराव ने कुछ पैसे अपने वेतन से बचाए व छत्रपति साहूजी महाराज ने भी उनकी आर्थिक मदद की। जिससे ही भीम दोबारा अपनी पढ़ाई पूरी करने लन्दन जा सके। अप्रैल 1923 में भीमराव शिक्षा पूरी करने के पश्चात भारत लौट आए। जून 1923 उन्होंने एक वकील के तौर पर काम शुरू किया। जिसमें उन्होंने अपनी योग्यता का लौहा मनवाया। भीमराव को अभी तक भारत में एक दलित नेता के रूप में भी प्रसिद्धि प्राप्त हो चुकी थी। इसी कड़ी में भीमराव अम्बेडकर ने महाड़ के चावदार तालाब से पानी पीने के लिए आन्दोलन चलाया। इस आन्दोलन में शामिल होने आए लोगों को अध्यक्षीय भाषण के दौरान जिस प्रकार समाज की कुटिलता का परिचय भीमराव ने कराया उसको महाशय जी लिखते हैं-

देख-देख के मौका धोखा धुर तै करते आए

घने पोलसीबाज, पोप, पक्के बदमाश बताए…

त्रेता युग म्ह शम्बूक संग घणा मोटा जुल्म कमाया था

रैदास कबीर भक्त चेता पे जाति आरोप लगाया था

गुरु वाल्मीकि, सबरी भीलनी नै चमत्कार दिखलाया था

काशी म्ह कालिया भंगी नै हरिचंद का धर्म बचाया था

हिन्दुओं के पोथी-पुस्तक म्ह वे भी चंडाल कहाए।

19 मार्च 1927 की रात को कांफ्रेस के पश्चात सब्जेक्ट कमेटी की बैठक हुई। जिसमें निर्णय लिया गया कि सामूहिक रूप में चावदार तालाब पर पानी लेने के लिए जाएं। 20 मार्च को बाबा साहब ने कुछ इस प्रकार लोगों का उत्साहवर्धन किया-

चलो शूरमा आज तुम्हें शुभ काम पे जाणा से

महाड़ के चावदार तालाब का पाणी लाणा से

वर्ण व्यवस्था भस्म करण ने आग बन जाओ

मतना रहो गिजाई जहरी नाग बन जाओ

कदे तक ना बुझे वो चिराग बन जाओ

सोलह करोड़ अछूतों के तुम भाग बण जाओ

ए मरदानों हंस के बीड़ा तुमने ठाना से।

भीमराव अम्बेडकर की भरपूर कोशिशों के बाद जब कम्युनल अवार्ड के द्वारा दलित वर्गों को भी मुसलमाओं, इसाइयों और सिखों की भांति अपने प्रतिनिधि चुनने का अधिकार दिया गया तब गांधी जी इसके विरोध में मरणव्रत पर बैठ गए। बाबासाहब और गांधी जी के बीच 24 सितम्बर 1932 को पूना में समझौता हुआ। जिसके बाद गांधी जी ने मरणव्रत तो तोड़ा। बाबा साहब ने गांधीजी के सम्मुख समझौते की शर्तें कुछ इस प्रकार रखी थी-

गांधी जी मेरे सवाल का उत्तर दे सही बोल के

गरीबां का हकूक इब तै बिलकुल परमानेंट लिख दो

हर वास्तु म्ह साझा बाधा पूरा एग्रीमेंट लिख दो

नौकरी सर्विस म्ह हक ट्वंटी वन परसेंट लिख दो

वायसराय, गवर्नर, डिप्टी, मेजर, लेफ्टीनेंट लिख दो

बी.ए., एम.ए. डिग्री सारी ईब तै ग्रेजुएट लिख दो

लेंडलार्ड करो इन्हीं को सख्त हुकम अर्जेंट लिख दो

इस भारत के धनमाल का हिस्सा दे तोल-मोल के।

बाबा साहब अब हर पीड़ित, दुखी जन की आवाज बनने लगे। किसानों के पश्चात बाबा साहब ने रेल मजदूरों के हकों की आवाज उठाई। एक सभा में पिछड़े वर्ग के नौजवानों को सम्बोधित करते हुए बाबा साहब कहते हैं –

अ नौजवान उठ क्या करता आराम है

इस देश का सुधार करना तेरा काम है….

खुद आप जागज्या और दुनियां को जगा दे

लड़ अहिंसा का युद्ध सत की तोप दगा दे

छुआछूत का भूत इस भारत से भगा दे

बढ़ज्या वतन की शान अपनी जान लगा दे

ये अस्पृश्यता देश के लिए इल्जाम है।

जनवरी 1945 में डॉ. अम्बेडकर कलकत्ता गए। वहां पर गरीब, मजदूर व किसानों की एकता व संघर्ष पर बल दिया। उन्होंने कहा की अपनी पार्टी ‘शेड्यूल कास्ट्स फेडरेशन’ को मजबूत बनाओ। बाबा साहब ने लोगों को इस प्रकार आश्वस्त किया-

अभिमान करण आलां के आदर घट के रहेंगे

धन और धरती भारत के म्ह बंट के रहेंगे….

कानूनों के जरिये जुल्म कमाल मिटाया जागा

बैर द्वेष देश से तुरंत फिलहाल मिटाया जागा

बेईमान माणस का गंदा ख्याल मिटाया जागा

गरीब अमीरों का भी कतई सवाल मिटाया जागा

ईब सब इंसान एक दर्जे पे डट के रहेंगे।

14 अक्तूबर 1956 को जब बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर ने नागपुर में बौद्ध धर्म स्वीकार किया। उस समय दलित जनता जिस प्रकार के जोश से लबालब होकर नागपुर की ओर बढ़ रही थी, उसका चित्रण महाशय जी करते हैं-

लाखों की तादाद चली बन भीमराव की अनुगामी

बुद्धम शरणम गच्छामि, धम्मम शरणम गच्छामि

संघम शरणम गच्छामि…..

जो बतलाया भीमराव ने सबने उसपे गौर किया

बुद्ध धर्म ग्रहण करेंगे संकल्प कठोर किया

कूच नागपुर की ओर किया निश्चय लेकर आयामी

बुद्धं शरणम्……

6 दिसम्बर 1956 जिस दिन महामानव भीमराव अम्बेडकर की मृत्यु हुई। उस दिन बाबासाहब के निजि सचिव नानक चंद रत्तू जी रोते-रोते जो कुछ कहते हैं उसको सिलाणा जी लिखते हैं –

आशाओं के दीप जला, आज बाबा हमको छोड़ चले

दीन दुखी का करके भला, आज बाबा हमको छोड़ चले…

पीड़ित और पतित जनों के तुम ही एक सहारे थे

च्यारूं कूट म्ह मातम छा गया, दलितों के घने प्यारे थे

नम आखों से अश्रु ढला, आज बाबा हमको छोड़ चले।

इस प्रकार महाशय छज्जूलाल सिलाणा ने बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर के पूरे जीवन को हरियाणवी लोक साहित्य की विधा रागनी में काव्य बद्ध किया। जिससे आमजन को भी बाबा साहब के विचारों से रूबरू होने का अवसर प्राप्त हुआ। महाशय जी का हरियाणवी लोक साहित्य के लिए भी ये अतुलनीय योगदान है। क्योंकि अभी तक इस प्रकार का किस्सा किसी भी हरियाणवी लोक रचनाकर ने नहीं रचा है। महाशय जी ने भोली दलित जनता के हृदय में स्वाभिमान, मौलिकता और आत्मविश्वास पैदा करने की कोशिश की है। अंत में कहा जा सकता है कि महाशय छज्जूलाल सिलाणा हरियाणवी लोक साहित्य में अम्बेडकरवाद के प्रवर्तक हैं।

संदर्भित पुस्तक :- महाशय छज्जूलाल सिलाणा ग्रन्थावली (2013), सं. डॉ. राजेन्द्र बड़गूजर, गौतम बुक सैंटर दिल्ली।                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                         

महात्मा गाँधी की पुस्तक ‘हिन्द स्वराज’ की प्रासंगिकता-अमन कुमार

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man in black jacket standing on pathway between bare trees
Photo by Greg Schneider on Unsplash

महात्मा गाँधी की पुस्तक ‘हिन्द स्वराज’ की प्रासंगिकता

अमन कुमार

पीएच.डी(शोधार्थी)

(गुजरात केन्द्रीय विश्वविद्यालय)

मो. 931270598

ई.मेल- aman1994rai@gmail.com

सारांशः- 2 अक्टूबर 2021 को महात्मा गांधी जी की 152 वीं जन्म दिवस मनाई जाएगी । लिहाजा इस हिसाब से बापू की रचना हिंद स्वराज की प्रासंगिकता पर चर्चा करना अनिवार्य हो जाता हैं । महात्मा गांधी जी ने अपनी पुस्तक ‘हिंद स्वराज’ को भारत आने से काफी वर्ष पूर्व लिखा था । बापू ने यहां पुस्तक भारत के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक स्थिति को ध्यान में रखकर लिखा था। मुझे तो यह लगता है, कि प्रत्येक भारतवासी को यह पुस्तक अवश्य पढ़नी चाहिए। बापू ने अपनी पुस्तक को विभिन्न अध्यायों में विभाजित कर भारत की तमाम समस्याओं का समाधान इस पुस्तक में दिया हैं । बापू इस पुस्तक के माध्यम से कहीं ना कहीं एक आदर्श भारत, एक आदर्श समाज, एक आदर्श व्यक्ति और एक आदर्श व्यक्तित्व की निर्मिति चाहते हैं । इस पुस्तक के अध्ययन से हम बापू की दूरदर्शिता से भी वाकिफ होंगे । यह पुस्तक एक व्यक्ति के संपूर्ण विकास हेतु महत्वपूर्ण दस्तावेज है । बापू के जन्मदिवस पर प्रत्येक भारतीय को यह अवश्य विचार करना चाहिए कि क्या हम ऐसे भारत का निर्माण कर पाए? जिसकी कल्पना पूज्य बापू ने की थी?

बीज शब्दः- हिन्द स्वराज, राजनैतिक-सार्वजनिक, अशांति और असंतोष, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, कांग्रेस और उसके कर्ता-धर्ता, सनातन भारतीय सभ्यता, शांति एवं सुव्यवस्था, हिन्दू-मुस्लिम संबंधों, सांस्कृतिक परिष्कार, वसुधैव कुटुम्बकम, देश-काल, आधुनिक प्रजातंत्र,

भूमिकाः- भारत को स्वतंत्रता दिलाने में जिन लोगों का नाम लिया जाता है उनमें महात्मा गाँधी अग्रणी है। हिंदी ही नहीं अपितु सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में जिस व्यक्ति पर सबसे अधिक लिखा गया उनमें महात्मा गाँधी का नाम महत्वपूर्ण है। महात्मा गाँधी ने स्वयं भी अपने साठ वर्षो के व्यस्ततम राजनैतिक-सार्वजनिक जीवन के बीच विपुल साहित्य रचा। उनका यह साहित्य उनके लेखों, बयानों, भाषणों और पत्रों में फैला है। उनकी व्यवस्थित रचनाएँ है ‘हिन्द स्वराज’, ‘आत्मकथा’, अथवा ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’ तथा ‘दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास’ है। इनमें से ‘हिन्द स्वराज’ सबसे लोकप्रिय और प्रासंगिक पुस्तक है। यह पुस्तक महात्मा गाँधी के सक्रिय सार्वजनिक जीवन की प्रारंभिक कृतियों में से एक है। ‘हिन्द स्वराज को महात्मा गाँधी की सम्पूर्ण रचनाओं का सर कहा जा सकता है दूसरे शब्दों में यह पुस्तक महात्मा गाँधी के विचारों का दर्पण है।

‘हिन्द स्वराज’ का महत्व गांधीवाद के लिए लगभग वैसा ही है जैसा मार्क्सवाद के लिए कम्युनिस्ट पार्टी के घोषणा पत्र का। सन् 1909 में लन्दन से दक्षिण अफ्रीका की वापसी की यात्रा में मूलतः गुजराती में लिखी इस पुस्तक का प्रकाशन आधुनिक भारतीय इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना है । सर्वप्रथम यह ‘इंडियन ओपिनियन’ के गुजराती संस्करण में दो लेखों में प्रकाशित हुआ। 1910 में सरकार ने इसे खतरनाक मानते हुए जब्त कर लिया। उसी वर्ष गाँधीजी ने इसका अनुवाद अंग्रेजी में प्रस्तुत किया और तब से लेकर आज तक यह पुस्तक प्रासंगिक बनी हुई है। महात्मा गाँधी ने ‘हिन्द स्वराज’ के विषय में 1921 के ‘यंग इंडिया’ के गुजराती अनुवाद में लिखा कि “यह बालक के हाथ में भी दी जा सकती है। यह द्वेष-धर्म की जगह प्रेम-धर्म सिखाती है; हिंसा की जगह आत्म-बलिदान को रखती है; पशुबल से टक्कर लेने के लिए आत्मबल को खड़ा करती है; इसकी अनेक आवृत्तियाँ हो चुकी हैं; और जिन्हें इसे पढने की परवाह है उनसे इसे पढने की मैं जरुर सिफारिश करूँगा..।”1

इस प्रदत्त पत्र में मैं ‘हिन्द स्वराज’ पुस्तक के अध्यायों की चर्चा करते हुए इस पुस्तक की प्रासंगिकता पर विचार करूँगा। ‘हिन्द स्वराज’ पुस्तक के प्रथम तीन अध्यायों में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस तथा भारतीय जन जागरूकता का जिक्र आया है। पहले अध्याय का शीर्षक ‘कांग्रेस और उसके कर्ता-धर्ता’ है। इस अध्याय में गांधीजी अपनी दृष्टी में आम-आदमी व लोकपक्ष का तर्क प्रस्तुत करते हैं । ‘हिन्द स्वराज’ का दूसरा अध्याय ‘बंग-भंग’ एवम् तीसरे अध्याय ‘अशांति और असंतोष’ आपस में जुड़ा हुआ है। दूसरे अध्याय में अंग्रेजी हुकूमत द्वारा बंगाल का बंटवारा (1905) और तीसरे अध्याय में बंग-भंग के बारे में अंग्रेज सरकार के निर्णय के उपरांत पूरे देश और खासकर बंगाल में पैदा हुए “अशांति और असंतोष” के बारे में अपना विश्लेषण प्रस्तुत किया है। हिन्द स्वराज के दूसरे अध्याय में ‘बंग-भंग’ के बारे में गाँधीजी कहते हैं, “स्वराज के बारे में सही जागृति के दर्शन बंग-भंग से हुई।…प्रजा एक दिन में नहीं बनती, उसे बनाने में कई बरस लग जाते हैं।”2 तीसरे अध्याय में बंगाल विभाजन के परिणाम स्वरूप उपजे अशांति एवं असंतोष के बारे में अपने विश्लेषण में गाँधीजी कहते हैं कि नींद और जागने की प्रक्रिया में अंगडाई की स्थिति स्वाभाविक होती है ठीक उसी प्रकार गुलामी की प्रक्रिया में सुप्त चेतना और आत्म चेतना के बीच अशांति और असंतोष भी स्वाभाविक है। गाँधीजी ने इस अशांति और असंतोष को समाज के विकास के लिए जरूरी माना। उनका मानना था कि अशांति और असंतोष उसी समाज में होगा जो अपनी यथा-स्थिति से खुश नहीं होगा और अपने भीतर किसी प्रकार सकारात्मक बदलाव चाहता होगा। अर्थात अशांति और असंतोष की भी समाज के विकास में बड़ी भूमिका है गाँधी जी के यह विचार इतने प्रासंगिक हैं कि किसी भी देश-काल में विश्व की किसी भी सभ्यता के समाज पर लागू किए जा सकते हैं।

अध्याय चार, ‘स्वराज क्या है?’ इस अध्याय से हिन्द स्वराज का असली असली घोषणापत्र शुरू होता है। इस अध्याय में गाँधीजी स्वराज का अर्थ एवं प्रकृति समझते हैं। उनका कहना है कि यह समझना बहुत आवश्यक है कि इस देश से अंग्रेजों क्यों निकाला जाना चाहिए। गाँधी जी कहते हैं कि कुछ लोग अंग्रेजों को तो इस देश से भगाना चाहते हैं परंतु वे अंग्रेजी राज और अंग्रेज़ी राज के विधान में कोई बुराई नहीं देखते। गाँधीजी ने स्वराज के सही अर्थ को इस अध्याय में स्पष्ट किया है। इस अध्याय को पढ़ कर स्वराज की जो विस्तृत परिकल्पना स्पष्ट होती है जो बहुत शुद्ध और विराट है। गाँधीजी जिस स्वराज की तस्वीर सामने रखते हैं वह स्वशासन से पूर्व व्यक्ति के आत्मिक परिष्कार की मांग करता है। ऐसा स्वराज भारत में आज भी प्रासंगिक है।

आधुनिक औद्योगिक सभ्यता की मीमांसा अध्याय पांच और छः में की गई है। अपनी कल्पना के स्वराज की चर्चा गाँधीजी हिन्द स्वराज के पांचवें अध्याय में करते हैं। जिसका शीर्षक है- ‘इंग्लैंड की हालत’। गांधीजी कहते हैं कि इंग्लैंड में जो राज्य चलता है वह ठीक नहीं है और हमारे लायक नहीं है। इंग्लैंड की संसद तो बांझ और वेश्या है। वास्तव में इस अध्याय में अंग्रेजी राज के विधान को अपने तर्क से नकारते हैं। इस अध्याय में गाँधीजी ने आधुनिक प्रजातंत्र की संसदीय प्रणाली की सही और कटु आलोचना प्रस्तुत की है। इस आलोचना का महत्व समकालीन भारतीय संदर्भ में और भी बढ़ गया है। गाँधीजी के संसदीय व्यवस्था पर किए गये विचार आज भारत में बहुत प्रासंगिक हैं।

छठे अध्याय का शीर्षक है- ‘सभ्यता का दर्शन’। इस अध्याय का सैद्धान्तिक आधार एक ओर सनातन भारतीय सभ्यता की उनकी समझ है जो मूलतः गाँधीजी की व्यक्तिगत अनुभूतियों पर आधारित हैं तो दूसरी ओर यह प्लेटो, रस्किन, थोरो और टाल्सटाय की रचनाओं से प्रभावित है। भारतीय दृष्टि से यूरोपीय सभ्यता की प्रारम्भिक सैद्धान्तिक आलोचना है। आधुनिक सभ्यता की इतनी सटीक, इतनी कटु, इतनी सरल भाषा में और इतनी कलात्मक आलोचना अन्यत्र दुर्लभ है। पश्चिम की सभ्यता की जिन खामियों को गाँधीजी ने अपने समय में ही पहचान लिया था। आज उन्हीं खामियों की वजह से भारत अपनी अस्मिता पर, संस्कृति पर संकट महसूस कर रहा है। गाँधीजी के यह विचार आज बहुत प्रासंगिक हो चुके हैं।

‘हिन्दुस्तान कैसे गया?’ का वर्णन अध्याय सात में है। सातवें अध्याय में गाँधीजी पिछले अध्याय के तर्क को आगे बढ़ाते हैं। इस अध्याय का शीर्षक में गाँधीजी ने स्पष्ट किया कि – “हम अपनी पारम्परिक संस्कृति की आन्तरिक कमियों या समाज व्यवस्था की रणनीतिक कमजोरियों के कारण या अंग्रेजी संस्कृति की आन्तरिक शक्ति या उनकी समाज व्यवस्था की आन्तरिक गुणवत्ता के कारण नहीं हारें हैं बल्कि हमारे प्रभुत्व वर्ग और उभरते हुए मध्य वर्ग के लोभ और लालच के कारण बिना संघर्ष किये एक स्वैच्छिक समझौते के तहत हारे हैं।”3 अंग्रेजी राज एक अनैतिक एवं चालबाज सभ्यता की उपज है जो लोभ, लालच और अनैतिक समझौतों का प्रचार करती है और एक साजिश के तहत हमारे शासक एवं व्यापारी वर्ग को रिझाकर अपना उल्लू सीधा करती है। गाँधीजी उस समय उपनिवेशवाद की जिन खामियों को इंगित कर रहे थे वह खामियां आज के इस नवउपनिवेशवादी युग में अत्यंत प्रासंगिक है।

गाँधीजी का मानना था कि अंग्रेजों को यहाँ लाने वाले हम ही हैं और वे हमारी बदौलत ही यहाँ रहते हैं। हमने उनकी सभ्यता अपनायी है, इसलिए वे यहाँ रह रहे हैं। जिस दिन एक देश के रूप में हिन्दुस्तान का स्वाभिमान जाग गया और हमने उनकी शैतानी सभ्यता का आकर्षण त्याग दिया उसी क्षण हमें गुलामी से आजादी मिल जायेगी। वास्तव में इस अध्याय में हिन्दुस्तान अंग्रेजों के हाथ में क्यों है, इसकी सूक्ष्म व्याख्या की गई है। इस अध्याय में गाँधीजी ने भारत के लोगों की जिन कमजोरियों और लालच को इंगित किया है वह आज भारतीय समाज में चरम पर है पश्चिमी सभ्यता ने आज भारत को अपने रंग में पूरी तरह रंग दिया है जिसने भारतीय सभ्यता को पूर्णतः बिगाड़ कर रख दिया है।

आठ से ग्यारह तक गाँधीजी हिन्दुस्तान की दशा की व्याख्या करते हैं। अध्याय आठ में गाँधीजी कहते हैं कि ‘आज हिन्दुस्तान की रंक (कंगाल) दशा है। हिन्दुस्तान अंग्रेजों से नहीं, बल्कि आजकल की सभ्यता से कुचला जा रहा है, उसकी चपेट में वह फंस गया है। उसमें से बचने का अभी भी उपाय है, लेकिन दिन-ब-दिन समय बीतता जा रहा है। मुझे तो धर्म प्यारा है। हिन्दुस्तान धर्मभ्रष्ट होता जा रहा है। धर्म का अर्थ मैं यहां हिन्दू, मुस्लिम या जरथोस्ती धर्म नहीं करता। लेकिन इन सब धर्मों के अंदर जो धर्म है वह हिन्दुस्तान से जा रहा है। हम ईश्वर से विमुख होते जा रहें हैं। धर्म से विमुखता गाँधीजी की पहली चिन्ता है। दूसरी चिन्ता गाँधीजी की यह है कि आधुनिक लोग हिन्दुस्तान पर यह तोहमत लगाते हैं कि हम आलसी हैं और गोरे लोग मेहनती और उत्साही हैं। गाँधीजी आगे कहते हैं कि हिन्दुस्तानी लोगों ने इस झूठी तोहमत को सच मान लिया है और आधुनिक मानदंडो पर खरा उतरने के लिए अनावश्यक रूप से गलत दिशा में प्रयत्नशील हो गये हैं। हिन्दू, मुस्लिम, जरथोस्ती, ईसाई सब धर्म सिखाते हैं कि हमें दुनियावी बातों के बारे में मंद और धार्मिक (दीनी) बातों के बारे में भी उत्साही रहना चाहिए। हमें अपने सांसारिक लोभ, लालच और स्वार्थ की हद (सीमा) बांधनी चाहिए और आत्म विकास एवं सांस्कृतिक परिष्कार पर ज्यादा ध्यान केंद्रित करना चाहिए। गाँधीजी बल देकर कहते हैं कि जैसे पाखंड आधुनिक सभ्यता में पाया जाता है उसकी तुलना में सभी धर्मों में पाया जाने वाला व्यवहारिक पाखंड कम खतरनाक और कम दुखदायी होता है। आधुनिक सभ्यता एक प्रकार का मीठा जहर है। उसका असर जब हम जानेंगे तब पुराने वहम और धार्मिक पाखंड इसके मुकाबले मीठे लगेंगे। आधुनिक सभ्यता के वहमों और पाखंडों से आधुनिक सभ्यता में आस्था रखने वाले लोगों को लड़ने का कोई कारण नजर नहीं आता। जबकि सभी धर्मों के भीतर धर्म और पाखंड के बीच धार्मिक संघर्ष सदैव चलता रहा है। गाँधीजी की तीसरी चिन्ता यह है कि कुछ लोगों को भी भ्रम है अंग्रेजों ने हिन्दुस्तान में शांति एवं सुव्यवस्था कायम की है और अंग्रेज नहीं होते तो ठग, पिंडारी, भील आदि आम आदमियों का जीना नामुमकिन कर देते। गाँधीजी इसे भी अंग्रेजी राज प्रेरित आधुनिक कुप्रचार मानते हैं। इन सबका इस अध्याय में गहराई से विचार किया गया है।

इसी क्रम को नवें अध्याय में ‘हिन्दुस्तान की दशा’ की व्याख्या करते हुए रेलगाड़ियों के महत्व पर प्रकाश डालते हैं। हिन्दुस्तान की तत्कालीन दशा के बारे में गाँधीजी की सोच यह है कि- “वास्तव में जिन चीजों ने हिन्दुस्तान को रंक (कंगाल) बनाने में सबसे बड़ी भूमिका निभाई है उसे ही हम लोगों ने लाभकारी मानना शुरू कर दिया है। हिन्दुस्तान को रेलों ने, वकीलों ने और डॉक्टरों ने कंगाल बना दिया है। गाँधीजी की दृष्टि में आधुनिक सभ्यता एक अदृश्य रोग है। इसका नुकसान मुश्किल से मालूम हो सकता है |”4 इस अध्याय का मूल उद्देश्य आधुनिक सभ्यता के तकनीकी आधार पर सूक्ष्म समालोचना है। इसमें गाँधीजी कहना चाहते हैं कि किसी भी सच्ची, अच्छी और कल्याणकारी सभ्यता का आधार धर्म, नीति और मूल्य होते हैं तथा यंत्रों, तकनीकों एवं मशीनों का उपयोग मात्र साधन के रूप में होता है। जबकि आधुनिक सभ्यता का आधार मूल्य, नीति और धर्म के बदले आधुनिक तकनीक वाला मशीन बन जाता है। गाँधीजी तकनीक की सांस्कृतिक उपयुक्तता का प्रश्न उठाते हैं। उनका मानना है कि मनुष्य के जीवन, आकांक्षा, सुख-दुख, सफलता-असफलता, हानि-लाभ, प्रगति-पतन जैसे मूल विषयों को जब मूल्यों के स्थान पर तकनीक परिभाषित करने लगते हैं तब सभ्यता पर असली संकट आता है। गाँधीजी के तर्क में दम तो है परन्तु पिछले अध्यायों के तर्क से थोड़ी असंगति भी दिखती है।

गाँधीजी की पांचवीं चिन्ता यह है कि – “लोग अंग्रेजों के इस कुप्रचार को सच मानते हैं कि हिन्दुस्तानी लोग अंग्रेजों और रेलवे के आने से पहले एक राष्ट्र नहीं थे और एक राष्ट्र बनाने में हम लोगों को सैकड़ों बरस लगेंगे। गाँधीजी साफ-साफ कहते हैं कि यह बिल्कुल बेबुनियाद बात है। जब अंग्रेज हिन्दुस्तान में नहीं थे तब भी हम एक राष्ट्र थे। हमारे विचार एक थे। हमारा रहन-सहन एक था। तभी तो अंग्रेजों ने यहां एक राज्य कायम किया। हमारे बीच भेद तो बाद में उन्होंने पैदा किया। एक राष्ट्र का अर्थ यह नहीं कि हमारे बीच कोई मतभेद नहीं था।”5 परन्तु हमारे बीच एकता के महत्वपूर्ण सूत्र प्राचीनकाल से रहे हैं। हमारे यहां रेलवे नहीं थी लेकिन हमारे समाज के प्रमुख लोग पैदल या बैलगाड़ी में हिन्दुस्तान का सफर करते थे। वे लोग एक-दूसरे की भाषा सीखते थे। देश के चारों कोनों तक लोग तीर्थ करने जाते थे। हमारे यहां एकता का सूत्र अलग प्रकार के रहें हैं।

हिन्द स्वराज के दसवें अध्याय में गाँधीजी हिन्दुस्तान में हिन्दू-मुस्लिम संबंधों की दशा-दिशा की समालोचना करते हैं। हिन्दुस्तान की तत्कालीन दशा के बारे में गाँधीजी की छठी चिन्ता यह है कि विदेशी शिक्षा और कुप्रचार के प्रभाव में कुछ लोग मानने लगे हैं कि भारत में हिन्दू-मुसलमान कभी मिलकर नहीं रह सकते। यह एक काल्पनिक मिथ है। हिन्दुस्तान में इसलिए सभी धर्मों और मतों के लिए स्थान है। यहां राष्ट्र सभ्यतामूलक अवधारणा है। राष्ट्र या सभ्यता का अर्थ यहां तात्विक रूप से सदैव विश्व व्यवस्था या वसुधैव कुटुम्बकम के रूप में रहा है। नये धर्मों या विदेशी धर्मों एवं उनके अनुयायियों के प्रवेश से यह राष्ट्र कभी आतंकित और चिंतित नहीं होता। यह एक सनातन सभ्यता है, सनातन राष्ट्र है। यह अंततः मिटने वाली नहीं है। जो नये लोग इसमें दाखिल होते हैं, वे इस राष्ट्र की प्रजा को तोड़ नहीं सकते, वे इसकी प्रजा में अंततः घुल-मिल जाते हैं। हिन्दुस्तान ऐसा रहा है और आज भी ऐसा ही है। गाँधीजी ने स्पष्ट किया कि पूजा पद्धति, रीति-रिवाज और उपासना की साम्प्रदायिक व्यवस्था के स्तर पर हिन्दू-मुसलमानों में अंतर अवश्य है परंतु यह अंतर उन्हें दो राष्ट्रों की प्रजा नहीं बना सकता। 1947 में देश के बंटवारे के अवसर पर भी गाँधीजी ने नहीं माना कि दो राज्य बनने से भारत और पाकिस्तान नामक दो राष्ट्र बन गए। वे हमेशा मानते रहे कि भारत में राष्ट्र की अवधारणा सभ्यतामूलक रही है, एक प्रकार की भू-सांस्कृतिक अवधारणा रही है और समय-समय पर इनमें न सिर्फ एक से अधिक राज्य होते रहें हैं बल्कि उनके बीच राजनैतिक शत्रुता भी रही है। गाँधीजी का मानना था कि बंटवारे के बावजूद भारत और पाकिस्तान के हिन्दू-मुसलमान एक ही सभ्यता के अंग रहेंगे।

हिन्द स्वराज के ग्याहरवें अध्याय में वे तत्कालीन हिन्दुस्तानी समाज में वकीलों, जजों और आधुनिक न्यायालयों के द्वारा ब्रिटिश राज के संवर्धन की समालोचना करते हैं। उस समय के हिंदुस्तानी समाज के बारे में गांधीजी की सातवीं चिंता भारतीय समाज में वकीलों के बढ़ते महत्व को लेकर है। उनकी राय में वकीलों ने हिंदुस्तान को गुलाम बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इस अध्याय में गांधीजी भारतीय वकीलों की सुप्त राष्ट्रवाद को जगाकर उन्हें अंग्रेजों से असहयोग करने के लिए प्रेरित करते हैं।

हिंद स्वराज के बारहवें अध्याय में वे हिंदुस्तान की तत्कालीन दशा से संबंधित अपना पाँचवाँ लेख डॉक्टर शीर्षक से पूरा करते हैं। इस दृष्टि से पांच लेखों के अंतर्गत गांधीजी की आठवीं चिंता वकीलों, डॉक्टरों जैसे नये पेशों के प्रचार-प्रसार के बहाने अनीति अधर्म के नये-नये क्षेत्रों के प्रचार प्रसार को लेकर है। इस अध्याय के संदर्भ में ध्यान देने पर इसमें अंग्रेजी राज के विरुद्ध और हिंदुस्तानी सभ्यता में स्वराज की प्राप्ति की दृष्टि में गांधी अपना आठवां तर्क और अंतिम चिंता प्रस्तुत करते हैं। यह अध्याय अंग्रेजी राज और आधुनिक सभ्यता के खिलाफ है यह अध्याय गांधीजी के तरकश का अंतिम बाण है। इस अध्याय में अंग्रेजी राज में डॉक्टरों की भूमिका की वे सरल भाषा में समालोचना प्रस्तुत करते हैं। यह अध्याय अपने समय से काफी पहले उत्तर आधुनिकता के आधार पर ही व्यक्ति को अपना डॉक्टर खुद बनने, अपने शरीर के स्वभाव और जरूरतों को समझकर अपने रोगों का खुद इलाज करने और अपने सर्वांगीण स्वास्थ्य का ख्याल रखने की अपील करता है। साथ ही साथ अंग्रेजी राज के हिंदुस्तान में बने रहने का अंतिम और सबसे मजबूत नैतिक स्तंभ ढहाने की कोशिश करता है।

हिंद स्वराज के अंतिम अध्याय में गांधीजी पूरे हिंद स्वराज का निष्कर्ष बताते हैं साथ ही पाठक गांधीजी से राष्ट्र के नाम और उनके संदेश के बारे में पूछता है। गांधीजी का संदेश स्पष्ट है कि “इस रास्ते से मैं कहूंगा कि जिस हिंदुस्तानी को स्वराज की सच्ची खुमारी या मस्ती चढ़ी होगी, वही अंग्रेजों से ऊपर की बात कह सकेगा और उनके रोब से नहीं दबेगा।… सच्ची मस्ती तो उसी को चढ़ सकती है, जो ज्ञानपूर्वक समझ-बूझकर यह मानता हो कि हिंद की सभ्यता सबसे अच्छी है और यूरोप की सभ्यता चार दिन की चांदनी है।”5

हिंद स्वराज में जिस आधुनिक सभ्यता की निंदा-भर्त्सना की गई है, उसके पीछे गांधीजी की मूल भावना यही है कि यह आधुनिक सभ्यता मनुष्य की आत्मा की अवहेलना कर उसके शारीरिक सुख को महत्वपूर्ण मानती है। यह मुख्यतः भौतिक और आध्यात्मिकता के बीच के चुनाव का मामला है। आधुनिक सभ्यता की प्रेरणा मनुष्य को उपभोक्ता मानने में है जबकि गांधीजी ‘हिन्दस्वराज’ के मनुष्य को नियन्ता मानते हैं। शरीर सुख या उपभोक्तावाद की बढ़त से ना सिर्फ मनुष्य की आत्मीयता की, आध्यात्मिकता की अवमानना होती है, बल्कि बाह्य जगत के साथ उसकी आत्मीयता से बाधित होती है और समाज के विभिन्न समूहों के बीच एक परिचय और संवेदनहीनता की स्थिति बनती है। परंतु हिंद स्वराज को दो सभ्यताओं के टकराव के रूप में देखने के साथ-साथ भविष्य के समाज की रूपरेखा के मॉडल के रूप में भी देखना चाहिए और समूचे मानव और प्रकृति के संतुलित और समग्र दृष्टिकोण के तहत भी इसका महत्व बनता है जिसमें पूर्व और पश्चिम का सवाल शायद उतना नहीं है जितना अच्छे और बुरे का,करणीय और अकरणीय का और व्यापक अर्थ में पुण्य और पाप का। गाँधीजी के यह विचार उन सभी सभ्यताओं के लिए प्रासंगिक है जो अपने मूल को खोती जा रही हैं।

निष्कर्षतः हिंद स्वराज गांधी द्वारा लिखी उन महत्वपूर्ण रचनाओं में से है जिसे गांधीजी ने अपने विचार व दर्शन को स्पष्ट करने के लिए लिखा। राज्य समाज व राष्ट्र पर गांधी के विचारों की शायद यह सबसे परिष्कृत वस्तु स्पष्ट व्याख्या थी यद्यपि हिंद स्वराज एक मौलिक रचना है तथापि इसे लिखने के क्रम में गांधी कुछ प्रमुख पाश्चात्य विचारकों के साथ-साथ भारतीय दर्शन से अत्यधिक प्रभावित हैं इसमें गांधीवादी राजनीति के कुछ अत्यंत ही मौलिक सिद्धांतों का प्रतिपादन हुआ है दूसरे शब्दों में गांधी ने अपनी वास्तविक स्थिति को हिंद स्वराज के माध्यम से स्पष्ट किया तथा अंत तक उस पर कायम रहे वास्तव में हिंद स्वराज में हिंदुस्तान के स्वराज की उपलब्धि के लिए गांधी की संपूर्ण रणनीति का सबसे निर्णायक पहलू सामने आता है इसके अलावा स्वराज व सत्याग्रह से संबंधित गांधीजी के सामाजिक व राजनीतिक विचारों का सबसे प्रमाणिक दस्तावेज है। हिंद स्वराज में गांधी जी ने अपने पूर्व भारतीयों की अपेक्षा कहीं अधिक मौलिक रूप से भारतीय समाज के आध्यात्मिक व नैतिक ताने-बाने तथा यूरोपीय राज्यों के तथा राजनीतिक रूप से भ्रष्ट प्रकृति के बीच के अंतर को स्पष्ट किया है

सन्दर्भ ग्रन्थ

  1. हिन्द स्वराज, गाँधी महात्मा, शिक्षा भारती प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2017, पृष्ठ संख्या-25
  2. वहीं, पृष्ठ संख्या-45
  3. वहीं, पृष्ठ संख्या-56
  4. वहीं, पृष्ठ संख्या-70
  5. वहीं, पृष्ठ संख्या-77

अनहक-राजासिंह

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अनहक

-राजासिंह

आजकल मौसम काफी गीला, चिपचिपा और बासी हो रहा है.हर समय कुछ घुटा घुटा सा,हलके अँधेरे में घिरा कुछ रहस्मयी सा.कल रात देर तक बारिस होती रही अब जाकर थमी है.रात भर खिड़की खुली रही और भीतर कमरे, बिस्तरे,मेज-कुर्सी आदि में बाहर से बारिस के भूले-बिसरे छीटें आते रहे और उसे और गम, उदासी, तनहाई से सराबोर करते रहे.

वह कितना जगा, कितना सोया है,कुछ अनुमान नहीं लगा पाया है.यह काफी दिनों से ऐसा ही है.घर की दीवारों पर उदासी चिपक सी गयी है और उसके दिल दिमाग में रच बस गयी है.यहाँ तक की उसके सपने भी निराशा,उदासी,वितुष्णा,गम और दुःख से भरे हो गये हैं.वह बहुत चाहता है के कम से कम उसके सपने तो आशावान और प्रसन्नता से भरपूर आयें.इसलिए वह कई बार वह जल्दी से हंसी खुसी सोने की कोशिश करता है,परन्तु अलबत्ता उसे जल्दी नींद नसीब नहीं होती, फिर झुंझलाहट में वह अपने लिए कुछ अच्छा सोच नहीं पाता और दिवास्वप्न भी खुशगवार नहीं रह पाते और अंत में नींद भी उसे आशाजनक मधुर सपनों से महरूम कर देती है.

लेटे लेटे, वह छत देखता है.कभी पंखा टूनमुन गति से चलता हुआ और कभी स्थिर उसकी जीवन की गति की तरह.बिना परिवर्तन के स्थिर अनुप्रयुक्त.वह आंखे मुंद लेता है.माँ का झुर्रियों भरा चेहरा देखता है,बूढ़ा थका और अंतहीन इंतज़ार में शनैःशनैः विलुप्त होता हुआ.उसके चेहरे पर अजीब सा विष्मयबोध है,चिंतातुर,हतप्रितिभ. फिर धीरे धीरे म्लान होते हुए अद्ध्रश्य हो जाता है.वह गुमसुम ताकता रह जाता है…अक्सर माँ की उदास हंसी उसके चेहरे पर फ़ैल जाती है और वह कह उठती है-अब तेरी शादी ब्याह हो जाय और पोते का मुंह देख लूं तो चलूँ..ऊपर वाला भी कब तक इंतज़ार करेंगा? यह उन दिनों की बात है जब वह कुंवारा था.परन्तु अब…?

उसके पिता की मृत्यु उसके बचपन में ही हो गयी थी.उसे पिता की बहुत छोटी धुधली याद् है.

वह कई बार सोचता है की उसका सोचना बेकार है इसलिए अब नहीं सोचूँगा, जो कुछ होना होगा देखा जायेंगा परन्तु वह अपने को सोच से मुक्त नहीं कर पाता है. कौन कर पाया है? विशेष रूप से उस पड़पड़ींयाये जैसे सूखे जिस्म से पर्त उघड़ती चली जाती है चाहे अनचाहे.जैसे मकान का पुराना पलस्तर ढीला होकर अपने आप झरता रहता है, वैसे ही उसकी यादें भी कुरेंदो या न कुरेंदो उस पर झरती रहती है.

उसका ब्याह हुआ और माँ के रहते ही हुआ था.हांलाकि देर से हुआ था पर दुरस्त हुआ था.वह और माँ बहुत प्रसन्न थे.चाँद से रोशन चेहरे वाली और यक्षणी के अकार प्रकार वाली थी उसकी पत्नी यानि मोहनी.उसने देखते ही हा कर दी थी.परन्तु उसने उसका इंटरव्यू लिया था.उसका चेहरा दिख रहा है और उसने पूछा था-

“कुछ पुछोगें नहीं..?” उसने हलके से मुस्कराते हुए कहा.वह बड़ी स्टाइलिश अंदाज में खड़ी थी.उसका एक हाथ थोड़ी पर और एक हाथ कमर में था, उसे अपने को रिजेक्ट करने का चैलेन्ज दे रही हो.

“मुझे पसंद है..” वह हड़बड़ाया था.

“क्यों..?” वह गर्वोन्नत थी.परन्तु वह उसके सौदर्य से मदहोश था.

“क्या पूछना..?” अब एक डर उसके जेहन में धस गया था कही वह उसे अस्वीकृत न कर दे.

“उम्र, शिक्षा, पसंद-नापसंद, दोस्ती-दुश्मनी कुछ भी नहीं..? उसका मन अंतर्द्वंद में उलझा हुआ चुप था.

“नहीं…, कोई जरुरत नहीं…!” उसने बेझिझक कहा.वह इस अनिंद्य सुन्दरी को खोना नहीं चाहता था.

“तो..!..मिस्टर विराज,..हम चलें..?”

“अवश्य.” उसने सहमति दी.परन्तु उलझन यह भी थी कि वह उसकी स्वीकृति के विषय में अनभिग्न था.

उनका आपस में प्रथम साक्षात्कार बहुत ही संक्षिप्त और साधारण था.मुश्किल से पांच मिनट्स भी नहीं चला.परन्तु बाहर के कमरे में उसके परिवार और रिश्तेदार और उसकी माँ अकेली बेहद उत्सुक्तता से उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे.उन दोनों का ब्याह पक्का हो गया और महीने के भीतर ही, हो भी गया.

यह पहला अवसर था कि उसने अपने अलावा किसी अन्य व्यक्ति की विशिष्टता स्वीकार की थी.शायद वह उसके अप्रतिम सौदर्य से प्रभावित…भयभीत हुआ था.माँ ने जब उसके सौदर्य की प्रसंसा उससे की तो उसका रोम रोम खिल और चमक उठा था.उसे ऐसी संगनी मिलेगी यह उसकी कल्पना से परे की बात थी.

परन्तु मृग मरीचिका थी, मोहिनी..!

आज उसे रह रह कर क्यों लगता है कि उसकी स्निग्ध हंसी, मुस्कराहट या खिलखिलाहट एक रहस्य थी. वह जो कहती करती बोलती थी सिर्फ छलावा था या सिर्फ एक अभिनय था. उन सब के पीछे एक रहस्य था जो शायद अब प्रगट हुआ है.नहीं..नहीं..,वह अब भी वह अनभिग्न है.

वह अपने कमरे में अकेला ऊबा सा खिड़की से बाहर मकानों की छतों पर ठंडी उतरती धूप को देखता है तो एक क्षण के लिए ऐसा भ्रम हो जाता है कि वह आ रही है.समय के अन्तराल में ऐसा कुछ भी शेष नहीं रहा है जो बीता नहीं है. जो काल के कुचक्र में समां नहीं गया है. और मोहिनी एक टूटी पतंग सी शून्य में डगमगाती रह गयी है जो कही न गिरती है न किसी के पकड़ में आती है.

उसकी उसमे दिलचस्पी सीमित थी…सिर्फ ब्याह तक, उससे अधिक कुछ भी नहीं. ब्याह के बाद उसके चेहरे पर सुखी सी विरक्ति और निरर्थकता का भाव उमड़ आया था.वह एक गूढ़ रहस्मय पहेली सी उसे असीमता से प्रताणित करती जा रही थी. उसने ब्याह को अप्रत्याशित रूप एक रहस्यमय गांठ में तब्दील कर दिया था जिसको खोलना दूरूह था. जिसकी बलिवेदी पर माँ होम गयी थी और वह उसके कगार में था.

सकुशल ब्याह संपन्न होने के बाद वह उसके घर मुश्किल से एक सप्ताह भी नहीं रुकी होगी और उसके संग सिर्फ एक दो बार ही.मोहिनी के विचित्र और निर्लज्ज व्यवहार से वह झेप गया था.किन्तु वह अपरिहार्य थी.

परन्तु मोहिनी ! जब वह गयी फिर लौट कर नहीं आई. वैचारिक द्वंद्व में उलझे उसके अन्वेषक मन कोई कारण तलाश नहीं कर पा रहा था.उसके पास न आने का कोई अपेक्षित उत्तर नही मिल रहा था. उसकी बाते अक्सर बेतुकी और असंगत होती थी,जब जब वह उसे बुलाने कभी अकेले और कभी माँ के साथ जाता था..उसनके मन के भीतर उपजती आशंका, सीधे सीधे शब्दों में उसने बेसाख्ता रख दी-

“मै तुम्हारे पास नहीं आ रही हूँ. किसी भी कीमत पर.” उसने बहुत ही निर्भीक और निर्रणायक स्वर में कहा.

“क्या?” वह विस्मित हुआ… “क्यों?..क्या कारण है?” वह मिमियाया.

“तुम हिंसक हो..दहेजलोभी हो,रेपिस्ट हो..तुमसे मुझे जान का खतरा है.” उसने रोते हुए चिल्लाकर कहा.

उसके आरोपों को सुनकर वह हतप्रभ रह गया.आश्चर्य में उसका मुंह खुला का खुला रह गया. उसे विश्वास नहीं आ रहा था कि मोहिनी यह सब कह रही है.उसके चेहरे के हावभाव देखकर वह स्तम्भित रह गया.

“यह गलत और झुन्ठा है,बेबुनियाद है.” अचानक हुए इस अतिशय मर्मान्तक आघात से उसने भी मन और वाणी का संतुलन खो दिया था.वह चीख रहा और चिल्ला रहा था.माँ ने उसे शांत किया.

“बहु! ऐसा नहीं करते,ऐसा गलत नहीं बोलते.अपने घर चलो..” माँ ने मोर्चा सम्हाला.अनुनय विनय की.

“नही..मै किसी कीमत पर नहीं जाउंगी.” वह निर्द्वंद और स्पष्ट थी.हांलाकि स्वर मध्यम था.

“फिर…?” माँ की आकांक्षा, आशंका सब निराशा में परिवर्तित हो चुकी थी.

‘फिर क्या? मै यही रहूँगी..जैसे रहती हूँ..वैसे ही रहूँगी.” उसने निर्विकार भाव से कहा.

उसके घर के सब लोग माँ,बहन,भाई और पिता सब देखते रह गए.और वह माँ के साथ वैसे ही स्थितिप्रज्ञ जड़ बैठा रह गया था.सिर्फ वही बोल रही थी बाकि सभी सुन रहे थे अवाक् हतप्रभ.

“चलो.!..निकलो यहाँ से..जल्दी करो..” उसने बहस का कोई अवसर नहीं दिया.विराज को लगा कि मोहिनी सुनहरी नागिन में परिवर्तित हो चुकी है वह उसे किसी भी वक़्त डंस सकती है.

वह माँ के साथ दबे पांव जीना उतरने लगा था. कोई ऐसा कैसे कर सकता है.बिना बात का बतंगड़ बनाया जा सकता है,रस्सी का सांप बनाया जा सकता है! परन्तु उसने बिना मतलब झूंठ का ऐसा पहाड़ खड़ा किया था, जिसमे सेंध लगाना मुश्किल था.उसके घर से बाहर निकलते हुए उसने एक बार ऊपर देखा, वह बालकनी में खड़ी उसका जाना निहार रही थी.उसने एक दो बार उसे कांपते स्वर में पुकारना चाहा परन्तु आवाज गले में घुट कर रह गयी. माँ को जबरदस्त झटका लगा था.माँ की तबियत बेहद गंभीर जान पड़ रही थी.उसने झटके से अपना सर मोड़ लिया.उसके बाद उसने पीछे मुड़कर न देखा न कोई बात की.

यह अनहोनी थी,अकल्पनीय,अविश्वनीय और आधारहीन. वह सोचता है कि उसका चंद दिनों का साथ एक सपना था.कभी उसकी निर्निमेष आँखों में झांककर उसने अपने भविष्य के खूबसूरत चित्रपट देखने का प्रयास किया था.

पहले भी वह अकेला था,नहीं साथ में उसकी चिंतित माँ रहती थी-“मेरे बाद इसका क्या होगा?” आज फिर वह अकेला है बिलकुल अकेला.वास्तव में देखा जाये तो वह नितांत अकेला भी नहीं है.आज शारीरिक रूप में माँ नहीं है परन्तु उसकी बीती हुई आत्मीयता उसे सहसा घेर लेती है.लगता है उसकी चिंतित आत्मीयता, ममता उसका पीछा कर रही है.और दूसरी तरफ फुफकारती नागिन उसे डंस लेने को आतुर उसका पीछा करती रहती है.दोनों तरह के छलावे उसके अपने निर्मित स्वप्न जगत को छिन्न भिन्न किये है.

माँ तो उसी दिन मर गयीं थी जिस दिन मोहिनी ने झूंठे,अनर्गल,आधारहीन आरोप लगाकर उसके पास लौटने से मना कर दिया था.दिनचर्या का आवश्यक कार्य निपटाकर वह पलंग पर अक्सर सिकुड़ी सी लेती रहती थी.उनकी क्लांत थकी मुद्रा देखकर लगता कि वह रात भर सोई नहीं है.हर समय चुप.भारी तबियत.कभी कभी खीज भरे स्वर में कह उठती तू उसे बांधकर नहीं रख सका.फिर अपने कहे पर अफ़सोस जदा हो जाती.विराज न घटता न बढ़ता सिर्फ शून्य सा निरर्थक रह गया था.

माँ की शारीरिक मौत उस दिन हो गयी जिस दिन पुलिस उसकी गिरफ़्तारी का वारेंट लेकर आई थी, “अनहक दंड”..सिर्फ इतना ही उनके मुंह से निकला और उनकी हृदयगति रूक गयी थी.मोहिनी के विचित्र व्यवहार से जो तनाव चिंता फ़िक्र हम में ब्याप्त हो गयी थी उसकी पहली बलि माँ के भेंट के रूप ली थी.

उनकी डूबती साँस का प्रकम्पित स्वर हौले हौले दूर होता जा रहा था.माँ अपलक एकटक उसे देखे जा रही थी. कुछेक पलों के लिए वह विक्षिप्त सा हो गया था.

“क्या मै भी तुम्हारे साथ चलूँ ?”

“न..” उसे प्रतिउत्तर मिला.

‘फिर…” वह विस्मित विरक्ति सा माँ को देखता रह गया. माँ अब भी उसे देख रही थीं.माँ की अज्ञात विष्मय भरी आंखे उसके भविष्य में आगत गहन कष्ट से विचलित थीं.

इंस्पेक्टर उसे छोड़कर चल दिया, “अपनी जमानत का इन्तेजाम कर लीजियेगा.” मोहल्ले भर के लोग इकट्ठे हो गए. उन्होंने माँ की आँखों को बंद किया. माँ पंचतत्व में विलीन हो गयी थीं.

दिन के चार बज गए थे और वैसा ही पड़ा था, यादों की भीषण, दुरूह भूलभुल्लियाँ में. उसे बड़े जोर की तलब लगी.उसने सिगरेट तलाशनी चाही सब ख़त्म हो चुकी थी.बाहर निकलना लाज़मी हो गया था.वह वैसे ही निकलने की सोच रहा था किन्तु उसका ध्यान अपने कपड़ो पर गया.कुरता-पजामा काफी गुजड़-मुजड़ गए थे..तुम इतने उदास क्यों रहते हो, उसने अपने से पूछा?… नहीं अब मै काफी सम्हल गया हूँ..जो हुआ सो हुआ..इसमें मेरा कोई योगदान नहीं है..अब आगे देखना है कैसे निपटाना है?..यस…हाँ..वह हँसता है..उसने खिलखिलाकर हँसना चाहा था. परन्तु वह हंसी फीकी और बेजान और बेमतलब की मुंह चीरना था.उसे हलकी सी खुसी हुई कि वह सिगरेट पीकर इस अंतरजाल से निश्चय ही मुक्ति पा लेगा..,बाहर किसी होटल में खा भी लेंगे.

वह ढंग से तैयार होकर बाहर निकल आया.उसने उलझे बिखरे बालों को ठीक किया और आँखों को छीटें मार मार कर ताजा करने की कोशिश की नकामयाब रहा.वे विवश अधखुली ही रह गयी थीं.आँखों से याद आया, माँ की भी ऑंखें अधखुली रह गयी थी.शायद वह उससे कुछ कहना चाहती थी,या अंत में उसे जीभर के देखना चाहती थीं. क्या..? उसे लगता है माँ अब भी अद्रश्य रूप से उसके साथ है.आज भी माँ की प्रस्थान वाली ऑंखें उसे अकारण चौका देती है.उसे अपने को सवांरना व्यर्थ लगा.

वह सिगरेट के कश लेता हुआ निरुदेश्य टहल रहा था.परन्तु उसके दिमाग में कई स्मृतियां, घटनायें चलचित्र की माफिक चल रही थीं तथा कई तरह की बातों, बोलिओं, आवाज़ों ने उसके कान को अवरुद्ध कर रखा था. घूमता टहलता वह शहर से काफी दूर निकल आया था. अचानक उसे लगा कि वह कोई परिचित सी जगह पर आ गया है. कुछ दूर और चला होगा कि पाँव ठिठक गये. अरे! यह तो अमित के घर का रास्ता है.अमित उसका प्यारा दोस्त, मुसीबत के वक़्त वही काम आया था. जिसने उसकी जमानत ली थी. माँ के बाद जो उसे सबसे ज्यादा समझता था.

कुछ ही क्षणों में वह अमित के घर के सामने खड़ा था.फाटक खुला था. वह दबे कदमों से भीतर चला आया.उसने दरवाजे की कालबेल बजा दी.फिर भूल गया कि अंगुली वापस भी लेनी है.घंटी की आवाज दूर तक चीखती और गुजती रही.साथ ही साथ घंटी की आवाज का पीछा करती हुई उसकी आवाज.

दरवाजा खुला और आश्चर्य चकित सा अमित उसे भीतर खीच लेता है.एक दो मिनट्स तक वह वैसे ही अहमक की तरह उसे घूरता रहता है और फिर हंस पड़ता है.जब उसने उसे अपने साथ सोफे में बैठा लिया,तब उसे अहसास हुआ,

“इतनी दूर पैदल आये हो?” उसने उसकी आँखों में आँखों डालकर चिंतित स्वर में पूंछा.

“नहीं मै सिगरेट पीने निकला था और कब तुम्हारा घर आ गया पता ही न चला.” और वह मुस्कराने लगा.

“यार! सम्हालो अपने आप को.” उसकी भेदभरी दृष्टि उसे छीलने लगी थी.

‘अरे! कुछ भी तो नहीं…मै ठीक हूँ..दोस्त.’ उसने झेपकर सफाई दी.

तब तक उसकी पत्नी आ गयी.उसकी शादी मुझसे पहले हो गयी थी.उसके एक बच्चा भी था चार साल का.दुवा सलाम के बाद वह फिर चाय नास्ता लेकर आई.वह कुछ पल उसकि तरफ देखती रही.कमरे में घुटा घुटा सा सन्नाटा पसर गया था.शीतल ने अचानक सन्नाटा भंग किया और उसके कोर्ट केस के विषय में पूंछतांछ करने लगी.उसे यह अहसास रहता है कि बातों का रूख उधर की तरफ जायेंगा जरुर.हाँलाकि वह जानता है कि अमित जरुर शीतल को सब कुछ बताता रहता होंगा.परन्तु उसके साथ और कोई क्या बात करेगा ? इसलिए उसे शीतल के पूछने पर कोई कौतुहल नहीं हुआ.

उसको उसका यह प्रकरण छेड़े जाने काफी अरुचि होती है.यह उसे निराशा और अवसाद में घसीट ले जाती है.वह वहां से जल्दी निकल जाना चाहता था.किन्तु अमित और शीतल से जल्दी छुटकारा संभव नहीं हो पाता था.उन्होंने उसे डिनर के बाद ही जाने दिया और ड्राईवर उसे घर तक छोड़ गया.हांलाकि वह मना करता रहा परन्तु उसकी वह लोग नहीं सुनते.

वहां से आने के बाद उसका मन फिर उचाट हो गया.वे उलाहना दे रहे थे कि इतने दिन से वह वहां क्यों नहीं आया? वह दोनों कहते रहते है खाली वक़्त में इधर निकल आया करो.मन बदल जायेगा.वह जानता है कि उसका मन तो क्या बदलेगा? किसी के पास खीजता और है.लोग उसके और उसकी पत्नी के अन्तरंग संबंधों को उधाड़ने कि कोशिश और करते है.उसके पास उसकी प्रसंसा या बुराई करने का कोई वाक्य नहीं होता.क्यों..चली गयी? लोग कारण तलाशते है. उसे खुद कोई कारण समझ में नहीं आता.वह यह बात कहना चाहता है कह नहीं पाता.वह अंदाज लगाना चाहता है परंतु उस अंदाज को प्रगट करने में झिझकता है.हमसे बहुत कुछ ऐसा है जो अनकहा रह जाता है.

उस रात देर तक उसकी निरीह खामोश आँखें अँधेरे कमरे में, के, आसपास भटकती रही. दोष,कारण,समस्या निहारती रही तलाशती रही, असफल रही. उसके सम्बन्ध में कोई रहस्य बूझती रही परन्तु अधीर मन बार बार कह उठता, नहीं कुछ भी नहीं है उसका रहस्य.

वह सोचता है कि एक बार,कम से कम एक बार, उससे एकांत में मुलाकात हो जाये.वह उससे पूछना चाहता है कि उसका कसूर क्या है? कभी कभी वह सोचता है कि वह मोहिनी को एक लम्बा सा पत्र लिखे, कुछ नहीं तो चौसठ पेज का तो हो ही या ऐसा पत्र जिसका कोई अंत न हो.परन्तु उसके वकील ने उससे किसी प्रकार का सम्बन्ध रखने से मना किया है,केस कमजोर हो जायेंगा.

दिमाग के साथ आंखे भी थक गयी थी. ऑंखें झुकने लगी थी,वह सो गया.

कभी कभी वह सोचता है कि वह अर्थहीन बाते क्यों सोचता है? जैसे एक बार या कई बार वह लम्बी देर तक यह सोचता रहा कि मोहनी को अपनी गलतियो का अहसास होगा और वह माफ़ी मांगती हुई उसके पास वापस आ जाएँगी, सब लफ़ड़ा सुलझ जायेगा और वे हैप्पी मैरिड कपल की तरह रहने लगेंगे…अचानक माँ की आवाज उभरती है, “न..बच्चे न..नही.. माँ झुंझलाकर प्रतिरोध करती नज़र आती है. वह मोहिनी के प्रति आगाह करती है.परन्तु उसे उसके साथ खुश देखकर अपना विरोध छोड़ देती है..” उसका सर चकराने लगा है. सर दर्द से फटा जा रहा है. वह उठकर सर दर्द की एक गोली लेता है. अब धीरे धीरे उसको राहत मिलती है.

वह मोहिनी का फोटो देखता है.खुबसूरत फ्रेम किया हुआ फोटो. अब भी उसकी दीवाल में शोभायमान है.फोटो में कितनी सौम्य, सुंदर, शांत है, रूपगर्विता. उसके साथ वह भी है सहमा सिकुड़ा परन्तु गर्वोन्नत.कई बार सोचता है कि वह फोटो वहां से हटा दें,कहीं कबाड़ में फेक दें,जला दें.परन्तु नहीं कर पाता है,यह सोचकर कम से कम अनजान अपरचित आगुन्तकों से,यह मेरी पत्नी है,कहकर परिचय तो करवाया तो जा सकता है. अब भी वह किसी से यह नहीं कह पता है कि उसका पत्नी से डिवोर्स का केस चल रहा है..लोग क्या कहेंगे..? कुछ उसमे भी तो कमी होगीं.? क्या कारण बतायेंगा? पता नही क्यों ? वह उस फोटो को देखकर उत्तेजित,अपमानित और गुस्से मे आ नहीं पाता.?..उसे खुद इस बात का आश्चर्य होता है…कभी कभी वह सोचता है कि लोगों की अपेक्षा अपनी कहानी कहना कठिन है और लिखना तो शायद कभी नहीं हो पायेंगा..उसे शब्दों, वाक्यों और अक्षरों में खोजना, चेष्टा करना या उसके विषय में कुछ भी याद करना आत्म-बिडम्बना सा लगता है. सिर्फ हफ्ते भर के साथ ने उनके बीच कोई खलिश पैदा नहीं की थी. किन्तु उसके बाद क्या कुछ नहीं भोगना पड़ रहा है.

क्या वह कभी उस व्यक्ति से परिचित हो पायेगा जिसका नाम मोहिनी है? उसके सम्बन्ध में उसकी धारणा क्या है ? उसने ऐसा क्यों किया ? ऐसी पुलिस रिपोटिंग क्यों की? एक हफ्ते में वह रानी महरानी की तरह रही और दोनों बंदे उसके खूबसूरत आतंक से सहमे उसे तुष्ट करने को भरसक प्रयास करते रहे,और नतीजा बेहद विपरीत. चंद दिनों का उसका साथ उसे खुशी देता था परन्तु वह तनाव रहित नहीं था.एक खिची खिची सी अपूर्णता छाई रहती थी.वह उससे किस तरह असंतुष्ट थी, अभी तक जान नहीं पाया है. अक्सर उसका अधीर मन उत्सुक और उतावला हो उठता उस रपट को उसकी जबानी सुनिश्चित करने को. हाँलाकि जब वह अंतिम बार उसे बुलाने गया था तो उसने यही सब गम्भीर आरोप लगाये थे उसके साथ न आने के लिए..परन्तु पुलिस में यह सब लिखित में देना उसे स्थायी रूप से बुरी तरह में प्रताणित, प्रक्षालित, अपमानित कर दिया था.फिर उसने उसे स्थायी वसूली प्राप्त करने का साधन बना दिया था..परन्तु फिर भी वह उससे घृणा नहीं कर पा रहा था.

आज शायद अंतिम बार उसे कोर्ट जाना था.पिछले तीन वर्षो से दुसरे तीसरे महीने कोर्ट की तारीखे पड़ती है-फिरोजाबाद,उसके गृह नगर. वही उसने पुलिस में शिकायत करी थी और वही से मुकदमा. तभी वह उसे देख लेता था दूर से.-ख़ामोशी में लिपटी हुई और एक हलकी मुस्कान ओढ़ती हुई.वह उसकी आँखों की आत्मीयता पढ़ लेती थी और दूर कही दूर चली जाती थी. परन्तु उसकी आँखों मे उससे दूर जाने और अलग रहने की चाह पुरजोर तरीके से जिन्दा थी.

उसके वकील का शुरू से यह अभिमत था कि उसे समझौता कर लेना चाहिए था. परन्तु उसे अपनी निर्दोषिता सिद्ध करने की जिद थी.इस जिद पर पहला आघात जब लगा जब मोहिनी ने कोर्ट में मजिस्ट्रेट के सामने उस पर लगे अभियोजन को अक्षरशः दोहरा दिए बिना किसी हिचक और संवेदना के. उस दिन उसे पहली बार पता चला कि व्यक्ति आँखें मिलाते हुए मुंह दर मुंह भी भावनारहित झूठ बोल सकता है. उस क्षण से उसका साथ मिलने और भविष्य के क्षणों को संग जी लेने की चाह पूर्णतया ध्वस्त हो गयी.

अपने को सही साबित कर लेने की जिद पर दूसरी ठोकर जब लगी, जब जज साहेब ने उसे दस हज़ार रुपया महिना गुजारा भत्ता देने का आदेश पारित कर दिया,जब तक कि कोर्ट का फैसला न हो जाये. विगत तीन वर्षो से वह दस हजार रुपया महिना गुजारा भत्ता कोर्ट में जमा करता आ रहा है.जिस माह देर हो जाती है या चूक जाता है पुलिस सम्मन लेकर हाज़िर हो जाती है.

उसकी जिद को तीसरा आघात तब लगा जब हमारी दहेज़ मुक्त विवाह को धता बताते हुए, ससुराल पक्ष के दस लाख दहेज़ देने की मांग स्वीकार कर ली गयी . उन्होंने उसके वकिल की प्रूफ देने की मांग अस्वीकार करते हुए यह दलील दी कि इतना तो मध्यवर्ग की शादी में दहेज़ होता ही है.

अंततः उसे अपनी जिद को बेमौत मारते हुए समझौता करने के लिए बाध्य होना पड़ा. समझौता के लिए दोनों पक्षों के वकील मिले और कम से कम बीस लाख में समझौतें की सहमति पाई गयी. झकमार के उसे सहमति देनी पड़ी. दोनों पक्षों की तरफ से समझौते की लिखित सहमति कोर्ट में दाखिल हुई और कोर्ट ने अपनी सहमति दी. वह मकान बेचकर दो किस्तों में भुगतान कर पाया था.

आज केस की अंतिम सुनवाही है.वह फिरोजाबाद एक दिन पहले ही पहुच गया था.क्योंकि आज अंतिम अरदास थी इसमें वह चूक नहीं सकता था. आज वे फाइनली अलग हो जाएँगे. वह सोचता है कि वह जुड़े ही कब थे जो अलग हो रहे थे? इन बीते वर्षों में अच्छी बुरी घटनाओं के दरम्यान हर बार संबंधो के नए से नए पहलु नज़र आते रहे है.

मजिस्ट्रेट के आने के बाद कोर्ट की कार्यवाही मुश्किल से दस मिनट्स भी नही चली.न्यायाधीश ने उन दोनों की जबानी अलग होने की सहमति पूछी और उन दोनों स्वीकारोक्ति के उपरांत उनके डिवोर्स पर अपनी सहमति की मुहर लगा दी.

वे सब बाहर जा रहे थे.वे काफी लोग थे मोहिनी उसके माता-पिता, भाई-भाभी, बहन-बहनोई और उनका वकील. वे कोर्ट से निकलकर एक रेस्टोरेंट की तरफ मुखातिब थे. विराज अकेला कोर्ट में खड़ा रह गया,एकदम संज्ञाशून्य सा. उसके वकील ने उसे टोका, “माफ़ कीजियेगा,अब हमें बाहर चलना चाहिए…यहाँ सब कुछ..” वाक्य अधूरा रह गया और वह सहमा सा खड़ा रहा. हठात उसे कुछ याद आया..हाँ.. अब सब कुछ समाप्त हो गया है…फैसला भी हो गया है.

“लेकिन..” वह हकलाकर चुप हो गया.

वह सोच में पड़ गया जिस एक अकेली मुलाकात के लिए वह विगत तीन वर्षों से प्रतीक्षारत था, आज हो सकती है.आज नहीं तो फिर संभव नहीं हो पाएंगी…फिर अगर होगी भी तो वह सन्दर्भहीन मुलाकात होगी. आज नहीं तो फिर नहीं.

“क्या बात है ?” उसके वकील ने पूछा. वह वैसे ही कोर्ट के कटघड़े में ठिठका, सहमा, प्रताणित और अधूरा खड़ा था. वह वकील के साथ बाहर निकलकर साथ साथ चल रहा था.वह अब भी उसकी तरफ देख रहा था, क्या बात के उत्तर में..?

“वकील साहेब! क्या आप मेरा एक छोटा सा काम और कर देंगे? आखरी काम.” यह कहकर वह कही भीतर तक खामोश हो जाता है. उसकी त्रस्त ऑंखें उस पर चिपक जाती है.

‘हाँ..हाँ..बोलिए न?” वकील ने उत्सुक निगाहों से उसे देखा.

“मोहिनी से मेरी एक ऐकांतिक मुलाकात का प्रवंध कर देंगे ? अभी इसी वक़्त. आज के बाद यह निरर्थक होगी.” यह् कहकर उसके चेहरे पर एक मासूम सी जड़ता उतर आई.

‘देखते है?” वह उसे विष्मय से देखता है.और उसे वैसा ही छोड़कर चल देता है.

वह एक सस्ते से रेस्टोरेंट में उसका इंतजार कर रहा था.जहाँ उसके अलावा कोई ग्राहक नहीं था. प्रतीक्षा लम्बी होती जा रही थी. वह चिंतित था मुलाकात हो पाएंगी या नहीं? वह राजी होगी या नही? वकील साहेब सक्षम होंगे उन्हें समझाने में? उसने सिर्फ पंद्रह मिनट्स मांगे थे. क्या कहना पूछना है? यह बहुत दिनों ने उसके जेहन में तैर रहा था.

उसकी आँखों ने उसके दिमाग का साथ छोड़ दिया था.वे उसके टेबल के पास आकार खड़े हो गए थे और वह संज्ञान नहीं ले पाया.

“मिस्टर विराज! लो मोहिनी जी आ गयी. परन्तु ध्यान रहे, सिर्फ पंद्रह-बीस मिनट्स.” उसने अचकचाकर उन्हें देखा और सुना. वे दोनों उसे अजीब नज़रों से देख रहे थे.

“आप लोग कब से खड़े है? मुझे पता ही नहीं चला.” एकदम उसके मुंह से निकल पड़ा. दोनों ने कुछ नहीं कहा. वकील साहेब मोहिनी को छोड़कर बाहर उस पारिवारिक झुण्ड में शामिल हो गए, जो चिंतित उनका इंतज़ार कर रह था. वह उसके पास एक कुर्सी खींच कर सामने बैठ गयी. वह बेख़ौफ़ थी.

“कहिये क्या कहना है?” उसने बड़ी बेतकल्लुफ़ी से पूछा.हांलाकि उसके स्वर में भीगा सा कम्पन था,मानो वह जबरदस्ती अपने आग्रह को दबा रही हो.

उस रेस्टोरेंट में कुछ अँधेरा, धुवां और घुटा घुटा सा सन्नाटा छा गया था.कर्मचारी पानी रख गया था और उनके लिए चाय पकौड़े बना रहा था. उसने ऐसा ही आदेश दे रखा था मोहिनी के आने से पहले ही.

“मुझे बड़ा अजीब लगता है, मोहिनी! मै कई दिनों से मौके की तलाश में था कि…” उसने चौक कर उसकी तरफ देखा. वह कुछ देर अपलक उसकी तरफ देखती रही. उसे पहले यह अनुमान था कि वह उससे कारण पूछेगा, परन्तु वह क्या कह रहा है? वह ऐसे बिहैव कर रहा जैसे कोई प्रेमी अपनी प्रेमिका से प्रणय निवेदन से पहले करता है. हांलाकि अभी न कोई प्रश्न किया गया था न सुना गया था. हममें बहुत कुछ ऐसा है जो कि सदैव अनकहा रह जाता है.परन्तु आज उसे कुछ कहना नहीं पूछना था. आज वह पूछ कर रहेगा.

आकुलता भरी शांति छा गयी थी. वह उसके प्रश्न के प्रारंभ होने का इंतज़ार कर रह थी. और वह कहाँ से प्रारंभ करूँ इस उधेड़बुन में था. उसे अपने ऊपर से विश्वास नहीं रहा. उसे लगा कि वह एक असहाय सी कमजोरी महसूस कर रहा है. वह उसे टटोल रही थी.

“हाँ…हाँ..आगे कुछ..?” उसने उसकी हिचक से आजिज आकर पूछा.

“अपने ऐसा क्यों किया?..सच सच कहना. अब तो तुम्हारे मन मुताबिक फैसला हो चूका है..क्या उस सात दिनों में मै तुम्हे मारता-पीटता था? नोचता-घसोटता था? जबरदस्ती रेप करता था? दहेज़ माँगता था?” वह एकदम से फट पड़ा था.उत्तेजना में क्रोध और गुस्से में वह कांपने लगा था. परन्तु उसका स्वर समान्य से कुछ ही अधिक था. वह लाल हो गया.

मोहिनी ने अपमान से पीड़ित विस्मित आतुरता से उसे देखा और हलके से मुस्कराकर बोली, “मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि मै इतनी हिम्मत कर पाऊँगी. उस रात देर तक आतंक,उलझन और घबराहट से नीद नहीं आई थी.किन्तु मुझे अपने घर से प्रतिशोध लेना था जिसमे तुम्हारी आहुति देनी पड़ी. उस रात सिर्फ अपने प्रतिशोध के विषय में ही सोचा था उसे आगे कुछ भी नही.

“क्या मतलब?” विराज का स्वर उच्च नहीं था.

वह सोचती रही.वे दोनो अकेले थे.वे दोबारा मिलने वाले नहीं थे.वह उस अतीत की तरफ जा रही थी जिससे विराज का कोई वास्ता नहीं था. परन्तु उसका परिणाम उसे भुगतना पड़ा था. उसके दिल-दिमाग में पुरानी बेहद, दुखद स्मृतियाँ, आकाशीय बिजली की तरह क्रोंध रही थीं. वह उससे साँझा करने को उद्धृत हुई.

‘क्या आपके पास समय है?” वह कुर्सी पर सीधी हो गयी और कहा.

“निश्चय ही.” उसने तुरंत कहा.

“नहीं, आपने सिर्फ पंद्रह मिनट्स मिलने की मांग रखीं थी. उसने उलाहना दिया.

‘वो, तो इसलिए कहा था कि आप मुझसे किसी वक़्त, किसी समय, किसी दिन मिलने को तैयार नही थी. ऐसा मुझे लगा था.

“हाँ..इस वक़्त से पहले मै ऐसा ही सोचती थी कि कही आप हिंसक न हो जाएँ?.आज भी….” फिर उन दोनों के बीच गहरी ख़ामोशी ब्याप्त हो जाती है. अहिंसक निरपराधी के सामने कुछ कहना भी दुष्कर होता है.वह हल्के कम्पन में थी,जो उसकी हथेलियों में प्रगट हो रहा था. विराज ने उसकी हथेलियों को अपने हाथों से ढक लिया. उसे हौसला मिला. उसने अहिस्ता से उसके हाथों से अपनी हथेलियाँ खीची और अपनी हिचकिचाहट से परे जाते हुए कहा-

“कॉलेज के दिनों में मुझे अपने सहपाठी सुनील जाटव से प्यार हो गया. पढाई ख़त्म करते ही हम दोनों ने विवाह करने की ठानी.मेरे घर वाले किसी तरह तैयार नहीं थे.उन्हें अपनी ऊँची जाति के मान, अपमान प्रतिष्ठा के कारण यह असम्भव कोटि का कार्य था और सुनील के घर वाले डर के मारे बेबस थे.हम लोग एक दुसरे के प्यार में इतने समर्पित थे कि सुनील की नौकरी लगते ही हम लिव इन रिलेशनशिप यानि के सहजीवन अपना लिया.घर वालों के मान अपमान से बेफ़िक्र बेख़ौफ़. तुरंत कोर्ट मैरिज इसलिए नहीं की, बाद में घर वालों को राजी कर लेंगे.मगर ऐसा न हो सका.एक दिन मेरे घरवाले कुछेक लोगों के साथ मेरे सहजीवन में आ धमके और हम दोनों को बुरी तरह मार पीट कर अलग अलग कर दिया.”

वह लगातार बोल रही थी कुछ ऐसे जैसे वह अपनी नहीं किसी और की कहानी सुना रही हो. कुछ क्षण वह रुकी और उसकी प्रतिक्रिया देखने की कोशिश की.परन्तु उसका चेहरा निर्विकार भावहीन एक अबोध बच्चे सा उसकी कहानी को उत्सुक्तता से सुनने में तल्लीन था.

“मुझे अपने घर ले आये और सुनील को उसके घर वालों को ऐसा सौपा कि वह अपनी जाति में झटपट शादी कर बैठा.शायद तभी उसे अपनी मौत से निजात मिली होगी. उसके पिता रिटायर हो चुके थे और वह चार चार बहनों का एकलौता भाई था.वह डरपोक था.” मेरे अहम् को चोट लगी थी.

वह जल्दी जल्दी धीमे और स्पष्ट बोल रही थी.इतना धीमे कि सिर्फ वही सुन पा रहा था. उसकी आँख भर आई थी और गला रुद्ध गया था.वह रुकी और उसने पानी पीकर अपने को रिफ्रेश किया.अबकी बार उसने विराज पर दृष्टि नहीं डाली और कहने लगी-

“इन सब सदमों ने मुझे बुरी तरह तोड़ कर रख दिया.मेरी हालत बुरी तरह बेहद ख़राब थी.सहजीवन के दुष्परिणाम स्वरुप मै प्रेग्नेंट हो चुकी थी.घर वालों के समझाने और सुनील की बेवफाई से बसीभूत होकर,मरता क्या न करता, के तहत मैंने अपने गर्भ से मुक्ति पा ली.’ यह मेरी अस्मिता पर हमला था.

उसकी आँखों से आंसू अनायास बहने लगे थे.जिसे उसने चतुराई से पोछ लिया. वह जान कर अनजान बन गया. कुछ पल मेरी तरफ चोर निगाहों से देखते रही फिर बोली,

“घर वाले मेरा दूसरा विवाह करवाना चाहते थे. मै घर, परिवार, समाज में काफी बदनाम हो चुकी थी. मै किसी तरह राजी नहीं थी. इसके बावजूद वे अपने प्रयत्न में लगे थे. कई बार रिश्ते तय होते होते टूट गए जब उन्हें कही से मेरा अतीत पता चल जाता. इससे मुझे दुःख नहीं होता बल्कि अपने को सही होने का सुख मिलता था. लेकिन..” उसका गला बुरी तरह रूंध गया था.उसके अंतर्द्वंद छिन्न भिन्न होकर बाहर निकलने को मचलने लगे थे.

“मुझे से ब्याह से अरुचि थी.परन्तु मै पराधीन थी. मुझे समवयस्क लडकों के सतही फिसलने वाले दृष्टिकोण से चिढ़ थी.पता नही कहाँ से मेरे भीतर बदला लेने की प्रवत्ति घर कर गयी. और क्रमशः यह सनकीपन की हद तक समां गयी…इसी बीच भाई पता नहीं कहाँ से तुम्हे पकड़कर ले आये. मै आपको अपने अतीत और भविष्य के लिए आगाह करना चाहती थी. इसलिए पहली मुलाकात में, मै आपको बार बार उकसाती रही कि कुछ पूंछ तांछ करो. परन्तु आप देखते इतने मोहित, सम्मोहित और आकर्षित हुए कि भूतकाल क्या वर्तमान भी नहीं पूछा…..विवाह के समय आप पच्चीस के भी नहीं हुए थे जबकि मै तीस पार कर चुकी थी. मुझे यह ठीक नहीं लगा था परन्तु मेरे पास जीवन यापन के लिए विवाह के अलावा कोई विकल्प नहीं था.”

उन दोनों के बीच मौन ठहर गया था.समय थम सा गया था. मोहिनी भी प्रकृतिस्थ थी और विराज का मन उसकी थाह नहीं ले पा रहा था.वह उत्कंठित था अपने हश्र में विषय में. अचानक उसका खोया मन वापस लौटा और उसने विराज के हाव-भाव ताड़ लिए.

“आपके साथ बिताये सात दिन अच्छे गुजरे और मन ही मन प्रसन्न और संतुष्ट थी. परन्तु मुझे अपने घर वालों की प्रसन्नता खटक गयी. उनके चेहरें पर आया विजयी भाव मुझे भीतर तक प्रताणित और अपमानित कर गया. मै पराजय की कुंठा से ग्रस्त थी. बदला लेने की प्रवृत्ति पूर्णरूप से उभार पर आ चुकी थी. आपके यहाँ से आने के बाद अचानक मेरे दिल में यह ख्याल आया कि उनके द्वारा तय की गयी जातिवादी अर्रेंज मैरिज को मै बर्बाद करके मै अपनी पहली शादी(सहजीवन) को उनके द्वारा नष्ट भ्रष्ट करने का प्रतिशोध लिया जा सकता है.तदनुरूप मैंने वही वही किया जो पराजित करता है अपने आखिरी ब्रहास्त्र के रूप में जिसमे वह स्वयं भी नष्ट हो जाता है…मुझे अकेले जिंदगी काटनी है यही मेरा परिवार और समाज के प्रति प्रतिशोध और प्राश्चित भी है.”

मोहिनी के मन के गहरे भाव जो शब्दों में व्यक्त नहीं हो पा रहे थे,जिनकी अभिव्यक्ति में उसकी भाषा दरिद्र हो गयी थी.उन्हें आँखे से बड़ी सहजता से संप्रेषित कर रही थी.उसके मन की सारी उर्जा आँखों में केन्द्रित हो गयी थी. वह फफक फफक कर रो उठी. विराज में उसके प्रति अभी तक संचित सारी कलुषता काफूर हो चुकी थी.

उसकी आँखें आंसुओं से रिक्त हो चुकी थी. वह उठी. उसने वासवेसिन में अपना छोटा सा रूमाल गीला किया और उससे चेहरे पर छप आयें आंसुओं को साफ किया. वह पुनः उसके पास आकर बैठ गयी.एकदम फ्रेश.

उन दोनो ने अपनी चाय और नास्ता समाप्त किया. इस दरम्यान कोई कुछ नहीं बोला.

“अब हमें चलना चाहिए.” उसने उठते हुए कहा.

‘हाँ..” उसने भी सहमति में सर हिलाया.बाहर उसके लोग उसका चिंतित और बेसब्री से इंतज़ार कर रहें थे. उंसने सिर्फ पंद्रह मिनट्स मांगे थे और एक घंटा से भी ज्यादा हो चुका था.

दरवाजे पर आकर वह पलटी रुकी और उसके पास आने का इंतज़ार किया और कहा, “एक अनुरोध है आपसे ?”

“कहिये?” उसे कोई विशेष उत्सुक्तता नहीं थी.

“हम दोनों के बीच इस समय जो कुछ कहा सुना गया है, कृपया अपने तक सीमित रखियेगा. विश्वास है आप किसी और के साथ साँझा नहीं करेंगे?” यह कहकर उसने आशाजनक नज़रों से उसे ताका.

“निश्चय ही…अवश्य..” विराज ने उसे आश्वस्त किया.

उस रात जब वह सोने लगा तो लगा कोई भारी बोझ जो उसके दिमाग में लदा था, वह बहुत हल्का पड़ चुका है.

एक अरसे के बाद वह एक अधमिटी अधूरी समृति, एक अस्पष्ट धुधले दर्द के बावजूद वह सो सका था.

आज सोचता है तो लगता है कि उसका एक अलग अस्तित्व और व्यक्तित्व था. वह सोचता है कि क्या वह उस व्यक्ति से कभी परिचित हो पाएंगा जिसका नाम मोहिनी था.

-राजा सिंह

ऍम-१२८५,सेक्टर-आई,एल.डी.कॉलोनी,

कानपुर रोड,लखनऊ-२२६०१२

मोब.9415200274

ईमेल-raja.singh1312@gmail.com

साक्षात्कार -भोला नाथ सिंह

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कहानी 

साक्षात्कार

भोला नाथ सिंह

फुटलाही, पत्रालय- बिजुलिया

चास, बोकारो- 827013

झारखण्ड

मोबाइल नंबर -09304413016.

          स्कूल मोड़ पर घंटा भर से अधिक खड़ा रहने के कारण सागर खिन्न हो उठा था। सवारी गाड़ी के रूप में ट्रेकर मिलते हैं पर जब तक वे ठसाठस भर न जाएँ तब तक टसकने का नाम ही नहीं लेते। अधिकतर वाहन मालिक चालक भी थे। सवारी लाख उकता ले उनकी बला से। किसी का काम हर्ज हो या गाड़ी छूटे, उनके बाप का क्या ? कहने पर टका सा ज़वाब दे देते – ‘खाली गाड़ी लेकर जाएँ क्या ?’ ऊपर से बेहिसाब खर्च और बचत न होने का रोना जबकि छत पर भी सवारियों को सामान की तरह लादे चलते हैं। जान जोखिम में होती है सो अलग।

          ‘काश ! कोई परिचित मोटरसाइकिल वाला मिल जाता’, सागर सोचता और कुढ़ता रहा लेकिन समस्या का निदान न हो सका। अंत में पुराने ट्रेकर में ठूंसा , घरघराहट को झेलता, गड्ढों में हिचकोले खाता वह गणेशी के हवाले चल पड़ा। साक्षात्कार के लिए उसे दस बजे का समय दिया गया था और नौ बज चुके थे। अभी आधी ही दूरी तय कर पाया था। योधाडीह मोड़ से चास बाज़ार और फिर कॉलेज, पहुँचने में काफी समय लगेगा। ख़ैरियत है कि कॉलेज मार्ग में गाड़ियों की आवाजाही अधिक है। अन्यथा चास से पंद्रह किलोमीटर की दूरी तय करने में ही उसे घंटा भर लग जाता।

          योधाडीह मोड़ पहुँचकर उसने गणेशी को पाँच का नोट थमाया तो गणेशी ने नोट वापस उसकी हथेली पर पटकते हुए कहा, “ये क्या दे रहे हैं ? सात रुपए निकालिए।”

          “क्यों भाई ? भाड़ा तो पाँच ही रुपए है ना ?” वह गणेशी के व्यवहार से हतप्रभ था।

          “वह कल तक था आज़ नहीं। डीजल के दाम बढ़े इसलिए भाड़ा भी बढ़ गया। अब सात रुपए लगेंगे”, कहते हुए गणेशी ने आँखें तरेरीं।

          सरकारी खोपड़ी में मस्तिष्क होता है या नहीं, पता नहीं। पेट्रोलियम के दाम बढ़ाने में उन्हें मज़ा आता है शायद। डीजल की कीमत लीटर प्रति तीन रुपए बढ़े या दो रुपए, भाड़ा में बीस से चालीस फीसदी वृद्धि हो जाती है। बीच में कीमत एक रुपया घट भी गया तो भी भाड़ा घटने से रहा। चावल, दाल, आटा से लेकर अन्य सभी आवश्यक वस्तुओं की कीमतें बरसाती बेलों की तरह लपलपाती बढ़ती चली जाती हैं।मोटी तनख़्वाह पाने वाले सरकारी कर्मचारियों को क्या ? फ़ैसले उनके और मार आम जनता पर। वे तो आठवें-दसवें वेतन आयोग के लिए हड़ताल कर बैठेंगे। बीस से पचास हजार की माँग हो जाएगी। देर-सवेर मिल भी जाएगा पर नब्बे प्रतिशत जनता महंगाई की मार झेलती असमय बूढ़ी हो जाएगी। सरकार के पास रोज़गार है न कोई अन्य विकल्प। है तो सिर्फ महंगाई और भ्रष्टाचार। ज़ेबकतरे की तरह गरीबों के ज़ेब को भी नहीं बख़्शती। जोंक, मच्छर और खटमल की तरह बिना मोह और लगाव के सिर्फ चूसना जानती है।

          ज़ेब में जितने पैसे थे न‌ए भाड़ा दर के लिए नाकाफी थे। कॉलेज तक जाकर लौटना भी था। ऐसे में वह पेट के लिए दो दाने का भी कहीं जुगाड़ बिठा नहीं पाता। सुबह सात बजे ही घर से निकला था। झिकझिक करना उसे अच्छा नहीं लगता पर करना पड़ा।

          उसने कहा, “क्यों भाई ? डीजल की कीमत तीन रुपए बढ़ी, फिर सरकार ने एक रुपया दस पैसे कम कर दिया। लगभग दो रुपए प्रति लीटर बढ़ी और पूरे रास्ते को तय करने में तुम्हें मुश्किल से दो लीटर खर्च करने पड़ते हैं। चार रुपए खर्च में वृद्धि हुई और वसूलते हो पचास रुपए। पच्चीस से कम सवारी तो ऊपर-नीचे लाद लाते नहीं।”

           “सुनो भाई, नेतागिरी की दरकार नहीं। और भी दूसरी चीजों की कीमतें बढ़ीं हैं। दिन भर में एक ही ट्रीप लगता है। लाखों की पूंजी लगी है। दो-चार सौ रुपए भी नहीं बचा तो क्या ख़ाक बिजनेस चलेगा ? रार मौलने की क्या तुक है ? भाड़ा दो और अपना रास्ता नापो”, गणेशी का स्वर कर्कश हो उठा था।

           सागर जानता था कि बहस से फ़ायदा नहीं होने वाला। वक्त की ताकीद है कि वह भाड़ा चुकाकर चलता बने। एक तो दूसरी सवारी साथ देने वाली नहीं तिसपर सरकारी अधिकारी चिरनिंद्रा में रंगीन स्वप्न ही देखते रहते हैं। उनकी कुंभकर्णी नींद टूटने से तो रही।

           इस बहस से वह अन्यमनस्क सा हो गया था। यह तो गनीमत थी कि प्रमाणपत्रों की छायाप्रति पहले ही करवा रखा था अन्यथा वहाँ भी डीजल की कीमत के नाम पर अधिक खर्चने पड़ते या झिकझिक करनी पड़ती।

           योधाडीह मोड़ से चास बाज़ार तक एक मील उसे पैदल ही जाना पड़ा। फिर कॉलेज मार्ग की गाड़ी पकड़ झटपट चल पड़ा। पौने दस होने को थे। गर्मी प्रारंभ हो चुकी थी। सवा दस के करीब वह कॉलेज पहुँच चुका था। देखा कुछेक प्रतिभागी उपस्थित हो चुके थे। कुछ आ ही रहे थे। बैठने के लिए एक तंबू तान दिया गया था। कुछ कुर्सियाँ बिछी हुई थीं। वह भी जाकर बैठ गया।

          आस-पास बैठे सभी प्रतिभागी एक ही बात को लेकर चिंतित थे कि पगार कितनी मिलेगी। चूंकि विज्ञापन में किसी प्रकार का उल्लेख नहीं था इसलिए संशय की स्थिति बनी हुई थी। सभी इसकी जानकारी पाने को बेचैन थे।

          सामने थे उत्तर प्रदेश से आए हुए एक सज्जन, जो हर शब्द को चबा-चबाकर बोल रहे थे। ‘हिन्दी साहित्य का संक्षिप्त इतिहास’ पर गहन दृष्टि जमाए बार-बार बालों पर हाथ फेरते थे। उनके दो-चार परिचित पहले से ही उस महाविद्यालय में मौजूद थे। उनसे बतियाते रहे तो सबों को यह सुबहा हुआ कि इनकी नौकरी तो पक्की समझो। इनकी पहुँच बहुत दूर… तक है। उसी प्रदेश से एक अधेड़ महिला भी पधारीं थी जिनके पास उपाधि के अलावे मान-पत्रों, प्रशस्ति-पत्रों का पिटारा भरा हुआ था। एक कम उम्र बाला घबराहट में सिकुड़ी जा रही थी। रह-रहकर उसका व्यवहार असामान्य हो उठता था। ‘पता नहीं कैसे ज़वाब दूँगी ? मैं तो बोल ही नहीं पाऊँगी’, कहती हुई बार-बार पानी पी रही थी।

          साक्षात्कार समिति की ओर से पानी की व्यवस्था थी। जितना चाहें पानी पी सकते हैं। तीन सौ रुपए का माँग-पत्र (डिमांड ड्राफ्ट) बाकायदा जमा करना पड़ा था। सागर जैसे बेरोज़गार के लिए अखर गया था। ऊपर से बैंक का कमीशन और समय का खर्च अलग। सुदूर गांव का निवासी असुविधाओं का मारा होता है।

           बगल में राँची से आए हुए एक सज्जन बैठे थे। सौहार्द्रपूर्ण माहौल में बातें कर रहे थे। उनसे मिलने उनकी महिला मित्र आई हुई थीं जो सबके आकर्षण का केंद्र बनी हुई थीं। इनसे भी अधिक एक अन्य महिला प्रतिभागी ध्यान आकृष्ट कर रही थी जिनका शृंगार बड़ा अद्भुत था। पल्लू में घुंघरू टँके हुए थे। जब वे चलतीं तो छुन-छुन का संगीत लहरा उठता था। इतना सबकुछ होते हुए भी हर मस्तिष्क में एक ही प्रश्न उमड़-घुमड़ रहा था कि पगार कितनी होगी।

          एक सज्जन जो संभवतः आस-पास के रहने वाले थे, बता रहे थे -‘दो हजार रुपए से अधिक नहीं मिलता किसी को यहाँ। वह भी देर-सवेर। सचिव की कृपा से यदा-कदा कुछ मिल जाता है। अन्यथा आमदनी ही क्या है ?’

          सागर मन-ही-मन जोड़ने लगा -‘आने-जाने का किराया ही चालिस रुपए। चाय-पानी के दस भी रख दूँ तो कुल पचास प्रतिदिन। बचेगा क्या ? ऊपर से आने-जाने में अतिरिक्त समय। लगता है कोई लाभ नहीं होगा।’ 

          उसे याद आया जब वह बैंक में ड्राफ्ट बनवा रहा था। खाजाँची ने प्रपत्र देखकर कहा था -‘वहाँ का वेतन रामभरोसे। मैं तो कहता हूँ कि ऐसे कॉलेज में पढ़ाने से बेहतर है पकौड़ियाँ बेचना।’

          वह आहत हो गया था। भला पकौड़ी बेचने और पढ़ाने में समानता कहाँ है ? माना उसमें पैसे अधिक मिल जाते हैं परन्तु शिक्षण से उसकी तुलना उचित नहीं। चाहे वह वहाँ काम करे या न करे। एक चपरासी को बुलाकर पूछा, “भाई, वेतन कितना मिलता है यहाँ के शिक्षकों को ?”

          “साहब, रहने भी दीजिए। सुनेंगे तो भाग खड़े होंगे”, कहकर वह टाल गया था।

          एक अन्य कर्मचारी से पूछा तो उसने गोल-मटोल ज़वाब दिया, “वह तो पता चल ही जाएगा। अच्छा ही है….।” उसके ज़वाब के अंदाज़ ने रहस्य को और गहरा दिया। वैसे भी सागर को भान हो ही गया था। उसका मन अब व्याकुल हो उठा था। आकर्षण बिल्कुल समाप्त हो गया था। 

          एक ही समिति साक्षात्कार ले रही थी। पहले वाणिज्य वाले ग‌ए। फिर विज्ञान वाले विषयवार। अंत में कला संकाय के विभिन्न विषयों की बारी आई। ढाई बजे हिन्दी वालों को समय मिला। इस बीच प्यास बुझाने को पानी ही मिला जो अब गर्म हो चुका था। अंतड़ियाँ भूख से कुलबुलाने लगी थीं। उत्साह जैसा कुछ रहा ही नहीं। बेरोज़गार युवकों में साक्षात्कार के प्रति उमंग दूध में उफान की तरह उठता है और आवेग में बहता चला जाता है। अंत में पता चलता है कि सारा दूध ही बिला गया है। शीतल जल के छींटे मारने वाला कोई होता ही नहीं वहाँ।

          ख़ैर जो भी हो, जल्दी से निबटा कर घर लौटना था। देर हुई तो गाड़ी नहीं मिलेगी। ग्रामीण क्षेत्र के उसके इलाके में शाम पाँच बजे के बाद गाड़ी मिलनी मुश्किल हो जाती है।

          चार-पाँच प्रतिभागी थे हिन्दी के। उन्हें बरामदे में अलग बिठा दिया गया। भीतर कमरे में समिति के सदस्य आपस में बातें कर रहे थे। उनके ठठाकर हँसने की आवाज़ें आ रही थीं। सचिव भी साक्षात्कार ले रहे हैं। विश्वविद्यालय से कोई प्रतिनिधि पधारे हैं। एक-दो विषय विशेष के विशेषज्ञ। अन्य सबकुछ पूर्ववत। तभी किसी की आवाज़ आई, “भोजन तैयार हो गया है, खा लिया जाए फिर बैठते हैं।”

          सभी सदस्य एकमत होकर चले गए। उम्मीदवारों को कहा गया कि पंद्रह मिनट इंतज़ार करें। बाध्यता थी, करनी ही पड़ेगी। भोजन भी भला पंद्रह मिनट में ! आधा घंटा से ऊपर चला गया। फिर पान-सुपारी में पाँच मिनट। इसके बाद ही सदस्य गण पधारे। एक-एक कर बुलाया जाने लगा। महज़ पाँच मिनट, चार मिनट …. की पूछताछ और उम्मीदवार बाहर।

           एक से पूछा गया, “किसी प्रतिष्ठित साहित्यकार का नाम बताएँ जो विदेश यात्रा पर भी गए हैं।”

           अधेड़ महिला भीतर गई फिर तुरंत बाहर निकल अपने पति को बुलाने लगी। जैसा कि सावधानी या अज्ञता के लिए लोग करते हैं, सागर ने उनसे पूछा, “क्या-क्या पूछा गया आपसे ?”

          “कुछ भी नहीं। मेरे प्रमाणपत्र और मान-पत्र देखकर ही उन्होंने पूछना छोड़ दिया। कहा- आपकी नौकरी पक्की। बस वेतन तीन हजार ही मिल सकता है। अपने पति से पूछ लें। अभी आप जहाँ कार्यरत हैं वहाँ छोड़कर आना चाहेंगी ?”

           सागर की बारी आई। वह भीतर गया। शालीनता से अभिवादन किया। नाम, पता, योग्यता, उत्तीर्णता वर्ष जैसे सामान्य प्रश्नों के बाद पीएचडी करने की इच्छा और विषय के संबंध में पूछा गया। सागर ने बताया, “इच्छा तो है। विषय मैं यथार्थवादी कहानियों के संदर्भ में रखना चाहता हूँ।”

           “आपने नए लेखकों को पढ़ा है ? अमुक, फलाना, ……. आदि को ?”

          “हाँ, अमुक की एकाध रचनाएँ ….।”

          “कौन सी ?”

          “शीर्षक याद नहीं।” उसने अनेकों लेखकों को पढ़ा था। पढ़ भी रहा था। नाम सबका याद रख पाना मुश्किल था। प्रसंगानुकूल हो तो स्मरण कर ले। अभी आवश्यकता महसूस नहीं हुई थी।

           “नहीं, आपने नहीं पढ़ा है। ” सचिव के इस कथन से वह तिलमिला उठा था। कितनी अभद्रता है इनकी वाणी में ? परंतु उसने स्वयं को संयमित ही रखा।

          “आप जब पढ़ाएँगे, तब आपको इनके उदाहरण देने होंगे। ऐसा नहीं हो सकता कि आप किसी लेखक को पढ़ा रहे हों और दूसरे का उदाहरण न आए।”

          सागर को लगा कि वह कह दे -‘एक बेरोज़गार व्यक्ति किताबों पर दो सौ खर्च करेगा या परिवार के लिए राशन की व्यवस्था ? बच्चे भूखे बिलख रहे होंगे तो किताब चबाकर पेट नहीं भर पाएँगे। पेट भरा हो तो ही कुछ खर्च कर पाना संभव है। उसे भी नौकरी मिले, अच्छी पगार मिले फिर उसका पढ़ने का जुनून बढ़ जाएगा। किताबी कीड़ा तो वह है ही। पढ़ा भी अनेकों को है पर रोजी के लिए गणित के सूत्र रटने पड़ते हैं, विज्ञान के समीकरणों में उलझना पड़ता है। साहित्य और संगीत का आनंद दूर होता चला जाता है।’

          वह प्रेमचंद और गोर्की की समानता या तुलना के माध्यम से अध्यापन का पक्षधर नहीं। वह मानता है प्रत्येक साहित्यकार अपनी कृति में जीता है, मरता है। कहीं-न-कहीं वह स्वयं उस कृति में मौजूद रहता है। उसका अनुभव, उसके विचार शब्द सूत्रों में पिरोए होते हैं। सबकी अपनी सीमाएँ हैं, प्राथमिकताएँ हैं, अपने उद्देश्य हैं। हाँ, कहीं-कहीं वे प्रेरित या प्रभावित हो सकते हैं दूसरों से। पर ऐसे में मौलिकता की हत्या होती है। वह साहित्य की ‘वाद परंपरा’ और दलबंदी से नफ़रत करता है परंतु मज़बूर है। जहाँ तुलनात्मक अध्ययन-अध्यापन की बात हो, उसे अलग नज़रिए से देखा जाना चाहिए। आलोचना का एक सीमित क्षेत्र है। प्रत्येक कृति की अपनी विचारधारा हो सकती है और वही उसकी आत्मा होती है। कृति उसी आत्मा में जीती है।

          “तो फिर आप कैसे पढ़ाएँगें ?”

          “विषय या प्रसंगानुसार उदाहरण भी दूँगा। पाठ्यक्रम के अनुसार पढ़ाऊँगा। तुलना सिर्फ आलोचना के समय ही अपेक्षित है।”

          उसकी आवाज़ भूख से भीतर खिंच रही थी। शायद बोलने का मन नहीं कर रहा था। हालांकि जिन लेखकों के नाम गिनाए गए थे, वे न तो चर्चित थे और न ही उनकी कोई रचना पाठ्यक्रम में शामिल थी। ऐसे तो हज़ारों लेखक हैं। सभी को सब कहाँ पढ़ पाते हैं ? क्षमता का आकलन इन्हीं प्रश्नों से संभव नहीं। साक्षात्कार के लिए वातावरण और स्थिति को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए।

          “छोड़िए…. छोड़िए ……”, सचिव ने अन्य सदस्यों से कहा।

          पाठ्यक्रम पर न तो कोई प्रश्न पूछा गया न ही साहित्यिक उपल्ब्धि पर। वह जिन विषयों की संभावना कर रहा था यहाँ उनकी चर्चा ही नहीं हो रही थी। प्रश्न लीक से हटकर थे। भूखे पेट और मरोड़ खाती अंतड़ियों ने आवाज़ को पकड़ लिया था। ऐसे में ‘कामायनी’ या ‘रश्मिबंध’ का कोई पाठ करने कहे तो नहीं सुहाता है। साक्षात्कार के लिए जिस वातावरण की आवश्यकता होती है उसका सर्वथा अभाव था।

          घंटी बजते ही सागर ने धन्यवाद कहा और अपना रास्ता पकड़ा। झटपट गाड़ी पकड़ वह घर लौट चला। पगार की बात उससे पूछी ही नहीं ग‌ई अन्यथा शायद उसके ज़वाब को अशिष्टतापूर्ण आचरण में शामिल कर लिया जाता। अधिकारी कुछ भी बोलें सहना पड़ता है। बेरोज़गारी सबसे बड़ा अभिशाप जो ठहरी।

          दिन भर थकान, भूख और क्लांति को झेलता वह रात को ही घर लौट पाया था। आते ही झोल खाट पर निढाल हो गया था जैसे शरीर में जान ही न बची हो। प्रमाणपत्रों की फाइल अब भी हाथ में ही थी।

नारी शक्ति

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तुम जननी हो, तुम शक्ति हो, आश्रिता ना समझना

तुम नारी हो, तुम सबला हो, अबला ना समझना

 

पुरुष और नारी के भेद भाव को न पलने देना 

भ्रूण के हत्यारों से अजन्मी कोख न मरने देना

मौन की तडफन को तुम तांडव में बदल देना

तुम नारी हो, तुम सबला हो, अबला ना समझना

 

मन की उड़ान को पिंजरे में न बंद होने देना

प्रतिभा के पंछी के पंखों को न कुतरने देना

गायन के गुंजन को तुम गर्जन में बदल देना

तुम नारी हो, तुम सबला हो, अबला ना समझना

 

अपने पैरों में बेबसी की बेड़ियाँ न पड़ने देना

दहेज़ रुपी दानव से जीवन को न जलने देना

दमन के सहन को तुम तीव्र तपन में बदल देना

तुम नारी हो, तुम सबला हो, अबला ना समझना

 

मानवीय रिश्तों को कभी कलंकित न होने देना

वहशी दरिंदों से किसी की अस्मत न लुटने देना

दया की देवी को तुम साक्षात् दुर्गा में बदल देना

तुम नारी हो, तुम सबला हो, अबला ना समझनाMS photo 95221535

पुरस्कार

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जैक लंडन की कहानी ” द चिनागो ” का  अंग्रेज़ी से हिंदी में ” वह चिनागो ” शीर्षक से अनुवाद

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( जैक लंडन की कहानी ” द चिनागो ” का  अंग्रेज़ी से हिंदी में ” वह चिनागो ” शीर्षक से अनुवाद )

वह चिनागो

मूल लेखक : जैक लंडन                                                                            

अनुवाद : सुशांत सुप्रिय 

” प्रवाल विकसित होता है , ताड़ बढ़ता है , लेकिन मनुष्य प्रयाण कर जाता है ।” 

                                — ताहिती की कहावत ।

  अह चो फ़्रांसीसी नहीं समझता था । वह बेहद थकामाँदा और उकताया हुआ , अदालत के भरे हुए कमरे में लगातार विस्फोटक फ़्रांसीसी सुनते हुए बैठा था , जिसे कभी एक अधिकारी और कभी दूसरा बोलता था । अह चो के लिए यह केवल बहुत ज़्यादा बड़बड़ाहट थी , और वह फ़्रांसीसी लोगों की मूर्खता पर आश्चर्यचकित था जो चुंग गा के हत्यारे का पता लगाने में इतनी देरी कर रहे थे , और जिन्होंने उसका पता बिल्कुल नहीं लगाया । बाग़ान के पाँच सौ क़ुली जानते थे कि अह सेन ने यह हत्या की थी और यहाँ यह हाल था कि अह सेन को गिरफ़्तार तक नहीं किया गया था । यह सच था कि सभी कुलियों ने एक दूसरे के विरुद्ध गवाही नहीं देने की बात गुप्त रूप से मान ली थी , पर फिर भी यह पता लगाना बेहद आसान था और फ़्रांसीसी लोगों को यह खोज निकालने में समर्थ होना चाहिए था कि अह सेन ही वह व्यक्ति था । ये बेहद मूर्ख थे, ये फ़्रांसीसी । 

  अह चो ने ऐसा कुछ नहीं किया था जिसके लिए वह भयभीत होता । हत्या में उसका कोई हाथ नहीं था । यह सच है कि वह उस समय वहाँ मौजूद था , और बाग़ान का निरीक्षक स्केमर ठीक उसके बाद दौड़कर बैरक में आया था और चार या पाँच अन्य कुलियों के साथ उसे वहाँ पकड़ा था , पर उससे क्या होता है ? चुंग गा को केवल दो बार छुरा मारा गया था । यह बुद्धि की कसौटी पर खरा उतरता था कि पाँच या छह आदमी छुरों के दो घाव नहीं लगा सकते थे । यदि एक व्यक्ति ने केवल एक बार छुरा मारा था तो ज़्यादा से ज़्यादा केवल दो आदमी ही ऐसा कर सकते थे । 

  अह चो ने यही तर्क सोचा था , जब उसने और उसके चार साथियों ने घटने वाली घटना के सम्बन्ध में अदालत को दिए गए अपने बयानों में झूठ बोला था और तथ्यों को अवरुद्ध और धुँधला कर दिया था । उन्होंने हत्या की आवाज़ें सुनी थीं , और स्केमर की तरह वे उस जगह की ओर दौड़े थे । वे स्केमर से पहले वहाँ पहुँच गए थे — केवल यही बात थी । सच है , स्केमर ने बयान दिया था कि जब वह वहाँ से गुज़र रहा था तो झगड़े की आवाज़ से आकृष्ट हो कर वह कम से कम पाँच मिनट तक बाहर खड़ा रहा था और तब , जब वह भीतर गया , उसने क़ैदियों को पहले से ही भीतर पाया । स्केमर ने अपने बयान में यह भी कहा था कि क़ैदी ठीक पहले भीतर नहीं गए थे क्योंकि वह बैरक के एकमात्र दरवाज़े के पास खड़ा रहा था । पर उससे क्या होता है? अह चो और उसके चारो साथी-क़ैदियों ने बयान दिया था कि स्केमर भ्रम में था और ग़लत था । अंत में उन्हें जाने दिया जाएगा । वे सभी इसके प्रति आश्वस्त थे । छुरे के दो घावों के लिए पाँच आदमियों से उनके सिर नहीं काटे जा सकते थे । इसके अलावा किसी विदेशी शैतान ने हत्या होते हुए नहीं देखी थी । पर ये फ्रांसीसी लोग कितने मूर्ख थे । जैसा कि अह चो अच्छी तरह जानता था , चीन में दण्डाधिकारी उन सबको यंत्रणा देने का आदेश दे देता और सच्चाई जान लेता । उत्पीड़न के द्वारा सच्चाई जानना बेहद आसान था । मगर ये फ़्रांसीसी लोग यातना नहीं देते थे — बहुत बड़े मूर्ख थे ये । इसलिए ये कभी नहीं जान पाएँगे कि कि चुंग गा की हत्या किसने की । 

    पर अह चो सब कुछ नहीं समझता था । बाग़ान का स्वामित्व रखने वाली कंपनी ने काफ़ी बड़े खर्चे पर ताहिती में पाँच सौ कुलियों का आयात किया था । शेयर-होल्डर लाभांश के लिए शोर मचा रहे थे , और कंपनी ने अब तक कोई लाभांश अदा नहीं किया था । इसलिए कंपनी यह नहीं चाहती थी कि उसके क़ीमती अनुबंधित मज़दूर एक-दूसरे को मारने की प्रथा शुरू कर दें । साथ ही, वहाँ चिनागो लोगों पर फ़्रांसीसी क़ानून की ख़ूबियाँ और श्रेष्ठता थोपने के लिए उत्सुक और इच्छुक फ़्रांसीसी भी थे । कभी-कभार उदाहरण स्थापित करने से ज़्यादा अच्छा कुछ नहीं था ।इसके अलावा , इंसान होने और नश्वर होने के कारण सजा के भुगतान के तौर पर लोगों को अपने दिन दुर्दशा और दुख में बिताने के लिए भेजने के सिवाय न्यू कैलेडोनिया और किस काम का था ? 

    अह चो यह सब नहीं समझता था । वह अदालत के कमरे में बैठा विस्मयकारी न्याय की प्रतीक्षा कर रहा था जो उसे और उसके साथियों को वापस बाग़ान पर जाने और और अनुबंध की शर्तों को पूरा करने के लिए मुक्त कर देगी । यह फ़ैसला जल्दी ही दे दिया जाएगा । कार्यवाही समाप्ति की ओर घिसट रही थी । वह यह देख सकता था । अब न और बयान दिए जा रहे थे , न और लोगों की बड़बड़ सुनाई दे रही थी । फ़्रांसीसी शैतान भी थक गए थे और स्पष्ट रूप से निर्णय की प्रतीक्षा कर रहे थे । और जब वह इंतज़ार कर रहा था तो उसने अपने जीवन के उस पिछले समय को याद किया जब उसने अनुबंध पर हस्ताक्षर किए थे और जहाज़ में बैठ कर ताहिती के लिए रवाना हुआ था । उसके समुद्र-तटीय गाँव में समय बेहद कठिन रहा था , और तब उसने ख़ुद को सौभाग्यशाली माना था जब उसने दक्षिणी समुद्र में पचास मेक्सिकी सेंट प्रतिदिन पर पाँच सालों के लिए मेहनत-मज़दूरी करने के लिए ख़ुद को करारबद्ध किया था । 

    उसके गाँव में ऐसे पुरुष थे जो दस मेक्सिकी डाॅलर के लिए साल भर कड़ी मेहनत करते थे , और ऐसी औरतें थीं जो पाँच डाॅलर पाती थीं और यहाँ उसे एक दिन का पचास सेंट मिलना था । एक दिन के काम के एवज़ में , केवल एक ही दिन के काम के लिए उसे वह राजसी धन-राशि मिल जानी थी । अगर काम मुश्किल था तो क्या हुआ ? पाँच सालों के अंत में वह घर लौट आएगा — यह अनुबंध में लिखा था — और उसे दोबारा कभी यह काम नहीं करना पड़ेगा । वह जीवन भर के लिए एक अमीर आदमी हो जाएगा , जिसका अपना एक घर होगा , पत्नी होगी , और सयाने हो रहे बच्चे होंगे जो उसका आदर करेंगे । हाँ, और घर के पिछवाड़े में उसका एक छोटा बग़ीचा होगा , सोचने-विचारने और आराम करने की एक जगह , और एक बहुत छोटे ताल में सोन-मछलियाँ होंगी । पेड़ों में हवा से बजने वाली घंटियाँ टनटनाएँगी , और चारो ओर एक ऊँची दीवार होगी ताकि उसका सोचना-विचारना और आराम करना शांत और अक्षुब्ध रहे । 

   ख़ैर , उसने उन पाँच सालों में से तीन साल बिता लिए थे । अपनी कमाई के द्वारा वह अपने देश में अभी से एक धनी आदमी हो गया था , और ताहिती में कपास के बाग़ान और उसकी राह देख रहे सोचने-विचारने और आराम करने के बग़ीचे के बीच में केवल दो साल और पड़ते थे । लेकिन ठीक इस समय वह चुंग गा की हत्या के समय मौजूद रहने की बदक़िस्मत दुर्घटना के कारण रुपए-पैसे खो रहा था । वह तीन हफ़्ते से जेलखाने में पड़ा था , और उन तीन हफ़्तों में से प्रत्येक दिन के लिए उसने पचास सेंट खोए थे । पर अब जल्दी ही फ़ैसला सुना दिया जाएगा , और वह वापस काम पर चला जाएगा । 

   अह चो की उम्र बाईस साल थी । वह ख़ुशमिज़ाज और अच्छे स्वभाव का था , और उसके लिए मुस्कराना आसान था । हालाँकि उसका शरीर एशियाई ढंग से छरहरा था , पर उसका चेहरा गोल-मटोल था । वह चाँद की तरह गोल था और वह एक सौम्य भद्रता और आत्मा की मधुर सहृदयता को आलोकित करता था जो उसके हमवतनों में विरल थी । उसके चेहरे का रूप-रंग भी उसे झूठा साबित नहीं करता 

था । उसने कभी गड़बड़ी नहीं फैलाई थी , कभी लड़ने-झगड़ने में भाग नहीं लिया 

था । वह जुआ नहीं खेलता था । उसकी अंतरात्मा उतनी निष्ठुर नहीं थी जितनी एक जुआरी की होनी चाहिए । वह साधारण चीज़ों और सामान्य इच्छाओं से संतुष्ट था । कपास के दहकते खेत में कड़ी मेहनत करने के बाद शाम की शीतलता में मौजूद नि:स्तब्धता और शांति उसे असीम संतोष देती थी । वह किसी अकेले फूल को एकटक देखते हुए और अस्तित्व के गूढ़ रहस्यों और पहेलियों पर चिंतन करते हुए घंटों बैठा रह सकता था । रेतीले समुद्र-तट के एक बहुत छोटे अर्द्ध-चंद्राकार पर खड़ा एक नीला बगुला, उड़न-मीन की रुपहली उछाल, या समुद्रताल के उस पार एक मोतिया और गुलाबी सूर्यास्त उसे इतना सम्मोहित कर सकते थे कि वह थकाऊ दिनों के जुलूस और स्केमर के भारी कोड़े के प्रति पूरी तरह भुलक्कड़ हो जाए । 

    स्केमर, कार्ल स्केमर , एक पशु था , एक बर्बर पशु । पर वह अपना वेतन कमाता था । वह उन पाँच सौ ग़ुलामों से ताक़त का अंतिम क़तरा निचोड़ लेता था क्योंकि वे तब तक ग़ुलाम ही थे जब तक कि उनके पाँच सालों की अवधि समाप्त नहीं हो जाती । स्केमर कड़ी मेहनत करता था ताकि वह उन पाँच सौ पसीना बहाते शरीरों से शक्ति निचोड़ सके और निर्यात के लिए तैयार कपास के रोयेंदार गट्ठों में उसके स्वरूप को बदल सके । यह उसकी प्रबल, कदाचित आदिम पाशविकता ही थी जो उसे स्वरूप-परिवर्तन को लागू करने की ताक़त देती थी । साथ ही , उसे तीन इंच चौड़े और गज भर लम्बे चमड़े के एक मोटे पट्टे की सहायता प्राप्त थी जिसके साथ वह चलता था और जो समय-समय पर किसी झुके हुए क़ुली की नंगी पीठ पर पिस्तौल की गोली की तरह धड़ाके के साथ गिरती थी । ये धड़ाके तब लगातार होते जब स्केमर घोड़े पर सवार हो कर खांचेदार खेत से गुज़रता था । 

    एक बार, अनुबंधित श्रम के पहले साल के शुरू में , उसने एक क़ुली को मुक्के के एक ही वार से मार डाला था । उसने उस आदमी के सिर को ठीक-ठीक अंडे के छिलके की तरह तो नहीं कुचला था , पर जो भीतर था उसे गड़बड़ कर देने के लिए वह घूँसा काफ़ी रहा था , और एक सप्ताह तक बीमार रहने के बाद वह आदमी चल बसा था । पर चीनियों ने ताहिती पर शासन करने वाले फ्रांसीसी शैतानों से शिकायत नहीं की थी । यह उनका अपना पहरेदार था । स्केमर उनकी समस्या था । उन्हें उसके कोप से दूर रहना था जैसे वे कन-खजूरों के विष से बचते थे जो घास में छिपे रहते या बारिश की रातों में रेंग कर सोने की जगहों पर पहुँच जाते । द्वीप की आलसी , भूरी चमड़ी वाली जनता जिन्हें चिनागो कह कर बुलाती थी उन्होंने यह ध्यान रखा कि वे स्केमर को बहुत ज़्यादा नाराज़ न करें । यह स्केमर के लिए पूरी मात्रा में की गई कड़ी मेहनत के बराबर था । स्केमर के मुक्के का वह वार कम्पनी के लिए हज़ारों डाॅलर के मूल्य का रहा था , किंतु इसके कारण स्केमर को कभी कोई परेशानी नहीं हुई । 

   फ़्रांसीसियों के पास उपनिवेशन की सहज वृत्ति नहीं थी और वे द्वीप के साधनों को विकसित करने के बचकाने खेल में व्यर्थ सिद्ध हुए थे । इसलिए अंग्रेज़ कम्पनी को सफल होता देखकर वे खुश हुए । स्केमर और उसके बदनाम घूँसे का मामला आख़िर था ही क्या ? एक चिनागो मर गया , यही न ? यही सही , आख़िर वह एक चिनागो ही तो था । इसके अलावा वह तो लू लगने से मरा था , जैसा कि डाॅक्टर के सर्टिफ़िकेट से प्रमाणित होता था । सच है, ताहिती के समूचे इतिहास में कभी कोई लू लगने से नहीं मरा था पर यही कारण था , ठीक यही , जो इस चिनागो की मौत को अनूठा बनाता था । डाॅक्टर ने भी अपनी रिपोर्ट में यही कहा था । वह बेहद स्पष्टवादी था । लाभांश अदा करना आवश्यक था , वरना ताहिती की असफलताओं के लम्बे इतिहास में एक और असफलता जुड़ जाती । 

   इन गोरे शैतानों को समझना असंभव था । न्याय की प्रतीक्षा करते हुए अदालत के कमरे में बैठा अह चो उनकी रहस्यमयता पर विचार करने लगा । उनके मन में क्या चल रहा होता यह कोई नहीं बता सकता था । उसने कुछ गोरे शैतानों को देखा था । वे सभी एक जैसे थे — जहाज़ पर मौजूद अफ़सर और नाविक , फ़्रांसीसी अधिकारी , बाग़ान पर मौजूद कई गोरे लोग , जिनमें स्केमर भी था । उन सभी के मन रहस्यमय रास्तों पर चलते थे जिन्हें समझ पाना असम्भव था । वे बिना किसी प्रत्यक्ष कारण के नाराज़ हो जाते , और उनका क्रोध हमेशा ख़तरनाक होता । ऐसे समय में वे हिंस्र पशुओं जैसे हो जाते । वे छोटी-छोटी चीज़ों के लिए चिंतित रहते , और कभी-कभी एक चिनागो से भी ज़्यादा कड़ी मेहनत कर सकते थे । वे चिनागो लोगों की तरह मिताहारी नहीं थे , वे पेटू थे जो आश्चर्यजनक रूप से ज़्यादा खाते थे और उससे भी ज़्यादा शराब पीते थे । एक चिनागो यह कभी नहीं जान पाता था कि कब उसका कोई काम उन्हें ख़ुश कर देगा या उनके क्रोध का तूफ़ान खड़ा कर देगा । एक चिनागो यह कभी नहीं बता सकता था । जो चीज़ एक बार उन्हें ख़ुश करती थी , वही दूसरी बार क्रोध का विस्फोट उत्पन्न कर सकती थी । गोरे शैतानों की आँखों के पीछे एक पर्दा था जो उनके मन को चिनागो लोगों की टकटकी से छिपाता था । इन सब के अलावा गोरे शैतानों में भारी सामर्थ्य था , चीज़ों को करने की योग्यता थी । उनमें चीज़ों को चला सकने की , काम करके नतीजे निकाल सकने की और अपनी इच्छाशक्ति के अनुरूप सभी सरकने और रेंगने वाली चीज़ों को झुका सकने की दक्षता थी । बल्कि सभी मूल तत्वों की पूरी शक्तियाँ भी उन्हीं में थी । हाँ, गोरे लोग अनूठे और असाधारण थे और वे शैतान थे । स्केमर को देखो । 

    अह चो हैरान था कि फ़ैसला देने में इतनी देर क्यों लग रही थी । जिन लोगों पर मुक़दमा चल रहा था उन में से किसी ने चुंग गा को हाथ भी नहीं लगाया था । केवल अह सेन ने ही उसकी हत्या की थी । अह सेन ने चुंग गा की चोटी पकड़ कर एक हाथ से उसका सिर पीछे झुकाया था और फिर पीछे से दूसरा हाथ आगे बढ़ा कर चाक़ू को उसके शरीर में घुसा दिया था । दो बार उसने चाक़ू भीतर घुसेड़ दिया था । वहाँ अदालत के कमरे में आँखें बंद किए हुए अह चो ने हत्या को दोबारा होते हुए देखा — तू-तू-मैं-मैं , बेहद घटिया शब्दों का होता आदान-प्रदान, आदरणीय पूर्वजों को दी गई गालियाँ और उनका किया गया अपमान , अनादि पीढ़ियों को दिए गए शाप , अह सेन की छलाँग , चुंग गा की चोटी पर उसकी पकड़, वह चाक़ू जो शरीर में दो बार घुसा , दरवाज़े के लिए झपटना , अह सेन का बच कर भाग निकलना , स्केमर का उड़ता पट्टा जिसने बाक़ी लोगों को कोने में खदेड़ दिया और संकेत के तौर पर रिवाल्वर से गोली का चलना जो स्केमर के लिए मदद लाई । 

   अह चो इस पूरे घटनाक्रम को दोबारा जीते हुए सिहरा । पट्टे का एक प्रहार उसके गाल पर चोट लगा कर थोड़ा चमड़ा छील कर ले गया । स्केमर ने चोट की ओर इशारा किया था जब उसने कटघरे में अह चो को पहचाना था । अब जा कर वे निशान ठीक से नहीं दिखते थे । वह एक बड़ा तगड़ा वार था । यदि वह मध्य के पास आधा इंच और होता तो उसकी आँख निकाल लेता । और फिर वह सोचने-विचारने और आराम करने वाले बग़ीचे की झलक में , जो कि उसका होगा जब वह अपनी धरती पर वापस लौटेगा , इस समूचे घटनाक्रम को भूल गया । 

   जिस समय दंडाधिकारी फ़ैसला सुना रहा था , वह शांत चेहरा लिए बैठा था । उसके चारो साथियों के चेहरे भी उसी तरह शांत थे । और वह उसी तरह शांत रहे जब दुभाषिये ने उन्हें स्पष्ट किया कि उन पाँचो को चुंग गा की हत्या करने का दोषी पाया गया था । उन्हें बताया गया कि अह चाओ का सिर काट दिया जाएगा , अह चो को न्यू कैलेडोनिया के जेलख़ाने में बीस साल की सज़ा भुगतनी होगी , वोंग ली को बारह साल और अह तोंग को दस साल कैदख़ाने में बिताने होंगे । 

   इसके बारे में उत्तेजित होने का कोई फ़ायदा नहीं था । यहाँ तक कि अह चाओ भी ममी-सा भावहीन बना रहा , हालाँकि उसी के सिर को काट दिया जाना था । दण्डाधिकारी ने कुछ शब्द कहे और दुभाषिये ने स्पष्ट किया कि सकेमर के पट्टे से अह चाओ के चेहरे पर सबसे अधिक चोट लगने से उसकी पहचान इतनी सुनिश्चित हो गई थी कि चूँकि एक व्यक्ति को मरना ही था , इसलिए उसी का वह व्यक्ति होना उचित था । साथ ही , अह चो के चेहरे पर भी उसी तरह काफ़ी चोट लगी थी , जो हत्या की जगह उसकी उपस्थिति और हत्या में उसकी असंदिग्ध सहभागिता निर्णायक रूप से साबित करती थी । इसी कारण उसे बीस सालों का कठोर श्रम-कारावास दिया गया था । और अह तौंग के दस सालों के कारावास तक प्रत्येक सज़ा के निर्धारित कारण को स्पष्ट किया गया । अदालत ने अंत में कहा कि चिनागो लोगों को इस से सबक़ सीखना चाहिए क्योंकि उन्हें मालूम हो जाना चाहिए कि चाहे कुछ भी हो जाए , ताहिती में क़ानून का पालन किया जाएगा । 

   पाँचो चिनागो क़ैदियों को वापस जेल ले जाया गया । उन्हें कोई सदमा नहीं लगा , न ही उन्होंने शोक मनाया । सज़ा अप्रत्याशित थी पर वे गोरे शैतानों से अपने सम्पर्कों में इसके बिलकुल आदी हो चुके थे । एक चिनागो उनसे विरले ही अप्रत्याशित से कम की अपेक्षा करता था । जो अपराध उन्होंने नहीं किया था , उसके लिए कठोर दण्ड दिया जाना उतना ही आश्चर्यजनक था जितनी असंख्य अजीब चीज़ें गोरे शैतान करते रहते थे । 

   इसके बाद आने वाले हफ़्तों में अह चो अक्सर अह चाओ को सदय कुतूहल से देखता । उसका सिर उस कर्त्तन-यंत्र से काट दिया जाना था जो बाग़ान पर बनाया जा रहा था । उसके लिए कोई ढलते हुए साल नहीं होंगे , कोई प्रशांति के बाग़ नहीं होंगे । अह चो जीवन और मृत्यु के बारे में चिंतन करता रहता । अपने लिए वह उद्विग्न नहीं था । बीस साल केवल बीस साल थे । उतने अरसे के लिए उसका बग़ीचा उससे दूर चला गया था — बस । वह युवा था और एशिया का धैर्य उसकी हड्डियों में था । वह उन बीस सालों तक रुक सकता था । उस समय तक उसके ख़ून की गर्मी शांत हो चुकी होगी और वह उस शांत आनंद के बगीचे के लिए बेहतर स्थिति में होगा । उसने उसके लिए एक नाम सोचा , वह उसे सुबह की शांति का बग़ीचा कहेगा । इस विचार ने उसे दिन भर ख़ुश रखा , और उसे धैर्य के सद्गुण पर एक नैतिक सूक्ति को सोच निकालने की प्रेरणा मिली । यह सूक्ति बड़ी दिलासा देनेवाली साबित हुई , ख़ास तौर से वांग ली और अह लौंग के लिए । लेकिन अह चाओ ने इस सूक्ति पर कोई ध्यान नहीं दिया । इतने कम समय में उसका सिर उसके धड़ से अलग कर दिया जाना था कि उसे उस घटना का इंतज़ार करने के लिए धैर्य की कोई ज़रूरत ही नहीं थी । वह डट कर सिगरेट पीता , डट कर खाता , डट कर सोता और समय के धीरे बीतने की कोई चिंता नहीं करता । 

   क्रूशो एक सशस्त्र पुलिसवाला था । उसने नाइजीरिया और सेनेगल से लेकर दक्षिणी समुद्रों तक के उपनिवेशों में बीस साल तक नौकरी की थी और यह स्पष्ट था कि इन बीस सालों ने उसकी मंद बुद्धि को चमका कर और तेज नहीं बनाया था । वह उतना ही मंद-बुद्धि वाला और मूर्ख था जितना वह दक्षिणी फ्रांस में अपने देहाती दिनों में था । वह अनुशासन के बारे में जानता था और अधिकारी वर्ग का दबदबा मानता था । भगवान और पुलिस अधिकारी में उसके लिए एकमात्र अंतर दासोचित आज्ञापालन का अनुपात था जो वह उन्हें अर्पित करता था । असल में रविवार के दिनों को छोड़ कर , जिस दिन भगवान के प्रतिनिधियों की चलती थी , बाक़ी दिन पुलिस अधिकारी ही उसे ज़्यादा बड़ा लगता था । भगवान सामान्यतः उससे बहुत दूर थे जबकि पुलिस अधिकारी साधारणतया उसके बहुत पास होता था ।

  वह क्रूशो ही था जिसने मुख्य न्यायाधीश से जेलर के नाम आदेश प्राप्त किया ।उस आदेश में उस पदाधिकारी को हुक्म दिया गया था कि वह अह चाओ नामक व्यक्ति को क्रूशो को सौंप दे । अब ऐसा हुआ कि मुख्य न्यायाधीश ने पिछली रात को फ़्रांसीसी युद्धपोत के कप्तान और अधिकारियों के लिए रात्रि-भोज आयोजित किया था । जब उसने आदेश लिखा तो उसका हाथ काँप रहा था , और उसकी आँखें इतनी बुरी तरह दर्द कर रही थीं कि उसने आदेश दोबारा नहीं पढ़ा । जो कुछ भी हो , वह केवल एक चिनागो का जीवन ही तो था जिसके बारे में वह हस्ताक्षर कर रहा था । इसलिए उसने ध्यान नहीं दिया कि उसने ‘ अह चाओ ‘ की बजाए ‘ अह चो ‘ लिख दिया था । आदेश में अह चो लिखा था , इसलिए जब क्रूशो ने आदेश पेश किया तो जेलर ने अह चो नाम के आदमी को उसे सौंप दिया । क्रूशो ने उस व्यक्ति को अपने दोनो खच्चरों के पीछे , अपनी चौपहिया गाड़ी में अपने बगल की सीट पर बैठाया और गाड़ी ले कर चल पड़ा । 

   अह चो खुली धूप में आने पर बेहद ख़ुश था । वह पुलिस वाले के बगल में बैठकर मुस्कराया । वह तब पहले से भी ज़्यादा उत्साह से मुस्कराया जब उसने ध्यान दिया कि खच्चर दक्षिण दिशा में अटिमाओनो की ओर जा रहे थे । निस्सन्देह , स्केमर ने उसे वापस बुलाने के लिए ही गाड़ी भेजी थी । स्केमर चाहता था कि वह काम करे । ठीक है , वह अच्छी तरह से काम करेगा । स्केमर के पास कभी शिकायत करने का कोई कारण नहीं होगा । वह काफ़ी गरम दिन था । हवा बंद हो गई थी । खच्चर पसीने-पसीने हो रहे थे । क्रूशो पसीने से नहा रहा था , और अह चो भी पसीने में डूबा था । पर वह अह चो ही था जो गरमी को न्यूनतम चिंता से सह रहा था । उसने तीन सालों तक बाग़ान में धूप में कड़ी मेहनत की थी । वह इतना प्रसन्नचित था और इतने अच्छे ढंग से मुस्कराए जा रहा था कि क्रूशो के गंभीर और नीरस मन में भी आश्चर्य पैदा होने लगा । ” तुम बड़े मज़ाक़िया हो ,” अंत में उसने कहा । 

    अह चो ने सिर हिलाया और पहले से भी ज़्यादा उत्साह से मुस्कराया । दंडाधिकारी के विपरीत , क्रूशो ने उससे कनाका भाषा में बात की । सभी चिनागो लोगों और विदेशी शैतानों की तरह अह चो यह भाषा समझता था । 

    ” तुम बहुत ज़्यादा हँसते हो ,” क्रूशो ने उसे डाँटा । ” जब कोई ऐसा दिन हो तो आदमी की आँखें आँसुओं से भरी होनी चाहिए । ” 

    ” मैं खुश हूँ कि मैं जेलखाने से बाहर आ गया हूँ ।” 

   ” क्या यही सब कुछ है ? ” पुलिसवाले ने अपने कंधे उचकाए । 

    ” क्या यह काफ़ी नहीं ?” जवाब मिला । 

    ” तो तुम अपने सिर के कट जाने पर खुश हो ?” 

    अह चो ने एकाएक उसकी ओर उलझन भरी निगाह से देखा और 

कहा , ” क्यों , मैं तो स्केमर के लिए बाग़ान पर काम करने के लिए वापस अटिमाओनो जा रहा हूँ । क्या आप मुझे अटिमाओनो नहीं ले जा रहे ? ” 

   क्रूशो कुछ सोचते हुए अपनी लम्बी मूँछों को सहलाने लगा । ” अच्छा , 

अच्छा ,” अंत में उसने ग़लत ओर जा रहे खच्चर पर चाबुक का प्रहार करते हुए 

कहा , ” तो तुम नहीं जानते हो ? ” 

   ” मैं क्या नहीं जानता हूँ ? ” अह चो एक अस्पष्ट ख़तरे का संकेत महसूस करने लगा था । ” क्या स्केमर मुझे अपने लिए अब और काम नहीं करने देगा ? ” 

    ” आज के बाद नहीं । ” क्रूशो खुलकर हँसा । यह एक अच्छा मज़ाक़ था । 

    ” देखो , तुम आज के बाद काम नहीं कर सकोगे । कटे हुए सिर वाला आदमी काम नहीं कर सकता , समझे । ” उसने चिनागो की पसलियों में उँगली चुभाई , और धीरे से हँसा । 

     अह चो ने चुप्पी बनाए रखी जबकि खच्चरों ने गरमी में तेज़ी से एक मील का का रास्ता तय कर लिया । फिर उसने कहा : ” क्या स्केमर मेरा सिर काट देने वाला है ? ” क्रूशो सिर हिलाते हुए मुस्कराया । 

     ” यह एक ग़लती है ,” अह चो ने गंभीरता से कहा । ” मैं वह चिनागो नहीं हूँ जिसका सिर काट दिया जाना है । मैं अह चो हूँ । माननीय न्यायाधीश ने यह निर्धारित किया था कि मुझे बीस सालों के लिए न्यू कैलेडोनिया में रुकना है । ” 

      पुलिसवाला हँसा । यह एक अच्छा मज़ाक था । यह अनोखा चिनागो कर्तन-यंत्र को धोखा देने की कोशिश कर रहा था । खच्चर नारियल के एक बाग़ से होकर गुज़रे और आधा मील तक चमकदार समुद्र के पास से होकर चलते रहे । तब अह चो ने दोबारा बोलना शुरू किया ।

     ” मैं आपको बता रहा हूँ कि मैं अह चाओ नहीं हूँ । माननीय न्यायाधीश ने यह नहीं कहा था कि मेरा सिर काट दिया जाना था ।” 

     ” डरो मत ,” क्रूशो ने अपने क़ैदी के लिए इसे अपेक्षाकृत आसान बनाने के लोकोपकारी इरादे से कहा । ” इस तरह से मरना मुश्किल नहीं है ।” उसने अपनी उँगली चटकाई । ” यह तेज़ी से होता है, इस तरह । यह रस्सी के सिरे पर लटकते हुए पाँच मिनट तक हाथ-पैर मारने और चेहरा बनाने जैसा नहीं है । यह एक चूज़े को कुल्हाड़ी से मारने जैसा है । तुम उसका सिर काट देते हो, बस । आदमी के साथ भी वैसा ही होता है । खच्च् । और वह ख़त्म हो जाता है । इससे चोट नहीं लगती । तुम सोचते भी नहीं हो कि इससे चोट लगती है । तुम नहीं सोचते हो । तुम्हारा सिर कट चुका होता है , इसलिए तुम नहीं सोच सकते । यह बहुत अच्छा है । यही वह तरीक़ा है जिससे मैं मरना चाहता हूँ — तुरंत । हाँ, तुरंत । तुम क़िस्मत वाले हो कि इस तरह से मरोगे । हो सकता था कि तुम्हें कोढ़ हो जाता और तुम्हारा क्षय धीरे-धीरे थोड़ा-थोड़ा करके होता । एक बार में एक उँगली , और जब-तब एक अँगूठा , साथ ही पैर की उँगलियाँ भी । मैं एक ऐसे आदमी को जानता था जिसे गरम पानी से जलाया गया । उसे मरने में दो दिन लगे । तुम एक किलोमीटर दूर तक उसका चीख़ना सुन सकते थे । लेकिन तुम ? वाह । कितना आसान है । खच्च् । चाक़ू तुम्हारे गर्दन को इसी तरह काट देता है । सब ख़त्म हो जाता है । हो सकता है कि चाकू गुदगुदाता भी हो । कौन बता सकता है ? इस तरह से मरने वाला कोई भी आदमी बताने के लिए वापस नहीं आया । ” 

    उसने अपने इस अंतिम वाक्य को एक मर्मभेदी मज़ाक माना , और खुद को आधे मिनट के लिए हँसी से लोट-पोट हो जाने दिया । उसकी हँसी का कुछ हिस्सा बनावटी था , पर वह उस चिनागो को दिलासा देना अपना मानवोचित कर्तव्य मानता था । 

    ” पर मैं आपको बता रहा हूँ कि मैं अह चो हूँ । ” चिनागो ज़िद करता रहा । 

” मैं अपना सिर नहीं कटवाना चाहता । ” 

     ” बस , बहुत हो गया ,” पुलिसवाले ने बीच में टोका । उसने अपने गाल फुला लिये और खूँखार लगने की कोशिश करने लगा । 

     ” मैं आपको बता रहा हूँ , मैं वह नहीं हूँ । ” अह चो दोबारा शुरू हुआ । 

      ” बकवास बंद करो ।” क्रूशो चिल्लाया । 

      इसके बाद वे ख़ामोश हो कर चलते रहे । पपीटे से अटिमाओनो की दूरी बीस मील की थी और आधी से ज़्यादा दूरी तय की जा चुकी थी जब चिनागो साहस करके दोबारा बोला — ” मैंने आपको अदालत के कमरे में देखा था , जब माननीय न्यायाधीश हमारे अपराध के बारे में पूछताछ करके पता लगा रहे थे ।” 

     ” आपको याद आया ? और क्या आप उस अह चाओ को याद कर पा रहे हैं जिसका सिर काटा जाना है — क्या आप याद कर पा रहे हैं कि अह चाओ एक लम्बा आदमी था ? मेरी ओर देखिए । ” 

     वह अचानक खड़ा हो गया और क्रूशो ने देखा कि वह एक नाटा आदमी था । 

और ठीक वैसे ही अचानक क्रूशो ने अपनी याददाश्त में अह चाओ की तस्वीर की एक झलक पाई , और इस तस्वीर में अह चाओ लम्बा था । पुलिसवाले को सभी चिनागो लोग देखने में एक जैसे लगते थे । एक चेहरा दूसरे चेहरे की तरह था । लेकिन लम्बाई और नाटेपन में वह अंतर पहचान सकता था । और वह जान गया कि उसने अपने बगल में सीट पर ग़लत आदमी को बिठा रखा था । उसने अचानक खच्चरों की लगाम खींच कर उन्हें रोक लिया जिससे उनके गरदन पर पड़े पट्टे सरक कर ऊपर हो गए और गाड़ी का डंडा आगे निकल गया । 

     ” आपने देखा , यह एक ग़लती थी ,” अह चो ने खुश हो कर मुस्कराते हुए कहा । 

      लेकिन क्रूशो कुछ सोच रहा था । उसे पहले से ही अफ़सोस हो रहा था कि उसने गाड़ी क्यों रोक दी । वह मुख्य न्यायाधीश की ग़लती से बेख़बर था और उसके पास इसका हल निकालने का कोई रास्ता भी नहीं था , लेकिन उसे यह मालूम था कि उसे अटिमाओनो ले जाने के लिए यह चिनागो दिया गया था और उसे अटिमाओनो ले जाना उसका कर्तव्य था । क्या हुआ अगर यह ग़लत आदमी था और वे इसका सिर काट देते हैं । कुछ भी हो , आख़िर यह केवल एक चिनागो ही तो था । 

इसके अलावा , हो सकता है कि कोई ग़लती न हुई हो । वह नहीं जानता था कि उससे उच्च अधिकारियों के मन में क्या चलता रहता था । वे अपना कर्तव्य ज़्यादा अच्छी तरह जानते थे । वह उनके लिए सोचने वाला कौन था ? एक बार बहुत पहले उसने उनके लिए सोचने की कोशिश की थी , और तब पुलिस अधिकारी ने कहा 

था , ” क्रूशो , तुम मूर्ख हो । जितनी जल्दी तुम यह समझ जाओ , उतना ही तुम्हारे लिए बेहतर होगा । तुम्हारा काम सोचना नहीं है , तुम्हारा काम आज्ञा का पालन करना है और तुम्हें सोचने का काम अपने से बेहतर लोगों पर छोड़ देना चाहिए । ” यह याद आते ही वह खीझ गया। साथ ही , अगर वह पपीटे जाने के लिए वापस मुड़ता तो उसके कारण अटिमाओनो में होने वाले प्राण-दण्ड में देरी हो जाती , और अगर उसका वापस लौटना ग़लत साबित होता तो उसे उस पुलिस-अधिकारी से फटकार लगती जो क़ैदी के लिए इंतज़ार कर रहा था । और , इसके अलावा , उसे पपीटे में भी डाँटा जा सकता था । 

     उसने खच्चरों को चाबुक मारा और गाड़ी आगे बढ़ा ली । उसने अपनी घड़ी देखी । वह आधा घंटा देर से पहुँचेगा और पुलिस अधिकारी ज़रूर नाराज़ होगा । उसने खच्चरों को तेज़ दौड़ाना शुरू किया । अह चो ग़लती को समझाने की जितनी ज़्यादा कोशिश करता , क्रूशो उतना ही ज़्यादा अड़ियल होता जाता । उसके पास ग़लत आदमी था , इस बात की जानकारी ने उसके मिज़ाज को बेहतर नहीं बनाया । उसकी ग़लती के कारण ऐसा नहीं हुआ था , इस बात की जानकारी ने उसकी इस धारणा को और पक्का किया कि वह जो ग़लत कर रहा था , वह ठीक था । और पुलिस अधिकारी का क्रोध अपने ऊपर लेने के बजाए , वह दर्जन भर ग़लत चिनागो लोगों को उनकी दुर्भाग्यपूर्ण नियति की ओर भेजने में ख़ुशी से सहयोग कर देता ।

    जहाँ तक अह चो का सवाल है , जब पुलिसवाले ने चाबुक का हत्था उसके सिर पर मारा और ऊँची आवाज़ में उसे बकवास बंद करने का हुक्म दिया , उसके बाद उसके पास चुप रहने के सिवाय और कोई चारा नहीं था । यात्रा चुप्पी के बीच जारी रही । अह चो विदेशी शैतानों के अजीब तरीक़ों पर विचार करने लगा । उन्हें समझना असंभव था । वे उसके साथ जो कुछ कर रहे थे वह उनके बाक़ी सब कामों से मिलता-जुलता था । पहले उन्होंने पाँच बेक़सूर लोगों को अपराधी सिद्ध किया , और उसके बाद वे उस आदमी का सिर काटने जा रहे थे जिसे खुद उन्होंने भी , अपने अँधेरे अज्ञान में , बीस सालों के कारावास से ज़्यादा के योग्य नहीं माना था । और वह इसके बारे में कुछ नहीं कर सकता था । वह केवल ख़ाली बैठ सकता था और ये जीवन के स्वामी जो माप कर दे रहे थे , उसे ले सकता था । एक बार तो वह बेहद संत्रस्त हो गया और डर से उसके शरीर का पसीना भी बेहद ठंडा हो गया , पर वह काफ़ी कोशिश करके इस भय से उबर आया । 

    उसने अपनी क़िस्मत को स्वीकार करने के लिए ” यिन चिह वेन ” ( शांत-मार्ग की पुस्तिका ) में से कुछ उद्धरणों को याद करने और दोहराने की कोशिश की पर 

इसके बदले में उसे अपना सोचने-विचारने और आराम करने का कल्पित-बग़ीचा दिखाई देता रहा । वह इससे तब तक परेशान हुआ जब तक कि उसने खुद को उस कल्पना की बेफ़िक्री में छोड़ नहीं दिया और तब वह कई पेड़ों में हवा से टनटनाती घंटियों को सुनता हुआ कल्पना के अपने बगीचे में बैठा रहा । और अचानक अपनी कल्पना में इस तरह बैठे हुए वह ” शांत-मार्ग की पुस्तिका ” के उद्धरणों को याद करने और दोहराने में सफल हो गया ।

   इसलिए अटिमाओनो पहुँचने तक समय अच्छी तरह बीता और घोड़े तेज़ी से चलते हुए मृत्यु-दंड के लिए बनाए गए ढाँचे के पास आ गए जिसकी छाया में अधीर पुलिस-अधिकारी खड़ा था । अह चो को जल्दी से ढाँचे की सीढ़ियाँ चढ़ा कर ऊपर लाया गया । उसने अपने नीचे एक ओर बाग़ान के सभी कुलियों को एकत्र पाया । स्केमर ने फ़ैसला किया था कि यह घटना सबक़ सिखाने के लिए अच्छी रहेगी , इसलिए उसने कुलियों को खेतों से बुला लिया था । जैसे ही उन्होंने अह चो को 

देखा , वे धीमे स्वरों में आपस में बड़बड़ाने लगे । उन्होंने ग़लती देख ली पर यह बात उन्होंने अपने तक ही सीमित रखी । इन अबोधगम्य विदेशी शैतानों ने निस्सन्देह अपना इरादा बदल लिया था । एक बेक़सूर आदमी की जान लेने के बजाए वे अब दूसरे बेक़सूर आदमी की जान ले रहे थे । अह चाओ हो या अह चो , उनमें से कौन था , इससे क्या फ़र्क़ पड़ता था । वे इन गोरे शैतानों को कभी नहीं समझ पाए जैसे गोरे शैतान उन्हें नहीं समझ पाए । अह चो का सिर काट दिया जाना था , पर बाक़ी बचे दो सालों की ग़ुलामी के ख़त्म होने पर वे सब चीन लौट जाने वाले थे । 

    स्केमर ने वह कर्तन-यंत्र खुद ही बनाया था । वह बड़ा दक्ष आदमी था । हालाँकि उसने कर्तन-यंत्र पहले कभी नहीं देखा था पर फ़्रांसीसी अधिकारियों ने यन्त्र के काम करने का तरीक़ा उसे समझा दिया था । उसी की राय पर उन्होंने मृत्यु-दंड को पपीटे के बजाए अटिमाओनो में देने का आदेश दिया था । स्केमर ने दलील दी थी कि अपराध का स्थल ही दंड देने की सबसे बढ़िया सम्भव जगह थी और इसके अलावा बाग़ान के आधा हज़ार चिनागो कुलियों पर इसका हितकर असर पड़ेगा । स्केमर ने जल्लाद बनने के लिए भी स्वेच्छा से अपनी सेवा अर्पित की थी और इस हैसियत से वह अब ढाँचे पर खड़ा हो कर अपने बनाए गए यंत्र का परीक्षण कर रहा था । आदमी के गरदन के आकार का और उतना ही मोटा केले का एक पेड़ कर्तन-यंत्र के नीचे पड़ा था । अह चो मंत्रमुग्ध हो कर देख रहा था । उस जर्मन ने एक छोटी कील घुमा कर चाकू को उस छोटे उत्तंभ के ऊपर तक उठाया जिसे उसने कामचलाऊ ढंग से तैयार किया था । एक मोटी रस्सी के टुकड़े पर झटका लगने से धारदार चाकू ढीला हो गया और पलक झपकते ही वह कौंध कर गिरा और उसने केले के तने को कुशलता से काट दिया । 

    ” यह कैसे काम करता है ? ” ढाँचे के ऊपर पहुँच कर पुलिस-अधिकारी ने सवाल किया था । 

    ” बड़े ख़ूबसूरत ढंग से ,” स्केमर का उल्लसित जवाब था । ” लीजिए मैं आपको दिखाता हूँ ।” 

    उसने दोबारा उस कील को घुमाया जो चाकू को उठाती थी , रस्सी को झटका दिया और चाकू को धड़ाके के साथ नीचे मुलायम पेड़ पर गिरा दिया । पर इस बार वह दो-तिहाई से ज़्यादा आर-पार नहीं हो सका । 

    पुलिस-अधिकारी ने क्रोध भरी दृष्टि से से देखा ।” इससे काम नहीं चलेगा ,”

उसने कहा । 

    स्केमर ने अपने माथे से पसीना पोंछा । ” असल में इसे ज़्यादा भार चाहिए ,” उसने घोषणा की । चलते हुए ढाँचे के किनारे तक जा कर उसने लोहार को पच्चीस पाउंड वज़नी लोहे का टुकड़ा लाने का आदेश दिया । जब वह लोहे को चाकू के चौड़े ऊपरी भाग से जोड़ने के लिए झुका तो तो अह चो ने पुलिस-अधिकारी की ओर देखा और उसे मौक़ा मिल गया । 

    ” माननीय न्यायाधीश ने कहा था कि अह चाओ का सिर काटा जाना था ,” उसने बोलना शुरू किया । 

     पुलिस-अधिकारी ने अधीरता से सिर हिलाया । वह उस दोपहर को की जाने वाली द्वीप के पवनाधिमुख ओर की अपनी यात्रा के बारे में और मोतियों के व्यापारी लाफ़ियेरे की ख़ूबसूरत नाजायज़ बेटी बर्थे के बारे में सोच रहा था जो वहाँ उसका इंतज़ार कर रही थी । 

    ” देखिए , मैं अह चाओ नहीं हूँ । मैं अह चो हूँ । माननीय जेलर ने ग़लती कर दी है । अह चाओ एक लम्बा आदमी था और आप देख सकते हैं कि मैं नाटा हूँ ।” 

    पुलिस अधिकारी ने जल्दी से उसकी ओर देखा और उसे ग़लती का पता चल गया । ” स्केमर ,” वह आदेश देने के स्वर में चिल्लाया ,” इधर आओ ।” 

    जर्मन घुरघुराया पर अपना काम करते हुए तब तक झुका रहा जब तक कि लोहे का टुकड़ा उससे संतोषजनक ढंग से बँध नहीं गया । 

   ” क्या आपका चिनागो तैयार है ?” उसने पूछा । ” इसको देखो ,” जवाब मिला ,” क्या यही वह चिनागो है ? ” 

   स्केमर हैरान रह गया । कुछ पलों तक उसने छोटी-मोटी गालियाँ दीं और दुखी हो कर उस चीज़ की ओर देखा जो उसने अपने हाथों से बनाई थी और जिसे काम करता देखने के लिए वह उत्सुक था । 

   ” इधर देखिए ,” उसने अंत में कहा ,” हम इस काम को स्थगित नहीं कर सकते । पहले ही मैं उन पाँच सौ चिनागो कुलियों का तीन घंटे का काम खो चुका 

हूँ । सही आदमी के इंतज़ार में मैं दोबारा यह सारा समय नहीं खो सकता । चलिए, इस तमाशे को उसी तरह पूरा कर दें । आख़िर यह एक चिनागो ही तो है । ” 

   पुलिस-अधिकारी को दोपहर में की जाने वाली लंबी यात्रा और मोतियों के व्यापारी की बेटी याद आई और वह पूरे मामले पर विचार करने लगा । 

   ” वे इसके लिए क्रूशो को ज़िम्मेदार ठहराएँगे — यदि इस बात का पता लगा तो ,” जर्मन ने ज़ोर दे कर कहा । ” पर इसका पता लगने की सम्भावना बहुत कम 

है । किसी भी हालत में अह चाओ तो यह भेद नहीं ही खोलेगा ।” 

    ” क्रूशो पर भी कोई ज़िम्मेदारी नहीं आएगी । ” पुलिस अधिकारी ने कहा । 

” ज़रूर जेलर की ही ग़लती रही होगी । ” 

    ” तो फिर हमें यह काम पूरा कर देना चाहिए । वे हमें ज़िम्मेदार नहीं ठहरा सकते । एक चिनागो और दूसरे चिनागो के बीच अंतर कौन बता सकता है ? हम कह सकते हैं कि जो चिनागो हमें सौंपा गया था , हमने केवल दिए गए निर्देशों को उस पर लागू किया । इसके अलावा , मैं वाक़ई उन सभी कुलियों को उनके काम से दोबारा नहीं हटा सकता ।” 

   वे फ़्रांसीसी में बोल रहे थे और अह चो , जो एक भी शब्द नहीं समझ पाया 

था , फिर भी इतना जानता था कि वे उसकी क़िस्मत तय कर रहे थे । वह यह भी जानता था कि फ़ैसला पुलिस-अधिकारी के हाथ में था , और वह उस अधिकारी के शब्दों को ध्यानपूर्वक सुनता रहा । 

  ” ठीक है ,” पुलिस अधिकारी ने घोषणा की । ” यह काम पूरा करो । आख़िर वह एक चिनागो ही तो है ।” 

  ” मैं इस यंत्र को एक बार और जाँचने जा रहा हूँ , केवल आश्वस्त होने के 

लिए ।” स्केमर ने केले के पेड़ के तने को आगे बढ़ा कर उस चाकू के नीचे कर दिया जो उसने उत्तंभ के ऊपर तक उठा दिया था ।

  अह चो ने ‘ शांत-मार्ग की पुस्तिका ‘ से सूक्तियाँ याद करने की कोशिश की । 

‘ मित्रतापूर्वक रहें ‘ सूक्ति उसे याद आई , पर वह यहाँ लागू नहीं होती थी । वह अब जीवित नहीं रहने वाला था । वह अब मरने ही वाला था । नहीं , यह सूक्ति नहीं चलेगी । ‘ दुर्भावना को छोड़ दो ‘ — सही है पर यहाँ छोड़ने के लिए कोई दुर्भावना थी ही नहीं । स्केमर और बाक़ी लोग बिना किसी दुर्भावना के यह कर रहे थे । उनके लिए यह केवल एक काम था जिसे किया जाना था , ठीक वैसे ही जैसे जंगल काट कर साफ़ करना , पानी भरना , और कपास रोपना भी काम थे जिन्हें किया जाना था । स्केमर ने रस्सी को झटका दिया और अह चो ‘ शांत मार्ग की पुस्तिका ‘ भूल गया । चाकू धप्प् से नीचे गिरा और उसने पेड़ को सफ़ाई से काट दिया । 

  ” सुंदर । ” पुलिस-अधिकारी सिगरेट जलाते हुए रुका और चहक कर बोला ,” सुंदर, मेरे दोस्त ।” 

  स्केमर तारीफ़ सुनकर ख़ुश हुआ । 

  ” आ जाओ , अह चाओ ” , उसने ताहिती की भाषा में कहा । 

  ” पर मैं अह चाओ नहीं हूँ — ” अह चो ने बोलना शुरू किया । 

  ” बकवास बंद करो ।” जवाब मिला । ” अगर तुमने दोबारा अपना मुँह खोला तो मैं तुम्हारा सिर तोड़ दूँगा । ” 

  निरीक्षक ने मुट्ठी बाँध कर उसे धमकाया और वह चुप हो गया । विरोध प्रकट करने का क्या फ़ायदा था ? ये विदेशी शैतान हमेशा अपनी मनमानी करते थे । उसने अपने शरीर के आकार के सीधे खड़े तख़्ते के साथ खुद को बाँध देने दिया । स्केमर ने फ़ीते कस कर बाँध दिए — इतने कस कर कि फ़ीते चमड़ी को काटने लगे और दर्द होने लगा । पर उसने शिकायत नहीं की । यह दर्द ज़्यादा देर तक नहीं रहेगा । उसने तख़्ते का हवा में समतल की ओर झुकाया जाना महसूस किया , और अपनी आँखें बंद कर लीं । और उसी पल उसे सोचने-विचारने और आराम करने के उसके बगीचे की अंतिम झलक मिली । ठंडी हवा बह रही थी , और कई पेड़ों में घंटियाँ हल्के-हल्के टनटना रही थीं । साथ ही चिड़ियाँ उनींदा-सा शोर मचा रही थीं , और ऊँची दीवार के उस पार से गाँव के जीवन की धीमी आवाज़ आ रही थी । 

   फिर वह जान गया कि तख़्ता टिक गया था और माँसपेशियों के दबाव और तनाव से उसे मालूम पड़ गया कि वह पीठ के बल लेटा हुआ था । उसने अपनी आँखें खोल लीं । अपने ठीक ऊपर उसने धूप में चमकता हुआ लटकता चाकू देखा । उसने वह भार देखा जो जोड़ा गया था और ध्यान दिया कि स्केमर की गाँठों में से एक सरक गई थी । फिर उसने पुलिस-अधिकारी के ज़ोरदार आदेश की आवाज़ सुनी । अह चो ने जल्दी से अपनी आँखें बंद कर लीं । वह उस चाकू को नीचे गिरते हुए नहीं देखना चाहता था । पर उसने महसूस किया — तेज़ी से गुज़र जाने वाले एक बड़े पल में । और उस पल में उसने क्रूशो को और जो क्रूशो ने कहा था , उसे याद किया । पर क्रूशो ग़लत था । चाकू ने उसे गुदगुदाया नहीं । इससे पहले कि उसका जानना बंद हो जाता , वह इतना जान गया । 

          ———-०———-

प्रेषकः सुशांत सुप्रिय 

     A-5001,

     गौड़ ग्रीन सिटी , 

     वैभव खंड , 

     इंदिरापुरम्, 

     ग़ाज़ियाबाद – 201014

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रूसी कहानी – शत्रु- अन्तोन चेखव

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( अनूदित रूसी कहानी )
                                   
शत्रु

                                                    — मूल लेखक : अन्तोन चेखव
                                                    — अनुवाद : सुशांत सुप्रिय

               सितम्बर की एक अँधेरी रात थी । डॉक्टर किरीलोव के इकलौते छह वर्षीय पुत्र आंद्रेई की नौ बजे के थोड़ी देर बाद डिप्थीरिया से मृत्यु हो गई । डॉक्टर की पत्नी बच्चे के पलंग के पास गहरे शोक व निराशा में घुटनों के बल बैठी हुई थी ।तभी दरवाज़े की घंटी कर्कश आवाज़ में बज उठी ।
              घर के नौकर सुबह ही घर से बाहर भेज दिए गए थे , क्योंकि डिप्थीरिया छूत से फैलने वाला रोग था । किरीलोव ने क़मीज़ पहनी हुई थी । उसके कोट के बटन खुले थे । उसका चेहरा गीला था , और उसके बिन-पुँछे हाथ कारबोलिक से झुलसे हुए थे । वह वैसे ही दरवाज़ा खोलने चल दिया । ड्योढ़ी के अँधेरे में डॉक्टर को आगंतुक का जो रूप दिखा , वह था — औसत क़द , सफ़ेद गुलूबंद और बड़ा और इतना पीला पड़ा हुआ चेहरा कि लगता था जैसे कमरे में उससे रोशनी आ गई हो ।
              ” क्या डॉक्टर साहब घर पर हैं ? ” आगंतुक के स्वर में जल्दी थी ।
              ” हाँ ! आप क्या चाहते हैं ? ” किरीलोव ने उत्तर दिया ।
              ” ओह ! आपसे मिल कर ख़ुशी हुई । ” आगंतुक ने प्रसन्न हो कर अँधेरे में डॉक्टर का हाथ टटोला और उसे पा लेने पर अपने दोनो हाथों से ज़ोर से दबाकर कहा , ” बेहद ख़ुशी हुई । हम लोग पहले मिल चुके हैं । मेरा नाम अबोगिन है … गरमियों में ग्चुनेव परिवार में आपसे मिलने का सौभाग्य हुआ था । आपको घर पर पा कर मुझे ख़ुशी हुई … भगवान के लिए मुझ पर कृपा करें और फ़ौरन मेरे साथ चलें । मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ … मेरी पत्नी बेहद बीमार है … मैं गाड़ी लाया हूँ । “
               आगंतुक की आवाज़ और उसके हाव-भाव से लग रहा था कि वह बेहद घबराया हुआ है । उसकी साँस बहुत तेज़ चल रही थी और वह काँपती हुई आवाज़ में तेज़ी से बोल रहा था मानो वह किसी अग्निकांड या पागल कुत्ते से बचकर भागता हुआ आ रहा हो । उसकी बात में साफ़दिली झलक रही थी और वह किसी सहमे हुए बच्चे जैसा लग रहा था । वह छोटे-छोटे अधूरे वाक्य बोल रहा था और बहुत-सी ऐसी फ़ालतू बातें कर रहा था जिनका मामले से कोई लेना-देना नहीं था ।
               ” मुझे डर था कि आप घर पर नहीं मिलेंगे । ” आगंतुक ने कहना जारी रखा , ” भगवान के लिए , आप अपना कोट पहनें और चलें … दरअसल हुआ यह कि पापचिंस्की … आप उसे जानते हैं , अलेक्ज़ेंडर सेम्योनोविच पापचिंस्की मुझसे मिलने आया । थोड़ी देर हम लोग बैठे बातें करते रहे । फिर हमने चाय पी । एकाएक मेरी पत्नी चीख़ी और सीने पर हाथ रख कर कुर्सी पर निढाल हो गयी । उसे उठा कर हमलोग पलंग पर ले गए । मैंने अमोनिया लेकर उसकी कनपटियों पर मला और उसके मुँह पर पानी छिड़का , किंतु वह बिल्कुल मरी-सी पड़ी रही । मुझे डर है , उसे कहीं दिल का दौरा न पड़ा हो … आप चलिए … उसके पिता की मौत भी दिल का दौरा पड़ने की वजह से हुई थी … । “
               किरीलोव चुपचाप ऐसे सुनता रहा जैसे वह रूसी भाषा समझता ही  न हो ।
               जब आगंतुक अबोगिन ने फिर पापचिंस्की और अपनी पत्नी के पिता का ज़िक्र किया और अँधेरे में दोबारा उसका हाथ ढूँढ़ना शुरू किया तब उसने सिर उठाया
और उदासीन भाव से हर शब्द पर बल देते कहा , ” मुझे खेद है कि मैं आपके घर नहीं जा सकूँगा … पाँच मिनट पहले मेरे बेटे की … मौत हो गई है । “
              ” अरे नहीं ! ” पीछे हटते हुए अबोगिन फुसफुसाया , ” हे भगवान ! मैं कैसे ग़लत मौक़े पर आया हूँ । कैसा अभागा दिन है यह … वाकई यह कितनी अजीब बात है । कैसा संयोग है यह … कौन सोच सकता था ! “
             उसने दरवाज़े का हत्था पकड़ लिया । वह समझ नहीं पा रहा था कि वह डॉक्टर की मिन्नत करता रहे या लौट जाए । फिर वह किरीलोव की बाँह पकड़ कर बोला , ” मैं आपकी हालत बख़ूबी समझता हूँ । भगवान जानता है कि ऐसे बुरे वक़्त में आपका ध्यान खींचने की कोशिश करने के लिए मैं शर्मिंदा हूँ । लेकिन मैं क्या करूँ ? आप ही बताइए , मैं कहाँ जाऊँ ? इस जगह आपके अलावा कोई डॉक्टर नहीं है । भगवान के लिए आप मेरे साथ चलिए ! “
         ***              ***                ***                 ***                   ***
              वहाँ चुप्पी छा गई । किरीलोव अबोगिन की ओर पीठ फेरकर एक मिनट तक चुपचाप खड़ा रहा । फिर वह धीरे-धीरे ड्योढ़ी से बैठक में चला गया । उसकी चाल यंत्रवत और अनिश्चित थी । बैठक में अनजले लैंपशेड की झालर सीधी करने और मेज़ पर पड़ी एक मोटी किताब के पन्ने उलटने के उसके खोए-खोए अंदाज़ से लग रहा था कि उस समय उसका न कोई इरादा था , न उसकी कोई इच्छा थी और न ही वह कुछ सोच पा रहा था । वह शायद यह भी भूल गया था कि बाहर ड्योढ़ी में कोई अजनबी भी खड़ा है । कमरे के सन्नाटे और धुँधलके में उसकी विमूढ़ता और मुखर हो उठी थी । बैठक से कमरे की ओर बढ़ते हुए उसने अपना दाहिना पैर ज़रूरत से ज़्यादा ऊँचा उठा लिया और फिर दरवाज़े की चौखट ढूँढ़ने लगा । उसकी पूरी आकृति से एक तरह का भौंचक्कापन झलक रहा था , जैसे वह किसी अनजाने मकान में भटक आया हो । रोशनी की एक चौड़ी पट्टी कमरे की एक दीवार और किताबों की अलमारियों पर पड़ रही थी । वह रोशनी ईथर और कार्बोलिक की तीखी और भारी गंध के साथ सोनेवाले उस कमरे से आ रही थी जिसका दरवाज़ा थोड़ा-सा खुला हुआ था … डॉक्टर मेज़ के पास वाली कुर्सी में जा धँसा । थोड़ी देर तक वह रोशनी में पड़ी किताबों को उनींदा-सा घूरता रहा , फिर उठकर सोनेवाले कमरे में चला गया ।
             सोनेवाले कमरे में मौत का-सा सन्नाटा था । यहाँ की हर छोटी चीज़ उस तूफ़ान का सबूत दे रही थी जो हाल में ही यहाँ से गुज़रा था । यहाँ पूर्ण निस्तब्धता थी । बक्सों , बोतलों और मर्तबानों से भरी तिपाई पर एक मोमबत्ती जल रही थी , और अलमारी पर एक बड़ा लैंप जल रहा था । ये दोनो पूरे कमरे को रोशन कर रहे
 थे । खिड़की के पास पड़े पलंग पर एक बच्चा लेटा था जिसकी आँखें खुली थीं और चेहरे पर अचरज का भाव था । वह बिल्कुल हिल-डुल नहीं रहा था , किंतु उसकी खुली आँखें हर पल काली पड़कर उसके माथे में ही गहरी धँसती जा रही लगती थीं । उसकी माँ उसकी देह पर हाथ रखे , बिस्तर में मुँह छिपाए , पलंग के पास झुकी बैठी थी । वह पलंग से पूरी तरह चिपटी हुई थी ।
   ***                ***               ***               ***                ***             ***
               डॉक्टर मातम में झुकी बैठी अपनी पत्नी की बगल में आ खड़ा हुआ । पतलून की जेबों में हाथ डालकर और अपना सिर एक ओर झुकाकर वह अपने बेटे की ओर ताकने लगा । उसका चेहरा भावहीन था । केवल उसकी दाढ़ी पर चमक रही बूँदें ही इस बात की गवाही दे रही थीं कि वह अभी रोया है ।
              कमरे की उदास निस्तब्धता में भी एक अजीब सौंदर्य था जो केवल संगीत द्वारा ही अभिव्यक्त किया जा सकता है । किरीलोव और उनकी पत्नी चुप थे । वे रोये नहीं । इस बच्चे के गुज़र जाने के साथ उनका संतान पाने का हक़ भी वैसे ही विदा हो चुका था जैसे अपने समय से उनका यौवन विदा हो गया था । डॉक्टर की उम्र चौवालीस साल की थी । उस के बाल अभी से पक गए थे और वह बूढ़ा लगता
था । उसकी मुरझाई हुई पत्नी पैंतीस वर्ष की थी । आंद्रेई उनकी एकमात्र संतान थी ।
अपनी पत्नी के विपरीत , डॉक्टर एक ऐसा व्यक्ति था जो मानसिक कष्ट के समय कुछ कर डालने की ज़रूरत महसूस करता था । कुछ मिनट अपनी पत्नी के पास खड़े रहने के बाद वह सोने वाले कमरे से बाहर आ गया । अपना दाहिना पैर उसी तरह ज़रूरत से ज़्यादा उठाते हुए वह एक छोटे कमरे में गया , जहाँ एक बड़ा सोफ़ा पड़ा था । वहाँ से होता हुआ वह रसोई में गया । रसोई और अलावघर के पास टहलते हुए वह झुककर एक छोटे-से दरवाज़े में घुसा और ड्योढ़ी में निकल आया ।
              यहाँ उसकी मुठभेड़ गुलूबंद पहने और फीके पड़े चेहरे वाले व्यक्ति से दोबारा हो गई ।
              ” आख़िर आप आ गए ! ” दरवाज़े के हत्थे पर हाथ रखते हुए अबोगिन ने लम्बी साँस ले कर कहा , ” भगवान के लिए , चलिए । “
              डॉक्टर चौंक गया । उसने अबोगिन की ओर देखा और उसे याद आ गया … फिर जैसे इस दुनिया में लौटते हुए उसने कहा , ” अजीब बात है ! ”   
             अपने गुलूबंद पर हाथ रख कर मिन्नत भरी आवाज़ में अबोगिन
बोला , ” डॉक्टर साहब ! मैं आपकी हालत अच्छी तरह समझ रहा हूँ । मैं पत्थर-दिल आदमी नहीं हूँ । मुझे आपसे पूरी हमदर्दी है । पर मैं आपसे अपने लिए अपील नहीं कर रहा हूँ । वहाँ मेरी पत्नी मर रही है । यदि आपने उसकी वह हृदय-विदारक चीख़ सुनी होती , उसका वह ज़र्द चेहरा देखा होता , तो आप मेरे इस अनुनय-विनय को समझ सकते । हे ईश्वर ! … मुझे लगा कि आप कपड़े पहनने गए हैं । डॉक्टर साहब , समय बहुत क़ीमती है । मैं हाथ जोड़ता हूँ , आप मेरे साथ चलिए । “
              किंतु बैठक की ओर बढ़ते हुए डॉक्टर ने एक-एक शब्द पर बल देते हुए दोबारा कहा , ” मैं आपके साथ नहीं जा सकता । “
              अबोगिन उसके पीछे-पीछे गया और उसने डॉक्टर की बाँह पकड़ ली , ” मैं समझ रहा हूँ कि आप सचमुच बहुत दुखी हैं । लेकिन मैं मामूली दाँत-दर्द के इलाज या किसी रोग के लक्षण पूछने मात्र के लिए तो आपसे चलने की ज़िद नहीं कर रहा ! ” वह याचना भरी आवाज़ में बोला ,” मैं आपसे एक इंसान का जीवन बचाने के लिए कह रहा हूँ । यह जीवन व्यक्तिगत शोक के ऊपर है , डॉक्टर साहब । अब आप मेरे साथ चलिए । मानवता के नाम पर मैं आपसे बहादुरी दिखाने और धीरज रखने की अपील कर रहा हूँ । “
             ” मानवता ! … यह एक दुधारी तलवार है ! ” किरीलोव ने झुंझलाकर कहा । ” इसी मानवता के नाम पर मैं आपसे कहता हूँ कि आप मुझे मत ले जाइए । यह सचमुच अजीब बात है … यहाँ मेरे लिए खड़ा होना भी मुश्किल हो रहा है और आप हैं कि मुझे ‘ मानवता ‘ शब्द से धमका रहे हैं । इस समय मैं कोई भी काम करने के क़ाबिल नहीं हूँ । मैं किसी भी तरह आपके साथ चलने के लिए राज़ी नहीं हो सकता । दूसरी बात , यहाँ और कोई नहीं है जिसे मैं अपनी पत्नी के साथ छोड़कर जा सकूँ । नहीं , नहीं । ” किरीलोव एक क़दम पीछे हट गया और और हाथ हिलाते हुए इनकार करने लगा , ” आप मुझे जाने को न कहें ! ” फिर एकाएक वह घबरा कर बोला , ” मुझे क्षमा करें , आचरण-संहिता के तेरहवें खंड के मुताबिक़ मैं आपके साथ जाने को बाध्य हूँ । आपको हक़ है कि आप मेरे कोट का कॉलर पकड़कर मुझे घसीटकर ले जाएँ । अच्छी बात है । आप बेशक यही करें । लेकिन अभी मैं कोई भी काम करने के क़ाबिल नहीं हूँ । मैं अभी बोल भी नहीं पा रहा … मुझे क्षमा करें । “
              ” डॉक्टर साहब , आप ऐसा न कहें । ” उसकी बाँह न छोड़ते हुए अबोगिन ने कहा , ” मुझे आपके तेरहवें खंड से क्या लेना-देना ? आपकी इच्छा के ख़िलाफ़ अपने साथ चलने के लिए आपको मज़बूर करने का मुझे कोई अधिकार नहीं । अगर आप चलने को राज़ी हैं तो ठीक , अगर नहीं तो मजबूरी में मैं आपके दिल से अपील करता हूँ । एक युवती मर रही है । आप कहते हैं कि आप के बेटे की अभी-अभी मौत हुई है । ऐसी स्थिति में तो आपको मेरी तकलीफ़ औरों से ज़्यादा समझनी चाहिए । “
              किरीलोव चुपचाप खड़ा रहा । उधर अबोगिन डॉक्टरी के महान पेशे और उससे जुड़े त्याग और तपस्या आदि के बारे में बोलता रहा । आख़िर डॉक्टर ने रुखाई से पूछा ,” क्या ज़्यादा दूर जाना होगा ? “
             ” बस , तेरह-चौदह मील । मेरे घोड़े बहुत बढ़िया हैं । डॉक्टर साहब , क़सम से , वे केवल एक घंटे में आपको वापस पहुँचा देंगे , बस घंटे भर में । “
             डॉक्टर पर डॉक्टरी के पेशे और मानवता के संबंध में कही गई बातों से ज़्यादा असर इन आख़िरी शब्दों का पड़ा । एक पल सोचने के बाद उसने उसाँस भर कर कहा ,” ठीक है , चलो … चलें । “
             फिर वह तेज़ी से कमरे घुसा । अब उसकी चाल स्थिर थी । पल भर बाद वह अपना डॉक्टरी पेशे वाला कोट पहन कर वापस लौट आया । अबोगिन छोटे-छोटे डग भरता हुआ उसके साथ चलने लगा और कोट ठीक से पहनने में उसकी मदद करने लगा । फिर दोनों साथ-साथ घर से बाहर निकल गए ।
      ***            ***           ***          ***          ***           ***            ***
             बाहर अँधेरा था लेकिन उतना गहरा नहीं जितना ड्योढ़ी में था ।
             ” आप यक़ीन मानिए , आपकी उदारता की क़द्र करना मैं जानता हूँ । शुक्रिया । ” गाड़ी में डॉक्टर को बैठाते हुए वह बोला , ” लुका भाई , तुम जितनी तेज़ी से हाँक सकते हो , हाँको । भगवान के लिए जल्दी करो ! “
            कोचवान ने घोड़े सरपट दौड़ा दिए ।
            पूरे रास्ते किरीलोव और अबोगिन चुप रहे । अबोगिन केवल एक बार गहरी साँस लेकर बुदबुदाया , ” कैसी विकट और दारुण परिस्थिति है । जो अपने क़रीबी हैं , उन पर इतना प्रेम कभी नहीं उमड़ता , जितना तब , जब उन्हें खो देने का डर पैदा हो जाता है ! “
            जब नदी पार करने के लिए गाड़ी धीमी हुई , किरीलोव एकाएक चौंक
पड़ा । लगा जैसे पानी के छप-छप की आवाज़ सुनकर वह दूर कहीं से वापस आ गया हो । वह अपनी जगह हिलने-डुलने लगा । फिर वह उदास स्वर में बोला ,
 ” देखो , मुझे जाने दो । मैं बाद में आ जाऊँगा । मैं केवल अपने सहायक को अपनी पत्नी के पास भेजना चाहता हूँ । वह इस समय बिलकुल अकेली रह गई है । “
            दूसरी ओर , गाड़ी जैसे-जैसे अपने मुक़ाम पर पहुँच रही थी , अबोगिन और अधिक धैर्यहीन होता जा रहा था । कभी वह उठ जाता , कभी बैठता , कभी चौंककर उछल पड़ता तो कभी कोचवान के कंधे के ऊपर से आगे ताकता । अंत में गाड़ी जब धारीदार किरमिच के परदे से रुचिपूर्ण ढंग से सजे ओसारे में जा कर रुकी , उसने जल्दी और ज़ोर से साँस लेते हुए दूसरी मंज़िल की खिड़कियों की ओर देखा , जिनसे रोशनी आ रही थी ।
            ” यदि कुछ हो गया तो … मैं सह नहीं पाऊँगा । ” अबोगिन ने डॉक्टर के साथ ड्योढी की ओर बढ़ते हुए घबराहट में हाथ मलते हुए कहा । ” लेकिन परेशानी वाली कोई आवाज़ नहीं आ रही , इसलिए अब तक सब ठीक ही होगा । ” सन्नाटे में कुछ सुन पाने के लिए कान लगाए हुए वह बोला ।
            ड्योढ़ी में भी बोलने की कोई आवाज़ सुनाई नहीं पड़ रही थी और समूचा घर तेज रोशनी के बावजूद सोया हुआ-सा लग रहा था ।
            सीढ़ियाँ चढ़ते हुए उसने कहा ,” न तो कोई आवाज़ आ रही है , न ही कोई दिखाई पड़ रहा है । कहीं कोई खलबली या हलचल भी नहीं है । भगवान करे … ! “
            वे दोनो ड्योढ़ी से होते हुए हाल पहुँचे , जहाँ एक काला पियानो रखा हुआ था और छत से फ़ानूस लटक रहा था । यहाँ से अबोगिन डॉक्टर को एक छोटे दीवानखाने में ले गया , जो आरामदेह और आकर्षक ढंग से सजा हुआ था और जिसमें गुलाबी कांति-सी झिलमिला रही थी ।
           ” डॉक्टर साहब , आप यहाँ बैठें और इंतज़ार करें । ” अबोगिन ने कहा ,” मैं
अभी आता हूँ । ज़रा जा कर देख लूँ और बता दूँ कि आप आ गए हैं । “
           चारो ओर शांति थी । दूर , किसी कमरे की बैठक में किसी ने आह भरी , किसी अलमारी का शीशे का दरवाज़ा झनझनाया और फिर सन्नाटा छा गया । लगभग पाँच मिनट के बाद किरीलोव ने हाथों की ओर निहारना छोड़कर उस द्वार की ओर देखा जिससे अबोगिन भीतर गया था ।
            अबोगिन दरवाज़े के पास खड़ा था , पर वह अब वही अबोगिन नहीं लग रहा था जो कमरे के भीतर गया था । उसके चेहरे पर स्याह परछाइयाँ तैर रही थीं । अब उसकी छवि पहले जैसी परिष्कृत नहीं लग रही थी उसके चेहरे पर विरक्ति के भाव-सा कुछ आ गया था । पता नहीं , वह डर था या शारीरिक कष्ट । उसकी नाक , मूँछें और उसका सारा चेहरा फड़क रहा था , जैसे ये सारी चीज़ें उसके चेहरे से फूटकर अलग निकल पड़ना चाहती हों । उसकी आँखों में पीड़ा भरी हुई थी और वह मानसिक रूप से उद्वेलित लग रहा था ।
            लम्बे और भारी डग भरता हुआ वह दीवानखाने के बीच आ खड़ा हुआ । फिर वह आगे बढ़कर मुट्ठियाँ बाँधते हुए कराहने लगा ।
            ” वह मुझे दगा दे गई , डॉक्टर । ” फिर ‘ दगा ‘ पर बल देते हुए वह
चीख़ा ,” मुझे छोड़ गई वह । दगा दे गई । यह सब झूठ क्यों ? हे ईश्वर । यह घटिया फ़रेब भरी चालबाज़ी क्यों ? यह शैतानियत भरा धोखे का जाल क्यों ? मैंने उसका क्या बिगाड़ा था ? आख़िर वह मुझे क्यों छोड़ गई ? “
            डॉक्टर के उदासीन चेहरे पर जिज्ञासा की झलक उभर आई । वह उठ खड़ा हुआ । और उसने अबोगिन से पूछा ,” पर मरीज़ कहाँ है ? “
            ” मरीज़ ! मरीज़ ! ” हँसता , रोता और मुट्ठियाँ हिलाता हुआ अबोगिन चिल्लाया , ” वह मरीज़ नहीं , पापिन है ! इतना कमीनापन ! इतना ओछापन ! शैतान भी ऐसी घिनौनी हरकत नहीं करता । उसने मुझे यहाँ से भेज दिया । क्यों ? ताकि वह उस दलाल , उस भौंडे भांड के साथ भाग जाए ! हे ईश्वर ! इससे तो अच्छा था , वह मर जाती । यह बेवफ़ाई मैं नहीं सह सकूँगा , बिल्कुल नहीं । “
           यह सुनते ही डॉक्टर तन कर खड़ा हो गया । उसने आँसुओं से भरी अपनी आँखें झपकाईं । उसकी नुकीली दाढ़ी भी जबड़ों के साथ-साथ दाएँ-बाएँ हिल रही थी । वह भौंचक्का हो कर बोला , ” क्षमा करें , इसका क्या मतलब है ? मेरा बच्चा कुछ देर पहले मर गया है । मेरी पत्नी मातम में है और शोक से मरी जा रही है । इस समय वह घर में अकेली है । मैं खुद भी बड़ी मुश्किल से खड़ा हो पा रहा हूँ । तीन रातों से मैं सोया नहीं हूँ और मुझे क्या पता लगता है ? क्या मैं एक भद्दी नौटंकी में शामिल होने के लिए यहाँ बुलाया गया हूँ ? मैं … मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ
रहा ।”
            अबोगिन ने एक मुट्ठी खोली और एक मुड़ा-तुड़ा-सा पुर्ज़ा फ़र्श पर डालकर
उसे कुचल दिया , मानो वह कोई कीड़ा रहा हो , जिसे वह नष्ट कर डालना चाहता था । अपने चेहरे के सामने मुट्ठी हिलाते हुए दाँत भींचकर वह बोला , ” और मैंने कुछ समझा ही नहीं , कुछ ध्यान  ही नहीं दिया । वह रोज़ मेरे यहाँ आता है , इस बात पर ग़ौर नहीं किया । यह भी नहीं सोचा कि आज वह मेरे घर बग्घी में आया था । बग्घी में क्यों ? मैं अंधा और मूर्ख था जिसने इसके बारे में सोचा ही नहीं , अंधा और
मूर्ख । ” उसके चेहरे से लग रहा था जैसे किसी ने उसके पैरों को कुचल दिया हो ।
             डॉक्टर फिर बड़बड़ाया , ” मैं … मेरी समझ में नहीं आता कि इस सब का मतलब क्या है ? यह तो किसी इंसान की बेइज़्ज़ती करना हुआ , इंसान के दुख और वेदना का उपहास करना हुआ । यह बिलकुल नामुमकिन बात है , यह भद्दा मज़ाक
है । मैंने अपनी ज़िंदगी में ऐसी बात कभी नहीं सुनी । “
            उस व्यक्ति की तरह जो अब समझ गया है कि उसका घोर अपमान किया गया है , डॉक्टर ने अपने कंधे उचकाए और बेबसी में हाथ फैला दिए । बोलने या कुछ भी कर सकने में असमर्थ वह फिर आरामकुर्सी में धँस गया ।
            ” तो तुम अब मुझ से प्रेम नहीं करती , किसी दूसरे से प्यार करती हो … ठीक है , पर यह धोखा क्यों , यह ओछी दग़ाबाज़ी क्यों ? ” अबोगिन रुआँसे स्वर में बोला , ” इससे किसका भला होगा ? मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था ? तुमने यह घटिया हरकत क्यों की ? डॉक्टर ! ” वह आवेग में चिल्लाता हुआ किरीलोव के पास पहुँच गया , ” आप अनजाने में मेरे दुर्भाग्य के गवाह बन गए हैं … और मैं आप से सच्ची बात नहीं छिपाऊँगा । मैं क़सम खा कर कहता हूँ कि मैं उस औरत से मोहब्बत करता था । मैं उसका ग़ुलाम था । मैं उसकी पूजा करता था । मैंने उसके लिए हर चीज़ क़ुर्बान कर दी । अपने सम्बन्धियों से झगड़ा किया । नौकरी छोड़ दी । संगीत का अपना शौक़ छोड़ दिया । उन बातों के लिए उसे माफ़ कर दिया जिनके लिए मैं अपनी बहन या माँ को कभी माफ़ नहीं करता … मैंने उसे कभी कड़ी निगाह से नहीं देखा । मैंने उसे कभी बुरा मानने का ज़रा-सा भी मौक़ा नहीं दिया । यह सब झूठ और फ़रेब है … क्यों ? अगर तुम मुझे प्यार नहीं करती थी तो ऐसा साफ़-साफ़ कह क्यों नहीं दिया … इन सब मामलों में तुम मेरी राय जानती थी ! “
                 काँपते हुए , आँखों में आँसू भरे , अबोगिन ने ईमानदारी से अपना दिल डॉक्टर के सामने खोलकर रख दिया । वह भावोद्रेक में बोल रहा था । सीने से हाथ लगाए हुए , बिना किसी झिझक के वह गोपनीय घरेलू बातें बता रहा था । असल
में ,एक तरह से आश्वस्त-सा होता हुआ कि आख़िरकार ये गोपनीय बातें अब खुल गयीं । यदि इसी तरह वह घंटे भर और बोल लेता , अपने दिल की बात कह लेता , ग़ुबार निकाल लेता तो यक़ीनन वह बेहतर महसूस करने लगता । कौन जाने , यदि डॉक्टर दोस्ताना हमदर्दी से उसकी बात सुन लेता , शायद जैसा कि अक्सर होता है ,
वह ना-नुकुर किए बिना और अनावश्यक ग़लतियाँ किए बिना ही अपनी किस्मत से संतुष्ट हो जाता … लेकिन हुआ कुछ और ही ।
               उधर अबोगिन बोलता जा रहा था , इधर अपमानित डॉक्टर के चेहरे पर एक बदलाव-सा होता दिखाई दे रहा था । उसके चेहरे पर जो स्तब्धता और उदासीनता का भाव था वह मिट गया और उसकी जगह क्रोध और अपमान ने ले
ली । उसका चेहरा और भी हठपूर्ण , अप्रिय और कठोर हो गया । ऐसी हालत में अबोगिन ने उसे धार्मिक पादरियों जैसे भावशून्य और रूखे चेहरेवाली एक सुंदर नवयुवती की फ़ोटो दिखाते हुए पूछा कि क्या कोई यक़ीन कर सकता है कि ऐसे चेहरे वाली स्त्री झूठ बोल सकती है , छल सकती है ।
     ***             ***             ***              ***              ***               ***
             डॉक्टर अबोगिन के पास से पीछे हट गया और भौंचक्का हो कर उसे देखने लगा ।
            ” आप मुझे यहाँ लाए ही क्यों ? ” डॉक्टर कहता गया । उसकी दाढ़ी हिल रही थी , ” आपने शादी की , क्योंकि आपके पास इससे अच्छा और कोई काम नहीं था … और इसलिए आप अपना यह घटिया नाटक मनमाने ढंग से खेलते रहे , पर मुझे इससे क्या लेना-देना ? मेरा आपके इस प्यार-मोहब्बत से क्या सरोकार ? मुझे तो चैन से जीने दीजिए । आप अपनी मुक्केबाज़ी कीजिए , अपने मानवतावादी विचार बघारिए , वायलिन बजाइए , मुर्ग़े की तरह मोटे होते जाइए , पर किसी  को ज़लील करने की हिम्मत मत कीजिए । यदि आप उनका सम्मान नहीं कर सकते तो तो कृपा करके उनसे अलग ही रहिए। “
           अबोगिन का चेहरा लाल हो गया । उसने पूछा , ” इसका मतलब क्या
है ? “
           ” इसका मतलब यह है कि लोगों के साथ यह कमीना और कुत्सित खिलवाड़ है । मैं डॉक्टर हूँ । आप डॉक्टरों को , बल्कि हर ऐसा काम करने वाले
को , जिसमें से इत्र और वेश्यावृत्ति की गंध नहीं आती , नौकर और अर्दली क़िस्म का आदमी समझते हैं । आप ज़रूर समझिए । लेकिन दुखी व्यक्ति की भावनाओं से खिलवाड़ करने का , उसे नाटक की सामग्री समझने का आपको कोई हक़ नहीं । “
           अबोगिन का चेहरा ग़ुस्से से फड़क रहा था । उसने ललकार कर पूछा ,
” मुझसे ऐसी बात करने की आपकी हिम्मत कैसे हुई ? “
           मेज़ पर घूँसा मारते हुए डॉक्टर चिल्लाया ,” मेरा दुख जानते हुए भी अपनी अनाप-शनाप बातें सुनाने के लिए मुझे यहाँ लाने की हिम्मत आपको कैसे हुई ? दूसरे के दुख का मख़ौल करने का हक़ आपको किसने दिया ? “
           अबोगिन चिल्लाया , ” आप ज़रूर पागल हैं । कितने बेरहम हैं आप । मैं खुद कितना दुखी हूँ … और … और … ! “
           घृणा से मुस्करा कर डॉक्टर ने कहा , ” दुखी ! आप इस शब्द का इस्तेमाल मत कीजिए । इसका आपसे कोई वास्ता नहीं । जो आवारा -निकम्मे क़र्ज़ नहीं ले पाते , वे भी अपने को दुखी कहते हैं । मोटापे से परेशान मुर्ग़ा भी दुखी होता है । घटिया आदमी ! “
          ग़ुस्से से पिनपिनाते हुए अबोगिन ने कहा , ” जनाब , आप अपनी औक़ात भूल रहे हैं! ऐसी बातों का जवाब लातों से दिया जाता है ! “
          अबोगिन ने जल्दी से अंदर की जेब टटोलकर उसमें से नोटों की एक गड्डी निकाली और उसमें से दो नोट निकालकर मेज़ पर पटक दिए । नथुने फड़काते हुए उसने हिक़ारत से कहा , ” यह रही आपकी फ़ीस । आपके दाम अदा हो गए । “
          नोटों को ज़मीन पर फेंकते हुए डॉक्टर चिल्लाया , ” रुपए देने की गुस्ताखी मत कीजिए । यह अपमान इससे नहीं धुल सकता । “
          अबोगिन और डॉक्टर एक-दूसरे को अपमानजनक और भद्दी-भद्दी बातें कहने लगे । उन दोनों ने जीवन भर शायद सन्निपात में भी कभी इतनी अनुचित , बेरहम और बेहूदी बातें नहीं कही थीं । दोनों में जैसे वेदनाजन्य अहं जाग गया था । जो दुखी होते हैं उनका अहं बहुत बढ़ जाता है । वे क्रोधी , नृशंस और अन्यायी हो जाते हैं । वे एक-दूसरे को समझने में मूर्खों से भी ज़्यादा असमर्थ होते हैं । दुर्भाग्य लोगों को मिलाने की जगह अलग करता है । प्रायः: यह समझा जाता है कि एक ही तरह का दुख पड़ने पर लोग एक-दूसरे के नज़दीक आ जाते होंगे , लेकिन हक़ीक़त यह है कि ऐसे लोग अपेक्षाकृत संतुष्ट लोगों से बहुत ज़्यादा नृशंस और अन्यायी साबित होते
हैं ।
          डॉक्टर चिल्लाया , ” मेहरबानी करके मुझे मेरे घर पहुँचा दीजिए । ” ग़ुस्से से उसका दम फूल रहा था ।
          अबोगिन ने ज़ोर से घंटी बजाई । जब उसकी पुकार पर भी कोई नहीं आया तो ग़ुस्से में उसने घंटी फ़र्श पर फेंक दी । क़ालीन पर एक हल्की , खोखली आह-सी भरती हुई घंटी ख़ामोश हो गयी ।
          तब एक नौकर आया ।
          घूँसा ताने अबोगिन ज़ोर से चीख़ा , ” कहाँ मर गया था तू ? बेड़ा गर्क हो तेरा ! तू अभी था कहाँ ? जा इस आदमी के लिए गाड़ी लाने को कह और मेरे लिए बग्घी निकलवा ! ” जैसे ही नौकर जाने के लिए मुड़ा , अबोगिन फिर चिल्लाया ,
” ठहर ! कल से इस घर में एक भी ग़द्दार , दग़ाबाज़ नहीं रहेगा । सब निकल जाएँ … दफ़ा हो जाएँ यहाँ से … मैं नए नौकर रख लूँगा । बेईमान कहीं के ! “
          गाड़ियों के लिए प्रतीक्षा करते समय डॉक्टर और अबोगिन ख़ामोश रहे । नाज़ुक सुरुचि का भाव अबोगिन के चेहरे पर फिर लौट आया था । बड़े सभ्य तरीके से वह अपना सिर हिलाता हुआ , कुछ योजना-सी बनाता हुआ कमरे में टहलता
रहा । उसका ग़ुस्सा अभी शांत नहीं हुआ था , पर वह ऐसा ज़ाहिर करने का प्रयास कर रहा था जैसे कमरे में शत्रु की मौजूदगी की ओर उसका ध्यान भी न गया हो । उधर डॉक्टर एक हाथ से मेज़ पकड़े हुए स्थिर खड़ा अबोगिन की ओर बदनुमा , गहरी हिक़ारत की निगाह से ताक रहा था , गोया वह उसका शत्रु हो ।
       ***            ***             ***             ***             ***              ***   
          कुछ देर बाद जब डॉक्टर गाड़ी में बैठा अपने घर जा रहा था , उसकी आँखों में तब भी घृणा की वही भावना क़ायम थी । घंटे भर पहले जितना अँधेरा था , अब वह उससे ज़्यादा बढ़ गया था । दूज का लाल चाँद पहाड़ी के पीछे छिप गया था और उसकी रखवाली करने वाले बादल सितारों के आस-पास काले धब्बों की तरह पड़े
थे । पीछे से सड़क पर पहियों की आवाज़ सुनाई दी और बग्घी की लाल रंग की लालटेनों की चमक डॉक्टर की गाड़ी के आगे आ गई । वह अबोगिन था जो प्रतिवाद करने , झगड़ा करने या ग़लतियाँ करने पर उतारू था ।
         पूरे रास्ते डॉक्टर अपनी शोकाकुल पत्नी या अपने मृत पुत्र आंद्रेई के बारे में नहीं बल्कि अबोगिन और उस घर में रहने वालों के बारे में सोचता रहा , जिसे वह अभी छोड़ कर आया था । उसके विचार नृशंस और अन्यायपूर्ण थे । उसने मन-ही-मन अबोगिन , उसकी बीवी , पापचिंस्की और सुगंधित गुलाबी उषा में रहने वाले सभी लोगों के ख़िलाफ़ क्षोभ प्रकट किया और रास्ते भर बराबर वह इन लोगों के लिए नफ़रत और हिक़ारत की बातें सोचता रहा । यहाँ तक कि उसके दिल में दर्द होने लगा और ऐसे लोगों के प्रति एक ऐसा ही दृष्टिकोण उसके ज़हन में स्थिर हो गया ।
        वक़्त गुज़रेगा और किरीलोव का दुख भी गुज़र जाएगा । किंतु यह अन्यायपूर्ण दृष्टिकोण डॉक्टर के साथ हमेशा रहेगा — जीवन भर , उसकी मृत्यु के दिन तक ।

                            ————०————

प्रेषकः सुशांत सुप्रिय
         A-5001 ,
         गौड़ ग्रीन सिटी ,
         वैभव खंड ,
         इंदिरापुरम ,
         ग़ाज़ियाबाद – 201014
         ( उ . प्र . )
मो: 8512070086
ई-मेल : sushant1968@gmail.com

इतालवी कहानी-जिगरी यार-लुइगी पिरांदेलो

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(इतालवी कहानी)

जिगरी यार

                                                    -मूल लेखक : लुइगी पिरांदेलो 

                                                         अनुवाद : सुशांत सुप्रिय

             गिगी मियर ने उस सुबह एक पुराना लबादा पहन रखा था ( जब आप चालीस से ऊपर के हों तो उत्तर दिशा से बहने वाली बर्फ़ीली हवा आप को मज़ाक नहीं लगती ) । उसने मफ़लर से अपनी नाक तक ढँक रखी थी । अपने दोनों हाथों में उसने वैसे मोटे दस्ताने पहन रखे थे जैसे अंग्रेज़ लोग पहनते हैं । वह भरपेट खा कर चला था । उसकी त्वचा चिकनी और रक्ताभ थी । वह मेलिनी के स्टॉप पर उस ट्राम की प्रतीक्षा कर रहा था जो हर रोज़ की तरह उसे पास्त्रेंगो के रास्ते ‘ कोर्ते देई

कौंती ‘ ले जाती , जहाँ वह नौकरी करता था ।

              उसका जन्म कुलीन वर्ग में हुआ था लेकिन अब तो हालात … उफ़् ! अब न उसके अधीन कोई इलाक़ा था , न ही बेशुमार धन-संपत्ति । बचपन के अपने सुखद अनजानेपन में ही गिगी मियर ने अपने पिता को शासकीय सेवा में जाने की अपनी

‘ राजसी ‘ योजना के बारे में बता दिया था । दरअसल तब अपनी मासूमियत में उसने मान लिया था कि ‘ कोर्ते देई कौंती ‘ कुलीन लोगों का दरबार था जिसमें हर कुलीन व्यक्ति को शामिल होने का अधिकार था ।

               हर आदमी यह जानता है कि जब आप बेसब्री से ट्राम की प्रतीक्षा कर रहे होते हैं तो वे कभी नहीं आतीं । बल्कि ऐसे समय में वे बीच में ही कहीं रुक जाती हैं क्योंकि बिजली नहीं होती , या वे किसी रेड़े को रौंदने में व्यस्त होती हैं , या वे किसी बदक़िस्मत इंसान तक को कुचल डालने से नहीं चूकतीं । बावजूद इसके , हर बात पर ग़ौर करने पर हम पाते हैं कि वे एक निराली ही चीज़ हैं !

               जिस सुबह का ज़िक्र हो रहा है , उस सुबह उत्तर दिशा से ठंडी, बर्फ़ीली हवा चल रही थी , और गिगी मियर अपने पैर पटकते हुए सलेटी नदी को देख रहा

था । उसे लगा जैसे नए पुश्ते की रंगहीन दीवारों के बीच , फड़फड़ाते आस्तीनों वाली क़मीज़ पहने उस बेचारी नदी को भी बहुत ठंड लग रही थी ।

                अंत में घंटी बजाते हुए ट्राम आ पहुँची । गिगी मियर उसके रुकने से पहले ही उस पर सवार होने वाला था कि उसे लगा जैसे नए पुल पौंते केवोर की तरफ़ से किसी ने ज़ोर से उसका नाम पुकारा :

                ” गिगी , अरे भाई , गिगी ! “

                और उसने एक व्यक्ति को अपने पीछे बाँहें फैलाए दौड़ते हुए पाया । इस बीच ट्राम निकल गई । बदले में सांत्वना के रूप में गिगी ने खुद को एक अजनबी की बाँहों में पाया । उस अजनबी ने जिस शिद्दत से दो बार मफ़लर से लिपटे गिगी के चेहरे को बाँहों में भर लिया उससे तो यही लगा कि वह कोई जिगरी यार था ।

                 ” क्या तुम जानते हो , मैं तो तुम्हें देखते ही पहचान गया था , गिगी , मेरे दोस्त ! पर यह क्या है ? — तुम अभी से बूढे होने लगे हो ? इतने सारे सफ़ेद बाल ; तुम्हें शरम नहीं आती ? अपने संतनुमा बुढ़ापे की ख़ातिर पहले तुम मुझे चुंबन दो , गिगी , मेरे प्यारे दोस्त । यहाँ खड़े तुम ऐसे लग रहे थे जैसे मेरी ही प्रतीक्षा कर रहे थे । पर जब मैंने तुम्हें उस दानवी ट्राम पर सवार होते देखा तो मैंने खुद से कहा , ” यह ग़द्दारी है , एकदम ग़द्दारी । “

                ” हाँ , मैं दफ़्तर जा रहा था , ” मियर ने जैसे ज़बर्दस्ती मुस्कराते हुए

कहा ।

                ” मुझ पर एक अहसान करो । ऐसी वाहियात चीज़ों के नाम अभी मत

लो । “

                ” क्या ? “

                ” हाँ , मैं यही कहना चाहता हूँ । बल दे कर । “

                ” तुम एक अजीब आदमी हो । क्या तुम यह जानते हो ? “

                ” हाँ , मैं यह जानता हूँ । लेकिन यह बताओ , क्या तुम्हें मुझसे अभी मुलाक़ात होने की उम्मीद थी ? तुम्हारे चेहरे के हाव-भाव तो यह बता रहे हैं कि तुम्हें इसकी बिल्कुल उम्मीद नहीं थी । “

                ” हाँ , दरअसल … सच्ची बात बताऊँ तो — “

                ” मैं कल शाम यहाँ पहुँचा । तुम्हारे भाई ने तुम्हारे लिए शुभकामनाएँ भेजी हैं । मेरी बात सुन कर तुम्हें हँसी आएगी । वह मेरे बारे में एक पत्र लिख कर तुम्हें भेजना चाह रहा था ! ‘ क्या ,’ मैंने कहा , ‘ अब तुम गिगी को मेरे बारे में पत्र लिखोगे ? क्या तुम्हें पता है , मैं गिगी को बहुत पहले से जानता हूँ । ईश्वर भला करे , हम तो लड़कपन के दोस्त हैं । हमारे बीच कई-बार लड़ाई-झगड़ा भी हो चुका है । विश्वविद्यालय में हम दोनों सहपाठी थे , भाई । ‘ मशहूर पादुआ विश्वविद्यालय में , क्या तुम्हें याद आया ? वह बड़ा-सा घंटा जिसका बजना तुम कभी नहीं सुन पाते थे ;

तुम कैसे घोड़े बेच कर सोते थे । मुझे ‘ गधे बेच कर ‘ कहना चाहिए ! और जब तुमने वाकई उस घंटे का बजना सुना — ऐसा केवल एक बार हुआ था — तो तुम्हें लगा था जैसे वह आग लगने की चेतावनी देने वाला घंटा था … वे भी क्या दिन थे , है न ! …

ईश्वर की दया से तुम्हारा भाई ठीक-ठाक है । हम दोनो मिल कर कोई काम कर रहे हैं , और मैं उसी सिलसिले में यहाँ आया हूँ । लेकिन तुम्हें क्या हो गया है ? तुम्हारा चेहरा तो किसी शव-यात्रा में शामिल आदमी-सा लग रहा है ! क्या तुम्हारी शादी हो

गई ? “

                 ” नहीं , प्रिय ! ” गिगी मियर जोश में आ कर बोला ।

                 ” क्या तुम्हारी शादी होने वाली है ? “

                 ” पागल हो गए हो क्या ? चालीस के बाद ? हे ईश्वर , नहीं । मैं इसके बारे में सोच भी नहीं सकता । “

                 ” चालीस ! गिगी , तुम्हारी उम्र पचास बरस के ज़्यादा क़रीब होगी । दरअसल मैं भूल रहा था … चाहे वो घंटियाँ हों या बरस हों , तुम्हारा यह अनूठापन रहा है कि तुम उनके बजने या बीतने की आहट नहीं सुन पाते हो । तुम पचास बरस के तो होगे ही , मेरे प्यारे दोस्त । पचास बरस के । मैं तुम्हें आश्वस्त करता हूँ । हम आह भर सकते हैं । अब यह गम्भीर बात हो गई है । चलो , देखते हैं , तुम कब पैदा हुए थे … अप्रैल , 1851 में । क्या यह सच है या नहीं ? बारह अप्रैल के दिन । “

                ” माफ़ करना , वह मई का महीना था । और 1852 का साल था । ” मियर ने थोड़ा चिढ़ कर हर अक्षर पर बल देते हुए उसे सुधारा ।

                ” क्या तुम्हें मुझसे बेहतर पता है ? वह 12 मई , 1852 का दिन था । इस लिहाज़ से अभी तुम्हारी उम्र उन्चास साल और कुछ महीनों की है । तुम्हारी कोई पत्नी भी नहीं ? बढ़िया है । जैसा कि तुम जानते हो , मैं तो शादी-शुदा हूँ । हाँ , यह एक त्रासदी है ! मैं तुम्हें इतना हँसा सकता हूँ कि हँसते-हँसते तुम्हारे पेट में बल पड़

जाएँगे । इस बीच मैं यह मान लेता हूँ कि तुमने मुझे दोपहर के भोजन के लिए आमंत्रित कर लिया है । आजकल तुम खाना खाने कहाँ जाते हो ? क्या उसी पुराने

 ‘ बारबा ‘ रेस्त्रां में ? “

               ” हे ईश्वर ! ” गिगी मियर हैरान हो कर बोला — ” क्या तुम ‘ बारबा ‘ रेस्त्रां के बारे में भी जानते हो ? मुझे लगता है , तुम भी वहाँ जा चुके हो । “

               ” मैं और ‘ बारबा ‘ रेस्त्रां मे ? जब मैं पादुआ में रहता हूँ तो यह कैसे सम्भव है ? मुझे बताया गया था कि अन्य लोगों के साथ तुम भी वहाँ जाते हो और वहाँ बहुत कुछ होता है । मैं उसे शराबख़ाना कहूँ या भोजनालय ? “

               ” उसे शराबख़ाना ही कहो , एक सस्ता शराबख़ाना ” , मियर ने जवाब दिया — ” लेकिन यदि तुम दोपहर का खाना मेरे साथ खा रहे हो तो हमें घर पर मौजूद खाना बनाने वाली नौकरानी को यह बताना होगा । “

              ” क्या वह बावर्ची युवा है ? “

              ” अरे नहीं , भाई । वह बूढ़ी है । दूसरी बात यह है कि अब मैं ‘ बारबा ‘ में नहीं जाता । पिछले तीन सालों से तो बिल्कुल नहीं गया हूँ । एक उम्र होती है जब … “

              ” चालीस के बाद — “

              ” हाँ , चालीस के बाद आप में इतना साहस होना चाहिए कि आप ऐसे किसी मार्ग से दूर रहें जो आपको खाई के किनारे की खड़ी चट्टान तक ले जाता है । जब तक आप में सामर्थ्य है , आप बहुत सावधानी से धीरे-धीरे उस खड़ी चट्टान तक जा सकते हैं — अपने-आप को लुढ़क कर उस पार खाई में गिरने से बचाते हुए ।

ख़ैर , अब हम यहाँ हैं तो मैं तुम्हें दिखाऊँगा कि मैंने अपने छोटे-से घर को कैसे सजा

कर रखा हुआ है । “

                ” ह्म्म , सावधानी से , धीरे-धीरे … । तुमने अपने घर को बढ़िया ढंग से ही रखा होगा । ” गिगी मियर के मित्र ने उसके पीछे-पीछे घर की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए

कहा , ” पर तुम्हारे जैसा विशाल , भारी-भरकम , बढ़िया आदमी आज कैसी हल्की और सतही बातें कर रहा है ! बेचारा गिगी ! समय ने तुम्हारा क्या हाल कर दिया

है ! क्या तुम्हारी पूँछ झुलस गई है ? क्या तुम चाहते हो कि मैं रो दूँ ? “

               ” देखो … ,” नौकरानी के दरवाज़ा खोलने की प्रतीक्षा करते हुए मियर ने कहा , ” इस समय मुझे अपने अभिशप्त अस्तित्व का साथ निभाना पड़ रहा है ; हल्के और सतही शब्दों से उसे दुलारना-पुचकारना और फुसलाना पड़ रहा है , वर्ना वह भी मेरे जीवन को सतही बना देगा । फ़िलहाल मुझे चार फ़ुट की क़ब्र में जाने की कोई जल्दी नहीं है । “

                ” तो क्या तुम आदमी के दोपाया होने में यक़ीन रखते हो ? ” मित्र ने

कहा , ” गिगी , यह मत कहना कि तुम्हें इस पर यक़ीन है । मुझे पता है , मुझे दो पैरों पर खड़े रहने के लिए कितनी कोशिश करनी पड़ती है । यक़ीन करो , मित्र ; यदि हम प्रकृति के अनुरूप बन जाएँ तो हम सभी चौपाया बन जाना चाहेंगे । सबसे अच्छी

बात ! कुछ भी इससे ज़्यादा आरामदेह नहीं । हमेशा बढ़िया संतुलन । कितनी बार मैं खुद को ज़मीन पर रेंगते हुए देखना चाहता हूँ । यह अभिशप्त सभ्यता हमें नष्ट कर रही है । यदि मैं चौपाया होता तो मैं एक बढ़िया जंगली जानवर होता । तुमने जो कुछ मुझे कहा है , उसके बदले में मैं तुम्हें कुछ दुलत्तियाँ रसीद करता ! तब मेरे पास न बीवी होती , न उधार की फ़िक्र होती । क्या तुम मुझे रुलाना चाहते हो । मैं तो चला । “

                 जैसे साक्षात् बादलों से अवतरित हुए अपने इस मित्र की सनक भरी मज़ाक़िया बातें सुन कर गिगी मियर स्तंभित रह गया । उसे ध्यान से देखते हुए गिगी ने अपने ज़हन पर बहुत ज़ोर डाला ताकि उसे इस मित्र का नाम याद आ जाए । आख़िर पादुआ में वह उसे कैसे और कब जानता था — अपने लड़कपन के समय या अपने विश्वविद्यालय के दिनों में ? उसने उन दिनों के अपने सभी घनिष्ठ मित्रों के बारे में बार-बार सोचा , पर कोई फायदा नहीं हुआ ; किसी भी मित्र की शक्ल उस व्यक्ति से नहीं मिलती थी । इस विषय में खुद उसी व्यक्ति से पूछने की उसकी हिम्मत नहीं हुई क्योंकि वह उससे इस स्तर की और इतनी ज़्यादा घनिष्ठता दिखा रहा था कि पूछने पर वह बहुत अपमानित महसूस करता । इसलिए गिगी ने सोचा कि वह चालाकी इस्तेमाल करके सच्चाई जान लेगा ।

                 नौकरानी बहुत देर के बाद दरवाज़ा खोलने आई ; उसे अपने मालिक के इतनी जल्दी लौट आने की उम्मीद नहीं थी । गिगी मियर ने दूसरी बार दरवाज़े की घंटी बजाई और अंत में वह अपनी चप्पलें घसीटते हुए प्रकट हुई ।

                 ” मैं आ गया हूँ , बूढ़ी अम्मा ” , मियर ने उससे कहा । ” मेरे साथ मेरा मित्र भी है । जल्दी से दो लोगों के लिए दोपहर का खाना बना दो । ध्यान रखना , मेरे मित्र को हल्की बातें पसंद नहीं । इनका नाम भी बड़ा असाधारण है । “

                 ” दाढ़ी , सींगों और खुरों वाला नरभक्षी बकरा ” , गिगी के मित्र ने मज़ाक़िया लहज़े में नाम बताया जिसे सुनकर वह वृद्धा संदेह में पड़ गई कि वह इस पर हँसे या ईश्वर को याद करते हुए अपनी उँगलियों से अपनी छाती पर सलीब का चिह्न बनाए । ” और मेरे इस अद्भुत नाम के बारे में अब कोई भी नहीं जानना चाहता ,

बूढ़ी अम्मा ! बैंकों के निदेशक यह नाम सुन कर मुँह बना लेते हैं । और साहूकार विचलित हो जाते हैं । केवल मेरी पत्नी ही अपवाद है ; उसने इस नाम को खुशी-खुशी स्वीकार कर लिया है । किंतु मैंने उसे केवल नाम पर ही अधिकार करने दिया , खुद पर नहीं । जी हाँ , खुद पर नहीं । मैं बेहद रूपवान व्यक्ति हूँ — दुनिया गवाह है ! इसलिए गिगी , मान जाओ क्योंकि तुममें भी यह कमज़ोरी है । चलो , मुझे अपनी चीज़ें दिखाओ । जहाँ तक तुम्हारी बात है बूढ़ी अम्मा , काम पर लग जाओ । पशुओं के लिए चारे का बंदोबस्त करो । “

                 अपनी युक्ति के विफल हो जाने से घबराए मियर ने अपने मित्र को अपने छोटे फ़्लैट के पाँचो कमरे दिखाए , जिन्हें एक ऐसे व्यक्ति ने प्यार से सुसज्जित किया था जिसे बहुत ज़्यादा चीज़ों की इच्छा नहीं थी । एक बार जब उसने अपने मकान को अपना शरण-स्थल बनाने का निर्णय ले लिया , तो ऐसी कोई ज़रूरत नहीं थी जिसकी पूर्ति मकान में से ही नहीं की जा सकती थी । वहाँ एक बैठक थी , एक शयन-कक्ष था , एक छोटा शौचालय था , एक खाने का कमरा था और एक अध्ययन-कक्ष था ।

                अपने छोटे-से बैठक में मियर की हैरानी और उत्पीड़न — दोनों बढ़ गए जब उसने अपने मित्र को अपने परिवार की नितांत निजी और अंतरंग बातें बताते हुए सुना । वह साथ-ही-साथ आग जलाने वाली जगह की बगल में बने ताक पर रखे सभी फ़ोटो पर भी निगाह डालता जा रहा था ।

               ” गिगी यार , काश तेरी तरह का मेरा भी कोई साला होता । तू तो जानता है , मेरा साला कितना बड़ा बदमाश है ! “

               ” क्या वह तुम्हारी बहन से दुर्व्यवहार करता है ? “

               ” नहीं , वह तो मुझ ही से दुर्व्यवहार करता है । । वह चाहे तो कितनी आसानी से ऐसी मुसीबतों में मेरी मदद कर सकता है । पर वह ऐसा नहीं करता । “

               ” माफ़ करना , ” मियर ने कहा , ” मैं तुम्हारे साले का नाम याद नहीं कर पा रहा । “

               ” कोई बात नहीं । तुम उसका नाम याद कर भी नहीं सकते — तुम उसे नहीं जानते हो । वह पादुआ में केवल दो साल से है । क्या तुम्हें पता है , उसने मेरे साथ क्या किया ? तुम्हारे दयालु भाई ने मेरी मदद करने का आश्वासन दिया था , यदि मेरा साला मेरी हुंडी ले लेता । लेकिन क्या तुम यक़ीन करोगे ? उसने दस्तखत करने से इंकार कर दिया । हालाँकि तुम्हारा भाई मेरा मित्र है , पर असलियत तो यही है न कि वह एक बाहरी व्यक्ति है । जब उसे यह बात पता चली तो वह बेहद क्रुद्ध हो गया और उसने इस काम को अपने हाथों में ले लिया । हमारा काम अब निश्चित ही हो कर रहेगा … लेकिन क्या मैं तुम्हें अपने साले के इंकार की वजह बताऊँ ! … देखो , मैं अब भी एक रूपवान आदमी हूँ । इस बात से तुम इंकार नहीं कर सकते । लड़कियाँ मुझ पर मरती हैं । मैं इस सच्चाई से मुकर नहीं सकता । देखो , मेरे साले की बहन का दुर्भाग्य था कि वह मुझसे प्रेम करने लगी । बेचारी । उसकी पसंद तो अच्छी थी पर उसमें व्यवहार-कौशल की कमी थी । तुम खुद ही कल्पना करो , क्या मैं … असल में बात यह है कि उसने ज़हर खा लिया । “

               ” क्या उसकी मृत्यु हो गई ? ” मियर ने रुक कर पूछा ।

               ” नहीं-नहीं । उसने उलटी कर दी जिसके कारण उसकी जान बच गई । लेकिन तुम देख ही सकते हो कि इस त्रासद घटना के बाद मेरे लिए अपने साले के घर में क़दम रख पाना असम्भव था । हे ईश्वर , क्या हमें खाने के लिए कुछ मिलेगा या नहीं ? भूख के मारे मेरी जान जा रही है । “

               बाद में खाने की मेज पर गिगी का मित्र उससे प्यार से गोपनीय बातें करता रहा । इससे चिढ़ कर गिगी ने मन-ही-मन अपशब्दों की बौछार कर दी । फिर थोड़ा सँभल कर वह अपने मित्र से पादुआ की ख़बरें पूछता रहा । इसके-उसके बारे में बातें करता रहा । गिगी को उम्मीद थी कि बातचीत के दौरान शायद उसके मित्र का अपना नाम उसकी ज़ुबाँ से फिसल जाए । ( गिगी की खीझ हर पल बढ़ती ही जा रही थी । )

इधर-उधर की बातें करके गिगी अपने मित्र का नाम जानने की अपनी सनक से भी अपना ध्यान हटा रहा था ।

               ” चलो , अब मुझे बताओ — वैवरदे वाले व्यक्ति का क्या हुआ ? मैं इतालवी बैंक के निदेशक की बात कर रहा हूँ — हाँ , वही जिसकी बीवी बड़ी ख़ूबसूरत है पर जिसकी स्थूलकाय बहन भेंगी है । मैने ग़लत तो नहीं कहा ? क्या वे अब भी पादुआ में हैं ? “

              यह सुनकर उसका मित्र ठठा कर हँसने लगा ।

              ” क्या हुआ ? ,” गिगी की उत्सुकता जागृत हो गई । ” क्या उसकी बहन भेंगी नहीं है ? “

              ” चुप हो जाओ । ईश्वर के लिए चुप हो जाओ ! ” अपनी हँसी न रोक पाने की वजह से उसके मित्र ने कहा । हँसी के दौरों की वजह से उसके पेट में बल पड़ रहे थे ।

             ” भेंगापन ? हाँ , मेरा ख़्याल है , वह वाकई भेंगी है । और उसकी नाक इतनी चौड़ी है कि उसमें से आपको उसका दिमाग़ भी दिखता है ! यही वह स्त्री है । “

             ” कौन-सी स्त्री ? “

             ” मेरी बीवी ! “

             यह सुनकर गिगी मियर हक्का-बक्का रह गया । क्षमायाचना में वह केवल कुछ बेवक़ूफ़ानी-सी बात ही बुदबुदा सका । लेकिन उसका मित्र ज़ोर-ज़ोर से , पहले से भी ज़्यादा देर तक हँसता रहा । बहुत देर बाद वह शांत हुआ , उसने त्योरी चढ़ाई और एक गहरी साँस ली ।

              ” मेरे प्रिय मित्र , ” उसने कहा , ” जीवन में अज्ञात वीरता के कई कारनामे होते हैं । कवि की सबसे अकुशल कल्पनाशक्ति और सोच भी वहाँ तक नहीं पहुँच पाती है । “

              ” सही कह रहे हो ! ” मियर भी गहरी साँस ले कर बोला , ” तुम सही कह रहे हो …तुम जो कहना चाहते हो , वह मैं समझ सकता हूँ । “

              ” नहीं , तुम उसे बिल्कुल नहीं समझ सकते , ” उसके मित्र ने उसी समय उसकी बात को काटते हुए कहा , ” क्या तुम्हें यह लग रहा है कि मैं अपनी ओर इशारा कर रहा हूँ ? कि मैं एक नायक हूँ जबकि वास्तव में मैं केवल एक पीड़ित व्यक्ति हूँ ? ऐसा नहीं है । नायिका की भूमिका तो मेरी साली की है — मैं ल्यूसियो वैलवर्दे की पत्नी की बात कर रहा हूँ । मेरी बात ध्यान से सुनो — हे ईश्वर , कितना बड़ा अंध-मूढ़ व्यक्ति । “

              ” मैं ? “

              ” नहीं , मैं । मैं । मैं खुद को धोखा देता रहा कि ल्यूसियो वैलवर्दे की पत्नी अपने पति से शादी करने से पहले मुझसे मुहब्बत करती थी । तुम्हें इस बात पर यक़ीन करना होगा , गिगी । ईमानदारी से कहूँ तो वह इसी के योग्य था । लेकिन हे ईश्वर ! क्या तुम जानते हो कि आगे क्या हुआ ? जो तुम सुनोगे वह त्याग के तटस्थ भाव का उदाहरण होगा । उस दिन वैलवर्दे चला जाता है या कम-से-कम जाने का ढोंग करता है ( उसकी पत्नी यह जानती है ) । फिर वह मुझे अपने घर में आने देती है । जब इकट्ठे हैरान होने का त्रासद पल आता है , तब वह मुझे अपनी साली के कमरे में छिपा देती है — वही स्त्री जो भेंगी है । वह काँपती हुई पतिव्रता स्त्री के अंदाज़ में मेरा स्वागत करती है । ऐसा लगता है जैसे अपने भाई के सम्मान और उसकी शांति के लिए वह अपना उत्सर्ग कर रही है । दरअसल मुझे बड़ी मुश्किल से चिल्ला कर इतना कहने का समय मिला — ‘ लेकिन देवी जी , एक मिनट रुकिए । ल्यूसियो गम्भीरता से ऐसा सोच भी कैसे सकता है … ‘ — अभी मैंने अपनी बात ख़त्म भी नहीं की थी कि गुस्से में बड़बड़ाता हुआ ल्यूसियो भीतर दाख़िल हुआ । फिर क्या हंगामा हुआ ,

इसकी कल्पना तुम बख़ूबी कर सकते हो । “

               ” क्या ! ” गिगी मियर के मुँह से निकला , ” तुम , जो इतने अक़्लमंद हो , फिर भी । “

               ” और ऋण के रूप में मुझे दिया जाने वाला रुपया ? ” गिगी का मित्र चीख़ा , ” मौन अनुमति से ऋण के रूप में मुझे दिये जाने वाले रुपये का क्या होता जिसका नवीनीकरण वैलवर्दे अपनी पत्नी के सात्विक ढोंग की वजह से कर रहा था ?वह उसी समय मुझे रक़म देने से मना कर देता — क्या तुम समझ रहे हो ? और मुझे बर्बाद कर देता । कितना घटिया मज़ाक था ! चलो , कृपा करके अब इसके बारे में एक शब्द भी और नहीं कहें … असल बात तो यह है कि मेरे पास चार पैसे भी नहीं थे , और इस बात को ध्यान में रखो कि शादी करने का मेरा कोई इरादा नहीं था … “

               ” क्या ! ” गिगी मियर ने बीच में हस्तक्षेप करते हुए कहा , ” तुमने उससे शादी कर ली ! “

               ” अरे , नहीं । मैं तुमसे वादा करता हूँ । उसने मुझसे शादी की । केवल उसकी शादी हुई । मैंने उसे पहले ही कह दिया था , ” देवी जी , आप मेरी पदवी और मेरे नाम से जुड़ना चाहती हैं । ठीक है , जुड़ जाइए । क़सम से , मैं यह खुद भी नहीं जानता कि मैं इस पदवी और नाम का क्या करूँ । लेकिन बस यहीं तक , हाँ जी ? “

               ” फिर तो , ” मियर ने रुक कर विजेता के अंदाज़ में कहा , ” इस के बारे में और कुछ भी नहीं किया जा सकता था । यानी तब उसका नाम वैलवर्दे था और अब वह — “

               ” बिल्कुल सही , ” मेज पर से उठकर हँसते हुए गिगी के मित्र ने कहा ।

               ” नहीं , सुनो , ” गिगी मियर के लिए अब यह स्थिति असह्य हो रही थी और उसने साहस बटोर कर कहा , ” तुम्हारे साथ आज की सुबह बिता कर मुझे मज़ा आ गया । मैंने भी तुम्हारे साथ अपने भाई जैसा व्यवहार किया है । अब तुम मुझ पर एक अहसान करो । “

                ” क्या तुम मेरी पत्नी को उधार लेना पसंद करोगे ? “

                ” नहीं , शुक्रिया । मैं चाहता हूँ कि तुम मुझे अपना नाम बताओ । “

                ” मैं ? अपना नाम ? ” उसके मित्र ने हैरान हो कर पूछा । वह इस तरह से अपनी छाती पर हल्के-से अपनी उँगलियाँ बजा रहा था मानो उसे अपने अस्तित्व पर भरोसा न हो । ” तुम्हारा क्या मतलब है ? क्या तुम मेरा नाम नहीं जानते ? क्या तुम्हें मेरा नाम बिल्कुल याद नहीं ? “

             ” नहीं , ” मियर ने शर्मिंदा होते हुए कहा , ” मुझे माफ़ करना । तुम मुझे धरती पर मौजूद सबसे भुलक्कड़ आदमी कह सकते हो । पर मैं लगभग क़सम खा कर कहता हूँ कि मैंने तुम्हें पहले कभी नहीं देखा है । “

             ” अच्छा ? बढ़िया है , बहुत बढ़िया ! … ” उसके मित्र ने जवाब दिया । ” मेरे जिगरी यार गिगी , आओ , मुझसे हाथ मिलाओ । इतने बढ़िया दोपहर के भोजन और तुम्हारे साथ के लिए मैं तुम्हें हृदय से शुक्रिया अदा करता हूँ । लेकिन अब तो मैं तुम्हें अपना नाम बताए बिना ही जाऊँगा । अब यही होगा । “

             ” तुम्हारा बेड़ा गर्क हो ! तुम मुझे अपना नाम बताओगे , ” अपने पंजों के बल उछलते हुए गिगी चिल्लाया । ” पूरी सुबह मैं तुम्हारा नाम याद करने के लिए अपने दिमाग़ पर ज़ोर डालता रहा । अब जब तक तुम मुझे अपना नाम नहीं बता देते , मैं तुम्हें नहीं जाने दूँगा । “

              ” चाहे तुम मेरी हत्या कर दो , ” गिगी के मित्र ने उत्तर दिया , ” चाहे तुम मेरे टुकड़े-टुकड़े कर दो , पर मैं तुम्हें अपना नाम नहीं बताऊँगा । “

              ” चलो , शाबाश ! तुम तो अच्छे आदमी हो , ” मियर ने अपने स्वर को मृदु बनाते हुए कहा , ” मेरे साथ कभी ऐसा विचित्र अनुभव नहीं हुआ । मैं क़सम खा कर कहता हूँ कि यह भुलक्कड़पन एक दर्दनाक अनुभूति है । सुबह से मैं लगातार तुम्हारे बारे में ही सोच रहा हूँ । तुम मेरी सनक बन गए हो । ईश्वर के लिए अपना नाम

बताओ । “

              ” जा कर पता कर लो । “

              ” देखो । अपने भुलक्कड़पन के बावजूद मैंने तुम्हें दोपहर का भोजन खिलाया । सच तो यह है कि यदि मैं तुम्हें कभी नहीं जानता था तो भी अब तुम मेरे प्रिय बन गए हो । मुझ पर यक़ीन करो । तुम मुझे अपने भाई जैसे लगे हो । मैं तुम्हारा प्रशंसक बन गया हूँ । मैं चाहूँगा कि तुम मुझसे मिलने आते रहो । इसलिए मुझे अपना नाम बताओ । “

              ” तुम जानते हो , इस सब का कोई फ़ायदा नहीं , ” गिगी के मित्र ने

कहा , ” मेरे रहने न रहने से तुम्हें कोई फ़र्क नहीं पड़ता । तुम खुद ही सोचो । क्या तुम अकस्मात् मिली मेरी यह खुशी मुझसे छीन लेना चाहते हो — कि मैंने तुम्हें ठग लिया क्योंकि तुम्हें पता ही नहीं चला कि तुम्हारा मेहमान कौन है ? नहीं , चले जाओ । तुम बहुत ज़्यादा जानना चाहते हो और मैं देख सकता हूँ कि मैं तुम्हें बिल्कुल याद नहीं । यदि तुम मुझे इस बात से आहत नहीं करना चाहते कि तुमने मुझे भुला दिया है तो मुझे इसी तरह चले जाने दो । “

               ” तो फिर तुम जल्दी यहाँ से चले जाओ , ” गिगी मियर ने चिड़चिड़े स्वर में कहा । ” मैं तुम्हें अपने सामने देखना और बर्दाश्त नहीं कर सकता । “

               ” ठीक है , मैं जा रहा हूँ । लेकिन पहले मुझे एक चुंबन तो दे दो । मैं कल वापस पादुआ लौट जाऊँगा । “

               ” नहीं ,” गिगी ने झुँझला कर कहा , ” जब तक तुम मुझे अपना नाम — “

               ” नहीं , नहीं । बस । अब चलता हूँ , ” उसके मित्र ने उसकी बात बीच में ही काटते हुए कहा ।

               और वह हँसता हुआ चल पड़ा । सीढ़ियों के पास जा कर वह मुड़ा और उसने अपने होठों से चुम्बन का चिह्न बना कर अपने हाथों से उस काल्पनिक चिह्न को गिगी की ओर उड़ा दिया ।

प्रेषक : सुशांत सुप्रिय

           A-5001 ,

           गौड़ ग्रीन सिटी ,

           वैभव खंड ,

           इंदिरापुरम ,

           ग़ाज़ियाबाद – 201014

           ( उ. प्र. )

मो : 8512070086

ई-मेल :sushant1968@gmail.com

                        ————0————

औपचारिक शिक्षा व्यवस्था पर अनियोजित शहरीकरण का प्रभाव: विश्व और भारतीय परिदृश्य-अश्विनी

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औपचारिक शिक्षा व्यवस्था पर अनियोजित शहरीकरण का प्रभाव: विश्व और भारतीय परिदृश्य

अश्विनी
9210473599
ashwini.edu21@gmail.com

कार्ल मार्क्स ने दास कैपिटल में कहा था, “मजदूरों का कोई देश नहीं होता।” (Marx, 1848) इसका एक अर्थ यह भी है कि व्यक्ति की आजीविका ही उनका निवास स्थान तय करता है। औद्योगिक क्रांति के बाद आर्थिक संरचना में हुए तेजी से बदलाव एवं बढ़ते शहरीकरण ने इस बात को भली भांति प्रमाणित कर दिखाया। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (यूएनएफपीए) की रिपोर्ट ‘विश्व जनसंख्या की स्थिति 2007’ (‘The State of World Population 2007’ के अनुसार वर्ष 2008 विश्व जनसंख्या में संक्रमण (परिवर्तन) का एक ऐतिहासिक काल है। इस वर्ष, मानव इतिहास में पहली बार, दुनिया की आधी से अधिक आबादी (3.3 बिलियन) शहरी क्षेत्रों में रह रही थी। अब (2018में) यह 55% हो गयी थी और 2050 तक, इसके 68 % हो जाने की उम्मीद है। एशिया और अफ्रीका में शहरी आबादी 2000 से 2030 के बीच दोगुना हो जाने का अनुमान है। विकासशील दुनिया के कस्बों और शहरों में इसी अवधि के दौरान कुल वैश्विक शहरी जनसंख्या का 80% हिस्सा होगा। भारत भी इस विश्व परिदृश्य से अछूता नहीं रहा है। साल 2018 से 2050 के बीच शहरी आबादी में भारत 41.6 करोड़, चीन 25.5 करोड़ और नाइजीरिया 18.9 करोड़, के साथ सर्वाधिक योगदान करने वाला देश होगा। इस अवधि में टोक्यो को पीछे छोड़ते हुए दिल्ली सबसे बड़ी आबादी का नगर बन जायेगा। इस प्रकार 21वीं शताब्दी को हम शहरीकरण का युग भी कह सकते है। (Obaid, 2007)

word image 3 1901 की जनगणना के अनुसार, भारत में शहरी क्षेत्रों में रहने वाली जनसंख्या 11.4% थी। जो 2001 की जनगणना के अनुसार 28.53% हो गई, और 2011 की जनगणना के अनुसार 31.16% हो चुकी है । 2007 में जारी संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी ‘राज्य जनसंख्या रिपोर्ट’ के एक सर्वेक्षण के अनुसार, 2030 तक, भारत की आबादी का 40.76%( 600 मिलियन) शहरी क्षेत्रों में रहने की उम्मीद है। विश्व बैंक के अनुसार, भारत, चीन, इंडोनेशिया, नाइजीरिया और संयुक्त राज्य अमेरिका को पछाड़, 2050 तक दुनिया की शहरी जनसंख्या का नेतृत्व करेगा और भारत की आबादी का 50% से अधिक हिस्से का शहरीकरण हो चुका होगा। इस प्रकार भारत इस शताब्दी के मध्य तक आते-आते अपनी कृषि प्रधानता और ग्राम प्रधानता की विशेषता को इतिहास के पन्नों में दफ़न कर शहर प्रधान देश बन चुका होगा। (Rizvi, 2013) (CHANDRAMOULI, 2011) अब एक चुनौती के रूप में भारत सहित तीसरी दुनिया के सभी देशों में ‘तीव्र शहरीकरण’ का विश्व परिदृश्य उभरा है।

1.2 नीतिगत कारणों की तलाश – आखिर निवेश कहाँ हुआ-

मानवीय संसाधनों मे या भौतिक संसाधनों में ? शहरी क्षेत्र में या ग्रामिण क्षेत्र में?

अर्थशास्त्री डब्ल्यू आर्थर लुईस के बाद शहरीकरण को आर्थिक विकास की धुरी मानने वाले अर्थशास्त्री जॉन सी एच फाई एवं गुस्ताव रैनिस के अनुसार “यदि कृषि मजदूरों को औद्योगिक क्षेत्र में स्थानांतरित किया जाता है तो इससे उनकी आर्थिक उत्पादन क्षमता में वृद्धि होगी, जिसके फलस्वरूप आर्थिक विकास होगा।” (Thrilwall, 2006) गौरतलब बात यह है इन तीनों ही अर्थशास्त्रियों के विकास और/या संवृद्धि मॉडल के में निम्न बातों का न तो कोई समाधान प्रस्तुत किया न ही जिक्र ही हुआ

  1. संवृद्धि के इन मॉडलों के नीतिगत कार्यान्वयन के फलस्वरूप शहरी क्षेत्र में बढ़ने वाली जनसंख्या के घनत्व का समाधान प्रस्तुत नहीं किया।
  2. शहरी क्षेत्र में बढ़ती जनसंख्या के लिए जन सुविधाओं की व्यवस्था का प्रावाधान भी नहीं दिया।
  3. गहन औद्योगिकीकरण और उच्च स्तर की सेवाओं को बढ़ावा देने में शिक्षा एवं तकनीकी ज्ञान की क्या भूमिका हो सकती है, इसकी भी चर्चा नहीं की ।
  4. शहरी व्यवस्था के सुचारू संचालन में शिक्षा के योगदान की चर्चा तक नहीं की।
  5. तकनीकी कौशल एवं शिक्षा का उत्पादकता से संबंध की चर्चा भी नहीं है।

D:\000000000000 RESEARCH WORK\0000\IInd Write Up\00 Complete\22222222222222.jpg जबकि, अंतर्जात संवृद्धि एवं विकास(Endogenous Growth and Development Modal ) मॉडल ने शिक्षा और अनुसंधान को आर्थिक एवं समाजिक विकास की धुरी माना है। “मानव पूंजी मॉडल का तात्पर्य है कि शिक्षा कौशल वाले व्यक्तियों को जन्म देती है।“ “मानव पूंजी मॉडल के अनुसार शिक्षा एक निवेश है जो भविष्य में लाभ पैदा करता है। इसलिए शिक्षा खर्च में हालिया कटौती भविष्य की राष्ट्रीय आय को कम कर देगी।“ (Quiggin, 1999) इस प्रकार शिक्षा और अनुसंधान में निवेश ही दीर्घकालीन संवृद्धि एवं विकास की धुरी है। आज, जापान, पूर्वी एशिया के नव विकसित देशों एवं पश्चिमी देशों के विकास का आधार शिक्षा ही है। गौरतलब है कि शिक्षा पर होने वाले खर्च से सीधे तौर पर लाभान्वित व्यक्ति को ही लाभ नहीं मिलता, बल्कि सभी को अधिक शिक्षित समाज और विकसित अर्थव्यवस्था का लाभ मिलता है। एक व्यक्ति के लिए शिक्षा साथ ही दूसरों को भी लाभ पहुंचती है। हर व्यक्ति के लिए शिक्षा सम्पूर्ण समाज को समग्र तौर पर लाभ पहुंचती है। । इन तरह में, “शिक्षा एक सकारात्मक बाह्यता है।“ “शिक्षा में निवेश करने वाली अर्थव्यवस्था अपनी बाजार प्रणाली को प्रोत्साहन देकर विश्व अर्थव्यवस्था का नेतृत्व करेगी।” (Parker, 2012) इस प्रकार मुफ्त और सर्वव्यापी शिक्षा की जरूरत को समाजवाद के साथ जोड़ कर देखना एक अधुरा सत्य है। पूर्ण सत्य तो यह है कि शिक्षा हर तरह की आधुनिक अर्थव्यवस्था और समाज के विकास की धुरी है।

1966 में अंतर्जात संवृद्धि एवं विकास के सिद्धांत पर कोठारी कमीशन की ‘राष्ट्रीय शिक्षा और विकास’ रिपोर्ट आयी थी। इस रिपोर्ट ने सकल घरेलू उत्पाद का 6 % शिक्षा पर व्यय करने का सुझाव दिया गया था। जिसे भविष्य में बढ़ाना भी था । पर, कोठारी कमीशन का यह सुझाव धरा का धरा रह गया। अभी तक हमारी सरकारें इसके आधे के बराबर भी शिक्षा पर खर्च नहीं कर रही है। पर, अर्थशास्त्री लुईस-फाई-रैनिस के आर्थिक विकास मॉडलों का नीतिगत प्रभाव यह पड़ा कि भारत में स्वतंत्रता के बाद योजना काल (Nehru-Mahalanobish Model, 1950-1990) और गैर योजना या उदारीकरण काल (Raw-Manmohan Model, 1991- Till), इन दोनों ही कालों में अपनायी गयी, आर्थिक नीतियों ने शहरीकरण को बढ़ावा दिया है। मिश्रित अर्थव्यवस्था की नीति की वजह से जहाँ शहरीकरण की प्रक्रिया में गति आयी और बोकारो, राउरकेला आदि नए-नए शहरों के साथ कई छोटे बड़े कस्बे उभरे। पर, 1991 में अपनायी गयी उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की नई आर्थिक नीति ने शहरीकरण की प्रक्रिया को सिर्फ बड़े शहरों तक केन्द्रित करते हुए, शहरीकरण की इस प्रक्रिया में अनियंत्रित रूप से बाढ़ की स्थिति ला दी। 1991 के बाद के दौर में, राष्ट्रीय आबादी एव जनसंख्या धनत्व के मुकाबले महानगरों की आबादी एवं जन-घनत्व कई गुणा अधिक तेजी से बढ़ा है। कई क्षेत्रों में तो ग्रामिण एवं कस्बई जनसंख्या एवं जन घनत्व कम भी हुआ है। जिसका सीधा सा अर्थ है कि लोग गांवों कस्बों से महानगरों की तरफ पलायन कर रहे है।

अधोसंरचना पर होने वाले कुल सार्वजनिक निवेश के एक बड़े हिस्से का निवेश (अनुमानतः 60-70%) शहरी, विशेषतः मैट्रोपोलिटेंट क्षेत्रों या उनकों केन्द्र में रख कर ही किया जा रहा है । औद्योगिक क्षेत्र के विकास के लिए आवश्यक अद्योसंरचना का विकास ग्रामिण एवं ग्रामिण क्षेत्र के साथ सटे कस्बाई क्षेत्रों में तुलनात्मक रूप में कम ही रहा है। निजी उपभोक्ताओं का भी प्रतिव्यक्ति व्यय एवं उपभोग प्रवृति भी शहरी क्षेत्र में अधिक है। इसलिए, सार्वजनिक निवेश हो या निजी निवेश या उपभोक्ता व्यय, हर तरह के व्यय का केन्द्र शहरी और वह भी महानगरों तक ही सीमित हैअतः ये सरकार की आर्थिक नीतियों का ही परिणाम है कि रोजगार का सृजन विशेषतः महानगरीय क्षेत्रों में ही हो रहा है। परिणामस्वरूप ‘रोजगार का सृजन एवं रोजगार गुणक’ भी शहरी क्षेत्र तक ही सीमित है या कहे कि महानगरीय क्षेत्रों में ही केन्द्रित हैरोजगार गुणक एवं आय गुणक ये बताते है कि निवेश की एक युनिट खर्च करने पर कितने गुणा रोजगार की युनिट और आय की युनिट में बढ़ौतरी होगी। इसलिए, महानगरीय क्षेत्रों में उच्च स्तर के रोजगार गुणक एवं आय गुणक होने की वजह से एक लम्बे अरसे से रोजगार की तलास में, बड़ी संख्या में लोगों का पलायन शहरी क्षेत्र की तरफ हो रहा है। अब, महानगरीय क्षेत्र में यदि किसी एक व्यक्ति के लिए रोजगार का सृजन होता है तो, उस व्यक्ति पर आश्रित उसका परिवार मतलब चार-पांच और लोग भी धीरे-धीरे शहर में ही आ कर बस जाते है। इन आश्रितों में एक बड़ी संख्या स्त्रियों और बच्चों की होती है। उस व्यक्ति के परिवार के विस्तार के साथ ही, आश्रित बच्चों की संख्या में और वृद्धि होती है। इस प्रकार, लगातार हो रहे पलायन की वजह शहरी क्षेत्र की जनसंख्या वृद्धि दर राष्ट्रीय औसत वृद्धि से कई गुणा अधिक है। पर गौर करने वाली बात यह है कि ये शहर गांवों के आस-पास के कस्बे और छोटे शहर होते तो, शहरीकरण का प्रव्रजन(Migration) प्रभाव इतना चुनौतिपूर्ण न होता।

1.3 महानगरीय-शहरीकरण का स्वरूप

अब, जैसा कि ऊपर चर्चा की जा चुकी है कि इस शताब्दी के मध्य तक, विकासशील दुनिया के कस्बों और शहरों में कुल वैश्विक शहरी जनसंख्या का 80% हिस्सा निवास कर रहा होगा। अब इसके बाद जो सवाल उठता है वह यह है कि इन देशों के शहरीकरण की प्रकृति शहरी प्रभुत्व वाले यूरोपीय और अन्य पश्चिमी देशों के समान है या यह अलग होगा? अतः कुल मिला कर सवाल शहरीकरण के स्वरूप पर ही आ टिकता है? आम तौर पर शहरी क्षेत्र की पहचान चौड़ी सड़के और नियोजित एवं व्यवस्थित रूप से खड़ी गगनचुमंबी इमारतों, शिक्षा और स्वास्थ्य की जैसे नागरिक सुविधाओं की समूचित व्यवस्था से करायी जाती है। पर, भारत एवं अन्य विकासशील मूल्कों की हकीकत कुछ और भी है। इन देशों में, शहरी क्षेत्र का एक बड़ा हिस्सा फुटपाथों, स्लम और अनियोजित तंग कॉलोनियों में निवास करता है। इस प्रकार भारत एवं तीसरी दूनियाँ के देशों का शहरीकरण यूरोप में हुए शहरीकरण से भिन्न है। यूरोप एवं अन्य पश्चीमी देशों की अधिकतर आबादी शहरों में बसती है। वहां का शहरीकरण एक व्यवस्थित शहरीकरण है, जो एक योजनाबद्ध तरीके से हुआ है। भारत में भी नई दिल्ली का लुटियन जोन, चंडीगढ़, टाटानगर और बोकारो आदि शहरों को युरोपीय तर्ज पर ही विकसित किया गया है। पर, शहरीकरण की मांग और पूर्ति में असंतुलन की वजह से अधिकतर शहरों का एक बड़ा हिस्सा अनियोजित और अव्यवस्थित तौर पर बढ़ता जा रहा है। आज दिल्ली शहर की 80-85% आबादी अनियोजित रिहायशी क्षेत्रों में बसी हुई है। दिल्ली के कुल रिहायशी क्षेत्र का 24% हिस्सा ही नियोजित ढ़ग से विकसित है। मेरठ, पटना, कानपुर आदि-आदि शहरों की स्थिति तो और भी अधिक भयानक है । अनियोजित क्षेत्रों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि बिना जमीन के उपयोग की स्थिति को बदले ही राजनीतिक एवं प्रशासनिक मिली भगत से आर्थिक फायदे के लिए रातो-रात तंग बस्तियाँ बसा दी जाती है। इन कॉलोनियों में अलग से न तो सार्वजनिक स्कूलों के लिए कोई जगह होती है और न ही पार्कों और हस्पतालों आदि के लिए ही। (Madhuri, 2015) अतः अल्पविकसित देशों के शहरीकरण का एक बड़ा विरोधा भाष यह ही है कि एक तरफ मांग से पूर्णतः अपर्याप्त योजनाबध तरिके से “स्मार्ट सिटी”(व्यवस्थित शहर) बसाये जाते है, वही उस स्मार्ट सीटी के बाहर की पैरी-फैरी में घनी आबादी स्वतः बस जाती है। नियोजित शहर और इस क्षेत्रों की आबादी के घनत्व में जमीन आसमान का अंतर होता है। उदाहरण के लिए, दिल्ली के सभी क्षेत्रों की आबादी का न तो घनत्व (Density) ही समान है और न ही विद्यालयों, महाविद्यालयों एवं हस्पतालों का आबंटन ही जनसंख्या-घनत्व के अनुरूप है। दिल्ली में नई दिल्ली, दक्षिण पश्चिम, दक्षिण दिल्ली की आबादी का घनत्व जहाँ क्रमशः 4000, 5446, 11000 हजार प्रति वर्ग किलोमीटर है। वहीं उत्तर पूर्व, पूर्वी दिल्ली की आबादी का घनत्व जहाँ क्रमशः 36,000, 27,000 हजार प्रति वर्ग किलोमीटर है। अब यदि तुलना अनियोजित और नियोजित आबादी में की जाए तो स्थिति और भी भयानक हो जाएगी।

1.4 शिक्षा प्रणाली पर अनियोजित शहरीकरण का प्रभाव

अब यदि शैक्षिक सुविधाओं की बात करे तो, वे इलाके जहाँ पर आबादी का घनत्व अधिक है, वहाँ आबादी के अनुपात में शैक्षिक संस्थाओं का नितांत अभाव है। वही इस शहर के अधिकतर गुणवतापूर्ण सरकारी एवं निजी शिक्षण संस्थान कम घनत्व वाले नियोजित इलाकों में ही स्थित है। एक अवलोकन के दौरान मैंने पाया कि शिक्षा स्वास्थ्य जैसी तमाम जनसुविधाओं से वंचित उत्तर पूर्व दिल्ली स्थित सोनिया विहार और उत्तरी पश्चीमी दिल्ली स्थित प्रेमनगर किराड़ी की आबादी नई दिल्ली (NDMC), भुसावल, सिरसा आदि शहरों से भी कही ज्यादा है, या बराबर है। इन रिहायसी क्षेत्रों की जनसंख्या की ताकत को इस तरह से समझा जा सकता है कि सोनिया विहार से इलाके से दो MCD के पार्षद चुने जाते है। किराड़ी गाँव के पास तो अपनी विधानसभा सीट भी है। पर दो MCD सीट देने वाले सोनिया विहार के पास एक ही प्राथमिक और एक ही माध्यमिक स्कूल बिल्डिंग है। जिसमें दो पाली में दो स्कूल चलते है। यही हाल किराड़ी का है। ये स्कूल 1990 की आबादी के हिसाब से प्रयाप्त है, पर प्रव्रजन की वजह से जिस अनुपात में जनसंख्या का घनत्व बढ़ा है, उस हिसाब से अब ये पूर्णतः अप्रयाप्त है।

इस प्रकार घनी आबादी की कच्ची कॉलोनियों में एक तरफ सरकारी स्कूलों का नितांत अभाव है। जिसकी वजह से सरकारी स्कूलों में विद्यार्थी शिक्षक अनुपात 100-150 या उस के भी अधिक हो जाता है। दूसरी तरफ, गली-गली में ‘कम लागत के निजी (तथाकथित) स्कूल’ खुल रहे है। इन स्कूलों में न तो अहर्तायुक्त सक्षम शिक्षक ही मौजूद है और न ही स्वस्थ और सुरक्षित शैक्षिक वातावरण ही। माता-पिता या तो, सही स्कूलों के अभाव में और/या आय के अभाव में और/या शिक्षाशास्त्र एवं शिक्षा अधिकार अधिनियम की समझ के आभाव में, इन खाना पूर्ति के निजी स्कूलों में ही अपने बच्चों का दाखिला दिलवाते है।

पर आश्चर्य तो तब होता है जब NUPAE जैसी संस्था इन स्कूलों में दाखिल 6-14 वर्ष के विद्यार्थियों को ‘शिक्षा अधिकार अधिनियम’ के तहत विद्यालयी शिक्षा प्राप्त करने वाले में गिनती शामिल कर लेती है।(DIAS Report) जबकी शिक्षक से लेकर तमाम तरह की शैक्षिक सुविधाओं तक से ये स्कूल नदा नद है?

1.5 शिक्षा का अधिकार

अब ‘शिक्षा के अधिकार’ का कदापि अर्थ ‘विद्यालयों की कैद’ तो, नहीं ही हो सकता। अब, जब यहाँ विद्यालयों की तुलना ‘जेलों’ से की जा रही है तो, इसका सीधा सा अर्थ है ‘शिक्षा के अधिकार’ का दायरा निशुल्क और अनिवार्य विद्यालयी दाखिले (शिक्षा) से कहीं आगे का है। “बच्चों का निशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम यह अधिकथित करता है कि पाठ्यक्रम में कार्यकलाप ,अन्वेषण और खोज के माध्यम से शिक्षा प्राप्ति का प्रावधान होना चाहिए।” इसमें सभी के लिए गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा शामिल है न कि सिर्फ स्कूलों में होने वाले दाखिला भर। यदि शिक्षा प्रक्रिया में गुणवत्ता का अभाव है तो इसका सीधा सा अर्थ है कि बच्चों को उनके शैक्षिक अधिकार से वंचित किया जा रहा है।

1.6 छिपा शैक्षिक अपव्यय एवं ठहराव

शिक्षा का दायरा, लिखने पढ़ने की योग्यता से कही आगे है। प्रारंभिक कक्षाओं में तो प्रोन्नति (Promote) के बावजूद भी यदि विद्यार्थी माध्यमिक कक्षा में सुचारू रूप से शिक्षा ग्रहण करने की योग्यता से वंचित है, यहाँ तक कि प्रारंभिक कक्षा पास विद्यार्थी यदि आधारभूत लेखन कौशल भी हासिल नहीं कर पाता एवं ‘विवेचनात्मक कौशल’ की जगह सिर्फ जानकारियों का पुलिंदा ही हासिल कर पाता है। ऐसी शिक्षा उन विद्यार्थियों के जीवन और समाज के आर्थिक एवं सांस्कृतिक उत्थान में स्थाई ‘ठहराव’ ही पैदा ही नहीं करेगी, अपितु अवनति लाएगी।

प्रारंभिक कक्षा के विद्यार्थियों को भी NCF-2005 में वर्णित एवं RTE-2009 में अधिनियमित बालकेन्द्रित विधि से सीखने का वातावरण नहीं मिला तो, वे ‘शिक्षा के मौलिक अधिकार(अनुच्छेद 21A)’ से वंचित ही है। प्रारंभिक कक्षा पास करने वाले ये विद्यार्थी ‘छद्म रूप से ही शिक्षितों’ में गिने जाएंगे। पर हकीकत में ये सभी विद्यार्थी ‘सीखने के आभाव (Learning Deficit)’ से ग्रसित है। ऐसी विद्यालयी व्यवस्था धन, उर्जा और समय का अपव्यय कर, उनके जीवन में स्थाई ठहराव लाएगी। हकीकत में ऐसे विद्यार्थियों ने अपने जीवन के आठ सालों को विद्यालय में व्यर्थ ही गंवाता है।

ऐसे सरकारी या निजी स्कूल, जो किसी भी तरह से रचनात्मक एवं विवेचनात्मक शिक्षण के लिए उपर्युक्त नहीं है। पर आश्चर्य तो तब होता है जब NIEPA जैसी संस्था द्वारा तैयार DIAS Report(NIEPA) में ऐसे ‘Learning Deficiency’ वाले स्कूलों में पढ़ने वाले विद्यार्थियों को RTE-2009 के अनुरूप शिक्षा का अधिकार प्राप्त करने वालों में गिना लिया जाए। अब या तो RTE में ही खामी है या NIEPA जैसी संस्था के अनुसंधान प्रक्रिया में कि ‘Learning Deficiency’ से ग्रस्त बच्चों को RTE के तहत शिक्षा अधिकार प्राप्त बच्चों के दायरे में गिना जाता है।

1.7 छिपे अपव्यय एवं ठहराव पर रोकने हेतू ‘क्रांतिक न्यूनतम प्रयत्न’ अनिवार्यता

किसी भी समाजिक लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए आर्थिक संसाधनों को जुटाने की भी जरूरत होती है। अतः हर रिहायसी क्षेत्र के, हर विद्यालय में गुणवतापूर्ण शिक्षा के न्यूनतम स्तर के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए ‘वास्तविक क्रांतिक निवेश’ का एक न्यूनतम स्तर अनिवार्य है। यदि संसाधनों को न्यूनतम क्रांतिक स्तर से कम जुटाया जाए तो, निर्धारित लक्ष्य प्राप्त करना संभव नहीं होगा।

“पिछड़ेपन की स्थिति से अधिक विकसित स्थिति में संक्रमण करने के लिए, जहां से हम स्थिर समान वृद्धि दर की उम्मीद कर सकते हैं, यह आवश्यक है, हालांकि हमेशा पर्याप्त स्थिति नहीं है, उसी बिंदु पर या इसी अवधि के दौरान, अर्थव्यवस्था को विकास के लिए एक प्रोत्साहन प्राप्त करना चाहिए जो एक निश्चित क्रांतिक न्यूनतम आकार का हो “– लाइबेनस्टीन

क्रांतिक न्यूनतम प्रयत्न के इस सिद्धान्त को यदि मार्गदर्शक सिद्धान्त के रूप में देखे तो शिक्षा के क्षेत्र में न्यायौचित स्तर पर, समतामूलक तरिके से न्यूनतम क्रांतिक निवेश की ही आवश्यकता नहीं, उस निवेश का प्रभावपूर्ण प्रतिफल प्राप्त करने के लिए संस्थागत एवं व्यवस्थागत ढांचे मे भी परिवर्तन अनिवार्य है। अब यदि उस क्रांतिक न्यूनतम स्तर से कम का निवेश होगा और लक्ष्य के अनुरूप संस्थागत ढ़ांचे में परिवर्तन नहीं होगा, तो कभी भी निर्धारित लक्ष्य को हासिल नहीं किया जा सकेगा। उदाहरण के तौर पर, शिक्षा पर पैसा खर्च तो हो रहा हो, पर वह किसी भी तरह से शिक्षा अधिकार अधिनियम या इस विषय पर गठित आयोगों के द्वारा सुझाई स्थिती को प्राप्त करने के अनुकूल नहीं है तो, हम जहां से चले थे, वही पर लुढ़क कर पहुंच जाएंगे। अर्थात किया गया सब निवेश सब पूर्णतः व्यर्थ । इस प्रकार हम शिक्षा के क्षेत्र में ‘ठहराव’ की स्थिति में ही होंगे और शिक्षा के क्षेत्र में जो भी निवेश होगा वह सब का सब व्यर्थ ‘अपव्यय’ होगा। यह तो स्थिर जनसंख्या की स्थिति का वर्णन था।

1.8. अब बढ़ती जनसंख्या की स्थिति में

तेजी से बढ़ती शहरी आबादी की वृद्धि दर के मुकाबले, यदि शिक्षा में होने वाले निवेश की वृद्धि दर अधिक नहीं तो, एक समय में क्रांतिक न्यूनतम स्तर से ऊपर का इलाका भी क्रांतिक न्यूनतम स्तर से नीचे आ जाएगा। अतः किसी भी रिहायसी क्षेत्र में किया जाने वाला शिक्षा पर निवेश, उस क्षेत्र की जनसंख्या वृद्धि (जन्मदर-मृत्यु दर+ पलायन) दर(विशेषः बाल जनसंख्या वृद्धि दर) से अधिक होना चाहिए। नहीं तो, उस क्षेत्र विशेष के लोगों की जीवन गुणवता में विकास के स्थान पर, ह्रास होने लगेगा।

  • इस विश्लेषण के आधार पर हम कह सकते है कि शहरीकरण की प्रक्रिया को व्यवस्थित किये बिना क्या शिक्षा के अधिकार का कार्यान्वयन संभव नहीं है?
  • तंग गलियों में, तंग दरवाजे के साथ तंग इमारत वाला एक निजी स्कूल बच्चों के जीवन के साथ खेल रहा है। परसवाल यह है कि सरकार ऐसे स्कूल चलाने की अनुमति ही क्यों और कैसे देती है? जहाँ न तो कोई फायर ब्रिगेड और न ही कोई अन्य सहायता दल पहुंच सकता है।
  • अब यदि अनियोजित क्षेत्र में बच्चों के समग्र विकास के लक्ष्य के अनुरूप विद्यालय संभव ही नहीं, तो यह भी छात्रों की शिक्षा के अधिकार का हनन ही है?
  • बच्चों को उनका शिक्षा अधिकार उपलब्ध कराने के लिए विद्यालयी व्यवस्था के नियोजन के साथ, अनियंत्रित शहरीकरण को नियंत्रित कर शहरीकरण के नियोजन की भी आवश्यकता है।

क्या अनियोजित शहरीकरण बच्चों के जीने के अधिकार का अतिक्रमण नहीं ?

1.9. गरीबी का दुष्चक्र बनाम विषमता का दुष्चक्र

अर्थशास्त्री प्रो. रागनर नर्क्से द्वारा प्रतिपादित ‘गरीबी के दुष्चक्र’ की अवधारणा के अनुसार अल्पविकसित देश गरीबी के दुष्चक्र में फंसे होते है। यह दुष्चक्र अनेक शक्तियों का ऐसा घेरा होता है। जो एक दूसरे के साथ ऐसी क्रिया-प्रतिक्रिया करता है। जिसकी वजह से निर्धन-निर्धन बना रहता है। प्रो. नर्क्से ने गरीबी को ही गरीबी का मुख्य कारण माना है। जबकि शिक्षाविद पाउलो फ्रेरे के शिक्षाशास्त्र के अनुसार इस (गरीबी) विभीषिका का राज विषमता में छिपा है। विषमता का प्रकट रूप गरीबी में दिखाई देता है। समस्या को गरीबी कहना ही एक गलत प्रस्थान बिन्दु है। गरीबी उत्पीडन का एक सुविधाजनक और भ्रामक नाम है। उत्पीडित को गरीब बता कर उत्पीडक वर्ग उसकी स्थिति और हैसियत को वैध ठहराने में समर्थ होता है। अतः उत्पीड़न का परिणाम, गरीबी की अमानवीय स्थिती पूंजी के अभाव के कारण नहीं है। यह उत्पीडक वर्ग द्वारा लगातार उत्पीडित वर्ग अर्थात आर्थिक एवं समाजिक रूप से कमजोर वर्ग का शोषण किये जाने की वजह से है। पाउलो फ्रेरे आगे कहते है, ‘‘शोषक और शोषित दोनों का अमानुषीकरण मानवीय विडंबना है। इस दो तरफा अमानवीकरण से इंसानी नियति को बचाने की क्षमता एवं जिम्मेदारी शोषक के पास न होकर शोषित की ही है।“ स्पष्ट है शोषक यथास्थिती के बनाए रखने से लाभ की स्थिती में है। वह भला क्यों इस स्थिती में बदलाव लाना चाहेगा? अतः यथास्थिती में बदलाव लाने का जिम्मेदारी उत्पीडित की ही है। पर क्या शिक्षातंत्र के स्तरीकरण के माध्यम से उत्पीड़न तंत्र को चलाए रखने की चेतना उत्पीडित वर्ग (जनसामान्य) की है?

विष्मता (गरीबी) के दुष्चक्र को तोड़ने के लिए रचनात्मक-विवेचनातमक शिक्षा महत्वपूर्ण औजार हो सकता है। पाउलो फ्रेरे के अनुसार शिक्षा भी राजनीति है। जिस तरह राजनीति वर्गीय होती है, उसी तरह शिक्षा भी वर्गीय होती है। शिक्षा के वर्गीय होने का सीधा सा अर्थ शिक्षा के पाठ्यक्रम, पाठ्यचर्या एवं प्रावाधानों का किसी वर्ग विशेष के हितों के अनुरूप होना। शिक्षा के ढर्रे को कक्षाओं ‘समाजिक पूंजी’ के विविध पायादानों पर बैठे व्यक्तियों का भविष्य उनकी ‘स्कूलिंग’ की प्रक्रिया ही तय कर रही है। अब जरा विजय रैना द्वारा हिन्दी में रूपांतरित पुस्तक खतरा स्कूल के “जैसा बाप – वैसा बेटा” अध्याय में चित्र के माध्यम से जो सवाल उठाया गया है। उस सवाल को यदि हम भारतीय स्कूली ढांचे के संदर्भ में देखें तो, सवाल उठता है कि एक जैसे पाठ्यक्रम वाली, विविध समाजिक-आर्थिक हैसियत वाले स्कूली व्यवस्था में पाठ्यचर्या को लागू करने के तरिकों में अंतर की वजह से एक स्तर की कक्षा पास विद्यार्थियों की शैक्षिक उपलब्धियों में संभवतः एक सार्थक अंतर है। यह अंतर स्कूलों के स्तर की विविधता का या विद्यार्थियो की अपनी क्षमता का। इस पर सवालीया निशान है? उच्च शिक्षा में श्रेष्ट इलाकों के श्रेष्ट माने जाने वाले विद्यालयों के विद्यार्थियों का ही प्रवेश देखा गया है। क्यों? हर क्षेत्र के सर्वोच्च पदों जैसे नौकरशाह, प्रोफेसर, प्रबंधक, डॉक्टर, इंजिनियर, सैन्य अधिकारी, यहाँ तक कि लोकप्रिय एवं धनअर्जन करने वाले खेलों के खिलाड़ी तक सभी इसी श्रेष्ट माने जाने वाले स्कूलों के रास्ते आते है या सभी स्तर के स्कूलों की इसमें समान भागीदारी होती है? सिक्यूरिटी गार्ड, हेल्पर आदि की स्कूलिंग किस ढर्रे के स्कूलों में हुई है? निम्न आय वर्ग एवं निम्न स्तर के विद्यालयों के विद्यार्थी कामचलाऊ तौर पर ही साक्षर हो पाते है? अपवाद समाज विज्ञान की वास्तविकता ही नहीं, यथास्थिती को बनाए रखने का सेफ्टीवॉल भी होता है। पर क्या समाजिक यथार्थ यह नहीं कि किसी बच्चे का भविष्य काफी हद तक इस बात पर निर्भर करता है कि वह किस तरह की पृष्ठभूमि से संबंधित है? क्या गली नुक्कड़ के स्कूलों और बढ़ती आबादी की जरूरत के हिसाब से नाकाफी सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले विद्यार्थियों और उन्हीं के समकक्ष उच्च स्तर के निजी और सरकारी स्कूलों(प्रतिभा, केन्द्रीय स्कूलों) में पढ़ने वाले विद्यार्थियों की शैक्षिक गुणवता में अंतर उनके स्कूलों के स्तर में अंतर की वजह से है? यदि हाँ, तो क्या उनकी शिक्षा पर होने वाला अपर्याप्त व्यय एक अपव्यय नहीं और उन विद्यार्थियों के जीवन में स्थाई ठहराव पैदा करने वाला नहीं?

1.10 ‘क्रांतिक न्यूनतम प्रयत्न’ का ‘सामूहिक क्रांतिक न्यूनतम चेतना’ से संबंध

इवान इलिच भी जब डिस्कूलिंग सोसायटी में स्कूलों को भंग करने की बात करते है तो वे वहाँ स्कूल के माध्यम से से एक खास तरह के सांचे में ढ़ालने की प्रक्रिया अर्थात ‘स्कूलड’ पर अंकुश लगाने की बात कर रहे है। वे कहते है, “स्कूल रूपी संस्था इस सिद्धांत पर स्थापित है कि सीखना (स्कूली) शिक्षण का परिणाम है।” और “जिसे हम आजकल ‘शिक्षा’ कहते हैं, वह उपभोक्ता माल है, जिसका उत्पादन ‘स्कूल’ नाम की संस्था द्वारा होता है। इसलिए कोई व्यक्ति जितना अधिक तथाकथित श्रेष्ट विद्यालयों की शिक्षा का उपभोग करता है, उसका अपना भविष्य उसे उतना ही अधिक सुरक्षित महसूस होता है। साथ ही साथ, ज्ञान के पूँजीवादी तंत्र में अपना दर्ज़ा वह उतना ज़्यादा ऊँचा उठाने में सफल रहता है। इस तरह शिक्षा समाज के पिरामिड में एक नया वर्ग बनाती है और जो शिक्षा का उपयोग करते हैं, वे यह दलील पेश करते हैं कि उन्हीं से समाज को ज़्यादा फायदा होगा।जैसा देखा गया है कि नियोजित क्षेत्र की तुलना में, तो अनियोजित क्षेत्र के निजी और सरकारी स्कूलों की स्थिति बदतर हैं। निजी और सरकारी स्कूलों के भी अलग-अलग स्तर हैं। इन स्कूलों में विद्यार्थियों का दाखिला पूर्णतः उनके माता पिता की समाजिक एवं आर्थिक हैसियत का प्रतिफल है। तो क्या हम यह माने कि नियोजित और अनियोजित क्षेत्र के स्कूलों के बीच का अन्तर लोगों के सामाजिक हैसियत के अंतर का प्रतिफल है और उसी को बनाए रखने के लिए है?

माइकल ऐप्पल ‘आधिकारिक ज्ञान’ पुस्तक में कहते है कि शिक्षा की व्यवस्था पर निजी क्षेत्र का दबदबा दक्षिण पंथी सांस्कृतिक वर्चस्व की रणनीतियों का हिस्सा है। स्कूल के भीतर की गतिविधियाँ इस प्रकार से संचालित की जाती है कि वे निजी और व्यावसायिक क्षेत्र के आर्थिक आधार को कायम रखने वाली समाजिक अद्योसंरचना को मजबूत बनाने में सहायक हो।

  • अब उनकी इस बात को भारतीय संदर्भ में देखने का प्रयास करें,
  1. भारतीय संविधान सभा द्वारा शिक्षा को मौलिक अधिकार के खंड से निकाल कर नीति निर्देशक सिद्धान्तों के खंड मे डालना,
  2. संविधान के लागू होने के दस वर्ष के भीतर 0-14 साल के बच्चों की हर भरसक प्रयत्न(न्यूनतम क्रांतिक प्रयत्न) करने के संविधानिक वादे के वावजूद शिक्षाव्यवस्था का जस का तस बना रहना।
  3. कोठारी आयोग(1964-66) की समान विद्यालयी व्यवस्था की अनुशंसा के बावजूद भी, विद्यालयी व्यवस्था का असमान रहना,
  4. 1993 के मोहिनी जैन और उन्नीकृष्णन्न वाद के फैसलों से शिक्षा के मौलिक अधिकार बनने के बाद, अनुच्छेद 45 की भाषा को 86वें संशोधन में संकुचित कर 21A लाना
  5. 21A में शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाने के बावजूद भी विद्यालयों के विविध स्तर का बने रहना,

1.11 निष्कर्ष बिन्दु

किसी भी राष्ट्र की समृद्धि एवं सुव्यवस्था का स्तर सुशिक्षित जनसंख्या का समानुपातिक होता है। आज वे ही देश तरक्की कर रहें है जो वैज्ञानिक(रचनात्मक एवं विवेचनात्मक) एवं तकनीकी रूप से सुशिक्षित है। शहरी गैर नियोजित क्षेत्रों में उन सामाजिक, संथागत एवं व्यवस्थागत बाधाओं के बने रहना चिंता का विषय है, जो वंचित वर्ग के बच्चों की मानवीय क्षमता को सीमित करती है। जो लोग अपने बच्चों को शिक्षक और शैक्षिक सुविधाओं से अभाव ग्रस्त स्कूलों में दाखिला करा रहे है, क्यों नहीं वे लोग समान विद्यालयी व्यवस्था की मांग कर रहे है? दूसरा बड़ा सवाल क्या इतनी घनी अबादी में, अबादी के अनुपात में स्कूल संभव भी है? यदि नहीं, तो लोगों के शैक्षिक अधिकारों की रक्षा के लिए, शिक्षा का अधिकार अधिनियम और शहरी नियोजन अधिनियम कानून के बीच समन्वय की आवश्यकता है। ऐसी स्थिति में सिद्धांतिक रूप से ‘शिक्षा अधिकार अघिनियम 2009’ के लागू होने के बावजूद भी बच्चों को ‘गुणवतापूर्ण शिक्षा’ के अधिकार से वंचित स्थिती में देख कर व्याग्रित है।

लोगों में सामूहिक ‘क्रांतिक न्यूनतम शिक्षाशास्त्रीय चेतना’ के अभाव एवं दक्षिणपंथी राजनीति के सांस्कृति वर्चस्व की वजह से ही शिक्षा में क्रांतिक निवेश की मांग नहीं हो रही है। शिक्षा में विषमता दक्षिणपंथी रूढ़िवादी राजनीतिक एजेंडें के सांस्कृतिक वर्चस्व को कायम रखने की नीति का ही हिस्सा है। सार्वजनिक एवं निजी विद्यालयों का विविध स्तर पाठ्यक्रम, पाठ्यचर्या, पाठ्यपुस्तकों एवं शिक्षण का विविध स्तर इसी सांस्कृतिक वर्चस्व को बनाए रखने का उपकरण है। अतः शिक्षा में क्रांतिक निवेश हो इसके लिए लोगों के शिक्षाशास्त्रीय चेतना को जगाने की जरूरत है।